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शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-07)

प्रवचन-सातवां-(जीवन और धर्म)

इधर सोचता था- अभी बैठे-बैठे मुझे यह ख्याल आया, और जहां भी धर्म के उत्सव होते हों, जहां भी धर्म की आराधना होती हो, जहां भी धर्म के लिए लोग इकट्ठे हुए हों, वहां निरंतर मुझे यही ख्याल आता है- यह ख्याल आता है कि धर्म से हमारा कोई भी संबंध नहीं है। फिर यह धर्म की स्मृति में हम इकट्ठे क्यों होते हैं? धर्म से हमारा कौन-सा संबंध है? हमारे जीवन का, हमारे प्राणों का कौन-सा नाता है? हमारी जड़ें तो धर्म से बहुत दिन हुए टूट गयी हैं, लेकिन फिर भी हम पत्तों को सम्हालने चले जाते हैं।
नीत्शे का नाम सुना होगा। एक चर्च के पास से निकलता था। रविवार का दिन था और चर्च की घंटियां बज रही थीं। साथ में चलते एक मित्र को उसने कहा कि मुझे बहुत हैरानी होती है कि दो हजार साल पहले जिस क्राइस्ट को सूली पर लटका दिया गया, उसके लिए लोग अभी भी उसकी स्मृति में घंटियां क्यों बजाते हैं? मुझे हैरानी होती है कि महावीर को हुए ढाई हजार वर्ष हुए, क्राइस्ट को हुए दो हजार वर्ष हुए, कृष्ण को हुए शायद पांच हजार वर्ष हुए, फिर राम को भी बहुत समय बीता। लेकिन हम उनकी स्मृति में इकट्ठे क्यों होते हैं?
उनकी याद में उनके सम्मान में हम क्यों अपनी श्रद्धाएं अर्पित करते हैं? आश्चर्य मुझे न होता यदि हमारे जीवन, यदि हमारे प्राण उस सत्य से संबंधित हों जिस सत्य की इन व्यक्तियों ने गवाहियां दी हैं। लेकिन हमारे जीवन की दिशा तो बिल्कुल विरोधी है। हम भगवान के मंदिर में पूजा चढ़ाते हैं और शैतान के मंदिर में निवास करते हैं। तो फिर इस स्मृति का क्या प्रयोजन है? कहीं यह स्मृति आत्मघाती तो नहीं, आत्मवंचक तो नहीं है, यह सेल्फ डिसेपिटव तो नहीं है? और मुझे लगा है, यह है।
जीवन जब बहुत पास से भर जाता है, जीवन जब बहुत पाप से ग्रस्त हो जाता है तो हम धर्म की स्मृति में उस पाप को छिपा लेना चाहते हैं। जीवन में जब बहुत अंधकार हो जाता है तब हम प्रकाश की बातें करके उस अंधकार को भुलाने में लग जाते हैं। जीवन में जब बिल्कुल गलत हो जाता है तो हम अच्छी-अच्छी बातों में, अच्छे-अच्छे नारों से खुद को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि हम गलत नहीं है। ये सब आत्मविश्वास खोजने के तरीके हैं। लेकिन इसको मैंने कहा, यह आत्मघाती प्रवृत्ति हैं, यह स्वीसाइडल है। क्योंकि जो व्यक्ति अपनी बीमारियों को नहीं जानेगा और उन्हें स्वास्थ्य की चर्चाओं में छिपाएगा, बीमारी बढ़ती जाएगी, और उसके प्राण ले लेंगी।
अधर्म को हम छिपाते हैं धर्म की बातों में। अधर्म बढ़ता जाता है, धर्म की बातें काम नहीं दे सकती हैं। ये सारे मंदिर हमारे पापों को छिपाने की तरकीबें हैं और ये सारी धर्म की चर्चाएं हमारे भीतर जो गलत हो गया है, इस धर्म की चर्चा के शोर गुल में उसको भुला देने के उपाय हैं। लेकिन यह आत्मघाती है वह बात। यह हमारी पूजाएं, हमारी प्रार्थनाएं, हमारे मंदिर घातक हैं। घातक इसलिए हैं कि इसमें जिसे हम छिपा रहे हैं वह हमारे प्राण ले लेगा। अधर्म हमारे प्राण ले लेगा। अधर्म हमारे प्राण ले रहा है। रोज-रोज हमारे जीवन की शांति, जीवन का आनंद, जीवन का संगीत सब छिनता जा रहा है। भीतर से हम नष्ट होते जा रहे हैं, भीतर मनुष्य एक खोखली लाश की भांति हो जा रहा है। लेकिन इसकी बातें सुनें, इसके शास्त्रों को देखें और उसके मंदिरों को देखें तो लगता है कि बहुत धर्म होगा। जमीन पर कितने मंदिर हैं, कितने धर्म हैं, कितना संप्रदाय, कितने साधु, कितने संन्यासी, कितने पंडित, कितने समझाने वाले लोग, कितने समझने वाले लोग! लेकिन धर्म कहां है?
यह विरोधाभास क्या आपको दिखायी नहीं पड़ता? यह हमारे जीवन में आ गयी असंगति क्या हमें दिखायी नहीं पड़ती? और यह असंगति जिसे दिखायी नहीं पड़ती, वह बहुत बड़े धोखे में है। और वह धोखा किसी और को नहीं दे रहा है, खुद को दे रहा है।
मुझे स्मरण आता है, कोई सौ वर्ष पहले की बात है, इंगलैंड में उन दिनों भले लोग नाटक नहीं देखते थे। नाटक देखना भले लोगों के लिए वर्जित था। शेक्सपीयर का एक नाटक इंग्लैंड के एक बड़े नगर में चलता था। उस नगर का जो बड़ा पुरोहित था, बड़ा पादरी था, जो आर्चबिशप था, उसके मन में भी लालसा थी कि उस नाटक को कैसे देखे, लेकिन नाटक को कैसे देखे? उसने थियेटर के मैनेजर को खबर भेजी कि मेरी नाटक देखने में रुचि है- क्या तुम्हारे थियेटर में पीछे कोई दरवाजा है, जिससे चुपचाप मैं आ सकूं?
मैनेजर ने बड़े पादरी आर्चबिशप को जवाब भेजा- हमारे थियेटर के पीछे दरवाजा है, उससे आप भीतर आ सकते हैं, लोग आपको नहीं देख सकेंगे। लेकिन एक बात स्मरण रखें, हमारे थियेटर में ऐसा कोई भी दरवाजा नहीं है, जिसे परमात्मा न देखता हो। फिर आपकी मर्जी। लोगों से तो बचाया जा सकता है, लेकिन परमात्मा से कैसे बचाइएगा?
हम भी जीवन में पीछे के दरवाजे खोलते हैं। सामने के दरवाजे पर धर्म होता है, पीछे के दरवाजे से जिंदगी चलती है। और जिस व्यक्ति के जीवन में दो दरवाजे हों, उसका जीवन नर्क बन जाता है। बन जाना स्वाभाविक है। वह दो विरोधी दिशाओं में एक साथ जीता है। जैसे एक बैलगाड़ी में हमने दोनों तरफ बैल जोत दिए हों, फिर क्या होगा? बैलगाड़ी के प्राणांत हो सकते हैं। और हम में से अधिक लोगों के जीवन में दोनों तरफ बैल जुते हुए हैं। हमारे सारे प्राण अधर्म की तरफ चलते हैं, हमारे सारे विचार धर्म की तरफ। और तब जीवन एक अत्यंत अंतःसंघर्ष में एक कांफ्लिक्ट में पड़ जाता है। और जिस व्यक्ति के भीतर द्वंद्व है, अतः संघर्ष है, जिस व्यक्ति के भीतर निरंतर विरोध चल रहा है, उस विरोध में ही उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है; उस विरोध में ही उसकी शक्ति नष्ट हो जाती है। अपने से ही लड़ने में उसकी सारी ऊर्जा, सारा सामथ्र्य टूट जाता है। आखिर में वह एक रीते घड़े की भांति समाप्त हो जाता है, जिसमें कुछ भी न हो। और जिसके पास भीतर शक्ति न बचे, तो वह व्यक्ति सत्य को कैसे पा सकेगा? और जिस शक्ति के भीतर इंटीग्रेशन न हो, एकता न हो जिसके व्यक्तित्व में, विरोध में हो, अंतर्विरोध हो, वह व्यक्ति परमात्मा के दर्शन कैसे कर सकेगा? जो व्यक्ति भीतर संगीतपूर्ण नहीं है सत्य का भाग्य नहीं बन सकता। सत्य केवल उन्हें उपलब्ध हो सकता है जिनके हृदय संगीत से भरे हों। और संगीत वहां होता है, जहां द्वंद्व न हो, जहां भीतर विरोध न हो।
अच्छा हो कि आप सब नास्तिक हो जाए और किसी मंदिर में न जाएं; क्योंकि कम से कम तब आपके भीतर द्वंद्व तो न होगा! और जिसके भीतर द्वंद्व न होगा। वह बहुत दिन नास्तिक नहीं रह सकता। परमात्मा खुद उसके द्वार पर जाएगा। लेकिन आप सब हैं आस्तिक। आप सबके भीतर द्वंद्व है। परमात्मा की बात है, परमात्मा का जीवन नहीं है। तब- तब परमात्मा आपके द्वार पर कभी नहीं आ सकता। कोई रास्ता नहीं है आपके द्वार पर परमात्मा के आने का! सत्य आपके लिए कभी उदघाटित नहीं हो सकता है, क्योंकि द्वंद्वग्रस्त मन अपने में ही लड़ता और टूटता और नष्ट हो जाता है। उसे फुरसत भी नहीं मिलती है कि वह अपने बाहर आंख उठाकर देख सके। हम सब भीतर कलह से घिरे हैं और इसलिए मेरा ख्याल है कि मैं अंत कलह के संबंध में थोड़ी बात आपसे करूं, इससे मुक्त होने के उपाय के संबंध में थोड़ी बात आपसे करूं। इन दो दिनों में इसकी ही बात करूंगा।
