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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(गुरु है शमा, शिष्य परवाना)

प्रश्न-सार

01-॰ गुरु तो सदैव मुमुक्षु की आध्यात्मिक स्थिति जान सकते हैं, परंतु मुमुक्षु कैसे जाने कि गुरु सत्य को उपलब्ध है अथवा नहीं?
02-और क्या शिष्य दूसरे गुरु के पास जा सकता है?
03-॰ तेरे द्वार खड़ी भगवान,
 04-ओशो भर दे रे झोली!
05-॰ कृष्ण का नाम ही सुना है, शिव को जाना भी नहीं, किंतु कुंडलिनी ध्यान में ऐसा क्यों लगा कि यहीं शिव का नृत्य हो रहा है और यहीं की मधुर आवाज कृष्ण की बांसुरी की आवाज है?


पहला प्रश्न : गुरु तो सदैव मुमुक्षु की आध्यात्मिक स्थिति जान सकते हैं, परंतु मुमुक्षु कैसे जाने कि गुरु को उपलब्ध है, अथवा नहीं? और यदि शिष्य को कभी ऐसा महसूस होने लगे कि चुनाव में बाजी हार गया है, तो क्या वह दूसरे गुरु के पास जा सकता है?
कृपया अपनी मान्यता स्पष्ट करें।

