छठवां-प्रवचन-(स्वतंत्रता, सरलता, शून्यता)
कल दो दिनों में थोड़ी बातें मैंने आपसे की हैं। पहले दिन..मनुष्य का जीवन असार में, स्वप्न में छाया में नष्ट हो सकता है; अधिक लोगों का नष्ट हो जाता है। उस संबंध में थोड़े से विचार आपसे कहे थे। दूसरे दिन..कौन सा जीवन छाया का और असार जीवन है, वासना का, तृष्णा का, कुछ होने की दौड़ का, उसके संबंध में, उस आधार के संबंध में हमने सोचा। आज मैं आपसे कहना चाहूंगा, किस मार्ग से, किस क्रांति से असार जीवन की तरफ दौड़ती हुई हमारी चेतना धारा सार्थक, सत्य और सारी की ओर उन्मुख हो सकती है। इसके पहले कि मैं उसकी चर्चा करूं, एक छोटी सी कहानी आपसे कहना चाहूंगा।एक राजा वृद्ध हो गया था। उसकी मृत्यु करीब आ गई। लगा कुछ ही दिन का और मेहमान है। दो उसके पुत्र थे। विचार में पड़ा, किसको राज्य का भार दे जाऊं? दोनों जुड़वां थे, कोई छोटा-बड़ा न था। कोई बड़ा-छोटा होता तो निपटारा कठिन न था। दोनों ही बराबर थे, दोनों ही कुशल थे, दोनों ही योग्य थे, दोनों ही प्रतिभाशाली थे, निर्णय बहुत कठिन था। कैसे निर्णय करें, कि पर जिम्मा छोड़ दे, कौन अंततः सार्थक सिद्ध होगा? तो गांव में, गांव के बाहर झोपड़े में एक फकीर रहता था। जब गांव में मुश्किल में कोई पड़ता तो उससे पूछने जाते थे। राजा भी गया। उसने जाकर उसी फकीर को पूछा, ऐसी-ऐसी उलझन है, क्या करूं? उस फकीर ने कहा, एक काम करो।
अपने दोनों लड़कों को थोड़े-थोड़े रुपये दे दो। दोनों लड़कों को, दोनों के, दोनों राजकुमारों के अपने महल थे। और दोनों से कहना कि इन थोड़े से रुपयों में कुछ ऐसी चीज लाओ कि पुरा महल भर जाए, पुरा महल भर जाए। बहुत थोड़े रुपये दिए और कहा कि पूरा महल भर जाए, ऐसी कुछ चीजें लाओ।
अब आपसे ही कोई कहता, मुझसे ही कोई कहता तो हम क्या करते? पूरा महल भर जाए, बड़े महल थे। बहुत चिंता पैदा हुई। बड़े लड़के ने, पहले-पहले ने, सोच विचार के तय कर लिया। वह कुछ चीजें ले आया और सारे महल को भर दिया। रुपये थे थोड़े महल था बड़ा सिवाय कूड़ा-करकट के और कुछ भी लाया नहीं जा सकता था। तो गांव के बाहर से उसने गाड़ियों में जहां कचरा था, वह ढुलवाया। रुपये तो कचरा ढोने में लग गए। कचरा तो मुक्त मिलता है। स्मरण रखें, कचरा मुक्त मिलता है, सिर्फ ढोने में शक्ति व्यय होती है। वह गया, उसने गांव से, बाहर से, जिस कचरे को लोग बाहर फेंक आए थे और बाहर फेंकने में पैसे खर्च किए थे, उसी कचरे को वह पैसा खर्च करके वापस महल में ले आया। सारे घर में कूड़ा-करकट भर दिया। और कोई रास्ता न था। पैसे थे कम, महल था बड़ा भरना था पूरा। सिवाय कूड़े-करकट के और भरने का कोई मार्ग नहीं था। दूर-दूर तक दुर्गंध फैलने लगी। परीक्षा का दिन निकट आएगा तब तक वह कचरे को भरता गया, भरता गया। जमीन से लेकर छप्पर तक उसने सारे महल को कचरे से भर दिया। फिर भी पैसे थोड़े पड़ गए, क्योंकि कचरा ढोना भी कोई आसान बात तो नहीं है। फिर दुर्गंध से वह खुद भी घबड़ा गया। लेकिन परीक्षा के दिन तक तो कम से कम दुर्गंध सहनी ही थी।
दूसरा लड़का भी चिंतित था, विचार में था। परीक्षा का दिन करीब आने लगा, लेकिन उसका महल सूना था। वह कोई निर्णय न ले पाया। उसने बहुत सोचा, कि मैं भी कचरा भर दूं, लेकिन उसने कहा, कचरे से भी भरना कोई भरना है? इससे तो खाली रहना बेहतर है। और कचरे से भरना, अगर भर के जीत भी गया और राज्य भी मिल गया तो भी क्या करेंगे? उससे तो हार जाना बेहतर और खाली रह जाना बेहतर है। कचरे को भरकर जीत जाने में भी कोई सार नहीं है। कचरा भर कर हार जाने में भी सारे है, ऐसे उसे लगा। बहुत चिंता में था। वह भी खोजता-ढूंढता उस फकीर के पास गया जिसने यह सलाह दी थी। सुबह का वक्त था, उसने जाकर फकीर को पूछा, मैं क्या करूं? बहुत उलझन में हूं। पूरा भवन भरना है, पैसे बहुत थोड़े हैं।
फकीर ने कहाः मुझसे क्या पूछते हो? बाहर जाओ, आंख खोल कर देखो, रास्ता मिल जाएगा। दुनिया में जो जानते रहे हैं, उन्होंने सभी ने यही कहा है, आंख खोल कर देखो, रास्त मिल जाएगा। वह बाहर आया, उसने आंख खोल कर देखा, रास्ता मिल गया, वापस लौटा, सांझ को परीक्षा की घड़ी आ गई, तब तक उसका महल खाली था। अमावस की रात उतर आई। महल खाली था।
राजा, राजा के मंत्री निर्णायक सब आए। एक घर में तो इतना कचरा, इतनी गंध थी कि निर्णायक भीतर भी नहीं जा सके। उन्होंने कहाः मान लिया कि भर गया है, लेकिन भीतर कौन जाए? वे सब चिंतित थे, दूसरा महल खाली था अभी भी, अब द्वार बंद थे। पहला राजकुमार भी हैरान था कि दूसरे राजकुमार ने क्या किया? क्या वह प्रतियोगिता से हट गया? क्या उसने प्रतिस्पर्धा छोड़ दी? क्या राज्य लेने का उसका ख्याल नहीं रहा? क्या उसने हार स्वीकार कर ली? क्योंकि न तो कोई सामान लाता हुआ देखा गया, न कोई बैलगाड़ियां आईं, न कोई मजदूर आए, न कोई भीतर आया, न कोई बाहर गया। फिर सारे निर्णायक और राजा उसके द्वार पर पहुंचे। द्वार खोले गए, राजा भी हैरान हुआ, उसने पूछाः यह तो भवन खाली है। राजकुमार ने कहाः आंखें खोलिए और देखिए, भवन भरा हुआ है। और वे सब दूंगा रह गए, भवन जरूर भरा था। राजकुमार ने बहुत से दीये जला दिए थे और प्रकाश से भवन भरा हुआ था। बहुत पैसे बच गए थे, थोड़े में ही काम हो गया था। और कुछ भी न लाना पड़ा था, दीये भी भवन में थे, तेल भी भवन में था, बाती भी भवन में थी। आगे भी भवन में थी। केवल उन सबको जोड़ देना था। अमावस की रात थी, वह भवन प्रकाश से भरा हुआ था। उसका कोना-कोना प्रकाश से भरा हुआ था। और भवन जब प्रकाश से भरता है तो खुद ही नहीं भरता, द्वार, झरोखों से, खिड़कियों से प्रकाश बाहर जाने लगता है। कचरा भरता है तो गंध बाहर पहुंचती है, प्रकाश भरता है तो आलोक बाहर पहुंचता है। वह जीत गया। लेकिन उसने राज्य लेने से इनकार कर दिया। उसने कहा, मेरे दूसरे भाई को दे दें, क्योंकि अब मुझे दिखाई पड़ता है कि राज्य भी एक कचरा है, उससे अपने जीवन को क्यों भरूं? जब प्रकाश में भवन को भरा है तो प्रकाश से स्वयं को भी भरने की प्यास पैदा हो गई है।
दो ही तरह के लोग हैं..कचरे से जीवन को भर लेने वाले और तब उनके जीवन में अगर दुर्गंध फैलने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं है। और प्रकाश से जीवन को भर लेने वाले और तब उनसे दूसरों के दीए भी जल जाए और दूसरे के अंधेरे कक्षों तक भी प्रकाश पहुंच जाए तो भी कोई आश्चर्य नहीं है। और हमेशा यही निर्णय कर लेने का है। जीवन की संपदा है थोड़ी, रुपए मिले हैं, थोड़े, समय है अल्प और पूरे जीवन को भरना है तो जल्दी में कचरा ही दिखाई पड़ता है। जल्दी से उसी से भरने में हम लग जाते हैं। लेकिन थोड़ा ठहरें, थोड़ा विचार करें, कचरे से भर कर जीत भी गए तो वह भी जीत नहीं है। उससे तो बेहतर है, खाली रह कर हार जाना। लेकिन ऐसा भी उपाय है कि भवन भी खाली हो और भर भी जाए। प्रकाश ऐसी ही भरावट है। भवन खाली भी होता है और भर भी जाता हैं। जीवन को भी प्रकाश से भरा जा सकता है।