अंतर्कला क्यों है? यह सारा अंत द्वंद्व क्यों पैदा होता है? कौन-से कारण हैं जिनसे हम निरंतर अपने भीतर विभाजित, खंडित हैं। अपने से ही लड़ रहे हैं। जैसे मैं अपने दोनों हाथों को लड़ाऊं, तो कौन जीतेगा? कोई भी नहीं जीतेगा, दोनों हाथ मेरे हैं। दोनों ओर से शक्ति लगेगी। कोई भी नहीं जीतेगा। दोनों हाथ लड़ेंगे, और उनकी लड़ाई में मैं मरूंगा। क्योंकि उनकी लड़ाई में मेरी शक्ति नष्ट होगी। बहुत जानना जरूरी है कि हम मन में, इस द्वंद्व में क्यों पड़े हैं? और यह द्वंद्व ही तो हमें तोड़ता है, डिटोरिएट करता है। धीरे-धीरे द्वंद्व और कलह हमारे जीवन को नष्ट कर देते हैं। मनुष्य का शरीर तो बूढ़ा होना स्वाभाविक है, लेकिन मन इसलिए बूढ़ा हो जाता है कि द्वंद्व से घिर जाता है। अन्यथा जिनके मन द्वंद्व से नहीं घिरते, उनका मन सदा युवा होगा। आत्मा के बूढ़े होने का कोई भी कारण नहीं है। शरीर के बूढ़े होने का कारण है। कारण, शरीर बूढ़ा होगा। लेकिन जिसका मन द्वंद्व से घिरा है, उसकी आत्मा भी बूढ़ी होती जाती है। और परमात्मा और सत्य को जानने के लिए युवा मन चाहिए, सतेज, सजग, स्वस्थ और स्वच्छ चेतना चाहिए। हमारी चेतना अस्वच्छ हो जाती है, द्वंद्वग्रस्त हो जाती है। और हम देखें, यह मैं आपसे कह रहा हूं, किसी सिद्धांत की बात नहीं कह रहा हूं, न किसी शास्त्र की बात कह रहा हूं। जो मन में होता है निरंतर, उन तथ्यों की बात कह रहा हूं। मैं जो कह रहा हूं, उसे मानने की जरूरत नहीं है। अपने मन को देखें। किसी शास्त्र में खोजने की जरूरत नहीं है, किसी की गवाही लेने की जरूरत नहीं है। बैठें थोड़ा एकांत में, अपने मन को देखें, क्या आपका मन द्वंद्वग्रस्त है और यदि द्वंद्वग्रस्त है तो आप अपने मन के दुश्मन है और आपका मन धीरे-धीरे बूढ़ा होता जाएगा, शक्तिशाली होता जाएगा, टूटता जाएगा। फिर ऐसे मन को लेकर परमात्मा के द्वार पर कैसे जाइएगा? यह मन तो आपको बहुत नीचे रखेगा। यह क्यों है स्थिति मन की? यह द्वंद्व का कारण क्या है? इस द्वंद्व के पीछे बुनियादी आधार क्या है? क्या कारण है कि हम द्वंद्व में ही पैदा होते हैं और द्वंद्व में ही समाप्त हो जाते हैं? कुछ कारण है।
पहली बात- और इन कारणों को हम ठीक से देखें। आज तो मैं इन कारणों की ही चर्चा करूंगा और कल इनसे मुक्त होने की। कौन-से कारण हमें घेरे हुए हैं? पहला जो मुझे दिखायी पड़ता है, वह यह है कि हम जीवन में अपने अनुभव से, अपने जीवन के निरंतर विकास से तथ्यों को देखते नहीं, वरन परंपरा से तथ्यों को और सिद्धांतों को स्वीकार कर लेते हैं। तब परंपरा हमें कुछ बातें बताती है। इन दोनों के बीच कलह उपस्थित हो जानी बिल्कुल स्वाभाविक है। इन दोनों के बीच विरोध उपस्थित हो जाना स्वाभाविक है। हम जीवन की सीधी समस्या को खुद कभी नहीं देखते। हमारी आंखें हमेशा परंपरा के पर्दे से चीजों को देखती हैं। एक छोटी-सी कहानी कहूं तो समझ में आए।
एक राजा का वजीर मर गया तो उसे अपने सारे राज्य में एक बुद्धिमान आदमी खोजना था जो वजीर की जगह नियुक्त किया जा सके। बड़ा राज्य था, बहुत बुद्धिमान थे और सबसे बड़े बुद्धिमान की खोज करनी थी। उसने बहुत-सी परीक्षाओं की व्य वस्था की। अंततः बहुत-सी परीक्षाओं को पार करते-करते तीन व्यक्ति चुने गए थे। अब उन तीनों व्यक्तियों में अंतिम निर्णायक परीक्षा होनी थी और एक चुना जाएगा और वह राजा का वजीर हो जाएगा। वह उस राज्य का सबसे बड़ा सम्मान था। वे तीनों व्यक्ति अपनी चेष्टा में लगे होंगे। जिस दिन अंतिम परीक्षा होनी थी उसके एक दिन पहले सारे नगर में अफवाह उड़ गयी कि कल राजा उनको एक ऐसे भवन में बंद कर देगा जिसमें एक ही दरवाजा है और उस दरवाजे पर एक ऐसा ताला लगाया गया हैं- उस समय की जो इंजीनियरिंग थी, उस समय की जो यंत्र विद्या थी, उस समय के जो गणितज्ञ थे, उन्होंने बड़ी कोशिश करके उस ताले को बनाया है। वह ताला गणित की एक पहेली की भांति है। जो व्यक्ति गणित में प्रभावशाली होगा, वही व्यक्ति उस ताले को खोलने की तरकीब खोज करेगा। जो उस ताले को खोलकर बाहर आ जाएगा, वही वजीर हो जाएगा।
स्वभावतः था, सारे नगर में अफवाह फैली। उन तीनों व्यक्तियों ने भी सुनी। उनमें से दो फौरन गए, उन्होंने इंजीनियरिंग की किताबें खरीदी, गणित की किताबें खरीदी। तालों के संबंध में जो कुछ भी लिखा हुआ था उनको इकट्ठा किया रातभर। वे उनको पढ़ते रहे और पहेलियां सुलझाते रहे। और दोनों हैरान रहे, वह जो तीसरा आदमी था, रात-भर आराम से सोया रहा। समझा कि यह पागल है। उन दोनों ने समझा कि पागल है। कल यह क्या करेगा? सोचा कि इसने समझा हो कि यह अफवाह है, लेकिन यह कहीं अगर सत्य हुआ तब? अपने हाथ से मौका खो रहा है। सुबह वे तीनों राजमहल गए। दो तो इन गणित से भर गए थे, रातभर जागकर उन्होंने गणित किया था। उनसे अगर कोई कहता, दो और दो कितने होते है तो वे घबड़ा जाते। गणित इतना ज्यादा दिमाग में हो तो दो और दो जोड़ना भी कठिन हो जाता है। स्वाभाविक है, गणित अगर दिमाग में कम हो तो दो और दो जोड़े जा सकते हैं। गणित अगर बहुत ज्यादा हो तो दो और दो को जोड़ना कठिन हो जाता है।
उनके पैर भी ठीक नहीं पड़ते थे, आंखें नींद से भरी थीं। रातभर की बेचैनी, घबराहट। राजमहल पहुंचे। पर तीसरा आदमी मौज से गीत गाता हुआ राजमहल पहुंचा। स्वभावतः जो रात भर सोया हो वह सुबह गीत गा सकता है। महल पहुंचे। राजा ने तो निश्चिंत ही- अफवाह सच थी, उनको एक महल में बंद कर दिया गया और उस पर एक ताला लगा हुआ था। उस ताले पर गणित के अंक बने हुए थे। तब तो वे दोनों प्रसन्न हुए कि इस तीसरे को अब पता चलेगा कि रात-भर शांति से सोने का क्या मतलब होता है। लेकिन वह अजीब था। वे दोनों तो कुछ किताबें भी अपने खीसों में, कपड़ों में छिपाकर ले गए थे कि वक्त-बेवक्त जरूरत पड़ जाए तो वे उनसे देख लेंगे। उन्होंने तो जल्दी से अपनी किताबें निकाली। उनको खबर कर दी गयी, राजा ने कहलवा दिया कि ताला खोलकर जो बाहर निकल जाएगा, वही वजीर बन जाएगा। वे दोनों तो जल्दी अपनी किताबें खोलकर कागज पर हिसाब लगाने में लग गए, ताले के अंकों को देखने में लग गए। वह तीसरा आदमी आंख बंद करके फिर बैठे गया। निश्चित ही वह हार गया था, क्योंकि अब उसको क्या खोलने को है? तो उन दोनों ने सोचा कि शायद उसने प्रतियोगिता ही छोड़ दी है। वह कुछ सोच भी नहीं रहा था, कुछ हिसाब भी नहीं लगा रहा था, वह सिर्फ आंख बंद किए बैठा था। उसके चेहरे से भी मालूम नहीं पड़ता था कि वह कुछ सोच रहा है। वे दोनों तो तल्लीन हो गए। ठंडी सुबह थी, खिड़कियों से ठंडी हवाएं आती थीं, लेकिन उनके तो माथें से पसीना चू रहा था, वे तो अपने गणित में लगे हुए थे। वह आदमी धीरे से अचानक उठा। बाहर गया। दरवाजे पर गया। हैंडिल पर उसने हाथ घुमाया, हैरान हो गया, दरवाजा खुला हुआ था। दरवाजा लगा हुआ नहीं था। उसने हैंडिल को घुमाया और दरवाजा हटाया, दरवाजात खुला हुआ था। वह चुपचाप बाहर निकल गया। वे जो दोनों बैठे थे उन्हें पता भी नहीं चला कि अब कमरे में तीन नहीं हैं, दो ही बचे हैं। एक आदमी बाहर निकल गया, उनको पता तब चला जब राजा को लेकर वह आदमी वापस लौटा। और राजा ने कहा, अपना हिसाब बंद करो, अपनी किताबें बंद करो। जिसको निकलना था, वह बाहर निकल चुका है। तुमने पहली बात ही नहीं सोची कि समस्या है भी या नहीं? तुमने पहली बात ही नहीं विचारी कि ताला लगा हुआ है या नहीं लगा हुआ है और तुम ताले के संबंध में खोजबीन करने में संलग्न हो गए।
जिंदगी की पहली समस्या यह है कि हम समस्या को देखें कि वह है या नहीं? लेकिन इसके पहले कि हम समस्या को देखें, समाधान हमारे मन में परंपरा बिठाल देती है। हम उनके ऊहापोह में पड़ जाते हैं। हम ताले खोलने का विचार करने लगते हैं, कैसे खोलें? और शास्त्र अध्ययन करने लगते हैं कि कैसे ताला खोला जाए? और पच्चीस शास्त्र हैं और पच्चीस संप्रदाय हैं और पच्चीस विरोधी लोग हैं और उनके ऊहापोह में हमारा सारा मस्तिष्क जराजीर्ण हो जाता है। जीवन में समस्या क्या है, और है भी या नहीं, इसे देखने का साहस करने वाले बहुत थोड़े से लोग होते हैं। और जो लोग उठकर जीवन की समस्या को सीधा देखते हैं, बीच में शास्त्रों को, परंपराओं को, सिद्धांतों को नहीं लेते, उन्होंने अक्सर पाया है कि जीवन की समस्याएं वे नहीं हैं, जो शास्त्र की समस्याएं हैं। जीवन की पहेलियां वे नहीं हैं, जो गणित की पहेलियां हैं। जीवन बहुत सरल है, अगर चित्त शास्त्रों में भारग्रस्त हो; अगर चित्त परंपरा और ट्रेडीशंस से भरा हुआ न हो। जिंदगी बहुत सरल है। शायद उस पर कोई ताला नहीं लगा हुआ है। शायद द्वार अटका है और धक्का देने से खुल जाएगा।
