चैथा प्रवचन-(सत्य का बोध)
12-6-1966 फर्गुसन कालेज पूना।सत्य के संबंध में कल थोड़ी सी बातें मैंने विचार कीं। मैंने आपको कहा, जिसे हम जीवन समझते हैं, जीवन मानते हैं, वह वास्तविक न होकर छाया का जीवन है। और जो व्यक्ति छाया का पीछा करेगा, उसकी उपलब्धि क्या होगी? पहली बात यह है कि छाया का हम कितना भी पीछा करें उसे कभी पकड़ नहीं सकेंगे। असंभव है कि हम छाया को पकड़ लें। और छाया को पकड़ भी लें तो भी हमारी मुट्ठी में क्या होगा, हमारे पास क्या होगा?
यह जो छाया का जीवन है, यह जो शैडो एक्झिस्टेंस है, इसके प्रति यदि हम जाग जाए, और यह हमारे बोध में आ सके कि क्या असार है और क्या सार है, वास्तविक है और क्या काल्पनिक है, क्या स्वप्न है और क्या सत्य है तो जीवन में एक नई दिशा का उदघाटन प्रारंभ होता है। उसके संबंध में थोड़ा सा हमने विचार किया।
आज मैं इस संबंध में आपसे बात करना चाहूंगा, यह जो छाया का जीवन है, यह जो स्वप्न का जीवन है, यह जो अवास्तविक, यह जो असार है, यह किन आधारों पर खड़ा है? यह मन के किन मार्गों पर, मन की किन वृत्तियों पर खड़ा है? क्योंकि चाहे हम स्वप्न देखते हों, और चाहे जाग गए हों, दोनों स्थितियों में हमारा मन रचना कर रहा है, कुछ निर्माण कर रहा है।
हमारे मन की रचना पर ही हमारी जीवन की वास्तविकता या काल्पनिकता निर्भर करती है। हमारा मन ही बहुत गहरे में हमारा संसार है, हमारा मन ही हमारा जगत है, मन ही हमारा होना है। इस मन को जानना, पहचानना जरूर है। तो ही हम इस छाया के जीवन को समझने में समर्थ हो सकेंगे। कुछ थोड़े से बिंदु मैंने आपसे कहे, आज उनके पूरे आधार पर आपसे विचार करना चाहूंगा।
कौन सी बात है जो हमें स्वप्न में ले जाती है? कौन सी बात है जो हमें असार की ओर प्रेरित करती है? निश्चित ही, बहुत प्राथमिक रूप से एक छोटी सी बात है, जो इस सारे जाल के पीछे आधारभूत है और वह यह है कि जो हम हैं उससे अन्यथा, उससे भिन्न, उससे कुछ और हम होना चाहते हैं।
कल रात्रि मेरे पास कोई व्यक्ति आए और उन्होंने मुझसे कहा कि कोई मार्ग बताइए कि लोभ नष्ट हो जाए। मैं मन में सोचता रहा, क्या लोभ को नष्ट करने की कामना लोभ का ही प्रतीक नहीं है? क्या यह भी बहुत गहरे अर्थों में लोभ नहीं है? रोज कोई आता है जो कहता है, हम शांत होना चाहते हैं। और मैं सोचता हूं, क्या शांत होने-चाहते की यह जो वासना है, यही अशांति का कारण नहीं है? जब हम शांत होना चाहते हैं तो अशांति का प्रारंभ हो गया। जब हम अलोभ को पाना चाहते हैं तो लोभ का प्रारंभ हो गया। हम वस्तुतः जो हैं, उसे छोड़ कर कुछ और होना चाहते हैं। कोई वासना, कोई कामना प्रारंभ हो गई। यात्रा शुरू हो गई। छाया की यात्रा शुरू हो गई।
दुखी व्यक्ति सुखी होना चाहता है। आज दुखी है तो कल सुखी होना चाहता है। कल भी न हो सके तो परलोक में सुखी होना चाहता है। इस जन्म में न हो सके तो अगले जन्म में सुखी होना चाहता है। हम जो हैं, उससे हम तृप्त नहीं हैं। हम जो हैं, उससे हमारी स्वीकृति और सहमति नहीं है। हम कुछ और होना चाहते हैं। छोटे वृक्ष बड़े होना चाहते हैं, छोटी कुर्सियों पर बैठे लोग बड़ी कुर्सियों पर बैठना चाहते हैं। दरिद्र धनी होना चाहते है। कुछ हम होना चाहते हैं। एक बात निश्चित है, जो हम हैं उससे भिन्न हमारे भीतर होने की कामना है। सारे छाया का जीवन इस मूल कामना पर खड़ा होता है, मूल तृष्णा पर कि हम कुछ और होना चाहते हैं। और कुछ होना चाहते हैं, यह स्वाभाविक भी मालूम होता है, क्योंकि जैसा हम अपने को पाते हैं, जैसा हम अपने को अनुभव करते हैं, उसमें न तो कोई आनंद प्रतीत होता है, न कोई शांति प्रतीत होती है, न कोई कृतार्थता और धन्यता का अनुभव होता है। जैसे हम हैं, वह पीड़ादायक है, इसलिए कुछ और हम होना चाहते हैं, कुछ ऐसे होना चाहते हैं, जहां पीड़ा न हो, दुख न हो, चिंता न हो। किसी स्वर्ग में, किसी प्रभु के राज्य में हम जाना चाहते हैं, किसी मोक्ष में। फिर चाहे धन इकट्ठा करके हम जाना चाहते हों या पुण्य इकट्ठा करके जाना चाहते हो, बड़े भवन चाहते हों इस पृथ्वी पर, या व्यवस्था करना चाहते हैं स्वर्ग में भवन की मृत्यु के बाद, लेकिन हमारी कामना जो हम हैं, उससे दूर हमें ले जाना चाहते है। और जो हम हैं वह पीड़ा देने वाला है, जो हम हैं वह चिंता पैदा करने वाला है, जो हम हैं वह एक एंग्जायटी है, एक चिंता है, एक संताप है। स्वाभाविक है कि जो हम हैं, अगर यह संताप है, चिंता है, दुख है, पीड़ा है तो हम कुछ और होना चाहेंगे। इससे ही कामना पैदा होती है, वासना पैदा होती है।
