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शनिवार, 25 अगस्त 2018

एक नया द्वार-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(सजग चेतना और शांत चित्त)

इंदौर, लायंस क्लब, दिनांक 8 मई, 1967, प्रातःकाल
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करूंगा।
यूनान में एक बड़ा मूर्तिकार हुआ। उसकी बड़ी दूर-दूर तक ख्याति थी। दूर देशों तक उसका नाम और उसकी कीर्ति पहुंच गई थी। उसकी मूर्तियां विश्व के सभी बाजारों में बिकी थीं, और शायद ही कोई राजमहल हो जहां उसकी मूर्तियां न पहुंची हों। बड़ी उसकी ख्याति थी, बड़ा उसका यश था। यश और ख्याति में वह भूल ही गया था, एक दिन मौत आ जाती है और सब नष्ट हो जाता है। एक दिन मौत आ गई।

मैंने कहा, कहानी है; सच्ची तो नहीं होती लेकिन कभी-कभी कहानियां ऐसे सत्य कह देती हैं जो जीवन में भी उपलब्ध नहीं होतीं। उसकी मौत आ गई। बड़ा कलाकार था और बड़ा मूर्तिकार था। आते हुए बुढ़ापे और मृत्य को देख कर उसने सोचा, मैं बचने का कोई उपाय करूं। मौत से किस भांति बचूं! एक सीधी सी बात जो उसे सूझ गई वह यह थी। उसने अपनी ही ग्यारह मूर्तियां बना लीं और जिस दिन मौत उसके द्वार पर आई, वह उन ग्यारह मूर्तियों में छिप कर खड़ा हो गया। उसकी कुशलता इतनी अदभुत थी कि यह तय करना मुश्किल था कि कौन मूर्ति है और कौन मूल! असली आदमी कौन है उन बारह मूर्तियों में, खोजना कठिन था।


 मौत भीतर आई। मौत घबड़ा गई। जिसको लेने आई थी, वैसे बारह लोग वहां मौजूद थे। वह मूर्तिकार भी श्वास बंद कर मूर्तियों के बीच मूर्ति बन कर खड़ा हो गया। पहचानना कठिन था, कौन असली है। एक को ले जाना था, बारह को तो ले जाया नहीं जा सकता था। भूल करना उचित न था। मौत वापस लौट गई। और उसने जाकर परमात्मा को पूछा कि वहां तो बारह लोग एक जैसे मौजूद हैं। मैं किसको लाऊं? और जो असली है उसका पता कैसे लगे? परमात्मा ने मौत के कान में कुछ कहा। कहाः जाकर इस सूत्र को बोल देना, जो असली है वह बाहर निकल आएगा। मौत वापस लौटी। उस मूर्तिकार के भवन में मूर्तिकार छिपा था अपनी मूर्तियों में। मौत भीतर गई, उसने एक-एक मूर्ति को गौर से देखा फिर अचानक वह बोलीः और तो सब ठीक है, एक थोड़ी सी भूल रह गई। और जैसे ही उसने यह कहाः और तो सब ठीक है, थोड़ी सी भूल रह गई, वह मूर्तिकार बोला, कौन सी भूल? उस मृत्यु ने कहाः यही, कि तुम अपने को नहीं भूल सकते हो। और नहीं भूल सकते हो कि तुमने इन मूर्तियों को बनाया। तुम हो। इस बात को तुम नहीं भूल सकते हो, बाहर आ जाओ। तुम पकड़ लिए गए, मौत ने तुम्हें चुन लिया है।
मूर्तियां बनाई थीं उस चित्रकार ने, लेकिन एक बात वह नहीं भूल सकता था कि मैंने बनाई, मैं हूं। और उस मृत्यु से रास्ते में उसने पूछा कि अगर मैं यह भूल जाता कि मैं हूं तो क्या होता? उस मृत्यु ने कहाः मैं तुझे खोजने में असमर्थ हो जाती। जो यह भूल जाता है कि मैं हूं उसके लिए मृत्यु समाप्त हो जाती है। मृत्यु उसे नहीं खोज पाती है। जो यह भूल जाता है कि मैं हूं, जिसे अहंकार विसर्जित हो जाता है वह अमृतत्व को उपलब्ध कर लेता है। वह उसे पा लेता है जिसकी कोई मृत्यु नहीं।
मनुष्य के जीवन में, अहंकार के अतिरिक्त, मैं हूं, इसके अतिरिक्त अमृतत्व से तोड़ने वाली और कोई दीवाल नहीं है। कल रात इस संबंध में मैंने बहुत सी बातें आपसे कहीं। अहंकार ही अधर्म है। अहंकार ही अंधकार है। अहंकार ही दुख और पीड़ा है। बहुत से प्रश्न इस संबंध में मेरे पास आए हैः इस अहंकार को कैसे छोड़ें? यह अहंकार कैसे जाए? यह अहंकार कैसे मिटे? इन प्रश्नों के संबंध में थोड़ी आपसे बात करूंगा। फिर और भी कुछ प्रश्न हैं, उन पर भी आपसे कुछ चर्चा करूंगा।
अहंकार कैसे इकट्ठा होता है, इसे अगर कोई समझ ले तो अहंकार कैसे जाएगा, इसे समझना कठिन नहीं है। अहंकार कैसे एकत्रित होता है, कैसे एकुमुलेट होता है, कैसे इकट्ठा होता है हमारे जीवन में? अगर मैं अपने हाथ में एक मशाल ले लूं और उस मशाल को जोर से घुमाऊं तो आपको मशाल तो दिखाई नहीं पड़ेगी बल्कि एक अग्नि-वृत्त, एक फायर सर्किल दिखाई पड़ने लगेगा। और अगर मैं मशाल रोक लूं तो आप पाएंगे कि अग्नि-वृत्त तो कहीं भी नहीं था, वह आग का चक्कर कहीं भी नहीं था, केवल एक मशाल थी जो तेजी से घूमती थी, तो अग्नि का वृत्त मालूम होता था। वह था नहीं, केवल प्रतीत होता था।
अहंकार भी विचार की तीव्र गति के कारण प्रतीत होता है, है नहीं। विचार इतने तेजी से मन में घूम रहे हैं कि वे ठोस मालूम होने लगते हैं। शायद आपको यह पता न हो, दुनिया में कोई चीज ठोस नहीं होती। यह दीवाल जो आपको ठोस दिखाई पड़ रही है यह भी ठोस नहीं है। कोई चीज सालिड नहीं है। कोई चीज ठोस नहीं है। हर चीज तरल है, और बहती हुई है। लेकिन, अगर चीज बहुत तेजी से बहती हो और बहुत तेजी से घूमती हो तो ठोस मालूम होने लगती है। पंखा चल रहा है ऊपर, वह इतनी तेजी से चलाया जा सकता है कि पंखुड़ियां दिखाई देनी बंद हो जाएं और आपको मालूम पड़े कि कोई गोल ठीकरी घूम रही है। वह इतनी तेजी से घुमाया जा सकता है कि उसका घूमना दिखाई पड़ना बंद हो जाए और मालूम हो कि कोई चीज थिर है, ठहरी हुई है। गति बहुत तीव्र हो तो ठहराव मालूम होता है। जैसे चीज ठहर गई है। दीवाल के अणु दौड़ रहे हैं बहुत तेजी से, लेकिन उनकी गति बहुत तेज है। वह तेज है इतनी गति कि हमारी आंखें उस गति को देखने में समर्थ नहीं हैं। इसलिए दीवाल ठोस मालूम होती है।
संसार में सब कुछ गति है और गति से ठोस का भ्रम पैदा होता है। मनुष्य का मन भी गतिवान है, मूवमेंट में है। तेजी से विचार घूम रहे हैं। विचार की इतनी तीव्र गति है, इसलिए यह मालूम होता है कि कोई ठोस चीज है, विचार की तीव्र गति से लगता है कि मैं हूं। अगर विचार शांत हो जाएं, या विचार की गति ठहर जाए या विचार की गति शिथिल हो जाए तो आपको दिखाई पड़ेगा, विचार का संग्रह दिखाई पड़ता था कि मैं हूं। विचार अगर विलीन हो जाएं तो ज्ञात होगा, मैं नहीं हूं। तब कौन है? जब मैं नहीं हूं, तभी परमात्मा हूं। जब मैं नहीं हूं, तब जो अनुभव होता है, विराट का, विस्तार का, वही ब्रह्म है, वही आत्मा है, वही सत्य है।
कैसे यह विचार की गति क्षीण हो जाए, कैसे ये विचार शांत हो जाएं, इस संबंध में भी प्रश्न हैं। कैसे रुक जाए विचार?