कैसे? इन दो दिनों में थोड़ी सी मैंने भूमिका की बात की है। आज आपसे कहूं, कैसे जीवन को प्रकाश से भरा जा सकता है? क्या है बाती? क्या है तेल? क्या है दिया और कैसे इसे जलाया जा सकता है? मनुष्य के भीतर सब कुछ मौजूद है। बुद्ध के भीतर जो मौजूद होगा, राम के, या कृष्ण के या क्राइस्ट के या महावीर के भीतर जो मौजूद होगा वह हम सबके भीतर मौजूद है। लेकिन अगर बाती अलग पड़ी रहे, तेल अलग और आग अलग, तो दीया नहीं जलता और प्रकाश नहीं फैलता। इन सबका ठीक संयोग हो जाए तो जीवन आलोक से भर जाता है। इस संयोग का नाम ही धर्म है। सारी शक्तियां हमारे भीतर हैं, उन्हें ठीक संयोग का नाम ही योग है। उनके ठीक से संयोग का नाम ही धर्म है। धर्म जीवन को आलोक से भरने का उपाय है।
यह धर्म कैसे उपलब्ध होगा, उसके तीन सूत्रों पर मैं आपसे चर्चा करना चाहूंगा।
पहली बात है, चित्त की स्वतंत्रता; दूसरी बात है, चित्त की सरलता; तीसरी बात है, चित्त की शून्यता। ये तीन सूत्र यदि जीवन में फलित हों तो दीए से तेल जुड़ता है, तेल से बाती, बाती से आग और जीवन आलोक से भर जाता है।
चित्त की स्वतंत्रता..लेकिन हम सबके चित्त तो परतंत्र हैं। हम तो अपने चित्तों में, हम तो अपने मनों में दूसरों के दास और गुलाम बने हुए हैं। और मन की गुलामी बहुत गहरी है। मन की गुलामी और दासता से और कड़ी कोई गुलामी नहीं है। हम सोचते ही नहीं, सोच ही नहीं सकते, क्योंकि शास्त्रों से, शब्दों से, सिद्धांतों से, संप्रदायों से हमारे मन कैद है, आबद्ध हैं हम जब भी सोचते हैं तो जीवन से हमारा चिंतन शुरू नहीं होता, चिंतन हमारा शब्दों और सिद्धांतों से शुरू होता है। ऐसे सिद्धांतों से, ऐसे शास्त्रों से जिन्हें हम अज्ञान में ज्ञान समझ लिया है, जिन्होंने हमने अज्ञान में ज्ञान समझ लिया है, जिन्हें हम ज्ञान मान कर बैठ गए हैं, जिन्हें पकड़ कर हम रुक गए हैं; जिनके आधार पर हम सोचते हैं, विचार करते हैं। जब भी किसी सोच-विचार में कोई पूर्वपक्ष होता है, कोई प्रिज्युडिस होती है, तभी चिंतन परतंत्र हो जाता है, तब सोच-विचार बंद हो जाता है, विश्वास शुरू हो जाता है। धर्म को लोग विश्वास से, फेथ से जोड़े हुए हैं जब कि वास्तविक धर्म का संबंध विश्वास से, फेथ से रचना मात्र भी नहीं। फेथ से रंचमात्र भी नहीं है। अंधविश्वास का संबंध फेथ से है, विश्वास से है, बिलीफ से है, श्रद्धा से है। वास्तविक धर्म का संबंध विचार से है, विवेक से है, मौलिक चिंतन से है।
कैसे मौलिक चिंतन की ऊर्जा हममें प्रकट हो? कैसे चित्त स्वतंत्र हो, मुक्त हो बंधन से, उन सबसे जो हमारे मन को बांधे हुए हैं? कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन है। ये सब गुलामियों के नाम हैं, ये सब स्लेबरीज हैं, ये सब दासताएं हैं। और जब तक इनसे हम बंधे हैं, तब तक चिंतन मुक्त नहीं हो सकता। और जो मुक्त नहीं है वह सत्य को पाने में कैसे समर्थ होगा? सत्य को पाने के लिए मुक्त होना आवश्यक है। ये सारी जंजीरें तोड़ देना जरूरी हैं। जो हिंदू और जैन और मुसलमान और ईसाई और बौद्ध इन जंजीरों से मुक्त हो जाता है उसे धर्म की स्वतंत्रता उपलब्ध होती है। और जो इनसे बंधा रहता है वह संप्रदायों के घेरों में मर जाता है, सड़ जाता है, विलीन हो जाता है। लेकिन धर्म का आलोक, धर्म की मुक्ति उसे उपलब्ध नहीं हो पाती। चित्त इन संस्कारों से बहुत गहरा घिरा है। हम सोचें, हम देखें, हम थोड़ा जागें तो हमें ज्ञात होगा, हम बहुत सी बातें माने हुए बैठे हैं, बहुत सी मान्यताएं पकड़े हुए बैठे हैं। हम बहुत से सिद्धांतों को अपने मन में जमाए बैठे हैं। ऐसी परतंत्र स्थिति में, ऐसे अज्ञान में पकड़े गए विश्वासों में विवेक कैसे उठेगा? कैसे विवेक मुक्त होगा, कैसे विवेक को पर मिलेंगे, कैसे वह आकाश में उड़ सकेगा? जैसे हमने किसी पक्षी को पिंजड़े में बंद कर दिया हो, उसके प्राण छटपटाते हों, वैसे ही हम सबके विवेक की शक्ति पिंजड़े में बंद है और छटपटाती है और छूट पाती। और फिर बड़ा मजा है...और यह स्मरण रखे योग्य है कि अगर कोई पक्षी बहुत दिन तक पिंजड़े में बंद रह जाए तो पिंजड़े से प्रेम करना शुरू कर देता है। फिर अगर कोई उसका पिंजड़ा तोड़ने आए तो वह उसे दुश्मन मालूम होता है। अगर मैं आपका पिंजड़ा तोड़ने आऊं तो दुश्मन मालूम होऊंगा।
बैस्तील के किले में फ्रांस की क्रांति के समय बहुत से कैदी बंद थे। पुराने कैदी..लंबी जिनको सजा हुई ऐसे कैदी, आजीवन जिनको कैद हुई ऐसे कैदी..कोई बीस साल से बंद था, कोई तीस साल से। ऐसे कैदी भी थे जो पचास और पचपन साल से अपनी कालकोठिरयों में बंद थे। इन पचास सालों में उनके हाथों में मोटी जंजीरें रही थीं, पैरों में जंजीरें रही थीं, अंधेरा रहा था, आंखें उनकी मंदी हो गई थीं। रोज रोटी मिल जानी और अपनी सीलन भरी कोठरी में पड़े रहना। फ्रांस में क्रांति हुई, क्रांतिकारियों ने सोचा जाए और बैस्तील के किले को तोड़ कर कैदियों को मुक्त कर दें। कितना उन्हें आनंद नहीं होगा! वे गए उन्होंने द्वार तोड़े और कैदियों को कहाः तुम स्वतंत्र हो। लेकिन कैदी बाहर आए, उनकी आंखें रोशनी को देखते ही चैंधिया गईं। वह घबड़ा गए। उनमें से उनके कहने लगे, हमें हमारी कोठरियां में रहने दें, हम पर कृपा करें, हम बहुत मजे में हैं। फिर भी उन्होंने धक्के देकर जबरदस्ती उन्हें बाहर निकाल दिया। लेकिन जबरदस्ती कोई किसी को मुक्त कर सकता है? जबरदस्ती परतंत्र तो कर सकता है, लेकिन स्वतंत्र नहीं कर सकता। जबरदस्ती बांध तो सकता है, लेकिन छुड़ा नहीं सकता। कैदियों को उन्होंने जबरदस्ती धक्के देकर बाहर निकाल दिया। क्या आप कल्पना करेंगे, सांझ होते-होते बहुत से कैदी वापस आ गए और उन्होंने कहाः बड़ी दया होगी, हम कहीं भी नहीं जाना चाहते। अब हम यहीं रहना चाहते हैं। बिना हथकड़ियों के हाथ हाथ ही नहीं मालूम होते। पचास साल तक हथकड़ी पर थी, अब उसके बिना ऐसा लगता है, हाथ हाथ नहीं हैं।
