दसवां-प्रवचन-(कोई ताजा हवा चली है अभी)
दिनांक 20-05-1980 ओशो आश्रम पूना।
01-दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी
शोर बरपा है खाना ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी
कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी
और यह चोट भी नई है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी
दिल में कोई लहर सी उठी है अभी!
02-मने खबर नथी--हूं कौण छूं, अइयां सू करूं छूं?
03-आप सांत्वना का विरोध करते हैं तो क्या पुनर्जन्म भी एक प्रकार की सांत्वना ही नहीं है? जो कुछ है बस यही जन्म है, इसके बाद कुछ भी नहीं है--इस विचार कि आत्मा अमर है, शरीर ही नष्ट होता है, हम नया जन्म लेंगे, इस दुनिया में हमें वापिस आना है--ऐसा सोचने से कुछ राहत और तसल्ली महसूस होती है।
05.एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि जैसे आप बैठते हैं वैसे ही पूरे दो घंटा बैठे रहते हैं। आपके शरीर का कोई अंग हिलता ही नहीं, केवल एक हाथ हिलता है। और हम पांच मिनट भी शांत नहीं बैठ पाते!
06-एम. एल. ए बनने का सबसे सस्ता, सरल और टिकाऊ उपाय क्या है?
07-मैं तो आपको समझने की कोशिश में थक गया, कुछ समझ में नहीं आता। अब क्या करूं?
पहला प्रश्न: ओशो,
दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी
शोर बरपा है खाना ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी
कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी
और यह चोट भी नई है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी
दिल में कोई लहर सी उठी है अभी!
प्रज्ञा! दुनिया में तो जी किसी का कभी लगा नहीं, लग सकता भी नहीं। दुनिया में सब है--धन है, पद है, प्रतिश्ठा है। लेकिन कुछ कमी बनी ही रहती है, क्योंकि स्वंय की सत्ता दुनिया में नहीं है। और स्वंय की सत्ता में छिपा है सत्य। सत्य की कमी बनी रहती है।
दुनिया सपना है। सपने में सब हो, पर सत्य नहीं है। और सपनों से किसका पेट भरा? और सपनों से किसकी तृप्ति हुई? सपने कितना ही भरमाएं, कितना ही भटकाएं, भर तो नहीं सकते; आदमी खाली का खाली रह जाता है। धन भी एक सपना है। बहुत धन हो तो भी सपना है।
सपने की परिभाषा समझो। वह जो आज है और कल नहीं हो सकता है, वही सपना है। जो शाश्वत नहीं है, वही सपना है। जो क्षणभंगुर है, वही सपना है। जो पानी का बबूला है कि आकाश में खिंच गया, इंद्रधनुष है, वही सपना है। जो टूटेगा ही टूटेगा। जो छूटेगा ही छूटेगा। लाख करो उपाय, लाख व्यवस्थाएं जुटाओ, सब आयोजन असफल हो जाएंगे। सपने को कोई कभी बचा नहीं पाया। अंततः हाथ में राख भी नहीं बचती। सपना यूं तिरोहित हो जाता है, जैसे सुबह के ओस-कण धुप में विलीन हो जाते हैं। पीछे कुछ भी नहीं छूटता।
पद की दौड़ है। यह हो जाऊं-हो भी जाओ तो कुछ सार नहीं है। न हो जाओ तो दुख है। न हो जाओ तो हार की पीड़ा है! न हो जाओ तो विशाद है। न हो जाओ तो संताप में जलोगे। और हो जाओ तो कुछ मिलता नहीं। बड़ा अदभुत द्वंद्व है! दुख ही दुख है। हारो तो दुख है, जीतो तो दुख है। पद पर जो पहुंच जाते हैं, उनकी पीड़ा उनसे भी ज्यादा है जो नहीं पहुंच पाते। जो नहीं पहुंच पाते उनको कम से कम आशा तो होती है। जो पहुंच गये, उनकी तो आशा भी गयी। जो पहुंच गये उनको तो पता चल गया कि बस व्यर्थ दौड़े। और अब किससे कहें! अब कहने में भी बात उचित नहीं मालूम पड़ती। कहेंगे तो लोग हसेंगे। कहेंगे तो लोग कहेंगे: ‘हमने तो पहले ही कहा था!’ कहेंगे तो लोग कहेंगे कि व्यर्थ तुम दौड़े, नाहक आपाधापी की। तो अब चुप रह जाना ही उचित है। अब जो हुआ हुआ। अब ऊपर से एक मुखौटा लगा कर मुस्कुराते रहना ही उचित है। अब तो यही दिखाना उचित है कि पा लिया सब, तृप्ति हो गयी, महत्वाकांक्षा पूरी हो गई। अब तो झूठ को बनाए रखने में ही सार है। नहीं तो जिंदगी भर मूर्खता की, इसकी लोग घोशणा करेंगे। जिंदगी तो गयी ही गयी, अब अपने को और मूर्ख कहलवाने से क्या सार है!
इसलिए जो पद पर हैं उनके भीतर की पीड़ा बहुत है-उनसे ज्यादा जो पद पर नहीं हैं।
धनी ज्यादा रोता है निर्धन से। निर्धन तो अभी इस आशा में है-जुटा लूंगा, जुड़ा लूंगा; अभी जिंदगी पड़ी है, और दौड़ूंगा, और श्रम करूंगा। धनी कहां जाए? वह तो ऐसे मोड़ पर आ गया है जिसके आगे रास्ता ही समाप्त हो जाता है, वह तो बुरी तरह डूब गया।
इस दुनिया में सब है, लेकिन सब सपने जैसा है। सत्य भीतर है, बाहर नहीं है। जो बाहर है उसका नाम दुनिया और जो सत्य है, वह है तुम्हारी सत्ता।
तू कहती है--
‘भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी!’
अच्छा है कि कमी एहसास होने लगी। धन्यभागी हैं वे जिन्हें कमी एहसास होने लगती है। और जिन्हें जल्दी एहसास हो जाए, उन पर परमात्मा की अनुकम्पा है।
तू तो अभी युवा है। यही घड़ी है कि कोई जाग जाए तो जिंदगी व्यर्थ जाने से बच सकती है; कोई जाग जाए तो बाहर की यात्रा अंतर्यात्रा बन सकती है। और जागने की पहली शुरूवात यूं ही होती है कि एक कमी लगती है। बुढ़ापे में तो सभी को लगती है, मगर तब बहुत देर हो गयी होती है। और कुछ तो ऐसे मूढ़ हैं कि उन्हें बुढ़ापे में भी नहीं लगती। उन्हें मरते-मरते तक नहीं लगती। मरते-मरते तक भी उनकी चेश्टा यही होती है कि किसी तरह कुछ जो कमी रह गयी हो उसे पूरा कर लें। मरते-मरते भी दौड़ने से संलग्न रहते हैं, आखिरी दांव लगाने में लगे रहते हैं। मरते-मरते भी धक्का मुक्की कर लें!
मुल्ला नसरूद्दीन बुढ़ापे में तंग आकर अस्पताल में भर्ती हो गया। एक युवा और सुंदर नर्स उसके वार्ड में डयूटी पर थी। एक दिन उस नर्स ने मुल्ला से कहा कि कल से मेरी डयूटी जनाना वार्ड में लगेगी। इस पर मुल्ला ने कहा: ‘मेरी बदली भी तब जनाना वार्ड में करा दो।’
नर्स ने कहा: ‘आपको जनाना वार्ड में शर्म नहीं आएगी?’
मुल्ला ने कहा: ‘शर्म की क्या बात है! वहां तो मैं पैदा ही हुआ था।’
बुढ़ापे तक भी मूर्खता मिटती नहीं। वही राग, वही रंग! दीवाला निकलने के करीब आ जाता है, मगर अभी भी जलाए जाते हैं दीए-इस आशा में कि शायद एक दीवाली और मना लें! सब टूट चुका, सब फूट चुक; लेकिन फिर भी एक हाथ और मार लें! कौन जाने जो अब तक नहीं लगा हाथ, अब लग जाए!
मुल्ला नसरुद्दी एक नुमाइश में गया था लखनऊ में। बूढ़ा हो गया है। पहन रखा है चूड़ीदार पाजामा, अचकन। शाल डाल रखी है। गांधीवादी टोपी लगा रखी है। बिलकुल नेता मालूम हो रहा है। बुढ़ापे में लोग चूड़ीदार पाजामा इसीलिए पहनते हैं, उससे जवानी की चुस्ती मालूम पड़ती है, उससे जवानी को धोखा मालूम पड़ता है। अब जोर से कस लोगे पैरों को तो खाल कितनी ही ढीली पड़ गयी हो, कम से कम बाहर से तो चुस्ती दिखाई पड़ेगी। और इतने कसे रहोगे तो खुद भी थोड़ी तेजी से चलोगे कि जल्दी घर पहुंच जाएं, कि कब इस चूड़ीदार पाजामे से छुटकारा हो।
बड़ी तेजी से चला जा रहा था। एक भीड़ में एक सुंदर युवती को देखकर जी नहीं माना। यूं तो अपने को बहुत रोका, फिर भी एक धक्का मार ही दिया। युवती ने लौट कर देखा-शुद्ध खादीधारी नेता है! सब बाल सफेद हो गये हैं। कहा: ‘शर्म नहीं आती? बाल सफेद हो गये और अभी भी यह ढ़ंग!’
नसरूद्दीन ने कहा: ‘बाल सफेद हो गये हों, मगर दिल तो अभी भी काला है। दिल की तरफ देखो।’
दिल काला ही बना रहता है; वह सफेद होता ही नहीं। न सफेद खादी से होता है, न सफेद बालों से होता है। दिल तो काला ही बना होता है। जब तक कि भीतर का दीया न जले तब तक काला ही बना रहता है। तब तक तो वहां काजल ही काजल है। तब तक तो वहां धुआं ही धुआं है।
प्रज्ञा, तू तो अभी युवा है। यही घड़ी है। अगर कोई जाग आए तो अभी समय है। जो श्रम बाहर की यात्रा में लगे, वही श्रम भीतर की यात्रा में लग सकता है। बाहर तो धन नहीं मिलता, लेकिन भीतर मिल सकता है। धन तो नहीं, ध्यान मिलेगा। मगर ध्यान ही धन है। पद तो नहीं लेकिन परमात्मा मिलेगा। पर परमात्मा ही तो परमपद है! कमी मिट जाएगी।
लेकिन भीतर की यात्रा के कुछ सूत्र समझ लेने चाहिए। पहला तो सूत्र यह है कि भीतर की यात्रा पर किसी लोभ के कारण नहीं जाना चाहिए, क्योंकि लोभ तो बाहर की यात्रा का हिस्सा है। लोभ अगर है तो तुम भीतर जा ही नहीं रहे। तुम चाहे लोभ के कारण ध्यान करने बैठे हो, तो भी तुम्हारी बहिर्यात्रा चल रही है। क्योंकि लोभ बहिर्यात्रा में ही ले जा सकता है। वह गाड़ी बाहर की तरफ ही जाती है। महत्त्वाकांक्षा अगर सिर पर सवार है तो तुम चाहे ध्यान करो, चाहे पूजा, चाहे प्रार्थना-कुछ न होगा, क्योंकि महत्त्वाकांक्षा का जहर इन सबकी गर्दन घोंट देगा, इनको मार ड़ालेगा, महत्त्वाकांक्षा तो दिल्ली की तरफ जाती है-दिल की तरफ नहीं। वह यात्रा बहिर्मुखी है, अंतर्मुखी नहीं।
अभी मैंने कुछ दिन पहले डाॅक्टर मुंशीसिंह को कहा था न कि आ गये हो भूले-भटके तो अब हिम्मत करो। अभी यूं आधे-आधे, यहां-वहां, अधूरे-अधूरे कुछ कुछ करते हे होओगे, इसलिए बात बनी नहीं। अब पूरे उतर जाओ। अगर उतरना ही है तो पूरे उतर जाओ। यह सौदा जुआरियों का है, व्यवसायियों का नहीं है।
उन्होंने सोचा कि चलो पूरे ही उतर कर देख लें। वे दूसरे दिन ही संन्यास हो गये। दूसरे दिन बड़ी शान से उन्होंने पत्र लिखा कि आपने कहा तो मैं संन्यासी हो गया। मगर एक ही दिन चला संन्यास! इसलिए मैंने उनके प्रश्न का दूसरे दिन उत्तर नहीं दिया, क्योंकि मैंने कहा जरा दो-चार दिन देख तो लूं! यह ज्यादा चलने वाला नहीं है। चैबीस घंटे बाद ही वे पंहुच गये कि अगर साल भर में परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई तो मैं संन्यास छोड़ दूंगा। तो उनको खबर दी गयी: ‘बेहतर है तुम अभी ही छोड़ दो, क्योंकि शर्तो से कोई संन्यासी नहीं होता।’ वे परमात्मा को अल्टीमेटम दे रहे हैं कि साल भर में अगर प्राप्ति न हुई तो संन्यास छोड़ दूंगा! ऐसा लगता है कि इन्हें परमात्मा की कम जरूरत है, परमात्मा को इनकी ज्यादा जरूरत है, कि डाॅक्टर मुंशीसिंह अगर नहीं मोक्ष को प्राप्त हुए तो परमात्मा जार-जार रोएगा, कि छाती पीटेगा, कि हे मुंशीसिंह, कहा हो? तुम्हारे बिना जी नहीं लगता, कि तुम आओ तो....।’
‘दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी!
शोर बरपा है खाना-ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी।’
...कि परमात्मा भी फिर गुनगुनाए, कि उसकी जिंदगी में भी मौसम आए! मुंशीसिंह आएं तो मौसम आए!
और डाॅक्टर की तो उसको भी जरूरत पड़ती ही होगी। ऐसे मुंशीसिंह मुझे कोई असली डाॅक्टर नहीं मालूम पड़ते, क्योंकि अपने दस्तखत में उन्होंने पहले दिन तो लिखा था: ‘मुंशीसिंह डाॅक्टर’। वह तो मैंने सिर्फ शिश्टाचारवश ‘डाॅक्टर मुंशीसिंह’ कहा। वे डाॅक्टर ऐसे मालूम पड़ते हैं, जैसे हमारी-‘पदमा इंजीनियर’! कभी बाप-दादे कोई इंजीनियर रहे होंगे! इतना तो पक्का है कि पदमा इंजीनियर नहीं है। लेकिन अब वह उपनाम ही हो गया-इंजीनियर। जैसे कोई शर्मा, कोई वर्मा-ऐसे पदमा इंजीनियर। ऐसे ही ये मुंशीसिंह डाॅक्टर मालूम पड़ते हैं, क्योंकि डाॅक्टर होते जो पहले डाॅक्टर लिखा जाता है न कि पीछे-मुंशीसिंह डाॅक्टर! पीछे जब कोई लिखता है तो उसका मतलब ही साफ हैं। मगर जब से मैंने डाॅक्टर मुंशीसिंह कहा, तब से वे भी आगे लिखने लगे; उनने सोचा कि जब चल ही रही है बात तो फिर काहे को पीछे लिखो! उनने भी आगे लिखना शुरू कर दिया, कि जब मुफ्त मे ही बात बनी जा रही है तो बन ही जाने दो। कभी बाप-दादे कोई रहे होंगे डाॅक्टर। वे भी मैं नहंीं समझता कि आदमियों के डाॅक्टर रहे हों।
चैबीस घंटे में ही शर्तबंदी शुरू कर दी उन्होंने कि एक साल, ठीक एक साल! अगर नहीं परमात्मा की उपलब्धि हुई, अगर निर्वाण का अनुभव नहीं हुआ, अगर समाधि न लगी, तो बस संन्यास छोड़ दूंगा!
लोभ से संन्यास? लोभ से ध्यान? यह मोक्ष भी फिर मोक्ष न रहा। यह परमात्मा भी फिर परमात्मा न रहा। यह सब दुकानदारी ही हो गयी। यह बहिर्यात्रा ही रही फिर। ये तो मौज की बातें हैं, ये तो मस्ती की बातें हैं। और जब छोड़ने की बात पहले से ही तय है तो क्या तुम पूरे उतरे पाओगे? तुम चैबीस घंटे हिसाब लगाते रहोगे कि अभी तक नहीं हुआ, अभी तक नहीं हुआ, चार दिन निकल गये, पांच दिन निकल गये, सात दिन निकल गये, यह एक सप्ताह हुआ, यह चार सप्ताह हुए, यह एक महीना गया, अब ग्यारह महीने ही बचे! अभी तक कुछ तो मिल जाना चाहिए था!न मिलता पूरा-पूरा, तोला भर मिलता, दो तोला मिलता, कुछ तो मिलता! रत्ती मासा कुछ तो मिलता! कुछ आसार तो नजर आते! न मिलता, कम से कम पैरों की आवाज तो सुनाई पड़ती! एक महीना यूं ही गया! और ग्यारह महीने ही बचे!
ये बचकानी बातें हैं। ये छोटे-छोटे बच्चों जैसी बातें है। परमात्मा कोई खिलौना हैं? तुम्हारी आकांक्षाओं और तुम्हारे लोभ और तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा की दौड़ से तुम उसे पा लोगे? पागल हो गये हो!
प्रज्ञा, अच्छा है कि तु अभी यूवा है। अगर दुनिया में कमी मालूम होने लगी है......यही तो मैं चाहता हूं कि दुनिया में कमी मालूम होने लगे। इसलिए तो नहीं चाहता कि तुम दुनिया छोड़ो। दुनिया छोड़ दोगे तो दुनिया की कमी कैसे मालूम होगी? वह जो जंगल में बैठ जाता है, उसको दुनिया में बहुत रस आता है। वह जो पहाड़ में, गुफा में बैठ जाता है, उसको यह शक बना ही रहता है कि पता नहीं दुनिया में क्या मजा चल रहा है! कही मैं भूल तो नहीं कर बैठा!
एक जैन मुनि, ‘कनक विजय’ एक बार मेरे पास मेहमान हुए। देखा कि मुझसे सीधी सच्ची बातें की जा सकती हैं। दो-तीन दिन तक तो अध्यात्म की बातें चलीं, फिर धीरे-धीरे उन्होंने असली बातें कहीं। उन्होंने कहा: ‘आपसे असली बातें कही जा सकती हैं। अब मैं आपसे सच कहूं, तो मैं केवल नौ साल का था तब मेरी मां मर गयी। मां के मरने से पिता संन्यासी हो गये।’
इस देश में स्त्री मर जाए तो फिर करो क्या-मूंड़-मूंड़ाए भये संन्यासी! फिर वे सिर मुंड़ा कर संन्यासी हो गये। और नौ साल का ही एक बेटा था घर में, वह क्या करे? सो उन्होंने उसको भी संन्यास दिलवा दिया। तो नौ साल में कनक विजय मुनि हो गये। अब नौ साल का बच्चा संन्यासी हो जाए, घर छोड़ दे-और जैन मुनि! तुम उसकी दुर्दशा समझ सकते हो। न उसने वे मिठाइयां खायीं जो सभी बच्चे खाते हैं। न उसने आइस्क्रीम चखी जो सभी बच्चे चखते हैं। न कोकाकोला पीया, न चाय न काॅफी, न चमचम न संदेश, कुछ भी नहीं। उसकी तुम तकलीफ समझ सकते हो। वह नौ साल पर अटका रह गया। उसने कुछ नहीं देखा। मदारी के खेल नहीं देखे। सरकस नहीं देखी, सिनेमा नहीं देखा।
वे मुझसे कहने लगे: ‘आप से सच्ची बातें कह सकता हूं। मेरे मन में सदा यह उठता है कि सिनेमा में क्या होता होगा! लोंगो की भीड़ लगी देखता हूं, मार-पीट होती देखता हूं दरवाजों पर, कतारें लगी हैं सड़कों पर दूर-दूर तक। जरूर कुछ तो होता होगा। भीतर क्या होता है? मैं किसी से पूछ भी नहीं सकता कि लोग क्या कहेंगे, कि सत्तर साल का जैन मुनि और पूछे कि सिनेमा में क्या होता है। तो लोग कहेंगे-यह कैसा अध्यात्म, यह कैसी तपश्चर्या, यह कैसी जिज्ञासा! अरे ब्रम्हज्ञान की बातें करो, आत्मज्ञान की बातें करो। मैं आत्मज्ञान की बातें करो। मैं आत्मज्ञान समझाता हूं लोंगो को, ब्रम्हज्ञान समझाता हूं। मोक्ष-मार्ग बताता हूं। जिनवाणी समझाता हूं। अब मैं किससे पूछूं। जिससे पूछूं वही संदेह की नजर से देखेगा। मगर आपसे पूछ सकता हूं। सिनेमा में क्या होता है?’
मैंने कहा: ‘तुम चिंता न करो। मैं तुम्हें सिनेमा भिजवाए देता हूं।’
उन्होंने कहा: ‘आप क्या कहते हैं! कोई देख लेगा!’
