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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(स्वयं की खोज)

बीते दो दिनों में स्वयं की खोज के लिए कुछ बातें मैंने आपसे कहीं। पहले दिन मैंने आपसे कहा, हमें इस बात का स्मरण भी नहीं है कि हम हैं। हमारी सत्ता का बोध भी हमें नहीं है। और जिसे यह भी पता न हो वह है, उसके जीवन, उसके भविष्य उसकी उपलब्धियों का यदि यह भी बोध नहीं हो कि मैं हूं तो जीवन में और क्या हो सकेगा? फिर तो कोई भी जीवन में गति और विकास नहीं हो सकता। सबसे पहली बात तो यह होगी कि मैं जानूं कि मैं हूं।
और मैं आपसे कहा, यह बहुत आश्चर्यजनक है कि हमें इसका स्मरण भी नहीं आता। जीवन बीत जाता है और हमें पता भी नहीं चलता कि हम थे।

एक व्यक्ति के बाबत मैंने सुना है..यह बात निश्चित ही असल होगी..मैंने सुना है कि जब वह मर गया, तब उसे पता चला कि मैं जिंदा था। लेकिन यह सब व्यक्तियों के बाबत सच है। जब हम मरने लगेंगे तो पता चलेगा कि जीवन हाथ में था और नहीं है। लेकिन हम हैं, जब जीवन हमारे हाथ है तो हम दूसरे कामों में इतने व्यस्त हैं कि जीवन का हमें बोध नहीं हो पाता।

हम जीने में इतने व्यस्त हैं कि जीवन का हमें पता नहीं चल पाता। हम जीने में इतने ज्यादा उलझे हुए हैं कि वह जो जीवन का केंद्र है, अपरिचित रह जाता है। इस संबंध मैंने आपसे कहा कि यह बहुत प्राथमिक बोध है, जो मनुष्य को जीवन के विकास की तरफ, उत्कर्ष की तरफ, जीवन के अनुभव की तरफ ले जाए। स्मरण आना चाहिए कि मैं हूं।
एक तो हमारे काम की दुनिया है, जो हम कर रहे हैं, और एक हमारा होना है, जो हम हैं। एक तो हमारी डूइंग और कामों का जगत है और एक हमारे बीइंग का, हमारे होने की और हमारी सत्ता की दुनिया है। हम सारे लोग काम की ही दुनिया में समाप्त हो जाते हैं और उसे नहीं जान पते जो कि हमारा होना है। हम काम करते हैं, और काम करते हैं, और काम करते हैं, और काम करते हुए समाप्त हो जाते हैं। लेकिन यह कौन था जो काम के भीतर जी रहा था? यह कौन था जो सब काम के पीछे खड़ा था? यह कौन था जिसने सारे काम किए और सारे का देखे? उसकी तरफ हमारी आंखें नहीं उठ पाती हैं।
मैंने आपको कहा कि उसकी तरफ आंखें न उठें तो जीवन में कोई आनंद संभव नहीं है, क्योंकि आनंद का स्रोत तो वहां है। और उसकी ओर आंखें न उठें तो दुख से मुक्त होना असंभव है, क्योंकि दुख है सिर्फ इसीलिए कि हमारी आंखें उसकी तरफ नहीं हैं। जैसे कोई आदमी सूरज की तरफ पीठ कर ले और भागता जाए और भागता जाए, उसकी छाया उसके सामने पड़ेगी, अंधेरा उसके सामने होगा और वह रोए और चिल्लाए कि मेरे जीवन में अंधेरा है, अंधेरा है, मैं क्या करूं? और भागता जाए, लेकिन सूरज की ओर आंखें न उठाए तो उसके जीवन से अंधेरा नहीं मिटेगा। वह लाख उपाय करे और हजारों मील की यात्राएं करें, छाया उसके सामने ही पड़ती रहेगी। जिसके पीछे सूरज हो उसके समाने छाया पड़ेगी, और जो सूरज की ओर आंखें उठा ले उसके लिए छाया विलीन हो जाएगी और जीवन प्रकाश से भर जाएगा।
है कोई सूरज हमारे भीतर..हमारी सता का। उसकी तरफ आंखें उठानी हैं। लेकिन पहली बात होगी कि हम जानें कि हम हैं। उस संबंध में मैंने पहले दिन आपसे बातें कीं। दूसरे दिन मैंने इस संबंध में बात की कि यह मैं कौन हूं इसको हम खोजें। कैसे खोजेंगे। तो मैंने आपसे कहा, क्रमशः; जो हम नहीं हैं उसे जानने से उसकी तरफ बढ़ेंगे जो हम हैं। अगर हम ठीक से जानते चले जाए कि यह मैं नहीं हूं, षरीर मैं नहीं हूं, मन मैं नहीं हूं, विचार मैं नहीं हूं, तो धीरे-धीरे हम उसकी तरफ जाएंगे जो हम हैं। दो ही बातें महत्वपूर्ण हैं..यह जानना कि मैं हूं, और फिर यह खोज लेना कि मैं कौन हूं। आज मैं इस संबंध में कहूंगा कि यह खोज कैसे चित्त की भूमिका में हो सकती है।
आपने मेरी बातें सुनी, अनेक लोग मुझसे कहते हैं, यह तो बहुत कठिन है। अब एक आदमी हो, एक किसान हो, बीज उसे दे दिया जाए और वह पहाड़ पर चला जाए और चट्टान पर बीज को बोने लगे और फिर वापस लौट कर आए कि बीज तो जल जाते हैं, पौधे तो निकलते नहीं। ये बीज कठिन है, बहुत कठोर हैं, इनसे कोई निकलेगा नहीं। तो उसे क्या कहेंगे? हम कहेंगे कि बीज बोए कहां थे? कहीं किसी चट्टान पर बोने तो नहीं चले गए थे? बीज तो बड़े कोमल थे। बीज से तो अंकुर निकलने को प्रति क्षण उत्सुक था। वहां तो बीज को फोड़ कर प्राण निकलने को बाहर फैलने की आकांक्षा से भरे थे। वहां तो बीज के भीतर जो आत्मा बैठी थी वह सूरज की तरफ उठने को लालायित थी। लेकिन बीज डाले कहां थे? अगर बीज पत्थर पर बोए गए थे, पथरीली जमीन पर, तो फल नहीं लाएंगे। तो मैंने जो बात कहीं, वह कठिन मालूम हो सकती है, अगर मन की भूमि पथरीली हो, पत्थरों से भरी हो; तो कठिन हो जाएगी। तो मन की भूमि चाहिए उपजाऊ।
मन का खेत कैसे उपजाऊ बन जाए उसके बाबत आज बात करूंगा। बीज के बाबत मैंने आपसे बात की, बीज को बोने की आकांक्षा के बाबत बात की, लेकिन अलग खेत के बाबत बात न करूं तो बात अधूरी हो जाएगी। आज मैं आपसे बात करना चाहूंगा कि किस खेत में यह बीज बोए जा सकते हैं? मन कैसा हो, तब यह उपलब्धि हो सकती है। चित्त कैसा हो, चित्त भी भूमिका कैसी हो कि निश्चित ही यह बहुत सरल हो जाता है। अब बीज को कोई किसान बोता है तो खींच-खींचकर उसमें से अंकुर थोड़े ही निकालने पड़ते हैं! बस, जमीन में बो देने पड़ते हैं, जमीन हो उपजाऊ, अंकुर तो अपने आप आ जाएगा। अंकुर को खींचकर निकालना नहीं पड़ता।
सत्य को भी खींचकर पैदा नहीं करना होता। वह तो आ जाएगा, एक दफा भूमि तैयार हो। और मैं आपको कह दूं, हमारे मन की भूमि बहुत पथरीली है, बहुत पत्थर हैं उसमें। और ये पत्थर किसी और ने डाले होते तो भी कोई बात थी, ये पत्थर हमने ही डाले हुए हैं। ये जमीन हमने ही पथरीली कर ली है। हमने ही इसमें पत्थर ला लाकर इकट्ठे कर दिए हैं और अनेक-अनेक तरह के पत्थर हैं। कैसे ये पत्थर अलग हो सकते हैं, क्या ये पत्थर हैं, उसके बाबत आज आपसे कहूंगा।
पहली बात..जो मन बहुत ज्यादा षब्दों से भरा हो, वह मन सत्य को नहीं जा सकता। जो चित्त षब्दों से बहुत भरा हो, वह चित्त सत्य को नहीं जान सकता। षब्द सबसे ज्यादा पत्थर जैसी चीज है जो मन पर जम जाए तो फिर कुछ भी नहीं हो सकता। और हम सबके मनों में बहुत षब्द बैठे हुए हैं। षब्दों ने हमारे मनों को बिल्कुल छा लिया है। अगर आप अपने भीतर खोजेंगे तो षब्दों के सिवाय और क्या पाएंगे? अगर आप अपने भीतर खोजने जाएंगे तो षब्द मिलेंगे, और षब्द मिलेंगे, और षब्द मिलेंगे और षब्दों की हमने ऐसी पूजा की है कि जो आदमी षब्द रखे हुए हैं, जिसके पास बहुत षब्द हैं, जो बहुत षब्दों का प्रयोग कर सकता है, उसका हम बहुत आदर करते हैं। उसको हम पंडित कहते हैं, उसको विद्वान कहते हैं, उसको ज्ञानी कहते हैं। षब्द का जिसके पास बहुत संग्रह है, हम कहते हैं वह ज्ञानी है। जब कि मैं आपसे कहूं, जो अपने भीतर निःशब्द हो जाता है, केवल वही ज्ञान को उपलब्ध होता है। षब्दों से कोई ज्ञानी नहीं होता। षब्दों की इस खोले के भीतर अज्ञान मौजूद रहता है। ये षब्द ऊपर से चिपकाए गए हुए हैं। सब षब्द हमने बाहर से सीखे हुए हैं। कोई षब्द आपके भीतर से आया हुआ नहीं है। या कि आप सोचते हैं कि कोई षब्द आपके भीतर से आया हुआ है? सब षब्द आपने बाहर से सीखे हैं। जो आपको सिखा दिया गया है, उन षब्दों ने आपके मन को घेर लिया है।
कोई आदमी हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है। यह क्या है? क्या कोई आदमी हिंदू होता है, कोई मुसलमान होता है? यह षब्दों का भेद है। एक तरह के षब्द किसी को सिखा दिए गए हैं, वह जैन है। दूसरी तरह के षब्द किसी को सिखा दिए गए हैं, वह मुसलमान है। तीसरी तरह के षब्द किसी को सिखा दिए गए हैं, वह हिंदू है। और हजार तरह के षब्दों की अवस्था है, वह हमने सीख लिए हैं। ये षब्द हमारे भीतर बैठ जाते हैं और जब भी हम विचार करते हैं, जब भी हम सोचते हैं तो वह विचार स्वतंत्र नहीं हो पाता, इन षब्दों से बंधा हुआ हो जाता है। इन षब्दों से षुरू होता है हमारा सब चिंतन, हमारा सब विचार।
षब्द से प्रारंभ हुआ चिंतन असत्य होता है। षब्द से बंधा हुआ चिंतन असत्य होता है, मिथ्या होता है, क्योंकि अर्थ ही यह हुआ कि पहले से सीखे हुए षब्दों के घेरे में घूमने लगते हैं। षब्द की बड़ी परतंत्रता है। और क्या मैं आपको कहूं, मनुष्य के इतिहास में जितनी इस परतंत्रता ने मनुष्य को पीड़ा दी है, दुख दिया है, और किसी परतंत्रता ने नहीं दिया। जितनी हत्याएं और हिंसाएं और जितने अनाचार हुए हैं, इन षब्दों के कारण, आइडियोलॉजी के कारण, संप्रदायों के कारण, सिद्धांतों के कारण हुए हैं।
मनुष्य और मनुष्य के बीच षब्द के अतिरिक्त और कोई दीवार नहीं है। और यह गुलामी इतनी गहरी है कि इसका हमें पता भी नहीं चलता कि हम किन्हीं षब्दों के गुलाम हैं। अभी राम के षब्द के विरोध में कुछ कह दूं। आपके प्राण तिलमिला जाएंगे..एक षब्द के विरोध में कुछ कह दूं। अगर मैं कृष्ण के विरोध में कुछ कह दूं तो आपके प्राण तिलमिला जाएंगे..एक षब्द के विरोध में। अगर मैं क्राइस्ट को कुछ कह दूं, महावीर को कुछ कह दूं तो आपके प्राण तिलमिला जाएंगे। एक षब्द के विरोध में आपके प्राण कंप जाएंगे। एक षब्द आपके ऊपर इतना प्रभावी है। एक षब्द आपको पकड़ ले सकता है और आपकी जान लिवा ले सकता है। एक छोटा सा षब्द और और आपके प्राणों को बांधे रहता है। लोहे की जंजीरें इतनी सख्त नहीं होती जितना चित्त पर षब्दों की जंजीरें हो जाती हैं।