जैसे आप अपने कड़े छोड़ कर नंगे खड़े हो जाए तो आपको लगे कि यह क्या हो गया? यह कपड़ा ही नहीं है, यह शरीर का हिस्सा हो गया है। इसे छोड़ कर आपको ऐसा लगेगा, मैं कुछ अधूरा हूं, कुछ कम हूं। हलका लगेगा, भार अलग हो जाएगा, अपरिचित मालूम होंगे, अपने से ही अपरिचित मालूम होंगे। हथकड़ियां उनके जीवन का हिस्सा हो गई थीं, उनके शरीर का अंग हो गई थे। गुलामी मन का हिस्सा हो जाती है और तब उसे तोड़ना बड़ा कठिन हो जाता है। और हजारों साल तक अगर गुलामी की शिक्षा दी जाए। और लोगों से कहा जाए विश्वास करो शास्त्रों पर, गुरुओं पर धर्मग्रंथों पर, सिद्धांतों पर, संप्रदायों पर। और जो विश्वास नहीं करेगा वह कष्ट पाएगा, दुख पाएगा, पाप होगा। अगर हजारों वर्ष यह बात कही गई हो, यह हमारे मन के बहुत गहरे में जंजीरें बैठ जाती है। इनको लेकर हम पैदा होते हैं और तब फिर इनको तोड़ना बड़ा मुश्किल मालूम होता है। बुत मुश्किल मालूम होता है। ये हमारे खून और हड्डी के हिस्सा हो जाते हैं। लेकिन बिन इन्हें तोड़े, बिना स्वतंत्र हुए, बिना मुक्त हुए कोई मार्ग नहीं है।
तोड़ना ही होगा, चाहे कितनी ही पीड़ा हो। जंजीरें तोड़नी ही होंगी, चाहे कितनी ही पीड़ा हो। क्योंकि यह संभव नहीं है कि मैं जंजीरों को भी बचा लूं और परमात्मा की ओर गति भी कर लूं। यह संभव नहीं है कि नाव किनारे से भी बंधी रहे और सागर की यात्रा भी हो जाए। यह संभव नहीं है, यह कभी संभव नहीं हुआ है, न कभी संभव हो सकता है।
चित्त स्वतंत्र होना चाहिए। हमने परतंत्र किया है, इसलिए हम स्वतंत्र कर सकते हैं। हमारा सहयोग है परतंत्र करने में। इसलिए अगर हम जागें और समझें कि यह हमने बांधा हुआ है इसे तोड़ देना कठिन तो है, असंभव नहीं है। और अगर सम्यक रूप से हम अपने मन के भीतर प्रवेश करें और वहां बैठी हुई जंजीरों को पहचान लें..जो जंजीरों को पहचान लेने में एक खूबी है। अगर जंजीरें दिखाई पड़नी शुरू हो जाए तो उनके साथ जीना कठिन हो जाता है। अगर अनुभव में आना शुरू हो जाए कि मैं बंधा हूं तो छूटने की आकांक्षा शुरू हो जाती है। अनुभव ही हमें नहीं है।
एक जादूगर के संबंध में मैंने सुना है, उसके पास जो भेड़ें थीं, उन सबको हिप्नोटाइज करके, उन सारी भेड़ों को सम्मोहित करके उस जादूगर ने कह रखा था, तुम भेड़ नहीं हो, तुम तो शेर हो, सिंह हो। सारी भेड़ें मानती थीं हम शेर हैं, हम सिंह हैं इसलिए मजे से जीती थीं। दूसरी भेड़ें तो भेड़ें दिखाई पड़ती थीं, खुद सिंह मालूम होती थीं। जब एक भेड़ को काट कर जादूगर खा जाता था तो दूसरी भेड़ें कोई फिकर नहीं करती थीं, क्योंकि उनको तो ख्याल था, हम सिंह है। दूसरी भेड़ें कटती जाती और मरती जातीं और हर भेड़ का नंबर धीरे-धीरे आता जाता। जादूगर से किसी ने पूछा कि तुम्हारी भेड़ें भागती नहीं, हमारी भेड़ें तो भागती हैं। जादूगर ने कहा, इनको हमने समझा दिया है, इनके बहुत गहरे मन में बिठा दिया है कि तुम तो सिंह हो, तुमको कौन मार सकता है? और यह समझ इन्हें हमसे बांधे रहते है।
हम सबको सिखाया गया है, आप तो स्वतंत्र हैं, जब कि आप बहुत गहरे में गुलाम हैं। इसलिए स्वतंत्रता का मजा हम लेते रहते हैं, बगैर इस बात को जाने हुए कि हमारे पूरे प्राण गुलाम हैं। और हम थोथी आजादियां तो खोजते रहते हैं कि एक मुल्क से दूसरा मुल्क आजाद हो जाए, एक जाति से दूसरी जाति आजाद हो जाए; लेकिन बहुत गहरे में हमारा चित्त, हमारा मन, हमारी चेतना मुक्त हो, स्वतंत्र हो, यह न हम खोजते हैं, न हमें ख्याल आता है, क्योंकि हमें सिखलाया ही यह गया है कि मन तो मुक्त है ही, स्वतंत्र है ही। मन तो गुलाम है ही नहीं, मन तो राजा है। झूठी है यह बात। मन बिल्कुल ही गुलाम है। और जब तक यह दिखाई न पड़े..भेड़ को अगर यह अनुभव न आ जाए कि मैं भेड़ हूं, तो फिर उस जादूगर से भयभीत हो जाएगी क्योंकि तब वह हत्यारा दिखाई पड़ेगा। अगर आपको दिखाई पड़ जाए कि जिन मंदिरों में आज सिर झुका रहे हैं, जिन पुजारियों, धर्म पुरोहितों, संन्यासियों के पैर छू रहे हैं, जिन धर्मग्रंथों को सिर पर लेकर घूम रहे हैं, अगर आपको ख्याल आ जाए थक इसी सबमें आपके चित्त का बंधन छिपा हुआ है तो बहुत स्थिति बदल जाएगी। आपको दिखाई पड़ेगा, यह तो कड़ियां हैं, जो मुझे बांधे हुए हैं। और हम इन कड़ियां को चूम रहे हैं और नमस्कार कर रहे हैं। नहीं, जिन लोगों ने भी..महावीर ने या बुद्ध ने या क्राइस्ट ने सत्य को पाया होगा, उन्होंने किन्हीं कड़ियों में बंधे रह कर नहीं पाया है, बल्कि सारी कड़ियां तोड़ कर पाया है। लेकिन हम उनको ही अपनी कड़ी बना लगते हैं। जो स्वतंत्र हुए हैं, वही उनके बंधन होने का कारण बना लेते हैं।
महावीर का एक शिष्य था गौतम। बहुत वर्ष तक महावीर के पास था। प्रमुख था, बहुत से शास्त्र महावीर के पीछे जो लिखे गए, उनके गौतम का हाथ है। वह उसी ने लिखवाए, उसी ने लिखे ने उनको याद रखा। लेकिन महावीर के मरते तक उसको सत्य के कोई दर्शन नहीं हुए थे। महावीर को उसने पूछा कि क्या कारण है कि मैं घर छोड़ कर आ गया, पत्नी, बच्चे, धन, संपत्ति सब छोड़ दिए, अब मेरे पास छोड़ने को क्या है? लेकिन सत्य का अनुभव क्यों नहीं होता? महावीर ने कहा, तूने सब छोड़ा, लेकिन मुझे पकड़ लिया है। संसार छोड़ा, बच्चे, पत्नी, घर-द्वार, लेकिन मुझे पकड़ लिया। बच्चे और पत्नी छोड़ देना कठिन नहीं है। वह चित्त की बहुत गहरे में गुलामी नहीं है। चित्त के गहरे में गुलामी और भी ज्यादा दूसरी है। महावीर ने कहा, तूने मुझे पकड़ लिया। मैं तेरी गुलामी हो गया हूं। मुझे भी छोड़। लेकिन महावीर को छोड़ना बड़ा कठिन है। बुद्ध को छोड़ना, मोहम्मद को, क्राइस्ट को, राम को छोड़ना बड़ा कठिन है। इनसे तुम्हारे प्राण बंध गए हैं। वह सब मिलकर भी आपके सामने आकर कहें कि कृपा करो, हमको छोड़ दो तो उनके कहने के बाद आप उनको धन्यवाद दोगे और उनके पैर पड़ोगे कि आपने बहुत अच्छी शिक्षा दी, और सदा-सदा हमको इसी भांति सम्हाले रहना। और आपकी कृपा ही तो भवसागर जरूर पार हो जाएगा।
बुद्ध ने लोगों से कहा कि मेरी मूर्तियां मत बनाना। लेकिन इस समय बुद्ध की जितनी मूर्तियां हैं जमीन पर, और किसी की नहीं हैं। पर्सियन और उर्दू में तो बुत शब्द है। बुत, वह बुद्ध का ही रूपांतर है। बुत का मतलब ही मूर्ति हो गया। इतनी मूर्तियां हैं बुद्ध की, बुद्ध शब्द का अर्थ ही बुत, मूर्ति हो गया। और बुद्ध ने कहा था, मेरी मूर्ति मत बनाना। क्योंकि मूर्ति बांध लेती है और पकड़े लेती है और जकड़ लेती है। लेकिन बुद्ध को जो मानते हैं, उनकी मूर्ति के नीचे सिर रखे बैठे हैं और पूछ रहे हैं कि तुम भगवान हो।
