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शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन--परम का विज्ञान

सुबह सूरज उगता है और हम मान लेते हैं कि रात मिट गई। वह मानना बड़ा झूठा है। एक रात तो बाहर है जो मिट जाती है, लेकिन एक रात भीतर भी है जो किसी सूरज के उगने से कभी नहीं मिटती। रात के अंधेरे में भी हम दीया जला लेते हैं और सोचते हैं प्रकाश हो गया, लेकिन एक अंधेरा ऐसा भी है जहां हम कभी कोई दीया नहीं जलाते और जहां कभी कोई प्रकाश नहीं पहुंचता। लेकिन शायद उस अंधेरे का ही हमें कोई पता नहीं है। और जब तक उस अंधेरे का पता न हो, तब तक प्रकाश की आकांक्षा भी कैसे पैदा हो सकती है?
उपनिषदों के किसी ऋषि ने गाया है, परमात्मा से प्रार्थना की है: मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चल, अंधेरे से प्रकाश की ओर ले चल। यह प्रार्थना हमने सुनी है और यह भी हो सकता है कि यह प्रार्थना किन्हीं क्षणों में हमने भी की हो। लेकिन जिन्हें यह भी पता नहीं कि किस अंधेरे को मिटाना है, उनकी प्रकाश के लिए की गई प्रार्थना का क्या अर्थ हो सकता है?

हम एक ही अंधेरे से परिचित हैं, जिसे मिटाने के लिए किसी परमात्मा की कोई जरूरत नहीं, आदमी काफी है। वह अंधेरा हमारे पास है। हमारे भीतर भी कोई अंधेरा है, इसका हमें पता ही नहीं। और जिस दिन भीतर के अंधेरे का पता चल जाए, उस दिन रोआं-रोआं, श्वास-श्वास एक ही प्रार्थना करने लगती है कि कैसे अंधेरे के बाहर जाऊं? जैसे हम किसी को पानी में डुबा दें...
सुना है मैंने, एक फकीर था, शेख फरीद। सुबह-सुबह स्नान करने नदी की तरफ जाता है। रास्ते में एक आदमी मिला और उसने पूछा कि ईश्वर है? ईश्वर कहां है? ईश्वर कैसा है?
फरीद ने कहा: मैं स्नान करने जाता हूं, अच्छा हो कि तुम भी मेरे साथ चलो। हो सकता है स्नान करने में ही तुम्हें जवाब भी दे दूं।
उस आदमी ने सोचा, स्नान करने से ईश्वर के संबंध में पूछे गए सवाल का जवाब कैसे मिलेगा? लेकिन जानने के लिए फकीर के साथ हो लिया।
वे नदी पर पहुंचे। फरीद स्नान करने लगा। वह आदमी भी स्नान करने लगा। उस आदमी ने एक डुबकी ली है और फरीद ने उसकी गर्दन पानी के भीतर पकड़ ली। फरीद मजबूत आदमी थे। वह जिज्ञासु बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। उसके प्राण एक ही आकांक्षा कर रहे हैं..कैसे बाहर निकल जाऊं, श्वास कैसे ले लूं, कैसे बाहर निकलूं? सारा रोआं-रोआं तड़फने लगा है। फरीद मजबूत आदमी है, वह उसे पानी में दबाए चला गया है। बड़ी मुश्किल से, बड़ी मुश्किल से वह आदमी छूट पाया है। बाहर निकला है, तो फरीद पर टूट पड़ा है कि मैंने पूछा था, ईश्वर कहां है, और तुम मेरे प्राण लिए लेते हो? मैंने सोचा था, किसी संन्यासी के पास जाता हूं, किसी हत्यारे के पास नहीं। यह तुमने क्या किया?
फरीद ने कहा: यह बात पीछे कर लेंगे। अभी मुझे कुछ और पूछना है? जब तुम पानी के भीतर थे तो तुम्हारे मन में कितने सवाल थे?
उस आदमी ने कहा: सवाल?
फरीद ने पूछा: कितने विचार थे?
उस आदमी ने कहा: विचार? न कोई विचार था, न कोई सवाल था। एक ही ख्याल था, कैसे एक श्वास ले लूं। फिर तो वह ख्याल भी मिट गया। फिर तो सारे प्राण एक पुकार से भर गए कि कैसे श्वास मिले। फिर मुझे पता भी नहीं कि श्वास चाहिए थी, फिर मैं ऊपर उठ रहा था। सारी ताकत लगा रहा था बाहर निकलने के लिए। लेकिन यह भी चेतन नहीं था। यह जो हो रहा था, यह भी मैं नहीं कर रहा था। फरीद ने कहा: जिस दिन परमात्मा को ऐसे ही पुकारोगे, उस दिन पूछने की जरूरत नहीं रहेगी कि परमात्मा कहां है।
हमने भी बहुत बार प्रार्थना की हो। प्रकाश की तरफ कौन नहीं जाना चाहता है? लेकिन अंधेरे का अनुभव ही हमें नहीं, और अंधेरे का अनुभव न हो तो प्राण प्यास से भरते नहीं कि हम प्रकाश की तरफ कैसे चले जाएं? फिर प्रार्थना झूठी हो जाती है।
जिस प्रार्थना के पीछे प्यास न हो, उससे ज्यादा असत्य प्रार्थना कोई भी नहीं है।
हमारी सारी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं। और ज्ञान पाने की हमारी सारी चेष्टाएं और श्रम भी व्यर्थ हो जाते हैं। क्योंकि अज्ञान का, अंधेरे का ठीक-ठीक बोध ही हमें नहीं हैं। आज की सुबह तो मैं यह बात करना चाहूंगा कि भीतर अंधेरा है, घना अंधेरा है। लेकिन शायद हम उस अंधेरे के धीरे-धीरे इतने आदी और परिचित हो गए हैं कि उससे हमें कोई पीड़ा नहीं होती। या यह भी हो सकता है कि अंधेरे में रहते-रहते हम यही भूल गए हैं कि वह अंधेरा है!
भीतर के अंधेरे का हमें कोई बोध, कोई चोट, कोई परेशानी, कोई चिंता नहीं है। और जिस आदमी को भीतर के अंधेरे से चिंता और एंग्जायटी पैदा न होती हो, उसआदमी के जीवन में धर्म का कभी भी कोई द्वार नहीं खुलता है।
धार्मिक लोग हैं..हिंदू हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, लेकिन धार्मिक आदमी नहीं हैं। क्योंकि बहुत मुश्किल से ही इस बात का बोध होता है कि मेरे भीतर अंधेरा है, मैं अज्ञान में हूं। मुश्किल से यह बात ख्याल में आती है कि मैं मृत्यु से घिरा हूं, अंधेरे से घिरा हूं। जीवन की बुनियादी भ्रांतियों में से एक भ्रांति यह है कि हम जानते हैं कि भीतर कुछ भी नहीं करना है, जो भी करना है वह बाहर करना है। धन कमाना है, बाहर। भीतर भी कोई धन हो सकता है? यश कमाना है, बाहर। भीतर भी कोई यश हो सकता है? रोशनी पैदा करनी है, बाहर। दीये जलाने हैं, बाहर। भीतर भी कोई दीया जलाने की बात है?
जो भी करना है, बाहर करना है। भीतर करने का कोई सवाल ही नहीं है। और इसलिए भीतर अगर हम वैसे ही रह जाते हैं जैसा जन्म के साथ पैदा हुए थे मरने के दिन तक, तो कोई आश्चर्य नहीं है। हम भीतर के साथ बिल्कुल तृप्त और संतुष्ट हैं, हमें भीतर कुछ परिर्वतन ही नहीं करना है। यह भीतर कोई अभाव है, कोई कमी है, कुछ है भीतर जिसे बदलना है, कुछ है भीतर जिसे लाना है, जो नहीं है।
गुरजिएफ के पास एक...यूनान में एक फकीर था, गुरजिएफ। रूस का एक बहुत बड़ा गणितज्ञ आस्पेंस्की मिलने गया। आस्पेंस्की ने गुरजिएफ से कहा: हम सबके भीतर आत्मा है, कैसे उसे पाएं?