श्रीराम शर्मा! गुरु चुना नहीं जाता। और जो चुनेगा, वह चुनने में ही चूक गया। तुम गुरु चुनोगे, तुम चुनोगे न! तुम गलत हो, तुम्हारा चुनाव भी गलत होगा। तुम कहां से आंखें लाओगे देखने वाली? तुम्हारे पास कसौटी क्या है? तुम्हारी बुद्धि जो भी सोच सकती है, विचार कर सकती है, वह तुमसे पार का नहीं होगा। तुमसे ऊंचा नहीं होगा। तुम्हारे हाथ तुम्हारे ही हाथ हैं। इसलिए तुम जो भी पकड़ोगे, जो भी चुनोगे, वह तुम्हारी बुद्धि की सीमा के भीतर होगा। और जो तुम्हारी बुद्धि की सीमा के भीतर है, उसमें तुम बुद्धि के पार न जा सकोगे। तुम्हारे चुनाव में तुमने स्वयं को ही फिर चुन लिया। तुमने चुना, वहीं भूल हो गई तुम सोचते हो कि भूल बाद में पता चलेगी, भूल प्रथम ही हो जाती है। पहले कदम पर ही असली सवाल है। गुरु चुना नहीं जाता।
गुरु का चुनाव चुनाव नहीं है, प्रेम जैसी घटना है--हो जाता है। और अकसर तो तुम्हारी बुद्धि के बावजूद होता है। तुम्हारी बुद्धि कहती रहती हैः नहीं, नहीं; इनकार करती रहती है और तुम्हारा हृदय कदम बढ़ा लेता है और छलांग लगा लेता है। गुरु का संबंध हृदय का संबंध है, बुद्धि और विचार का नहीं। तर्क का नहीं, भाव का। तुम्हारा प्रश्न तो विचार का है।
तुम पूछते होः ‘गुरु तो सदैव मुमुक्षु की आध्यात्मिक स्थिति जान सकते हैं, परंतु मुमुक्षु कैसे जाने कि गुरु सत्य को उपलब्ध हुआ है या नहीं?’
कोई उपाय ही नहीं है जानने का। न कभी था, न कभी होगा। अंधा कैसे जानेगा कि दूसरा आदमी जो सामने खड़ा है, उसके पास आंख है या नहीं? सोया आदमी कैसे जानेगा कि जो पास बैठा है, वह जागा है या नहीं? कोई उपाय नहीं है! लेकिन, बुद्धि के बावजूद कभी-कभी भाव की तरंग पकड़ लेती है और तुम्हें बहा ले जाती है। गुरु से संबंध एक तरह का पागल संबंध है। विचार का नहीं, हिसाब का नहीं, गणित का नहीं।
इसलिए जो गुरु को पकड़ लेते हैं, लोग उन्हें दीवाना ही समझते हैं, सदा से दीवाना समझते हैं। वे दीवाने हैं। यह वैसा ही संबंध है जैसा प्रेम का। एक स्त्री को तुमने देखा, या एक पुरुष को देखा और तुम्हें प्रेम हो गया। तुम कैसे जानोगे, क्या उपाय है बुद्धि के पास कि जिससे तुम्हारा प्रेम हुआ है, यही वास्तविक प्रेम का पात्र है? जिस स्त्री के तुम प्रेम में पड़ गए हो, यह तुम्हारी ठीक-ठीक पत्नी सिद्ध हो सकेगी? तुम्हारे बच्चों की ठीक-ठीक मां बन सकेगी? सम्यक गृहिणी हो सकेगी, तुम्हारा घर सम्हाल सकेगी? तुम्हें सुख-दुख में साथ दे सकेगी? क्या उपाय है जानने का? लेकिन प्रेम जानना ही नहीं चाहता। प्रेम कहता हैः न हो सकेगी ठीक पत्नी तो भी ठीक, न हो सकेगी बच्चों की मां ठीक तो भी ठीक, न सम्हाल सकेगी घर-गृहस्थी तो भी ठीक। प्रेम अंधा है--बुद्धि के हिसाब से। क्योंकि जो आंखें बुद्धि की हैं, वे आंखें हृदय की नहीं; हृदय के पास और ही आंखें हैं। हृदय के पास अपने ढंग हैं। तर्कसरणी से हृदय नहीं चलता है। हृदय छलांग भरता है, गणित नहीं बिठाता है। एक अनुभूति होती है, एक स्फुरणा होती है।
ऐसा ही गुरु का संबंध है।
मुमुक्षु को स्फुरणा होती है। अचानक हृदय को कोई मथ जाता है। अचानक बुद्धि से गहराई में कहीं कोई किरण प्रविष्ट हो जाती है, रोमांच हो जाता है! तुम चौंकते हो, तुम चुनते नहीं। जब गुरु चुना जाता है, तुम चुनते नहीं, चौंकते हो, यह क्या हो रहा है? तुम विवश हो जाते हो, अवश हो जाते हो। खिंचे चले जाते हो। रोकना चाहो तो रोक नहीं सकते। जाना चाहो तो जाना झूठ होगा। कोई अज्ञात शक्ति तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती है।
अगर तुम ठीक से समझना चाहो, तो शिष्य गुरु को नहीं चुनता, गुरु शिष्य को चुनता है। गुरु पहले चुन लेता है, तभी तुम्हारे हृदय में तरंग उठती है, स्फुरणा होती है। गुरु तुम्हें घेर लेता है। तुम्हारे भागने के सब उपाय बंद कर देता है। तुम्हारे सारे सेतु जिनसे तुम होकर आए हो, तोड़ देता है। तुम्हारी सारी सीढ़ियां जिनसे तुम चढ़ कर आए हो, गिरा देता है। तुम्हारे सारे तर्कजाल छिन्न-भिन्न कर देता है। गुरु तुम्हारे भीतर एक शराब उड़ेल देता है। उस शराब के नशे में तुम डूब जाते हो।
गुरु को कोई कभी चुनता नहीं। कभी किसी ने चुना नहीं। और जिन्होंने चुना है, उनसे पहले ही चूक हो गई। चुनने में तो सदा ही संदेह रहेगा। चुनाव कभी समग्र नहीं हो सकता। सोचोगे तुम, इसको चुनें, उसको चुनें? तुलना करोगे, यह ठीक कि वह ठीक? हिसाब लगाओगे, किसके पास ज्यादा लाभ? किसके पास कितनी हानि? किसके पास कितना दांव पर लगाना पड़ेगा? और किसके पास सस्ते में काम निपट जाएगा?
तुमने अध्यात्म को बाजार समझा है! जैसे कोई सामान खरीदता है कि क्या खरीदें, क्या छोड़ दें? तुलना करता है, विचार करता है, दाम के हिसाब लगाता है, मजबूती देखता है। आदमी तो दो पैसे का घड़ा भी खरीदता है तो ठोंक-पीट कर खरीदता है; बजा लेता है कि फूटा तो नहीं है, छिद्र तो नहीं है? और यहां जिंदगी दांव पर लगाने चले हो। तो गणित तो कहेगा, मन तो कहेगा कि ठोंक-पीट लो, ठीक से जांच-परख कर लो। मगर तुम्हारी जांच-परख तुम्हारी ही जांच-परख होगी न! यह तुमसे पार कैसे ले जाएगी? तुम्हें तुमसे ऊपर कैसे उठाएगी? तुम्हें तुमसे मुक्ति कैसे दिलाएगी? मुक्ति और क्या है? मुमुक्षु का अर्थ जानते हो? जो मुक्ति के लिए आकांक्षी है--मुमुक्षु--जो मोक्ष का आकांक्षी है, जो परम स्वतंत्रता चाहता है। लेकिन तुम्हारा चित्त ही तो तुम्हारा कारागृह है। तुम इसी चित्त से चुनने चले हो? इसी चित्त ने कारागृह बनाया है, इसीसे तुम मुक्ति का आकाश खोलने चले हो--इन्हीं सींकचों से, इन्हीं दीवालों से? इन्हीं दीवालों ने तुम्हें घेरा है, बंधन में डाला है।
नहीं, तुम्हारे भीतर से कोई मार्ग नहीं है। मार्ग तुम्हें पकड़ ले तो कोई उपाय है। इसलिए मुमुक्षु इतना ही कर सकता है--खुला हो, ग्राहक हो, ग्रहणशील हो। अगर कोई पकड़े, कोई ऊर्जा आए, तो द्वार-दरवाजे बंद न कर ले, बस, इतना ही। इससे ज्यादा कुछ तुम्हारे हाथ में नहीं है। जैसे तुम यहां मेरे पास बैठे हो, चुनूंगा तो मैं, तुम मुझे नहीं चुन सकते। श्रीराम सोचते हों कि वे मुझे चुनें, तो गलती में हैं। और तुमने चुना तो चूक वहीं हो ही गई। पहले ही चूक हो गई। अब आगे चूक का विचार मत करो। भूल तो हो ही गई। और मैं यह कह रहा हूं कि तुमने अगर ठीक गुरु को भी चुना तो भी गलती हो गई।
मेरी बात को खूब ख्याल में ले लेना, मैं यह कह ही नहीं रहा हूं कि तुमने चुना तो गलत गुरु को चुन लिया, तुमने हो सकता है भूल-चूक से ठीक ही गुरु चुन लिया हो; तुम संयोगवशात कबीर, नानक, या बुद्ध, या महावीर के पास पहुंच गए होओ और तुमने ठीक गुरु चुन लिया हो; लेकिन गुरु के ठीक होने से कुछ भी नहीं होता, तुम ही गलत हो, तुम्हारे चुनाव में गलती हो रही है। तुमने अगर बुद्ध के भी चरण पकड़े, तो तुम्हारे ही द्वारा पकड़े गए चरण बुद्ध के नहीं रह जाएंगे, तुम्हारी बुद्धि के ही रह जाएंगे। तुमने अपनी धारणा ही देख ली होगी बुद्ध में। तुम्हारी किसी धारणा को तृप्ति मिल गई होगी। तुम्हारे किसी पक्षपात को सहारा मिल गया होगा। तुम सोच कर आए थे कि बुद्धपुरुष ऐसा होना चाहिए, और बुद्धपुरुष संयोगवशात वैसे ही चुन लिया। तुमने चुना कुछ भी नहीं है, तुमने अपने को ही चुना है। तुमने अपनी ही छाया देखी है, उसको चुना है। क्योंकि तुम्हारी अपनी ही अपेक्षा की पूर्ति हुई। अगर बुद्धपुरुष जरा भी भिन्न होते तुम्हारी अपेक्षा और धारणा से तो तुम नहीं चुन सकते थे--जरा भी भिन्न होते! छुद्र सी भिन्नता और तुम्हारा चुनाव असंभव हो जाता है।
अगर तुमने मान रखा है कि परम प्रज्ञा की स्थिति में व्यक्ति नग्न होगा, और बुद्ध नग्न नहीं हैं, तो तुम नहीं चुन पाओगे। तुम चले जाओगे। तुम कहोगे, अभी थोड़ी देर है। अभी उपलब्धि पूरी नहीं हुई, वीतरागता पूरी नहीं हुई। अभी राग कुछ बाकी होगा। अभी वस्त्र अटके रह गए हैं। अभी महावीर जैसे नहीं हैं। तुम अगर जैन-धारणा के अनुसार बुद्ध के पास गए तो कठिनाई हो जाएगी।
अगर तुम बौद्ध-धारणा के अनुसार कृष्ण के पास गए, तो कठिनाई हो जाएगी। क्योंकि तुम देखोगे कृष्ण को तो लगेगा यह सब राग ही राग है, वीतरागता कहां? बुद्ध ने तो कहा हैः भिक्षु स्त्री को देखे न! अगर देखना पड़ ही जाए तो छुए न। अगर छूना ही पड़ जाए तो होश सम्हाल कर रखे, होश न चूक जाए। तो जिसने यह वचन सुना है, वह अगर कृष्ण को देखेगा, रास करते, गोपियों के साथ नाचते, राधा के हाथ में हाथ डाले, दया-भाव से भर जाएगा कृष्ण के प्रति कि बेचारा, यह तो खुद ही भटका है! यह क्यों मुक्त करेगा? यह कैसे मुक्त करेगा? यह किसको मुक्त करेगा? यह तो खुद ही भटका है। तुम्हें बड़ा दया-भाव पैदा होगा, तुम्हारे मन में बड़ी करुणा आएगी कि कोई रास्ता मिले तो मैं इसको समझाऊं कि भइया, जाग! होश सम्हाल! यह क्या कर रहा है?
जैन-शास्त्रों में कृष्ण को नरक में डाल दिया है, सातवें नरक में डाल दिया है और अनंतकाल के लिए डाल दिया है; जब यह सृष्टि समाप्त होगी और दूसरी सृष्टि का प्रारंभ होगा, तब वह छूटेंगे वहां से! ठीक ही है, अगर एक पत्नी नरक ले जाती है, तो सोलह हजार पत्नियां कहां ले जाएंगी, थोड़ा सोचो तो! अगर एक पत्नी नरक का द्वार है, तो सोलह हजार! और उनमें सब कृष्ण की पत्नी थीं भी नहीं--कोई किसी और की पत्नी, कोई किसी और की पत्नी। बिल्कुल गैर-कानूनी! नाजायज! और एक संख्या होती है। सोलह हजार!
तुमने अगर एक धारणा बना ली है--और तुम्हारी सब की धारणाएं हैं। उन धारणाओं को लेकर ही तुम जाते हो। धारणा लेकर गए तो तुम जो चुनोगे, तुमने चुना है यह भ्रांति है तुम्हारी; तुम्हारी धारणा तृप्त हो गई है किसी कारण से। और अगर कल तुम्हारी धारणा टूट गई, तो तुम चौंकोगे, पछताओगे, दुखी होओगे कि यह मैंने समय गंवाया व्यर्थ, इस आदमी के पीछे चला, इतने दिन अकारण खोए, गंवाए।
 और फिर छोड़ने में भी अड़चन होगी। क्योंकि इतने दिन का लगाव बन गया। इतने आश्वासन दिए, श्रद्धा का इतना जोर मारा, और अब छोड़ना पड़े, तो पछतावा भी होगा कि कहीं छोड़ने में कोई भूल तो नहीं हो रही है? इसलिए तुम यह प्रश्न भी पूछ रहे हो कि ‘और यदि शिष्य को कभी ऐसा महसूस होने लगे कि चुनाव में बाजी हार गया है, तो क्या वह दूसरे गुरु के पास जा सकता है?’ तो फिर यह डर लगेगा कि यह कहीं विश्वासघात तो नहीं है? यह गद्दारी तो नहीं है?
कल मुझे एक पत्र देखने को मिला।
मेरे एक संन्यासी हैं, जर्मन संन्यासी : विमलकीर्ति। वे जर्मनी के सम्राट के नाती हैं। तुम तो उन्हें मिलोगे तो पहचान भी न सकोगे कि सम्राट का नाती, जर्मन सम्राट का नाती! क्योंकि वे ‘वृंदावन’ में बर्तन मलते हैं। अत्यंत सरल चित्त व्यक्ति हैं। उनके काका ने पत्र लिखा है उन्हें। जर्मन सम्राट का चित्र भेजा है। चित्र के पीछे लिखा हैः अरे गद्दार! शाही घर का होकर और भिखारियों की तरह जी रहा है! उन्हें गद्दारी दिखाई पड़ रही है कि शाही परिवार का व्यक्ति, जर्मन सम्राट का नाती, और संन्यासी! धारणाएं हैं।
तुमने एक गुरु से संबंध बना लिया, तो अब एक चित्त में बड़ी ग्लानि पैदा होगी कि छोड़ें कैसे? गलती भी दिखाई पड़ गई एक दिन। जरूरी नहीं है कि जिस दिन तुम्हें गलती दिखाई पड़े, उस दिन तुम्हें फिर ठीक-ठीक अनुभव हुआ है कि गुरु गलत है। जिस दिन तुमने ठीक समझा था, उस दिन तुम्हारी धारणा से मेल खा रहा था, जिस दिन तुमने गलत समझा, उस दिन तुम्हारी धारणा से मेल नहीं खा रहा है, बस, इतना ही जानना! गुरु के ठीक और गलत होने का तुम्हें कैसे पता चलेगा? कभी पता नहीं चलेगा।
इसलिए मैं कहता हूं कि दूसरी बात में भूल समझने की बजाए पहली बात में ही भूल पकड़ लोगे तो ठीक है। चुनना मत। हां, कोई गुरु चुन ले तो चुने जाना। अगर कोई गुरु की ऊर्जा तुम्हें पकड़ ले और तुम्हारे चारों तरफ नाचने लगे और तुम्हारे हृदय में समा जाए और तुम आनंदमग्न हो उठो--किसी धारणा की सिद्धि के कारण नहीं और किसी अपेक्षा की पूर्ति के कारण नहीं--तुम्हारा हृदय गवाही दे दे, सारी धारणाओं के विपरीत गवाही दे दे कि अब बस चलो, सब धारणाएं छोड़नी पड़ें, सारा चित्त का जाल छोड़ना पड़े, तो भी यह दांव पर लगाना है, तब समझना कि तुम्हारे जीवन में गुरु का पदार्पण हुआ। और उस पदार्पण के बाद कभी लौटना नहीं होता। असंभव है लौटना! हृदय से जो संबंध बनता है, वही पार ले जानेवाला है, वही मुक्तिदाई है।
लेकिन श्रीराम, तुम सोच-समझ कर--ब्राह्मण आदमी हो, श्रीराम शर्मा! --गणित बिठा रहे हो, विचार कर रहे हो। शास्त्र तुम्हारे चित्त में बैठे होंगे। गुरु ऐसा होना चाहिए, गुरु वैसा होना चाहिए। ये-ये लक्षण होने चाहिए। इतने लक्षण हों तो चुनना चाहिए।
जरा अहंकार की बात तो देखो! तुम चुनोगे? तुम हो कौन? अगर तुम्हें इतनी भी समझ में आ गई है कि गुरु के लक्षण पहचान लो, तो तुम स्वयं ही गुरु हो जाओगे, अब और बचा ही क्या? अगर तुम्हें इतना होश आ गया है कि तुम होश वाले आदमी को पहचान लो, तो जाने की जरूरत ही क्या है, इसी होश को बढ़ाए चले जाओ। अगर तुम्हें इतना पता चल गया है कि कौन जागा हुआ है, तो तुम जाग ही गए! अब और जागना क्या है? अगर तुमने पहचान लिया कि हां, इस आदमी के पास आंखें हैं, यह अंधा नहीं है, तो तुम्हारे पास आंखों का सबूत मिल गया, अब और क्या चाहिए? अब किसी के पीछे क्या चलना, तुम्हारे पास खुद ही आंखें हैं। अब गुरु की कोई जरूरत नहीं।
मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अगर तुम्हारे पास इतनी समझ हो कि तुम निर्णय कर सको कि कौन सदगुरु है और कौन मिथ्या, तो तुम्हें गुरु की जरूरत ही नहीं है। अगर तुम्हें गुरु की जरूरत है, तो उसका अर्थ हुआ कि तुम्हारी बुद्धि से कोई उपाय नहीं है। तुम अपनी बुद्धि को सरका कर अलग कर दो। तुम तो गुरुओं के सत्संग में बैठो, मस्त होकर, खुल कर, सब द्वार-दरवाजे खुले छोड़ कर, ताकि सूरज आए तो आ सके भीतर, और सुबह का मलय पवन आए तो आ सके भीतर, और वर्षा की बूंदाबांदी हो तो थोड़ी बूंदें तुम तक भी पहुंच सकें, कि कोयल गाए तो गीत तुम्हारे भीतर प्रवेश कर सकें, बस खुले होकर बैठ जाओ। और जहां पकड़ लिए जाओ, जहां से छूटना मुश्किल हो जाए, जहां चुंबक की तरह खींच लिए जाओ--फिर क्या करोगे? चुनाव का सवाल ही नहीं है, फिर करोगे क्या? गुरु ने चुन लिया। और धन्यभागी हैं वे जो गुरु को चुनने देते हैं, खुद नहीं चुनते।
इधर मेरे पास भी दो ही तरह के लोग आते हैं। एक, जो चुनते हैं। जो चुनते हैं, उनसे मेरा संबंध पहले से ही नहीं बन पाता। वे काफी होशियार हैं। उनकी होशियारी बाधा है। दूसरे वे हैं, जो मुझे चुनने देते हैं। उनसे मेरा संबंध ऐसा बनता है जो कभी टूट नहीं सकता। जिसके टूटने की कोई संभावना ही नहीं है।।
हृदय जुड़ता है तो टूटता नहीं। बुद्धि के जोड़ तो थोथे हैं। दिखाई पड़ते हैं, ऊपर-ऊपर हैं, कभी भी टूट सकते हैं। आज मैंने कुछ कहा, तुम्हारे शास्त्र से मेल खा गया, कल मैं कुछ कहूंगा और तुम्हारे शास्त्र से मेल नहीं खाएगा तो अड़चन हो जाएगी।
मैं सिक्खों के ‘जपु जी’ पर बोलता था, तो बहुत सिक्ख सुनने आने लगे। मगर वे मुझे सुनने नहीं आ रहे थे। मुझसे उनका क्या लेना-देना? वे तो ‘जपु जी’ पर बोल रहा हूं इसलिए आ रहे थे। जब तक ‘जपु जी’ पर बोल रहा हूं तब तक वे दिखाई पड़े। जब ‘जपु जी’ पर बोलना बंद हो गया, वे भी नदारद हो गए। इनसे मेरा क्या संबंध बनेगा, कैसे संबंध बनेगा?
कबीर पर बोलता हूं, कबीरपंथी आ जाते हैं। अभी एक मित्र ने कहा है कि आपकी वाणी में मुझे संत तारण तरण की धुन सुनाई पड़ती है, बड़ा आनंद आता है। वह तारण के मानने वाले हैं, तो उन्हें तारण तरण की धुन सुनाई पड़ रही है। तुममें से तो बहुतों ने तारण तरण का नाम भी नहीं सुना होगा, तो धुन कहां से सुनाई पड़ेगी तारण तरण की? ईसाई को लगता है कि मैं जो बोल रहा हूं, वह बाइबिल है। और मुसलमान को लगता है कि मैं जो बोल रह हूं, वह कुरान है। और सिक्ख को लगता है कि जो मैं बोल रहा हूं, वह गुरुग्रंथ है।
मगर ध्यान रखना, अगर तुम्हें इसलिए मजा आ रहा है कि तुम्हें तारण तरण की धुन सुनाई पड़ रही है, तो तुमने मुझे तो सुना ही नहीं। तुम्हारा मजा तुम्हारे मन का ही मजा है, मुझसे कुछ लेना-देना नहीं। किसी दिन अगर ऐसा हो गया कि कोई बात मैंने ऐसी कही जो तुम्हारे तारण तरण से मेल न खाई, तो बस दोस्ती समाप्त! कट्टी हो गई! दोस्ती झूठी थी। दोस्ती नाममात्र को थी। मुझसे न थी, तारण तरण से थी। और चूंकि मेरी बात में तुम्हें तारण तरण की बात सुनाई पड़ी थी। तुम मेरे साथ हो लिए थे। मगर तुम मेरे साथ नहीं हुए थे, तुम थे तो तारण तरण के ही साथ। मुझसे तुम्हारा कभी नाता न बना था।
मुझे कब सुनोगे? मुझे सीधा-साधा कब सुनोगे? अपनी धारणाओं को हटा कर कब सुनोगे?
तारण तरण के मानने वाले मुझे पत्र लिखते रहते हैं कि आप संत तारण तरण पर कब बोलेंगे? जब आप बोलेंगे तब हम सुनने आना चाहते हैं। मुझसे कुछ लेना-देना नहीं, जब तारण तरण पर बोलूंगा तब वे सुनने आना चाहते हैं।
मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि वह अपने अहंकार की पुष्टि चाहता है। यह पुष्टि है सिर्फ और कुछ भी नहीं। तुम मानना चाहते हो मुझसे सुन कर कि तुम्हारी जो मान्यता थी, वह ठीक थी। तब मुझसे बड़े प्रसन्न हो जाते हो, कि हां, यह आदमी ठीक है! क्योंकि तुम्हारे अहंकार को इसने थोड़ा भोजन दिया, तुम्हारी मान्यता को सही कहा। तुम्हारे शास्त्र को समर्थन दिया। और अगर मैं तुम्हारे शास्त्र के संबंध में एक शब्द भी कह दूंगा जो तुम्हारे मन को छिन्न-भिन्न करेगा, खिन्न करेगा, बस तुम दुश्मन हो गए। उसी क्षण दुश्मन हो गए।
तुम्हारी धारणाओं से तुम संबंध न बना सकोगे किसी सदगुरु से। क्योंकि कोई सदगुरु किसी दूसरे सदगुरु की प्रतिलिपि नहीं है। इसे खूब समझ लो, कोई सदगुरु किसी दूसरे सदगुरु की प्रतिलिपि नहीं है। यद्यपि सत्य एक है, लेकिन उसके कहने के ढंग अनेक हैं। यद्यपि सत्य एक है, लेकिन जब सत्य अवतरित होता है तो उसकी अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न होती है।
जैसे किसी ने सुबह उगते हुए सूरज को देखा। सुंदर सूरज, लाली फैल गई पूरब पर, पक्षी गीत गाने लगे, वृक्ष जाग गए, सारा जगत आरती में तत्पर हो गया। किसी ने एक गीत लिखा सुबह के इस उगते सूरज पर और किसी ने चित्र बनाया और किसी ने अपनी वीणा छेड़ दी इस मस्ती में, इस मस्ती के स्वागत में। इन तीनों की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न होगी। वीणा का छिड़ना भी सुबह के सूरज के स्वागत में हो रहा है। इसमें भी सुबह के सूरज की थोड़ी लाली है। इसमें भी उगते सूरज की थोड़ी छाया है। मगर वीणा वीणा है, इसमें कोई रंग तो नहीं होंगे! इसमें राग होगा, रंग नहीं होंगे। राग का अपना रंग है। ‘राग’ शब्द का अर्थ भी रंग होता है, ख्याल रखना। इसका भी अपना रंग है, लेकिन वह रंग ध्वनि का है। वह कानों से पकड़ा जाएगा, आंखों से नहीं। वह बड़ा दूसरा रंग है। और जिसने चित्र बनाया तूलिका उठा कर सुबह का, सूरज का उगता हुआ, इसकी तूलिका में और वीणा में कोई संबंध जुड़ेगा? इसके चित्र में और संगीत में कोई संबंध जुड़ेगा! ऊपर-ऊपर कोई संबंध नहीं है। और किसी ने गीत लिखा। और यह भी हो सकता है, किसी ने पैरों में घूंघर बांधे और नाचा। इनकी अभिव्यक्ति अलग-अलग है। सूरज एक ही ऊगा था और सबके हृदय में सूरज के उगने की एक ही अर्चना जगी थी, एक ही प्रार्थना जगी थी, एक ही पूजा का भाव उठा था, लेकिन फिर भी पूजा का भाव व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्न हो गया।
ऐसा ही फर्क कबीर में है, नानक में है, जगजीवन में है; बुद्ध में है, महावीर में है, कृष्ण में है; मोहम्मद में है, लाओत्सू में है, जरथुस्त्र में है--ऐसा ही फर्क। लेकिन तुम जब किसी एक धारणा को पकड़ कर बैठ जाते हो और उसी धारणा को लेकर खोजने निकलते हो, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। अगर तुमने कबीर की धारणा पकड़ ली कि गुरु हो तो कबीर जैसा, तो तुमको फिर कभी गुरु नहीं मिल पाएगा। क्योंकि कबीर दुबारा नहीं होते। और अगर तुम्हें कबीर जैसा कभी कोई गुरु मिल जाए, तो समझ लेना नकलची है। क्योंकि दुबारा असली तो होता ही नहीं; सिर्फ नकली हो सकते हैं, पाखंडी हो सकते हैं।
 अगर तुम्हारी धारणाओं से मेल खा रहा हो किसी गुरु से, पूरा-पूरा मेल खा रहा हो, तो एक बात पक्की है कि गुरु पाखंडी है। यह तुम बहुत चौंकोगे मेरी बात सुनकर। तुम्हारी धारणाओं से मेल खाता हो अगर पूरा-पूरा, तो समझ लेना कि गुरु पाखंडी है। वह तुम्हारी धारणाओं से मेल बिठाने का ही आयोजन किए बैठा है। इसलिए जैन मुनि की जैन की धारणा से मेल खा जाएगा। और बौद्ध भिक्षु बौद्ध की धारणा से मेल खा जाएगा। हिंदू संन्यासी हिंदू की धारणा से मेल खा जाएगा। धारणा से ही मेल खाने का पूरा आयोजन है। सत्य से कोई संबंध नहीं है। सूरज उगा है, इसका इन्हें पता नहीं है। न इन्होंने अपनी वीणा उठाई है, न इन्होंने अपनी तूलिका उठाई है, न पैरों में घूंघर बांधे हैं, न इनके कंठ में कोई गीत है। मगर ये जानते हैं कि शास्त्र में गुरु की परिभाषा क्या है। उसी परिभाषा के अनुसार ये अपने आचरण को नियमित कर रहे हैं, व्यवस्थित कर रहे हैं।
शास्त्र कहता है, इतनी बार भोजन, एक बार भोजन, तो ये एक बार भोजन करते हैं। शास्त्र कहता है कि दो वस्त्र, तो ये दो वस्त्र रखते हैं। शास्त्र कहता है, सूरज ढले चलना नहीं, तो ये चलते नहीं। रात पानी मत पीना, तो पानी नहीं पीते। ब्रह्ममुहूर्त में उठ आना, तो ब्रह्ममुहूर्त में उठ आते हैं। शास्त्र ने जो कहा है, उसकी कवायद करते हैं, उसका रिहर्सल करते हैं, उसका अभ्यास करते हैं, उसके अभ्यास से तुम्हारी धारणा से मेल खा जाता है, अनुकूल पड़ जाते हैं। अगर तुम्हारी भी उसी शास्त्र की धारणा है तो बस एकदम मेल खा जाते हैं।
इसलिए तुम दुनिया में एक चमत्कार देखोगे कि एक संप्रदाय का गुरु दूसरे के संप्रदाय को बिल्कुल गुरु जैसा नहीं मालूम होता। मगर उस संप्रदाय के लोगों को बिल्कुल गुरु मालूम होता है, परम गुरु मालूम होता है। दोनों की धारणाएं एक जैसी हैं। दोनों की धारणाएं मेल खा रही हैं।
अब यह जरा धोखा समझो।
तुमने भी वही शास्त्र पढ़ा... ऐसा समझो। एक अभिनेत्री मुझे मिलने आई। उसने कहा कि आपका क्या कहना है भृगु-संहिता के संबंध में? मैंने उससे पूछा कि तुझे प्रश्न क्यों उठ रहा है? तो उसने कहा कि मैं दिल्ली गई और भृगु-संहिता मेरे लिए पढ़ी गई। और जो-जो बातें मेरे संबंध में बताई गयीं, वह मैंने सब नोट कर लीं। भरोसा तो मुझे नहीं आया... मेरे पिछले जन्मों की बातें, मेरे भविष्य के जन्म की भी बात। और इस जन्म की भी बात। और इस जन्म के संबंध में भी कुछ बातें कहीं जो सच। और कुछ बातें जो अभी सच नहीं हैं, लेकिन पढ़ने वाले ने कहा कि आगे सच हो जाएंगी; अभी जन्म पूरा तो घट नहीं गया। फिर मैंने मद्रास में भृगु-संहिता पढ़वाई। वहां भी ठीक यही-का-यही! फिर मैंने काशी में भृगु-संहिता पढ़वाई वहां भी ठीक यही का यही। अगर धोखा होता तो एक जगह होता। जब तीन जगह से बात मिल गई--और इन तीनों को एक-दूसरे का पता भी नहीं है--तो इससे सिद्ध होता है कि कुछ सचाई होनी चाहिए।
अब इस महिला को जरा भी समझ नहीं है कि भृगु-संहिताएं एक-दूसरे की कापियां हैं; उनमें कोई भेद नहीं है। पढ़नेवाले से कोई संबंध ही नहीं है। जिस ढंग से पन्ना खोला जाता है वह ढंग भी वही का वही है। तुम्हारा नाम पूछा, तुम्हारा पता पूछा, तुम्हारी उम्र पूछी, गणित बिठाया--वह गणित भी वही-का-वही है--फिर पन्ना खोला कि इकतीसवां पन्ना निकलता है तुम्हारे हिसाब से। इकतीसवें पन्ने पर जो लिखा है, पढ़कर सुना दिया। तो फिर दिल्ली में पढ़वाओ, कि मद्रास में, कि काशी में। लेकिन जब तीन दफा अलग-अलग लोगों ने भी वही लक्षणाएं बता दीं और वही जन्म कहे, तो भरोसा बढ़ा! भरोसा गहरा हुआ कि तीन तो गलत नहीं हो सकते!
शास्त्र तुम पढ़ते हो, शास्त्र जो गुरु बनने को बैठा है वह भी पढ़ता है उसी शास्त्र को। दोनों एक ही शास्त्र से धारणा लेते हैं। तुम शिष्य बनना चाहते हो, इसलिए इस ढंग से पढ़ते हो कि गुरु को कैसे पहचानेंगे। जो गुरु बनना चाहता है, वह इस ढंग से पढ़ता है कि जो शिष्य आएंगे, वे मुझे कैसे पहचानेंगे? फिर दोनों का तालमेल हो जाता है। और दोनों धोखे में पड़े हों।
सदगुरु की कोई पहचान किसी शास्त्र में नहीं है। क्योंकि जिस सदगुरु की पहचान दी हुई है, वह सदगुरु एक बार हो चुका और दोबारा नहीं होता। प्रत्येक सदगुरु बेजोड़ है, अद्वितीय है। उस जैसा व्यक्ति फिर कभी नहीं होता। कहां कृष्ण दोबारा! कहां बुद्ध दोबारा! कैसे होंगे? कोई उपाय नहीं है दोबारा होने का। परमात्मा दोहराता नहीं। परमात्मा कोई टूटा-फूटा ग्रामोफोन रिकार्ड नहीं है कि बस दोहराए चले जा रहे हैं, वही दोहराए चले जा रहे हैं!
परमात्मा नित-नूतन सर्जक है, स्रष्टा है। रोज नये गीत गाता है। रोज नई तान छेड़ता है। रोज नया छंद! जो एक बार हो गया, हो गया। उसकी पुनरुक्ति नहीं होती। परमात्मा फिर किसी नये रूप में उतरता है। और तब तुम मुश्किल में पड़ जाते। तब तुम बड़ी अड़चन में पड़ जाते हो। तुम्हारी धारणा होती है पुराने की, जो कभी हुआ था। और तुम नये सदगुरु से पुरानी धारणा का मेल बिठाना चाहते हो। वह मेल नहीं बैठता। और जिससे मेल बैठता है, वह पाखंडी है। और जो सच्चा है, उससे मेल नहीं बैठता। ये अड़चनें हैं, मुमुक्षु की, मैं तुम्हें साफ करना चाहता हूं।
मेरी तरफ से एक बात समझ लोः तुम नहीं चुन सकते। तुम जो चुनोगे, पुरानी धारणा के आधार पर चुनोगे। अभी नये गुरु को पहचानने वाला शास्त्र तो लिखा नहीं--लिखा जाएगा, जब गुरु जा चुका होगा! तब लोग पहचानेंगे। लेकिन तब पहचानने का कोई अर्थ न रह जाएगा। जब महावीर जिंदा होते हैं, तब तुम पहचानते हो राम के हिसाब से। और गड़बड़ हो जाती है, क्योंकि महावीर राम नहीं है। तुम देखते हो, कहां धनुषबाण है? वहां कोई धनुषबाण नहीं है। धनुषबाण तो दूर, लंगोटी भी नहीं है। तुम पूछोगे : धनुषबाण कहां है, महाराज! सीताजी कहां हैं? वहां कोई नहीं है--न कोई सीता जी हैं, न कोई धनुषबाण है। तुम लिए बैठे हो पुरानी, कि मेरा माथा तो तभी झुकेगा जब धनुषबाण हाथ लोगे! तो तुम्हारा माथा झुकना नहीं है। क्योंकि वह महावीर धनुषबाण हाथ लेंगे नहीं। जंचेगा भी नहीं, नंग-धड़ंग धनुषबाण लिए! बात कुछ बनेगी भी नहीं! शोभा भी नहीं आएगी!
महावीर जा चुकेंगे, तब शास्त्र निर्मित होगा। शास्त्र पीछे ही निर्मित हो सकता है, जब महावीर जी लिए। और अनेक लोगों के हृदय को पकड़ा उन्होंने। उन्हीं के हृदय पकड़े जिनमें धारणाएं नहीं थीं, ख्याल रखना। जो धारणा लेकर आए थे, उनको तो महावीर से कोई संबंध बनेगा नहीं। कुछ निश्छल हृदय, निर्दोष हृदय, कुछ कुंवारे हृदय पकड़े गए। कुछ हिम्मतवर लोग जो चित्त को एक तरफ सरका कर रख दिए, पकड़े गए। लेकिन कल यही सारे हिम्मतवर लोग महावीर के लक्षणों के आधार पर शास्त्र निर्मित करेंगे कि गुरु हो तो ऐसा हो। बस फिर अड़चन शुरू हो जाएगी।