विचार के रुक जाने की दो अवस्थाएं हैं।।या तो मूच्र्छा में विचार रुकता है, या पूर्ण चेतना में विचार रुकता है। या तो आदमी मूच्र्छित और बेहोश हो जाए तो विचार रुक जाता है, गहरी सुषुप्ति में, गहरी निंद्रा में रुक जाता है और या फिर मनुष्य परिपूर्ण चेतन हो जाए, पूरी तरह कांशस हो जाए तो विचार रुक जाता है। इसलिए दो उपाय हैं विचार को रोकने के।।एक उपाय है मूच्र्छित हो जाएं, बेहोश हो जाएं। लेकिन बेहोश होने में विचार तो रुक जाता है, लेकिन विचार के रुकने का जिसे अनुभव होता है वह भी बेहोश हो जाता है, इसलिए कोई अनुभव नहीं हो पाता है। हम रोज गहरी नींद में चले जाते हैं लेकिन परमात्मा को अनुभव नहीं कर पाते। हम रोज गहरी नींद में सो जाते हैं, वहां कोई विचार नहीं होता, परमात्मा अनुभव नहीं होता। इसलिए कोई व्यक्ति अगर नशा करके बेहोश हो जाए तो भी विचार रुक जाएंगे। अगर कोई व्यक्ति एकाग्रता या कनसनट्रेशन करे, किसी चीज पर अपने चित्त को ठहराने की कोशिश करे तो ठहराने की कोशिश से भी मन मूच्र्छित हो जाता है और विचार रुक जाते हैं। लेकिन उससे भी सत्य का अनुभव नहीं होता। मूच्र्छा से विचार रुक जाएंगे, लेकिन सत्य का अनुभव नहीं होगा। क्योंकि जिसे अनुभव हो सकता है, वह मूच्र्छित हो जाएगा।
एक और रास्ता है, वह है, अपने भीतर परिपूर्ण चेतना को जगाने का, अपने भीतर पूर्ण होश को जगाने का। पूर्ण होश में भी विचार विलीन हो जाते हैं वैसे ही, जैसे सुबह ओस के कण जमे रहते हैं पत्तों पर, पौधों पर, पत्थरों पर। सूरज के निकलते ही इव्होपरेट होने लगते हैं, उड़ने लगते हैं, हवा हो जाते हैं, विलीन हो जाते हैं। जैसे ही व्यक्ति की चेतना पूरी जागती है, विचार विलीन होने लगते हैं, शांत और शून्य होने लगते हैं।
कैसे हमारे भीतर सोए हुए प्राण सजग हो जाएं? लेकिन इसके पहले कि इस संबंध में मैं कुछ कहूं यह जान लेना जरूरी है कि हमारे प्राण करीब-करीब सोए हुए हैं। हम रात में ही नहीं सोते, हम दिन में भी सो रहे हैं। हम रास्ते पर चलते हुए भी सो रहे हैं। हम काम करते हुए भी सो रहे हैं। रात आप सो जाते हैं और एक स्वप्न देखते हैं। देखते हैं स्वप्न में कि इंदौर में नहीं हैं, कहीं और हैं। सुबह उठते हैं और पाते हैं कि इंदौर में हैं अपने मकान में, अपने बिस्तर पर हैं तो आप कहते हैं, रात मैंने सपना देखा। यह आप कैसे पहचाने कि आपने सपना देखा? यह आप इस भांति पहचाने कि आप जहां थे सपने में, आपको वहां न बता कर के कहीं और बताया। जहां आप वस्तुतः थे उससे अन्यथा कहीं और सपने ने आपको दिखाया। आप कहते हैं, झूठा था वह सपना। मैं जहां था, वहां से कहीं और सपने में दिखाई पड़ा, अनुभव किया।
मैं आपसे कहूं, हम हर वक्त सो रहे हैं। इसलिए कि जहां हम हैं, चित्त हमारा वहां नहीं है। यही निद्रा है, यह स्वप्न है। अभी यहां हम बैठे हैं। मैं आपसे बात कर रहा हूं। बहुत कम लोग होंगे जो पूरी तरह मेरी बात सुन रहे होंगे। उनके मन कहीं और होंगे।।कोई घर होगा, कोई दफ्तर में होगा, कोई कहीं और होगा, कोई कहीं और होगा। यहां आप मौजूद हैं, चित्त आपका कहीं और है। चित्त अगर कहीं और है तो यहां आप सोए हुए हैं। अगर चित्त यहीं है तो आप जागे हुए होंगे। चित्त जहां होता है, वहां जागरण होता है। चित्त जहां नहीं होता है वहां निद्रा हो जाती है। तो अगर यहां बैठ कर आप मुझे सुन रहे हैं और आपका चित्त अपने घर चला गया है तो उतनी देर तो यहां आप सो गए हैं, यहां आप नहीं हैं। और हमारा चित्त चैबीस घंटे कहीं और होता है। जब हम भोजन करते हैं तब मन दफ्तर में होता है, जब हम दफ्तर में होते हैं, तब वह भोजन करता होता है। चित्त हमारा कहीं और है। चैबीस घंटे चित्त हमारा कहीं और होता है।
मेरे एक मित्र स्विटजरलैंड से होकर वापस लौटे। मैं उन्हें संगमरमर की चट्टानें और धुआंधार दिखाने ले गया। पूर्णिमा की रात थी। नाव...वह अकेले मेरे साथ थे। बहुत खूबसूरत, बहुत सुंदर रात थी। बड़ा सन्नाटा और मौन था। लेकिन वे स्विटजरलैंड के झीलों की बातें करते रहे और मुझे बताते रहे, स्विटजरलैंड में कैसी झीलें हैं, कैसी नावें हैं, कैसी रातें है, कैसा सौंदर्य है। कोई एक घंटे हम नर्मदा पर थे लेकिन न तो उन्होंने नर्मदा को देखा, न चांद को देखा, न चांदनी को देखा। उनका मन स्विटजरलैंड में था। फिर वे मेरे साथ वापस लौटे। रास्ते में उन्होंने मुझसे कहाः बड़ी अच्छी जगह थी, बड़ी सुंदर रात थी। मैंने उनसे कहाः यह मत कहें। हम गए तो दो थे वहां लेकिन एक ही वहां पहुंच पाया, दूसरा आदमी वहां पहुंचा ही नहीं। मैंने उनसे निवेदन किया, आप बिलकुल झूठ बोल रहे हैं। आप एक क्षण को भी वहां नहीं थे जहां मैं आपको ले गया था। आप स्विटजरलैंड में रहे होंगे, लेकिन इस नर्मदा पर नहीं। यह रात आप सोए-सोए बिता दिए, ये दो घंटे नींद में गए। और मैंने उनसे कहाः मैं आपको यह भी कह दूं, जब आप स्विटजरलैंड की झीलों पर रहे होंगे तब आप वहां भी न रहे होंगे। तब हो सकता है, आप कश्मीर की झीलों का विचार करते रहे हों, या कुछ और करते रहे हों।
हम करीब-करीब जिंदगी में इस तरह गुजर जाते हैं, जैसे बेहोश और सोए हुए। लेकिन कोई हमसे कहे कि आप सोए हुए हैं, हम मानने को राजी न होंगे।
एक फकीर एक गांव में कुछ दिनों के लिए मेहमान था। वह बोल रहा था एक रात। गांव के लोग इकट्ठे थे उसे सुनने को। सामने ही, गांव का सब से प्रतिष्ठित धनीमानी व्यक्ति बैठा हुआ था। राजस्थान के किसी गांव की घटना है, उस आदमी का नाम था आसो जी। दिन भर का थका मांदा होगा, नींद लग गई, सो गया। सुनता था, सो गया। वह फकीर अजीब रहा होगा। उसने अपना बोलना बंद कर दिया और जोर से कहाः आसो जी, सोते हो? आसो जी ने जल्दी से आंख खोली और कहाः नहीं, कौन कहता है, मैं सोता हूं। मैं तो आंख बंद करके ध्यान से आपको सुन रहा था। आदमी अपनी रक्षा करता है। कौन इस बात को मानने को राजी होगा कि मैं सोता हूं! और लोग हंसेंगे। खुद ही कहता है, कौन कहता है, मैं सोता हूं? मैं आंख बंद करके ध्यान से आपकी बात सुन रहा था। वह फकीर फिर बोलने लगा। दो-चार-दस मिनट बीते होंगे, सोया हुआ आदमी कितनी देर जग सकता है? आसो जी फिर सो गए हैं। वह फकीर फिर रुक गया और उसने कहा, आसो जी सोए हो? आसो जी अबकी बार और जोर से बोलेः कौन कहता है, सोता हूं? आप बार-बार यह क्या लगाए हुए हैं? आप बोलिए। आप मेरी क्यों फिकर करते हैं? मैं नहीं सोता हूं। मैं पूरी तरह जाग रहा हूं। लेकिन दो-चार-पांच मिनट बीते होंगे, आसोजी फिर सो गए। सोए हुए आदमी के विश्वास का कोई भरोसा है? उसकी बात का कोई भरोसा है? फिर आसो जी सो गए। फकीर बड़ा अजीब रहा होगा। उसने आसोजी का पीछा न छोड़ा। अबकी बार उसने फिर कहा, लेकिन अब की बार उसने थोड़ी सी अलग बात कही। उसी में आसो जी फंस गए और परेशान हो गए। हर बार वह कहता थाः आसोजी सोते हो? इस बार उसने कहाः आसो जी, जीते हो? नींद में आसो जी ने समझा कि फिर वही बात है। उन्होंने कहाः नहीं-नहीं, कौन कहता है? उस फकीर ने कहाः अब बात सच्ची बाहर निकल आई। फकीर ने कहाः अब बात सच्ची बाहर निकल आई।
और यह सच ही है, जो आदमी सोता है वह आदमी जीता भी नहीं है। जो आदमी नींद में है, सोता है, वह जीता भी नहीं है। जीवन का संबंध जागरण से है। लेकिन हममें से कौन जागता है? आंखें खुली होने को कोई जागना न समझ ले। आप रास्ते पर चल कर ठीक-ठीक अपने घर पहुंच जाते हैं इससे आप यह मत समझ लेना कि आप जागते हैं। सिर्फ अभ्यास के कारण अपने घर पहुंच जाते हैं और कुछ भी नहीं है। अंधा आदमी भी अभ्यास रखता है तो बिना आंखों के भी घर पहुंच जाता है। आप अपना काम रोज-रोज ठीक से कर लेते हैं इससे यह मत समझ लेना कि आप जाग रहे हैं। मशीनें भी अपना काम ठीक से कर लेती हैं, आपसे कम भूले करती हैं। जीवन यंत्र की भांति हो जाता है, आप सोए रहते हैं और काम चलता चला जाता है।
हम यहां अगर जमीन पर एक फीट चैड़ी और सौ फीट लंबी लकडी की पट्टी बिछा दे और सारे लोगों से कहें, इस पर चलो और निकल जाओ। बच्चे और बूढ़े, स्त्रियां और पुरुष सभी उस पर से निकल जाएंगे। कोई गिरेगा? कोई भी गिरेगा नहीं। एक फीट चैड़ी और सौ फीट लंबी लकड़ी की पट्टी बिछा दें जमीन पर। कोई गिरेगा? सब उस पर से निकल जाएंगे। उसी लकड़ी की पट्टी को हम दो मकानों की छतों पर रख दें और आपसे कहें, चलो, तो कोई भी न निकल पाएगा। निकल पाने की बात ही दूर, चलने को भी कोई राजी न होगा। दो-चार कदम जाएगा, हाथ-पैर कंपकंपाने लगेंगे। क्यों? पट्टी वही है, चैड़ाई वही है, लंबाई वही है, आप भी वही हैं। फर्क क्या पड़ गया है?