महावीर ने लोगों से कहाः कोई भगवान नहीं है, किसी की पूजा मत करो, अपने को बदलो। लोगों ने कहाः भगवान आ गया, भगवान का अवतार आ गया। महावीर के पैर पकड़ लिए और हजारों साल से उनको भगवान महावीर कहे जा रहे हैं। एक जगह मैं इन महावीर भगवान के पागलों के बीच में बोलने गया था, तो मैंने कहाः महावीर, तो एक ने मुझसे कहाः कृपा करें, कम से कम भगवान तो जोड़ें! अकेला महावीर कह देते है तो हमको बड़ा दुख होता है। तो मैंने कहाः तुम्हें शायद पता भी न हो, महावीर ने कहा है, कोई भगवान नहीं है। जिसकी तुम प्रार्थना करो और पूजा करो, जो तुम्हें मुक्त कर दे। तुम्हीं हो भगवान अगर तुम खोजोगे तो उपलब्ध कर लोगे। लेकिन इस बात को सुन कर तुमने महावीर को भगवान बना लिया, और तुम महावीर को भगवान मान कर पकड़ कर बैठ गए। पुराना भगवान हटा, महावीर का मंदिर खड़ा हो गया। विष्णु की, राम की पूजा हटी तो महावीर का मंदिर खड़ा हो गया। विष्णु की, राम की पूजा हटी तो महावीर की पूजा शुरू हो गई।
हम कुछ ऐसे लोग हैं कि एक दासता छोड़ते हैं, तत्क्षण दूसरी पकड़ लेते हैं। जब दूसरी पकड़ने का रास्ता पूरा तैयार हो जाता है तभी हम पहली छोड़ते हैं। दासताएं बदलती जाती हैं आदमी का मन नहीं बदलता। वह मन वही का वही है। कम्युनिस्ट हैं, उन्होंने सब छोड़ दिया। कहा कि धर्म है अफीम का नशा और यह सब है पाखंड। इसलिए राम को छोड़ो, कृष्ण को छोड़ो, क्राइस्ट को छोड़ो, उन्होंने सब मंदिर खाली करवा दिए, और उन्हें पता भी न रहा कि मंदिर, इधर से उन्होंने मूर्तियां खाली कीं। पीछे से माक्र्स की, एंजिल्स की, लेनिन की, स्टैलिन की मूर्तियां आ गईं। यहां उन्होंने पुरानी कब्रें उखाड़ीं और क्रेमलिन के पास लेनिन की कब्र बना दी और उस पर हर साल पूजा करते हैं और फूल चढ़ाते हैं और सलामी देते हैं। मंदिर बदल जाते हैं, मूर्तियां बदल जाती हैं लेकिन भगवान कायम रहता है क्योंकि हमारी गुलामी नहीं बदलती। तो कम्युनिस्ट राम से छुड़ा देते हैं, कृष्ण से क्राइस्ट से तो फिर लेनिन और माक्र्स। बाइबिल, गीता और कुरान को कह देते हैं। कचरा तो फिर दास कैपिटल को लिए सिर पर घुसते हैं। तो फर्क नहीं पड़ता।
तो फिर अगर बहुत हिम्मत की तो दास कैपिटल को भी जोड़ देते हैं राम, कृष्ण सब छुट जाते हैं तो फिर साइंस का सुपरस्टीशन पैदा होता है। आइंस्टीन जो कहता है, वह सत्य। न्यूटन जो कहता है, वह सत्य। चाहे आइंस्टीन ही चिल्लाकर कहता रहे कि हमें सत्य का कोई पता नहीं, हम तो सत्य के आस-पास थोड़ा बहुत सोचते हैं, विचारते हैं, काम चल जाता है। सत्य का हमें कोई पता नहीं। लेकिन फिर विज्ञान का धर्म पैदा होना शुरू हुआ। पुराने मनीषी और ऋषि हटे तो वैज्ञानिक उनकी जगह बैठने शुरू हो गए। लेकिन हमारा चित्त गुलामी नहीं छोड़ता। मालिक बदल लेता है, लेकिन गुलामी नहीं छोड़ता। मैं आपसे कहना चाहता हूं, मालिक बदलने में अर्थ नहीं है, गुलामी तोड़ देने में अर्थ है। चित्त को मुक्त करिए, सत्य कोई भी आपको नहीं दे सकता। सत्य किसी ग्रंथ से और गुरु से नहीं मिल सकता। और सत्य किसी संप्रदाय की बपौती नहीं है। और परमात्मा किसी मंदिर में कैद नहीं है। जीवन है सत्य, जीवन है, शास्त्र, जीवन है परमात्मा। इस पढ़िए, इसे देखिए; नहीं तो बड़ी भूल हो जाती है। रवींद्रनाथ एक बजरे पर थे रात में और सौंदर्य शास्त्र पर एक ग्रंथ पढ़ते थे, एस्थेटिक्स पर एक ग्रंथ पढ़ते थे। सौंदर्य के प्रेमी थे तो सौंदर्य का ग्रंथ पढ़ते थे। रात देर तक दो बज गए होंगे। जलाए हुए दीये को नाव में अपने बजरे के झोपड़े में बैठे हुए सौंदर्य शास्त्र का ग्रंथ पढ़ते रहे। फिर किताब बंद की, थक गए, दीया बुझाया। दीया बुझाते ही चैंक गए। ग्रंथ पढ़ने में लगे थे, बाहर पूर्णिमा का चांद झोपड़े के बाहर खड़ा था। नदी की लहरों पर उसकी चांदनी बिखर रही थीं। आकाश सन्नाटे और मौन में था। छोटी सी बदलियां आकाश में तैर रही थीं। खिड़की पर जाकर खड़े हुए और माथा ठोक लिया और कहा कि मैं सौंदर्य शास्त्र को पढ़ने में समय गंवाता रहा और सौंदर्य द्वार पर खड़ा हुआ है। सौंदर्य द्वार पर खड़ा हुआ है, हम सौंदर्य शास्त्र पढ़ रहे हैं। परमात्मा भगवान के बाहर दस्तक दे रहा है, हम रामायण पढ़ रहे हैं।
जीवन है छोटे-छोटे पौधों में, पक्षियों में, इस चारों तरफ व्याप्त जगत में सारा रहस्य प्रकट हो रहा है। हम आंखें फोड़ रहे हैं, कंदील जलाकर धुआं ले रहे हैं उसका और किताबें पढ़ रहे हैं।
नहीं, किताबों में नहीं है, न शब्दों में है। सत्य है बहुत विराट। कोई किताब उसे अपने में नहीं छिपा सकती। सत्य है बहुत अनंत। कोई शब्द उसे अपने में नहीं समा सकता। सत्य के बहुत विराट; क्षुद्र वाणी उसे प्रकट नहीं कर सकती। लेकिन प्रकट हो रहा है अनंत-अनंत रूपों में। चारों तरफ आंख खोल कर देखने की बात है। लेकिन अब आपको भगवान का ख्याल आता है तो आप मंदिर में भागे हुए जाते हैं। अब भगवान का ख्याल आए तो दीवालों से बाहर आए, दीवालों के भीतर न जाए क्योंकि दीवालें बांधती हैं, दीवालें रोकती हैं। दीवालें तोड़ दें और मुक्त हों। चित्त पर सारी दीवालें तोड़ देनी जरूरी हैं। और जब चित्त पर कोई दीवाल न रह जाए, किसी ग्रंथ की, किसी शब्द की, किसी सिद्धांत की तो एक अभूतपर्व क्रांति घटित होती है..चित्त स्वतंत्र होता है। चेतना जागती है और मुक्त होती है उसके बंधन और कड़ियां गिरती हैं और उसमें पौरुष और गरिमा जाती है। उसे स्मरण आता है अपने होने का। मैं हूं, उसका बोध जगता है।
लेकिन हम यदि बंध रहें, यह बोध कभी पैदा नहीं होगा। हम अगर जमीन पर घिसटते रहें, तो यह बोध कभी पैदा नहीं होगा। यह बोध पैदा करने के लिए साहस की, विचार की जरूरत है।
इन तीन दिनों में बहुत सी बातें मैंने कहीं हैं, बहुत सी चोटें की हैं, सिर्फ इसी ख्याल से कि यदि आपको अपनी जंजीरें मालूम हों, उन्हें तोड़ने का बोध पैदा हो तो आपको दिखाई पड़ेगा कि चित्त के सारे के संसार, चित्त की सारी कंडीशनिंग, चित्त में बैठे हुए सारे विचार आपको परतंत्र किए हुए हैं। क्या कभी आपने यह ख्याल किया कि जो भी विचार आपके भीतर बैठे हैं, वे आइडियालॉजी, उनमें कोई भी आपकी अपनी नहीं है, किसी और ने आपको दी हैं, उधार हैं, दूसरे से आई हैं? कभी आपने ख्याल किया है कि उनमें से कुछ भी आपसे पैदा नहीं हुआ है? सब दूसरों का है, उधार है, सब संग्रह है, हमने बाहर से इकट्ठा कर लिया है। विचार तैर रहे हैं हवाओं में, हम उन्हें इकट्ठा किए जा रहे हैं। फिर हम कहते हैं, मेरा संप्रदाय, मेरा शास्त्र। आपका इसमें कुछ भी नहीं है। सब आपने औरों का गिन लिया।
बुद्ध कहा करते थे, मेरे गांव में एक ऐसा युवक था, नदी के किनारे बैठ कर दूसरों की गाय-भैंसे बिना करता था। अहीर था, उसके पास कोई गाय-भैंस नहीं थी तो वह दूसरों की गाय-भैंस निकलती थीं, उनकी गिनती किया करता था कि गांव में किसकी कितनी भैंस हैं, किसकी कितनी गाय, किसके कितने बैल! तो लोगों ने उससे कहा कि तू अपना जीव व्यर्थ गंवा रहा है। दूसरों की गाय-भैंस गिनने से क्या होगा? तो अपनी भी कोई गाय-भैंस है?
