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बुधवार, 15 अगस्त 2018

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन--पिया बिन नींद न आवै

सारसूत्र:

साहेब, तेरी देखौं सेजरिया हो।
लाल महल के लाल कंगूरा, लालिनि लागि किवरिया हो।।
लाल पलंग के लाल बिछौना, लालिनि लागि झलरिया हो।।
लाल साहेब की लालिनि मूरत, लालि लालि अनुहरिया हो।।
धरमदास बिनवै कर जोरी, गुरु के चरन बलिहरिया हो।।

पिया बिन मोहि नींद न आवै।।
खन गरजे खन बिजुली चमके, ऊपर से मोहि झांकि दिखावै।
सासु ननद घर दारूनि आहैं, नित मोहि बिरह सतावै।
जोगिन व्हैके मैं बन-बन ढूंढूं, कोऊ न सुधि बतलावै।
धरमदास बिनवै कर जोरी, कोई नेरे कोई दूर बतावै।


भगति-दान गुरु दीजिए, देवन के देवा हो।
चरनकंवल बिसरौं नहीं, करिहौं पदसेवा हो।
तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।
तुमहिं और निरखत रहौं, मेरे और न दूजा हो।।
आठ सिद्धि नौ निद्धि हों, बैकुंठ-निवासा हो।
सो मैं ना कछु मांगहूं, मेरे समरथ दाता हो।
सुख संपत्ति परिवार धन, सुंदर वर नारी हो।
सपनेहुं इच्छा ना उठे, गुरु आन तुम्हारी हो।
धरमदास की बीनती साहेब सुनि लीजै हो।
दरसन देहु पट खोलिके, आपन करि लीजै हो।।

मैं तुम्हारे प्रेम का प्रतिबिंब बन कर रह गई
मैं तुम्हारे दाह का अभिशाप सारा सह गई
अनुगता चिर बावली मैं दूर की छाया बनी
मैं तुम्हारे सबल प्राणों की सिमटती लघु अनी
व्यर्थ पाने का जिसे आयास उस अपनत्व सी
काटता जो मृत्यु सा उस अंतहीन ममत्व सी
आस की विश्वास की चादर लपेटे चल पड़ी
भग्नयुग की शेष सीमा पर कहानी बन खड़ी
प्रणय की उन्मुख विकलता के सहारे बह गई
मैं तुम्हारी प्यास का प्रतिबिंब बन कर रह गई
खोज वे पगचिह्न हारी प्रेम खोया, श्रेय भी
साथ सपनों का सखा ले मैं चली जिन पर कभी
पर न मुझको द्वार अब भवितव्य का मिलता कहीं
मत्र्य और अमत्र्य मेरे खो गए दोनों यहीं
प्रिय, तुम्हारे स्पर्श का अभिमान मेरी जीत है
देह में बंदी चिरंतन मुक्ति का संगीत है
एक जीवित स्वप्न राातोंरात बन कर ढह गई
मैं तुम्हारी विवशता का गात बन कर रह गई
भक्ति है, मिटने की कला। भक्ति है, शून्य होने का उपाय। भक्ति है, अपने को मंदिर जैसा रिक्त कर लेना, ताकि परमात्मा की मूर्ति विराजमान हो सके। जो खाली हैं वे ही भक्त हो सकते हैं। जो नहीं हैं वे ही भक्त हो सकते हैं। जो जितना है उतना ही परमात्मा से जुड़ने में कठिनाई पाएगा।
अहंकार के अतिरिक्त भक्ति के मार्ग पर न तो कोई अज्ञान है, न कोई पाप है। मैं हूं, यही पाप है। मैं हूं, यही अज्ञान है। इसलिए न तो व्रत काम आएंगे, न उपवास, न तीर्थ यात्राएं, न पुण्य काम आएंगे। काम तो एक ही बात आ सकती है कि मैं मिट जाऊं।
और मैं इतना कुशल है कि पुण्य से भी अपने को भर लेता है, पूजा-पाठ से भी अपने को सजा लेता है, तीर्थ-व्रत से भी अपनी पुष्टि कर लेता है। मैं से जो सावधान होगा उसे एक बात दिखाई पड़ जाएगीः कृत्य के सहारे मैं नहीं मिटता। फिर तीर्थ जाओ, काशी या काबा। कृत्य के सहारे मैं नहीं मिटता। फिर चाहे पुण्य करो, चाहो व्रत-उपवास। कृत्य के सहारे मैं नहीं मिटता क्योंकि कृत्य में ही कर्ता का भाव है। और जहां कर्ता का भाव है वहां मैं हूं।
अकृत्य से मिटता है मैं। समर्पण से मिटता है मैं। मैं असहाय हूं, इस भाव में मैं की मृत्यु हो जाती है। असहाय का फंदा तुम्हें घेर ले तो मैं को फांसी लग जाती है।
जीवन को ठीक से देखोगे तो पाओगे, किया क्या है? कर क्या सकते हो? हो रही हैं चीजें जरूर। जो भी होता है उसी को तुम झपट कर अपना कर्तृत्व बना लेते हो। किसी से तुम्हारा प्रेम हो गया और तुम कहते हो, मैंने प्रेम किया। हुआ को तुम बड़े जल्दी किया में बदल लेते हो। और हुए को किए में बदला कि अहंकार निर्मित हुआ। किए को हुए में बदल डालो, भक्ति का सूत्र तुम्हारे हाथ में आ गया।
मत कहो कि मैंने प्रेम किया और मत कहो कि मैंने क्रोध किया और मत कहो कि मैंने पुण्य किया। मत कहो, मैंने पाप किया। कहो, हुआ। जरा इस छोटे से भाषा के परिवर्तन पर ध्यान दो। मुझसे क्रोध हुआ--मैं के खड़े होने की जगह न रह जाएगी। मुझसे प्रेम हुआ--मैं के खड़े होने को भूमि कहां बची? तुम तो बांस की पोंगरी हो गए। अब जो भी करता है, परमात्मा करता है।
इसलिए भक्त न तो अपने को पापी मानता है, न पुण्यात्मा। क्योंकि जो अपने को पापी मानते हैं वे एक तरह के अहंकार से भर जाते हैं और जो पुण्यात्मा मानते हैं वे दूसरी तरह के अहंकार से भर जाते हैं।
और अगर कोई गौर से खोज करेगा तो पुण्यात्मा का अहंकार पापी के अहंकार से ज्यादा बड़ा होता है। स्वाभाविक, उसके हाथ में सोने की जंजीरें होती हैं, जिनको आभूषण कहा जा सकता है। पापी के हाथ में तो लोहे की कुरूप जंजीरें होती हैं जंग खाई। दिखाना नहीं चाहता किसी को, छिपाना चाहता है। पुण्यात्मा तो अपनी जंजीरों को भी दिखाना चाहता है, प्रदर्शन करना चाहता है। कितना उसने दान दिया, कितने पूजा-पाठ किए, कितने यज्ञ-हवन करवाए, उन सबकी गिनती रखता है। उसी गिनती में बचता है। पुण्यात्मा धीरे-धीरे इतने अहंकार से भर जाता है कि परमात्मा दूर की, बहुत दूर की बात हो जाती है।
परमात्मा तुमसे उतना ही दूर है जितना अहंकार तुम्हारा प्रबल है। परमात्मा उतने ही करीब है जितना अहंकार निर्बल है। अहंकार को निर्बल करो।
मैं तुम्हारे प्रेम का प्रतिबिंब बन कर रह गई
मैं तुम्हारी प्यास का प्रतिबिंब बन कर रह गई
एक जीवित स्वप्न रातों रात बन कर ढह गई
मैं तुम्हारी विवशता का गात बन कर रह गई
विवश हो जाओ। विवशता में ही परमात्मा का अवतरण है। अवश हो जाओ। रोओ जरूर, पुकारो जरूर, मगर अवशता में, विवशता में, असहाय अवस्था में। असहाय हृदय से उठी आह प्रार्थना बन जाती है।
यह भक्ति की आधारशिला है। आज के सूत्र इस आधारशिला को समझने में बड़े सहयोगी होंगे।
पहला सूत्रः
साहेब, तेरी देखौं सेजरिया हो।
धनी धरमदास कह रहे हैं, तेरी सेज मुझे दिखाई पड़ती है। यह सारा अस्तित्व तेरी सेज है।
सिर्फ अंधे ही हैं जिन्हें परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। और जब कोई आकर कहता है कि परमात्मा कहां है तो वह बड़ा अजीब प्रश्न पूछ रहा है। उसे पूछना चाहिए, मेरी आंखें कहां हैं? लेकिन लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है। लोग पूछते हैं, परमात्मा दिखाई पड़े तो हम मान लें। यह अंधा कह रहा है, रोशनी दिखाई पड़े तो हम मान लें। और जब तक दिखाई न पड़ेगी, हम मानेंगे नहीं। अंधा गलत प्रश्न से यात्रा शुरू कर रहा है।
और जिसने गलत प्रश्न पूछा वह गलत उत्तरों के जाल में पड़ जाएगा। तुमने पूछा, परमात्मा कहां है कि तुम फंसे; कि तुम पंडित-पुरोहित के उपद्रव में फंसे। वह तुम्हें बताएगा परमात्मा कहां है। वह नक्शे बनाएगा, वह स्वर्ग बनाएगा, नरक बनाएगा। वह तुम्हारी मांग की पूर्ति करेगा। इस जगत में कुछ भी मांगो, कोई न कोई पूर्ति करने वाला मिल जाएगा। गलत मांगा तो गलत की पूर्ति करने वाला मिल जाएगा।
इसलिए सम्यक प्रश्न बड़ी अनिवार्य बात है। सम्यक जिज्ञासा ही एक दिन सत्य तक ले जाती है।
सम्यक जिज्ञासा क्या है? सम्यक जिज्ञासा यह है कि मेरे पास देखने वाली आंख नहीं है। पूछो, मुझे परमात्मा दिखाई क्यों नहीं पड़ता है? कृष्ण को दिखाई पड़ता है, क्राइस्ट को दिखाई पड़ता है, मुझे क्यों दिखाई नहीं पड़ता? लेकिन बजाय यह पूछने के कि मुझे क्यों नहीं दिखाई पड़ता, तुम सोचते हो क्राइस्ट पागल रहे होंगे। जो है नहीं उसको देखते हैं, पागल तो होंगे ही। जो नहीं है वह तो पागलों को ही दिखाई पड़ता है।
पश्चिम में बहुत सी किताबें लिखी गई हैं जीसस के संबंध में जिनमें जीसस को न्युरोटिक, पागल सिद्ध करने की कोशिश की गई है। क्योंकि जीसस उन चीजों को देखते हैं जो किसी और को नहीं दिखाई पड़तीं। और पागल का क्या लक्षण होता है? तुम्हें वृक्ष दिखाई पड़ता है, कृष्ण को वृक्ष दिखाई नहीं पड़ता। नहीं कि वृक्ष दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन वृक्ष केवल आवरण है। वृक्ष के भीतर जो हरा है वह परमात्मा है। तुम्हें फूल दिखाई पड़ता है। कृष्ण को भी फूल दिखाई पड़ता है लेकिन फूल की तरह नहीं, प्रतीक की तरह।
फूल के भीतर जो छिपा है, वह जो फूल के भीतर सुर्ख है, लाल है, वह जो फूल के भीतर खिला है वह परमात्मा है। सारी खिलावट उसकी है, सारे रंग उसके हैं, सारी अभिव्यक्तियां उसकी। पत्थर से लेकर फूल तक वही न मालूम कितने रंग रूपों में प्रगट हो रहा है।
तुम्हें लहरें दिखाई पड़ती हैं, जानने वाले को, देखने वाले को लहरें तो दिखाई पड़ती ही हैं लेकिन लहरों में छिपा सागर दिखाई पड़ता है। तुम लहरों पर समाप्त हो जाते हो। तुम पूछते हो, सागर कहां है? मुझे लहरें ही लहरें दिखाई पड़ती हैं, सागर कहां है? और जानने वाला कहता है, लहरें तो हो ही नहीं सकतीं सागर के बिना।
यह सब जुड़ा है। इस सबको जोड़ने वाला जो तत्व है, इस सबको पिरोने वाला जो सूत्र है वही परमात्मा है।
साहेब, तेरी देखौं सेजरिया हो।
धरमदास कहते हैं, तेरी सजी सेज देखता हूं।
और जिसको परमात्मा की सेज दिखाई पड़ने लगे उसके जीवन में आनंद का आविर्भाव हो जाता है। और क्या चाहिए? फिर सेज कितनी ही दूर हो लेकिन मिलन की घड़ी करीब आने लगी। दूर है तो भी दूर नहीं।
इस सेज को देखने से दो घटनाएं पैदा शुरू होती हैं। एक--आनंद का भाव उमगता है कि परमात्मा है। चांद-तारों में उसकी झलक मिलती है। सूरज में किरणें होकर वह उतरता है। हवाओं के झोंकों में वही सुगंध है। लोगों की आंखों में वही आंखों की चमक है। चेहरों पर वही सौंदर्य है। बच्चों की खिलखिलाहट में वही खिलखिलाहट है।
एक तरफ तो आनंद का भाव उमगता है और दूसरी तरफ एक बड़ी गहरी विरह की वेदना भी उठती है कि सेज अभी दूर है। अभी मैं सेज का अंग नहीं हुआ। अभी प्राण प्यारे को मिल कर सेज पर सो नहीं गया हूं। अभी दूरी है। अभी थोड़ा फासला है। अहंकार गलना शुरू हुआ है, मिट ही नहीं गया है।
जब अहंकार गलता है तो परमात्मा दिखाई पड़ना शुरू होता है और जब अहंकार मिट जाता है तो तुम परमात्मा के साथ एक हो जाते हो। दरसन देहु पट खोलिके आपन करि लीजे हो। पहले दर्शन घटता है, तो पहले जरा घूंघट उठाओ, दर्शन दे दो--दरसन देहु पट खोलिके आपन करि लीजे हो। और फिर पीछे अपने में ही मुझे डुबा लो। फिर मुझ सेज पर बुला लो।
साहेब, तेरी देखौं सेजरिया हो।
मेरी नजरें समेट ले जलवे
अपने रुख से जरा नकाब उलट
जैसे ही उसकी झलक मिलनी शुरू होती है--झलक पहले तो घूंघट से ही मिलती है, बहुत बहुत घूंघट के पार मिलती है।
घूंघट में छिपी प्रियतमा को देखा है? दिखती भी है, नहीं भी दिखती। झलक ही मिलती है। लेकिन झलक आशा जगाती है, उत्साह उमगाती है। हृदय आंदोलित हो उठता है। वीणा तरंगित होती है। भीतर कोई गुनगुनाने लगता है। वसंत आ गया!