गुरजिएफ बहुत हंसने लगा, उसने कहा, सबके भीतर आत्मा! नहीं, सबके भीतर आत्मा नहीं है। जिन्हें अमृत का कोई पता नहीं, उनके भीतर आत्मा होना न होने के बराबर है।
जैसे हम कहें, सब बीज के भीतर वृक्ष है। हो सकता है वृक्ष, है नहीं। और बीज बिना वृक्ष हुए भी मर सकता है। बीज वृक्ष भी बन सकता है। लेकिन अगर सभी बीजों को यह ख्याल पैदा हो जाए कि हम तो वृक्ष हैं, तो उनकी दौड़ बंद हो जाएगी वृक्ष होने की।
जो हमारे भीतर नहीं है, वह हमने मान लिया है, इसलिए दौड़ बंद हो गई है। प्रकाश हमारे भीतर बिल्कुल नहीं है, लेकिन हमने मान रखा है। ज्ञान हमारे भीतर बिल्कुल नहीं है, लेकिन हमने मान रखा है। अमृत हमारे भीतर बिल्कुल नहीं है, लेकिन हमने मान रखा है। परमात्मा हमारे भीतर बिल्कुल नहीं है, लेकिन हम सब दोहराए चले जाते हैं कि भगवान सबके भीतर है।
हो सकता है, परमात्मा भी हो सकता है, अमृत भी हो सकता है, बीज वृक्ष बन सकता है, और आदमी आत्मा बन सकता है, लेकिन आदमी अभी आत्मा है नहीं, सिर्फ एक संभावना है, एक पोटेंशियलिटी है। आदमी प्रकाश हो सकता है, लेकिन आदमी प्रकाश है नहीं।
आदमी एक गहन अंधेरा है। आदमी जाग सकता है, लेकिन आदमी सोया हुआ है। हम जो हो सकते हैं, उसे हमने मान लिया है कि हम हैं। और इसलिए जीवन की सारी गति अवरुद्ध हो गई है, सब रुक गया है।
अगर एक गरीब आदमी मान ले कि वह धनी है, और एक भिखारी मान ले कि वह सम्राट है, फिर उस भिखारी के सम्राट होने की कोई उम्मीद न रही। उसने मान ही लिया कि वह सम्राट है। वह एक सपने में खो गया कि वह एक सम्राट है। और वह भिखारी है सड़क के किनारे बैठा हुआ। हाथ उसके भीख के लिए फैले हुए हैं, मन में भीतर वह सोच रहा है कि मैं सम्राट हूं। फिर यह भिखारी कभी सम्राट नहीं हो सकेगा।
हम क्या हैं, वह हमें ठीक से जानना जरूरी है, ताकि हम वह हो सकें जो हम हो सकते हैं। लेकिन आदमी के ऊपर एक गहरी मूच्र्छा छा गई है। और हम सबने वह मान लिया है जो हम हो सकते हैं, जो हम अभी हुए नहीं हैं। और इसलिए भीतर हम रुक गए हैं।
बाहर विकास हो रहा है, भीतर कोई विकास नहीं हो रहा है। तीन हजार वर्षों में आदमी बाहर तो बहुत गति किया है..छोटे मकान बड़े मकान हुए हैं, बीमारियां कम हुई हैं, उम्र आदमी की बढ़ी है, ज्यादा सुख की सुविधाएं जुटी हैं, आदमी जमीन से चांद तक पहुंच गया है, लेकिन भीतर? भीतर हम वहीं खड़े हैं जहां आदिम, प्रिमिटिव आदमी खड़ा है। हम भीतर कहीं भी नहीं गए। भीतर हम इंच भर भी नहीं हिले। भीतर हम वहीं के वहीं खड़े हैं।
बाहर विकास हो रहा है, भीतर आदमी ठहर कर खड़ा हो गया है। और इसीलिए इतनी परेशानी है दुनिया में। आदमी छोटा पड़ रहा है और आदमी का विकास बड़ा होता चला जा रहा है। आदमी बहुत छोटा हो गया है, विकास बहुत बड़ा हो गया है। उसके हाथ में एटम और हाइड्रोजन बम हैं और आदमी, आदमी बिल्कुल आदिम है, बिल्कुल प्रिमिटिव है। उसमें कोई विकास नहीं हुआ है।
अविकसित आदमी के हाथ में विकसित साधन बड़े खतरनाक सिद्ध हो रहे हैं। अज्ञानी आदमी के हाथ में विज्ञान का सारा ज्ञान सुसाइडल, आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। यह होगा ही। यह होगा ही। यह होना बिल्कुल स्वाभाविक है। लेकिन अगर यह एक बार ख्याल आ जाए कि हमारे जीवन का सारा उपक्रम बाहर ही नहीं है, जीवन का सारा श्रम बाहर ही नहीं खो जाना चाहिए। हम भी हैं, मैं भी हूं, मेरा होना भी है और मेरे होने का भी, मेरे बीइंग का भी एक विकास है। क्या वहां प्रकाश है? कभी भीतर आंख बंद करके खोज की है? वहां प्रकाश है? वहां कोई दीया जलता है? वहां कोई सूरज निकलता है? वहां घनघोर अंधेरा है, वहां कोई प्रकाश नहीं है। वहां कोई सूरज नहीं निकलता। आंख बंद की कि हम अंधेरे में खो जाते हैं। और इसलिए हम आंख बंद करने से डरते हैं, इसलिए हम भीतर झांकने से भी डरते हैं।
लोग कहते हैं, सुकरात से लेकर आज तक, सारे लोग कहते हैं, नो दाउ सेल्फ, अपने को जानें, भीतर जाएं। निरंतर शिक्षा दी जाती है, भीतर जाओ, अपने को जानो। लेकिन कोई आदमी भीतर नहीं जाना चाहता है। क्योंकि भीतर आंख बंद करता है कि अंधेरा हो जाता है। अंधेरे से डर लगता है। बाहर कम से कम प्रकाश तो है। बाहर कम से कम दिखाई तो पड़ता है, भीतर तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। या अगर भीतर भी कभी कुछ दिखाई पड़ता है, तो वे बाहर के ही प्रतिबिंब होते हैं, बाहर के ही रिफ्लेक्शन होते हैं। आंख बंद होती है, मित्र दिखाई पड़ते हैं, दुश्मन दिखाई पड़ते हैं। फिर भी आंख बंद न हुई, फिर भी हम बाहर ही हैं। बाहर की तस्वीरों को देखे चले जा रहे हैं। वहां पर एक रोशनी है। लेकिन भीतर जितने गहरे उतरते हैं, वहां उतना अंधेरा मालूम होता है। जैसे कोई गहरी अंधेरी खोह में उतर जाए।
सी एम जोड एक बड़ा विचारक था अभी। किसी ने जोड को कहा था..कभी अपने भीतर जाएं, कभी उतरें अपने भीतर। कब तक बाहर का सोचते रहेंगे? जोड बीमार पड़ा। सोचा कि अब बीमारी में बाहर जा भी नहीं सकता हूं, डाक्टर कहते हैं, बिस्तर पर ही पड़ा रहना पड़ेगा। तो सोचा कि जब बाहर नहीं जा सकता, तो भीतर जाने की ही कोशिश करके देख ली जाए। फुरसत अनायास मिल गई है। सोऊंगा भी तो कब तक सोऊंगा। आंख बंद की है, तो भीतर तो घनघोर अंधेरा है, भीतर तो कुछ भी नहीं हैं, कहां जाओ?
हम सब भीतर से बचते हैं कि वहां अंधेरा है। वहां डर भी हो सकता है, अनजान रास्ता हो सकता है, अनजान खड्ड भी हो सकती है। जो लोग ध्यान के थोड़े भी गहरे प्रयोग करते हैं, जो पहला अनुभव उन्हें आना शुरू होता है वह ऐसा है जैसे किसी गहरे अंधेरे कुएं में गिर रहे हों, जिसकी कोई नीचे कोई बाटम नहीं है, कोई तलहटी नहीं है, गिरते ही जा रहे हैं, अंधेरा है, डार्क एबिस। ईसाई फकीरों, ईसाई मिस्टिक्स ने नाम दिया है: डार्क नाइट अॅाफ दि सोल, आत्मा की अंधेरी रात।
जो लोग भी भीतर उतरते हैं, पहला अनुभव अंधेरे का है, घनघोर अंधेरे का है। हां, लेकिन अगर कोई चाहे तो उजाले की कल्पना कर सकता है। कोई चाहे तो बैठ कर अंदर भी झूठे कल्पना के दीये जला सकता है। सोच सकता है कि माथे के बीच में दीये की ज्योति जल रही है। सोच सकता है कि माथे के पास सूरज चमक रहा है। सोच सकता है। कल्पना कर सकता है, इमेज बना सकता है, और तब, तब वह असली प्रकाश तक कभी नहीं पहुंचेगा क्योंकि वह असली अंधेरे से गुजरने से ही उसने इनकार कर दिया है। जिनको भी सुबह तक पहुंचना है, उन्हें रात से गुजरना पड़ेगा। और जिन्हें भी उस प्रकाश को खोजना है, जो भीतर हो सकता है, उन्हें एक अंधेरी रात से भी भीतर गुजरना पड़ेगा।
हम सब उस अंधेरी रात से बचने के लिए दो काम करते हैं। एक काम तो यह करते हैं कि हम भीतर जाते ही नहीं, उस उपद्रव से ही बच जाते हैं। हम जितना अपने से डरते हैं उतना किसी से भी नहीं डरते हैं। अगर आपको एक कमरे में अकेला छोड़ दिया जाए और कहा जाए कि रह जाएं तीस दिन अकेले इस कमरे में, आप कहेंगे, अकेला मैं नहीं रह सकता। इसका मतलब क्या हुआ?
