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गुरुवार, 16 अगस्त 2018

जीवन क्रांति की दिशा-(प्रवचन-04)

जीवन क्रांति की दिशा-(शून्य समाधि)

चौथा प्रवचन--मैं कौन हूं?

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक गांव में एक आदमी पागल हो गया था, वह जगह-जगह खड़े होकर पूछने लगा था कि मैं कौन हूं? एक ही बात पूछने लगा था कि मैं कौन हूं? सारे गांव के लोगों ने समझ लिया था कि वह पागल हो गया है। मैं भी उस गांव में गया था। उस आदमी को मैंने भी चिल्लाते सुना कि मैं कौन हूं? दिन में, रात में, सुबह-सांझ, मकान में, सड़क पर, बाजार में वह आदमी यही चिल्लाता घूमता था कि मैं कौन हूं? कोई मुझे बता दे कि मैं कौन हूं?
मैंने लोगों से पूछा: इसे क्या हो गया है? उन्होंने कहा: यह आदमी पागल हो गया है, क्योंकि इसे यह भी पता नहीं है कि यह कौन है। मैंने उन लोगों से कहा: अगर पागल होने का यही लक्षण है कि जिसे पता न हो कि वह कौन है, तो फिर सभी मनुष्य पागल हैं। फिर पूरी मनुष्य-जाति ही पागल है।
लेकिन अगर सभी लोग पागल हों, तो पता चलना बहुत कठिन हो जाता है कि कोई पागल है। एक आदमी पागल हो, तो पता पड़ जाता है। और सभी लोग एक ही बीमारी से ग्रसित हो जाएं, तो पता चलना बहुत कठिन हो जाता है।

आदमियत बुनियाद से ही अस्वस्थ है। आदमी जन्म से ही विक्षिप्त है। क्योंकि जिसे यह भी पता न हो कि मैं कौन हूं, उसे और कुछ भी पता नहीं हो सकता है। फिर इस अज्ञान में किए गए सभी कर्म, फिर इस अज्ञान में की गई सारी यात्रा ही, अगर और गहरे से गहरे पागलपनों में ले जाती हो तो कोई आश्चर्य नहीं। लेकिन जैसा मैंने कहा, अगर सभी लोग एक ही बीमारी से घिर जाएं, तो पता चलना कठिन है कि कोई बीमार है।
एक गांव में ऐसा हुआ था, एक जादूगर आया और उसने गांव के कुएं में कोई मंत्र फेंका और कहा कि इस कुएं का पानी जो कोई भी पीएगा वह पागल हो जाएगा। उस गांव में दो ही कुएं थे। एक गांव का कुआं था और एक सम्राट का कुआं था। सारे गांव को, उस कुएं का पानी पीना पड़ा। मजबूरी थी, कोई रास्ता न था। प्यास लगे और अगर पागल भी होना पड़े तो भी पानी तो पीना ही पड़ेगा।
सांझ होते-होते सारा गांव पागल हो गया। सिर्फ सम्राट बच गया, उसका वजीर बच गया, उसकी रानी बच गई। सम्राट बहुत प्रसन्न था कि सौभाग्य है हमारा कि हमारे घर में अलग कुआं है। लेकिन सांझ होते-होते उसे पता चला कि सौभाग्य नहीं, यह दुर्भाग्य है। क्योंकि जब सारा गांव पागल हो गया, तो गांव में जगह-जगह यह चर्चा होने लगी कि मालूम होता है राजा पागल हो गया। और शाम होते-होते सारे गांव के लोग महल के सामने इकट्ठे हो गए और उन्होंने कहा, पागल राजा को अलग करना जरूरी है। क्योंकि पागल राजा से कैसे देश चलेगा।
राजा अपनी छत पर खड़ा घबड़ाने लगा। उसके सैनिक भी पागल हो गए थे, उसके पहरेदार भी पागल हो गए थे, उसके रक्षक भी पागल हो गए थे। और वे सभी पागल यह कह रहे थे कि सम्राट पागल हो गया है। हमें कोई स्वस्थ आदमी चुनना पड़ेगा। सम्राट ने अपने वजीर को कहा: कोई रास्ता है बचने का? कोई मार्ग है? उस वजीर ने कहा: हम पीछे के रास्ते से भाग चलें और उस कुएं का पानी पी लें जिस कुएं का पानी इन सबने पीया है। इसके अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है।
सम्राट भागा गया और उसने उस कुएं का पानी पी लिया। फिर उस रात उस गांव में बड़ा जलसा मनाया गया और बड़ा उत्सव हुआ। लोग नाचे और उन्होंने गीत गाए और भगवान को धन्यवाद दिया कि सम्राट का मस्तिष्क ठीक हो गया।
मनुष्य-जाति जन्म से ही कुछ विकृत है। आदमी का अस्वास्थ्य जैसे उसके साथ है। स्वस्थ होना एक घटना है। अस्वस्थ होना जैसे स्वाभाविक है। मस्तिष्क के लिए, मनुष्य की चेतना के लिए अगर यह भी पता न हो कि मैं कौन हूं, तो यह विक्षिप्तता का ही लक्षण होगा। आत्म-बोध मनुष्य के स्वास्थ्य की, आत्म-बोध मनुष्य के चेतना के स्वस्थ होने का पहला लक्षण है। और आत्म-अबोध मनुष्य के विक्षिप्त होने का लक्षण है।
धर्म को मैं न तो पूजा मानता हूं, न प्रार्थना। न धर्म को मैं कोई शास्त्र मानता हूं, न कोई फिलॅासफी। धर्म मनुष्य के इस आत्मिक अस्वास्थ्य का उपचार है। धर्म चिकित्सा है। मनुष्य की वह जो बुनियादी विक्षिप्तता है, उसका इलाज है, उसके ठीक करने की विधि है। लेकिन मनुष्य स्वयं को जान क्यों नहीं पाता है? और अगर हम यह न समझ पाएं कि मनुष्य स्वयं को क्यों नहीं जान पाता है, तो आत्मबोध की कोई यात्रा नहीं की जा सकती है।
और संभावना तो इस बात की है कि हम जो भी करते हैं जीवन में, वह सब आत्म-बोध को छिपाने का कारण बनता है, उघाड़ने का नहीं। स्वयं को जानने की दिशा में हमारे कोई प्रयास ही नहीं हैं। और जिन प्रयासों को हम स्वयं को पाने के प्रयास समझते हैं, वे और भी स्वयं के विस्मरण की विधि बनते हैं।
हम अपने को जानते हैं उतनी ही गहराई तक जितने गहरे हमारे वस्त्र होते हैं। वस्त्रों से ज्यादा गहरा हमारा आत्म-परिचय नहीं है। वस्त्र बहुत प्रकार के हो सकते हैं। जो कपड़े हम शरीर पर पहने होते हैं वे भी हमारे वस्त्र हैं, जो नाम और पद हम अपने मन में लिए होते हैं वे भी हमारे वस्त्र हैं, जो चेहरे, जो अभिनय हम ओढ़े रहते हैं वे भी हमारे वस्त्र हैं। हम अपने संबंध में जो भी जानते हैं वह अपने संबंध में नहीं केवल अपने वस्त्रों के संबंध में है। और कोई हमारे वस्त्र छीन ले, तो हम इसी क्षण पागल हो जाएंगे। क्योंकि हमें भूल जाएगा यह ठिकाना, यह पता कि हम कौन थे?