फर्कपड़ गया है एक बहुत बुनियादी। जमीन पर रखी थी तो आप सोए-सोए निकल जाते थे, कोई डर नहीं था। नींद में ही चले जाते थे। लेकिन दो छतों के ऊपर रखी है तो जागकर चलना होगा। और जागने की हमें कोई आदत नहीं है। बेहोशी में नहीं चल सकते हैं फिर। गिरने का खतरा है। होश से चलना होगा, होश से चलने की हमें आदत नहीं है। चित्त को वहीं रखना होगा, कदम-कदम पर चित्त को मौजूद रखना होगा तो चल सकेंगे, नहीं तो गिर जाएंगे। जमीन पर चल गए थे उसी पट्टी पर क्योंकि वहां कोई होश रखने की जरूरत नहीं थी। मन कोई फिल्म देखता रह सकता था, या मन कोई शास्त्र पढ़ता रह सकता था, या मन कहीं भी हो सकता था और आप चल सकते थे, कोई भय नहीं था। इसलिए मन को लगाने की कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन दो छतों पर उसी पट्टी के ऊपर चलना खतरनाक है। होश से चलना पड़ेगा। नहीं तो मन कहेगा, मत चलो। नींद में चले तो जगने का डर हो सकता है इसलिए चलने से आप इनकार कर देंगे। चलेंगे भी तो जगने का भय होगा।
हमारा चलना, उठना, सोना सब करीब-करीब नींद में हो रहा है। और यह जो नींद में डूबा हुआ आदमी है, अगर इससे भूलें हो जाती हों तो आश्चर्य क्या है? इसे क्रोध आ जाता हो, अहंकार आ जाता हो, लोभ आ जाता हो, तो आश्चर्य क्या है? और यही आदमी अगर पूजा करे, प्रार्थना करे, तो आप समझते हैं? सोए हुए आदमी की पूजा और प्रार्थना का कोई अर्थ हो सकता है? कोई भी अर्थ नहीं हो सकता। यह दान करे, सेवा करे, इसके दान और सेवा का कोई अर्थ हो सकता है? कोई अर्थ नहीं हो सकता। बल्कि खतरे हो सकते हैं। सोया हुआ आदमी जो कुछ भी करेगा उससे खतरे होंगे। बेहोश आदमी जो कुछ भी करेगा उससे खतरे होंगे। वह खुद बेहोश है, उसे पता नहीं है वह क्या कर रहा है। जब आप क्रोध करते हैं तब आपको पता होता है कि क्या कर रहे हैं? जब आप किसी के प्रेम में डूब जाते हैं तब आपको पता होता है, आप क्या कर रहे हैं? नहीं आपको कुछ भी पता नहीं होता है। आप करीब-करीब बेहोश कुछ करते हैं। चैबीस घंटे हम बेहोशी की कम ज्यादा मात्रा में जीते हैं। यह बेहोशी इतनी गहरी है कि करीब-करीब जीवन इसमें गुजर जाता है। हमें पता भी नहीं चलता, जीवन कब आया, कब गुजर गया। मौत करीब आती है तभी शायद खयाल आता है कि जीवन गुजर गया।
मैंने तो एक आदमी के संबंध में सुना है कि जब वह मर गया तब उसको पता चला कि मैं जीवित भी था। असल में, जीवन का पता तो चल सकता है चित्त जागरूक हो, अवेयरनेस हो, होश हो, स्मृति हो। लेकिन वह तो हमारे भीतर बिलकुल भी नहीं है। कभी आपने प्रयोग करके न देखा होगा। कभी इस बात की कोशिश करें कि जो मैं कर रहा हूं, जो काम कर रहा हूं उसी काम को पूरी तरह होश से जागा हुआ करूं तो आप पाएंगे, एक क्षण भी होश नहीं टिकेगा। थोड़ी देर में आप पाएंगे आप किसी और चीज को सोचने लग गए हैं।
गांधी जी के पास एक युवक नया-नया आया था। वह युवक बड़ी गणितज्ञ की बुद्धि का युवक था। उसके पास बड़ी यांत्रिक कुशलता थी। उसने भी गांधी जैसा एक चर्खा बनाया। वह गांधी से बेहतर था चर्खा। उसने पौनी बनाई, वह पौनी गांधी से बेहतर थी। उसके पास गणित और एक यांत्रिक की कुशलता थी, उसने सारी चीजें अच्छी बना लीं। वह जो सूत कातता, वह गांधी से ज्यादा अच्छा था, ज्यादा महीन था, ज्यादा एक सा था। लेकिन एक गड़बड़ हो जाती थी। सूत तो कातता था, लेकिन सूत बार-बार टूट जाता था। उसने गांधी को पूछाः मेरी पौनी तुमसे बेहतर, मेरा चर्खा बेहतर, मेरा सूत बारीक, लेकिन मेरा सूत बार-बार टूट जाता है, इसका कारण क्या हो सकता है? कोई पौनी में खराबी नहीं है, चर्खे में खराबी नहीं है।
गांधी ने कहाः हो सकता है सूत कातते वक्त तुम्हारा मन इधर-उधर जाता हो इसलिए सूत टूट जाता है। सूत पतला और बारीक है। और जैसे ही चित्त कहीं जाता है हाथ हलका झटका लेता है। उसी वक्त सूत टूट जाता है। गांधी ने कहाः मैं तो सूत कातता हूं तो सिर्फ सूत कातता हूं. फिर मेरा चित्त कहीं और भी नहीं होता। सूत कातता हूं तो सिर्फ सूत कातता हूं। सारा चित्त, सारी सजगता सूत के साथ ही चलती है, डोलती है। सूत ऊपर जाता है तो चित्त उसके साथ यात्रा करता है, सूत लपटता है तो चित्त उसके साथ यात्रा करता है। सूत कातने के साथ मेरा बोध यात्रा करता है। मेरे बोध में और सूत के कतने में फासला नहीं होता। वह दोनों साथ हैं, साइमलटेनियस हैं।
शायद इसीलिए गांधी कह सके कि सूत कातना मेरा ध्यान है। तब तो बुहारी लगाना ध्यान हो सकता है। घर में, रोटी बनाना भी ध्यान हो सकता है। कपड़े पहनना और भोजन करना भी ध्यान हो सकता है; और हो जाना चाहिए। क्योंकि जिसका ध्यान आधा घड़ी को एक कोने में बंद करके होता होगा उसका ध्यान झूठा होगा। क्योंकि साढ़े तेईस घंटे जो ध्यान में नहीं हैं वह आधा घंटे ध्यान में हो ही नहीं सकता। साढ़े तेईस घंटे वह सोया हुआ है, वह आधा घंटे जाग नहीं सकता। साढ़े तेईस घंटे चित्त में जो धारा चल रही है वह आधा घंटे को दूर नहीं की जा सकती। आप जो आदमी हैं, जैसे आदमी हैं, वैसे ही आदमी तो आप ध्यान करने भी बैठेंगे, प्रार्थना करने भी बैठेंगे, पूजा करने भी बैठेंगे। दुकान पर जिस भांति आप बैठे हुए थे, भोजन करते वक्त आप जिस भांति बैठे हुए थे, पूजा करते वक्त आप दूसरी तरह से कैसे बैठ जाएंगे? आपके चित्त की जो दैनंदिन व्यवस्था है उसके बाहर आप दो-चार मिनट को नहीं जा सकते। यह नहीं हो सकता है कि आदमी तेईस घंटे कुछ हो और एक घंटे को कुछ हो जाए। तेईस घंटे चोर हो और एक घंटे को साधु हो जाए, यह नहीं हो सकता। यह भी नहीं हो सकता है कि जिंदगी भर बेईमान हो और मरते वक्त ईमानदार हो जाए। यह भी नहीं हो सकता है कि जिंदगी भर चेतना में कोई धर्म न हो, मरते वक्त गीता सुन ले और धार्मिक हो जाए और स्वर्ग चला जाए। सब एब्सर्ड, व्यर्थ और एकदम नासमझी की बातें हैं।
एक आदमी मर रहा था। उसकी अंतिम घ.ड़ी आ गई थी। उसकी पत्नी उसके पैरों के पास बैठी थी। उसके परिवार के सारे लोग इकट्ठे थे। बीच-बीच में उसे होश आता था, फिर होश खो जाता था। आखिर उसने धीमे से आंख खोली और उसने कहा कि मेरा बड़ा लड़का कहां है? उसकी पत्नी ने सोचा, शायद प्रेम के कारण वह अपने बड़े लड़के को स्मरण कर रहा है। उसने अपने पति को कहाः आप घबड़ाएं नहीं, आप मन में कोई चिंता न लाएं, आपका बड़ा लड़का आपके पास ही बैठा हुआ है। आपके बगल में ही बैठा हुआ है। उसने कहाः मेरा छोटा लड़का कहां है? वह भी आपके पास बैठा हुआ है। पत्नी सोची, कितने प्रेम से उसका पति बच्चों को स्मरण कर रहा है। सब को बुला रहा है। उसकी आंखों में आंसू आ गए। उसने कहाः मेरा तीसरा लड़का कहां है? चैथा, पांचवां, वे सब वहीं मौजूद थे। वह एकदम से उठ कर बैठ गया और उसने कहाः इसका क्या मतलब है, दुकान पर कौन बैठा हुआ है?