इसका मतलब हुआ कि आप किसी के भी साथ रह सकते हैं, अपने साथ नहीं रह सकते। इसका मतलब यह हुआ कि कोई भी साथी आप अपने से बेहतर साथी समझते हैं। किसी के भी साथ रह सकते हैं अ ब स कोई भी काम दे देगा। अगर आदमी न मिले तो आदमी एक कुत्ता पाल लेता है। कुत्ते के साथ भी रह सकता है, लेकिन अपने साथ नहीं रह सकता है। अकेला नहीं रह सकता। रेडियो खोल लेगा; जिस गीत को हजार बार सुन चुका है, उसे फिर सुनेगा। जिस अखबार को सुबह से पच्चीस बार पढ़ चुका है, उसे फिर से उठा लेता है, फिर से पढ़ना शुरू कर देगा। अपने साथ नहीं रह सकता है आदमी।
हम इस योग्य भी नहीं कि अपने साथ रह सकें? हम खुद को भी दोस्ती के योग्य नहीं मानते। तो एक तो हम बाहर उलझे रहते हैं, ताकि भीतर न जाना पड़े। एक तो हम दूसरे लोगों के साथ रहे आते हैं, ताकि अपने साथ न होना पड़े। इतने व्यस्त रहते हैं, इतने आक्युपाइड रहते हैं कि भीतर का ख्याल न आए। सुबह से आखिरी रात सोने के क्षण तक व्यस्त हैं।
इस व्यस्तता के पीछे बहुत मनोवैज्ञानिक बीमारी है। कोई आदमी विश्राम नहीं करना चाहता, क्योंकि विश्राम में अपने साथ होना पड़ेगा। और अगर विश्राम के लिए पहाड़ी स्टेशन चला जाता है या समुद्र के तट चला जाता है, तो दस-पांच लोगों को साथ ले जाता है। और वहां जाकर पूरी तरह व्यस्त हो जाता है। वही दुनिया वहां पैदा कर लेता है जो घर पर थी। वही दुनिया फिर खड़ी कर लेता है, लेकिन अकेला नहीं होना चाहता। और हम चैबीस घंटे इसलिए व्यस्त हैं कि कहीं अकेले न हो जाएं।
अगर एक आदमी को जेल में रहने का मौका मिल जाए, तो वह जेल में भी अकेला नहीं रहता। वह गीता पर टीका लिखने लगता है वहां बैठ कर। अगर उसको कागज न मिले, तो दीवाल पर कोयले से लिखने लगता है। लेकिन व्यस्त हो जाता है। इधर तीस-चालीस साल में हिंदुस्तान के जेल में जाने वाले लोगों ने जितनी किताबें बढ़ाईं उतनी और किसी ने नहीं बढ़ाईं। जेल, बड़ी जरूरी बात हो गई कि वहां कुछ लिखा जाए। क्योंकि वहां अकेले रहने के लिए खुद को एनकांउटर करने का एक मौका मिला है, जिसे चूक जाना जरूरी है? एक मौका मिला है जहां खुद के साथ रहना पड़ेगा, और कोई खुद के साथ नहीं चाहता। कोई न कोई उलझन चाहिए, कोई न कोई व्यस्तता चाहिए, कहीं न कहीं, कहीं न कहीं मन लगा होना चाहिए, ताकि भीतर झांकने का मौका न मिले।
हर आदमी व्यस्त है, क्योंकि कोई भी आदमी अपने साथ एक क्षण भी नहीं रहना चाहता। हमारा प्रेम भी हमारी व्यस्तता है दूसरे के साथ। और हमारी प्रार्थना भी हमारी व्यस्तता है दूसरे के साथ। और हमारे धन की खोज भी व्यस्तता है। और यश की खोज भी व्यस्तता है। हमारी राजनीति भी व्यस्तता है। और हमारा मंत्र-जाप, पूजा-प्रार्थना भी व्यस्तता है।
जब कि धर्म में प्रवेश उनका होता है जो अनआक्युपाइड होने को तैयार हैं, जो सब व्यस्तता छोड़ने को तैयार हैं, थोड़ी देर को ही सही।
अनआक्युपाइड होने का क्या मतलब होता है? मतलब होता है: मैं किसी के साथ नहीं, अपने ही साथ हूं। थोड़ी देर के लिए मैं अपने ही साथ हूं। लेकिन अपने साथ होना कठिन गुजरता है क्योंकि अपने साथ होते ही घनघोर अंधेरा घेर लेता है।
बाहर जो अंधेरा आपने देखा है, वह बहुत घनघोर अंधेरा नहीं है। बाहर तो जिसे हम अंधेरा कहते हैं, वह एक अर्थों में प्रकाश की ही डिग्रियां हैं। थोड़े कम प्रकाश को हम अंधेरा कहते हैं, और थोड़े कम प्रकाश को और ज्यादा अंधेरा कहते हैं। बाहर एब्सल्यूट डार्कनेस है ही नहीं, बाहर सब अंधेरा रिलेटिव है। और इसलिए बाहर एब्सल्यूट लाइट भी नहीं मिल सकता, सब प्रकाश भी रिलेटिव होगा, सापेक्ष होगा।
बाहर प्रकाश और अंधेरा एक ही चीज के, एक ही स्पेक्ट्रम के दो छोर हैं। लेकिन भीतर एब्सल्यूट लाइट, पूर्ण प्रकाश की संभावना है। वह ध्यान रहे, भीतर एब्सल्यूट अंधेरे से गुजरने की हिम्मत भी चाहिए। पूर्ण अंधेरे से गुजरने की भी जरूरत है। एक अंधेरी रात भीतर है, उससे गुजरना पड़ेगा, लेकिन हम तो उससे बचना चाहते हैं। बचने के लिए एक उपाय यह है कि हम उलझे रहें बाहर। जन्म से लेकर मरने तक, हम उलझे ही उलझे समाप्त हो जाते हैं।
आपने देखा होगा, आदमी रिटायर होता है तो बड़ा परेशान होता है। आदमी की नौकरी छूटती है, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। जो आदमी बीस साल जिंदा रह सकता था वह पांच-दस साल ही जिंदा रहता है। दस साल की उम्र खो देता है। रिटायर्ड आदमी दस-पांच साल की उम्र खो देता है। इसीलिए तो कोई भी रिटायर्ड नहीं होना चाहता है..चाहे सत्तर साल का हो जाए, चाहे पचहत्तर साल का हो जाए..राष्ट्रपति होना चाहता है, प्रधानमंत्री होना चाहता है।
कोई रिटायर्ड नहीं होना चाहता। अगर मरे हुए आदमियों को भी मौका मिले तो राष्ट्रपति के लिए खड़े हो जाएंगे। वह तो यह है कि हम उनको दफना देते हैं, छोड़ते नहीं हैं। उनको या तो कब्र में गाड़ देते हैं या आग लगा देते हैं। शायद इसी डर से कि वह वापस न आ जाएं, खड़े न हो जाएं।
कोई आदमी खाली नहीं होना चाहता है। और रिटायर्ड आदमी की उम्र कम हो जाती है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ठीक कहते हैं, इसलिए कम हो जाती है कि पहली दफे उसे अपने साथ रहना पड़ता है। और जैसे अपने साथ रहता है, बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। खुद की कंपनी बड़ी मुश्किल, खुद का साथ भी बड़ा मुश्किल। इसलिए हर आदमी व्यस्त है। रिटायर्ड आदमी नई व्यस्तताएं खोज लेता है।
चर्चिल, पीछे के दिनों में छूट गया था तब..छूट गया था या छुड़ा दिया गया था..जो लोग छुड़ा दिए जाते हैं, वे भी यह कहते हैं कि हम छूट गए। जिनको धक्के दे दिए जाते हैं, वे भी यह कहते हैं कि हम बाहर आ गए हैं। चर्चिल आखिरी दिनों में छूट गया था, या छुड़ा दिया गया था। मेरे एक मित्र उसको मिलने गए थे। वह अपने बगीचे में काम कर रहा है। मित्र ने पूछा: यह क्या कर रहे हैं? चर्चिल ने कहा: क्या करूं? मैं एक मिनट भी बैठा नहीं रह सकता। इसलिए पौधों के लिए गड्ढा खोद रहा हूं।
गड्ढा खोदना बुनियादी जरूरत नहीं थी। परंतु चर्चिल की भी भीतरी जरूरत है। वह जो सुबह से रात तक राजनीति में उलझा था, वह दुनिया की सेवा ही नहीं थी, वह चर्चिल की भीतरी जरूरत भी है। अब वह आदमी खाली हो गया, अब उससे कोई नहीं कहता कुछ करो। अब वह बगीचे में गड्ढा खोद रहा है। वह कहता है, बिना किए एक मिनट नहीं रहा जा सकता।
औरंगजेब ने अपने बाप को बंद कर दिया था। आखिरी वक्त में बाप को बंद कर दिया कारागृह में। तो औरंगजेब के बाप ने एक चिट्ठी भेजी और औरंगजेब को कहा कि एक काम करो, यहां अकेला रहना बहुत मुश्किल है। तुम एक काम करो, इतनी कृपा करो कि तीस बच्चे भेज दो, जिनको मैं पढ़ाता रहूं।
औरंगजेब ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि मेरे बाप को फुरसत से रहना जरा भी पसंद नहीं है। उसने तीस बच्चे बुला लिए और अब उसने पढ़ाने का काम शुरू कर दिया है। और तीस बच्चों के बीच में फिर उसने वह अकड़ वापस पा ली है जो एक बादशाह की होती है। तीस बच्चों के बीच में वह फिर बादशाह हो गया है। फिर उनको डांट रहा है, ठीक कर रहा है, सुधार कर रहा है, समझा रहा है। पढ़ा रहा है, बुझा रहा है। फिर उसने चारों तरफ चिंताएं खड़ी कर लीं। वह अकेला नहीं रह सकता, वह आराम नहीं कर सकता।
कौन रह सकता है अकेला?
जो आदमी अकेला रह सकता है, वह परमात्मा के पास पहुंच सकता है। और जो आदमी अकेला नहीं रह सकता है, वह कभी भी भीतर प्रवेश नहीं कर सकता है। अकेला होना तो भीतर होने की पहली शर्त है। अकेले होने में महत्व इसी बात का है कि अव्यस्त होने की, अनआक्युपाइड होने की थोड़ी हिम्मत जुटाएं।
लेकिन या तो हम बाहर व्यस्त होते हैं। या अगर हम बाहर से ऊब गए, और हर आदमी ऊब जाता है। कब तक कोई आदमी...कितनी ही कम बुद्धि का आदमी हो, तो भी रिपिटीशन उबा देने वाला है। ज्यादा बुद्धि के लोग जल्दी ऊब जाते हैं। बुद्ध जैसे लोग जवानी में ऊब जाते हैं। कम बुद्धि के लोग बुढ़ापे में ऊबते हैं। इसलिए बुढ़ापे में धार्मिक हो पाते हैं। ज्यादा बुद्धिमान आदमी हो, तो बचपन में ही धार्मिक हो जाएगा। कम बुद्धि का आदमी हो, तो मरते दम तक उसको फिर ख्याल मरते वक्त तक आएगा। लेकिन हर आदमी ऊब जाता है।
सिर्फ जानवर नहीं ऊबते हैं। आपने जानवर को कभी बोर होते नहीं देखा होगा। किसी भैंस को आपने कभी बोर्डम में नहीं देखा होगा कि ऊब गई हो, परेशान हो। कभी नहीं। भैंस कभी नहीं ऊबती। ऊबने के लिए बुद्धि चाहिए, और जितनी तेज बुद्धि हो उतनी जल्दी ऊब पैदा हो जाती है।
बुद्ध ने एक आदमी को मरते देखा और पूछा कि क्या मैं भी मर जाऊंगा? हमने पूछा कभी एक आदमी को मरते देख कर? हम हर रोज न मालूम कितने आदमियों को मरते देखते हैं, हम कभी यह नहीं पूछते कि क्या मैं मर जाऊंगा? बल्कि इस प्रश्न को टालते हैं कि कहीं दूसरे के मरने से मुझे मेरे मरने का ख्याल न आ जाए।
तो इसे टालने की तरकीब क्या है हमारी? हम उस दूसरे के साथ बड़ी सहानुभूति करते हैं, जब कि सहानुभूति अपने साथ करनी चाहिए। हम कहते हैं, बेचारा मर गया। हम कभी यह नहीं कहते हैं कि यह बेचारा अब मरेगा। हम अपने माइंड को डाइवर्ट करते हैं, उसकी सहानुभूति में कि बेचारा मर गया। दो बच्चे छोड़ गया, पत्नी छोड़ गया। बड़ा बुरा हुआ। ऐसा नहीं होना था। क्या इलाज नहीं हो पाया? क्या नहीं हो पाया? हम उस आदमी में अपने को उलझा कर, वह जो एक सवाल उठता हमारे भीतर..जाकर खड़ा हो जाता है कि क्या मैं मर जाऊंगा? उससे हम फिर बच जाते हैं। दो घंटे बाद वह आदमी भूल जाता है, दूसरे काम में हम लग जाते हैं।
बुद्ध ने पूछा: क्या मैं मर जाऊंगा? बुद्ध ने एक बूढ़े हुए आदमी को देख कर पूछा कि क्या मैं बूढ़ा हो जाऊंगा?