हमसे कोई पूछे, हमारा अपना कोई अनुभूतिजन्य विचार है? या कि हम दूसरों के विचार गिन रहे हैं, दूसरों की गाय-भैंस गिर रहे हैं? राम ने क्या कहा, बुद्ध ने क्या कहा, महावीर ने क्या कहा, क्राइस्ट ने क्या कहा, इसको गिन रहे हैं कि हमारा भी कोई अपना विचार जन्मा है? अपने विचारों को पकड़ें और परखें, आप पाएंगे सब पराए हैं। और जो पराए का है, वह शक्ति नहीं बन सकता। जो पराए का है, उसकी आपके भीतर जड़ें ही नहीं हैं। वे तो कागज का फूल हैं जो हम बाजार से खरीद लाए हैं और घर में लटका लिए हैं। न इनमें गंध हैं, न इनमें प्राण है। अपने फूल पैदा करने हो तो पौधे लगाने पड़ते हैं, बीज बोने पड़ते हैं, बगीचा सम्हालना पड़ता है। उनकी जड़ों को पानी देना पड़ता है। सुरक्षा करनी पड़ती है, तब अपने पौधे लगते हैं और उनमें बीज अंकुरित होता है, फूल बनता है, सुगंध आती है। वह फिर जीवित फूल होता है। जीवित विचार और बात है। मृत विचारों को संकलित कर लेना, डैड थॉटस को इकट्ठा कर लेना और बात है। चित्र परतंत्र हो जाता है अगर मृत विचार संगृहीत हो जाए। और चित्त मुक्त होता है अगर इन मृत विचारों से छुटकारा पा लें।
पहले तो बहुत दरिद्रता मालूम होगी। लगेगा, मैं तो सब खो बैठा जब कोई भी विचार मेरा नहीं है तो मैं तो अज्ञानी हो गया। लेकिन यह अज्ञान बहुत डिवाइन है। यह अज्ञान बहुत डिवाइन इग्नोरेंस है, यह बहुत दिव्य है, भागवत है। क्योंकि साफ होगी, उधार फूल अलग होंगे, कागज के फूल फेंक दिए जाएंगे। भूमि साफ होगी तो अपने बीज बोए जा सकते हैं।
एक माली बगीचा तैयार करता है। घास को उखाड़ता है, फिजूल झपड़ों को अलग करता है, घास को अलग करता है, जमीन को खोदता है, कंकड़-पत्थर अलग करता है, फिर सुरक्षा करता है, फिर बागुड़ लगता है। फिर बीज बोता है, फिर पानी सींचता है, श्रम करता है। फिर प्रतीक्षा करता है, प्रेम करता है, प्रतीक्षा करता है, तब पौधे जन्मते है। फिर बढ़ते हैं और तब उनमें फूल आते हैं। स्वयं का विचार भी ऐसे ऊपर से नहीं थोपा जाता। वह भी सब घास-पात उखाड़ कर फेंक देनी पड़ती है। यह सब घास-पात है जो हमने बाहर से इकट्ठा कर ली है। इसे लगाना नहीं पड़ता है, इसके बीज हवा में उड़ते रहे हैं। आप अपने घर को थोड़े दिन के लिए खाली छोड़ दें, उसमें घास-झंखाड़ आपने आप पैदा हो जाएगा। उसे लगाना नहीं पड़ता, उसे उखाड़ना पड़ता है। लेकिन अगर सुंदर फूल आपको लगाने हो तो लगाने पड़ते हैं, जमाने पड़ते हैं। अगर अपने विचार को जगाना हो तो लगाना पड़ता है। अगर दूसरों के विचारों से काम चलाना हो तो आप कुछ न करें, वह अपने आप उनके बीज हवाओं में उड़ रहे हैं। वह आपमें बैठ जाएंगे और घास उगा देंगे और आपके भवन को कचरे से भर देंगे। गाड़ियां ले जाकर बाहर से लाना भी नहीं पड़ेगा। लेकिन, प्रकाश का कुछ और रास्ता है। गंध का, फूल का कुछ और रास्ता है।
पहली शर्त है, चित्त स्वतंत्र हो। विचार के जन्म की, विवेक के जन्म की पहली भूमिका है, चित्त मुक्त हो समस्त संप्रदायों से, समस्त शास्त्रों से। सोचते होंगे, मैं बड़ा संप्रदाय और शास्त्र-विरोधी हूं। सोचते होंगे, मैं बड़े धर्म की विरोध की बात कह रहा हूं। नहीं, धर्म का जन्म ही इसी भांति होता है। धर्म का जन्म और किसी भांति होता ही नहीं। जो भी मनुष्य बाहर से इकट्ठा मन में कर लेता है उससे छूट कर ही धर्म की ऊर्जा प्रकट होती है। पहली बात।
दूसरी बात है, चित्त सरल हो, स्वतंत्र हो, सरल हो। सरलता का क्या अर्थ है। क्या अर्थ है कि आप हाथ का कता हुआ कपड़ा पहनने लगें तो आप सरल हो जाएंगे? या एक बार भोजन करने लगें तो सरल हो जाएंगे? या लंगोटी लगा लें तो सरल हो जाएंगे? या साग-सब्जी या घास-पात खाने लगें तो सरल हो जाएंगे? नहीं, सरलता ऐसी सस्ती बात नहीं है। और न सरलता इतनी सरल बात है। ये सब जिसको हम सरलता कहते हैं, यह बहुत कांप्लेक्स और जटिल चित्त का लक्षण है। एक आदमी को सरल होना है, पहले बहुत अच्छे कपड़े पहनता था, उसने एक लंगोटी लगा ली और कहने लगे, कितना सीधा है, कितना सरल, कितना साधु है! सब कपड़े छोड़ दिए, एक लंगोटी लगाता है। पहले बहुत अच्छा खाना खाता था, अब उपवास करने लगा, व्रत रखने लगा। लोग कहने लगे, कैसा परिवर्तन हो गया! कितना सीधा और कितना सरल हो गया। पहले अकड़ कर चलता था। अब जिससे भी मिलता है, झुक कर नमस्कार करता है और कहता है, मैं तो बहुत विनम्र आदमी हूं, मैं कुछ नहीं हूं, मैं तो ना-कुछ हूं। तो हम कहते हैं, कितना विनम्र और कितना सरल आदमी है! बहुत समझेंगे, देखेंगे, इस तरह की विनम्रता के पीछे, अहंकार छिपा बैठा होता है। क्योंकि जो आदमी यह कहता है कि मैं बहुत विनम्र हूं उसे अभी मैं भूला नहीं है। जो कहता है, मैं बहुत विनम्र हूं, उसे अभी मैं भूला नहीं है। जो कहता है, मैं बहुत विनम्र हूं, उसे अभी मैं, ईगो, अहंकार अभी भूला नहीं है। अहंकार ने नई शक्ल ले ली है। अब वह विनम्र हो गया है। अब उसने विनम्रता को ओढ़ लिया है। जो आदमी कहता है कि मैं तो बहुत सीधा-सादा जीवन पसंद करता हूं, खादी पहन ली, रूखा-सुखा खा लिया, इस आदमी का मन सीधा-सादा नहीं है।
बहुत हैरान होंगे आप, एक गांव में ऐसा हुआ, एक फकीर का आगमन हुआ, बड़ा संन्यासी था, दूर तक उसकी ख्याति थी, नग्न रहता था। गांव के राजा ने स्वागत द्वार बनवाए, गांव के राजा ने रास्ते पर कालीन बिछवाए, उस फकीर के स्वागत को रास्ते पर। गांव के बाहर गया, सारा राजदरबार गया। खुद रानी गई। फकीर का बचपन का मित्र था। दोनों एक ही पाठशाला में साथ-साथ पढ़े थे। जब फकीर आया, आने के एक दिन पहले ही लोगों ने उसे खबर दी कि वह जो राजा है, जिसकी राजधानी में तुम जा रहे हो, अपना दंभ दिखलाने के लिए कि मैं कुछ हूं, सारी राजधानी को साफ करवा रहा है, द्वार बनवा रहा है, रास्तों पर बहुमूल्य कालीन बिछवा रहा है, वह तुम्हें हीन करना चाहता है, वह तुम्हें नीचा दिखाना चाहता है। फकीर हंसा। और बहुत से फकीर हंसते है, बहुत से लोग हंसते हैं, और हम सोचते होंगे, हंसने में बड़ी सरलता है, लेकिन हंसने में बड़ा गहरा दंभ हैं। बड़ी चोट, बड़ी हिंसा भी हो सकती है। फकीर हंसा। उसने कहा, देख लेंगे। हम मस्तों को क्या फिकर?
