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बुधवार, 15 अगस्त 2018

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन--धर्म आग्नेय होता है

प्रश्न-सार

॰ धर्म की परिभाषा के अनुसार धर्म परम नियम है। और आप कहते हैं धर्म विद्रोह है। यह परम नियम विद्रोही कैसे हो सकता है?
॰ मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूं, फिर भी आप मुझे पंडित की डिग्री क्यों देते हैं?
॰ सदगुरु से आंतरिक निकटता का क्या अर्थ होता है?
॰ अतीत तूफान बन कर घेर लेता है; आगे नहीं जाने देता। इससे छुटकारा कैसे हो?
॰ क्या प्रेम को दूसरे के सहारे की जरूरत होती ही है?
॰ आपके चरणों में बैठना ही इतना मधुर लगता है कि मोक्ष जाने की इच्छा नहीं होती।


पहला प्रश्नः आप बहुधा कहते हैं कि धर्म विद्रोह है, बगावत है। लेकिन परिभाषा के अनुसार धर्म सबको धारण करने वाला है, धर्म परम नियम है, धर्म शाश्वत है। यह परम नियम, यह शाश्वत विद्रोही कैसे हो सकता है?

॰ शाश्वत ही विद्रोही हो सकता है। सत्य ही विद्रोही हो सकता है। विद्रोह असत्य के खिलाफ है। विद्रोह समय के खिलाफ है। समय का अर्थ होता है परंपरा। समय का अर्थ होता है रूढ़ि। समय का अर्थ होता है राख।
और आग राख के विपरीत बगावत है। बुद्ध एक अंगारा हैं। फिर जैसे ही बुद्ध का पक्षी उड़ जाता है, राख जमनी शुरू होती है। उसी राख से बुद्ध धर्म निर्मित होता है। ऐसी ही राख से जैन धर्म निर्मित होता है, ऐसी ही राख से हिंदू धर्म निर्मित होता है।
तो धर्म के दो अर्थ समझ लेना। एक तो धर्म है जो सारे जगत को धारण किए है; वह न तो हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई। वह तो सिर्फ धर्म है। फिर दूसरे धर्म का अर्थ है, हिंदू के साथ जुड़ा हुआ, ईसाई के साथ जुड़ा हुआ, जैन के साथ--जैन धर्म, बौद्ध धर्म, इस्लाम धर्म। यह धर्म शाश्वत नियम नहीं है। यह धर्म कभी पैदा हुआ और कभी मरेगा। अड़चन इसलिए पैदा होती है कि धर्म पैदा हो, यह तो बहुत शुभ। जब समय उसका पक जाए तो उसे मर भी जाना चाहिए। वह मरता नहीं। उसकी लाश को हम बचा रखते हैं।
जैसे तुम्हारी मां से तुम्हें प्रेम है। और प्रेम शुभ है। प्रेम के सब रूप शुभ हैं। लेकिन मां एक दिन मरेगी। माना कि तुम रोओगे, तुम्हारे प्राण आंसू बन कर बहेंगे। तुम छाती पीटोगे। लेकिन फिर भी अरथी बनानी पड़ेगी और मां को मरघट ले जाना पड़ेगा। और अपने ही हाथों जला भी देना पड़ेगा। रोते-रोते जलाओगे। बड़ी पीड़ा और बड़ी उदासी में जलाओगे। महीनों तक घाव न भरेगा। बरसों तक याद न छूटेगी और जीवन भर के लिए चोट का निशान तो रह ही जाएगा। लेकिन फिर भी तो मां को जलाना पड़ता है।
कोई कहे कि मैं मेरी मां को मैं कैसे जलाऊं? मैं तो घर में सम्हालकर रखूंगा। तो सारा घर बदबू से भर जाएगा। घर में जीना मुश्किल हो जाएगा। तब घर में कोई बेटा पैदा होगा, जो बगावत करेगा और कहेगा, यह लाश जला कर रहेंगे। इस लाश को मरघट ले जाकर रहेंगे। ऐसा मत समझना कि वह बेटा मां को प्रेम नहीं करता। लेकिन जिससे प्रेम किया था वह उड़ चुका। अब मिट्टी पड़ी रह गई है। अब मिट्टी को ढोने से कोई अर्थ नहीं है। अब उचित है कि मिट्टी मिट्टी में मिल जाए।
धर्म जब पैदा होता है तो बड़ा प्यारा होता है, अपूर्व होता है। तब उसमें किरण होती है शाश्वत की। संगीत होता है, नाद होता है। जब बुद्ध में कुछ उतरता है तब वह जीवंत होता है। फिर बुद्ध के विदा होते ही सुनी हुई बातें रह जाती हैं। शास्त्रों में लिखे हुए शब्द रह जाते हैं। उन शब्दों का संगीत तो मर चुका। वीणा रह गई है, तार तो टूट चुके। अब तुम वीणा की पूजा करो, अब तुम वीणा का मंदिर बनाओ। यह सब झूठा होगा। और इस झूठ के कारण फिर से बुद्ध को पैदा होने में अड़चन हो जाएगी। तुमने एक बात नहीं देखी? कि जिस धर्म में भी बुद्धपुरुष होता है, वही धर्म उस बुद्धपुरुष को इनकार कर देता है।
तो जरूर दो तरह के धर्म होंगे; एक तो जो बुद्धपुरुष लाता है वह, और एक जो इनकार करता है वह। बुद्ध हिंदू घर में पैदा हुए, हिंदुओं ने अस्वीकार कर दिया। जीसस यहूदी घर में पैदा हुए, यहूदियों ने अस्वीकार कर दिया। सुकरात को यूनानियों ने ही जहर पिलाया।
तो एक तो शाश्वत धर्म है, जो कभी-कभी उतरता है किसी के निमंत्रण पर। किसी की आत्मा जब खिलती है तब। जब किसी का कमल खिलता है, तब उस कमल पर उतरती है कोई बात। सुवास! आकाश कभी-कभी पृथ्वी से मिलता है और आत्मा में कभी-कभी परमात्मा की भनक आती है। कभी-कभी आदमी के दर्पण में परमात्मा की छवि पकड़ी जाती है। मगर दर्पण टूट जाता है। सब दर्पण टूटने को हैं यहां। बुद्ध का दर्पण भी टूट जाएगा, मेरा दर्पण भी टूटेगा, तुम्हारा दर्पण भी टूटेगा। सब टूटने को हैं यहां। फिर तुम कांच के टुकड़ों को बटोर कर रख लेना। फिर उसमें छवि नहीं बनती। फिर सब नष्ट हो चुका। तुम लाश को फिर पूजते रहना।
खतरा यह है कि उस लाश की पूजा के कारण जब भी कोई समझदार व्यक्ति तुम्हारे घर में पैदा होगा और कहेगा, छुटकारा करो इस मुर्दा लाश से, तभी सारा घर उसके विपरीत हो जाएगा। वह कहेगा, हमारी मां को जलाने को कहते हो? हमारे शास्त्र को जलाने को कहते हो? हमारी परंपरा जो सदा से चली आई, हमारे पिता ने इस लाश को पूजा, उनके पिता ने पूजा, उनके पिता ने पूजा। इसी से तो हम सब पैदा हुए हैं। यह हमारी संस्कृति, यह हमारी सयता। जब भी विवेक का जन्म होगा उस घर में, तभी उपद्रव शुरू होगा; तभी बगावत करनी पड़ेगी। किसी बेटे को बगावत करनी पड़ेगी। और मजा यह है कि जो बेटा बगावत कर रहा है, वही जीवन के पक्ष में है।
परंपरावादी जीवन का विरोधी होता है, लकीर का फकीर होता है। परंपरावादी अतीत का पूजक होता है। मुर्दा के प्रति उसके मन में सम्मान होता है। और जीवित के प्रति उसके मन में अपमान होता है। जिन्होंने जीसस को सूली दी वे कौन लोग थे? बुरे लोग नहीं थे, खयाल रखना। अक्सर यह भ्रांति तुम्हारे मन में हो जाती है कि जिन्होंने सूली दी, होंगे राक्षस। गलती है बात। भले लोग थे, अच्छे लोग थे, प्रतिष्ठित लोग थे। पुजारी थे मंदिर के, पुरोहित थे, पंडित थे, सुसंस्कृत, सभ्य--जिनको तुम पुण्यात्मा कहते हो, दानी, मंदिर-मस्जिद बनाने वाले लोग थे। जिनको तुम सज्जन कहते हो वे लोग थे। इस भ्रांति में कभी मत पड़ना कि जीसस को सूली देने वाले लोग बुरे लोग थे। अच्छे लोगों के समूह ने सूली दी।
और जीसस जैसे आदमी को सूली दी, अड़चन क्या रही होगी? ये अच्छे लोग पुराने को मानते हैं, ये जीसस नये की खबर लाते हैं। ये अच्छे लोग, जो बाप-दादों ने कहा है उसको पकड़ कर रखना चाहते हैं। ये जीसस भविष्य का आगमन हैं। ये जीसस फिर से परमात्मा की नई खबर लाते हैं। ये नये पैगंबर हैं। निश्चित ही विद्रोह होगा, कलह होगी; कलह परंपरा और सत्य के बीच है, राख और अंगार के बीच है; अतीत और वर्तमान के बीच है; मुर्दा और जीवंत के बीच है।
धर्म की परिभाषा तो ठीक है कि जो धारण करे। मगर हिंदू धर्म ने तुम्हें धारण किया है? अगर हिंदू धर्म मिट जाए तो पृथ्वी मिट जाएगी? कितने धर्म रहे और मिट गए, इसका तुम्हें पता है? और सभी धर्मों को यह खयाल था कि उन्हीं के कारण सब धारण किया गया है। जमीन पर कितने धर्म आए और चले गए, उनका नाम-निशान भी नहीं बचा। तुम सोचते हो, जैन दुनिया में न होंगे तो सूरज नहीं ऊगेगा? जरा सोचो तो!
यह तो वही बात हो गई जैसे तुमने सुना हो, एक बूढ़ी औरत का मुर्गा सुबह बांग देता था, और सोचती थी कि मेरे मुर्गे के बांग देने से सूरज ऊगता है। गांव के लोगों के सामने अकड़ती थी कि अगर मैं चली जाऊंगी इस गांव से, फिर पछताओगे। अगर मेरा मुर्गा न होगा तो सूरज नहीं ऊगेगा। याद रखना, जब मेरा मुर्गा बांग देता है तभी सूरज ऊगता है।
और बात एक अर्थ में ठीक थी क्योंकि मुर्गा बांग देता था तभी सूरज ऊगता था। यद्यपि मुर्गे के बांग देने से सूरज के ऊगने का कोई कार्य-कारण संबंध नहीं है। सचाई तो उलटी है, सूरज ऊगता है इसलिए मुर्गा बांग देता है। मगर पहले मुर्गा बांग देता है, फिर सूरज ऊगता है। घटना तो ऐसी घटती है।
गांव के लोगों ने हंसी-मजाक की। बूढ़ी बहुत नाराज हो गई, अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गई। और प्रसन्न इस भाव में कि अब पछताएंगे, आएंगे नाक रगड़ते हुए। और दूसरे गांव में भी जब उसके मुर्गे ने बांग दी तो सूरज ऊगा। उसने कहा, अब रोते होंगे, अब अंधेरे में सड़ते होंगे। अब हो गई होगी अमावस। अब पता चलेगा कि सुबह अब नहीं होती। सुबह तो यहां हो गई, वहां कैसे होगी?