एक अदभुत व्यक्ति हुआ है, वह कुछ अपने ही किस्म का व्यक्ति होगा। उसका नाम, वह एक फकीर था, उसका नाम था, मुल्ला नसरुद्दीन। वह एक रात एक सराय में ठहरा। सराय भरी हुई थी और सराय में कोई कमरा खाली न था। सराय के मालिक से उसने बहुत प्रार्थना की कि रात बहुत सर्द है और बाहर मैं कैसे रह सकूंगा? मुझे किसी के भी कमरे में ठहर जाने दें। मैं किसी के साथ ठहर जाऊंगा। एक आदमी को राजी किया गया और नसरुद्दीन उस आदमी के साथ ठहरा दिया गया।
वह आदमी अपने वस्त्र निकाल कर बिस्तर पर सो गया, लेकिन नसरुद्दीन अपने जूते, अपनी पगड़ी, अपना कोट पहने हुए बिस्तर पर सो गया। वह आदमी बहुत हैरान हुआ कि क्या इस आदमी को सोने का ढंग भी पता नहीं है। जूते और पगड़ी और कोट सब पहने हुए बिस्तर पर सो गया है। पर उसने कुछ कहना ठीक न समझा। अजनबी से कुछ कहना ठीक भी न था, अपरिचित से कुछ कहना ठीक भी न था। लेकिन रात गहरी होने लगी और यह मुल्ला नसरुद्दीन करवट बदलने लगा, लेकिन नींद का कोई पता नहीं। इसकी नींद न लगे। इसके करवट के कारण वह दूसरा आदमी भी नहीं सो पा रहा था। आखिर उसने कहा कि महानुभाव, मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, आप नहीं सो सकेंगे, जब तक आप जूते और पगड़ी और कपड़े नहीं उतारते।
नसरुद्दीन ने कहा: सोच तो मैं भी यही रहा हूं कि नहीं सो सकूंगा। अगर मैं अकेला होता तो मैं कपड़े निकाल देता। लेकिन तुम भी कमरे के भीतर हो, इसलिए मैं कपड़े नहीं निकाल सकता हूं।
उस आदमी ने कहा: मतलब? नसरुद्दीन ने कहा: मतलब यह है कि अगर सारे कपड़े निकाल कर मैं सो गया, तो सुबह मैं कैसे पहचानूंगा कि मैं कौन हूं और तुम कौन हो? इन कपड़ों से ही अपने को पहचानता हूं कि मैं कौन हूं। अकेला होता तो मैं कपड़े निकाल कर सो जाता। सुबह उठ कर पहचान लेता कि मैं ही होऊंगा, क्योंकि और कोई तो मौजूद नहीं है। लेकिन अभी सब कपड़े निकाल दूंगा तो सुबह पहचान कैसे पाऊंगा कि कौन कौन है?
नसरुद्दीन आदमी के ऊपर मजाक कर रहा था, लेकिन वह अजनबी नहीं समझ सका। उसने कहा: तो फिर एक काम करो। हमसे पहले जो लोग इस कमरे में ठहरे होंगे उनके बच्चे कुछ गुब्बारे छोड़ गए थे, तो उसने कहा कि कपड़े निकाल लो और एक गुब्बारा अपने पैर से बांध लो। तुम्हें पता चल जाएगा सुबह कि गुब्बारा बंधा हुआ आदमी तुम हो।
नसरुद्दीन ने कहा: यह बात समझ में पड़ती है। उसने सारे कपड़े निकाल दिए और गुब्बारा पैर से बांध कर वह सो गया और खर्राटे लेने लगा।
उस दूसरे आदमी को मजाक सूझी, उसने जो नसरुद्दीन सो गया, तो उसका गुब्बारा निकाल कर अपने पैर में बांध लिया और वह भी सो गया।
चार बजे के करीब नसरुद्दीन उठा और दूसरे आदमी को हिलाने लगा और उसने कहा कि मुझे डर था वही भूल हो गई। गुब्बारा तुम्हारे पैर में बंधा है, तुम मुल्ला नसरुद्दीन हो, तो फिर मैं कौन हूं? यह मुश्किल हो गई। मुल्ला नसरुद्दीन ने गुब्बारा बांधा था, वह तुम हो। अब मैं कौन हूं? उस आदमी ने समझा होगा मुल्ला नसरुद्दीन पागल है। लेकिन नसरुद्दीन सारे आदमियों के ऊपर व्यंग्य कर रहा था, सारी आदमियत पर मजाक कर रहा था।
हम भी अपने को किन बातों से पहचानते हैं? गुब्बारों से पहचानते हैं जो हमारे हाथ और पैरों में बांध दिए गए हैं। कोई आदमी नाम लेकर पैदा नहीं होता, मां-बाप एक गुब्बारा पैर में बांध देते हैं कि तेरा यह नाम है, तू राम है, तू कृष्ण। और जिंदगी भर वह यही पहचानता रहता है कि मैं राम हूं और मैं कृष्ण हूं। और कहीं उसका यह नाम का गुब्बारा अलग कर लिया जाए, तो वह खड़ा हो जाएगा पागल की तरह पूछेगा कि मैं कौन हूं?