पहली बात जरूरी है कि हम जीवन की समस्याओं को सीधा लें, बजाए इसके कि हम शास्त्रों को पकड़ लें। एक व्यक्ति मेरे पास आता है, वह कहता है, मुझे शांति चाहिए। क्या मैं राम-राम जपूं, तो शांति मिलेगी? वह ताला खोलने में लग गया। उसने मान लिया कि राम-राम न जपने से अशांति पैदा हुई है। राम-राम जपने से ताली लग जाएगी और ताला खुल जाएगा। उसने यह फिकर नहीं की कि अशांति है कहां? है तो क्या है? अशांति की फीकर नहीं की, शांति कैसे आए, ताला कैसे खुले, इसकी कोशिश में लग गया। एक आदमी दुखी है, पीड़ित है, वह पूछता है, मैं ईश्वर को कैसे पाऊं? उसे ईश्वर से कोई प्रयोजन नहीं है। शास्त्र कहते हैं जो ईश्वर को पा लेता है, उसे शांति मिलती है, दुख विलीन हो जाता है। वह दुखी है इसलिए वह सोचता है कि मैं ईश्वर को कैसे पाऊं? वह शास्त्रों में खोजने चला जाता है। जब कि सचाई यह है कि ईश्वर के मिलने से किसी को शांति नहीं मिलती। जिसे शांति मिल जाती है, उसे ईश्वर जरूर मिल जाता है। जब कि सच्चाई यह है कि किसी के भीतर अशांति हो तो वह ईश्वर का लाख नाम जपे, शांति नहीं मिल सकती। लेकिन जो अपनी अशांति को समझकर उससे मुक्त हो जाता है, उसे ईश्वर जरूर मिल जाता है। आखिर ईश्वर को पाने के लिए शांत मन की भूमि चाहिए। अशांत मन कैसे ईश्वर को पा सकेगा? लेकिन हम- अशांत मन होता है तो ईश्वर को खोजने चले जाते है। समस्या को नहीं देखते, समाधान की कोशिश शुरू कर देते हैं।
जीवन की बुनियादी भूलों में एक है जो मन को द्वंद्व में डाल देती है- समस्या को खोजें, समाधान को नहीं। समस्या ही महत्वपूर्ण है, समाधान महत्वपूर्ण नहीं है। और अगर दुनिया के लोग समस्याएं खोजें तो समस्याएं हल हो सकती हैं। लेकिन दुनिया के लोग समाधान खोजने हैं, फिर समाधान पकड़ लेते हैं। फिर ये समाधान नयी समस्याएं ले आते हैं, पुरानी समस्याएं समाप्त नहीं होतीं। हर समाधान नयी समस्या पैदा कर देता है। कोई हिंदू है, कोई जैन है, कोई मुसलमान है, कोई बौद्ध है- इन सारे लोगों ने समाधान पकड़ लिए हैं। अगर ये समस्याएं खोजते- दुनिया में आदमी होते- न कोई हिंदू होता, न कोई जैन होता, न कोई मुसलमान होता। ये समस्याओं को पकड़ लिए हुए लोग हैं। तो जब एक समय समाधान को पकड़ लेते हैं तो ये दूसरे से लड़ते हैं कि तुम्हारा समाधान गलत है, मेरा समाधान सही है। इसलिए नहीं कि इनको दूसरे के समाधान गलत होने से कोई प्रयोजन है। इन्हें हर भांति अपने को विश्वास दिलाना है कि मेरा समाधान सही है। और ये विश्वास तभी दिला सकते हैं जब ये दूसरों के, सबके भीतर समाधानों के गलत कहने का जोर-शोर से प्रचार करें। तब इन्हें विश्वास आएगा कि हमारा समाधान सही है। इनका समाधान नयी समस्याएं खड़ी कर देता है।
दुनिया के धर्मों ने कोई समस्याएं समाप्त नहीं की, नयी समस्याएं खड़ी कर दी हैं। अगर दुनिया से धर्म समाप्त हो जाए, मनुष्य की पचास प्रतिशत समस्याएं उनके साथ चली जाएगी। उसकी लड़ाइयां, उसके विरोध, उसके संघर्ष, उसकी दीवालें, उसके मंदिर और मस्जिद, उसके शास्त्र, उसके पंडित, उसके साधु, यह सारा उपद्रव विलीन हो जाएगा। लेकिन बुनियादी बात कहां है? बुनियादी बात वहां है कि क्या हम समाधान खोजते हैं, या समस्या खोजते हैं? अगर हम समाधान खोजते हैं तो हम समस्या से पलायन खोज रहे हैं, एस्केप खोज रहे हैं। एक आदमी के भीतर हिंसा होती है तो वायलेंस होती है, चित्त में क्रोध होता है। हिंसा होती है तो वह उससे पीड़ित होता है, परेशान होता है, क्योंकि हिंसा किसी को सुख नहीं दे सकती है। क्रोध किसी को शांति नहीं दे सकता, द्वेष किसी के मन में संगीत नहीं ला सकता। इससे परेशान होता है। परेशान होता है। तो वह समाधान खोजने जाता है। कोई कहता है, अहिंसक हो जाओ तो समाधान हो जाएगा। यह वैसे ही है जैसे एक बीमार आदमी कहीं जाए और कहे कि मैं बीमारी से बहुत परेशान हूं और एक डाक्टर उससे कहे कि तुम स्वस्थ हो जाओ तो ठीक हो जाएगा। तो यह कितना पागलपन मालूम होगा! डाक्टर किसी बीमार को कहे जाओ, स्वस्थ हो जाओ, सब ठीक हो जाएगा। नहीं, डाक्टर यह नहीं कहता। लेकिन धर्म के डाक्टर यही कहते हैं। अगर हिंसा है, अहिंसक हो जाओ, सब ठीक हो जाएगा। अगर बीमार है तो स्वस्थ हो जाओ।
डाक्टर बीमारी को खोजता हैं; स्वस्थ हो जाओ यह नहीं कहता। बीमारी क्या है, कहां है, क्यों है, उस बीमारी को खोजता है और उस बीमारी को, बीमारी के भीतर उसके दूर करने के उपाय खोजता है। अब बीमारी नहीं रह जाती तो स्वास्थ्य उपलब्ध हो जाता है। बीमार के विरोध में स्वास्थ्य नहीं मिलता है, बीमारी के अभाव में स्वास्थ्य उपलब्ध होता है। हिंसा के विरोध में कोई आदमी अहिंसक हो सकता। जब हिंसा नहीं रह जाती तो अहिंसा अपने-आप उपलब्ध होती है। लेकिन हमारे भीतर हिंसा होती है, हम अहिंसा में उपाय खोजते हैं। हमारे भीतर क्रोध होता है, हम क्षमा में उपाय खोजते हैं। और क्रोध आदमी की क्षमा का क्या मूल्य है? हमारे भीतर लोभ होता है तो हम त्याग में उपाय खोजते है। लेकिन लोभी आदमी के त्याग का क्या मूल्य है? जो आदमी लोभी है, उसके त्याग के पीछे कोई न कोई लोभ काम करता है- स्वर्ग पाने का लोभ, मोक्ष पाने का लोभ, परमात्मा को पाने का लोभ। लेकिन लोभी आदमी के न्याय के पीछे लोभ मौजूद होगा; क्योंकि लोभी त्याग कैसे कर सकता है? वह तो जो भी करेगा, उसके पीछे लोभ होगा, कुछ पाने की आकांक्षा होगी। इसलिए दुनिया में बहुत-से लोभी त्यागी हो जाते हैं। देखते हैं कि इस जगत में लोभ काफी नहीं है। उनका लोभ विस्तीर्ण है, और बड़ा है, दूर आकाश तक जाता है, मोक्ष तक जाता है, स्वर्गों तक जाता है तो सब छोड़ने को राजी हो जाता हैं।
एक मुसलमान खलीफा हुआ, बहुत क्रोधी था, बहुत दुष्ट था, बहुत हिंसक वृत्ति का था। एक दिन उसने अपने कुछ मित्रों को अपने जन्म दिन पर भोजन के लिए बुलाया। उसके गुलाम से, भूल से उसके गुलाम के हाथ से गर्म थाली उसके पैर पर गिर पड़ी परोसते वक्त। सब मेहमान समझ गए कि अब सिवाय इसकी मृत्यु के और कुछ होने वाला नहीं है। उस खलीफा ने भी तलवार खींच ली। गुलाम भी समझ गया कि मरने के सिवाय अब कोई उपाय नहीं है। वह थरथर कांपने लगा। यही सजा हो सकती थी इस आदमी की कि इसकी गर्दन अलग कर दे, इसने भूल से थाली ऊपर गिरा दी। इनता ही क्रोधी था। लेकिन मरता क्या न करता! उस गुलाम ने कुरान की एक आयत कही। उसने कहा कि धन्य हैं वे, जो क्रोध नहीं करते। उस खलीफा ने अपनी तलवार भीतर कर ली। उसने कहा, मुझे क्रोध नहीं है। हालांकि जब उस ने कहा कि मुझे क्रोध नहीं है, तो उसके वचनों में भी भारी क्रोध था। उसके मित्र हैरान हुए। यह आश्चर्यजनक बात थी। उन सबके दिल प्रशंसा से भर गए। खलीफा ने चारों तरफ देखा, वह भी खुश हुआ। गुलाम ने आयत का दूसरा हिस्सा पढ़ा और उसने कहा, धन्य हैं वे, जो क्षमा कर देते हैं। उस खलीफा ने कहा, जाओ मैंने तुम्हें क्षमा किया। उस गुलाम ने आयत का अंतिम हिस्सा कहा। उसने कहा कि धन्य हैं वे, परमात्मा उन्हीं को उपलब्ध होगा, जिनके हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं। उस खलीफा ने कहा, न मैंने केवल तुम्हें क्षमा किया, ये हजार रुपए भी लो, मैंने तुम्हें गुलामी से मुक्त किया। सारे मित्रों ने जोर से तालियां बजायी। और कहा कि आप इतने अलौकिक धार्मिक व्यक्ति हैं, जिसका हमें पता नहीं था।
यह आदमी सस्ते में स्वर्ग पा गया है- एक गुलाम को छुटकारा देने से। एक हजार रुपया छोड़ देने में यह मोक्ष का मालिक हो गया। वह क्रोधी है, अगर क्षमा करने से स्वर्ग मिलता है तो यह क्षमा करने को राजी है। यह लोभी है, अगर हजार रुपए और गुलाम को छोड़ देने से, प्रेम प्रकट करने से परमात्मा का प्यारा हो सकता है तो उसके लिए तैयार है। हमारा मन इसकी प्रशंसा करेगा, लेकिन यह आदमी वही का वही है, इसमें कोई फर्क नहीं हुआ। यह वही का वही आदमी है। क्रोधी क्षमा करेगा, उसके क्षमा के भीतर भी कुछ क्रोध मौजूद होगा। लोभी त्याग करेगा, उसके त्याग के भीतर भी लोभ मौजूद होगा, क्योंकि जो हमारा मन है, हम उस मन से ही तो कुछ करेंगे? वह मन जो करेगा उससे मौजूद रहेगा। एक अहंकारी व्यक्ति विनीत हो जाए, कहने लगे, मैं ना कुछ हूं तो उसके ना कुछ होने में भी उसका अहंकार मौजूद रहेगा। एक अहंकारी व्यक्ति नग्न हो जाए, सारे वस्त्र त्याग दे, उसकी नग्नता में भी उसका अहंकार मौजूद रहेगा। साधु-संन्यासी अकारण ही क्रोधी नहीं होते हैं, साधु-संन्यासी अकारण ही अहंकार ग्रस्त नहीं होते हैं। वह सब अहंकारग्रत्स मन की ही प्रक्रियाएं हैं और इसलिए कोई अंतर नहीं पड़ता है। बुनियादी यह हमारी समस्या को छोड़कर समाधान खोजने की कोशिश है यह खतरनाक है। यह स्वयं को धो खा देने की तरकीब है।
सवाल समाधान का नहीं है, सवाल समस्या का है। मेरी समस्या क्या है? मेरी जिंदगी की समस्या क्या है? और आप सोचते होंगे कि समस्याएं तो सब लिखी हुए हैं शास्त्रों में, वही समस्याएं हैं। वे भी हो सकती हैं, आपकी समस्याएं न हों। क्या सच में ईश्वर को खोजना आपकी समस्या है? क्या सच में आत्मा को खोजना आपकी समस्या है?