मैंने कहा: ‘तुम उसकी भी फिक्र न करो। कन्टोन्मेंट एरिया में कोई जैन नहीं रहता वहां।’ मिलिट्री में जैन वैसे भी भरती नहीं होते, हो सकते नहीं। मिलिट्री की तो बात दूर, जैन खेतीबाड़ी नहीं करते, क्योंकि पौधे वगैरह काटना पड़े, उखाड़ना पड़े, हत्या हो जाए! पौधे में भी तो जीवन है। मिलिट्री की तो तुम बात ही छोड़ दो, वहां कहां जैन वगैरह का सवाल! तो तुमको वहां भिजवा देता हूं देखने। एक ही अड़चन है कि वहां हिंदी फिल्म नहीं चलती, अंग्रेजी फिल्म चलती है।’
उन्होंने कहा: ‘फिल्म कोई भी भाशा में हो, क्या फिकिर! एक दफा देख तो लूं कि क्या होता है। समझ में नहीं आएगी तो कोई बात नहीं।’
तो मेरे पड़ोस में ही मेरे एक भक्त रहते थे-जगसीभाई। उनको मैंने बुलवाया मैंने कहा कि ऐसा करो जगसीभाई, इनको ले जाओ कंटोन्मेंट एरिया की एक टाकीज में, इनको बिठा कर......ठीक बाक्स में ऊपर बिठा देना, ताकि कोई देखे-दाखे भी नहीं। जगसीभाई भी बहुत घबड़ाए। वे भी जैन थे। वे कहने लगे: ‘हालंाकि मैं आपको मानता हूं और मेरा अब कोई रस नहीं रहा है जैन धर्म में और यह सब रूढ़िवाद में, यह दकियानूसीपन में। मगर यह हिम्मत तो मैं भी नहीं कर सकता! आपने भी खूब मुझे बुलवाया। आप किसी और को बुलवा लेते। आप भी तरकीब से चोट करते हैं!’
मैनें कहा: ‘मैंने सोचा एक पत्थर से दो पक्षी मारो। यह तो कनक विजय तो मारे ही जा रहे हैं, जगसीभाई को भी मारो! तुम्हारा भी पता चल जाएगा कि दकियानूसीपन से कितना छुटकारा हुआ।’
उन्होंने कहा कि अगर मेरी पत्नी वगैरह को पता चल गया, फिर क्या होगा? मैंने कहा: ‘वह फिर देखेंगे। जब ये नहीं डर रहे हैं मुनि होकर, तो तुम क्या डर रहे हो जगसीभाई? अरे पत्नी को ही पता चलेगा न।’
‘अब पत्नी बड़ी धार्मिक है। वह जीना हराम कर देगी मेरा। मेरे बच्चों को पता चल गया तो वे मुश्किल खड़ी कर देंगे।’
मैंने कहा: ‘किसी को पता क्यों चले! इनको गाड़ी में बिठाओ।’
कहा: ‘कहते क्या हैं आप! गाड़ी में बिठाऊं! मुनि महाराज को!’
मैंने कहा: ‘जगसीभाई, रहे तुम वही के वही! अरे जब सिनेमा दिखाने ले जा रहे हो तो क्या पैदल ले जाओगे? सारे गांव में खबर हो जाएगी कि ये कहां जा रहे हैं मुनि महाराज! और पीछे कुछ श्रावक हो लिए तो और मुसीबत हो जाएगी।’
कहा: ‘यह बात भी ठीक है। अपनी गाड़ी मैं नहीं ला सकता, क्योंकि बच्चे पूछेंगे, पत्नी पूछेगी-कहां जा रहे हो?’
तो मैंने कहा: ‘तुम मेरी गाड़ी ले जाओ।’ उनको मैंने अपनी गाड़ी दी। देखा उनके हाथ-पैर कंप रहे हैं। मैंने कहा: ‘जगसीभाई, तुम शराब पी जाते हो, तब भी हाथ पैर नहंी कंपते!’ शराब पीने की उनको आदत थी। मैंने कहा: ‘तब तुमको जैन धर्म नहीं याद आता! और जब ये मुनि महाराज खुद ही जाने को तैयार हैं तो तुम क्यों परेशान हो रहे हो? मगर अगर ऐसे कंपते हाथ से ले गये तो कहीं एक्सीड़ेंट वगैरह मत कर देना; नहंीं तो तुम भी फंसोगे, मुनि महाराज भी फंस जाएंगे। मुझे तो कोई अड़चन नहीं है। मेरी तो थोड़ी और बदनामी होगी, तो थोड़ा और नाम हो जाएगा, इसमें कोई हर्जा नहीं।’
मैंने कहा कि मैं खुद ले चलता हूं, तुम्हें टाकीज छोड़ आता हूं। इस हालत में तुम न ले जा सकोगे। रास्ते में कोई जैन दिख गया या कुछ हो गया तो तुम एकदम होश खो दोगे।
तो मैं उनको ले जा कर टाकीज तक दोनों को छोड़ आया। मुनि महाराज को उन्होंने जा कर बिठा दिया। वे देख कर आ गये। लौट कर आ कर बोले कि कुछ भी नहीं हैं वहां, लेकिन मैं कितना परेशान रहता था! बस इसी का खयाल उठता था कि क्या हैं वहां! अब आपसे क्या छिपाना! यही छोटी छोटी चीजें मुझे परेशान कर रही हैं-आइस्क्रीम, कोकाकोला, फेंटा!
मैंने कहा: ‘तुम सब, जो भी तुम्हें परेशान कर रहा हो, तुम बोलो-और जगसीभाई! मैं दोंनो को ही निपटा लेता हूं। तुम्हें शराब पीनी है-जगसीभाई खुद भी पीते हैं, तुमको भी पिलांएगे। तुम सभी चख लो, एक दफा का झंझट मिटा लो। सिनेमा देख आए, सिनेमा से छुटकारा हो गया।’
उन्होंने कहा: ‘हां, बिलकुल छुटकारा हो गया। अब मुझे कोई मतलब नहीं। देख लिया, कुछ नहीं, बेकार में परेशान था।’
यह आदमी नौ वर्श की उम्र पर अटका रह गया। नौ वर्श के बच्चे की जिज्ञासा। इसका कोई कसूर नहीं है। इसका क्या कसूर? नौ वर्श के बच्चे को अटका दिया तुमने। मगर जो भी भागेगा जिंदगी से वह कहीं न कहीं अटक जाएगा। वह लौट-लौट कर देखता रहेगा कि पता नहीं वहां क्या हो रहा है! यहां गुफा में तो कुछ भी नहीं हो रहा है। खबरें पहुंचती रहेंगी कि अब टेलीविजन आ गया, रंगीन टेलीविजन आ गया! और अब कैबरे नृत्य होने लगा! अब बैठे गुफा में हैं, अब कैबरे नृत्य क्या है! अब इनको तो मरने के बाद स्वर्ग में अप्सराएं वगैरह मेनका, उर्वशी अगर नाचती होंगी अभी भी......हालांकि अब तक बूढ़ी हो चुकी होंगी, बहुत बूढ़ी हो चुकी होंगी। लाखों साल हो गये, लाखों साल की बुढ़िएं नाच रही हों बड़ा मुश्किल है। और कैबरे नृत्य तो क्या खाक करती होंगी! और करती भी होंगी तो क्या जंचता होगा? स्ट्रिप-टी.ज क्या है! अब बैठो, मरने के बाद देखना। अप्पसराएं करें तो करें। मगर अप्सराओं की हालतें अब तक इतनी खराब हो गयी होंगी, दांत सब गिर चुके होंगे। अब स्ट्रिप-टी.ज भी क्या देखोगे?
मैंने सुना है, अमरीका की एक होटल में एक बुढ़िया बहुत दुखी ठहरी हुई थी। दुख उसका यह था कि उस पर कोई नजर ही नहीं डालता।
स्त्रियां तीन तरह की होती हैं: एक, जिन पर लोग नजर डालते हैं; दूसरी, जिनको लोग नजर-अंदाज करते हैं; और तीसरी, जिनसे नजर बचाते हैं। उसकी हालत तीसरी कोटि में थी। लोग नजरे बचाते थे। वह जिधर जाए, इधर-उधर देखने लगें लोग। और रोज कैबरे चल रहा है, स्ट्रिप-टी.ज हो रहा है-और छोकरियां कल की! बुढ़िया को बहुत दुख हुआ, कल की छोकरीयां मुझे हरा रही हैं! एक दिन उसे बहुत गुस्सा आया। अपनी सहेली से जो कि खुद भी बुढ़िया थी, उसने कहा: ‘आज मैं भी कुछ करके दिखाती हूं।’ उसने सारे कपड़े उतार दिए। नंग-धड़ंग होटल में घुस गयी कि अब तो देखेंगे, अब तो देखना ही पड़ेगा। स्त्री कितना ही चेश्टा करे, उसके मन में यह भाव बना ही रहता कि कोई देखे। कोई न देखे तो उसे बड़ा दुख होता है। वह अप्सरा हो कि न हो, पृथ्वी की हो कि स्वर्ग की, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। कोई न देखे तो बड़ा दुख होता है। जिस दिन स्त्रियों को लोग नहीं देखते, उस दिन स्त्रियों को लगने लगता है कि बस अब काम से गये।
बुढ़ापे का मतलबही यह होता है कि अब कोई नहीं देखता, बुढ़ापा आ गया।
नंग-धड़ंग!......अमरीका में ही यह घटना घट सकती है.....वह घुस गयी होटल में। उसकी सहेली भी नंग-धड़ंग! दोनों बुढ़िंए। होंगी अस्सी के पार। किसी ने नहीं देखा, सिर्फ दो आदमियों ने देखा। और दोनों एक दूसरे से बोले कि कुछ भी हो, जो भी इन्हें पहनना हो पहनें, मगर इन बाइयों ने जो भी पहना है, कम से कम उस पर लोहा तो कर लिया करें! क्या पहने चली आ रहीं हैं! पहनने की तो स्वतंत्रता है मनुश्य को, जो भी पहनना चाहे पहने, मगर कम से कम लोहा तो कर लेना चाहिए! ये किस प्रकार का कपड़ा पहने हुए हैं! वे नंग-धड़ंग हैं! इससे भी गयी-बीती हालत हो गयी होगी वहां। अब तो लोहा भी करोगे मेनका को रख कर, तो भी कुछ उसमें से सार निकलेगा नहीं। और जल-भुन जाएगी।
अब ये बैठे हैं गुफा में, सोच रहे हैं कि उर्वशी मिलेगी कि मेनका मिलेगी? और यहां से भाग गये हैं और स्वर्ग की आशाएं लगाए बैठे हैं कि वहां प्राप्ति होगी। मगर प्राप्ति क्या-वही जो यहां छोड़ गये हैं! कुछ छूटा नहीं है। वही दौड़ चल रही है अभी भी मन में। अभी राम राम जप रहे हैं, मगर प्रयोजन क्या है राम राम जपने का? प्रयोजन वही है कि जो यहां छोड़ गये हैं वह बड़े पैमाने पर मिल जाए। जब तक मिलने की कोई भी इच्छा है, जब तक कोई भी लोभ ईश्वर को पाने का ही क्यों न हो; वह लोभ आनंद को पाने का ही क्यों न हो-ये सब नाम ही हैं। लोभ बड़ा चालबाज है! वह हर चीज पर चिपका जाता है। वह हर विशय को पकड़ लेता है। तुम जो भी विशय दे दो...मोक्ष, तो वह कहेगा ठीक है मोक्ष सही, हम इससे ही जुड़े जाते हैं।
अब ये मुंशीराम डाॅक्टर, चैबीस घंटे में ही इनको लोभ पकड़ गया कि एक साल के भीतर परमात्मा-उनलब्धि होनी चाहिए। नहीं हुई तो संन्यास छोड़ देंगे। यह संन्यास हुआ? यह ध्यान हुआ? ऐसे तुम ध्यान करोगे? इसी लोभ की वृत्ति से ये भटके होंगे, परेशान रहे होंगे। ये भटकते ही रहेंगे। इनकी जिंदगी में कभी यह घटना नहीं आएगी कि कह सकें कि-
‘दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी।’
ये लोभ की गंदी हवाएं ही इनकी जिंदगी में बहती रहेंगी। ये अहंकार और महत्त्वकांक्षा की गंदी हवाएं ही इनकी जिंदगी को घेरे रहेंगी। इनके भीतर कोई दीवार कभी नहीं गिरेगी।
‘शोर बरपा है खाना-ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी।’
मगर प्रज्ञा, तू अभी युवा है। यही क्षण है। संसार छोड़ना नहीं है, भागना नहीं है। यहीं रहना हैं, ताकि इससे ठीक से मुक्ति हो जाए। देख कर ही मुक्ति होती है। अनुभव से मुक्ति होती है। और तुझे दिखाई पड़ने लगा है कि....
‘भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी।’
...तो बस अंतर्यात्रा का पहला कदम इस तरह ही उठता है। मगर अब खयाल रखना, बाहर ले जाने वाली कोई भी वृत्ति को जरा सी भी गुंजाइश मत देना। जरा भी बीज मत बोना-लोभ के, महत्त्वकांक्षा के, अहंकार के।
संन्यास अलोभ है। संन्यास महत्त्वकांक्षा-मुक्ति है। संन्यास वासना का अतिक्रमण है। संन्यास इच्छा की व्यर्थता को समझ लेने में है। और तब अपने-आप चेतना ऐसे भीतर सरकने लगती है। कुछ करना नहीं होता; प्रयास नहीं करना होता, सहज!
और चोंटे तो बहुत लगेंगी। मेरे पास रहने का अर्थ ही यह है कि चोट पर चोट पड़ेंगी, क्योंकि तुमने जो भी बनाया है अब तक, उसे मैं तोड़ूंगा सब रेत के घर तोड़ दूंगा। और तुम्हारे ताश के महल गिरा दूंगा।
तू कहती है-
‘कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी
और यह चोट भी नयी है अभी।’
चोट तो लगेगी, क्योंकि तेरी धारणाएं टूटेंगी, मान्यताएं टूटेंगी, सिद्धांत टूटेंगे, आधारशिलाएं खिसकेंगी। और नाजुक मिजाज कौन नहीं है? सभी नाजुक मिजाज हैं। और कौन है जिनको चोट नहीं लगेगी? मेरे पास चोट न लगे, यह असंभव है। उसको ही नहीं लग सकती चोट, जिसको कुछ समझ में ही न आए। उसको ही चोट नहीं लग सकती, जिसकी खाल इतनी मोटी हो कि बुद्धि तक कुछ भी न पंहुचे। उसको चोट नहीं लग सकती, जो सुन भी रहा है और नहीं भी सुन रहा है; जो यूं ही चला आया है; जो झपकियां ले रहा है, नींद में है; जो आया ही नहीं है वस्तुतः सिर्फ शरीर की तरह यहां मौजूद है। लेकिन जो यहां आत्मा की तरह मौजूद है, उस पर तो चोट पर चोट पड़ेगी। और जो जितना योग्य होता है उसे मैं उतनी ही ज्यादा चोटें मारूंगा। क्योंकि जो जितना योग्य है, जितना पात्र है, उसकी उतनी ही आवश्यकता ज्यादा है। उसमें उतने ही रूपांतरण की संभावना है। उसकी तो गर्दन काटी जाएगी। उसको जो बिलकुल ही टुकड़े-टुकड़े काट दिया जाएगा, ताकि जो शुद्धतम है वही शेष रह जाए। जो नहीं टूट सकता है वही बचे। शेष सब तोड़ दिया जाएगा। जो अखंड़ है वही बचे; शेष सब खंड़ित कर दिया जाएगा।
तो घबड़ाना मत। चोटों से भयभीत न होना। जब एक चोट पड़े तो धन्यवाद देना। वही शिश्य की कला है। वही शिश्य होने की कला है कि सदगुरू जब चोट करे तो शिश्य धन्यवाद दे सके, कृतार्थता प्रगट कर सके। और जो उतनी कृतार्थता प्रकट करता है उसके जीवन में रूपांतरण निश्चित है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
मने खबर नथी--हूं कौण छूं! अहियां शूं करूं छू?
रंजन!
तेरा नाम रंजन--और तू पड़ गई है एक भंजक के हाथ में। और तेरा काम--इस मधुशाला के द्वार पर लोगों का स्वागत करना। और क्या जानना है? तू पूछती है: ‘मने खबर नथी--हूं कौण छूं!’
जब भी ऐसा सवाल उठे, आईने में अपनी तस्वीर देख ली और कहा कि अरे ठीक, यही मैं ही तो हूं--रंजन भारती! और ‘अहियां शूं करूं छूं!’ करना क्या है? करने को कुछ नहीं है। यहां करने का सवाल ही नहीं है। मगर यह खतरा होने वाला है।
संत महाराज ने पूछा है कि ‘अंग्रेजी और हिंदी मुझे ज्यादा आती नहीं और सुनते-सुनते मैं थक भी गया हूं। अब तो दिल में एक भाव उठ रहा है कि पंजाबी बोलना शुरू कर दूं। आपकी आज्ञा की जरूरत है। सदगुरु साहब, आज्ञा दो!’
संत महाराज, बोलो, पंजाबी बोलो। कोई हर्जा नहीं है। कोई चिंता न करो।
मैं पंजाब जाता था तो कई लोग मुझसे पंजाबी में बात करते थे। मुझे पंजाबी का क ख ग नहीं आता। जब मैं पहली दफा पंजाब गया और अमृतसर के एक वेदांत सम्मेलन में सम्मिलित हुआ, तो पंजाबी का एक अखबार अपने संपादक को भेजा। वे मुझसे पंजाबी में आकर बात करने लगे। जिनके घर मैं मेहमान था, वे बेचारे जरा परेशान हुए। वे जानते थे कि मुझे पंजाबी आती नहीं। मगर वे और भी इसमें हैरान हुए कि मैं कुछ कह ही नहीं रहा, वे पंजाबी में कहते हैं और मैं उनको जवाब दिए जा रहा हूं। वे बड़े हैरान हुए कि शायद पंजाबी आती है या बात क्या है! संपादक तो इतना तृप्त होकर गये कि उन्होंने दूसरे दिन अखबार में जो सुर्खी छापी वह यह थी कि ‘एशिया के सबसे बड़े वेदांती।’ क्योंकि वे कुछ भी पूछें, मैं वेदांत की ही छांनू! मुझे पता नहंीं वे क्या पूछ रहे हैं। मैं तो वेदांत की ही बात करूं। सो उन्होंने देखा हैं...‘एशिया के सबसे बड़े वेदांती।’
जो मेरे मेजबान थे, वे कहने लगे कि आपने हमें चकित कर दिया। हमें मालूम नहीं था आपको पंजाबी आती है!
मैंने कहा: ‘किस मूरख को आती है!’
उन्होंने कहा: ‘आप जवाब तो ऐसे दे रहे थे...।’
मैंने कहा: ‘जवाब में मुझे क्या फर्क पड़ता है? तुम किसी भाषा में पूछो, मुझे जो कहना है वह मैं वही कहता हूं।’
गुजरात जाता था, लोग गुजराती में आकर बातें करते थे। करते रहो! मुझे जो कहना है वही मैं कहूंगा! इस देश भर में घूमता था, सब तरह की भाषाएं सुननी पड़ती थीं। कौन फिकर करता है कि तुम क्या कह रहे हो! इतना मुझे मालूम है कि देश में ऐसी गहन मूढ़ता है कि लोग सिवाय ब्रह्मज्ञान के और कुछ बात ही नहीं करते। तो कुछ भी पूछो, मैं ब्रह्मज्ञान ही छेड़ दूं।
तो तुम फिकर न करो संत महाराज! इससे लोग तुमको पहुंचा हुआ सिद्ध समझेंगे। कोई अंग्रेजी बोले, हिन्दी बोले और कुछ बोले, तुम पंजाबी बोलो। दिल खोल कर पंजाबी बोलो। पंजाबी बोलने का मजा ही और है! जैसे लड़ाई-झगड़ा करना हो तो जो पंजाबी में हो सकता है, वह किसी दूसरी भाशा में हो ही नहीं सकता। अब उसी लड़ाई-झगड़े को गुजराती में करो तो ऐसा लगे जैसे प्रेम की वार्ता चल रही है। गुजराती में जान ही निकल जाती है। सब शब्द गोल-गोल हो जाते हैं गुजराती मे। उनमें से धार मर जाती है। और पंजाबी में तो एकदम धार होती है--कृपाण!
तो वह जो मैंने तुमसे कहा कि तुम्हारा नाम असली में अंट-शंट महाराज है, तो लोग कहेंगे कि है, बिलकुल ठीक है। तुम अपने दिल में दबाओ मत, दमन के मैं बिलकुल खिलाफ हूं! और सबसे पहले तुम ‘रंजन’ से शुरू करो सत्संग। रंजन बोले गुजराती, तुम बोलो पंजाबी। यह कितना ही पूछे ‘मने खबर नथी, हूं कौण छूं’, तुम इसको बताओ पंजाबी में। यह कितना ही कहे ‘अहियां शूं करूं’, फिकीर ही मत करो। और ज्यादा गड़बड़ करे तो भांगड़ा नृत्य!
एक बार जेल में तीन व्यक्ति मिले। एक बोला कि जानते हो दोस्तो, मैं इस जेल में तब से हूं जब बम्बई में रेलगाड़ी का चलना शुरू ही शुरू हुआ था। दूसरा बोला कि बस, अरे मैं तो इस जेल में तब से हूं जब बम्बई में घोड़ागाड़ी का चलना पहली बार ही शुरू हुआ था। तीसरा बोला कि भाई, यह घोड़ागाड़ी क्या चीज होती है?
दिल खोल कर हांको! जब हांक ही रहे हो...। और ब्रह्मज्ञान है ही क्या-हाकना! इसको कहते हैं ब्रह्मचर्चा।
दो मछलीमार घर की तरफ लौट रहे हैं, एक ने कहा: ‘आज गजब हो गया! एक ऐसी मछली मैंने पकड़ी, इतनी बड़ी मछली न तो मैंने देखी, न सुनी। गजब की मछली थी। इतिहास में भी ऐसी मछली का उल्लेख नहीं है। मेरी नाव छोटी पड़ गयी। मछली को खींच कर लाना घाट तक मुश्किल खड़ा हो गया।’
दूसरे ने कहाः ‘मछली तो आज मैंने भी गजब की पकड़ी। हालांकि बड़ी तो नहीं थी इतनी, थी तो छोटी, लेकिन जब मैंने उसे काटा तो क्या देखा कि उसके भीतर एक लालटेन मिली। और लालटेन पर लिखा था कि नेपोलियन की लालटेन! और इतना ही नहीं, लालटेन अभी भी जल रही थी!’