तुम सोचते हो जैन धर्म न रहेगा तो सूरज न ऊगेगा, चांद-तारे न चलेंगे? सूरज ऐसे ही ऊगेगा, चांद-तारे ऐसे ही चलेंगे। क्योंकि जिसने सूरज को सम्हाला है वह जैन धर्म नहीं है, वह धर्म है। वह हिंदू धर्म नहीं है, धर्म है। वह परम नियम है। उस नियम का इन शास्त्रों और परंपराओं से कुछ लेना देना नहीं है। ये शास्त्र और परंपराएं, उसी नियम की झलक पड़ी है किसी व्यक्ति में, उसके आधार पर बन गए हैं।
इसको ऐसा समझो। सूरज को किसी ने दर्पण में पकड़ा। और तुमने सूरज नहीं देखा, तुमने सिर्फ दर्पण में सूरज देखा। तुमने उसे पकड़ा। अब तुम दर्पण में देखे गए सूरज को ही समझते हो असली सूरज। भूल हो गई। और यह बात भी सच है कि दर्पण में जो सूरज की झलक बनी थी, वह असली ही सूरज की झलक थी। मगर असली सूरज की झलक भी झलक ही है, सूरज नहीं है। जब तुम दर्पण के सामने खड़े होकर अपना चेहरा देखते हो तो तुम अपना चेहरा थोड़े ही देखते हो, चेहरे की झलक देखते हो, चेहरे का प्रतिबिंब देखते हो। और असली चेहरे का प्रतिबिंब भी प्रतिबिंब ही है। उसका कोई और मूल्य नहीं है। लेकिन उसी को जिसने चेहरा समझ लिया, वह आज नहीं कल कठिनाई में पड़ जाएगा।
तो मैं तुमसे कहता हूं कि महावीर के दर्पण में असली सूरज की झलक पड़ी थी। और जरथुस्त्र के दर्पण में भी असली सूरज की झलक पड़ी थी। संत वही है, जिसमें असली सूरज की झलक पड़ती है। मगर जरथुस्त्र को मानने वालों ने जो पकड़ा उन्होंने जरथुस्त्र की आंखों में पड़ी झलक को पकड़ा। वह झलक बड़ी दूर हो गई सूरज से। फिर उसी झलक की याद को लिए बैठे हैं। उसी झलक की पूजा कर रहे हैं। और मजा यह है कि सूरज रोज ऊगता है। तुम अपनी अग्यारी में बैठे हो। और सूरज रोज ऊग रहा है और तुम अपनी किताब खोल कर बैठे हो। और सूरज सामने खड़ा है।
परमात्मा चुक नहीं गया है महावीर में, और न बुद्ध में, और न कृष्ण में, और न राम में। परमात्मा चुकता ही नहीं। कितने ही अवतरण हों तो भी परमात्मा चुकता नहीं। जिस दिन तुम आंख उठा कर परमात्मा को देखोगे, तुम भी अवतार हो गए। चुक नहीं जाएगा। तुम उससे जीवंत हो उठोगे। सूरज कितने फूलों पर गिरता है, सारे फूल खिल जाते हैं। जो कली सूरज की तरफ देख लेती है, वही खिल जाती है।
तुम भी सूरज को देखो। बगावत से मेरा अर्थ है कि जब भी कोई व्यक्ति सूरज को देख लेता है तब वह तुमसे यह कहना चाहता है कि तुम जिसको अभी तक सूरज समझ रहे, वह किताब में बनी तस्वीर है। उस तस्वीर पर बहुत भरोसा मत करना। और मैं तुमसे फिर दोहरा दूं कि तस्वीर असली सूरज की ही है, मगर तस्वीर तस्वीर है। किसको धोखा दोगे?
सोलोमन के संबंध में कहानी है, प्रसिद्ध कहानी है। सोलोमन की बुद्धिमत्ता की बड़ी कहानियां हैं, उनमें यह कहानी सर्वाधिक मूल्यवान है। सोलोमन की परीक्षा करने लोग आते थे क्योंकि सारी दुनिया में खबर थी, उससे बुद्धिमान कोई आदमी नहीं है। इथोपिया की महारानी उसकी परीक्षा करने आई। उसने बड़ी होशियारी से काम किया। वह दो फूल लेकर आई--एक नकली और एक असली। एक असली गुलाब और एक नकली गुलाब। एक में गंध और दूसरे में गंध नहीं। लेकिन दूर से दोनों एक जैसे लगें। वह कोई दस फीट दूर सोलोमन के सिंहासन के सामने खड़ी हो गई। और उसने कहा, ये दो फूल हैं। आपकी मैंने बड़ी खबर सुनी है कि आप बुद्धिमान हैं। आप यह बता दें कि कौन नकली, कौन असली।
सोलोमन ने एक क्षण देखा, थोड़ा बेचैन हुआ। दोनों फूल असली मालूम होते थे। अब जो भी नकली हो इसमें, इस कला से बनाया गया था कि असली का धोखा दे रहा था। एक क्षण सोलोमन ने सोचा और अपने दरबारियों से कहा कि दरबार के सारे दरवाजे और खिड़कियां खोल दो। रोशनी थोड़ी कम है। जरा रोशनी ज्यादा हो जाए तो मैं ठीक से देखूं। सब दरवाजे-खिड़कियां खोल दिए गए। एक क्षण प्रतीक्षा करता रहा, फिर उसने इशारा किया कि बाएं हाथ में जो फूल है वह असली है। दरबारी भी हैरान हुए। वे भी सब टकटकी लगा कर देख रहे थे, रोशनी से कुछ फर्क न पड़ा था। दोनों फूल असली मालूम पड़ते थे।
महारानी भी हैरान हुई। उसने कहाः आपने पहचाना कैसे? सोलोमन ने कहा कि मैं धोखा खा जाऊं, आदमी हूं, इसलिए खिड़कियां खुलवाईं। तुमने खयाल नहीं किया? एक मधुमक्खी अंदर आ गई। बाहर बगीचा है। वह असली फूल पर जाकर बैठ गई। मधुमक्खी को तो धोखा नहीं दे सकते। मधुमक्खी तो नकली फूल पर नहीं बैठ सकती। सोलोमन ने कहाः मैं सोच नहीं रहा था, मधुमक्खी की प्रतीक्षा कर रहा था।
तुम्हारी तस्वीर है सूरज की, इसको ले जाकर तुम सूरजमुखी के फूल के पास खड़े हो जाओ, तब तुम्हें पता चलेगा, यह तस्वीर है या असली सूरज है। सूरजमुखी का फूल इसकी तरफ नहीं घूमेगा। सूरजमुखी के फूल को तुम धोखा नहीं दे पाओगे। सूरजमुखी का फूल हिंदू धर्म के चक्कर में नहीं आएगा, सूरजमुखी का फूल असली सूरज को पहचानता है। जिस तरफ सूरज घूमता है उस तरफ फूल घूम जाता है।
तुम भी जानते हो कि प्यास लगी हो तो पानी शब्द से तृप्त नहीं होती। और भूख लगी हो तो पाकशास्त्र पढ़ने से कुछ भी नहीं होता। भोजन पकाना पड़ता है। पाकशास्त्र कितना ही अच्छा हो, और कितने ही विचारशील लोगों ने लिखा हो, और उसमें कितने ही सुस्वादु भोजनों को बनाने की प्रक्रिया लिखी हो लेकिन पाकशास्त्र को पढ़ने से कुछ भी नहीं होता। और लोग गीता पढ़ रहे हैं। और लोग कुरान पढ़ रहे हैं, और लोग बाइबिल पढ़ रहे हैं और पेट में भूख है। परमात्मा की भूख है और तुम किताबें पढ़ रहे हो। परमात्मा की भूख परमात्मा के अनुभव से ही तृप्त होती है।
तो असली धार्मिक आदमी विद्रोही होता है। विद्रोही इस अर्थ में कि वह तुमसे कहता है, छोड़ो ये कागज में बनी तस्वीरें, छोड़ो ये कागज के फूल। असली फूलों की तलाश करें। जीवंत को खोजें। जिसने सारे जगत को धारण किया हुआ है, उसमें डुबकी लगाएं।
तो धर्म का एक तो रूप है परंपरा। ये सब परंपराएं हैं--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिक्ख। ये समय पर शाश्वत की लकीरें हैं। समय की रेत पर शाश्वत के चरण-चिह्न हैं। मगर शाश्वत जा चुका, चरण-चिह्न रह गए हैं समय की रेत पर। इन चरण-चिह्नों को ही मत पूजते रहो। उसको खोजो जिसके ये चरणचिह्न हैं। कौन चला था बुद्ध में, कौन उठा था बुद्ध में, कौन झांका था बुद्ध में? उसको खोजो। तुम बुद्ध को पकड़ कर बैठे हो। तुमने चरण-चिह्न पकड़ लिए, चरण भूल गए। कौन नाचा था मीरा में?
मैं तुमसे कहना चाहता हूं जो कृष्ण में बोला, जो मीरा में नाचा, जो जीसस में सूली चढ़ा, उसको खोजो। तुम जीसस को पकड़े हो। कोई कृष्ण को पकड़े है। तुमने अंगुलियां पकड़ ली हैं और चांद को भूल गए हो। कोई अंगुली उठाता है और चांद की तरफ इशारा करता है कि वह रहा चांद। तुम अंगुली पकड़ लेते हो। और अंगुली गलत नहीं थी, चांद की तरफ बताती थी मगर चांद की तरफ देखना था, अंगुली पकड़नी नहीं थी। जो अंगुली पकड़ लेते हैं वे हिंदू, मुसलमान, ईसाई। जो चांद की तरफ बताता है, वह आदमी धार्मिक।
इसलिए धर्म बगावत है, धर्म विद्रोह है। धर्म जब भी पैदा होता है तो आग्नेय होता है, अग्नि जैसा होता है। जब मर जाता है तो राख के ढेर रह जाते हैं। फिर तुम्हारी मौज...। राख के ढेर को विभूति कहो। तुम कुछ ऐसे हो कि व्यर्थ की चीजों को अच्छे-अच्छे नाम देकर अपने को धोखा देते हो। कोई साधु-संत राख उठा कर दे देता है, तुम कहते हो विभूति मिल गई। विभूति नाम में धोखा हो जाता है।
तुम्हारा सारा धर्म राख है। और स्वभावतः इस राख के आस-पास बड़े न्यस्त स्वार्थ खड़े हो गए हैं। इस राख में बहुत लोगों ने व्यवसाय बना लिया है। इस राख में बहुत से लोगों ने अपने जीवन की आजीविका खोज ली है। इस राख में बहुत से न्यस्त स्वार्थ अपनी तृप्ति कर रहे हैं। इस राख के सहारे बहुत शोषण चल रहा है। इसलिए कोई बगावत करेगा तो बरदाश्त नहीं की जाएगी। सूली पर चढ़ाया जाएगा, पत्थर मारे जाएंगे, हत्या की जाएगी। यह राख का ही ढेर नहीं है, इस राख के ढेर के पास बहुत लोग खड़े हो गए हैं।
मैंने सुना है, एक फकीर का एक भक्त था। फकीर कुछ दिन गांव में ठहरा। जब जाने लगा, तो उस भक्त ने उसकी बड़ी सेवा की थी, याददाश्त के लिए फकीर ने अपना गधा उसे दे दिया, जिस पर वह यात्रा करता था। भक्त बहुत प्रसन्न हुआ। गरीब आदमी! गधा भी बहुत था। कुछ दिनों बाद गधा बीमार पड़ा और मर गया। वह उस गरीब की सारी संपदा थी, फिर उस संत की याद भी थी उस गधे के साथ जुड़ी। गधा ऐसा साधारण गधा भी नहीं था, विभूति था। संत ने दिया था, संत उस गधे पर बैठे थे। संत ने उस गधे को छुआ था, नहलाया भी था। संत के पवित्र हाथ के चिह्न थे उस गधे पर। वह कोई ऐसा वैसा गधा नहीं था, पहुंचा हुआ गधा था, सिद्ध गधा था, महात्मा था।
गरीब आदमी तो बहुत रोया। गधा ही नहीं मरा, यह संत की याद भी चली गई हाथ से। उसने उसकी कब्र बनाई, उसकी कब्र पर पत्थर लगवाया। उसकी कब्र को खूब फूलों से सजाया। उसको रोते देख कर, उसको कब्र पर फूल चढ़ाते देख कर, जो रास्ते से लोग निकलते थे वे भी फूल चढ़ाने लगे। लोग तो एक दूसरे को देख कर चलते हैं। जब यह आदमी वहां बैठा रोता रहता तो वे सोचते कि जरूर, किसी महात्मा की कब्र होगी। गधे की कब्र तो किसी ने कभी सुनी भी नहीं, होगी तो महात्मा ही की होगी। फिर इतनी भी फिकर कौन करता है, किस महात्मा की! क्या लेना देना? भक्तजन तो भक्तजन होते हैं। वे फूल चढ़ा देते, कोई पैसा चढ़ा जाता।
धीरे-धीरे तो बड़ा उसको लाभ होने लगा। गधे से तो इतना लाभ नहीं था, जितना गधे की कब्र से लाभ होने लगा। कोई नारियल चढ़ा जाता, कोई भोजन लगा जाता। लोग मनौतियां बोलने लगे कि अगर हमारा ऐसा हो जाएगा तो हम पांच रुपये चढ़ाएंगे कि पचास रुपये चढ़ाएंगे। अब सौ आदमी मनौती करें, पचास की तो पूरी होती ही हैं। पचास नहीं आते लेकिन बाकी पचास तो आते ही हैं।
बात फैलती गई, फैलती गई। उस कब्र की बड़ी प्रसिद्धि हो गई। कई वर्षों के बाद फकीर वापस लौटा। उसी झाड़ के नीचे आया तो देखा, वहां तो मंदिर बन गया है। वह तो बड़ा हैरान हुआ कि मंदिर यहां किसने बनवाया।। और मंदिर में देखा तो उसका ही वह भक्त पुजारी बन कर बैठा है। अब तो बात ही बदल गई है। बड़ी रंग-रौनक है, बड़े सेवक लगे हैं और लोग उसके हाथ-पैर दबा रहे हैं। उसने उससे पूछा कि भई, हुआ क्या?
