सातवां-प्रवचन-(साध से बड़ा न कोई)
सारसूत्र:
गऊ निकसि बन जाहीं। बाछा उनका घर ही माहीं।।तृन चरहिं चित्त सुत पासा। गहि जुक्ति साध जग-बासा।।
साध तें बड़ा न कोई। कहि राम सुनावत सोई।।
राम कही, हम साधा। रस एकमता औराधा।।
हम साध, साध हम माहीं। कोउ दूसर जानै नाहीं।।
जन दूसर करि जाना। तेहिं होइहिं नरक निदाना।।
जगजीवन चरन चित लावै। सो कहिके राम समुझावै।।
साध कै गति को गावै। जो अंतर ध्यान लगावै।।
चरन रहे लपटाई। काहू गति नाहीं पाई।।
अंतर राखै ध्याना। कोई विरला करै पहिचाना।।
जगत किहो एहि बासा। पै रहैं चरन के पासा।।
जगत कहै हम माहीं। वै लिप्त काहू मां नाहीं।।
जस गृह तस उदयाना। वै सदा अहैं निरबाना।।
ज्यों जल कमल कै बासा। वै वैसे रहत निरासा।।
जैसे कुरम जल माहीं। वाकी स्रुति अंडन माहीं।।
भवसागर यह संसारा। वै रहैं जुक्ति तें न्यारा।।
जगजीवन ऐसें ठहराना। सौ साध भया निरबाना।।
खुद अपने अक्स को अपने मुकाबिल देखने वाले
जरा आंखें तो खोज ओ नक्शे-बातिल देखने वाले
हकीकत को हकीकत के मुकाबिल देखने वाले
मुझे भी देख मेरी हस्ती-ए-दिल देखने वाले
नकूशे-पर्तवे-रंगीनी-ए-दिल देखने वाले
कभी खुद को भी देख ओ खुद से गाफिल देखने वाले
मेरी हस्ती का हर जर्रा उड़ा जाता है मंजिल से
मेरा मुंह देखते हैं जज्बे-मंजिल देखने वाले
उन्हें तह की खबर क्या? गौहरे-मकसद को क्या जानें
ये सब हैं रक्स मोजो-सुक्रो-साहिल देखने वाले
इधर आ हर कदम पर हुस्ने-मंजिल तुझको दिखला दूं
फलक को यास से मां.जल-ब-मंजिल देखने वाले
बुद्धों का एक ही आवाहन हैः
इधर आ हर कदम पर हुस्ने-मंजिल तुझको दिखला दूं
उस परम प्यारे का सौंदर्य, सत्य का सौंदर्य दिखलाने के लिए बुद्धपुरुष आतुर हैं। और उस सत्य का सौंदर्य ऐसा भी नहीं है कि तुमसे कुछ भिन्न हो, तुमसे अभिन्न है।
कभी खुद को भी देख ओ खुद से गाफिल देखने वाले
तुम्हारे जीवन की पीड़ा एक ही है कि तुम स्वयं से अपरिचित हो। एक ही संताप हैः आत्म-अज्ञान।
आज के सूत्र महत्त्वपूर्ण हैं। और विशेषकर संन्यास की मेरी धारणा के बड़े अनुकूल हैं। संन्यासी के लिए आधार बन सकते हैं। एक-एक शब्द एक-एक कुंजी है।
गऊ निकसि बन जाहीं। ...
देखा है तुमने गाय को जंगल जाते?
... बाछा उनका घर ही माहीं।।
लेकिन उसका बछड़ा तो घर ही होता है। उसका प्यारा तो घर ही होता है। तो ऐसे गाय जाती तो है जंगल, जाना पड़ता है--जरूरत है भोजन की, घास की--लेकिन हृदय घर ही रह जाता है।
गऊ निकसि बन जाहीं। बाछा उनका घर ही माहीं।।
तृन चरहिं चित्त सुत पासा। ...
चरती है, जंगल में भोजन करती है, लेकिन चित्त की लौ घर की तरफ लगी रहती है। बछड़े की तरफ सुरति जगी रहती है।
... गहि जुक्ति साध जग बासा।।
ऐसा ही जो सच्चा साधु है, वह जगत में रहता है, लेकिन याद उसकी परमात्मा में लगी रहती है। छोटी सी बात। संतों की बातें छोटी, सीधी, साफ, सरल। गाय को जंगल जाते तुमने भी देखा है; लौट-लौट कर घर की तरफ देखते देखा या नहीं? जंगल में चरती भी है तो भी कभी-कभी रंभा उठती है। घर की याद पकड़ लेती है, तुम तो ऐसे भटक गए हो संसार में कि तुम्हें घर की याद नहीं आती है। घास-पात ही चर रहे हो--और संसार में कुछ है भी नहीं, इससे ज्यादा मूल्यवान कुछ भी नहीं है--लेकिन घास-पात में ही भटक गए हो। कूड़ा-करकट में भटक गए हो। घर की याद ही विस्मृत हो गई। उस घर की याद पुनः आ जाए तो तुम्हारे जीवन में क्रांति का सूत्रपात हो।
जगजीवन कहते हैंः ‘गहि जुक्ति साध जग-बासा।।’ यही उपाय है। यही साधु के जीवन का ढंग है, यही साधु की शैली है। जैसे गाय जंगल में घास-पात चरती, पर देह ही जैसे जंगल में, प्राण तो घर अटके हैं। हृदय तो घर बसा है, हृदय तो घर ही छोड़ आई है। ऐसा ही साधु बाजार में भी उठता है, बैठता है, काम भी करता है, धाम भी करता है, लेकिन प्रतिपल, अहर्निश, सोते-जागते, उठते-बैठते उसकी श्वासों का तार घर से जुड़ा रहता है। परम प्यारे की याद बनी रहती है। उस प्रीतम की याद उसके भीतर एक सतत ज्योति की तरह जलती रहती है। यही युक्ति है; यही योग है। इतना ही योग है। इतना ही कर लिया तो सब कर लिया; और कुछ करने को नहीं है।
जंगल भाग कर जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि अगर तुम्हें यहां परमात्मा की याद नहीं आती, तो जंगल में जाकर ही कैसे आ जाएगी? जंगल में ही तो हो। और कहां जाते हो! मरघट पर चले जाओगे, इससे साधना नहीं हो जाएगी। बाजार भी तो मरघट है, जरा आंख खोल कर देखो! वहां सभी मरने के लिए तैयार बैठे हैं। और मरघट क्या होगा? जिस घाट पर सब मरते हैं, उसी को तो मरघट कहते हैं न! यहां सभी तो मरने को तैयार बैठे हैं, पंक्तिबद्ध, अपने-अपने समय की प्रतीक्षा करते। कब किसकी गाड़ी आ जाएगी, कब किसका बुलावा आ जाएगा, वह चला जाएगा। और रोज तुम लोगों को विदा करते हो। और कहां जाना है? मरघट पर जाने से क्या होगा? अगर तुम्हें बाजार में मरघट नहीं दिखाई पड़ा तो मरघट में भी तुम बाजार बसा लोगे।
बाजार कहां है? संसार कहां है?
क्षुद्र को छोड़ने की जरूरत नहीं है, विराट के प्रति जागने की जरूरत है। यह युक्ति। यह असली साधना का आधार। व्यर्थ को छोड़ना नहीं है, सार्थक को स्मरण करना है। अंधेरे को कोई छोड़ना भी चाहो तो कैसे छोड़ेगा? कभी कोई अंधेरे को छोड़ सका है? रोशनी जलानी पड़ती है, अंधेरा अपने आप छूट जाता है। लेकिन कुछ है, जो अंधेरे को छाती से लगाए बैठे हैं। और उनकी छाती से कुछ भी लग नहीं सकता, क्योंकि अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है। कुछ हैं, जो अंधेरे पर मुट्ठी बांध करबैठे हैं। उनकी मुट्ठियां खाली हैं। क्योंकि अंधेरा कुछ हो तो मुट्ठी बंधे! कुछ हैं जिन्होंने तिजोरियों में अंधेरा भर रखा है। बैंकों में अंधेरा जमा कर रखा है। भ्रांति दे रहे हैं अपने को। अंधेरा है ही नहीं, अंधेरा अभाव है। तुम अंधेरे की संपदा नहीं बन सकते हो। अभाव की कोई संपदा नहीं बनती।
फिर जब आदमी थक जाता है, अंधेरे पर मुट्ठी बांध-बांध कर, हार-हार जाता है, तो एक दिन भागने लगता है अंधेरे को छोड़ कर। भाग कर कहां जाओगे? आंखें तुम्हारी अंधी हैं तो तुम जहां जाओगे वहीं अंधेरा होगा। तुम्हारे अंधेपन में अंधेरे का वास है। तुम्हारे पास ही बुद्धपुरुष बैठे हों तो वे रोशनी में हैं, तुम अंधेरे में हो। स्थान का सवाल नहीं है, स्थिति का सवाल है। तुम स्थान बदलते हो। तुम कहते हो, बाजार में बहुत उलझन है, घर-गृहस्थी में बहुत झंझट है, आश्रम जाएं; आश्रम में बैठेंगे। झंझट तुम्हारे भीतर है। झंझट का सूत्र तुम्हारे भीतर है।
मैंने सुना, एक आदमी बड़ा क्रोधी था। मगर सोचता था, पत्नी क्रोध दिला देती है। ग्राहक क्रोध दिला देते हैं। बच्चे क्रोध दिला देते हैं, पड़ोसी क्रोध दिला देते हैं। छोड़ दिया संसार--जो सामान्य साधु की प्रक्रिया है; सच्चे साधु की नहीं--छोड़ दिया संसार, चला गया जंगल में, बैठ गया वृक्ष के नीचे, सोचा अब कोई झंझट नहीं उठेगी। एक कौवा आया और उसने बीट कर दी! उठा लिया पत्थर उसने, दौड़ने लगा कौवे के पीछे कि तूने समझा क्या है? बकने लगा गालियां। क्रोध से लाल हो गया चेहरा उसका। और तब उसे याद आया, यह मैं क्या कर रहा हूं?