क्या सच में मोक्ष पाना आपकी समस्या है? हो सकता है यह कोई भी आपकी समस्याएं न हों। और मैं नहीं समझता कि ये आपकी समस्याएं हैं। आपकी समस्याएं होंगी कि मन में क्रोध है, दुख है, घृणा है, हिंसा है, ईष्र्या है, प्रतियोगिता है, जलन है। ये हमारी समस्याएं हैं। कोई आध्यात्मिक समस्या किसी मनुष्य की नहीं है, सभी मनुष्य की समस्या मानसिक हैं, साइकोलाजिकल हैं। स्प्रीच्युअल किसी को कोई समस्या कभी नहीं होती है। स्प्रीच्युअल समाधान होते हैं, समस्याएं हमेशा साइकोलाजिकल होती है। समस्याएं हमेशा मानसिक होती हैं, समाधान हमेशा आत्मिक होते हैं। और जो मानसिक समस्याओं को सुलझा लेते हैं उन्हें आत्मिक समाधान उपलब्ध हो जाते हैं। आध्यात्मिक समस्या किसी भी मनुष्य की न कभी हुई हैं और न होती हैं।
लेकिन अगर हम शास्त्रों को पढ़ने में जाएंगे तो हमें ज्ञात होगा कि समस्याएं ये हैं कि ईश्वर है या नहीं? समस्या यह है कि आत्मा है या नहीं? समस्या यह है कि पुनर्जनम होते हैं या नहीं? समस्या यह है कि स्रष्टा ने कभी सृष्टि बनायी या नहीं? समस्या यह है कि भगवान के कितने चेहरे होते हैं? समस्या यह है कि भगवान आकार वाला है कि निराकार वाला है? ये समस्याएं हैं। ये समस्याएं थोथी समस्याएं हैं, जो आपकी समस्याएं नहीं हैं। ये किसी पंडित की समस्याएं होंगी, किसी फिलोसफर की समस्याएं होंगी। जिसे जीवन खराब करने की सुविधा हो, उसके लिए समस्याएं होंगी। जीवन की ये समस्याएं नहीं हैं। लेकिन अगर इन समस्याओं को हम पकड़ लें तो हमारी मूल समस्याएं एक तरफ पड़ी रह जाती हैं, हमारी मूल बीमारियां एक तरफ पड़ी रह जाती हैं और हम झूठी और थोथी बीमारियां के उलझाव में पड़ जाते हैं। हम ताले को खोलने की कोशिश करने लगते हैं वहां, जहां कि ताला लगा हुआ नहीं है।
तो मैं अपसे निवेदन करना चाहूंगा कि मन इसलिए द्वंद्व से भरा है कि उसने अपनी बुनियादी समस्या आग को एक तरफ रख छोड़ा है और ऐसी थोथी और झूठी और मीनिंगलेस समस्याओं को पकड़ लिया है जो कि वस्तुतः किसी मनुष्य की समस्याएं न कभी रही हैं, न हैं, और न हो सकती है। आप खुद ही सोचें। आपकी समस्या ईश्वर को पाना कहां है? आपके प्राणों में कहां ईश्वर का कोई सवाल है? कहां आपकी यह समस्या है कि ईश्वर ने दुनिया कब बनायी? कहां आपका यह सवाल है कि आत्मा का पुनर्जनम होता है या नहीं? नहीं, आपकी ये समस्याएं नहीं हैं। आपकी समस्याएं दूसरी हैं और इन समस्याओं के पीछे भी आपकी वे ही बुनियादी समस्याएं खड़ी हैं।
एक आदमी आता है और पूछता है, आत्मा अमर है या नहीं? दिखायी पड़ता है कि उसकी समस्या यही है कि वह आत्मा की अमरता के संबंध में पूछना चाहता है। लेकिन यह उसकी असली समस्या नहीं है। असली समस्या उसकी यह है कि मरने से डरता है। असली समस्या उसकी यह है कि फियर, मरने का भय उसकी समस्या है। हालांकि वह ऐसा नहीं पूछता कि मैं मरने से डरता हूं। वह पूछता है, क्या आत्मा अमर है? फर्क समझिए दोनों में। अगर वह यह पूछे कि मुझे मृत्यु से भय मालूम होता है, मैं क्या करूं? यह असली समस्या होगी, इसका कोई हल हो सकता है। लेकिन वह पूछता है, क्या आत्मा अमर है? यह नकली समस्या है। इसका कोई हल नहीं हो सकता। कोई कहेगा, आत्मा अमर है। कोई कहेगा, आत्मा अमर नहीं है। कोई कहेगा कि आत्मा होती ही नहीं है। कोई कहेगा, आत्मा के संबंध में यह। आत्मा के संबंध में पच्चीस शास्त्र हैं। वह ऊहापोह में पड़ जाएगा। और उसको जो भय था मरने का, वह भीतर मौजूद बना रहेगा, वह कहां जाएगा? आप किसी भी शास्त्र को मान लें, आत्मा अमर कहने वाले शास्त्र को मान लें, आत्मा न अमर कहने वाले शास्त्र को मान लें, लेकिन मृत्यु का भय कहां जाएगा? वह तो भीतर बैठा रहेगा। समस्या एक तरफ बैठी रहेगी, समाधान दूसरी तरफ इकट्ठे होते चले जाएंगे। तब जीवन में द्वंद्व पैदा हो जाएगा। समाधान कुछ कहेंगे, समस्या कुद कहेंगी।
एक आदमी पूछता है, साकार है ईश्वर या निराकार है? लगता है कि बड़ी ऊंची, मैटाफिजिकल समस्या है। उसकी बड़ी ऊंची समस्या है। वह भी समझता है कि मेरी कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं है। उसकी समस्या असल में मैटाफिजिकल नहीं है। उसकी समस्या कुछ और है। उसकी समस्या यह है कि ईश्वर से मेरा कोई संबंध हो सकता है या नहीं? ईश्वर को मैं प्रेम कर सकता हूं या नहीं? ईश्वर अगर साकार हो तो मैं प्रेम कर सकता हूं। ईश्वर मेरी सुनेगा या नहीं? अगर वह साकार है तो मेरी सुन सकेगा, मेरी प्रार्थना सुन सकेगा, मेरी कामनाओं की पूर्ति कर सकेगा या नहीं? और अंदर घुसें तो ज्ञात होगा, उसके जीवन में प्रफस्ट्रेशन है। उसके जीवन में जो उसने चाहा, वह पूरा नहीं हो सका। जो उसने मांगा वह नहीं मिला। इसलिए वह पूछता है, क्या कोई ईश्वर है? जिससे मैं मांगूं तो मिल सके; जिससे मैं प्रार्थना करूं तो मुझे प्राप्त हो सके? मैंने सफल होना चाहा था, असफल हो गया। मैंने बड़े पद पर होना चाहा था, बड़ा पद मुझे नहीं मिल सका। मैंने बहुत धन कमाना चाहा था, वह धन मुझे नहीं आ सका। क्या कोई ईश्वर है जो मेरी सहायता कर सकेगा? मैं दुखी हूं, मैं पीड़ित हूं। क्या कोई ईश्वर है जो मेरा छुटकारा इस सारे दुख और पीड़ा से करा सकता है?
