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शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन--(प्रश्न-शून्य चित्त

बहुत प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। यह प्रश्नों की जो भीड़ है, यह हमारे मन की भीड़ की सूचना है। जैसे वृक्षों के पत्ते लगते हैं, वैसे बीमार मन में प्रश्न लगते हैं। रुग्ण चित्त हो, अवस्था चित्त हो तो बहुत प्रश्न पैदा होता तो हैं। जैसे-जैसे चित्त स्वस्थ होता जाता है वैसे-वैसे प्रश्न गिरते जाते हैं। स्वस्थ चित्त का लक्षण निष्प्रश्न हो जाना है। मन में बहुत सी बातें उठती हैं, उनमें से कुछ आपने पूछी हैं। जो बहुत आधारभूत प्रश्न हैं, जिनसे जीवन का संबंध है, उन पर थोड़ी सी अंतिम बात आज आपसे कहूंगा।
प्रश्न दो प्रकार के होते हैं..थोड़ा इस संबंध में आपसे कहूं, फिर आपके प्रश्नों को लूं। एक तो वे प्रश्न हैं जो शास्त्रों द्वारा पैदा हो जाते हैं और एक वे प्रश्न हैं जो जीवन से पैदा होते हैं। शास्त्रों से जो प्रश्न पैदा होते हैं उन्हें हल करने में जो लगा है, वह अपने समय को व्यर्थ खो रहा है।
लेकिन जीवन से जो प्रश्न पैदा होते हैं उन्हें हल करने की दिशा में जो संलग्न होता है वह जरूर किसी सार्थक समाधान को उपलब्ध हो जाता है। और वैसा व्यक्ति, जो अपने जीवन की समस्याओं का समाधान खोज लेता है, वह सारे शास्त्रों में उठाए गए प्रश्नों का समाधान अनायास पा जाता है। उसे खोजने अलग से नहीं जाना होता है।

लेकिन जो शास्त्रों के प्रश्न खोजने जाता है वह शास्त्रों के प्रश्नों के उत्तर तो कभी उपलब्ध नहीं करता, जीवन का जो समाधान मिल सकता था, वह उस समय को भी व्यर्थ खो देता है। बहुत विचारणीय है, क्या हम खोजें? कौन सी हमारी समस्या केंद्रीय है जिसे हम पकड़े, सुलझाए और उससे मुक्त हों?
बुद्ध के जीवन में एक घटना है। एक गांव में गए थे। फिर उस घटना को वे जीवन भर दोहराते रहे; बहुत लोगों को उस घटना के संबंध में कहते रहे। जब भी कोई उनसे प्रश्न पूछता था तो वह उस घटना को जरूर वापस दोहरा देते थे। एक गांव में गए थे। एक आदमी को तीर लग गया था। उस आदमी से लोगों ने कहा कि हम तीर को निकाल दें? वह आदमी बोला, पहले मुझे इसका पता लग जाए थक तीर किसने मारा। पहले मुझे इसका पता चल जाए कि शत्रु ने, कि मित्र ने, कि भूल से। यह भी मुझे पता चल जाए कि तीर विषबुझा है या बिना विषबुझा; तीर किस धातु का बना है। तो जो मित्र इकट्ठे थे उन्होंने कहाः अगर हम तुम्हारे इन सब प्रश्नों का पता लगाने जाए तो शायद सब बातों का पता चल जाए, लेकिन तब तक तुम जीवित नहीं रहोगी। तो उचित है, प्रश्न बाद में पूछना, पहले तीर निकाल लेने दो। और तीर निकल आए, फिर तुम खुद ही खोज लेना कि तीर किसने मारा..मित्र ने कि शत्रु ने, कि विषबुझा है कि नहीं, किस धातु का बना है। तुम खुद ही खोज लेना। बुद्ध लोगों से कहते, हम सब भी तीर से बिंधे पड़े हैं। और हम पूछते क्या हैं?
हम बहुत से प्रश्न पूछते हैं, शायद एक बुनियादी प्रश्न को छोड़ कर कि यह जो दुख का तीर हमारे भीतर लगा है, यह कैसे दूर हो? बहुत से प्रश्न हैं। कोई प्रश्न है, सृष्टि परमात्मा ने बनाई या हीं बनाई? आप को तीर लगा पड़ा है, और आप पूछ रहे हैं कि तीर किस लोहार ने बनाई? लोहार ने बनाया या नहीं? हाथ का बना हुआ है या तख्ती का बना हुआ है? और इसका पता भी चल जाए कि किस लोहार ने बनाया तो भी तीर का छिदा होना इससे समाप्त नहीं होगा। यह पता भी चल जाए कि परमात्मा ने सृष्टि बनाई तो क्या होगा? यह भी पता चल जाए कि परमात्मा ने सृष्टि नहीं बनाई तो क्या होगा?
जीवन की जो पीड़ा है, जीवन का जो संकट है, जो संत है, वह मात्र इस तरह के बौद्धिक विचारों से ऊहापोह से समाप्त नहीं होती है। फिर इसी तरह के बहुत से प्रश्न हैं, उन्हें मैं जीवन के प्रश्न नहीं मानता हूं, वे हमारी बौद्धिक खुजलाहटें हैं। जैसे खाली हो जाए, उसे खुजलाने से बहुत सुख मिलता मालूम होता है, लेकिन बाद में पता चलता है, खुजाने का सुख हितकर नहीं था। उससे घाव बड़े हो गए हैं। ठीक वैसे ही बुद्धि बहुत सी बातों को खुजलाने में सुख लेती है। खाज को खुजलाने जैसी है, बड़ी रुग्ण आदत है, उसमें बहुत अर्थ नहीं है। अर्थ है जीवन की समस्याओं को पकड़ने का, पहचानने का। ठीक-ठीक समस्या को पकड़ने और पहचानने का। उस समस्या को अगर आप पकड़ लेते हैं तो समझ लीजिए, आधा समाधान तो हो गया। ठीक समस्या को पकड़ लेना, ठीक रोग का निदान कर लेना आधी चिकित्सा है। शायद आधी से भी ज्यादा चिकित्सा है।
तो जो मुझे जीवन के प्रश्न मालूम होते हैं उन पर मैं आज अंतिम दिन थोड़ी सी बात आपसे कहूंगा।

एक बहुत महत्वपूर्ण बात पूछी है..पूछा हैः मैंने कहा कि आप सब विचारों से मुक्त हो जाएं, सब शास्त्रों से मुक्त हो जाएं, सब शब्दों से मुक्त हो जाएं, तो चित्त स्वतंत्र होगा। तो पूछा हैः फिर तो हम आपके शब्दों के प्रभाव में आ जाएंगे। आपके शब्द हमारे भीतर बैठ जाएंगे, आपके विचार का सहारा हो जाएगा। तो क्या यह भी बंधन है?