वह जो जीवन भर दुकान पर रहा था, मरते वक्त आप सोच सकते हैं कि कहीं और हो सकता है? आपकी पत्नी यही सोचती थी कि वह प्रेम के वश याद कर रहा है। वह तो पता लगा रहा था कि दुकान पर कोई बैठा है या नहीं बैठा है। पंडित उसको गीता सुना रहा था, वह पंडित पागल रहा होगा जो गीता सुना रहा था। और गीता का क्या अर्थ है इसे? इसका चित्त तो दुकान पर था, चैबीस घंटे। जीवन भर जहां रहा है, वहीं रहेगा। यह कोई ऐसी आसान बात नहीं है कि आप थोड़ी देर को उसे अलग कर लेंगे। तो ध्यान किसी कोने में बैठ कर करने की बात नहीं है और न किसी मंदिर में बैठ कर करने की बात है। ध्यान तो पूरे जीवन में जागरण की बात है। कोई खंड हिस्से में ध्यान को उपलब्ध नहीं हो सकता है। ध्यान तो अखंड प्रक्रिया है। जो चैबीस घंटे होश को साधने की कोशिश करेगा उसे उपलब्ध होता है, और किसी को उपलब्ध नहीं होता है।
तो क्या करेंगे? करना होगा। जीवन में चैबीस घंटे क्रियाएं हो रही हैं। उठ रहे हैं, बैठ रहे हैं, खा रहे हैं। सारे जीवन का श्रम है। बोल रहे हैं, सुन रहे हैं। जो भी क्रिया हो रही हो, उस क्रिया के साथ चित्त की पूरी सजगता और मेल और हार्मनी होनी चाहिए। जो भी कर रहे हों उसके साथ चित्त पूरा का पूरा मौजूद होना चाहिए, प्रेजेंस होनी चाहिए। वहां अनुपस्थिति नहीं होनी चाहिए, वहां उपस्थिति होनी चाहिए चित्त की। तो जिस क्रिया में चित्त उपस्थित है, उस क्रिया को मैं धार्मिक क्रिया कहता हूं। जिस क्रिया में चित्त अनुपस्थित है उस क्रिया को मैं अधार्मिक क्रिया कहता हूं। चाहे आप मंदिर में पूजा कर रहे हों, वह क्रिया अधार्मिक होगी। और अगर चित्त उपस्थित है तो चाहे आप घर में बुहारी लगा रहे हों, वह क्रिया धार्मिक हो जाएगी।
क्यों हो जाएगी धार्मिक? वह इसलिए धार्मिक हो जाएगी कि चित्त का जागरण है, परमात्मा तक ले जाने का द्वार, मार्ग और सेतु है; वही ब्रिज है। जितना चित्त जागेगा, उतना ही ज्यादा भीतर प्रवेश होगा। जितना चित्त जागेगा उतना ही विचार विसर्जित हो जाएंगे। कभी कर के देखें, किसी क्रिया के प्रति पूरी तरह जाग कर देखें। जैसे आप जागेंगे, एक क्षण को भी जागरण होगा तो आप पाएंगे, उस वक्त विचार नहीं है। अगर एक आदमी एकदम से आ जाए और आपकी छाती पर छुरा रख दे तो आपको पता है, क्या होगा? आप एक क्षण को पाएंगे, कोई विचार नहीं है। क्यों? अब कोई छाती पर एकदम से छुरा रख दे तो एकदम आपकी नींद टूट जाती है उस भय में। छुरे के प्रति आप एकदम से जाग जाते हैं, सोए हुए नहीं रह जाते। बस जागे कि आपके विचार गए।
जापान में एक राजकुमार को उसके पिता ने एक संन्यासी के पास भेजा, ध्यान सीखने के लिए। उस संन्यासी ने कहाः ध्यान तो मैं नहीं सिखाऊंगा, मैं तलवार चलाना सिखाऊंगा। वह युवक बोलाः लेकिन मेरे पिता ने ध्यान सीखने भेजा हुआ है। उस संन्यासी ने कहाः मैंने तो अब तक जिन्हें भी ध्यान सिखाया है, तलवार चलाने के द्वारा ही सिखाया है। खैर, वह युवक राजी हुआ कि मैं सीखूंगा। उस संन्यासी ने कहा कि देखो, घर के सारे काम करने पड़ेंगे।।बुहारी लगाने से लेकर रात में बिस्तर लगाने तक। और कभी मुझसे यह मत कहना कि अब सिखाना शुरू करिए; जब मेरी मर्जी होगी, मैं सिखाना शुरू कर दूंगा। वह राजकुमार बेचारा काम में लग गया उस आश्रम में। दो-चार दिन बाद ही उसे परेशानी शुरू हुई। वह साधु या तो पागल या न मालूम क्या था। जब वह युवक बुहारी लगा रहा होता तब वह पीछे से आकर लकड़ी की तलवार से उस पर हमला कर देता। उस युवक ने कहाः यह आप क्या कर रहे हैं? यह कोई सिखाने की तरकीब है? मैं काम कर रहा हूं, आप पीछे से हमला कर देते हैं। उस साधु ने कहाः मेरे रास्ते अपने ही ढंग के हैं। तुम तो काम करने की कह रहे हो, अभी वक्त आएगा, तुम सो रहे होगे और मैं हमला कर दूंगा। सजग रहना, होश से रहना।
रोज यह होने लगा। युवक रोटी बना रहा है और साधु पीछे से हमला कर देता है। चैबीस घंटे में कई दफे अनजाने हमले होने लगे। उस युवक के भीतर कोई चीज चेतन होने लगी सजग रहने लगी। कब हमला हो सकता है, कभी भी हमला हो सकता है। वह चैबीस घंटे होशपूर्वक जीने लगा। बुहारी लगा रहा है, तो भी उसके चित्त में एक होश बना हुआ है कि कहीं हमला न हो जाए। तीन महीने बीतते-बीतते फकीर हमला करता और वह युवक एक दम से सचेत होकर सजग हो जाता, रक्षा कर लेता। पीछे से हमला होता और वह हाथ उठा देता। रात नींद में हमला कर देता तो जैसे ही वह हमला कर देता, एकदम से वह सचेत होकर बैठ जाता। कोई छह महीने बीतते-बीतते फकीर के हमले व्यर्थ होने लगे। पीछे से किए गए हमले को यह युवक हाथ से रोक लेता। साल बीतते-बीतते इतनी सजगता उसके भीतर खड़ी हो गई कि फकीर के पैर की आवाज भी वह पहचान लेता कि फकीर कमरे के भीतर आ गया है। पैर की धीमी आवाज भी। एक दिन उसके मन में हुआ कि यह बूढ़ा मुझे इतना परेशान किए दे रहा है। बूढ़ा बैठ कर सुबह-सुबह एक दिन किताब पढ़ रहा था, उसने सोचा, मैं भी तो एक दिन इस पर हमला करके देखूं। वह युवक दूर बगिया में बैठा हुआ यह सोच रहा था कि मैं भी हमला करके देखूं, वह बूढ़ा किताब पढ़ रहा था। वह बूढ़ा हंसने लगा। उसने कहा कि देख, मैं बूढ़ा आदमी हूं। मुझ पर हमला मत कर देना। वह युवक बहुत घबड़ा गया। उसने कहा कि क्या कहते हैं? मैंने तो सिर्फ सोचा था। उसने कहाः एक दिन वक्त आएगा जब तेरा होश और बड़ा हो जाएगा, तो न केवल तू मेरे पैर की आवाज सुनेगा बल्कि मेरे विचार की आवाज भी सुन लेगा। तेरे होश के गहरे हो जाने की बात है।
जितनी भीतर सजगता होगी उतना ही चित्त शांत हो जाएगा। उतने ही विचार मौन हो जाएंगे। और जितना चित्त शांत हो जाएगा, जीवन की पगध्वनियां सुनाई पड़ने लगेंगी। चारों तरफ जीवन का स्पर्श अनुभव होने लगेगा। सोया हुआ आदमी कैसे अनुभव कर सकता है उसका, जो परमात्मा है? वह चारों तरफ मौजूद है, हम सोए हुए हैं। वह तो वृक्ष की शाखाओं में वही है, पत्तों में भी वही आंदोलित है, हवाओं में भी वही है, आकाश के तारों में भी वही है। आपके घर जो बच्चा पैदा हुआ है, उसकी आखों में भी वही है। आपके द्वार पर जो कुत्ता बैठा है उसके प्राणों में भी वही है। वह तो सब तरफ है, लेकिन हम सोए हुए हैं। उसका कहीं स्पर्श नहीं हो पाता है। भीतर जितनी सजगता होगी उतनी सेंसिटीविटी, उतनी संवेदनशीलता विकसित होगी। उतना ही उसकी पगध्वनियां सुनाई पड़ने लगेंगी। उसके स्वर सुनाई पड़ने लगेंगे। उसका संगीत अनुभव में आने लगेगा, उसका प्रकाश दिखाई पड़ने लगेगा। वह सब तरफ स्पर्श होने लगेगा। कहीं आएगा नहीं कि बांसुरी बजाता हुआ आपके सामने खड़ा हो जाएगा, या धनुष बाण लिए रामचंद्र आपके सामने आ जाएंगे। नहीं, इस रूप में नहीं परमात्मा आ जाएगा। परमात्मा तो सब रूपों में मौजूद है। उसे अनुभव करने के लिए जो रिसेप्टिविटी, जो ग्राहकता चाहिए, वह सजगता हमारे भीतर नहीं है।
ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं है, ध्यान का अर्थ है सजगता। एकाग्र आदमी तो मूच्र्छित हो जाता है। एकाग्रता का अर्थ होता है सारी चीजों को छोड़ कर एक चीज पर पूरे चित्त को टिका दो, सारी चीजों की तरफ आंखें बंद कर लो, एक चीज पर चित्त को पूरी तरह कनसनट्रेट कर दो। कनसनट्रेशन एकाग्रता, एक तरह का तनाव, एक तरह का टेंशन है। एक तरह की जबरदस्ती है। और जबरदस्ती जो भी आदमी करेगा, उसके दो परिणाम होंगे। एक तो जबरदस्ती सफल न होगी क्योंकि चित्त से जिस चीज को हम दूर करना चाहेंगे, वही चीज वापस लौट आएगी। चित्त के नियम हैं। जिस चीज को निषेध करिएगा, वही आमंत्रण हो जाएगा। अगर यहां दरवाजे पर हम लिख दें कि भीतर झांकना मना है तो फिर यहां से एक भी इतना समर्थ आदमी नहीं निकल सकता जो बिना भीतर झांके निकल जाए। और अगर कोई निकल भी गए, कोई त्यागी संयमी अगर निकल भी गए तो लौट-लौट कर उन्हें याद आती रहेगी कि झांककर देख क्यों न लिया! रात सपने में वे देखेंगे कि झांक कर देख रहे हैं। निषेध आकर्षण बन जाता है चित्त के लिए। जिन चीजों से हम कहते हैं, हट जाओ, चित्त वहां जाना चाहता है, वह जानना चाहता है, क्यों हटा रहे हैं आप? जिज्ञासा गहरी हो जाती है।
तिब्बत में एक फकीर था, मिलारेपा। एक व्यक्ति ने आकर उससे कहाः मैं कुछ सिद्ध करना चाहता हूं। मुझे कोई मंत्र दे दें। उसने बहुत समझाया कि मेरे पास कोई मंत्र नहीं है। बहुत समझाया कि मंत्र हो भी किसी के पास तो व्यर्थ है। मंत्र कहीं ले जाता नहीं है। नासमझ लेते हैं मंत्र, इसलिए जो बहुत चालाक हैं वे देने लगते हैं। कोई कहीं ले जाता नहीं। जो बहुत कनिंग हमारे मनुष्य के बीच में बहुत चालाक हैं वे मंत्र देने लगते हैं। क्योंकि नासमझ लेने के लिए उत्सुक होते हैं कि शायद कुछ हो जाए। उस फकीर ने कहाः नहीं कुछ होगा मंत्र-वंत्र से। कभी कुछ नहीं हुआ है। सब मंत्र मनुष्यों की ईजाद हैं इसलिए परमात्मा तक ले जाने के लिए मार्ग नहीं बन सकते। लेकिन वह नहीं मानता था।
जब नहीं माना तो उस फकीर ने पिंड छुड़ाने के लिए कागज पर एक मंत्र लिख कर दे दिया। और कहाः इसे ले जाओ और रात में स्नान करके पांच बार पढ़ लेना। तुम जो चाहते हो, वह पूरा हो जाएगा। वह आदमी भागा। धन्यवाद देना भी भूल गया कि फकीर को धन्यवाद भी दे दूं। जिस बात से प्रयोजन था वह पूरा हो गया। धन्यवाद कौन देता है। वह सीढ़ियां उतर भी नहीं पाया था कि फकीर ने कहा कि मित्र, एक बात बताना मैं भूल गया। मंत्र तो पढ़ना लेकिन बंदर का स्मरण न आए। उस आदमी ने कहाः बेफिकर रहिए, जिंदगी बीत गई, आज तक बंदर का स्मरण नहीं आया। अब क्यों आएगा? लेकिन मंदिर की पूरी सीढ़ियां भी न उतर पाया था कि बंदर का स्मरण आना शुरू हो गया। भीतर बंदर सिर हिलाने लगे। आंख बंद करता था तो बंदर दिखाई पड़ने लगे। बहुत घबड़ाया। जैसे-जैसे घर के करीब पहुंचने लगा, बंदरों की भीड़ बढ़ने लगी। आंख बंद करता तो वह कतार बांधकर बंदर हंस रहे थे, उसको चिढ़ा रहे थे। वह तो बहुत घबड़ाया,यह तो बहुत मुसीबत हो गई। और इन बंदरों से मेरा कभी कोई संबंध नहीं रहा। आज यह क्या हो गया? घर जाकर स्मरण करता था, भगवान का नाम लेता था, सिर झुकाता था, आंख बंद करता था, सब उपाय करता था। कोई फर्कनहीं, बंदर बढ़ते चले गए। आधी रात होते-होते उस आदमी के मन में बंदर ही बंदर थे। वहां और कोई भी नहीं था। मंत्र पढ़ना मुश्किल हो गया। सुबह तक तो वह आदमी थक मरा। उसने जाकर मंत्र वापस कर दिया साधु को और कहा कि महाराज, अगर किसी और को दें,तो कृपा करके शर्त मत बनाना। यह कंडीशन मत बताना। मुझे जिंदगी में बंदर याद न आए थे। आज रात भर में परेशान हो गया। और अब इस जन्म में इस मंत्र के सिद्ध होने की कोई संभावना न रही। अब अगले जन्म में देखेंगे। लेकिन एक ही शर्त रखना, अगले जन्म में यह मत बताना कि बंदर का स्मरण करना निषिद्ध है।
जिन चीजों को हम चित्त से जबरदस्ती हटाना चाहते हैं वे आमंत्रित हो जाती हैं। चित्त का सहज नियम है। और जिस चीज पर हम चित्त को जबरदस्ती लगाना चाहते हैं वह चित्त से उतर-उतर जाती है, यह दूसरा नियम है। यह दोनों एक ही नियम के, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस चीज पर आप जबरदस्ती लगाना चाहते हैं उस चीज से चित्त भागेगा और जिस चीज पर आप जबरदस्ती हटाना चाहते हैं, उस पर चित्त आएगा। और इस उधेड़बुन में जो पड़ जाता है, इस पागलपन में जो पड़ जाता है वह केवल थक जाता है और नष्ट हो जाता है और कहीं पहुंचता नहीं। इसलिए मैं किसी चीज पर चित्त को लगाने को नहीं कह रहा हूं और न किसी चीज से चित्त को हटाने को कह रहा हूं। मैं तो यह कह रहा हूं, जो भी करें, जिंदगी जो चारों तरफ है जो जिंदगी बही जा रही चारों तरफ उस पूरी जिंदगी के प्रति होश से जागे हुए रहें। न किसी को हटाएं और न किसी को बुलाएं।
यहां मैं बोल रहा हूं, साथ में चिड़ियां आवाज कर रही हैं, पंखों की आवाज हो रही है। कोई बच्चा रोएगा, सड़क से कोई गाड़ी निकलेगी, आवाज होगी। ये सारी आवाजें हो रही हैं। जागरुक रहें सारी आवाजों के प्रति एक साथ, किसी को चुनें नहीं कि मैं इसी आवाज पर मन को लगाऊंगा और उस आवाज को नहीं सुनूंगा। जो हो रहा है जिंदगी में प्रतिक्षण, मूमेंट टू मूमेंट जो हो रहा है उसके प्रति पूरी तरह होश से भरे रहें। न तो किसी को हटाएं और न किसी को बुलाएं। बाहर के जगत के प्रति भी यही, और मन में भी जो चलता हो, कोई विचार चलते हों, उन विचारों में से भी छांटे न; कि यह अच्छा विचार है इसको मैं रोकूंगा और यह बुरा विचार है इसे मैं हटाऊंगा। जिसने बुरे विचार को हटाया उसकी जिंदगी मुश्किल में पड़ जाएगी। बुरा विचार उसे लौट-लौट कर आने लगेगा।
