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शनिवार, 25 अगस्त 2018

कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(दर्शनज्ञानचरित्र)


प्रश्नः ज्ञान, दर्शन और चरित्र ये रत्नत्रयी रूप मुक्ति-पथ के प्राप्ति का उपाय तीर्थंकरों ने बताया है, क्या आप इससे सहमत हैं? ध्यान इन तीनों रत्नों से युक्त होना आवश्यक है?

तीर्र्थंकरों ने क्या बतलाया है, यह कहना कठिन है। तीर्थंकरों के संबंध में हम सब क्या बतलाते रहते हैं, यही समझना आसान है। तीर्र्थंकरों ने क्या कहा है, यह बिना तीर्र्थंकर हुए नहीं समझा जा सकता है। असल में, जिस चेतना के तल पर जो बात कही जाती है, उसी तल पर समझी जा सकती है। और जब नीचे की चेतना के तल पर समझी जा सकती है, और जब नीचे की चेतना के तल पर उस बात को समझने की कोशिश होती है, तो सब विकृत हो जाता है।

तीर्थंकर के जो शब्द हमें उपलब्ध हैं, वे ठीक-ठीक उनके नहीं हैं, बल्कि उन लोगों के हैं, जिन्होंने रिकॉर्ड किया है, लिखा है। और ये लोग अत्यंत नीचे तल के लोग थे। और दुनिया में जब भी ईश्वरीय अनुभूति के कोई भी शब्द कहे गए हैं, तो अक्सर वे नीचे के तल के द्वारा लिखे गए हैं। और यह भी स्मरण रखें कि जब आप उनको पढ़ते हैं, तब भी आप वही अर्थ नहीं समझ पाते हैं, जो उनमें हैं। आप वही अर्थ समझ पाते हैं, जो आप समझ सकते हैं।


इसे फिर से दोहरा दूं। जब आप गीता को, कुरान को, बाइबिल को, महावीर को, या बुद्ध के वचनों को पढ़ते हैं, तो आप वही अर्थ समझ पाते हैं, जो आप समझ सकते हैं। अर्थ आपकी चेतना के तल से ऊपर कभी नहीं हो सकता। शब्द किसी के हों, अर्थ आपका ही होता है। वाणी किसी की भी हो, उसमें से जो आप निकालते हैं व्याख्या, वह आपकी ही होती है।
मैं यहां बोल रहा हूं, तो आप सोचते हों कि मैं जो बोल रहा हूं, वही आप सुन रहे हैं, तो आप गलती में होंगे। क्योंकि मैं जो बोल रहा हूं, अगर आप वही सुन लें, तो आप सब एक ही बात सुन लेंगे। लेकिन जरा आप एक-दूसरे से चर्चा करेंगे, तब आपको पता चल जाएगा कि आपने एक ही बात नहीं सुनी है। आप सब विवाद में पड़ जाएंगे कि मैंने क्या कहा! यह इस बात की सूचना है कि आपने वह सुना, जो आप सुन सकते थे। दूसरे ने वह सुना, जो वह सुन सकता था।
हर आदमी अपने तईं सुन रहा है और समझ रहा है। इसलिए कृपा करें, तीर्थंकरों कोे, पैगंबरों को बीच में न घसीटें। उनकी व्यर्थ फजीहत हो जाती है और कुछ भी नहीं होता है। अच्छा हो कि आप अपनी तईं समझें कि बात क्या है।
यह जो कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन और चरित्र, इस तीन की जो साधना कर लेता है, वह मुक्ति-पद को उपलब्ध हो जाता है। यह जरूर कहा होगा। लेकिन जो समझा गया है, वह यह समझा गया है कि ज्ञान का अर्थ है, शास्त्रों को याद कर लो। और दर्शन का यह अर्थ है कि श्रद्धा उत्पन्न कर लो। और चरित्र का अर्थ है कि इतने गज कपड़ा रखो, इतना खाना खाओ, इतनी देर सोओ, इस तरह उठो, इस तरह बैठो। यह चरित्र है। इतने-इतने शास्त्रों को याद कर लो, यह ज्ञान है। और श्रद्धा ले आओ तीर्थंकरों पर, अवतारों पर, तो यह दर्शन है।