नाम कोई सच्चाई नहीं है, एक झूठ है जो आदमी की पहचान के लिए चिपका दिया जाता है। लेकिन फिर नाम ही सच्चाई हो जाती है, वही हमारा रिकग्नीशन, वही हमारी प्रतिभिज्ञा हो जाती है, वही हमारी पहचान हो जाती है। और दूसरे हमें उससे पहचानते, यह तो ठीक था, हम भी अपने को उसी नाम से पहचानने लगते हैं। ठीक थी यह बात कि दूसरे हमें हमारे नाम से पहचान लेते। जिंदगी में काम चलाने के लिए यूटिलिटेरियन, उपयोगिता है नाम की, दूसरे उससे हमें पहचान लेते हैं। लेकिन भूल तो यहां हो जाती है कि फिर हम भी अपने को उसी नाम से पहचानते हैं जो बिल्कुल झूठा और कल्पित है।
किसी आदमी का कोई भी नाम नहीं है, लेकिन उसी नाम के आस-पास जो बिल्कुल इमेजिनेशन है, जो बिल्कुल कल्पना है, हम अपने सारे व्यक्तित्व को गढ़ते हैं, खड़ा करते हैं, बड़ा करते हैं, सारा भवन बनाते हैं और इसको हम जीवन कहते हैं। यह जीवन अगर पूरा झूठा हो तो आश्चर्य नहीं है। क्योंकि एक झूठ के आस-पास बुना जाता है, इर्द-गिर्द बनाया जाता है। और नाम के लिए हम पागल रहते हैं और पागल होते हैं और पागल की तरह मर जाते हैं; उस नाम के लिए, जिससे हमारा दूर का भी कोई नाता नहीं था; जिससे हमारा कोई भी संबंध नहीं था; जो हमारी आत्मा नहीं थी; जो हमारा व्यक्तित्व न था; जो हमारी आथेंटिक बीइंग न थी। जो हमारी प्रामाणिक सत्ता न थी। उस नाम के लिए हम जीते हैं और समाप्त हो जाते हैं। उन बच्चों की तरह शायद जो नदी की रेत पर जाते हैं और हस्ताक्षर कर आते हैं और बड़े खुश लौट आते हैं। और उन्हें पता भी नहीं कि वे लौटे भी नहीं हैं कि हवाओं ने हस्ताक्षर मिटा दिए हैं रेत पर उनके। और नदी का बहाव आया है और उनके सब नाम बहा कर ले गया है।
लेकिन बच्चों पर हम हंसते हैं और बच्चों से शायद हम कहेंगे कि पागलो, रेत पर हस्ताक्षर नहीं किए जाते। रेत तो मिट जाती है, हवाएं रेत को मिटा देती हैं। लेकिन बूढ़े भी क्या करते हैं, चट्टानों पर हस्ताक्षर करते हैं और शायद सोचते हैं कि चट्टान और रेत में कोई बहुत फर्क है। रेत से चट्टान बनती है, चट्टान फिर रेत हो जाती है। रेत कभी चट्टान रही है, चट्टान कभी रेत थी। और उस पर हस्ताक्षर किए जाते हैं और जीवन भर सोचते हैं कि हमने कुछ उपलब्ध कर लिया है, क्योंकि हमने कहीं हस्ताक्षर कर दिए हैं। हमने कहीं वह नाम खोद दिया है जो मेरा था। और नाम का मेरे ‘मैं’ से कोई भी संबंध नहीं है, कोई भी वास्ता नहीं है।
नाम के बोध को हम आत्म-बोध समझ लेते हैं। नाम का बोध आत्म-बोध नहीं है। इससे ज्यादा दूरी पर और फासले पर दो चीजें नही हो सकतीं। नाम आत्मा से उतने ही दूर है जितनी दूर जमीन से आसमान होगा। इनके बीच कोई संबंध नहीं है, कोई नाता नहीं है। लेकिन इस नाम के आस-पास हम वस्त्रों को इकट्ठा करते हैं, इकट्ठा करते हैं। विशेषता के वस्त्र हैं, पदों के वस्त्र हैं, प्रतिष्ठाओं के वस्त्र हैं, राष्ट्रपतियों के वस्त्र हैं, और हम इकट्ठे करते चले जाते हैं, इकट्ठे करते चले जाते हैं। इस झूठे नाम के आस-पास जो वस्त्रों की कतार और भीड़ इकट्ठी हो जाती है, वही मनुष्य का अहंकार बन जाता है, वही उसकी ईगो है।
हमें अहंकार का तो बोध है, लेकिन आत्मा का कोई बोध नहीं है। और जब तक अहंकार का बोध है तब तक आत्मा का बोध हो भी नहीं सकता है।
आत्म-बोध की दिशा में अगर कोई सबसे बड़ी बाधा है, तो वह अहंकार है। या जैसा मैंने पहले कहा, आदमी की विक्षिप्तता में, आदमी की मैडनेस में, उसकी इंसेनिटी में, अगर सबसे बड़ी कोई चीज किसी कुएं का पानी काम कर रहा है, तो वह अहंकार के कुएं का पानी है। वह उसे पागल किए देता है, वह उसे पागल बनाए चले जाता है। वह उसे विक्षिप्त से विक्षिप्त कर देता है। क्योंकि असत्य के इर्द-गिर्द जो अपने व्यक्तित्व को बनाएगा, वह विक्षिप्त ही हो सकता है, वह स्वस्थ नहीं हो सकता। स्वास्थ्य उपलब्ध होता है सत्य की परिधि पर। अस्वास्थ्य उपलब्ध होता है असत्य की परिधि पर। और अहंकार से बड़ा असत्य कुछ भी नहीं, वह सबसे बड़ी फॅालसिटी है, क्योंकि वह है ही नहीं।
मैंने सुना है, एक महल के पास पत्थरों का एक छोटा सा ढेर लगा था, और कुछ बच्चे वहां से खेलते निकले थे, और एक बच्चे ने एक पत्थर को उठा कर महल की तरफ फेंका। पत्थर ऊपर उठने लगा। पत्थरों के पास पंख नहीं होते हैं, लेकिन उड़ने की इच्छा उनमें भी होती है। आदमी के पास पंख नहीं होते, आदमी की इच्छा भी उड़ने की होती है। पत्थरों की इच्छा भी उड़ने की होती है, आकाश छूने की होती है। लेकिन पत्थर नीचे पड़े रहते हैं, उड़ नहीं पाते। और जब एक पत्थर ऊपर उड़ने लगा, तो उसने नीचे पड़े हुए पत्थरों को तिरस्कार से देखा और कहा, मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। नीचे के पत्थर विरोध भी नहीं कर सकते थे, इनकार भी नहीं कर सकते थे। यह बात सच थी वह पत्थर जा रहा था। लेकिन एक छोटा सा फर्क उस पत्थर ने कर दिया था। वह फेंका गया था। लेकिन उसने कहा, मैं जा रहा हूं। उसने यह नहीं कहा कि मैं फेंका गया हूं, उसने कहा, मैं जा रहा हूं। और आत्मा और अहंकार का फासला शुरू हो गया। अगर वह कहता कि फेंका गया हूं, तो शायद वह आत्म-बोध को उपलब्ध हो जाता। लेकिन उसने कहा, मैं जा रहा हूं। और वह अहंकार को इकट्ठा करना शुरू कर दिया। जहां उसका कोई कृत्य न था वहां उसने कहा कि मैं जा रहा हूं। नीचे के पत्थर इनकार भी नहीं कर सकते थे।