साधु, संन्यासी और सज्जन इतने परेशान रहते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं है। बुरे विचारों को जितना हटाते हैं, पाते हैं, बुरे विचार उतने ही चले आ रहे हैं। रोग की तरह बुरे विचार पकड़ लेते हैं हटाने वाले को। और अच्छे विचार को जितना पकड़ता है लगता है कि वह खिसक-खिसक जाता है, हाथ से निकल-निकल जाता है; जैसे कोई पानी पर मुट्ठी बांधता हो। अच्छे और बुरे विचार के बीच कोई चुनाव न करे। बुरे विचार के प्रति भी जागे रहें और अच्छे विचार के प्रति भी जागे रहें। ध्यान रखें जागे हुए होने का, कि मैं होश से भरा रहूं भीतर। मेरे चित्त में कोई भी चीज बेहोशी में न निकलने पाए। कोई भी आए, मैं जाग कर उसे देखूं।।जैसे कोई घर पर अपने पहरेदार बिठा देता है। वह पहरेदार देखता रहता है, कौन गया, कौन आया। ऐसे अपने चित्त को पहरेदार बनाएं, एक वाचमैन बनाएं।
और जैसे-जैसे चित्त इस पहरेदारी में समर्थ होता जाएगा, आप हैरान हो जाएंगे, न तो अच्छे विचार आएंगे और न बुरे विचार आएंगे। दोनों विदा हो जाएंगे क्योंकि बुरे विचार इसलिए आते थे कि आप उनको हटाते थे। अच्छे विचार इसलिए नहीं रुकते थे कि उनको आप रोकते थे। लेकिन जब आपने दोनों बातें छोड़ दीं और मन के प्रति कोई भी भाव न रखा अच्छे और बुरे का, सिर्फ साक्षी रह गए, सिर्फ विटनेस रह गए, तो उनके आने और ठहरने का कोई कारण न रह गया। वे अपने आप विदा हो जाएंगे। और तब जो चित्त की स्थिति बनेगी, वही धार्मिक चित्त है, वही जागा हुआ चित्त है। उस चित्त से जो क्रिया होती है वह पुण्य है। सोया हुआ आदमी कभी पुण्य कर ही नहीं सकता। उस चित्त से जो क्रिया होती है वह सेवा है। सोया हुआ आदमी सेवा कर ही नहीं सकता। अगर करेगा तो दुनिया में इतना उपद्रव पैदा करवा देगा जिसका कोई हिसाब नहीं है। सोया हुआ आदमी सेवा करने जाता है, उलटे जीवन को नुकसान पहुंचाता है।
एक चर्च के पादरी ने एक स्कूल के बच्चों को जाकर समझाया कि रोज कुछ न कुछ सेवा करनी चाहिए। कुछ न कुछ सर्विस करनी चाहिए क्योंकि सेवा के द्वारा ही आदमी परमात्मा तक पहुंचता है। उन बच्चों ने पूछाः कैसी सेवा करनी चाहिए। तो उस पादरी ने कहाः कोई आदमी नदी में डूबता हो तो उसको बचाना चाहिए। कोई आदमी सड़क पर गिर पड़े तो उसको उठाना चाहिए। किसी बूढ़े आदमी को सड़क पार करते न बनती हो तो हाथ का सहारा देकर पार करवा देना चाहिए। ये सब पुण्य कृत्य हैं। और जब मैं दुबारा सात दिन बाद आऊंगा तो तुमसे पूछूंगा कि तुमने कितनी सेवाएं कीं। सात दिन बाद वह वापस लौटा। उसने पूछाः मेरे बेटों, तुममें से कितनों ने सेवाएं कीं? तीन बच्चों ने हाथ उठाए। उसने कहाः कोई हर्जा नहीं, आज तीन बच्चों ने सेवा की है, कल और बच्चे सेवा करेंगे। मैं तो बहुत खुश हूं। मैं तुमसे पूछता हूं।।पहले बच्चे से उसने पूछा, तुमने क्या सेवा की? उस बच्चे ने खड़े होकर कहाः मैंने एक बूढ़ी औरत को सड़क पार करवाई है। उसने कहाः बहुत खुशी की बात है। हमेशा बूढ़े लोगों की सेवा करनी चाहिए। उसने दूसरे से पूछाः तुमने क्या किया? उसने कहाः मैंने भी एक बूढ़ी औरत को सड़क पार करवाई। तब उसे थोड़ा संदेह हुआ। लेकिन उसने कहाः बहुत अच्छा, तुमने भी बहुत अच्छा किया। तीसरे से पूछा, उसने कहाः मैंने भी एक बूढ़ी औरत को सड़क पार करवाई। वह थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहाः तुम तीनों को तीन बूढ़ी औरतें मिलीं सड़क पार करवाने को? किस दिन करवाई? उन्होंने कहाः एक ही दिन। किस समय करवाई? उन्होंने कहाः एक ही समय। उसने कहाः मैं समझा नहीं। उन तीनों ने कहाः असल बात यह है कि बूढ़ी औरत तो एक ही थी, हम तीनों ने साथ मिल कर उसको सड़क पार करवाई। कोई हर्जा नहीं, उसने कहा, यह भी ठीक है। लेकिन क्या बूढ़ी औरत को पार करवाने में तुम तीन लोगों को ताकत लगानी पड़ी है? उन तीनों ने कहाः बड़ी मुश्किल थी, वह औरत पार होना नहीं चाहती थी। बड़ी मुश्किल से हम पार करवा पाए। वह तो इनकार करती थी कि हमको पार होना ही नहीं है। वह तो बड़ी फजीहत हो गई, बड़ी मुश्किल से ताकत लगा कर हमने उसको पार करवाया।
यह सोया हुआ आदमी जो सेवा करेगा, वह ऐसी ही होगी। और दुनिया में सेवकों ने जितनी मिस्चीफ, जितना उपद्रव और परेशानी पैदा करवा दी, उतना किसी और ने पैदा नहीं करवाई। इसलिए दुनिया सेवकों से परेशान है। सोशल वर्कर, समाज सेवक बड़ी खतरनाक कौम है। ये सोए हुए लोग,ये जो भी करेंगे, उससे उपद्रव होगा। दुनिया में कितने रिफार्म चल रहे हैं पांच हजार साल से, रिफॉर्म हुआ कोई? दुनिया में कितने सुधार चल रहे हैं, कोई सुधार हुआ? दुनिया की कितनी सेवा चल रही है, क्या सेवा हो गई है? आदमी कहां है? पांच हजार साल की सेवा, पुण्य, दान सबके बाद हम कहां हैं? हम बदतर से बदतर होते जा रहे हैं। जरूर कोई बात है। सोया हुआ आदमी जो भी करेगा उससे उपद्रव पैदा होगा। और हम सारे लोग सोए हुए हैं। हम अच्छा करें, बुरा करें, सबका परिणाम बुरा होगा। इसलिए सवाल यह नहीं है कि आप क्या करें? सवाल यह है कि आप क्या करें? सवाल यह है कि आप क्या हैं! सवाल यह नहीं है कि आपका एक्शन क्या है; सवाल यह है, आपका बीइंग कैसा है? आपकी सत्ता, आपका अस्तित्व कैसा है? वह जागा हुआ है या सोया हुआ है?
महावीर से किसी ने एक बार पूछा कि आप मुनि किसे कहते हैं, साधु किसे कहते हैं? तो महावीर ने यह नहीं कहा कि जो आदमी कपड़े छोड़ कर नंगा हो जाता है उसको मैं मुनि कहता हूं। महावीर ने यह भी नहीं कहा कि जो आदमी एक ही बार भोजन करता है उसको मैं मुनि कहता हूं। महावीर ने यह भी नहीं कहा कि जो घर छोड़ कर भाग जाता है, उसको मैं मुनि कहता हूं। महावीर ने यह भी नहीं कहा जो तपश्चर्या करता है, धूप में खड़ा रहता हैं, शीर्षासन करता है उसको मैं मुनि कहता हूं। महावीर ने यह भी नहीं कहा कि जो मंदिर में पूजा करता है, शास्त्र पढ़ता है, उसे मैं मुनि कहता हूं। महावीर ने जो कहा, वह बड़ी हैरानी की बात कही। उन्होंने कहाः जो आदमी जागा हुआ है वह मुनि है और जो आदमी सोया हुआ है वह मुनि नहीं है। बहुत अजीब बात कही। जो आदमी जागा हुआ है। उन्होंने कहाः जो आदमी जागा हुआ है।।‘असुत्ता मुनि’; जो नहीं सोया हुआ है, वह मुनि है। क्या मतलब है न सोए हुए होने का?