वह तो देखा फकीर को, एकदम चरणों में गिर पड़ा। कहा, महात्मा, आपकी ही कृपा। विभूति! मैं समझा नहीं, महात्मा ने कहा, तू कर क्या...हुआ क्या यह? इतना सुंदर महल बन गया, मंदिर बन गया। इतने लोग, भक्ति भाव, पूजन चल रहा है, मामला क्या है?
उसने कहा, अब आपसे क्या छिपाना? यह वह जो आप गधा दे गए थे। अब आपसे क्या कहूं, झूठ तो बोल नहीं सकता। किसी को आप बताइएगा मत। सब लोग समझते हैं किसी महात्मा की, किसी सिद्धपुरुष की। और है ही गधा सिद्ध। आपका छुआ हुआ था, आपका दिया हुआ था। उसकी कब्र बन गई। वह मर गया, मैंने कब्र बना दी, उसी पर धीरे-धीरे यह सब खेल खड़ा हो गया है। फकीर हंसने लगा। उसने पूछा, आप हंसते क्यों हो? उसने कहाः हंसता इसलिए हूं कि मैं जिस गांव में रहता हूं, इसकी मां की कब्र पर यही सब खेल वहां चल रहा है। तू क्या समझता है, मैं कैसे जीता हूं? इसी गधे की मां...। जब से मरी, निहाल कर गई। यह साधारण गधा नहीं है, इसकी मां भी ऐसी थी। यह खानदानी गधा था।
तो एक बार जब राख की पूजा शुरू हो जाती है और उसके पास न्यस्त स्वार्थ खड़े हो जाते हैं, फिर कोई अगर कहे कि यह राख है तो लोग तो नाराज होंगे ही। लोग तो क्रुद्ध होंगे ही। क्योंकि जिनके स्वार्थ पर चोट लगेगी वे इसे क्षमा नहीं कर सकेंगे। उन्होंने कभी क्षमा नहीं किया।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, समय की रेत पर जो चिह्न बनते हैं शाश्वत के, वे ही शाश्वत के दुश्मन हो जाते हैं।
एक धर्म है, जो सारे जगत को धारण करता है--विशेषण शून्य। उसी को खोजो। हिंदू में मत उलझ जाना, मुसलमान में मत अटक जाना। तुम शाश्वत को खोजोगे तो ही तुम असली अर्थ में हिंदू हो पाओगे, असली अर्थ में मुसलमान हो पाओगे। और जो असली अर्थ में हिंदू है और असली अर्थ में मुसलमान, उसमें कुछ फर्क नहीं होता; फर्क हो नहीं सकता। जब तक फर्क होता हो तब तक समझना कि नकली अर्थ में हिंदू है, नकली अर्थ में मुसलमान है। जो असली अर्थ में परमात्मा को समझ लेता है उसके लिए मंदिर और मस्जिद सभी उसी के घर हैं। कुरान में उसीकी आयतें हैं, गीता में उसी के गीत हैं। सब उसका है। यह वैविध्य से भरा हुआ सारा जगत उसका है।
मगर यह तो होने ही वाला है और यह सदा होगा। पंडित में और ज्ञानी में संघर्ष है। ज्ञानी बगावती है, पंडित परंपरावादी है।

दूसरा प्रश्नः भगवान, मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूं। कभी युनिवर्सिटी नहीं गया। कुछ भी शास्त्र पूरे पढ़े नहीं, फिर भी आप मुझे पंडित की डिग्री दिए चले जाते हैं। अभिप्राय समझाने की कृपा करें।
॰ योग चिन्मय! पंडित डिग्री नहीं है, गाली है। कम से कम यहां तो निश्चित ही। पंडित तो एक तरह की हथौड़ी है जो मैं तुम्हारे सिर पर मारता हूं, ताकि तुम जागो।
तुम पंडित हो इसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि तुम जानकारी में उत्सुक हो जाते हो। जानकारी और जानने में फर्क है; बस वही फर्क समझ में आ जाए इसलिए बार-बार चोट करता हूं। और चोट करता हूं क्योंकि तुम्हें प्रेम करता हूं। यहां जो लोग इकट्ठे हैं, उन सबमें मुझे चिन्मय पर बहुत भरोसा है इसलिए चोट करता हूं। इसलिए बार-बार चोट करता हूं। बेरहमी से चोट करता हूं। क्योंकि संभावना है कि अगर तुम जागो तो जाग सकोगे।
और तुम्हारे सो जाने का डर बस एक जगह है, इसलिए बार-बार पंडित की गाली का उपयोग करना पड़ता है। वह जगह यह है कि तुम जानकारी में उत्सुक हो जाते हो जानने की बजाय। जानना अलग बात है। जानकारी उधार होती है, जानना निज का होता है, स्वयं का होता है। जानकारी किताब से आती है, जानना अंतरात्मा से उमगता है। जानकारी बाहर से आती है, जानना भीतर घटता है। जानकारी कूड़ा-करकट है, बोझ है। जानना निर्भार करता है, मुक्त करता है। जानना ध्यान से घटता है, जानकारी ज्ञान को अर्जित करने से। और मजा यह है कि जानकारी ध्यान में बाधा बन जाती है। क्योंकि जितना ही तुम जानते हो उतना ही अहंकार मजबूत होता है कि मैं जानता हूं, अब जानने को और क्या है!
इस देश का यही दुर्भाग्य है कि यह देश पंडित हो गया। पंडित यानी तोता। सभी लोग दोहरा रहे हैं। यहां अज्ञानी मिलता कहां? यहां तो ज्ञानी ही ज्ञानी हैं। यहां तो जिससे मिलो वही ज्ञानी है। यहां ब्रह्मचर्चा तो सभी तरफ चल रही है।
कहते हैं शंकर जब मंडन मिश्र से विवाद करने मंडला पहुंचे तो उन्होंने गांव के बाहर पनघट पर पानी भरती स्त्रियों से पूछा कि मंडन मिश्र का मकान कहां है? वे स्त्रियां हंसने लगीं। उन्होंने कहा कि तुम्हें इतना भी पता नहीं? जिस द्वार पर तोते भी वेदपाठ करते हों, समझना वही मंडन मिश्र का घर है।
एक दिन ऐसा था कि तोते भी वेदपाठ करते थे। अब ऐसा है कि वेदपाठी सिवाय तोतों के और कोई भी नहीं। वक्त बदल गया। अब खुद मंडन मिश्र वेदपाठ कर रहे हैं तोतों की तरह।
तोते में और आदमी में फर्क क्या होता है? वही ज्ञानी में और पंडित में फर्क है। तोता सिर्फ दोहराता है। उसे अर्थ का भी पता नहीं है। उसे शब्द मालूम है, वह सिर्फ शब्द दोहराता है। वह क्यों दोहरा रहा है इसका भी उसे पता नहीं है। सिखाने वाले ने क्यों सिखा दिया इसका भी उसे पता नहीं। तुम जब राम-राम, राम-राम दोहराते हो, तुम्हें पता है तुम क्या दोहरा रहे हो? तुम्हें राम का पता है? जैसे धनी धरमदास को था, ऐसा तुम्हें पता है! जैसे कबीर को था, नानक को था, ऐसा तुम्हें पता है? तुम्हें राम का अर्थ पता है? हां, तुम कहोगे पता है, शब्दकोश में जो लिखा है--कि राम भगवान का एक नाम है। यह पता होना हुआ? यह तोतापन है।
तुम्हें राम का कोई अनुभव नहीं है तो अर्थ कैसे हो सकता है? अनुभव से अर्थ आता है। जब तुमने राम की झलक पाई हो और तुम्हारे हृदय से राम-नाम उठे, तब अर्थ होगा। जब तक वैसी झलक नहीं पाई है तब तक तुम कुछ भी कहते रहो, तुम्हारे कहने में कुछ अर्थ नहीं क्योंकि तुम्हारे कहने में तुम्हारे प्राण का कोई साथ नहीं है।
मस्तिष्क एक यंत्र है, कंप्यूटर है। इसमें जानकारी डाल दो, यह दोहराता चला जाता है। यह एक मशीन है। इस मशीन पर भरोसा मत कर लेना। जब मैं पंडित कहता हूं तो मैं यह कह रहा हूं कि तुमने मस्तिष्क पर बहुत भरोसा कर लिया है। चैतन्य के प्रति जागो, मस्तिष्क से मुक्त होओ। मस्तिष्क के पीछे छिपे हुए साक्षी को पकड़ो। ऐसा कुछ भी मत कहो जो सिर्फ जानकारी है। और तुम अचानक पाओगे, तुम्हारी निन्यानबे प्रतिशत बोली खो गई। क्योंकि निन्यानबे प्रतिशत जानकारी है। लेकिन वह जो एक प्रतिशत बचेगी, वही तुम्हारे जीवन में आभा ले आएगी। उसी से तुम्हारे जीवन में संपदा का आविर्भाव होगा।
तुम पूछते हो कि ‘मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूं। युनिवर्सिटी कभी गया नहीं।’
तुम सौभाग्यशाली हो; नहीं तो तुम यहां न होते। तुम्हारे भीतर पंडित होने का खतरा है ही। वही तुम्हारा एकमात्र पापकर्म है। अगर तुम युनिवर्सिटी गए होते तो तुम पंडित हो ही गए होते। अच्छा ही हुआ, बहुत पढ़े-लिखे नहीं हो, बहुत युनिवर्सिटी नहीं गए। नहीं तो तुम अपनी बुद्धि बचा कर लौट नहीं सकते थे।
युनिवर्सिटी से मुश्किल से ही लोग अपनी बुद्धि बचा कर लौट पाते हैं। जो लौट आए वह धन्यभागी।
युनिवर्सिटी तो नष्ट कर ही देती है। क्योंकि युनिवर्सिटी तुम्हारी बुद्धि के विकास के लिए अवसर ही नहीं देती, सिर्फ तोतापन के विकास का अवसर देती है। युनिवर्सिटी सिखाती है--पचाना नहीं, वमन करना। भरो किसी तरह और परीक्षा की कापियों पर वमन कर दो। उलटी करना सिखाती है। खून नहीं बनाती। युनिवर्सिटी से यह तय नहीं होता कि कौन आदमी बुद्धिमान है। इतना ही तय होता है किसके पास अच्छी स्मृति है, कुशल स्मृति है। कुशल स्मृति से बुद्धिमानी का कुछ लेन देन नहीं?
मनस्विद कहते हैं कि कुशल स्मृति अक्सर ऐसे लोगों की होती है जो बुद्धिमान नहीं होते। और बुद्धिमान अक्सर ऐसे होते हैं, उनकी स्मृति कुशल नहीं होती। यह अक्सर होता है। क्योंकि बुद्धि जब ऊंचाइयां भरने लगती है तो नीची बातों को भूल जाती है। और जब नीची बातें बहुत याद रहती हैं तो ऊंची उड़ान नहीं भरी जा सकती। और विश्वविद्यालय की सारी शिक्षा एक बात पर निर्भर है कि तुम किसी तरह से पुनरुक्त कर सको। उतनी ही कुशलता बस चाहिए। किस तरह पुनरुक्त करते हो इसकी भी फिकर नहीं। कैसे तुम कंठस्थ कर लेते हो। कैसे तुम घोंट-घोंट कर किसी तरह जाकर परीक्षा की कापी में उतार आते हो और फिर परीक्षा की कापी में उतार कर सदा के लिए भूल जाते हो। तुम विश्वविद्यालय से लौटने के बाद, दो साल बाद अगर तुम्हारी फिर परीक्षा ली जाए, तुम उसी परीक्षा में पास कभी न हो पाओगे, जिसमें तुम पास हो चुके थे दो साल पहले। अचानक ली जाए परीक्षा तो तुम्हारे सौ स्नातकों में से निन्यानबे फेल हो जाएंगे। यह भी बड़ा मजा हुआ।
एम ए करके लौटे तो दो साल बाद तो समझ और बढ़नी चाहिए। लेकिन दो साल बाद अगर अचानक पकड़ लो तुम्हारे एम ए करने वाले को और उसकी परीक्षा ले लो, वे गए काम से! उनका सर्टिफिकेट वापस लेना पड़ेगा। किसको याद रहा? अब कौन फिकर करता है कि हेनरी अष्टम नाम का कोई महामूढ़ कब इंग्लैंड का राजा था, लेना देना किसको है? अष्टम था कि सप्तम था कि नवम था; और था भी कि नहीं भी था, लेना देना किसको है? कौन याद रखता है, किसलिए याद रखता है?