क्रोध का सूत्र भीतर है। कोई भी निमित्त बन जाएगा। कोई भी कारण बन जाएगा।
लोग मुर्दा चीजों तक पर क्रोध करते हैं। तुमने भी कभी देखा, फाउंटेन पेन लिखते-लिखते स्याही नहीं चलती, पटक दिया! जरा अक्ल है कुछ? क्या कर रहे हो कभी सोचा? नाराज हो गए। फाउंटेन पेन कुछ जानकर तुम्हें सता नहीं रहा था। तुम्हारा ही फाउंटेन पेन है! लेकिन क्रोधी आदमी तो किसी भी चीज पर क्रोध कर लेता है। दरवाजा ऐसे लगाता है जैसे दरवाजे में कोई प्राण हैं! जूता ऐसा फेंक देता है जैसे जूते में कुछ प्राण हों। चीजों से भी क्रोध हो जाता है। छोटे-छोटे बच्चे ही नहीं, बड़े-बड़े बूढ़े भी। छोटे बच्चे को चलने में टेबल लग गई जोर से, नाराज हो जाता है, एक घूंसा मारता है टेबल को। यह छोटे बच्चे पर तुम हंसते हो, लेकिन तुम बड़े हो पाए हो? तुम में प्रौढ़ता आई है। भागकर क्या करोगे, जागो! युक्ति सीखो! यह रही युक्ति--
गऊ निकसि बन जाहीं। बाछा उनका घर ही माहीं।।
तृन चरहिं चित्त सुत पासा। गहि जुक्ति साध जग-बासा।।
ऐसा इस छोटी-सी घटना से जो समझदार हैं समझ लेते हैं, जगत में ही रह जाते हैं। जगत ही तो है। जंगल में भी जगत है। हिमालय पर भी जगत है। जगत ही है, जहां भी हो जगत है। लेकिन इसमें इस ढंग से रहा जा सकता है कि देह ही यहां हो, प्राण परमात्मा में हों। प्राणों का परमात्मा में होने का नाम प्रार्थना है।
देह तो संसार की है और संसार में ही होगी। तुम बाजार में मरोगे तो भी मिट्टी में गिरेगी देह और मिट्टी में मिलेगी, और तुम हिमालय पर मरोगे तो भी मिट्टी में गिरेगी देह और मिट्टी में मिलेगी। देह तो मिट्टी है, सो कहीं भी गिरेगी मिट्टी में गिरेगी और मिट्टी में मिलेगी। सवाल तुम्हारे भीतर उसको पहचान लेने का है जो मिट्टी नहीं है, और उसका संबंध जोड़ लेने का है जो अमृत है। तुम्हारे भीतर अमृत की बूंद है। परमात्मा अमृत का सागर है, यह बूंद सागर की याद से भर जाए, बस क्रांति घट गई! फिर तुम्हारे जीवन में दुख नहीं। फिर तुम्हारे जीवन में संताप नहीं, चिंता नहीं, क्योंकि फिर तुम रहे ही नहीं अलग।
दुख, चिंता, संताप अलग होने की उप-उत्पत्तियां हैं। तुमने अपने को अलग समझा है परमात्मा से, इसलिए चिंता है, इसलिए परेशानी है, इसलिए उलझन है। जैसे ही तुमने जाना मैं उससे जुड़ा हूं, सब चिंता गई! फिर चिंता क्या है? परमात्मा से जुड़े हो तो परमात्मा चिंता कर रहा है, तुम्हें चिंता की क्या जरूरत है? जैसे छोटे बच्चे ने अपना हाथ बाप के हाथ में दे दिया। अब छोटे बच्चे को कोई चिंता नहीं है। हो सकता है कि बाप-बेटे दोनों जंगल में भटक गए हों, सिंह दहाड़ रहा हो, मगर छोटा बच्चा अब जरा भी चिंतित नहीं है, बाप के हाथ में हाथ है! बाप चाहे चिंतित हो, परेशान हो कि अब क्या करना, जान खतरे में है! मगर छोटा बच्चा मस्त है! उड़ती तितलियों को पकड़ने की कोशिश कर रहा है, राह के किनारे फूलों को तोड़ रहा है, रंगीन पत्थरों को बीन रहा है--उसे कोई चिंता नहीं है। हां, जरा पिता छूट जाए, खो जाए, देखेगा चारों तरफ, पिता को नहीं पाएगा--अभी कोई दुख नहीं टूट पड़ा है उस पर--लेकिन पिता को न पाते ही भयंकर चिंता और भय पकड़ लेगा। ऐसी ही तुम्हारी दशा है।
तुमने हाथ छोड़ दिया है उसका; जिसके हाथ में हाथ हो तो कोई चिंता नहीं होती, मनुष्य निर्भार जीता है। उस निर्भारता का नाम ही साधुता है। गहि जुक्ति साध जग-बासा।।
साध ते बड़ा न कोई।
साधु से फिर कोई बड़ा नहीं, सच्चे साधु से फिर कोई बड़ा नहीं। क्यों? क्योंकि बड़े से उसका जोड़ हो गया। सच्चे साधु से कोई बड़ा नहीं, क्योंकि सच्चा साधु तो अपनी तरफ से मिट ही गया। उसके भीतर से तो परमात्मा झांकने लगा। अब व्यक्ति नहीं है, अब तो समष्टि उस के भीतर से बोलती और डोलती है। अब बूंद नहीं है, अब सागर है। इस जगत में सबसे बड़े वे ही हैं, जो मिट गए हैं। इस जगत में सबसे छोटे वे ही हैं, जो बहुत घनीभूत होकर हैं।
अहंकार इस जगत में सबसे छोटी बात है। और निर-अहंकारिता इस जगत में सबसे बड़ी बात है। मगर निर-अहंकार तुम अपने आप न हो सकोगे। अपने-आप निर-अहंकार होने का कोई उपाय ही नहीं है। अपने-आप अगर तुम निर-अहंकार होना चाहोगे तो निर-अहंकारिता का भी अहंकार आ जाएगा। तुमने अपना चरित्र सम्हाल लिया; व्रत किए, उपवास किए; झूठ नहीं बोले, पाप नहीं किए, चोरी नहीं की, बेईमानी नहीं की, शराब नहीं पी, मांस नहीं खाया, सब तरफ से तुमने अपने को सम्हाल लिया, साध लिया, चरित्र बना लिया, मगर इस चरित्र के भीतर अहंकार मजबूत होता रहेगा। मैंने किया! मेरा चरित्र! मेरा उज्ज्वल चरित्र! मेरी विनम्रता! देखो मेरी मर्यादा, मेरा शील! ‘मैं’ मजबूत होता रहेगा। इस ‘मैं’ से तुम बाहर न हो सकोगे।
इस ‘मैं’ से तो सिर्फ वही बाहर होता है जो परमात्मा के चरणों में अपने को छोड़ देता है। जो कहता है, मैं क्या करूं! मेरे किए सब गलत हो जाता है। मेरे लिए सब अनकिया हो जाता है। मेरे करने में ही भ्रांति है।
इस भेद को ख्याल करो।
तुम्हें सदा से कहा गया है--नैतिकता की शिक्षा यही है--अच्छे बनो! बुराई छोड़ो! सदाचरण ग्रहण करो! शिक्षा बुरी नहीं है, ठीक मालूम होती हैः चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, झूठ मत बोलो, हिंसा मत करो! मगर शिक्षा धर्म नहीं है, यह शिक्षा धर्म नहीं है। नैतिक तो है। यह सज्जन को पैदा कर देगी। लेकिन संत को नहीं।
सज्जन दुर्जन के विपरीत है। दुर्जन खतरनाक है। समाज के लिए अड़चन देता है, दुविधा पैदा करता है। सज्जन समाज के लिए सुविधापूर्ण है। समाज चाहती है सभी लोग सज्जन हों। तो काम-धाम व्यवस्था से चलता है।
लेकिन संतत्व कुछ और ही बात है। संतत्व का अर्थ सज्जनता नहीं है। सज्जन होने के लिए ईश्वर को मानने की कोई भी जरूरत नहीं है। नास्तिक भी सज्जन होते हैं। अक्सर तो ज्यादा सज्जन होते हैं आस्तिक से। आखिर रूस और चीन में लाखों-करोड़ों नास्तिक हैं। सज्जन हैं। ईश्वर को न मानने से कोई असज्जन नहीं हो जाता। अकसर तो ऐसा हो जाता है कि ईश्वर को न मानने वाले को सुविधा मिलती है असज्जन होने की। क्योंकि वह सोचता हैः चले जाएंगे एक दफा गंगा नहा आएंगे, धुल जाएंगे सब पाप। कर लो, अभी तो बहती गंगा हाथ धोलो, फिर देखेंगे। फिर यज्ञ-हवन करवा देंगे। फिर मरते वक्त राम-राम जप लेंगे। और उसकी तो करुणा है ही! वह तो महाकरुणावान है। उसने ही अपात्रों को पार कर दिया, लंगड़ों को पहाड़ चढ़ा दिया, बहरों को सुनवा दिया, अंधो को दिखवा दिया, तो देख लेंगे, उसी का पकड़ लेंगे सहारा अखीर में, उसी का नाम पुकार लेंगे!
आस्तिक को एक सुविधा है कि पाप भी कर लो और पाप से बचने का उपाय भी। नास्तिक को सुविधा नहीं है। नास्तिक तो जानता हैः जो मैंने किया, मैंने किया। अच्छा, तो मैंने, बुरा, तो मैंने! लेकिन नास्तिक कभी अहंकार से मुक्त नहीं हो सकता यह बात समझना।
नास्तिक दुश्चरित्रता से मुक्त हो सकता है, लेकिन अहंकार से मुक्त नहीं हो सकता। अहंकार से मुक्त होना तो केवल परम आस्तिकता में ही संभव है। झूठा आस्तिक भी अहंकार से मुक्त नहीं होता। झूठा आस्तिक ज्यादा से ज्यादा चरित्रवान हो सकता है। लेकिन उसका चरित्र सब ऊपर-ऊपर होता है और भीतर अहंकार जलता है, प्रज्वलित जलता है। इसलिए अक्सर मंदिर जाने वाले लोग तुम्हें ज्यादा अहंकारी मालूम पड़ेंगे। जिन्होंने एकाध दिन उपवास कर लिया, वे समझते हैं जिन्होंने उपवास नहीं किया, वे सब नरक जाने वाले हैं। जिसने एकाध बार मंत्र पढ़ लिया दिन में, वह सोचता है, बस, मेरा स्वर्ग निश्चित! और सब पर उसको दया आती है कि बेचारे दीन-हीन, भटकेंगे, जलेंगे नरकोंमें!
तुम्हारे एक बार मंत्र, तोतारटंत की तरह मंत्र पढ़ लेने से सिर्फ तुम्हारा अहंकार भर रहा है और कुछ भी नहीं हो रहा है। असली आस्तिक कुछ बात और है। असली आस्तिकता का आधारभूत नियम हैः मेरे किए कुछ भी न होगा। मैं तो अच्छा भी करता हूं तो बुरा हो जाता है। नेकी भी करता हूं तो बदी हो जाती है। मेरे हाथ में ही भूल है। मेरा होने में ही भूल है। मेरा तुझसे पृथक होना ही मेरी सारी भूलों का स्रोत है। इसलिए जब तक मैं तुझसे पृथक हूं तब तक मैं तीर्थ भी करूंगा, पुण्य भी करूंगा, चरित्र भी सम्हालूंगा तो भी कुछ सम्हलेगा नहीं। अंततः मेरा अहंकार ही मजबूत होगा और अहंकार ही तो नरक है।
फिर क्या करूं? तू कर! मैं छोड़ता हूं। मैं हटता हूं रास्ते से। मैं तेरे और मेरे बीच न आऊंगा। मैं सब तुझ पर समर्पित करता हूं। मैं तेरी याद रखूंगा। मैं तेरी पूरी तरह याद रखूंगा, एक क्षण तुझे विस्मरण न करूंगा। जागते ही नहीं, सोते भी अहर्निश तेरी याद मेरे हृदय में गूंजती रहेगी। बस शेष तू कर! और शेष सब अपने से हो जाता है। क्योंकि जैसे ही अहंकार मिटा वैसे ही पाप का आधार मिट गया। और जैसे ही अहंकार मिटा, पुण्यात्मा का भाव भी मिट गया। यह जो परम शून्य की दशा है, इसी में पूर्ण का अवतरण होता है। फिर व्यक्ति तो बांस की पोंगरी। फिर परमात्मा जो गीत गाता है, गाता है।
साध तें बड़ा न कोई।
इसलिए साधु से कोई बड़ा नहीं। क्योंकि साधु मिट गया। ख्याल रखना, शर्त क्या है? साधु से कोई बड़ा नहीं है, इसका यह मतलब नहीं है कि साधु बड़ा है। साधु से कोई बड़ा नहीं है, इसका अर्थ है कि साधु है ही नहीं। इसलिए अब कौन उससे बड़ा हो सकता है!
जीसस ने कहाः धन्यभागी हैं वे जो अंतिम हैं, क्योंकि वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम होंगे। अंतिम कौन है? जो शून्यवत है। जिसका कोई दावा नहीं है। जिसकी ‘मैं’ की कोई घोषणा नहीं है। ‘साध तें बड़ा न कोई’ क्योंकि साधु है ही नहीं, उसके भीतर परमात्मा ही बोल रहा है।
जब कृष्ण ने अर्जुन से कहाः ‘मामेकं शरणं व्रज’, मुझ एक की शरण आ, तो क्या तुम सोचते हो कृष्ण, कृष्ण की ही शरण आने को कह रहे हैं अर्जुन को? तो तुम गलती कर जाओगे। तो तुम बड़ी भूल कर जाओगे। और यही कृष्ण-भक्तों ने समझा हुआ है, कि कृष्ण यह कह रहे हैं अर्जुन से कि तू मेरी शरण आ। यह सिर्फ भाषा के कारण भ्रांति हो रही है। मजबूरी है। कृष्ण को भी ‘मैं’ शब्द का उपयोग करना पड़ता है। क्योंकि बिना ‘मैं’ शब्द का उपयोग किए हमारी भाषा ही खड़ी नहीं होती। हमारी भाषा ही ‘मैं’ शब्द पर खड़ी है। हमारी भाषा अहंकार का विस्तार है। हमारी भाषा में बोलना है तो हमारी भाषा ही बोलनी होगी। अर्जुन को समझाना है तो अर्जुन की ही भाषा बोलनी पड़ेगी। उस भाषा में ‘मैं’-‘तू’ अनिवार्य है। इसलिए कृष्ण कह रहे हैंः ‘मामेकं शरणं व्रज’; आ, तू मेरी शरण आ!
लेकिन वस्तुतः अर्थ क्या है? कृष्ण तो हैं ही नहीं, वहां तो परमात्मा पूर्ण विराजमान हुआ है। कृष्ण तो मिट गए हैं। मिट कर ही तो भगवत्ता हुई है। अंधेरा तो हट गया है। अर्जुन को नहीं दिखलाई पड़ रहा है प्रकाश अभी, क्योंकि वह आंखें बंद किए खड़ा है। मगर सामने प्रकाश है। अर्जुन को अंधेरा दिखाई पड़ रहा है। प्रकाश कह रहा है :‘मामेकं शरणं व्रज’; प्रकाश कह रहा हैः मेरी शरण आ। अर्जुन तो यही समझेगा कि अंधेरा कह रहा हैः मेरी शरण आ। क्योंकि अर्जुन आंख बंद किए है, उसे तो प्रकाश दिखता नहीं, उसे तो लगता है अंधेरे में से आवाज आ रही हैः ‘मेरी शरण आ। अर्जुन थोड़ा झिझका होगा, चिंतित हुआ होगा, हैरान भी हुआ होगा कि कृष्ण मेरे सखा हैं, बचपन के मेरे मित्र हैं, मेरे सारथी हैं युद्ध में और मुझसे कह रहे हैंः मेरी शरण आ?