यह हम कभी नहीं पूछते? असल में हम मैं के संबंध में सवाल ही नहीं उठाते। हम मैं को हमेशा सवाल के बाहर रखते हैं। हम यह पूछ सकते हैं, फलां आदमी बेचारा, कितने जल्दी बूढ़ा हो गया है? हम यह पूछ सकते हैं, फलां आदमी कितना बीमार होता है। हम यह पूछ सकते हैं, फलां आदमी मर गया, अच्छा नहीं हुआ, या अच्छा हुआ। लेकिन हम इन सवालों को अपने मैं से कभी नहीं जोड़ते हैं। बल्कि अगर कोई जोड़े तो हम कहेंगे, ऐसी बातें मत करो।
एक महिला मेरे साथ सफर में थी, कुछ दिन हुए। वह कहने लगी, आत्मा तो अमर है। मैंने उससे कहा: अगर मैं तुझे यह बताऊं कि आज यह जो ट्रेन चल रही है, टकरा जाएगी और हम दोनों मर जाएंगे। उसने कहा: ऐसी अपशकुन की बातें मत करिए। ऐसी बात ही मत करिए। आप दूसरी बातें करिए। आप जैसा आदमी ऐसी बात करे तो बहुत डर लगता है कि कहीं टकरा ही जाए, कुछ...यह बात ही मत करिए।
मैंने उससे कहा: अभी तू कहती थी, आत्मा अमर है और अब तू कहने लगी अपशकुन की बातें मत करिए। अगर आत्मा अमर है तो मृत्यु अपशकुन नहीं है, क्योंकि मृत्यु है ही नहीं। और अगर मृत्यु अपशकुन है, तो आत्मा अमर है, यह बात झूठ है। इन दोनों में से कुछ एक तय कर लें। उसने कहा: वह कुछ भी हो, लेकिन मैं मरने के बाबत सोचना ही नहीं चाहती।
हममें से कोई भी नहीं सोचना चाहता है। इसलिए हम मरघट गांव के बाहर बनाते हैं। बनाना चाहिए बीच में, ठेठ बाजार में। क्योंकि हर बच्चा देख सके, जागे। जबसे होश आए तब से उसको मरघट दिखाई पड़ना चाहिए। क्योंकि मरघट के बाद बड़ी सचाई इस जिंदगी में दूसरी नहीं है। लेकिन उसको हम झूठ किए हुए हैं। उसे इतनी दूर बनाए हुए हैं कि वहां न कोई जाए, न कोई देखे। छोटे बच्चों को तो हम मरघट ले जाते भी नहीं। कोई मर जाए, रास्ते से निकलता हो, छोटे बच्चों को मां-बाप भीतर बुला लेते हैं कि भीतर आ जाओ, कोई मर गया है। कोई मर गया है, तो सब बाहर आ जाओ, क्योंकि तुम्हें भी मरना पड़ेगा। इस आदमी को ठीक से देख लो, इस सवाल को भीतर जाने दो। इस सवाल को अपने मैं से जुड़ने दो।
लेकिन हम नहीं जुड़ने देते। कोई मरता है हमेशा, हम कभी नहीं मरते। हमेशा कोई और मरता है, समबडी डाइड, वह कोई और है। लेकिन कभी यह कोई की जगह, मेरा मैं नहीं बैठ पाता, इसको हम जोड़ते ही नहीं। हम टालते हैं।
हम जिंदगी के सब बड़े सवाल टालते हैं, जिनसे भीतर जाना पड़ेगा।
और इसलिए जिंदगी को ही हम टाल देते हैं। और इसीलिए हम ऊब भी नहीं पाते, नहीं तो हम ऊब जाएं।
लेकिन कम से कम बुद्धि का आदमी भी धीरे-धीरे ऊब जाता है। वही दफ्तर सुबह, वही सांझ, वही सोना, वही उठना, वही बैठना, चैबीस घंटे। अगर कोई ऊब भी जाता है आदमी, तो वह नई रूटीन पूछता है। वह यह नहीं पूछता कि अब मैं बाहर से ऊब गया, तो मैं भीतर जाऊं? वह यह पूछता है कि मैं इससे ऊब गया, अब मैं क्या करूं? एकआदमी धन कमाते-कमाते ऊब जाता है, तो वह कहता है, माला फेरूं? मंदिर जाऊं? गीता पढूं? क्या करूं? फिर वह बाहर एक नई रूटीन पूछता है। एक आदमी सिनेमा देखते-देखते ऊब गया, तो वह कहता है, अब मैं सुबह चार बजे उठूं? प्रार्थना करूं? क्या करूं?
हम बाहर से कभी नहीं ऊबते। बाहर की एक चीज से ऊबते हैं, तो सब्स्टीट्यूट, तत्काल दूसरा खोज लेते हैं। लेकिन रहते सदा बाहर हैं, भीतर कभी नहीं आते। चाहे माला जपो, और चाहे सिनेमा देखो, दोनों हालत में आदमी बाहर होता है। चाहे गीता पढ़ो, चाहे उपन्यास पढ़ो, दोनों हालत में आदमी बाहर होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम बाहर ही उलझे होते हैं। हमारी कांशसनेस बाहर ही उलझी होती है। वह गीता अच्छी किताब है, कुरान अच्छी किताब है, कोई किताब बुरी हो सकती है यह दूसरी बात है, किताब का अच्छा और बुरा होना दूसरा सवाल है, लेकिन किताब बाहर है। और हमारी चेतना बाहर उलझी रहती है।
हम चेतना को कभी भीतर की तरफ नहीं लाते। वहां एक बड़ी अंधेरी रात हमारी प्रतीक्षा कर रही है। उसका एक अनकांसेस फियर है, एक डर हमारे मन में है कि वहां गए तो अंधेरा है। और वहां गए तो अनजान, और वहां गए तो अननोन, और वहां गए तो कोई ऐसे रास्ते जिन पर हम कभी नहीं चले। और वहां जाएं, तो कहीं हम खो न जाएं, भटक न जाएं; क्योंकि हमारी सब तख्तियां, हमारी पदवियां, हमारे दरवाजे पर लगे हुए बोर्ड, वे सब यहीं रह जाएंगे। हम वहां भीतर जाएंगे, न वहां नाम होगा, न वहां पिता होगा, न धर्म होगा, न ठिकाना होगा, न कोई डिग्री होगी, न कोई पदवी होगी, न कोई पद-प्रतिष्ठा होगी। वहां हम सब कपड़े बाहर ही छोड़ जाएंगे।
अंदर हम नंगे, खाली, शून्य की तरह घुसने की हिम्मत नहीं...बहुत अंधेरा है, हम बाहर लौट आते हैं और बाहर उलझ जाते हैं। एक रास्ता है कि आदमी बाहर उलझा रहे, बाहर ही सब्स्टीट्यूट खोजता रहे उलझने के। और एक रास्ता है कि भीतर जाए और कल्पना में उतर जाए, इमीजिनेशन में चला जाए। बाहर से छोड़ दे..न किताब पढ़े, न मंदिर जाए, न दुकान चलाए। बाहर की दुनिया का ख्याल छोड़ दे, भीतर चला जाए। लेकिन फिर भीतर एक कल्पना की दुनिया बनाने लगे। भगवान को खड़ा कर ले कि वे मुरली बजाते हुए खड़े हैं, वे हो जाएंगे। आदमी भगवान को निर्मित करने की क्षमता रखता है। और अधिक भगवान आदमी के ही निर्माण किए हुए होते हैं।
ऐसे भगवान की खोज बहुत मुश्किल है जो हमारा निर्माण किया हुआ नहीं होता है। लेकिन जब तक ऐसे भगवान की खोज न हो तब तक जीवन बेकार है। भीतर हम भगवान को भी खड़ा कर ले सकते हैं, और उस भगवान के आस-पास नाच सकते हैं, खुश हो सकते हैं। भीतर हम कल्पना का सूरज बना सकते हैं और उसकी रोशनी फैला सकते हैं। और पूरे शरीर में रोशनी भर जाए, ऐसा लग सकता है। लेकिन वह सब कल्पना का चमत्कार होगा।
कहीं हम भीतर नहीं गए, कहीं कोई प्रकाश नहीं हुआ, हमने एक झूठा प्रकाश भी कल्पित कर लिया है। हम अंधेरे में ही नहीं उतरे, हमने अंधेरे की पीड़ा और तकलीफ ही नहीं जानी। हम उस एंग्विस, संताप से नहीं गुजरे जो अंधेरे का है। हम अंधेरे में गए ही नहीं जहां कि हमें नग्न हो जाना पड़ता, सारे वस्त्र छिन जाते, सब रास्ते खो जाते, सब जाना-पहचाना नक्शा खो जाता और अंधेरे में कोई रास्ता न सूझता। चिल्लाते, कोई आवाज नहीं सुनता; पुकारते, कोई साथ नहीं होता।
हमने उस तकलीफ को नहीं झेला। उस अंधेरे में जाने की तकलीफ को मैं तपश्चर्या कहता हूं। वही तपश्चर्या है एकमात्र।
भूखा मरना तपश्चर्या नहीं है। भूखा-मरना अभ्यास की बात है। कोई आदमी थोड़ा अभ्यास कर ले, तो खाना खाना मुश्किल हो जाता है। खाना नहीं, खाना नहीं, खाना खाना ही मुश्किल हो जाता है। कोई आदमी अभ्यास कर ले।
मैंने सुना है, जर्मनी में एक बड़ा सर्कस था। उस सर्कस में एक आदमी ऐसा भी था जो उपवास के लिए प्रसिद्ध था। उसका भी एक स्टाल होता था। जहां लोग उसे देखने आते थे। उसने तीस दिन उपवास किए, पच्चीस दिन उपवास किए, पैंतीस दिन उपवास किए। वह आदमी बिल्कुल सूखता जाता था, और उपवास और उपवास, उसका यही काम था। इसके लिए उसे पैसे मिलते थे।
एक बार ऐसा हुआ है कि एक बहुत बड़े नगर में सर्कस कई महीनों चला। सर्कस में और भी अजीब-अजीब चीजें थीं देखने लायक। लोग उन सब चीजों को देखते थे, सर्कस देखते थे। उसकी झोपड़ी बिल्कुल पीछे की तरफ थी।
धीरे-धीरे लोग उसकी झोपड़ी भूल गए। कई महीने तक कौन रोज-रोज देखने जाता? उपवास करने वाले में देखने जैसा क्या है?