लेकिन विश्वविद्यालय इस तरह के कचरे को याद करवाता है। वह इसलिए याद करवाता है कि जो चीज तुम याद रख सकते हो, उससे तो परीक्षा होगी नहीं। क्योंकि उसको तो तुम सहज याद रख लोगे। उसमें तुम्हारी रुचि होगी। फिल्म तुम देखने जाते हो, वह तुम्हें पूरी याद रह जाती है। उसकी परीक्षा नहीं लेगा विश्वविद्यालय क्योंकि उसमें कोई सार ही नहीं। उसमें पता ही नहीं चलेगा क्योंकि वह सभी को याद रह जाती है। परीक्षा तो ऐसी फिजूल की बातों की लेनी पड़ती है जो कि कोशिश करके याद रहें। हेनरी सप्तम! टिम्बक्टू कहां है? कि ल्हासा की आबादी कितनी है? इस तरह की व्यर्थ की बातें, जिनको तुम किसी तरह के रस से संबंध नहीं कर सकते, जिनको तुम भूल ही जाओगे, उनको याद रखने की कुशलता को लोग जानकारी, जानने वाला, पंडित, प्रोफेसर इस तरह की भ्रांतियां पैदा करवा देते हैं।
अच्छा ही हुआ चिन्मय कि तुम विश्वविद्यालय नहीं गए। खतरा था। तुम खो जाते। उस जंगल में खो जाने का डर था। अब भी थोड़ा खतरा है इसलिए तुम्हें बार-बार मैं पंडित कहता हूं। अब भी तुम्हारे भीतर एक गहरा संस्कार है, जो चूक-चूक जाता है; जो भूल-भूल जाता है साक्षी को और पकड़ लेता है ज्ञान को। यह क्रांति तुम्हारे भीतर घट जाए इसी आकांक्षा में चोट करता हूं। यह तुम्हें किसी दिन दिखाई पड़ जाए और तुम सारी जानकारी छोड़ दो। तुम निर्भार हो जाओ। तुम सिर्फ एक बात पर खयाल रखो, वह जो तुम्हारे भीतर छिपी हुई चेतना है उस पर जानकारी के पत्तों को मत छाने दो। चेतना की धारा को जानकारी के पत्तों से मुक्त रखो।
यहां पूना की नदी पत्तों से भर जाती है। इतनी भर जाती है कि पीछे कुछ दिखाई नहीं पड़ता, पत्ते ही पत्ते हो जाते हैं। ऐसा ही जानकार चित्त पत्तों से भर जाता है। धीरे-धीरे पत्ते इतने फैल जाते हैं कि अंतर्धारा भूल ही जाती है। तुम्हारी चेतना की नदी नील नदी न बन जाए, जमीन के भीतर न बहने लगे।
यह कोई डिग्री नहीं है, जो मैं तुमसे कहता हूं। यह कोई उपाधि नहीं है, यह व्याधि है। सजग रहो। जिस दिन कहना बंद कर दूंगा तुम्हें पंडित, समझना तुम्हारे जीवन का बहुत सौभाग्य का दिन आ गया। आशा रखता हूं कि वह दिन आएगा इसीलिए कहता हूं।
ऐसे लोगों से भी आशा रखता हूं मैं, जिनसे आशा नहीं रखनी चाहिए। चिन्मय से तो मुझे आशा है लेकिन ऐसे भी लोग हैं यहां, जिनसे मुझे आशा भी नहीं है। आशा के विपरीत भी आशा रखता हूं। जैसे कृष्णप्रिया है। वह कुत्ते की पूंछ है; जिसके बाबत कहावत है, कि उसको बारह साल भी अगर बांस की पोंगरी में रखो, जब निकालोगे, वह फिर तिरछी ही जाएगी। मगर फिर भी उसको पोंगरी में रखता हूं। कौन जाने, कहावत एकाध बार गलत हो जाए! आशा के विपरीत भी आशा रखता हूं। और हारे भी तो खोया क्या! पाया तो कुछ पाया। और कहावतें गलत करने में भी एक मजा है। कृष्णप्रिया पर मेहनत किए चला जाता हूं कि अगर यह सही हो गया और कृष्णप्रिया अगर बदल गई तो यह कहावत बदल देंगे।

तीसरा प्रश्नः अनुकंपा कर समझाएं सदगुरु से आंतरिक निकटता का अर्थ।
॰ एक तो निकटता भौतिक है। भौतिक निकटता से सदगुरु के पास नहीं पहुंचा जाता। और सारे संबंध इस जगत में भौतिक संबंध हैं, गुरु का संबंध अभौतिक संबंध है।
तुम एक स्त्री के प्रेम में पड़ते हो, वह उसकी देह का प्रेम है। तुम अपनी मां को प्रेम करते हो क्योंकि तुम्हारी देह तुम्हारी मां से आई है। तुम्हारी देह और तुम्हारी मां की देह में एक तरंग है, एक जोड़ है, एक सेतु है। तुम अपने भाई को प्रेम करते हो, अपनी बहन को प्रेम करते हो क्योंकि तुम एक ही स्रोत से उमगे हो। तुम्हारे भीतर एक तरह की समानांतरता है।
गुरु से प्रेम असंभव घटना है। घटती है, मगर करीब-करीब असंभव घटना है। क्योंकि देह का कोई नाता ही नहीं है। और अगर गुरु से भी तुम्हारा देह का नाता है तो फिर गुरु-शिष्य का संबंध नहीं है। फिर मित्रता होगी, प्रेम होगा, कुछ और होगा, श्रद्धा नहीं है। श्रद्धा का अर्थ होता हैः किसी एक व्यक्ति में तुमने देह नहीं देखी, आत्मा देखी।
और ऐसा नहीं है कि गुरु और शिष्य के संबंध में देह का खंडन करना है। नहीं, देह के ऊपर उठना है। देह तो दिखाई पड़ती है। देह है तो दिखाई पड़ेगी ही। लेकिन देह ही दिखाई नहीं पड़ती है, देह के भीतर जो ज्योतिर्मय बैठा है वह दिखाई पड़ने लगता है। और धीरे-धीरे उस ज्योतिर्मय में इतना डूब जाता है भाव, कि देह भूल जाती है। जिस व्यक्ति के पास बैठे-बैठे देह भूल जाए, वही तुम्हारा गुरु है। जिस व्यक्ति के पास बैठे-बैठे अदृश्य की प्रतीति होने लगे, वही तुम्हारा गुरु है। जिसके भीतर से भगवत्ता की पहली किरण तुम्हें दिखाई पड़े, जिसे तुम भगवान कह सको, वही गुरु है।
मैं यह नहीं कहता कि गुरु को भगवान कहना चाहिए। जिसको तुम भगवान कह सको वही गुरु है।
यह आकस्मिक नहीं है कि बौद्धों ने बुद्ध को भगवान कहा और जैनों ने महावीर को भगवान कहा। और दोनों धर्म ईश्वर को मानने वाले धर्म नहीं हैं। ईश्वर को मानो या न मानो, लेकिन जब किसी व्यक्ति में मृण्मय देह के भीतर चिन्मय का भाव अनुभव होगा तो क्या करोगे? भगवान शब्द का उपयोग करना ही पड़ेगा। भगवान का अर्थ ईश्वर नहीं होता, भगवान का इतना ही अर्थ होता है, जगत पदार्थ पर समाप्त नहीं है ऐसा किसी व्यक्ति में अनुभव हुआ। देह के पार कुछ है, इसका सुराग मिला। देह के पार कुछ है इसकी झलक--कभी-कभी पकड़ में आती है, कभी-कभी चूक जाती है। कोई क्षण होते हैं सौभाग्य के जब आंख खुलती है और एक क्षण को तुम रूपांतरित हो जाते हो।
तो गुरु के आंतरिक निकटता का पहला अर्थः जिसमें तुम्हें भगवत्ता दिखाई पड़े।
दूसरी बात, जिसके पास तुम्हारे भीतर समर्पित होने का सहज भाव पैदा हो; चेष्टित नहीं, सप्रयास नहीं, किसी हेतु से नहीं, मोटिवेटेड नहीं, अनायास। जिसके पास झुक जाना अनायास हो जाए। करना पड़े तो काम का नहीं। दूसरों को देख कर करो तो भी काम का नहीं। वह अनुकरण है, वह झूठा है।
ऐसा रोज हो जाता है। कोई व्यक्ति मेरा आकर चरण छू रहा है, दूसरा व्यक्ति जो उसके पीछे मिलने आया है वह भी यह देख कर कि चरण छूना चाहिए, छू लेता है।
मैं एक बार मृदुला के घर बंबई में मेहमान था। दो मित्र मुझे मिलने आए थे, दोनों बैठे थे। वर्षों से मुझे जानते थे, वर्षों से मुझे मिलने आते थे। तीसरा आदमी आया। वह नया आदमी था, वह पहली दफा आया था। उसे मेरे ढंग का अभी कुछ पता नहीं था। वह साधु-संतों के पास जाता होगा। तो उसने जल्दी से सौ का एक नोट निकाला और मेरे चरणों में रखा। वह अपने गुरु के चरणों में रखता होगा। इसके पहले कि मैं उसको कुछ कहूं, वे जो दो सज्जन बैठे थे, उन्होंने भी जल्दी से रुपये निकाले और मेरे पैर में रखे।
मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने उनसे पूछाः भई यह आदमी नया है, इसे नोट मूल्यवान मालूम पड़ता है। यह गुरु के पास भी जाए तो नोट को ही धन मानता है। इसका मूल्य नोट में है। इसके पास और कुछ चढ़ाने को नहीं है, यह गरीब आदमी है। मगर तुम तो मुझे जानते हो। और तुमने, मैं दस साल से जानता हूं कभी नोट नहीं चढ़ाया, आज तुम्हें क्या हो गया? उन्होंने कहाः जब इस आदमी ने चढ़ाया तो हमने सोचा कि अरे, हमने कभी नहीं चढ़ाया! चढ़ाना चाहिए। हमसे बड़ी भूल हो रही है।
अब यह पहला आदमी तो गलती कर ही रहा है लेकिन फिर भी इसकी गलती कम से कम इसकी निजी है। ये दूसरे जो आदमी गलती कर रहे हैं, ये उधार गलती कर रहे हैं, इनकी गलती भी अपनी नहीं है। अगर तुम किसी को देख कर किसी के चरणों में झुक जाओ तो वह झूठ होगा। अगर तुम किसी लोभ के वश झुक जाओ तो झूठ होगा। अगर तुम इसलिए झुक जाओ कि शायद कुछ लाभ होगा, चुनाव में खड़े हो गए हैं, शायद जीत जाएंगे।
इधर मेरे पास लोग आ जाते हैं। चरण छूकर कहते हैं कि चुनाव में खड़े हो गए हैं, अब आपके हाथ में लाज है। मैं उनसे कहता हूं, अगर तुम सच में मेरा आशीर्वाद चाहते हो तो चुनाव में हारोगे। क्योंकि मैं वही आशीर्वाद दे सकता हूं कि भगवान न करे कि तुम जीत जाओ। क्योंकि पहले ही निकल आओ इस पागलखाने के बाहर तो अच्छा है। घुसने के बाद निकलना बहुत मुश्किल हो जाएगा। एक दफे दिल्ली पहुंच गए फिर राजघाट पर ही मरते हैं लोग, फिर लौट नहीं पाते। दिल्ली के बाद राजघाट ही बचता है, फिर और जाओ कहां? तो अभी बाहर से ही निकाल लूंगा तुम्हें। वे कहते हैं, नहीं नहीं, आप भी कैसी बातें कर रहे हैं! आप मजाक कर रहे हैं। वे घबड़ाने लगते हैं कि आप मजाक कर रहे हैं। नहीं, ऐसा मत कहिए।
अगर मैं उनसे कहता हूं, मेरा आशीर्वाद चाहते हो तो मैं यही दूंगा कि परमात्मा करे कि तुम कभी राजनीति में सफल न हो पाओ। क्योंकि जो राजनीति में सफल हुआ वह धर्म में हार गया। जो संसार में सफल हुआ, वह शायद परमात्मा को याद ही न कर पाए। वह इसी सफलता में भटक जाएगा। कहते हैं न, हारे को हरिनाम! तो मैं तुमसे कहूंगा, हार जाओ ताकि कम से कम हरिनाम याद आए। हारे में ही लोग याद करते हैं, जीते तो अकड़ जाते हैं। तो जीत अंततः महंगी पड़ती है। तो वे कहते हैं हम और संतों के पास जाते हैं, वे तो आशीर्वाद देते हैं। मैंने कहा, उनकी वे जानें। वे किस भांति के संत हैं, वे जानें। मैं कोई संत नहीं हूं। मैं तो जो सच-सच है वही तुमसे कह रहा हूं। मेरा हार्दिक आशीर्वाद तो यही है कि तुम कभी जीतो न।
अब यह आदमी झुकने आया था? यह झुकने नहीं आया था, यह कुछ लेने आया था। कुछ भीतर वासना थी, लोभ था। कुछ हेतु था। अगर हेतु से झुको तो गुरु के पास नहीं पहुंच सकोगे। अहैतुक झुक सकते हो? अहैतुक झुकने का क्या अर्थ होगा? उसका अर्थ होगा, कोई जगह झुकने योग्य लगी। कोई जगह थी, जहां बिना झुके नहीं रहा जा सका। कोई जगह थी, जहां सोचा भी नहीं था और झुक गए।
आलमे-कैफ-सा हो जाता है तारी मुझ पर
बैठे-बैठे जो मुझे याद तेरी आती है।
गुरु सामने हो यह भी जरूरी नहीं है। याद भी आए तो झुक जाते हो।
आलमे-कैफ-सा हो जाता है तारी मुझ पर
एक विस्मय विमुग्धता छा जाती है, एक रहस्य का लोक खुल जाता है, एक शराब बरस जाती है--बैठे-बैठे जो मुझे याद तेरी आती है।
तेरे खिरामे-नाच की जब याद आ गई
चलने लगी नसीम छलकने लगी शराब