निश्चित ही अलग-अलग धर्म का अलग-अलग ज्ञान होगा, क्योंकि अलग-अलग धर्म की अलग-अलग किताब है। जो मुसलमान के लिए ज्ञान है, वह जैनी के लिए अज्ञान है। और जो ईसाइयों के लिए अज्ञान है, वह हिंदुओं के लिए ज्ञान है। तो दुनिया में बहुुत ज्ञान है। जब कि ज्ञान एक ही हो सकता है। शास्त्र अलग-अलग ज्ञान देते हैं। इसलिए पक्का समझ लें, शास्त्रों में ज्ञान नहीं होता, क्योंकि ज्ञान एक ही हो सकता है। शास्त्रों को याद करके जो हम सीख लेते हैं, वह उसे हम ज्ञान समझ लेेते हैं, जब कि वह ज्ञान नहीं, मात्र स्मृति है, मेमोरी है, लर्निंग है।
ये टेप-रिकॉर्ड यहां किए जा रहे हैं, ये आपसे ज्यादा ज्ञानी हैं। क्योंकि जो मैं कहूंगा, जितना अच्छा आप रख सकेंगे, उससे ज्यादा ये रख लेंगे। यह स्मृति जो आपको पैदा हो जाएगी, भूल से इसको ज्ञान मत समझ लेना, यह केवल रिकॉर्डिंग है। यह प्राकृतिक मस्तिष्क कर रहा है, यह अप्राकृतिक मस्तिष्क कर रहा है। इसमें कोई बहुत भेद नहीं है। यह ज्यादा उचित है, क्योंकि यह भूल-चूक बिलकुल नहीं करता। आज नहीं कल, सब मशीनें ईजाद हो जाएंगी, तब आपको स्मरण रखने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाएगी। तब आप बिलकुल ज्ञान से शून्य हो जाएंगे, तब आपके पास कोई ज्ञान नहीं होगा।
किताबों के कचरे को जो ज्ञान समझ लेता है, वह गलती में है। यह ज्ञान नहीं है। और तीर्थंकरों पर श्रद्धा लाना दर्शन नहीं है। क्योंकि मुसलमान कहते हैं कि मोहम्मद पर श्रद्धा ले आओ, तो दर्शन हो गया। और ईसाई कहते हैं कि ईसा पर श्रद्धा ले आओ तो सब ठीक हो गया। और अगर जैनों से पूछें तो वे कहेंगे, यह सब मिथ्या श्रद्धा हैईसा पर, या मोहम्मद पर। ये कोई ज्ञानी हैं? ये कोई तीर्थंकर हैं? ये कोई सर्वज्ञ हैं? ये तो कुछ भी नहीं हैं, ये मिथ्या ज्ञानी हैं। ये ही उनके लोग कहेंगे कि सब मिथ्या ज्ञानी हैं।
ये जो झगड़े हैं श्रद्धा के, अगर दूसरे पर श्रद्धा लाइएगा, झगड़ा निश्चित है। क्योंकि कौन किस पर लाएगा, वह लड़ने लगेगा। इसलिए श्रद्धा का यह अर्थ भी नहीं हो सकता। श्रद्धा ऐसी होनी चाहिए कि जिसमें झगड़ा और विवाद खड़ा न हो, तभी वह सम्यक होगी। और ज्ञान ऐसा होना चाहिए जो एक हो, तभी वह सम्यक होगा। और जिसको चरित्र कहते हैं, वह तो एक अदभुत बात हो गई है। चरित्र को तो हम इतने नीचे स्तर पर उतार लाए हैं कि विवेकानंद को अमरीका में कहना पड़ा कि हिंदुस्तान का सारा धर्म चैके-चूल्हे का धर्म हो गया है। और विवेकानंद को कहना पड़ा कि अगर ऐसे ही चलता रहा, तो कुछ दिनों में मंदिरों की कोई जरूरत नहीं, पाकशास्त्र काफी होगा। क्या खाना, क्या पीना, क्या पहनना, यह पर्याप्त है। जो ठीक से खाने-पीने का मामला जान जाता है, वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है। यह चरित्र है! ये कोई बातें ठीक नहीं हैं।