उपवास करने वाले को गांव बदल लेना चाहिए, नहीं तो फिर देखने वाले मिलना बहुत मुश्किल हो जाते हैं। उसे दूसरा गांव चुनना चाहिए, दो-चार दिन में गांव बदल लेना चाहिए।
तब नहीं तो बहुत मुश्किल मामला है। वह आदमी...एक ही गांव में उपवास करने वाले को कौन देखने जाए? कुछ दिनों में मैनेजर भी भूल गया। कोई छह महीने बाद जब सर्कस उखड़ने लगा तब लोगों को ख्याल आया कि अपने पास एक आदमी भी हुआ करता था उपवास करने वाला। वह कहां है? कुछ दिनों से उसका पता ही नहीं।
तो मैनेजर और लोग भागे हुए गए उसकी झोपड़ी की तरफ। वह आदमी भीतर करीब-करीब मरने के आखिरी क्षणों में पहुंच गया है। श्वास अटकी थी सिर्फ उसकी। मैनेजर ने कहा: पागल, अगर तुझे लोग देखने नहीं आते थे, तो तूने खाना क्यों नहीं शुरू कर दिया?
उस आदमी ने बड़ी धीमी आवाज में, अब जान बिल्कुल निकलने के करीब थी, इतना ही कहा, खाना? पहले तो खाना छोड़ने में बड़ी तकलीफ हुई, अब खाना खाने में उतनी ही तकलीफ होती है।
अभ्यास की बात है। कोई देखने नहीं आता था, लेकिन वह खाना नहीं खाता था। अगर तीन-चार दिन आप भी खाना न खाएं, तो पांचवें दिन से भूख मरनी शुरू हो जाती है, क्योंकि शरीर एक नई तरकीब खोज लेता है, शरीर अपने को ही खाने लगता है भीतर से। फिर बाहर से खाने की जरूरत नहीं रह जाती। इसलिए तो भोजन छोड़ने वाले आदमी का एक पौंड डेढ़ पौंड वजन रोज गिरता चला जाता है। अपना ही मांस पचना शुरू हो जाता है।
उपवास एक तरह का मांसाहार है, खुद ही का मांसाहार। दूसरे का मांस खाओ, तो झगड़ा-झंझट खड़ा होता है। अपना ही खाओ, तो कोई झगड़ा-झंझट भी नहीं है। लेकिन अपना ही मांस शरीर पचाना शुरू कर देता है, अपनी ही चर्बी पचाना शुरू कर देता है। फिर बाहर से भोजन लेने की क्षमता खो जाती है, नया रास्ता खुल जाता है।
शरीर के पास बड़ी व्यवस्थाएं हैं, इमरजेंसी व्यवस्थाएं हैं। अगर आप खाना ऊपर से बंद करेंगे, शरीर भीतर से पचाना शुरू कर देगा, और इसीलिए शरीर बहुत से डिपोजिट करके रखता है, बहुत सा भोजन इकट्ठा करके रखता है। मोटा जो आदमी है वह मोटा इसीलिए है कि वह आदमी ज्यादा भोजन इकट्ठा कर लिया है। जैसे तिजोरी में कुछ आदमी ज्यादा इकट्ठा कर लेता है, मोटे आदमी ने शरीर में ज्यादा डिपाजिट कर लिया है। वह घबड़ाहट में कर लिया है उसने।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, मोटा आदमी एक तरह का कंजूस आदमी है। और अक्सर कंजूस और मोटा साथ-साथ मिले हैं। उसका कारण होता है। उसका कारण कुल इतना है, उसका जो मन है, वह इकट्ठा करने वाला है। वह सब तरफ इकट्ठा करता है। वह शरीर में इतनी चर्बी इकट्ठी कर लेता है कि कब जरूरत पड़ जाए। मान लो कई दिन तक भोजन न मिले, तो फिर क्या होगा? तो वह इकट्ठा कर लेता है। वह बहुत भीतरी कंजूसी है।
अगर आदमी उपवास करे, तो दो-चार दिन में अभ्यास हो जाता है। और अगर उपवास करने को आदर मिलता हो, तब अभ्यास बहुत आसानी से हो जाता है। क्योंकि अहंकार की तृप्ति जिस बात से भी होती हो आदमी उसे करने को हमेशा सरलता अनुभव करता है। अगर आप शीर्षासन करने वाले को आदर देते हों, तो आदमी शीर्षासन करके खड़ा हो जाए, और अगर आप घंटों शीर्षासन करने वालों को महात्मा समझतें हों, तो आदमी चैबीस घंटे शीर्षासन भी कर सकता है। आदमी के अहंकार की बड़ी लीलाएं हैं। आदमी से कोई भी बेवकूफी करवाई जा सकती है। सिर्फ उसके अहंकार को रस मिलना चाहिए।
उपवास करने को इसलिए मैं कोई तपश्चर्या नहीं कहता। कांटों पर लेट जाना भी तपश्चर्या की बात नहीं है, सिर्फ अभ्यास की बात है। और शरीर इम्यून हो जाता है, बहुत जल्दी सक्षम हो जाता है। कांटे का चुभन फिर पता नहीं चलती।
मैं जब युनिवर्सिटी में पढ़ता था, तो एक तख्त पर ही सोता था, तो वर्षों से तख्त पर सोता था। फिर एक बहुत बड़े परिवार में इंदौर में मेहमान हुआ। उन्होंने मेरे लिए बहुत अच्छा इंतजाम किया। उनके गद्दे ऐसे थे कि उसमें कोई बारह-बारह इंच, पंद्रह-पंद्रह इंच मोटे गद्दे थे, कि उनमें पूरा अंदर आदमी समा जाए।
मैं उन पर सो तो गया, लेकिन नींद आनी मुश्किल हो गई। आधा घंटा बीता, घंटा बीता। करवट बदलता हूं, नींद नहीं आती। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया कि हो क्या गया? इतनी आराम की उन्होंने व्यवस्था की है, मुझे तकलीफ क्यों हो रही है, आखिर दो बज गए, फिर यही रास्ता रहा कि मैं जमीन पर उतर कर नीचे सो जाऊं। जमीन पर सो गया, तब बड़ी अच्छी नींद आई।
सुबह उन्होंने आकर मुझे देखा कि जमीन पर सोया हूं। उन्होंने कहा कि आपने यह क्या किया? क्या गद्दा पसंद नहीं आया?
