पांचवां-प्रवचन-(प्रार्थना क्या है
उदयपुर; 5 जनू, 1969; दोपहरएक मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि खोज छोड़ देनी है। और अगर खोज हम छोड़ दें, तो फिर तो विज्ञान का जन्म नहीं हो सकेगा?
मैंने जो कहा है, खोज छोड़ देनी है, वह कहा है उस सत्य को पाने के लिए, जो हमारे भीतर है, उसकी खोज करनी व्यर्थ है, बाधा है। लेकिन हमारे बाहर भी सत्य है। और हमसे बाहर जो सत्य है, उसे तो बिना खोज के कभी नहीं पाया जा सकता। इसलिए दुनिया में दो दिशाएं हैंः एक जो हमसे बाहर जाती है। हमसे बाहर जानेवाला जो जगत है, अगर उसके सत्य की खोज करनी हो, जो विज्ञान करता है, तो खोज करनी ही पड़ेगी। खोज के बिना बाहर के जगत का कोई सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता।
एक भीतर का जगत है। अगर भीतर के सत्य की खोज करनी है, तो खोज बिलकुल छोड़ देनी पड़ेगी। अगर खोज की, तो बाधा पड़ जाएगी, और भीतर का सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता है। और ये दोनों सत्य किसी एक ही बड़े सत्य के भाग हैं। भीतर और बाहर किसी एक ही वस्तु के दो विस्तार हैं। लेकिन जो बाहर शुरू करना चाहता है, उसके लिए तो अंतहीन खोज हैखोज करनी पड़ेगी, खोज करनी पड़ेगी, खोज करनी पड़ेगी। जो भीतर से शुरू करना चाहता हो, उसे खोज का अंत इसी क्षण कर देना पड़ेगा, तो भीतर की खोज शुरू होगी।
विज्ञान खोज है, और धर्म अखोज है।
विज्ञान खोज कर पाता है, धर्म स्वयं को खोकर पाता है; खोज कर नहीं पाता।
तो मैंने जो बात कही है, वह विज्ञान को ध्यान में लेकर नहीं कही है। वह मैंने साधक को, साधना को, धर्म को ध्यान में रख कर कही है कि जिसे स्वयं के सत्य को पाना है, उसे सब छोड़ देना चाहिए। विज्ञान की खोज में जिसे जाना है, उसे खोज करनी पड़ेगी। लेकिन ध्यान रहे, कोई कितना ही बड़ा वैज्ञानिक हो जाए और बाहर के जगत के कितने ही सत्य खोज ले, तो भी स्वयं के सत्य जानने के संबंध में वह उतना ही अज्ञानी होता है, जितना कोई साधारणजन। इससे उलटी बात भी सच है।
कोई कितना ही परम आत्मज्ञानी हो जाए, कितना ही बड़ा आत्मज्ञानी हो जाए, वह विज्ञान के संबंध में उतना ही अज्ञानी होता है, जितना कोई साधारणजन। कोई महावीर, बुद्ध, या कृष्ण के पास आप पहुंच जाएं, एक छोटा सा मोटर ही लेकर कि जरा इसको सुधार दें, तो आत्म-ज्ञान काम नहीं पड़ेगा। और आइंस्टीन के पास आप पहुंच जाएं और आत्मा के रहस्य के संबंध में कुछ जानना चाहें, तो कोई आइंस्टीन की वैज्ञानिकता काम नहीं पड़ेगी।
वैज्ञानिकता एक तरह की खोज है, एक आयाम है। धर्म बिलकुल दूसरा आयाम है। दूसरी ही दिशा है। और इसीलिए तो यह नुकसान हुआ। पूरब के मुल्कों ने, भारत जैसे मुल्कों ने भीतर की खोज की इसलिए विज्ञान पैदा नहीं हो सका। क्योंकि भीतर के सत्य को जानने का रास्ता बिलकुल ही उलटा है। वहां तर्क भी छोड़ देना है, विचार भी छोड़ देना है, इच्छा भी छोड़ देनी है। खोज भी छोड़ देनी है। सब छोड़ देना है। भीतर की खोज का रास्ता सब छोड़ देने का है। इसलिए भारत में विज्ञान पैदा नहीं हो सका।