लाल महल के लाल कंगूरा...
वह जो घूंघट में परमात्मा की थोड़ी सी झलक दिखाई पड़ी है, सारे जगत को लाल कर जाती है। उसकी ही लाली से भर जाती है।
लाल रंग का प्रतीक समझना। लाल रंग बड़ा अनूठा रंग है। इसलिए संन्यास के लिए गैरिक चुना गया है सदियों से। इन सूत्रों में संन्यास के रंग की चर्चा है।
लाल कई चीजों का प्रतीक है। पहलाः जीवन का, क्योंकि रक्त का प्रतीक है। परमात्मा जीवन है।
लाल महल के लाल कंगूरा, लालिनि लागि किवरिया हो।।
लाल पलंग के लाल बिछौना, लालिनि लागि झलरिया हो।।
लाल साहेब की लालिनि मूरत, लालि लालि अनुहरिया हो।।
सब तरफ लाली ही लाली दिखाई पड़ती है।
धरमदास बिनवै कर जोरी, गुरु के चरन बलिहरिया हा।।
और जिस गुरु ने इस लाली की तरफ आंखें खोल दीं उसकी बलिहारी है। कबीर का प्रसिद्ध वचन है, उसकी ही झलक कबीर के शिष्य धनी धरमदास के इस वचन में है।
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल,
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।
जो इस लाली को देखने जाएगा वह रंग जाएगा। उसमें डुबकी मारी कि तुम भी वही हुए।
तो पहला तो प्रतीक है लाल जीवन का। क्योंकि रक्त जीवन है। रक्त में ही उसकी रसधार है।
खूं बहाता नहीं तू अगर बागबां
फूल कोई गुलिस्तां में खिलता नहीं
तुम्हारी धमनियों में जो दौड़ता है लाल रक्त, वह परमात्मा ही है। तुम्हारे भीतर जो जीवन की ऊर्जा है वह उसी की ऊर्जा है। तुम जब पूछते हो, परमात्मा कहां है, तुम भी कैसी अजीब बात पूछते हो! वही धड़क रहा है तुम्हारे हृदय में। वही दौड़ रहा है तुम्हारी नसों में। वही बोल रहा, वही सुन रहा, वही पूछ रहा है, परमात्मा कहां है? परमात्मा पूछता है, परमात्मा कहां है!
खूं बहाता नहीं तू अगर बागबां
फूल कोई गुलिस्तां में खिलता नहीं
परमात्मा ने अगर अपने को तुममें न बहाया होता तो तुम खिले न होते। तुम होते ही नहीं। तुम पूछने के लिए भी नहीं हो सकते थे। प्रश्न भी न उठता। जिज्ञासा भी न होती, जिज्ञासु भी न होता।
फिर लाल रंग यौवन का रंग भी है; जवानी का, शबाब का। परमात्मा सदा युवा है। जीवन कभी मरता ही नहीं। जीवन कभी बूढ़ा भी नहीं होता। लहरें बच्ची होती हैं कभी, कभी जवान होती हैं, कभी बूढ़ी होती हैं, कभी मर भी जाती हैं। सागर तो सदा जवान है, सदा एकरस। सागर न तो कभी बच्चा है, न कभी जवान, न कभी बूढ़ा। वहां उम्र नहीं होती।
परमात्मा की कोई उम्र नहीं है। परमात्मा पर समय की कोई सीमा नहीं है। हम लहरें हैं इसलिए हमें होना पड़ता है, फिर कभी मिट भी जाना पड़ता है। हम सदा नहीं हो सकते। हम की तरह हम सदा नहीं हो सकते लेकिन परमात्मा की तरह हम सदा हैं। जिस दिन तुम अपने भीतर की भगवत्ता को पहचानोगे, उसी दिन तुम पाओगे, न तुम कभी तुम बच्चे थे, न तुम जवान हो, न तुम बूढ़े हुए, न तुम कभी मरे। यद्यपि बहुत बार मौत आई है, मगर तुम कभी मरे नहीं। और बहुत बार जन्मे लेकिन तुम कभी जन्मे नहीं। तुम अजन्मे, अमृत!
लाली उस यौवन का रंग है।
लाली उत्सव का रंग भी है। परमात्मा उत्सव है। जिन्होंने परमात्मा को अपनी उदासी का आधार बना लिया उन्होंने परमात्मा को पहचाना ही नहीं। तुम्हारे मंदिर-मस्जिदों में अगर उदास लोग बैठे हों तो समझ लेना कि संसार से तो टूट गए हैं, परमात्मा से नहीं जुड़े हैं।
जो परमात्मा से जुड़ गया वह संसारी से ज्यादा आनंदित होना चाहिए; होना ही चाहिए। जब संसार में, क्षुद्र में डूबे हुए लोग इतने प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं तो जो विराट से जुड़ गया उसकी प्रसन्नता का क्या अनुमान लगाएं! उसे कैसे आंकें? कैसे तौलें? किस तराजू पर? सब तराजू छोटे पड़ जाते हैं। यहां कोई किसी स्त्री के प्रेम में पड़ कर इतना मगन हो जाता है और तुम परमात्मा के प्रेम में मगन नहीं हो, बैठे हो उदास मुर्दे की तरह?
तो तुमने परमात्मा की कुछ गलत धारणा बना रखी है। तुमने परमात्मा की लाली नहीं देखी। तुम उससे परिचित नहीं हो। परमात्मा नृत्य है, उत्सव है।
यही मेरी मौलिक अवधारणा है जो मैं तुम्हें देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं, मेरे संन्यासी नाचते हुए संन्यासी हों, आनंदमग्न संन्यासी हों। संसारी को मात कर दें अपने उत्सव में तो ही संन्यासी हैं। संसारी थोड़ी बहुत शराब पी लेता है, इतना मस्त दिखाई पड़ता है, तुम परमात्मा को पीओगे, और तुम शराबी जैसे भी मस्त नहीं हो पाते? तुम परमात्मा को पीते हो और सम्हल-सम्हल कर चल जाते हो? तुम्हारे पैर नहीं डगमगाते? तो तुमने कोई नकली परमात्मा पी लिया। तुमने कोई किताबों का परमात्मा पी लिया। तुम्हारा असली परमात्मा से मिलन नहीं हुआ, आलिंगन नहीं हुआ; अन्यथा तुम पागल हो ही जाओगे मस्ती में। मदमस्त हो जाओगे।
उत्सव का रंग है लाल। इसीलिए तो फूल उत्सव के प्रतीक हैं। फूल लाल हैं।
बहुत करीब है शायद बहार का मौसम
कली-कली मेरे दामन की मुस्कुराई है
जैसे ही वसंत करीब आता वैसे ही कली-कली दामन की मुस्कुरा उठती है। न मालूम कहां-कहां छिपे फूल प्रकट हो जाते हैं। मिट्टी से निकलते हैं फूल। मिट्टी में दबे थे, छिपे पड़े थे। वसंत की प्रतीक्षा थी।
ऐसे ही परमात्मा की प्रतीक्षा है। जैसे-जैसे परमात्मा निकट आता है, तुम्हारे साधारण जीवन में इतनी सुगंध भर जाती है, इतने फूल खिल जाते हैं! तुम्हें स्वयं भी भरोसा नहीं होगा जब पहली दफा फूल खिलने शुरू होते हैं। जब पहली दफा नाच आता है, तुम अपने पैरों पर भरोसा न कर पाओगे कि मेरे पैर और नाच रहे हैं! कि मेरा कंठ और गा रहा है! यह मैंने कोकिल होना कब से जाना? यह मोरपंख का नाच मुझे कब से आया?
तुम्हें याद भी नहीं है। तुमने कभी सीखा हो इसका भी तुम्हें स्मरण नहीं है। तुम्हें पता था, इसका भी कभी पता नहीं था। आज अचानक जाग उठा है।
बहुत करीब है शायद बहार का मौसम
कली-कली मेरे दामन की मुस्कुराई है
और जानना तुम तभी कि तुम्हारे जीवन में धर्म का कुछ पदार्पण हो रहा है, जब कलियां खिलने लगें, जब फूल मुस्कुराने लगें, जब तुम पर लाली फैलने लगे।
तो लाल उत्सव और वसंत और फूलों का रंग है।
फिर लाल क्रांति का रंग भी है। कम्युनिस्टों ने तो बहुत बाद में चुना, संन्यासी हजारों साल से उसे चुने बैठे हैं। फिर कम्युनिस्टों की क्रांति कोई बड़ी क्रांति भी नहीं है। कम्युनिस्टों की विचार पद्धति में बड़ी क्रांति हो भी नहीं सकती। पदार्थ ही पदार्थ है, इसमें बड़ी क्रांति की संभावना नहीं है। मिट्टी ही मिट्टी है, इसमें बड़ी क्रांति की संभावना नहीं है। क्रांति होगी भी तो क्या? एक मिट्टी का ढंग दूसरी मिट्टी का ढंग हो जाएगा।
क्रांति तो घट ही सकती है संन्यासी के जीवन में--जो कहता है, पत्थर से लेकर परमात्मा तक की संभावना है। पत्थर परमात्मा हो सकता है तो क्रांति हो सकती है। पत्थर पत्थर ही होता रहे तो क्या खाक क्रांति! थोड़ा-बहुत फर्क हुआ होगा, थोड़ा-बहुत ढंग बदला होगा। सुधार हो सकता है, कम्युनिज्म में क्रांति की कोई संभावना नहीं है, सुधार की संभावना है--ज्यादा से ज्यादा। वह भी कोई बहुत बड़ा कीमती सुधार नहीं हो सकता, नाममात्र का होगा।
रूस में क्रांति हुई, जार हट गया और जार से बड़ा जार स्टैलिन उसकी जगह बैठ गया। कोई क्रांति नहीं हुई। एक गुलामी गई, दूसरी गुलामी आई। एक गुलामी जब गई और दूसरी आई तो बीच में थोड़ी देर के लिए लोगों को राहत मालूम पड़ी। जैसे कि तुम किसी अरथी को मरघट ले जाते हो तो कंधा बदल लेते हो। एक कंधे पर बोझ बढ़ गया, दूसरे कंधे पर रख लिया। एक कंधे से दूसरे कंधे पर रखने में थोड़ी देर को संक्रमण के काल में राहत मिलती है, मगर फिर दूसरा कंधा दुखने लगता है।
अभी तुम इंदिरा को उतारे थे इस कंधे से, अब दूसरे कंधे पर मोरारजी दुखने के करीब आने लगे। क्रांति होती कहां? कंधे बदले जाते हैं। बीच में तुम बड़े उत्सुक हो लेते हो, बड़े प्रसन्न हो लेते हो कि हो गई क्रांति। आ गया सब कुछ।
कुछ कभी आता नहीं। क्रांति तो सिर्फ एक है, वह धर्म जानता है। वह क्रांति है कि तुम देह न रहो, आत्मा हो जाओ। वह क्रांति है कि संसार संन्यास हो जाए। वह क्रांति है कि पत्थर में परमात्मा दिखाई पड़े।
इतना भेद हो तो क्रांति। क्रांति जैसा बहुमूल्य शब्द आदमियों के बदलने से नहीं होता। जयप्रकाश नारायण को कहो, क्रांति जैसे इतने बहुमूल्य शब्द को ऐसी क्षुद्र बातों के लिए उपयोग नहीं करते। जयप्रकाश तो कहते हैं, आमूल क्रांति हो गई। छोटी-मोटी नहीं, आमूल ही क्रांति हो गई। पत्ता बदला नहीं है, वे कहते हैं मूल बदल गया। पत्ते पर शायद तुमने थोड़ा रंग-रोगन कर दिया होगा। वह भी उतरा जा रहा है। वह भी साल होते-होते सब पानी में बहा जा रहा है। आमूल क्रांति हो गई!