वह पत्थर ऊपर उठा और जाकर महल के कांच से टकराया, कांच चकनाचूर हो गया। अब यह स्वाभाविक ही है कि पत्थर कांच से टकराए तो कांच चकनाचूर हो जाए। इसमें पत्थर कांच को चकनाचूर करता नहीं है, कांच चकनाचूर हो जाता है, इट जस्ट हैपंस। इसमें कोई पत्थर कांच को तोड़ नहीं देता, कांच और पत्थर टकराते हैं तो कांच टूट जाता है। लेकिन पत्थर ने कहा कि पागल कांच, तू अखबार नहीं पढ़ता है, तू रेडियो नहीं सुनता है, मैंने कितनी बार यह खबर नहीं की है कि मेरे रास्ते में कोई भी न आए, नहीं तो मैं चकनाचूर कर दूंगा। अब पछताओ अपने भाग्य पर। चकनाचूर हो गए हो। पत्थर के रास्ते में जो भी आएगा चकनाचूर हो जाएगा। और याद रखो, मैं कोई साधारण पत्थर नहीं हूं, मैं आकाश में उड़ने वाला पत्थर हूं। कांच के टुकड़े क्या कह सकते थे? बात सच ही थी, वे चकनाचूर हो गए थे। लेकिन पत्थर झूठ बोल रहा था। उसने कांच को चकनाचूर किया नहीं था, कांच चकनाचूर सिर्फ हो गया था। लेकिन कौन उसे इनकार करे, और कौन उसका विरोध करे। और अहंकार की अंधी आंखें किसी का इनकार सुनती हैं, किसी का विरोध सुनती हैं? अहंकार की अंधी आंखों को जब विरोध मिलता है, तो अहंकार और सख्त और घनीभूत और कंडेंस्ड हो जाता है, और मजबूत हो जाता है विरोध के लिए, और तैयार हो जाता है।
पत्थर जाकर महल के बिछे हुए ईरानी कालीन पर गिरा। उसने ठंडी श्वास ली राहत की और उसने कहा कि बड़े भले लोग हैं इस मकान के, मालूम होता है बहुत सुशिक्षित, सुसंस्कृत, ज्ञात होता है मेरे आने की खबर पहले ही पहुंच गई, उन्होंने कालीन वगैरह बिछा रखे हैं। फिर हो भी क्यों न स्वागत, मैं कोई साधारण पत्थर नहीं हूं, मैं आकाश में उड़ने वाला पत्थर हूं। महल के मालिकों को सपने में भी पता न होगा कि किसी पत्थर का आयोजन कर रहे हैं वे, ये कालीन किसी आने वाले पत्थर के लिए बिछाए गए हैं, इसकी उनको कोई खबर न थी, पत्थर भी उस महल में अतिथि बनेगा, इसका उन्हें कोई पता नहीं था। वैसे अतिथि का मतलब ही यही होता है जिसके आने की कोई खबर न हो, जिसकी तिथि की कोई खबर न हो। लेकिन पत्थर ने मन में सोचा कि मैं आया हूं मेरे स्वागत के लिए सब इंतजाम किया गया है। वह फूल कर दुगुना हो गया।
झोपड़े से आदमी महल में जाता है तो दुगुना हो जाता है। गांव से आदमी दिल्ली पहुंच जाता है तो दुगुना हो जाता है। वह पत्थर भी दुगुना हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं है।
फिर महल के पहरेदार ने खबर सुनी होगी पत्थर के आने की और कांच के फूट जाने की, वह भागा हुआ आया और उसने पत्थर को उठाया फेंकने के लिए, लेकिन पत्थर ने अपने ही मन में कहा, धन्यवाद! बहुत धन्यवाद! मालूम होता है महल का मालिक हाथ में लेकर सम्मान दे रहा है। और पत्थर को वापस फेंक दिया गया। लौटते हुए पत्थर ने कहा कि होंगे तुम्हारे महल कितने ही अच्छे, लेकिन मुझे मेरे मित्रों की और घर की बहुत याद आती है, होम सिकनेस मालूम होती है। मैं वापस जा रहा हूं।
दिल्ली से कोई भी लौटता है तो यही कहते हुए लौटता है, होम सिकनेस मालूम हो रही है। तो वापस जा रहा हूं। वह पत्थर भी ऐसा कहता हुआ वापस लौटा। वह नीचे जब अपने पत्थरों में गिरने लगा तो पत्थर टकटकी लगाए उसे देख रहे थे, उसने आते ही कहा कि मित्रो, मैंने दूर-दूर की यात्राएं की, बड़े महलों में मेहमान हुआ। लेकिन महल होंगे कितने ही अच्छे, परदेस परदेस है। देश देश है, मातृभूमि की बात ही कुछ और है। मन में तुम्हारी याद आती थी। सोता था महलों में, सपने तुम्हारे देखता था। वापस लौट आया हूं।
इस पत्थर पर हमें हंसी आ सकती है। लेकिन जिस आदमी को पत्थर पर हंसी आती है उस आदमी को अगर अपने स्वयं के अहंकार पर भी हंसी आ जाए, तो उसकी जिंदगी में आत्म-बोध की पहली किरण का जन्म हो जाता है।
क्या हमारे जीवन की कथा भी इस पत्थर की यात्रा से बहुत भिन्न है? कहते हैं, मेरा जन्म! जैसे कि जन्म के पहले मुझसे पूछा गया हो कि आपके इरादे क्या हैं? आप कहां पैदा होना चाहते हैं? होना चाहते हैं कि नहीं होना चाहते हैं? जैसे जन्म मेरी च्वाइस हो, जैसे जन्म मेरा निर्णय और चुनाव हो। कहता हूं, मेरा जन्म! मेरा जन्म-दिन! जन्म के बाद मेरा मैं पैदा होता है तो कोई जन्म मेरा जन्म-दिन नहीं हो सकता। जन्म के बाद मेरा मैं सघन होता है, मेरा मैं जन्म के बाद है जन्म के पहले नहीं, तो कोई जन्म-दिन मेरा जन्म-दिन नहीं हो सकता। जन्म-दिन मुझसे पहले है, मैं पीछे हूं। और मुझसे कभी पूछा नहीं किसी ने कि जन्म लेना चाहते हैं कि नहीं लेना चाहते हैं? वह मेरा निर्णय नहीं, वह मेरा चुनाव नहीं। तो जो मेरा निर्णय नहीं, मेरा चुनाव नहीं वह मेरा कैसे हो सकता है? वह मेरा कृत्य नहीं, वह मेरा एक्ट नहीं। मैं फेंका गया हूं, किन्हीं अज्ञात हाथों ने उठा कर फेंक दिया है पत्थर को और पत्थर कह रहा है कि मैं जा रहा हूं। कोई अज्ञात हाथ फेंकते हैं मनुष्य को जीवन में और मनुष्य कहता है मेरा जन्म! और भूल शुरू हो जाती है, गलत यात्रा शुरू हो जाती है, पागलपन का रास्ता पकड़ लिया जाता है।