महावीर ने बारह वर्ष मौन रखा, तब उन्हें ज्ञान उत्पन्न हुआ। महामुनि थे! बुद्ध ने छह वर्ष ही जंगल में तपश्चर्या की और ज्ञान को उपलब्ध हुए। अब हिसाब-किताब लगाने वाला कहेगा कि अधूरे रहे। बारह वर्ष और छह वर्ष--कच्चे हैं अभी! एक प्रसिद्ध जैन विचारक ने किताब लिखी। लिखने के पहले मुझसे कहा कि मेरा तो समन्वयवाद है--गांधीवादी थे। गांधी के अनुयायी थे, गांधी के आश्रम में ही बड़े हुए थे--तो मेरा तो समन्वयवाद है। मैं महावीर और बुद्ध पर एक किताब लिख रहा हूं। किताब लिखी, मुझे भेजी, तो मैं देख कर चौंका, उसका शीर्षक ही देखकर चौंका! ‘भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध।’ तो मैंने उन्हें पूछा कि या तो दोनों को भगवान लिख देते, या दोनों को महात्मा लिखते; इतना सा भेद क्यों किया? और इसमें भेद क्या है भगवान और महात्मा में? उन्होंने कहा : भेद है थोड़ा सा! महावीर परिपूर्ण पहुंच गए हैं, बुद्ध अभी थोड़े पीछे हैं! यह समन्वय हो रहा है। यह बनिया की बुद्धि, बारह साल, छह साल, हिसाब लगा रहा है। कि महात्मा ही हो पाए अभी! अभी भगवान नहीं हो पाए। अभी एक जन्म और होगा; रास्ते पर हैं, पहुंच रहे हैं।
और यह सोचते हैं सज्जन कि समन्वयवादी हैं। और यह सोचते हैं कि दोनों का इन्होंने गुणगान किया है--कितनी उदारता है इनके हृदय में, यह सोचते हैं! खाक उदारता है! यह उदारता है? यह कृपणता की सीमा हो गई! यह बुद्ध को भगवान न कह सके। कैसे कहें बुद्ध को भगवान? लक्षण बना लिए हैं, उन लक्षणों से ही फिर हिसाब चलेगा। और वैसा आदमी दुबारा नहीं होगा। पच्चीस सौ साल हो गए महावीर को हुए, फिर कोई महावीर तो हुआ नहीं। यद्यपि बहुत लोगों ने नकल की है, बहुत लोग नंगे रहे हैं। बहुत लोग महावीर जैसा ही भोजन किए हैं और महावीर जैसा ही उपवास किए हैं। मगर कोई महिमा वैसी तो प्रकट न हुई। वैसा सौरभ फिर तो न फूटा, वैसा कमल फिर तो न खिल। यह हो ही नहीं सकता। ये जितने महावीर के पीछे पच्चीस सौ साल में लोग नग्न हुए, यह सिर्फ आचरणगत थी इनकी नग्नता, आयोजित थी, अभ्यासजन्य थी। इसका आविर्भाव भीतर से नहीं हुआ था। और हो नहीं सकता था।
जब कोई सदगुरु पैदा होगा, तब तुम्हारी धारणाएं उससे मेल नहीं खाएंगी। इसलिए जो हिम्मतवर हैं और धारणाओं को सरका कर रख सकते हैं और सदगुरु जब जाल फेंके तो भाग न जाएं और उसके जाल में फसने को राजी हों... तुम नहीं चुनते, सदगुरु जाल फेंकता है, जैसे मछलियों को पकड़ने को मछुआ जाल फेंकता है।
जीसस ने अपने एक शिष्य को कहा... वह मछलियां मार रहा था; जीसस आकर खड़े हो गए; सुबह-सुबह उसने जाल फेंका था, मछलियां फंस गई थीं और वह खींच रहा था, जीसस ने उसके कंधे पर हाथ रखा, उसने पीछे लौट कर देखा। सुबह की ताजी हवा और सुबह के ताजी सूरज में जीसस का आभामंडल, जीसस की वे झील से भी ज्यादा गहरी आंखें, वह एकदम मोहित को गया। उसने कहाः तुम कौन हो? कहां से हो? कैसे आकस्मिक तुम्हारा आगमन हो गया? जीसस ने कहाः ये सब बातें धीरे-धीरे तुझे समझ में आएंगी कि मैं कौन हूं कहां से हूं! कैसे अचानक मेरा आगमन हो गया, एक बात तुझसे कहने आया हूं कि कब तक मछलियां पकड़ता रहेगा आ मैं तुझे आदमियों को पकड़ने का रास्ता सुझाऊं! कि कब तक मछलियां पकड़ता रहेगा? मैं तुझे ऐसा जाल फेंकना सिखाऊं जिसमें आदमी फंस जाते हैं।
झिझका नहीं वह मछुआ, उसने फेंक दिया जाल झील का झील में, चल पड़ा जीसस के पीछे। जीसस ने उससे पूछाः तुझे भरोसा आ गया मेरी कही बात पर? उसने कहाः आ ही गया, क्योंकि मैं खुद ही फंस गया! तो जरूर तुम सिखा सकोगे यह कला, इसमें कोई संदेह नहीं, मैं खुद ही फंस गया!
जब गुरु जाल फेंके, तब तुम भाग मत जाना; बस इतना ही अगर कर सको तो मुमुक्षु हो! तुम चुने जाओगे। तो धन्यभागी हो! और जब कोई गुरु चुने तो तुम झुक जाना, समर्पित हो जाना।
और तुमसे अंतिम बात कह दूं। इसकी तुम चिंता ही मत करो कि कौन गुरु ठीक, कौन गुरु गलत। जो तुम्हारे हृदय को आंदोलित कर दे, बस वही ठीक। एक गुरु किसी के लिए ठीक हो सकता है, किसी के लिए गलत हो सकता है, यह भी ख्याल रखना। सभी औषधियां सभी के काम नहीं भी पड़ती हैं। जो औषधि है एक के लिए, किसी के लिए जहर हो सकती है। इसलिए जो तुम्हारे हृदय को मथ दे, जो तुम्हारे हृदय को जगा दे; तुम्हारा हृदय नाच उठे जिसके पास, जिसके सान्निध्य में, वही ठीक है। फिर दूसरे क्या कहते हैं, इसकी फिकर मत करना। फिर तो चल पड़ना।
और तुमसे एक बात कह दूंः यह भी हो सकता है, यह भी संभावना मान लो कि कभी तुम गलत से प्रभावित हो गए--समझो कि वह सद्गुरु था ही नहीं। सत्य को पहुंचा ही नहीं था। यह भी एक संभावना मान लो। मोहक व्यक्तित्व भी हो सकता है किसी का, प्यारा व्यक्तित्व हो सकता है किसी का, चमत्कारिक व्यक्तित्व हो सकता है किसी का। उसका काव्य तुम्हें छू ले, उसकी वाणी तुम्हें छू ले, उसकी देह की तरंग तुम्हें छू ले, उसकी आंखों की ज्योति तुम्हें छू ले और हो सकता है वह सभी सत्य को उपलब्ध न हुआ हो। क्योंकि एडोल्फ हिटलर जैसे आदमियों की आंखों में भी एक बल होता है। आखिर लाखों लोग ऐसे ही नहीं फंस जाते। और एडोल्फ हिटलर कोई सदगुरु तो नहीं है। लाखों लोग ऐसे ही मोहित नहीं हो जाते। लाखों लोग ऐसे ही मुंह बाकर बैठे नहीं रह जाते, अकारण, एडोल्फ हिटलर की आंखों में कुछ सम्मोहन तो है। हृदयों को पकड़ तो लेता है।
इसलिए यह भी हो सकता है कभी कि तुम किसी ऐसे आदमी के चक्कर में आ जाओ, जो अभी स्वयं भी उपलब्ध न था। तो मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूं कि अगर तुम्हारा समर्पण पूरा हो तो तुम ऐसे आदमी के पास भी मुक्ति को उपलब्ध हो जाओगे। क्योंकि मुक्ति मिलती है समर्पण की पूर्णता से। फिर दोहरा दूं, मुक्ति मिलती है समर्पण की पूर्णता से। मुक्ति किसके प्रति समर्पण हुआ, इससे नहीं मिलती। इसलिए कभी ऐसा हो जाता है कि पत्थर की मूर्ति के सामने अगर समर्पण पूरा हो तो भी मुक्ति मिल जाती है।
तुमने एकलव्य की कथा तो पढ़ी है न! वह पत्थर की मूर्ति के सामने समर्पण पूरा था। न तो गुरु है, न कोई सद्गुरु है, कुछ भी नहीं है, पत्थर की मूर्ति है। खुद ही गढ़ ली है, अपने ही हाथ से बना ली है, मगर समर्पण पूरा था! समर्पण ऐसा समग्र था, जितना कि अर्जुन का भी द्रोण के प्रति नहीं था। इसलिए अर्जुन पिछड़ गया एकलव्य से। द्रोण को भी चिंता हो गई। द्रोण को भी डर पैदा हो गया। द्रोण को भी जाना पड़ा एकलव्य के पास खिंचा हुआ। और जब द्रोण ने देखी उसकी कला, तो चौंक कर रह गए होंगे!
द्रोण खुद कोई सद्गुरु नहीं हैं। द्रोण एक साधारण से राजसेवक हैं। अति साधारण कहना चाहिए। सद्गुरु तो दूर, गुरु कहने की भी बात ठीक नहीं है। क्योंकि गुरु में भी कुछ होता है जो द्रोण में नहीं है। नहीं तो एकलव्य से अंगूठा न मांगते। एकलव्य से अंगूठा मांगा, इसलिए मांगा कि एकलव्य की कला देख कर एक बात तो समझ में आगई कि उनके सारे शिष्य फीके पड़ गए। न तो अर्जुन, न कर्ण, न दुर्योधन, कोई इस ऊंचाई पर नहीं था। और उनको चिंता हुई कि मेरे राजपुत्र, मेरे शिष्य अगर पीछे पड़ जाएंगे--मोह जगा! --जिन पर मैंने इतनी मेहनत की है; जिनके साथ मेरा अहंकार जुड़ा है, मेरी महिमा जुड़ी है; अगर अर्जुन ऐसे पीछे पड़ जाएगा तो मेरी क्या दुर्दशा होगी? और यह व्यक्ति आगे निकल गया! और इसे मैंने इनकार कर दिया था कि शूद्र है तू, इसलिए तुझे शिष्य की तरह स्वीकार न करूंगा! ... यह कोई गुरु होने के ढंग हैं कि शूद्र कह कर किसी को इनकार कर दिया! जिसने किसी को शूद्र कह कर इनकार किया, वह शूद्र ही होगा! ब्राह्मण कैसे होगा? ब्राह्मण तो वह है, जो सब में ब्रह्म को देखे।
और मैं कहता हूंः एकलव्य ब्राह्मण है। द्रोण ने इनकार कर दिया, द्रोण ने धुत्कार दिया, दुत्कार दिया, भगा दिया, हटा दिया, तो भी उसकी श्रद्धा ऐसी अपूर्व है कि फिर भी इन्हीं के प्रति झुका। ब्राह्मण है। और उसका समर्पण ऐसा पूरा है कि पत्थर की मूर्ति के सामने खड़े होकर, आंसू बहा कर, फूल चढ़ा कर, प्रार्थना कर के धनुर्विद्या सीख डाली! धनुर्विद्या का सबसे पारंगत व्यक्ति हो गया!
द्रोण को कठिनाई हुई, यह तो हार हो जाएगी बहुत, दुनिया क्या कहेगी कि जिसको इनकार किया था शूद्र कह कर, तुम्हें इतनी भी समझ न थी कि इसकी संभावना क्या थी? तुम क्या ख़ाक पारखी हो! जिसको हटा दिया था, जिस पत्थर को व्यर्थ कह कर फेंक दिया था, वही मंदिर की मूर्ति बन गया है; तुम क्या ख़ाक पारखी हो! और जिनके साथ तुमने जिंदगी भर मेहनत की, उनको पीछे छोड़ दिया है। तो कहा उससे कि मुझे दक्षिणा तो दे दो। देखते हो, यह कोई गुरु होने के लक्षण हैं? जिसको दीक्षा नहीं दी, उससे दक्षिणा मांग रहे हैं! बेईमानी की कोई सीमा भी होती है!
द्रोण बेईमान से बेईमान गुरु हैं।
और दक्षिणा भी क्या मांगी उस भोले निर्दोष आदमी से! उसने कहा : हां, मैं गरीब हूं, मेरे पास है क्या, जो आप मांगें, जो मेरे पास हो, मैं दे दूं। मैं अपने प्राण दे दूं। उससे उसके दाएं हाथ का अंगूठा मांग लिया। क्योंकि बिना अंगूठे के धनुर्विद्या उसकी व्यर्थ हो जाएगी। बिना अंगूठे के वह धनुर्विद न रह जाएगा। और उस अदभुत आदमी ने अंगूठा काट कर दे दिया--एक क्षण भी झिझक न की! ऐसे वह और ऊंचाइयों पर ऊंचाइयां पाता गया।
जिस क्षण उसने अंगूठा काट कर दिया है, समाधि फलित हो गई होगी! मुक्ति अपने आप उतर आई होगी! यह समर्पण! संदेह इस पर भी न उठाया, इस धोखेबाज आदमी पर भी न उठाया, जिसने धुत्कारा था, और जो आज दक्षिणा मांगने आ गया है उसी मुंह से, थूके को चाटने में जिसे जरा भी शर्म और लज्जा नहीं आई है, इस आदमी को भी अंगूठा काट कर दे दिया। जरा भी संदेह न किया! यह श्रद्धा है। यह समर्पण है। इस समर्पण में धनुर्विद्या गई हो तो गई हो, लेकिन आत्म-विद्या आ गई होगी!
शास्त्र कुछ कहते नहीं, लेकिन मैं मानना चाहता हूं, जोड़ना चाहता हूं शास्त्र में इतना, कि धनुर्विद्या तो चली गई अंगूठे के कटने से, लेकिन आत्मविद्या आ गई होगी। एकलव्य निश्चित ब्राह्मण हो गया। एकलव्य महाज्ञान को उपलब्ध हो गया होगा। ऐसे समर्पण के द्वार से अगर महाज्ञान न आए तो फिर कैसे आएगा!
तो मैं तुमसे यह अंतिम बार कहना चाहता हूं, श्रीराम शर्मा, कि अगर गलत के प्रति भी समर्पण पूरा हो गया, तो तुम चिंता न करना। समर्पण पूरा चाहिए। लेकिन अहंकार बहुत अद्भुत है। अहंकार ऐसा पूछता हैः ‘और यदि शिष्य को कभी ऐसा महसूस होने लगे कि चुनाव में बाजी हार गया है, तो क्या वह दूसरे गुरु के पास जा सकता है?’
इसको थोड़ा सोचो।
जिस दिन तुमको लगे कि चुनाव में बाजी हार गए हो, उस दिन पहली बात तो यह लगनी चाहिए कि मैंने शिष्यत्व का पूरा गुणधर्म किया? नहीं, वह सवाल ही नहीं उठता। सवाल यह उठता है कि अगर नहीं उपलब्धि हुई तो गुरु गलत है। सवाल यह उठा ही नहीं तुम्हारे मन में कि अगर उपलब्धि नहीं हुई, तो मैंने वह सब पूरा किया है जो गुरु ने कहा है? क्या मैं यह कह सकता हूं कि मैंने समग्रभाव से समर्पण किया है, श्रद्धा की है? क्या मैं कह सकता हूं कि मैंने पूरा श्रम लगा कर साधना की है? जो गुरु ने कहा था, उस पर मैं पूरा-पूरा चला हूं, सौ प्रतिशत? अगर हां, तुम यह कह सको कि मैं सौ प्रतिशत चला हूं जो गुरु ने कहा था, और फिर भी बाजी हार गया हूं, तो निश्चित गुरु बदल लेना। लेकिन, जो सौ प्रतिशत चलता है, उसे बदलने की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि सौ प्रतिशत चलने से मुक्ति है।
तुम मेरी बात को ठीक से समझ लो।
गुरु और न-गुरु का कोई बड़ा सवाल नहीं है। गुरु तो निमित्त मात्र है जिसके सहारे सौ प्रतिशत समर्पण हो जाता है। तुम निमित्त को ज्यादा मूल्य मत दो। गुरु तुम्हें सत्य नहीं दे सकता। नहीं तो एक गुरु ने सारे जगत को सत्य से भर दिया होता। गुरु तुम्हें कुछ भी नहीं दे सकता। सत्य दिया-लिया नहीं जाता। गुरु तो एक निमित्त है, एक प्रकाशवान निमित्त है, जिसके पास बैठ कर तुम्हें पूरे समर्पण की भाव-दशा बनाने में आसानी होती है, बस। बहाना है।
तो पत्थर की मूर्ति से भी कभी हो सकता है। बुद्ध को गए तो पच्चीस सौ साल हो गए, लेकिन अगर तुम चाहो तो बुद्ध की मूर्ति पर पूरा समर्पण करो तो वही क्रांति घट जाएगी जो बुद्ध के सामने घटी थी। यह मत सोचना कि बुद्ध आएंगे और कुछ करेंगे। कोई गुरु कुछ भी नहीं करता है। गुरु की मौजूदगी में सिर्प तुम्हें आसानी होती है समर्पण करने की, बस। उसके प्रेम में तुम डूब जाते और समर्पण कर पाते। समर्पण हो जाए, महाक्रांति हो गई।
मगर तुम्हारा सवाल... आदमी हमेशा यही सोचता है कि भूल-चूक होगी तो दूसरे की होगी; यह अहंकार का गणित है। अगर मैं अब तक नहीं पहुंचा हूं तो गुरु गलत होना चाहिए। अगर अब तक नहीं पहुंचा हूं तो मैं गलत हूं, यह सवाल ही तुम्हारे सवाल में नहीं आता! और यह तुम्हारी ही भूल-चूक नहीं है, यह सभी की भूल-चूक है। आदमी उत्तरदायित्व दूसरे पर टालना चाहता है।
और तुमने किया क्या! और अगर नहीं हुआ तो गुरु जिम्मेवार है, तो गुरु मिथ्या हो गया। और तुम अगर ऐसे ही दूसरे गुरु के पास जाओगे, तुम दूसरे गुरु को भी मिथ्या करोगे; तीसरे को भी मिथ्या करोगे। जन्म-जन्म से तुम ऐसे ही तो चल रहे हो। श्रीराम शर्मा, तुम सोचते हो तुमने अब तक गुरु नहीं चुना है! कितने गुरु चुने होंगे! और हर बार तो हार गए, तभी तो वापस आ गए हो। नहीं तो अभी तक मुक्त हो गए होते। जो एक बार जाग गया, फिर दुबारा वापस नहीं आता। और अनंत-अनंत जन्मों में और अनंत-अनंत गुरु चुने होंगे, लेकिन हमेशा यही भूल की होगी जो तुम फिर पूछ रहे हो। यह तुम्हारी बुनियादी भूल होगी। जैसे सभी की यही बुनियादी भूल है।
कोई दोष अपने ऊपर नहीं देना चाहता। आदमी हमेशा दोष टालता है। और जो दोष टालता है वह दोष से कभी मुक्त नहीं होता। क्योंकि जो दोष स्वीकार ही नहीं करता है कि मेरा है, वह मुक्त कैसे होगा? कोई कहता है, भाग्य के कारण नहीं हो रहा है; कोई कहता है, कर्म के कारण नहीं हो रहा है; कोई कहता है, पिछले जन्मों के कारण हो रहा है; कोई कहता है, भगवान ने लिखा नहीं है तकदीर में, इसलिए नहीं हो रहा है।