क्रांति सिर्फ एक है, मैं तुमसे कहूं बार-बार, और वह है कि तुम्हें यहां जड़ में चैतन्य का दर्शन होने लगे। यह जगत तुम्हारे लिए परमात्मा से भर जाए, आपूर हो जाए, लबालब हो जाए।
इसलिए संन्यासियों ने सदियों पूर्व लाल रंग चुना था। क्रांति का रंग है क्योंकि अग्नि का रंग है। अग्नि जलाती है और निखारती है; आग्नेय है। अग्नि से जो गुजरेगा सोना, वह निखर कर कुंदन होकर बाहर आता है। जो परमात्मा के लाल रंग से गुजर गया वह निखर जाएगा, कुंदन हो जाएगा। जलाएगा यह लाल रंग--जैसे अग्नि जलाती है। जलना जरूरी है, नहीं तो निखार नहीं होता।
और लाल रंग मदिरा का रंग भी है--बेखुदी का रंग, बेहोशी का रंग, डूब जाने का रंग, विसर्जित हो जाने का रंग। परमात्मा मदिरा है, मधुशाला है। जो मंदिर मधुशाला न हो वह मंदिर नहीं। उसे गलत लोगों ने कब्जा कर लिया होगा। उसे उदास और रुग्ण लोगों ने जकड़ रखा है। वहां वीणा बजनी ही चाहिए। वहां बांसुरी पर गीत उठने ही चाहिए। वहां ढोल पर थाप पड़नी ही चाहिए। वहां पैर में घूंघर बंधने उठने ही चाहिए। वहां नृत्य उठे और लोग मस्त हों। और ऐसे मस्त हों कि उस मस्ती में बिलकुल डूब जाएं। अपनी याद न रहे। अपनी सुध-बुध न रहे। जब अपनी सुध-बुध खोती है तभी उसकी सुध आती है। जब तक अपनी सुध है तब तक उसकी याद नहीं आती।
इन सारी बातों का प्रतीक है लाल रंग। लाल रंग संन्यास का रंग है क्योंकि परमात्मा का रंग है।
साहेब, तेरी देखौं सेजरिया हो।।
धरमदास कहते हैं, तेरी सेज देखता हूं, बड़ी अनूठी है। लाल ही लाल है। सब ढंगों से लाल है।
लाल महल के लाल कंगूरा, लालिनि लागि किवरिया हो।।
तेरे महल के कंगूरे लाल हैं। तेरे महल पर लगे किवाड़ लाल हैं।
लाल पलंग के लाल बिछौना...
तेरा पलंग लाल है, तेरा बिछौना लाल है।
...लालिनि लागि झलरिया हो।।
तेरे द्वार पर लगी झालर भी लाल है।
लाल साहेब की लालिनि मूरत...
तू भी लाल है, तेरा चेहरा भी लाल है।
...लालि लालि अनुहरिया हो।।
सब तरफ लाल ही लाल देख रहा हूं।
धरमदास बिनवै कर जोरी, गुरु के चरन बलिहरिया हो।।
इस परम अनुभूति के क्षण में भी गुरु नहीं भूलता। धरमदास कहते हैं, धन्य भाग मेरे कि गुरु मिले। उन्होंने मेरी आंख खोली और साहब से मिलाया और इस उत्सव को जगाया और इस मधु की धारा को बहाया।
पिया बिन मोहि नींद न आवै।।
और जब तुम्हें सेज करीब दिखाई पड़ने लगे परमात्मा की तो फिर कोई और चीज मन न भाएगी। जब परमात्मा दिखाई पड़ने लगे तो और सब प्रेम फीके पड़ जाएंगे। और सब प्रेम साधारण हो जाएंगे, लौकिक हो जाएंगे। उनका अर्थ खो जाएगा। तुमने जितने प्रेम बना रखे हैं उनमें तभी तक अर्थ है, जब तक परम प्रेम का पदार्पण नहीं हुआ है। तुमने जो घर बना रखे हैं वे तभी तक घर मालूम होते हैं, जब तक परमात्मा का आवास नहीं दिखा है। उसके दिखते ही तुम्हारे महल मिट्टी हो गए, तुम्हारे संबंध साधारण हो गए।
और ध्यान रखना, भक्त यह नहीं कहते कि तुम घर-द्वार छोड़ कर भाग जाना। मगर जो घटना घटती है उसका वर्णन तो करना होगा। जैसे ही परमात्मा का जरा सा अनुभव होना शुरू होता है, इस जगत की सब चीजें फीकी हो जाती हैं; तुलना में फीकी हो जाती हैं। अब जिसके हाथ में कोहीनूर हीरा लग गया हो उसे तुम सस्ते कंकड़-पत्थर सम्हालने को कहो, कैसे सम्हाले? छोड़ना भी नहीं पड़ता और सब छूट जाता है। छूट जाता है इसलिए, क्योंकि विराट दिखाई पड़ जाता है। जो छोड़ता है उससे छूटता नहीं। जिससे छूटता है वही छोड़ पाता है।
भेद को समझ लेना। जो छोड़ता है चेष्टा करके, उसको तो अभी अर्थ था। अर्थ नहीं होता तो चेष्टा क्या करनी थी! कोई आदमी कहता है कि मैं सब छोड़ कर आ गया--धन-दौलत, पत्नी-बच्चे। और उसके चेहरे पर तुम रौनक देखते हो छोड़ने की तो समझना कि कुछ छूटा नहीं। अब यह मजा ले रहा है इस बात में कि देखो, मेरा जैसा त्यागी कोई और है? कितना बड़ा काम कर आया हूं!
एक मुनि से मेरी बात होती थी। वे कहने लगे, शायद आपको पता न हो, लाखों मैंने छोड़े, घर-द्वार छोड़ा। मैंने उनसे कहाः छूटा नहीं। आप लौट जाओ वापस। कहने लगे, मतलब? मैंने कहाः लोग कूड़ा-करकट रोज अपने घर के बाहर फेंकते हैं, उसकी चर्चा नहीं करते कि हमने आज इतना कूड़ा-करकट छोड़ा है; म्युनिसिपल के डब्बे में डाला है। जरा देखो हमारी तरफ! अखबारों में खबर नहीं छपाते कि इतना हमने त्याग कर दिया है।
आपको छोड़े कितना समय हुआ? उन्होंने कहाः कोई तीस साल हो गए। मैंने कहा, तीस साल के बाद भी अभी तुम्हें याद है कि लाखों थे? उन लाखों में अभी भी अर्थ है, रस है। वे लाखों गए नहीं, वे तुम्हारी चेतना को अभी भी घेरे हुए हैं। तुमने छोड़ा मगर वे छूटे नहीं। छोड़ना बाहर की घटना नहीं है, भीतर की घटना है। जिस चीज में से अर्थ खो जाता है वह छूट ही जाती है। फिर चाहे तुम उसके पास ही बैठे रहो। हीरे-जवाहरात तुम्हारे पास पड़े रहें, अगर तुम्हें अर्थ नहीं रहा तो बात छूट गई।
देखा कभी, छोटे बच्चे तुम्हें भी झंझट में डाल देते हैं। छोटे बच्चे को तुम यात्रा पर ले जा रहे हो, वह अपना गुड्डा रखे हुए है। गंदा भी हो गया है, तेल भी लग गया है, धूल भी लगी है...अब छोटा ही बच्चा है उसका गुड्डा भी...! मगर वह साथ ही ले जाना चाहता है। वह कहता है इसके बिना हम जा ही नहीं सकते। इसके बिना वह सो नहीं सकता। तुम उसे लाख समझाओ कि यह गुड्डा है, तू पागल हुआ? इसको छाती से लगा कर सोने की कोई जरूरत नहीं है। हम भी सोते हैं। वह...वह मगर उसे समझ में कुछ नहीं आता। वह गुड्डे के बिना सो नहीं सकता। उसे रात गुड्डा चाहिए ही।
फिर तुम देखते हो, एक दिन घड़ी आती है जब वह समझ जाता है, गुड्डा गुड्डा है। जिस दिन उसे समझ में आ जाता है उस दिन तुम उससे कहो कि बेटा, यह गुड्डा सम्हाल कर रखो, रात सोना है। वह हंसेगा। वह कहेगा, किसको आप...मुझे बुद्धू समझते हो? जिस गुड्डे को वह छोड़ता नहीं था गुड्डा वह कब घर के किसी कोने-करकट में पड़ा रह गया, कब फेंक दिया गया, उसे कुछ याद भी नहीं रह जाती। इसका नाम छूटना।
तुम्हें जब विराट दिखाई पड़ता है, क्षुद्र में से अर्थ खो जाता है। क्षुद्र में अर्थ पहले खो जाए, फिर विराट दिखाई पड़ेगा ऐसा जिन्होंने तुमसे कहा है उन्होंने गलत कहा है। जो तुमसे कहते हैं, पहले कंकड़-पत्थर छोड़ो तब तुम्हें हीरे मिलेंगे, वे गलत कहे हैं। पहले हीरे खोजो, कंकड़-पत्थर छूटेंगे। पहले नई सीढ़ी पर पैर रख लो, नया अनुभव कर लो, नए आयाम को उतर जाने दो, फिर तुम जहां थे उससे छूट जाने में जरा भी अड़चन नहीं होगी। श्रेष्ठ जब मिल जाए तो अश्रेष्ठ को छोड़ने में जरा भी अड़चन नहीं होती।
लेकिन श्रेष्ठ का कुछ पता न हो और अश्रेष्ठ को छोड़ना...बड़ा कष्ट होता है। फिर उस कष्ट की परिपूर्ति के लिए अहंकार को बनाना पड़ता है। इसलिए तुम त्यागियों का सम्मान करते हो। वह सम्मान सिर्फ परिपूर्ति है। तुम यह कह रहे हो, तुमने इतने घाव खाए, इसके बदले में हम तुम्हें सम्मान देते हैं।
जब कोई आदमी मुनि हो जाता है, त्यागी हो जाता है, तुम शोभायात्रा निकालते हो। इसने किया क्या है? अगर संसार व्यर्थ है तो इसने कुछ छोड़ा नहीं। अगर संसार सार्थक है तो उसने छोड़ कर गलती की। दो बातों में कोई भी एक बात सही होगी। इसका जुलूस किसलिए निकाल रहे हो? हां, इसे देख कर अपनी छाती पीट लेते यह समझ में आ सकता था। कि इसने छोड़ दिया और हम बुद्धू की तरह अभी भी पकड़े हुए हैं। मगर इसका जुलूस किसलिए निकाल रहे हो? इसने कोई बहुत बड़ा गुणवत्ता का काम किया? कोई बहुत बड़े गौरव का काम किया? इसे जो था वह दिखाई पड़ गया। इसमें गौरव क्या है? और इसलिए जो गलत अब तक पकड़ रखा था वह इसके हाथ से छूट गया।
छूट गया--खयाल रखना, छोड़ा नहीं। छोड़ा तो घाव रह जाते हैं। छोड़ा तो भीतर चोट रह जाती है। फिर उस चोट को भरने के लिए मलहम-पट्टी चाहिए। वही मलहम-पट्टी समाज को करनी पड़ती है। इनकी पूजा करो, इन्होंने धन छोड़ दिया, पद छोड़ दिया। इनका जुलूस निकालो, इनके चरण छुओ, इनकी सेवा में जाओ। ये बड़े त्यागी हैं।
अब यह अहंकार को भरने की दूसरी तरकीब हुई। पहले ये अहंकार को भरते थे कि लाखों इनके पास हैं। अब इससे अहंकार को भरा जा रहा है कि लाखों इन्होंने छोड़े हैं। और ध्यान रखना, दूसरा अहंकार पहले से ज्यादा सूक्ष्म है और ज्यादा खतरनाक है। शुद्ध जहर है। पहले में तो कुछ अशुद्धि भी थी। पहला तो तुम पीते तो शायद मरते नहीं।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन मरना चाहता था। जहर ले आया, पीकर और सो गया। कई बार आंख खोल कर रात में देखी, अभी तक मरा नहीं? करवट भी बदली, कचोटी भी ली शरीर में। दर्द भी मालूम होता है कचोटी लेता है तो। तो अभी मरा नहीं? मामला क्या है! सुबह भी हो गई, दूध वाला द्वार पर दस्तक भी देने लगा, पत्नी चाय इत्यादि बनाने लगी, घर में बच्चे चहलकदमी करने लगे। उसने कहाः मामला क्या है! अभी तक मरा नहीं?
आंख खोल कर देखी, सब वही का वही है। उठा, दर्पण में जाकर देखा, वही का वही है। भागा गया जहर के दुकानदार के पास, कहा कि यह मामला क्या है? उसने कहाः भाई, हम क्या करें! हर चीज में मिलावट है। कोई जहर आज-कल शुद्ध मिलता है?
अब कोई मरना भी चाहे तो मर नहीं सकता। जी भी नहीं सकता, मर भी नहीं सकता। जहर भी शुद्ध नहीं मिलता।
साधारण आदमी की जिंदगी में जो जहर है वह अशुद्ध जहर है। जिसको तुम त्यागी कहते हो उसकी जिंदगी में शुद्ध जहर है। उसने सब अशुद्धि अलग कर दीं, जहर ही जहर बचा है। उसका अहंकार बड़ा पवित्र अहंकार है। वही शुद्धता है। उसका अहंकार बड़ा धार्मिक अहंकार है। उससे सावधान रहना।
जिसे बोध होता है उसका संसार तो गया ही, उसकी जगह त्याग नहीं आता। त्याग के आने का कोई अर्थ नहीं है अब। उसकी जगह परम भोग का अवतरण होता है।
भक्त परम भोगी है। वह परमात्मा को भोगता है अब। तुम क्षुद्र को भोगते हो, वह विराट को भोगता है। तुम ऊपर-ऊपर की चीजों में पड़े हो, वह भीतर पहुंच गया है। उसने डुबकी मार ली। तुम सागर के किनारे शंख-सीप बीन रहे हो, वह डुबकी मार गया और हीरे इकट्ठे कर रहा है, जवाहरात इकट्ठे कर रहा है कि मोती इकट्ठे कर रहा है।
पिया बिन मोहि नींद न आवै।।
और एक बार झलक मिलनी शुरू हुई परमात्मा की, फिर नींद नहीं, फिर चैन नहीं। फिर पहली दफे विरह की अग्नि जलती है। पहली दफे तुम्हें समझ में आना शुरू होता है, क्या होने को थे और क्या हो गए! क्या पाने के हकदार थे, क्या हमारा अधिकार है--जन्मसिद्ध अधिकार, या कहो स्वरूपसिद्ध अधिकार। परमात्मा होना हमारी क्षमता है। इससे कम पर जो राजी हो गया, जब समझ में आएगा तो वह रोएगा नहीं तो और क्या करेगा? छाती नहीं पीटेगा तो और क्या करेगा?