निश्चित ही, यह भी बंधन है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि दूसरों के विचार तो बंधन हैं और मेरे विचार मुक्ति हैं। विचार मात्र बंधन हैं। वह चाहे किसी के हों; मेरे हों, या किसी और के हों। जब भी विचार बाहर से आता है तो बंधन हो जाता है। तो मेरी बातों को अगर आप याद कर लें, और मेरी बात पर श्रद्धा कर लें और मेरी बात को पकड़ लें तो आप गलती में हो गए। गुलामी कायम रहेगी मन की, इससे छुटकारा नहीं होगा। नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मेरी बात को आप मान लें।
एक आदमी रास्ते पर जाता है, पैर में काटा लग जाता है। तो क्या करता है? एक दूसरा कांटा उठता है और पहले कांटे को निकाल देता है। लेकिन क्या दूसरे कांटे को घाव में रख ले तो है? नहीं, पहला निकल गया, दूसरा भी फेंक देता है। तो मैं कह रहा हूं, आपके मन में विचारों का जो लगा कांटा है, अगर मेरे विचार दूसरे कांटे की तरह उसे निकाल लें तो आप बड़ी कृपा करेंगे, इस दूसरे कांटे को बहुत जल्दी फेंक देता; इसे रखने का डर है। यह रख लिया जाए तो कांटा कांटा है, कोई फर्क न हीं पड़ता। फिर बेकार की मेहनत हुई। पहले ही कांटा लगा रहता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर तो पुराना ही कांटा बेहतर है। कम से कम उसकी चुभन कम हो जाती है। नया कांटा और भी ज्यादा चुभन देगा।
तो मेरे विचार को पकड़ नहीं लेना है। मेरा विचार कोई संप्रदाय नहीं बना लेना है मन में। मेरा विचार कोई पंथ नहीं है, कोई पक्ष नहीं है। मैं आपको कोई विचार नहीं दे रहा हूं, मैं केवल आपसे कह रहा हूं कि यह बोध अगर आप ठीक से अपने मन में समझेंगे तो आपको ख्याल में आएगा, जो मुझे दिखाई पड़ रहा है, वह मैं आपसे बात कर रहा हूं। कोई उपदेश नहीं दे रहा हूं। मुझे दिखाई पड़ता है कि जो विचार बाहर से आते हैं वे चित्त को घेर लेते हैं। चित्त उनमें बंध जाता है। तो हम क्या करें? क्या उचित न होगा कि इन सारे विचारों को क्षीण होने दें? और चित्त को मुक्त होने दें? चित्त हमारा है, विचार दूसरे के हैं। फिर चित्त बंधा हुआ हो तो वह यात्रा नहीं कर सकता।
पहाड़ पर चढ़ना होता है किसी को तो सारे बोझ को नीचे छोड़ देना होता है। जितने ऊपर चढ़ने लगता है, उतने बोझ को छोड़ देना होता है। जितनी ऊंचाई पर जाना हो उतना निर्भार होना जरूरी है। बोझ, वजन कम होना जरूरी है। आखिरी गौरीशंकर की चोटी चढ़नी हो तो सब बोझ छोड़कर नीचे जाना होता है। सत्य की चोटी पर चढ़ने की जिनके मन में प्यास है, परमात्मा के रहस्य को जानने की जिनके मन में अभीप्सा जगी है, उन्हें सारे भार को छोड़ देना मन का। और मन से बिल्कुल निर्भार हो जाना पड़ेगा। जब मन बिल्कुल निर्भार होता है तो उसकी गति ऊपर-ऊपर उठनी शुरू हो जाती है। इस निर्भार होने के लिए मेरे विचारों को आप रख लेंगे तो निर्भार नहीं होंगे; फिर भारग्रस्त हो जाएंगे। मेरी बात छोड़ देनी है। जिस दृष्टि की मैं बात कर रहा हूं उस दृष्टि पर ख्याल रखना है।
मैं चांद की बताऊं उंगली से तो दो रास्ते हैं..या तो आप मेरी अंगुली पकड़ लें कि बड़ी आपने कृपा की जो चांद दिखलाया, हम आपकी अंगुली की पूजा करेंगे। ऐसा ही हुआ है। महावीर की अंगुली पकड़े हुए लोग जैन कहलाते हैं, मोहम्मद की अंगुली पकड़े हुए लोग मुसलमान कहलाते हैं, बुद्ध की अगुली पकड़े हुए लोग बौद्ध कहलाते हैं, राम की अंगुली पकड़े हुए लोग हिंदू कहलाते हैं। चांद को कोई नहीं देखता। अंगुलियां पकड़ ली हैं, अंगुलियों की पूजा चल रही है। नहीं, अंगुलियां छोड़ देने जैसी हैं, चांद देखने जैसा है। अंगुलियों का क्या प्रयोजन है? अंगुलियां छोड़ दें। अंगुली पकड़ लेंगे, चांद देखना मुश्किल हो जाएगा। अंगुली की सार्थकता यही है कि उसे छोड़ दें और चांद को देखें।
तो मैं जिस तरफ इशारा कर रहा हूं, उस तरफ। मैं जो कहा रहा हूं, वह नहीं। मैं जिससे इशारा कर रहा हूं, जिन शब्दों से, वह नहीं, बल्कि जिस मौन और निशब्द की ओर इशारा कर रहा हूं, वह। और वह मेरा नहीं है। वह किसी का भी नहीं है। मौन, वह परम शांति, वह चित्त की समाधि दशा, वह सत्य का द्वार किसी का भी नहीं है। चांद किसी का भी नहीं है, अंगुलियां हम सबके पास हैं। अंगुलियां हम बताए चांद को तो भी चांद हमारा नहीं हो जाता है। अंगुलियां छोड़ दें और चांद को...। इशारे छोड़ दें, शब्द छोड़ दें, तो मेरे शब्द हों या किसी और के सब बाधाएं हैं। उनका कोई भी मूल्य नहीं है।

इसी संदर्भ में एक प्रश्न और पूछा है कि मैं जो कह रहा हूं, यह शब्द-जाल है, इससे हित होने वाला नहीं है; ऐसा एक प्रश्न पूछा है।