लेकिन क्या हमने ठीक से जाना है कि जो हम हैं, जो हमारा होना है, चिंता है, दुख है..क्या अपने पूरे व्यक्तित्व की गहरी से गहरी पर्तों में प्रवेश किया है? क्या हम अपनी सत्ता से पूरी तरह परिचित हुए हैं और यह निर्णय लिया है, जो हूं वह दुख है? नहीं, हमने बहुत ऊपर से ही, बहुत परिधि पर जैसे कोई किसी भवन की बाहर की दीवालें देख कर लौट आए, ऐसा कि हम में अपने व्यक्तित्व के बाहर-बाहर की पर्तों को देख कर यह निर्णय ले लिए हैं। कि बहुत चिंता है, बहुत दुख है, बहुत पीड़ा है। हमने अपने व्यक्तित्व के केंद्र को, हमने अपनी सत्ता के केंद्र को भी जाना नहीं है। बाहर से ही हम लौट पड़े हैं और हम खोज में लग गए हैं अपने को बदलने की। बिना अपनी परिपूर्णता को जाने अपने को बदलने की चेष्टा में संलग्न हो गए हैं।
मैं निवेदन करना चाहूंगा, अपने को पूरा जान लेना बहुत दूसरे अनुभवों पर ले जाता है। अपने स्वयं की सत्ता की समग्रता को जान लेना, बदलाहट की तृष्णा की और परिवर्तन की जो एक आकांक्षा है, उससे मुक्ति ले आता है। जो व्यक्ति अपनी सत्ता की, समग्रता की झलक भी पा लेगा उसे स्वयं को बदलने का, किसी और स्वर्ग को खोजने का, कहीं और पहुंचने का सारा भाव विलीन हो जाएगा। तब वह पाएगा, जो वह है वह पूर्ण है, समग्र है। जो वह है वहां शांति है। वहां आनंद है। जिस मोक्ष की खोज थी, वह वहां मौजूद है। सारी वासना स्वयं को न जानने के कारण पैदा होती है। अज्ञान ही, आत्म-ज्ञान ही वासना का मूल है। फिर जब वह वासना दुख देती है, हम दौड़ते हैं पाने को, और उपलब्ध भी कर लेते हैं। उपलब्ध करते ही पाया जाता है कि जो हमने पाया, वह व्यर्थ हो गया। वासना और आगे चली गई। जो हमने पाया, उसका जो सुख था वह केवल कामना में, आशा में और अपेक्षा में था, उपलब्धि में नहीं।
कवि बायरन हुआ। उसके जीवन में मुझे एक घटना बड़ी महत्वपूर्ण मालूम पड़ती है। बहुत मुश्किल से स्त्रियों को प्रेम करने के बाद वह विवाह करने को एक स्त्री से राजी हुआ। जिस संध्या उसका विवाह हुआ चर्च से अभी-अभी विवाही पत्नी का हाथ पकड़ कर वह सीढ़ियां उतर रहा है। अभी चर्च की घंटियां बज रही हैं, जो उसके विवाह की खुशी में बजीं। और मोमबत्तियां अभी बुझी नहीं हैं, जो कि विवाह के लिए जलाई गई हैं। अपनी पत्नी का हाथ हाथ में लिए है। कल तक पागल था उसे पाने को। चूक जाता तो जीवन भर दुखी होता, पीड़ित होता। आज उसका हाथ उसके हाथ में है, लेकिन उसकी आंख उस पर नहीं है। उसकी आंख सड़क पर जाती एक दूसरी स्त्री की तरफ है। उसे हाथ का सहारा देकर उसने गाड़ी में बिठाया और उसने कहाः कैसा आश्चर्य है! कल तक मेरी दृष्टि तुम पर थी और मैं तुम्हें पाने को पागल था और आज मेरी दृष्टि किसी और पर लग गई है और मेरा मन उसे पाने को पागल है। और जब कि तुम मुझे उपलब्ध हो गई हो, उपलब्ध होने के साथ ही व्यर्थ भी हो गई हो।
शायद ही किसी पति ने पत्नी से पहले ये शब्द कहे होंगे। लेकिन जो इस संबंध में सत्य है, हमारी और सारी उपलब्धियों के बाबत सत्य है। जैसे ही हम पा लेते हैं, जो पा लिया वह व्यर्थ हो जाता है। और पाने की आकांक्षा आगे बढ़ जाती है। यह होगा ही। यह होगा इसलिए कि पाने की कामना में, आशा में, संभावना में, अपेक्षा में सुख है। आशा है कि कुछ मिल जाएगा तो सब मिल जाएगा। लेकिन जैसे ही पाया जाता है, ज्ञात होता है कि हम ठीक वैसे ही दरिद्र, वैसे ही हीन हैं, जैसे पाने के पहले थे। इसलिए दुनिया की कोई संपत्ति, कोई पद, कोई यश, कोई गौरव तृप्ति नहीं देता। जैसे ही हम पहुंचते हैं, पाते हैं, व्यर्थ हो गया।
जैसे कोई क्षितिज की ओर बढ़ना चाहे, जहां आकाश जमीन को छूता हुआ मालूम पड़ता है, तो जितना आगे बढ़ता जाए, उतना ही क्षितिज आगे बढ़ जाता है। वैसे ही तृष्णा दुष्पूर है। जितने हम आगे बढ़ते जाए, पाया जाता है कि तृष्णा और आगे बढ़ गई। तृष्णा कभी पूरी नहीं होती है; नहीं हो सकती है। नहीं हो सकता है इसलिए थक हम छाया के इंद्रधनुष का पीछा कर रहे हैं। इसलिए व्यक्ति कितना ही दौड़े, कितना ही दूसरों को दिखाई पड़े कि उसने कुछ पा लिया है, उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता कि मैंने क्या पा लिया है। जो पा लेता है, वह व्यर्थ हो जाता है और जो न पाया हुआ है वह उसकी आंखों को, उसकी कामना को पकड़े रहता है। अभाव रहता है, और जिसकी सत्ता निकट आ जाती है वह भूल जाता है। वह आंख से ओझल हो जाता है। जो हमारे निकट है, वह भूल जाता है और जो दूर है, वह हमारे मन को पकड़े रहता है। आकर्षण दूर का है। ढोल सुहावने दूर के हैं, निकट आते ही व्यर्थ हो जाते हैं।