दूसरे ने कहा कि देखो भैया, तुम अगर लालटेन बुझा दो तो मैं अपनी मछली की साइज तुम जितनी छोटी कहो उतनी कर सकता हूं। मगर लालटेन बुझा दो, देखो लालटेन बुझा दो! यह काफी है कि नेपोलियन के जमाने की लालटेन थी, मगर कम से कम लालटेन बुझा दो।
जब गपशप ही मार रह हो, तो फिर क्या! और यह तो होने वाना है। यहां कम से कम पचास भाशाओं को जानने वाले लोग हैं। नये कम्यून में इस तरह का इंतजाम कर देंगे। कुछ सत्संग के स्थल बना देंगे, जहां अपनी-अपनी भाशा में छेड़ो। कोई किसी के सुनने की जरूरत नहीं-सत्संग में कोई किसी की सुनता है! अपनी-अपनी छेड़ो। कोई गुजराती बोल रहा है, कोई पंजाबी बोल रहा है, कोई बंगाली बोल रहा है, कोई मद्रासी बोल रहा है, कोई मराठी बोल रहा है। कोई चीनी, कोई जापानी, कोई जर्मन, कोई फ्रेंच, कोई इटेलियन, जो जिसके दिल में आए। पचास भाशाएं तो कम से कम बोलने वाले लोग अभी हैं। कम्यून बनते-बनते कम से कम सौ भाशांए बोलने वाले लोग तो हमारे पास होंगे ही। मजा आ जाएगा! ऐसा सत्संग कभी संसार में हुआ ही नहीं होगा। जो भी एक दफा उस सत्संग में पहुंच जाएगा, बेहोश ही होकर लौटेगा। होश-हवास खो देगा। अगर जिंदा लौट आए तो बहुत। बेहोश हो जाए, वह तो ठीक; मगर जिंदा लौट आए, वह भी बहुत।
अब यह रंजन को देखो, इसको गुजराती में प्रश्न पूछने का सूझा है। मगर प्यारा प्रश्न पूछा है। इसको जवाब पंजाबी में चाहिए। संत महाराज, मुझ पर कृपा करो और इसको जवाब दो।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
आप सांत्वना का विरोध करते हैं तो क्या पुनर्जन्म भी एक प्रकार की सांत्वना ही नहीं है? जो कुछ है बस यही जन्म है, इसके बाद कुछ भीनहीं है-इस विचार से यह विचार कि आत्मा अमर है, शरीर ही नश्ट होता है, हम नया जन्म लेंगे, इस दुनिया में हमें वापिस आना है--ऐसा सोचने से कुछ राहत और तसल्ली महसूस होती है।
प्रेम वीतराग!
अज्ञान में तो तुम जो भी मानो, सभी सांत्वना है। परमात्मा भी सांत्वना है, मोक्ष भी सांत्वना है, आत्मा की अमरता भी सात्वंना है, पुनर्जन्म भी सांत्वना है। अज्ञान में तो तुम मानते ही इसलिए हो कि तुम्हारे भीतर भय है, घबड़ाहट है, चिंता है। उस चिंता को कैसे छिपाओ? उस भय को कैसे दबाओ? उस घबड़ाहट को कैसे मिटाओ? ये सब अच्छे-अच्छे शब्द, ये प्यारी-प्यारी धारणाएं तुम्हें सहारा देती हैं।ये विश्वास कम से कम चलने योग्य तुम्हें बल दे देते हैं। कम से कम जिंदगी में घसिट तो लेते हो! नृत्य तो इनसे पैदा नहीं हो सकता, क्योंकि तुम लाख विश्वास करो, भीतर तो तुम जानते ही हो कि मुझे पता नहंीं है।
तो सांत्वना ऊपर ही ऊपर रहेगी, लिपी पुती रहेगी। जैसे कब्रों को कोई खूब खूबसूरती से लीप दे पोत दे, मगर है तो कब्र ही, भीतर तो सड़ी लाश है। जीसस ने बहुत बार कहा है कि तुम्हारी मान्यताएं कब्रों की तरह हैं, जिन पर सफेद चुना पोत दिया गया है, जो देखने में दूर से चमकती हैं, चांदनी रात में उनकी चमक देखते बनती है! मगर भीतर क्या है? अस्थि-पंजर हैं और कुछ भी नहीं!
यही बात नहीं है सांत्वना-पुनर्जन्म; तुम जो भी मानते हो अज्ञान में, सभी सांत्वना है। क्योंकि तुम अशांत हो और अशांत को कुछ न कुछ सहार चाहिए। कहते हैं, डूबते को तिनके का सहारा। अब तिनके से कोई बचता नहीं है। सब जानते हैं तिनके से कोई नहीं बच सकता। लेकिन डूबते को तिनके का सहारा। तिनका भी मिल जाए तो वह सोचता है शायद बच जाऊं। ‘शायद’ भी मन को राहत देता है।
मौत घबड़ाती है सभी को, इसलिए तो दुनिया में इतने लोग आत्मा की अमरता कोमानते हैं। इससे तुम मत समझ लेना कि इतने धार्मिक लोग हैं दुनिया में। इतने धार्मिक लोग होते दुनिया में तो यह पृथ्वी स्वर्ग हो गयी होती। और यह भी तुमने गौर किया कि जितने कायर लोग होते हैं वे सभी आत्मा की अमरता में मानते हैं! इस देश से कायर तुम देश खोज सकोगे कहीं? हजारों साल तक गुलाम रहा यह देश और आत्मा की अमरता में मानता है। आत्मा की अमरता में मानने वाले लोंगो को कोई गुलाम बना सकता है? क्या मिटा लोगे जिसकी आत्मा अमर है उसका तुम? शरीर छीन लो तो छीन लो, मगर वह अपनी स्वतंत्रता तो नहीं दे देगा। लेकिन हजारों वर्ष तक यह मुल्क गुलाम बना रहा। और कोई भी छोटी-मोटी कौमें आईं और इसको गुलाम बना लिया। तुर्क आए, मुगल आए, हूण आए, अंग्रेज आए, पुर्तगाली आए-जो आया। जो नहीं आए, उनकी गलती। आते तो वे भी हमको गुलाम बनाते। जिसने भी आने की मेहनत उठायी, हम उसी के गुलाम बनने को तैयार थे। और आत्मा की अमरता को मानने वाले ये धार्मिक लोग, जो कहते हैं आत्मा मरती ही नहीं, कभी नहीं मरती! अरे यह देह ही नश्वर है, आत्मा तो अविनश्वर! यह देह तो मिट्टी है, आत्मा जो चैतन्य है! आत्मा तो परमात्मस्वरूप है! देह तो आज है, कल नहीं है: मिट्टी का घड़ा है, टूट ही जाएगा। और भीतर जो आकाश है इसके, वह तो कभी फूटने वाला नहीं ऐसे बड़े-बड़े ज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी-इनको गुलाम बनाया जा सका?
मैं इसमें कारण देखता हूं। यह कायरों की कौम हो गई। यह कमजोरों की कौम हो गई। तुम्हारी आत्मा का भरोसा तुम्हारे आध्यात्मिक अनुभव पर आधारित नहीं है, तुम्हारे भय पर आधारित है। तुम डरे हुए लोग हो। तुम घबड़ाए हुए लोग हो। तुम भयभीत हो। तुम मानना चाहते हो कि आत्मा अमर है--दो कारणों से। एक तो मौत तुम्हें खूब घबड़ा रही है। इतना दुनिया में कोई मौत से नहीं घबड़ाया हुआ। लोग कहते हैं: जब आएगी तब देख लेंगे। उनमें कम से कम तुमसे ज्यादा जान है। कहते हैं कि जब आएगी तब देख लेंगे। अभी तो आयी नहीं। उनको तुम कहते हो-नास्तिक, भौतिकवादी, पदार्थवादी। तुमने न मालूम कौन कौन से निंदा के शब्द खोज रखे हैं! सच बात इतनी है कि तुम कायर हो और वे कायर नहीं हैं। मगर अपनी कायरता को तुम बड़े अच्छे शब्दों में छिपाते हो।
पांच हजार साल में तुमने एक ही तो काम किया है--अच्छे अच्छे शब्दों में अपने को छिपाने की कला तुमने सीखी है। तुम इसमें बड़े निश्णात हो गये हो। तुम महात्मा हो गये हो। इस कार्य में तुमने बड़ी सिद्धि पा ली है। इसमें एक ही तो सिद्धि है तुम्हारी! सारी दुनिया पापी है, एक तुम्हीं महात्मा हो! और कारण? कारण, क्योंकि तुम आत्मा की अमरता मानते हो। तुम परमात्मा को मानते हो। ये लोग परमात्मा को नहीं मानते। अरे ये सब भौतिकवादी हैं!
मगर तुम गौर से देखो, उन भौतिकवादियों ने जिंदगी को सुंदर बनाने के लिए सब कुछ किया। तुमने क्या किया? तुम्हारे पास आज जो भी कुछ है, वह भी उनके कारण है। अगर तुम्हारे पास रास्ते हैं, तो उनके कारण। तुम्हारे पास रेलगाड़ी है तो उनके कारण। अगर हवाई जहाज है तो उनके कारण। अगर कारखाने हैं तो उनके कारण। अगर मशीनें हैं तो उनके कारण। जो कुछ तुम्हारे पास है, भौतिकवादियों के कारण है। और तुम्हारे पास अपने कारण क्या है? बस यही थोथे शब्द हैं तुम्हारे पास।
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ये बातें गलत हैं। यह खयाल रखनां मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा अमर नहीं है, यह ध्यान रखना। आत्मा निश्चित अमर है, लेकिन तुम्हारी मान्यता झूठी है। मान्यताएं झूठी होती हैं, अनुभव सच्चे होते हैं। बुद्ध जब कहें तो समझना कि सच बात है। महावीर जब कहें तो समझना कि सच बात हैं। महावीर जब कहें तो समझना कि सच बात हैं। नानक जब कहें तो समझना सच बात हैं। कबीर जब कहें तो समझना कि सच बात है। लेकिन तुम्हारी बातों में क्या रखा है!
मेरे गांव में एक कबीरपंथी महंत थे। कबीरपंथियों का एक अड्डा था उनका--एक बड़ा पुराना अड्डा। स्वामी साहबदास उनके महंत थे। मैंने दुनिया में बहुत तरह के बोलने वाले लोग देखे, मगर उन जैसा बोर करने वाला नहीं कोई देखा। वे अद्वितीय थे! उस कला में वे ऐसे पारंगत थे किसी का भी सिर खा जाएं। जिसके पीछे पड़ जाएं, उसको मानना ही पड़े, स्वीकार ही करना पड़े--सिर्फ इस वजह से कि उनसे छुटकारा पाने का और कोई उपाय नहीं।
मेरे पिता से उनकी दोस्ती थी, सो अक्सर मेरे घर आते थे वे। और वे हमेशा आत्मा अमर...और मैं भूत प्रेत से नहीं डरता! मैं सुन-सुन कर थक गया उनकी यह बकवास कि भूत प्रेत से नहीं डरता, और भूत प्रेत कुछ भी नहीं, और आत्मा अमर है और मैं क्यों भूत-प्रेत से डरूं!
मेरे मकान के पीछे आंगन में एक नीम का वृक्ष था और पास से एक गली गुजरती थी, जिससे वे गुजरते थे। एक रात मैंने कहा कि अब इनका सिद्धांत देख ही लेना चाहिए। सो मैं नीम पर चढ़ कर बैठ गया। एक खाली पीपा ले लिया। और जब वे नीचे आए तो जोर जोर से कुछ जंतर-मंतर पढ़ रहे थे। वह गली सन्नाटे से भरी थी, अंधेरे में थी। तब वहां बिजली भी नहीं थी और उस गली में कोई लालटेन भी नहीं लगी थी म्यूनिसिपल की तरफ से। वहां से जो भी निकलता था, अक्सर धार्मिक हो जाता था। कोई रामराम कहता हुआ निकलता, कोई जय बंसीवाले बाबा की, कोई कुछ कोई कुछ! वहां घबड़ाहट लगती थी। और उस नीम की बड़ी ख्याति थी कि उस नीम में भूत-प्रेत हैं।
मैं उसके ऊपर बैठ गया। वे लालटेन लिए चले आ रहे थे। मैंने पहले तो वह डब्बा बजाया। जैसे ही मैंने डब्बा बजाया, वे एकदम चैंक कर खड़े हो गये। अब जाना तो उनको था ही। कब तक खड़े रहते! जोर जोर से मंतर पढ़ा, कुछ जादू-मंतर मेरी तरफ फेंका। उनने देखा। अंधेरे में कुछ दिखायी तो पड़े नहीं। जैसे ही वे कदम बढ़ाएं, मैं डब्बा बजा दूं। फिर तो वे चिल्ला कर बोले: ‘तू कौन है, भूत है प्रेत है, कौन है?’ मैं कुछ बोलू न, बस डब्बा बजा दूं, जब वे पूछें डब्बा बजा दूं। उनकी हिम्मत टूटती गयी। मगर उनको निकलना तो था ही, आखिर अपने आश्रम पहुंचना है। और बिना वहां से निकले वे पहुंच सकते नहीं थे। और कोई रास्ता नहीं। सो उन्होंने हिम्मत करके दौड़ने की कोशिश की। जब वे दौड़े, मैंने डब्बा गिरा दिया। डब्बे का गिरना था कि उनके हाथ से लालटेन छूट गयी। लालटेन गिरी वे गिरे, मैं ऊपर से उनके ऊपर कूद पड़ा। फिर तो क्या चीख-पुकार उन्होंने मचायी कि अरे बचाओ, अरे मारा गया! शोरगुल में मैं उनकी लालटेन और डब्बा ले भागा। और लोग आ गये, उनको उठाया कि क्या हुआ साहबदास जी?
उन्होंने कहाः ‘कुछ हुआ नहीं। कुछ पता नहीं, पैर फिसल गया क्या हुआ।’ उन्होंने बातें बनायीं। फिर वे मेरे पिता के पीछे पड़े रहते कि यह नीम का झाड़ कटवा दो। जब भी वे भूत-प्रेत की बात करते या आत्मा की अमरता की कि मैं किसी से नहीं ड़रता, तो मैं कहता लालटेन, डंडा! वे एकदम चुप हो जाते। मेरी तरफ घूर-घूर कर देखते। इसको लालटेन और डंडे का कैसे पता हैं। और उनका चुप हो जाना...और मेरे पिता भी सोचते कि बात क्या है, जब भी यह लालटेन और डंडा कहता है तब स्वामीजी एकदम चुप हो जाते हैं।
आखिर एक दिन साहबदास जी से नहीं रहा गया। कहा: ‘क्या लालटेन, क्या डंडा? क्या बार-बार लालटेन और डण्डा लगा रखा है? जब भी मैं ब्रम्हज्ञान की बात करता हूं, तुम लालटेन और डंडा!’
मैनें कहाः ‘जाऊं?’ सो मैं तो रखे ही हुआ था वह। मैं उनकी लालटेन ले आया, टूटी-फूटी वह लालटेन उनकी दुनिया जानती थी। और डण्डा ले आया। मैंने कहा: ‘ये कहां से आए? और झाड़ पर कौन डब्बा बजा रहा था? वह मैं ही हूं! और अब तुम इस घर में भूल कर भी ‘भूत-प्रेत से नहीं डरता हूं’, यह बात नहीं करना। यह बकवास बंद करो। और नीम नहीं कटेगी, क्योंकि उस नीम से मुझे और लोंगो को भी रास्ते पर लगाना है।’
मगर मेरे पिता ने वह नीम कटवा दी। उन्होंने देखा कि यह और न मालूम किस-किसको डरवाए, किसको गिरवा दे, किसी का हाथ-पैर टूट जाए, कुछ हो जाए। उस नीम को काटने वाला न मिले। कौन काटे, क्योंकि उसकी तो बड़ी अफवाह उड़ चुकी थी। और जब से साहबदास जी गिरे थे...। आखिर वे मुझसे बोले...मेरे पिता मुझसे बोले कि तू ही किसी को ढूंढ़ कर ला, यह नीम को कटवाना है। मगर कोई काटने को राजी नहीं।
मैंने कहा: ‘कोई काट भी नहीं सकता मेरे बिना उसको। जो भी काटेगा उसको मैं सताऊंगा।’
मगर साहबदास का अध्यात्म-ज्ञान उस दिन से बंद हो गया। वह उन्होंने मेरे घर ही आना बंद कर दिया। जब तक मैं अपने गांव रहा, वे नहीं आते-जाते थे। जब मैं चला गया विश्वविद्यालय तब उनका फिर अध्यात्म ज्ञान शुरू हो गया। जब भी छुट्टियों में मैं आता, मैं उनसे मिलने जाता कि कहिए साहबदास जी, कैसा चल रहा है? कहते: ‘सब ठीक चल रहा है!’
मैंने कहाः ‘है कोई नीम को काटने वाला? कोई काटने वाला मिल नहीं सकता! कहां गयी तुम्हारी आत्मा की अमरता और ब्रह्मज्ञान और कबीरदास की साखियां? सब पर पानी फिर गया! इस जरा से डब्बे ने! खाली डब्बा था। मगर सब चैपट हो गये एकदम तुम!’
ये जो भयभीत लोग हैं, कायर लोग हैं, यह बातें बड़ी ऊंची करते रहते हैं। इनकी ऊंची बातें इनके भीतर कुछ छिपाने का आयोजन है।
तुम्हारे महात्मागण संसार की निंदा करते हैं-सिर्फ इसलिए कि संसार का आकर्शण मन में है। संसार को गालियां देते हैं, स्त्रियों को गालियों देते हैं--सिर्फ इसलिए कि स्त्रियों का आकर्शण मन में है। वही उनको सता रही हैं।
तुम पूछते हो प्रेम वीतराग: ‘आप सांत्वना का विरोध करते हैं।’ निश्चित विरोध करता हूं! ‘तो क्या पुनर्जन्म भी एक प्रकार की सांत्वना ही नहीं है?’ तुम्हारे लिए यह सांत्वना है, मेरे लिए नहीं। इस भेद को तुम ख्याल में ले लो। मेरे लिए पुनर्जन्म एक अनुभव है, एक सत्य है। और मैं चाहूंगा कि तुम्हारे लिए भी अनुभव बनना चाहिए, सत्य बनना चाहिए। तुम्हारे लिए तो आत्मा भी सिर्फ एक बकवास है। तुम्हें पता ही नहीं कुछ। कभी भीतर गये नहीं, कभी अपने से पहचान नहीं हुई, कभी अपने को जाना नहीं। तुम क्या आत्मा की बातें करोगे! गीता पढ़ ली तो तुम समझे कि आत्मा का अनुभव हो गया? उपनिशद में कहा हुआ है अहं ब्रम्हास्मि, सो तुम भी दोहराने लगे रोज रोज अहं ब्रम्हास्मि! सो दोहराते दोहराते यह भ्रांति तुमको होने लगी कि मैं भी ब्रम्ह हूं।
यह सब भ्रम है, ब्रह्म वगैरह कुछ भी नहीं। अहं ब्रह्मास्मि! तुमको पता नहीं है अभी।
और लोगों को सांत्वना की जरूरत है, सत्य की जरूरत नहीं। क्योंकि सत्य को पाने के लिए श्रम करना पड़ता है, सांत्वना मुफ्त मिल जाती है।
किसी के घर कोई मर जाता है, तब तुम देखो वहां क्या ज्ञान-चर्चा छिड़ती है! मरघट पर कभी गये? लोग मरघट पर ले जाते हैं किसी को, वहां देखो क्या ब्रह्मचर्चा छिड़ती है! गांव भर के बदमाश, लुच्चे-लफंगे सब ब्रह्मचर्चा करते हैं वहां, कि आत्मा अमर है, अरे बेचारा मुक्त हो गया संसार से, जाल-जंजाल से, भवसागर से! अच्छा ही हुआ मुक्त हो गया। संसार में रखा ही क्या है! किसने क्या पा लिया है! यह तो दुख की गांठ है, कट गयी।
मैं भी जाता था मरघट। मुझे मरघट जाने का बचपन से शौक रहा-कोई भी मरे, जिंदगी में मेरी उससे कोई पहचान भी न रही हो, न दोस्ती न दुश्मनी।
दुनिया में तीन ही तरह के तो लोग होते हैं। एक तो दोस्त, जो कभी भी दुश्मन हो सकते हैं और अक्सर दुश्मन हो जाते हैं। और दूसरे संबंधी, जो कि जन्मजात दुश्मन होते हैं; उनको तो दुश्मन होना पड़ता नहीं कभी। बस ये तीन ही तरह के तो लोग होते हैं। सच पूछो तो दो ही तरह के लोग: एक दुश्मन, जो किसी कारण से दुश्मन; और एक अकारण दुश्मन, संबंधी। और तीसरे दोस्त, जो दुश्मनी की तैयारी कर रहे हैं। मैं इसकी फिकीर ही नहीं करता था-कौन मरा। जो भी मरे, मुझे तो मरघट जाना हैं, क्योंकि मुझे इसमें ज्यादा रस था कि लोग वहां क्या बातें कर रहे हैं! बड़ी मजे की बात, वहां लोग एकदम ज्ञान की बातें छेंड़े! पीठ किए बैठे हैं, लाश जल रही है और वे ज्ञान की बातें कर रहे हैं। वे अपने को भी समझा रहे हैं, जो मर गया उसके घर वालों को भी समझा रहे हैं। और यही काम जब उनके घर कोई मर जाता है तो दूसरे करते हैं। यह काम सभी को करना पड़ता है। एक दूसरे को राहत दिलाना, यही तो समाज का काम है, यही तो कृत्य है।
युद्ध में एक व्यक्ति मारा गया। युवा था अभी। उसके पिता बहुत दुखी थे। मुल्ला नसरुद्दीन, जिनका काम ही सबके साथ सहानुभूति प्रगट करना है, उनके घर गये। मातम छाया हुआ था सारे घर में। मां रो रही थी, पिता रो रहा था। उस युवक मृतक की पत्नी रो रही थी, बच्चे रो रहे थे। एक ही बेटा था-घर का दीया बुझ गया था! हाथ की बुढ़ापे की लकड़ी छूट गयी थी।
नसरुद्दीन को तो कुछ सहानुभूति प्रकट करनी थी, कुछ सूत्र तो होना चाहिए सहानुभूति प्रकट करने का--सो नसरुद्दीन ने पूछा पिता से: ‘अरे भई, गोली कहां लगी थी?’