वह किसी ईश्वर की तलाश में है, क्योंकि भीतर वह बहुत घबड़ा गया है। अकेला है, वह कोई सहारा चाहता है। उसकी समस्या है, मैं अकेला हूं, मुझे कोई सहारा चाहिए। फिर वह सहारा अनेक रूपों में खोजता है। हो सकता है, वह ईश्वर को मान ले और उसे सहारा मिल जाए। हो सकता है, वह ईश्वर को न माने, वह कम्युनिज्म को मान ले और उसे सहारा मिल जाए। हो सकता है वह, कमयुनिज्म को न माने तो शराब पीने में लगे और उसे सहारा मिल जाए। हो सकता है, वह कोई पच्चीस रास्ते निकाल सकता है, जहां वह अपने अकेलेपन से छुटकारा पाने की कोशिश करेगा। अकेला हूं, बेसहारा हूं, इसे भुलना है, इस स्थिति को अपने से दूर हटाना है। इसकी किसी तरह स्मृति के बाहर कर देना है। उसकी समस्या क्या है? उसकी समस्या है, वह अकेला है और अकेले होने में डर रहा है। इसलिए वह किसी का सहारा चाहता है। किसी का सहारा चाहता है, किसी सर्वशक्तिशाली का सहार चाहता है।
तो है ईश्वर या नहीं, यह उसकी समस्या नहीं है। उसकी समस्या है, वह अकेला है। और बिना सहारे के रहने में बड़ी असुविधा मालूम पड़ रही है। यह हमारी जिंदगी में मैटाफिजिकल्स प्राबलमस ने, आध्यात्मिक समस्याओं ने मनुष्य के भीतर द्वंद्व पैदा किया है। मनुष्य की समस्याएं मनोवैज्ञानिक हैं, साइकोलाजिकल हैं। उसकी समस्याएं बहुत और हैं। और जब समस्या कुछ हो और हम समस्या को कुछ और समझते हों तो स्वाभाविक है कि हमारे भीतर फूट पैदा हो जाए, हमारा व्यक्ति धीरे-धीरे खंडित हो जाए।
तो पहला तो निवेदन मैं आपसे यह करना चाहता हूं कि किसी मनुष्य की कोई आध्यात्मिक समस्या नहीं है। इसीलिए जिन आध्यात्मिक समस्याओं को आपने पकड़ लिया है उनसे कोई समस्या हल नहीं हुई है। पांच हजार साल में दुनिया में बहुत धर्म हैं, कौन-सी समस्या हल हो गयी है? मनुष्य कम दुखी हो गया है, ज्यादा आनंदित हो गया है? नहीं, कोई अंतर नहीं पड़ा। मंदिर एक हो गांव में कि मंदिर पांच हों गांव में पांव के चित्त-स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। एक शास्त्र हो कि हजार शास्त्र हों, मन जैसा है, वैसा ही बना रहेगा, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मन की यह समस्या नहीं है। लेकिन हम इस पर लड़ते हैं, इस पर हत्याएं करते हैं। उन समाधानों पर हम लड़ते हैं, जो हमारी समस्याः नहीं हैं। अगर एक मुसलमान की मस्जिद गिरा दी जाए तो मुसलमान लड़ने को तैयार है। अगर एक हिंदू का मंदिर टूट जाए तो हिंदू लड़ने को तैयार है। उन समाधानों के लिए वह जान देने को तैयार है, जो उसकी समस्याएं नहीं हैं।
अगर दुनिया में मनुष्य को स्पष्ट बोध हो जाए कि मेरी समस्या क्या है तो ये धर्म और इनके विभाजन और इनमे शास्त्र और इनकी लड़ाइयां अपने-आप विलीन हो सकती हैं और ये विलीन होनी चाहिए। बड़ा मजा है यह। क्या एक मुसलमान की समस्या एक हिंदू की समस्या से अलग हो सकती है? क्या एक जैन की समस्या एक ईसाई कि समस्या से अलग हो सकती है? मनुष्य की समस्याएं। सारे मनुष्य की समस्याएं भिन्न हैं, सारी दुनिया में एक है। मनुष्य मनुष्य की समस्याएं लेकिन मैटाफिजिकल समस्याएं अलग-अलग हैं। जैन कुछ और सोचता है। उसके लिए कोई ईश्वर नहीं है। वह उसकी समस्या नहीं। हिंदू के लिए यह समस्या है कि ईश्वर है या नहीं? जैन पुनर्जन्म को मानता है, उसके लिए पुनर्जन्म की समस्या नहीं है। एक मुसलमान के लिए समस्या है कि पुनर्जन्म है या नहीं है? नहीं है। लेकिन एक हिंदू के मन को पकड़े, एक मुसलमान के मन को पकड़ें, एक जैन के मन को पकड़ें। क्या इनकी समस्याएं अलग हैं? मनुष्य की समस्याएं अलग नहीं हैं, लेकिन धर्मों की समस्याएं अलग हैं। निश्चित ही धर्मों की समस्याएं झूठ होंगी। सारे मनुष्य की- चाहे वह हिंदुस्तान में हो या चाहे चीन में, चाहे जापान में, चाहे कहीं और अप्रफीका में; मनुष्य की बुनियादी समस्याएं एक हैं। वह मानसिक है, वह आध्यात्मिक नहीं है। जब तक यह तथ्य हमें स्पष्ट न हों, जब तक हम अपने बाबत इस सच्चाई को साफ-साफ न समझ लें कि हमारी समस्या क्या है, तब हम जो भी करेंगे, हम जो भी करेंगे, हमें और कनफ्यूजिन में ले जाएगा और उपद्रव में ले जाएगा। उससे कोई हल उससे कोई मुक्ति असंभव है। पहली बात है तो यह मैं आपसे कहूं।
दूसरी बात मैं आपसे यह कहूं, समस्याएं इन आध्यात्मिक समाधानों ने पैदा कीं, और दूसरी बात, आदर्श परंराओं ने स्थापित कर लिए हैं, उसने हमारी ये समस्याएं पैदा कर दीं। आदर्श क्या हैं? महावीर आदर्श हैं, राम आदर्श हैं, कृष्ण आदर्श हैं, बुद्ध आदर्श हैं। आदर्श का मतलब यह है कि परंपरा हमसे कहती है कि तुम इनके जैसे होने की कोशिश करना। ये आदर्श हैं। इनके जैसे बनना। इनके जैसे बनना। ये जैसे हैं वैसे तुम बनना। इससे सारी दुनिया में एक नकल, एक अभिनय, एक पाखंड पैदा हुआ। जब भी कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्य क्ति जैसा बनना चाहेगा, अनिवार्य रूप से पाखंडी हो जाएगा। अनिवार्य रूप से। इसलिए पाखंडी हो जाएगा कि एक मनुष्य, एक व्यक्ति वस्तुतः ठीक दूसरे जैसा कभी न बना है और न कभी बन सकता है। हर व्यक्ति की अपनी यूनिक, अपनी बेजोड़ सत्ता है।
क्या आपको पता है, ढाई हजार वर्षों में महावीर जैसा व्यक्ति दूसरा व्यक्ति क्यों नहीं बन पाया? दो हजार वर्ष हो गए क्राइस्प को मरे, दो हजार वर्ष से लाखों लोग उनके जैसे बनने की कोशिश करते हैं, दूसरा आदमी क्राइस्ट क्यों नहीं बना? राम कोई दूसरा क्यों नहीं बना? रामलीला के रामों को छोड़ दें। राम कोई दूसरा व्यक्ति क्यों नहीं बन सका? कृष्ण कोई दूसरा व्यक्ति क्यों नहीं बन सका? कृष्णलीला की बात अलग है। रामलीला में जो बन जाते हैं कृष्ण, उनको छोड़ दें। लेकिन सच यह है कि कभी कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य जैसा ठीक नहीं बन सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अद्वितीय क्षमता है, अपनी अद्वितीय प्रतिभा है। अपना अद्वितीय व्यक्तित्व है। एक पत्थर भी अगर मैं आपको दे दूं और कहूं कि जाएं दूसरा पत्थर इस जैसा खोज लाएं। इस बड़ी जमीन पर उस जैसा दूसरा पत्थर नहीं खोजा जा सकता। असंभव है। एक जैसे दो पत्थर के जब टुकड़े भी नहीं होते तो एक जैसी दो चेतनाएं एक जड़ वस्तु भी एक नहीं होती तो चैतन्य जैसा जीवंत प्रवाह एक जैसा नहीं हो सकता है। लेकिन हमें सिखाया जा सकता है कि हम किसी दूसरे जैसे हो जाएं। गांधी जैसे हो जाओ, महावीर जैसे हो जाओ, फलां जैसे हो जाओ।
क्यों हो जाएं? कोई व्यक्ति किसी दूसरे जैसा क्यों होना चाहे? क्या यह घातक नहीं है? और जब यह दूसरे जैसा होना चाहेगा तो क्या होगा? होगा यह, अपने को दबाएगा, दूसरे को ओढ़ेगा। महावीर को ओढ़ेगा, बुद्ध को ओढ़ेगा। किसी को ओढ़ेगा अपने ऊपर। अपने को दबाएगा। अपने से घृणा करेगा, दूसरे को प्रेम करेगा। अपने को मिटाएगा, दूसरे को लाएगा। वह अपना दुश्मन हो जाएगा। जो भी व्यक्ति किसी को आदर्श मानता है वह अपना शत्रु हो जाता है। और अपना शत्रु होने से द्वंद्व पैदा होगा। क्योंकि असलियत में, मैं तो मैं हूं। न मैं महावीर हूं, न मैं बुद्ध हूं, न हो सकता हूं। न होने की कोई जरूरत है। लेकिन जब मैं महावीर होना चाहूंगा तो मैं द्वंद्व में पड़ जाऊंगा। मेरे सामने दो चीजें हो जाएंगी- जो मैं हूं और जो महावीर हैं। उन जैसा होना है और अपने जैसा मिटना है। अपने को तोड़ना है, हटाना है, उनको लाना है। तब तक काल्पनिक आदर्श मेरे प्राण लेने लगेगा। मैं अपने साथ तोड़-फोड़ में लग जाऊंगा, आत्महिंसा में लग जाऊंगा। एक तरह की संघर्ष की और द्वंद्व की स्थिति पैदा होगी जिसमें अपने को मिटाना है, और अपने प्रति घृणा पैदा हो जाएगी, कंडेमनेशन पैदा हो जाएगा। मैं बुरा हूं और महावीर अच्छे हैं।
सवाल यह नहीं है कि कोई किसी दूसरे जैसा हो। सवाल यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को खोजें कि वह क्या है और क्या हो सकता है बिना किसी दूसरे को बीच में लिए। सवाल यह है कि वह अपनी निजता को खोजे अपनी इंडीवीजुलिटी को, और विकसित करे। कोई किसी दूसरे जैसा होने को पैदा नहीं हुआ है।
स्पार्टा में एक बादशाह हुआ। एक आदमी की खबर लायी गयी कि एक आदमी है; जो बुलबुल जैसा गाता है, बुलबुल जैसी जिसकी आवाज है। उसने कहा छोडो। मैं बुलबुलों को सुन चुका हूं। इस आदमी को यहां लाने की जरूरत नहीं है। लेकिन दरबारी नहीं माने। सारे स्पार्टा में उसकी इज्जत थी। उस आदमी को लोग सुनने जाते थे। यह दिन-रात बुलबुल की आवाज बोलते-बोलते धीरे-धीरे आदमी की आवाज बोलना भूल भी गया था। लेकिन जब लोग नहीं माने, उस आदमी को लाया गया। उसने आते ही बुलबुल की आवाज शुरू की। बादशाह ने कहा, बकवास बंद करो। आदमी को बुलबुल जैसा होना शोभा नहीं देता। तुम आदमी होने को पैदा हुए हो। यह तुमसे किसने कहा कि तुम बुलबुल हो जाओ? परमात्मा ने काफी बुलबुलें बनायी हैं, वे गीत गा रही हैं। और मैं बुलबुलों के गीत सुन चुका हूं। तुम तुम होने को पैदा हुए हो। तुम जाओ यहां से। और जिस दिन तुम अपनी भाषा बोलने लगो, जिस दिन तुम अपने व्यक्ति की भाषा और गीत को उपलब्ध हो जाओ, आना। मैं तुम्हारा स्वागत करूंगा।
जैसा इस स्पार्टा के बादशाह ने कहा था, परमात्मा भी यही आपसे कहेगा कि दूसरे की भाषा मत बोलो, बाहर निकलो। राम तो घुस सकते हैं, रामलीला के राम की कोई जरूरत नहीं है। यह ढोंग नहीं चलेगा। आप अपने जैसे होने को पैदा हुए हो, नहीं तो आपके होने की क्या जरूरत है? आपका अपना व्यक्तित्व है, अपनी चेतना है। उसको खोजिए। अपने व्यक्तित्व को खोजना धर्म है। दूसरे के व्यक्तित्व की नकल करना धर्म नहीं है। लेनिक ये सब नकलें प्रचलित हैं। और परंपरा सिखाती है कि किसी दूसरे जैसे हो जाओ। हमेशा सिखाती है। जब आप नहीं हो पाते तो क्या करेंगे?