फिर हम कहते हैं: मेरा बचपन! मेरी जवानी! बीज को बो देते हैं हम जमीन में तो अंकुर निकल आता है। बीज अंकुर होता नहीं, अंकुर निकलता है। बीज का कोई भी कृत्य नहीं है। यह इतना ही सहज है जैसे पानी बहता है और नीचे की तरफ बह जाता है। नदियां सागर जाती नहीं, पहुंच जाती हैं; यह उतना ही सहज है कि नदियां सागर पहुंच जाती हैं। शायद नदियां सागर में जाकर कहती हों कि हम आ रहे हैं, हम यात्रा करके आ रहे हैं। नदियां सागर में पहुंचती हैं सहज। बीज में अकंुर निकलता है सहज, बच्चा जवान हो जाता है सहज। कोई जवानी लाई नहीं जाती है और न कोई जवान होता है। होना नहीं है वहां कुछ, चीजें घट रही हैं।
लेकिन हमारा मैं जोड़ता चला जाता है कि मैं, मेरा बचपन, मेरी जवानी। दूर हैं ये बातें; तो हम तो यह भी कहते हैं कि मैं श्वास लेता हूं। अगर कोई आदमी श्वास लेता होता, तो मौत असंभव थी; मौत आ जाती है और वह श्वास लिए ही चला जाता है। हम भलीभांति जानते हैं श्वास आती है, जाती है, हम लेते नहीं हैं। मैं श्वास लेता हूं, यह झूठी बात है; श्वास आती है, े जाती है, मेरा कोई भी कृत्य नहीं है लेने और न लेने में। एक दिन नहीं आएगी फिर मैं नहीं ले सकूंगा। नहीं आएगी तो ले सकने का सवाल नहीं है। नहीं आएगी तो फिर मुझे पता ही नहीं चलेगा कि मैं हूं। उसके न आने के साथ ही मैं भी न हो जाऊंगा। लेकिन कहते हम यही हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। और ऐसे अहंकार को हम घनीभूत करते हैं, अहं-बोध को घनीभूत करते हैं। फिर और वस्त्र जुटाते हैं उसके लिए नामों के, पदों के, प्रतिष्ठाओं के। बड़ी से बड़ी कुर्सियों की यात्रा करते हैं। और सारे जीवन की दौड़ के बाद कहीं भी नहीं पहुंच पाते सिवाए इसके कि एक फ्रस्ट्रेशन, एक चिंता, एक विषाद, एक विफलता चित्त को घेर लेती है। क्योंकि जो हम भवन बनाते हैं, वह झूठा था। मौत उस सारे भवन के असत्य को खोल देती है और ज्ञात होता है हमने जीवन के भवन में प्रवेश ही नहीं किया। हम जिस भवन को बनाते रहे वह ताश के पत्तों का घर था।
जीवन का भवन आत्म-बोध से उपलब्ध होता है, अहं-बोध से नहीं। और अहं-बोध को ही हम आत्म-बोध समझ लेते हैं तो भूल में पड़ जाते हैं। और यह भूल अंततः विफलता और विषाद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं ला सकती। मनुष्य रोज-रोज चिंतातुर होता चला जाता है, मनुष्य रोज-रोज जीवन की व्यर्थता से भरता चला जाता है। मनुष्य जितना सुशिक्षित जितना सुसंस्कृत, जितना सभ्य होता चला जाता है उतना ही उसका जीवन व्यर्थ, उतना ही उसका जीवन दुख और पीड़ा होता जाता है।
क्या कारण हो गया है? शायद हमारी सारी सभ्यता, सारी शिक्षा, सारी संस्कृति हमारे अहंकार को और मजबूत कर रही है। शायद हमारी संस्कृति और शिक्षा के सारे पंख हमारे अहंकार के पत्थर को ही लग रहे हैं। शायद इसीलिए सब अर्थहीन होता चला जाता है। अर्थवत्ता उपलब्ध होती है उसे जानने से जो मैं हूं और अर्थहीनता उपलब्ध होती है उसे निर्मित कर लेने से जो मैं नहीं हूं। लेकिन हम उसी को निर्मित कर लेते हैं जो मैं नहीं हूं। यह यात्रा हम कैसे पूरी करते हैं। अहंकार को बढ़ाना हो तो आत्मा को विस्मरण करना होता है। जितनी सेल्फ-फॅारगेटफुलनेस हो, जितना आत्म-विस्मरण हो, उतना अहंकार मजबूत होता है। इसलिए सब तरह के नशे आदमी को अहंकार को बढ़ाने में सहयोगी होते हैं और आत्म-बोध को नष्ट करते हैं। वे नशे किसी भी तरह के हों: कोई आदमी शराब पी लेता हो, कोई आदमी संगीत में डूब कर अपने को भूल जाता हो, कोई आदमी पद की दौड़ में बेहोश और मूच्र्छित हो जाता हो, कोई आदमी धन को इकट्ठा करने में पागल हो जाता हो या कोई आदमी और किसी तरह की दौड़ को पकड़ लेता हो और दौड़ में अपने को डुबा लेता हो। सब तरह का आत्म-विस्मरण मनुष्य की अस्मिता को, अहंकार को मजबूत करता है। क्योंकि जितना हम भूलते हैं उसे जो हम हैं उतनी ही आसानी से उसका निर्माण शुरू हो जाता है जो हम नहीं हैं। अगर हमें याद बनी रहे थोड़ी सी भी उसकी जो हम हैं, तो हमारे हाथ ढीले हो जाएंगे उसको बनाने में जो हम नहीं हैं। प्रतिपल हमें दिखाई पड़ने लगेगा कि हम एक सपना बना रहे हैं, हम ताश का घर बना रहे हैं, हम रेत पर हस्ताक्षर कर रहे हैं। लेकिन अगर हम भूल जाएं बिल्कुल पूरी तरह से हमारे होने को, हमारी बीइंग को, तो फिर यह यात्रा बहुत आसान हो जाती है, यह सृजन बहुत आसान हो जाता है।
मनुष्य जितना सभ्य होता है उतना ही मूच्र्छा के उपाय खोजता है। मनुष्य की सभ्यता का विकास शायद मादकता को गहरा करने का विकास है। मनुष्य की सभ्यता ने क्या किया है? उसे नये मनोरंजन दिए हैं, नये ड्रग्स दिए हैं, एल एस डी दिया है, मेस्कलीन दिया है, मारिजुआना दिया है। सोमरस से लेकर मारिजुआना तक आदमी की सभ्यता की यात्रा आत्म-विस्मरण की यात्रा है। और आदमी पागल होता चला जा रहा है। और पागल आदमी नशा चाहता है, और नशे में जो जाता है वह और पागल होता है, वह और पागल होता है, वह और नशा चाहता है। अपने को भूल जाना चाहता है, डुबा देना चाहता है। फिर वह हजार तरकीबें खोजता है अपने को भुला देने और डुबा देने की। और इन्हीं सबको वह संस्कृति कहता है।