रोते हुए बाप ने कहा: ‘ठीक बायीं आंख के नीचे।’
नसरुद्दीन ने बड़ी सहानुभूति से कहा: ‘चलो गनीमत रही, कम से कम आंख तो बच गयी! ईश्वर की बड़ी कृपा थी आपके बेटे पर, आंख के नीचे गोली लगी। आंख में ही लग जाती तो?’
अब बेटा मर ही गया, अब कहां गोली लगी, इससे क्या लेना-देना? मगर कुछ सहानुभूति में तो कहना चाहिए, कहीं से सूत्र तो मिलना चाहिए। ‘आत्मा अमर है! ईश्वर का प्यारा हो गया तुम्हारा बेटा!’ जैसे अब तक प्यारा नहीं था, अभी-अभी प्यारा हो गया, अचानक प्यारा हो गया! और औरों के बेटे क्यों प्यारें नहीं हो रहे, इन्हीं का बेटा क्यों प्यारा हो गया?’
कम उम्र में कोई मर जाए तो लोग कहते हैं कि ईश्वर उनको जल्दी उठा लेता है जिनको प्यार करता है। तो उनको पैदा ही काहे को करता है? तो जिनको बहुत प्यार करता है उनको पैदा ही नहीं करता होगा, या पैदा करते ही उठा लेता होगा। और जिनको सत्तर-सत्तर अस्सी-अस्सी साल, नब्बे-नब्बे साल जिलाता है, उनसे क्या दुश्मनी है कि मरो जीओ, कि नहीं उठाते सड़ो! जो पक्की उम्र में मरते हैं, सौ साल के होकर, तो कहते हैं कि अहा, क्या ईश्वर का धन्यवाद था, पूरी उम्र पाकर मरा! अरे कोई कच्ची उम्र में मरा?
कोई भी बहाना चाहिए सांत्वना के लिए। लेकिन इन सारी बातों से जीवन में कोई रूपांतरण तो नहीं होते। हां, लीपी-पोती हो जाती है। ऊपर-ऊपर रंग-रोगन हो जाता है। और हमारा सारा धर्म, जिसका हम बहुत शोरगुल मचाए रखते हैं, और क्या है? हमारा सारा धर्म इसी तरह का है।
मेरी चेश्टा यहां है कि तुम्हें विश्वास न दूं, तुम्हें अनुभव दूं। इसलिए मैं नहीं कहता कि मैं जो कह रहा हूं उस पर विश्वास करो। मैं कहता हूं: ‘मैं जो कह रहा हूं, उसका अनुभव हो, फिर विश्वास की जरूरत ही नहीं होती। अनुभव काफी है। विश्वास की जरूरत तो उन्हीं को होती है, जिनको अनुभव नहीं। और जिनको विश्वास है उनको अनुभव नहीं। और जिनको अनुभव है उनको क्या करना विश्वास का? विश्वास तो थोथा ही होता है। ज्ञानी को विश्वास नहीं होता। ज्ञानी जानता है।
तुमसे कोई यह तो नहीं पूछता कि सूरज पर विश्वास है या नहीं? कोई नहीं पूछता। कोई झगड़ा भी खड़ा नहीं करता। कोई यह भी नहीं कहता कि ‘मुझे विश्वास नहीं है सूरज पर, कि हम तो नास्तिक हैं! कहां है सूरज, हम नहीं मानते।’ सब मानते हैं, क्योंकि सबको दिखाई पड़ रहा है। जिस दिन परमात्मा भी तुम्हें इस तरह अनुभव हो, उस दिन विश्वास का सवाल नहीं उठता। तब तक तो सभी सांत्वनाएं हैं।
और सांत्वना से सावधान रहना। यह जहर है सांत्वना। यह नींद की दवा है, जिसको लेकर पड़ रहो, राहत मिली जाती है, मगर क्रांति नहीं होती। और क्रांति चाहिए, राहत नहीं। राहत तो बहुत हो चुकीं कितने जन्मों से तो राहत ही राहत में जी रहे हो! यह जन्म भी यूं ही गवां दोगे।
एक कण भी अपने अनुभव का काफी है; पूरे हिमालय जैसे पहाड़ का विश्वास भी एक कण अनुभव से छोटा है। एक बूंद अनुभव काफी है। पुरे सागर के विश्वास से ज्यादा बड़ा है एक बूंद अनुभव, क्योंकि एक बूंद अनुभव भी मुक्तिदायी है। तुम्हारा सत्य ही तुम्हें मुक्त करेगा; किसी दूसरे को सत्य तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता है।
चैथा प्रश्न: ओशो, एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि जैसे आप बैठते हैं ठीक वैसे ही पूरे दो घंटा बैठे रहते हैं। आपके शरीर का कोई अंग हिलता ही नहीं, केवल एक हाथ हिलता है। और हम पांच मिनिट भी शंात नहीं बैठ पाते।
अमृत कृष्ण! वह एक हाथ भी तुम्हारी वजह से हिलाना पड़ता है। तुम्हारी अशांति के कारण। नहीं तो उसको भी हिलाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम अगर शांत बैठ जाओ तो वह हाथ भी न हिले।
तुम्हारा मन अशांत है तो उसकी प्रतिछाया शरीर पर भी पड़ती है। तुम्हारा शरीर तो तुम्हारे मन के अनुकूल होता है; उसकी छाया है।
आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि आप जैसे सोते हैं, जिस करवट सोते हैं, रात भर उसी करवट सोए रहते हैं! आनंद कई रात बैठ कर देखता रहा--यह कैसे होता होगा! स्वाभाविक है उसकी जिज्ञासा। उसने कहा: ‘मैंने हर तरह से आपको जांचा। आप जैसे सोते हैं, पैर जिस पैर पर रख लिया, रात भर रखे रहते हैं। आप सोते हैं कि रात में यह भी हिसाब लगाए रखते हैं कि पांव उसी पर रहे, बदले नहीं। करवट नहीं बदलते!
बुद्ध ने कहाः ‘आनंद, जब मन शांत हो जाए तो शरीर को भी अशांत रहने को कोई कारण नहीं रह जाता।’
मुझे कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है यूं बैठने में। मगर कोई जरूरत नहीं है। लोग बैठे-बैठे करवटें बदलते रहते हैं। लोग कुर्सी पर बैठे रहते हैं और पैर चलाते रहते हैं, पैर हिलाते रहते हैं; जैसे चल रहे हों! जैसे साइकिल चला रहे हों! बैठे कुर्सी पर हैं, मगर उनके प्राण भीतर भागे जा रहे हैं।
मन चंचल है, मन गतिमान है। उसकी छाया शरीर पर भी पड़ेगी। जब मन शांत हो जाएगा तो शरीर भी शांत हो जाएगा। जरूरत होगी तो हिलाओगे, नहीं जरूरत होगी तो क्या हिलाना है? इसमें कुछ रहस्य नहीं है, सीधी सादी बात है यह।
तुम जरूर अशांत होते हो। वह मैं जानता हूं। पांच मिनट भी शांत बैठना मुश्किल है। असल में पांच मिनट भी अगर तुम शांत बैठना चाहो तो हजार बाधाएं आती हैं। कहीं पैर में झुनझुनी चढ़ेगी, कहीं पैर मुर्दा होने लगेगा, कहीं पीठ में चींटियां चढ़ने लगेंगी। और खोजोगे तो कोई चींटी वगैरह नहीं है! बड़ा मजा यह है! कई दफा देख चुके कि चींटी वगैरह कुछ भी नहीं है, मगर कल्पित चींटीयां चढ़ने लगती हैं। न मालूम कहां-कहां के खयाल आएंगे! हजार-हजार तरह की बातें उठेंगी कि यह कर लूं वह कर लूं, इधर देख लूं उधर देख लूं। मन कहेगा: ‘क्या बुद्धू की तरह बैठे हो! अरे उठो, कुछ कर गुजरो! चार दिन की जिंदगी है, ऐसे ही चले जओगे? इतिहास के पृश्ठों पर स्वर्ण-अक्षरों में नाम लिख जाए, ऐसा कुछ कर जाओ। ऐसे बैठे रहे तो चूक जाओगे। दूसरे हाथ मारे ले रहे हैं।’
तुम्हारा मन भागा-भागा है, इसलिए शरीर भागा-भागा है। और लोग क्या करतें हैं? लोग उल्टा करते हैं। लोग शरीर को थिर करने कोशिश करते हैं। इसलिए लोग योगासन सीखते हैं कि शरीर को थिर कर लें, तो मन थिर हो जाएगा। वे उलटी बात करने की कोशिश कर रहे हैं। यह नहीं हो सकता। शरीर को थिर करने से मन थिर नहीं होता। मन थिर हो जाए तो शरीर अपने से थिर हो जाता है।
मैंने कभी कोई योगासन नहीं सीखे। जरूरत ही नहीं है। ध्यान पर्याप्त है। और शरीर को अगर बिठालने की कोशिश में लगे रहे तो सफल हो सकते हो। सरकस में लोग सफल हो जाते हैं, मगर उनको तुम योगी समझते हो? सरकस में लोग शरीर से क्या-क्या नहीं कर गुजरते! सब कुछ करके दिखला देते हैं। लेकिन उससे तुम यह मत समझ लेना कि वे योगी हो गये। उनकी जिंदगी वही है, जो तुम्हारी है। शायद उससे गयी-बीती हो।
तुम अगर आसन भी सीख गये तो कभी कुछ न होगा। लेकिन अगर भीतर मन ठहर गया तो सब अपने से ठहर जाता है।
पांचवा प्रश्न: ओशो, एम. एल. ए. बनने का सबसे सस्ता, सरल और टिकाऊ उपाय क्या है?
भैया मदनमोहन अग्रवाल! बस नाम में जरा सा हेर-फेर कर लो! या तो मदनलाल अग्रवाल, या मोहनलाल अग्रवाल कर लो। और फिर अग्रेंजी में शार्ट फार्म करके लिखो--एम. एल. ए. हो जाएगा। यह उपाय सस्ता भी है और सरल भी है। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए! साथ ही टिकाऊ भी है, क्योंकि चुनाव लड़-लड़ कर जो एम. एल. ए. बनते हैं वे बेचारे तो पंाच साल बाद फिर एम. एल. ए. नहीं रह जाते, या तो भूतपूर्व हो जाता हैं। उससे तो न ही हुए होते तो ही अच्छा था। एम. एल. ए. के भूत कोई एम. पी. के भूत, कोई मिनिस्टर के भूत! इस समय इतने भूत हैं देश में जिसका हिसाब नहीं। भूत-प्रेतों से ही तो देश सताया जा रहा है।
अगर तुमने एक बार नाम बदला तो फिर सदा के लिए एम. एल. ए. हो गये, कोई तुम्हें भूतपूर्व नहीं बना सकता। तुम हमेशा अभूतपूर्व रहोगे! सरल सी तरकीब बता दीः चुनाव लड़ना नहीं, कोई झझंट में पड़ना नहीं; बस नाम बदल लो। और नाम बदलने में क्या लगता है? कोर्ट में चले जाओ। आज ही कर लो, कल पर मत छोड़ना। कल का क्या भरोसा, बचो न बचो, कम से कम एम. एल. ए. हो कर मरो। मर भी जाओगे तो लोग कहेंगे एम. एल. ए. थे, बड़े पहुंचे हुए पुरूश थे!
अब ये मदनमोहन अग्रवाल हैं, अगर यह पंाच मिनिट भी शांत बैठना चाहेंगे तो कैसे बैठेंगे! इनको एम. एल. ए. होना है! इनका चित्त तो दिल्ली की तरफ भागा हुआ है। इनको यहां चैन नहीं पड़ सकती। ये तो दिल्ली जाकर रहेंगे। इनको तो राजधानी चाहिए। ये जहां भी रहेंगे वहीं से इनकी दौड़ जारी रहेगी। बैठेंगे भी तो बैठ नहीं सकते निशिं्चत। निशिं्चत कैसे बैठेंगे--समय गंवा रहे हो! मन कहेगा: ‘इतनी देर में तो दस-पंाच वोटरों से मिल लेते। चुनाव ही लड़ लो।’ और चुनाव लड़ने में करना ही क्या पड़ता है-दांत निपोरना आना चाहिए। बस दांत निपोर कर खड़े हो गये किसी के भी सामने। किसी के भी चरण छुओ, झोली फैलाओ, कि भैया वोट दे देना एक। दे दोगे तो बच जाऊंगा, नहीं दोगे तो मर जाऊंगा। वोट दे देना, नहीं तो अनशन कर दूंगा, सत्याग्रह कर दूंगा, आत्महत्या कर लूंगा! और करना ही क्या पड़ता है? छोटे-मोटे लोंगो से लेकर बड़े-बड़े लोग तक क्या करते हैं?
तुम देखते थे अटलबिहारी वाजपेयी कुछ दिन के लिए विदेश मंत्री हो गये थे, तो भागते फिरते थे एक राजधानी से दूसरी राजधानी। सारी दुनिया में उनका नाम मालूम है क्या हो गया था--दांत निपोर! क्योंकि के दांत निपोरे ही रहते थे। तुमने उनकी तस्वीरें देखीं उस समय की? उनका मुंह देख कर ऐसा लगे कि इस आदमी में जान भी है कि नहीं? इसके प्राण निकल चुके हैं? क्या मामला है?
राजनीतिज्ञ होने के लिए वह कला चाहिए। दो आदमियों को मैं जानता हूं: एक अटलबिहारी वाजपेयी दांत निपोरने में बहुत कुशल थे; एक डाक्टर कर्णसिंह। उनका नाम क्यों डाक्टर कर्णसिंह रखा था, यही समझ में नहीं आता। डाक्टर दांत सिंह रखना चाहिए था। जब तक इंदिरा गंाधी ताकत में थीं, तब तक वे हमेशा दांत निपोरे स्वागत के लिए तैयार रहते थे। इंदिरा ताकत के बाहर गयीं कि वे दांत निपोर कर दूसरों के साथ हो गये। दांत निपोरने वालों का कोई भरोसा भी नहीं। चमचे होते हैं ये।
ध्यान रखना, आजकल चमचों के भी दांत होते हैं! चमचों से जरा सावधान रहना। अगर वे पकड़ लें तो छोड़ते नहंी फिर, दांत वाले चमचे हैं! और ऐसा पकड़ते हैं कि चूस ही लेंगे।
अब तुमको भी यही बेचैनी पड़ी है! कुछ और नहीं करना जिंदगी में? कुछ फिजूल के काम में लगना है? एम. एल. ए. होकर क्या करोगे? जो हो गये हैं वे क्या कर रहे है? नाहक कुटोगे-पिओगे, और क्या होगा? जूते वगैरह फेंकने। पार्लियामेंट में जाकर, कुछ दृश्य उपस्थित करना है? कुछ होश की बातें करो कुछ समझदारी की बातें करो। जीवन का कुछ सदुपयोग कर लो। जीवन में कुछ जानने योग्य है, कुछ पाने योग्य है--वह तुम्हारे भीतर है।
आखिरी प्रश्न: ओशो, मैं तो आपको समझने की कोशिश में थक गया। कुछ समझ में नहीं आता। अब क्या करूं?
रूपचंद! तुमसे कहा किसने कि मुझे समझो? समझने की कोशिश करोगे, थक ही जाओगे। क्योंकि यह काम यहां समझदारों का है ही नहीं। यह काम दीवानों का है, परवानों का है। यह बस्ती मस्तों की है। यहां कोई पंडित बनाने को थोड़े ही मैं बैठा हूं।
और तुम क्या समझोगे अभी? तुम पहले से ही काफी समझे बैठे होओगे। उसी में तालमेल बिठा रहे होओगे। उसी मैं जुगाड़ बिठा रहे होओगे। ऐसा तो आदमी खोजना मुश्किल है जो पहले से समझे न बैठा हो। बस वहीं से अड़चन शुरू हो जाती है। अज्ञानी को समझना कठिन नहीं है, ज्ञानी को समझना मुश्किल हो जाता है।
तुम ज्ञानी मालूम पड़ते हो। तुम छुपे रूस्तम हो--छिपे पंडित!
‘अरे चंदूलाल, करोड़पति सेठ धन्नालाल की मौत पर तुम क्यों आंसू बहा रहे हो?’ ढब्ब ूजी ने पूछा। ‘क्या वे तुम्हारे करीब के रिश्तेदार थे?’
चंदूलाल ने दहाड़ मार कर रोते हुए कहा: ‘नहीं थे, इसीलिए तो रो रहा हूं!’
अपनी-अपनी समझ। तुम अपनी समझ लेकर यहां आओगे तो मैं जो कह रहा हूं, वह नहीं समझ सकते।
एक प्रसिद्ध विदेशी डाक्टर अपने विश्वभ्रमण के दौरान भारत आया। मरीजों का तांता लग गया उसके पास। एक मरीज ने अपनी बीमारी बतलाते हुए कहा कि उसे नींद नहीं आती। विदेशी डाक्टर ने आश्चर्यचकित होकर कहा: ‘नहीं-नहंी, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। तुम्हें जरूर भ्रम हुआ है। तुमने नींद में ही समझा होगा कि तुम्हें नींद नहीं आती, क्योंकि मुझे तो अच्छी तरह से मालूम है कि भारत में लोग सोने के सिवा कुछ भी नहीं करते। कोई दूसरी तकलीफ?’
पहले ही से अगर तय करके आया है आदमी, तो वह यह मानेगा ही नहंी कि यह बीमारी तुम्हे हो सकती हैं। असंभव! तो तुमने नींद में ही सपना देखा होगा कि मुझे नींद नहीं आती।
रूपचंद, अपनी समझ दरवाजे के बाहर छोड़ कर आओ। फिर तुम देखोगे, बातें मेरी बहुत सीधी-साफ हैं। इतनी सीधी-साफ बात कभी कही नहीं गयी है जैसी मैं तुमसे कह रहा हूं। दो टूक है।
नसरुद्दीन तेजी से एक जानवरों को बेचने वाली दुकान में घुसा और दुकानदार से बोला: ‘महोदय मुझे पांच सौ खटमल और करीबन दो हजार मच्छर चाहिए।’
दुकानदार तो चैंका और बोला कि महोदय, मिल तो जाएंगे, मगर आप उनका करेंगे क्या? नसरुद्दीन बोला जनाब दरअसल बात यह है कि मकान मुझे उसी हालत में छोड़ना चाहिए जैसा कि वह किराए पर लेने के वक्त था।
तो वह खटमल और मच्छर और चुहे सब इकट्ठे कर रहा है। दीवालें खोद रहा है, फर्श में गड्ढे बना रहा है, छप्पर तोड़ रहा है। पूर्व-अवस्था में करके जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी गुलजान को किसी कारणवश अदालत जाना पड़ा। मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि क्या आप बताएंगी, आपकी उम्र क्या है?
गुलजान बोली: ‘जी यही बाईस साल, कुछ महिने।’
मजिस्ट्रेट ने शक से पूछा: ‘बाईस साल कुछ महिने! आखिर कितने महिने?’
‘बाईस साल चैरासी महिने।’ गुलजान ने जवाब दिया।’
तुम्हारी धारणाओं का मुझे पता नहीं, कौन सी बातें अड़चन दे रही हैं। लेकिन जरूर कुछ धारणाएं होंगी, अन्यथा मैं कोई कठिन बात कह रहा हूं? सीधी-सीधी बात कह रहा हूं, सरल सी बात कह रहा हूं कि मन को साक्षी-भाव से देखना है, ताकि तुम धीरे-धीरे मन से हट जाओ और साक्षी हो जाओ। मन से हट जाओ और अपनी अवस्था में पहुंच जाओ। अब इससे सरल और क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन का नयी-नयी शादी हुई। सुहागरात की रात गुलजान ने जल्दी से अपने कपड़े उतारे, साज-संवार की, बिस्तर पर लेट गयी। लेकिन नसरुद्दीन खिड़की के पास कुर्सी रख कर बैठा है सो बैठा है। थोड़ी देर गुलजान ने राह देखी।....जीवन भर की प्रतीक्षा, और इसको क्या हुआ है! आखिर उसने कहा कि नसरुद्दीन, बिस्तर पर नहीं आना है? सुहागरात नहीं मनानी है?