महावीर नग्न घूमते हैं। आपसे कहा जाता है, आप भी नग्न हो जाओ। आप क्या करेंगे? जब महावीर जैसी चेतना आपकी नहीं हो पाती तो आप वस्त्र तो छोड़ ही सकते हैं। नग्न होना कोई कठिन बात है? थोड़े से अथ्यास की बात है। वस्त्र छोड़े जा सकते हैं। फिर वस्त्र छोड़कर आप नग्न हो जाएंगे। दूसरों को भ्रम होगा, आप भी महावीर हो गए। आपको भी भ्रम होगा, मैं भी महावीर हो गया। लेकिन नंगे होने से कोई महावीर होता है? महावीर के भीतर एक निर्दोष, इनोसेंस की स्थिति पैदा हुई। महावीर शांत होते-होते उस स्थिति में गए जहां चित्त पूरा इनोसेंट हो गया। इतना इनोसेंट, जैसे छोटे बच्चे का होता है। वस्त्र का बोध न रहा। महावीर ने वस्त्र छोड़े नहीं। वस्त्र का अर्थ न रहा। वस्त्र छूट गए। वह तो भीतर एक निर्दोषता की स्थिति आयी इसलिए वस्त्र छूट गया। आप क्या करेंगे? आप तो नग्न होना चाहते हैं। यह बच्चे के चित्त का लक्षण है जो नग्न होना चाहता है। उसके भीतर अंगों के छिपाने का बोध है। नहीं तो वह नग्न हो जाता। होना क्यों चाहता है? जहां इफर्ट है, वहां चित्त निर्दोष नहीं है। आप तो चेष्टा करेंगे, प्रयास करेंगे, कोशिश करेंगे।
मैं एक मित्र को जानता हूं। वे दिगंबर जैन साधु हैं। पहले ब्रह्मचारी थे। जंगलों में रहते थे। वहां मैं उनसे मिलने गया जिस झोपड़ें में थे, उसकी खिड़की से मैंने देखा, वे नग्न टहल रहे थे। तो तब तो वे कपड़े पहनते थे। मैंने सोचा, क्या हुआ, फिर नग्न कब हो गए? मैंने दरवाजे पर दस्तक दी। दरवाजा खुला तो वे चदर लपेटे हुए थे। मैंने उनसे कहा, आप अभी नग्न थे, आपने चादर लपेट ली? उन्होंने कहा, मैं अभ्यास कर रहा हूं नग्न होने का। अब इसके बाद मुझे मुनि की दीक्षा लेने की तैयारी है मुनि की दीक्षा लेने की तैयारी होती है, प्रिपरेशन होती है? जैसे कोई रंगरूट तैयार होते हैं मिलिट्री में, वैसी तैयारी है?
मुनि-दीक्षा की तैयारी कर रहा हूं। नग्न रहना होगा। अभी धीरे-धीरे अकेले में नग्न रहता हूं, फिर दो-चार मित्रों में नग्न रहूंगा, फिर थोड़ा गांव में निकलूंगा, फिर बड़े शहर में फिर धीरे-धीरे अभ्यास से, तो मैंने उनसे कहा कि सर्कस में भर्ती हो जाइए क्योंकि जो नग्नता चेष्टा से लायी जाए गी वह सर्कस का नंगा आदमी बनाती है, महावीर नहीं बनाती है। जो चेष्टा से लायी जाएगी वह सर्कस में ले जा सकती है। वह एक आरोपित, कल्टीवेटेड व्यक्तित्व होगा, झूठा व्यक्तित्व होगा। उसके भीतर कोई प्राण नहीं होंगे। वह इनोसेंस कहां से लाइएगा? नग्न होने से कोई इनोसेंट हो सकता है? हां, इनोसेंट होने से कोई नग्न जरूर हो सकता है। लेकिन वह बिल्कुल अलग बात है। बिल्कुल अलग बात है। बिल्कुल ही भिन्न बात है।
व्यक्तित्व भीतर से बाहर की तरफ आता है, स्मरण रखिए। बाहर से भीतर की तरफ नहीं आता। और जो चीज भी भीतर से बाहर की तरफ से लायी जाती है वह कारागृह बन जाती है, वह इंटरमेंट (दफनाया हुआ) होता है। और हमारे सब आदर्श बाहर से भीतर की तरफ ही जा सकते हैं। आदर्श कभी भीतर से बाहर की तरफ नहीं आ सकता, आदर्श हमेशा भीतर से बाहर की तरफ आएगा। बाहर हैं महावीर, बाहर हैं बुद्ध, बाहर हैं कृष्ण, उनको हम देखते हैं, उनसे प्रभावित होते हैं। प्रभावित होकर उन जैसे होने की कोशिश में लग जाते हैं। उनके जैसे कपड़े पहनते हैं, उनके जैसा खाना खाते हैं। वे जब उठते हैं तो उठते हैं, वे जब सोते हैं तो सोते हैं। वे जैसा करते हैं वैसा ही हम करते हैं। यह तो इडियाटिक माइंड का लक्षण है। यह जड़बुद्धि का लक्षण है। जो दूसरे की नकल करता है वह जड़बुद्धि है। उसके चेतना नहीं है। नकल करना- लेकिन आदर्श और क्या है? और जब यह नकल चलेगी, जो जितना जड़बुद्धि होगा वह उतनी जल्दी नकल में परिपक्व हो जाता है। सचेतन व्यक्ति द्रोह कर उठेगा। तब उसे लगेगा कि यह मैं क्या सोच रहा हूं अपने ऊपर? यह क्या मूर्खताएं मैं थोपे जा रहा हूं जिसका मेरे प्राणों से कोई संबंध नहीं? उन बातों को मैं कैसे अपने पर लादे जा रहा हूं?
एक मित्र मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे कहा कि मैं मांसाहारी हूं। शराब भी पीता हूं- बड़े वकील हैं- आपके पास आना चाहता था लेकिन यह सोचकर नहीं आया, शायद कहते होंगे कि पहले शराब छोड़ो, मांसाहार छोड़ो। मैंने कहा, वे कोई और नासमझ होंगे जो कहते हैं। आप गलती में थे, व्यर्थ आप रुके रहे। उन्होंने कहा, यही तो हुआ। कल एक मित्र ने कहा कि वे तो कुछ छोड़ने को नहीं कहते, इसलिए मैं हिम्मत करके आया हूं। मैंने उनसे कहा, मैं तो नहीं कहता कि आप मांसाहार छोड़ें। मैं तो नहीं कहता, आप शराब छोड़ो, क्योंकि यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि आप शराब क्यों पीते हैं? सवाल यह थोड़े ही है कि शराब आप छोड़ो, सवाल यह है कि आप शराब क्यों पीते हैं? चित्त अशांत होगा, दुखी होगा, खुद को भुलना चाहता होगा, इसलिए शराब पीते हैं। सवाल शराब का बिल्कुल नहीं है। सवाल उस चित्त का है, जो भूलना चाहता है। मैं उसके बाबत आपके कुछ चर्चा करूं कि चित्त क्यों आपने को भूलना चाहता है क्यों दुखी है, क्यों द्वंद्व में है? उनसे मैं बात करता था। धीरे-धीरे इन बातों को उन्होंने प्रयोग किया। दो-तीन महीने बाद में आए और उन्होंने मुझसे कहा, आपने मुझे धोखा दे दिया। शराब तो गयी। आपने मुझे धोखा दिया। आपने मुझे पहले क्यों नहीं कहा? शराब तो गयी। मैंने आपके शराब के बाबत कभी कुछ नहीं कहा। मैं तो मन की उस स्थिति के बाबत आपसे विचार करता था, जिसकी वजन से आदमी दुखी होता है और अपने को भूलना चाहता है। वह स्थिति चली गयी, शराब तो अपने-आप चली जाएगी।
लेकिन आदर्श क्या सिखाता है? आदर्श सिखाता है शराब मत पियो। आदर्श भर नहीं है। धर्म कहता है, शराब पीते हो तो पहचानो, क्यों पीते हो? खोजो कि द्वंद्व कहां है मन में, जिसे भूलना चाहते हो? कौन-सा एंग्झाइटी है जो बेहोश होने के लिए कहती है? उस एंग्झाइटी को समझो, उसको जाने दो। शराब तो उसके पीछे है, उस के साथ ही चली जाएगी।
जीवन में जो परिवर्तन है, वह आचरण से शुरू नहीं होता, वह अंतस से शुरू होता है। अंतस बदलता है, आचरण बदलता है। लेकिन जो लोग अंतस को बिना बदले आचरण को बदलने में लग जाते हैं उनके भीतर द्वंद्व पैदा हो जाता है। उनके भीतर कांफ्लिक्ट पैदा हो जाती है। वे दो आदमियों में बंट जाते हैं। एक आचरण वाला आदमी है- यही तो पाखंड है। पाखंड और क्या है? धोखा और क्या है? धोखा यह है कि मैं दो तरह के आदमी बन जाऊं। मेरा एक दरवाजा पीछे को, एक आगे को। एक तरफ का आदमी दिखाने के लिए, दूसरी तरह का आदमी जीने के लिए। तो फिर धोखा पैदा हो जाएगा। और वह धोखा, सारे तलों पर प्रविष्ट होता जाता है। धीरे-धीरे। आदर्श द्वंद्व पैदा करने के कारण बने। जरूरत है कि मनुष्य का मन आदर्श से मुक्त हो जाए। वह स्पष्ट स्मरण कर ले कि मैं आप जैसा होने को पैदा हुआ। मुझे खोजना है कि मैं कौन हूं, क्या हूं? मुझे खोजना है कि मैं क्या हो सकता हूं, मेरी क्या संभावना है? और वह दूसरे की नकल छोड़ दे। दूसरे की नकल में विचार करें, ईष्र्या है। दूसरे की नकल में कंपीटीशन है। आप कंपटीटिव हैं, ईष्र्यालु हैं। आप के भीतर जलन है। आप महावीर जैसे क्यों होना चाहते हैं? इसलिए कि महावीर आनंद में मालूम पड़ते हैं, शांति में मालूम पड़ते हैं। इसलिए मैं भी सांत्वना चाहता हूं, मैं भी आनंदित होना चाहता हूं। मैं भी माहवीर जैसा बनूंगा।
छोटे-छोटे बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं। लड़का होशियार है, वह पहले आता है। शिक्षक उससे कहते हैं, इस जैसे बनो। यह जो पहले आया है। तुम भी पहले आओ। प्रतियोगिता पैदा करता है, ईष्र्या पैदा करता है। दौड़ पैदा करता है, ईष्र्या का ज्वर पैदा करता है। उस ज्वर में बच्चे दौड़ते हैं। लेकिन बच्चे ही नहीं, बूढ़े भी ज्वर में दौड़ते रहते हैं। महावीर के पास शांति है तो हम भी महावीर जैसे हो जाएं। महावीर के पास शांति नहीं है, जिसके पास शांति है वह महावीर है। महावीर के पास शांति नहीं है, जिसके पास शांति है वह महावीर है। इसलिए महावीर जैसे होने की फिकर छोड़ दें। शांत हो सकते हैं, इसका विचार करें। जो दूसरे जैसा होना चाहेगा, वह तो हमेशा अशांत रहेगा। क्योंकि पूरे-पूरे अर्थों में कोई मनुष्य महावीर जैसा कोई नहीं हो सकता है। और जब नहीं हो पाएगा तो अशांति पैदा होगी। बेचैनी पैदा होगी, क्या करूं क्या न करूं! जीवन व्यर्थ जाता मालूम होगा।