शिष्य तो प्रेमी है। जैसे प्रेमी को अपनी प्रेयसी की याद आ जाए।
तेरे खिरामे-नाच की जब याद आ गई
चलने लगी नसीम छलकने लगी शराब
हवा बहने लगती है, शराब ढलने लगती है। जैसे प्रेमी को प्रेयसी की याद से हो जाता है, वह तो कुछ भी नहीं है। लेकिन जब कोई अहैतुक भाव से किसी के चरणों में झुक जाता है तो ऐसी बूंदा-बांदी नहीं होती शराब की फिर, मूसलाधार वर्षा होती है। और हवा ऐसी आती है कि जो फिर जाती नहीं। एक नये ही लोक में पदार्पण हो जाता है।
साकी तेरी निगाह की मस्ती में डूब कर
मैं होश में न आऊं अगर मेरा बस चले
यह एक अनूठा नाता है, जहां गुरु की आंखों में झांक कर इस जगत के पार जाने का द्वार मिल जाता है।
साकी तेरी निगाह की मस्ती में डूब कर
और गुरु से ज्यादा मस्त आंखें कहां पाओगे? और सारी मस्तियां तो क्षुद्र हैं। सुंदर से सुंदर स्त्री या सुंदर से सुंदर पुरुष की आंख भी कल कुरूप हो जाएगी। क्योंकि सौंदर्य देह का है। देह अभी शराब में है, अभी जवान है, तो सब सौंदर्य है। कल देह की बाढ़ उतर आएगी, यही आंखें कुरूप हो जाएंगी।
तुमने खयाल किया? हमने बुद्ध की मूर्ति बुढ़ापे की नहीं बनाई; न राम की, न कृष्ण की, न महावीर की। क्या तुम सोचते हो, ये कभी बूढ़े न हुए होंगे? ये जरूर बूढ़े हुए थे। बूढ़े न होते तो मरते कैसे? जरूर बूढ़े हुए थे लेकिन हमने बुढ़ापे की मूर्ति नहीं बनाई। क्योंकि जिन्होंने इनको प्रेम किया, जिन्होंने इनको जाना, उन्होंने इनकी देह से तो ऊपर कुछ जाना, जो कभी बूढ़ा नहीं होता; जो सदा जवान है, जो चिर यौवन है। जिन्होंने बुद्ध की आंखों में झांका उन्होंने जाना कि वे चिर यौवन के करीब आ गए। वहां उन्होंने शाश्वत की झलक देखी, जिसकी कोई उम्र नहीं होती। इसलिए बुद्ध की सब मूर्तियां जवानी की हैं, महावीर की सब मूर्तियां जवानी की हैं। कृष्ण की, राम की सब मूर्तियां जवानी की हैं। ये सब बूढ़े हुए थे, मगर फिर भी इनमें कुछ एक झलक थी जो शाश्वत की थी, जो कभी बूढ़ी नहीं हुई।
साकी तेरी निगाह की मस्ती में डूब कर
मैं होश में न आऊं अगर मेरा बस चले
शिष्य तो झुकता है तो उठना नहीं चाहता। और कोई हेतु नहीं। तुम अगर शिष्य से पूछो, क्यों झुके? तो जवाब न दे सकेगा। जो जवाब दे सके वह शिष्य नहीं। फिर से दोहरा दूंः तुम अगर शिष्य से पूछोगे कि तुम झुके क्यों उन चरणों में, तो वह अवाक खड़ा रह जाएगा। उसे भरोसा ही नहीं आएगा कि कोई यह सवाल भी पूछ सकता है। और उसके पास कोई उत्तर नहीं होगा। वह निरुत्तर रह जाएगा। वह मौन रह जाएगा। क्योंकि उत्तर का तो मतलब होगा कोई हेतु बतलाए--क्यों? हेतु वहां कुछ भी न था।
जब तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाता है, तुम कारण बता सकते हो, क्यों? आज तक कोई प्रेमी नहीं बता सका। और जिन्होंने बताया है, वे प्रेमी नहीं हैं। कोई कहता है इसलिए, कि उसके बाप के पास बहुत धन है, तो यह प्रेमी नहीं है। कोई कहता है इसलिए, कि वह बहुत पढ़ी-लिखी है; यह प्रेमी नहीं है। कोई कहता है कि उस पुरुष की अच्छी नौकरी है, इसलिए स्त्री प्रेम में पड़ गई है। यह प्रेम नहीं है। जहां प्रेम है वहां उत्तर नहीं हो सकता। क्यों का क्या उत्तर हो सकता है? सन्नाटा हो जाएगा। क्यों? तुम इतना ही कह सकोगे, प्रेम है इसलिए। मगर यह कोई उत्तर हुआ? यही तो पूछा गया था। प्रेम किसलिए? तुम कहते हो, प्रेम है इसलिए। कोई कारण नहीं बताया जा सकता।
और गुरु के साथ प्रेम इस जगत का सबसे ऊंचा प्रेम है। उसके बाद तो बस, परमात्मा का प्रेम ही बचता है। गुरु के बाद फिर और सीढ़ी कहां? बस, फिर परमात्मा का आकाश है।
तुमने पूछाः ‘समझाएं सदगुरु से आंतरिक निकटता का अर्थ।’
अहैतुक झुक जाना। निर-अहंकार भाव में झुक जाना। ना-मैं की स्थिति में झुक जाना। अपने को पोंछ देना। अपने को बचाना नहीं।
अहंकार बड़े-बड़े उपाय करता है अपने को बचाने के। बड़ा कुशल है, बड़ी सूक्ष्म विधियां खोजता है। उनसे सावधान रहना।
कभी-कभी तो ऐसा होता है, तुम अहंकार के कारण भी झुक जाते हो। यह उलटी बात लगती है। मगर अगर झुकने के कारण ही अहंकार की तृप्ति होती हो तो तुम इसलिए भी झुक जाते हो। तुम यह भी अहंकार अपने मन में ले सकते हो कि देखो, मैं कितना विनम्र हूं, झुक गया चरणों में। जब दूसरे अकड़े खड़े थे, मैं झुक गया। मगर यह फिर झुकना नहीं रहा। तुम चूक गए। झुके और नहीं झुके। जहां मैं आ गया, वहां चूक हो गई।
गुरु के पास होने का अर्थ है, इस भांति होना कि तुम हो ही नहीं। जितने तुम नहीं हो उतने ही पास हो। गुरु तो नहीं ही है। वह तो परमात्मा में लीन हुआ। वह तो शून्य हुआ। उसके पास तुम उतने ही निकट आते जाओगे, जितने शून्य होते जाओगे। और जिस दिन शिष्य और गुरु दोनों एक से शून्य हो जाते हैं उसी दिन मिलन घट जाता है। उस दिन फिर गुरु गुरु नहीं, शिष्य शिष्य नहीं। फिर दो नहीं बचे, फिर एक ही बचा।
यह याद से भी होने लगेगा। इसलिए गुरु के पास होना अनिवार्य नहीं है। कहीं भी होओ, वहीं घट जाएगा।
पासे-अदब से छुप न सका राज इश्क का
जिस जां तुम्हारा नाम सुना, सर झुका दिया
बुद्ध का बड़ा शिष्य था सारिपुत्र। जब सारिपुत्र ज्ञान को उपलब्ध हो गया तो बुद्ध ने कहाः सारिपुत्र, अब तुझे मेरे साथ होने की जरूरत नहीं है, अब तू जा, और सोए हैं लोग उनको जगा। सारिपुत्र की आंखों से आंसू टपकने लगे। बुद्ध ने कहाः तू और रोता है? वर्षों से सारिपुत्र ने बुद्ध को नहीं छोड़ा था, छाया की तरह चलता था। लेकिन अब जानता था कि घड़ी आ गई है, जाना पड़ेगा।
जब बुद्ध की आज्ञा हो गई तो गया भी। लेकिन कहीं भी होता, रोज सुबह जिस दिशा में बुद्ध होते, उस दिशा में सिर झुका कर जमीन पर पड़ जाता। अनेक उसके शिष्य थे, वे उससे कहते कि आप तो स्वयं बुद्ध हो गए हैं, अब आप क्यों झुकते हैं? उन्होंने कहाः मैं उसी कारण तो बुद्ध हुआ कि मैं नहीं रहा। अब झुकता हूं यह कहना भी ठीक नहीं है, झुकना घटता है। और जिसके शून्य के पास बैठ-बैठ कर मैं शून्य हुआ उसका अनुग्रह भूले नहीं भूलता। उससे मैं कभी उऋण नहीं हो सकूंगा।
इसलिए पुरानी कहावत कहती है, पिता के ऋण से उऋण हुआ जा सकता है, मां के ऋण से उऋण हुआ जा सकता है लेकिन गुरु के ऋण से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं। एक ही उपाय है कि जो तुमने गुरु से पाया है उसे दूसरों में बांट देना। जैसे गुरु ने तुम्हें जगाया, ऐसे तुम किसी और को जगा देना। जो तुम्हारा बुझा दीया जल उठा है गुरु के पास, और बुझे दीयों को तुम्हारे दीये के पास आकर जल जाने देना। यह संक्रांति तुमसे औरों में घटती रहे, बस।
निकटता का अर्थ है मिट जाना।
आ गई मौत बेअजल उसकी
तूने देखा जिसे नजर भरके
पुराने शास्त्र एक अपूर्व बात कहते हैं, वे कहते हैं, ‘आचार्यो मृत्युः।’ गुरु मृत्यु है। गुरु के पास जाओगे तो मरोगे, मिटोगे। मिटोगे तो ही हो सकोगे।
आ गई मौत बेअजल उसकी
तूने देखा जिसे नजर भरके
तूने देखा जिसे नजर भरके--गुरु तो देखता ही है नजर भरकर। वह आधी नजर तो देख ही नहीं सकता। उसका तो प्रत्येक कृत्य समग्र होता है। लेकिन तुम अपनी आंख बचा जाते हो। शिष्य वही है जो आंख न बचाए; जो झेल ले। वह जो गुरु की तलवार गिरे तो फूल की माला की तरह झेल ले।
मुझे आजमाइश में मत डालिएगा
मैं मर जाऊंगा आपसे दूर होकर
एक मौत है जो गुरु के पास घटती है, एक मौत है जो उससे दूर होकर घटेगी। गुरु से दूर होकर जो मौत घटती है उसी को तुमने अब तक जीवन समझा है। और गुरु के पास होकर जो मौत घटती है वही परम जीवन है। वही पुनरुज्जीवन है, वही नया जीवन है, दिव्य जीवन है--या जो भी नाम तुम उसे देना चाहो; निर्वाण कहो, संबोधि कहो, समाधि कहो।

चैथा प्रश्नः सब कुछ ठीक चलता रहता है, फिर किसी कमजोर क्षण में मेरा सारा अतीत एक तूफान-समान घेर लेता है और कहता मालूम होता है, जाने नहीं दूंगा। सिर की सारी नसें खिंचाव में आ जाती हैं। प्रवचन में समाधान हो जाता है पर फिर संसार में जाकर वही शक्तियां प्रबल होना चाहती हैं।
॰ पूछा है प्रतिभा ने।
ऐसा स्वाभाविक है। यहां तुम एक तरंग में होते हो। मेरी लहर के साथ बहते हो। संसार में जाते हो, फिर तुम अकेले हो जाते हो। अभी तुम्हें वह कला नहीं आई है कि तुम मुझे अपने साथ वहां भी ले जा सको। मैं तो तैयार हूं। आते-आते वह भी आ जाएगी। यहां तो तुम एक वातावरण में होते हो। यह गैरिक संन्यासियों का अपना एक जगत है। इसकी अपनी एक धुन है, अपनी एक हवा है। इस हवा में तुम सहज ही ऊंचे आकाश में उठ जाते हो। अकेले रह जाओगे, अपने ही पंखों पर तुम्हें अभी भरोसा नहीं है। मेरे साथ-साथ तुम दूर की उड़ान ले लेते हो। लेकिन अपने पर ही छोड़े जाओ तो तुम भयभीत हो जाते हो, शंकालु हो जाते हो। तुम्हें भरोसा नहीं आता। आत्म-विश्वास नहीं उठता कि मैं इतनी ऊंची उड़ान पर जी सकूं। संसार में लौटते हो, वहां भीड़ है और तरह के लोगों की। वहां और तरह की हवा है। उस हवा में तुम फिर खिंच जाते हो नीचे की तरफ।
तो प्रतिभा का प्रश्न महत्वपूर्ण है, सभी के लिए काम का है। सब कुछ ठीक चलता रहता है, फिर किसी कमजोर क्षण में...।
वे कमजोर क्षण आते रहेंगे। लेकिन उन कमजोर क्षणों को जाग कर देखो। उन कमजोर क्षणों को तादात्म्य मत कर लेना। उनके साथ अपने को एक मत समझ लेना। वे तुम नहीं हो। कमजोर क्षण आएगा। तुम दूर खड़े होकर देखना साक्षीभाव से। लड़ना भी मत उससे, झगड़ना भी मत, धकाने की कोशिश भी मत करना, बदलने की चेष्टा भी मत करना। उपेक्षा से देखना।
एक बात सदा खयाल रहे कि मित्रता भी लगाव का संबंध है, शत्रुता भी लगाव का संबंध है। जिससे तुम प्रेम से जुड़ते हो उससे भी जुड़ जाते हो और जिससे तुम घृणा से जुड़ते ही उससे भी जुड़ जाते हो। दोनों ही जोड़ हैं। मित्र ही नहीं एक दूसरे के सगे होते, शत्रु भी एक दूसरे के बड़े सगे होते हैं। मित्र तो भूल भी जाएं, शत्रु भूलते ही नहीं। इसलिए यह मन का एक अनिवार्य नियम खयाल में रखना कि जिन चीजों से मुक्त होना हो उनके साथ दुराव, दुश्मनी मत बना लेना, अन्यथा जोड़ हो जाएगा। फिर छूटना मुश्किल हो जाएगा। न तो मैत्री बनाना और न शत्रुता--उपेक्षा! उपेक्षा सूत्र है। देखते रहना, जैसे हमें कुछ लेना-देना नहीं है!