मैंने कहा: गद्दा तो बहुत पसंद आया, लेकिन शरीर की आदत खराब हो गई है। अब गद्दे की आदत डालने के लिए फिर अभ्यास करना पड़ेगा।
शरीर इम्यून हो जाता है किसी भी चीज के लिए। भंगी हैं, हजारों वर्षों से हम उनसे पाखाना ढुलवा रहे हैं। हम सोचते हैं कि बेचारों को कितनी बदबू आती होगी? यह बात बिल्कुल सरासर झूठ है। उनको बदबू आती ही नहीं। बदबू आती होती, तो वे कभी की बगावत कर देते। वे इम्यून हो गए हैं।
हां, हमारी बातें सुन कर वे भी कह सकते हैं अब, कि हमको बहुत बदबू आती है। बदबू आती नहीं है। पाखाने की बदबू इतनी अच्छी है भी नहीं कि रोज-रोज ली जा सके। अगर कोई अच्छे से अच्छा, कीमती से कीमती इत्र भी आप लगाएं, तो दो दिन के बाद उसकी सुगंध आनी बंद हो जाती है। कीमती से कीमती साबुन का उपयोग करें, दूसरों को उसकी खुशबू आ सकती है, आपको नहीं आएगी। शरीर राजी हो जाता है। और शरीर जिस चीज के लिए राजी हो जाता है, वही सहज हो जाती है। कांटों पर सो सकते हैं, अंगारों पर चल सकते हैं, आदत बनाने की बात है। इनसे तपश्चर्या का कोई भी संबंध नहीं है।
तपश्चर्या तो सिर्फ एक है धर्म की दुनिया में, वह है भीतर की अंधेरी रात में प्रवेश करना। और उसकी कोई आदत नहीं बनाई जा सकती। क्योंकि उसमें हम कभी गए नहीं। और उसकी आदत बन भी नहीं सकती, क्योंकि जैसे उसके भीतर प्रवेश करते हैं, या तो बाहर भागने का मन होता है और या और भीतर चले जाने को। उसमें रुका नहीं जा सकता। पूर्ण अंधकार को कोई भी सहने में समर्थ नहीं है।
दो ही उपाय हैं, दो ही आल्टरनेटिव हैं। अंधकार पूरा सामने आएगा, तो या तो आप फौरन भाग कर बाहर आ जाएंगे..जहां सूरज है, प्रकाश के बल्ब जले हुए हैं, लोग हैं, सड़कें उजाली हैं, मकान हैं, सब प्रकाशित, आप वहां आ जाएंगे। और या अगर हिम्मत की तो और भीतर जाने की कोशिश करेंगे। वहां भी एक प्रकाश है लेकिन उस प्रकाश का हमें कोई पता नहीं है इसलिए हम फौरन बाहर चले आते हैं। फौरन बाहर चले आते हैं। हम भीतर के अंधकार में कभी प्रविष्ट ही नहीं होते।
भीतर के अंधकार में प्रवेश को मैं साधना कहता हूं, तपश्चर्या कहता हूं।
और जो भीतर के अंधकार में प्रविष्ट होगा, वह उस प्रकाश को भी पा सकता है, जिसकी बातें हमने सुनी हैं, लेकिन जिसका हमें कोई भी पता नहीं है। सुनते हैं हम। कुरान भी यही कहती है: गॅाड इ.ज लाइट, ईश्वर प्रकाश है। बाइबिल भी यही कहती है, उपनिषद भी यही कहते हैं, हजारों-हजारों लोगों ने यही कहा है..प्रकाश है।
लेकिन हमने तो अंधेरा भी नहीं जाना, तो हम प्रकाश कैसे जान सकते हैं? प्रकाश को जानने की शर्त है एक कि हम अंधेरे को जानने को तैयार हो जाएं। कोई कीमत तो चुकानी पड़ेगी। लेकिन धर्म की दुनिया में हम कोई कीमत नहीं चुकाना चाहते हैं। हम बिना कीमत के चाहते हैं, सस्ता, मुफ्त।
धर्म अकेली चीज है, जिसे हम मुफ्त चाहते हैं।
एक गांव में बुद्ध ठहरे। एक आदमी ने आकर बुद्ध को कहा कि आप इतने वर्षों से समझा रहे हैं लोगों को। कितने लोगों को वह प्रकाश मिला? कितने लोगों ने मोक्ष जाना? कितने लोग निर्वाण को पा गए? कितने लोगों ने जान लिया? इसे मैं पूछने आया हूं।
बुद्ध ने कहा: सांझ आना। तब तक एक छोटा काम है वह कर लाओ। यह कागज ले जाओ और गांव में हर आदमी से पूछ कर आओ कि वह चाहता क्या है?
 वह आदमी गया, छोटा सा गांव है, उसने एक-एक आदमी से जाकर गांव में पूछा, कोई दो-तीन सौ लोग रहते होंगे, एक-एक से पूछा कि तुम चाहते क्या हो?
किसी ने कहा कि बेटा नहीं है, बेटा चाहता हूं। किसी ने कहा, धन नहीं है, धन चाहता हूं। किसी ने कहा, बीमार हूं, स्वास्थ्य चाहता हूं। किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ कहा।
सांझ होते-होते उस आदमी को उत्तर मिल गया। वह लौट कर नहीं आया बुद्ध के पास। क्योंकि एक भी आदमी ने यह नहीं कहा कि मैं निर्वाण चाहता हूं, सत्य चाहता हूं, मोक्ष चाहता हूं, परमात्मा चाहता हूं। हालांकि ये तीन सौ लोग कई बार मंदिर में हाथ जोड़े देखे गए थे। उस आदमी ने पूछा, लेकिन मैंने तुम्हें मंदिर में देखा है?
उन लोगों ने कहा: मंदिर तो जरूर गए थे, लेकिन परमात्मा के लिए नहीं। वह लड़की की शादी करनी है, उसी के लिए भगवान से कहने गए थे। वह लड़के को नौकरी नहीं मिलती है, उसी के लिए भगवान से कहने गए थे। लेकिन बहुत शक आता है तुम्हारे भगवान पर; क्योंकि लड़के को अभी तक नौकरी नहीं मिली, प्रार्थना करते बहुत दिन हो गए।
बुद्ध ने उस आदमी को बुलवाया, कहा, उस आदमी को लाओ। वह आया क्यों नहीं?
उस आदमी ने कहा: अब मैं क्या करूं जाकर? उत्तर मुझे मिल गया है।
लेकिन बुद्ध ने कहा: फिर भी आओ।
वह आदमी गया। बुद्ध ने पूछा: क्या कहा लोगों ने? एक भी आदमी जानना चाहता है सत्य को?
उस आदमी ने कहा: कोई भी नहीं।
तो बुद्ध ने कहा: मैं किसी को जबरदस्ती सत्य की दुनिया में धक्का दे सकता हूं और मैं किसी को निर्वाण लाकर दे सकता हूं? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, भगवान, हम आपके पैर पकड़ते हैं, प्रकाश मिल जाएगा? मैं प्रकाश दे सकता हूं?
बुद्ध ने कहा: मैं कैसे प्रकाश दूं? मैं कैसे सत्य दूं? सत्य कोई ऐसी चीज तो नहीं कि किसी को कोई दे सके! प्रकाश कोई ऐसी चीज तो नहीं कि कहीं मिल जाए! खोजनी पड़ेगी, और खोजने का प्रश्न ही तब खड़ा होगा जब हम अंधेरे में गिर जाएं। अंधेरे में गिरते ही पता चलता है कि सारे प्राण प्रकाश को खोजने लगे। अंधेरे में गिरते ही पता चलता है कि सारे प्राणों में एक प्यास भर गई है, प्रकाश कहां है?
और एक बार भीतर के अंधेरे का अनुभव हो जाए, तो फिर बाहर का प्रकाश भी प्रकाश मालूम नहीं पड़ेगा, चूंकि भीतर के अंधेरे को जानते ही हमें पहली दफा पता चलेगा कि यह बाहर के प्रकाश से भीतर के अंधेरे के मिटने का कोई भी संबंध नहीं। और जब तक मैं अंधेरे में हूं, तब तक दुनिया में कितने ही सूरज जलते रहें, इससे कुछ भी होने वाला नहीं है।
आदमी अगर अंधेरा है, तो दुनिया कितनी ही प्रकाशित हो जाए, कुछ भी होने वाला नहीं। गांव-गांव में बिजली पहुंच जाए यह भी हो सकता है आज नहीं कल...।
मैं एक रूसी किताब पढ़ता था एक वैज्ञानिक की, उसकी योजना है कि सौ साल के भीतर रात हम मिटा देंगे। हम हर गांव के ऊपर कुछ विशेष गैसेस का एक बादल इकट्ठा कर देंगे और उस बादल को जब चाहें तब हम जला सकते हैं और जब चाहें तब बुझा सकते हैं। वह गांव के कंट्रोल में होगा। गांव जब चाहे, जितना प्रकाश, उस बादल से पैदा किया जा सकता है। तब फिर रात को हम मिटा देंगे, रात मिट जाएगी। रात के मिटने में कोई बहुत कमी नहीं रह गई है।
लेकिन फिर भी आदमी का अंधेरा नहीं मिटेगा। विज्ञान बाहर के अंधेरे को मिटाने का प्रयास है, धर्म भीतर के अंधेरे को मिटाने का! इसलिए विज्ञान कितना ही सफल हो जाए, उससे धर्म को कोई बाधा नहीं पड़ती, क्योंकि धर्म का किसी और ही अंधेरे से संघर्ष है।
जिस ऋषि ने गाया है कि हे भगवान, मुझे अंधेरे से प्रकाश की तरफ से चल! वह बड़ा पागल रहा होगा। हम उसको एक कमरे में लाकर खड़ा कर दें और सब बल्ब जला दें और कहें, क्यों फिजूल परेशान हो रहा है? कहां भगवान से प्रार्थना करता है? इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड से प्रार्थना करनी चाहिए। भगवान से क्या संबंध है प्रकाश का? बिजली के दफ्तर से संबंध है। जितनी चाहो बिजली ले लो, प्रकाश कर लो।
तो वह ऋषि हम पर हंसेगा और कहेगा, तुम पागल हो गए हो। क्योंकि मैं जिस अंधेरे की बात कर रहा हूं, उसका बाहर के प्रकाश से कोई संबंध नहीं है।
लेकिन, उस अंधेरे का ही हमें पता नहीं है। हम मानने को भी राजी नहीं होंगे कि हम अंधेरे में जी रहे हैं। कोई आदमी मानने को राजी नहीं होगा। आदमी क्रोध कर रहा हो और उससे कहो कि आप क्रोध में हो, तो वह कहता है, क्रोध? कहां है क्रोध? आप गलती में हैं, मैं क्रोध में नहीं हूं।
क्रोधी आदमी मानने को राजी नहीं होता कि क्रोध में है, क्योंकि अगर मानने को राजी हो जाए, तो क्रोधी होना बहुत मुश्किल हो जाएगा। पागल आदमी मानने को राजी नहीं होता कि पागल हूं। पागलखाने में चले जाएं, अगर एकाध पागल भी आपको मिल जाए, जो मानने को राजी हो कि मैं पागल हूं, तो बड़ा चमत्कार हो। कोई पागल मानने को राजी नहीं है।
कोई पागल मानने को राजी नहीं है कि वह पागल है, पागलपन का एक लक्षण यह भी है। बुद्धिमान आदमी को शक भी आ सकता है, पागल को शक भी नहीं आता।
विलियम जेम्स पागलखाना देखने गया था। पागलखाने से देख कर लौटा और फिर बहुत परेशान हो गया। बहुत परेशान हो गया। रात भर सो नहीं सका, सुबह उठा तो एकदम उदास था। ऐसा था जैसे कि दस साल उम्र ज्यादा हो गई हो।
मित्रों ने पूछा: क्या हो गया है तुम्हें? कल से जब से तुम लौटे हो, खोए-खोए हो? विलियम जेम्स ने कहा कि मुझे एक शक आ गया और वह यह कि ये जितने लोग पागल के पागलखाने में बंद हैं, कल तक ये लोग भी ठीक थे और पागल हो गए। मैं अभी ठीक मालूम पड़ता हूं, कल मैं भी पागल हो सकता हूं, एक। दूसरे मुझे यह भी शक आता है कि मैंने पागलों से पूछा कि क्या तुम पागल हो? उन्होंने कहा: नहीं, कौन कहता है? उनमें से किसी को शक नहीं है कि वे पागल हैं। मुझे शक आ गया है कि कहीं यह हमारा ख्याल कि हम पागल नहीं हैं पागलों जैसा ही तो न हो। तो मैं चिंता में पड़ गया कि कहीं मैं पागल तो नहीं हूं?