फिर लोग बिल्कुल धार्मिक नहीं होते, वह भी इसी तरह की बातें करते हैं। कम्यूनिस्ट कहते हैंः आदमी सुखी नहीं है, क्योंकि समाज की व्यवस्था गलत है। आदमी गलत नहीं है, समाज की व्यवस्था गलत है! अर्थव्यवस्था गलत है! जैसे अर्थव्यवस्था आकाश से आती है! कौन लाता है अर्थव्यवस्था को? आदमी गलत नहीं है। और आदमी प्रसन्न होता है इस बात को मान कर कि मैं गलत नहीं हूं। तुम सदा इसी फिक्र में रहते हो कि दोष किसी और पर पड़ जाए। यह दोष को बचा लेने का उपाय है।
जब किसी सदगुरु के पास बैठो तो एक बात स्मरण रखना सदा, अगर कुछ न हो रहा हो तो सोचनाः ‘मैं कर रहा हूं?’ तीर अपनी तरफ लौटाना। विचार यह करना कि जो मुझे कहा गया है, वह मैं कर रहा हूं? जैसा कहा गया है वैसा कर रहा हूं? शर्ते पूरी की जा रही हैं? साधना कर रहे हो कि बस कुनकुनी-कुनकुनी बातें कर रहे हो?
मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं कि बस, समर्पण कर दिया, अब आप सम्हालो! समर्पण क्या कर दिया उन्होंने? अगर उनके समर्पण की परीक्षा लेनी हो तो पता चल जाए कि समर्पण कुछ नहीं किया, बात कर रहे हैं। समर्पण शब्द सीख तो लिया है। अगर उनसे कहूं कि जाओ, कूद जाओ छत से, तो वे कूदेंगे नहीं। छत पर जाने के पहले ही वह यह सोचेंगे कि यह आदमी पागल है! यह कोई बात हुई! हम तो समर्पण कर रहे हैं और यह सज्जन कह रहे हैं छत से कूद जाओ! यहां कोई ज्ञान वगैरह होने वाला नहीं है। छत से कुदाकर और क्या जान लोगे? समर्पण कहते हैं लोग, कि समर्पण कर दिया, अब आप सम्हालो! वे यह कह रहे हैं कि अगर नहीं सम्हले, तो फिर ख्याल रखना जिम्मा आपका है!
आ जाते हैं दो-चार-छह महीने बाद कि छह महीना हो गया है संन्यास लिए हुए, समर्पण कर दिया... समर्पण क्या किया है? कुछ भी समर्पण नहीं किया है... आ जाते हैं चार-छह-महीने बाद कि समर्पण कर दिया है, अभी तक ज्ञान नहीं हुआ, ध्यान नहीं हुआ। अभी आत्म-ज्योति जग नहीं रही। जैसे जिम्मा मेरा है! अब उनको संदेह पैदा हो रहा होगा कि यह ठीक गुरु मिला कि गलत? कि किसके चक्कर में पड़ गए हैं! छह महीने हो गए और अभी तक ज्ञान नहीं हुआ! छह महीने तो मैं कह रहा हूं, लोग तो छह दिन का भी हिसाब रखते हैं। यहां आ जाते हैं, तीन दिन ध्यान कर लेते हैं कुछ--ऐसा थोड़ा उछल-कूद किया, जरा गहरी श्वास वगैरह ली, थोड़ा नाचे-गाए--तीन दिन बाद आ जाते हैं कि शिविर के तीन दिन तो समाप्त हो गए, सात ही दिन बचे हैं और अभी तक समाधि नहीं लगी! अभी तक विचार आए ही चले जाते हैं। तुम सोचते हो, तुम कैसी बचकानी बातें कर रहे हो? उम्र बढ़ जाती है, बचपना नहीं जाता।
तुम देखते हो, दिल्ली में बयासी साल की उम्र के बच्चे और पैंसठ साल की उम्र के बच्चे और पचहत्तर साल की उम्र के बच्चे, और लगे हैं एक-दूसरे को लंगड़ी मारने में। सब अपने-अपने लंगोट कसे कूदे हैं अखाड़े में। बयासी साल के बच्चे! दिल्ली में तुम जैसा बचकानापन देखोगे, कहीं और देखने को मिलेगा? मगर यही चित्त की दशा है लोगों की। उम्र तो बढ़ जाती है शरीर की, चित्त की उम्र नहीं बढ़ती। चित्त वही बचकाना बना रहता है।
कुनकुने प्रयास करोगे तो कुछ भी नहीं होगा। बुद्धों के पास रह कर भी लोग ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए हैं। आनंद चालीस वर्षो तक बुद्ध के पास रहा--निकट, चौबीस घंटे। एक दिन साथ नहीं छोड़ा। उसी कमरे में सोया जिसमें बुद्ध सोते थे। उनकी सेवा में रत रहा। मगर भाव उसका वही था कि हो जाएगा उनकी कृपा से। और बुद्ध उससे बार-बार कहते कि सत्य किसी की कृपा से नहीं होता, तू कुछ कर, आनंद, अब कुछ होश सम्हाल! वह कहताः आप हैं, तो मुझे करना क्या? आप हैं तो सब है। यह भी अगर समग्र हो तो इससे भी घटना घट सकती है; मगर यह भी समग्र नहीं, यह भी केवल औपचारिक है। ऐसा कहते भर हैं कि आप हैं। यह शिष्टाचार है। यह पूर्ण नहीं है। यह बहाना है बचाने का अपने को कि आप तो हैं, आपके रहते सब हो जाएगा। यह कुछ करना नहीं है, करने से बचना है।
बुद्ध की जिस दिन मृत्यु हुई, आनंद रोने लगा। रोना स्वाभाविक भी था, चालीस साल साथ रहा और अज्ञानी का अज्ञानी, अंधेरे का अंधेरा, अमावस की अमावस; पूर्णिमा हुई नहीं। तो बुद्ध ने कहाः तू रोता क्यों है, आनंद? उसने कहाः अब आप जाते हैं, अब क्या होगा? बुद्ध ने कहाः मेरे रहते चालीस साल कुछ नहीं हुआ, तो तेरा कुछ खो नहीं रहा है। एक बात तो पक्की ही है कि तेरा कुछ नहीं खो रहा है। तेरा कोई कुछ बिगाड़ ही नहीं सकता! चालीस साल मेरे साथ रहकर नहीं हुआ तो अब तेरा हर्जा क्या है, मैं रहूं कि न रहूं? तुझे तो अंधेरे में रहना है सो तू अंधेरे में रहेगा।
और, बुद्ध ने कहा, यह भी हो सकता है कि तू यह मुझ पर बहाना करके टाल रहा था, शायद मेरे न रहने से हो जाए। शायद जब मैं न रहूं तो दायित्व दूसरे को सौंपने की बात खत्म हो गई, फिर दायित्व खुद लेना पड़े। शायद, कौन जाने, जरूरी है कि मैं हट जाऊं तेरे लिए तो तुझे हो।
और ऐसा ही हुआ भी।
चौबीस घंटे के भीतर आनंद ज्ञान को उपलब्ध हुआ। बुद्ध की मृत्यु का धक्का भारी था! विश्लेषण किया होगा, चालीस साल... और मैंने यूं ही गंवाए! और बुद्ध पुकारते रहे और मैं टालता रहा और मैं कहता रहाः आप तो हैं, आपके रहते सब हो जाएगा। और मैंने कुछ किया नहीं। और आनंद के पीछे बहुत लोग आए और ज्ञान को उपलब्ध होते चले गए। आनंद सबसे बुजुर्ग शिष्यों में एक था। बुद्ध से उम्र में थोड़ा बड़ा भी था। बुद्ध का चचेरा भाई था। राजकुल से था, सुशिक्षित था, लेकिन चूकता गया। बुद्ध के मरते ही जो बैठ गया आंख बंद करके, उसने आंख नहीं खोली फिर। उसने कहा, अब आंख तो तभी खोलूंगा जब भीतर की आंख खुल जाए। चौबीस घंटे में घटना घट गई! जो चालीस साल में न घटी थी! चालीस साल कुनकुना-कुनकुना चलता रहा, भाप बने पानी तो कैसे बने? सौ डिग्री पर उबलता है।
चौबीस घंटे न खाया, न पिया, न सोया। अब यह मौका गंवाने का भी नहीं था। बुद्ध छोड़ कर चले गए और बुद्ध के जीवन भर का उपदेश कभी सुना नहीं। और बुद्ध मरते वक्त भी कह गए कि ‘आनंद, अप्प दीपो भव।’ अपना दीया बन! अब तो अपना दीया बन, अब मैं जा रहा हूं, यह दीया बुझा, जिसके सहारे तू सोचता था कि रोशनी हो जाएगी, अब तुझे पता चलेगा कि दूसरों के दीयों से रोशनी नहीं होती। अब तुझे अंधेरे का पूरा पता चलेगा।
अकसर ऐसा हो जाता है कि तुम गुरु के साथ चलते हो ऐसे जैसे कि अंधेरी रात में कोई लालटेन लिए हुए एक आदमी तुम्हारे साथ होता है। उसकी लालटेन की रोशनी तुम्हारे रास्ते पर भी पड़ने लगती है। तुम शायद भूल ही जाओ कि अपने पास लालटेन नहीं। फिर एक जगह तो आएगी, एक मोड़ तो आएगा, एक चौराहा तो आएगा, जब रास्ते अलग-अलग हो जाएंगे, मौत अलग-अलग कर देगी। तो लालटेन वाला आदमी जब अपने रास्ते पर मुड़ने लगेगा, तब तुम्हें पहली दफा पता चलेगा कि भयंकर अंधकार है और मेरे हाथ में लालटेन नहीं।
ऐसी दशा आनंद की हो गई। बुद्ध तो गए तो दीया बुझ गया। भयंकर अंधकार हो गया! बुद्ध की छाया में, बुद्ध की शांति में, बुद्ध की तरंग में जी रहा था, एक रस बह रहा था। मगर वह रस तो बुद्ध का था, स्वयं का न था। आज पहली दफा समझ में आया कि मैं तो बिल्कुल रिक्त हूं, कोरा हूं, व्यर्थ हूं, खाली हूं, घास-फूस हूं; मेरी आत्मा का कोई जन्म नहीं हुआ। एक चोट पड़ी। क्षत्रिय था आनंदः एक चोट पड़ी। आंख बंद करके बैठा सो बैठा। उसने कहाः अब उठूंगा नहीं। या तो जागूंगा या मरूंगा, मगर उठूंगा नहीं। सब दांव पर लगा दिया। यह समर्पण है।
 फिर बिना गुरु के हो गया। बुद्ध तो जा चुके थे और हो गया। तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि बुद्ध के साथ रहते न हुआ और बुद्ध के जाते ही हो गया। क्रांति तुम्हारे भीतर घटनी है। अगर किसी एक गुरु के पास रहकर तुम्हें न घटी हो, तो जल्दी से गुरु बदलने के बजाए इसकी फिकर करना कि मैंने किया है जो कहा गया है।
हां, अगर तुम्हें लगे कि तुमने सब कर लिया जो तुम कर सकते थे और अब कोई और करने को तुम्हारे पास बचा नहीं है, जरूर गुरु बदल लेना। क्योंकि गुरु थोड़े ही लक्ष्य है, लक्ष्य तो सत्य है। मगर जिस गुरु के पास भी हो, उसे पूरा मौका दे देना। यह कहने को न रह जाए कि तुमने नहीं किया।
बुद्ध के साथ ऐसी घटनाएं घटीं।
बुद्ध जब सत्य की खोज करते थे, बहुत गुरुओं के पास गए। आलार कालाम नाम के गुरु के पास वर्षों रहे। जो उसने कहा, किया। उसने ऐसी बातें कहीं जो कोई करने को राजी न हो, लेकिन बुद्ध ने वे भी कीं। उसने कहा कि रोज भोजन कम करते जाओ, कम करते जाओ। जब एक चावल का दाना भोजन रह जाए, फिर दो दाना, फिर तीन दाना, एक-एक फिर एक-एक दिन बढ़ाना। वह भी किया। वर्षो भूखों मरे। शरीर सूख कर हड्डी-हड्डी हो गया। इतने निर्बल हो गए कि नदी में स्नान करने उतरे थे--तो वह नदी कोई बहुत भारी नदी नहीं है। मैंने नदी जाकर देखी है। छिछली नदी है। ‘निरंजना’ कोई बहुत बड़ी नदी नहीं है; सूखी-साखी-सी नदी है--उसमें उतरे थे स्नान करने को, लेकिन उस नदी की धार भी इतनी थी कमजोर इतने हो गए थे--कि बहने लगे। चढ़ न सके घाट पर, इतने कमजोर हो गए थे। कि झाड़ की जड़ पकड़ कर लटके रहे। हड्डी-हड्डी रह गए थे। सारा मांस विलीन हो गया था। जो भी जिसने कहा, पूरा किया।
एक दिन आलार कालाम ने देखा कि जो भी मैंने कहा, पूरा किया, आलार कालाम ने कहा : बस, तू कहीं और जा! तू मुझे छोड़! मैं जो दे सकता था, दे दिया, जो मेरे पास था, तुझे बता दिया। इससे ज्यादा मेरे पास नहीं है। इससे ज्यादा मेरे पास सीखने को अब और बचा नहीं। जितना मेरा बोध था, उतना मैंने तुझे दिया। अब तू जा!
तू कहीं और खोज, तू कोई और गुरु खोज! और अगर किसी दिन तुझे सत्य मिल जाए, तो मुझे याद रखना। मुझे आकर खबर देना। मुझे अभी मिला नहीं। मैं खुद ही खोज रहा हूं।
जब शिष्य इतना समग्र होता है, तो मिथ्या गुरु को भी बोध होगा। शिष्य की समग्रता उसको तो जगाएगी ही, अगर मिथ्या गुरु के पास रहा तो मिथ्या गुरु को भी जगाएगी। समग्रता का ऐसा गुण है! समग्रता में ऐसी ज्योति है! बुद्ध ने उसे भी चौंका दिया। उसे भी तो पीड़ा होने लगी होगी कि यह बेचारा इतना कष्ट पा रहा है! जो मैं कहता हूं, करता है। और आए थे बहुत लोग, उनके साथ एक सुविधा थी : वे करते ही नहीं थे। इसलिए कभी यह सवाल उठता ही नहीं था। इसने तो सब किया। पीड़ा होने लगी होगी आलार कालाम को भी। कांटा चुभने लगा होगा कि यह मैं क्या कर रहा हूं? दया आने लगी होगी। इस व्यक्ति के निर्दोष समर्पण पर प्रीति उगमने लगी होगी। खुद भी जागा होगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं, क्या करवा रहा हूं, मुझे कुछ पता नहीं है। मैंने खुद शास्त्रों से पढ़ लिया है। और मैंने शास्त्रों से जो पढ़ लिया है, वही करवा रहा हूं। मेरा स्वयं का अनुभव नहीं है। तो क्षमा मांगी।
अगर शिष्य संपूर्ण हो, तो शायद गुरु गलत हो तो क्षमा मांगे। शायद उसका बोध आए!
तो तुम जागो। अपनी पूरी चेष्टा करो जगाने की। हां, अगर तुम्हें लगे कि नहीं, मेरे सब करने से कुछ नहीं हुआ, तो जरूर गुरु को बदल लेना। क्योंकि गुरु को पकड़ रखना कोई जीवन का लक्ष्य नहीं है। जीवन का लक्ष्य तो परमात्मा को पाना है। गुरुद्वार बने तो ठीक, दीवाल बन जाए तो रुकने की कोई जरूरत नहीं है।
और यह भी मत सोचना कि तुमने गद्दारी की। गद्दारी का भाव भी तभी उठता है, जब तुमने गुरु का कहा कुछ किया न हो और छोड़ कर जाओ। अगर उसका कहा सब किया तो गद्दारी का भाव उठेगा ही नहीं। क्या करोगे! शायद हमारा तालमेल नहीं बैठता। और तब भी मन में यह मत सोचना कि गुरु गलत है। इतना ही जानना कि हमारा तालमेल नहीं बैठा। उसकी विधि मेरे काम नहीं पड़ी। इससे ज्यादा सोचना मत। इससे ज्यादा सोचने की कोई जरूरत नहीं है। कौन जाने वह ठीक हो, कौन जाने वह गलत हो! यह वह जाने, तुम्हें क्या लेना-देना है? नहीं तो अहंकार इस तरह के निर्णय लेने लगता है। और अहंकार से मुक्त होना है। समर्पण का अर्थ है, अहंकार से मुक्ति।
हृदय कहीं डोलने लगे, कहीं हृदय बुद्धि के विपरीत जाने लगे, जाने देना।
छेड़ा था जिसे पहले-पहल तेरी नजर ने
अब तक है वो इक नग्मा-ए-बेसाज-ओ-सदा-याद
और जो पहली दफा हृदय को छेड़ा जाता है, वह फिर कभी भूलता नहीं, अगर तुम हृदय को छेड़ने दो।
छेड़ा था जिसे पहले-पहल तेरी नजर ने
अब तक है वो इक नग्मा-ए-बेसाज-ओ-सदा याद
बिना साज का, बिना वीणा के संगीत उठ जाता है। बिना वाणी के कोई स्वर भीतर पहुंच जाता है। वह फिर कभी भूलता नहीं। वह मील का पत्थर हो जाता है।
क्या जानिए क्या हो गया अरबाबे-जुनूं को
मरने की अदा याद, न जीने की अदा याद
किसी के पास बैठ कर ऐसा हो जाए कि न जीने की सुध रहे, न मरने की सुध रहे, तो फिर संकोच मत करना, फिर गणित मत बिठाना; फिर सरक जाना चुपचाप उस जाल में! क्योंकि वही जाल तुम्हें मुक्ति के मार्ग पर ले जाएगा।
वो कौन है कि जो सरे-मंजिल पहुंच सका
धुंदले से कुछ निशान नजर आके रह गए
मिटने की तैयारी चाहिए। पहुंचते-पहुंचते तुम मिट जाओगे। ‘धुंदले से निशान नजर आके रह गए।’ बस कुछ धुंदले से निशान। जैसे-जैसे चलने लगोगे, वैसे-वैसे मिटने लगोगे। पहुंचने का मतलब ही है, वह घड़ी जब पूरे मिट गए। धुआं बिखर गया। बस अहंकार धुआं है और कुछ भी नहीं। और जहां धुआं बिखर गया, वहीं ज्योति जलती है निर्धूम!
कुछ दागे-दिल से थी मुझे उमीद इश्क में
सो रफ्ता-रफ्ता वो भी चिरागे-सहर हुआ
धीरे-धीरे दिल भी, दिल के घाव भी, दिल की पीड़ा भी बुझ जाती है। जैसे सुबह का दीया सुबह होते-होते बुझ जाता है।
सो रफ्ता-रफ्ता वो भी चिरागे-सहर हुआ
एक दिन दिल भी बुझ जाता है, सब बुझ जाता है, और जब तुम्हारा सब बुझ जाता है, तब परमात्मा का अवतरण होता है। शुरुआत होती है बुद्धि के बुझने से और अंत होता है हृदय के बुझने पर। और इसलिए तो उसकी तस्वीर कोई नहीं खींच पाता। जो पहुंच गया वह भी उसकी तस्वीर नहीं खींच पाता।
अर्सा-ए-हस्र कहां, ये दिले-बरबाद कहां
वो भी छोटा-सा है टुकड़ा इसी वीराने का