मेरे एक मित्र जेल में बंद थे। लौटकर..मैं एक षब्दों की उनसे बात कर रहा था..वह मुझसे कहने लगे, ऐसी एक घटना जेल में घटी। एक कैदी उनके साथ था। आजादी के दिनों की बात होगी, एक कैदी भी उनके साथ था। उस कैदी की बड़ी ख्याति थी, वह कैसी भी जंजीर को तोड़ सकता था, कैसी भी जंजीर को, और तोड़कर दिखा देता था। और कैसी भी दीवाल फांद कर भाग सकता था। उसने अपने जेलर को कहा भी, अगर मुझे यह विश्वास दिलाया जाए कि मुझे वापस नहीं पकड़ा जाए तो आप सारा आयोजन कर लो, मैं तीन दिन के भीतर जेल के बाहर हो जाऊं। और वैसी उसकी सामथ्र्य थी। मेरे मित्र भी वहां थे। वे रोज सुबह बैठकर प्रार्थना कराते थे, वे राम-राम का जप कराते थे। उस कैदी को भी उन्होंने कहा, तुम भी उस जप में आया करो। उसने कहा, राम-राम के जम में! वह था मुसलमान। तो वह मुझसे कहने लगा कि वह लोहे की जंजीर तोड़ सकता था, लेकिन राम-राम के जप में नहीं बैठ सकता था। उसके मन में तो कोई और दूसरे षब्द बैठे हुए थे। राम का जप।
अभी एक जैन साधु मेरे पास मेहमान थे। वह सुबह उठे और मुझसे कहने लगे, मुझे झेन मंदिर जाना है। मैंने कहा, किसलिए? क्या काम है? वह कहने लगे, आप भी क्या पूछते हैं? मंदिर कोई किसलिए जाता है? वहां ध्यान करूंगा, षांति से बैठूंगा, आत्म-स्मरण करूंगा, एकांत में सामायिक करूंगा, इसलिए जाना चाहता हूं। मैंने कहा, आप सच बोल रहे हैं? इसलिए जानना चाहते हैं? उन्होंने कहा, मैं झूठ क्यों बोलूंगा? इसीलिए जाना चाहता हूं। तो मैंने कहा, यहां का झेन मंदिर जो है, वह तो बाजार है। वहां बड़ी भीड़भाड़ है, षोरगुल है। मेरे पास में एक चर्च है, बड़ा अकेला है और इतवार का दिन होने से वहां कोई नहीं आता, क्योंकि ईसाइयों का धर्म तो सिर्फ इतवार के दिन है, और किसी दिन तो होता नहीं। तो वहां चर्च में चले चलें। वहां कोई भी नहीं है, बड़ा सन्नाटा है, बड़ा अकेला है, बड़ा बगीचा है। वही अपना ध्यान करें, वहीं अपना आत्म-स्मरण करें।
उन्होंने कहा, चर्च! आप कहते क्या है? तो मैंने उनसे कहा, तो फिर आप झूठ ही कहते होंगे कि मैं आत्म-स्मरण के लिए जाना चाहता हूं। आप जैन मंदिर जाना चाहते होंगे, वह षब्द बड़ा मूल्यवान है। आत्म-स्मरण के लिए तो चर्च में भी बैठ सकते हैं, नदी के किनारे भी बैठ सकते हैं। जैन मंदिर में क्या लेना देना है? या हिंदू मंदिर से या मस्जिद से या चर्च से क्या लेना-देना है? नहीं, लेकिन एक षब्द हमारे मन में बड़ा गहरा हो जाना है और षब्द को हम पकड़कर बैठ जाते हैं। और हम सब षब्दों को पकड़कर बैठे हैं। और जो भी षब्द को पकड़कर बैठा है, वह सत्य तक कैसे जाएगा? कैसे जा सकता है? सत्य तक प्रवेश के लिए जरूरी है कि सब षब्द छोड़ दिए जाए, सारे षब्दों की पकड़ छोड़ दी जाए, तभी यात्रा हो सकती है उस जगत में, तभी हम स्वयं में प्रविष्ट हो सकते हैं।
आप मुझे नहीं पकड़े हुए हैं, समाज किसी को नहीं पकड़े हुए हैं, लेकिन समाज से प्रदत्त षब्द, सिद्धांत, विचार, षास्त्र, वह मनुष्य के मन को जकड़े हुए हैं। वहीं हम घूमते हुए रह जाते हैं कोल्हू के बैल की तरह। उन्हीं-उन्हीं षब्दों को जीवन भर दोहराते रह जाते हैं और उनसे ऊपर उठने का ख्याल नहीं आता। षब्द किसने दिए हैं? षब्द तो समाज ने दिए हैं। षब्द तो दूसरे ने दिए हैं लेकिन मौन? मौन किसने दिया है? निःशब्दता किसने दी है? किसी ने भी नहीं दी। वह आपके स्वरूप का हिस्सा है। जो किसी ने नहीं दिया है, उसे ही खोजने से स्वयं का पता चलेगा, क्योंकि स्वयं का सत्य किसी का दिया हुआ नहीं है। यह स्वयं की सत्ता किसी की दी हुई नहीं है। आपके ऊपर किसी का ऋण नहीं है इसके लिए। यह आपकी अपनी है, निज है। इस निज की सत्ता को जानना हो तो पर से, दूसरों से, अन्यों से दिए गए षब्द बाधा हो जाएंगे, रुकावट हो जाएंगे।
एक साधु एक दिन सुबह-सुबह नदी में स्नान करने को उतरा होगा। अभी सूरज निकला भी नहीं था और तारे भी आकाश में थे। वह स्नान कर रहा है और पास में ही देखा, एक आदमी डोंगी पर, छोटी नाव पर सवार हुआ है। डोंगी को खे रहा है, और पानी में ले जाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन बड़ी देर हो गयी उसे पतवार चलाते, और डोंगी है कि वहीं अटकी है। उस आदमी ने चिल्लाकर पूछा संन्यासी को कि बात क्या है, यह डोंगी यही रुकी क्यों है? मैं इसे गहरे में ले जाना चाहता हूं। उस संन्यासी ने कहा, जहां तक मैं सोचता हूं, तुम उसकी जंजीर खोलना भूल गए हो। तुम पतवार तो फेंक रहे हो, जोर से चला रहे हो लेकिन नाव की जंजीर किनारे से बंधी होगी। वह आदमी नीचे उतरा, देखा नाव किनारे से बंधी है।
हम सब भी खेना चाहते हैं, सत्य के गहरे सागर में जाना चाहते हैं, यात्रा करना चाहते हैं, आत्मा और परमात्मा से परिचित होना चाहते हैं जीवन के अर्थ को, अभिप्राय को जानना चाहते हैं, लेकिन हमारे चित्त की जो जंजीर है, वह किनारे से बंधी है। षब्दों के किनारे से बंधी है। किनारे नदी नहीं हैं। जहां किनारों को छोड़ देता है, वही कोई प्रवाह में आता है। किनारे तो जड़ हैं और नदी का प्रवाह जीवित है। जीवन तो जीवित प्रवाह है और उसके चारों तरफ जो षब्द के फूल बन जाते, किनारे बन जाते हैं। उन किनारों पर अटके रहने से कुछ होगा नहीं। लेकिन हम सब रुके हैं। हम सब ठहरे हुए हैं। जब सोचते भी हैं कि हमें सत्य पाना है तो इन षब्दों के किसी घेरे पर सोचते हैं।
एक मुसलमान मेरे पास आता है, वह मुझसे कभी नहीं पूछता कि पुनर्जन्म होता है कि नहीं? उसकी किताब में लिखा हुआ नहीं है। एक हिंदू आता है, वह पूछता है, पुनर्जन्म होता है या नहीं? उसकी किताब मैं लिखा हुआ है। एक जैन मुझसे पूछता है, आत्मा क्या है? लेकिन जैन मुझ से कभी नहीं पूछता कि स्रष्टा परमात्मा क्या है? उसकी किताब में लिखा हुआ नहीं है। एक बौद्ध मेरे पास आता है, वह नहीं पूछता, आत्मा क्या है? वह पूछता है, अनात्मा क्या है? उसकी किताब में आत्मा नहीं लिखी हुई है, आत्मा लिखी हुई है। जो जिसकी किताब में लिखा हुआ है, उस की पूछता है।
ये किताब से उठे हुए प्रश्न वास्तविक नहीं हैं। यह षब्दों से बंधा हुआ किनारा है। वास्तविक प्रश्न अगर होंगे तो हिंदू का, मुसलमान का, ईसाई का अलग-अलग कैसे हो सकता है? वह तो जीवन का होगा और सबका होगा और समान होगा। वास्तविक समस्या मनुष्य की होती है। झूठी समस्या किताब की होती है, षब्द की होती है। इन झूठी समस्याओं को लेकर जो खोज में निकलते हैं, वे तो कभी नहीं पहुंच सकते। अनेक लोग मुझसे कहते हैं, हम ईश्वर को खोज रहे हैं। मैं उनसे कहता हूं, जिसका तुम्हें पता ही नहीं है, उसको खोजोगे कैसे? कैसे खोजोगे? किसी किताब में पढ़ लिया होगा, ईश्वर है, खोजने निकल पड़े कोई मुझसे कहता है, हम आत्मा को खोजने चले हैं। जिस आत्मा का तुम्हें पता नहीं है, उसे खोजोगे कैसे? क्यों खोजने चल पड़े हो? किसी ने कह दिया है, इसलिए? नहीं, जब जीवन की खुद की समस्या और प्यास जगती है, और जीवन के तथ्य खुद दिखायी पड़ने षुरू होते हैं और अपने आप अज्ञान का बोध होता ह..किसी ने कहने से नहीं, बल्कि जीवन के अनुभव से; जब दिखता है कि मैं एकदम अज्ञान के घिरा हुआ हूं, मुझे कुछ भी पता नहीं, मेरे होने का पता नहीं, मुझे अपने जीवन का कोई कूल-किनारा पता नहीं, मुझे कोई दिशा का अनुमान नहीं, मुझे जीवन के किसी आयाम का, किसी घेरे का कोई संपर्क नहीं। मैं यह कैसा हूं? यह मेरी क्या स्थिति है? जब यह पीड़ा मनुष्य को पकड़ती है तो उसकी जिज्ञासा षब्दों की नहीं होती है, सत्य की हो जाती है। षब्दों की जिज्ञासा मनुष्य को पंडित बना सकती है, लेकिन प्रज्ञावान नहीं। और पंडित इस जगत में सबसे बड़ी बाधा है प्रज्ञा तक उठने में..खुद के लिए, खुद के लिए बाधा है। षब्द उसने सीख लिए और उन्हीं को दोहराता रहेगा, दोहराता रहेगा और षब्दों के वृत्त में घूमता रहेगा, घूमता रहेगा और खूब तर्क करेगा, खूब विचार करेगा, लेकिन कहीं पहुंचेगा नहीं, पहुंच सकता नहीं।
षब्द को छोड़ कर गति है, किनारे को छोड़ कर यात्रा है। तो पहली बात आपसे कहना चाहूंगा, चित्त को षब्दों की दासता से मुक्त कर लें। षब्दों की जंजीरों से बंधा हुआ चित्त कभी भी सत्य को नहीं जान सकेगा। फिर चाहे वे जंजीरें किसी की हों..वेदांत की हों, कि बौद्ध धर्म की हो, कि जैन धर्म की हों, वे षब्द की जंजीरें मन को पकड़ें रहेंगी, तब तक कहीं आप जा नहीं सकते। बहुत साहस चाहिए जंजीरें तोड़ देने को। क्योंकि आप कहेंगे, जंजीरें तोड़ देने को क्या साहस चाहिए? बहुत कठिन है जंजीर को तोड़ देना। इसलिए कठिन है कि धीरे-धीरे जंजीर को भी हम प्रेम करने लगते हैं। वह भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाती है। वह भी हमारी परिचित हो जाती है और लगने लगता है, इसके बिना कैसे जी सकेंगे? कैसे जी सकेंगे?