पश्चिम ने बाहर की खोज की। बाहर की खोज करनी है, तो तर्क करना पड़ेगा, विचार करना पड़ेगा, प्रयोग करना पड़ेगा, खोज करनी पड़ेगी, तब विज्ञान का सत्य उपलब्ध होता है। पश्चिम ने विज्ञान के ज्ञान को तो पाया, लेकिन धर्म के मामले में वह शून्य हो गया।
और अगर किसी संस्कृति को पूरा होना है, तो उसमें ऐसे लोग भी चाहिए जो भीतर खोजते रहें, जो बाहर की सब खोज छोड़ दें, और ऐसे लोग भी चाहिए, जो बाहर खोजते रहें और बाहर के सत्य को भी जानते रहें।
हालांकि एक ही आदमी एक ही साथ वैज्ञानिक और धार्मिक भी हो सकता है।
कोई ऐसा न सोचे कि कोई धार्मिक हुआ, तो वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता। कोई ऐसा भी न सोचे कि कोई वैज्ञानिक हो गया, तो वह धार्मिक नहीं हो सकता। लेकिन अगर ये दोनों काम करने हैं, तो दो दिशाओं में काम करना पड़ेगा। जब वह विज्ञान की खोज करेगा, तो तर्क-विचार और प्रयोग का उपयोग करना पड़ेगा। और जब स्वयं की खोज करेगा, तो तर्क, विचार और प्रयोग छोड़ देना पड़ेगा। एक ही आदमी दोनों हो सकता है, लेकिन दोनों होने के लिए उसे दो तरह के प्रयोग करने पड़ेंगे।
अगर किसी देश ने यह तय किया कि हम सब खोज छोड़ देंगे, कुछ न खोजेंगे, तो देश शांत तो हो जाएगा, लेकिन शक्तिहीन हो जाएगा। शांत तो हो जाएगा, सुखी हो जाएगा, लेकिन बहुत तरह के कष्टों से घिर जाएगा। भीतर तो आनंदित हो जाएगा, बाहर गुलाम हो जाएगा, दीन-हीन हो जाएगा। किसी देश ने यह तय किया कि हम बाहर की खोज करेंगे, तो वह संपन्न हो जाएगा, शक्तिशाली हो जाएगा, समृद्ध हो जाएगा, कष्ट बिलकुल न रह जाएंगे, लेकिन भीतर अशांति और दुख और विक्षिप्तता घेर लेगी।
तो किसी देश को अगर सम्यक संस्कृति पैदा करनी हो, तो दोनों दिशाओं में काम करना पड़ेगा। और अगर किसी व्यक्ति को मौज हो, तो दोनों दिशाओं में काम कर सकता है। वैसे परम लक्ष्य मनुष्य का धर्म है। विज्ञान केवल जीवन को गुजरने का रास्ता है, उसे थोड़ा ज्यादा सुंदर, ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा संपन्न बना सकता है। लेकिन परम शांति और परम आनंद तो धर्म से ही उपलब्ध होते हैं।
दूसरे मित्र ने जो पूछा है कि प्रार्थना किसकी करें?
अगर प्रार्थना किसी की भी की, तो वह प्रार्थना नहीं होगी। लेकिन प्रार्थना से मतलब ऐसा निकलता है कि किसी की करनी है और किसीलिए करनी है। कोई कारण होगा, कोई प्रार्थी होगा और किसी से करेगा। तो हमें ऐसा लगेगा, प्रार्थना तो हो ही नहीं सकती है, अगर कोई कारण नहीं है और किसी से करनेवाला नहीं है। अकेला करनेवाला क्या करेगा, कैसे करेगा!