उसकी तस्वीर किसी तरह नहीं खिंच सकती
शम्अ के साथ तअल्लुक है जो परवाने का
अब शमा अगर परवाने को पुकारे, शमा दिखाई पड़ जाए परवाने को, तो परवाना चला, उड़ा! ऐसा एक तअल्लुक है। ऐसी ही घटना घटती है गुरु और शिष्य के बीच। गुरु है शमा, शिष्य हो जाता है परवाना। खिंच चलता। मगर ध्यान रखना, परवाने का जाना शमा की तरफ अपनी मौत की तरफ जाना है। परवाना तो जलेगा शमा में, राख हो जाएगा। राख होकर ही शमा हो पाएगा। इसीलिए अगर कोई परवाने से कहे कि शमा की तस्वीर बना दो, तो न बना पाएगा। क्योंकि शमा को जान ही तब पाता है, जब मिट जाता है। जब स्वयं नहीं रहता तब शमा को जान पाता है। और जब तक स्वयं रहता है तब तक शमा को न देखा है, न जाना है। देखते ही तो दीवानगी आ जाती है।
इसलिए सदगुरु की भी कोई तस्वीर नहीं खींच पाता है। ऊपर-ऊपर के लक्षण लिखे जाते हैं, भीतर की तस्वीर नहीं खिंचती। और न कोई परमात्मा की तस्वीर कभी खींच पाता है। बाहर-बाहर की बातें होती हैं। जानने वाले मुश्किल में पड़ जाते हैंः क्या कहें, कैसे कहें? जगजीवन कहते हैं न बार-बार कि कुछ कहते नहीं बनता, कुछ बताते नहीं बनता। जान तो लिया, जनाते नहीं बनता।
शास्त्रों में तो सब ऊपर के लक्षण दिए हैं। ऊपर के लक्षणों से मत चलना, नहीं तो तुम बुद्धि के घेरे में ही आबद्ध रहोगे। और बुद्धि बंधन है। बुद्धि जंजीर है। तोड़ो इस जंजीर को। नाचने दो हृदय को। गाने दो हृदय को--मुक्त भाव से। जरूर सद्गुरु मिल जाएगा। सद्गुरु सदा मौजूद है। प्यासा कोई हो, सरोवर सदा मौजूद है।
लेकिन सरोवर प्यासे के पास नहीं जाते। शमा परवाने के पास नहीं जाती, परवाने को शमा के पास आना पड़ता है। यद्यपि जब परवाना शमा की तरफ आता है तो शमा के खींचने के कारण ही आता है।