जिस दिन स्वागत हुआ..नंगा फकीर था..जिस दिन वह राजमहल के द्वार पर आया, बहुमूल्य कालीनों पर चला तो सारे लोग दंग हुए। घुटने तक उसके पैर कीचड़ से भरे थे। सब लोग हैरान हुए, वर्षा के दिन न थे, सूखा था, गर्मी के दिन थे, रास्ते सूखे पड़े थे। इतने पैर कीचड़ में कैसे भिड़ गए? राजा ने महल में पहुंचकर निश्चित होने पर जब उसे बहुमूल्य सिंहासन पर बिठाया तो वह अपने कीचड़ भरे पैरों को पालथी मार कर बैठ गया। राजा ने निश्चित हो जाने पर पूछा कि कृपया क्षमा करेंगे, पूछना मुझे नहीं चाहिए, लेकिन मार्ग में कोई कष्ट हुआ क्या? पानी गिरा क्या? कीचड़ थी क्या? ये घुटने तक आपके पैर कीचड़ में कैसे भिड़ गए? मौसम सूखा है, गर्मी के दिन हैं, पानी का पता नहीं है, पानी को लोग तरस रहे हैं, इतनी कीचड़ सड़क पर कैसे मिल गई? उस फकीर ने कहाः तुम क्या समझते हो? तुम अगर बहुमूल्य कालीन बिछा कर अपनी शान-शौकत दिखा सकते हो तो हम भी फकीर हैं, हम कीचड़ भरे पैरों से कालीनों पर चल सकते हैं।
यह विनम्रता और नग्नता के भीतर भी अहंकार बैठा हुआ है। यह खूब नये रूपों में बैठा है, पहचानना कठिन है। एक आदमी मंदिर जाता है, सीधा-सरल आदमी है, रोज मंदिर जाता है। लेकिन वह देखता हुआ जाता है कि कौन-कौन देख रहे हैं कि मैं मंदिर जा रहा हूं। वह मंदिर में पूजा भी करता जाता है, वह पीछे झांक कर देखता जाता है कि जिनको दिखाना था वह आ गए कि नहीं। वह लौटता है, वह मन में दंभ लेकर लौटता है कि मैं धार्मिक हूं।
मोहम्मद ने कहा है, उनके परिचित का एक लड़का एक दिन सुबह उनके साथ नमाज पढ़ने को मस्जिद में गया। पहले दिन गया। रोज तो सोया रहता था। मोहम्मद कभी उसको कहने नहीं कि चलो। एक दिन सुबह-सुबह जागा हुआ था, मोहम्मद नमाज को जाते थे। उन्होंने कहाः चल, तू भी चल। वह मोहम्मद के साथ गया। नमाज की, लौटा। जब लौट रहा था तो उसने मोहम्मद से कहा कि लोग भी कैसे पापी और अज्ञानी हैं, अभी तक सो रहे हैं। मोहम्मद वहीं रुक गए। उन्होंने परमात्मा से कहा कि हे परमात्मा, मुझसे भूल हो गई जो इसको मस्जिद ले गया। कम से कम रोज सोया रहता था तो यह दंभ तो न था कि मैं मस्जिद गया और दूसरे पापी अभी तक सो रहे हैं।
धार्मिक आदमी को देखिए थोड़ा वह चारों तरफ अधार्मिक लोगों में बड़ा रस ले रहा है। यह सारी दुनिया अधार्मिक देख कर उसको बड़ा मजा आ रहा है, उसके अहंकार की तृप्ति हो रही है। जहां भी मौका उसे मिल जाए किसी को अधार्मिक सिद्ध करने का, वह चूकेगा नहीं। और तिलक नहीं लगाया है तो वह समझता है कि अधार्मिक है। अगर मंदिर नहीं गए हैं तो समझता है, अधार्मिक हैं। अगर जनेऊ नहीं बांधा है तो वह समझता है, सब संस्कृति और धर्म नष्ट हो गया। कैसी-कैसी मूर्खता की बातें हैं! कोई तिलक लगाने से, कोई मंदिर जाने से, कोई जनेऊ पहनने से कोई धर्म होता है? और अगर इनसे धर्म होता है तो ऐसे धर्म से भगवान जितने जल्दी छुटकारा दिला दें दुनिया का, उतना बेहतर है। धर्म कुछ और बड़ी बात है। धर्म इन क्षुद्रतम बातों में नहीं है। इन क्षुद्रतम बातों में हमारी क्षुद्र बुद्धि प्रकट होती है, धर्म नहीं। इन बातों को हम निर्मित करते हैं..क्षुद्र लोग। और हमारा यह छोटा सा मिडियाकर माइंड, यह छोटा सा दिमाग, यह इन सारी चीजों को निर्मित करता है, बांधना और बनाता है। और फिर इनको घेर कर, इन सबको घेर कर कोई खड़ा हो जाए तो उसे आप सरल आदमी मत समझ लेना। या आप खुद ऐसे हो जाए तो सरल मत समझ लेना आप अपने को। सरलता, ह्युमिलिटी बड़ी और बात है। सिंप्लिसिटी बड़ी और बात है। बहुत और बात है। सीखी नहीं जाती सरलता, थोपी नहीं जाती। भोजन और कपड़ों से उसका संबंध नहीं है। फिर किस बात से संबंध है? संबंध है सरलता का इस बात से..मैं जानूं, कितना मैं जानता हूं। सोचूं, कितना मेरा ज्ञान है।
साक्रेटीज था। उसके गांव में एक आदमी को देवी आती थी। उस देवी से किसी ने पूछा कि इस गांव में, एथेंस में सबसे ज्यादा ज्ञानी कौन है? उस देवी ने कहा साक्रेटीज। तो लोग भागे हुए साक्रेटीज के पास गए और कहाः देवी ने कहा है, तुम्हीं इस गांव में सबसे बड़े ज्ञानी हो। साक्रेटीज ने कहाः जरूर कोई भूल हो गई। मैं जितना जानता हूं इतना ही मुझे ज्ञात होता है कि मैं अज्ञानी हूं। जितना मेरा ज्ञान की खोज बढ़ती है उतना मुझे अपने अज्ञान का पता चलता है। जाओ, कुछ भूल हो गई। मेरे से एथेंस में मुझसे बड़ा अज्ञानी कोई भी नहीं है।
ज्ञान को पहचानें, सरलता पैदा होगी। ज्ञात होगा, मैं कुछ भी नहीं जानता। अपनी शक्ति को पहचानें तो ज्ञात होगा, क्या मेरी शक्ति? सूखे पत्ते की भांति उड़ा जाता हूं और समझता हूं, मैं कुछ हूं।
एक महल के पास कुछ बच्चे खेलते थे। पत्थर का एक ढेर था एक बच्चे ने एक पत्थर उठाया और ऊपर फेंका। जब पत्थर ऊपर उठने लगा, जब उसने देखा, मैं ऊपर उठ रहा हूं, उसने नीचे पड़े पत्थर के ढेर में, बहुत पत्थर पड़े थे, उसने कहाः मित्रो, मैं जरा यात्रा पर जा रहा हूं। पत्थर चैंक गए। निश्चित ही कोई झूठ की तो बात न थी। वह यात्रा को जा ही रहा था, ऊपर उठा जा रहा था। वे चैंके हुए देखते रहे। उनके तो पंख न थे। कैसा शक्तिशाली पत्थर है जो ऊपर जा रहा है! फिर वह महल की खिड़की से जाकर टकराया। कांच चकनाचूर हो गया। उसने कहाः कितनी बार मैंने नहीं कहा कि मेरे रास्ते में कोई न आए, नहीं तो चकनाचूर हो जाएगा। खिड़की फूट गई थी। वह भीतर गया, फर्श पर गिर पड़ा। गिरते ही उसने कहाः काफी लंबी यात्रा हुई, थोड़ा विश्राम कर लें। भवन के नौकरों को पता चला। आवाज हुई, खटका हुआ, भागे गए पत्थर को उठाया और वापस फेंका। जब पत्थर वापस गिरने लगा, उसने कहाः काफी यात्रा की, एक शत्रु का नाश किया, अब आपस लौट चलें। जा के जब अपने ढेर में वापस गिरा तो उसने लोगों से कहा, बहुत लंबी यात्रा करे आया हूं, बहुत थक गया हूं, अब विश्राम करूंगा।