क्योंकि मन तो मौन होता ही नहीं है। लेकिन कभी अगर थोड़ा भी प्रयोग किया होता जानने का तो ऐसी गात नहीं कहीं जा सकती थी। जब आप सोच रहे होते हैं, तब भी तो शब्दों के बीच में गैप होता है या नहीं? जैसे मैंने कहा, राम आया, तो राम और आया के बीच में खाली जगह है या नहीं? जब आप मन में सोचते हैं तो शब्दों के बीच में निशब्द जगह होती है या नहीं? अगर बीच में खाली जगह न हो तो एक शब्द दूसरे पर चढ़ जाएगा और आप पागल हो जाएंगे। समझ में नहीं आ सकेगा कि क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। यहां इतने लोग हम बैठे हैं। हम इतने लोग यहां इसलिए बैठ सके कि यहां खाली जगह है और हम कितने ही बैठ गए हों, फिर भी हमारे बीच में खाली जगह पड़ी हुई है।
तो मन में कितनी ही शब्द बैठ जाए और कितने ही विचार, वे सब खाली मन में प्रवेश पा गए हैं। स्पेस है वहां। उसमें ही तो बैठ गए; नहीं तो बैठते कहां? अगर मन में मौन न होता शब्द प्रवेश कहा से करते? आप यहां आ सके क्योंकि यह भवन खाली है। अगर यह भवन ठोस होता, पत्थर से भरा होता तो आप कैसे प्रवेश करते? मन में शब्द जाते हैं, इस बात की सूचना है कि मन में स्वयं निःशब्द है, मन खाली है, मन भरा हुआ नहीं है। फिर शब्द कितने ही इकट्ठे हो जाए, हर दो शब्द के बीच में खाली जगह बनी हुई है। विचार कितने ही इकट्ठे हो जाएं, बीच-बीच में निर्विचार का इंटरवल, गैप, अंतराल है। शब्द बाहर से आए हैं, यह अंतराल कहां से आया? यह खाली जगह कहां से आई? यह तो वहां है। तो खाली जगह, यह एंप्टीनेस, यह मन के भीतर स्पेस जो है, अवकाश जो है, रिक्त स्थान जो है, यह तो आपका स्वभाव है। और विचार और शब्द जो आए हैं, ये स्वभाव नहीं हैं, ये विजातीय हैं, ये फॉरेन हैं, ये मेहमान हैं आपके। इन मेहमानों में अगर आप भूल जाए उसको, जिसके ये मेहमान हैं तो गड़बड़ हो जाएगी, मुश्किल हो जाएगी। वही हुआ है। घर में कोई मेहमान आए और धीरे-धीरे होश तो भूल जाए और गेस्ट ही स्मरण में रह जाए, थोड़े दिनों में गेस्ट मालिक हो जाए और होस्ट घर के बाहर हो जाए, वैसी हालत है..जो मेहमान हैं, वह मालिक हो गए हैं और जिसके मेहमान हैं, वह इन मेहमानों की भीड़ में बिल्कुल ही खो गया है; उसका कोई पता नहीं चलता।
इसलिए आप कहते हैं कि निशब्द तो मन में होता नहीं, साइलेंस तो वहां होता नहीं। वहां तो शब्द ही शब्द होते हैं। तो मैं जो यह कह रहा हूं, शून्य हो जाए, शांत हो जाए, स्वतंत्र हो जाए, शब्द से मुक्त हो जाए, यह कैसे हो सकेगा? यह बिल्कुल हो सकेगा। यही हमारा स्वभाव है, यही हमारा निसर्ग है। और क्यों मैं यह कह रहा हूं कि निशब्द हो जाए? निःशब्द होकर ही हम प्रकृति के निकट होंगे। और प्राकृतिक के प्रकृति निकट हो जाना परमात्मा के निकट हो जाना है। जो हमारा स्वभाव है, जो हमारा एसेंसियल नेचर है, जो विजातीय नहीं है, जो बाहर से आया नहीं है, उसको खोज लेना है..उस एसेंसियल को, उस सारभूत को, जो प्रामाणिक रूप से हमारा स्वभाव है। अगर हम अपने इस स्वभाव को खोज सकें तो हम सत्य को खोज लेंगे, क्योंकि स्वभाव ही, स्वरूप ही सत्य है। वही है परमात्मा। वही है परमात्मा का मंदिर। यह जो निःशब्द का जो मैं कह रहा हूं, मौन होने का, शांत होने का, ध्यान का, साधना का, शून्य होने का, यह असंभव नहीं है। प्रतिक्षण हमारे भीतर निःशब्द भी मौजूद है लेकिन हम शब्द में उलझ गए हैं, इसलिए उसका ख्याल नहीं आता। अगर ध्यान उस तरफ ले जाएंगे। तो बराबर के नीचे निःशब्द, वाणी के नीचे मौन, ध्वनि के नीचे शून्य, साउंड के नीचे साइलेंस अनुभव में आएगी।
एक पहाड़ के किनारे जाए, आवाज करें..मैं यहां बोल रहा हूं, चुप हो जाऊं, थोड़ी देर आवाज गूंजेगी और सन्नाटा छा जाएगा। जब आवाज नहीं थी, तब भी सन्नाटा था, थोड़ी देर बाद आवाज नहीं हो जाएगी, सन्नाटा हो जाएगा। सन्नाटा शाश्वत है, आवाज गूंजती है और विलीन हो जाती है। ध्वनि शून्य से ही पैदा होती है, फिर क्रमशः शून्य में ही विलीन हो जाती है। शून्य शाश्वत है, ध्वनि सामयिक है; आती है और चली जाती है। आकाश में बादल आते हैं, घिरते हैं, फिर विलीन हो जाते हैं। कोरा आकाश सदा से है। बादल आते हैं और चले जाते हैं। बादल कितने ही घिर जाए, आकाश कितना की ढंक जाए तो भी आकाश नष्ट नहीं होता वैसा ही आकाश हम सब के भीतर है। उसी आकाश का नाम आत्मा है। उस पर शब्द के बादल, विचार के बाद इकट्ठे हैं, आते हैं, चले जाते हैं। जब वे घिरे रहते हैं तब भी वह शुद्ध, निर्विकार, शांत, हमारे भीतर मौजूद हैं। वे हट जाते हैं तब भी मौजूद हैं। बुद्ध और महावीर जिसे जानते हैं, राम और कृष्ण और क्राइस्ट जिसे पहचानते हैं वह सबके भीतर मौजूद है। वह हम सबके साथ खड़ा हुआ है। लेकिन हम बादलों को देख रहे हैं, वे आकाश को देखना शुरू कर देते हैं। हम बादलों को देखते हैं वे आकाश को देखना शुरू कर देते हैं। बादल के बाबत मैंने चर्चा की इन तीन दिनों में। वह जो असार है, वह जो छाया का जीवन है, वह बादल है और जो सारभूत है, वह जो आधारभूत है, वह जो शाश्वत है, नित्य है, वह आकाश है। वह वास्तविक अमृत का, जीवन का, सत्य का द्वार है। प्रत्येक की संभावना है, प्रत्येक के भीतर मौजूद है।

पूछा है कि और ने कि आप जो बात करते हैं, क्या यह सबके लिए संभव होगी? क्या सभी लोग समान होते हैं? क्या सभी लोगों में एक से गुण, प्रतिभा, टैलेंट होती है?