वहां फ्रांस में राज्य क्रांति हुई तो वेस्टील ने किले में बहुत से कैदी बंद थे। क्रांतिकारियों ने सोचा, सबसे पहले जैसे ही उनके हाथ में सत्ता आई कि जाएं और वेस्टील के किले को तोड़ दें और कैदियों को मुक्त कर दें। उन्होंने सोचा, हम बड़ा काम करने जा रहे हैं। ऐसा भ्रम बहुत लोगों को पकड़ता है..बुद्ध को कपड़ा, महावीर को, सुकरात को, क्राइस्ट को। ऐसा भ्रम बहुत लोगों को पकड़ता है कि जाएं और कैदियों को मुक्त कर दें। क्रांतिकरियों को भी पकड़ा कि जाए और कैदियों को मुक्त कर दें। कैदी कितने प्रसन्न हो जाएंगे! वह गए और उन्होंने जाकर दीवाल तोड़ दी और कैदियों से कहाः जाओ, तुम मुक्त हो। प्रसन्न होओ, नाचो और कूदो और गाओ, आनंदित होओ। लेकिन कैदी बड़े घबराएं हुए खड़े थे कि वह कह क्या रहे हैं? वहां तो सबसे पुराने जघन्य अपराधी रखे जाते थे जिन्हें आजीवन की कैद होती थी। कोई बीस वर्ष की उम्र में आया था और अस्सी वर्ष हो गया था। साठ साल, हाथ की जंजीरें वह भूल गया था कि हाथ से अलग हैं। साठ साल! जंजीरें हाथ में थीं और हाथ में रही थीं। भूल ही गया था कि हाथ से अलग हैं। जैसे हाथ में अपने, वैसे ही जंजीर भी अपनी हो गयी थी। सुना कि स्वतंत्र! सुना कि मुक्त! बहुत बेचैन और परेशान हो गए। एक नयी दुनिया में कहां धक्के देते हो? बहुत लोगों ने कहा, हम ठीक हैं। हम जहां है वहीं ठीक है। आप कृपा करो, ये हमारी कोठरियां काफी अच्छी हैं। वे बिल्कुल अंधकार से भरी हुई कोठरियां थीं और हाथ-पैर में जंजीरें थीं। लेकिन भोजन मिल जाता था, वहां वे पड़े रहते थे। अंधेरे में आदी हो गए थे। लेकिन क्रांतिकारियों को तो पागलपन सवार था लोगों को मुक्त करने का। उन्होंने तो उनको धक्का दिया और बाहर निकाल दिया, जंजीरें तुड़वा दीं। लेकिन कितना दुखद है, सांझ को अंधे कैदी वापस लौट आए, और यह कोई कहानी हनीं है, यह ऐतिहासिक तथ्य है। और उन कैदियों ने कहा, आप क्षमा करें, हम पर कृपा करें, हम जहां हैं, वहां रहने दें। बाहर बहुत भय मालूम होता है।
और मैं जब आपसे कहता हूं, षब्द की जंजीरें तोड़ दें, मैं जब आपसे कहता हूं, मुक्त हो जाए तो मैं जानता हूं कि वैसी घबराहट भीतर सरकती होगी। कैसे तोड़ दें, कैसे मुक्त हो जाएं, यही तो हमारी संपदा है, यही तो हम सब हैं, यही तो षास्त्र हमारे प्राण हैं और कहते हैं छोड़ दें? और इनको छोड़ कर फिर हम कहां जाएंगे? मैं जब बोलता हूं, तब भी आपके मन में आप हिसाब बिठाते रहते हैं कि किस षास्त्र के अनुकूल है यह बात। परसों यहां से निकला, एक मित्र ने कहा, आप जो कह रहे हैं वही है न, जो गीता में हैं? वे संतुष्ट हो जाना चाहते थे, अपनी किताब को पकड़े रहें। मैंने सोचा, ठीक है, और मैं इनसे क्या कहूं? वही है न जो गीता में है? और मैं तो कुछ बोला ही नहीं, उन्होंने खुद ही कहा, हां, बिल्कुल ठीक; वही है। और वे निश्चित चले गए। वह वेस्टील का कैदी जो था, षाम को घर वापस लौट आया कैद में। और उसने कहा, कृपा करें। यही तो दुनिया है, कहां आप बातें कर रहे हैं! आप, जब मैं बोल रहा हूं, तब भी अपनी किताब से मेल बिठाते जाते हैं कि महावीर स्वामी ने यह कहा है कि नहीं, बुद्ध ने यह कहा है कि नहीं, क्राइस्ट ने यह कहा है कि नहीं। अगर यही कहा तो बिल्कुल ठीक है, अगर नहीं कहा तो फिर बहुत बड़बड़ है। फिर आपके षब्दों में दिक्कत हो जाएगी। फिर आपको अड़चन हो जाएगी। भीतर फिर मेरे षब्द गड़ने लगेंगे, लेकिन मैं चाहता हूं कि षब्द गड़ जाए और मैं चाहता हूं कि भीतर तुलना न करें। क्योंकि तुलना की कि आप फिर नींद में सो जाते हैं। एक करवट ले ली और फिर सो गए। फिर लगा कि बिल्कुल ठीक है, वही तो है, जो हम मानते थे। फिर आप सो गए।
नहीं, कृपा करें, तुलना मत करें, पुराने षब्दों से मेल न बिठा लें, बल्कि सोचें। सोचें थोड़ा। नहीं कहता हूं, गीता गलत है। नहीं कहता हूं, कुरान गलत है। नहीं कहता हूं, कोई गलत है। नहीं कहता हूं, कोई सही है। लेकिन जिस दिन आप सब हटाकर खुद को जानेंगे, उस दिन जरूर ये सब धर्मशास्त्र सत्य हो जाएंगे, लेकिन उकसे पहले नहीं। उसके पहले सब असत्य हैं। जिस दिन आप अपने निजी सत्य को जानेंगे, उस दिन सब धर्मशास्त्र एक ही साथ सत्य हो जाएंगे। लेकिन उसके पहले सब गलत है आपके लिए। आपके लिए षब्द से ज्यादा नहीं है। उन षब्दों को इकट्ठा करते रहेंगे और उन षब्दों से बंधे रहेंगे तो कहीं भी जा नहीं सकते। सत्य की खोज में, स्वयं की खोज में षब्दों से मुक्त हो जाना पहली षर्त है। मुक्त हो जाएं, तोड़ दें ये जंजीरें, ये जंजीरें दिखायी नहीं पड़ती। मन में खोजेंगे तो दिखायी पड़ेंगी। मन मैं खोजेंगे तो ज्ञात होगा, जंजीरें बड़ी गहरी हैं।
अभी मैं आया जिस दिन, मेरे एक मित्र एक चिट्ठी लेकर आए, उस चिट्ठी में किसी ने हरि ओम, हरि ओम, हरि ओम, हरि ओम लिख दिया हुआ था। और नीचे लिख दिया था कि अगर इसी भांति की दस चिट्ठियां आपने लिखकर दस लोगों को नहीं डालीं, तो स्मरण रखना कि भगवान दंड देगा। और अगर डालीं तो दस दिन के भीतर इसका लाभ भी मिलेगा। अब वह घबड़ा गए। वह मेरे पास आए। डाक्टर हैं, पढ़े-लिखे हैं। अब ऐसे डाक्टर से मरीजों का इलाज करवाना बड़ा खतरनाक है। इनमें विज्ञान की तो बुद्धि नहीं है, इनमें साइंस की तो कोई बुद्धि नहीं है, इनमें कोई बुद्धि नहीं है। वे चिट्ठी लेकर आए, मैंने कहा, यह तो ठीक है, लेकिन आइंदा..कभी-कभी मैं बीमार पड़ता था। मेरा इलाज करते थे..अब मेरा इलाज कभी मत करना। बोल, क्यों? मैंने कहा, आपका दिमाग ही अनसाइंटिफिक है, आपका दिमाग ही जड़ है।
घबड़ा क्यों गए इसमें? घबड़ाहट हो गई कि कहीं भगवान दंड न दे दे! एक-दो षब्द, और प्राण कांप गए उनके। वे दस चिट्ठियां लिख कर ले आए कि मैं किस-किसके पते पर डाल दूं! एक षब्द..मैं हिंदू हूं और हरि ओम, हरि ओम लिखा हुआ है। हालांकि उसमें अल्लाह-हल्लाह लिखा हुआ होता तो बेफिकर से फाड़कर फेंक देते, उन्हें कोई डर नहीं होता। कोई डर की बात न थी। एक मुसलमान एक हिंदू के मंदिर को तोड़ कर फेंक देता है। जरा भी भयभीत नहीं होता, क्योंकि उसके षब्द इसके विरोध में पड़ते हैं। लेकिन आप, अगर भगवान की मूर्ति को पैर लग जाए तो प्राण कांप जाएंगे, क्योंकि भगवान की मूर्ति...! और मुसलमान उसी को तोड़ते रहे और वे खुश होते रहे और आपके प्राण कांप जाएंगे। एक मुसलमान मंदिर को आग लगा दे तो दिक्कत नहीं होती, लेकिन मस्जिद को आग लगा दे तो प्राण कांप जाएंगे। क्यों? एक षब्द पकड़ लेता है।
हिंदू को, मुसलमान को, जैन को सबको पकड़े हुए हैं। और हम सब षब्दों के गुलाम है और षब्दों की गुलामियों में बंटे हुए हैं। और इन गुलामियों के अलग-अलग झंडे हैं। और इन गुलामियों के अलग-अलग संगठन हैं। और उन गुलामियों को पोषण देने के लिए निरंतर प्रचार चल रहा है। साधु है, संन्यासी हैं, पंडित हैं, यह सब चल रहा है कि वह षब्द की गुलामी न टूटने पाए।
बाप बच्चे के पैदा होते ही उसको गुलाम करना षुरू कर देता है। सिखाना षुरू कर देता है कि तुम कौन हो? तुम्हारा विश्वास क्या है? तुम्हारा धर्म क्या है कि तुम कौन हो? तुम्हारा विश्वास क्या है? तुम्हारा धर्म क्या है? मंदिर कौन सा है तुम्हारा? हजारों वर्षों से चली आती गुलामी को वह अपने बच्चे में संक्रमित कर देता है। इससे बड़ा कोई पाप नहीं। जिस व्यक्ति को स्वयं सत्य पाना हो वह स्मरण रखे कि दूसरे को सत्य के संबंध में षब्द न सिखाए, जिज्ञासा सिखाए कि खोजना, जानना, प्राणों को समर्पित करना, खोजना, अपने पूरे प्राणों को लगा देना और जानने की कोशिश करना कि क्या है! लेकिन षब्दों को मत सी, लेना दूसरों के। दूसरों के षब्द सीखे हुए तोतों की भांति हो जाते हैं और उनको हम दोहराते रहते हैं।