जैसे रास्ते से कोई गुजर रहा, है, हमें क्या लेना-देना है? अच्छा आदमी गुजरे, बुरा आदमी गुजरे, हमें क्या लेना-देना है? गरीब गुजरे, अमीर गुजरे, रास्ता चलता ही रहता है। ऐसे ही तुम्हारे मन के रास्ते पर बहुत तरह की चीजें गुजरती हैं। तुम दूर खड़े हो जाओ, यह राह चलने दो। तुम इसमें उपेक्षा रखना।
जब तुम्हें कोई कमजोर क्षण आता मालूम पड़े तो भयभीत भी मत होना और बांहें कस कर लड़ने को तैयार भी मत हो जाना। उन दोनों ही हालत में तुम उलझ जाओगे। कमजोर क्षण है, देखना। क्रोध उठा, कमजोर क्षण है, देखना। न तो क्रोध की मान कर क्रोध करना और न क्रोध को दबाने में लग जाना। क्योंकि जो आज दबाया है, कल उभरेगा। और दबाते-दबाते बहुत बुरी तरह उभरेगा। दमन से कोई कभी मुक्त नहीं होता। और जो आज किया है वह अयास बन जाएगा, कल फिर करना पड़ेगा।
करने से भी कोई मुक्त नहीं होता। क्रोध करने से भी कोई मुक्त नहीं होता क्योंकि अयास सघन होता जाता है। और क्रोध को दबाने से भी कोई मुक्त नहीं होता क्योंकि दबी हुई क्रोध की ऊर्जा ऐसे इकट्ठी हो जाती है, जैसे केतली का ढक्कन बंद हो और भीतर भाप इकट्ठी हो जाए। केतली फूट सकती है।
तो न तो क्रोध से लड़ना और न क्रोध से दोस्ती करना। चुपचाप देखते रहना; क्रोध आया, धुआं उठा। जैसे आया, वैसे ही चला जाएगा। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा है, इतना ही भीतर मन में कहनाः क्रोध आया। और जब देखो कि अब क्रोध जाने लगा तो फिर मन में कहनाः क्रोध गया। बस इतनी जागरूकता रखना--क्रोध आया, क्रोध गया। इससे ज्यादा कोई चिंता लेने की जरूरत नहीं है। और धीरे-धीरे जिन चीजों के प्रति तुम्हारी उपेक्षा होगी उनका आगमन कम होता जाएगा।
‘सब कुछ ठीक चलता रहता है,’ पूछा है, ‘फिर किसी कमजोर क्षण में मेरा सारा अतीत एक तूफान के सामान घेर लेता है।’
अतीत बार-बार घेरेगा। क्योंकि अतीत आसानी से नहीं जाता। तुमने ही तो बनाया है उसे। तुमने ही तो इतना संवारा है उसे। तुमने ही तो इतना पानी दिया है अतीत की जड़ों में, एकदम जाएगा कैसे? तुमने ही तो बड़ी मेहनत उठाई है--यह कारागृह जिसमें तुम बंद हो, तुम्हारा ही बनाया हुआ घर है। एकदम जाएगा भी नहीं, जाते-जाते जाएगा। अब जब अतीत का तूफान आ जाए...और प्रतिपल आता है। स्मृतियां घेर लेती हैं, वही अतीत का तूफान है। तब भी तुम उपेक्षा रखना। देखना कि स्मृतियां उठ गईं, चारों तरफ घिर गया चित्त, बीच में खड़े हो जाना तूफान के।
तुमने देखा? अंधड़ में बीच में एक जगह होती है जहां अंधड़ नहीं होता। कभी गरमी के दिनों में जब बवंडर उठता है और आंधी उठती है, और हवा जोर से घूमती है और उठा कर ले जाती है धूल को। और किन्हीं-किन्हीं देशों में इतनी जोर से उठती है कि लोगों तक को उठा कर ले जाती है। छोटे बच्चे उड़ जाते हैं, बूढ़ी-बूढ़े उड़ जाते हैं। किन्हीं देशों में तो रास्तों के किनारे रस्सियां खंभों से बांध कर लटकाई गई हैं कि जब बवंडर उठे तो जल्दी से रस्सी पकड़ लो, नहीं तो खतरा है।
लेकिन जब बवंडर चला जाता है तब तुमने जाकर देखा जमीन पर, धूल पर निशान बने देखे? सब तरफ बवंडर होता है लेकिन केंद्र पर कोई बवंडर नहीं होता। जैसे गाड़ी का चाक चलता है--चाक चलता है, कील ठहरी रहती है। ठहरी कील पर चलता हुआ चाक घूमता है। अगर कील न ठहरी हो तो चाक घूम नहीं सकेगा। यह बड़े मजे की बात है। जो घूमता है वह उस पर ठहरा है जो नहीं घूमता।
तुम्हारे भीतर भी कितना ही तूफान उठे, एक केंद्र सदा तूफान के बाहर होता है, वह तुम्हारा आंतरिक केंद्र है। तुम वहीं सरक जाना, वहीं खड़े हो जाना। उठने देना तूफान को। थोड़ी देर में तूफान आया है, चला जाएगा। अभी नहीं था, अभी फिर नहीं हो जाएगा। और अगर तुमने अपने बीच के केंद्र पर खड़े होने की कला सीख ली तो बड़ा आनंद होगा। तब तूफान का मजा भी ले सकते हो। कैसा ही तूफान हो, स्मृतियों का हो कि कल्पनाओं का हो, क्रोध का हो, कि लोभ का हो कि मोह का हो, कि वासना का हो। कैसा ही तूफान हो, उन सबका स्वभाव एक है। और तुम्हारे भीतर एक केंद्र है जिस तक कोई तूफान कभी नहीं पहुंचता। भूकंप आते हैं लेकिन तुम्हारे भीतर एक केंद्र है, जहां कोई कंप कभी नहीं पहुंचता। वह निष्कंप है। उसकी ही तो तुम्हें याद दिला रहा हूं। उसमें ही प्रवेश करना तो ध्यान है। उसीको जगा लेना तो बुद्धत्व है। उसी के साथ रम जाना, उसी के साथ एक हो जाना तो निर्वाण है।
सब कुछ ठीक चलता है, फिर किसी कमजोर क्षण में मेरा सारा अतीत एक तूफान-समान घेर लेता है और कहता मालूम होता है, जाने नहीं दूंगा।
अतीत सदा रुकावट डालता है, खींचता है पीछे की तरफ। अतीत तुम्हारा बोझ है। लेकिन तभी तक खींच सकता है जब तक तुमने अतीत के साथ अपना तादात्म्य किया है। इसलिए तो संन्यासी का नाम बदलते हैं, इसलिए तो उसका वस्त्र बदल देते हैं। क्यों? क्या होगा नाम बदलने से, वस्त्र बदल देने से? कुछ भीतरी कीमिया है। अगर तुम्हारा नया नाम हो जाए तो पुराने नाम से तादात्म्य टूटता है।
समझो कि तुम्हारा नाम रहीम था और मैंने राम कर दिया, या तुम्हारा नाम राम था और मैंने रहीम कर दिया। कल तक तुम्हारा नाम राम था, आज रहीम हो गया। धीरे-धीरे तुम इस नये नाम के साथ एक हो जाओगे। रास्ते पर कोई राम को गाली दे रहा होगा, तुम्हें चिंता भी नहीं उठेगी। तुम्हारा उससे तादात्म्य छूट गया। और तब तुम्हें एक बात और समझ में आ जाएगी कि जब राम से रहीम हो सकता है, रहीम से राम हो सकता है तो मेरा कोई नाम है नहीं। सब काम चलाऊ हैं। मैं अनाम हूं।
इस बात की स्मृति जगाओ प्रतिभा, कि मैं अनाम हूं। मेरा न कोई अतीत है, न मेरा कोई भविष्य है। मैं तो बस अभी हूं, यहां हूं। यही क्षण मेरा शाश्वत जीवन है। इस क्षण के अतिरिक्त किसी और चीज से डोल जाना संसार है। और इस क्षण में पूरे अडोल खड़े हो जाना मोक्ष है।
कहा हैः ‘प्रवचन में समाधान हो जाता है पर फिर संसार में जाकर वही शक्तियां प्रबल होना चाहती हैं।’
स्वभावतः! सुनते हो मुझे, गुनते हो मुझे, मेरे साथ चल पड़ते हो एक नवीन यात्रा पर। भूल जाते हो अपने अतीत को, वह पीछे पड़ा रह जाता है। वापस लौटे बाजार में, वह अतीत फिर तुम पर कब्जा करना चाहता है। बदला लेना चाहेगा। तुम घंटे भर को भूल गए थे, वह तुम्हें जोर से पकड़ लेना चाहेगा--और भी जोर से, जितना पहले पकड़ा था। क्योंकि तुम पर संदेह पैदा होने लगेगा। तुम किसी दिन छोड़कर ही चले जाओ। तुम किसी दिन बिलकुल ही भूल जाओ। तो अतीत सब तरह के जाल फैलाएगा।
लेकिन यहां बैठो या बाहर जाओ, सजगता को कायम रखने की कोशिश करो। मैं तुम्हारे साथ हूं, अगर तुम मेरे साथ हो। यही स्मरण तुम्हें बना रहे प्रतिभा, इसीलिए तो संन्यास दिया है। जहां जाओ--रास्ते पर, बाजार में, भीड़ में, जहां चलो, ये गैरिक वस्त्र तुम्हें याद दिलाते रहें कि तुमने जीवन की एक नई शैली स्वीकार की है। एक नया आयाम स्वीकार किया है।
याद बनाओ कि अब तुम संसार की खोज में उत्सुक नहीं हो, तुम्हारी उत्सुकता परमात्मा में है। और दिन में कई बार इसकी याद कर लो। एक क्षण को कभी भी आंख बंद कर लो और इसकी याद कर लो। जितनी बार इसकी याद हो सके दिन में, उतनी बार याद कर लो। यही याददाश्त धीरे-धीरे सघन होगी। बुद्ध ने इसे सम्यक स्मृति कहा है, राइट माइंडफुलनेस। बार-बार याद करना होगा। जैसे--
रसरी आवत जात है सिल पर पड़त निशान
करत-करत अयास के जड़मति होत सुजान
ग्राम्य कहावत है। लेकिन कभी-कभी ग्राम्य कहावतों में सदियों की प्रज्ञा प्रकट होती है। पत्थर पर भी साधारण सी रस्सी बार-बार आती रहती है, जाती रहती है कुएं पर, तो पत्थर पर भी निशान पड़ जाता है--रस्सी का! कोई सोच भी नहीं सकता था। पहले दिन जब रस्सी का शुरू हुआ था आगमन, कोई भरोसा भी नहीं कर सकता था कि पत्थर जैसी कठोर चीज पर रस्सी जैसी कोमल चीज का निशान पड़ जाएगा।
लाओत्सु ने कहा है, पहाड़ से जल की धार गिरती है, पत्थरों पर गिरती है जल की कोमल धार। पत्थरों को भरोसा भी नहीं होता कि हमें तोड़ देगी। लेकिन एक दिन पत्थर रेत होकर बह जाते हैं। और जल की धार...कोमल से कोमल तत्व हो सकता है कोई तो जल की धार।
ऐसा सातत्य स्मरण का रहे। जब भी लगे कि अतीत पकड़ता है, एक क्षण को शिथिल करो, माला को हाथ में लो, एक बार अपना गैरिक वस्त्र देखो, आंख बंद करके स्मरण करो। और तत्क्षण तुम पाओगे, बाहर हो गए, तूफान गया। धीरे-धीरे पत्थर जैसी अतीत की आदत भी टूट जाएगी। निश्चित ही टूट जाती है। साधते-साधते सब सध जाता है। सिर्फ धैर्य चाहिए और सतत श्रद्धा चाहिए कि होगा।
इस सदी में अगर कोई एक चीज खो गई है तो वह धैर्य खो गया है। लोग तत्क्षण चाहते हैं। अभी हो जाए। कुछ चीजें हैं जो समय लेती हैं। जितनी मूल्यवान चीजें हैं उतना समय लेती हैं। मौसमी फूल बो दो तो अभी कुछ दिन में फूल आ जाएंगे, मगर कुछ दिन में चले भी जाएंगे। उनका कोई स्थायित्व नहीं है। लेकिन अगर तुम्हें चिनार का कोई बड़ा दरख्त खड़ा करना हो तो वर्षों लगेंगे। बड़ा दरख्त जब खड़ा होगा और चांद-तारों से बातें करेगा, तब आनंद होगा। लेकिन वर्षों की साधना पीछे होती है। जल्दी भर मत करो, अधैर्य भर मत करो।
धैर्य हो और सतत अयास जारी रहे, एक दिन क्रांति निश्चित घटती है। कबीर को घटी, कृष्ण को घटी, क्राइस्ट को घटी, तुम्हें घट सकती है। जो एक आदमी को घटी है वह प्रत्येक आदमी को घट सकती है।

पांचवां प्रश्नः ऐसा लगता है कि भक्ति में गुरु की महिमा सर्वाधिक है। क्या प्रेम को दूसरे की, श्रेष्ठ की, सहारे की जरूरत सबसे अधिक है?