अश्क आंखों से बह गए मेरी
दर्द दिल से मगर जुदा न हुआ।
रोएगा। आंखों से आंसू बह जाएंगे। लेकिन ये आंसू दर्द को कम नहीं करेंगे, दर्द को बढ़ाएंगे।
अश्क आंखों से बह गए मेरी
दर्द दिल से मगर जुदा न हुआ।
एक अजीब अवस्था में आ जाता है भक्त।
मैं हंसता हूं दिन भर, मैं रोता हूं शब भर
खुदा जाने मुझको यह क्या हो गया है
हंसता भी है क्योंकि जित देखूं तित लाल, लाली मेरे लाल की। सब तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगा। हंसता भी है और रोता भी है क्योंकि अभी मैं लाल नहीं हो गया हूं। लाली चारों तरफ है। सब तरफ फूल खिले हैं। और आज सब तरफ फूल खिले देख कर और सब तरफ आई हुई मधुऋतु को देख कर अपने भीतर फूल नहीं खिले हैं यह बात और अखरती है, काटती है।
किसी में फूल खिले दिखाई न पड़ते होते तो यह भी ठीक था। यह मरुस्थल जैसा अपना जीवन भी ठीक था। ऐसा ही सबका जीवन है; अन्यथा होता कहां है? एक स्वीकार का भाव था, एक सांत्वना थी। आज चारों तरफ दिखाई पड़ता है कि परमात्मा खिला है। मुझे क्या हुआ है? मैं क्यों नहीं खिला हूं? मेरा फूल कहां? मेरी नियति क्या है?
मैं हंसता हूं दिन भर, मैं रोता हूं शब भर
खुदा जाने मुझको यह क्या हो गया है
निकलती ही नहीं दिल से यह जालिम
निगाहे-यार कुछ ऐसी लड़ी है।
परमात्मा के संबंध में जो शब्द सर्वाधिक सार्थक हो सकते हैं, वे प्रेम के शब्द हैं। स्त्री और पुरुष के बीच जो प्रेम घटित होता है, उन्हीं को अनंत गुना कर लो तो परमात्मा और मनुष्य के बीच जो प्रेम घटित होता है, उसका थोड़ा अनुमान तुम्हें होगा। और इस जगत में कोई घटना नहीं है जिससे उसका अनुमान हो सके।
निकलती ही नहीं दिल से यह जालिम
निगाहे-यार कुछ ऐसी लड़ी है
तीर की तरह चुभ जाता। आनंद भी होता है कि धन्यभागी मैं कि उसके तीर ने मुझे चुना और पीड़ा भी होती है कि अब मिलन कब हो? अब एक पल भी दूरी सही नहीं जाती।
पिया बिन मोहि नींद न आवै।।
खन गरजै, खन बिजुली चमके, ऊपर से मोहि झांकि दिखावै।
इधर प्राणों में बादल गरज रहे हैं, बिजलियां चमक रही हैं और मजा देखो यह, कि ऊपर से अपनी झलक दिखा जाता है। इधर जार-जार रो रहा हूं मैं, इधर आंसुओं से आंखें भरी हैं, इधर प्राणों में कांटे चुभे हैं, यहां रोआं-रोआं जल रहा है विरहाग्नि से और उसका मजा देखो--
खन गरजै, खन बिजुली चमके, ऊपर से मोहि झांकि दिखावै।
और बार बार उसकी झांकी हो जाती है। बिजली में भी उसी की चमक मालूम पड़ती है और बादलों के गर्जन में भी उसी की आवाज, उसी का नाद मालूम पड़ता है। आंसुओं में भी वही बहता मालूम पड़ता है और आग में भी वह लपटता मालूम पड़ता है।
जाते ही उनके खुल गए यादों के मैकदे
गो उनसे लाख दूर हूं फिर भी नशे में हूं
दूरी है फिर भी नशा है। कभी-कभी भक्त पास भी आ जाता है इस नशे में। कभी रोते-रोते करीब भी आ जाता है। आंसुओं से बेहतर सेतु नहीं है। इसे दोहरा दूं--आंसुओं से बेहतर कोई प्रार्थनाएं नहीं हैं। जो रोना जानता है उसे कुछ कहने की जरूरत नहीं है। जो आंखों से कहना जानता है उसे शब्दों से कहने की जरूरत नहीं है।
जब तुम्हारे आंसू बहने लगें, तुम करीब आ जाते हो। आंसुओं से ज्यादा परमात्मा के करीब और कोई चीज नहीं लाती। न सिद्धांत, न शास्त्र, न तुम्हारी रटी हुई तोतों जैसी प्रार्थनाएं, न तुम्हारे श्लोक, न तुम्हारे भजन, न तुम्हारे कीर्तन। आंसू जितने करीब लाते हैं, और कोई चीज करीब नहीं लाती। क्योंकि आंसू सीधे हृदय से आते हैं। और आंसू प्राकृतिक हैं। शब्द तो सब सीखे गए हैं, सामाजिक हैं। और आंसू तुम्हारे हृदय को कंपा जाते हैं। वही कंपन परमात्मा के करीब लाता है। उसी कंपन में तुम्हारी लय उससे बंध जाती है। उसी कंपन में तुम उसके साथ हो लेते हो।
मेरे अश्कों का करिश्मा देखिए
सामने वो मुस्कुरा कर आ गए
जरा दिल खोल कर रोना सीखो और तुम चकित हो जाओगे; इधर आंखें आंसुओं से क्या भरती हैं, परमात्मा की झलक आंसुओं से मिलने लगती है। आंसू जैसे दर्पण बन जाते हैं।
मेरे अश्कों का करिश्मा देखिए
सामने वो मुस्कुरा कर आ गए
जितना रो सकोगे उतने करीब आओगे। और ध्यान रखना, इस रोने में दुख भी है और इस रोने में आनंद भी है। यह बड़ी विरोधाभासी दशा है। इसको हम ऐसा नहीं कह सकते कि आंसू सिर्फ दुख के हैं। अगर दुख के हैं तो भक्त उदास होगा। इसको हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि सिर्फ सुख के हैं। ये दोनों के मध्य हैं। इसमें एक तरफ भारी दुख है कि और जल्दी घटना क्यों नहीं घटती? और एक तरफ बड़ा धन्य भाव है कि घट तो रही है, पहुंच तो रहे हैं, करीब आना तो हो रहा है! इतने करीब आए यह भी क्या कम है!
सासु ननद घर दारूनि आहैं, नित मोहि बिरह सतावै।।
सास-ननद का प्रतीक लिया है धरमदास ने। जो अपने हैं वही परमात्मा के बीच बाधा बन जाते हैं। जिनको तुमने अपना माना है वही बाधा बन जाते हैं। और उसके पीछे कारण है। क्यों बाधा बन जाते हैं? क्योंकि ईष्र्या उमगती है।
यह सास का और बहू का झगड़ा बड़ा पुराना है। क्यों है? मनस्विद से पूछो, यह झगड़ा मिटेगा नहीं। यह मिट नहीं सकता। इसे समझो थोड़ा, तो उससे तुम दूसरे सूत्र को भी समझ पाओगे। इसी संसार को समझने से तो हम धीरे-धीरे परमात्मा को समझ पाते हैं।
सास और बहु का झगड़ा क्या है? मां ने अपने बेटे को प्रेम किया था। नौ महीने पेट में रखा था। फिर वर्षों तक उसकी सेवा की है, सब तरह के कष्ट उसके साथ सहे हैं। रात सोयी नहीं है, बीमार रहा है तो जागी है। हजार तकलीफें आई हैं, उनको पार किया है। और अचानक यह बेटा एक दिन किसी और स्त्री का हो जाता है; इससे बड़ी ईष्र्या पैदा होती है।
मां को भारी ईष्र्या पैदा होती है कि यह मेरा बेटा किसी और स्त्री का हो गया? यह बहुत चेतन में नहीं होती, इसलिए किसी मां से पूछना मत। उसके चेतन में नहीं होती। यह उसके अचेतन हिस्से का अंग है। उसके अचेतन में होती है। आज वह देखती है हर बात में कि बेटा उससे मिलने को वैसा उत्सुक नहीं है जैसे पहले था। हो भी नहीं सकता। उसका आंचल पकड़ कर घूमता था, अब आंचल पकड़ कर घूम भी नहीं सकता। घूमना उचित भी नहीं है। आखिर एक समय तो मां का आंचल छोड़ ही देना होगा। और जो बेटा न छोड़ पाए वह रुग्ण है, बीमार है।
अब यह बेटा किसी स्त्री से मिलने को उत्सुक होता है, मां से मिलने को ज्यादा उत्सुक नहीं होता। मिलता भी है तो औपचारिक। पास आकर बैठ भी जाता है, दो बातें भी कर लेता है तो वह ऐसे ही मौसम इत्यादि की, कि तबीयत इत्यादि कैसी है। मगर एक फासला बढ़ना शुरू होता है।
मां के कष्ट को तुम समझना। यह बेटा एक दिन उसके पेट में इतना अपना था कि एक ही था उसके साथ। फिर पेट से बाहर हुआ, फासला पहला शुरू हुआ। अलग हुआ। फिर डाक्टर ने बीच में दोनों के जोड़ भी था, वह भी काट दिया। फिर भी लेकिन बेटा मां के दूध पर निर्भर था। उसके स्तनों से जुड़ा था। वही उसका भोजन थी, वही उसका जीवन थी। एक दिन दूध भी गया। यह बेटा अब खुद अपना भोजन लेने लगा। और भी संबंध टूटा।
यह संबंध टूटने की लंबी कथा है। मां और बेटे का संबंध, संबंध टूटने की कथा है। फिर एक दिन यह स्कूल चला गया। फिर एक दिन विश्वविद्यालय चला गया। फिर वहीं रहने लगा। वर्षों में कभी आता छुट्टियों में। कभी चिट्ठी-पत्री आ जाती है। और फिर एक दिन आखिरी संबंध टूट गया, जब एक और स्त्री इसके जीवन में आ गई। तब उस स्त्री ने आकर इसको फिर सम्हाल लिया। उस स्त्री ने पूरा कब्जा ले लिया।
रूस में एक कहावत है कि मां एक बेटे को बुद्धिमान बनाने के लिए पच्चीस साल लगाती है और एक दूसरी स्त्री, पांच मिनट नहीं लगते और बुद्धू बना देती है। पच्चीस साल बुद्धिमान बनाने में और पांच मिनट बुद्धू बनाने में!
चोट तो मां को लगती होगी। किए-धरे पर पानी फेर दिया। एक अचेतन ईष्र्या का जन्म होता है। वह बहू को बरदाश्त नहीं कर पाती।
और बहू के मन में भी मां को बरदाश्त करना कठिन होता है। क्योंकि उसे पता है कि यह बेटा मां के साथ इतना इकट्ठा रहा है जितना इकट्ठा मेरे साथ कभी नहीं हो सकेगा। यह मेरे गर्भ में समा नहीं सकता। ज्यादा से ज्यादा इसका प्रतीक--इसका बेटा मेरे गर्भ में समा सकता है, यह नहीं समा सकता। प्रेयसी चाहेगी कि यह मुझमें इस तरह डूब जाए जिस तरह एक दिन मां में डूबा था और बिलकुल एकरस था, एक तरंग था। जरा भी भेद नहीं था। मां का हृदय धड़कता था तो यह धड़कता था। मां की श्वास चलती थी तो इसकी श्वास चलती थी। ऐसा यह मेरे साथ हो जाए।
यह हर पत्नी की आकांक्षा है। मगर यह हो नहीं सकता। यह संभव नहीं है। और यह संभव किसी के साथ हुआ था। बहू भी मां को माफ नहीं कर सकती। मां भी बहू को माफ नहीं कर सकती। यह कलह है।
बहनें भी माफ नहीं कर सकतीं घर में आई भाभी को। क्योंकि भाई उनका था; बिलकुल उनका था। आज अचानक अधिकार गया, एकाधिकार गया। आज बहनों को साफ-साफ पता है कि अब भाई किसी और का है। संबंध अब औपचारिक होंगे। भाई का सारा प्रेम अब अपनी प्रेयसी की तरफ बहा जाता है।
यही अड़चन परमात्मा के प्रेम में और भी बड़ी होकर आती है। क्योंकि जब कोई परमात्मा के प्रेम में उत्सुक हो जाता है तो जिन-जिन से प्रेम किया है उन सभी को परमात्मा से ईष्र्या खड़ी हो जाती है। इसलिए संसार में तुम जब तक परमात्मा के प्रेम में नहीं पड़े हो, एक तरह की सुविधा रहेगी। जिस दिन तुम परमात्मा के प्रेम में पड़े, अगर तुम स्त्री हो तो तुम्हारा पति बाधा डालेगा। अगर तुम पुरुष हो तो तुम्हारी पत्नी बाधा डालेगी। तुम्हारे बेटे बाधा डालेंगे। क्योंकि उन सबको लगेगा कि और उपद्रव का सूत्रपात हुआ। और परमात्मा का प्रेम तो ऐसा है कि तुम्हारी सारी जीवन चेतना को खींच लेगा। सब वंचित हो जाएंगे। किसी की तरफ तुम्हारे जीवन से प्रेम की धार बहनी बंद हो जाएगी।
इससे घबड़ाहट पैदा होती है। इसलिए धार्मिक कोई हो जाए घर में तो सारा घर विरोध करता है। हजार-हजार तरह के बहाने खोजता है लेकिन मौलिक कारण यह है।
यहां मेरे पास कोई आकर संन्यस्त हो जाता है, फिर अड़चन शुरू होती है। उसकी पत्नी रोती चली आती है। मैं उसको कहता हूं कि यह घर नहीं छोड़ रहा है। यह मेरा संन्यास घर छोड़ने वाला संन्यास नहीं है। यह कायर संन्यास नहीं है। यह भगोड़ा संन्यास नहीं है। यह घर में ही रहेगा। जैसा था वैसे ही रहेगा, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन वह कहती है, नहीं, फर्क तो पड़ ही गया। आप क्या कहते हैं फर्क नहीं पड़ेगा? घर छोड़ कर न जाए मगर फर्क तो पड़ ही गया। मेरे और इसके बीच यह गैरिक रंग फर्क डाल रहा है। आपकी माला इसके गले में देखती हूं, मुझे बेचैनी होती है। यह मेरा नहीं रहा। यह आपका हो गया।
मैं समझता हूं। यह अड़चन तो है। वह ठीक ही कह रही है।
अब मैं जानती हूं कि यह मेरे पास बैठा है लेकिन सोच आपकी रहा है। विचार आपका कर रहा है। आपने क्या कहा है उसका हिसाब बिठा रहा है। यह दुकान पर भी रहेगा लेकिन मन अब इसका वहां नहीं है। आपने यह क्या कर दिया!