इसलिए उसने कहा कि पहले अपना विराट रूप दिखलाओ। ये तुम क्या बातें करने लगे? ये तुम कैसी बातें कर रहे हो? पहले अपना विराट रूप दिखलाओ। उसे नहीं दिखाई पड़ रहा है। कृष्ण तो विराट रूप में ही हैं, मगर उसके पास आंख नहीं हैं, इसलिए कहानी बड़ी यारी है। कि कृष्ण उसे दिव्यच्रु देते हैं। उसे एक नई आंख देते हैं। देखने का एक नया ढंग देते हैं, एक और देखने की व्यवस्था देते हैं। यही शिष्यत्व है। देखने की एक नई आंख, एक नई व्यवस्था, एक नया ढंग। सोचने की एक नई प्रक्रिया, तर्क की एक नई सरणी।
और जब जरा सी अर्जुन की आंख खुली तो बहुत घबड़ा गया है, भयभीत हो उठा है। क्योंकि विराट दिखाई पड़ा! अनंत दिखाई पड़ा! असीम दिखाई पड़ा! सीमा में सुरक्षा मालूम होती। असीम? अतल में जैसे कोई गिरने लगे। घबड़ा गया है! रोआं-रोआं कंप गया है! पुकारने लगा कि बस, बस, वापस लौट आओ! तुम अपने पुराने रूप में वापस लौट आओ! मेरे सखा, तुम अपने पुराने रूप में वापस लौट आओ! तुम अपनी सीमा में आ जाओ। तुम वैसे ही दिखाई पड़ो जैसे तुम सदा मुझे दिखाई पड़े हो। वही तुम्हारा सौम्य रूप--मित्र का; देह में आबद्ध--सीमा में।
शिष्य जब आंख खोलता है तो गुरु में सदा उसे असीम दिखाई पड़ता है। और शिष्य सदा डरता है। अर्जुन और कृष्ण के बीच जो घटा, वह बार-बार हर गुरु और हर शिष्य के बीच घटता है। और जब भी विराट दिखाई पड़ता है, तभी भयभीत। तब हर शिष्य कहता है कि लौट आओ अपने सौम्य रूप में। वही प्रीतिकर था।
कृष्ण कह रहे हैंः ‘मामेकं शरणं व्रज’, मुझ एक की शरण तू आ। और कितनी हिम्मत का उदघोष है! ‘सर्व धर्मान परित्यज्य’, छोड़छाड़ सारे धर्म, आ मुझ एक की शरण। किन धर्मों में उलझा है? किन सिद्धांतों-शास्त्रों में उलझा है, मैं तेरे सामने खड़ा हूं! शास्ता सामने खड़ा है, तू शास्त्रों में उलझा है! स्वयं धर्म तेरे सामने मौजूद है और तू मुर्दा धर्मों में उलझा है! छोड़-छाड़ सारे धर्म, आ मेरी शरण! मगर ख्याल रखना, कृष्ण जब कह रहे हैं मेरी शरण आ, तो कृष्ण की शरण आ, ऐसा नहीं कह रहे हैं। कृष्ण तो है ही नहीं। कृष्ण तो जा चुके हैं। अब तो बांस की पोंगरी हैं कृष्ण। हालांकि तुम्हें तो बांस की पोंगरी ही दिखाई पड़ेगी, जिन ओंठों पर रखी है बांस की पोंगरी, वे ओंठ तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते। नहीं दिखाई पड़ सकते। वे विराट के ओंठ हैं, वे तो तभी दिखाई पड़ेंगे जब तुम भी बांस की पोंगरी हो जाओगे। उसके पहले नहीं दिखाई पड़ेंगे। जब तक तुम न मिटोगे, तब तक तुम गुरु के शून्य को न देख सकोगे।
साध तें बड़ा न कोई।
साधु से कोई बड़ा नहीं है। क्योंकि साधु है ही नहीं। यही उसका बड़प्पन है। यही उसकी विशालता है, विराटता है। क्योंकि वह शून्य हुआ। शून्य ही सबसे बड़ी संख्या है। शून्य ही प्रथम है और शून्य ही अंतिम है। सब संख्याएं बीच में हैं। न तो शून्य से छोटा कुछ है, न शून्य से बड़ा कुछ है। शून्य इसीलिए बड़ा है कि शून्य सबसे छोटा है।
इस गणित को ठीक से समझ लेना, क्योंकि इस गणित को जो चूका, वह अध्यात्म को नहीं समझ पाएगा।
इसलिए जीसस कहते हैंः जो अंतिम हैं, वही प्रथम हैं। शून्य ही अंतिम है, शून्य ही प्रथम है। मिटो ताकि हो सको। खो जाओ ताकि हो जाओ। बूंद जब सागर में खो जाती है तो सागर हो जाती है। और बीज जब मिट जाता है भूमि में तो वृक्ष बन जाता है। मिटने की कला सीखो। धर्म मृत्यु की कला है। और मृत्यु की कला से ही अमृत मिलता है।
साध तें बड़ा न कोई। कहि राम सुनावत सोई।।
राम जो कहते हैं, साधु वही दोहराता है। साधु अपनी तरफ से बोलता नहीं, साधु के भीतर बोलने वाला कोई बचा नहीं। साधु वही कहता है जो राम उसके कान में फूंक देते हैं। राम जो बोलना चाहते हैं, उससे बोल देते हैं। साधु के पास अब स्वयं कहने को, निवेदन करने को कुछ भी नहीं है। साधु तो मौन है। इसलिए साधु का दूसरा नाम मुनि है। साधु तो चुप है। साधु तो अब बोलता ही नहीं। जब परमात्मा बोलते हैं तो बोल फूट जाते हैं, जब परमात्मा नहीं बोलते तो मौन रह जाता है।
साधु से बड़ा कोई भी नहीं है। उसके वचन अमृत हैं। क्योंकि उसके वचन उससे ही नहीं आते। इसलिए हमने कहा है कि वेद अपौरुषेय हैं। पुरुष के द्वारा रचे हुए नहीं। इसका यह मतलब मत समझ लेना कि कोई परमात्मा पार्कर फाउंटेन पेन में भर कर स्याही और लिखता है। यह मत समझ लेना कि परमात्मा उतरता है और रचता है तुम्हारे वेद। नहीं, इसका अर्थ है। इसका अर्थ है कि ऋषि मिट गए पुरुष की भांति। उनकी अपनी कोई सत्ता न रही। उन्होंने द्वार खोल दिया। परमात्मा बहे, तो वे राजी हैं उसको बहाने को; न बहे, तो राजी हैं। उनका कोई आग्रह न रहा। ऐसी अनाग्रहपूर्ण अवस्था में परमात्मा बहता है। उसकी धारा धीरे-धीरे बहनी शुरू हो जाती है। तब जो वचन जगे, वे वचन जिनसे आए थे उनके नहीं हैं, इसलिए हम कहते हैंः अपौरुषेय। जैसे परमात्मा ने ही लिखे, जैसे परमात्मा ने ही कहे।
इसलिए कुरान को कहा जाता हैः इलहाम। उदघोषणा। मोहम्मद तो सिर्फ बहाना हैं। संदेशवाहक। पैगंबर का अर्थ इतना ही होता है, संदेशवाहक, चिट्ठीरसा। चिट्ठी परमात्मा की है, उसने ही लिखी है, अपने प्यारों के नाम लिखी है; और जो बिल्कुल मिट गया है, उसके ही हाथ भेजी है। क्योंकि कोरे कागज पर ही लिख कर भेजी जा सकती है। जब तक तुम्हारे चित्त में अपनी लिखावट बनी है, तब तक परमात्मा कुछ भी न लिखेगा, तब तक तुम भरे हुए कागज हो, तुम पर लिखा ही हुआ है बहुत कुछ, इसमें कुछ लिखा नहीं जा सकता। लिखे-लिखाए कागज पर कोई लिखेगा कैसे? जब तुम चिट्ठी लिखते हो तो स्वच्छ, निर्मल, सूने, कोरे कागज पर लिखते हो। जिनके हृदय कोरे हो गए हैं, जिनमें अहंकार की सब लिखावट, सब तिरछापन मिट गया है, जो अहंकार की वर्णमाला ही भूल गए हैं, उनसे परमात्मा प्रकट होता है। कभी गीता बनकर, कभी कुरान बनकर। अनेक-अनेक ढंगों से प्रकट होता है।
गीता-कुरान में फिर फर्क क्यों है, लोग पूछते हैं? अगर परमात्मा ही गीता से बोला और परमात्मा ही कुरान से बोला, तो गीता-कुरान में फर्क क्यों है?
फर्क परमात्मा के कारण नहीं है। फर्क जिससे बोला है परमात्मा उसके कारण है। मुहम्मद अर्जुन से नहीं बोल रहे हैं। इसलिए फर्क है। चिकित्सक तो दवा देता है न मरीज को देखकर। एक ही हाथ से प्रिस्क्रिप्शन लिखता है। टी. बी. के मरीज को और कैंसर के मरीज को, सर्दी-जुकाम के मरीज को और। हजार मरीज होते हैं, तो हजार प्रिस्क्रिप्शन लिखता है। कुरान एक ‘प्रिस्क्रिप्शन’ है, जैसे गीता एक प्रिस्क्रिप्शन है। चिकित्सक तो एक है, लिखने वाला मालिक एक है, लेकिन मरीज अनेक हैं। जो भेद पड़ा है, वह बोलने वाले के कारण नहीं है। यह मत सोचना कि कृष्ण से कोई और परमात्मा बोला। और मोहम्मद से कोई और परमात्मा बोला। परमात्मा एक है, बोलने वाला एक है, लेकिन जिससे बोला है उसकी बीमारी अलग-अलग है।
अर्जुन की बीमारी और है। अर्जुन अभिजात है, कुलीन है, सुसंस्कृत है। उस देश में, उस समय में जो श्रेष्ठतम संस्कृति हो सकती थी, श्रेष्ठतम चरित्र हो सकता था, वैसा व्यक्ति है। इससे बोलना और ढंग से होगा। मोहम्मद जिनसे बोले, बेपढ़े-लिखे लोग, खानाबदोश, संस्कृति का जिन्हें कोई पता नहीं, मरना-मारना जिनका कुल धंधा है, चोरी-चपाटी, लूट-खसोट जिनका काम है, इनसे अगर गीत की भाषा में बोलोगे, तो सिर्फ तुम्हारी मूढ़ता सिद्ध होगी। इनसे इनकी ही भाषा में बोलना होगा। इनकी जरूरत के अनुकूल बोलना होगा।
परमात्मा सदा तुम्हारी जरूरत के अनुकूल रूप लेता है। तुम्हारी जरूरत होती है, वैसी औषधि बन जाता है। परमात्मा अनंत है, इसलिए सभी रूप ले सकता है। समय जाता है, रूप बदल जाते हैं। आज परमात्मा मोहम्मद की तरह नहीं बोल सकता है। दुनिया बहुत और हो गई। आज अगर परमात्मा मोहम्मद की तरह बोले, कौन सुनेगा? कोई सुनेगा नहीं। परमात्मा मोहम्मद की तरह बोले तो बड़ा तिथि-बाह्य, आउट आफ डेट मालूम पड़ेगा। जैसे कोई पुराना अखबार पढ़ रहे हों, हजार साल पुराना, ऐसा मालूम पड़ेगा। उसकी आज से कोई संगति न रह जाएगी। प्रतिदिन परमात्मा को नई अभिव्यंजना लेनी पड़ती है, नये संदेश भेजने पड़ते हैं--भूलों के लिए, भटकों के लिए।
लेकिन परमात्मा सदा पुकारता रहा है। लेकिन पुकार उसकी उन्हीं के द्वार आती है जो कोरे हो गए हैं।
साध तें बड़ा न कोई। कहि राम सुनावत सोई।।
साधु की सबसे बड़ी खूबी क्या है? कि वह वही बोलता है जो राम बोलते हैं। उसमें हेर-फेर नहीं करता। उसमें मात्रा भी नहीं बदलता। उसमें रत्ती भर अंतर नहीं करता। उसमें सुधार नहीं करता, संशोधन नहीं करता। जैसा और जो प्रगट होना चाहता है, उसे ठीक वैसा-का-वैसा अभिव्यक्त हो जाने देता है।
इसलिए परमात्मा की वाणी को जगत में लाने वाला व्यक्ति हमेशा कठिनाई में पड़ जाता है। क्योंकि वह राजनैतिक चालबाजी नहीं कर करता। कुछ बचा ले, कुछ बदल दे, कुछ थोड़ा ढंग से कह दे; कुछ ऐसा कर ले, कुछ वैसा कर ले; चार शब्द और जोड़ दे, चार शब्द और घटा ले; तो झंझट बच जाए।
जीसस झंझट से बच सकते थे। सूली न लगती, यह हो सकता था। जरा थोड़े से फर्क करने जरूरी थे। जरा से फर्क, ज्यादा फर्क करने की जरूरत न थी। परमात्मा जीसस के भीतर से बोल रहा था जिस ढंग से, जीसस उसी ढंग से बोले। रत्ती भर फर्क न किया। मित्रों ने समझाया भी, प्रेमियों ने सलाह भी दी। जरा से फर्क कर लो, यह दो-चार बातें मत कहो, कोई अड़चन न आएगी। मगर जीसस ने कोई फर्क न किए। जीसस फर्क कर नहीं सकते, क्योंकि जीसस हैं ही नहीं। यह होशियारी नहीं हो सकती अब। होशियारी करने वाला अहंकार जा चुका। सूली पर लटक गए। सूली स्वीकार थी, सुधार स्वीकार नहीं था।