नसरुद्दीन ने कहा: ‘वही मना रहा हूं। तू सो जा, बीच में बकवास न कर! मेरी मां ने मुझसे कहा था कि सुहागरात की रात बस एक ही बार आती है, सो खिड़की के पास बैठ कर रात को देख रहा हूं। आत रात सोऊंगा नहीं। यह रात फिर दुबारा नहीं आनी। तू सो जा। तुझसे तो कल मिल लेंगे। मगर यह सुहागरात की रात, यह चांद, ये तारे, ये फिर दुबारा नहीं आने। मेरी मां ने बार बार मुझे जता कर कहा था कि बेटा नसरुद्दीन, सुहागरात एक ही बार आती है। अब तू दखलंदाजी न कर।’
जरूर रूपचंद कुछ अदभुत समझ ले कर तुम यहां आए होओगे। हिंदू की समझ, मुसलमान की समझ, ईसाई की, जैन की, पता नहीं कौन सी समझ! कौन सी किताबें तुम्हारी खोपड़ी में भरी हैं,पता नहीं! कौन-सी दीवालों को पार करके मेरे शब्द तुम्हारे भीतर पहुंच रहे हैं, पता नहीं! मगर दीवारें होगी।
तुम बहरे हो, अन्यथा मैं जो कह रहा हूं इसको समझने के लिए क्या कोई बहुत बड़ी गणित, विज्ञान, कोई बहुत बड़ी कला चाहिए? दो और दो चार होते हैं, ऐसी सीधी बात कह रहा हूं।
रात को होटल का कमरा बहुत ठंडा हो गया था। चंदूलाल एक कम्बल के नीचे ठिठुरा जा रहा था। तो उसने सोचा कि एक कंबल बुलाने के लिए उसने रिसेप्शनिस्ट को फोन किया: ‘सुनिए मिस, मुझे बहुत सर्दी लग रही है। आपकी बड़ी मेहरबानी होगी अगर आप...’
चंदूलाल पूरी बात भी नहीं कह पाया था कि जवाब मिला: ‘अच्छा-अच्छा, मैं अभी दो मिनिट के अंदर आपकी खिदमत में पेश होती हूं। तब तक आप कपड़े वगैरह उतार कर तैयार रहिए।’
तुम अपनी समझ छोड़ो। मेरी बातें तो सीधी-साफ हैं।
तुम पूछते हो: ‘मैं तो आपको समझने की कोशिश करते थक गया।’
अच्छा हुआ थक गये। अगर सच में थक गये हो तो अब छोड़ दो अपनी समझ। अब और न लड़ो। अब गिर जाने दो अपनी समझ को। उसी की वजह से कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
और अब पूछ रहे हो: ‘अब क्या करूं?’
जब समझ में ही नहीं आ रहा है तो क्या करोगे? मैं जो कहूंगा वह भी समझ में नहीं आएगा। मैं जो करने को कहूंगा वह भी समझ में नही आएगा। कुछ का कुछ समझ लोगे। पहले अपनी समझ गिरा दो।
यहां तो यूं आओ जैसे निर्दोश बच्चे हो। यहां तो यूं बैठो जैसे कुछ मालूम नहीं! और फिर देखो बातें कैसी सीधी उतर जाती हैं और कैसे हृदय तक चली जाती हैं! फिर देखो, जैसा प्रज्ञा को हुआ है वैसा ही तुम्हें भी हो सकता है--
दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी।
शोर बरपा है खाना-ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी।
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी।
कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी
और यह चोट भी नयी है अभी।
दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी।
आज इतना ही।
दिनांक 20-05-1980 ओशो आश्रम पूना।
01-दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी
शोर बरपा है खाना ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी
कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी
और यह चोट भी नई है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी
दिल में कोई लहर सी उठी है अभी!
02-मने खबर नथी--हूं कौण छूं, अइयां सू करूं छूं?
03-आप सांत्वना का विरोध करते हैं तो क्या पुनर्जन्म भी एक प्रकार की सांत्वना ही नहीं है? जो कुछ है बस यही जन्म है, इसके बाद कुछ भी नहीं है--इस विचार कि आत्मा अमर है, शरीर ही नष्ट होता है, हम नया जन्म लेंगे, इस दुनिया में हमें वापिस आना है--ऐसा सोचने से कुछ राहत और तसल्ली महसूस होती है।
05.एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि जैसे आप बैठते हैं वैसे ही पूरे दो घंटा बैठे रहते हैं। आपके शरीर का कोई अंग हिलता ही नहीं, केवल एक हाथ हिलता है। और हम पांच मिनट भी शांत नहीं बैठ पाते!
06-एम. एल. ए बनने का सबसे सस्ता, सरल और टिकाऊ उपाय क्या है?
07-मैं तो आपको समझने की कोशिश में थक गया, कुछ समझ में नहीं आता। अब क्या करूं?
पहला प्रश्न: ओशो,
दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी
शोर बरपा है खाना ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी
कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी
और यह चोट भी नई है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी
दिल में कोई लहर सी उठी है अभी!
प्रज्ञा! दुनिया में तो जी किसी का कभी लगा नहीं, लग सकता भी नहीं। दुनिया में सब है--धन है, पद है, प्रतिश्ठा है। लेकिन कुछ कमी बनी ही रहती है, क्योंकि स्वंय की सत्ता दुनिया में नहीं है। और स्वंय की सत्ता में छिपा है सत्य। सत्य की कमी बनी रहती है।
दुनिया सपना है। सपने में सब हो, पर सत्य नहीं है। और सपनों से किसका पेट भरा? और सपनों से किसकी तृप्ति हुई? सपने कितना ही भरमाएं, कितना ही भटकाएं, भर तो नहीं सकते; आदमी खाली का खाली रह जाता है। धन भी एक सपना है। बहुत धन हो तो भी सपना है।
सपने की परिभाषा समझो। वह जो आज है और कल नहीं हो सकता है, वही सपना है। जो शाश्वत नहीं है, वही सपना है। जो क्षणभंगुर है, वही सपना है। जो पानी का बबूला है कि आकाश में खिंच गया, इंद्रधनुष है, वही सपना है। जो टूटेगा ही टूटेगा। जो छूटेगा ही छूटेगा। लाख करो उपाय, लाख व्यवस्थाएं जुटाओ, सब आयोजन असफल हो जाएंगे। सपने को कोई कभी बचा नहीं पाया। अंततः हाथ में राख भी नहीं बचती। सपना यूं तिरोहित हो जाता है, जैसे सुबह के ओस-कण धुप में विलीन हो जाते हैं। पीछे कुछ भी नहीं छूटता।
पद की दौड़ है। यह हो जाऊं-हो भी जाओ तो कुछ सार नहीं है। न हो जाओ तो दुख है। न हो जाओ तो हार की पीड़ा है! न हो जाओ तो विशाद है। न हो जाओ तो संताप में जलोगे। और हो जाओ तो कुछ मिलता नहीं। बड़ा अदभुत द्वंद्व है! दुख ही दुख है। हारो तो दुख है, जीतो तो दुख है। पद पर जो पहुंच जाते हैं, उनकी पीड़ा उनसे भी ज्यादा है जो नहीं पहुंच पाते। जो नहीं पहुंच पाते उनको कम से कम आशा तो होती है। जो पहुंच गये, उनकी तो आशा भी गयी। जो पहुंच गये उनको तो पता चल गया कि बस व्यर्थ दौड़े। और अब किससे कहें! अब कहने में भी बात उचित नहीं मालूम पड़ती। कहेंगे तो लोग हसेंगे। कहेंगे तो लोग कहेंगे: ‘हमने तो पहले ही कहा था!’ कहेंगे तो लोग कहेंगे कि व्यर्थ तुम दौड़े, नाहक आपाधापी की। तो अब चुप रह जाना ही उचित है। अब जो हुआ हुआ। अब ऊपर से एक मुखौटा लगा कर मुस्कुराते रहना ही उचित है। अब तो यही दिखाना उचित है कि पा लिया सब, तृप्ति हो गयी, महत्वाकांक्षा पूरी हो गई। अब तो झूठ को बनाए रखने में ही सार है। नहीं तो जिंदगी भर मूर्खता की, इसकी लोग घोशणा करेंगे। जिंदगी तो गयी ही गयी, अब अपने को और मूर्ख कहलवाने से क्या सार है!
इसलिए जो पद पर हैं उनके भीतर की पीड़ा बहुत है-उनसे ज्यादा जो पद पर नहीं हैं।
धनी ज्यादा रोता है निर्धन से। निर्धन तो अभी इस आशा में है-जुटा लूंगा, जुड़ा लूंगा; अभी जिंदगी पड़ी है, और दौड़ूंगा, और श्रम करूंगा। धनी कहां जाए? वह तो ऐसे मोड़ पर आ गया है जिसके आगे रास्ता ही समाप्त हो जाता है, वह तो बुरी तरह डूब गया।
इस दुनिया में सब है, लेकिन सब सपने जैसा है। सत्य भीतर है, बाहर नहीं है। जो बाहर है उसका नाम दुनिया और जो सत्य है, वह है तुम्हारी सत्ता।
तू कहती है--
‘भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी!’
अच्छा है कि कमी एहसास होने लगी। धन्यभागी हैं वे जिन्हें कमी एहसास होने लगती है। और जिन्हें जल्दी एहसास हो जाए, उन पर परमात्मा की अनुकम्पा है।
तू तो अभी युवा है। यही घड़ी है कि कोई जाग जाए तो जिंदगी व्यर्थ जाने से बच सकती है; कोई जाग जाए तो बाहर की यात्रा अंतर्यात्रा बन सकती है। और जागने की पहली शुरूवात यूं ही होती है कि एक कमी लगती है। बुढ़ापे में तो सभी को लगती है, मगर तब बहुत देर हो गयी होती है। और कुछ तो ऐसे मूढ़ हैं कि उन्हें बुढ़ापे में भी नहीं लगती। उन्हें मरते-मरते तक नहीं लगती। मरते-मरते तक भी उनकी चेश्टा यही होती है कि किसी तरह कुछ जो कमी रह गयी हो उसे पूरा कर लें। मरते-मरते भी दौड़ने से संलग्न रहते हैं, आखिरी दांव लगाने में लगे रहते हैं। मरते-मरते भी धक्का मुक्की कर लें!
मुल्ला नसरूद्दीन बुढ़ापे में तंग आकर अस्पताल में भर्ती हो गया। एक युवा और सुंदर नर्स उसके वार्ड में डयूटी पर थी। एक दिन उस नर्स ने मुल्ला से कहा कि कल से मेरी डयूटी जनाना वार्ड में लगेगी। इस पर मुल्ला ने कहा: ‘मेरी बदली भी तब जनाना वार्ड में करा दो।’
नर्स ने कहा: ‘आपको जनाना वार्ड में शर्म नहीं आएगी?’
मुल्ला ने कहा: ‘शर्म की क्या बात है! वहां तो मैं पैदा ही हुआ था।’
बुढ़ापे तक भी मूर्खता मिटती नहीं। वही राग, वही रंग! दीवाला निकलने के करीब आ जाता है, मगर अभी भी जलाए जाते हैं दीए-इस आशा में कि शायद एक दीवाली और मना लें! सब टूट चुका, सब फूट चुक; लेकिन फिर भी एक हाथ और मार लें! कौन जाने जो अब तक नहीं लगा हाथ, अब लग जाए!
मुल्ला नसरुद्दी एक नुमाइश में गया था लखनऊ में। बूढ़ा हो गया है। पहन रखा है चूड़ीदार पाजामा, अचकन। शाल डाल रखी है। गांधीवादी टोपी लगा रखी है। बिलकुल नेता मालूम हो रहा है। बुढ़ापे में लोग चूड़ीदार पाजामा इसीलिए पहनते हैं, उससे जवानी की चुस्ती मालूम पड़ती है, उससे जवानी को धोखा मालूम पड़ता है। अब जोर से कस लोगे पैरों को तो खाल कितनी ही ढीली पड़ गयी हो, कम से कम बाहर से तो चुस्ती दिखाई पड़ेगी। और इतने कसे रहोगे तो खुद भी थोड़ी तेजी से चलोगे कि जल्दी घर पहुंच जाएं, कि कब इस चूड़ीदार पाजामे से छुटकारा हो।
बड़ी तेजी से चला जा रहा था। एक भीड़ में एक सुंदर युवती को देखकर जी नहीं माना। यूं तो अपने को बहुत रोका, फिर भी एक धक्का मार ही दिया। युवती ने लौट कर देखा-शुद्ध खादीधारी नेता है! सब बाल सफेद हो गये हैं। कहा: ‘शर्म नहीं आती? बाल सफेद हो गये और अभी भी यह ढ़ंग!’
नसरूद्दीन ने कहा: ‘बाल सफेद हो गये हों, मगर दिल तो अभी भी काला है। दिल की तरफ देखो।’
दिल काला ही बना रहता है; वह सफेद होता ही नहीं। न सफेद खादी से होता है, न सफेद बालों से होता है। दिल तो काला ही बना होता है। जब तक कि भीतर का दीया न जले तब तक काला ही बना रहता है। तब तक तो वहां काजल ही काजल है। तब तक तो वहां धुआं ही धुआं है।
प्रज्ञा, तू तो अभी युवा है। यही घड़ी है। अगर कोई जाग आए तो अभी समय है। जो श्रम बाहर की यात्रा में लगे, वही श्रम भीतर की यात्रा में लग सकता है। बाहर तो धन नहीं मिलता, लेकिन भीतर मिल सकता है। धन तो नहीं, ध्यान मिलेगा। मगर ध्यान ही धन है। पद तो नहीं लेकिन परमात्मा मिलेगा। पर परमात्मा ही तो परमपद है! कमी मिट जाएगी।
लेकिन भीतर की यात्रा के कुछ सूत्र समझ लेने चाहिए। पहला तो सूत्र यह है कि भीतर की यात्रा पर किसी लोभ के कारण नहीं जाना चाहिए, क्योंकि लोभ तो बाहर की यात्रा का हिस्सा है। लोभ अगर है तो तुम भीतर जा ही नहीं रहे। तुम चाहे लोभ के कारण ध्यान करने बैठे हो, तो भी तुम्हारी बहिर्यात्रा चल रही है। क्योंकि लोभ बहिर्यात्रा में ही ले जा सकता है। वह गाड़ी बाहर की तरफ ही जाती है। महत्त्वाकांक्षा अगर सिर पर सवार है तो तुम चाहे ध्यान करो, चाहे पूजा, चाहे प्रार्थना-कुछ न होगा, क्योंकि महत्त्वाकांक्षा का जहर इन सबकी गर्दन घोंट देगा, इनको मार ड़ालेगा, महत्त्वाकांक्षा तो दिल्ली की तरफ जाती है-दिल की तरफ नहीं। वह यात्रा बहिर्मुखी है, अंतर्मुखी नहीं।
अभी मैंने कुछ दिन पहले डाॅक्टर मुंशीसिंह को कहा था न कि आ गये हो भूले-भटके तो अब हिम्मत करो। अभी यूं आधे-आधे, यहां-वहां, अधूरे-अधूरे कुछ कुछ करते हे होओगे, इसलिए बात बनी नहीं। अब पूरे उतर जाओ। अगर उतरना ही है तो पूरे उतर जाओ। यह सौदा जुआरियों का है, व्यवसायियों का नहीं है।
उन्होंने सोचा कि चलो पूरे ही उतर कर देख लें। वे दूसरे दिन ही संन्यास हो गये। दूसरे दिन बड़ी शान से उन्होंने पत्र लिखा कि आपने कहा तो मैं संन्यासी हो गया। मगर एक ही दिन चला संन्यास! इसलिए मैंने उनके प्रश्न का दूसरे दिन उत्तर नहीं दिया, क्योंकि मैंने कहा जरा दो-चार दिन देख तो लूं! यह ज्यादा चलने वाला नहीं है। चैबीस घंटे बाद ही वे पंहुच गये कि अगर साल भर में परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई तो मैं संन्यास छोड़ दूंगा। तो उनको खबर दी गयी: ‘बेहतर है तुम अभी ही छोड़ दो, क्योंकि शर्तो से कोई संन्यासी नहीं होता।’ वे परमात्मा को अल्टीमेटम दे रहे हैं कि साल भर में अगर प्राप्ति न हुई तो संन्यास छोड़ दूंगा! ऐसा लगता है कि इन्हें परमात्मा की कम जरूरत है, परमात्मा को इनकी ज्यादा जरूरत है, कि डाॅक्टर मुंशीसिंह अगर नहीं मोक्ष को प्राप्त हुए तो परमात्मा जार-जार रोएगा, कि छाती पीटेगा, कि हे मुंशीसिंह, कहा हो? तुम्हारे बिना जी नहीं लगता, कि तुम आओ तो....।’
‘दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी!
शोर बरपा है खाना-ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी।’
...कि परमात्मा भी फिर गुनगुनाए, कि उसकी जिंदगी में भी मौसम आए! मुंशीसिंह आएं तो मौसम आए!
और डाॅक्टर की तो उसको भी जरूरत पड़ती ही होगी। ऐसे मुंशीसिंह मुझे कोई असली डाॅक्टर नहीं मालूम पड़ते, क्योंकि अपने दस्तखत में उन्होंने पहले दिन तो लिखा था: ‘मुंशीसिंह डाॅक्टर’। वह तो मैंने सिर्फ शिश्टाचारवश ‘डाॅक्टर मुंशीसिंह’ कहा। वे डाॅक्टर ऐसे मालूम पड़ते हैं, जैसे हमारी-‘पदमा इंजीनियर’! कभी बाप-दादे कोई इंजीनियर रहे होंगे! इतना तो पक्का है कि पदमा इंजीनियर नहीं है। लेकिन अब वह उपनाम ही हो गया-इंजीनियर। जैसे कोई शर्मा, कोई वर्मा-ऐसे पदमा इंजीनियर। ऐसे ही ये मुंशीसिंह डाॅक्टर मालूम पड़ते हैं, क्योंकि डाॅक्टर होते जो पहले डाॅक्टर लिखा जाता है न कि पीछे-मुंशीसिंह डाॅक्टर! पीछे जब कोई लिखता है तो उसका मतलब ही साफ हैं। मगर जब से मैंने डाॅक्टर मुंशीसिंह कहा, तब से वे भी आगे लिखने लगे; उनने सोचा कि जब चल ही रही है बात तो फिर काहे को पीछे लिखो! उनने भी आगे लिखना शुरू कर दिया, कि जब मुफ्त मे ही बात बनी जा रही है तो बन ही जाने दो। कभी बाप-दादे कोई रहे होंगे डाॅक्टर। वे भी मैं नहंीं समझता कि आदमियों के डाॅक्टर रहे हों।
चैबीस घंटे में ही शर्तबंदी शुरू कर दी उन्होंने कि एक साल, ठीक एक साल! अगर नहीं परमात्मा की उपलब्धि हुई, अगर निर्वाण का अनुभव नहीं हुआ, अगर समाधि न लगी, तो बस संन्यास छोड़ दूंगा!
लोभ से संन्यास? लोभ से ध्यान? यह मोक्ष भी फिर मोक्ष न रहा। यह परमात्मा भी फिर परमात्मा न रहा। यह सब दुकानदारी ही हो गयी। यह बहिर्यात्रा ही रही फिर। ये तो मौज की बातें हैं, ये तो मस्ती की बातें हैं। और जब छोड़ने की बात पहले से ही तय है तो क्या तुम पूरे उतरे पाओगे? तुम चैबीस घंटे हिसाब लगाते रहोगे कि अभी तक नहीं हुआ, अभी तक नहीं हुआ, चार दिन निकल गये, पांच दिन निकल गये, सात दिन निकल गये, यह एक सप्ताह हुआ, यह चार सप्ताह हुए, यह एक महीना गया, अब ग्यारह महीने ही बचे! अभी तक कुछ तो मिल जाना चाहिए था!न मिलता पूरा-पूरा, तोला भर मिलता, दो तोला मिलता, कुछ तो मिलता! रत्ती मासा कुछ तो मिलता! कुछ आसार तो नजर आते! न मिलता, कम से कम पैरों की आवाज तो सुनाई पड़ती! एक महीना यूं ही गया! और ग्यारह महीने ही बचे!
ये बचकानी बातें हैं। ये छोटे-छोटे बच्चों जैसी बातें है। परमात्मा कोई खिलौना हैं? तुम्हारी आकांक्षाओं और तुम्हारे लोभ और तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा की दौड़ से तुम उसे पा लोगे? पागल हो गये हो!
प्रज्ञा, अच्छा है कि तु अभी यूवा है। अगर दुनिया में कमी मालूम होने लगी है......यही तो मैं चाहता हूं कि दुनिया में कमी मालूम होने लगे। इसलिए तो नहीं चाहता कि तुम दुनिया छोड़ो। दुनिया छोड़ दोगे तो दुनिया की कमी कैसे मालूम होगी? वह जो जंगल में बैठ जाता है, उसको दुनिया में बहुत रस आता है। वह जो पहाड़ में, गुफा में बैठ जाता है, उसको यह शक बना ही रहता है कि पता नहीं दुनिया में क्या मजा चल रहा है! कही मैं भूल तो नहीं कर बैठा!