ठीक इससे उलटी दिशा है आत्म-बोध की; जिसे आत्म-बोध की दिशा में जाना हो उसे अहंकार को विस्मरण करना होगा। और जिसे अहंकार की दिशा में जाना हो उसे स्वयं को विस्मरण करना होगा। अहंकार की दिशा में जाना हो तो मूच्र्छा बहुत सहयोगी है, नशा बहुत सहयोगी है, मादकता बहुत सहयोगी है। भूल जाना बहुत सहयोगी है। कैसे हम भूलते हैं यह बात दूसरी है। भजन-कीर्तन करके भूलते हैं, कि गांजा-अफीम से भूलते हैं, कि संगीत से भूलते हैं, यह बात दूसरी है।
वाजिद अली के समय में एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ लखनऊ में आया, वह एक बहुत बड़ा वीणावादक था। और उस वीणावादक ने कहा कि मैं एक ही शर्त पर बजाऊंगा वीणा। कि जब मैं बजाऊं तो कोई सिर हिलना नहीं चाहिए। अब कलाकारों के अपने पागलपन होते हैं। और वाजिद अली तो पक्का पागल था। नवाबों के अपने पागलपन होते हैं। वाजिद अली ने कहा कि तुम घबड़ाओ मत, सिर हिलने की बात कहते हो! अगर कोई सिर हिला तो सिर अलग ही करवा देंगे। गांव में डुंडी पीट दी गई और खबर कर दी गई कि कोई सुनने आए तो समझ-सोच कर आए, सिर नहीं हिलाना है। और अगर सिर हिलेगा तो सिर कटवा दिया जाएगा। फिर जिम्मा नहीं है।
हजारों लोग सुनने आते उस संगीतज्ञ को, लेकिन मुश्किल से पचास-साठ आदमी सुनने आए। जो बहुत संयमी होंगे, वही आए होंगे। जो योगासन लगा कर बैठ सकते होंगे, वही आए होंगे। फिर संगीत शुरू हुआ, उसकी वीणा बजनी शुरू हुई। आधी रात तक लोग पत्थर की मूर्तियों की तरह बैठे रहे, जैसे कि उनमें प्राण भी न हों। श्वास भी लेने में डरे होंगे कि कहीं भूल से भी सिर हिल जाए, तो वह वाजिद अली तो पागल था, वह सिर कटवा ही देगा। नंगी तलवारें लिए हुए सैनिक उसने खड़े कर रखे थे कि कोई भाग न जाए सिर हिला कर।
आधी रात के बाद लेकिन कुछ सिर हिलने शुरू हो गए। एक हिला, दो हिले और तीन हिले और धीरे-धीरे उस पचास-साठ की भीड़ में आधे सिर हिलने लगे। वाजिद अली बहुत हैरान हुआ कि ये पागल हो गए हैं, इनको भूल गई ख्याल! सुबह जब वीणा बंद हुई, तीस आदमी पकड़ लिए गए। और वाजिद अली ने कहा: पागलो, तुम भूल गए कि सिर कट जाएंगे? उन्होंने कहा: जब तक हम थे तब तक नहीं भूले थे। लेकिन जब हम ही न रहे तो भूलने न भूलने का कोई सवाल न रहा। जब तक हम थे हमने सिर नहीं हिलाए, लेकिन जब हम ही न रहे तो सिर हिल गए होंगे उसका हमें कोई पता नहीं, उसका हमारा कोई जिम्मा नहीं। उसका हमारा कोई उत्तरदायित्व नहीं।
वाजिद अली ने उस संगीतज्ञ को कहा: इनके सिर कटवा दें? उस संगीतज्ञ ने कहा कि नहीं, बस कल इन तीस को बुला लें, इन तीस के सामने वीणा बजाऊंगा। क्योंकि ये ही ठीक सुनने वाले हैं।
क्या संगीत इतनी मूच्र्छा में ले जा सकता है कि प्राणों का भय भी विलीन हो जाए? ले जा सकता है। क्या पद का मोह इतने पागलपन में ले जा सकता है कि प्राण का मोह विलीन हो जाए? ले जा सकता है। क्या धन-संग्रह की मादकता इतनी तीव्र हो सकती है कि आदमी अपने प्राणों को गंवा दे? हो सकती है। और जितनी दिशाओं में आदमी दौड़ता है, वे वे ही दिशाएं हैं जहां वह किसी भांति स्वयं को भूल जाए। जितनी देर को वह स्वयं को भूले रहता है उतनी देर ही उसे लगता है कि कोई सुख मिल रहा है। जैसे ही उसे ख्याल आता है अपना, थोड़ी सी भी झलक आती है अपनी, सारा झूठ का महल उसे दिखाई पड़ता है कि मैं कहां खड़ा हूं। वैसे ही प्राण घबड़ाने लगते हैं, वैसे ही एंग्विश, संताप शुरू हो जाता है। फिर वह कोशिश करता है अपने को भूल जाऊं। अधार्मिक आदमी उसे मैं कहता हूं, उसे नहीं जो मस्जिद नहीं जाता, मंदिर नहीं जाता। उसे नहीं जो गीता नहीं पढ़ता, रामायण नहीं पढ़ता। उसे नहीं जो तिलक नहीं लगाता। अधार्मिक आदमी उसे कहता हूं, जो निरंतर अपने को भूलने की कोशिश करता रहता है। और धार्मिक आदमी उसे कहता हूं, चाहे कितनी ही तपश्चर्यापूर्ण हो यह बात, कितनी ही आरडुअस, कितनी ही कठिन प्रतीत होती हो लेकिन अपने को जानने की, होश से भरने की, सेल्फ-रिमेंबरिंग की, आत्म-स्मृति की कोशिश करता रहता है, वह आदमी धार्मिक है।
और धार्मिक होने के लिए उसे अधार्मिक से विपरीत दिशा में चलना होता है। अधार्मिक भूलता है आत्म को, धार्मिक भूलना शुरू करता है अहंकार को। और धार्मिक को अहंकार को भूलने की जरूरत नहीं है, वह केवल अहंकार को समझ ले और अहंकार विलीन हो जाता है। आत्मा को भूलना पड़ता है, क्योंकि आत्मा है। अहंकार को भूलना नहीं पड़ता, वह है ही नहीं; केवल देखना पड़ता है और वह विसर्जित हो जाता है। केवल आंखें गहरी करनी पड़ती हैं, खोज करनी पड़ती है कि कहां है मेरा अहंकार? मैं क्या कर रहा हूं, मैं अपने को भूलने की कोशिश तो नहीं कर रहा हूं? क्योंकि मैं कितना ही अपने को भूलूं, फिर भी मैं वही रहूंगा जो मैं हूं। मैं लाखों वर्ष कोशिश करूं अपने भूलने की, तो भी मैं वही रहूंगा जो मैं हूं। स्वयं से बचने का कोई भी उपाय नहीं है। हम सबसे बच सकते हैं, लेकिन स्वयं से नहीं बच सकते हैं। आज नहीं कल, वह स्वयं की सत्ता का साक्षात करना ही होगा। क्योंकि जो मैं हूं उससे मैं कैसे बच सकता हूं? मैं जहां भी भाग जाऊं, जहां भी छिप जाऊं मैं हमेशा अपने साथ मौजूद हो जाऊंगा। मैं नशे में डूब जाऊं तो भी मैं मौजूद रहूंगा। नशा टूटेगा और मैं वापस अपनी जगह खड़ा हो जाऊंगा।