तो पत्नी बाधा डालेगी, पति बाधा डालेगा, मित्र बाधा डालेंगे। इसे समझना। तुम जैसे ही उनसे अन्यथा होने लगोगे, वे सभी बाधा डालेंगे। क्योंकि वे बरदाश्त नहीं कर सकेंगे कि अचानक तुम्हारे जीवन में कोई एक ऐसा सूत्र आ जाए, जिनके कारण उनके सारे संबंध अस्त-व्यस्त हो जाएं। वही अर्थ हैः
सासु ननद घर दारूनि आहैं...
बड़ी कठोर हैं सास, बड़ी कठोर है ननद। ये सारे लोग कठोर हो उठे हैं मुझ पर। जब से तुम्हारी सेज दिखाई पड़ी है और जब से तुम्हारी तरफ चलना शुरू हुआ है, सारे संसार के लोग मेरे प्रति बड़े कठोर हो गए हैं।
...नित मोहि बिरह सतावै।
ये सब मुझे पीछे खींच रहे हैं और मैं तुम्हारी तरफ आने को आतुर हूं। बड़ी संकट की अवस्था खड़ी हो जाती है। और इस अवस्था को पैदा करने में तथाकथित धार्मिकों ने भी हाथ बंटाया है। सदियों से उन्होंने संन्यास की एक ऐसी परंपरा पकड़ रखी थी, जो जीवन विरोधी थी। इसलिए लोगों के मन में बड़ा भय पैदा हो गया है। संन्यास शब्द ही भय पैदा करने वाला हो गया है। संन्यास शब्द में माधुर्य नहीं रहा, रस नहीं रहा। संन्यास शब्द में एक तरह की शत्रुता है संसार के प्रति; निंदा है संसार के प्रति।
और इसलिए लोग घबड़ा जाते हैं, चैंक जाते हैं। लोग कहते हैं, ऐसे औपचारिक धर्म ठीक है। कभी मंदिर हो आए, कभी साधु के चरण छू आए, कभी पूजा पाठ कर लिया। यह सब ठीक है, मगर प्रामाणिकता से धर्म में उत्सुकता ली कि लोग विरोध में हो जाते हैं। अप्रामाणिक रूप से उत्सुकता लो, ठीक है। कभी दान कर दो, कोई हर्जा नहीं है। कभी मंदिर में दो पैसे चढ़ा दो, कोई हर्जा नहीं है। और कभी-कभी रविवार को चर्च हो आओ, किसी को कोई अड़चन नहीं है।
सच तो यह है, रविवार वाले चर्च में पत्नी भेजती है पति को कि जाओ, जाना ही चाहिए। बाप भी बेटों को भेजता है, जाना ही चाहिए। पति भी पत्नी को कहता है कि जाना चाहिए। सबको जाना चाहिए। वह सामाजिक औपचारिकता है, सामाजिक लोक व्यवहार है। वह असली धर्म नहीं है। असली धर्म के भय के कारण लोगों ने नकली धर्म पैदा कर लिया है, जिसमें कोई खतरा न हो। अपने को बचा कर जहां से वापस आ सकें, ऐसा धर्म पैदा कर लिया है। जैसे के तैसे वापस आ सकें।
इसलिए जब भी कोई बुद्ध या कोई कबीर या कोई नानक इस जगत में आता है तो अड़चन शुरू होती है। क्योंकि वह इस झूठे औपचारिक धर्म को तोड़ देता है। वह वास्तविक धर्म को देना शुरू करता है।
लेकिन धार्मिकों का हाथ भी है। बुद्ध की बात मान कर जो लोग संन्यस्त हो गए उनके घरों की हम थोड़ा सोचें। पत्नियां, बच्चे अनाथ हो गए। हजारों परिवार उजड़ गए। महावीर की मान कर जो संन्यस्त हो गए उनके परिवारों की भी तो सोचो! और बड़ा मजा यह है कि महावीर को मान कर जो संन्यस्त हुए, ये पैर भी फूंक-फूंक कर रखते हैं। चींटी न मर जाए इसकी चिंता है और बच्चों की हत्या करके आ गए हैं। पत्नी की गर्दन उतारकर आ गए हैं।
 ये अहिंसक हैं! ये जो तुम्हारे मुनि इत्यादि बैठे हैं मंदिरों में, ये महा हिंसक हैं। अहिंसा इनको छू भी नहीं गई है। जो लोग बुद्ध की बात मान कर--हजारों लोग! थोड़ी बहुत संख्या में नहीं, लाखों लोग संन्यस्त हुए, भिक्षु हुए, इनके परिवारों की कोई कथा तो लिखे! इनके परिवारों की कोई बात तो चलाए! इनके परिवारों पर क्या गुजरी? बच्चों ने भीख मांगी, स्त्रियां वेश्याएं बनीं, इनकी कोई चर्चा भी नहीं करता। क्योंकि चर्चा कौन करे! नहीं तो बुद्ध पर लांछन चला जाएगा। महावीर पर लांछन चला जाएगा। इनकी चर्चा कोई नहीं उठाता।
एक बड़ा महत्वपूर्ण इतिहास अछूता पड़ा है। इसको किसी न किसी को छेड़ना ही चाहिए कि बच्चे कहां गए इनके? मरे, जिंदा रहे, भीख मांगी? इनकी पत्नियों ने क्या किया? वेश्यागिरी की कि आत्मघात कर लिया! इस सबका जुम्मा किस पर है? और ये बेचारे चींटी भी न मर जाए, फूंक-फूंक कर चलते रहे। यह भी बड़ी मजे की बात हुई।
कई बार ऐसा हो जाता है कि छोटी-छोटी चीजों का तो तुम हिसाब रख लेते हो और बड़ी-बड़ी चीजों को भूल ही जाते हो। इसलिए मैं एक नये संन्यास की शुरुआत कर रहा हूं। ऐसा संन्यास पृथ्वी पर कभी नहीं था, जो सिर्फ आंतरिक रूपांतरण है। और बाहर जैसा है, सब वैसा ही रहे। फिर भी भय तो पुराना है। संन्यास शब्द पुराना है।
एक युवक ने संन्यास लिया, मैं सोहन के घर मेहमान था। उसकी मां आ गई। वह तो चिल्लाती, रोती--मोटी स्त्री है, और भारी शोरगुल मचाती। वह तो आकर लोटने लगी फर्श पर। मैं उसको कहूं कि तू सुन भी तो! यह संन्यास घर से भागने वाला नहीं है। वह कहे, मुझे कुछ सुनना ही नहीं है। माला वापस लो, मेरा एक ही बेटा है। मैं कहूं तेरा एक ही है, छीनते नहीं हैं। वह सुने ही नहीं। वह कहे, मैं मर जाऊंगी। और लोट रही, पोट रही।
उसकी भी बात मुझे समझ में आती है। उसके इस लोटने-पोटने में हजारों साल की व्यथा है। संन्यास शब्द ही जहरीला हो गया है। उस पर मैं नाराज नहीं हूं। उसको लोटते-पोटते देख कर मैं बुद्ध और महावीर की सोचने लगा था। इसमें कितनी स्त्रियों का लोटना-पोटना छिपा है, कितनी दारुण कथा छिपी है! यह सुनने को भी राजी नहीं है। संन्यास शब्द पर्याप्त है। उसके, संन्यास शब्द के साहचर्य इतने विकृत हो गए हैं...।
ऐसा समझो न कि तुम सिनेमा-घर में बैठे हो, कोई चिल्ला दे, आग! आग! और लगे भागने। फिर इसकी भी कोई फिकर नहीं करता कि आग लगी है या नहीं लगी है या किसी ने मसखरी की है, इसकी भी कौन फिकर करता है! आग शब्द का मामला ऐसा है। शब्द ही घबड़ा देता है। संन्यास...! अब वहां भभूतमल पीछे बैठे हुए हैं, अब वे कितने दिन से सोच रहे हैं संन्यास लेना है, मगर पत्नी कहती है, संन्यास? बस, अड़चन है, घबड़ाहट है। मेरे संन्यास में घबड़ाहट है, जो कि तुम्हें तोड़ता नहीं, जो कि तुम्हें जोड़ देता है।
मगर जब धनी धरमदास ने ये वचन कहे तब संन्यास तोड़ने वाला ही था। और भी अड़चन रही होगी।
सासु ननद घर दारूनि आहैं, नित मोहि बिरह सतावै।
जोगिन व्हैके मैं बन-बन ढूंढूं, कोऊ न सुधि बतलावै।
किधर-किधर नहीं पहुंची है हुस्ने-यार की बात
कहां-कहां मेरी वहशत का तजकरा न गया
और इधर तुम पागल होने शुरू हुए परमात्मा में कि चारों तरफ अफवाहें उड़नी शुरू होती है।
किधर-किधर नहीं पहुंची है हुस्ने-यार की बात
कहां-कहां मेरी वहशत का तजकरा न गया
जगह-जगह खबर पहुंचनी शुरू हो जाती है। राह चलते लोग पूछने लगते हैं, भाई क्या हो गया? दिमाग तो ठीक है? यह क्या पागलपन चढ़ा है तुम्हें? जो तुमसे कभी बोले न थे, जिन्होंने कभी तुममें कोई उत्सुकता न ली थी, वे भी तुम्हें समझाने आने लगते हैं। तुम्हें मेरी बात समझ में न आए, संन्यास लेकर देखो! अपरिचित, अनजान, राह चलते राहगीर टोक लेते हैं कि भई, तुम्हें क्या हो गया?
और एक बड़े मजे की बात है। चित्त का विरोधाभास कैसा है! ये वे ही लोग हैं, जो संन्यासियों के चरण भी छूते हैं, महात्माओं के पास भी जाते हैं। यह बड़ी अजीब बात है। अगर संन्यास से इतना भय है तो संन्यासियों के पास जाना बंद करो। लेकिन उसमें और एक भय है कि कहीं संन्यासी ठीक ही न हों।
तो इन्होंने इंतजाम कर लिया है, एक समझौता कर लिया है कि हम तो संन्यास कभी न लेंगे। तुम तो ले ही लिए हो, हम तुम्हारे चरण छुएंगे। कुछ न कुछ पुण्य लाभ, कुछ न कुछ जूठन हमें भी मिल जाएगी। हम तो बचेंगे संन्यास से, मगर तुमने ले लिया, बड़ा अच्छा किया। इनके पैर छूकर एक तरह का प्राॅक्सी संन्यास--कि चलो हम कम से कम श्रद्धा तो करते हैं। हमारा भाव तो देखो। भाव तो अच्छा है। अभी थोड़ा साहस की कमी है, कभी साहस होगा तो करेंगे। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में।
और ऐसा ये कई जन्मों से चरण छू रहे हैं महात्माओं के। चरण छूने का इनका अयास भारी हो गया है। ये चरणदास हो गए हैं! मगर इनके जीवन में कोई क्रांति नहीं होती।
जोगिन व्हैके मैं बन-बन ढूंढूं, कोऊ न सुधि बतलावै।
यहां किसी को पता हो तो कोई बतलाए! जिनको तुम सोचते हो पता है, उनको भी पता नहीं है। तुम जब सोचना शुरू करते हो, खोजना शुरू करते हो तब तुम्हें पता चलता है कि किनको पता है, किनको पता नहीं है।
बुद्ध ने जब यात्रा शुरू की तो वे अनेक गुरुओं के पास गए। जिस गुरु के पास गए, उन्होंने बड़े अनन्यभाव से उस गुरु के चरणों में अपने को समर्पित किया। उनकी खोज, उनकी निष्ठा अपूर्व थी। वे निश्चित ही खोजने निकले थे। सारा जीवन दांव पर लगाने की तैयारी थी। वह कुछ ऐसी कुनकुनी खोज नहीं थी, ज्वलंत खोज थी। जिस गुरु ने जो कहा वही किया। और हर गुरु ने उनसे आखिर में क्षमा मांगी और कहा कि मुझे माफ करो। मुझे असल में खुद भी पता नहीं। जो मैंने सुन रखा था, इधर उधर से इकट्ठा कर रखा था वह तुमसे बता दिया। अब अगर इससे नहीं होता तो तुम कोई और गुरु खोजो।
जब गुरुओं के पास गए तब पता चला कि गुरुओं में भी गुरु शायद ही कोई हो। जब तक तुम खोजते नहीं तब तक तुम्हें कुछ अड़चन भी नहीं होती।
ऐसा समझो न कि तुम रोज बाजार से निकलते हो, तुम्हें हीरे खरीदने ही नहीं हैं तो किस दुकान पर असली हीरे बिकते हैं और किस दुकान पर नकली पत्थर बिकते हैं, तुम्हें लेना देना क्या? सब असली हों कि सब नकली हों, तुमने कभी इस पर विचार ही नहीं किया। तुमने हीरे खरीदे ही नहीं हैं, न खरीदने हैं। तुम क्यों चिंता में पड़ो? तुम्हारी नजर ही हीरों की दुकान की तरफ नहीं जाती।
जिस दिन हीरा खरीदना है उस दिन सवाल उठता है। उस दिन तुम विचार करोगे कि कौन सा असली, कौन सा नकली। जौहरी को दिखाओगे, जांच करवाओगे। तब तुम्हें हैरानी होगी कि कई दुकानें तो सिर्फ पत्थर बेचती हैं। जिन दुकानों पर हीरे भी बिकते हैं, उन पर भी बहुत तो पत्थर ही हैं, हीरे तो कुछ हैं। क्योंकि लेनदार ही कभी आता है। खरीददार ही कभी आता है। हीरे की परख कहां है?