मुझे जो प्रतीत होता है, वह मैं आपको कहूं। दर्शन का अर्थ है, स्वयं के जो भीतर है उसके बोध को उपलब्ध होना। दर्शन का द्वार ध्यान है। ध्यान प्राथमिक कड़ी है, उसके बिना कुछ भी न होगा। जो ध्यान में प्रविष्ट होगा, उसे स्वयं का दर्शन होता है। उसे दिखाई पड़ता है, कौन मेरे भीतर है, मैं कौन हूं। उसे अंतर बोध होता है कि मैं कौन हूं, तो वह साक्षात्कार करता है कि मेरी सत्ता क्या है, तब उसे ज्ञान उत्पन्न होता है।
यह जान कर कि मैं कौन हूं, पहले दर्शन होता है। दर्शन जब स्थापित हो जाता है भीतर, श्रद्धा बन जाता है, तो ज्ञान में परिणत हो जाता है। अगर मैं कोई चीज आपके सामने लाऊं, तो पहले उसका दर्शन होगा। और तब आप उसे पहचानेंगे, प्रत्यभिज्ञा होगी और ज्ञान होगा।
छोटे बच्चे जब पैदा होते हैं, तो उनको केवल दर्शन होता है, ज्ञान नहीं होता। क्योंकि कोई प्रत्यभिज्ञा नहीं होती है। चीजें वे देखते जरूर हैं, लेकिन पहचान नहीं पाते। ऐसे ही जब व्यक्ति पहले अपने भीतर जाता है, तो आत्मा को भी देखा तो नहीं है, पहले दर्शन होता है। सिर्फ दिखाई पड़ता है कोई सत्य, कोई अनुभूति। फिर क्रमशः परिचित होने पर, बार-बार प्रविष्ट होने पर यह खयाल में स्मृति प्रगाढ़ होती है और दिखाई पड़ता जो था, वह ज्ञान बन जाता है।
ज्ञान का अर्थ, दर्शन का प्रगाढ़ हो जाना है। ज्ञान का अर्थ है दर्शन का गहरे प्रविष्ट हो जाना। दर्शन जब परिपूर्ण रूप से प्रगाढ़ हो जाता है, तब ज्ञान हो जाता है। और जब ज्ञान परिपूर्ण रूप से प्रगाढ़ हो जाता है, तो चरित्र बन जाता है। क्योंकि जो चीज मुझे स्पष्ट दिखाई पड़ने लगती है, उसके विपरीत जाना असंभव हो जाता है। जो मुझे स्पष्ट दिखाई पड़ने लगती है, उसके विपरीत जाना बिलकुल असंभव है।
मैंने सुना है, ईरान में एक बहुत बड़ा जौहरी हुआ है। उसकी मृत्यु हो गई। उसके मर जाने पर उसकी विधवा पत्नी बची और एक छोटा बच्चा बचा और उसका छोटा भाई बचा। छोटे भाई ने सारा व्यापार सम्हाल लिया। वह विधवा धीरे-धीरे राह देखती रही कि उसका बच्चा बड़ा होगा और एक दिन वह भी व्यापार का हिस्सेदार हो जाएगा। जब लड़का बड़ा हुआ, तो उसकी मां ने कहा कि मैंने कुछ बहुमूल्य हीरे-जवाहरात छिपा कर रखे हुए हैं। तू बड़ा हो जाए, उस दिन तुझे सौंप दूं। उसने एक पोटली दी, जिसमें कुछ बहुमूल्य पत्थर थे। और उसने कहाः तू अपने काका के पास जा और उनको कहना कि इनको बेच दे।
वह गया। उसने अपने काका को कहा कि अब समय आ गया कि मैं बड़ा हो गया। अब मैं भी कुछ कारोबार करूं। तो ये हीरे-जवाहरात बेच दें। काका ने वह कपड़ा खोल कर देखा और उस लड़के से कहाः पोटली बंद रखो और अभी घर ले जाओ। अभी बाजार-भाव ठीक नहीं है। कुछ दिनों बाद जब बाजार-भाव ठीक होंगे, तो इन्हें बेच देंगे। और एक बात स्मरण रखो, कल से घंटा भर दुकान पर जरूर आने लगो।