क्या इस पत्थर की जिंदगी में और हमारी जिंदगी में कोई फर्क है? जहां-जहां हम मैं को डालते हैं, वहां-वहां हम इस पत्थर की बुद्धि से ही काम नहीं कर रहे हैं? जो मेरे रास्ते में आएगा, चकनाचूर हो जाएगा..यह इस पत्थर की बुद्धि नहीं है, यह हमारी भी बुद्धि है, हमारी राजनीतिज्ञों की भी बुद्धि है। यह हम सबका दिमाग है। आप पैदा हुए हैं, अगर अपने पैदा होने पर यदि विचार करें तो आपका मन ह्युमिलिटी से भर जाएगा। आप एक दिन मर जाएंगे। जन्म है और मृत्यु है, अगर इस पर विचार करें तो आप एकदम विनम्र हो जाएंगे, एकदम सरल हो जाएंगे। अगर यह आपको दिखाई पड़े। ज्ञात कुछ भी नहीं है, एक अज्ञात, एक बिल्कुल अननोन जगत में हम खड़े हैं। सामथ्र्य कुछ भी नहीं है फिर भी अहंकार को पोषित किए जा रहे हैं कि मैं हूं, और मैं हूं।
एक चक्रवर्ती हुआ..पुराने दिनों में होते थे। कहानियों में लिखा है, पता नहीं होते थे या नहीं होते थे..चक्रवर्ती हुआ, उसने सारे जगत को जीत लिया। कथाएं कहती है कि जो आदमी चक्रवर्ती हो जाता था, मेरु पर्वत पर उसे जाकर हस्ताक्षर करने पड़ते थे। यह सबसे बड़ा गौरव था। यह सिर्फ चक्रवर्तियों को उपलब्ध होता था कि वह जाए और मेरु पर्वत पर हस्ताक्षर कर दें। अडिग चट्टानों पर अपने हस्ताक्षर कर दें। एक राजा चक्रवर्ती हुआ, वह बहुत प्रसन्न हुआ। मेरु पर्वत पर हस्ताक्षर करने की बात थी। इससे बड़ा कोई गौरव नहीं था। वह बड़ी फौज-फांटे को लेकर मेरु पर्वत की ओर चला। गर्व से चूर हुआ जाता था। पैर जमीन पर न पड़ते थे, आंखें आकाश में न टिकती थीं, वैसा गौरव था। कारण भी था। सब जीत कर लौटा था। यह मौका मुश्किल से किसी को मिलता था। हजारों-हजारों वर्षों में कोई चक्रवर्ती होता था। वह चक्रवर्ती हो गए। द्वार पर द्वारपाल ने कहाः और सब तो यहीं रुक जाएंगे, अकेले ही आपको जाना पड़ेगा, क्योंकि सामान्यजन तो मेरु पर्वत के दर्शन भी नहीं कर सकते। अप अकेले जाए, साथ में प्रहरी जाएगा, आपके दस्तखत करवा देगा।
राजा भीतर गया, छैनी-हथौड़ी साथ लेकर प्रहरी गया। बड़ा विशाल पर्वत था। एक छोर से दूसरे छोर तक जाना असंभव था। दिन पर दिन बीतने लगे लेकिन जगह न मिलती थी, जहां राजा हस्ताक्षर करे। पूरा पहाड़ पहले से ही से भरा हुआ था। हस्ताक्षरों पूरा पहाड़ पहले ही से भरा हुआ था। जगह न मिलती थी कहां हस्ताक्षर करे। दिन पर दिन, माह पर माह बीतने लगे। दंभ, अहंकार गिरने लगा। क्षीण होने लगा। सोचा था बड़ा काम करने जा रहा हूं, यहां तो पूरे पहाड़ पर पहले से लोग हस्ताक्षर कर चुके थे, बहुत चक्रवर्ती हो चुके थे। पहरेदार से उसने कहाः कब तक यह चलेगा? जगह तो मिलती नहीं। उस पहरेदार ने कहाः मैंने अपने बाप से सुना है, उन्होंने भी अपने बाप से सुना था और उन्होंने भी, और उन्होंने भी, उनके पहले भी, कि जब भी यहां हस्ताक्षर करने पड़ते हैं तो पुराना हस्ताक्षर मिटाना पड़ता है, नई जगत, फ्रेश जगह मिलती नहीं, कभी मिली ही नहीं। तो राजा ने कहाः हस्ताक्षर करना फिजूल है। उसने सोचा, हस्ताक्षर करने का कोई अर्थ भी न रहा। इस बड़े पहाड़ पर कौन देखेगा, कौन पहचानेगा? मैं किन हस्ताक्षरों को पहचान पा रहा हूं? वह वापस लौटने लगा। पहरेदार ने कहाः मिटा दूं? हस्ताक्षर करते हैं? आप? उसने कहा, क्षमा करें? बहुत अकड़ से गया था। महीनों बीत गए थे, उसकी फौजें बाहर प्रतीक्षा करते घबड़ा गई थीं। लौट तो बिल्कुल विनम्र था। वे पहचान भी न सकीं कि कौन राजा है, कौन पहरेदार है। वह वापस लौटा तो एक दरिद्र आदमी आकर खड़ा हो गया और उसने फौजों से कहाः जाओ, अब मैं कोई राजा नहीं हूं, अब मैं कोई चक्रवर्ती नहीं हूं। वह पागलपन गया।
जीवन को देखें और विचारें, जागें, सरलता पैदा होनी शुरू हो जाएगी। सरलता थोपी नहीं जाती। जीवन के सत्य को देखने से आनी शुरू होती है। और जब चित्त सरल होता है तो चित्त कोमल हो जाता है। और चित्त जटिल होता है तो कठोर हो जाता है। कोमलता में ही, उस विनम्रता में ही सत्य का प्रवेश होता है। कठोर हृदय की भांति, है। उस पर बीज भी पड़ेगा तो नष्ट हो जाएगा। कोमल हृदय भूमि की भांति है, कोमल, उस पर बीज पड़ेगा तो अंकुर बन जाएगा। हृदय को कोमल होने दें। बनाने की कोशिश न करें, बनाने की कोशिश से तो झूठ हो जाता है। जागें और देखें और जीवन की सारी स्थिति को समझें, आपका हृदय कोमल होना शुरू हो जाएगा, चित्त सरल होना शुरू हो जाएगा। एक अपने किस्म की ह्युमिलिटी पैदा होनी शुरू होगी। एक अपने किस्म की विनम्रता, जो थोपी नहीं गई है, जो आई है। जो कल्टीवेट नहीं की गई है, बनाई नहीं गई है, संवारी नहीं गई है, जो जीवन को देखने से पैदा हो गई है। एक पत्ती वृक्ष में हिल रही है, क्या उससे ज्यादा आपका होना है? एक छोटा सा कीड़ा जमीन पर चल रहा है, क्या उससे ज्यादा आपका होना है? देखें जीवन को, देखें दूर तक फैले आकाश को, करोड़-करोड़ सूर्यों को, करोड़-करोड़ सूर्यों के फासले को, देखें इस विराट ब्रह्मांड को, सोचें इस छोटी सी पृथ्वी को, उस पर छोटे से अपने होने को। इसके प्रति जागें। तो क्या पता चलेगा? पता चलेगा कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं इस सब होने में, एक सागर में बूंद भी जैसी मेरा होना नहीं है। और तब, तब अहंकार क्षीण होगा और विलीन हो जाएगा। और सरलता पैदा होगी। स्वतंत्र हों, सरल हों और शून्य हो जाए।
शून्य का अर्थ..शून्य का अर्थ है..मन को खाली छोड़ने की सामथ्र्य।
एक व्यक्ति एक मंदिर में किसी दूर देश में हाथ जोड़कर बैठा हुआ है। परदेशी यात्री ने भीतर आकर उससे पूछा, क्या आप प्रार्थना कर रहे हैं? उस व्यक्ति ने कहाः कैसी प्रार्थना, किसकी प्रार्थना? परदेशी हैरान हुआ होगा। पूछा, भगवान की प्रार्थना करते होंगे। उसने कहाः मैं इतना छोटा हूं कि मुझे भगवान का कोई पता नहीं। किसी चीज को मांगने के लिए प्रार्थना करते होंगे? उसने कहाः कितना ही मांगें और कितना ही इकट्ठा करें, मौत सब छीन लेती है, इसलिए मांगने का मोह चला गया। क्या मांगें? जब सब छिन ही जाता है तो मांगने में कोई अर्थ न रहा। उस आदमी ने कहाः फिर भी आप प्रार्थना तो कर ही रहे हैं? उस आदमी ने कहाः कैसे कहूं कि मैं प्रार्थना कर रहा हूं? अब तक बहुत अपने भीतर खोजा, किसी मैं को तो पा ही नहीं सका।