महावीर में परमात्मा नग्न रहना चाहता था तो महावीर नग्न रहे। समझाया होगा, बुझाया होगा लोगों ने। गांव-गांव से खदेड़ा महावीर को। क्या बिगड़ता था एक चादर ओढ़ लेते! कोई पाप न हो जाता। कोई नरक न चले जाते। मगर परमात्मा नग्न रहना चाहता था। परमात्मा यही संदेश देना चाहता था। उस घड़ी में, उस पल में यही सार्थक बात उसे कहनी थी। यही निर्दोष स्वर उसे गुंजाना था। तो महावीर ने फिर हेर-फेर न किया।
राजनीतिज्ञ सोच-सोच कर बोलता है। सुनने वाले को क्या प्रीतिकर लगेगा वही बोलता है। इसकी बहुत चिंता नहीं करता कि जो मैं बोल रहा हूं, वह सच है या झूठ। उसकी सारी चिंता यही होती हैः सुनने वाले को प्रीतिकर क्या है? झूठ प्रीतिकर है, तो झूठ बोलो। इसलिए तुम्हें आश्वासन देता है। तुम सोचते हो कि आश्वासन पूरे क्यों नहीं करता? वह तो देते वक्त भी कभी पूरा करने का सवाल नहीं था। वह तो दे ही इसलिए रहा था कि आश्वासन तुम्हें प्रीतिकर लगते हैं। वह तुम्हारी पीठ थपथपा रहा था। उसे तुम्हारा समर्थन चाहिए। तुम्हें सत्य मिले, इसकी उसे चिंता कहां है? समर्थन चाहिए उसे तुम्हारा। तुम अगर झूठ से राजी हो तो वह झूठ से राजी है।
इसलिए राजनीतिज्ञ मंदिर भी चला जाता है, मस्जिद भी चला जाता है; फकीर-पीर-औलिया की कब्र पर भी चला जाता है, मजार पर भी चला जाता है, गणेश-उत्सव में भी सम्मिलित हो जाता है; जैन बुलाएं तो वहां व्याख्यान दे आता है, हिंदू बुलाएं तो वहां व्याख्यान दे आता है, गीता की प्रशंसा करवाओ तो गीता की कर देता है; तुम जो कहो, तुम्हारी जो मर्जी! उसकी चिंता इतनी ही है कि तुम उससे राजी रहो। वह तुम्हें नाराज नहीं करना चाहता। उसकी जिंदगी तुम पर निर्भर है। तुम नाराज हुए कि वह गया।
संत इसलिए हमेशा मुश्किल में पड़ जाते हैं, क्योंकि वे वही कहते हैं जो परमात्मा की मर्जी है।
भेद को समझ लेना।
तुम्हारी मर्जी का कोई सवाल ही नहीं है। तुम सुनो तो, न सुनो तो; राजी होओ तो, नाराज हो जाओ तो; पत्थर मारो, सूली लगाओ तो; सब चलेगा; लेकिन उसकी मर्जी तो परमात्मा की मर्जी है। परमात्मा जो बोलना चाहता है, वही। और परमात्मा जो बोलना चाहता है, वह अक्सर तुम्हारे अतीत के विपरीत जाएगा। तुमने जो एक जिंदगी बना ली है, एक ढंग बना लिया है, सोचने-समझने का, उसके विपरीत जाएगा। क्योंकि परमात्मा तुम्हारे विकास के लिए बोल रहा है।
विकास का मतलब होता है, पुरानी सीढ़ी छोड़नी पड़ेगी, नई सीढ़ी पर कदम रखने होंगे। विकास का मतलब होता है, पुराने आवरण तोड़ने पड़ेंगे, पुराने भवन गिराने होंगे, नये मंदिर बनाने होंगे। विकास का अर्थ होता है, नये का स्वागत परमात्मा सदा नित-नवीन है, नित-नूतन है। और तुम पुराने से जकड़े होते हो। और तुम पुराने से इतने जकड़े होते कि तुम्हारा सारा व्यस्त स्वार्थ पुराने से बंधा होता है। और परमात्मा सदा नई खबर लेकर आ जाता है। सदा नई सुबह लेकर आ जाता है। सदा नई कलियों को खिलाता हुआ, नये सूरजों को उठाता हुआ। और तुम पुराने में इतने लिप्त हो कि तुम कहते हो कि नहीं-नहीं, पुराना ही ठीक था, हम पुराने से बामुश्किल तो राजी हो पाए थे!
लेकिन परमात्मा एक पल भी पुराने के साथ नहीं है। यह बात तुम समझ लेना। परमात्मा नये के साथ है। परमात्मा सूख गई पत्ती के साथ नहीं है। नहीं तो पत्ती गिरती नहीं। पत्ती गिर गई है सूख कर, परमात्मा ने उसका साथ छोड़ दिया है, इसीलिए गिर गई है। परमात्मा तो नई कोंपल के साथ है, वह जो अभी-अभी ऊग रही है, जो अभी-अभी फूट रही है; कोमल है, नाजुक है, नई है, उसके साथ है। तुम पुरानी पत्तियां सम्हाल कर रख लेते हो। तुम्हारी पुरानी पत्तियों में कोई प्राण नहीं रह गए हैं। तुम कब्रों की पूजा करते हो। परमात्मा जीवन है। तुम मुर्दों की पूजा करते हो। परमात्मा अमृत है। तुम मृत्यु के आराधक हो।
तुम्हें पता है मनोवैज्ञानिक क्या कहते हैं कि आदमी मुर्दों की पूजा क्यों करता है? और तुम्हें पता है, जब कोई मर जाता है तो बुरे-से-बुरे आदमी के संबंध में भी फिर हम बुराई नहीं करते। हम कहते हैं, भाई मर गया, अब उसकी प्रशंसा करो! मरे हुए आदमी की प्रशंसा की जाती है। बुरे से बुरे आदमी की भी। लोग दो शब्द प्रशंसा में कहते हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी मरा। गांव भर उसको जिंदगी भर गाली दिया था। गांव भर उससे परेशान था। लेकिन फिर भी गांव उसे मरघट पहुंचाने गया। फूलमालाएं लोगों ने पहनाईं। उसकी आत्मा भी उड़ती-उड़ती ऊपर अपनी अरथी के साथ गई; बड़ा हैरान था! सोचा नहीं था उसने कभी कि गांव के लोग इस तरह आंसू बहाएंगे! इस तरह फूल चढ़ाएंगे! वह तो कहने लगा अगर मुझे पता होता, अपने ही मन में कहने लगा अगर मुझे पता होता, तो मैं पहले ही मर जाता। अगर यह होता था तो!
अमरीका का एक बहुत अदभुत आदमी था--अकेला आदमी इतिहास का जिसने अपनी मौत की खबर पढ़ी। मरने के पहले उसने अपने सेक्रेटरी को बुला कर कहा कि खबर कर दो कि मैं मर गया। सेक्रेटरी ने कहा, आप होश में तो हैं? --ड़ाक्टरों ने कह दिया है कि बस चौबीस घंटे से ज्यादा नहीं जी सकता है, बस आखिरी घड़ी करीब है। ... पर उसने कहा, तुम फिकर मत करो, मैं बिल्कुल होश में हूं। मैं अपने मरने की खबर पढ़ना चाहता हूं कि लोग मेरे बाबत क्या कहते हैं? जिंदगी में तो मेरे संबंध में लोगों ने कुछ अच्छा कभी कहा नहीं, चित्त मेरा खिन्न है, मैं जरा देखना चाहता हूं कि मरने के बाद लोग क्या कहते हैं?
खैर, खबर कर दी गई, अखबारों में खबरें छप गयीं, संपादकीय लेख लिखे गए--वह आदमी करोड़पति था। इसीलिए तो लोग गाली देते थे, जिंदगी भर से उसके खिलाफ थे। बड़ी प्रशंसा के गीत लिखे गए कि महादाता था, दानी था; ऐसा, वैसा। पहले लोग कहते थेः चोर, शोषक, बेईमान, धोखेबाज, पाखंडी।
मरने के पहले उसने जब अखबारों में संपादकीय देखे और अपनी तस्वीरें देखीं, उसे खुद ही भरोसा न आया--क्या यह मेरे ही संबंध में ये बातें कही जा रही हैं? हालांकि लोग मुझे गालियां देते थे, मुझे अच्छा न लगता था, लेकिन मैं जानता हूं वे ठीक कहते थे। अब ये बिल्कुल सरासर झूठ है। हालांकि मुझे अच्छा लग रहा, उसने कहा, बहुत अच्छा लग रहा है, बहुत गुदगुदी मालूम होती है और मर रहा हूं निश्चिंत होकर।
और उसने अपने सेक्रेटरी को कहा कि बुला लो फोटोग्राफरों को और अपनी ही अखबार में मरने की खबर पढ़ते हुए मेरे चित्र निकलवा लो। फिर मेरे मरने के बाद फिर खबर छपे मैं दुनिया के, मनुष्य-जाति के इतिहास का पहला और आखिरी आदमी हूं जिसने अपनी मौत की खबर खुद पढ़ी।
मर जाने के बाद हम क्यों प्रशंसा करते हैं? मनोवैज्ञानिक कहते हैं, डर के कारण। आदमी सदा से भयभीत रहा है मुर्दों से, भूत-प्रेतों से। अब जैसे कोई नेताजी मर गए! जिंदगी भर तो उन्होंने सताया ही, अब तुम्हें और डर लगता है कि अब मारे गए! अब यह देह से भी मुक्त हो गए, अब यह दीवाल पार कर जाएं। रात छाती पर चढ़ जाएं! कि महाराज ऐसा मत करना!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हम मुर्दों की प्रशंसा करते हैं भय के कारण। पुराना भय है कि मरा हुआ आदमी, पता नहीं अब क्या करे! पत्नी ने जिंदगी भर सताया या पति ने जिंदगी भर सताया, अब मर गए, अब रो लेती है पत्नी, छाती पीटती है--भीतर-भीतर खुश भी होती है कि भले गए; जिंदगी भर यही चाहती थी कि राम जी कब उठा लें; अब राम जी ने उठा लिया तो रोती है--मगर डरती भी है, घबड़ाती भी है, कंपती भी है। क्योंकि वैसे ही यह दुष्ट था आदमी और अब यह मर भी गया, अब यह दिखाई भी नहीं पड़ेगा। अब यह घुस आए रात अंधेरे में और...
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी से कहा कि मेरी बड़ी इच्छा है यह बात जानने की कि मरने के बाद लोग बचते हैं या नहीं बचते? तो हम में से जो भी पहले मर जाए, वह वायदा करे कि तीसरे दिन, लाख अड़चनें हों मगर चेष्टा करेगा संपर्क साधने की। तीसरे दिन आ जाए, दरवाजे पर दस्तक दे, बस इतना कम से कम कह जाए कि हां मैं हूं। तो भरोसा तो आ जाए। मुल्ला और मुल्ला की पत्नी ने, दोनों ने तय कर लिया कि ठीक है, जो भी पहले मरे वह तीसरे दिन आकर दरवाजे पर दस्तक दे और अंदर इतना कहे दे कि मैं जिंदा हूं और आदमी मरने से ही मरता नहीं।
फिर मुल्ला कुछ सोच में पड़ गया, फिर उसने कहा, एक बात ख्याल रख, अगर तू पहले मर जाए तो दिन में ही आना, रात में नहीं। ऐसे भी मैं रात घर में रहूंगा नहीं। तेरी वजह से ही घर आना पड़ता है रात। मजबूरी में घर आना पड़ता है रात। वैसे भी मैं घर रहूंगा नहीं, तू पक्का रख! और रात अगर रहूं भी, तो रात तू आना मत। क्योंकि रात मुझे डर लगता है। और अंधेरे में घर में अकेला और तू आकर दस्तक देने लगे! भरे उजाले में आना, अच्छा तो हो कि दफ्तर में आना। तो मुझे भी प्रमाण मिल जाएगा, बाकी लोगों को भी प्रमाण मिल जाएगा।
जिसको तुम छाती से लगाते थे, वह मुर्दा होकर, मर कर तुम्हारा हाथ हाथ में ले ले, तुम्हारे प्राण छूट जाएंगे एकदम।
इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी मृत्यु के भय के कारण मुर्दा की प्रशंसा करता है। पूजा के फूल चढ़ाता है।
ये तुम जो पितृ-पक्ष इत्यादि मनाते हो, इसका मतलब तुम्हें चाहे पता हो या न हो! इसका मतलब है कि हे पिता जी, अब आप उसी तरफ रहना! यहां सब ठीक चल रहा है। श्राद्ध किए दे रहे हैं! जिंदगी भर जिनकी श्रद्धा में दो फूल नहीं चढ़ाए थे, मरने पर लोग उनका श्राद्ध करते हैं! गया जाते हैं, श्राद्ध करने! अगर पिता जिंदा होते और कहते, बेटा, मुझे गया ले चलो, तो कोई ले जाने को राजी नहीं था--जिंदा पिता को कोई गया ले जाने को नहीं था, कि काहे के लिए, क्या जरूरत है? फिजूलखर्ची करवाना है! शांति से घर में बैठो। तुम्हें बुढ़ापे में न मालूम कहां-कहां के ख्याल आते हैं! मगर पिता जी चल बसे, फिर बेटा जी गया जाते हैं! डर, कि अब किसी तरह छुटकारा करो इनका; जो कुछ लेना-देना है, निपटारा करो; कहीं आ-वा न जाएं!