मैंने सुना है कि षंकर, आचार्य षंकर जब मंडन मिश्र के पास विवाद करने को पहुंचे, गांव में वह वह प्रविष्ट हुए और उन्होंने लोगों से पूछा कि मंडन का भवन कहां है? कुएं पर स्त्रियां पानी भरतीं थीं। उन्होंने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है? मंडन की कीर्ति तो दूर-दूर दिगंत में व्याप्त हो रही है। उसके मकान का भी कोई पता लगाना है? फिर भी षंकर ने कहा, कैसे मैं पहचानूंगा इतने बड़े नगर में कि मंडन का भगवान कहां है? स्त्रियों ने कहा, जाओ, जिस भवन के आसपास पक्षी भी वेद के मंत्रों का उच्चार करते हों, समझ लेना कि मंडन का भवन आ गया। बड़ी प्रशंसा में उन स्त्रियों ने कहा कि जिसके आसपास पक्षी भी वेद के मंत्रों का उच्चार करते हों, समझ लेना कि मंडन का भवन आ गया।
लेकिन दुख तो यह है कि पक्षी ही अगर वेद के मंत्र का उच्चार करते हों तो भी ठीक, आदमी भी पक्षियों की भांति वेद के मंत्रों का उच्चारकर रहे हैं। पंडित भी वही कर रहे हैं। सीखे हुए षब्द हैं, उनको दोहराए चले जा रहे हैं, उनको दोहराए चले जा रहे हैं। यह मनुष्य की जड़ता की सूचना है, उसके ज्ञान की नहीं। जड़ जो बुद्धि होती है, वह दूसरों को पुनरुक्त करती है। और जो चेतन बुद्धि होती है, वह स्वयं में प्रविष्ट होती है और किसी मौलिक जीवन के आधार को खोजने की चेष्टा करती है। षब्द पर चेतन व्यक्ति रुकता नहीं, जड़ व्यक्ति रुक जाता है। वह इडियाटिक माइंड का लक्षण है। वह जड़ बुद्धि का लक्षण है, वह षब्द पर रुक जाता है। षब्द को पकड़ लेता है, षब्द को याद कर लेता है और उसको दोहराने लगता है, और फिर दोहराने में मजा आने लगता है। क्योंकि जितना ज्यादा दोहराता है, उतना और अच्छा दोहराने लगता है। जितना और अच्छा दोहराता है, सुविधापूर्ण हो जाता है। धीरे-धीरे उसे लगता है, यही सत्य है। क्या आप सबको भी, हम सबको भी ऐसा ही नहीं लग रहा है? जिन षब्दों को हम बार-बार सुनते और दोहराते हैं वे सत्य मालूम होते हैं। एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में एक वचन लिया है, बहुत अर्थपूर्ण है। हिटलर अपने आत्मकथा में एक छोटा सा वचन लिखा है, किसी भी असत्य को बार-बार दोहराओ, धीरे-धीरे वह सत्य हो जाता है। किसी भी असत्य का खूब प्रचार करो, लोगों के मन में पुनरुक्त होने दो, पुनरुक्त होते-होते ही वह उन्हें सत्य मालूम होने लगेगा।
क्या हमने हजारों ऐसी ही बातों को स्वीकार नहीं कर लिया है, जिन्हें हम नहीं जानते कि वे सत्य हैं, या असत्य? क्या किसी बहुत गहरे प्रचार और प्रोपेगंडा ने हमारे मनों में कुछ षब्द प्रविष्ट नहीं कर दिए हैं? सिवाय इसके और हमारी संपत्ति क्या है? हमारे चित्त की और संपत्ति क्या है सिवाय प्रचारित षब्दों के?
उन्नीस सौ सन्नह में क्रांति हो गयी रूस में। वहां जो लोग हुकूमत में आए, उनके षब्दों का पैटर्न और ढांचा दूसरा था। पुराना षब्दों का ढांचा था ईश्वर, उनका ढांचा था ईश्वर नहीं। पुराने षब्दों का ढांचा था आत्मा, उनका ढांचा था आत्मा नहीं। पुराने षब्द कुछ और कहते थे..वे बाइबिल को दोहराते थे; वे दोहराते थे कार्ल माक्र्स को, कैपिटल को दोहराते थे। उनका षब्द नया था, उनके षब्द का ढांचा नया था। तीस-चालीस साल उन्होंने मेहनत की, सुझाया लोगों को, समझाया। करोड़-करोड़ लोग उन्हीं षब्दों को दोहराने लगे। दोहराने की आदत पुरानी थी। पहले आत्मा-परमात्मा दोहराते थे, स्वर्ग-नर्क, ओरिजनल सिन की बातें करते थे, अब कम्युनिज्म की बातें करने लगे। ईश्वर नहीं है, धर्म अफीम का नशा है, यह कहने लगे। अब नए षब्द दोहराने लगे। लेकिन षब्द से छुटकारा नहीं होता है। एक षब्द हटता है, दूसरा षब्द पकड़ लेता है।
मैं जो आपसे कह रहा हूं, इसलिए नहीं कि आप और षब्द छोड़ दें, मेरे षब्द पकड़ लें। वह एक ही बात हो गयी। वह तो मूर्खता वही रही, पुरानी रही, कोई फर्क न हुआ। अब मुझे लोग मिलते हैं, वे कहते हैं, हमें तो आपकी बात बिल्कुल ठीक लगती है। वे मेरी बात दोहराने लगते हैं, मैं एकदम घबड़ा जाता हूं। मैं यही तो कह रहा हूं किसी और की बात आपको ठीक न लगे। सब बातें दूसरों की छोड़ दें। उसमें मैं भी सम्मिलित हूं, क्योंकि मैं भी दूसरा हूं। और उस जगह चलें जहां कि किसी दूसरे की बात प्रवेश नहीं करती, आप स्वयं हैं।
अभी मैं पूना गया था, तो वहां की नदी पर मैंने देखा, दूर-दूर तक हरे पानी के पौधे ने नदी को घेर लिया है। हरी नदी जो है, बिल्कुल पौधा ही पौधा हो गयी है। मीलों तक सिर्फ पौधों का विस्तार हो गया है और पानी बिल्कुल ढंक गया है। पता ही हनीं चलता कि पानी है। उसे देखकर मैं सोचने लगा, आदमी का मन भी ऐसे ही है। षब्दों के पौधे फैलते चले गए हैं और उन्होंने पूरे मन को घेर लिया है और पीछे पता ही हनीं चलता कि जीवन कोई पानी भी है। अब उनको जरा हटाएं, पौधों को, तो नीचे मिल जाएगा। षब्दों को थोड़ा हटाएं तो नीचे प्राण मिल जाएंगे, सत्य मिल जाएगा। पहली षर्त है, षब्दों को हटाएं। साहस के साथ षब्दों को अलग करें, षब्दों की जड़ता को तोड़े और अपने को चैतन्य करें, अपने को जड़ न बनाए। दोहराने वाला मन जड़ हो जाता है। असल में दोहराने की क्रिया ही जड़ता का लक्षण है। एक मशीन है, वह निरंतर ही दोहराती रहती है। मशीन कभी गड़बड़ नहीं करती, कभी बीच में अनियमितता नहीं करती। इररेगुलरिटी नाम की चीज मशीन में नहीं होती, क्योंकि वह जड़ है। और अगर आपका मन भी मशीन की तरह दोहराता रहता है, रोज सुबह उठकर गीता पढ़ लेता है ठीक छह बजे से लेकर सात बजे तक, रात को ठीक मिनटों में प्रार्थना कर लेता है, ठीक पुराने षब्दों में भगवान से बातें कर लेता है, रोज-रोज करता जाता है चालीस साल तक, तो आप जड़ हो जाओगे, मशीन हो जाओगे। आपके भीतर चैतन्य का लक्षण ही नहीं रहा।
चैतन्य का लक्षण तो सहज स्फुरणा है, रिपीटीशन नहीं। लेकिन कोई मुझे कल लिख कर पूछा कि अगर हम राम-राम का जप करें तो क्या लाभ होगा? लाभ होगा क्या! मुर्दा हो जाओगे। लाभ यह होगा कि बुद्धि नष्ट हो जाएगी। लाभ यह होगा कि चेतना विलीन हो जाएगी। लाभ यह होगा कि एक जड़ आदमी की तरह जीने लगोगे और समझोगे कि बहुत बड़ी बात हो गयी। कोई चीज बार-बार दोहराने से मन की चेतना को क्षीण कर जाती है। दोहराना नहीं, चेतना को जगाना है और चेतना को जगाने के लिए स्फुरणा लानी है और स्फुरणा के लिए षब्दों को हटाना है। मैं कोई जप और मंत्र का पक्षपाती नहीं हूं। उन्होंने तो मनुष्य के मन के नीचे से ले जाकर नष्ट कर दिया है। सब हटा दें मन को और निःशब्द में चलें। को हटाएं और निःशब्द में चलें। विचार को हटाएं और निर्विचार में चले। पहले तो यह बोध मन में ले आए कि षब्द से मुक्त हो जाना है तो सत्य की यात्रा हो सकती है।
दूसरी बात..शब्द से मुक्त होना है और दमन से रिक्त होना है। जो मन बहुत दमन करता है वह मन बहुत जटिल, बहुत कांप्लेक्स और बहुत आंतरिक कंट्राडिक्शंस, असंगतियों में, विरोध में पड़ जाता है। हम चैबीस घंटे अपने से लड़ रहे होंगे। तो लड़ने वाला मन धीरे-धीरे अपनी षक्ति तो खोता ही है, अपनी षक्ति तो अपव्यय करती ही है, बहुत सी जटिलताएं खड़ी कर लेता है जिनका हमें स्मरण नहीं होता है। क्रोध आया, क्रोध को दबा दिया। कोई वासना उठी, वासना को दबा लिया। सेक्स का भाव हुआ, उसे दबा लिया? दबाकर सब चीजें जाएंगी कहां? दबाने से चीजें कहां जाएंगी? दबाने से चीजें तो आपके भीतर के ही अतः प्रकोष्ठों में प्रविष्ट हो जाएंगी। बहुत गहरे में भी आपके ही अनकांशस में, आपके ही मन के अचेतन तलों पर चली जाएंगी, वहां बैठ जाएंगी। उनकी जड़ें और गहरी हो गयीं। जैसे किसी आदमी को किसी वृक्ष से विरोध हो और जमीन में गड़ा दे तो उसकी जड़ें और गहरी नीचे बैठ जाए।
आप जब भी कोई चीज दबा रहे हैं जबरदस्ती तो वहां और गहरे में बैठ जाएंगी और आपके चित्त को भीतर से मरोड़ने लगेगी, पकड़ने लगेगी। भीतर से बेचैनियां, अशांतियां पैदा करने लगेंगी और तब आपके चित्त की सारी सरलता नष्ट हो जाएगी। केवल वही चित्त सरल हो सकता है, जो दमन से मुक्त हो, जो सप्रेशन से मुक्त हो। नहीं तो चित्त तो कांप्लेक्स होगा, जटिल होगा। जटिल चित्त कैसे सत्य को जान सकेगा? जटिल चित्त तो भीतर जाने में ही डरता है।