तो ऐसे तृष्णा का या वासना का, इच्छा का जो भी फैलाव है वह अंत में निरंतर दौड़ कर और असफल होकर मनुष्य को ज्ञात होता है कि वही उसकी चिंता, वही उसका दुख, वही उसकी पीड़ा है। कोशिश करते हैं, पाते हैं, और फिर पाते हैं कि कुछ भी नहीं पाया। हर बार यही असफलता, मन डूबता चला जाता है और विषाद से भरता चला जाता है। इस विषाद में, इस चिंता में और जोर से पाने की कोशिश में लगते हैं, लेकिन इस बात को नहीं देख पाते कि पाने की यह कोशिश ही सारे दुख को और सारी पीड़ा को पैदा कर रही है। और इस पाने की दौड़ के पीछे जैसा मैंने आपको कहा, स्वयं को न जानने की स्थिति है। यदि हम जान सकें तो तृष्णा विलीन हो जाएगी, क्योंकि तब जो हम होंगे, जो हमारा वास्तविक होना है, जो हमारा ऑथेंटिक बीइंग है वह हमारी परम तृप्ति और परम शांति होगी।
छाया का जीवन यदि व्यर्थ दिखाई पड़े, यह दौड़ अगर व्यर्थ दिखाई पड़े तो कुछ क्रांति संभव हो सकती है। लेकिन अधिक लोगों को यह दिखाई नहीं पड़ता। जिन थोड़े से लोगों को इसकी थोड़ी सी अनुभूति शुरू होती है वे कुएं से बेचते हैं और खाई में गिर जाते हैं। वे इच्छा के विरोध में चलना शुरू कर देते हैं, तृष्णा के विरोध में चलना शुरू कर देते हैं। एक तो वे लोग हैं जो कुछ पाने के लिए दौड़ रहे हैं, फिर दूसरे वे लोग पैदा हो जाते हैं जो कुछ खोने के लिए, त्यागने के लिए, कुछ छोड़ने के लिए दौड़ने लगते हैं। ये दोनों ही तृष्णा के दो पहलू हैं। भोग और त्याग तृष्णा के ही दो अंग हैं। गृहस्थ और संन्यासी तृष्णा के ही दो सिक्के हैं। एक तरफ हम पाने को दौड़ते हैं। फिर ज्ञात होता है कि कुछ उपलब्ध नहीं होता; दुख पीड़ा, असफलता और विषाद, तो हम सोचते हैं, छोड़े। तब हम छोड़ने को दौड़ने लगते हैं। यह वासना की ही प्रतिध्वनि है। यह भी छाया का जीवन है। वासना छाया का जीवन है। जिसे हम कहते हैं, त्याग, जिसे हम कहते हैं विरक्ति, जिसे हम कहते हैं छोड़ना, वह भी वासना की ही प्रतिध्वनि है। और दोनों तरफ से वासना मन को पकड़े रहती है। एक आदमी धन इकट्ठा करने के लिए पागल है, फिर दूसरा आदमी धन छोड़ने के लिए पागल हो जाता है। वासना ने विपरीत और विकृत रूप ले लिया। वासना को हमने पीछे हटा दिया लेकिन वासना ने पीछे से हमें पकड़ लिया।
एक छोटी सी कहानी मैं पढ़ता था। किसी घर में रात को देर तक, वह जो गृहिणी है उसमें और जो गृहपति हैं, बहुत विवाद हुआ, बहुत झगड़ा हुआ। घर था मध्यवर्गीय और पत्नी एक बहुत महंगी साड़ी खरीद लाई थी। वह उनकी हैसियत के बाहर थी। पति उसे लौट कर सांझ को ही देख कर घबड़ा गया और उसने कहाः यह तुमने क्या किया? उस स्त्री ने कहाः मैंने भी अपने को बहुत समझाया, बट दि डेविल टेम्पटेड मी। लेकिन शैतान था कि वह मुझे उत्प्रेरित करने लगा कि खरीद लो। मैंने बहुत इनकार किया, लेकिन शैतान पीछे पड़ गया और कहने लगा, खरीद लो। तो पति ने कहाः तुमने क्यों न कहा शैतान से कि पीछे हट जा? जैसा कि क्राइस्ट ने शैतान से कहा था कि पीछे हट जाओ, साधु-संत कहते रहे हैं शैतान से कि पीछे हट जाओ। तुझे जोर से कहना था कि शैतान, पीछे हट जाओ। पत्नी ने कहाः यही तो मुसीबत हो गई। यही कह कर तो मैं मुश्किल में पड़ गई। मैंने शैतान से कहाः शैतान, पीछे हट। शैतान पीछे हट गया, लेकिन उसने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा और उसने कहाः प्रिय पीछे से तो साड़ी बहुत अच्छी लगती है। यही तो मुसीबत हो गई कि मैंने शैतान से कहा कि पीछे हट जाओ। सामने से तो लड़ना भी संभव था, पीछे से लड़ना भी मुश्किल हो गया। सामने से तो मैं भी साड़ी को देखती थी, पीछे से मुझे देखना भी संभव नहीं था। और तब मैं टेम्पटेशन में पड़ गई और तब मुझे यह साड़ी खरीदनी पड़ी।
बहुत से लोग शैतान को कहते हैं, पीछे हट जाओ, लेकिन शैतान पीछे से और आसानी से पकड़ लेता है। बहुत से लोग वासना से कहते हैं, पीछे हट जाओ और तब वासना पीछे से और भी आसानी से पकड़ लेती है। लेकिन सामने से वासना देखी भी जा सकती है, पीछे से दिखाई भी नहीं पड़ती है। कुएं से बचते हैं और खाई में गिर जाते हैं। एक आदमी धन को पाने के लिए दौड़ता रहता है, धन इकट्ठा करता रहता है। करते-करते उसे अनुभव में आता है, ख्याल में आता है कि यह तो दौड़ व्यर्थ है, कुछ भी पाया नहीं। वह धन छोड़ने की दौड़ में पड़ जाता है, तब वह धन छोड़ने लगता है। और वह सोचता है कि मैं कुछ बड़ी महत्वपूर्ण उपलब्धि कर रहा हूं।