निश्चित ही, ऐसा तो दिखाई नहीं पड़ता। कोई बांसुरी बाजती है तो सभी बांसुरी नहीं बजा सकते। कोई दौड़ता है तो सभी उसके बराबर नहीं दौड़ सकते। कोई कुछ और करता है, कोई वैज्ञानिक है, कोई कवि है, कोई लोहार है, कोई चमार है। सभी तो सब नहीं हो सकते। निश्चित दिखाई पड़ता है कि यह तो कैसे संभव है कि आप जो कहते हैं, यह सभी को संभव हो जाए मेरी समझ में आती है बात। लोहार लोहार है, कवि कवि है, साहित्यकार है, वैज्ञानिक है, ये सब अलग-अलग हैं। सबके गुण सबकी क्षमताएं, सबकी विशेषताएं अलग हैं। लेकिन क्या आप सोचते हैं, सबका निसर्ग भी भिन्न है? क्या कुछ लोग ऐसे हैं जो बिना श्वास के जीते हों। और बाकी लोग श्वास से जीते हों? कुछ लोग श्वास लेते हों, और कुछ लोग श्वास न लेते हों? या कुछ लोगों को विशेष सुविधा मिली हो श्वास की, कुछ को न मिली हो? किसी का हृदय धड़कता हो और किसी का न धड़कता हो? किसी को चोट पहुंचाए तो पीड़ा पहुंचती हो और किसी को न पहुंचती हो?
 नहीं, जैसे-जैसे केंद्र की तरफ चलेंगे, पाएंगे कि समानता प्रकट होनी शुरू हो गई है। एक ख्याल से समझे; हम इतने लोग यहां इकट्ठे हैं। अगर हम सबको दौड़ाया जाए तो कोई आगे होगा, कोई पीछे होगा, कोई बहुत तेज होगा, कोई बहुत धीमा होगा, तो आप कहेंगे, ये सब समान कहां है? लेकिन सब लोग दौड़ रहे हों और एकदम से आज्ञा दी जाए कि ठहर जाओ, तो क्या ठहराने में भी सबकी क्षमता अलग-अलग होगी? दौड़ने में अलग हो सकती है, ठहरने में? ठहरने में तो समान होगी। दौड़ने में बस की क्षमता अलग हो सकती है, लेकिन ठहरने में? ठहरने में तो समान होगी। धर्म दौड़ना नहीं है, ठहर जाना है। तो संसार में भिन्नता हो सकती है, धर्म में भिन्नता नहीं होगी। चित्त दौड़ता है तो किसी का ज्यादा दौड़ सकता है, किसी का कम। लेकिन चित्त ठहर जाए तो सबका चित्त समान रूप से ठहर सकता है। किसी के चित्त में बहुत शब्द हो सकते हैं, किसी के चित्त में थोड़े शब्द, लेकिन दोनों अगर निःशब्द हो जाए, दोनों मौन हो जाएं, दोनों में कोई शब्द न हो तो क्या भेद होगा?
हम यहां इतने लोग बैठे हैं..कोई हिंदू होगा, कोई मुसलमान, कोई किसी कैद का बंदी होगा, किसी दूसरे पिंजरे का होगा, कोई कहीं का होगा कोई कहीं का होगा। अगर हम सारे लोग बैठ कर यहां सोचते रहें तो कोई कुरान सोचेगा, कोई बाइबिल सोचेगा, कोई कुछ सोचेगा, कोई कुछ सोचेगा। सब भिन्न होंगे, अगर सोचेंगे तो। लेकिन हम यहां इतने लोग बैठे हैं, अगर सबका सोचना बंद हो और सब बिना सोचे रह जाए तो कोई भिन्नता रह जाएगी? विचार भिन्न हो सकता है, निर्विचार कैसे भिन्न होगा? विचार में भिन्नता हो सकती है, शब्द में भिन्नता हो सकती है, लेकिन शून्य में? शून्य में कोई भिन्नता नहीं होगी। शून्य ही अकेला अभिन्न है, अभेद है, अद्वैत है..अकेला शून्य। अकेला शून्य ही ब्रह्म है। वहीं हम समान है, और एक निसर्ग के करीब हैं। एक केंद्र पर पहुंच गए हैं। फिर यह सबकी क्षमता है..दरिद्र की, धनी की, भूखे की, प्यासे की, महल में रहने वाले की, सड़क पर सोने वाले की। यह मौन होने की क्षमता प्रत्येक के पास है। अर्थ यह कि परमात्मा को पाने में न तो कोई टैलेंटेड है, न तो कोई विशेष रूप से गुणी है, न कोई विशेष रूप से अवगुणी है। अगर परमात्मा को पाने का ख्याल हो, ठहर जाने का, रुक जाने का, मन के मौन हो जाने का, चुप हो जाने का, शांत हो जाने का तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक सी ही क्षमता है..एक सी ही। और इसे हर व्यक्ति पा भी सकता है। यह भी एक प्रश्न पूछा है कि आप जो कहते हैं, ये बातें कुछ थोड़े से लोगों के लिए ठीक होंगी, सबके लिए तो कतई ठीक नहीं हैं।
हमेशा से हमारे मन में ऐसा रहा है..क्लासेस बनाने का ख्याल, वर्ग बनाने का ख्याल। कुछ अमीर हैं, कुछ गरीब है; कुछ बुद्धिमान हैं, कुछ मूर्ख हैं। मनुष्य को एक साथ लेने की हमारी दृष्टि नहीं रही। बहुत दिन के वर्ग-विभाजन के कारण, बहुत दिन क्लासेस रहने के कारण हर चीज में, परमात्मा के जगत में भी हमारे क्लासेस हैं। वहां भी कोई ऊपर है, चूजन फ्यू..गुरु, तीर्थंकर अवतार; फिर उनसे छोटे, उनसे छोटे शिष्य छोटे मूढ़े पर बैठे हैं, फिर उनसे नीचे जमीन पर बैठे लोग हैं, फिर फोर्थ क्लास भी है, सब वर्ग है।