॰ प्रेम का अर्थ ही होता है, दो चाहिए। प्रेम की धारा दो किनारों के बीच बहती है। जैसे नदी की धारा दो किनारों के बीच बहती है। एक किनारा हो तो नदी नहीं हो सकती। दो किनारे चाहिए। एक किनारा हो तो सूखी नदी हो सकती है। रेगिस्तान होगा, जलधार नहीं हो सकती। जलधार को बांधने के लिए दो किनारे होंगे। ध्यान अकेले हो सकता है, प्रेम अकेले नहीं हो सकता। इसलिए ध्यान की परम प्रक्रिया में गुरु को विस्मृत किया जा सकता है। गुरु को छोड़ा जा सकता है।
कृष्णमूर्ति अकारण ही नहीं कहते कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि सारी प्रक्रिया ध्यान की है। ध्यान में गुरु अनिवार्य नहीं है, अपरिहार्य नहीं है। क्योंकि ध्यान का अर्थ है, अपने भीतर जाना है। अगर गुरु से कुछ सहारा भी मिलता हो तो बहुत प्रारंभिक है। ऐसे ही जैसे रास्ते पर तुमने किसी से पूछ लिया कि स्टेशन की तरफ कौन सा रास्ता जाता है। इसके कारण वह तुम्हारा गुरु नहीं हो गया। धन्यवाद दिया और तुम अपने रास्ते पर चले गए।
ध्यान के मार्ग पर गुरु का इतना ही अर्थ होता है--एक तरह का मार्गदर्शक। लेकिन भक्ति के मार्ग पर, प्रेम के मार्ग पर गुरु बड़ा बहुमूल्य है। उसके बिना तो घटना ही नहीं घटेगी। वहां वह केवल मार्गदर्शक नहीं है, वहां तो वह स्वयं परमात्मा का प्रतीक है।
तो ध्यानी चाहे तो गुरु से मुक्त हो सकता है और पहुंच सकता है। लेकिन वहां भी अड़चन मालूम होती है। इस बात को समझने के लिए भी कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है, लोगों को कृष्णमूर्ति को समझने जाना पड़ता है। तो कृष्णमूर्ति गुरु हो गए। गुरु का मतलब क्या होता है? जिसके बिना समझ में न आए।
अगर कृष्णमूर्ति निश्चित ही मानते हैं कि गुरु की कोई जरूरत नहीं, उन्हें बोलना ही नहीं था। बोलने का मतलब क्या होता है? बोलने का मतलब होता है कि कुछ है, जो मैं न बोलूंगा तो तुम्हें पता न चलेगा। अगर मेरे बिना बोले तुम्हें पता चल ही जाने वाला है तो मैं बोलूं क्यों? और कृष्णमूर्ति आग्रह से बोलते हैं, अति आग्रह से बोलते हैं। तुम्हारी समझ में न आए तो वे नाराज भी हो जाते हैं। अपना सिर पीटते मालूम होते हैं। स्वाभाविक, इतनी चेष्टा करते हैं समझाने की, फिर तुम्हारी समझ में न आता हो...और कई बार ऐसा कृष्णमूर्ति की बैठक में हो जाएगा कि रात भर रामलीला देखी और सुबह लोग पूछते हैं, सीता राम की कौन थी? कृष्णमूर्ति समझाते हैं घंटों कि ध्यान की कोई प्रक्रिया नहीं है और फिर जब प्रश्न का समय होता है, कोई खड़े होकर पूछता है, ध्यान कैसे करें? फिर बात वहीं के वहीं आ गई! सिर पीट लेने जैसी बात है। इस आदमी ने सुना ही नहीं। यह फिर पूछ रहा कि विधि क्या है? तो करें कैसे? कृष्णमूर्ति कहते हैं, कोई गुरु नहीं है। और लोग उनसे पूछ रहे हैं; मार्ग पूछ रहे हैं, दिशा पूछ रहे हैं।
ध्यान के मार्ग पर गुरु एक मार्गदर्शक है--गाइड। उसके बिना भी हो सकता है। और अगर उसकी जरूरत भी है, तो भी बहुत गौण है। वह केंद्रीय तत्व नहीं है। लेकिन भक्ति के मार्ग पर गुरु बिलकुल केंद्रीय है। भक्ति के मार्ग पर परमात्मा को भूला जा सकता है, गुरु को नहीं भूला जा सकता। क्योंकि गुरु के द्वारा परमात्मा मिलेगा। इसलिए गुरु को नहीं भूला जा सकता।
कबीर ने कहा न, गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांव। किसके चरण छुऊं? दोनों सामने खड़े हैं। बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय। लेकिन बलिहारी फिर उन्होंने गुरु की ही कही। क्योंकि गुरु के द्वारा ही गोविंद मिला। नहीं तो गोविंद का तो पता ही न चलता। गुरु में ही गोविंद की पहली भनक आई। गुरु में ही गोविंद को पहली दफा देखा। गुरु द्वार बना। उसी द्वार से भीतर छिपे रहस्यों का पता चला।
तो भक्त के लिए गुरु बड़ा महिमापूर्ण शब्द है। और जब तुम एक मार्ग को समझ रहे हो--जैसे कि धनी धरमदास का मार्ग भक्ति का मार्ग है--तो यहां गुरु कोई साधारण शब्द नहीं है, सर्वाधिक महत्वपूर्ण शब्द है। गुरु शब्द का अर्थ होता है, सबसे वजनी। गुरु का अर्थ होता है, वजनी। इससे ज्यादा वजन और किसी शब्द में नहीं है। इसमें गुरुत्व है, इसमें गुरुत्वाकर्षण है। गुरु वैसे ही है जैसे मैग्नेट, चुंबक। गुरु के बिना भक्ति का शास्त्र ही निर्मित नहीं होता।
ढू.ंढने पर भी इलाजे-दर्द-ए-दिल मिलता नहीं
गो बहार आई अगर दिल का कमल खिलता नहीं
इस जिंदगी में बहुत बार तुम पाओगे कि बहार आई, वसंत आया, बहुत बार प्रेम आया और गया, मगर दिल का घाव वैसा का वैसा रहा।
ढूंढ़ने पर भी इलाजे-दर्द-ए-दिल मिलता नहीं
इस संसार में खोजते रहो, खोजते रहो, कहीं कोई राहत नहीं मिलती।
गो बहार आई मगर दिल का कमल खिलता नहीं
फिर कभी किसी के पास आकर दिल का कमल खुल जाता है, वही गुरु। जिसके पास तुम्हारे दिल का कमल खुल जाए, जो तुम्हारे लिए सूरज जैसा हो, कि तत्क्षण तुम्हारी पंखुड़ियां खुल जाएं। रात भर कमल बंद होता है, सुबह सूरज ऊगा और खुल जाता है। संसार में तुम भटकते रहते, भटकते रहते--वह रात। अंधेरी रात।
ढूंढ़ने पर भी इलाजे-दर्द-ए-दिल मिलता नहीं
गो बहार आई मगर दिल का कमल खिलता नहीं।
कई बार छोटे मोटे दीये जलते हैं, तारे टिमटिमाते हैं, मगर कमल है कि खुलता नहीं। जिसके पास आकर अचानक पंखुड़ियां खुल जाएं, जिसके पास आकर तुम अचानक पाओ, अब तुम कली नहीं हो, फूल हो--तुम आ गए गुरु के पास। गुरु की पहचान कैसे होगी? बस, ऐसे पहचान होती है। ऊपर से कुछ पहचान नहीं है, कोई लक्षण नहीं है ऊपर से। बस, तुम्हारे भीतर पहचान होती है।
तो जरूरी नहीं है कि जो तुम्हारे लिए गुरु हो वह दूसरे के लिए भी गुरु हो। तुम्हारा कमल खिल गया हो किसी के पास, दूसरे का न खिले। उसके लिए किसी और सूरज की तलाश हो। इसलिए कभी भूल कर अपने गुरु को किसी और पर मत थोपना। और भूल कर भी किसी और के गुरु को अपना गुरु मत समझ लेना। एक ही कसौटी है--तुम्हारे भीतर का कमल खुलने लगे। बस उसके अतिरिक्त और कोई कसौटी नहीं है। उसी से पहचानना। फिर दुनिया की फिकर मत करना। क्योंकि दुनिया समझ ही न पाएगी। तुम्हारा कमल तुम समझोगे। तुम्हारी पत्नी भी नहीं समझेगी, तुम्हारा पति भी नहीं समझेगा, तुम्हारा बेटा नहीं समझेगा, तुम्हारा बाप नहीं समझेगा, कोई नहीं समझेगा। निकटतम जो है वह भी नहीं समझेगा क्योंकि तुम्हारे भीतर कोई नहीं जा सकता। सिवाय तुम्हारे वहां किसी की गति नहीं है। वहां तो तुम ही जानोगे, मेरा कमल खिल गया।
जब तुम्हारा कमल खिल जाएगा, और तुम किसी के पीछे चल पड़ोगे, सारी दुनिया पागल कहेगी कि तुम्हें हो क्या गया? दीवाने हो गए हो? होश गंवा दिया? यह क्या कर रहे हो? हमें तो कुछ नहीं दिखाई पड़ता। और वे भी गलत नहीं कहते, उन्हें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। उनका कोई कसूर भी नहीं है। उनको क्षमा करना, उन पर नाराज भी मत होना। लेकिन उनकी मान लेने की भी कोई जरूरत नहीं है। क्षमा जरूर करना, नाराज भी मत होना, और अपने मार्ग पर चलते भी जाना क्योंकि गुरु दुशवार है, कभी-कभी मिलता है। सदियां बीत जाती हैं तब मिलता है। जन्मों-जन्मों के बाद मिलता है।
गुरु वही है जिसमें तुम्हें थोड़ी देर को यह भूल जाए संसार। थोड़ी देर को यह भूल जाए कि कोई आदमी है, स्त्री है, पुरुष है। थोड़ी देर को देह विस्मृत हो जाए। थोड़ी देर को कोई आदमी तिरोहित हो जाए और परमात्मा की भाव-भंगिमा प्रकट हो।
मानिक अधर, नीलमी आंखें, यह पुखराज बदन
मन घायल कर गई तुम्हारी हीरकनी चितवन
किसी की आंख में तुम्हें राम की और कृष्ण की, बुद्ध और महावीर की आंख दिखाई पड़ जाए। किसी के पास पहुंच कर ऐसा लगे, आ गया वह स्थान, जहां से अब जाने की जरूरत नहीं है। किसी की छाया तले विश्राम करने का मन हो जाए कि यह पड़ाव मेरी मंजिल हो जाए।
जैसा भक्त गुरु को देखता है वैसे दूसरे लोग नहीं देखते। इसलिए भक्त और दूसरे लोगों में कभी भी तालमेल नहीं बैठ पाता।
जो तुम्हें
चलते-फिरते
देखते हैं,
वे तुम्हें
नहीं जानते
मैंने
तुम्हें
उड़ते देखा है,
अभी
आम की डाली से
अभी
आकाशगंगा से
जुड़ते देखा है!