मेरा कहना यह है कि प्रार्थना, अगर ठीक से हम समझें, तो कोई क्रिया नहीं है, बल्कि एक वृत्ति हैप्रेयरफुल मूड है। प्रेयर नहीं है सवालप्रेयरफुल मूड। प्रार्थना नहीं है सवाल प्रार्थनापूर्ण हृदय।
यह बिलकुल और बात है। आप रास्ते से निकल रहे हैं। एक प्रार्थना-शून्य हृदय है। रास्ते के किनारे कोई गिर पड़ा है और मर रहा है, वह प्रार्थना-शून्य हृदय ऐसे निकल जाएगा, जैसे रास्ते पर कुछ नहीं हुआ। लेकिन प्रार्थनापूर्ण हृदय जो है, वह कुछ करेगा; वह जो गिर गया है, उसे उठाएगा। वह चिंता करेगा, दौड़ेगा, उसे कहीं पहुंचाएगा। अगर रास्ते पर कांटे पड़े हैं, तो एक प्रार्थना-शून्य हृदय कांटों से बच कर निकल जाएगा, लेकिन कांटों को उठाएगा नहीं। प्रार्थनापूर्ण हृदय उन कांटों को उठाने का श्रम लेगा; उठाकर उन्हें अलग फेंकेगा।
प्रार्थनापूर्ण हृदय का मतलब हैः प्रेमपूर्ण हृदय। और जब कोई व्यक्ति का प्रेम, एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के प्रति होता है, तो उसे हम प्रेम कहते हैं। और जब किसी व्यक्ति का प्रेम किसी से बंधा नहीं होता, समस्त के प्रति होता है, तब मैं उसे प्रार्थना कहता हूं।
प्रेम है दो व्यक्तियों के बीच का संबंध और प्रार्थना है एक और अनंत के बीच का संबंध। वह जो सब हमारे चारों तरफ फैला हुआ हैपौधे हैं, पक्षी हैं, सब, उस सबके प्रति जो प्रेमपूर्ण है, वह प्रार्थना में है। प्रार्थना का यह मतलब नहीं है कि किसी मंदिर में कोई आदमी हाथ जोड़कर बैठा है और वह प्रार्थना कर रहा है।
प्रार्थना का मतलब हैः ऐसा व्यक्ति, जो जीवन में जहां भी आंख डालता है, हाथ रखता है, पैर रखता है, श्वास लेता है, तो हर घड़ी प्रेम से भरा हुआ है, प्रेमपूर्ण है।
एक मुसलमान फकीर था। जिंदगी भर मस्जिद गया। बूढ़ा हो गया है! एक दिन लोगों ने मस्जिद में न देखा तो सोचा, क्या मर गया! क्योंकि वह जीते जी तो नहीं मस्जिद आए, यह असंभव है। तो वे उसके घर गए। वह तो बैठा था बाहर दरवाजे पर। खंजड़ी बजा कर गीत गाता था। तो लोगों ने कहाः यह तुम क्या कर रहे हो? आखिरी वक्त नास्तिक हो गए? प्रार्थना नहीं करोगे? उस फकीर ने कहाः प्रार्थना के कारण ही आज मंदिर नहीं आ सका। उन्होंने कहाः क्या मतलब? मस्जिद नहीं आए, प्रार्थना के कारण? मस्जिद के बिना प्रार्थना हो कैसे सकती है? उस आदमी ने अपनी छाती खोल दी। उसकी छाती में एक नासूर हो गया है, उसमें कीड़े पड़ गए हैं। उसने कहा कि कल मैं गया था और जब नमाज पढ़ने के लिए झुका, तो कुछ कीड़े मेरी छाती से नीचे गिर गए और मुझे खयाल हुआ कि ये तो मर जाएंगे, बिना नासूर के जीएंगे कैसे! तो फिर आज मैं झुक नहीं सकता हूं। प्रार्थना के कारण आज मस्जिद नहीं आ सका!