यह जो क्षण है, ऐसा चित्त की दशा का। न कोई परमात्मा का ख्याल है, न कुछ मांगने का, न अपना। यह शून्य, खाली, यह नॉन-बीइंग की अवस्था है, यह नथिंगनेस। जीवन में स्वतंत्रता आए, सरलता आए तो शून्यता आनी कठिन नहीं है। कुछ घड़ी को तो चित्त बिल्कुल मौन ही हो जाना चाहिए। अर्थ यह नहीं है कि आप जबरदस्ती मौन कर दें। जबरदस्ती दबा कर बैठ जाएं अपनी श्वास को रोक कर, तो वैसी शून्यता सच्ची नहीं है। नहीं, आने दें, ग्रोथ होने दें, शून्यता को आने दें।
कैसे आएगी शून्यता? दो तो मैंने बातें कहीं..स्वतंत्र चित्त ही तो बहुत खाली हो जाए, क्योंकि जब भराव दूसरे का है। सरल चित्त हो तो बहुत विगलित हो जाएगा क्योंकि सारी कठोरता भरे हुए है, यह विलीन हो जाएगी। उसके बाद शून्य, जीवन को देखें। क्या मांगने योग्य लगता है? परमात्मा को जानते नहीं है, स्वयं को खोजें, मैं का कोई पता नहीं चलता? फिर क्या होगा? तो फिर मौन रह जाएंगे। मौन, एक साइलेंस, एक सन्नाटा पकड़ना शुरू होगा। यह चेष्टित सन्नाटा न होगा। यह घेर लेगा अचानक। यह किसी अज्ञात क्षण में, किसी बिल्कुल अननोन मूवमेंट में, जब कि हम ख्याल में भी न थे, अचानक पकड़ लेना। अगर स्वतंत्र और सरल होने की विकसित अवस्था बनी तो शून्य का भाव किसी क्षण में अचानक पकड़ लेगा। आपको पता लगेगा कि मैं तो हूं ही नहीं, मैं तो हवा-पानी हो गया, मैं तो कुछ हूं ही नहीं, सुखा पत्ता हो गया। पानी पर बहता हुआ एक लकड़ी का टुकड़ा हो गया। एक पानी पर एक लकड़ी का टुकड़ा बहता हो, एक आदमी तैरता है पानी में। तैरना शून्य नहीं होता है। फिर एक आदमी बहता है पानी में, तैरता नहीं, बहा जाता है सब छोड़ दिया है उसने और बहा जाता है। तैरना भरा होना है और बहे जाना शून्य हो जाना है।
तो जीवन में थोड़ा बहें। तैरने का बहुत ख्याल छोड़ दें। तैरने से ही दंभ पैदा होता है। तैरने से अहंकार पैदा होता है। तैरने का ही भाव कि मैं तैरूंगा और जीतूंगा और पहुंचूंगा, इसमें सबमें मैं खड़ा हुआ है। कठोर मैं नहीं, बहें, छोड़ दें, बह जाए। आप भी एक हिस्से में सारे जगत के अलग नहीं। एक पत्ता है वृक्ष का, अलग थोड़ी है। पीछे जुड़ा है शाखाओं से, पीछे जुड़ा है पेड़ से; और पीछे जुड़ा है जड़ों से। और जड़ें, जुड़ी है सूरज से, समुद्र से, पृथ्वी से, सारे पांच तत्वों से। एक छोटा सा पत्ता सारे जगत से जुड़ा है, अलग नहीं है। कोई अलग नहीं है। देखें जीवन को, पहचानें और प्रवेश करें। आपको पता लगेगा कि मैं तो हूं ही नहीं। शून्यता फलित होनी शुरू हो जाएगी। चित्त धीरे-धीरे मौन होता जाएगा। चित्त बहने लगेगा, तैरना बंद कर देगा। तैरना धार्मिक आदमी का लक्षण है। बहना, बह जाना, सागर में बह जाना धार्मिक चित्त का लक्षण है। वह जो रिलीजस माइंड है, वह तैरता नहीं, बहता है। सब छोड़ देता है और बह जाता है। और जिस वक्त आप सब छोड़ देंगे, सब रिलैक्स कर देंगे और बहने लगेंगे तो आप पाएंगे, आप परमात्मा के साथ एक हो गए हैं। आप पाएंगे, अब आपको अपनी शक्ति खर्च नहीं करनी पड़ती है, नदी की शक्ति आपको बहाए ले जा रही है। अब आपको सागर नहीं पहुंचना है, आप सागर पहुंच गए। अब आपको कहीं खोजने नहीं जाना है, आपने अपने को खो दिया सब पा लिया। क्राइस्ट का वचन है, जो अपने को बचाते हैं वे नष्ट हो जाते हैं और जो अपने को खो देते हैं वे उपलब्ध हो जाते हैं। जो अपने को छोड़ देता है, छोड़ देने का नाम शून्यता है। जो अपने को सब भांति छोड़ देता है वह उसी क्षण परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है।
एक छोटी सी घटना और अपनी चर्चा को मैं पूरा करूंगा।
एक रात एक पहाड़ी के किनारे एक अंधेरी रात में एक आदमी यात्रा कर रहा है। अचानक उसने पाया कि वह किसी गड्ढे में गिर गया है। उसने जोर से झाड़ियां पकड़ लीं। पता नहीं, नीचे कितना बड़ा गड्ढा है, कितनी अतल खाई है। क्या होगा, क्या नहीं होगा, सीधी चट्टान मालूम होती है। अब हाथ-पैर हिलाना, ऊपर चढ़ना संभव नहीं मालूम होता। झाड़ियां भी पतली हैं, प्राण कंप रहे हैं। कब टूट जाए, कब टूट जाए, कहना कठिन है। लेकिन वह पकड़े है, पकड़ें है। रात गहरी होने लगी। सर्द रात है, हाथ की मुट्ठियां जड़ होने लगी, शरीर ठंडा होने लगा, साहस टूटने लगा, उसे लगने लगा, अब नहीं, थोड़ी देर में हाथ टूट ही जाएंगे और फिर प्राण की समाप्ति है लेकिन जब तक अपना वश था, पकड़े था, पकड़ रहा। आखिर कौन छोड़ता है अपने हाथ से? अपने वश से कौन छोड़ता है, जब तक मौत ही न छुड़ा ले। अपने हाथ से कौन छोड़ता है, जब तक कि छूट न जाए। पकड़े रहा, पकड़े रहा, सारी जान लगा कर पकड़े रहा। हाथ धीरे-धीरे ठंडे होते गए, रात गहरी होती गई, अंधेरा घना होता गया। सन्नाटा जोर पकड़ता गया, फिर आखिर में हाथों में ताकत न हरी, फिर आखिर में उसका साहस छूट गया। हाथ अपने आप खुल गए और छूट गए और हाथ छूटते ही उसने अपने आप को कहां पाया? अतल गड्ढे में नहीं, केवल छह इंच के फासले पर ही जमीन थी। वह जमीन पर खड़ा था। सारा भय पकड़े था, सारी घबड़ाहट पकड़े था, इससे थी। नीचे खाई न थी।
नीचे खाई नहीं है, परमात्मा है। छोड़ दें। नीचे आधार है। पकड़े रहें, टूट जाएंगे। छोड़ दें, उपलब्ध हो जाएंगे। लोग कहते हैं, जिन खोजा तिन पाइयां; मैं कहता हूं, जिन खोया तिन पाइयां। जो खोजते हैं वे पाते हैं, ऐसा लोग कहते हैं। मैं कहता हूं कि जो खो देते हैं वे पा लेते हैं। इसको शून्य-भाव कहता हूं। शून्य-भाव प्रार्थना है; शून्य-भाव ध्यान है; शून्य-भाव समाधि है।
इन तीन दिनों में थोड़ी सी बातें आपसे कहीं हैं। उसको इतने प्रेम से सुना है, बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबसे भीतर बैठे परमात्मा के लिए मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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