मनुष्य डरता है, इसलिए मुर्दे की पूजा करता है। जिंदा का सम्मान नहीं है, जीवन का सम्मान नहीं है, मृत्यु का भय है।
तुम परमात्मा को दो ढंग से खोज सकते हो। एक तो मृत्यु का भय। उससे तुम परमात्मा को खोजने चलो तो तुम्हारी खोज प्रथम से ही गलत हो गई। और एक जीवन का प्रेम। उससे तुम परमात्मा को खोजने चलो तो तुम्हारे कदम ठीक रास्ते पर पड़ने लगे।
मैं तुम्हें जीवन का प्रेम सिखाना चाहता हूं। मैं तुम्हें चाहता हूं तुम फूलों से संबंध जोड़ो, तुम इस जगत के सौंदर्य से संबंध जोड़ो, तुम्हारे जीवन में प्रेम उमगे। और इस जगत में जो सर्वाधिक प्रेम करने योग्य स्थल है, वह है किसी ऐसे संत को खोज लेना जो मिट गया हो। वहां समर्पित हो जाना।
साध तें बड़ा न कोई। कहि राम सुनावत सोई।।
राम कही, हम साधा। ...
जगजीवन कहते हैं, राम ने कहा और हमने साधा। उन्होंने जो कहा, वैसा साधा। हमने कुछ उसमें हेर-फेर न किया।
राम कही हम साधा। रस एकमता औराधा।
और इसी तरह फिर एकरस हुए, आराधना जमी, प्रार्थना पकी। ‘रस एकमत औराधा।’ फिर हम धीरे-धीरे एक ही हो गए। राम ने जो कहा, वही हमने किया। जो करवाया, वही किया। जो बुलाया, वही बोला। जैसा नचाया, वैसे नाचे। फिर धीरे-धीरे एक ही हो गए--क्योंकि भेद ही क्या रहा? जब हम राम के हाथ में ऐसे हो गए जैसे कोई कठपुतली! नचाने वाला नचाए तो नाचे, रुकाए तो रुके। जब कोई ऐसे अनन्य भाव से एक हो जाता है, तो रस सधता है; तब तारतम्य बैठता है; तब तुम्हारी वीणा उसकी वीणा के साथ बजती है। उसकी वीणा के साथ बजने का नाम ही आनंद है।
अलग-अगल दुख है, साथ-साथ सुख है। उससे अलग नरक है, उससे जुड़ कर स्वर्ग है। जो उसके साथ एकरस हुआ, वही स्वर्ग में हो गया। और जो उसके साथ दूर-दूर रहा, अपनी होशियारी बनाता रहा, अपनी चलाने की कोशिश करता रहा--और ध्यान रखना, तुम प्रार्थना भी करते हो तो चलाने की कोशिश। तुम जाकर मंदिर में परमात्मा से यही कहते हो कि मेरी पत्नी की तबियत खराब है, ठीक करो! तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो कि तुझे होश है, कुछ समझ है, कुछ अकल है, मेरी पत्नी को और बीमार किया--और मेरी पत्नी को! और बीमार ही करना हो तो इतनी पत्नियां दुनिया में हैं। ठीक करो! मेरी चलने दो! तुम्हारी प्रार्थना का अगर सार-निचोड़ खोजा जाए... मैंने हजारों लोगों की प्रार्थनाएं सुनी हैं, उनका सार-निचोड़ इतना है कि मेरी मर्जी पूरी हो। तू उसे पूरा कर। और यह प्रार्थना हुई कि मेरी मर्जी पूरी हो! यह तो परमात्मा से सेवा लेने की उत्सुकता हुई, सेवा करना न हुआ। यह तो परमात्मा को झुकाना हुआ अपने चरणों में, उसके चरणों में स्वयं झुकना न हुआ।
फिर प्रार्थना क्या है?
प्रार्थना का अर्थ हैः तेरी मर्जी पूरी हो! जीसस के आखिरी वचन यही थे इस पृथ्वी पर। सूली पर लटके क्षण आखिरी बात जो उन्होंने कही थी, वह यही थी कि तेरी मर्जी पूरी हो। यह प्रार्थना। सूली पर लटके हुए भी यह कहा कि तेरी मर्जी पूरी हो। अगर तू सूली दे रहा है, तो यही सिंहासन है। अगर तू सूली दे रहा है, तो बस कांटा भी फूल है। जहर भी अमृत है। तेरे हाथ से जहर भी मिल जाए तो अमृत है। तेरी मर्जी पूरी हो। और ऐसी जब घड़ी आ जाती है कि तुम्हारी मर्जी और परमात्मा की मर्जी में कोई भेद नहीं रह जाए; उसकी मर्जी ही तुम्हारी मर्जी, ऐसी अनन्यता, तो जगजीवन का वचन बड़ा प्यारा है--‘रस एकमता औराधा।’ ऐसी अनन्यभाव का आराधन हो गया। यह है प्रार्थना का स्वरूप। अनन्यभाव। नहीं अन्य हूं तुमसे। तुम्हारी ही किरण हूं, तो तुम हो सूरज। तुम्हारी ही बूंद हूं, तुम हो सागर। तुम्हारी ही एक छोटी सी झलक हूं, तुम हो मालिक। पूरे प्राणों से जो कह सकेः याऽऽमालिक! तेरी मर्जी पूरी हो! फिर तुम्हारी प्रार्थना में मांग नहीं रह जाती, धन्यवाद रह जाता है, केवल धन्यवाद। और जब प्रार्थना में केवल धन्यवाद रह जाए तब प्रार्थना का मजा और, रंग और, सौंदर्य और, उत्सव और। फिर जीवन एक नये आयाम में गति करता है, उड़ता है--ऊपर और ऊपर, अतिक्रमण कर जाता है सारी सीमाओं का। लेकिन परमात्मा पर छोड़ो सब।
ठीक कहते हैं जगजीवनः ‘राम कही, हम साधा।’ कितने सीधे-साफ छोटे-छोटे वचन हैं। पर उपनिषदों को मात कर दें। वेद झेंपे। कुरान फीकी मालूम पड़ने लगे। ‘राम कही, हम साधा।’ इसको और सरलता से कैसे कहोगे? इसको और सरल नहीं किया जा सकता। एकमता, रस एकमता औराधा।
कई बिजलियां बे-गिरे गिर पड़ी हैं
इन आंखों को अब आ गया मुस्कुराना
फिर तो बिजलियां भी गिरें तो भी फर्क नहीं पड़ता। आंखों को मुस्कुराना आ गया हो।
कई बिजलियां बे-गिरे गिर पड़ी हैं
इन आंखों को अब आ गया मुस्कुराना
अब कोई चिंता नहीं है।
एक बुलबुल है कि है महवे-तरन्नुम अब तक
इसके सीने में है नग्मों का तलातुम अब तक
और एक झलक मिल जाए तो फिर उसका नग्मा गूंजता ही रहता। एक झलक मिल जाए, ज्योति जल ही जाती है। एक बूंद उसके रस की तुम में उतर जाए, फिर तुम वही नहीं हो जो तुम थे। दुनिया समझेगी वही। क्योंकि दुनिया तो तुम्हें बाहर से देखती है। तुम्हारा नाक-नक्श वही रहेगा, चाल-ढाल वही रहेगी, मगर भीतर सब बदल गया। तुम वही नहीं हो। तुम्हारे सीने में एक नया नग्मा आ गया। एक नई तरन्नुम, एक नई गीत की शैली आ गई। तुम्हारे भीतर अनाहत का नाद होने लगा।
हम साध, साध हम माहीं। कोउ दूसर जानै नाहीं।।
जगजीवन कहते हैं, अब हमको पता चला कि उसमें और हममें रत्ती भर भेद नहीं है। हम उसमें हैं, वह हममें है। ‘कोउ दूसर जानै नाहीं।’ दूसरा दिखाई ही नहीं पड़ता।
इसको कहने के दो ढंग हो सकते हैं। एक ढंग है कि तू ही है, मैं नहीं। यह भक्त का ढंग है। सूफी का। एक ढंग है, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, मैं ही ब्रह्म हूं। यह ज्ञानी का ढंग है। मगर दोनों में बात एक ही हैः अब दो नहीं हैं। अब तुम्हारी मर्जी, चाहे इस स्थिति को मैं कहो, जैसा कृष्ण ने कहाः मामेकं शरणं व्रज, या इस स्थिति को तू कहो, जैसा मोहम्मद ने कहा कि तू ही है; जैसा जलालुद्दीन रूमी ने कहा कि तू ही है।
रूमी का गीत है--
एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर दस्तक देता है और भीतर से पूछा जाता हैः कौन है? और प्रेमी कहता है, क्या मुझे पहचाना नहीं? मैं तेरा प्रेमी। और भीतर सन्नाटा हो जाता है। फिर दस्तक पर दस्तक देता है, और पीछे से आवाज आती है कि अब व्यर्थ दरवाजा मत तोड़ो; इस घर में दो के लिए जगह नहीं है। यह घर छोटा है। जैसे कबीर ने कहा न, ‘प्रेम गली अति सांकरी तामें दो न समाय’, ऐसे भीतर से आवाज आई कि यह घर बहुत छोटा है, इसमें दो न समा सकेंगे, इसमें एक ही समा सकता है। अभी जाओ, अभी तैयार नहीं हुए, अभी और निखरो! अभी और पको! और प्रेमी चला गया।
और फिर वर्ष आए और गए और फिर उसने बड़ी तपश्चर्या की, अपने को गलाया। फिर वर्षों बाद द्वार पर दस्तक दी। फिर वही प्रश्नः कौन है? और अब उसने कहा कि तू ही है। और रूमी कहते हैं कि द्वार खुल गए।
ये दो उपाय हैं। एक है ज्ञानी का उपायः मैं ही हूं और कुछ भी नहीं। इसका एक खतरा है कि अहंकार जन्म जाए। बिना जाने ही कोई कहने लगेः अहं ब्रह्मास्मि, अनलहक, मैं ही हूं। इसका खतरा है। अहंकार के जग जाने की संभावना है। और ऐसा खतरा हुआ है। इस देश में बहुत से अहंकारी पैदा हो गए। क्योंकि शास्त्र का सबूत है उनके लिएः अहं ब्रह्मास्मि। कोई भी दावा कर सकता है। इस खतरे से बचने के लिए इस्लाम ने बड़ी कोशिश की कि यह खतरा पैदा न हो पाए। इसलिए मंसूर को फांसी लगा दी। क्योंकि मंसूर ने कहाः ‘अनलहक’ मैं सत्य हूं, मैं परमात्मा हूं। सूली लगा दी; क्योंकि यह खतरा अहंकार पैदा न करवा दे।
लेकिन दूसरी बात का भी खतरा है। जब तुम कहते हो, तू ही है, मैं नहीं हूं, तो आसक्ति पैदा हो सकती है; दीनता पैदा हो सकती है; हीनभाव पैदा हो सकता है। वह भी हो सकता है। और तू ही है, मैं नहीं हूं। इसके खतरे हैं।
दोनों की सुविधाएं हैं, दोनों के खतरे हैं। जिसको खतरा ही उठाना है, वह किसी भी तरह से खतरा उठा लेगा। और जिसको सुविधा उठानी है, वह किसी तरह से भी सुविधा उठा लेगा। इसलिए मैं कहता हूं, दोनों ठीक हैं। सब तुम पर निर्भर है। सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि तुम अगर सच में बदलने को उत्सुक हुए हो, तो कोई खतरा नहीं--किसी बात में कोई खतरा नहीं। तुम बदलने को ही उत्सुक नहीं हो तो फिर सभी बातों में खतरा है। फिर तुम किसी भी चीज से खतरा उठाओगे। तुम्हें अमृत भी मिल जाएगा तो तुम जहर बना लोगे। तुम्हारे पीने का सलीका ही गलत है।
हम साध, साध हम माहीं।
वह परमात्मा, जो परम साध्य है, उसमें हम हैं, वह हममें है। ‘कोउ दूसर जानै नाहीं।’ कोई दूसरा दिखाई नहीं पड़ता, दूसरा जानने में नहीं आता। एक अर्थ है और इस वचन का दूसरा भी अर्थ है कि यह घटना तो हमारे भीतर घट रही है, दूसरा कोई इसको नहीं जान पा रहा है। यह राज तो भीतर खुल रहा है, ये पर्दे तो भीतर उठ रहे हैं, ये घूंघट तो भीतर खुल रहा है; मूरत प्रकट होती जा रही है, रस बहने लगा है। मगर बड़ा मजा है, दुनिया में किसी को पता ही नहीं चल रहा है। पास ही जो बैठा है, उसको भी पता नहीं चल रहा है। पति को हो जाए, पत्नी को पता नहीं चलता। पत्नी को हो जाए, पति को नहीं चलता। गहरे से गहरे मित्र को हो जाए तो भी पता नहीं चलता। इतना आंतरिक है। वहां किसी दूसरे की गति नहीं है। यह भी अर्थ हो सकता है।