यह जो मैंने आपको कहा।।जीवन को जागे हुए जिएं। जीवन से भागने की जरूरत नहीं है, जीवन को जाग कर जीने की जरूरत है। सोए हुए जीता है एक आदमी, एक आदमी जाग कर जी सकता है। और जितने जागकर आप जीवन को जिएंगे उतना ही जीवन जीवंत होता चला जाएगा। और उसी जीवन की जीवंतता में से उसका अनुभव होगा कि परमात्मा है। परमात्मा जीवन के विरोध में कहीं नहीं बैठा हुआ है। वह जीवन के विरोध में, कहीं आकाश में परमात्मा नहीं बैठा हुआ है। परमात्मा इसी जीवन की गहराई है, इसी जीवन की डेप्थ है। इसी जीवन में जो जितना गहरा उतर जाता है वह उतना परमात्मा को अनुभव करता है। गहरा कौन उतरेगा? जो जागा है, वही गहरा उतर सकता है। और जागने के लिए कोई एकाग्रता करने की जरूरत नहीं है। बल्कि समग्र चीजों के प्रति इकट्ठे रूप से होश से भरने की जरूरत है। जो भी आप करें।।पानी पीएं तो होश से पीएं, उठें तो होश से उठें, रास्ते पर चलें तो एक-एक कदम होश से उठे।
बुद्ध एक दिन लोगों को समझाते थे, सामने ही एक आदमी बैठा था, वह अपने पैर के अंगूठे को हिला रहा था बैठा हुआ। तो बुद्ध ने उससे कहाः मित्र, यह पैर का अंगूठा क्यों हिलता है? जैसे ही बुद्ध ने कहा, पैर का अंगूठा हिलना बंद हो गया। बुद्ध ने कहाः यह क्यों हिलता है? उस आदमी ने कहाः मुझे कुछ पता नहीं, मुझे खयाल ही नहीं है। जैसे आपने कहा, मुझे होश आया और मैंने बंद नहीं किया। मुझे होश आया और वह बंद हो गया। मैंने बंद किया नहीं। आपने कहा, अंगूठा क्यों हिलता है, मुझे होश आया और मैंने देखा कि वह बंद हो गया है। और जब तक हिलता था, मुझे तो ख्याल ही नहीं था कि अंगूठा हिल रहा है। बुद्ध ने उससे कहाः जिस तरह यह अंगूठा हिल रहा है तुम्हारा, और तुम्हें होश नहीं है इसी भांति तुम्हारा मन भी हिलता है और तुम्हें उसका पता नहीं। इसी तरह सारा तुम्हारा जीवन डावांडोल है और तुम्हें उसका पता नहीं। जैसे ही तुम्हें होश होगा, तुम पाओगे, जैसे यह अंगूठा बंद हो गया, वैसे ही होश आने पर विचार का कंपन भी बंद हो जाएगा। वैसे ही होश आने पर जीवन की सारी कंपन, सारे कंपन बंद हो जाएंगे। और फिर जो निष्कर्ष जीवन की ज्योति जगती है।।जैसे किसी घर में कोई दिया जला दे, जहां हवा के झोंके न आते हों, फिर वैसे जीवन में एक ज्योति जगती है जो निष्कर्ष होती है। उस निष्कर्ष ज्योति का नाम ही ध्यान है। उस निष्कर्ष ज्योति का नाम ही समाधि है। उस निष्कर्ष ज्योति को जो पा लेता है उसके प्रकाश में ही उसे दिखाई पड़ता है जीवन का सत्य। वह जीवन का सत्य मुक्त कर जाता है। जो जागते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। जो सोते हैं, वे बंधन में होते हैं।
लेकिन हम अपने सोने को तोड़ने की कोई फिक्र नहीं करते। हम सोए-सोए ही कर्मों को बदलने की फिक्र करते हैं जो बिलकुल गलत है। एक आदमी चोरी कर रहा है, झूठ बोल रहा है, बेईमानी कर रहा है, सोया हुआ है उसको हम समझाते हैं कि बेईमानी छोड़ो, चोरी छोड़ो, असत्य बोलना छोड़ो। हो सकता है वह कोशिश करके असत्य बोलना छोड़ दे लेकिन उसकी नींद उससे टूटेगी नहीं। और स्मरण रखिए, जो आदमी असत्य बोलता था, अगर वह सत्य भी बोलेगा तो उसका सत्य बोलना भी बहुत खतरनाक होगा। वह ऐसे मौकों पर सत्य बोलेगा कि किसी की जान न चली जाए। सोया हुआ आदमी है। वह असत्य बोलता था, असत्य खतरनाक था। वह सत्य बोलेगा सत्य खतरनाक होगा। सोया हुआ आदमी बेईमानी छोड़ देगा, ईमानदार हो जाएगा, उसकी ईमानदारी खतरनाक हो जाएगी। वह अपनी ईमानदारी से भी अपने अहंकार की पूर्ति करने लगेगा और ढिंढोरा पीटने लगेगा, मैं ईमानदार हूं और हरेक की जान खाने लगेगा। और वह किताब लिखने लगेगा कि बेईमानों को नरक दिया जाए और नरक में उनको कहाड़ों में तेल के डाला जाएगा और चढ़ाया जाएगा। तो वह करेगा, क्योंकि वह बदला लेगा आपसे किमैं ईमानदार होकर कष्ट झेल रहा हूं तो तुम बेईमानों को मैं नरक में कष्ट दिलवाऊंगा। वह बदला लेगा आपसे। वह छोड़ेगा नहीं आपको। अपने चित्त में कल्पना करेगा कि सबको नरक में डाला हुआ है, सब नरक में सताए जा रहे हैं।
नरक की कल्पना कोई भले लोगों ने की होगी? कोई अच्छा आदमी नरक की कल्पना कर सकता था? कोई ऐसा आदमी जिसके हृदय में करुणा और दया हो, नरक की कल्पना कर सकता था? ये वे ही दुष्ट होंगे जो सोए-सोए ईमानदार बन गए होंगे और सच बोलने लगे होंगे और मंदिर जाने लगे होंगे, ये वे ही दुष्ट होंगे। और आपको पता है, दुनिया की हर कौमें अलग-अलग ढंग से नरक की कल्पना करती हैं। क्यों? क्योंकि जो चीज हिंदुस्तान में कष्ट की है वह तिब्बत में कष्ट की नहीं है। तिब्बत के नरक का आपको पता है? तिब्बत के नरक में एकदम ठंडी बर्फ जमी हुई है। क्योंकि तिब्बत के लोग ठंडी बर्फ से परेशान हैं। तो तिब्बत में जब किसी ने सोचा होगा कि किसी को परेशान करना है तो क्या किया जाए? तो उसने नरक में बर्फ ही बर्फ जमवा दी, जो कभी पिघलती नहीं। तो जब तिब्बती आदमी नरक में जाएगा तो बर्फ में सड़ेगा। लेकिन हिंदुस्तान के नरक में बर्फ बिलकुल नहीं मिलती। अगर मिल जाए तो मजा ही आ जाए। वहां तो आग ही आग जल रही है क्योंकि हम आग से परेशान हैं। घूप से परेशान हैं, गर्मी से परेशान हैं। तो हमारे यहां के जो दुष्ट प्रकृति के लोग हैं उन्होंने आग का इंतजाम कर दिया है पूरा का पूरा कि वहां आग ही आग जल रही है, वहां सड़ाए जाओगे, जलाए जाओगे, आग में जलाए जाओगे।
और जिन लोगों ने ये बातें लिखी होंगी, उनको बड़ा रस आया होगा, नहीं तो लिखते क्यों? बड़ा आनंद लिया होगा। सड़ाने, गलाने, जलाने में उन्हें सुख आया होगा। ये वे ही लोग हैं जो सोए-सोए नैतिक बन गए हैं, भले बन गए हैं, धार्मिक बन गए हैं। दुनिया में सोए लोगों ने नुकसान पहुंचाया है। और ऐसे सोए लोगों ने और भी नुकसान पहुंचाया है, जो सोए-सोए ही नैतिक और धार्मिक बन जाते हैं। सवाल एक ही है कि भीतर चेतना निद्रा से जागरण में आनी चाहिए। और जाग्रत व्यक्ति जिस धर्म को जन्म देगा वह बहुत दूसरा होगा। वह हिंदू मुसलमान वाला धर्म नहीं हो सकता। यह कोई धर्म है? वह जैन ईसाई वाला धर्म नहीं हो सकता। यह कोई धर्म है? जो आदमी को तोड़ता है वह धर्म नहीं हो सकता। जो आदमी को जोड़ेगा, वही धर्म हो सकता है।
 अभी तक जाग्रत मनुष्य का धर्म पैदा नहीं हो सका। अब तक सोए हुए आदमियों के धर्म हैं इसलिए धर्म भी हत्या के अड्डे बन गए हैं। यही तो मैं आपसे कह रहा हूं कि सोया हुआ आदमी जो कुछ करेगा, उपद्रव हो जाएगा। बनाता मंदिर है, बन जाता है हत्या का अड्डा। बनाता है मस्जिद, बन जाता है उपद्रव का केंद्र। बड़ी अजीब बात है। सोया हुआ आदमी है बीच में। वह सोया हुआ आदमी जो भी करता है, उससे उपद्रव हो जाता है। कितने लोग नहीं मारे, कितने लोगों की हत्या नहीं की धार्मिक लोगों ने! और आज उनको उकसा दो तो वे अपनी गीता, कुरान छोड़कर आज आग लेकर निकलने लग जाएंगे कि चलो मंदिर जलाओ। मस्जिद जलाओ, मूर्ति तोड़ो, आदमी की हत्या करो। आज तक धार्मिक लोगों ने जितनी हत्या की है उतनी नास्तिकों ने तो कभी नहीं की। नास्तिकों के ऊपर हत्या का कोई मामला नहीं है पांच हजार साल के इतिहास में। नास्तिकों ने किसी मकान में आग नहीं लगाई, किसी मंदिर को नहीं जलाया, किसी मस्जिद को नहीं जलाया, किसी की हत्या नहीं की। बड़ी हैरानी की बात है। नास्तिकों के ऊपर कोई जुर्म नहीं है और आस्तिकों के ऊपर कितने जुर्म हैं।
सिर्फ अभी हिटलर ने ईसाइयत के नाम पर पंद्रह लाख यहूदी काट डाले जर्मनी में। पांच सौ आदमी रोज काटे। ईसाइयत का नाम है, यहूदियों को काटना है। पांच सौ आदमी नियमित रोज काटे और फिर भी हम कहते हैं...। और चर्च में पादरी प्रार्थना करता है हिटलर को जीतने के लिए। बाईबल रखकर प्रार्थना करता रहा कि हिटलर को जिताओ, क्योंकि हिटलर ईसाइयत को बचाएगा। कितना बड़ा काम कर रहा है ईसाइयत को बचाने के लिए, पांच सौ यहूदियों को रोज खत्म कर रहा है! ऐसा अच्छा धार्मिक आदमी, इसको जिताओ भगवान! वह पादरी प्रार्थना कर रहा है मंदिर में।