थोड़ा विचार करिए, अगर धन को पाने से कुछ नहीं मिला तो धन को छोड़ने से कुछ कैसे मिल जाएगा। धन को पाने से भी जब नहीं मिलता तो धन को छोड़ने से कैसे मिल जाएगा? जिसके पाने में कुछ नहीं मिलता उसके छोड़ने में तो और भी कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन यहां शैतान पीछे हो जाता है और खतरनाक हो जाता है। धन हमारे पास हम इकट्ठा करते जाते हैं और अनुभव करते हैं, कुछ भी नहीं मिलता। लेकिन धन हम छोड़ने लगते हैं तो ऐसा लगता है कि त्याग हो रहा है, पुण्य हो रहा है, परमात्मा प्रसन्न हो रहा है। और अहंकार की बहुत सूक्ष्म तृप्ति और संतृप्ति होनी शुरू हो जाती है। अहंकार का पोषण होना शुरू हो जाता है..मैंने छोड़ा, मैंने त्याग किया। इसलिए सामान्यता गृहस्थ से भी संन्यासी का अहंकार गहरा, प्रगाढ़, बहुत पुष्ट, बहुत पैना हो जाता है। बहुत सूक्ष्म हो जाता है, लेकिन बहुत पैना। उससे छुटकारा कठिन हो जाता है। संन्यासी हूं, मैंने त्यागा है, यह भाव पकड़ने लगता है। थोड़ा विचार करने के लिए जरूरी है, अगर धन का, अगर तृष्णा का कोई मूल्य नहीं तो तृष्णा के त्याग का तो और भी कोई मूल्य नहीं होगा। इसलिए मैं आपसे कह रहा हूं कि अगर वासना की भूल दिखाई पड़ती है तो हम वासना को छोड़ने की भूल में पड़ जाते हैं।
और मनुष्य का मन एक एक्सट्रीम से दूसरी एक्सट्रीम पर, एक अति से दूसरी अति पर बहुत जल्दी चला जाता है। भोगी बहुत जल्दी त्यागी हो जाता है। हिंसक बहुत जल्दी अहिंसक हो जाता है, अधार्मिक बहुत जल्दी धार्मिक हो जाता है, पापी बहुत जल्दी पुण्यात्मा हो जाता है। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। जैसे घड़ी को पेंडुलम एक कोने से ठीक दूसरे कोने में चला जाता है, बीच में नहीं रुकता, दूसरे कोने से फिर ठीक पहले कोने में चला जाता है। पेंडुलम की भांति मनुष्य का मन अतियों में डोलता है। जो आदमी अति भोजनप्रिय है वह किसी दिन अति उपवासा हो सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। ये एक ही चीज की दो अतियां हैं। जो आदमी स्त्रियों के पीछे पागल होकर दौड़ रहा है, वह स्त्रियों को छोड़ने के पीछे पागल हो सकता है। लेकिन दोनों बातें एक ही चीज के अंग हैं, एक ही तृष्णा के हिस्से हैं। यह समझ लेना बहुत आवश्यक है कि ये दोनों एक ही वासना के दो हिस्से हैं। भोग और त्याग पृथक बातें नहीं हैं, भोग की छाया त्याग है।
सारे जगत में अधिकतर दो ही तरह के लोग हैं, दो ही तरह की चित्त की अवस्थाएं हैं..या तो भोगवादी है, या त्यागवादी है। मेरी दृष्टि में दोनों ही रुग्ण, दोनों ही बीमार हैं। स्वस्थ मनुष्य न तो भोगवादी होता है, न त्यागवादी होता है। स्वस्थ मनुष्य न तो इस ख्याल से पीड़ित होता है, इस वासना से कि धन या यश अगर मैं कम लूं तो कुछ मिल जाएगा, न दूसरी वासना से पीड़ित होता है कि इन्हें अगर छोड़ दूं तो कुछ मिल जाएगा। उसे एक नये और तीसरे बिंदु का अनुभव शुरू होता है। त्याग और भोग दोनों से पृथक एक तीसरे सत्य के प्रति उसका जागरण शुरू होता हूं।
उस तीसरे सत्य के प्रति तो मैं कल आपसे चर्चा करूंगा। आज मैं इन दो अतियों के बाबत स्पष्ट रूप से आपसे कुछ और कहना चाहूंगा। जो भोग में पड़ा है, उसे त्याग आदरणीय मालूम होगा। स्वाभाविक है। उसे लगेगा कि मैं तो दुख और संसार में उलझा हूं। जो लोग संसार को छोड़ कर भाग रहे हैं, वे धन्य हैं। लेकिन उसे पता नहीं कि वे मेरे ही जैसे लोग हैं..मेरे ही जैसे मन के, मेरी ही जैसी वासनाओं के, केवल मुझसे विपरीत दिशा में उन्होंने चलना शुरू कर दिया है। उनके अतः केंद्र पर कोई क्रांति नहीं हुई है, केवल उनकी दिशाएं बदल गई हैं। एक आदमी संसार की ओर भागा जा रहा है, और एक आदमी संसार छोड़ कर भागा जा रहा है..दोनों संसार से बंधे हुए हैं, दोनों के लिए संसार अर्थपूर्ण है, दोनों के जीवन का अतः संसार है। एक छोटी सी कहानी से शायद आपकी समझ में आए।
एक सुबह एक जंगल से एक व्यक्ति लकड़ियां काट कर अपने घर की ओर लौट रहा है। बहुत सज्जन है, बहुत साधुमना है, बहुत जीवन में त्याग को प्रतिष्ठा दी है, संपत्ति के मोह को छोड़ा है, परमात्मा के ही स्मरण में सारे जीवन को लगाया है। लेकिन इधर चार-पांच दिनों से वर्षा थी, और वह लकड़ियां नहीं काट सका, लकड़ियां काटता, बचता और भोजन करता। न भिक्षा मांगता था, न संपत्ति पास में रखता था इसलिए पीछे पांच-सात दिन भूखे रहना पड़ा। पांच-सात दिन की भूख के बाद लकड़ियां काट कर थका-मांदा, कमजोर, लकड़ियों के बोझ को लिए हुए जंगल से वापस लौट रहा है। राह के बिल्कुल किनारे उसे थैली पड़ी हुई दिखाई पड़ती है। कुछ मुद्राएं बाहर पड़ी हैं, कुछ थैली के भीतर हैं। एकदम से उसके मन को लगता है, मैंने तो स्वर्ण पर विजय पा ली है। मेरी पत्नी पीछे आ रही है, कहीं उसका मन न डोल जाए। भूख, गरीबी, दरिद्रता..