परमात्मा के जगत में कोई वर्ग नहीं है। सब वर्ग मनुष्य की कल्पित ईजाद है। मनुष्य के शोषण के सारे के सारे आधार और ढंग हैं। शांत होने में कोई वर्ग नहीं है। कोई भी शांत हो सकता है। प्रत्येक की संपदा है। साधारण से साधारण जन, जिसे दुनिया साधारण कहती हो...पैदा न होगा, पदवी न होगी, शिक्षा न होगी, सर्टिफिकेट न होंगे, साधारण हैं। पैसा होगा, पदवी होगी, सर्टिफिकेट होगा, असाधारण हैं, विशेष हैं। यह हमारे अहंकार ने सारे विभाजन किए हैं। मनुष्य है। और सब जगह क्लासेस बनाइएगा। कृपा करिए, कम से कम परमात्मा के जगत में कोई क्लासेस मत बनाएगा। वहां कोई क्लासेस, कोई वर्ग नहीं है।
यह वर्गविहीन, मौन, शांति और सत्य का जगत है, मेरी दृष्टि में व्यक्ति अधिकारी है..चाहे वह लंगड़ा हो, चाहे लूला हो, चाहे बीमार हो चाहे स्वस्थ हो, कोई भी हो। एक बार अगर वह सम्यकरूपेण, स्वयं की सत्ता के प्रति जगना शुरू हो, कूड़े-करकट को अलग करना शुरू करे तो निश्चित ही कोई भी कारण नहीं है, कोई भी कारण नहीं है कि वह वहां न पहुंच जाए जहां हम स्वरूपताः सारे लोग हैं। मैं कोई यह भेद नहीं करता। ये सब भेद शोषण की तरकीबें हैं।
प्रश्न का मतलब यह है कि आप कुछ थोड़े से लोगों से कहें, लेकिन बाकी लोगों को तो मंदिर जाने दें। बाकी लोगों को तो पूजा करने दें, बाकी लोगों को तो माला फेरने दें, बाकी लोगों को तो सत्यनारायण की कथा करने दें। कुछ थोड़े से लोगों से आप कहें, यह बाकी लोगों को तो परेशान न करें। ये तो सामान्य जन हैं हालांकि मुझे मुल्क में इधर लाखों लोगों से मिलने का मौका आया। मैं खोजता हूं कि कौन आदमी सामान्य है। अभी तक मुझे मिला नहीं; क्योंकि जो मिलता है, वह अपने को तो समझता है, शेष को सामान्य समझता है। तो मैं सामान्य आदमी को खोजता घूमता हूं। अभी तक मुझे दर्शन भी नहीं हुए। कब होंगे, कहना कठिन है। असल में कोई सामान्य है ही नहीं, इसलिए मिलना बहुत कठिन है। अभी अपने को विशेष समझते हैं। दूसरों पर दया करके वे कहते हैं, इन पर जरा कृपा करें, इन बेचारों को वहीं पुराने रास्ते पर चलने दें। हम तो समझ गए, लेकिन इनका क्या होगा? अभी तक एक भी आदमी मुझे ऐसा नहीं मिला जो यह कहे कि मेरा क्या होगा? वह तो खुद चूजन फ्यू में से है, वह तो चुने हुए कुछ चुनिंदा लोगों में से है, बाकी साधारण लोगों की बड़ी मुसीबत है। आप फिकर छोड़ दें, कोई आदमी साधारण नहीं है। हर श्वास के भीतर परमात्मा है तो कोई आदमी साधारण कैसे हो जाएगा? हर पत्ते में परमात्मा है तो कोई पता साधारण कैसे हो जाएगा? हर पत्थर में वही है तो कोई पत्थर साधारण कैसे हो जाएगा? क्या आप केवल इस कारण से...कि एक छोटा सा कंकड़ पड़ा है, जिस लोग जूतों से ठुकराए चले जाते हैं, क्योंकि उसका कोई मूल्य नहीं है जौहरी के बाजार में। और एक दूसरा पत्थर है जिसे लोग मुकुट पर लगाते हैं और लाखों रुपए खर्च करते हैं। तो आप सोचते हैं मुकुट में लगा हुआ पत्थर असाधारण है, सड़क पर पड़ा हुआ, द्वार पर जूते की ठोकर खाता पत्थर असाधारण है। लेकिन कभी आपने सोचा है, यह साधारण और असाधारण का भेद है, अगर दुनिया में कोई मनुष्य न हो? दोनों पत्थर समान है..हीरा भी, कंकड़ भी। यह मनुष्य का भेद है। यह कोहिनूर और सड़क पर पड़ा हुआ पत्थर मनुष्य का फासला है। प्रकृति में कोई फांसना नहीं है, दोनों पत्थर हैं, दोनों समान हैं।
एक दरख्त को हम बड़ा कहते हैं, एक को छोटा। मनुष्य को हटा दें, सब दरख्त समान हैं..छोटा भी, बड़ा भी। एक फूल को हम सुंदर कहते हैं, एक फूल को सुंदर नहीं कहते। मनुष्य को हटा दें। दोनों फूल हैं। न कोई सुंदर है, न कोई असुंदर है। सारे विभाजन मनुष्य की बुद्धि से पैदा होते हैं, विचार से पैदा होते हैं सारे विभाजन। मनुष्य को हटा दें, दुनिया बस है; वहां कोई विभाजन नहीं है। वहां अपवित्र नदियां नहीं हैं, वहां अपवित्र गंगा नहीं हैं। वहां पानी है, बस पानी। वहां पवित्र पर्वत नहीं है, वहां अपवित्र पर्वत नहीं है। वहां कोई भूमि तीर्थ नहीं है, वहां कोई भूमि अपवित्र नहीं है। वहां कोई हिंदुस्तान नहीं है वहां कोई पाकिस्तान नहीं है। वहां कोई