मुझे कई प्रश्न थे, जिनमें लिखा है कि हम तो अकेले में बैठते हैं तो बड़ी बुरी भावनाएं आने लगती हैं। इसलिए आप कहते हैं अकेले में बैठो। हम तो अकेले में बैठते हैं तो सिवाय पाप के कोई विचार नहीं उठते हैं और आप कहते हैं, अकेले में बैठो, निजी हो जाओ। तो हमारे धर्मगुरु और हमारे सत्संग देने वाले लोग तो यह कहते हैं कि कभी अकेले मत रहो, हमेशा सत्संग करते रहो, जिसमें कि बुरी भावनाएं न आए। पागल हुए हैं। अकेले में जो बुरी भावनाएं आती हैं, वे बता रही हैं कि आपके भीतर बुरी भावनाएं हैं। सत्संग में अगर जाकर अच्छी भावनाएं आने लगें और अकेले में बुरी भावनाएं आए तो समझना असली नहीं है, असली तो अकेले में जो उठ रहा है, वही है। दूसरे की बातें सुनकर थोड़ी देर अच्छा भाव बना रहा तो उसका क्या मूल्य है? मूल्य तो उसका है जो आपके भीतर है, वही आपके साथ रहेगा। कोई सत्संग आपके साथ नहीं रहेगा, सत्य आपके साथ रहेगा। अगर यही सत्य है कि मेरे भीतर बुराइयां हैं, तो भागें मत, घबडाएं मत, दबाए मत। उन्हें जानें, पहचानें। रास्ता है उनके विसर्जन का, रास्ता है उनके परिवर्तन का, रास्ता है उनके ट्रांसफार्मेशन का। दमन रास्ता नहीं है। मेरी बात सुनकर लगता है, फिर क्या हम भोग करें? क्रोध आ जाए तो क्रोध करें? वासना आ जाए तो वासना को पूरा करें? क्या करें? नहीं, मैं कहता कि भोग करें। लेकिन अगर कोई मुझसे पूछता हो कि दमन और भोग मग से किसको चुनें तो मैं कहूंगा, कृपा करें और भोग को चुन लें। कम से कम भोग सहज है, नैसर्गिक है। ज्यादा से ज्यादा पशु होंगे। लेकिन अगर दमन को चुना तो पागल हो जाएंगे। अनैसर्गिक है, जबरदस्ती है, अमनोवैज्ञानिक है। कोई विज्ञान न उसके समर्थन में है, न हो सकता है। न कभी रहा है। जो जानते रहे हैं वे भी कभी उसके पक्ष में नहीं रहे हैं।
लेकिन एक तीसरा रास्ता भी है। न तो भोग को चुनने की जरूरत है न दमन की। न पशु होने की जरूरत है, न पागल होने की। जरूरत है मुक्त होने की। और एक और तीसरा रास्ता है, उसकी मैं आपसे बात करता हूं। लेकिन उसको ख्याल में लाने के पहले आपके मन में लग रहा होगा कि जल्दी मैं बताऊं कि कौन-सा रास्ता है। यह क्यों लग रहा है? आप जानते है? यह इसलिए लग रहा है कि दमन की हमें तो बहुत आदत है। अगर वह रास्ता मिल जाए तो उसी से दबा दें। दबाना तो क्रोध को है, दबाना तो सेक्स को है, नष्ट तो इनको करना ही है। आप बता दें, कोई रास्ता है तो उसी से कर दें।
नहीं, इसलिए मैं पहले आपको यह कहूं कि पहले समझ लें कि यह दमन क्या है? और दमन का भाव छोड़ दें। दबाने से कभी कुछ नहीं होता है। चित्त विकृत होता जाता है। कुरूप होता जाता है, कुरूप से कुरूप होता जाता है। सबसे बड़ी अग्लीनेस अगर कोई हो सकती है तो सप्रेस्ड माइंड है, वह दबा हुआ मन है। वह हर चीज को दबाए हुए हैं। उसकी हर चीज कुरूप हो जाती ह..हर चीज। अगर वह फूल को छूता है तो उसके प्राण कांप जाते हैं, क्योंकि भीतर उसने दबाया हुआ है कुछ। अगर वह किसी सुंदर रूप को देखता है तो उसके प्राण कांप जाते हैं, क्योंकि भीतर कुछ दबाया हुआ है। उसके जीवन में सब कुरूप हो जाता है, सब घबड़ाहट, सब बेचैनी, सब मुश्किल हो जाती है। वह चैबीस घंटे चैकन्ना और डरा हुआ रहने लगता है, भयभीत हो जाता है। हर वक्त उसे डर लग रहा है कि कहीं यह न हो जाए, कहीं वह न हो जाए। वह दबे हुए वेग ऊपर आना चाहते हैं, और दबा देते हैं आप क्योंकि शिक्षा सिखाती ह..भोग बुरा है, क्रोध करना बुरा है, प्रेम करना बुरा है, घृणा करनी बुरी है, सब बुरा है। हर चीज बुरी है, इसको दबाओ। तो दबाने का भाव शिक्षा सीखाती है, इसको दबाओ। मैं आपको कहता हूं, दबाओ नहीं, इसको बदलो दबाओ नहीं, इसे परिवर्तित करो। ये सब षक्तियां हैं, जिन्हें दबाना नहीं, बल्कि ट्रांसफार्म करना है, बदलना है। ये तो षक्तियां हैं।
क्या आपको यह कभी ख्याल में आया है, इस जगत में जो लोग परम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हुए हैं, वे कौन लोग थे? क्या वे लोग थे जिनके पास सेक्स की षक्ति नहीं थी? नहीं, ये वे ही लोग थे जिनके पास सेक्स की अति षक्ति थी। वही अति षक्ति परिवर्तित हुई। क्या आपको पता है, जो क्षमा को उपलब्ध हुए, ये वे लोग थे जिन्होंने कभी क्रोध नहीं किया? नहीं, ये वे ही लोग थे जिनके पास क्रोध की चरम षक्ति थी। क्रोध की चरम षक्ति ही परिवर्तित होकर एकदम क्षमा और दया बन जाती है। और काम की, सेक्स की षक्ति ही परिवर्तित होकर प्रेम और आनंद बन जाता है। षक्तियां वही हैं, उनके टरंसफार्मेशन का सवाल है। लेकिन जो दमन में पड़ जाएगा उसका चित्त कुरूप और विकृत हो जाएगा। वह खुद के भीतर विभाजित हो जाएगा। एक हाथ से करना चाहेगा, एक हाथ से नहीं करना चाहेगा। वह ऐसी हालत में हो जाएगा, जैसे किसी कार में दोनों तरफ इंजन लगा दिए हों या चारों तरफ, और इंजन एक साथ षुरू कर दिए गए हों और चारों तरफ गाड़ी को भगाने की कोशिश चल रही हो। क्या होगा परिणाम? क्या परिणाम हो सकता है? घिसटेगी गाड़ी आवाज करेगी, षोरगुल मचाएगी, वहीं की वहीं खड़ी रहेगी। परेशान करती रहेगी और खुद के प्राणों को कंपाती रहेगी।
हम सभी ऐसे ही दोहरी तरफ जुते हुए हैं। उसी को भोगना चाहते हैं, उसी को दबाना चाहते हैं, उसी को भोगना चाहते हैं, उसी को दबाना चाहते हैं। फिर कठिन हो जाता है। हटाते हैं और खुद बुलाते हैं। खुद निमंत्रण भेजते हैं, खुद द्वार बंद करते हैं। तब फिर बहुत मुश्किल हो जाती है, चित्त जटिल हो जाता है। जटिल चित्त सत्य को नहीं जान सकता और जटिल चित्त स्वयं में प्रवेश करने में डरने लगता है। आप सब डरेंगे। अगर आपको एकांत में बिठा दिया जाए और कहा जाए, बिल्कुल निज हो जाए, अकेले हो जाए, आपकी बड़ी घबड़ाहट होने लगेगी, ये कहां-कहां के विचार आ हरे हैं? यह तो बड़ी मुश्किल हो गयी। अगर ऐसे महीने भर रह गया तो पागल हो जाऊंगा, यह क्या हो रहा है? कभी अकेले में बैठे, दरवाजा बंद कर लें, जोर-जोर से जो मन में आता हो, बोलें। आप घबड़ा जाएंगे। कहेंगे कि यह मेरे मन में क्या आ रहा ह..क्या आ रहा है यह? आप अपने निकटतम मित्र के पास बैठकर भी अपना हृदय नहीं खोल सकते हैं। नहीं खोल सकते, क्योंकि आप खुद ही डर जाएंगे, अपने सामने नहीं खोल सकते। इतना दबाया है, इतना-इतना दबा लिया है जाएंगे, अपने सामने नहीं खेल सकते। इतना दबाया है, इतना-इतना दबा लिया है कचरा है, वही आपकी संपत्ति हो गयी है। उस संपत्ति के कारण आप भीतर प्रवेश नहीं कर सकते हैं।
मैंने सुना है, एक होटल में एक रात एक नया मेहमान आकर ठहरा। वह जब आया तो होटल में एक ही कमरा खाली था। तो उस होटल के मैनेजर ने कहा कि कहीं और ठहर जाए। एक कमरा खाली तो है, लेकिन देने में डर लगता है। उस कमरे के नीचे जो मेहमान ठहरे हुए हैं, वे कुछ बड़े अजीब और बड़े पागल हैं। अगर ऊपर आप जरा जोर से भी चलें और उनको आवाज मिल गयी, तो वे झगड़ा करने पहुंच जाएंगे। अगर आपने कोई सामान जरा जोर से रख दिया या कुर्सी जोर से खींच ली तो वे झगड़ा करने पहुंच जाएंगे। आप कहीं और चल जाए। उसकी वजह से वह कमरा किसी और को देना कठिन है। लेकिन उस आदमी ने कहा, मुझे कोई काम भी नहीं करना, कोई मौका भी नहीं है। रात मैं बारह बजें लौटूंगा, आकर फिर सुबह ही वापस चला जाऊंगा। कोई गुंजाइश नहीं है। फिर मैं ध्यान रखूंगा। चार-छह घंटे सोऊंगा कि कोई नींद में मुझे गड़बड़ न हो। नहीं माना तो उस यात्री को ठहरा दिया गया। रात बारह बजे लौटा। थका-मांदा दिन-भर के काम के बाद बिस्तर पर बैठा, एक जूता खोला, छोड़ा। जैसे ही जूता गिरा, आवाज आई। उसे ख्याल आया, कहीं नीचे कुछ बड़बड़ न हो जाए। उसने दूसरा धीरे से निकालकर रखा और सो गया!