कोउ दूसर जानै नाहीं।
एक अर्थ कि वहां कोई दूसरा नहीं जाना जाता, फिर उसे मैं कहो, तू कहो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। और दूसरा अर्थ, कि जिसको यह घटना घटती है, रस एकमता औराधा, जिसके भीतर यह एकरस जन्मता है, जिसके भीतर परमात्मा और आत्मा का एक हो जाती है, जिसके भीतर मैं और तू अपनी सीमाएं छोड़ देते हैं, और आलिंगन में आबद्ध हो जाते हैं, सदा के लिए एक हो जाते हैं, जिसके भीतर यह मिलन घट जाता है, बाहर किसी को कानोंकान खबर नहीं होती।
इसलिए कई बार यह हो सकता है कि तुम किसी बुद्धपुरुष के पास भी आ जाओ संयोग से और यूं ही गुजर जाओ, तुम्हें पता भी न चले। बहुत सजग होओ, बहुत सोच-सोच कर चलो, बहुत भावुक होओ, हृदय को खुला रखो, तो ही शायद थोड़ी सी प्रतीति हो। वह प्रतीति भी बस एक झलक की भांति होगी। बड़ी दूर की झलक। जो बुद्धि से बहुत भरे हैं, उन्हें तो बिल्कुल पता नहीं चलता। उन्हें तो पता ही नहीं चलता उनका सदगुरु से मिलना ही नहीं होता। लेकिन भाव से, प्रेम से भरे लोग थोड़ी-थोड़ी प्रतीति करने लगते हैं सदगुरु के करीब उन्हें रोमांच हो आता है। उनकी आंखें गीली हो जाती हैं। उनके हृदय में धड़कन बढ़ जाती है। उनके भीतर ऊर्जा का प्रवाह उठने लगता है। जैसे कोई एक वीणा को बजाए और दूसरी वीणा ऐसे ही रखी हो कमरे में, कोई छुए भी न, तो पहली वीणा के बजते ही दूसरी वीणा के तार भी झनझनाने लगते हैं।
यह तुमने देखा? करके देखना।
द्वार-दरवाजे बंद कर देना, एक कोने में एक वीणा रख देना, तुम उसी वीणा के थोड़ी दूर बैठ कर दूसरी वीणा को छेड़ देना। जैसे ही झंकार कमरे में गूंजने लगेगी, अचानक तुम पाओगे, जिस वीणा को तुमने छेड़ा भी नहीं है, उसके तार भी कंपने लगे हैं। ऐसे ही तार कंप जाते हैं भाव के। अगर मेरी वीणा बज रही है और तुम मेरी बजती वीणा के पास अपने हृदय को छोड़ने को राजी हो जाओ--क्षण भर को भी, अपनी बुद्धि को हटा लो--क्षण भर को भी, तो कुछ तार कंप जाएंगे। उन तारों के कंपने से ही संकेत मिलता है। श्रद्धा का जन्म होता है।
जिन दूसर करि जाना। तेहि होइहिं नरक निदाना।।
जिन्होंने परमात्मा को दूसरा करके जाना है वे नरक में हैं और नरक में ही पड़े रहेंगे। देखते हो नरक की यह परिभाषा? यह प्यारी परिभाषा! पाप के कारण नरक नहीं है, कि तुमने बुरे काम किए हैं, इसलिए नरक। और अच्छे काम किए हैं इसलिए स्वर्ग नहीं। स्वर्ग और नरक का यहां अर्थ ही और है। ‘जिन दूसर करि जाना’, यही एक पाप है--महापाप कहो--कि जिसने अपने को परमात्मा से दूसरा करके जाना है। जिसने अपने को मैं बना रखा है। जो कहता है, मैं अलग हूं। मैं झुकूंगा नहीं, मैं लडूंगा, मैं अलग हूं, मैं जीत कर रहूंगा। मैं विजय-यात्रा पर निकला हूं। जिसके मन में ऐसी धारणा है, जो परमात्मा से संघर्षरत है, वही नरक में जी रहा है और नरक में पड़ेगा।
जिन दूसर करि जाना। तेहिं होइहिं नरक निदाना।।
जगजीवन चरन चित लावै। सो कहिके राम समुझावे।।
राम की तरफ से एक ही खबर आ रही हैः जगजीवन चरन चित लावै। झुको चरणों में। लीन हो जाओ चरणों में। विलीन हो जाओ चरणों में। समर्पित हो जाओ। राम की तरफ से एक ही खबर आ रही है--सो कहिके राम समुझावै--बस उसकी तरफ से ही पुकार हैः मिटो, ताकि मैं तुम्हारे भीतर पूरा-पूरा प्रकट हो सकूं। हटो, राह दो, द्वार दो, ताकि मैं तुम्हारे हृदय में विराजमान हो जाऊं। तुम इतने अकड़ कर बैठे हो भीतर, हटते ही नहीं! पत्थर होकर बैठे हो भीतर, गलते ही नहीं। गलो, पिघलो। और जिन चीजों से भी गलना और पिघलना हो सके, उन-उन चीजों का उपयोग कर लो।
सत्संग सबसे महत्त्वपूर्ण है जहां गलना हो जाता है। औरों को गलते देखकर तुमको भी गलने की आकांक्षा, अभीप्सा जग जाती है। औरों को पिघलते देख कर तुम भी पिघलने लगते हो। सत्संग ऐसा है जैसे सुबह सूरज ऊगे और बर्फ पिघलने लगे। सत्संग ऐसा है जहां कोई सूरज ऊगा है और तुम्हारे अहंकार की बर्फ पिघल सकती है। अंधेरे में रहोगे तो जमी रहेगी। कभी-कभी सूरजों से मुलाकात करो। कभी-कभी रोशनी के आमने-सामने हो जाओ। बचते न फिरो। लोग बचते फिर रहे हैं। लोग सत्संग से बहुत डरते हैं, बड़े भयभीत होते हैं। उनके भय का कारण भी है, क्योंकि सत्संग में जाने का मतलब होता है कि फिर पता नहीं लौटना हो पाएगा कि नहीं। फिर पता नहीं, चित्त वहीं न रह जाए, हृदय वहीं न छूट जाए। और अगर सत्संग में गए तो यह होने ही वाला है। भय ठीक ही है।
गऊ निकसि वन जाहीं। बाछा उनका घर ही माहीं।।
तृन चरहिं चित्त सुत पासा। गहि जुक्ति साध जग-बासा।।
जिसने सत्संग किया है, वह फिर संसार में कहीं भी रहे, उसका चित्त सत्संग में लगा रहता है, उसका चित्त वहीं दौड़ता रहता है। उसका मन गुरु के चरणों में ही लगा रहता है।
और ध्यान रखना गुरु का अर्थ ही वही होता है, जो अब नहीं है। जिसके होने में अब परमात्मा का ही होना है। इसलिए इस देश में हमने गुरु को भगवान कहा, भगवत्ता दी, परमात्मा कहा। ऐसे गुरुओं को भी हमने भगवान कहा जो भगवान को मानते भी नहीं। जैसे महावीर को भी भगवान कहा। इस देश की छाती बड़ी है--कम से कम बड़ी थी, अब चाहे न भी हो।
अब तो बड़ी सिकुड़ गई है। महावीर को भी भगवान कह सके हम! उस व्यक्ति को, जिसने कहा भगवान है ही नहीं। बुद्ध को भी भगवान कह सके हम। उस व्यक्ति को, जिसने कहा भगवान भी नहीं है और भीतर कोई आत्मा भी नहीं है; सब शून्य है। इस शून्यवादी को भी हम भगवान कह सके। क्योंकि हमें पता है, शून्यवाद अगर पूरा हो जाए तो पूर्ण तो आ ही जाता है, उसको लाना नहीं पड़ता। बुद्ध के शून्यवाद से बहुतों के जीवन में पूर्ण उतरा। बुद्ध ने मिटने पर जोर दिया, निषेध पर जोर दिया, विधेय की बात ही नहीं की, क्योंकि विधेय तो हो ही जाएगा। बीमारी चली जाए, स्वास्थ्य तो अपने से आ जाता है। स्वास्थ्य की बात ही क्या करनी! और स्वास्थ्य की बात भी करो तो क्या करोगे? बात तो बीमारी की ही हो सकती है। स्वास्थ्य की चर्चा में है क्या! अगर स्वस्थ हो, कोई पूछे, कहो भाई कैसे हो, तो इतना ही कह सकते हो कि ठीक हैं। इसमें कुछ खास चर्चा है नहीं। लेकिन अपेंडिक्स का आपरेशन हुआ है, टांसिल का आपरेशन हुआ है, कि गुर्दे की बीमारी है, तो फिर हजार बातें हैं!
एक महिला एक डाक्टर के पास पहुंची और उसने कहा, मेरा आपरेशन कर दो। डाक्टर ने कहा, लेकिन आपरेशन किस बात का और किसलिए? उसने कहा, किसी भी चीज का कर दो। चूंकि और सब महिलाएं खूब-खूब चर्चा करती हैं, मेरे पास चर्चा करने को कुछ है ही नहीं। कोई कहती है, छः इंच का टांका लगा, अपेन्डिक्स निकलवा दी। कुछ भी निकाल दो! नहीं तो मैं गूंगी बनी बैठी रहती हूं, वार्तालाप के लिए कुछ है ही नहीं।
बीमारी हो तो चर्चा का उपाय है। स्वास्थ्य की क्या चर्चा! और बीमारियों के नाम होते हैं, स्वास्थ्य का कोई नाम भी नहीं होता। स्वास्थ्य तो विशेषणहीन है। तुमसे अगर कोई पूछे, कहो, स्वस्थ हो? तुम कहो, हां। वह पूछे, किस प्रकार का स्वास्थ्य? तो तुम क्या उत्तर दोगे? हां, बीमारी होती है तो किस प्रकार की, कौन सी बीमारी, किस ढंग की? ढंग-ढंग की बीमारियां होती हैं। बीमारियां अनेक, स्वास्थ्य एक।
ऐसे ही अधर्म अनेक, धर्म एक। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन धर्म के नाम नहीं हो सकते। धर्म तो एक है--स्वास्थ्य--अधर्म अनेक हो सकते हैं।
तीन सौ धर्म हैं जमीन पर--और बहुत से धर्म रहे और मिट भी गए, और बहुत-से आगे होते रहेंगे और बनते और मिटते रहेंगे... लेकिन धर्म कहीं बनता और मिटता है? धर्म तो स्वास्थ्य है। ये जो हिंदू, जैन, बौद्ध हैं, ये औषधियां हैं। ये किसी बीमारी को मिटाने के उपाय हैं। इनका मूल्य है, औषधि की तरह। इनको धर्म मत कहो। ऐसे ही जैसे कोई आयुर्वेदिक औषधि, कोई एलोपैथिक औषधि, कोई होमियोपैथिक औषधि--जिसको जो रुचे। जिसको जो पचे। और जिसको जिससे लाभ हो जाए। और जिसकी जहां श्रद्धा हो।
अब जिसकी होमियोपैथी पर श्रद्धा है, उसे होमियोपैथी से लाभ हो जाता है। जिसकी श्रद्धा नहीं है, वह कहता है कि शक्कर की गोलियों से क्या होगा? वैज्ञानिकों ने प्रयोग किए हैं इस बात पर और बड़े हैरान हुए हैंः श्रद्धा हो तो शक्कर की गोली से भी लाभ हो जाता है; और श्रद्धा न हो, तो तुम कितनी ही बड़ी दवा दे दो, कोई लाभ न होगा।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि डाक्टर की जितनी ज्यादा फीस हो उतनी जल्दी तुम ठीक हो जाते हो। ज्यादा फीस पर श्रद्धा आती है कि जब इतनी फीस है और इतनी फीस देकर लोग जाते हैं, तो कुछ राज है! अगर डाक्टर मफ्त इलाज करे, इलाज काम ही नहीं आता। लोग कहते हैं, वहां क्या होगा? मफ्त दवा करता है, फिर भी भीड़ नहीं है दवाखाने में! और वहां देखो जहां पचास रुपए फीस देनी पड़ती है, वहां ‘क्यू’ लगा है। चार-पांच दिन के बाद मौका मिलेगा डाक्टर के पास जाने का।
जितनी फीस हो डाक्टर की, उतनी ज्यादा जल्दी बीमारी ठीक होती है। फिर दवा पर जितना भरोसा हो!
कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है... एक आदमी ने मुझे कहा--चिकित्सक हैं, बुजुर्ग हैं, बस्तर गए थे। आदिवासीयों का इलाका। एक आदिवासी को दूर के जंगल से लोग ले आए थे। वह बिल्कुल मर रहा था, टी. बी. था उसे--साफ जाहिर टी. बी. था और आखिरी अवस्था में था। और वैद्य के पास कोई इलाज का सामान भी न था, वहां कोई दवा भी न थी। दवा तो दूर, कागज और कलम भी न थी। सो पास में पड़े एक खपड़े पर पत्थर सफेद उठा कर उन्होंने दवा का नाम लिखा और खपड़ा उसे दे दिया; और कहा यह दवा ले लेना, रोज सुबह-शाम एक-एक बार और फिर तीन महीने बाद मुझे मिल जाना आकर। वह तीन महीने बाद आदमी आया, बिल्कुल चंगा, हष्ट-पुष्ट, उसने कहा, बिल्कुल ठीक हो गया, गजब की दवा काम की! फिर से दे दें दवा। तो उस वैद्य ने कहा, दवा मैंने तुम्हें दी नहीं थी, सिर्फ लिख कर दिया था। उसने कहा, क्या कह रहे हो? मैं तो उसी को घोंट-घोंट कर पीता रहा। गरीब आदमी, बेपढ़ा-लिखा आदमी! खपड़े को घोंट-घोंट कर रोज सुबह-सांझ पीता रहा! आप कहते क्या हैं? अमृत था अमृत! फिर तो वह वैद्य मुझसे बोले कि मैं चुप ही रहा, कि अब कुछ कहना ठीक नहीं है, सब गड़बड़ हो जाए, बना-बनाया गड़बड़ हो जाए! मैंने फिर खपड़े पर लिख कर वही दवा का नाम उसको दे दिया कि भई, इसको तू और छः महीने ले ले, अब आने की जरूरत ही नहीं।
बुद्ध को भी हमने भगवान कहा। हालांकि उन्होंने भगवान को माना नहीं। मगर, जिन्होंने उनके शून्य को समझा, जो उनके शून्य में उतरे, उन्होंने भगवान को जाना।
सारे धर्म औषधियां हैं। इनको धर्म मत समझ लेना। धर्म तो तब होगा, जब इन औषधियों के द्वारा तुम्हारी बीमारी कट जाएगी और तुम्हारे भीतर स्फूर्त होगा स्वभाव। स्वभाव धर्म है। महावीर ने परिभाषा की हैः ‘वत्थू सहावो धम्म।’ वस्तु का स्वभाव धर्म है। तुम्हारा स्वभाव धर्म है। जैसे आग का स्वभाव हैः जलाना; यह उसका धर्म है; और पानी का स्वभाव हैः नीचे की तरफ बहना; यह उसका धर्म है; ऐसे तुम्हारा स्वभाव हैः परमात्मा होना; यह तुम्हारा धर्म है।
धर्म तो एक ही है। अनेक बीमारियां हैं, अनेक औषधियां हैं, औषधि के शास्त्र हैं।
जगजीवन चरन चित लावै। सो कहिके राम समुझावै।।
जो राम ने कहा। इतना ही कहा है राम ने, उस तरफ से एक ही पुकार आती है--राम यानी उस तरफ का नाम है। राम से तुम दशरथ-पुत्र राम मत समझ लेना, राम तो सिर्फ नाम है उस तरफ से आती पुकार का। दूर की आती हुई ध्वनि, अनंत की ध्वनि--उसका एक ही इशारा हैः झुक जाओ, मिट जाओ, शून्य हो जाओ!
साध कै गति को गावै।
और एक बार तुम झुको तो तुम्हें पता चले। तब तुम्हें पता चले कि जो साधुता को उपलब्ध हुआ है, जो वस्तुतः संतत्व को उपलब्ध हुआ है, उसकी गति को कोई और नहीं जान सकता, जब तक कि वह स्वयं भी वैसा न हो जाए।
साध कै गति को गावै।
कोई बता नहीं सकता, कोई गुनगुना नहीं सकता, कोई गा नहीं सकता। जिसने जाना है, वह भी नहीं कह पाता, बता पाता। तो दूसरे जिन्होंने जाना नहीं, वे तो क्या बताएंगे? तुम साधु को देख कर न समझ पाओगे साधुता क्या है। हां, उसके आचरण से तुम अंदाज लगा लोगे, मगर वह अंदाज खतरनाक है। उस अंदाज के कारण बहुत नुकसान हुआ है। लोग देखते हैं कि साधु कैसे उठता, कैसे बैठता, क्या खाता, क्या पीता, क्या पहनता, सब हिसाब-किताब लगा कर वह भी उसी तरह उठने लगते, बैठने लगते, वही खाने लगते, वही पीने लगते--बस चूक हो गई। तुम्हारी जिंदगी में पाखंड हो जाएगा।
साधु का उठना-बैठना, खाना-पीना कोई बहुत आधारभूत बात नहीं है। अलग-अलग साधु अलग-अलग ढंग से उठते-बैठते, खाते-पीते। बुद्ध के पास जाओगे तो वह वस्त्र पहने हुए हैं, महावीर के पास जाओगे तो वह नग्न हैं। रामकृष्ण के पास जाओगे तो वह मस्ती में बेहोश हो जाते हैं। गिर पड़ते हैं। डाक्टर तो कहते हैं कि हिस्टिरिया है, या मिर्गी की बीमारी है। बुद्ध के पास तो कभी किसी ने नहीं देखा कि वह गिरे हों, कि बेहोश हो गए हों। मीरा के पास जाओगे तो नाचता हुआ पाओगे, महावीर के पास जाओगे तो बिल्कुल निस्तरंग--कहां नृत्य, कैसा नृत्य? सब ठहरा हुआ, जैसे पत्थर की मूर्ति।
यह आकस्मिक नहीं है कि जैनों और बौद्धों के कारण ही पहली दफा पत्थर की मूर्तियां बनीं दुनिया में। क्योंकि महावीर और बुद्ध में कुछ थोड़ा सा संगमरमर जैसा ठहरापन था। संगमरमर में उसकी झलक है। इसलिए दोनों ठहर गए थे। जैसे निस्तरंग जल हो। संगमरमर में थोड़ी झलक है। इसलिए जैनों और बौद्धों ने सबसे पहले मूर्तियां बनाईं। क्योंकि महावीर को जिन्होंने खड़े देखा, बिल्कुल निस्तरंग, अकंप, उनको पत्थर की याद आई।
महावीर की मूर्ति बन सकती है, मीरा की कैसे बनाओगे? मीरा तो तरंग है, नाचती हुई, अभी यह, अभी वह। मीरा की मूर्ति अगर बनाई हो तो फव्वारे से बनानी पड़ेगी, पत्थर से नहीं बन सकती। उतनी तरंग लानी पड़ेगी। अब मीरा को देख कर तुम नाचने लगना, तुम्हारा नाच झूठ होगा। क्योंकि मीरा के भीतर परमात्मा उतरा है और परमात्मा नाच रहा है, इसलिए मीरा नाच रही है--मर्जी! तुम्हारा नाच, तुम्हारी मर्जी! वहीं झूठ होता है, वहीं पाखंड हो जाता है। महावीर के भीतर परमात्मा उतरा, उसने वस्त्र फेंक दिए। परमात्मा नग्न खड़ा होना चाहा है, परमात्मा नग्न खड़ा हो गया। वह परमात्मा की मर्जी। महावीर को भी मन में उठा होगा कि कम से कम लंगोटी तो लगाए रखो, लेकिन परमात्मा की मर्जी नग्न होने की थी, तो वह नग्न हो गए। और कृष्ण में परमात्मा की मर्जी थी कि मोरमुकुट बांधे, कि पीतांबर पहने, कि श्रृंगार और सौंदर्य... कृष्ण को भी लगा होगा कि यह जरा ठीक तो नहीं मालूम पड़ता, इससे तो ऐसा लगता है जैसे कोई रासलीला कर रहे हैं! इससे ऐसा लगता है जैसे कोई नाटक-मंडली! यह कुछ जंचता नहीं; मगर करो क्या? परमात्मा की मर्जी, जंचे कि न जंचे!
कृष्ण भी थोड़े उतने ही चौंके होंगे जितने महावीर चौंके होंगे कि यह माजरा क्या है, लंगोटी तो बचने दो! कृष्ण को भी लगा होगा--और यह कोई ज्यादा इनका फासला नहीं था, करीब ही करीब थे--कृष्ण को भी लगा होगा। कृष्ण के ही एक चचेरे भाई नेमिनाथ जैनियों के तीर्थंकर हैं। वह नग्न हो गए थे, नेमिनाथ नग्न हो गए थे। चचेरे भाई हैं कृष्ण के। कृष्ण उनके दर्शनों को भी गए। बड़े भाई थे। एक तरफ नेमिनाथ हैं जो नग्न हो गए हैं, एक तरफ कृष्ण हैं जो मोरमुकुट बांधे खड़े हैं। जैसी परमात्मा की मर्जी!
लेकिन तुमने अगर बाहर से आचरण देख कर थोपा, तो वह तुम्हारी मर्जी है, वही पाखंड हो गया, वहीं तुम आ गए। इसलिए आचरण देख कर अनुकरण मत करना अन्यथा तुम थोथे के थोथे रह जाओगे।
सत्संग करो। सदगुरु के हृदय को तुम्हारे हृदय से मिलने दो, डोलने दो, नाचने दो, पिघलने दो। धीरे-धीरे वहां से कुछ तुम्हारे भीतर पैदा होगा और तुम्हारे आचरण तक आएगा। तो, तो ही कुछ हुआ। अन्यथा सब पाखंड है, धोखा है।
साध कै गति को गावै। जो अंतर ध्यान लगावै।।
कौन समझेगा साधु की गति? जो अपने अंतर में उतरेगा। जो अंतर ध्यान लगावै, जो बाहर की सब भूल जाए और भीतर बस रहे।
जब गुरु के पास बैठो तो बाहर की सब भूल जाना--भूल ही जाना सारा संसार! बस रह जाना भीतर-भीतर! बस हृदय की धड़कन बन जाना! धड़कन से जरा भी ज्यादा नहीं! धड़कन में ही समा जाना! बस धड़कते ही रह जाना! न शब्द, न वाणी, न विचार, न संसार, न व्यवसाय, न व्यापार, कुछ भी नहीं, सब गया, सिर्फ रह गया धड़कता हुआ दिल। बस उस धड़कते दिल से मिलन हो जाएगा। धड़कता दिल इस परमात्मा के साथ, धड़कते दिल के साथ मिल जाएगा। एक क्षण भर को झरोखा खुल जाएगा। और वहां से उतरेगी किरण! जो अंतर ध्यान लगावै, उसको पता चलता है कि साधु के भीतर क्या हुआ है।
चरन रहे लपटाई। ...
फिर तो वह एकदम गुरु के चरणों में लिपट जाता है। ‘चरन रहे लपटाई।’ शब्द देखना, छूता ही नहीं चरण--चरणस्पर्श करने का मतलब हुआः किया स्पर्श और गए--‘लपटाई’, लिपट कर ही रह जाता है। फिर कहीं भी हो, उन्हीं चरणों में लिपटा रहता है।
चरन रहे लपटाई। काहू गति नाहीं पाई।।
किसी और ने गति पाई नहीं, जो चरणों में लिपट गया, उसे थोड़ी झलक मिली। गुरु के चरणों में लिपटे-लिपटे एक दिन पता चल जाता हैः गुरु के चरण तो खो गए हैं। परमात्मा के चरण हाथ में आ गए हैं। शुरुआत होती है गुरु से, पहुंचना होता है परमात्मा पर।
अंतर राखै ध्याना। कोई विरला करै पहिचाना।।
और कोई विरला ही पहचान पाता है। सौभाग्यशाली पहचान पाता है। और वही पहचान पाएगा, ‘अंतर राखै ध्याना,’ जो ध्यान को भीतर डुबा दे।
मेरे पास तुम बैठते हो तो सोचो मत, विचारो मत, ध्याओ! सोचो मत, विचारो मत, धड़को! सन्नाटा हो जाए। खुद की श्वास की आवाज सुनाई पड़ने लगे। सब चुप्पी हो जाए। सब निस्तब्ध हो जाए। जैसे बाहर का सब खो गया, तुम रह गए बस अस्तित्व मात्र। बस उसी जगह से संक्रमण है, उसी जगह से संवाद है।
एक था पागलखाना। पागलों में रोज विवाद छिड़ जाता था। पागलों में विवाद ही छिड़ सकता है, संवाद तो हो ही नहीं सकता। संवाद तो बड़े समझदारों में होता है।
अब जैसे तुम यहां बैठे हो, चुप और मौन, यह संवाद हो रहा है। यहां भी कोई पागल आ सकता है, वह बैठा-बैठा विवाद ही करता रहता है। उसकी खोपड़ी में विवाद चलता रहता है। वह सोचता है, यह ठीक, यह गलत; यह मुझसे मेल खाता है, यह मुझसे मेल नहीं खाता है; यह मेरी किताब में लिखा है, यह मेरी किताब के खिलाफ जा रहा है; यह बात नहीं मान सकता मैं कभी भी; वह इसी तरह के विवाद में पड़ जाता है।
तो पागलखाना था बड़ा, बहुत पागल थे, रोज विवाद छिड़ता था--पागल और करें भी क्या? दिन भर विवाद के सिवा कोई उपाय न था। एक दिन एक बड़ा अदभुत विवाद छिड़ा। विवाद का विषय थाः इस पागलखाने में सबसे बड़ा पागल कौन है? स्वभावतः पागलों को यही धुन रहती है कि सबसे बड़ा कौन? सबसे बड़े होने के पीछे ही तो लोग पागल हो जाते हैं। पागलपन ही क्या है दुनिया में? सबसे बड़ा कौन? तू कि मैं?