काले और गौर के फासले नहीं हैं, वहां जस्ट एक्झिस्टेंस है। मनुष्य को जरा हटा कर देखें, प्रकृति में सब है, और कोई फासला नहीं है। कोई नीचे नहीं है, कोई ऊपर नहीं है। सब विभाजन मनुष्य के मन का है। उसकी अहंता के कारण सारी कैटेग्रीज हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी मजिस्ट्रेट था। कुछ झक्की रहा होगा, जैसे आमतौर से सभी लोग होते हैं। वह अपनी अदालत में कोई कुर्सी नहीं रखता था, अकेले ही बैठता था। जब कोई आता था तो उसकी हैसियत से कुर्सी उसके पास कई थीं, कई नंबर की थीं, एक से लेकर सात नंबर की थीं, एक से लेकर सात नंबर तक की। वह पीछे के कमरे में रखी होती थीं। चपरासी से वह कहता, नंबर एक ले आओ तो चपरासी नंबर एक ले आता। नंबर एक छोटा सा स्टूल था। देख लेता आदमी की हैसियत कैसी है। अगर हैसियत बिल्कुल ही न होती तो कुर्सी की कोई जरूरत न पड़ती, बिना नंबर के ही काम चलाना पड़ता था। जरा हैसियत होती, कुछ खाता-पीता, मध्यवर्गीय आदमी होता तो वह कहता, नंबर एक ले आओ। कुछ और जरा कपड़े-लत्तों पर कलफ होता, सफेदी होती, वह कहता, नंबर दो ले आओ। कुछ और जरा आंखों में रौनक होती, रीढ़ जरा होती, जूते पर जरा पॉलिश होती, वह कहता नंबर तीन ले आओ। ऐसा नंबर चलता था। आदमी के चलने और घुसने से पहचान जाता था कि किस नंबर की कुर्सी वाला आदमी है।
एक दिन ऐसा हुआ, एक बिल्कुल ही दरिद्र, एक बूढ़ा सा लकड़ी टेकता हुआ आदमी आया। चश्मा भी था तो रस्सी बंधी थी। वह अंदर घुसा, देखा कि बिन नंबर का आदमी है। थोड़ी देर ऐसे ही रहा। पूछाः कौन हो? तो उसने कहाः मैं फलां-फलां गांव का रहने वाला हूं। मालगुजार हूं। वह एकदम चैंका कि भूल हो गई, ऊपर वाला आदमी है। उसने जल्दी से कहा कि नंबर एक ले आओ। चपरासी भीतर से लेकर जब तक लौटता था, तब तक उस आदमी ने बूढ़ा आदमी था, धीरे-धीरे खांसता था, बोला कि रायबहादुर हूं, वह वहीं से चिल्लाया कि ठहर, नंबर दो लाना। फिर वह रखने गया, दो लेने गया। तब तब उसने बताया कि मैंने वार फंड में पच्चीस हजार रुपये दान दिए हैं, उसने कहा कि नंबर तीन ला। वह बूढ़ा बोलाः एक लाख और देने का विचार है। उसने कहाः भाई ठहर..अभी बूढ़ा खड़ा ही है और नंबर की बदली होती जाती है तो नंबर चार ला। उस बूढ़े ने कहाः क्यों फिजूल परेशान कर रहे हैं? आप आखिरी नंबर बुलावा लें, क्योंकि लाख देने का विचार है, लेकिन मेरा बच्चा-बच्चा कोई भी नहीं, बड़ी जायदाद है, आखिर क्या करूंगा? सोचता हूं, सरकार को ही दे दूं। उसने कहाः आखिरी नंबर बुलवा लें, व्यर्थ क्यों परेशान कर रहे हैं? मैं बूढ़ा आदमी हूं, मैं कब तक खड़ा रहूं?
यह हमारा पागलपन है या बुद्धि? ऐसे हम कैटेग्रीज बनाए हुए हैं, वर्ग बनाए हुए हैं। यह हमारा अहंकार है, जिसने यह सब पैदा किया परमात्मा के जगत में नंबर एक से नंबर सात तक की कोई कुर्सियां नहीं है। और अगर वहां भी हों तो ऐसे परमात्मा की हत्या करनी पड़ेगी। ऐसे परमात्मा को जिंदा नहीं रहने दिया जा सकता। अगर ऐसा कोई मोक्ष हो जहां कि ये कुर्सियां हों तो मोक्ष में आग लगा देनी पड़ेगी। ऐसे मोक्ष को बरदाश्त नहीं किया जा सकता। ऐसा परमात्मा और ऐसा मोक्ष इसी वर्ग-विभाजित मन की कल्पना है। यही जो हमारा माइंड है, यह जो नंबर एक से नंबर सात तक सोचता है। यह इसी की कल्पना है, अगर ऐसा कोई मोक्ष और ऐसा कोई परमात्मा हो। नहीं, वहां सब समान हैं। वहां एक अदभुत समानता है। चाहे प्रकृति को देखें, वहीं दिखाई पड़ जाएगा। वहां एक अदभुत समानता है। वहां एक अदभुत व्याप्ति है। वहां एक अदभुत सन्नाटा और एक अदभुत साम्य है। वहां कोई विभाजन नहीं है। लेकिन हम विभाजन करते हैं। विभाजन करने वाला मन है। जहां मन नहीं है, वहां विभाजन समाप्त हो जाते हैं। थोड़ा मन से दूर हट कर देखें तो आप पाएंगे, कोई विभाजन न दिखाई पड़ेगा। पत्थर में और पहाड़ में, पौधे में और पक्षी में वही एक सत्ता अभिव्यक्त होनी दिखाई पड़ेगी..वह एक ही। कोई भेद नहीं है वहां। भेद मनुष्यकृत है, अभेद परमात्मा का है, भेद प्रकृति का है।