स्वयं से बचने का कोई उपाय नहीं है। मैं कहता हूं: परमात्मा से बचने का कोई उपाय नहीं है। आदमी सबसे बच सकता है लेकिन परमात्मा से नहीं बच सकता। क्योंकि वह उसका होना है, वह उसकी स्वयं की सत्ता है। आज नहीं कल उसे उसके सामने खड़ा हो ही जाना है। वह भागे और भागे और ओर-छोर नाप डाले जगत के, वह भाग कर जाएगा कहां? वह अपने से तो नहीं भाग सकता, वह अपने होने से तो नहीं भाग सकता, उसके सामने खड़ा ही हो जाना पड़ेगा। तो जो बात होनी ही है, धार्मिक आदमी उसके लिए आज ही करने का साहस कर लेता है। धर्म एक दुस्साहस है आत्म-साक्षात्कार का। और वह कैसे आत्म-साक्षात्कार हो सकता है? हो सकता है कि अहंकार को वह देखे और अहंकार विसर्जित हो जाए। तो अहंकार के हटते ही, अहंकार के गिरते ही उसकी ज्योति आनी शुरू हो जाती है जो हम हैं। जैसे ही अहंकार का पर्दा हटता है उसकी रोशनी मिलनी शुरू हो जाती है जो मेरा वास्तविक होना है।
आत्म-बोध की दिशा अहंकार विसर्जन की साधना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। केवल वे ही लोग स्वयं को जान पाते हैं जो स्वयं के होने के झूठे और कल्पित भवन को गिरा देते हैं। सपना खोना पड़ता है सत्य को पाने के लिए और कुछ भी नहीं खोना पड़ता है। सत्य को पाने के लिए सपनों के अतिरिक्त और कोई चीज नहीं त्यागनी पड़ती है। सपने ही लेकिन बहुत गहरे हैं और बहुत जोर से पकड़े हुए हैं। रात ही हम सपने देखते होते तो क्षम्य था, हम चैबीस घंटे और जन्म से मरने तक सपने देखते हैं। और सारे सपनों का केंद्र हमारा ईगो, हमारा अहंकार है। जब तक अहंकार न टूट जाए तब तक ड्रीमिंग माइंड भी, सपने देखने वाला मन भी समाप्त नहीं होता है। और जैसे ही अहंकार टूट जाता है वैसे ही स्वप्न विलीन हो जाते हैं और जो शेष रह जाता है वही सत्य है। आत्म-बोध के लिए कुछ करना नहीं है, कुछ हम कर रहे हैं उसे भर न करें, तो आत्म-बोध सहज ही उपलब्ध हो जाता है, वह हमारा होना है, उसे कहीं से लाना नहीं है।
एक आदमी एक रात शराब पी लिया और अपने घर पहुंच गया। शराब पी ली आदत के कारण। अपने घर तो पहुंच गया, लेकिन उसे पहचान नहीं पड़ता था कि यह उसका घर है या नहीं। वह जोर से दरवाजे पीटने लगा। और पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए और उससे पूछने लगे कि क्या बात है? वह आदमी कहने लगा कि मैं अपना घर भूल गया हूं, मुझे मेरे घर पहुंचा दें। वेे सारे पड़ोसी हंसने लगे, उन्होंने कहा, पागल, तू अपने घर के सामने खड़ा है। लेकिन वह आदमी सुनने की स्थिति में नहीं था, वह छाती पीटने लगा और कहने लगा कि रात ज्यादा हुई जा रही है, मुझे कोई मेरे घर पहुंचा दो। तुम हंसते हो, तुम इतनी भी दया नहीं करते कि मुझे मेरे घर पहुंचा दो।
उसके रोने और चिल्लाने को, पड़ोसियों के समझाने को सुन कर उसकी मां बाहर निकल आई। उसने अपनी मां को देखा, वह उसके पैर पकड़ लिया और कहने लगा कि माई, मुझे मेरे घर पहुंचा दे, मेरी मां मेरा रास्ता देख रही होगी। उसकी मां कहने लगी, पागल, तुझे हो क्या गया है? तू अपने घर खड़ा है और अपनी मां के सामने। लेकिन वह कहने लगा, मुझे समझाने की फिजूल कोशिश मत करो। और रात देर हुई जाती है, मेरी मां रास्ता देखती होगी और घर मुझे जल्दी पहुंच जाना है।
एक आदमी पड़ोस का बहुत दयालु होगा, वह जोत कर अपनी बैलगाड़ी ले आया और उसने कहा, चल बैठ, मैं तुझे तेरे घर पहुंचाता हूं। उसकी मां कहने लगी कि पागल, यह तो पागल है और तू भी पागल है। बैलगाड़ी में बिठा कर कहीं भी ले जाएगा तो घर से और दूर निकल जाएगा, क्योंकि घर तो यह मौजूद है। इसे बैलगाड़ी में बिठा कर कहीं नहीं ले जाना है, इसे केवल होश दिलाना है। इसकी बेहोशी टूट जाए तो इसे पता चल जाएगा कि यह जहां है वहीं इसका घर है।
मनुष्य को आत्म-बोध नहीं है। एक आदमी कहता है कि आओ, मैं तुम्हें तंत्र-मंत्र की बैलगाड़ी में बिठाता हूं और आत्मा तक पहुंचा दूंगा। एक आदमी कहता है कि आओ, मैं तुम्हें शास्त्र की रेलगाड़ी में बिठा देता हूं और तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा दूंगा। एक आदमी कहता है कि मुझे गुरु बना लो, मेरे चरणों को पकड़ो और मैं तुम्हें तैरा दूंगा, तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है, मैं तुम्हें पहुंचा दूंगा। पच्चीस दुकानदार हैं, जो कहते हैं कि आदमी को किस भांति आत्म-बोध करा देंगे। लेकिन आत्म-बोध कोई ऐसी चीज नहीं है कि जहां हमें जाना है। आत्म-बोध तो वहीं उपलब्ध होना है जहां हम हैं। जो मैं हूं उसके लिए कोई यात्रा नहीं करनी है। फिर क्या करना है? हम कोई यात्रा कर रहे हैं, सपने में वह यात्रा तोड़ देनी है।