भारी विवाद छिड़ा, काफी हो-हल्ला मचा, मारपीट हुई, चीजें फेंकी गयीं, जूतों से स्वागत-सत्कार हुआ, कुर्सियां तोड़ डालीं, तस्वीरें दीवाल पर लटकी गिरा दीं--बड़ा हो-हल्ला मचा। और फिर यह तय हुआ विवाद के बाद कि इस पागलखाने में सबसे बड़ा पागल डाक्टर ही हो सकता है। क्यों--कुछ ने शंका व्यक्त की? क्यों--कुछ पागल बोले? तो उन्होंने कहा, अरे अच्छा-भला पागलों के बीच रह रहा है, और क्या पागलपन हो सकता है! इस मूरख को तो देखो! अच्छा-भला पागलों के बीच रह रहा है।
विवाद विक्षिप्तता है। और विवादी को हमेशा बुद्धपुरुष पागल मालूम पड़े हैं। अच्छे-भले, पागलों के बीच रह रहे हैं। पागलों का अपना पागलपन नहीं दिखाई पड़ रहा है, जो पागल नहीं है वह सबसे बड़ा पागल मालूम होता है। यह तो संवाद का उपाय नहीं। संवाद तो तभी होता है जब सब विवाद चले जाते हैं, सब विक्षिप्तता चित्त की चली जाती है, चुप सन्नाटे में कोई सुनता है। जैसे संगीत को सुनते हो, ऐसा ही सदगुरु को सुनो। संगीत सुनते वक्त तुम यह तो नहीं सोचते, क्या ठीक, क्या गलत? सिर्फ सुनते हो। रसमग्न। रस एकमता औराधा।
अंतर राखै ध्याना। कोई विरला करै पहिचाना।।
जगत किहो एहि बासा। पै रहैं चरन के पासा।।
जिसको सत्संग लग गया, वह फिर जगत में रहता है, लेकिन उन चरणों से दूर नहीं रहता। ‘जगत किहो एहि बासा। पै रहैं चरन के पासा।।’ चरणों के पास ही बना रहता है। चरण उसके हृदय के भीतर ही विराजमान हो गए, यह अर्थ है, चरन रहे लिपटाई।
जगत कहै हम माहीं। ...
जगत तो यही समझता है कि साधु, यह कैसा साधु? यह तो हमारे ही भीतर रह रहा है, हमारे ही जैसा रह रहा है! ‘जगत कहै हम माहीं।’ पागलों ने देखा न डाक्टर को कहा, सबसे बड़ा पागल। अगर यह पागल न होता तो हम पागलों के बीच क्यों रहता? पागल ही होना चाहिए और सबसे बड़ा पागल होना चाहिए। साधु जो संसार में रहेगा, उसे लोग कहेंगे, हमारे ही जैसा है, इसमें क्या रखा है!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, आप लोगों को संन्यास दे देते हैं, फिर वे दुकान पर बैठ कर दुकान भी कर रहे हैं! उनकी पत्नी भी है, बच्चे भी हैं, घर-द्वार भी है, यह कैसा संन्यास। ये तो हमारे ही जैसे हैं। हां, तुम्हारे ही जैसे हैं बाहर-बाहर। क्योंकि क्रांति का जो दिया मैं जलाना चाहता हूं, वह बाहर का नहीं है, भीतर का है। अंतर राखै ध्याना।
जगत किहो एहि बासा। इस ढंग से जगत में रहे, इस जुगति से, इस विधि से जगत में रहे, रहैं चरन के पासा।
जगत कहै हम माहीं। वै लिप्त काहु मां नाहीं।।
लेकिन जगत कहे तो कहने दो, तुम रहना जगत में और लित मत होना। भागना मत। भागने से कोई मुक्त नहीं होता। लिप्त न होने से मुक्त होता है।
जस गृह तस उदयाना। ...
सच्चे साधु को तो घर और जंगल एक जैसा है।
जस गृह तस उदयाना। वै सदा अहैं निरबाना।।
वे तो सदा ही निर्वाण की दशा में हैं। निर्वाण की दशा बड़ा अर्थपूर्ण शब्द है। निर्वाण का अर्थ होता है, दीये का बुझ जाना। कहते हैं, दीये का निर्वाण हो गया--जब दीया बुझ जाता है। जिनका अहंकार बुझ गया है, वे निर्वाण की दशा में हैं। उनकी अहंकार की टिमटिमाती पीली सी रोशनी बुझ गई। अब परम प्रकाश ही उनका प्रकाश है। अपना अलग से कोई प्रकाश नहीं रखा है उन्होंने, अपनी मर्जी नहीं बचाई है। ‘वै सदा अहैं निरबाना।’ वे चाहे घर में हों, चाहे जंगल में, सब जगह मिटे हैं, शून्य हैं।
ज्यों जल कमल कै बासा। ... जैसे जल में कमल बास करता है... वे वैसे रहत निरासा।। वे वैसे ही अलिप्त हैं। उनकी संसार से कोई आशा नहीं है। संसार से कुछ पाने की आकांक्षा नहीं है। लेकिन परमात्मा ने संसार में भेजा है, तो जो अभिनय उसने दिया है, उसे पूरा कर देना है। उस अभिनय को बीच में छोड़ कर भाग जाना परमात्मा के प्रति अवज्ञा होगी। यह उचित नहीं है। अभिनय है, ऐसा जान कर पूरा कर देना है।
जैसे कुरम जल माहीं। ... जैसे कछुआ जल में जाता है----वाक स्रुति अंडन माहीं।। लेकिन उसकी याद तो अपने अंडों में लगी रहती है जो किनारे पर रखे हैं।
भवसागर यह संसारा। वै रहैं जुक्ति तें न्यारा।।
ऐसे ही यह संसार सागर है, इसमें कछुवे की भांति तुम अगर आ भी गए हो, तो भी याद किनारे की रहे। वै रहैं जुक्ति तें न्यारा। रहो इसमें, कला यही है कि रहो भी और रहो भी नहीं। भगोड़े कलाकार नहीं हैं। भगोड़े बहुत स्थूल हैं। घर छोड़ कर जो चले गए हैं जंगल में, उन्होंने बड़ी छोटी-सी क्रांति की है, बड़ी ओछी-सी क्रांति की है। इससे आत्मा नहीं बदल जाएगी। इससे क्या होगा?
मैंने सुना है, एक कौवा जा रहा था उड़ा, पूरब की तरफ। एक कोयल ने पूछाः चाचा, कहां जा रहे हो? उस कौवे ने कहा, मैं पूरब जा रहा हूं, पूरब के देशों के लोग अच्छे हैं और भले हैं। अब मुझे यहां पश्चिम में नहीं रहना है, क्योंकि किसी को भी मेरे मधुर गीत पसंद नहीं आते। कोयल ने कहाः चाचा, पूरब जाने से क्या होगा, जरा गीतों का ढंग बदलो! जरा और गीत गाओ! जरा और कंठ बनाओ! ये गीत पूरब में भी पसंद नहीं किए जाएंगे।
यहां से वहां जाने से कुछ भी नहीं होने वाला है। बदलो। जहां हो वहीं बदलो। फिर चाहे घर हो कि जंगल, सभी जगह परमात्मा का वास है। वै रहैं जुक्ति तें न्यारा। और यही कला है। असली कला यही है। रहो बीच बाजार में और ऐसे जैसे जंगल में होओ। रहो घर में और ऐसे जैसे आश्रम में हो। रहो गृहस्थ और ऐसे जैसे संन्यस्त हो। इसी कला को मैं तुम्हें देना चाहता हूं--मेरे संन्यासियों को। मैं तुम्हें सस्ता धर्म नहीं देना चाहता। धर्म महंगा है।
बहुत हसीं सही सोहबतें गुलों की, मगर
वो जिंदगी है जो कांटों के दर्मियां गुजरे
फूलों के पास रहना ठीक, लेकिन जिंदगी असली वही है जो कांटों के पास रहे और ऐसे रहे जैसे फूलों के पास है।
वो जिंदगी है जो कांटों के दर्मियां गुजरे
जगजीवन ऐसें ठहराना। ...
ऐसे जगजीवन ठहर गया संसार में--और भीतर ठहर गया...
जगजीवन ऐसें ठहराना। सो साध भया निरबाना।।
और वहीं से साधुता जगी, और वहीं से निर्वाण पैदा हुआ, वहीं अहंकार मिटा और परमात्मा से मिलन हुआ।
जगजीवन ऐसें ठहराना।
जगजीवन कहते हैं, मैं यह अनुभव की कहता हूं, ऐसे ही मैं ठहरा, ऐसे ही तुम भी ठहर जाओ। भागते कहां हो? भागने से कोई कहीं ठहरा है? ठहरने से कोई ठहरता हैं। जहां हो वहीं ठहर जाओ। वहीं भीतर ज्योति जगाओ। वहीं अंतरमुख हो जाओ। वहीं सत्संग करो। वहीं सदगुरु के चरण गहो। वहीं याद को परमात्मा में लगाओ। और जो अभिनय भी उसने दिया है, उसे पूरा करो। पूरी तरह पूरा करो। यही तुम्हारी प्रार्थना होगी, यही तुम्हारी पूजा।
और एक दिन तुम चकित हो जाओगे, बाहर सब वैसा-का-वैसा रहता है, भीतर सब बदल जाता है। और जब भीतर सब बदल जाता है, तो बाहर भी सब अपने-आप बदल जाता है, क्योंकि दृष्टि और हो जाती है। देखने का ढंग और हो जाता है। फिर वृक्ष नहीं दिखाई पड़ते, परमात्मा ही हरा होता दिखाई पड़ता है। फिर लोग नहीं दिखाई पड़ते, परमात्मा ही भिन्न-भिन्न रूपों में चलता हुआ दिखाई देता है। फिर चांद-तारे नहीं दिखाई पड़ते, परमात्मा ही अनेक-अनेक प्रकाशों में, अनेक-अनेक ढंगों से बरसता हुआ मालूम होता है। दृष्टि सृष्टि है। और जब दृष्टि बदल जाती है तो सृष्टि बदल जाती है। यह है कला। भगोड़ेपन में कला नहीं है। जहां हो, वहीं ठहर जाओ। ‘वै रहैं जुक्ति तें न्यारा;’ जल में कमलवत, ऐसे न्यारे होने की कला सीखो।
और लोग तो नहीं समझेंगे, उनकी चिंता न करना। लोग कभी नहीं समझे हैं। उनकी बात ही मत फिकर में लेना। हंसें तो हंसने देना, नाराज हों तो नाराज होने देना। विरोध करें तो विरोध करने देना। उनके प्रति मैत्री और करुणा का भाव खंडित मत होने देना। यह उनकी मजबूरी है। उनकी समझ में नहीं आ रहा है। जो उनकी समझ में नहीं आता, वे उसे गलत मानते हैं। लेकिन तुम अपने भीतर के रस को इस कारण खंड़ित मत करना। तुम इन बातों में मत उलझना। तुम अलिप्त बने रहना। और जल्दी ही तुम पाओगे, वह अपूर्व घटना घटती हैः रस एकमता औराधा।
दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफा याद
अब मुझको नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद
फिर कुछ और नहीं बचता उसके प्रेम के सिवाय। न मैं, न तू।
तेरी याद की उफ ये सरमस्तियां
कोई जैसे पीकर शराब आ गया
और एक अपूर्व मस्ती, एक अपूर्व नशा छा जाता है; जो टूटता ही नहीं, जो अविच्छिन्न है, जो शाश्वत है।
आज इतना ही।
thank you guruji
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