एक जैन मुनि, ‘कनक विजय’ एक बार मेरे पास मेहमान हुए। देखा कि मुझसे सीधी सच्ची बातें की जा सकती हैं। दो-तीन दिन तक तो अध्यात्म की बातें चलीं, फिर धीरे-धीरे उन्होंने असली बातें कहीं। उन्होंने कहा: ‘आपसे असली बातें कही जा सकती हैं। अब मैं आपसे सच कहूं, तो मैं केवल नौ साल का था तब मेरी मां मर गयी। मां के मरने से पिता संन्यासी हो गये।’
इस देश में स्त्री मर जाए तो फिर करो क्या-मूंड़-मूंड़ाए भये संन्यासी! फिर वे सिर मुंड़ा कर संन्यासी हो गये। और नौ साल का ही एक बेटा था घर में, वह क्या करे? सो उन्होंने उसको भी संन्यास दिलवा दिया। तो नौ साल में कनक विजय मुनि हो गये। अब नौ साल का बच्चा संन्यासी हो जाए, घर छोड़ दे-और जैन मुनि! तुम उसकी दुर्दशा समझ सकते हो। न उसने वे मिठाइयां खायीं जो सभी बच्चे खाते हैं। न उसने आइस्क्रीम चखी जो सभी बच्चे चखते हैं। न कोकाकोला पीया, न चाय न काॅफी, न चमचम न संदेश, कुछ भी नहीं। उसकी तुम तकलीफ समझ सकते हो। वह नौ साल पर अटका रह गया। उसने कुछ नहीं देखा। मदारी के खेल नहीं देखे। सरकस नहीं देखी, सिनेमा नहीं देखा।
वे मुझसे कहने लगे: ‘आप से सच्ची बातें कह सकता हूं। मेरे मन में सदा यह उठता है कि सिनेमा में क्या होता होगा! लोंगो की भीड़ लगी देखता हूं, मार-पीट होती देखता हूं दरवाजों पर, कतारें लगी हैं सड़कों पर दूर-दूर तक। जरूर कुछ तो होता होगा। भीतर क्या होता है? मैं किसी से पूछ भी नहीं सकता कि लोग क्या कहेंगे, कि सत्तर साल का जैन मुनि और पूछे कि सिनेमा में क्या होता है। तो लोग कहेंगे-यह कैसा अध्यात्म, यह कैसी तपश्चर्या, यह कैसी जिज्ञासा! अरे ब्रम्हज्ञान की बातें करो, आत्मज्ञान की बातें करो। मैं आत्मज्ञान की बातें करो। मैं आत्मज्ञान समझाता हूं लोंगो को, ब्रम्हज्ञान समझाता हूं। मोक्ष-मार्ग बताता हूं। जिनवाणी समझाता हूं। अब मैं किससे पूछूं। जिससे पूछूं वही संदेह की नजर से देखेगा। मगर आपसे पूछ सकता हूं। सिनेमा में क्या होता है?’
मैंने कहा: ‘तुम चिंता न करो। मैं तुम्हें सिनेमा भिजवाए देता हूं।’
उन्होंने कहा: ‘आप क्या कहते हैं! कोई देख लेगा!’
मैंने कहा: ‘तुम उसकी भी फिक्र न करो। कन्टोन्मेंट एरिया में कोई जैन नहीं रहता वहां।’ मिलिट्री में जैन वैसे भी भरती नहीं होते, हो सकते नहीं। मिलिट्री की तो बात दूर, जैन खेतीबाड़ी नहीं करते, क्योंकि पौधे वगैरह काटना पड़े, उखाड़ना पड़े, हत्या हो जाए! पौधे में भी तो जीवन है। मिलिट्री की तो तुम बात ही छोड़ दो, वहां कहां जैन वगैरह का सवाल! तो तुमको वहां भिजवा देता हूं देखने। एक ही अड़चन है कि वहां हिंदी फिल्म नहीं चलती, अंग्रेजी फिल्म चलती है।’
उन्होंने कहा: ‘फिल्म कोई भी भाशा में हो, क्या फिकिर! एक दफा देख तो लूं कि क्या होता है। समझ में नहीं आएगी तो कोई बात नहीं।’
तो मेरे पड़ोस में ही मेरे एक भक्त रहते थे-जगसीभाई। उनको मैंने बुलवाया मैंने कहा कि ऐसा करो जगसीभाई, इनको ले जाओ कंटोन्मेंट एरिया की एक टाकीज में, इनको बिठा कर......ठीक बाक्स में ऊपर बिठा देना, ताकि कोई देखे-दाखे भी नहीं। जगसीभाई भी बहुत घबड़ाए। वे भी जैन थे। वे कहने लगे: ‘हालंाकि मैं आपको मानता हूं और मेरा अब कोई रस नहीं रहा है जैन धर्म में और यह सब रूढ़िवाद में, यह दकियानूसीपन में। मगर यह हिम्मत तो मैं भी नहीं कर सकता! आपने भी खूब मुझे बुलवाया। आप किसी और को बुलवा लेते। आप भी तरकीब से चोट करते हैं!’
मैनें कहा: ‘मैंने सोचा एक पत्थर से दो पक्षी मारो। यह तो कनक विजय तो मारे ही जा रहे हैं, जगसीभाई को भी मारो! तुम्हारा भी पता चल जाएगा कि दकियानूसीपन से कितना छुटकारा हुआ।’
उन्होंने कहा कि अगर मेरी पत्नी वगैरह को पता चल गया, फिर क्या होगा? मैंने कहा: ‘वह फिर देखेंगे। जब ये नहीं डर रहे हैं मुनि होकर, तो तुम क्या डर रहे हो जगसीभाई? अरे पत्नी को ही पता चलेगा न।’
‘अब पत्नी बड़ी धार्मिक है। वह जीना हराम कर देगी मेरा। मेरे बच्चों को पता चल गया तो वे मुश्किल खड़ी कर देंगे।’
मैंने कहा: ‘किसी को पता क्यों चले! इनको गाड़ी में बिठाओ।’
कहा: ‘कहते क्या हैं आप! गाड़ी में बिठाऊं! मुनि महाराज को!’
मैंने कहा: ‘जगसीभाई, रहे तुम वही के वही! अरे जब सिनेमा दिखाने ले जा रहे हो तो क्या पैदल ले जाओगे? सारे गांव में खबर हो जाएगी कि ये कहां जा रहे हैं मुनि महाराज! और पीछे कुछ श्रावक हो लिए तो और मुसीबत हो जाएगी।’
कहा: ‘यह बात भी ठीक है। अपनी गाड़ी मैं नहीं ला सकता, क्योंकि बच्चे पूछेंगे, पत्नी पूछेगी-कहां जा रहे हो?’
तो मैंने कहा: ‘तुम मेरी गाड़ी ले जाओ।’ उनको मैंने अपनी गाड़ी दी। देखा उनके हाथ-पैर कंप रहे हैं। मैंने कहा: ‘जगसीभाई, तुम शराब पी जाते हो, तब भी हाथ पैर नहंी कंपते!’ शराब पीने की उनको आदत थी। मैंने कहा: ‘तब तुमको जैन धर्म नहीं याद आता! और जब ये मुनि महाराज खुद ही जाने को तैयार हैं तो तुम क्यों परेशान हो रहे हो? मगर अगर ऐसे कंपते हाथ से ले गये तो कहीं एक्सीड़ेंट वगैरह मत कर देना; नहंीं तो तुम भी फंसोगे, मुनि महाराज भी फंस जाएंगे। मुझे तो कोई अड़चन नहीं है। मेरी तो थोड़ी और बदनामी होगी, तो थोड़ा और नाम हो जाएगा, इसमें कोई हर्जा नहीं।’
मैंने कहा कि मैं खुद ले चलता हूं, तुम्हें टाकीज छोड़ आता हूं। इस हालत में तुम न ले जा सकोगे। रास्ते में कोई जैन दिख गया या कुछ हो गया तो तुम एकदम होश खो दोगे।
तो मैं उनको ले जा कर टाकीज तक दोनों को छोड़ आया। मुनि महाराज को उन्होंने जा कर बिठा दिया। वे देख कर आ गये। लौट कर आ कर बोले कि कुछ भी नहीं हैं वहां, लेकिन मैं कितना परेशान रहता था! बस इसी का खयाल उठता था कि क्या हैं वहां! अब आपसे क्या छिपाना! यही छोटी छोटी चीजें मुझे परेशान कर रही हैं-आइस्क्रीम, कोकाकोला, फेंटा!
मैंने कहा: ‘तुम सब, जो भी तुम्हें परेशान कर रहा हो, तुम बोलो-और जगसीभाई! मैं दोंनो को ही निपटा लेता हूं। तुम्हें शराब पीनी है-जगसीभाई खुद भी पीते हैं, तुमको भी पिलांएगे। तुम सभी चख लो, एक दफा का झंझट मिटा लो। सिनेमा देख आए, सिनेमा से छुटकारा हो गया।’
उन्होंने कहा: ‘हां, बिलकुल छुटकारा हो गया। अब मुझे कोई मतलब नहीं। देख लिया, कुछ नहीं, बेकार में परेशान था।’
यह आदमी नौ वर्श की उम्र पर अटका रह गया। नौ वर्श के बच्चे की जिज्ञासा। इसका कोई कसूर नहीं है। इसका क्या कसूर? नौ वर्श के बच्चे को अटका दिया तुमने। मगर जो भी भागेगा जिंदगी से वह कहीं न कहीं अटक जाएगा। वह लौट-लौट कर देखता रहेगा कि पता नहीं वहां क्या हो रहा है! यहां गुफा में तो कुछ भी नहीं हो रहा है। खबरें पहुंचती रहेंगी कि अब टेलीविजन आ गया, रंगीन टेलीविजन आ गया! और अब कैबरे नृत्य होने लगा! अब बैठे गुफा में हैं, अब कैबरे नृत्य क्या है! अब इनको तो मरने के बाद स्वर्ग में अप्सराएं वगैरह मेनका, उर्वशी अगर नाचती होंगी अभी भी......हालांकि अब तक बूढ़ी हो चुकी होंगी, बहुत बूढ़ी हो चुकी होंगी। लाखों साल हो गये, लाखों साल की बुढ़िएं नाच रही हों बड़ा मुश्किल है। और कैबरे नृत्य तो क्या खाक करती होंगी! और करती भी होंगी तो क्या जंचता होगा? स्ट्रिप-टी.ज क्या है! अब बैठो, मरने के बाद देखना। अप्पसराएं करें तो करें। मगर अप्सराओं की हालतें अब तक इतनी खराब हो गयी होंगी, दांत सब गिर चुके होंगे। अब स्ट्रिप-टी.ज भी क्या देखोगे?
मैंने सुना है, अमरीका की एक होटल में एक बुढ़िया बहुत दुखी ठहरी हुई थी। दुख उसका यह था कि उस पर कोई नजर ही नहीं डालता।
स्त्रियां तीन तरह की होती हैं: एक, जिन पर लोग नजर डालते हैं; दूसरी, जिनको लोग नजर-अंदाज करते हैं; और तीसरी, जिनसे नजर बचाते हैं। उसकी हालत तीसरी कोटि में थी। लोग नजरे बचाते थे। वह जिधर जाए, इधर-उधर देखने लगें लोग। और रोज कैबरे चल रहा है, स्ट्रिप-टी.ज हो रहा है-और छोकरियां कल की! बुढ़िया को बहुत दुख हुआ, कल की छोकरीयां मुझे हरा रही हैं! एक दिन उसे बहुत गुस्सा आया। अपनी सहेली से जो कि खुद भी बुढ़िया थी, उसने कहा: ‘आज मैं भी कुछ करके दिखाती हूं।’ उसने सारे कपड़े उतार दिए। नंग-धड़ंग होटल में घुस गयी कि अब तो देखेंगे, अब तो देखना ही पड़ेगा। स्त्री कितना ही चेश्टा करे, उसके मन में यह भाव बना ही रहता कि कोई देखे। कोई न देखे तो उसे बड़ा दुख होता है। वह अप्सरा हो कि न हो, पृथ्वी की हो कि स्वर्ग की, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। कोई न देखे तो बड़ा दुख होता है। जिस दिन स्त्रियों को लोग नहीं देखते, उस दिन स्त्रियों को लगने लगता है कि बस अब काम से गये।
बुढ़ापे का मतलबही यह होता है कि अब कोई नहीं देखता, बुढ़ापा आ गया।
नंग-धड़ंग!......अमरीका में ही यह घटना घट सकती है.....वह घुस गयी होटल में। उसकी सहेली भी नंग-धड़ंग! दोनों बुढ़िंए। होंगी अस्सी के पार। किसी ने नहीं देखा, सिर्फ दो आदमियों ने देखा। और दोनों एक दूसरे से बोले कि कुछ भी हो, जो भी इन्हें पहनना हो पहनें, मगर इन बाइयों ने जो भी पहना है, कम से कम उस पर लोहा तो कर लिया करें! क्या पहने चली आ रहीं हैं! पहनने की तो स्वतंत्रता है मनुश्य को, जो भी पहनना चाहे पहने, मगर कम से कम लोहा तो कर लेना चाहिए! ये किस प्रकार का कपड़ा पहने हुए हैं! वे नंग-धड़ंग हैं! इससे भी गयी-बीती हालत हो गयी होगी वहां। अब तो लोहा भी करोगे मेनका को रख कर, तो भी कुछ उसमें से सार निकलेगा नहीं। और जल-भुन जाएगी।
अब ये बैठे हैं गुफा में, सोच रहे हैं कि उर्वशी मिलेगी कि मेनका मिलेगी? और यहां से भाग गये हैं और स्वर्ग की आशाएं लगाए बैठे हैं कि वहां प्राप्ति होगी। मगर प्राप्ति क्या-वही जो यहां छोड़ गये हैं! कुछ छूटा नहीं है। वही दौड़ चल रही है अभी भी मन में। अभी राम राम जप रहे हैं, मगर प्रयोजन क्या है राम राम जपने का? प्रयोजन वही है कि जो यहां छोड़ गये हैं वह बड़े पैमाने पर मिल जाए। जब तक मिलने की कोई भी इच्छा है, जब तक कोई भी लोभ ईश्वर को पाने का ही क्यों न हो; वह लोभ आनंद को पाने का ही क्यों न हो-ये सब नाम ही हैं। लोभ बड़ा चालबाज है! वह हर चीज पर चिपका जाता है। वह हर विशय को पकड़ लेता है। तुम जो भी विशय दे दो...मोक्ष, तो वह कहेगा ठीक है मोक्ष सही, हम इससे ही जुड़े जाते हैं।
अब ये मुंशीराम डाॅक्टर, चैबीस घंटे में ही इनको लोभ पकड़ गया कि एक साल के भीतर परमात्मा-उनलब्धि होनी चाहिए। नहीं हुई तो संन्यास छोड़ देंगे। यह संन्यास हुआ? यह ध्यान हुआ? ऐसे तुम ध्यान करोगे? इसी लोभ की वृत्ति से ये भटके होंगे, परेशान रहे होंगे। ये भटकते ही रहेंगे। इनकी जिंदगी में कभी यह घटना नहीं आएगी कि कह सकें कि-
‘दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी।’
ये लोभ की गंदी हवाएं ही इनकी जिंदगी में बहती रहेंगी। ये अहंकार और महत्त्वकांक्षा की गंदी हवाएं ही इनकी जिंदगी को घेरे रहेंगी। इनके भीतर कोई दीवार कभी नहीं गिरेगी।
‘शोर बरपा है खाना-ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी।’
मगर प्रज्ञा, तू अभी युवा है। यही क्षण है। संसार छोड़ना नहीं है, भागना नहीं है। यहीं रहना हैं, ताकि इससे ठीक से मुक्ति हो जाए। देख कर ही मुक्ति होती है। अनुभव से मुक्ति होती है। और तुझे दिखाई पड़ने लगा है कि....
‘भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी।’
...तो बस अंतर्यात्रा का पहला कदम इस तरह ही उठता है। मगर अब खयाल रखना, बाहर ले जाने वाली कोई भी वृत्ति को जरा सी भी गुंजाइश मत देना। जरा भी बीज मत बोना-लोभ के, महत्त्वकांक्षा के, अहंकार के।
संन्यास अलोभ है। संन्यास महत्त्वकांक्षा-मुक्ति है। संन्यास वासना का अतिक्रमण है। संन्यास इच्छा की व्यर्थता को समझ लेने में है। और तब अपने-आप चेतना ऐसे भीतर सरकने लगती है। कुछ करना नहीं होता; प्रयास नहीं करना होता, सहज!
और चोंटे तो बहुत लगेंगी। मेरे पास रहने का अर्थ ही यह है कि चोट पर चोट पड़ेंगी, क्योंकि तुमने जो भी बनाया है अब तक, उसे मैं तोड़ूंगा सब रेत के घर तोड़ दूंगा। और तुम्हारे ताश के महल गिरा दूंगा।
तू कहती है-
‘कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी
और यह चोट भी नयी है अभी।’
चोट तो लगेगी, क्योंकि तेरी धारणाएं टूटेंगी, मान्यताएं टूटेंगी, सिद्धांत टूटेंगे, आधारशिलाएं खिसकेंगी। और नाजुक मिजाज कौन नहीं है? सभी नाजुक मिजाज हैं। और कौन है जिनको चोट नहीं लगेगी? मेरे पास चोट न लगे, यह असंभव है। उसको ही नहीं लग सकती चोट, जिसको कुछ समझ में ही न आए। उसको ही चोट नहीं लग सकती, जिसकी खाल इतनी मोटी हो कि बुद्धि तक कुछ भी न पंहुचे। उसको चोट नहीं लग सकती, जो सुन भी रहा है और नहीं भी सुन रहा है; जो यूं ही चला आया है; जो झपकियां ले रहा है, नींद में है; जो आया ही नहीं है वस्तुतः सिर्फ शरीर की तरह यहां मौजूद है। लेकिन जो यहां आत्मा की तरह मौजूद है, उस पर तो चोट पर चोट पड़ेगी। और जो जितना योग्य होता है उसे मैं उतनी ही ज्यादा चोटें मारूंगा। क्योंकि जो जितना योग्य है, जितना पात्र है, उसकी उतनी ही आवश्यकता ज्यादा है। उसमें उतने ही रूपांतरण की संभावना है। उसकी तो गर्दन काटी जाएगी। उसको जो बिलकुल ही टुकड़े-टुकड़े काट दिया जाएगा, ताकि जो शुद्धतम है वही शेष रह जाए। जो नहीं टूट सकता है वही बचे। शेष सब तोड़ दिया जाएगा। जो अखंड़ है वही बचे; शेष सब खंड़ित कर दिया जाएगा।
तो घबड़ाना मत। चोटों से भयभीत न होना। जब एक चोट पड़े तो धन्यवाद देना। वही शिश्य की कला है। वही शिश्य होने की कला है कि सदगुरू जब चोट करे तो शिश्य धन्यवाद दे सके, कृतार्थता प्रगट कर सके। और जो उतनी कृतार्थता प्रकट करता है उसके जीवन में रूपांतरण निश्चित है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
मने खबर नथी--हूं कौण छूं! अहियां शूं करूं छू?
रंजन!
तेरा नाम रंजन--और तू पड़ गई है एक भंजक के हाथ में। और तेरा काम--इस मधुशाला के द्वार पर लोगों का स्वागत करना। और क्या जानना है? तू पूछती है: ‘मने खबर नथी--हूं कौण छूं!’
जब भी ऐसा सवाल उठे, आईने में अपनी तस्वीर देख ली और कहा कि अरे ठीक, यही मैं ही तो हूं--रंजन भारती! और ‘अहियां शूं करूं छूं!’ करना क्या है? करने को कुछ नहीं है। यहां करने का सवाल ही नहीं है। मगर यह खतरा होने वाला है।
संत महाराज ने पूछा है कि ‘अंग्रेजी और हिंदी मुझे ज्यादा आती नहीं और सुनते-सुनते मैं थक भी गया हूं। अब तो दिल में एक भाव उठ रहा है कि पंजाबी बोलना शुरू कर दूं। आपकी आज्ञा की जरूरत है। सदगुरु साहब, आज्ञा दो!’
संत महाराज, बोलो, पंजाबी बोलो। कोई हर्जा नहीं है। कोई चिंता न करो।
मैं पंजाब जाता था तो कई लोग मुझसे पंजाबी में बात करते थे। मुझे पंजाबी का क ख ग नहीं आता। जब मैं पहली दफा पंजाब गया और अमृतसर के एक वेदांत सम्मेलन में सम्मिलित हुआ, तो पंजाबी का एक अखबार अपने संपादक को भेजा। वे मुझसे पंजाबी में आकर बात करने लगे। जिनके घर मैं मेहमान था, वे बेचारे जरा परेशान हुए। वे जानते थे कि मुझे पंजाबी आती नहीं। मगर वे और भी इसमें हैरान हुए कि मैं कुछ कह ही नहीं रहा, वे पंजाबी में कहते हैं और मैं उनको जवाब दिए जा रहा हूं। वे बड़े हैरान हुए कि शायद पंजाबी आती है या बात क्या है! संपादक तो इतना तृप्त होकर गये कि उन्होंने दूसरे दिन अखबार में जो सुर्खी छापी वह यह थी कि ‘एशिया के सबसे बड़े वेदांती।’ क्योंकि वे कुछ भी पूछें, मैं वेदांत की ही छांनू! मुझे पता नहंीं वे क्या पूछ रहे हैं। मैं तो वेदांत की ही बात करूं। सो उन्होंने देखा हैं...‘एशिया के सबसे बड़े वेदांती।’
जो मेरे मेजबान थे, वे कहने लगे कि आपने हमें चकित कर दिया। हमें मालूम नहीं था आपको पंजाबी आती है!
मैंने कहा: ‘किस मूरख को आती है!’