मैं साधुओं को मिलता हूं। साधु दुनिया में सर्वाधिक नकल पसंद लोग हैं। सबसे ज्यादा ट्रू कापी बनने की चेष्टा में संलग्न रहते हैं। सबसे ज्यादा बुद्धि की जड़ता वहां प्रविष्ट हुई है। उनसे मैं निरंतर मिलता हूं, उनसे मैं पूछता हूं, चित्त शांत है? वे कहते हैं, चित शांत नहीं है। चित्त शांत होगा कैसे? जो आदमी दूसरे जैसा होने की कोशिश में लगा है वह कैसे शांत होगा? शांत होता है व्यक्ति, जब उसके खुद के व्यक्तित्व की सारी संभावनाएं वास्तविक बन जाती है। जब उसके भीतर के सारे बीज वृक्ष बन जाते हैं और उसमें फूल लग जाते हैं तो शांति आती है, आनंद आता है। लेकिन एक आम का वृक्ष है, गुलाब का वृक्ष बनने में लग जाए, एक गुलाब का वृक्ष चमेली का पौधा बनने में लग जाए, एक चमेली का पौधा जुही का पौधा होने में लग जाए तो पौधों की दुनिया में कितनी अशांति नहीं व्यापत हो जाएगी! और क्या होगा? होगा यह कि गुलाब का पौधा तो चमेली बन नहीं सकता- नहीं बन सकता। लेकिन हां, अगर चमेली बनने की दौड़ में पड़ जाए तो यह हो सकता है कि गुलाब न बन पाए, यह हो सकता है। यह हो सकता है कि दौड़ उसे गुलाब तो न होने दे, चमेली तो वह कभी न हो सकेगा।
व्यक्ति स्वयं को छोड़कर अन्य कभी नहीं हो सकता। हां, यह हो सकता है, अन्य होने की कोशिश में वह स्वयं होने से वंचित हो जाए। हम सारे लोग स्वयं होने से वंचित हो गए हैं। हमने अपनी आत्मा खो दी है आदर्शों के कारण, अनुसरण के कारण। यह फालोइंग जो है, जहर है। किसी मनुष्य का किसी दूसरे का अनुयायी होना अनुगमन करना, किसी के पीछे चलना, किसी के जैसे होने की कोशिश करना, इसने सारे मनुष्य को, सारी दुनिया के मनुष्य को पतित किया है। जड़ग्रस्त किया है, इसने रोगग्रस्त कर दिया है। हम सब भी उस रोग से भरे हुए हैं। आप शांत नहीं हो सकते, निद्र्वंद्व नहीं हो सकते जब तक आदर्श आपसे हट न जाए। हटा लें आदर्श को, हटायें सबको। वह कितने ही बड़े महापुरुष हों, उनके महापुरुष होने से इससे बाधा नहीं पड़ती।
मैं उनको विरोध नहीं कर रहा हूं, आपकी फलोइंग का विरोध कर रहा हूं। महावीर का विरोध नहीं कर रहा, बुद्ध का विरोध नहीं कर रहा हूं, क्राइस्ट का विरोध नहीं कर रहा। मैं तो उन्हीं की बात कह रहा हूं। आपका विरोध कर रहा हूं, आप उनके पीछे न जाए। कृपा कर कोई किसी के पीछे न जाए। सबको अपने भीतर जाना है, किसी के पीछे नहीं जाना है। जो किसी के पीछे जाता है, आपने भीतर नहीं जा सकता है। कैसे जाएगा? किसी के पीछे जाने के लिए बाहर जाना पड़ता है और भीतर जाने के लिए बाहर की सब दौड़ छोड़नी पड़ती है। ये सब बाहर की दौड़ें हैं। यह आइडियालिज्म जो है, आदर्शवाद जो है, यह बाहर ले जाता है। दूसरा तत्व है, यह आदर्श- यह आत्मघाती होता है।
तीसरा तत्व है उधार ज्ञान। और तीसरे तत्व की और चर्चा करूं- उधार ज्ञान। आप क्या जानते हैं? अगर आपसे पूछा जाए, पुनर्जनम है? तो आप कहेंगे, है। या कोई कहेगा, नहीं है। क्या आप जानते हैं? आपसे पूछा जाए, आत्मा है? कोई कहेगा, है, कोई कहेगा, नहीं है। क्या आप जानते हैं? क्या सच में आप जानते हैं कि आत्मा है? या कि आपने सुनी हुई बातों को, उधार बातों को इकट्ठा कर लिया है? एकमुलेट कर लिया है और उसी के ऊपर ज्ञानी बन बैठे हैं। यह ज्ञान, अगर इस भांति इकट्ठा किया हुआ ज्ञान आपके ऊपर भारी पड़ जाएगा, भार बन जाएगा, सिर पर पत्थर की भांति बैठे जाएगा। फिर यह आपको खोजने नहीं देगा, सचाइयों को नहीं जानने देगा। सच तो यह है कि मनुष्य कुछ भी नहीं जानता है। कुछ भी नहीं जानता है। इस कुछ नहीं में मेरा मतलब यह नहीं है कि इंजीनियरिंग नहीं जानता है या दुकान का काम नहीं जानता है। कुछ भी नहीं जानने से मेरा मतलब है कि सत्य के संबंध में कुछ भी नहीं जानता। सत्य बिल्कुल अननोन है, अज्ञात है। आप कुछ भी नहीं जानते। और जो आप समझते हैं, जानते हैं, वह जाना हुआ नहीं है, सुना हुआ है। किताबों से पढ़ा हुआ है। वह ज्ञान नहीं है, इनफर्मेशन है, जानकारी है, सूचना है। वह सूचना को जो जान समझ लेता है वह कष्ट में पड़ जाता है। वह पत्थर को हीरे समझ लिया, वह पीतल को सोना समझ लिया है। जो ज्ञान स्वयं की अनुभूति से उत्पन्न होता है उसके अतिरिक्त सब ज्ञान बंधन है। जो ज्ञान स्वयं की अनुभूति से आता है, उसके अतिरिक्त सब ज्ञान बंधन है और सब पत्थर की भांति सिर पर बैठ जाता है। उस भार के नीचे फिर यात्रा नहीं हो पाती। क्योंकि यात्रा समाप्त हो गयी। जब हम स्वीकार कर लेते हैं, आत्मा है, तो खोज बंद हो जाती है। जब एक आदमी स्वीकार कर लेता है, आत्मा नहीं है तो भी खोज बंद हो जाती है।
खोज कब होती है? खोज तब होती है जहां न स्वीकृति हो, न अस्वीकृति हो। न किसी बात को स्वीकार करने की तैयारी हो, न अस्वीकार करने की तैयारी हो। बीच में आदमी ठहरे तो खोज शुरू होती है। उस बीच की स्थिति में ज्ञान का जन्म हो सकता है। वह बीच की स्थिति है अज्ञान का बोध। होना चाहिए अज्ञान को बोध। ज्ञान का भार नहीं। और सब ज्ञान सिखाया हुआ है। सब ज्ञान सिखाया हुआ है। सब ज्ञान लर्निंग है हमारी। सीख लिया है बचपन से, सीखते जा रहे हैं, रोज-रोज। उसी को दोहराए चले जाते हैं। कम्यूनिस्ट मुल्क होता है तो वे सिखाते हैं? ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है। बच्चे वही सीख लेते हैं। बौद्ध मुल्क होता है जो वे सिखाते हैं, वे सीख लेते हैं। हिंदू मुल्क है, वे जो सिखाते है, वह सीख लेते हैं। जैन मुल्क है तो जो वे सिखाते हैं, वह सीख लेते हैं। ये सब सीखे हुए लोग हैं। यह सिखावट खतरनाक है, क्योंकि सिखावट आपको रोकेगी और आगे नहीं जाने देगी। आगे जाने के लिए सच में जाने के लिए सारे सीखे हुऐ भार को अलग कर देना होगा। निर्भार हो जाना जरूरी है। चित्त जितना निर्भार होग, जितना वेटलेस होग उतना ऊध्र्वगामी होता है। चित्त जितना भारग्रसत होता है उतना नीचे दब जाता है।
एक बार ऐसा हुआ, पहाड़ पर एक मंदिर था। स्वर्ण का मंदिर था, महुमूल्य हीरे-ज्वाहरात और खजाने उस मंदिर के पास थे। उसका वृद्ध पुजारी मरने को हुआ। उस ने नीचे मैदान में खबर भिजवायी कि नए पुजारी को चुनना है। जो व्यक्ति सर्वाधिक शक्तिशाली होगा- वह शक्ति का मंदिर था- जो व्यक्ति सर्वाधिक शक्तिशाली होगा उसकी नियुक्ति हो जाएगी। कौन सर्वाधिक शक्तिशाली है? तो पुजारी ने खबर करवायी, निश्चित तिथि पर, जो लोग अपने को शक्तिशाली समझते हों वे पहाड़ की चढ़ाइ शुरू करें। जो व्यक्ति सबसे पहले चढ़ाई पर ऊपर पहुंच जाएगा वही पुजारी हो जाएगा। उस राज्य में दूसरे-दूसरे तक जहां-जहां तक खबर हो सकती, सैकड़ों लोगों के मन में उत्कंठा हुई। उतना बड़ा मंदिर स्वर्ण का मंदिर, अरबों-खरबों की संपत्ति का मालिक था मंदिर उसका पुजारी ही सब कुछ था। कौन नहीं होना चाहेगा? जितने भी शक्तिशाली युवा थे, जिनके मन में भी आकांक्षा थी, एमबीशन थी, वे सारे लोग इकट्ठे हो गए। कोई दो सौ जवान जो अपनी-अपनी तरह सब तरह के शक्तिशाली थे, निश्चित तिथि पर उस पहाड़ पर चढ़ने लगे तो हर जवान ने एक बड़ा पत्थार अपने-अपने कंधे पर ले लिया। वह उनके पौरुष का प्रतीक कि कौन कितने बड़े पत्थर को लेकर चढ़ा सकता है। जो जितना शक्तिशाली था उसने उतना ही बड़ा पत्थर अपने कंधे पर ले लिया। पहाड़ की चढ़ाई थी दुरूह, पत्थर थे भारी, उनके प्राण घुटे जाते थे लेकिन अहंकार सब कष्ट सहने को तैयार हो जाता है। अहंकार बड़ा तपस्वी, बड़ी तपश्चर्या है अहंकार की। वह राजी था। पत्थरों के नीचे दबे जाते थे। वे भूखे-प्यासे .... एक सप्ताह की चढ़ाई की। पत्थरों को घसीटने, रोकने की भी फुर्सत न थी, खाने-पीने की भी फुर्सत न थी, क्योंकि कौन पहले पहुंच जाए! कुछ तो उन पत्थरों के नीचे डूब गए और मर गए, लेकिन पत्थर उन्होंने नहीं छोड़े। मरते दम तक वे पत्थर अपने सिर पर रखे हुए थे। वे उनके पौरुष के प्रतीक थे, वे चिन्ह थे उनकी शक्ति के। कुछ खड्डों में गिर गए, कुछ बीमार पड़ गए, किसी के हाथ-पैर टूट गए गिरने से। लेकिन लोग बढ़े जाते थे। किसको फुर्सत थी, जो गिर गया था उसे देखने की। जो गिर गया, वह गया। हम आगे बढ़े चले जाते हैं। सब पहाड़ पर चढ़े चले जाते हैं और अपना-अपना पत्थर लिए हुए हैं।