उनके मित्र खूब हंसने लगे और उन्होंने कहा, तब निश्चित है कि तुम पागल नहीं हो, क्योंकि पागल को कभी शक नहीं आता है। पागल को शक ही नहीं आता कि वह पागल है।
मैंने तो यहां तक सुना है कि एक आदमी था अमरीका में। उस आदमी ने कोई सौ वर्ष पहले, एक, लिंकन की कोई शताब्दी मनाई जाती थी। उसमें लिंकन का पार्ट किया, वह लिंकन बना। वह लिंकन बन कर सारी अमरीका में नाटक किया उसने। एक वर्ष तक वह लिंकन का पार्ट ही करता रहा..आज इस गांव में, कल दूसरे गांव में, परसों तीसरे गांव में। साल भर। लंबा वक्त है।
साल भर में वह आदमी इस भ्रम में पड़ गया कि मैं लिंकन हूं। उसको यह ख्याल पैदा हो गया कि मैं लिंकन हूं।
रोज-रोज, रोज-रोज हमको भी तो इसी तरह ख्याल पैदा होता है। रोज-रोज जो होता है, वही ख्याल पैदा हो जाता है। अगर गांव में लोग रोज आपको नमस्कार करते हैं, तो आपको ख्याल पैदा हो जाता है कि आप नमस्कार के योग्य आदमी हैं और अगर गांव के लोग तय कर लें कि नमस्कार नहीं करना है, तो बड़ी बेचैनी होती है कि लोग कैसे पागल हो गए हैं। मैं नमस्कार के योग्य आदमी, कोई नमस्कार नहीं करता है। क्या हो गया है लोगों को?
उस आदमी ने साल भर तक लिंकन का पार्ट किया, साल भर तक लोगों ने उसे लिंकन माना। जहां भी गया उसका स्वागत हुआ, मालाएं पहनाई गईं, लोगों ने नमस्कार किया, लोगों ने धन्यवाद दिए। साल भर में वह भूल गया कि मैं कौन हूं। उसे ख्याल हो गया कि मैं लिंकन हूं। यह बहुत मुश्किल नहीं है।
घर लौट आया, लिंकन के ही कपड़े पहने हुए। पत्नी ने, बच्चों ने कहा कि आप अब ये कपड़े उतार दीजिए। अब ये अच्छे नहीं मालूम पड़ते। अब लोग क्या कहेंगे? आप सड़क पर इन कपड़ों को पहन कर चलेंगे। नाटक में ठीक है।
उसने कहा: कैसा नाटक? मैं अब्राहम लिंकन हूं।
उसके घर के लोगों ने कहा कि शायद वह मजाक कर रहा है। लेकिन जब दो-चार दिन मजाक चली, तो और लंबी हो गई। मजाक थोड़ी देर चले तो समझ में आती है, फिर मुश्किल हो जाता है।
जब दो-चार दिन हो गए, वह लिंकन की अकड़ में बोलता है, लिंकन जहां अटकता, वहीं अटकता। लिंकन लंगड़ा कर चलता, तो वह भी लंगड़ा कर चलता। तब तो घर के लोगों ने कहा कि कुछ गड़बड़ हो गई है। घर के लोगों ने समझाने की कोशिश की लेकिन जितना समझाया उतनी मुश्किल होती चली गई।
वह आदमी जिद्द पकड़ता चला गया कि मैं लिंकन हूं। कमी क्या है मुझमें? आखिर लिंकन होने में मेरी कमी क्या रह गई है?
फिर उन्होंने सोचा कि किसी मनोवैज्ञानिक को दिखलाएं। यह तो बात आगे बढ़ गई। वे उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले गए। फिर रोज उसे समझाया कि तुम लिंकन नहीं हो। कहो कि लिंकन नहीं हो।
तो, एक छोटी सी मशीन होती है लाई-डिटेक्टर। अदालतों में अब तो उन्होंने उपयोग करना भी शुरू किया। एक छोटी सी मशीन है, जैसे वजन तोलने की मशीन होती है, वैसी छोटी मशीन है। उसके ऊपर आदमी को खड़ा कर देते हैं, उससे पूछते हैं कि दो और दो कितने होते हैं, तो वह कहता है, चार। वह झूठ क्यों बोलेगा? तो उसके हृदय की धड़कन एक तरह की होती है। ऐसा दस-पांच प्रश्न पूछते हैं, जिसमें झूठ बोला ही नहीं जा सकता। फिर उससे पूछते हैं, तुमने चोरी की? तो उसका हृदय तो कहता है, की, लेकिन ऊपर से कहता है, नहीं की। फिर हृदय की धड़कन में गड़बड़ी पैदा हो जाती है। वह मशीन नीचे नोट कर लेती है कि यहां इस जगह पर इस आदमी के हृदय में दोहरी दिक्कत पैदा की। इसने एक दफा हां कहना चाहा, हृदय रुका, लेकिन कहा इसने और।
तो उस आदमी को, जो लिंकन हो गया था, मशीन पर खड़ा किया, और मनोवैज्ञानिक ने उससे कई प्रश्न पूछे, यह तुम्हारी पत्नी है? उसने कहा: हां। यह तुम्हारा बेटा है? उसने कहा: हां। घड़ी में कितने बजे हैं? उसने कहा: इतने बजे हैं। फिर उसने पूछा, क्या तुम अब्राहम लिंकन हो? उस आदमी ने कहा..बहुत घबड़ा गया था, बार-बार हर आदमी यही पूछता है, उसने कहा, नहीं, मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं। लेकिन मशीन ने खबर दी कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। भीतर तो उसने कहा कि हूं, अब्राहम लिंकन तो हूं ही, लेकिन कब तक झंझट को जारी रखो, तो उसने कहा कि नहीं, मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं। लेकिन मशीन ने कहा, यह आदमी झूठ बोल रहा है।
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: भाई ले जाओ, यह आदमी अब्राहम लिंकन है। जहां तक मशीन का संबंध है। हम कुछ भी नहीं कर सकते। मशीन कहती है कि यह आदमी अब्राहम लिंकन है। और मशीन कभी गलती नहीं करती। मशीन कैसे गलती करेगी, गलती आदमी कर सकता है। यह आदमी गलती में हो सकता है। लेकिन मशीन थोड़े ही गलती में हो सकती है।
हमें पता ही नहीं है कि हम जो अपने को मान लेते हैं, वह हो जाते हैं। हमने अपना बाहर होना मान लिया है, हम वही हो गए हैं। हमने अपने भीतर होने को छोड़ ही रखा है, इसलिए हम भीतर हमारा कुछ भी होना नहीं है।
हमने बाहर अपना होना मान लिया है कि मैं किसी का पिता हूं, किसी का भाई हूं, किसी का मित्र, किसी का दुश्मन, कोई मेरा नौकर, मैं किसी का नौकर। हमने बाहर कुछ मान रखा है, वह हम हो गए हैं। वह सब अब्राहम लिंकन होना है। और मशीन पर भी खड़ा करके पूछा जाए, तो मशीन भी कहेगी, यही ठीक है। कि यह आदमी, इसका नाम रामचंद्र है। हालांकि रामचंद्र बिल्कुल माना हुआ नाम है।
लिंकन और रामचंद्र होने में कोई फर्क नहीं है। पैदा होकर कोई नाम लेकर नहीं आता है। एक नाम हम मान लेते हैं कि यह मैं हूं, फिर हम वही हो जाते हैं। इस आदमी का क्या कसूर है, अगर इसने साल भर में मान लिया है कि मैं लिंकन हूं। तो तीस साल में हम मान लेते हैं। आखिर अब्राहम लिंकन को भी नाम सिखाया ही गया होगा। वह भी कोई लेकर नहीं आए थे। असली अब्राहम लिंकन भी मान कर बैठा हुआ है कि मेरा नाम है।
हमने बाहर अपना होना मान रखा है, जो बिल्कुल झूठा है, कामचलाऊ है, काम चल जाता है, हम अपने घर पहुंच जाते हैं, ठीक ठिकाने। हमारा नाम है, दफ्तर में पता है, हमारी नौकरी चल जाती है ठीक से। हमारी दुकान है, बोर्ड लगा है, वह सब पहचान हैं हमारी। लेकिन भीतर हम कौन हैं, हमें पता भी नहीं है। हमने यह मान रखा है, हम यही हो गए हैं। हमने बाहर के अतिरिक्त कभी भीतर की तरफ आंख नहीं की।