इसलिए मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ता कि कोई सामान्यजन है, सामान्य का नाम लेकर शोषण जारी रखने की कोशिश न करें। सामान्य का बहुत शोषण हो चुका, बहुत शोषण हो चुका..जारी है जारी है। रहेगा, ऐसा मालूम पड़ता है; क्योंकि हम छोड़ने का साहस करने में समर्थ नहीं मालूम होते हैं। मुझे कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता। कोई भेद है नहीं। और जहां-जहां भेद है वहीं-वहीं मन है। तो मैं तो मन को छोड़ने को कह रहा हूं। भेद का जगत ही छोड़ने को कह रहा हूं। भेद का जगत ही मन है। मैं तो मन को ही छोड़ने को कह रहा हूं। वहीं तो हम परमात्मा में प्रवेश करेंगे। वहां भेद कैसे ले जाएंगे? वहां आपकी राष्ट्रीय रेखाएं, समाज की रेखाएं, और जाति और उपाधि की रेखाएं कैसे ले जाएंगे? वहां कोई रास्ता नहीं है, सारे भेद यही छोड़ देने पड़ेंगे।
 तो यह बहाना न खोजें, यह बहाना ठीक नहीं है। इस संबंध में और भी बहुत से प्रश्न हैं, पर मैं समझता हूं, इससे उनके संबंध में आपको ख्याल होगा। आज का प्रचलित धर्म, उसमें कुछ दोषों के होते हुए भी समाज के लिए उपयोगी साबित हुआ है। इसी धर्म-व्यवस्था के कारण तप, पाप, पुण्य की कल्पना के कारण लोगों ने अस्पताल, स्कूल, अनाथगृह आदि में कुछ दान दिया है। यह तो बात ठीक है, यानी मतलब यह हुआ कि लोगों को धोखा दे रहे हैं। पाप और पुण्य के नाम पर उनसे दान मिल रहा है। तो कहा है, मैं तो दान वगैरह की कोई बात नहीं करता, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
पहली तो बात यह है कि धर्म का मूलतः कोई संबंध समाज से नहीं होता। धर्म अत्यंत वैयक्ति घटना है। धर्म का समूह और समाज से कोई संबंध नहीं हाता। जैसे ही धर्म सामाजिक बनता है, वैसे ही धर्म न रह कर संप्रदाय हो जाता है। जैसे ही समूह बनता है, संस्था बनती है, आर्गनाइजेशन बनता है, वैसे ही धर्म तो विलीन हो जाता है, राजनीति शुरू हो जाती है। राजनीति का संबंध समाज से है और धर्म का संबंध व्यक्ति से है। इतने ये जो धर्म दिखाई पड़ते हैं, ये कोई भी धर्म नहीं हैं, धर्म के नाम पर झूठे संगठन हैं, आर्गनाइजेशन हैं। और यही कारण है कि नाम तो धर्म का है लेकिन काम सब राजनीति के हैं। दो हजार, तीन हजार वर्ष का इतिहास क्या है? क्या यह धार्मिक, राजनीतिज्ञों के उपद्रव का इतिहास नहीं है? यह धर्म के नाम पर संगठन-धर्म का भी शोषण है और लोक-जन का भी शोषण है। धर्म का कोई संगठन हो ही कैसे सकता है? धर्म तो वैयक्तिक घटना है। मेरे और परमात्मा के बीच, मेरे और परम सत्य के बीच मेरा और आपका धर्म में कहां संबंध आता है? अगर कोई संबंध भी आता है आपसे मेरा तो वह परमात्मा के द्वारा आता है। आपसे मेरा कोई सीधा संबंध नहीं आता। धर्म सामूहिक संबंध नहीं है, धर्म वैयक्तिक प्राण का समष्टिगत प्राण से संबंध है। वह निवेदन व्यक्ति का समष्टि से है, व्यक्ति से नहीं।
 अगर कोई काम करना हो तो समूह की जरूरत है। लेकिन अगर विश्राम करना हो तो? वहां भी संगठन बनाइएगा? संगठन की वहां कौन सी जरूरत है? और संगठन होगा, दफ्तर होगा, काम-धाम चलेगा, तो नींद न आने देंगे, विश्राम न करने देंगे, वे लोग। आपको कोई झगड़ा झांसा खड़ा करना हो तो संगठन की जरूरत है, क्योंकि बिना संगठन के शक्ति नहीं आती। हिंसा के लिए संगठन की जरूरत है, लेकिन अहिंसा के लिए संगठन की कौन सी जरूरत है? प्रेम के लिए संगठन की कौन सी जरूरत है? इसलिए जब भी कोई चीज संगठित होती है तो घृणा के आधार पर होती है।
मैं अभी पीछे राजधानी में था। उन दिनों भारत और पाक के बीच नासमझी चलती थी। तो मुझे लोगों ने कहाः यह तो बड़ा हितकर है। मुल्क संगठित हो गया। जरूर ही अगर पाक से या चीन से कोई झगड़ा चले तो मुल्क संगठित हो जाएगा क्योंकि घृणा संगठन से आती है। घृणा की शक्ति संगठन करवा देती है। लेकिन कभी प्रेम के संगठन देखे हैं? घृणा के संगठन दुनिया में हैं, जो राष्ट्र हैं, नेशंस हैं, ये सब घृणा के संगठन हैं। दूसरे का डर, दूसरे से घृणा संगठन खड़ा किए हुए हैं, फौजें खड़े किए हुए हैं, एटम बम बना रहे हैं। ये सब घृणा के संगठन हैं इसलिए इन घृणाओं से हिंसा होती है, हिंसा से युद्ध पैदा होता है। सब संगठन युद्ध लाते हैं अंत में। सब संगठन कलह और झगड़ा और युद्ध लाते हैं। सब संगठन हिंसा लाते हैं। धर्म का संगठन कैसे होगा?