दूसरा प्रश्नः तेरे द्वार खड़ी भगवान
           ओशो भर दे रे झोली

कुसुम! झोली भरी है; झोली खाली नहीं। आंख खोलो और देखो! झोली भरी नहीं जानी है, झोली तुम भरी ही लेकर आए हो। झोली सदा से भरी है। संपदाओं की संपदा तुम्हारे भीतर है। साम्राज्यों का साम्राज्य तुम्हारे हृदय में छिपा है। सब जो तुम्हें चाहिए, तुम्हें दिया ही हुआ है, तुम्हें मिला ही हुआ है। रत्ती भर भी जोड़ना नहीं है। न कुछ जोड़ना है, न कुछ घटाना है, सिर्प जागना है। और जागते ही क्रांति घट जाती है।
तो कुसुम यह तो मत पूछ कि झोली भरूं तेरी! अगर कोई झोली भर सकेगा तेरी तो कोई फिर खाली भी कर सकता है। फिर तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी! मैं तो सिर्फ जगा सकता हूं। और जागते ही तुझे दिखाई पड़ेगा कि तेरी झोली सदा से भरी है, कभी खाली थी ही नहीं। क्योंकि परमात्मा से क्षण भर को हमारा संबंध नहीं टूटता है। हम भूल जाएं उसे, वह हमें नहीं भूला है। हम पीठ कर लें उसकी तरफ, लेकिन उसने हमारी तरफ मुंह रखा है। हम विमुख हो जाएं, वह हमारे सदा सन्मुख है। नहीं तो हम जिएंगे कैसे? वही तो डालता है श्वास वही तो प्राण का तार खींचता है। वही तो धड़कता है हृदय में। वही तो डालता है श्वास। वही तो हमारा जीवन है। परमात्मा हमारे जीवन से भिन्न तो कोई नहीं है, भिन्न तो कुछ नहीं।
लेकिन इसे जानने के लिए, जागने के लिए कुछ प्रक्रिया समझनी होगी।
संसार में जो भी पाना हो, दौड़ने से मिलता है। और अंतर्तम में जो भी पाना हो, वह रुकने से मिलता है। संसार में कुछ पाना हो, विचार करने से मिलता है; भीतर कुछ पाना हो, निर्विचार होने से मिलता है। क्योंकि भीतर पाना नहीं है, पाया ही हुआ है। विचारों के कारण पता नहीं चलता है--विचारों की भीड़ में शोरगुल में खो जाता है। निर्विचार होते ही तत्क्षण चकित होकर पाया जाता है कि हम किसको खोजते थे, क्यों खोजते थे? हम कहां-कहां भटके! और जिसे हम खोजते थे, वह खोजने वाले में छिपा बैठा है।
राह यह पराई है!
भटके इन कदमों के साथ-साथ मेरे
यह बावरी
अंधेरे में साथ चली आई है!

भूखे ये पांव रहे,
प्यासे ये पांव रहे,
जाने किस ओर तक
कहां से ये पांव रहे।
और रुके पांव नहीं
और मिला गांव नहीं।

पांवों के आंसू थे,
मिट्टी का आंचल था,
स्नेहभरी गोद राह की--
कितना संबल था।

सुबह मुंह-अंधेरे से
रात मुंह-अंधेरे तक,
रुके कहीं पांव नहीं
और मिला गांव नहीं।
पांवों के साथ सिर्प राह भटक आई है!
दिन भर की भ्रांति और क्लांति की कमाई है!
राह यह पराई है!
जिन रास्तों पर भी तुम चल रहे हो, सब पराए हैं, सब दूर ले जानेवाले हैं। सब खोज तुम्हें अपने से दूर ले जा रही है।
रुके कहीं पांव नहीं,
और मिला गांव नहीं।
रुको, तो गांव अभी मिले, इसी क्षण मिले! गांव तुम्हारे भीतर बसा है। मालिक भीतर बैठा है।
मत मुझसे मांगो। मांगने में ही भूल हो जाती है। मैं तुम्हें कुछ दे नहीं सकता। लेकिन जाग कर मैंने पाया है कि पाने को कुछ है ही नहीं। यही संकेत तुम्हें देता हूं। जागो, और पा लो।
भूखे ये पांव रहे,
प्यासे ये पांव रहे,
जाने किस ओर तक
कहां से ये पांव रहे।
और रुके पांव नहीं,
और मिला गांव नहीं।
गांव मिल सकता है--अभी, इसी क्षण, कुसुम, पांव रुकने चाहिए। विचार के पांव, वासना के पांव--पांव रुकने चाहिए। सब तरह के पांव रुकने चाहिए। यही ध्यान है। बैठ जाना चुप, मौन; बैठ जाना शांत, निर्विचार; डूब जाना अंतर में, भूल जाना बाहर को। और किसी दिन, किसी शुभ घड़ी में खजाना खुल जाता है। किसी शुभ घड़ी में, किसी शुभ मुहूर्त में राजाओं का राजा भीतर ही उपलब्ध हो जाता है! और तब फूल ही फूल हैं। तब जीवन सुगंध ही सुगंध है।
फूले कदंब
टहनी-टहनी में कंदुक सम झूले कदंब
फूले कदंब
सावन बीता
बादल का कोष नहीं रीता
जाने कबसे वो बरस रहा
ललचाई आंखों से नाहक
जाने कब से तू तरस रहा
मन कहता है, छू ले कदंब
फूले कदंब
झूले कदंब
फिर फूल ही फूल हैं। फिर जीवन सुवास ही सुवास है। नहीं कहीं जाना है, नहीं कुछ पाना है। बस, अपने में आना है। यह सत्य आंख खोल कर नहीं देखा जाता, यह सत्य आंख बंद करके देखा जाता है। कछुए की तरह सिकुड़ रहो। सारी इंद्रियों को शिथिल छोड़ दो। द्वार-दरवाजे सब बंद कर दो, बाहर को भूल-भाल जाओ। न अतीत रह जाए, न भविष्य--बस यही क्षण! और इस क्षण में डुबकी लगा लो। और अतल गहराई है!
फूले कदंब
टहनी-टहनी में कंदुक सम झूले कदंब
फूले कदंब
खुल जाती है पंखुड़ी। भीतर जाते ही खुल जाती है!
वर्षा में अनावृत धुले पात
फीके थे कल, आज खुले पात

धूप के जादू में खिले पात
मस्तानी हवा में हिले पात

जादुई सांचे में ढले पात
भूल गए दाह-दिन भले पात

वर्षा में अनावृत धुले पात
फीके थे कल, आज खुले पात
बस खुलने की बात है। रुको, तो खुलो। पंखुड़ी खुल जाए। स्वर्ण-कमल तुम्हारे भीतर है। तुम हो स्वर्ण-कमल। मांगो मत, जागो!

तीसरा प्रश्नः कृष्ण का नाम ही सुना है। शिव को जाना भी नहीं। किंतु कुंडलिनी ध्यान में ऐसा क्यों लगा कि यहीं शिव का नृत्य हो रहा है और यहीं की मुधर आवाज कृष्ण की बांसुरी की आवाज है? बिना पहचान के ऐसा आभास क्यों हुआ?