जोगिन व्हैके मैं बन-बन ढूंढूं...
धनी धरमदास कहते हैं, गांव-गांव भटकता हूं, जंगल-जंगल जाता हूं, जहां खबर मिलती है कि किसी को खबर है वहां जाता हूं, लेकिन कोऊ न सुधि बतलावै। कोई मुझे परमात्मा का पता नहीं बतलाता। कोई गैल नहीं बताता, राह नहीं बताता, द्वार नहीं बताता।
अहसास भी होने लगा है कि परमात्मा सब तरफ है लेकिन कहां से पकड़ूं? किस दिशा से उसमें छलांग लगाऊं? किस किनारे से कूदूं? कौन सा घाट मेरा घाट है, जिससे मैं उतरूं तो दूसरे पार पहुंच जाऊं? दूसरा पार दिखाई पड़ रहा है। दूसरा पार है इसका भरोसा भी आ गया है लेकिन किस घाट को तीर्थ बनाऊं?
वह करम उस वक्त करते हैं हमारे हाल पर
जब हमारे हाल की हमको खबर होती नहीं
लेकिन जब कोई ऐसा विरहिणी होकर, जोगिन होकर भटकता है, द्वार-द्वार दरवाजे-दरवाजे खटखटाता है भिक्षापात्र लेकर कि मुझे कोई पता बता दो, कि मेरा प्यारा कहां है। झलक तो मिलती है, स्वर भी सुनाई पड़ते हैं लेकिन किस दिशा से आते हैं, कुछ समझ नहीं बैठती। कहां जाऊं, कैसे खोजूं, कैसे मिलन हो जाए? जब कोई विरह में भटकता है, भटकता है और ऐसी घड़ी आ जाती है--आखिरी घड़ी, सब तरह से हताश और निराश और असहाय हो जाता है...
वह करम उस वक्त करते हैं हमारे हाल पर
जब हमारे हाल की हमको खबर होती नहीं
उस क्षण परमात्मा की कृपा बरसती है। कोई विधि नहीं है परमात्मा को पाने की--विरह, रोता हुआ हृदय, पुकारती हुई आत्मा, सब दांव पर लगाने की तैयारी। हजार द्वार खटखटाने पड़ते हैं तब उसका द्वार आता है। और ऐसा नहीं है कि उसका द्वार दूर है, मगर हजार द्वार खटखटाने से ही आता है।
एक सूफी फकीर बैठा है एक वृक्ष के नीचे। और एक युवक ने आकर कहा कि मुझे गुरु की तलाश है, मैं कहां खोजूं? और अगर मुझे गुरु मिल जाए तो मैं पहचानूंगा कैसे? तो उस गुरु ने कुछ लक्षण बताए, कि वह इस तरह के वृक्ष के नीचे बैठा मिलेगा, इस तरह के कपड़े पहने होगा, इस तरह की उसकी आंखें होंगे। तू जा, खोज, मिल जाएगा।
वह युवक खोजता रहा, खोजता रहा, खोजता रहा--तीस साल! बूढ़ा हो गया तब थका मांदा, सब तरह से पराजित होकर कि न कोई गुरु है, न कोई परमात्मा है। कहीं मिलता ही नहीं। एकदम हताश होकर अपने गांव वापस लौटा। थका मांदा उसी वृक्ष के नीचे बैठा। वह बूढ़ा अभी भी जिंदा था, बहुत बूढ़ा हो गया था।
जब उस वृक्ष के नीचे बैठा तो बड़ा हैरान हुआ। यह तो वही वृक्ष था जिसकी इस बूढ़े ने बात की थी। और बूढ़ा उसी ढंग का आदमी था, जिस ढंग की इसने बात की थी। एकदम चरण पकड़ लिए और कहा कि हद्द कर दी! मेरी जिंदगी बरबाद कर दी। मैं तुमसे ही तो पूछा था, अगर तुम ही मेरे गुरु थे तो कहा क्यों नहीं?
उस बूढ़े ने कहाः ये तीस साल अगर तुम भटकते न तो तुम मुझे पहचानते न। मैं तो था, गुरु तो था लेकिन शिष्य कहां था? इन तीस साल ने तुम्हें शिष्य बनाया। दर-दर भटके और ठोकरें खाईं, असहाय हुए, अहंकार गिर गया तुम्हारा। अहंकार अंधा बना रहा था। उस दिन भी यही वृक्ष था मगर...मैंने तो परिभाषा की थी कि इस वृक्ष के नीचे बैठा मिलेगा गुरु। यही वृक्ष था।
 और युवक ने कहाः याद आता है, यही वृक्ष था। आप इसी जगह बैठे थे। और यही मैं हूं। और यही मैंने...अपना ही वर्णन किया था तुझसे। और किसी गुरु को मैं जानता भी नहीं। अपना ही वर्णन किया था। लेकिन तूने सुना और चल पड़ा। तो एक बात पक्की थी कि तू अभी अंधा है। तीस साल चोट खा-खा कर तेरी आंख खुली। अब तू पहचान सकता है।
तेरी मुसीबत की फिकर छोड़, मेरी मुसीबत की सुन। तीस साल से तेरी राह देख रहा हूं। अब मैं कितना बूढ़ा हो गया हूं यह भी तो सोच। तू तो जवान था तो भटकता रहा। मैं किस तरह अपनी श्वास को अटकाए बैठा हूं कि कहीं तू आए वापस, और मैंने जो परिभाषा दी थी उसको पूरा कौन करेगा?
जोगिन व्हैके मैं बन-बन ढूंढू, कोऊ न सुधि बतलावै।
धरमदास बिनवै कर जोरी, कोई नेरे कोई दूर बतावै।
कोई कहता है परमात्मा बहुत पास है, कोई कहता है परमात्मा बहुत दूर है। कोई कहता है परमात्मा सगुण है, कोई कहता है परमात्मा निर्गुण है। कोई कहता है परमात्मा का आकार, कोई कहता है निराकार। और उलझ जाती है बात, सुलझती नहीं। सुधि तो कोई नहीं दिलवाता, उलटे दर्शन की बातें होती हैं, तत्वचर्चा होती है।
और धरमदास जानते हैं कि फासला ज्यादा नहीं है क्योंकि उसकी लाली चारों तरफ दिखाई पड़ती है। उसकी ही धूप में हम खड़े हैं, उसी की धूप में नहा रहे हैं। उसी की श्वास हमारे भीतर प्राण बन कर चल रही है। उसी का खून हमारे भीतर बह रहा है। दूर भी नहीं है।
सच तो यह है, उसे दूर भी कहना गलत, उसे पास भी कहना गलत। क्योंकि वह पास से भी पास है। तुम ही हो वह। तो जो कहता है दूर, वह गलत कहता है। जो कहता है पास, वह गलत कहता है।
क्योंकि पास भी तो दूरी का नाम है। पास भी तो एक तरह की दूरी है। कितने ही पास हो तो भी दूरी तो रहती ही है। दूरी में जरा ज्यादा दूरी, पास में थोड़ी कम दूरी, मगर दूरी में तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। और जरा सी दूरी में भी तो चूक हो सकती है।
थोड़े से फासले में भी हायल हैं लिग्जिशें
साकी सम्हाल कर मेरे, साकी सम्हाल कर
जरा से फासले में तो आदमी गिर सकता है। एक कदम पर तो चोट खा सकता है। एक कदम पर तो भटक सकता है। एक कदम गलत कि सब गलत हो जाता है और एक कदम सही कि सब सही हो जाता है।
तो पास से पास भी बड़ी दूरी है। और दूर से दूर भी बहुत दूर नहीं है। अगर ठीक दृष्टि हो, ठीक छलांग हो तो एक कदम में यात्रा पूरी हो जाती है। सच तो यह है, न वह दूर है, न वह पास है; वह तुम्हारे भीतर है। तुम हो।
इसका पता जब तक कोई न बताए तब तक गुरु नहीं मिला।
भगति-दान गुरु दीजिए, देवन के देवा हो।
चरनकंवल बिसरौं नहीं, करिहौं पदसेवा हो।
तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।
तुमहिं ओर निरखत रहौं, मेरे और न दूजा हो।।
आठ सिद्धि नौ निद्धि हों, बैकुंठ-निवासा हो।
सो मैं ना कछु मांगहूं, मेरे समरथ दाता हो।
सुख संपत्ति परिवार धन, सुंदर वर नारी हो।
सपनेहुं इच्छा ना उठे, गुरु आन तुम्हारी हो।।
धरमदास की बीनती साहेब सुनि लीजै हो।
दरसन देहु पट खोलिके, आपन करि लीजै हो।।
खोजते-खोजते गुरु का द्वार आ गया। धरमदास ने बहुत-बहुत गुरुओं को खोजा तब कबीर को पाया।
जो खोजता है वह पाता है। हालांकि खोज कठिनाई से भरी है। यहां रास्ते में बहुत धोखे भी हैं, बहुत धोखे की दुकानें भी। यह स्वाभाविक है। जहां असली सिक्के होते हैं वहां नकली सिक्के भी होते ही हैं। नकली चलते ही असली के सहारे हैं। अगर असली न हों तो नकली नहीं हो सकते। असली का होना जरूरी है, तो नकली भी चल सकता है।
और अर्थशास्त्र का एक नियम है कि जब भी तुम्हारी जेब में असली और नकली सिक्का हो तो पहले तुम नकली को चलाने की कोशिश करते हो। स्वाभाविक! क्योंकि असली तो कभी चल जाएगा, नकली जितने जल्दी निकल जाए।
तो जब भी बाजार में नकली सिक्के होते हैं, असली छिप जाते हैं और नकली चलते हैं। चलन नकली का होता है। यह बिलकुल स्वाभाविक नियम है। तुमने भी जाना होगा। तुम्हारी जेब में दो नोट पड़े हैं दस-दस के--एक नकली और एक असली। तुम जहां जाते हो, जल्दी से नकली निकाल कर हाजिर करते हो, असली को छिपाए रखते हो। असली की क्या जल्दी है? कभी भी काम आ जाएगा। पहले नकली तो चल जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन मेरे पास आया और उसने कहा कि आज तीन अच्छे काम किए। वह कौन से अच्छे काम किए नसरुद्दीन? उसने कहा कि पहला अच्छा काम तो यह किया कि एक भिखमंगे को एक रुपया दान दिया।
एक रुपया? मैंने कहा।
उसने कहाः इसीलिए तो कहने जैसी बात है। पूरा एक रुपया दिया।
फिर दूसरा अच्छा काम क्या किया?