अगर हम ध्यान करने बैठे हों, प्रार्थना करने बैठे हों, मौन होने बैठे हो तो संगठन कहां है? अगर हम इतने लोग भी अभी ध्यान करने बैठे तो जैसे-जैसे ध्यान गहरा होगा, मन मौन होगा, बाकी लोग मिटते जाएंगे। थोड़ी देर में आप अकेले रह जाएंगे। यहां इतने लोग बैठे हैं, हजार लोग होंगे, अगर हम सारे लोग आंख बंद करके शांत हो जाए, थोड़ी देर में आप पाएंगे, आप अकेले हैं, बाकी नौ सौ निन्यानबे यहां हैं ही नहीं। हर आदमी यहीं पाएगा कि अकेला है। धर्म तो अकेले का अकेले में प्रवेश है। ए फ्लाइट ऑफ द अलोन टु द अलोन। वह तो अकेले से अकेले की तरफ उड़ान है। वहां कौन सी भीड़ कौन सा संगठन है? इसलिए आप जिस मंदिर में भीड़ इकट्ठी हो जाती है वहां जाते हैं। तो मैं मानता हूं कि आप धर्म में थोड़ी जा रहे हैं, कोई सामूहिक जलसा है, वहां जा रहे हैं। धर्म मैं जाने के लिए तो अकेले में प्रवेश करना होगा।
एक इकहार्ट नाम का फकीर था जर्मनी में। एक पहाड़ की छोटी सी झाड़ी के पास बैठा हुआ था। उसके मित्र आए थे, गांव से पिकनिक करने आए थे, उन्होंने देखा इकहार्ट अकेला है। वह गए। सोचा कि चलो कंपनी दें, साथ दें, बेचारा अकेले बैठे-बैठे घबड़ा गया होगा। सारे लोग अकेले बैठे-बैठे घबड़ा गए हैं इसलिए तो सारी दुनिया में एक-दूसरे को साथ देने की कोशिश चल रही है, एक-दूसरे के साथ होने की कोशिश चल रही है। सब आदमी अकेले-अकेले में घबड़ा गए हैं। यह अकेला बैठा है, घबड़ा गया होगा। वे गए, उन्होंने उसकी पीठ हिलाई। वह आदमी आंख बंद किए मौन था। उन्होंने कहाः दिखता है, घबड़ा गया बैठे-बैठे, इतना ज्यादा कि सो गया। हिलाया, इकहार्ट ने आंख खोली, पूछा, क्या बात है? उन्होंने कहाः सोचा, आए हैं, तुम अकेले बैठे हो, ऊब गए हों, चलो तुम्हें साथ दें। इकहार्ट बोला कि मुश्किल हो गई, इतनी देर तक हम अपने साथ थे, तुमने आकर फिर गड़बड़ कर दी। इकहार्ट ने कहाः इतनी देर तक हम अपने साथ थे, तुमने आकर फिर अकेला कर दिया। आप कृपा करो, अपनी कंपनी को कहीं और ले जाओ। इतनी देर हम अपने साथ थे। और जब आप अपने साथ होते हैं तभी आप परमात्मा के साथ होने की क्षमता उपलब्ध करते हैं।
धर्म स्वयं के साथ होना है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि धर्म के सामूहिक परिणाम न होंगे। धर्म सामूहिक घटना नहीं है, लेकिन धर्म के सामूहिक परिणाम होंगे। अगर एक व्यक्ति शांत हो जाए, परमात्मा के प्रकाश से भर जाए तो उसका जीवन और उसका आचरण सब परिवर्तित हो जाएंगे। आचरण का संबंध दूसरों से है। इसलिए उसके आचरण से दूसरे भी प्रभावित होंगे, आकर्षित होंगे, आकर्षित होंगे। दूसरों के जीवन में भी आनंद की झलक और प्रेम की झलक पहुंचेगी। धर्म का कोई संबंध दूसरे से नहीं है। लेकिन धर्म के द्वारा जो आचरण पैदा होता है, वह सामूहिक घटना है। धर्म वैयक्तिक है, धर्म का केंद्र वैयक्तिक है, धर्म की आत्मा वैयक्तिक है। उसका प्रभाव, उसका आचरण..वह सामूहिक है, सार्वजनिक है। लेकिन धर्म सामूहिक घटना नहीं है। और जब भी धर्म सामूहिक घटना बनाने की कोशिश चलती है, तभी धर्म तो मर जाता है, लाश हाथ में रह जाती है। हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई, ये धर्म के मरे हुए शरीर हैं। धर्म तो वैयक्तिक है। महावीर को होता होगा, बुद्ध को होता होगा, क्राइस्ट को होता होगा। लेकिन फिर हम उनके आस-पास जो संगठन खड़ा करते हैं, बस वही संगठन सब प्राण ले लेता है।
तो मुझे दिखाई नहीं पड़ता कि धर्म सामूहिक होने से कोई हित हुआ है। अहित हुआ है, अहित हो रहा है। वह वैयक्तिक है, वैयक्तिक ऊर्जा है। और कभी देखें, जो भी श्रेष्ठ है जीवन में, चाहे सत्य, चाहे सौंदर्य, चाहे प्रेम, सब वैयक्तिक घटना है। कभी समूह ने सत्य को जन्म दिया है? कभी समूह ने सौंदर्य को अनुभव किया है? कभी समूह ने प्रेम किया है? जीवन में जो श्रेष्ठतम है वह व्यक्ति की निजता में, अकेले में, उसकी लोनलीनेस में, उसके एकांत में फलित और पुष्पित होता है। जो भी श्रेष्ठ है, जो भी श्रेष्ठ हुआ है कभी, वह सब व्यक्ति की निजता में, अकेलेपन में उसकी अपनी चेतना के भीतर पुष्पित और पल्लवित होता है। भीड़ में, भीड़ के नाम पर कोई अच्छे कामों का लेखा-जोखा नहीं है। समाज के नाम पर सारे अपराध लिए, हुए हैं। समाज, भीड़..वह जो क्राउड है, वही सारे उपद्रव की जड़ है। धर्म सामूहिक साधना नहीं है, संगठन नहीं है, आर्गनाइजेशन नहीं है। वैयक्तिक अनुभूति है प्रेम जैसी। प्रेम के संगठन नहीं हैं, तो धर्म के कैसे होंगे, प्रार्थना के कैसे होंगे?
तो समाज को सामूहिक धर्म से कोई हित नहीं हुआ। धर्म से हुआ है। धर्म से सदा होगा। जितना समूह से धर्म मुक्त होगा, संगठन से मुक्त होगा, उतना ही ज्यादा..उतना ही ज्यादा धर्म सत्य होता है, शुद्ध होता है।
फिर यह कहा है, दान धर्म के नाम से लोग देते हैं। मेरी बातें सुनेंगे तो दान कैसे देंगे?
कभी यह भी सोचा कि धर्म के नाम से वे शोषण करते हैं, और फिर धर्म के ही नाम से दान देते हैं। अजीब बेईमानी है, अजीब धोखा। धनपति कहता है, मेरे पिछले जन्मों के कर्मों का फल है कि इतना धन मेरे पास है। तुम दरिद्र हो, पिछले जन्मों का पाप तुम्हारे पीछे है।

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