यह प्रार्थना बहुत कम लोगों की समझ में आएगी। लेकिन जब मैं प्रार्थना की बात करता हूं, तो मेरी प्रार्थना का यही अर्थ हैः प्रेयरफुल मूड, प्रेयरफुल एटीट्यूड। वह जो हम जीवन में जी रहे हैं, उसमें सब तरफ हम कितने प्रार्थनापूर्ण हो सकते हैं, यह सवाल है।
किसी भगवान और किसी देवता की आराधना की बात नहीं है। प्रार्थना मेरे लिए प्रेम का ही अर्थ रखती है, और मैं निरंतर कहता हूं, प्रेम ही प्रार्थना है। अगर हम एक व्यक्ति से बंध जाते हैं, तो प्रेम की धारा रुक जाती है और प्रेम मोह बन जाता है। और अगर हम ठहर जाते हैं, और प्रेम की धारा मुक्त हो जाती है, तो प्रेम प्रार्थना बन जाती है। इसे थोड़ा खयाल कर लेना।
अगर एक व्यक्ति पर प्रेम रुक जाए, तो मोह बन जाता है और बंधन का कारण हो जाता है। और अगर फैलता चला जाए प्रेम, और सब पर फैलता चला जाए, और धीरे-धीरे बेशर्त हो जाये, अनकंडिशनल हो जाए, हमारी कोई शर्त न रह जाए कि हम इससे प्रेम करेंगे, हमारा केवल एक भाव रह जाए कि हम प्रेम ही कर सकते हैं, कुछ और कर ही नहीं सकते...।
राबिया नाम की एक फकीर औरत थी। कुरान में कहीं लिखा है, ‘शैतान से घृणा करो’, उसने वह लकीर काट दी है। कोई मित्र ठहरा हुआ था, उसने कहाः कुरान में संशोधन किसने किया? कुरान में कोई संशोधन कर सकता है? धर्मग्रंथ में तो संशोधन नहीं हो सकता! राबिया ने कहाः मुझे ही करना पड़ा, क्योंकि इसमें लिखा है कि शैतान से घृणा करो, और मैं तो घृणा करने में असमर्थ हो गई हूं। जब से प्रार्थना पूरी हुई, तब से मैं घृणा नहीं कर सकती हूं। अगर शैतान मेरे सामने खड़ा हो जाए, तो भी मैं प्रेम करने को ही मजबूर हूं। यह सवाल उसका नहीं है कि वह कौन है। सवाल मेरा है, क्योंकि मेरे पास सिवाय प्रेम के कुछ है ही नहीं। मुझे यह लकीर काट देनी पड़ेगी। यह लकीर ठीक नहीं है। अब तो मेरे सामने भगवान आए तो, और शैतान आए तो, मैं प्रार्थना ही कर सकती हूं। मैं प्रेम ही कर सकती हूं। और इसलिए मुश्किल है पहचानना कि कौन है शैतान और कौन है भगवान। और अब पहचानने की कोई जरूरत भी नहीं है, क्योंकि वही मुझे करना है, चाहे कोई भी हो!