उन्होंने कहा: ‘आप जवाब तो ऐसे दे रहे थे...।’
मैंने कहा: ‘जवाब में मुझे क्या फर्क पड़ता है? तुम किसी भाषा में पूछो, मुझे जो कहना है वह मैं वही कहता हूं।’
गुजरात जाता था, लोग गुजराती में आकर बातें करते थे। करते रहो! मुझे जो कहना है वही मैं कहूंगा! इस देश भर में घूमता था, सब तरह की भाषाएं सुननी पड़ती थीं। कौन फिकर करता है कि तुम क्या कह रहे हो! इतना मुझे मालूम है कि देश में ऐसी गहन मूढ़ता है कि लोग सिवाय ब्रह्मज्ञान के और कुछ बात ही नहीं करते। तो कुछ भी पूछो, मैं ब्रह्मज्ञान ही छेड़ दूं।
तो तुम फिकर न करो संत महाराज! इससे लोग तुमको पहुंचा हुआ सिद्ध समझेंगे। कोई अंग्रेजी बोले, हिन्दी बोले और कुछ बोले, तुम पंजाबी बोलो। दिल खोल कर पंजाबी बोलो। पंजाबी बोलने का मजा ही और है! जैसे लड़ाई-झगड़ा करना हो तो जो पंजाबी में हो सकता है, वह किसी दूसरी भाशा में हो ही नहीं सकता। अब उसी लड़ाई-झगड़े को गुजराती में करो तो ऐसा लगे जैसे प्रेम की वार्ता चल रही है। गुजराती में जान ही निकल जाती है। सब शब्द गोल-गोल हो जाते हैं गुजराती मे। उनमें से धार मर जाती है। और पंजाबी में तो एकदम धार होती है--कृपाण!
तो वह जो मैंने तुमसे कहा कि तुम्हारा नाम असली में अंट-शंट महाराज है, तो लोग कहेंगे कि है, बिलकुल ठीक है। तुम अपने दिल में दबाओ मत, दमन के मैं बिलकुल खिलाफ हूं! और सबसे पहले तुम ‘रंजन’ से शुरू करो सत्संग। रंजन बोले गुजराती, तुम बोलो पंजाबी। यह कितना ही पूछे ‘मने खबर नथी, हूं कौण छूं’, तुम इसको बताओ पंजाबी में। यह कितना ही कहे ‘अहियां शूं करूं’, फिकीर ही मत करो। और ज्यादा गड़बड़ करे तो भांगड़ा नृत्य!
एक बार जेल में तीन व्यक्ति मिले। एक बोला कि जानते हो दोस्तो, मैं इस जेल में तब से हूं जब बम्बई में रेलगाड़ी का चलना शुरू ही शुरू हुआ था। दूसरा बोला कि बस, अरे मैं तो इस जेल में तब से हूं जब बम्बई में घोड़ागाड़ी का चलना पहली बार ही शुरू हुआ था। तीसरा बोला कि भाई, यह घोड़ागाड़ी क्या चीज होती है?
दिल खोल कर हांको! जब हांक ही रहे हो...। और ब्रह्मज्ञान है ही क्या-हाकना! इसको कहते हैं ब्रह्मचर्चा।
दो मछलीमार घर की तरफ लौट रहे हैं, एक ने कहा: ‘आज गजब हो गया! एक ऐसी मछली मैंने पकड़ी, इतनी बड़ी मछली न तो मैंने देखी, न सुनी। गजब की मछली थी। इतिहास में भी ऐसी मछली का उल्लेख नहीं है। मेरी नाव छोटी पड़ गयी। मछली को खींच कर लाना घाट तक मुश्किल खड़ा हो गया।’
दूसरे ने कहाः ‘मछली तो आज मैंने भी गजब की पकड़ी। हालांकि बड़ी तो नहीं थी इतनी, थी तो छोटी, लेकिन जब मैंने उसे काटा तो क्या देखा कि उसके भीतर एक लालटेन मिली। और लालटेन पर लिखा था कि नेपोलियन की लालटेन! और इतना ही नहीं, लालटेन अभी भी जल रही थी!’
दूसरे ने कहा कि देखो भैया, तुम अगर लालटेन बुझा दो तो मैं अपनी मछली की साइज तुम जितनी छोटी कहो उतनी कर सकता हूं। मगर लालटेन बुझा दो, देखो लालटेन बुझा दो! यह काफी है कि नेपोलियन के जमाने की लालटेन थी, मगर कम से कम लालटेन बुझा दो।
जब गपशप ही मार रह हो, तो फिर क्या! और यह तो होने वाना है। यहां कम से कम पचास भाशाओं को जानने वाले लोग हैं। नये कम्यून में इस तरह का इंतजाम कर देंगे। कुछ सत्संग के स्थल बना देंगे, जहां अपनी-अपनी भाशा में छेड़ो। कोई किसी के सुनने की जरूरत नहीं-सत्संग में कोई किसी की सुनता है! अपनी-अपनी छेड़ो। कोई गुजराती बोल रहा है, कोई पंजाबी बोल रहा है, कोई बंगाली बोल रहा है, कोई मद्रासी बोल रहा है, कोई मराठी बोल रहा है। कोई चीनी, कोई जापानी, कोई जर्मन, कोई फ्रेंच, कोई इटेलियन, जो जिसके दिल में आए। पचास भाशाएं तो कम से कम बोलने वाले लोग अभी हैं। कम्यून बनते-बनते कम से कम सौ भाशांए बोलने वाले लोग तो हमारे पास होंगे ही। मजा आ जाएगा! ऐसा सत्संग कभी संसार में हुआ ही नहीं होगा। जो भी एक दफा उस सत्संग में पहुंच जाएगा, बेहोश ही होकर लौटेगा। होश-हवास खो देगा। अगर जिंदा लौट आए तो बहुत। बेहोश हो जाए, वह तो ठीक; मगर जिंदा लौट आए, वह भी बहुत।
अब यह रंजन को देखो, इसको गुजराती में प्रश्न पूछने का सूझा है। मगर प्यारा प्रश्न पूछा है। इसको जवाब पंजाबी में चाहिए। संत महाराज, मुझ पर कृपा करो और इसको जवाब दो।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
आप सांत्वना का विरोध करते हैं तो क्या पुनर्जन्म भी एक प्रकार की सांत्वना ही नहीं है? जो कुछ है बस यही जन्म है, इसके बाद कुछ भीनहीं है-इस विचार से यह विचार कि आत्मा अमर है, शरीर ही नश्ट होता है, हम नया जन्म लेंगे, इस दुनिया में हमें वापिस आना है--ऐसा सोचने से कुछ राहत और तसल्ली महसूस होती है।
प्रेम वीतराग!
अज्ञान में तो तुम जो भी मानो, सभी सांत्वना है। परमात्मा भी सांत्वना है, मोक्ष भी सांत्वना है, आत्मा की अमरता भी सात्वंना है, पुनर्जन्म भी सांत्वना है। अज्ञान में तो तुम मानते ही इसलिए हो कि तुम्हारे भीतर भय है, घबड़ाहट है, चिंता है। उस चिंता को कैसे छिपाओ? उस भय को कैसे दबाओ? उस घबड़ाहट को कैसे मिटाओ? ये सब अच्छे-अच्छे शब्द, ये प्यारी-प्यारी धारणाएं तुम्हें सहारा देती हैं।ये विश्वास कम से कम चलने योग्य तुम्हें बल दे देते हैं। कम से कम जिंदगी में घसिट तो लेते हो! नृत्य तो इनसे पैदा नहीं हो सकता, क्योंकि तुम लाख विश्वास करो, भीतर तो तुम जानते ही हो कि मुझे पता नहंीं है।
तो सांत्वना ऊपर ही ऊपर रहेगी, लिपी पुती रहेगी। जैसे कब्रों को कोई खूब खूबसूरती से लीप दे पोत दे, मगर है तो कब्र ही, भीतर तो सड़ी लाश है। जीसस ने बहुत बार कहा है कि तुम्हारी मान्यताएं कब्रों की तरह हैं, जिन पर सफेद चुना पोत दिया गया है, जो देखने में दूर से चमकती हैं, चांदनी रात में उनकी चमक देखते बनती है! मगर भीतर क्या है? अस्थि-पंजर हैं और कुछ भी नहीं!
यही बात नहीं है सांत्वना-पुनर्जन्म; तुम जो भी मानते हो अज्ञान में, सभी सांत्वना है। क्योंकि तुम अशांत हो और अशांत को कुछ न कुछ सहार चाहिए। कहते हैं, डूबते को तिनके का सहारा। अब तिनके से कोई बचता नहीं है। सब जानते हैं तिनके से कोई नहीं बच सकता। लेकिन डूबते को तिनके का सहारा। तिनका भी मिल जाए तो वह सोचता है शायद बच जाऊं। ‘शायद’ भी मन को राहत देता है।
मौत घबड़ाती है सभी को, इसलिए तो दुनिया में इतने लोग आत्मा की अमरता कोमानते हैं। इससे तुम मत समझ लेना कि इतने धार्मिक लोग हैं दुनिया में। इतने धार्मिक लोग होते दुनिया में तो यह पृथ्वी स्वर्ग हो गयी होती। और यह भी तुमने गौर किया कि जितने कायर लोग होते हैं वे सभी आत्मा की अमरता में मानते हैं! इस देश से कायर तुम देश खोज सकोगे कहीं? हजारों साल तक गुलाम रहा यह देश और आत्मा की अमरता में मानता है। आत्मा की अमरता में मानने वाले लोंगो को कोई गुलाम बना सकता है? क्या मिटा लोगे जिसकी आत्मा अमर है उसका तुम? शरीर छीन लो तो छीन लो, मगर वह अपनी स्वतंत्रता तो नहीं दे देगा। लेकिन हजारों वर्ष तक यह मुल्क गुलाम बना रहा। और कोई भी छोटी-मोटी कौमें आईं और इसको गुलाम बना लिया। तुर्क आए, मुगल आए, हूण आए, अंग्रेज आए, पुर्तगाली आए-जो आया। जो नहीं आए, उनकी गलती। आते तो वे भी हमको गुलाम बनाते। जिसने भी आने की मेहनत उठायी, हम उसी के गुलाम बनने को तैयार थे। और आत्मा की अमरता को मानने वाले ये धार्मिक लोग, जो कहते हैं आत्मा मरती ही नहीं, कभी नहीं मरती! अरे यह देह ही नश्वर है, आत्मा तो अविनश्वर! यह देह तो मिट्टी है, आत्मा जो चैतन्य है! आत्मा तो परमात्मस्वरूप है! देह तो आज है, कल नहीं है: मिट्टी का घड़ा है, टूट ही जाएगा। और भीतर जो आकाश है इसके, वह तो कभी फूटने वाला नहीं ऐसे बड़े-बड़े ज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी-इनको गुलाम बनाया जा सका?
मैं इसमें कारण देखता हूं। यह कायरों की कौम हो गई। यह कमजोरों की कौम हो गई। तुम्हारी आत्मा का भरोसा तुम्हारे आध्यात्मिक अनुभव पर आधारित नहीं है, तुम्हारे भय पर आधारित है। तुम डरे हुए लोग हो। तुम घबड़ाए हुए लोग हो। तुम भयभीत हो। तुम मानना चाहते हो कि आत्मा अमर है--दो कारणों से। एक तो मौत तुम्हें खूब घबड़ा रही है। इतना दुनिया में कोई मौत से नहीं घबड़ाया हुआ। लोग कहते हैं: जब आएगी तब देख लेंगे। उनमें कम से कम तुमसे ज्यादा जान है। कहते हैं कि जब आएगी तब देख लेंगे। अभी तो आयी नहीं। उनको तुम कहते हो-नास्तिक, भौतिकवादी, पदार्थवादी। तुमने न मालूम कौन कौन से निंदा के शब्द खोज रखे हैं! सच बात इतनी है कि तुम कायर हो और वे कायर नहीं हैं। मगर अपनी कायरता को तुम बड़े अच्छे शब्दों में छिपाते हो।
पांच हजार साल में तुमने एक ही तो काम किया है--अच्छे अच्छे शब्दों में अपने को छिपाने की कला तुमने सीखी है। तुम इसमें बड़े निश्णात हो गये हो। तुम महात्मा हो गये हो। इस कार्य में तुमने बड़ी सिद्धि पा ली है। इसमें एक ही तो सिद्धि है तुम्हारी! सारी दुनिया पापी है, एक तुम्हीं महात्मा हो! और कारण? कारण, क्योंकि तुम आत्मा की अमरता मानते हो। तुम परमात्मा को मानते हो। ये लोग परमात्मा को नहीं मानते। अरे ये सब भौतिकवादी हैं!
मगर तुम गौर से देखो, उन भौतिकवादियों ने जिंदगी को सुंदर बनाने के लिए सब कुछ किया। तुमने क्या किया? तुम्हारे पास आज जो भी कुछ है, वह भी उनके कारण है। अगर तुम्हारे पास रास्ते हैं, तो उनके कारण। तुम्हारे पास रेलगाड़ी है तो उनके कारण। अगर हवाई जहाज है तो उनके कारण। अगर कारखाने हैं तो उनके कारण। अगर मशीनें हैं तो उनके कारण। जो कुछ तुम्हारे पास है, भौतिकवादियों के कारण है। और तुम्हारे पास अपने कारण क्या है? बस यही थोथे शब्द हैं तुम्हारे पास।
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ये बातें गलत हैं। यह खयाल रखनां मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा अमर नहीं है, यह ध्यान रखना। आत्मा निश्चित अमर है, लेकिन तुम्हारी मान्यता झूठी है। मान्यताएं झूठी होती हैं, अनुभव सच्चे होते हैं। बुद्ध जब कहें तो समझना कि सच बात है। महावीर जब कहें तो समझना कि सच बात हैं। महावीर जब कहें तो समझना कि सच बात हैं। नानक जब कहें तो समझना सच बात हैं। कबीर जब कहें तो समझना कि सच बात है। लेकिन तुम्हारी बातों में क्या रखा है!
मेरे गांव में एक कबीरपंथी महंत थे। कबीरपंथियों का एक अड्डा था उनका--एक बड़ा पुराना अड्डा। स्वामी साहबदास उनके महंत थे। मैंने दुनिया में बहुत तरह के बोलने वाले लोग देखे, मगर उन जैसा बोर करने वाला नहीं कोई देखा। वे अद्वितीय थे! उस कला में वे ऐसे पारंगत थे किसी का भी सिर खा जाएं। जिसके पीछे पड़ जाएं, उसको मानना ही पड़े, स्वीकार ही करना पड़े--सिर्फ इस वजह से कि उनसे छुटकारा पाने का और कोई उपाय नहीं।
मेरे पिता से उनकी दोस्ती थी, सो अक्सर मेरे घर आते थे वे। और वे हमेशा आत्मा अमर...और मैं भूत प्रेत से नहीं डरता! मैं सुन-सुन कर थक गया उनकी यह बकवास कि भूत प्रेत से नहीं डरता, और भूत प्रेत कुछ भी नहीं, और आत्मा अमर है और मैं क्यों भूत-प्रेत से डरूं!
मेरे मकान के पीछे आंगन में एक नीम का वृक्ष था और पास से एक गली गुजरती थी, जिससे वे गुजरते थे। एक रात मैंने कहा कि अब इनका सिद्धांत देख ही लेना चाहिए। सो मैं नीम पर चढ़ कर बैठ गया। एक खाली पीपा ले लिया। और जब वे नीचे आए तो जोर जोर से कुछ जंतर-मंतर पढ़ रहे थे। वह गली सन्नाटे से भरी थी, अंधेरे में थी। तब वहां बिजली भी नहीं थी और उस गली में कोई लालटेन भी नहीं लगी थी म्यूनिसिपल की तरफ से। वहां से जो भी निकलता था, अक्सर धार्मिक हो जाता था। कोई रामराम कहता हुआ निकलता, कोई जय बंसीवाले बाबा की, कोई कुछ कोई कुछ! वहां घबड़ाहट लगती थी। और उस नीम की बड़ी ख्याति थी कि उस नीम में भूत-प्रेत हैं।
मैं उसके ऊपर बैठ गया। वे लालटेन लिए चले आ रहे थे। मैंने पहले तो वह डब्बा बजाया। जैसे ही मैंने डब्बा बजाया, वे एकदम चैंक कर खड़े हो गये। अब जाना तो उनको था ही। कब तक खड़े रहते! जोर जोर से मंतर पढ़ा, कुछ जादू-मंतर मेरी तरफ फेंका। उनने देखा। अंधेरे में कुछ दिखायी तो पड़े नहीं। जैसे ही वे कदम बढ़ाएं, मैं डब्बा बजा दूं। फिर तो वे चिल्ला कर बोले: ‘तू कौन है, भूत है प्रेत है, कौन है?’ मैं कुछ बोलू न, बस डब्बा बजा दूं, जब वे पूछें डब्बा बजा दूं। उनकी हिम्मत टूटती गयी। मगर उनको निकलना तो था ही, आखिर अपने आश्रम पहुंचना है। और बिना वहां से निकले वे पहुंच सकते नहीं थे। और कोई रास्ता नहीं। सो उन्होंने हिम्मत करके दौड़ने की कोशिश की। जब वे दौड़े, मैंने डब्बा गिरा दिया। डब्बे का गिरना था कि उनके हाथ से लालटेन छूट गयी। लालटेन गिरी वे गिरे, मैं ऊपर से उनके ऊपर कूद पड़ा। फिर तो क्या चीख-पुकार उन्होंने मचायी कि अरे बचाओ, अरे मारा गया! शोरगुल में मैं उनकी लालटेन और डब्बा ले भागा। और लोग आ गये, उनको उठाया कि क्या हुआ साहबदास जी?
उन्होंने कहाः ‘कुछ हुआ नहीं। कुछ पता नहीं, पैर फिसल गया क्या हुआ।’ उन्होंने बातें बनायीं। फिर वे मेरे पिता के पीछे पड़े रहते कि यह नीम का झाड़ कटवा दो। जब भी वे भूत-प्रेत की बात करते या आत्मा की अमरता की कि मैं किसी से नहीं ड़रता, तो मैं कहता लालटेन, डंडा! वे एकदम चुप हो जाते। मेरी तरफ घूर-घूर कर देखते। इसको लालटेन और डंडे का कैसे पता हैं। और उनका चुप हो जाना...और मेरे पिता भी सोचते कि बात क्या है, जब भी यह लालटेन और डंडा कहता है तब स्वामीजी एकदम चुप हो जाते हैं।
आखिर एक दिन साहबदास जी से नहीं रहा गया। कहा: ‘क्या लालटेन, क्या डंडा? क्या बार-बार लालटेन और डण्डा लगा रखा है? जब भी मैं ब्रम्हज्ञान की बात करता हूं, तुम लालटेन और डंडा!’
मैनें कहाः ‘जाऊं?’ सो मैं तो रखे ही हुआ था वह। मैं उनकी लालटेन ले आया, टूटी-फूटी वह लालटेन उनकी दुनिया जानती थी। और डण्डा ले आया। मैंने कहा: ‘ये कहां से आए? और झाड़ पर कौन डब्बा बजा रहा था? वह मैं ही हूं! और अब तुम इस घर में भूल कर भी ‘भूत-प्रेत से नहीं डरता हूं’, यह बात नहीं करना। यह बकवास बंद करो। और नीम नहीं कटेगी, क्योंकि उस नीम से मुझे और लोंगो को भी रास्ते पर लगाना है।’
मगर मेरे पिता ने वह नीम कटवा दी। उन्होंने देखा कि यह और न मालूम किस-किसको डरवाए, किसको गिरवा दे, किसी का हाथ-पैर टूट जाए, कुछ हो जाए। उस नीम को काटने वाला न मिले। कौन काटे, क्योंकि उसकी तो बड़ी अफवाह उड़ चुकी थी। और जब से साहबदास जी गिरे थे...। आखिर वे मुझसे बोले...मेरे पिता मुझसे बोले कि तू ही किसी को ढूंढ़ कर ला, यह नीम को कटवाना है। मगर कोई काटने को राजी नहीं।
मैंने कहा: ‘कोई काट भी नहीं सकता मेरे बिना उसको। जो भी काटेगा उसको मैं सताऊंगा।’
मगर साहबदास का अध्यात्म-ज्ञान उस दिन से बंद हो गया। वह उन्होंने मेरे घर ही आना बंद कर दिया। जब तक मैं अपने गांव रहा, वे नहीं आते-जाते थे। जब मैं चला गया विश्वविद्यालय तब उनका फिर अध्यात्म ज्ञान शुरू हो गया। जब भी छुट्टियों में मैं आता, मैं उनसे मिलने जाता कि कहिए साहबदास जी, कैसा चल रहा है? कहते: ‘सब ठीक चल रहा है!’
मैंने कहाः ‘है कोई नीम को काटने वाला? कोई काटने वाला मिल नहीं सकता! कहां गयी तुम्हारी आत्मा की अमरता और ब्रह्मज्ञान और कबीरदास की साखियां? सब पर पानी फिर गया! इस जरा से डब्बे ने! खाली डब्बा था। मगर सब चैपट हो गये एकदम तुम!’