एक आदमी रात सोया है और सपना देख रहा है कि कलकत्ते में है, रंगून में है या टोक्यो में है। वह पड़ा है बंबई में और सपना देख रहा है कि टोक्यो में है और रंगून में है। क्या उसको जगा कर हमें वापस बंबई लाना पड़ेगा रंगून से? क्या जगा कर कहना पड़ेगा कि अब चलो रंगून से वापस बंबई चलें। वह जागते ही बंबई में होगा। क्योंकि वह रंगून में कभी गया नहीं था। वह बंबई में था सिर्फ सपना देखता था रंगून में होने का। इसलिए हिला देना काफी है, जगा देना काफी है। कहीं किसी को ले जाना नहीं है। आत्मा की या परमात्मा की यात्रा कोई दूर की यात्रा नहीं है, वहां किसी को जाना नहीं है, वहां हम हैं। जहां हम हैं, हमारे उस होने का नाम ही हमारी आत्मा है। जहां हम हैं, हमारे उस होने का नाम ही परमात्मा है। जहां हम हैं, वही हमारा घर है। लेकिन जागना है। और अहंकार में जो सोया है वह कैसे जाग सकता है। इसलिए एक ही अंतिम बात आपसे कहनी है, वह यह कि आत्म-बोध की फिकर छोड़ दें। फिकर करें अहंकार-बोध की कि इस अहंकार को ठीक से जानें, समझें, पहचानें, और अगर यह दिखाई पड़ने लगे कि झूठा है, सपना है, तो यह मिट जाएगा। यह यात्रा टूट जाएगी। यह भवन गिर जाएगा। और तब जो शेष रह जाएगा, तब जो स्मृति जाग उठेगी, तब जो बोध जन्म जाएगा, तब जो प्रकाश भर जाएगा प्राणों में, जो आलोक पकड़ लेगा, वही आत्मबोध है। आत्मबोध तो स्वभाव है। लेकिन अहंकार की यात्रा के कारण वह छिपा है, और छिपा रहेगा। अहंकार जिनका टूट जाता है वे धन्यभागी हैं, वे आत्मबोध को उपलब्ध हो जाते हैं।
एक ही बात दोहरा कर अपनी बात पूरी करता हूं: अहंकार को खोजें। अहंकार को खोजें, कहां है? नाम में है, पद में है, धन में है, ज्ञान में है, त्याग में है, कहां है? उसे खोजें और जहां-जहां खोजेंगे पाएंगे कि वहीं से वह हवा हो गया, भाग गया। जब पूरे चित्त को खोज लेंगे अपने और उसे कहीं भी नहीं पाएंगे; तब जो मिल जाएगा वह आत्मा है।
एक भिक्षु भारत से कोई चैदह सौ वर्ष पहले चीन गया, बोधिधर्म। वहां का सम्राट वू उसके स्वागत को आया राज्य की सीमा पर। और स्वागत करने के बाद उसने बोधिधर्म को कहा कि मैं अहंकार से बहुत पीड़ित हूं और सभी संन्यासी कहते हैं अहंकार छोड़ो, अहंकार छोड़ो। मैंने बहुत कोशिश कर ली छोड़ने की, लेकिन अहंकार नहीं छूटता, अब मैं क्या करूं? मेरी मौत करीब आ रही है, क्या मेरे छुटकारे का कोई उपाय नहीं है? उस बोधिधर्म ने कहा: कि तू सुबह चार बजे आ जाना, अंधेरे में, अकेले में, मैं तेरे अहंकार को छुड़ा दूंगा। अब तू जा। वह सम्राट बहुत हैरान हुआ। वह बहुत संन्यासियों के पास गया था, बहुत भिक्षुओं के पास गया था। लोग समझाते थे, लेकिन कोई यह नहीं कहता था कि मैं छुड़ा दूंगा। यह आदमी कैसा है! लेकिन शायद छुड़ा दे। वह सीढ़ियां मंदिर की उतरने लगा, तभी बोधिधर्म ने चिल्ला कर कहा कि सुन, अकेला मत आ जाना, अहंकार को साथ ले आना, नहीं तो मैं छुड़ाऊंगा कैसे?
सम्राट वू को लगा कि यह आदमी पागल है। आने की कोई जरूरत नहीं है; क्योंकि मैं आऊंगा तो मेरा अहंकार तो आ ही जाएगा। यह क्या कहने की जरूरत थी कि अहंकार को साथ ले आना? लेकिन सोचा कि क्या हर्ज है, चल कर देख लेना चाहिए, पता नहीं कुछ आदमी करे, कुछ जानता हो।
वह चार बजे रात डरता-डरता आया, अंधेरी रात, वह आकर बोधिधर्म के झोपड़े के बाहर बैठा। बोधिधर्म लालटेन और डंडा लेकर बाहर आया और उसने कहा: आ गए तुम? लेकिन अकेले दिखाई पड़ते हो, अहंकार कहां है? उस वू ने कहा कि आप भी पागलों जैसी बातें करते हैं। अहंकार तो मेरे भीतर है, उसे मैं छोड़ कर कैसे आ सकता हूं? वह तो साथ है ही। अगर उसको मैं छोड़ सकता, तो तुमसे छोड़ने का उपाय क्यों पूछता? मैं उसे नहीं छोड़ पा रहा हूं, यही तो मेरी समस्या है। तुम कोई रास्ता बता दो, मैं उसे कैसे छोड़ूं?
बोधिधर्म ने कहा: तू कहता है, भीतर है, पक्का तुझे विश्वास है कि भीतर है? तो आंख बंद करके भीतर खोज। मैं सामने बैठा हूं, मिल जाए तो वहीं पकड़ लेना और मुझे कहना, तो मैं उसको खत्म कर दूंगा।
अब वह बोधिधर्म सामने बैठ गया और वह सम्राट वू आंख बंद करके भीतर खोजने लगा। ...और वह बोधिधर्म उसे हिलाने लगा कि सो मत जाना, खोज जारी रख और भीतर खोज ले। और जब भी तू पा ले कि पकड़ लिया, उसी वक्त मैं खतम कर दूंगा।
आधा घड़ी बीत गई, एक घंटा बीत गया, डेढ़ घंटा बीत गया, सुबह होने लगी, सूरज निकलने लगा। उस सम्राट वू के आंख पर, चेहरे पर एक अदभुत शांति आने लगी। उसके चेहरे के सारे तनाव विलीन होने लगे। एक आनंद की छाया उतरने लगी। फिर सूरज निकल आया, फिर उसकी रोशनी में वह सम्राट वू बैठा है आनंद से भरा हुआ। उस बोधिधर्म ने उसे कहा कि बोल। उसने आंख खोली और बोधिधर्म के पैर पड़े और कहा: मैं जाता हूं, क्योंकि जो नहीं है उसे मिटाना भी पागलपन है। मैंने उसे देखा ही नहीं, इसलिए सोचता था कि वह है। आज भीतर खोजा, तो पाता हूं, वह तो कहीं भी नहीं है। वू पैर पड़ कर चला गया था।
खोजें अहंकार को, जीवन में वह कहां-कहां खड़ा कर लिया है? कहां-कहां है? और जिस दिन दिखाई पड़ जाएगा कि वह नहीं है, उसी दिन, उसी दिन वह दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा जो है। और उसकी उपलब्धि बन जाती है आनंद, उसकी उपलब्धि बन जाती है आलोक, उसकी उपलब्धि बन जाती है अमृत। शेष सारे लोग जीते हैं, दिखाई पड़ते हैं जीते हुए, लेकिन जीवन को नहीं जानते। केवल वे ही लोग जीवन को जान पाते हैं जो स्वयं की परिपूर्ण गहराई को उपलब्ध होते हैं, जो आत्म-बोध को उपलब्ध होते हैं, वे ही केवल अमृत-जीवन को भी जाने पाते हैं।

मेरी ये थोड़ी सी बातें इतने प्रेम और इतनी शांति से सुनीं, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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