कहीं एक क्षण उसने मन में ख्याल न आ जाए। जल्दी से उसे गड्ढे में डाल कर उस थैली को मिट्टी से पूर दिया। पूर भी नहीं पाया है कि पत्नी पीछे आ गई और उसने पूछा कि आप क्या करते हैं? असत्य न बोलने का नियम था, उसे कहना पड़ा कि स्वर्ण की कुछ मुद्राएं थीं, उन्हें देख कर मेरे मन को हुआ कि मैंने तो स्वर्ण को जीत लिया है लेकिन कहीं तुम्हारे मन में कोई आकांक्षा पैदा न हो जाए, कोई वासना पैदा न हो जाए मुद्राओं को उठाने की। इसलिए मैंने उन्हें गड्ढे में डाल कर पूर दिया। उसकी पत्नी ने कहाः मुझे आश्चर्य है कि तुम्हें अभी स्वर्ण दिखाई पड़ता है। और मुझे आश्चर्य है कि तुम मिट्टी के ऊपर मिट्टी डालने में थोड़ी भी शर्म अनुभव नहीं कर रहे थे।
ये दो अलग स्थितियां हैं। एक है स्वर्ण के त्याग की, लेकिन स्वर्ण दिखाई पड़ता रहेगा। क्योंकि बहुत गहरे में स्वर्ण की कामना शेष बनी रहेगी। ऊपर से छूट जाएगा, भीतर आकांक्षा बनी रहेगी। ऊपर से छूट जाएगा, भीतर आकांक्षा बनी रहेगी। ऊपर से जबरदस्ती छोड़ा जाएगा इसलिए भीतर आकांक्षा और बलवती हो जाएगी। ऊपर से दमन किया जाएगा, वासना को जबरदस्ती तोड़ा जाएगा। जैसे कोई कच्चे पत्तों को उखाड़ ले। जबरदस्ती की जाएगी मन के साथ, इसलिए मन उसके विरोध में निरंतर सक्रिय और असंलग्न रहेगा। स्वर्ण का विरोध बनाए रखना पड़ेगा। स्वर्ण को गाली देनी पड़ेगी। कामिनी कांचन की निरंतर गाली देनी पड़ेगी, निरंतर दमन करना पड़ेगा। निरंतर मन को समझाना पड़ेगा कि बुरा है, पाप है, बचो। निरंतर सावधानी बरतनी पड़ेगी। फिर भी, मन के भीतर बहुत गहरे में रस कायम रहेगा। दमन से, विरोध से, त्याग से वस्तुएं छूट सकती हैं, रस विलीन नहीं होता; नहीं हो सकता है। रस के विलीन करने का यह नियम भी नहीं है। बल्कि जितना भी दमन तीव्र होगा उतना ही ज्यादा रस गहरा, सूक्ष्म और प्राणों के बहुत अंतस्तलों में प्रविष्ट हो जाएगा।
तो जिन कामनाओं से साधारण जन ऊपर-ऊपर व्यथित और पीड़ित होता है, उन्हीं कामनाओं से तथाकथित संन्यासी बहुत गहरे में पीड़ित और व्यथित रहने लगता है। दमन इतना तीव्र भी हो सकता है कि उसका अचेतन मन, उसका कांशस माइंड उसको जानने में भी असमर्थ हो जाए। वह इतना तीव्र दमन हो सकता है कि बहुत गहरे अचेतन में ही उसे खुद भी बोध न रहे। उसकी वासनाएं सरकने लगें, कभी सपनों में उनकी झलकी मिल जाए, या कभी नशा कर ले तो उनका पता चले, लेकिन सामान्यतः उनका पता चलना बंद हो जाए। और इसीलिए साधु नींद से डरने लगते हैं, क्योंकि नींद में जो दबाया है वह सपनों प्रकट होने लगता है। साधु डरने लगता है नींद से..कम नींद हो, कम से कम नींद हो। क्योंकि दिन भर तो वह उसके सचेत मन में, उसके चेतन में उसे पता नहीं चलता कि वासनाएं हैं। लेकिन जब रात शिथिल होकर सो जाता है। शिथिल होते ही मन का नियंत्रण ढीला होते ही, वासनाओं के वेग उठने शुरू हो जाते हैं। तो जो पाप सामान्य मनुष्य दिन में करता है, वही पाप दमन किया हुआ व्यक्ति रात के अंधेरे में सपनों में कर लेता है। लेकिन पाप करने में कोई भेद नहीं है। जो बुराइयां और कामनाएं और वासनाएं दिन में घेरती हैं वे उसे रात सपने में घेर लेती हैं। मन का काम पूरा हो जाता है। मन के काम में कोई भेद नहीं पड़ता।
यह जो दमन की, तथाकथित त्याग की, रिनन्सिएशन की, छोड़ कर भाग जाने की जो वृत्ति है, यह वासना का ही दूसरा रूप है। और एक ओर से बचकर अगर हम दूसरी ओर गिर जाएं तो कोई क्रांति, कोई परिवर्तन नहीं होता, बल्कि हमने केवल कंधे बदल लिए हैं। जैसे लोग मुर्दे को मरघट ले जाते हैं, एक कंधा थक जाता है तो दूसरे कंधे पर बांस को रख लेते हैं। फिर दूसरों थक जाता है तो दूसरे पर बदल लेते हैं। कंधे बदल लेने से वजन समाप्त नहीं होता। थोड़ी देर हल्का मालूम हो सकता है। कंधा बदलना है। अगर जबरदस्ती हम वासनाओं के विरोध में खड़े हो जाएं..वासना की असफलता वासना के विरोध में ले जाए तो बात व्यर्थ हो गई।
फिर क्या हो? दो ही बातें सामने दिखाई पड़ती हैं..या तो भोग दिखाई पड़ता है, या त्याग। दो ही विकल्प मालूम होते हैं..या तो अहंकार दिखाई पड़ता है, विनम्रता। अहंकार बुरा है, ऐसा अनुभव में आता है तो हम विनम्र होने में लग जाते हैं। कोशिश करते हैं कि विनम्र हो जाए, विनीत हो जाए, लेकिन क्या विनीत मनुष्य के अहंकार से आप परिचित हैं? क्या जो बहुत विनीत हो गया मनुष्य है, उसके भीतर आपको अहंकार के दर्शन नहीं होते? क्या जो कहता है कि मैं बिल्कुल विनम्र हूं, उसके भीतर अहंकार मौजूद नहीं है? अहंकार व्यर्थ मालूम होता है तो विनम्रता का आरोपण हम शुरू कर देते हैं। अहंकार असफल मालूम पड़ता है, पीड़ा देता मालूम होता है तो सोचते है, अहंकार से विपरीत कोई बात पकड़ लें। हिंसा पीड़ा देती है तो अहिंसा को पकड़ लें, घृणा पीड़ा देती है तो प्रेम को पकड़ लें। लेकिन जो मन घृणा से भरा हुआ है, वह प्रेम कैसे कर सकेगा। और अगर प्रेम की चेष्टा करेगा तो वह चेष्टा झूठी होगी, आरोपित होगी, ऊपर से लादी गई होगी।