मगर स्वभावतः यह बात तुम किसी से कहोगे, कोई मानेगा नहीं। किसी से कहना भी मत। यह तो जब दो दीवाने मिलें तभी करने की बात है।
जो तुम्हें
चलते-फिरते
देखते हैं,
वे तुम्हें
नहीं जानते
मैंने
तुम्हें
उड़ते देखा है,
अभी
आम की डाली से
अभी
आकाशगंगा से
जुड़ते देखा है!
गुरु की याद भी आ जाए तो गुरु की याद में ही छिपी हुई परमात्मा की याद आ गई। क्योंकि गुरु गली है, जहां परमात्मा का मंदिर कहीं मिलेगा।
कुछ याद करके आंख से आंसू निकल पड़े
मुद्दत के बाद गुजरे जो उसकी गली से हम
गुरु गली है।
कुछ याद करके आंख से आंसू निकल पड़े
मुद्दत के बाद गुजरे जो उसकी गली से हम
गुरु का अर्थ है, करीब ही मंदिर है। कहीं करीब ही होगा। अब ज्यादा दूरी न रही। अब हम घर के करीब आ रहे हैं।
गुरु शुरुआत है परमात्मा की। गुरु के द्वारा परमात्मा ने तुम्हें पुकारा। गुरु के द्वारा परमात्मा ने तुम्हारी आंख में झांका। गुरु के द्वारा परमात्मा ने तुम्हें संदेश भेजा। इसलिए तो मुसलमान कहते हैं, पैगंबर। पैगंबर का अर्थ होता है, संदेशवाहक, चिट्ठीरसा, ईश्वर का पत्र ले आया--पत्रवाहक।
पहली-पहली बार जैसे चांद ऊग आया है आज
सर्द ओंठों ने किसी का नाम दोहराया है आज
मगर यह बात तो प्रेमी समझेंगे। जो इन पर बौद्धिक रूप से सोच विचार करेंगे उन्हें तो ये बातें कविता मालूम पड़ेंगी। ये कविताएं नहीं हैं। ये जीवन के परम, परम गुह्य सत्य हैं। मगर उन्हीं के लिए सत्य हैं जो हृदय से समझने की क्षमता रखते हैं। जो बुद्धि में जीते हैं उनके लिए ये सत्य नहीं हैं।
पहली-पहली बार जैसे चांद ऊग आया है आज
सर्द ओंठों ने किसी का नाम दोहराया है आज
बेखुदी आज सब पे तारी है
किसी ने छेड़ा है मेरे दिल का साज
आदमी एक वीणा है जो बजाई नहीं गई। गुरु ऐसा व्यक्ति है जिसने पहली बार तुम्हारी वीणा को छेड़ा। तुम्हें पहली बार पता चला कि मेरे भीतर स्वर है, कि मेरे भीतर सौंदर्य है, कि मेरे भीतर संगीत है, कि मैं एक सरगम लिए फिरता था, कि मेरी पीड़ा यही थी कि मेरी वीणा का मुझे पता नहीं था।
एक कहानी मैंने सुनी है, एक घर में एक पुराना वाद्य रखा था--बहुत पुराना सदियों पहले से, परंपरागत, बापदादों से चला आया था। बड़ा वाद्य था। कोई उसे बजाना भी नहीं जानता था। कब किसी ने बजाया था इसकी याद भी घर के लोगों को न रह गई थी। वह वाद्य बड़ा उपद्रव था। कभी बिल्ली उस पर छलांग लगा देती, उसके तार झनझना जाते। कभी रात कोई चूहा तारों को खींच देता, लोगों की नींद टूट जाती। कभी कोई बच्चे जाकर उसके साथ उछल-कूद कर देते, सारे घर में शोरगुल मच जाता। आखिर घर के लोग परेशान हो गए। उन्होंने कहा, इसे फेंको, यह नींद हराम करता है। यह घर में चैन नहीं है इसके मारे। कोई न कोई बच्चा पहुंच ही जाता है। कब तक रोको, कब तक पहरा लगाओ? फिर चूहों पर क्या पहरा लगाओ, फिर बिल्लियों पर क्या पहरा लगाओ! और इसे झाड़ो, पोंछो यह अलग। और यह घर का स्थान घेर रहा है यह अलग। और घर में लोग बढ़ते जाते हैं, जगह की जरूरत है, इसे फेंको।
उन्होंने उस वाद्य को उठाया और जाकर म्युनिसिपल के कचराघर में रख आए। वे लौट भी नहीं पाए थे घर तक, बीच में ही थे, कि किसी भिखारी ने उस वाद्य को बजाना शुरू कर दिया। वहीं से वापस लौट गए। भीड़ लग गई। लोग मंत्र-मुग्ध खड़े हो गए। ऐसा संगीत सदियों से नहीं सुना गया था। अब उनको समझ आई घर के लोगों को, कि हमने कितना बहुमूल्य वाद्य फेंक दिया है! जैसे ही संगीत पूर्ण हुआ, उन्होंने झपट्टा मारा और भिखारी से कहा, यह वाद्य हमारा है। भिखारी ने कहा, यह बात गलत है। वाद्य उसका, जो बजाना जानता है। तुम तो फेंक चुके।
गुरु तुम्हें पहली बार तुम्हारे वाद्य की याद दिलाता है। इसीलिए तो शिष्य गुरु का हो जाता है क्योंकि वाद्य उसका, जिसको बजाना आता है।
दूर तक दैरो-हरम आए नजर
तेरे दर पर जब कभी सजदा किया
जब भी कोई गुरु के चरणों में झुकता है हृदयपूर्वक, तो उसे मंदिर-मस्जिद दिखाई पड़ते हैं।
दूर तक दैरो-हरम आए नजर
सारे तीर्थ खुल जाते हैं--काशी और काबा, गिरनार और जेरुसलम।
दूर तक दैरो-हरम आए नजर
तेरे दर पर जब कभी सजदा किया
उन चरणों से सारे तीर्थ खुल जाते हैं। उन चरणों से अमृत मिलने लगता है। मगर यह भक्त की भाषा है।
ध्यानी की यह भाषा नहीं है। ध्यानी को कोई हक भी नहीं है, इस भाषा के संबंध में कुछ कहे। उसे यह भाषा आती ही नहीं है। उसे इस संबंध में नहीं बोलना चाहिए। उसकी दूसरी भाषा है।
ऐसा ही समझो कि एक गणित की भाषा होती है, वह अलग बात है। और एक काव्य की भाषा होती है, वह अलग बात है। किसी गणितज्ञ को कोई हक नहीं है कि काव्य के संबंध में कुछ कहे। क्योंकि कविता में कभी-कभी दो और दो चार भी होते हैं, कभी नहीं भी होते। कभी-कभी दो और दो पांच भी होते हैं, कभी दो और दो तीन भी होते हैं, कभी दो और दो मिल कर एक भी हो जाता है।
कविता का अलग लोक है, उसका अलग तर्क है। हृदय के अपने तर्क हैं, जिनको मस्तिष्क को अनुभव करने का कोई द्वार नहीं है। गणितज्ञ को कविता के संबंध में कुछ कहने का हक नहीं है। और न कवि को गणित के संबंध में कुछ कहने का हक है। लेकिन अक्सर ऐसा हुआ कि ध्यानी निंदा करेंगे भक्ति की, भक्त निंदा करेंगे ध्यानी की।
मैं पहली बार एक अनूठा प्रयोग कर रहा हूं मनुष्य के इतिहास में कि मैं भक्त और ज्ञानी, दोनों की तरफ से बोल रहा हूं। क्योंकि मैंने दोनों मार्ग से चल कर देखा है। और दोनों मार्ग उसी तक पहुंच जाते हैं। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं और गलत कहते हैं। ठीक कहते हैं, जहां तक ध्यान का संबंध है। न गुरु की जरूरत है, न ध्यान की, न योग की, न विधि-विधान की। और गलत कहते हैं, जहां तक भक्ति का संबंध है। वहां से भी लोग पहुंचे हैं। और वहां से ज्यादा लोग पहुंचे हैं। जितने लोग ध्यान से पहुंचे हैं उससे ज्यादा लोग भक्ति से पहुंचे हैं। क्योंकि स्वभावतः मनुष्य प्रेम के ज्यादा करीब है। प्रेम ज्यादा स्वाभाविक है। प्रीति ज्यादा स्वाभाविक है। ध्यान चेष्टा है, प्रयत्न है, साधना है। प्रीति सहजता है, स्वाभाविकता है।

अंतिम प्रश्नः मारू वनरावन छे रुडु बैकुंठ नहीं रे आवूं।
॰ मेरा वृंदावन इतना मनभावन है कि मैं बैकुंठ नहीं जाना चाहती।
मीरा का वचन है। आप क्यों मोक्ष और मुक्ति की बात करते हैं? आपके चरणों में बैठना ही मधुर लगता है।
इसीलिए बात करता हूं क्योंकि यह तो मधुरता की शुरुआत है। इसको अंत मत मान लेना। गुरु प्रारंभ है, अंत नहीं। गुरु से गुजरना, गुरु पर रुक मत जाना। गुरु द्वार है, उससे पार हो जाना। अगर द्वार पर इतना सुख मिलता है तो मंदिर के अंतःकक्ष की तो सोचो! उसी का नाम मोक्ष है।
अक्सर ऐसा होता है कि प्यासे आदमी को दो बूंद मिल जाएं तो भी खूब तृप्ति मालूम होती है। जन्म-जन्म की प्यास! एक बूंद गिर जाए कंठ में। लेकिन उस पर रुक मत जाना। बूंद से सागर की खोज शुरू करना। बूंद है तो सागर है। सागर होगा कहीं। और बूंद जब मिल गई तो सागर भी मिलेगा।
इसलिए गुरु के चरणों के माधुर्य को आनंद से लो लेकिन वहीं बैठ कर मत रह जाओ। आगे बढ़ो। आगे ही बढ़ते जाना है। जब आगे बढ़ने को कुछ भी न रह जाए तभी रुकना। जब तक आगे बढ़ने को कुछ भी बचे, तब तक रुकना मत। और आगे, और आगे--तभी तुम परमात्मा तक पहुंच पाओगे। अन्यथा संसार भी रोक सकता है, धर्म भी रोक सकता है। कुछ लोग दुकानों में अटक जाते हैं, कुछ लोग मंदिरों में अटक जाते हैं। कहीं मत अटकना।
सदगुरु वही है जो तुम्हें अपने में अटकने न दे।
तुम्हारी बात मेरे समझ में आती है। तुम्हें अगर मेरे पास बैठ कर आनंद मिल रहा है, और इससे बड़ा आनंद तुमने कभी जाना नहीं है, तो मैं समझता हूं कि तुम्हारी अड़चन क्या है। तुम सोचते हो, अब और क्या मोक्ष? अब कहां जाना, क्या करना? तुम्हारी बात मैं समझता हूं लेकिन मेरी भी मैं समझता हूं। इसके आगे और है बहुत, जो मैंने जाना है। तुमने अभी इतना ही जाना है। तुम्हें वहां तक पहुंचा कर ही छोडूंगा। उस यात्रा में तुम्हें मुझे भी छोड़ देना होगा। क्योंकि द्वार पीछे रह जाएगा।
सदगुरु की परिभाषा मेरी यही है जो एक दिन कहे, पकड़ो मेरा हाथ और एक दिन कहे, छोड़ो मेरा हाथ। हाथ पकड़े तब तक, जब तक संसार न छूट जाए। जैसे ही संसार छूट जाए, हाथ छोड़ दे। क्योंकि अब जो हाथ पहले पकड़ने में साधक हुआ था, अब बाधक हो जाएगा। मैं तुम्हें संसार से छुड़ाने को चाहता हूं, मेरा हाथ पकड़ो। फिर परमात्मा से मिलाने को चाहूंगा, मेरा हाथ छोड़ो।
तुम्हें अभी छाया मिली है उसकी। उससे ही मिलना है। अभी तुमने उसका प्रतिबिंब देखा है मेरी आंखों में। अब उसीको खोजना है। अभी तुमने झील में पड़ते हुए चांद का प्रतिबिंब देखा है। अब चांद को खोजना है। झील में पड़ा प्रतिबिंब भी बड़ा प्यारा होता है, मगर प्रतिबिंब आखिर प्रतिबिंब है।

आज इतना ही।


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