प्रेम एक पर रुक कर मोह बन जाता है, बंधन बन जाता है। जैसे नदी रुक जाए और डबरा बन जाए। समझ लेना, नदी रुक जाए और डबरा बन जाए। बहे न, गोल घूमने लगे। एक तालाब बनेगा, सड़ेगा, खराब होगा, बहेगा नहीं। नदी अगर रुक जाए, तो डबरा बन जाती है। और नदी अगर बढ़ जाए और फैल जाए, तो सागर बन जाती है।
वह जो प्रेम की धारा है हमारे भीतर, अगर एक व्यक्ति के आस-पास डबरा बना ले या दो-चार व्यक्तियों के आस-पास डबरा बना लेबेटे के पास, पत्नी के पास, मित्र के पास डबरा बना ले, तो प्रेम की धारा वहीं सड़ जाती है। फिर उस प्रेम से सिवाय दुर्गंध के और कुछ नहीं उठता। इसलिए सब परिवार दुर्गंध के केंद हो गए हैं। वे सब डबरे बन गए हैं, और डबरे में गंध आएगी। सब संबंध हमारे सड़ गए हैं। क्योंकि प्रेम जहां रुका, वहीं सड़ांध शुरू हो जाती है। किसी पति-पत्नी के बीच सड़ांध के सिवाय कुछ भी नहीं है। बाप और बेटे के बीच कुछ नहीं है।
जहां प्रेम रुका, वहीं उनकी निश्छलता गई, उसका निर्दोषपन गया, उसकी ताजगी गई। और हम अपने मन में इस डर से कि कहीं प्रेम सब पर बंट न जाए, रोकने की कोशिश करते हैं। सब रोकने की कोशिश करते हैं कि रुक जाए, तो शायद ज्यादा मिले। और मजा यह है कि रुका कि सड़ा, फिर तो मिलता ही नहीं। बढ़ जाए, फैल जाए, फैलता चला जाएजितना फैलेगा प्रेम, जितना अधिकतम तक पहुंचेगा, उतना ही वह प्रार्थना बनता चला जाएगा। और अंत में प्रेम बढ़ते-बढ़ते सागर तक पहुंच जाता है। तब वह प्रेम प्रार्थना बन जाता है।
तो ‘किससे’ का सवाल नहीं है, और किससे आपने पूछा, तो आप इसीलिए पूछ रहे हैं कि किससे बांधेें, राम से बांधें, कि कृष्ण से, कि महावीर से, कि बुद्ध से? तो वह जो व्यक्तिगत रूप से प्रेम बांधे हुए है, वैसे ही प्रार्थना तक बांधती है। अगर शिव के मंदिर जाने वाला पागल है, तो राम के मंदिर नहीं जाएगा। अगर कृष्ण का भक्त है, तो वह राम को नमस्कार नहीं करेगा। वह प्रार्थना भी बंधी हुई है। रास्ते पर इतने मंदिर पड़ते हैंअपना-अपना मंदिर है! मंदिर भी कहीं अपना-अपना हो सकता है? मंदिर भी अपना-अपना! मंदिर तो परमात्मा का हो सकता है। लेकिन सबके अपने-अपने मंदिर हैं। उन मंदिरों में भी संप्रदाय हैं। महावीर को ही माननेवाले एक ही मंदिर में मुकदमेबाजी करेंगे, क्योंकि किसी का महावीर कपड़े पहनता है, किसी का महावीर नंगा रहता है। नंगा रहनेवाला कपड़े नहीं पहनने देगा। कपड़े पहननेवाला नंगा नहीं रहने देगा। और झगड़ा जारी है! बड़े मजे की बात है।
मैंने एक घटना सुनी है कि एक गांव में गणेश का उत्सव होता है, गणेश निकलते हैं। सारे गांव के अलग-अलग लोग अलग-अलग गणेश बनाते हैं। सबके अपने-अपने गणेश हैं। ब्राह्मणों का गणेश अलग है, लोहारों का गणेश अलग है, बनियों का गणेश अलग है, शूद्रों के गणेश अलग हैं। और सबके गणेशों से उनका जलूस निकलता है। सबसे पहले ब्राह्मणों का गणेश होता है। नियम से ऐसा ही चलता हैै।
लेकिन उस दिन क्या हुआ कि ब्राह्मणों के गणेश के आने में जरा देरी हो गई और तेलियों के गणेश पहले पहुंच गए। जब ब्राह्मण आए, तब तक तेलियों का गणेश आगे हो गया, यह बरदाश्त के बाहर है। तुम तेलियों के गणेशऔर आगे हो गए! तो ब्राह्मणों ने कहाः हटाओ साले तेलियों के गणेश को! गणेश भी तेलियों का है? हटाओ उसको पीछे। कभी ऐसा हुआ है? ब्राह्मणों का गणेश आगे होता है। और तेलियों के गणेश को पीछे हटा दिया गया जबरदस्ती और ब्राह्मणों का गणेश आगे हो गया। अगर गणेश कहीं भी होंगे, तो अपनी खोपड़ी ठोक रहे होंगे।
गणेश से किसी को प्रयोजन है? अपना गणेश! और उसमें भी फर्क है!