लेकिन आखिरी दिन, साततां दिन करीब आ गया, सांझ होने लगी। वे लोग करीब- करीब पहुंचने को हैं। तभी उन्होंने देखा, बड़ी हैरानी की बात है, जो सबसे पीछे रह गया वह आदमी एकदम आगे निकला जा रहा है। दुबला-पतला, कमजोर आदमी- वह सबसे पीछे था, वह एकदम आगे निकला जा रहा है। सब हैरान हो गए, लेकिन सब हंसने लगे। उन्होंने सोचा, इस पागल के पहुंचने का प्रयोजन भी क्या? उसने पत्थर फेंक दिया था, बिना पत्थर भागा जा रहा था। अब बिना पत्थर के तो किसी की भी गति गढ़ जाएगी। उन्होंने उससे कहा भी कि तुम नासमझ हो। तुम कहां भागे जाते हो? आखिर तुम्हारे पहुंचने का फायदा भी क्या? तुम पहुंच भी गए तो तुमहें कौन मानेगा? पौरुष का प्रतीक कहां है? लेकिन उसने तो सुना नहीं, वह भागे चला गया। वे सब हंसते रहे कि पागल है, नासमझ है। इसके पहुंचने से कोई फल भी नहीं होने वाला है। लेकिन जब सांझ को वे वहां पहुंचे और सारे पर्वतारोहियों की सभा हुई और उस पुजारी ने घोषणा की कि वह युवक ही सबसे पहले आ गया है और उसको मैंने पुजारी बना दिया तो सब चिल्लाए कि कैसा अन्याय है, कैसा अंधेर है! उस पूजारी ने कहा, अंधेर भी नहीं है, अन्याय भी नहीं है। परमात्मा के पुजारी होने का हक केवल उन्हीं को है जो अपने अहंकार के भार को छोड़ देते हैं। इस युवक ने अदभुत साहस का परिचय दिया है। तुम सब भारग्रस्त लोगों के बीच यह अपने भार को फेंक सका, निर्बल हो सका, अपने पौरुष-प्रतीक से छुटकारा पा सका, अपने अहंकार के भार से मुक्त हो सका, निर्भार होकर गति कर सका। यह अदभुत साहस की बात है। यह सर्वाधिक बली है और इसलिए हमने इसे पुजारी का पद दिया हैं।
यह तो कथा, प्रतीक कथा है, लेकिन जीवन में भी यही सत्य है। जो लोग भी सत्य की और परमात्मा की यात्रा में हैं वे स्मरण रखें कि जो भार उन्होंने अपने ऊपर ले रखे हैं वे सब उनको रोक रहे हैं। और ज्ञान का भार सबसे बड़ा भार है। ज्ञान का भार सबसे बड़ा भार है। क्योंकि ज्ञान का बोझ सबसे बड़ा अहंकार है। यह आप क्यों कहते हैं कि ईश्वर है? क्यों कहते हैं कि आत्मा है? क्योंकि इस भांति कहने से आप ज्ञानी मालूम पड़ते हैं। हालांकि आपको पता कुछ भी नहीं है कि आत्मा है या ईश्वर। कुछ भी पता नहीं है। लेकिन इस भांति कहने से आपके अहंकार की तृप्ति होती है कि मैं भी जानता हूं। मैं भी जानता हूं। मैं कोई अज्ञानी नहीं हूं। इसलिए अगर कोई आपकी बात का खंडन करे तो आप तलवार निकाल लेते हैं, क्योंकि आपकी बात का खंडन नहीं है, आपके अहंकार का खंडन हो जाता है।
यह दुनिया भर के धर्म लड़ते हैं, पंडित लड़ते हैं, सुबह मुझसे कोई कह रहा था कि दुनिया में महात्मा और पंडित इकट्ठे होकर क्यों नहीं बैठे सकते हैं? वे कभी नहीं बैठ सकते हैं। कैसे बैठ सकते हैं? अब अपनी तलवारें खींच लेंगे क्योंकि सबका ज्ञान, सबका अहंकार है। और जहां अहंकार है वहां मिलना कैसे हो सकेगा? दुनिया में बुरे लोग मिलते रहे, भले लोग नहीं मिल सके। दुनिया में पापी मिलते रहे हैं, पुण्यात्मा नहीं मिल सके। दुनिया में महात्मा इकट्ठे हो सकते हैं, साधु-संन्यासी इकट्ठे नहीं हो सकते हैं। कैसे होंगे? अहंकार सबसे बड़ी तोड़ने वाली चीजें है और अहंकार वहां सबसे ज्यादा गहरा है, सबसे ज्यादा प्रगाढ़ है। दो पंडित नहीं बैठ सकते। असंभव है। जो कुत्तों की आदत है, वह पंडितों की भी आदत है। दो कुत्ते भी साथ नहीं बैठ सकते हैं, दो पंडित भी साथ नहीं बैठे सकते। नहीं बैठ, सकते इसलिए कि वह अहंकार गुर्राता है। अहंकार दूसरे को बर्दांत नहीं करता। यह ज्ञान का जितना हम बोझ इकट्ठे किए हुए हैं, यह हमारे अहंकार की खुराक है।
स्मरण करें, देखें अपने भीतर, जो मैं कह रहा हूं, वह कोई आपको किसी फिलोसफी में या किसी संप्रदाय में भर्ती करने की कोशिश नहीं। कह मैं यह रहा हूं, अपने मन को देखें, आप कुछ जानते हैं? अगर नहीं जानते तो कृपा करें और अपने व्यर्थ के अहंकार का पोषण न करें कि मैं जानता हूं, ईश्वर है। मैं जानता हूं, आत्मा है। मैं जानता हूं, लोक है, परलोक हैं- छोड़ें- अच्छा है, उस अज्ञान को जानें। जानें कि मैं नहीं जानता हूं। और जो व्यक्ति इस स्थिति में हो जाता है कि मैं नहीं जानता हूं वह निर्भार हो जाता है। और निर्भार होते ही उसकी गति शुरू हो जाती है। जो व्यक्ति इस स्थिति में हो जाता है कि सतत इस बोध में कि मैं नहीं जानता, वह अदभुत सरलता को उपलब्ध हो जाता है, उसमें ह्यूमिलिटी पैदा होती है, उसमें बोध पैदा होता है अपने अज्ञान का और वह सरल होता है, सहज होता है। उसके सारे झगड़े विलीन हो जाते हैं। और जब चित्त सरल होता है, भार शून्य होता है तो ऊध्र्वगामी होता है।
ये तीन बातें मैंने आपसे कहीं, इन तीन बातों पर थोड़ा विचार करना। इन तीनों बातों ने हमें द्वंद्वग्रस्त किया है। इन तीन बातों ने हमारे मन को कांफ्लिक्ट से भर दिया है। इन तीन बातों ने हमारे चित्त को खंड-खंड कर दिया है। इन तीन बातों ने हमारे मन की एकता को तोड़ दिया है। इन तीन बातों ने मन को भारी कर दिया है और वह पत्थर की भांति हो गया, है, पक्षी की भांति नहीं, कि वह यात्रा कर सके। आकाश में उड़ सके, ऐसी उसकी स्थिति नहीं। पत्थर की भांति है, नीचे पड़ा है। और हम उस पर रोज भार लादते रहे हैं, रोज भार लादते जाते हैं। कोई गीता पढ़ रहा है, कोई कुरान पढ़ रहा है, कोई बाइबिल पढ़ रहा है और याद कर रहा है, कंठस्थ कर रहा है, और भरता जा रहा है, भरता जा रहा है। जब शास्त्र बहुत हो जाते हैं तो सत्य के आने की कोई संभावना नहीं रह जाती। जब ज्ञान का भार बहुत हो जाता है तो फिर ज्ञान के जन्म की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती, ज्ञान उस हृदय में पैदा होता है जो सब भांति, सब भांति ज्ञान से मुक्त हो जाते हैं। ज्ञान उन मनों में पैदा होता है जो सब भांति अहंकार से शून्य और रिक्त हो जाते हैं। ज्ञान उन मनों में पैदा होता है जो परंपरा से, अनुकरण से किसी से पीछा छुड़ा लेते हैं, अपने को छुड़ा लेते हैं। इस विद्रोह की स्थिति में, इस क्रांति की स्थिति में ज्ञान पैदा होता है।
ये तीन तत्व मैंने कहे, इन तीन तत्वों को जो ठीक से समझेगा और जिसके जीवन में धीरे-धीरे इन तीन तत्वों की अभिव्यक्ति होगी, वह इस क्रांति से गुजर जाएगा। उसके जीवन में एक रिव्योलूशन हो जाएगी। रिव्योलूशन का नाम धर्म है, उसी क्रांति का नाम धर्म है। धर्म जगत में सबसे बड़ी अग्नि है। उससे बड़ी कोई अग्नि नहीं है। लेकिन इस अग्नि से गुजरने के लिए, इस क्रांति से गुजरने के लिए कुछ बातें विचारणीय हैं। अपने जीवन में, अपने मन में उन बातों को समझ लेना जरूरी है। उन्होंने समझें, देखें, पहचानें और उनकी पहचान ही धीरे-धीरे आपको भीतर एक नए वयक्ति को जन्म दे देगी। आपका पुराना व्यक्तित्व जाएगा। वह जाना चाहिए। आपका पुराना व्यक्त्त्वि दुनिया में बहुत कष्ट पैदा कर रहा है। वह जाना चाहिए। वह सड़ी-गली, पूरी संस्कृति जानी चाहिए जो हमने पैदा की है। यह आदर्श के अनुकूल, परंपरा के अनुकूल, अनुकरण के आधार पर जो खड़ी हुई संस्कृति है, वह जानी चाहिए। उसने कोई सुख नहीं दिया, उसने मनुष्य के जीवन में केई सत्य नहीं लाया, मनुष्य के जीवन में कोई शांति नहीं लायी। एक अभिनव संकृति का जन्म निश्चित होना चाहिए तो ही मनुष्य शांति को, आनंद को उपलब्ध हो सकता है। और उस संस्कृति के जन्म कि लिए प्रत्येक को क्रांति से गुजरना जरूरी है।
उस क्रांति की तीन बातें मैंने आपसे कहीं, ये तो निशेधात्मक थीं, ये तो डिस्ट्रेक्टिव थीं। स्मरण रखें, जिन व्यक्ति को भी नयी दुनिया बनानी है उसे पुरानी दुनिया को मिटाने के लिए राजी होना पड़ता है। जिस व्यक्ति को भी स्वयं को नया करना है, उसे अपने पुराने के मर जाने की सुविधा जुटानी पड़ती है। इसके पहले कि नए भवन खड़े हों, पुराने भवन गिरा देने जरूरी हैं। इसके पहले कि नए का जन्म हो, पुराने का विनाश आवश्यक है। पुराने की राख पर ही नये के अंकुर अंकुरित होते हैं।
तो मैंने विनाश की थोड़ी-सी बातें आपसे कहीं। की थोड़ी-सी कहूंगा बात आपसे क्रिएटिव हो पाता है, विनाशात्मक रूप से रचनात्मक हो पाता है वही व्यक्ति सत्य को और शांति को आनंद को उपलब्ध हो सकता है। परमात्मा करे, ऐसी क्रांति सबके भीतर हो।
इन बातों को इतने प्रेम से सुना है उससे बहुत आनंदित हूं।
अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
फर्गुसन कालेज, पूना, दिनांक 15 सितम्बर, 1966, सुबह

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