कल मैंने थोड़ा सा रात्रि में इस संबंध में कहा कि चेष्टित प्रेम झूठा हो जाएगा, अभिनय हो जाएगा। चेष्टित विनम्रता भी झूठी हो जाएगी। चेष्टित त्याग भी झूठा हो जाएगा। और तब यह त्याग भी वासना का ही छिपा हुआ रूप होगा और यह शैतान पीछे से पकड़ लेगा। सामने से पकड़ने में फिर भी लड़ाई आसान थी। पीछे से पकड़ने में लड़ाई बहुत कठिन और मुश्किल हो जाएगी। इसीलिए जो त्यागी हैं, तथाकथित त्याग से परिचित हैं, वे सारे लोग उस त्याग के पुरस्कार में भोग की ही कोई कामना करते रहते हैं। बैकुंठ में, स्वर्ग में, बहिश्त में भोग की ही कामना करते रहते हैं। वहां कल्पवृक्षों का निर्माण करते रहते हैं। वहां अप्सराओं, हूरों की व्यवस्था करते रहते हैं। वहां शराब के झरने बहाते रहते हैं। वहां अनंत यौवन, अनंत सुख की कल्पना करते रहते हैं। वे लोग जो यहां त्यागी मालूम पड़ते हैं, अंत में उस त्याग के पुरस्कार में भोग की ही आकांक्षा करते हैं। तो यह त्याग जरूर छिपा हुआ भोग होगा।
बोधिधर्म नाम का एक भिक्षु भारत से कोई चैदह सौ वर्ष पहले चीज गया। वहां वू नाम के सम्राट ने उसका स्वागत किया। राज्य की सीमा पर आकर बोधिधर्म के स्वागत में उसने बड़ा समारोह किया। समारोह के बाद निपट जाने पर संध्या को विश्राम के समय वह बोधिधर्म के चरणों में बैठा। उसने पूछाः मैंने इतने विहार बनवाए, इतनी भगवान की मूर्तियां निर्मित करवाई, इतने भिक्षुओं को भोजन देता हूं, इतने धर्मग्रंथ प्रकाशित करवाए, इस सब पुण्य का फल क्या होगा? सभी पुण्यात्मा यही पूछ रहे हैं कि इस पुण्य का फल क्या होगा?
मैं गंगा के किनारे पीछे गया था एक यज्ञ में, वहां एक बड़े साधु लोगों को समझा रहे थे कि यहां गंगा के किनारे जो एक रुपया दान करता है, भगवान उसे हजार रुपये देना है। लोग दान भी कर रहे थे। एक रुपये के बदले में हजार रुपये मिलते होंगे तो कोई नासमझ होगा, जो दान नहीं करेगा? सारे धर्म यह समझाते रहे हैं कि जो यहां त्याग करता है, वहां उपलब्ध करता है। तो जो पागल होंगे, जो यहां, त्याग न करें वहां उपलब्ध न कर लें। जिनके मन में लोभ गहरा है वह जरूर त्यागी बन जाएंगे क्योंकि लोभ, पुरस्कार, संभावना, सुरक्षा वह सब उनके मन को पकड़ लेगी।
बोधिधर्म से उस राजा ने कहाः क्या फल होगा? बोधिधर्म बोलाः कुछ भी नहीं। राजा हैरान हुआ होगा। संन्यासी ऐसी बात कभी नहीं बोलते हैं। फल बहुत बढ़ाकर बताते हैं कि क्या फल होगा, क्योंकि उसी के बल पर संन्यासी जीते हैं। आपके त्याग के बल पर वे जीते हैं आप भोग के लिए त्याग करते हैं। लेकिन बोधिधर्म ने कहाः कुछ भी नहीं। विपरीत तुम्हें यह ख्याल पैदा हुआ तो पाप हो गया और हानि हो गई।
वू बहुत परेशान हुआ, राजा बहुत परेशान हुआ। उसने कहाः आप यह कहते क्या हैं? तो मैंने यह सब किया, बेकार गया? बोधिधर्म ने कहाः बिल्कुल मिट्टी में गया, पानी में गया, सब बेकार गया। और नुकसान यह हो गया कि तुम्हें ख्याल पैदा हो गया कि मैंने कुछ किया है। मैंने कुछ धर्म किया है।
वह जो आदमी सुबह मंदिर हो आता है, वापस आ जाता है, सोचता है, मैंने धर्म किया है। पच्चीस कदम गए, पच्चीस कदम लौटे, एक दफा सिर नीचे पत्थर पर पटका और तय हो गया कि मैंने धर्म किया है। एक आदमी सुबह से एक किताब को खोल कर बैठ जाता है, वह पांच पंक्तियां पढ़ लेता है, नमस्कार कर लेता है, सोचता है, मैंने धर्म किया है। एक आदमी जनेऊ डाल लेता है, कान में लगा लेता है, सोचता है मैंने धर्म किया है, एक आदमी कुछ और राम-राम का नाम ले लेता है, सुबह से उठ कर सोचता है, मैंने धर्म किया है।
बहुत रास्ते में धार्मिक होने का मजा ले लिया जाता है और अहंकार की तृप्ति हो जाती है। एक आदमी कुछ थोड़ा छोड़ देता है, दान कर देता है, या बहुत ज्यादा, सोचता है कि मैं धार्मिक हो गया। इस सबके पीछे आकांक्षा है। इसलिए धर्मग्रंथों को आप पढ़ेंगे तो उनमें त्याग का भी वर्णन है और साथ में क्या-क्या पुरस्कार मिलेगा, उसका भी। पुरस्कार की बहुत बढ़ा-चढ़ा कर व्यवस्था की गई है। और जो त्याग न करेंगे, उनको दंड क्या मिलेगा, उसका वर्णन है। और जो भी करेंगे, उनके लिए क्या दंड मिलेगा, उसका भी वर्णन है। उनके लिए भी नरकों की व्यवस्था है और उनके लिए जो पुण्य करेंगे, त्याग करेंगे, स्वर्ग की व्यवस्था है। क्या इसके कारण हमारा लोभ मन प्रभावित नहीं हो जाता होगा? और क्या उस लोभ के पीछे ही हम मंदिर धर्मशालाएं बनाते हैं? क्या उस लोभ के पीछे ही हम दान भी करते हैं। लेकिन यह कोई मन की क्रांति नहीं है। यह वही भोग है जो नये रूप में खड़ा हो गया है। यह वही भोग है। यह भोग की ही दूसरी परिणति है। यह भोग का ही दूसरा रूपांतरण है।