वे हीरे-जवाहरात वापस भेज दिए गए, पुनः सम्हाल कर तिजोड़ी में बंद कर दिए गए। वह लड़का एक दिन घंटे भर के लिए रोज दुकान पर जाने लगा। कोई साल-छह महीने बीतने पर एक संध्या काका उस लड़के के घर गया और उसने कहाः अपने वे हीरे-जवाहरात बाहर निकाल लाओ। वह लड़का गया। उसने पोटली खोली, देख कर हंसा और बाहर घूरे पर सबको फेंक आया। उसकी मां तो हैरान रह गई। उसने कहाः यह क्या करते हो? वह बोलाः यह सब नकली कांच के टुकड़े हैं। इनमें कुछ मूल्य नहीं है। उसके काका ने कहाः लेकिन अगर यह मैं कहता, तो बड़ा धोखा और बड़ी गड़बड़ हो जाती। अब तुम्हें दिखाई पड़ा, बात खत्म हो गई। दिख गया, ज्ञान हो गया, आचरण भी हो गया। दर्शन हुआ कि झूठे हैं, ज्ञान हुआ कि मूल्य नहीं; आचरण हो गया कि घूरे पर फेंक दिए गए।
अगर दर्शन हो जाए, तो ज्ञान अनिवार्य है। और ज्ञान हो जाए, तो चरित्र अनिवार्य है। चरित्र पहले नहीं है, अंतिम है। लेकिन आज अगर पूछने जाएं लोगों से, तो वे कहते हैं, पहले चरित्र को साधो, फिर ज्ञान उत्पन्न होगा। जब कि उनको ही त्रिरत्न कहते हैंसम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र्य। वह चारित्र्य पीछे है, शिखर है। लेकिन वे कहते हैं, पहले चारित्र्य साधोपहले कपड़े बदलो, खाना बदलो; यह करो, वह करोफिर ज्ञान होगा। जब कि सच यह है कि ज्ञान हो जाए, तो चरित्र अपने से बदल जाता है। ज्ञान मूल है। ज्ञान वास्तविक क्रांति है। वहीं ट्रांसफार्मेशन है। वह आ जाए, तो सब बदल जाता है।
अगर भीतर मुझे दिखने लगे कि क्या ठीक है, तो क्या आप सोचते हैं, मैं गलत कर सकता हूं? आज तक दुनिया में किसी ने नहीं किया। गलत तभी तक हो सकता है, जब तक कि दूसरे कहते हों गलत है, लेकिन मुझे दिखाई प.ड़ता हो, किसी न किसी तल पर, कि ठीक है। दूसरों का ज्ञान हो, और मैं उस पर आचरण करूं, तो तकलीफ है, तो मुश्किल है। मेरा ज्ञान हो तो आचरण को कोई तकलीफ ही नहीं है। ज्ञान हो, तो आचरण उसके पीछे छाया की भांति चला आता है। क्यों? क्योंकि अंतस असली बात है। आचरण तो गौण बात है। जो मेरे भीतर होता है, वही मेरे बाहर निकलता है। अगर मेरे भीतर ज्ञान है, तो बाहर जो निकलेगा, वह सम्यक आचार होगा। और अगर मेरे भीतर अज्ञान है, तो बाहर जो निकलेगा, वह अनाचार होगा।
इसलिए मेरा जोर ज्ञान पर है। और ज्ञान का जो द्वार है वह ध्यान है। ध्यान के बिना किसी को कभी ज्ञान उपलब्ध नहीं हो सकता है। शास्त्रों से नहींध्यान से। दूसरों से नहींस्वयं से। स्मृति के द्वारा नहीं, प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञान उत्पन्न होता है। और ऐसा ज्ञान जब उत्पन्न होता है, तो जीवन आनंद से भर जाता है। और जीवन आचरण से भर जाता है। उस आचरण की सुगंध ही दूसरी है, क्योंकि वह आरोपित और जबरदस्ती ठोका-पीटा नहीं होता है। वह सहज निकलता है। यह मैं समझता हूं, समझ में बात आई होगी।