इन आने वाले दिनों की चर्चाओं में इस संबंध में ही एक-एक कदम मैं बात करना चाहूंगा कि कैसे हम भीतर जाएं। पहली बात जो इस सुबह आपसे कहना चाहता हूं वह यह है कि भीतर जाने से हम बहुत डरे हुए हैं। क्योंकि वहां अंधकार है, घनघोर अंधकार है, साधारण नहीं। और मैं आपको आश्वासन नहीं देता कि भीतर जाएं तो एकदम आनंद उपलब्ध हो जाएगा। यह बिल्कुल झूठी बात है। भीतर जाएंगे तो पहले तो बहुत चिंता, बहुत एंग्विस, बहुत घबड़ाहट, बहुत बेचैनी, बहुत अशांति पैदा हो जाएगी। लेकिन अगर उसको पार कर सके, तो बहुत आनंद, बहुत शांति, बहुत कुछ उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन जिन्हें भी पर्वतों को चढ़ना हो उन्हें बीच की कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। और जिन्हें भी गहरे सत्य खोजने हों उन्हें गहरा उतरना पड़ता है। और जिन्हें अपने को जानना हो उन्हें उस सबसे गुजरना पड़ेगा जो हमको घेरे हुए है, जिसकी वजह से हम बाहर ही बाहर जीते हैं।
जैसे मैं अपने इस घर में हूं और दरवाजे के बाहर ही रहता हूं; क्योंकि भीतर कमरे में बहुत घनघोर अंधकार है, सांप-बिच्छू भी हो सकते हैं, भूत-प्रेत भी हो सकते हैं। कभी थोड़ा झांकता हूं, फिर डर लगता है, अंधेरा, फिर द्वार बंद कर देता हूं। फिर धीरे-धीरे मैं यह मान ही लेता हूं; क्योंकि यह अंतिम ढंग से द्वार बंद करने का उपाय है कि भीतर कुछ है ही नहीं, जो भी है वह बाहर है।
हर आदमी ने यह मान रखा है कि जो भी है सब बाहर है। इस मान रखने में एक बहुत अनकांशस सप्रेशन, एक बहुत अचेतन दमन है और वह यह है कि भीतर को इनकार कर दो; क्योंकि भीतर में बहुत डर लगता है, बहुत घबड़ाहट मालूम होती है। न मालूम क्या हो, उधर जाओ ही मत। इनकार ही कर दो कि वह है ही नहीं, भीतर कुछ है ही नहीं। बाहर जीयो, शांति से बाहर ही जीयो, बाहर ही रहो, बाहर ही में से गुजर जाओ।
भौतिकवाद पदार्थ का आग्रह नहीं है। मैटीरियलिज्म पदार्थ का आग्रह नहीं है। भौतिकवाद इस बात का आग्रह है कि भीतर कुछ भी नहीं है, भीतर है ही नहीं, भीतर असत्य है, जो भी है बाहर है, बी आउट साइड, बस वही सत्य है, बी इनफ। ऐसी कोई चीज ही नहीं है। भौतिकवाद पदार्थ का आग्रह नहीं है। बहुत गहरे में भौतिकवाद का कहना है, बाहर ही सब कुछ है, भीतर कुछ भी नहीं है। बड़े मजे की बात है। लेकिन, अगर बाहर ही सब कुछ हो और भीतर कुछ भी न हो, तो बाहर सब एकदम व्यर्थ हो जाता है। बाहर की कोई भी सार्थकता भीतर के संदर्भ में, बाहर हो ही तब सकता है जब भीतर हो।
एक थैली मेरे पास है और मैं कहूं कि बस इस थैली के बाहर ही सब कुछ है, भीतर कुछ भी नहीं है, तो बाहर व्यर्थ हो गया, अर्थहीन हो गया। सब बाहर, किसी भीतर का ही छोर है। और बाहर को जानने के लिए किसी को भीतर खड़ा होना जरूरी है, नहीं तो बाहर का कोई पता भी नहीं चलेगा।
मुझे आप बाहर दिखाई पड़ रहे हैं; क्योंकि मैं बाहर नहीं हूं, मैं कहीं भीतर खड़ा हूं। मैं आपको बाहर दिखाई पड़ रहा हूं; क्योंकि आप भी बाहर नहीं हैं, कहीं भीतर खड़े हैं। बाहर का बोध ही भीतर की चेतना को है, लेकिन जिसे बोध है हम उसे ही भुलाने की कोशिश में संलग्न हैं। और हम करीब-करीब सफल हो जाते हैं, हमारी सफलता बहुत महंगी है।
इन तीन-चार दिनों में मैं यह सुझाना चाहूंगा कि यह हमारी बाहर की सफलता बहुत मंहगी, बहुत झूठी है, और एक बहुत बड़ी असफलता को छिपाए हुए है, भीतर के अंधकार को, भीतर के अज्ञान को। और हमने यह बाहर की सफलता में इसीलिए इतनी तेजी से दौड़ लगाई है कि भीतर का पता ही न चले। दौड़ में पता नहीं चलता है। आदमी रुकता है, तो पता चलता है। भागो, तो पता नहीं चलता है। भूल ही जाता है आदमी कि भीतर भी कुछ है।
बाहर, बाहर, बाहर। तेज और तेज। आदमी की स्पीड बढ़ती चली गई है। इस स्पीड के बढ़ने में बहुत बुनियाद में कारण अगर खोजे जाएं, तो इतना ही नहीं है कि आदमी को चांद पर पहुंचना है। आदमी की स्पीड और गति में बढ़ने में बहुत बुनियादी कारण यह है कि थोड़ी गति में आदमी को अपना बोध होता है। तेज गति में अपना बोध भूलता है। जितनी तेज गति हो उतना खुद को भूलने की सुविधा है।
इसलिए अमरीका में जहां खुद को भूलने के सर्वाधिक उपाय चलते हैं, तेज से तेज गति होती चली जाती है। कार सौ मील से नीचे चले, तो वह चल ही नहीं रही है। वह चले जितनी तेज गति पर, वह इतनी तेज गति में हो कि मुझे मेरे होने का ठिकाना न रहे, गति को सम्हालने में ही व्यस्त हो जाऊं। एक भी क्षण मौका न मिले कि मैं जान सकूं कि मैं भी हूं।
तो तेज करते जाओ जीवन की गति को, ताकि जीवन का पता न चल सके। तो गति स्वयं को भुलाने का उपाय तो नहीं है। जोर से धन कमाए चले जाओ, इतने जोर से गिनो धन को कि अपनी गिनती का सवाल न रहे। इतनी गिनती हो जाए धन की कि हम अपने को गिनने का मौका न पाएं। कहीं धन को बढ़ाना, स्वयं को भूल जाने का उपाय तो नहीं है?
बढ़ो पदों पर, छोटी मिनिस्ट्री से बड़ी मिनिस्ट्री पर जाओ, अहमदाबाद से दिल्ली जाओ, बढ़ते चले जाओ। इस बढ़ते चले जाने में कहीं ऐसा तो नहीं है कि अगर हम खड़े हो गए कहीं तो अपना पता चलने लगेगा? वह नहीं चलना चाहिए। भागते जाओ, भागते जाओ। राजनीति की सारी दौड़-धूप, धन की सारी तीव्रतम गति, विज्ञान को उपलब्ध हुए सारे साधन, आदमी अपने को भुलाने के काम में लाता है। इससे मनुष्यता का कोई भी हित नहीं हो सकता।
मनुष्य स्वयं के भीतर जाए बिना सत्य को नहीं जानता, न जीवन को जानता है। और हम अगर जीवन के मंदिर में ही प्रविष्ट न हो सके, तो हमारी परमात्मा की सारी बातें झूठी हैं। वह है, वह सबके भीतर है, लेकिन खोजना जरूरी है। प्रकाश है, लेकिन खोजना जरूरी है। अंधेरे की यात्रा जरूरी है।
एक अंतिम वचन अपनी बात पूरी करूंगा।
नीत्शे ने कहा है, और पृथ्वी पर जिन थोड़े से लोगों ने भीतर के अंधकार का साक्षात किया है उसमें नीत्शे अदभुत है। उसी में पागल हो गया, उस अंधेरे की घबड़ाहट ने पागल कर दिया। नीत्शे ने कहा है: जिन वृक्षों को आकाश छूना हो, उन्हें अपनी जड़ें पाताल तक भेजनी पड़ती हैं। जिस वृक्ष को आकाश छूना हो, उसे अपनी जड़ें पाताल तक भेजनी पड़ती हैं। और जिसे प्रकाश खोजना हो, उसे अंधकार की अंतिम गहराइयों में उतरना पड़ता है। उलटी लगेगी यह बात, कि अगर प्रकाश खोजना है, तो अंधकार से क्या संबंध? और अगर आकाश की तरफ जाना है, तो पाताल में जड़ें क्यों भेजें?
लेकिन ध्यान रहे, जितनी छोटी जड़ नीचे जाती है उतना वृक्ष ऊपर कम जाता है। जितनी जड़ नीचे गहरी जाती है अंधकार में, उतना ही वृक्ष की शाखाएं ऊपर उठती हैं सूर्य के प्रकाश में। ऊपर की शाखाएं सूर्य के प्रकाश को चूमना चाहती हों, तो नीचे की शाखाओं को गहनतम अंधकार छूना पड़ता है।
आदमी भी, आदमी भी एक वृक्ष है, और भीतर अंधकार भी है और प्रकाश भी। लेकिन जो अंधकार में उतरने की हिम्मत नहीं रखते वे कभी प्रकाश तक नहीं पहुंच पाते हैं।
पहला सूत्र है: अंधकार में उतरने का साहस। तो फिर प्रकाश बहुत दूर नहीं है। कैसे अंधकार का साक्षात करें? वह संध्या आपसे मैं बात करूंगा।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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