प्रार्थना भी बंधती है, वह पूछती है कि किससे? किसकी प्रार्थना करें? किसी की भी नहीं। प्रार्थना का मतलब ही है, सबकी। वह जो समस्त फैला हुआ है, सर्व जो फैला हुआ है, उसके प्रति जो प्रेम का भाव है, उसका नाम प्रार्थना है।
यह हाथ जोड़ने का मामला नहीं है कि हाथ जोड़ लिया, निपट गए। चैबीस घंटे जीने का मामला है। इस तरह जीना है कि सबके प्रति प्रेम बहता रहे, तो प्रार्थना पूरी होगी। लेकिन बेईमानों ने तरकीबें निकाल ली हैं असली प्रार्थना से बचने की। वह दो मिनट में ही जाकर मंदिर में हाथ जोड़ कर लौट आते हैं। कहते हैं, हम प्रार्थना कर आए। ये तरकीबें हैं और बेईमानियां हैं। इस तरह तरकीब यह है कि हम किस तरह बच जाएं प्रार्थना से।
प्रेम ही प्रार्थना है। समस्त के प्रति प्रेम ही प्रार्थना है। हम ऐसे जीएं कि हमारा प्रेम रिक्त न होता हो। हम ऐसे जीएं कि प्रेम बढ़ता ही चला जाता हो। हम ऐसे जीएं कि प्रेम किसी पर रुकता न हो, ठहरता न हो। हम ऐसे जीएं कि धीरे-धीरे हमारा प्रेम बेशर्त हो जाए।
हमारा प्रेम हमेशा शर्तबंद होता है। हम कहते हैं, तुम ऐसा रहोगे, तो हम प्रेम करेंगे। तुम ऐसा करोगे, तो हम प्रेम करेंगे। तुम प्रेम करोगे, तो हम प्रेम करेंगे। जहां प्रेम पर शर्त लगी, कंडिशन लगी; वहां प्रेम सौदा हो गया और बाजार हो गया। जब मैंने कहा, तब प्रेम करूंगा, जब ऐसा होगा...।
सुना है मैंने, एक बहुत बड़े को...नाम लेना तो ठीक नहीं, क्योंकि नाम लेना इस मुल्क में बड़े खतरे की झंझट है...एक बड़े संत को जो कि राम के भक्त थे, कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया। उन्होंने कहा कि जब तक धनुषबाण हाथ नहीं लोगे, मैं सिर नहीं झुका सकता! बड़े मजे की बात है, प्रेम में भी शर्त कि धनुषबाण हाथ लोगे, तब हम सिर झुकाएंगे! मतलब, यह सिर भी शर्त से झुकेगा। हमारी पहले मानो, तब हम सिर झुकाएंगे। यह भक्त भगवान का भी मालिक बनने की, पजेसिव होने की कोशिश कर रहा है। वह कहता है, इस तरह व्यवहार करो, तब हम सिर झुकाएंगे। नहीं तो बात खत्म है, नाता-रिश्ता बंद!
यह जो हमारा मस्तिष्क है, यह प्रार्थनापूर्ण नहीं हो सकता। शर्त से बंधा हुआ आदमी कभी प्रार्थनापूर्ण नहीं हो सकता। बेशर्त। इसलिए नहीं कि तुम कैसे हो, इसलिए कि मैं प्रेम ही दे सकता हूं, प्रेम ही देना चाहता हूं, प्रेम ही देने की मेरी क्षमता है और कुछ मेरे पास नहीं है। तुम क्या करोगे, यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है।
बुद्ध के पास एक दिन सुबह-सुबह एक आदमी आया और उनके ऊपर थूक दिया। बुद्ध ने चादर से अपना मुंह पोंछ लिया और उस आदमी से कहा, ‘और कुछ कहना है? कोई आदमी आपके ऊपर थूके, तो आप यह कहेंगे या और कुछ कहेंगे? पास के भिक्षु तो क्रोध से भर गए। उन्होंने कहाः यह आप क्या पूछ रहे हैं? कुछ और कहना है?’