भोग और त्याग दोनों ही मार्ग नहीं हैं। भोग भी बंधन है और त्याग भी बंधन है; क्योंकि दोनों में ही वासना, सूक्ष्म वासना काम कर रही है, कुछ और होने की वासना काम कर रही है। अभी एक संन्यासी मुझे मिले। वे मुझसे कहने लगे, कुछ भी हो जाए, इसी जीवन में मुक्त होना है। मैंने उनसे पूछाः ऐसी जल्दी भी क्या है? और आखिर आपको मुक्त होना ही चाहिए, इसकी जरूरत भी क्या है? और इसी जन्म में क्यों? और क्या कभी आप सोचते हैं कि यह वही मन है जो कहता है कि करोड़ रुपए होने चाहिए; जो कहता है, बड़ा भवन होना चाहिए; जो कहता है, बहुत गाड़ियां होनी चाहिए; जो कहता है, बहुत बड़ा पद होना चाहिए; प्रधानमंत्री हो जाऊं कि राष्ट्रपति हो जाऊं कि कुछ और हो जाऊं जो यह कहता है, क्या यह वही मन नहीं है, जो कहता है कि मोक्ष पा लूं, भगवान को पा लूं, बैकुंठ में स्थान बना लूं, सिद्धशिला पर विराजमान हो जाऊं..क्या यह वही मन नहीं है? क्या वही ठीक चित्त की दशा नहीं है? यह कोई क्रांति न हुई। यहां के पद छूटते हैं तो वहां मोक्ष के पद शुरू हो जाते हैं। यह वही मन का रूप है जो चाहता है कि मैं कुछ हो जाऊं। और यह छोटा लोभ नहीं है। इसलिए मैंने कहाः कुएं से बच कर खाई में गिर जाना है। क्योंकि जो आदमी कहता है कि मैं बड़े पद पर हो जाऊं, मिनिस्टर हो जाऊं, राष्ट्रपति हो जाऊं, इसका लोभ फिर भी सीमित है। क्योंकि कितने दिन राष्ट्रपति रहेगा? वर्ष, दो वर्ष, पचास वर्ष, फिर? फिर मौत सब मिटा देगी। लेकिन लोभी का जब मन बहुत बहरा हो जाता है तो वह ऐसा मोक्ष पाता है जो अनंत हो, फिर जिसका कभी अंत ही न आए। ऐसा पद चाहता है, परम पद कि फिर उसका कोई अंत न हो, फिर वह सदा सुख में और सदा शांति में विराजमान रहे। अमर आत्मा हो, शाश्वत अनंत मोक्ष हो। उसमें प्रतिष्ठित होना चाहता है, उसमें प्रवेश पाना चाहता है। यह वही आदमी है, लाभ बड़ा हो गया। यह वही गृहस्थ है संन्यास के नाम से। इसका लोभ, अहंकार अनंत हो गए, बहुत अनेक गुण बड़े हो गए। यह कोई क्रांति मन की नहीं है।
लोभ और अलोभ, और यह भोग और त्याग भिन्न बातें नहीं हैं, ये विरोधी बात नहीं हैं। विरोधी दिखती हैं, लेकिन एक ही बात है। भिन्न नहीं हैं क्योंकि दोनों के भीतर एक ही चित्त काम करता है। यह देखना, अनुभव करना, विचार करना, विश्लेषण करना जरूरी है। नहीं तो बहुत स्वाभाविक है, तृष्णा व्यर्थ मालूम पड़े तो हम तृष्णा के विरोध के मार्ग पर चले जाए। बहुत स्वाभाविक है। बहुत स्वाभाविक। कामना व्यर्थ मालूम पड़े तो तुम अकाम होने की चेष्टा में लग जाए। सेक्स दुखद और पीड़ित मालूम पड़े तो हम ब्रह्मचर्य को थोपने की कोशिश में संलग्न हो जाए। लेकिन ऐसे ब्रह्मचर्य के भीतर भी सेक्सुअलिटी, कामुकता कायम रहेगी, यह हमें दिखाई नहीं पड़ता। यह तथाकथित जो भेद है, गहरा नहीं है, बहुत ऊपरी है।
मैं एक साध्वी के पास था। समुद्र की हवा चलती थी। मेरा चादर उड़ता था और साध्वी को छूता था। उनके प्राण कंप गए। उनके चेहरे पर मुझे लगा कि वे बातें तो आत्मा की कर रही हैं लेकिन चद्दर मेरा उन्हें बहुत तकलीफ दे रहा है। लेकिन मैंने कहा, हवाएं चलती हैं, चलने दो। हवाएं चद्दर को उड़ाती है, उड़ाने दो, अपना क्या वश है? चादर उन्हें छूता गया। फिर मेरे पास कोई जानकार थे, पंडित थे, उन्होंने मेरा चादर रोका और कहा कि आपको इतना भी ख्याल नहीं है? पुरुष का चद्दर साध्वी को छू रहा है, उन्हें बड़ा पाप लग रहा है। उन्हें बड़ी मुश्किल हो रही है। मैंने उन साध्वी को पूछा कि आप आत्मा की बातें कर रही है और आप कह रही कि हम शरीर नहीं हैं, लेकिन मेरा चद्दर, चूंकि मैं ओढ़े हुए हूं इसलिए वह चद्दर भी पुरुष हो गया? वह चद्दर भी! उसमें भी सेक्स प्रविष्ट हो गया, वह भी पुरुष और स्त्री हो गया! और मेरा चद्दर चूंकि आपको छू रहा है, आपके चेहरे हर घबड़ाहट और बेचैनी है। यह घबड़ाहट और बेचैनी भीतर छिपी हुई कामुकता का प्रतीक नहीं है? क्या भीतर बहुत गहरे में सेक्सुअलिटी नहीं बैठी है? सेक्सुअलिटी जब बहुत गहरे में बैठ जाए तो पुरुष का हाथ छूने की जरूरत नहीं है। पुरुष का चद्दर भी छुए तो भीतर वासना लहरें लेना शुरू कर देगी। कामना उठना शुरू कर देगी। जब बहुत गहरे में, ऊपर से दबा लिया जाए और कामुकता बहुत गहरे में बैठ जाए तो पुरुष का स्पर्श मात्र या स्त्री का स्पर्श मात्र बहुत वासना को जगाने लगेगा।