जो खास-खास प्रश्न थे उनके उत्तर दे दिए हैं। और यों तो प्रश्न एक तरह की मानसिक बीमारी है और इसलिए उसके उत्तर देना खाज को खुजलाने जैसा होता है। मजबूरी में कि आपको न लगे ऐसा कि आप पूछते हैं, मैं उत्तर नहीं देता, इसलिए देता हूं। लेकिन ऐसा मत समझ लेना कि मैं कोई प्रशंसा करता हूं बहुत कि आपके भीतर बहुत प्रश्न उठते हैं। क्यों? क्योंकि सब प्रश्नों के उत्तर भी मिल जाएं, तो पक्का समझिए कि एक भी प्रश्न का उत्तर आपको नहीं मिलेगा। लाख उत्तर मिल जाएं, तो भी आपको उत्तर नहीं मिलेगा। क्योंकि प्रश्न भीतर पैदा होता है, उत्तर बाहर से आता है, जोड़ कहीं बैठता नहीं। आपका प्रश्न और मेरा उत्तर सटेगा कहां? आपका उत्तर ही आपके प्रश्न को काट सकता है। इसलिए सब उत्तर देकर भी जानता हूं कि उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। अगर इतनी ही बात समझा पाऊं कि किसी का उत्तर आपका उत्तर नहीं बन सकता, तो बात काफी हो जाएगी। आपके जिस तल से प्रश्न उठ जाए, उसी तल से उत्तर भी आएगा। इसलिए मौन हो जाएं और जहां से प्रश्न उठ रहा है, उस केंद्र के पीछे पहुंचने की कोशिश करें कि कहां से ये प्रश्न उठते हैं।
एक साधु बोल रहा था और हजारों लोग उसे सुन रहे थे। और उसने कहा कि जानो कि तुम कौन हो। एक आदमी बीच में खड़ा हुआ और उसने कहाः ठीक से समझाइए कि मैं कौन हूं। उस साधु ने अपना बोलना बंद किया, वह मंच के नीचे उतरा है। उसने भीड़ से कहाः जरा रास्ता छोड़ दो, उस आदमी को मैं पकडूंगा। रास्ता भीड़ ने छोड़ दिया और लोग घबड़ा गए कि यह क्या पागलपन है! उसने बेचारे ने प्रश्न पूछा! वह आदमी भी कंपा कि यह क्या मुश्किल है! वह पकड़ेगा किसलिए? क्योंकि जब वह पूछ ही लिया है, तो इसको उत्तर देना ही पड़ेगा। भीड़ छंट कर खड़ी रह गई। वह आदमी बीच में खड़ा रह गया और बड़ी पशोपेश में पड़ गया। वह साधु पहुंचा और जाकर उसकी गर्दन जोर से पकड़ ली, और उससे कहाः फिर से पूछ, तो तेरे को उत्तर दूं। वह तो बहुत घबड़ा गया कि किस मुसीबत में पड़ गया हूं। यह भली बातें कहता आदमी, यह क्या करने लगा? मारेगा या पीटेगा, यह क्या करेगा? यह क्या उतर हुआ!
वह आदमी घबड़ा कर खड़ा हो गया, उसे कुछ प्रश्न नहीं सूझा। साधु ने कहाः पहला तो मतलब यह हुआ कि प्रश्न बहुत गहरा नहीं है, क्योंकि मैंने गर्दन पकड़ी और वह हवा हो गया। ऐसे ही पूछ लिया मालूम होता है। कि आ गए हैं, तो चलो पूछ लें। ऐसे प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं होता है, उस आदमी से उसने कहा। और उसने कहाः दूसरी बात यह है कि अगर पूछता ही हो, तो ठीक से पूछ फिर से। उस आदमी ने हिम्मत जुटाई, उसने कहा कि मैं पूछता हूं महाराज कि मैं कौन हूं? उस साधु ने कहाः अब जहां से यह प्रश्न उठा हैकहीं तो उठा है तेरे भीतर से। एक क्षण था कि यह प्रश्न नहीं था, एक क्षण हुआ कि यह प्रश्न उठा, फिर एक क्षण आया कि तूने प्रश्न प्रकट कर दिया। तो कहीं से यह उठा है, आकर बाहर प्रकट हो गया हैजहां से उठा है, वह जगह तो अभी भी तेरे भीतर है। तो कृपा कर और इसी प्रश्न की सीढ़ी पर वापस लौट जा। जहां से यह उठा है, वहीं जा। और उस जड़ को पकड़, जहां से यह उठता है, और तुझे उत्तर मिल जाएगा। और न केवल इसका उत्तर बल्कि, शेष सारे प्रश्नों का भी।