नीचे बड़बड़ हो गयी। नीचे के आदमी ने आवाज सुनी, दरवाजा खुलते ही समझा कि ऊपर के सज्जन आ गए। फिर जूता पटकने की आवाज आयी तो उसने आया कि एक जूता उतारा। अब वह दूसरे की प्रतीक्षा करने लगा कि दूसरे जूते का क्या हुआ? दूसरे जूते का आखिर हुआ क्या? देर पर देर होने लगी और दूसरा जूता तो गिरा नहीं। उसने अपने मन में बहुत सोचा कि मुझे किसी के जूते से क्या लेना है! अलग करो इस विचार को। वह जितना धक्का देने लगा, उतनी नींद मुश्किल हो गयी। वह निकालने लगा इस विचार को, मुझे किसी के जूते से क्या लेना-देना! अलग करो, अलग करे, इससे मुझे क्या करना है? लेकिन दूसरा जूता उसके ऊपर बिल्कुल झूलने ही लगा कि वह गिर क्यों नहीं रहा है? उस दूसरे जूते का हुआ क्या? वह जितना धकाने लगा, जितना उसे हटाने लगा, उतना ही पाया कि वह आने लगा है। वह घबड़ा गया, वह बेचैन हो गया, वह परेशान हो गया, वह परेशान हो गया। आखिर उसके बर्दाश्त के बाहर हो गया, वह उठा और ऊपर गया। कोई एक-डेढ़ बजता होगा, दरवाजा खटखटाया। यह आदमी बहुत घबड़ाया कि क्या बात है। दरवाजा खोला, आशा तो हुई कि नीचे वाले सज्जन होने चाहिए। वह आदमी गुस्से में खड़ा हुआ था। उसने कहा, क्या मामला है, दूसरे जूते का क्या हुआ?
...निषेध आमंत्रण बन जाता है। निषेध आमंत्रण बन जाता है, इसे स्मरण रखें। यहां दरवाजे पर लिख दिया जाए, भीतर झांकना मना है, फिर इतना षक्तिशाली मनुष्य षायद ही उसके सामने से निकले जो बिना झांके निकल जाए। और अगर कोई किसी तरह से संयम करके निकल भी जाए तो घर पहुंचकर भी लौटने का मन बना रहेगा कि दफा झांककर देख ही लेना था कि बात क्या थी, मामला क्या था? ऐसे ये दरवाजे खुले हुए पड़े हैं, और कोई इनसे झांकेगा नहीं। लेकिन इन पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दें कि यहां झांकना मना है और बस तब कठिनाई षुरू हो जाएगी।
हमने जिंदगी पर सब जगह लिख दिया है कि झांकना बना है और इसकी वजह से सारी कठिनाई पैदा हो गयी है। क्रोध करना मना है, सेक्स करना मना है, सब चीजें वर्जित हैं, सब मन हैं। सबके भीतर झांकने का मन पैदा हो जाता है। सिखा दिया जाता है, झांकना मना है, इस वजह से आकर्षण गहरा हो जाता है। फिर झांकते भी हैं तो पछताते हैं, क्योंकि बुद्धि कहती है कि झांकना मना था, वह कैसा पाप कर दिया! झांकते है तो पछताते हैं, नहीं झांकते तो पछताते हैं कि झांक क्यों न लिया? तो बहुत कठिनाई खड़ी हो जाती है। और चित्त बहुत मुश्किल में उलझता चला जाता है। जिंदगी छोटी और उपद्रव बड़ा हो जाता है। उसे झेलना मुश्किल हो जाता है। आखिर में आप पाते हैं कि इस उपद्रव में, इस संघर्ष में नष्ट हो गए। यह कांफिलफ्ट दुख देती है। कांफ्लिक्ट, अंत द्वंद्व के अतिरिक्त मनुष्य को नष्ट करने वाली और कोई चीज दुनिया में नहीं है। वही तोड़ देती है और नष्ट कर देती है। और तब हम एक खंडहर की तरह रह जाते हैं जिसका कुल धंधा पछताना है, और कुछ भी नहीं है। अगर भोग लें तो पछताते हैं कि पाप कर लिया, अगर न भोग पाए तो पछताते हैं कि पता नहीं, पाप में ही सुख रहा हो! यहां तो कोई सुख मालूम होता नहीं।
जो गृहस्थ हैं, वे मुझे मिलते हैं, कहते हैं, गृहस्थी से ऊबे हैं। वे सबके सामने कहते हैं, सरल लोग हैं, संन्यासी मुझे मिलते हैं, वे अकेले में कहते हैं, बहुत ऊबे हुए हैं, कुछ समझ में नहीं आता क्या करें? गृहस्थी थी। उसको छोड़ा कि यहां सुख नहीं है। यहां भी कोई सुख नहीं है, जिसको संन्यास करके पकड़ लिया था। मुझसे एकांत में कहते हैं, क्योंकि संन्यासी उतने सरल नहीं है, गृहस्थ भीड़ में कह देता है कि मेरा चित्त बड़ा अशांत है। संन्यासी कहता है, अकेले में मेरा चित्त बहुत अशांत है, मैं मुश्किल में पड़ा हूं। कई दफा मन होता है उसका कि वापस लौट जाऊं, दुनिया को बिना झांके छोड़ आया हूं, झांक ही लूं, षायद वहीं रस हो। यहां तो कोई रस मालूम होता नहीं। वे वर्जित फल मीठे हो जाते हैं।
ईसाइयों की कहानी है, आदम ने बहिश्त के बगीचे में, इडेन के बगीचे में वह जो ज्ञान का फल था, उसको खा लिया। अब उसका जिम्मा अदम पर नहीं हो सकता, भगवान पर होगा। उन्होंने वर्जित कर दिया पहले कि इस फल को मत खाना। कठिनाई हो गयी। उन्होंने कह दिया कि बगीचे मग सब फल खा लेना, भगवान ने आदमी को, ईव को कहा, सब फल खा लेना, जो टी आफ नालेज है, वह झाड़ है ज्ञान है, इसका ईल मत खाना। बस, यह वर्जन ही आकर्षण हो गया।
अब ईव और अदम कितने परेशान हुए होंगे, नहीं कहा जा सकता। कैसे रात उन्होंने बेचैनी में गुजारी होगी, कैसे जागते होंगे; सोचते होंगे, क्या करें, कैसे करें, कैसे वह फल होगा, क्या होगा उसमें, क्या नहीं होगा! वह जो कहा जाता है, षैतान उनको समझाने लगा, खो लो, उसका मतलब यही है। उनका मन ही उनसे कहने लगा, खा लो, चख लो, जरूर उसमें कुछ मामला होगा, तभी तो भगवान ने वर्जन किया। तो षैतान ने उनसे कहा कि भगवान खुद तो यह खाता है और तुमको वर्जित करता ह..यह उनके मन ने ही कहा। षैतान कहां है, कौन? कि खुद तो खाता है और तुमको मना करता है, सबसे बड़ा रहस्य यही है। जहां वर्जन है, वही रहस्य है। तो अगर अदम बगीचे से निकला और उसने पाप किया फल को खाने का तो जिम्मा अगर किसी का हो तो परमात्मा का ही होगा। न निषेध करता, न पता चलता उतने बड़े जंगल में कि कौन से झाड़ को नहीं खाना है।
लेकिन हम सबको निषेध सिखाया गया है और उससे दमन पैदा होता है। मैं आपको कहता हूं, जीवन को सहज भाव से लें, घबड़ाए नहीं और किसी फल का वर्जित न मानें। वर्जित माना कि दुख में पड़ जाएंगे। चखें, जाने, पहचानें, अपनी षक्तियों से परिचित हों, क्रोध की षक्ति से भी परिचित हों, काम की षक्ति से भी परिचित हों, अपने चित्त के सारे वेगों से परिचित हों। और परिचित होने से आप उस रहस्य पर पहुंचेंगे जहां वेग से मुक्त हो जाना होता है। तो न तो कहता हूं, भोग मैं जीवन भर पड़े रहे। वह भी एक मूच्र्छा है कि कोई आदमी भोग में ही पड़ा रहे और उसके ऊपर न उठ जाए। और न कहता हूं कि दमन करें, वह और भी बड़ी मूच्र्छा है। उससे कोई मुक्त नहीं होता। कहता हूं कि जीवन के सारे वेगों के प्रति, मन के सारे वेगों के प्रति, जाग्रत हों, साक्षी बनें, देखें, पहचानें, परिचित हों, और आप हैरान हो जाएंगे कि अगर एक बार भी क्रोध के पूरे साक्षी हो जाए तो आप क्रोध से मुक्त हो जाएंगे। अगर एक बार भी अपनी किसी वासना के पूरे साक्षी हो जाए..शुरू से लेकर अंत तक..पत्ते से लेकर जड़ तक, गहरे मन के अंतिम कोने तक, अगर उस वासना के पूरे रूप से आप परिचित हो जाए तो वह जानना ही मुक्त कर देता है।
ज्ञान ही मुक्त कर देता है, क्योंकि उसके बाद करने जैसा कुछ भी नहीं रह जाता, उसमें कोई अर्थ नहीं हर जाता है। कोई रस नहीं रह जाता। निषेध नहीं करना होता है। निषेध तो वही करता है, जिसे रस है। एक आदमी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं तो ब्रह्मचर्य से रहूंगा। यह आदमी सेक्सुअल है, तब तो प्रतिज्ञा लेता है। अगर इसका सेक्स का भाव जानने से विलीन हो गया हो तो प्रतिज्ञा ब्रह्मचर्य की क्या अर्थ रखती है? जो भी प्रतिज्ञा लेते हैं और व्रत लेते हैं, घोषणा करते हैं, उससे विपरीत रस उनके भीतर मौजूद है। नहीं तो कोई वजह नहीं है। जो जानता है, क्या प्रतिज्ञा लेगा? क्या मैं प्रतिज्ञा लूंगा कि जब भवन से निकलूंगा तो दरवाजे से ही निकलूंगा, दीवाल से नहीं निकलूंगा? फिर क्या प्रतिज्ञा लूंगा? जानता हूं कि दीवाल से निकला ही नहीं जा कसता। सिर फाड़ सकता हूं। जानता हूं कि निकलना दरवाजे से होता है। बिना प्रतिज्ञा किए तीन दिन से रोज निकल जाता हूं। दरवाजे से निकल जाता हूं, दरवाजे से आता हूं। प्रतिज्ञा एक भी दिन लेने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन अगर कोई आदमी यहां कहे कि मैं सबके सामने खड़े होकर प्रतिज्ञा करता हूं कि आज तो दरवाजे से निकलूंगा, दीवाल से नहीं, तो हम सोचेंगे कि मस्तिष्क में दीवाल से निकलने की कोई बात चल रही है। नहीं तो यह कैसे होता? एक आदमी ब्रह्मचर्य लेता है कि ब्रह्मचर्य से रहूंगा, अर्थ हुआ कि मन के भीतर बहुत कामनाएं, वासनाएं चल रही हैं। उसके विरोध में खड़ा हो रहा है। विरोध में खड़े होने से मन षुरू हो जाएगा।