बुद्ध ने कहाः जहां तक मैं जानता हूं, इस आदमी के मन में इतना क्रोध है कि शब्दों से नहीं कह सका है, थूक कर कहा है। लेकिन मैं समझ गया कि इसे कुछ कहना है। क्रोध इतना ज्यादा है कि शब्द से नहीं कह पाता है, थूककर कहता है। प्रेम ज्यादा होता है, आदमी शब्द से नहीं कहता है, किसी को गले लगाकर कहता है। इसने थूककर जो कहा, वह हम समझ गए। अब और भी कुछ कहना है कि बात खत्म हो गई?’
वह आदमी तो हैरान हो गया। उसने यह तो सोचा ही नहीं था कि थूकने का यह उत्तर मिलेगा! उठ कर चला गया। रात भर सो नहीं सका। दूसरे दिन क्षमा मांगने आया। और बुद्ध के पैर पर पड़ गया, आंसू गिराने लगा। जब उठा, तो बुद्ध ने कहाः और कुछ कहना है? आस-पास के भिक्षुओं से कहाः अब क्या कहते हो! देखा न, मैंने तुमसे कल कहा। अब यह आदमी आज भी कुछ कहना चाहता है, लेकिन ऐसे भाव से भर गया कि आंसू गिराता है। शब्द नहीं मिलते, पैर पकड़ता है, शब्द नहीं मिलते। हम समझ गए कि तुम्हें कुछ और कहना है। उस आदमी ने कहाः कुछ और तो नहीं, यही कहना है कि रात भर मैं सो नहीं सका। क्योंकि मुझे लगा कि आज तक सदा आपका प्रेम मिला, थूक कर मैंने अपनी योग्यता खो दी। अब आपका प्रेम मुझे कभी नहीं मिलेगा।
बुद्ध ने कहाः सुना। आश्चर्य! क्या मैं तुम्हें इसलिए प्रेम करता था कि तुम मेरे ऊपर थूकते नहीं थे? क्या मेरे प्रेम करने का यह कारण था कि तुम थूकते नहीं थे? तुम कारण ही नहीं थे मेरे प्रेम करने में। मैं प्रेम करता हूं, क्योंकि मैं मजबूर हूं, और प्रेम के सिवाय कुछ भी नहीं कर सकता हूं।
एक दीया जलता है, कोई भी उसके पास से निकले। वह इसलिए थोड़े ही इसके ऊपर रोशनी गिरती है कि तुम कैसे हो। रोशनी दीये का स्वभाव है, वह गिरती है। कोई भी निकले; दुश्मन निकले, दोस्त निकले। दीये को बुझाने वाला दीये के पास आए, तो भी रोशनी गिरती है।
तो बुद्ध ने कहाः मैं प्रेम करता हूं, क्योंकि मैं प्रेम हूं। तुम कैसे हो, यह बात अर्थहीन है। तुम थूकते हो कि पत्थर मारते हो कि पैर छूते हो, यह बात निष्प्रयोजन है। इससे कोई संगति नहीं है। यह संदर्भ नहीं है। तुम्हें जो करना हो, तुम करो। मुझे जो करना है, मुझे करने दो। मुझे प्रेम करना है। मुझे प्रेम करना है, वह मैं करता रहूंगा। तुम्हें जो करना है, वह तुम करते रहना। और देखना यह है कि प्रेम जीतता है कि घृणा जीतती है!
यह आदमी प्रेमपूर्ण है। यह आदमी प्रेयरफुल है। यह आदमी प्रार्थनापूर्ण है। ऐसे चित्त का नाम प्रार्थना है।
उदयपुर; 5 जनू, 1969; दोपहर
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