जहां से प्रश्न उठते हैं, वहीं चले जाएं। हम क्या करते हैं, प्रश्न उठते हैं भीतर, खोजने चले जाते हैं बाहर। इसी से भूल हो जाती है। प्रश्न उठा भीतर और हम चले पूछने किसी से कि इसका क्या उत्तर होगा? जहां से प्रश्न उठा है, वहीं उतर जाइए। और आप दंग रह जाएंगे, प्रश्न के नीचे ही उत्तर भी छिपा हुआ है। हर प्रश्न अपने उत्तर को लिए है, क्योंकि जिसका उत्तर आपके भीतर न हो, उसका प्रश्न आपके भीतर कभी नहीं उठ सकता है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ प्रश्न है, दूसरी तरफ उत्तर है। जो उलटा कर जानता है, वह प्रश्न के पीछे उत्तर को उपलब्ध कर लेता है। एक पहलू प्रश्न और दूसरा पहलू उत्तर है। एक ही सिक्के के दो पहलू। जिसके भीतर प्रश्न है, उसके भीतर उत्तर है।
लेकिन पहली बातः प्रश्न असली हो कि गर्दन पकड़ने से भूल न जाए। और दूसरी बात भीतर उतरने की इच्छा गहरी हो, तो सारे प्रश्नों के उत्तर मनुष्य को अपने भीतर मिल सकते हैं।
और देखिए, महावीर जब गए साधना में, कितने ग्रंथ साथ ले गए थे, पता है? जब मोहम्मद पहाड़ पर गए, कितनी किताबें पोटली में थीं? जब क्राइस्ट वनों में खोज को गए, तो अच्छा होता कि किसी पुस्तकालय में जाते। फिर आप सोचते हैं, किसी और से पूछा जाकर? अगर किसी और से पूछना होता, तो नगर अच्छे थे, जंगल में जाने की क्या जरूरत थी? किसी से नहीं पूछा। कहीं खोजा नहीं, जाकर बैठ गए। पकड़ने लगे उस जड़ को जहां से प्रश्न उठता है, उसका पीछा करने लगे। धीरे-धीरे भीतर घुसे और प्रश्न को पकड़ लिया, जहां से वह उठता था।
जिस दिन प्रश्न को पकड़ लिया, जहां से वह उठता है, उसी दिन उत्तर उपलब्ध हो जाता है। इसलिए मेरे उत्तर का बहुत मूल्य मत मानना। क्योंकि किसी भी उत्तर का कोई मूल्य नहीं है। लोग समझाते हैं कि हमने जो समझाया, उसे गांठ बांध कर रख लेना। और मैं समझाता हूं कि मैंने जो समझाया, वह भूलकर कभी गांठ मत बांध लेना। और जिनने समझाया हो और गांठ बांध ली हो, उनको खोल देना।
लोग समझाते हैं कि एक तरफ हम सच कहते हैं और एक कान से आप सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं! मैं कहता हूं कि प्रभु की परम कृपा है कि आपने जो भी सुना हो एक कान से, दूसरे कान सब निकाल दें। लोग कहते हैं, रोक लेना। मैं कहता हूं निकाल देना। लोग कहते हैं, हमारी बात को सम्हाल कर याद रखना। मैं कहता हूं, सब बातें जो सम्हाल कर रखी हों, फेंक दें, याद को खाली कर लें।
जिस दिन याद आदमी की बातों से खाली हो जाती है, उसी दिन परमात्मा की याद चालू हो जाती है। और जिस दिन दूसरों के दिए उत्तर फेंक दिए जाते हैं और अपने प्रश्नों का पीछा किया जाता है, उस दिन अपने उत्तर मिल जाते हैं। इसलिए बहुत प्रश्न-उत्तर की बात छोड़ दें। थोड़े से समय के लिए ध्यान के लिए बैठ जाएं।
इसलिए मैं कहता हूं, वैज्ञानिक धर्म मानने को नहीं कहता, वैज्ञानिक धर्म जानने की विधि की बात करता है।

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