नहीं, मैं नहीं कहता कि ब्रह्मचर्य का व्रत लें, मैं कहता हूं, सेक्स को जानें और समझें, और आप पाएंगे कि ब्रह्मचर्य आना षुरू हो गया। उससे डरें न, घबड़ाए न। क्रोध से डरें न, घबड़ाए न, उससे परिचित हों, जानें, और जब क्रोध आए तो इसका एक अवसर बनाए आब्जर्वेशन का, इसे एक अवसर बनाए निरीक्षण का, इसे एक अवसर बनाए कि कितना बढ़िया मौका मिला कि मैं जानूं अपने चित्त की एक सोयी वृत्ति को कि यह क्या है। बैठ जाए एक कोने में और क्रोध को फैलने दें, फूलने दें, बढ़ने दें और षांत होकर उसका निरीक्षण करें कि यह क्रोध क्या है। मत दोहराएं पिता ने जो सिखाया है कि क्रोध बुरा है; क्योंकि यह दोहराया कि क्रोध का फिर निरीक्षण नहीं हो सकता। किताब में क्या लिखा है कि क्रोध बुरा है, मत दोहराए; क्योंकि दोहराया कि फिर निरीक्षण नहीं हो सकेगा। अगर मैं यह मानकर ही आपके घर आ जाऊं कि यह आदमी बुरा है, षैतान है, तो फिर आपसे मिलना क्या हो सकेगा, आपसे पहचान क्या हो सकेगी! मेरी मान्यता बाधा बन जाएगी। क्रोध या, घृणा, या काम या लोभ, किसी के प्रति कोई भावना न बनाए। जीवन पाप को मिला है। दूसरों की उधार दृष्टियों को लेने का कोई भी कारण नहीं है। जिए और जानें। क्रोध को पहचानें, अबाजर्व करें, ठीक-ठीक सम्यक निरीक्षण करें तो आप हैरान हो जाएंगे, जिस दिन आप क्रोध की पर्त-पर्त उघाड़कर देख लेंगे, आप पाएंगे कि इसमें तो कुछ भी न था, इसमें तो कोई अर्थ न था, इसमें तो कोई अभिप्राय न था। तब आप सिर्फ हंसेंगे। तब सिर्फ हंसेंगे कि कैसा पागल था कि दीवाल से निकलने की कोशिश करता था! आंख खुल जाएगी। तो हंसेंगे। हंसने के सिवाय कुश षेष न रह जाएगा और तब क्रोध विलीन हो जाएगा।
जानने से, परिचित होने से, पहचानने से, वैज्ञानिक निरीक्षण से, तटस्थ द्रष्टा के भाव से क्रोध, और उसी भांति और वासनाएं क्षीण होती हैं, और विलीन हो जाती हैं। लेकिन यह विलीन होना बहुत भिन्न है और दमन बहुत भिन्न है। दबाने से क्रोध तो विलीन होता, क्रोध तो भीतर होता है, अक्रोध का भाव ऊपर जाता है। क्रोध भीतर दबा रहता है, अक्रोध की वेश-भूषा ऊपर हो जाती है। काम भीतर होता है, ब्रह्मचर्य ऊपर होता है और इसीलिए हमेशा डर बना रहता है कि वह जो भीतर है, चैबीस घंटे धक्के देता है कि बाहर न आ जाए, बाहर न निकल आए, इसलिए उसे सम्हालना पड़ता है। और जिंदगी एक सम्हालना हो जाती है, जीना नहीं। लिविंग दूसरी बात है और सम्हालना दूसरी बात है।
एक आदमी सम्हाल रहा है चैबीस घंटे अपने को। वह कोई जीना है? लेकिन यदि क्रोध के ज्ञान से क्रोध विलीन हो जाए तो अदभुत घटना होती है। वह जो क्रोध की षक्ति थी, वह जो वेग था जो इनर्जी थी, वह जो ऊर्जा थी, वह अब चूंकि क्रोध के मार्ग से निकलने में असमर्थ हो जाती है, क्रोध का मार्ग ही नष्ट हो जाता है; फिर वह कहां जाएगा? वही ऊर्जा क्षमा बन जाती है। तो टरंसफार्मेशन होता है। अगर एक मार्ग बंद हो जाए, अगर आप एक झरने पर हों और झरने का एक मार्ग बंद हो जाए, फिर झरना दूसरे मार्ग से प्रवाहित होगा। अगर नीचे के मार्ग बंद होते चले जाए..ज्ञान से, जबरदस्ती नहीं, तो षक्तियां ऊपर के मार्गों से प्रवाहित होने लगती है। अगर व्यक्ति की पशुता जिस-जिस द्वार से विलीन हो जाती है, उसी-उसी द्वार से व्यक्ति के प्रभु का प्रकाशन षुरू हो जाता है। पशु मग ही प्रभु छिपा हुआ है। वे जो आपके वेग हैं उनमें ही सारी श्रेष्ठ बातें छिपी हैं जो मनुष्य को मुक्त कर दें और मोक्ष में प्रतिष्ठित कर दें। इनसे घबड़ाए न और मन को जटिल न करें, दमन न करें।
दूसरी बात है, दमन से रिक्त हो जाए और साक्षी भाव को जगाए। विसर्जन को पैदा करें, वृत्तियों का परिवर्तन करें, वृत्तियों का विरोध नहीं। वृत्तियों के षत्रु न बनें, प्रेम करें, मित्र हो जाए और जीत लें। ये दो बातें..शब्द से मुक्त हो जाए और दमन से रिक्त हो जाए तो आपके चित्त की भूमि से पत्थर हो जाएंगे। पत्थर हट जाएंगे। बस ये दो तरह के पत्थर हैं..सिद्धांत और दमन। ये मन को घेरे हुए हैं। वह खाली कर लें, भूमि निर्बल हो जाएगी। भूमि उपजाऊ हो जाएगी। पत्थर हट जाएंगे। अब इसमें बोए जा सकते हैं बीच। अब इसमें वे सत्य, जिनके बाबत मैंने दो दिन चर्चा की, इसमें डाले जा सकते हैं।
क्या मैंने चर्चा की? मैंने दो दिन चर्चा की कि क्रमशः-क्रमशः हमें उससे हटाते जाना है जो हम नहीं हैं और उसे जगाना है जो हम हैं। क्या-क्या हम नहीं हैं? असल में जो भी हम कर सकते हैं, जो भी हम सोच सकते हैं, जिसकी भी हम कल्पना कर सकते हैं, वह हम नहीं होंगे। जो हम कर सकते हैं, हमारा कर्म हो सकता है, वह हम नहीं होंगे। क्योंकि कर्म अलग होगा और मैं अलग। करने वाला अलग होगा। अभी मैं बैठा हूं, अभी चल नहीं रहा हूं। अभी उठूंगा तो चल सकता हूं। चलने की क्रिया नहीं है, तब भी चलने वाला मौजूद है। अभी उठूं तो चल सकता हूं। अभी बोल सकता हूं, अभी चुप हो जाऊं। चुप हो गया, तब भी बोलने वाला मौजूद है। क्रिया न हो तो कर्ता मौजूद है, इसलिए फिर हम बोल सकते हैं, फिर चल सकते हैं। क्रियाएं हम नहीं हैं..चाहे षरीर की और चाहे मन की, तो चित्त से अगर पत्थरों को अलग कर दें तो फिर अक्रिया में, उस दशा में, जब न कि मेरे षरीर की कोई क्रिया है और न मन की कोई क्रिया है, स्वयं में प्रवेश हो जाता है।
अक्रिया ध्यान है, नॉन-एक्शन। सब तलों पर..शरीर के तल पर, मन के तल पर अक्रिया, किसी तरह की क्रिया का न होना, किसी तरह के कंपन का न होना ध्यान है।
एक फकीर हुआ है, बहुत बड़ा फकीर था..बहुत बड़ा दूर तक उसके प्रभाव का घेरा था। हजारों-लाखों लोग उसके पास आते हैं। बहुत बड़ा उनके विश्राम के लिए आश्रम था। दूर-दूर तक फैले हुए जंगल में भवन थे, कुटिया थीं। एक बार देश का राजा भी वहां आया तो वह फकीर दिखलाने ले गया अपने आश्रम को। उसने भोजनालय से लेकर पुस्तकालय तक सब दिखलाया, सब बताया..यहां यह, यहां यह। सारे भवनों के घेरे के बीच में एक विशाल भवन था। और सब भवन तो छोटे-छोटे थे, झोपड़े थे। बीच में था एक विशाल भवन। राजा बार-बार पूछने लगा, यह क्या है, यहां क्या होता है? लेकिन फकीर इसे सुने और चुप रह जाए, राजा बहुत हैरान हुआ। छोटे-छोटे झोपड़े दिखाए, जाकर बताया कि यह स्नानगृह है, ये पाखाने हैं, यह फलां है, ढिकां है। राजा बार-बार पूछने लगा कि, और यह जो बीच में, यह जो विशाल भवन है, यह क्या है? फकीर से जैसे ही यह पूछे, फकीर चुप रह जाए। राजा बहुत हैरान हुआ कि यह आदमी पागल है कि क्या है। जो दिखाने जैसा है वह दिखाता नहीं। जो नहीं दिखाने जैसा है वह घुमा रहा है और दिखा रहा है।
आखिर विदा का भी वक्त आ गया, द्वार पर भी राजा आ गया। राजा ने पूछा, मैं कुछ समझने में असमर्थ हूं कि जो भवन इस आश्रम में सबसे बड़ा है, केंद्र में है, विशाल है, दूसरे से जिसके गुंबद दिखाई पड़ते हैं, यह क्या है? यहां क्या होता है? और वहां मुझे दिखाया भी नहीं और फिजूल के झोपड़े मुझे घुमाए गए। फकीर कहने लगा, बार-बार आप पूछते थे, मैं क्या बताऊं? कुछ बात ही ऐसी है कि बताना मुश्किल है। राजा ने कहाः फिर भी कुछ तो वहां करते होंगे? क्या करते हो? क्या है यह? उस फकीर ने कहाः यही तो कठिनाई है। वहां बैठ कर कुछ भी नहीं करते, वहां हम सिर्फ बैठ जाते हैं, खाली हो जाते हैं, करते कुछ भी नहीं। वह तो नॉन-एक्शन की जगह है, वह तो मेडिटेशन की जगह है, वह तो ध्यान की जगह है। अब हम कैसे बताए कि वहां क्या करते हैं? वहां तो कुछ भी नहीं करते। किसी को कुछ भी नहीं करना होता है तो वहां चला जाता है। फिर वहां वह कुछ भी नहीं करना है। बस रह जाता है, हो जाता है, सिर्फ होता है, करता कुछ भी नहीं। कुछ भी हनीं करता, मात्र रह जाता है। जस्ट एक्झिस्ट! सिर्फ होना!