कितने लोग काटे धार्मिक लोगों ने! ये सोए हुए आदमी हैं। ये बड़े खतरनाक हैं अगर ये मंदिर बनाएंगे तो मंदिर बिलकुल न बनेगा, वहां भी उपद्रव का अड्डा बन जाएगा। अगर चेतना जागेगी तो आप पाएंगे, न हम ईसाई हैं, न जैन हैं। आप पाएंगे आप मात्र मनुष्य हैं। और चेतना थोड़ी जागेगी तो मनुष्य भी नहीं हैं, आप मात्र प्राणी हैं। और चेतना थोड़ी जागे तो आप पाएंगे, आप प्राणी भी नहीं हैं, मात्र अस्तित्व हैं। और जब चेतना इतनी जाग जाती है और ऐसा प्रतीत होता है कि मैं अस्तित्व हूं तो वहीं परमात्मा का अनुभव शुरू होता है; उसके पहले नहीं।
जगाने की दिशा में जिसकोे भी यात्रा करनी हो ईश्वर की, उसे जगाने की दिशा की यात्रा करनी होगी। उसे खुद को निरंतर जागरूक करना पड़ेगा। कोई मंत्र-वंत्र पढ़ने से नहीं होगा। इतना सस्ता नुस्खा नहीं है। कोई मदारीगिरी नहीं है धर्म की आप बैठे हैं और कुछ मंत्र वगैरह पढ़ रहे हों और सोच रहे हैं कि कुछ हो जाएगा। जिंदगी को जानना,जिंदगी को जीतना और परमात्मा को अनुभव करना ऐसा बच्चों का खेल नहीं है कि आप बैठे हैं किताब लिए और रट रहे हैं और सोच रहे हैं कि परीक्षा पास हो जाएंगे। धर्म कोई परीक्षा नहीं है किताब की। और न ही धर्म कोई ऐसी चीज है कि आप माला वगैरह फेरें और पार हो जाएं। कभी सोचते भी नहीं, कितनी चाइल्डिश, कितनी बचकानी बातें हैं कि आप एक चार आने की माला ले आए और फेरने लगे और सोचने लगे कि धार्मिक हो जाएंगे। धार्मिक होना इतनी सस्ती बात नहीं है। जीवन में जो श्रेष्ठतम है, जीवन में जो महानतम है, जीवन में जो गहरी से गहरी बात है वही धर्म है। उस गहरी से गहरी बात के लिए उतना ही जीवन में श्रम, साधना, उतना ही जीवन को जगाने का प्रयास, जीवन को जगाने का संकल्प जरूरी है। लेकिन एक बात निश्चित है कि जो लोग श्रम करते हैं, संकल्प करते हैं, साधना करते हैं वे परमात्मा से कभी वंचित नहीं रहते हैं। जो यात्रा करते हैं, वे जरूर पहुंच जाते हैं। लेकिन जो बैठे माला फेरते रहें, उनके पहुंचने की कोई संभावना नहीं है। वे अपने को भुला रहे हैं, वे अपने को भरमा रहे हैं, वे किसी भांति अपने को इनटाक्स्किेंट कर रहे हैं। किसी भांति भूलकर जिंदगी को बिता रहे हैं।
जीवन है जागरण में, प्रभु भी है जागरण में। जो जागरण की यात्रा करता है वह परमात्मा की यात्रा करता है।
और बहुत से प्रश्न रह गए। प्रश्न तो रह ही जाएंगे। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं, ऐसे मनुष्य के चित्त में।।अशांत चित्त में प्रश्न लगते हैं। वे तो रह ही जाएंगे। वे कोई समाप्त होनेवाले नहीं है।
बहुत से प्रश्न मेरे पास रह गए, बहुत से आपके पास रह गए होंगे जो आपने पूछे नहीं। लेकिन आप कितने ही प्रश्न पूछते जाएं।।अंतिम बात आपसे कहूंगा और चर्चा पूरी करूंगा...आप कितने ही प्रश्न पूछते जाएं, आपके प्रश्नों का अंत नहीं होगा। बल्कि जो भी उत्तर दिया जाएगा उससे और नये दस प्रश्न खड़े हो जाएंगे। प्रश्न पूछते जाने में उत्तर नहीं है। चित्त की एक ऐसी अवस्था पाने में उत्तर मिलता है जहां सब प्रश्न अपने आप गिर जाते हैं। मैं आपको उत्तर कैसे दे सकता हूं? कोई आपको उत्तर कैसे दे सकता है? और किसी का उत्तर आपके काम भी कैसे आ सकता है? प्रश्न आपका है तो उत्तर आपको अपना खोजना होगा। लेकिन सोया हुआ आदमी उत्तर कैसे खोजेगा? इसलिए वह दूसरों से पूछता फिरता है, सत्संग करता है, गुरु की तलाश करता है। ऐसे लोग भी हैं जो तीन-चार रुपए फीस लेकर गुरु भी हो जाते हैं। किन्हीं-किन्हीं की फीस ज्यादा भी होती होगी, लेकिन गुरु भी मिल जाते हैं। और सस्ता ज्ञान भी मिल जाता है। आप पूछते फिरते हैं और कोई मिल जाता है। वह कहता है, मैं आपको बताऊंगा। और आप सोचते हैं, चलो झंझट मिटी और हमें कोई जगने की जरूरत नहीं है। यह आदमी बेचारा हमें बता देगा। हम इसकी पूंछ पकड़ लें और गंगा पार हो जाएं। लेकिन कोई किसी को पकड़कर कभी पार नहीं होता है। और जो लोग यह समझाते हैं कि हमें पकड़ो और पार हो जाओ, वे जमीन पर खतरनाक से खतरनाक आदमी हैं। धर्म के जीवन में कोई गुरु नहीं होता है।
धर्म के जीवन में शिष्य तो होते हैं, लेकिन गुरु कोई नहीं होता। धर्म के जीवन में सीखने वाले लोग तो होते हैं लेकिन सिखाने वाला कोई भी नहीं होता। पूरा जीवन सिखाने वाला है। आंख खोलें और देखें तो सारा जीवन सिखा रहा है परमात्मा का। सारा जीवन खबर दे रहा है परमात्मा की, चारों तरफ से उसकी खबर आ रही है। चारों तरफ वह मौजूद है, उसका संदेश आ रहा है। लेकिन हम उसकी कोई फिकर नहीं करते। हम कहते हैं, हम फलां गुरु के पास जा रहे हैं, उससे पूछने जा रहे हैं, वहां वह बता देगा। कोई किसी को बता नहीं सकता।
मैं भी आपके प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता हूं। और जो उत्तर मैंने दिए हैं, अंत में निवेदन करूंगा, तीन दिनों की इस चर्चा के बाद मेरे उत्तरों को आप अपने उत्तर मत समझ लेना। मैंने जो कहा है उस पर विश्वास मत कर लेना कि वह सत्य है। जो उसका विश्वास कर लेगा, उसकी अपनी खोज बंद हो जाएगी। मैंने जो कहा है, उस पर विचार करना, उस पर चिंतन करना, उस पर तर्क करना, उस पर विवाद करना, उस पर सोचना और समझना, पूरी कोशिश करना उसको परखने की। और अगर इस सारी परख, खोज, चिंतन और विचार के बाद कोई चीज उसमें से मिल जाए जो आपको लगे कि सत्य है तो इतनी खोज और विचार के बाद वह आपकी हो जाएगी, वह मेरी नहीं रह जाएगी। और जो सत्य अपना हो जाता है वह जरूर जीवन को मुक्त करता है।
तीन दिन तक मेरी बातों को अत्यंत शांति और प्रेम से सुना।।ऐसी बातों को भी, जिनने आपके मन को अशांत किया होगा; ऐसी बातों को भी जिनसे आपके मन की कई प्रतिमाएं टूटी होंगी, धक्का लगा होगा; ऐसी बातों को जिनको आप हमेशा से ठीक समझते रहे थे, उनको चोट लगी होगी तो आपको पीड़ा हुई होगी, आपको बेचैनी हुई होगी। लेकिन मैं उस सब बेचैनी और पीड़ा के लिए क्षमा नहीं मांगूंगा। मैं तो चाहता हूं कि आपको बेचैनी हो जाए, आपका चित्त अशांत हो जाए, आप परेशान हो जाएं। क्योंकि यह कौम कोई हजारों साल से सो गई है और परेशान होना ही बंद कर दिया है। और जो कौम परेशान होना ही बंद हो जाती है जिसके चित्त पर किसी चीज की पीड़ा ही पैदा नहीं होती वह जड़ हो जाती है और मृत हो जाती है।
इस देश का मस्तिष्क हजारों साल से करीब-करीब डैड, मरा हुआ है। जरूरत है कुछ लोगों की जो इसके मस्तिष्क को चोट पहुंचाएं, हिलाएं, धक्के दें। शायद इन धक्कों में, चोटों में नींद टूट जाए। शायद इन चोटों में आपके भीतर चिंतन पैदा हो जाए। परमात्मा करे, आप थोड़े से परेशान हो जाएं। आप इतने परेशानी से मुक्त हो गए हैं, इस कौम का पूरा भाग्य इतना मुक्त मालूम पड़ता है परेशानी से, चिंतन से। परेशानी छोड़ दी है, दूसरों पर।।तीर्थंकरों, अवतारों पर कि तुम सोचो और किताब लिख दो और हम पढ़ेंगे और मजे से रहेंगे। हमको सोचना नहीं, हमको जीना नहीं। हम तो केवल अनुगमन करेंगे, तुम्हारे पीछे चलेंगे। इस वृत्ति ने, इस देश की प्रतिभा को एकदम नष्ट कर दिया है। इस देश का मौलिक चिंतन एकदम समाप्त हो गया है।
इसलिए मैं चाहता हूं कि चोट पहुंचे। तो जिन लोगों पर चोट पहुंची होगी वे बहुत भले लोग हैं। और जिनकी रात की नींद खराब हो जाए मेरी बातों को सुनकर वे बड़े अच्छे आदमी हैं, उनसे कुछ हो सकता है। वे कुछ सोचेंगे तो कुछ परिणाम हो सकते हैं। परमात्मा करे, आपकी नींद टूटे, यही प्रार्थना करता हूं।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

इंदौर, लायंस क्लब, दिनांक 8 मई, 1967, प्रातःकाल

















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