उसने कहाः दूसरा अच्छा काम यह हुआ कि वह जो नकली दस रुपये का नोट मैं लिए फिरता था, वही उसको दिया था और कहा था कि नौ वापस दे दे।
तीसरा अच्छा काम क्या किया?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहाः तीसरा अच्छा काम यह कि वह भी प्रसन्न और मैं भी प्रसन्न। दोनों प्रसन्न हुए। उसको एक रुपया मिला, मेरा दस का नकली नोट चला। मुझे नौ मिले, उसको एक मिला। दोनों को मिला। दोनों का चित्त प्रसन्न।
तुम्हारे पास नकली सिक्का हो तो पहले तुम उसे एकदम चलाने में उत्सुक हो जाते हो। बाजार में नकली सिक्के चलते हैं, असली छिप जाते हैं।
अक्सर जीवन के और तलों पर भी यही बात सच है। पंडित-पुजारी चलते हैं। दो कौड़ी के लोग चलते हैं। क्योंकि वे दो कौड़ी के लोग तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। असली गुरु तुम्हारी इच्छा की पूर्ति नहीं करता, तुम्हारी इच्छा को तोड़ता है।
असली गुरु के पास मौत है, नकली गुरु के पास सांत्वना है। असली गुरु तुम्हें मिटाएगा क्योंकि तभी परमात्मा से मिलन हो सकता है। नकली गुरु तुम्हें सब तरह के भरोसे देता है कि घबड़ाओ मत। इधर दान कर दो, इधर यज्ञ कर दो, इधर हवन करवा दो, सब ठीक हो जाएगा। तुम फिकर न करो, बाकी मैं फिकर कर लूंगा। चिट्ठी लिख दूंगा परमात्मा के नाम ताकि सनद रहे।
मैं सूरत में एक घर में मेहमान था। मुझे वहां पता चला कि मुसलमानों का एक संप्रदाय, जिसके प्रधान सूरत में रहते हैं, चिट्ठियां देता है लोगों को कि इस आदमी ने एक लाख रुपया दान दिया। यह चिट्ठी सनद रहे। जब वह आदमी मरता है तो वह चिट्ठी उसके साथ उसकी कब्र में रख दी जाती है ताकि वह खुदा को दिखा देगा।
क्या मजा चल रहा है! खुदा के नाम चिट्ठियां लिखी जा रही हैं, जिन्हें खुदा का कुछ पता नहीं। वे लाख रुपये...यह आदमी इसी आशा में जी रहा है कि लाख रुपये की चिट्ठी पास है, खुदा को दिखा देंगे। हुंडी पास है, सब काम सुलट जाएगा। और इस आशा में यह और कुछ भी नहीं कर रहा है। इसको क्या करना ध्यान! क्या करनी प्रार्थना! इसे क्या मतलब कबीर को खोजे? इसको तो मिल गए इसके गुरु। बड़े सस्ते में मिल गए। और दोनों का चित्त प्रसन्न है। गुरु का प्रसन्न है, उन्हें लाख मिल गए। शिष्य का प्रसन्न है कि आगे का लोक सुधर गया। दोनों के चित्त प्रसन्न हैं।
सस्ते गुरु तुम्हें बदलते नहीं। सस्ते गुरु तुम्हें चोट भी नहीं करते। सस्ते गुरु मलहम-पट्टी करते हैं। सस्ते गुरु तुम्हारी चोट को भुलाते हैं। सस्ते गुरु कहते हैं, सब ठीक हो जाएगा, समय की बात है। सस्ते गुरु कहते हैं, सब ठीक ही है। यह तो तुमने अपने पिछले जन्मों का कर्म भोगा, बात खतम हो गई। सस्ते गुरु कहते हैं, आत्मा अमर है, मरोगे नहीं, घबड़ाओ मत। सस्ते गुरु कहते हैं, परमात्मा की बड़ी अनुकंपा है। वह सब क्षमा कर देगा। तुम चिंता न लो। तुम तीर्थयात्रा कर आओ, कि हज कर आओ।
ये सब बातें तुम्हें बदलतीं नहीं; तुम्हारे जीवन में क्रांति नहीं लातीं। लेकिन जब तुम सदगुरु को पाओगे तो तुम्हारा रोआं-रोआं बदला जाएगा। तुम्हारी आत्मा फिर से ढाली जाएगी। तुम फिर से निर्मित किए जाओगे। और निश्चित ही इसके पहले कि तुम निर्मित किए जाओ, तुम्हें तोड़ा जाएगा।
इसलिए सदगुरु से लोग भागते हैं। सदगुरु से लोग बचते हैं। सदगुरु तुम्हारा समर्थन नहीं करता। जो तुम्हारा समर्थन करता हो उससे तुम्हें लाभ नहीं होगा, याद रखना। वह तुमसे कुछ लूटना चाहता है इसलिए तुम्हारा समर्थन कर रहा है। उसका कुछ लाभ है, कुछ हेतु है तुममें जुड़ा हुआ। वह तुम्हें प्रसन्न करना चाहता है। वह धर्म से उसका कुछ लेना-देना नहीं। वह धर्म के नाम पर एक तरह की राजनीति चला रहा है।
रोते-रोते धरमदास खोजते रहे, खोजते रहे। जो खोजता रहेगा उसे एक दिन मिल जाएगा। जो सांत्वना में नहीं अटकेगा उसे सत्य मिलेगा। मिल गए एक दिन कबीर। कबीर से उन्होंने क्या प्रार्थना की?
भगति-दान गुरु दीजिए...
और कुछ नहीं मांगा--भक्ति! भक्त का हृदय मुझे मिल जाए। भक्त के हृदय का अर्थ होता हैः
गम दे कि खुशी, हाथ में तकदीर है तेरे
जो तेरी रजा है वही अब मेरी रजा है
भक्त का अर्थ होता है, मैं तो छोड़ता अपने को। तू जहां ले चल! जहां ले जाए--नरक, तो वह मेरे लिए स्वर्ग है क्योंकि तू वहां लाया। अब मेरी अपनी कोई निजी मांग नहीं है--भगति-दान गुरु दीजिए।
तो कबीर के चरणों में गिर कर धनी धरमदास ने कहा है कि कुछ और नहीं मांगता, मुझे भक्त का हृदय दे दो। मुझे वह हृदय दे दो, जो परमात्मा के इशारे पर चलने लगे। मुझे वह हृदय दे दो, जिसमें से अहंकार विदा हो जाए।
भगति-दान गुरु दीजिए, देवन के देवा हो।
गुरु को गुरुदेव कहा हैः देवन के देवा हो। क्योंकि गुरु के द्वारा ही परमात्मा मिलता है। इसलिए उसकी महिमा परमात्मा से भी बड़ी है। वही सेतु बनता है। उसी के द्वारा आदमी परमात्मा तक पहुंचता है। उसी की आंख से देख कर तुम्हारे जीवन में रूपांतरण शुरू होते हैं। इसलिए देवों का देव कहा है।
भगति-दान गुरु दीजिए, देवन के देवा हो।
चरनकंवल बिसरौं नहीं, करिहौं पदसेवा हो।
बस, इतनी ही मुझे सुध दे दो कि तुम्हारे चरण कमल मुझे भूलें न। कभी बिसरूं न।
चरनकंवल बिसरौं नहीं, करिहौं पदसेवा हो।
तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।।
कर चुका बहुत, धरमदास ने कहा, तीरथ और व्रत। तीरथ करते ही करते तो कबीर मिले थे। मथुरा में कबीर मिल गए थे।
तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।
और अब बहुत कर चुका मंदिरों में पत्थरों की पूजा; अब नहीं।
मैकदे के दर पै यह बेवक्त दस्तक किसने दी?
दैरो-काबा का कोई भटका हुआ इन्सां न हो
मधुशाला के द्वार पर यह दस्तक किसने दी है? मधुशाला का मालिक सोचने लगा, खोल ही देना चाहिए। मंदिर और मस्जिद का भटका हुआ कोई बेचारा न हो।
कबीर के सामने जब धनी धरमदास आए थे तो ऐसे ही--मंदिर और मस्जिद का भटका हुआ आदमी! न मालूम कितनी पूजाएं, न मालूम कितने पाठ! धन था बहुत, सुविधा थी बहुत। बड़े यज्ञ करवाते थे। लाखों यज्ञों में फुंकवाते थे।
मैकदे के दर पै यह बेवक्त दस्तक किसने दी?
दैरो-काबा का कोई भटका हुआ इन्सां न हो
ध्यान रखना, तुम्हारे मंदिर और मस्जिद तुम्हें भटकाते हैं। क्योंकि मंदिर और मस्जिद अब जीवंत नहीं हैं, मुर्दा हैं। कोई मंदिर जीवंत होता है जब वहां कोई सदगुरु होता है।
निश्चित ही गिरनार कभी जीवित थी और काबा कभी जीवित था और काशी कभी जीवित थी, लेकिन स्थान जीवित नहीं होते। स्थानों में क्या भेद है? पूना की भूमि हो कि काशी की, कुछ भेद नहीं है। जमीन एक है, जुड़ी है, संयुक्त है। लेकिन काशी में कभी बुद्ध का आगमन हो जाता है तो काशी तीर्थ हो जाती है।
काशी के निकट सारनाथ में बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन दिया, उस घड़ी सारनाथ तीर्थ था। बस उस घड़ी तीर्थ था। जब वह सूरज सारनाथ पर उतरा, जब बुद्ध की आंखें सारनाथ पर पड़ीं, जब बुद्ध के चरणों ने सारनाथ को छुआ तब तीर्थ था। फिर तब से नाहक पूजा हो रही है। अब मंदिर है, पुजारी बैठा है, भिक्षु बैठे हैं। दूर-दूर देशों से लोग यात्रा करके आते हैं।
निश्चित ही बुद्धगया तीर्थ था, जब बुद्ध को समाधि फली। लेकिन फिर तब से तो बात उजड़ गई। समाधि ही न रही, समाधि जिसमें फली थी, वह न रहा। फूल जो खिला था, जा चुका, विदा हो गया। पक्षी उड़ गया। अब तो पिंजरा पड़ा है, तुम पिंजरे को पूजते रहो। जितना पूजना हो उतना पूजते रहो। लेकिन पिंजरे से अब कुछ हल नहीं होगा।
ठीक धरमदास कहते हैं,
तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।
तुमहिं और निरखत रहौं, मेरे और न दूजा हो।।
वे कहते हैं, बस इतनी ही मुझे कामना है कि तुम मुझे दिखाई पड़ो और तुम्हें मैं देखता रहूं...देखता रहूं। तुमहिं और निरखत रहौं...क्योंकि तुम्हीं में देखते-देखते मुझे उसका दर्शन हो जाएगा, जिसकी लाली मुझे सब जगह दिखाई पड़ती है लेकिन घाट नहीं मिलता।
आठ सिद्धि नौ निद्धि हों, बैकुंठ-निवासा हो।
सो मैं ना कछु मांगहूं, मेरे समरथ दाता हो।
वे कहते हैं कि तुम सब दे सकते हो मगर मेरी कोई मांग नहीं है। तुम समरथ दाता हो।...तुम चाहो तो क्या न दो? लेकिन मैं मांगता ही नहीं। मुझे चाहिए ही नहीं। आठ सिद्धि नौ निद्धि--मुझे कोई योगबल नहीं चाहिए, कोई सिद्धियां, ऋद्धियां, निद्धियां नहीं चाहिए।
इक फरेबे-आरजू साबित हुआ
जिसको जौके-बंदगी समझा था मैं
बहुत मंदिरों में झुककर देख लिया, बहुत यज्ञ-हवन करके देख लिए, समझता तो था कि यह बंदगी है, प्रार्थना है लेकिन वह सब झूठ था। वे सब उस लोक में सुख पाने की आकांक्षाएं थीं। वह संसार का ही विस्तार था।
तुम्हारा स्वर्ग भी तुम्हारे संसार का ही विस्तार है। वहां भी तुम क्या मांग रहे हो? वही जो तुम यहां मांग रहे हो। वहां भी तुम सुंदर स्त्रियां चाहते हो, अप्सराएं, ऊर्वशियां। वहां भी तुम यही सब चाहते हो--धन-दौलत, सोने के महल, हीरे से पटे रास्ते। वहां भी तुम यही चाहते हो कल्पवृक्ष, जिनके नीचे बैठो, हर इच्छा पूरी हो जाए।
तुम्हारी बहिश्त क्या है? तुम्हारी वासना का फैलाव। वहां भी तुम चाहते हो कि शराब के झरने बहते हों। यह फर्क न हुआ। यह तुम्हारा सपना वही का वही है। तुम जरा भी बदले नहीं।
इक फरेबे-आरजू साबित हुआ
जिसको जौके-बंदगी समझा था मैं
वह सब फरेब था। वासना का ही धोखा था। वासना की ही नई उड़ान थी, वासना का ही नया उपाय था फिर से मुझे पकड़ लेने का। इसलिए--
तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।
तुमहिं और निरखत रहौं, मेरे और न दूजा हो।।
गुरु की ओर देखते-देखते कुछ घटता है। सत्संग की इसीलिए बड़ी चर्चा है। देखते-देखते घट जाता है। क्यों? क्योंकि देखते-देखते टकटकी बंध जाती है। देखते-देखते, सुनते-सुनते, पास बैठे-बैठे कुछ ऐसी घड़ियां आ जाती हैं जब विचार तुम्हारे भीतर शांत हो जाते हैं। और जहां तुम्हारे भीतर विचार शांत हुए, वहीं द्वार खुल जाता है।
आठ सिद्धि नौ निद्धि हौं, बैकुंठ-निवासा हो।
सो मैं ना कछु मांगहूं, मेरे समरथ दाता हो।
सुख संपत्ति, परिवार, धन, सुंदर वर नारी हो।
सपनेहुं इच्छा ना उठे, गुरु आन तुम्हारी हो।।
धरमदास कहते हैं, तुम्हारी सौगंध खाकर कहता हूं।...गुरु आन तुम्हारी हो!...सपनेहुं इच्छा ना उठे। अब सपने में भी इच्छा नहीं उठती, जागने की तो बात ही छोड़ दो। देख लिया सब।
और यह बड़े मजे की बात है, खयाल में लेना। जिसने देख लिया वही मुक्त होता है। जिसने सब देख लिया...धन देख लिया, वह धन से मुक्त हो जाता है। जिसने कामवासना देख ली, वह कामवासना से मुक्त हो जाता है। जिसने भोगा नहीं वह मुक्त नहीं होता। संसार मुक्ति का उपाय है।
मैं फिर से दोहरा दूं, क्योंकि ऐसा वचन तुम्हें शायद खयाल में न होः संसार मोक्ष का मार्ग है। संसार विधि है मुक्ति की। क्योंकि जो यहां देख लो उसी से छुटकारा हो जाता है। और जब तक न देखो तब तक बंधन रहता है।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, जो भोगना हो भोग ही लेना, नहीं तो छूटोगे नहीं। अगर कामवासना मन को पकड़े है तो घबड़ाओ मत, उतर ही जाओ उसमें। परमात्मा की दी हुई वासना है और परमात्मा का दिया हुआ यह संसार है। इसके पीछे कुछ गहन प्रयोजन है। उतर ही जाओ उसमें सब हिसाब किताब भूलकर। और तुम एक दिन अचानक पाओगे, देख लिया और कुछ पाया नहीं। हाथ राख लगी। जिस दिन यह अनुभव होगा उसी दिन कामवासना से तुम मुक्त हुए। उसी दिन तुम्हारे भीतर काम समाप्त और राम की शुरुआत हो जाती है। फिर सपने में भी इच्छा नहीं उठती।
नहीं तो जो जो तुम दिन में दबाओगे, रात सपने में उठेगा। फ्रायड ने तो बहुत बाद में कहा कि सपना दिन में दबाई गई बातों का ही प्रतिफलन है, धनी धरमदास ने तो बहुत पहले कहा--सपनेहुं इच्छा ना उठे...।
तुमने देखा नहीं? जिस दिन उपवास करो उस दिन रात भोजन ही भोजन चलता है। राजमहल में निमंत्रण हो जाता है। कर रहे हैं भोजन, कर रहे हैं।
तुम जैनियों से पूछो, पर्युषण में क्या करते हैं। दिन भर उपवास करते हैं, रात भर भोजन करते हैं। सपने में योजना बनाते हैं कि किसी तरह ये दस दिन तो बीत...बीत ही जाएंगे। एक तो बीत गया, नौ बचे। दो बीत गए, आठ बचे। बीते जा रहे हैं। दिन भर जाकर मंदिर में बैठे रहते हैं कि किसी तरह उलझे रहें पूजा पाठ में ताकि भोजन की याद न आए। मगर रात में क्या करोगे?