आप न षरीर से कुछ कर रहे हैं, न मन से कुछ कर रहे हैं, वहां ध्यान है। लेकिन या तो कोई माला फेर रहा है, तो यह सब क्रिया है। या कोई राम नाम जप रहा है, यह भी क्रिया है। या कोई गायत्री का पाठ कर रहा है, यह भी क्रिया है। जहां कोई भी क्रिया नहीं है, वहां स्वयं सत्ता है। चित्त की भूमि को तैयार करें, मुक्त करें षब्द से, रिक्त करें दमन से और फिर आप..आसान हो यह किन्हीं घड़ियां में, किन्हीं अमूल्य क्षणों में, बस हो जाएं, सिर्फ हों, और कुछ न करें।
एक और घटना कहूं, षायद उससे ख्याल में आए। मुझसे ही लोग पूछते हैं, ध्यान कब करते हैं? मैं मुश्किल में हो जाता हूं। कब करते हैं...? जिनके घरों ठहरता हूं, वे नजर रखते हैं मुझ पर। सुबह उठा तो कब ध्यान के लिए बैठा? रात सोया, फिर बैठा कि नहीं, फिर बड़े निराश हो जाते हैं। मैं तो कभी ध्यान को बैठता ही नहीं। कई लोग हैं, कई पागल हैं, मुझसे कहते हैं, आपके पास-पास आना चाहते हैं, जीवनचर्या देखना चाहते हैं। जीवनचर्या क्या देखेंगे? खाता हूं, पीता हूं, नहाता हूं, कपड़े पहनता हूं, क्या करेंगे? कोई आग्रह नहीं मेरा कि चार बजे उठूं। मेरा कोई आग्रह नहीं। जब नींद खुलती है तो उठता हूं नींद आती है तो सोता हूं। भूख लगती है, खाता हूं, नहीं भूख लेती है, नहीं खाता हूं। तो दिखेंगे क्या? क्या देखेंगे? वे बेचारे देखने आना चाहते हैं कि ध्यान कब करता हूं, कैसे करता हूं? ध्यान कोई करने की बात नहीं है कि आप बैठ गए पालथी लगा कर और पदमासन लगा कर और आंखें बंद करके। बच्चों जैसी बात है, इम्योच्योर बात है। ऐसे बैठ गए बनकर तो सोचा ध्यान हो गया। कोई माला लेकर बैठ गया, सोचा ध्यान हो गया। ध्यान बड़ी अदभुत बात है। ध्यान कोई क्रिया नहीं है। ध्यान कोई एक्शन का हिस्सा नहीं है, ध्यान बीइंग का हिस्सा है। ध्यान है आत्मा का स्वरूप ध्यान आपकी कोई क्रिया नहीं है।
एक फकीर एक पहाड़ी के किनारे खड़ा था। कुछ मित्र आते थे, करीब आते थे। सोचने लगे, क्या वहां करता होगा? कोई भी..मैं नहीं बैठा हूं, सोचेंगे क्या करते होंगे? अभी बोल रहा हूं तो आपको लगता होगा, बोल रहा हैं, लेकिन एक तल है, जहां कुछ भी नहीं हो रहा है। वह खड़ा था वहां तो सोचा, कुछ न कुछ करता होगा। विवाद हो गया, और हमारा विवाद तो किसी भी बात में हो जाए। चित्त तो विवाद से भरा हुआ है, किसी में भी लड़ जाए! छोटी-मोटी बातों में लड़ जा सकते हैं कि किस फिल्म में कौन अभिनेता काम करता है, इस पर लड़ सकते हैं। महावीर बड़े थे कि बुद्ध बड़े थे, इस पर लड़ सकते हैं। एक पंडित ने मुझसे पूछा कि आप मुझे बताइए कि उम्र में महावीर बड़े थे कि बुद्ध बड़े थे? मैंने कहा, आपका दिमाग ठीक है कि खराब हो गया है? मुझे क्या प्रयोजन? नहीं, मैं इधर सात वर्षों से खोज कर रहा हूं। सात वर्ष तो मिट्टी में गए आपके, और अभी भी थोड़ा बहुत समय है, उसकी फिकर कर लें, अपनी उम्र की फिकर करें। महावीर बड़े थे उम्र में या बुद्ध बड़े थे, क्या मतलब है? लेकिन दुनिया में रिसर्च के नाम से बहुत पागलपन आया है, बहुत मैडनेस आयी है। और वह पागलपन चल रहा है कि कहां क्या था, किस गांव में पैदा हुए थे। किसी में हुए हों, क्या लेना-देना है? न भी हुए हों तो क्या फर्क पड़ता है? आप हैं, यह तो विचार की बात है, तो वह छोटी-सी बात में हमारे तो विवाद हो सकते हैं, कोई विवाद की तो दिक्कत नहीं है।
एक गांव में गया, मैं बोलता था, एक फकीर का नाम लिया, एक सज्जन बीच में खड़े हुए, बोले बिल्कुल गलत है, यह नाम तो ठीक नहीं है। यह घटना तो किसी दूसरे फकीर की है। मैंने कहा, दूसरे की समझ लो, तीसरे की हो, तीसरे की समझ लो। क्या लेना-देना? अ ब स कोई भी नाम रख लो। मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन इसमें विवाद क्या है? इसमें गुंजाइश क्या है, लड़ने की?
वह फकीर खड़ा है, तीन-चार मित्र गए, सोचने लगे क्या कर रहा है? एक कहा कि अक्सर ऐसा होता है कि उसकी गाय खो जाती है। पहाड़ी पर जाकर खोजता है कि मेरी गाय कहां है। वही खोजता होगा लेकिन दूसरे ने कहा कि मालूम नहीं होता कि गाय खोजता है, क्योंकि खोजने वाले की आंखें भटकती हुई होती हैं। वह तो षांत ही खड़ा हुआ है। मुझे ऐसा लगता है कि कोई मित्र पीछे आया होगा, छूट गया घूमने में, उसकी प्रतीक्षा करता होगा। तीसरे ने कहा, क्षमा करें, प्रतीक्षा करने वाला थोड़ी-थोड़ी देर में लौट कर पीछे देखता है। वह तो लौटकर देखता नहीं, खड़ा ही हुआ है। प्रतीक्षा-व्रतीक्षा नहीं कर रहा है, मैं समझता हूं फकीर है, साधु ध्यान कर रहा है, परमात्मा का स्मरण कर रहा है। कोई प्रार्थना कर रहा है।
नहीं तय हो सका तो सोचा, चलो उसी से पूछ लें। चढ़े पहाड़ पर ऊपर गए। फकीर से जाकर पहले व्यक्ति ने पूछा कि क्या भिक्षु आपकी गाय खो गयी है? उसको खोज रहे हैं? भिक्षु ने कहा, गाय! कैसी गाय, किसकी गाय? मेरा कुछ भी नहीं है, गाय मेरी कैसे हो सकती है? पूछने वाला हैरान हुआ, फिर भी सोचा, आपकी कभी-कभी गाय खो जाती है। मेरी कोई गाय ही नहीं तो खोएगी कैसे? मैं कुछ नहीं खोज रहा। दूसरे ने कहा, निश्चित ही फिर आपका कोई मित्र पीछे छूट गया होगा। उसने कहा, कैसा मित्र, कैसा षत्रु? मेरा कोई षत्रु नहीं, मेरा कोई मित्र नहीं। मैं किसी के साथ आया नहीं, किसी के साथ जाऊंगा नहीं। तो मैं किसी प्रतीक्षा करूं? मैं कहूं अकेला निपट। किसी की प्रतीक्षा, किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रहा। तब तो तीसरे ने सोचा, अब तो जीत का मामला पक्का ही है। उसने कहा, अब तो तय है कि आप भगवान की प्रार्थना कर रहे हैं। उसने कहा, कैसा भगवान और कैसी प्रार्थना? मैं कभी कोई प्रार्थना नहीं किया करता। मेरी कोई कामना नहीं तो प्रार्थना क्या होगी? कैसा भगवान? मैं तो अपने अतिरिक्त किसी को जानता नहीं। तो कैसे किसी भगवान का स्मरण करूं? उन तीनों ने कहा कि अजीब बात है। आप कर क्या रहे यहां? आखिर हो क्या रहा है यहां? क्या कर रहे हैं यहां? फकीर ने कहाः मैं तो केवल हूं। और कर कुछ भी नहीं रहा। मैं सिर्फ हूं और कर कुछ भी नहीं रहा। मैं तो बस हूं मात्र।
यह होना मात्र सिर्फ हो जाना मात्र..यह है बात। फिर उसे कुछ भी कहें..ध्यान कहें, कुछ और नाम दें, जो मन में आए वह कहें, यह है। और इस संगीत को जो होने मात्र से अनुभव होता है वह परमात्मा कहा जाता है। इस संगीत को जीने मात्र होने से अनुभव पाया जाता है जीवन, इस संगीत को जो होने मात्र से संपदित होता है और सारे तन-प्राणों को घेर लेता है और घेरता चला जाता है, और धीरे-धीरे सारे जगत को घेर लेता है और आनंद के ऊर्जा में स्थापित कर देता है, इसे कहा है मोक्ष। व्यक्ति यहां मिट जाता है, और समष्टि रह जाती है। इसे कहा है स्वयं का होना। लेकिन जैसे ही हम इसमें प्रविष्ट हुए, स्वयं का भी भाव विलीन हो जाता है और रह जाती है मात्र सत्ता एक्झिस्टेंस, वह जो है। और वही है ईश्वर, जो है। वही है सत्य, जो है। और उसे ही पाना है और उसमें ही होना है। और उसके बाहर दुख है, पीड़ा है। उसके बाहर चिंता है। उसके बाहर अंधकार है, और सपने हैं। और उसके बारह सब असत्य है, और उसके भीतर है सत्य।
इस सत्य को पाने के लिए इन तीन दिनों में थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं। जो बातें कहीं, उन पर ख्याल करना और जो इशारा किया, उस पर थोड़ी आंखें उठाना। नहीं तो अक्सर यह होता है कि कोई चांद के अंगुली से दिखाए तो अंगुली को हम पकड़ लेते हैं और चांद को भूल जाते हैं। अंगुली को भूल जाना उसका कोई भी मूल्य नहीं है। मूल्य है चांद का, जिस तरफ उंगली उठायी थी। और नहीं तो मेरी अंगुली पर विचार करते रहेंगे और चांद वहीं पड़ा रह जाएगा जहां पड़ा था।
तो कृपा करना, मेरे षब्दों को भूल जाना। मैंने जो कहा, उसे भूल जाना। मैंने जो बातें कहीं, उन्हें विस्मरण कर देना और जिस तरफ इशारा किया है और जिस तरफ आपके ध्यान को आकर्षित करने की चेष्टा की है उस तरफ देखना। अंगुली मेरी हो सकती है, अंगुली महावीर की हो सकती है, उंगली क्राइस्ट की, कृष्ण की हो सकती है, चांद किसी का भी नहीं है। उंगली किसी की भी हो सकती है, चांद किसी का भी नहीं है। जो उंगली को पकड़ता है, वह संप्रदाय को पकड़ लेता है। और जो चांद को देखता है, वह धर्म को देख लेता है। परमात्मा करे, धर्म को देखने की क्षमता उपलब्ध हो। उससे ही मिलेगा..जो मिलने जैसा है, और उससे ही छूटेगा..जो व्यर्थ है और छूट जाने जैसा है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और षांति से सुना, और ऐसी बात को, जिसमें फूल कम हैं और कांटे ज्यादा हैं और ऐसी बातों को, जिनमें आपको चोटें पहुंच जाती हैं, इतने प्रेम और षांति से सुनते हैं तो मुझे बड़ा ऋण मालूम होता है, मुझे बड़ी कृपा मालूम होती है..इतने प्रेम और षांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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