पन्नालाल पांडेय! सभी नृत्य कृष्ण का नृत्य है। सभी धुन कृष्ण की धुन है। कृष्ण तो प्रतीक हैं, नृत्य असली बात है। नाच तुम्हारे भीतर खिलने लगेगा तो सुनी हुई बात कृष्ण के नृत्य की अचानक सार्थक हो जाएगी। अचानक उसका अर्थ तुम्हारे अनुभव में आ जाएगा। गीत तुम्हारे भीतर खुलने लगेगा तो अचानक, तुमने सुना है कृष्ण की बांसुरी की टेर--उसकी बात ही सुनी है--मगर जब तुम्हारे भीतर टेर खुलने लगेगी और तुम्हारे भीतर पुकार आने लगेगी तो तुम्हें वही प्रतीक याद आ जाएगा जो सुना है। स्वाभाविक।
ऐसा किसी ईसाई को नहीं होगा। ऐसा किसी जैन को भी नहीं होगा। जैन भी कुंडलिनी कर रहे हैं। उनको कृष्ण की टेर नहीं सुनाई पड़ेगी। उनको शिव का नृत्य नहीं दिखाई पड़ेगा। वह प्रतीक उनके भीतर नहीं है। नृत्य तो उनके भीतर भी होगा, स्वर उनके भीतर भी जागेगा, मगर उस स्वर को प्रकट करने वाला प्रतीक उनके पास नहीं है। तुमने सुना है, तुम्हारे पास प्रतीक है। इसलिए प्रतीक एकदम जीवंत हो उठा। इससे चौंको मत। इससे कृष्ण का कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारे मन में, तुम्हारी स्मृति में एक संस्कार है। अनुभव हुआ, अनुभव ने संस्कार सजग कर दिया।
लेकिन शुभ हुआ। सब प्रतीक प्यारे हैं मगर प्रतीक तभी यारे हैं जब उनका अर्थ तुम्हारे भीतर फले। घर में बैठे हो कृष्ण की मूर्ति लगाए, कि तस्वीर लटकाए, इससे कुछ भी न होगा। तुम्हारे भीतर नाच उठे, तो कुछ हुआ। घर में बैठे हो महावीर की प्रतिमा बिठाए, इससे कुछ भी न होगा। जब तुम्हारे भीतर सब स्थिर हो जाएगा महावीर जैसा, निस्तरंग! अब जैसे तुम्हें यह हुआ, ऐसे ही विपस्सना ध्यान में किसी जैन को अचानक महावीर की याद आ जाएगी, उनकी प्रतिमा आ जाएगी। हिंदू के पास वैसा प्रतीक नहीं है।
सब धर्मो ने प्रतीक चुन लिए हैं।
और मैं तुम्हें यहां जिस वातावरण में प्रवेश दे रहा हूं, यह सारे धर्मो का वातावरण है। यह किसी एक संप्रदाय का मंदिर नहीं है। इस मंदिर के सब द्वार खुले हैं! एक तरफ से यह मस्जिद है, एक तरफ से यह मंदिर है, एक तरफ से गिरजा है, एक तरफ से गुरुद्वारा है, एक तरफ से चैत्यालय है। इन सब द्वारों से मंदिर में प्रवेश संभव है। यहां जब कोई मस्त हो जाएगा, अगर उसके पास कृष्ण का प्रतीक है, तो अचानक उसे समझ में आएगी पहली दफा बात कृष्ण के रास की और अगर किसी ने मीरा को प्रेम किया है तो नाचते में उसे मीरा की याद आ जाएगी, मीरा के भजन गूंज उठेंगे। किसी ने चैतन्य को प्रेम किया है, अचानक उसे लगेगा कि चैतन्यमय हो गया। किसी ने महावीर को चाहा है, महावीर की परंपरा में पैदा हुआ है, महावीर का प्यारा प्रतीक उसके मन में बैठा है, मौन जब सधेगा, सब स्थिर जब होगा, तब उसे लगेगा कि आज जाना। बहुत गया जैन मंदिरों में, बहुत की पूजा, बहुत चढ़ाए चावल, बहुत झुका, लेकिन आज दर्शन हुए। आज अपने भीतर दर्शन हुए!
यहां तो अलग-अलग धर्मो के लोग हैं। शायद पृथ्वी पर ऐसी कोई और दूसरी जगह नहीं है जहां सारे धर्मो के लोग हों! यहां ईसाई हैं, पारसी हैं, यहूदी हैं, मुसलमान हैं--यहां सारी जातियों के लोग हैं, सारे देशों के लोग हैं। सारे प्रतीकों को ले आए हैं। यह बड़ी समृद्ध जगह है। सातों रंग यहां हैं, यह पूरा इंद्रधनुष है। और मैं चाहता यह हूं कि तुम धीरे-धीरे सभी प्रतीकों में लीन होने लगो। कृष्ण का ही प्रतीक क्यों रहे, महावीर का प्रतीक भी जुड़ जाए, बुद्ध का प्रतीक भी जुड़ जाए। क्योंकि ध्यान की अलग-अलग स्थितियों में सारे प्रतीकों के अर्थ हैं। ध्यान में मस्ती भी आती है, बांसुरी भी बजती है, मौन भी छा जाता है, शून्य भी प्रगट होता है। ध्यान के बड़े चढ़ाव हैं, बड़े पड़ाव हैं। अलग-अलग अर्थ अलग-अलग पड़ावों पर खुलते हैं। धर्मो ने एक-एक पड़ाव को पकड़ लिया है। मैं तुम्हें पूरी यात्रा देता हूं। इस यात्रा में सब पड़ाव आते हैं, सब तीर्थ आते हैं। इस यात्रा में काशी आती है और काबा आता है और कैलाश आता है और गिरनार भी, और जेरूसलम। हम एक विश्वयात्रा पर निकले हैं।
तो तुम अपने ही प्रतीकों में बंधे मत रह जाना। तुम धीरे-धीरे अपने मन को खोलो; और प्रतीकों को भी अपने निकट आने दो। तुम औरों के प्रतीक भी सीखो और समझो। क्योंकि जितने प्रतीक तुम जानोगे, उतनी ही तुम्हारी भाषा समृद्ध होगी। तुम्हारा भाव समझने में आसानी होगी।
अच्छा हुआ। पहली बार चोट पड़ी!
अबके इस मौसम में
कोयल आज बोली है
पहली बार!
टूसों को उमगे कई दिन हो गए
टेसू को सुलगे कई दिन हो गए
अलसी को फूले कई दिन हो गए
बौंरों को महके कई दिन हो गए

झपटी पछिया
दरक गए केलों के पात
लेते ही करवट
तेजाब की फुहारें
छिड़कने लगा सूरज
मुंह बा दिया कलियों ने
देखती रह गई निठुराई के खेल
चुपचाप कलमुंही
भर गया जी
जोरों से कूक पड़ी

अब के इस मौसम में
कोयल आज कूकी है
पहली बार!
अच्छा हुआ! तुम्हारे भीतर कोयल पहली दफा बोली है। तुम धन्यभागी हो! अब इसे सुने जाना। यह तो गीत की शुरुआत है, अंत नहीं। यह तो पहला कदम है। अभी बहुत होने को है। इस पर ही अटक मत जाना। जैसे कृष्ण आए और शिव आए, ऐसे ही आने दो बुद्धों को भी, महावीरों को भी; क्राइस्ट को, लाओत्सु को, जरथुस्त्र को भी, आने दो सबको। सब को भरने दो अपना-अपना रंग तुम्हारे प्राणों में। सब को अवसर दो। सब तुम्हारे हैं, तुम सबके हो। और जैसे-जैसे ये प्रतीक आत्मसात होते जाएंगे वैसे-वैसे दृष्टि बदलेगी--और सृष्टि बदलेगी!
पीपल के पत्तों पर फिसल रही चांदनी
नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही
जम रही, घुल रही, पिघल रही चांदनी
पिछवाड़े, बोतल के टुकड़ों पर--
चमक रही, दमक रही, मचल रही चांदनी
दूर उधर, बुर्जी, पर उछल रही चांदनी

आंगन में, दूबों पर गिर पड़ी--
अब मगर, किस कदर, संभल रही चांदनी
वो देखो सामने--
पीपल के पत्तों पर फिसल रही चांदनी
एक बार भीतर जगने लगे रोशनी, सब तरफ फिसलने लगेगी। पीपल के पत्तों पर, पत्तों-पत्तों पर। सारा जगत एक अपूर्व सौंदर्य से भर जाता है जब तुम्हारे हृदय में संगीत का जन्म होता है। सब तरफ प्रार्थना उठने लगती है, भजन पैदा होने लगता है। भजन वह नहीं है जो तुम आयोजन से करते हो; भजन वह है जो बिना किसी आयोजन के अचानक तुम्हें पकड़ लेता है, मथ जाता है जैसे झंझावात पकड़ ले। जैसे आए एक तूफान, आए एक आंधी और तुम्हें पकड़ ले और तुम उड़ चलो और तुम्हें पंख दे दे!
लोचन अंजन, मानस रंजन
पावस, तुम्हें प्रणाम
तापतप्त वसुधा दुख भंजन
पावस, तम्हें प्रणाम
ऋतुओं के प्रतिपालक ऋतुवर
पावस, तुम्हें प्रणाम
अतुल अमित अंकुरित बीजधर
पावस, तुम्हें प्रणाम
नेह-छोह की गीली मूरत
पावस, तुम्हें प्रणाम
अग-जग फैली नीली सूरत
पावस, तुम्हें प्रणाम
फिर वर्षा आए तो प्रणाम! सर्दी आए तो प्रणाम! धूप उगे तो प्रणाम! फिर नमन तुम्हारा स्वभाव हो जाता है, क्योंकि परमात्मा सब तरफ मौजूद है। इधर देखो, कृष्ण नाच रहे हैं। यह जो नाचने लगा मोर, और कौन है? याद करो वे मोरपंख जो कृष्ण के मुकुट पर बंधे हैं। इधर नाचा मोर, कृष्ण नाचे! इधर देखो यह पीपल का दरख्त चुपचाप खड़ा सन्नाटे में, पत्ता भी हिलता नहीं--बुद्ध खड़े हैं! तुम्हारी आंख जरा खुलने लगे तो यह सारी प्रकृति धीरे-धीरे परमात्मा में रूपांतरित होने लगती है। और जहां उठाओ कदम, वहीं पवित्र भूमि है। जिस तरफ रखो आंख, वहीं परमात्मा के दर्शन हैं। फिर झुकता मन! फिर प्रणाम! फिर अभिनंदन! पल-पल, श्वास-श्वास, हृदय की धड़कन-धड़कन में नमन! ऐसी भावदशा को ही मैं भक्ति कहता हूं। ऐसी भावदशा बढ़ते-बढ़ते एक दिन भगवत्ता बन जाती है।
इससे कम पर राजी नहीं होना है। भक्ति को भगवत्ता तक ले चलना है। भक्ति के बीज को भगवत्ता का फूल बनाना है।
और तुम समर्थ हो। प्रत्येक समर्थ है। और तुम्हारा यह स्वरूपसिद्ध अधिकार है। अगर तुम चूको, तो तुम्हारे सिवाय और कोई जिम्मेवार नहीं। चूको तो तुम्हारी ही भूल है। पा लो, तो कुछ विशेष तुमने पाया नहीं। जो सहज ही मिलना था वही मिल गया है।
परमात्मा को चूकना बड़ी विशेष कला है, परमात्मा को पाना इतनी विशेष कला नहीं। परमात्मा को पाना सहज बात है, क्योंकि हमारा स्वभाव है। परमात्मा को तुम चूक रहे हो, यही चमत्कार है! यह बिल्कुल अविश्वसनीय है कि कैसे तुम चूके चले जाते हो! सब तरफ जो भरा है, सब तरफ से जो आ रहा है, सब तरफ से तुम्हें घेरे है, बाहर और भीतर जो उमगा पड़ रहा है, उससे तुम कैसे चूके जा रहे हो? मगर हो जाता है ऐसा। सागर में मछली हो, तो पता नहीं चलता उसे सागर का। ऐसे ही हम परमात्मा में और हमें परमात्मा का पता नहीं चलता है।
सत्संग में पहली बार तुम्हें धीरे-धीरे रस की बूंद-बूंद पड़नी शुरू होगी, बूंदाबांदी होगी। फिर तो मूसलाधार होने लगती है वर्षा। तुम जैसे-जैसे तैयार होने लगते हो, जितने को लेने की तुम्हारी तैयारी होने लगती है, उतना ज्यादा-ज्यादा परमात्मा तुम में बहने लगता है। तुम्हारी पात्रता, तुम्हारे पात्र के अनुकूल सदा तुममें भरने को परमात्मा राजी है।
यह पहली कूक पड़ी, यह तुम्हें कृष्ण का थोड़ा-सा आभास हुआ, शिव का थोड़ा सा आभास हुआ, यहीं रुक मत जाना। बढ़ने दो। फैलने दो। पूरे आकाश को घेर लेना है। सारे धर्म तुम्हारे हैं। सब कुरानें, सब बाइबिलें, सब वेद तुम्हारे हैं। और अगर तुम राजी हो, हिम्मतवर हो और छाती तुम्हारी बड़ी है, तो एक दिन तुम वेद को जगत्े देखोगे, एक दिन कुरान को उठते देखोगे। अगर वेद ही जागा तो आदमी गरीब रह गया। क्योंकि कुछ है जो वेद में है और कुछ है सौंदर्य जो कुरान में है। जिसके भीतर दोनों जगे, वह धन्यभागी। और जिसके भीतर धम्मपद भी उठा, और महावीर की वाणी भी गूंजी, उसका तो कहना क्या!
मनुष्य को हमें घोषणा देनी है कि सारी मनुष्यता का पूरा अतीत, पूरा इतिहास हमारी वसीयत है। संकीर्ण न होना, कृष्ण को ही पकड़ कर मत रह जाना, अन्यथा नाच तो जान लोगे, लेकिन महावीर की शांति से वंचित हो जाओगे। महावीर को ही पकड़ कर मत रह जाना, अन्यथा शांति तो जान लोगे, लेकिन तुम्हारे पैर में घूंघर न बंधेंगे, बांसुरी न बजेगी। सब सुंदर है! किसी क्षण में मौन और किसी क्षण में मुखर गीत--सब सुंदर है। सर्वांगीण का स्वीकार, सर्व का स्वीकार धार्मिक व्यक्ति का लक्षण है। धार्मिक व्यक्ति सांप्रदायिक नहीं होता, नहीं हो सकता है।

आज इतना ही।

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