महात्मा गांधी जिंदगी भर ब्रह्मचर्य की चेष्टा में लगे रहे और ब्रह्मचर्य नहीं सम्हला, नहीं सधा सो नहीं सधा। कारण? संघर्ष, जबरदस्ती। पर आदमी ईमानदार थे तो झूठ नहीं कहा। आखिरी उम्र तक कहा कि सपने में अभी भी कामवासना आती है। मगर सपने में आती है तो उसका मतलब साफ है कि जाग्रत में दबा ली। जो जगे में दबाया वह सपने में आएगा क्योंकि सपने में तुम्हारा जो दबाव था वह छूट जाता है। तुम्हारा नियंत्रण खुल जाता है। होश नहीं रहता। उठ आती है बात।
इसलिए किसी सज्जन की अगर सज्जनता देखनी हो तो जब वह शराब पीए हो, तब देखो। तब असली आदमी होता है। अक्सर शराब पीए आदमी असली होता है। जब वह होश-हाश में होता है तब नकली होता है। उसका तुम भरोसा मत करना, जब वह होश में चला जा रहा है सब टाई इत्यादि बांध कर और बिलकुल नियमबद्ध; तब उसका भरोसा मत करना, वह जो कह रहा है। लेकिन जब शराब पीकर कुछ कहे तो उसको तो नोट कर रखना।
गुरजिएफ तो नियम से यह करता था कि जब उसके पास नए शिष्य आते तो उनको इतनी शराब पिला देता कि वे बेहोश हो जाते और अंट-शंट बकने लगते। वह अंट-शंट असली चीज है। वह सब नोट करवा लेता। वह कहता यह इनके भीतर दबा हुआ पड़ा है। इसी से मुझे लड़ना होगा।
फ्रायड की पूरी मनोविश्लेषण की प्रक्रिया इतनी ही है कि तुम्हारे सपनों का पता चल जाए बस, फिर सब पता चल गया। अब यह बड़े मजे की बात है। तुम जाग्रत में इतने बेईमान हो कि तुम्हारी असलियत जानने के लिए सपने में जाना पड़ता है, सपना झूठा है, उसमें तुम्हारी असलियत मिलती है। जागरण सच्चा है, उसमें तुम इतने झूठे हो गए हो कि तुम्हें सीधे-सीधे नहीं पकड़ा जा सकता।
तो वर्षों लग जाते हैं। पड़ा है मरीज फ्रायड के कोच पर और अपने सपने सुना रहा है। सुनाते सुनाते कुछ सूत्र पकड़ में आने मनोवैज्ञानिक को होते हैं कि मामला कहां है, अड़चन कहां है।
अब जैसे एक आदमी ऐसे तो साधु है और कहता है, मुझे कोई पद इत्यादि की फिकर नहीं। लेकिन रात सपना देखता है हमेशा आकाश में उड़ने का। ऊपर से ऊपर उठा जा रहा है, ऊपर से ऊपर उठा जा रहा है। अब यह सपना सिर्फ प्रतीक है। दिन में दिल्ली नहीं गए, रात चले। उड़े! राष्टपति हो गए। आकाश में ऊंचे उठते जा रहे हैं।
तुम सपने को झुठला न सकोगे। दिन में तो तुम बड़े अपनी पत्नी के प्रति निष्ठा रखते हो लेकिन रात में सपने में ले भागे पड़ोसी की औरत को। वह असलियत है। इसलिए पत्नियां इसमें ज्यादा भरोसा रखती हैं। रात को देखती रहती हैं, सुनती रहती हैं क्या बोल रहे, क्या बक रहे। जरा बुदबुदाते कि पत्नी जाग कर बैठ जाती, क्या बोल रहे! किसका नाम ले रहे?
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन...रात में उसकी पत्नी ने पकड़ लिया उसको; कमला...कमला...कमला कर रहा था। हिलाया कि क्या मामला है? मगर आदमी होशियार है। उसने कहाः कमला एक घोड़ी का नाम है। उस पर मैं दांव लगाने की सोच रहा हूं!
स्त्रियां जानती हैं कि तुम्हारे सपने में अगर तुम मुस्कुरा रहे हो तो जरूर किसी स्त्री से बात कर रहे हो। स्त्रियां पूछती हैं कि रात मुस्कुरा क्यों रहे थे? मतलब क्या? क्योंकि अपनी पत्नी के साथ तो कोई मुस्कुराता ही नहीं। तुम देख लो, एक जोड़ा चला जा रहा है, अगर वह उदास दिख रहा है, कुटा-पिटा दिख रहा है तो समझ लेना कि ये पति-पत्नी हैं। अगर पुरुष प्रसन्न दिख रहा है और उछलता दिख रहा है तो समझ लेना किसी और की स्त्री के साथ जा रहा है।
मैं एक दफा ट्रेन में सवार था। मेरे कंपार्टमेंट में एक महिला को एक सज्जन बिठा गए। फिर वे हर स्टेशन पर आते। मैंने महिला से पूछा कि कौन हैं? उन्होंने कहाः मेरे पति हैं। शादी को कितने दिन हुए? क्योंकि महिला कोई चालीस साल की थी। उन्होंने कहा कि सात साल-आठ साल हो गए। मैंने कहाः मुझ से झूठ मत बोल। सात-आठ साल के बाद यह हालत नहीं रहती।
हर स्टेशन पर कभी भजिया ले आए, कभी रसगुल्ला ले आए, कभी आइस्क्रीम ले आए--यह हालत पति की नहीं...। अगर ये तुम्हारे सात साल पुराने पति हैं तो जो एक दफे छूट कर यहां से भागते तो फिर दूसरे स्टेशन पर भी मिलते कि नहीं, यह भी पक्का नहीं है। आखिरी उतरने वाले स्टेशन पर मिलते शायद, या न मिलते। कोई कुछ नहीं कह सकता।
उसने कहाः आप ठीक पहचाने। वे मेरे पति नहीं हैं, मेरे प्रेमी हैं। मैंने कहाः तब बिलकुल ठीक है। तब चल सकता है।
स्त्रियां जानती हैं कि अगर सपने में तुम मुस्कुरा रहे हो तो कुछ गड़बड़ चल रही है। तुम किसी और स्त्री के साथ बात में लगे हो।
तुम्हारे सपने तुम्हारे दिन भर के दबाए हुए रोग हैं। इसलिए महाज्ञानी को सपने नहीं आते। आने नहीं चाहिए। वह लक्षण है। वह समाधि का लक्षण है--जब सपने नहीं आते। कुछ दबाया ही नहीं है तो सपना कैसे आएगा? सपना तो दबाने से आता है। जितने ज्यादा सपने उतने तुम रुग्णचित्त हो; उतने तुम बीमार हो। जब सपना आता ही नहीं, उसका अर्थ है, तुम अपने जीवन को जागकर जी रहे हो, कुछ दबा नहीं रहे हो।
धनी धरमदास कहते हैंः
सपनेहुं इच्छा ना उठे, गुरु आन तुम्हारी हो।।
तुम्हारी कसम खाकर कहता हूं कि स्वर्ग जाने की इच्छा सपने में भी नहीं है। बैकुंठ पाने की इच्छा सपने में भी नहीं है।
धरमदास की बीनती साहेब सुनि लीजै हो।
दरसन देहु पट खोलिके, आपन करि लीजै हो।।
वे कहते हैं कि दरवाजा खोल दो मेरे लिए। गुरु, मेरे लिए गुरुद्वारा हो जाओ। दरवाजा खोल दो मेरे लिए। परदा हटा लो मेरे लिए। मेरी और कोई मांग नहीं है। मैं सिर्फ इतना ही देखना चाहता हूं कि तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह क्या है। और सब तरफ उसकी झलकें मिली हैं। मैं जानता हूं कि तुम्हारे भीतर मुझे घाट मिल जाएगा।
दरसन देहु पट खोलिके, आपन करि लीजै हो।।
बस, इतनी ही इच्छा है कि अपना पट खोल दो, मंदिर के द्वार खोल दो और मुझे अपने में समा लो।
और जितनी हसरतें पैदा हुई थीं, मिट गईं
एक मिट जाने की हसरत अब हमारे दिल में है
बस, यही भक्ति का सार सूत्र है।
और जितनी हसरतें पैदा हुई थीं, मिट गईं
एक मिट जाने की हसरत अब हमारे दिल में है
मिटो! मिटोगे तो हो जाओगे। खो जाओ तो अपने को पा लोगे। और जब मिट कर पाओगे तब चकित हो जाओगे कि जिसे दुर्भाग्य समझा था वह सौभाग्य था।
मुझे तो तुमने मिटाने की कोशिशें की थीं
मेरा नसीब कि मुझको तुम्हारे जुल्म फले
पहले तो जब गुरु तुम्हें तोड़ेगा तो ऐसा ही लगेगा कि बड़ा कठोर; जुल्म कर रहा है। लेकिन जिस पर कर रहा है वह धन्यभागी है।
मुझे तो तुमने मिटाने की कोशिशें की थीं
मेरा नसीब कि मुझको तुम्हारे जुल्म फले
यह तो अंत में पता चलता है कि गुरु की करुणा थी कि वह कठोर था। गुरु तुम्हारे शीश को काट ही देगा। तुम्हारे अहंकार को टुकड़े टुकड़े कर देगा, छिन्न भिन्न कर देगा। तुम्हारी बुद्धिमत्ता तुमसे छीन लेगा। तुम्हारे सिद्धांत, तुम्हारे शास्त्र सब राख कर देगा। तुम्हारे मन को समाप्त करना है। तुम मिटो तो ही परमात्मा के लिए आने का मार्ग खुल सकता है।
लेकिन भक्त वही है जो जीए तो उसकी चाह करता है, मरे तो उसकी चाह करता है।
मुस्ताके-दीद वादे-फना भी दूं ऐ सबा
ले चल उड़ाके खाक मेरी कूए-यार में
मिट भी जाता है तो उसकी एक ही प्रार्थना होती है कि मेरी जो खाक बचे, राख बचे, वह मेरे प्यारे की गली में मुझे उड़ा कर ले चलना।
मुस्ताके-दीद वादे-फना भी दूं ऐ सबा
उस प्यारे को देखने की आकांक्षा ऐसी है--
मुस्ताके-दीद वादे-फना...मिट कर भी...दूं ए सबा, ऐ हवाओं इतनी कृपा करना...ले चल उड़ाके खाक मेरी कूए-यार में
उस प्यारे की गली में मेरी खाक को भी उड़ा कर ले चलना, जब मैं मिट जाऊं।
जीता है भक्त तो परमात्मा के लिए, मरता है तो परमात्मा के लिए। जीवन उसका, मृत्यु उसकी। भक्ति का मार्ग सुगम है और दुर्गम भी। सुगम--क्योंकि प्रेम सरल है, स्वाभाविक घटना है। और दुर्गम--क्योंकि अहंकार को काटना बड़ा कठिन है।
इस जगत में सबसे बड़ी कठिनाई वही है--मैं को कैसे गंवा दें? अपने को मिटने की हसरत कैसे करें! कैसे आकांक्षा करें मिटने की!
संसार है होने की आकांक्षा। मैं हो जाऊं, बड़ा हो जाऊं, महत्वपूर्ण हो जाऊं, प्रतिष्ठित हो जाऊं, यशस्वी हो जाऊं, धनी हो जाऊं। संसार है होने की आकांक्षाओं का अनेक-अनेक रूप। जिस दिन सब होने में तुम पाते हो कुछ होता नहीं, व्यर्थ पानी पर लकीरें खींचते हो, खींच भी नहीं पाते कि मिट जाती हैं, उस दिन तुम कहते हो, हो-हो कर देख लिया और नहीं हो पाया, अब न होकर देखूं। अब एक ही बात और बची है कि न होकर देखूं। जिस दिन तुम्हारे भीतर यह भाव उठा, उसी दिन तुम परमात्मा के करीब आने शुरू हो गए।
धन्यभागी हैं वे जिनके भीतर मिटने का भाव, मिटने की आकांक्षा पैदा हो जाती है।

आज इतना ही।

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