आत्मा की बातें हैं, शरीर हम नहीं हैं, इसका विचार है, और चद्दर भी परेशान कर देती है तो फिर इसमें कोई संगति दिखती है? इन सारे चिंतनों में कोई अर्थ दिखता है? यह तथाकथित ब्रह्मचर्य, थोपा हुआ ब्रह्मचर्य सेक्सुअलिटी का ही, उसकी ही विकृत रूप है; उसका ही दबाया हुआ रूप है। इसलिए घबड़ाहट, इसलिए बेचैनी और परेशानी है। इसलिए सारी परेशानी है, इसलिए सारी दिक्कत है।
एक बुद्ध के जीवन में उल्लेख है। वे एक पहाड़ के किनारे, वृक्ष के नीचे बैठ कर सुबह-सुबह के ध्यान के बाद उठे थे। सूरज उगा हुआ था। कोई भागता हुआ उनके सामने से निकला। पीछे से कुछ लोग और भागते हुए आए। गांव के कुछ युवक एक वेश्या को पकड़ कर ले आए थे जंगल में। वेश्या भाग गई थी और युवक उसे खोजने निकले। देखा, एक भिक्षु बैठा है। उससे पूछा कि क्या आपने यहां से किसी वेश्या को जाते देखा? बुद्ध ने कहाः वेश्या को? कोई निकला जरूर, वेश्या थी या नहीं, कहना कठिन है। उन्होंने पूछाः किसी स्त्री को जाते देखा? बुद्ध ने कहाः कोई निकला जरूर, स्त्री थी कि पुरुष था, कहना कठिन है। तो उन्होंने कहाः करते क्या हैं यहां बैठे? सभी कुछ कठिन है। तो बुद्ध ने कहा, जब तक मैं पुरुष था तब तक बाहर स्त्री दिखाई पड़ती थी। जब तक मैं पुरुष था तब तक बाहर स्त्री दिखाई पड़ती थी। वह मेरी कामना थी, जो स्त्री को दिखाती थी। अब तो लोग दिखाई पड़ते हैं, स्त्री और पुरुष नहीं। और जब मैं गौर से देखता हूं तो मुझे हड्डियां दिखाई पड़ती हैं, मांस दिखाई पड़ता है, और तो वहां कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। तो हड्डियां का एक ढेर यहां से गया। और बुद्ध ने कहाः मित्रों, क्या उचित न होगा कि तुम उसकी खोज में जाओ, उससे ज्यादा उचित न होगा कि तुम अपनी खोज करो? क्या यह उचित है कि तुम उसकी खोज में जाओ या कि यह कि तुम अपनी खोज करो? तुम इतने चिंतित हो गए हो कि कोई तुम जिसे लाए थे, भाग गया। और तुम इसके लिए जरा भी चिंतित नहीं हो कि तुम्हारा खुद, तुम्हारी खुद की सत्ता तुमसे भागी हुई है और तुम्हें उसका कोई पता नहीं है।
हम सारी दुनिया में किसी और को खोजने में लगे हैं और अपनी खोज में नहीं हैं। और जब यह खोज बदलती भी है तो जिसे हम खोजने में लगे थे उससे हम भागने में लग जाते हैं। इलूजन, वह भ्रम कायम रहता है। जिसे हम खोजने जा रहे थे..समझ लें कि ये युवक थे, बुद्ध ने कहाः उचित है कि तुम अपने को खोजो वेश्या को खोजने से, उस स्त्री को खोजने से, या जिसको भी तुम खोजने निकले हो, उसको पता लगाने से क्या प्रयोजन है? तो युवक कहें कि बात तो ठीक है, जिस वेश्या को हम खोजने निकले थे, अब उचित होगा कि उससे दूर भागने में लग जाए। अब हम भागें और पता लगाए कि वेश्या कहां नहीं है, उन्हीं दिशाओं में जाए। तो हम इनको कहेंगे, ये पागल हैं। वेश्या को खोजते थे तो पागल थे, अब पागलपन ने दूसरा रूप ले लिया कि अब जहां-जहां से वेश्या हो, वहां-वहां से भागना है। अब यह दूसरा पागलपन, यह दूसरी इनसेनिटी, दूसरी मैडनेस शुरू हुए। एक पागलपन था कि जहां-जहां वेश्या हैं, वहां-वहां जाना है और अब एक पागलपन शुरू हुआ है कि जहां-जहां वेश्या न हो, वहां-वहां जाना है। संसार छोड़ना है, हिमालय की तराइयों में जाना है। अब भागना है वहां जहां पाप की कोई संभावना, कोई आधार, कोई आलंबन न हो। पहले था कि जहां पाप हो वही जाना है, जहां बुराई हो, जहां कामना हो। यह दूसरी स्थिति भी पागलपन की है।
नहीं, न तो धन के पीछे भागने में अर्थ है, न धन से दूर भागने में अर्थ है। न तो शैतान को सामने रखने में अर्थ है, न शैतान को पीछे हटा देने में अर्थ। खोजना उसे है, जो हम है। न तो कुछ और खोजना है, न कुछ और त्यागना है। न तो कुछ और भी पीछे जाना है, न किसी और से भागना है। खोजना उसे है जो इस सारी खोज के भीतर है; वह जो खोजी हो; वह जो सब खोज रहा है। जो त्याग खोज रहा है, भोग खोज रहा है, उसे खोजना है। जो उसे खोजता है वह छाया के जीवन से मुक्त होकर वास्तविक जीवन की दिशा में प्रविष्ट होता है।
कैसे हम उसे खोज सकेंगे जो सब खोज के पीछे खड़ा है, उकसे संबंध में हम कल सुबह चर्चा करेंगे।
मेरी इन बातों का इतनी प्रीति और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं।
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