ये जो भयभीत लोग हैं, कायर लोग हैं, यह बातें बड़ी ऊंची करते रहते हैं। इनकी ऊंची बातें इनके भीतर कुछ छिपाने का आयोजन है।
तुम्हारे महात्मागण संसार की निंदा करते हैं-सिर्फ इसलिए कि संसार का आकर्शण मन में है। संसार को गालियां देते हैं, स्त्रियों को गालियों देते हैं--सिर्फ इसलिए कि स्त्रियों का आकर्शण मन में है। वही उनको सता रही हैं।
तुम पूछते हो प्रेम वीतराग: ‘आप सांत्वना का विरोध करते हैं।’ निश्चित विरोध करता हूं! ‘तो क्या पुनर्जन्म भी एक प्रकार की सांत्वना ही नहीं है?’ तुम्हारे लिए यह सांत्वना है, मेरे लिए नहीं। इस भेद को तुम ख्याल में ले लो। मेरे लिए पुनर्जन्म एक अनुभव है, एक सत्य है। और मैं चाहूंगा कि तुम्हारे लिए भी अनुभव बनना चाहिए, सत्य बनना चाहिए। तुम्हारे लिए तो आत्मा भी सिर्फ एक बकवास है। तुम्हें पता ही नहीं कुछ। कभी भीतर गये नहीं, कभी अपने से पहचान नहीं हुई, कभी अपने को जाना नहीं। तुम क्या आत्मा की बातें करोगे! गीता पढ़ ली तो तुम समझे कि आत्मा का अनुभव हो गया? उपनिशद में कहा हुआ है अहं ब्रम्हास्मि, सो तुम भी दोहराने लगे रोज रोज अहं ब्रम्हास्मि! सो दोहराते दोहराते यह भ्रांति तुमको होने लगी कि मैं भी ब्रम्ह हूं।
यह सब भ्रम है, ब्रह्म वगैरह कुछ भी नहीं। अहं ब्रह्मास्मि! तुमको पता नहीं है अभी।
और लोगों को सांत्वना की जरूरत है, सत्य की जरूरत नहीं। क्योंकि सत्य को पाने के लिए श्रम करना पड़ता है, सांत्वना मुफ्त मिल जाती है।
किसी के घर कोई मर जाता है, तब तुम देखो वहां क्या ज्ञान-चर्चा छिड़ती है! मरघट पर कभी गये? लोग मरघट पर ले जाते हैं किसी को, वहां देखो क्या ब्रह्मचर्चा छिड़ती है! गांव भर के बदमाश, लुच्चे-लफंगे सब ब्रह्मचर्चा करते हैं वहां, कि आत्मा अमर है, अरे बेचारा मुक्त हो गया संसार से, जाल-जंजाल से, भवसागर से! अच्छा ही हुआ मुक्त हो गया। संसार में रखा ही क्या है! किसने क्या पा लिया है! यह तो दुख की गांठ है, कट गयी।
मैं भी जाता था मरघट। मुझे मरघट जाने का बचपन से शौक रहा-कोई भी मरे, जिंदगी में मेरी उससे कोई पहचान भी न रही हो, न दोस्ती न दुश्मनी।
दुनिया में तीन ही तरह के तो लोग होते हैं। एक तो दोस्त, जो कभी भी दुश्मन हो सकते हैं और अक्सर दुश्मन हो जाते हैं। और दूसरे संबंधी, जो कि जन्मजात दुश्मन होते हैं; उनको तो दुश्मन होना पड़ता नहीं कभी। बस ये तीन ही तरह के तो लोग होते हैं। सच पूछो तो दो ही तरह के लोग: एक दुश्मन, जो किसी कारण से दुश्मन; और एक अकारण दुश्मन, संबंधी। और तीसरे दोस्त, जो दुश्मनी की तैयारी कर रहे हैं। मैं इसकी फिकीर ही नहीं करता था-कौन मरा। जो भी मरे, मुझे तो मरघट जाना हैं, क्योंकि मुझे इसमें ज्यादा रस था कि लोग वहां क्या बातें कर रहे हैं! बड़ी मजे की बात, वहां लोग एकदम ज्ञान की बातें छेंड़े! पीठ किए बैठे हैं, लाश जल रही है और वे ज्ञान की बातें कर रहे हैं। वे अपने को भी समझा रहे हैं, जो मर गया उसके घर वालों को भी समझा रहे हैं। और यही काम जब उनके घर कोई मर जाता है तो दूसरे करते हैं। यह काम सभी को करना पड़ता है। एक दूसरे को राहत दिलाना, यही तो समाज का काम है, यही तो कृत्य है।
युद्ध में एक व्यक्ति मारा गया। युवा था अभी। उसके पिता बहुत दुखी थे। मुल्ला नसरुद्दीन, जिनका काम ही सबके साथ सहानुभूति प्रगट करना है, उनके घर गये। मातम छाया हुआ था सारे घर में। मां रो रही थी, पिता रो रहा था। उस युवक मृतक की पत्नी रो रही थी, बच्चे रो रहे थे। एक ही बेटा था-घर का दीया बुझ गया था! हाथ की बुढ़ापे की लकड़ी छूट गयी थी।
नसरुद्दीन को तो कुछ सहानुभूति प्रकट करनी थी, कुछ सूत्र तो होना चाहिए सहानुभूति प्रकट करने का--सो नसरुद्दीन ने पूछा पिता से: ‘अरे भई, गोली कहां लगी थी?’
रोते हुए बाप ने कहा: ‘ठीक बायीं आंख के नीचे।’
नसरुद्दीन ने बड़ी सहानुभूति से कहा: ‘चलो गनीमत रही, कम से कम आंख तो बच गयी! ईश्वर की बड़ी कृपा थी आपके बेटे पर, आंख के नीचे गोली लगी। आंख में ही लग जाती तो?’
अब बेटा मर ही गया, अब कहां गोली लगी, इससे क्या लेना-देना? मगर कुछ सहानुभूति में तो कहना चाहिए, कहीं से सूत्र तो मिलना चाहिए। ‘आत्मा अमर है! ईश्वर का प्यारा हो गया तुम्हारा बेटा!’ जैसे अब तक प्यारा नहीं था, अभी-अभी प्यारा हो गया, अचानक प्यारा हो गया! और औरों के बेटे क्यों प्यारें नहीं हो रहे, इन्हीं का बेटा क्यों प्यारा हो गया?’
कम उम्र में कोई मर जाए तो लोग कहते हैं कि ईश्वर उनको जल्दी उठा लेता है जिनको प्यार करता है। तो उनको पैदा ही काहे को करता है? तो जिनको बहुत प्यार करता है उनको पैदा ही नहीं करता होगा, या पैदा करते ही उठा लेता होगा। और जिनको सत्तर-सत्तर अस्सी-अस्सी साल, नब्बे-नब्बे साल जिलाता है, उनसे क्या दुश्मनी है कि मरो जीओ, कि नहीं उठाते सड़ो! जो पक्की उम्र में मरते हैं, सौ साल के होकर, तो कहते हैं कि अहा, क्या ईश्वर का धन्यवाद था, पूरी उम्र पाकर मरा! अरे कोई कच्ची उम्र में मरा?
कोई भी बहाना चाहिए सांत्वना के लिए। लेकिन इन सारी बातों से जीवन में कोई रूपांतरण तो नहीं होते। हां, लीपी-पोती हो जाती है। ऊपर-ऊपर रंग-रोगन हो जाता है। और हमारा सारा धर्म, जिसका हम बहुत शोरगुल मचाए रखते हैं, और क्या है? हमारा सारा धर्म इसी तरह का है।
मेरी चेश्टा यहां है कि तुम्हें विश्वास न दूं, तुम्हें अनुभव दूं। इसलिए मैं नहीं कहता कि मैं जो कह रहा हूं उस पर विश्वास करो। मैं कहता हूं: ‘मैं जो कह रहा हूं, उसका अनुभव हो, फिर विश्वास की जरूरत ही नहीं होती। अनुभव काफी है। विश्वास की जरूरत तो उन्हीं को होती है, जिनको अनुभव नहीं। और जिनको विश्वास है उनको अनुभव नहीं। और जिनको अनुभव है उनको क्या करना विश्वास का? विश्वास तो थोथा ही होता है। ज्ञानी को विश्वास नहीं होता। ज्ञानी जानता है।
तुमसे कोई यह तो नहीं पूछता कि सूरज पर विश्वास है या नहीं? कोई नहीं पूछता। कोई झगड़ा भी खड़ा नहीं करता। कोई यह भी नहीं कहता कि ‘मुझे विश्वास नहीं है सूरज पर, कि हम तो नास्तिक हैं! कहां है सूरज, हम नहीं मानते।’ सब मानते हैं, क्योंकि सबको दिखाई पड़ रहा है। जिस दिन परमात्मा भी तुम्हें इस तरह अनुभव हो, उस दिन विश्वास का सवाल नहीं उठता। तब तक तो सभी सांत्वनाएं हैं।
और सांत्वना से सावधान रहना। यह जहर है सांत्वना। यह नींद की दवा है, जिसको लेकर पड़ रहो, राहत मिली जाती है, मगर क्रांति नहीं होती। और क्रांति चाहिए, राहत नहीं। राहत तो बहुत हो चुकीं कितने जन्मों से तो राहत ही राहत में जी रहे हो! यह जन्म भी यूं ही गवां दोगे।
एक कण भी अपने अनुभव का काफी है; पूरे हिमालय जैसे पहाड़ का विश्वास भी एक कण अनुभव से छोटा है। एक बूंद अनुभव काफी है। पुरे सागर के विश्वास से ज्यादा बड़ा है एक बूंद अनुभव, क्योंकि एक बूंद अनुभव भी मुक्तिदायी है। तुम्हारा सत्य ही तुम्हें मुक्त करेगा; किसी दूसरे को सत्य तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता है।
चैथा प्रश्न: ओशो, एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि जैसे आप बैठते हैं ठीक वैसे ही पूरे दो घंटा बैठे रहते हैं। आपके शरीर का कोई अंग हिलता ही नहीं, केवल एक हाथ हिलता है। और हम पांच मिनिट भी शंात नहीं बैठ पाते।
अमृत कृष्ण! वह एक हाथ भी तुम्हारी वजह से हिलाना पड़ता है। तुम्हारी अशांति के कारण। नहीं तो उसको भी हिलाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम अगर शांत बैठ जाओ तो वह हाथ भी न हिले।
तुम्हारा मन अशांत है तो उसकी प्रतिछाया शरीर पर भी पड़ती है। तुम्हारा शरीर तो तुम्हारे मन के अनुकूल होता है; उसकी छाया है।
आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि आप जैसे सोते हैं, जिस करवट सोते हैं, रात भर उसी करवट सोए रहते हैं! आनंद कई रात बैठ कर देखता रहा--यह कैसे होता होगा! स्वाभाविक है उसकी जिज्ञासा। उसने कहा: ‘मैंने हर तरह से आपको जांचा। आप जैसे सोते हैं, पैर जिस पैर पर रख लिया, रात भर रखे रहते हैं। आप सोते हैं कि रात में यह भी हिसाब लगाए रखते हैं कि पांव उसी पर रहे, बदले नहीं। करवट नहीं बदलते!
बुद्ध ने कहाः ‘आनंद, जब मन शांत हो जाए तो शरीर को भी अशांत रहने को कोई कारण नहीं रह जाता।’
मुझे कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है यूं बैठने में। मगर कोई जरूरत नहीं है। लोग बैठे-बैठे करवटें बदलते रहते हैं। लोग कुर्सी पर बैठे रहते हैं और पैर चलाते रहते हैं, पैर हिलाते रहते हैं; जैसे चल रहे हों! जैसे साइकिल चला रहे हों! बैठे कुर्सी पर हैं, मगर उनके प्राण भीतर भागे जा रहे हैं।
मन चंचल है, मन गतिमान है। उसकी छाया शरीर पर भी पड़ेगी। जब मन शांत हो जाएगा तो शरीर भी शांत हो जाएगा। जरूरत होगी तो हिलाओगे, नहीं जरूरत होगी तो क्या हिलाना है? इसमें कुछ रहस्य नहीं है, सीधी सादी बात है यह।
तुम जरूर अशांत होते हो। वह मैं जानता हूं। पांच मिनट भी शांत बैठना मुश्किल है। असल में पांच मिनट भी अगर तुम शांत बैठना चाहो तो हजार बाधाएं आती हैं। कहीं पैर में झुनझुनी चढ़ेगी, कहीं पैर मुर्दा होने लगेगा, कहीं पीठ में चींटियां चढ़ने लगेंगी। और खोजोगे तो कोई चींटी वगैरह नहीं है! बड़ा मजा यह है! कई दफा देख चुके कि चींटी वगैरह कुछ भी नहीं है, मगर कल्पित चींटीयां चढ़ने लगती हैं। न मालूम कहां-कहां के खयाल आएंगे! हजार-हजार तरह की बातें उठेंगी कि यह कर लूं वह कर लूं, इधर देख लूं उधर देख लूं। मन कहेगा: ‘क्या बुद्धू की तरह बैठे हो! अरे उठो, कुछ कर गुजरो! चार दिन की जिंदगी है, ऐसे ही चले जओगे? इतिहास के पृश्ठों पर स्वर्ण-अक्षरों में नाम लिख जाए, ऐसा कुछ कर जाओ। ऐसे बैठे रहे तो चूक जाओगे। दूसरे हाथ मारे ले रहे हैं।’
तुम्हारा मन भागा-भागा है, इसलिए शरीर भागा-भागा है। और लोग क्या करतें हैं? लोग उल्टा करते हैं। लोग शरीर को थिर करने कोशिश करते हैं। इसलिए लोग योगासन सीखते हैं कि शरीर को थिर कर लें, तो मन थिर हो जाएगा। वे उलटी बात करने की कोशिश कर रहे हैं। यह नहीं हो सकता। शरीर को थिर करने से मन थिर नहीं होता। मन थिर हो जाए तो शरीर अपने से थिर हो जाता है।
मैंने कभी कोई योगासन नहीं सीखे। जरूरत ही नहीं है। ध्यान पर्याप्त है। और शरीर को अगर बिठालने की कोशिश में लगे रहे तो सफल हो सकते हो। सरकस में लोग सफल हो जाते हैं, मगर उनको तुम योगी समझते हो? सरकस में लोग शरीर से क्या-क्या नहीं कर गुजरते! सब कुछ करके दिखला देते हैं। लेकिन उससे तुम यह मत समझ लेना कि वे योगी हो गये। उनकी जिंदगी वही है, जो तुम्हारी है। शायद उससे गयी-बीती हो।
तुम अगर आसन भी सीख गये तो कभी कुछ न होगा। लेकिन अगर भीतर मन ठहर गया तो सब अपने से ठहर जाता है।
पांचवा प्रश्न: ओशो, एम. एल. ए. बनने का सबसे सस्ता, सरल और टिकाऊ उपाय क्या है?
भैया मदनमोहन अग्रवाल! बस नाम में जरा सा हेर-फेर कर लो! या तो मदनलाल अग्रवाल, या मोहनलाल अग्रवाल कर लो। और फिर अग्रेंजी में शार्ट फार्म करके लिखो--एम. एल. ए. हो जाएगा। यह उपाय सस्ता भी है और सरल भी है। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए! साथ ही टिकाऊ भी है, क्योंकि चुनाव लड़-लड़ कर जो एम. एल. ए. बनते हैं वे बेचारे तो पंाच साल बाद फिर एम. एल. ए. नहीं रह जाते, या तो भूतपूर्व हो जाता हैं। उससे तो न ही हुए होते तो ही अच्छा था। एम. एल. ए. के भूत कोई एम. पी. के भूत, कोई मिनिस्टर के भूत! इस समय इतने भूत हैं देश में जिसका हिसाब नहीं। भूत-प्रेतों से ही तो देश सताया जा रहा है।
अगर तुमने एक बार नाम बदला तो फिर सदा के लिए एम. एल. ए. हो गये, कोई तुम्हें भूतपूर्व नहीं बना सकता। तुम हमेशा अभूतपूर्व रहोगे! सरल सी तरकीब बता दीः चुनाव लड़ना नहीं, कोई झझंट में पड़ना नहीं; बस नाम बदल लो। और नाम बदलने में क्या लगता है? कोर्ट में चले जाओ। आज ही कर लो, कल पर मत छोड़ना। कल का क्या भरोसा, बचो न बचो, कम से कम एम. एल. ए. हो कर मरो। मर भी जाओगे तो लोग कहेंगे एम. एल. ए. थे, बड़े पहुंचे हुए पुरूश थे!
अब ये मदनमोहन अग्रवाल हैं, अगर यह पंाच मिनिट भी शांत बैठना चाहेंगे तो कैसे बैठेंगे! इनको एम. एल. ए. होना है! इनका चित्त तो दिल्ली की तरफ भागा हुआ है। इनको यहां चैन नहीं पड़ सकती। ये तो दिल्ली जाकर रहेंगे। इनको तो राजधानी चाहिए। ये जहां भी रहेंगे वहीं से इनकी दौड़ जारी रहेगी। बैठेंगे भी तो बैठ नहीं सकते निशिं्चत। निशिं्चत कैसे बैठेंगे--समय गंवा रहे हो! मन कहेगा: ‘इतनी देर में तो दस-पंाच वोटरों से मिल लेते। चुनाव ही लड़ लो।’ और चुनाव लड़ने में करना ही क्या पड़ता है-दांत निपोरना आना चाहिए। बस दांत निपोर कर खड़े हो गये किसी के भी सामने। किसी के भी चरण छुओ, झोली फैलाओ, कि भैया वोट दे देना एक। दे दोगे तो बच जाऊंगा, नहीं दोगे तो मर जाऊंगा। वोट दे देना, नहीं तो अनशन कर दूंगा, सत्याग्रह कर दूंगा, आत्महत्या कर लूंगा! और करना ही क्या पड़ता है? छोटे-मोटे लोंगो से लेकर बड़े-बड़े लोग तक क्या करते हैं?
तुम देखते थे अटलबिहारी वाजपेयी कुछ दिन के लिए विदेश मंत्री हो गये थे, तो भागते फिरते थे एक राजधानी से दूसरी राजधानी। सारी दुनिया में उनका नाम मालूम है क्या हो गया था--दांत निपोर! क्योंकि के दांत निपोरे ही रहते थे। तुमने उनकी तस्वीरें देखीं उस समय की? उनका मुंह देख कर ऐसा लगे कि इस आदमी में जान भी है कि नहीं? इसके प्राण निकल चुके हैं? क्या मामला है?
राजनीतिज्ञ होने के लिए वह कला चाहिए। दो आदमियों को मैं जानता हूं: एक अटलबिहारी वाजपेयी दांत निपोरने में बहुत कुशल थे; एक डाक्टर कर्णसिंह। उनका नाम क्यों डाक्टर कर्णसिंह रखा था, यही समझ में नहीं आता। डाक्टर दांत सिंह रखना चाहिए था। जब तक इंदिरा गंाधी ताकत में थीं, तब तक वे हमेशा दांत निपोरे स्वागत के लिए तैयार रहते थे। इंदिरा ताकत के बाहर गयीं कि वे दांत निपोर कर दूसरों के साथ हो गये। दांत निपोरने वालों का कोई भरोसा भी नहीं। चमचे होते हैं ये।
ध्यान रखना, आजकल चमचों के भी दांत होते हैं! चमचों से जरा सावधान रहना। अगर वे पकड़ लें तो छोड़ते नहंी फिर, दांत वाले चमचे हैं! और ऐसा पकड़ते हैं कि चूस ही लेंगे।
अब तुमको भी यही बेचैनी पड़ी है! कुछ और नहीं करना जिंदगी में? कुछ फिजूल के काम में लगना है? एम. एल. ए. होकर क्या करोगे? जो हो गये हैं वे क्या कर रहे है? नाहक कुटोगे-पिओगे, और क्या होगा? जूते वगैरह फेंकने। पार्लियामेंट में जाकर, कुछ दृश्य उपस्थित करना है? कुछ होश की बातें करो कुछ समझदारी की बातें करो। जीवन का कुछ सदुपयोग कर लो। जीवन में कुछ जानने योग्य है, कुछ पाने योग्य है--वह तुम्हारे भीतर है।
आखिरी प्रश्न: ओशो, मैं तो आपको समझने की कोशिश में थक गया। कुछ समझ में नहीं आता। अब क्या करूं?
रूपचंद! तुमसे कहा किसने कि मुझे समझो? समझने की कोशिश करोगे, थक ही जाओगे। क्योंकि यह काम यहां समझदारों का है ही नहीं। यह काम दीवानों का है, परवानों का है। यह बस्ती मस्तों की है। यहां कोई पंडित बनाने को थोड़े ही मैं बैठा हूं।
और तुम क्या समझोगे अभी? तुम पहले से ही काफी समझे बैठे होओगे। उसी में तालमेल बिठा रहे होओगे। उसी मैं जुगाड़ बिठा रहे होओगे। ऐसा तो आदमी खोजना मुश्किल है जो पहले से समझे न बैठा हो। बस वहीं से अड़चन शुरू हो जाती है। अज्ञानी को समझना कठिन नहीं है, ज्ञानी को समझना मुश्किल हो जाता है।
तुम ज्ञानी मालूम पड़ते हो। तुम छुपे रूस्तम हो--छिपे पंडित!
‘अरे चंदूलाल, करोड़पति सेठ धन्नालाल की मौत पर तुम क्यों आंसू बहा रहे हो?’ ढब्ब ूजी ने पूछा। ‘क्या वे तुम्हारे करीब के रिश्तेदार थे?’
चंदूलाल ने दहाड़ मार कर रोते हुए कहा: ‘नहीं थे, इसीलिए तो रो रहा हूं!’
अपनी-अपनी समझ। तुम अपनी समझ लेकर यहां आओगे तो मैं जो कह रहा हूं, वह नहीं समझ सकते।
एक प्रसिद्ध विदेशी डाक्टर अपने विश्वभ्रमण के दौरान भारत आया। मरीजों का तांता लग गया उसके पास। एक मरीज ने अपनी बीमारी बतलाते हुए कहा कि उसे नींद नहीं आती। विदेशी डाक्टर ने आश्चर्यचकित होकर कहा: ‘नहीं-नहंी, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। तुम्हें जरूर भ्रम हुआ है। तुमने नींद में ही समझा होगा कि तुम्हें नींद नहीं आती, क्योंकि मुझे तो अच्छी तरह से मालूम है कि भारत में लोग सोने के सिवा कुछ भी नहीं करते। कोई दूसरी तकलीफ?’
पहले ही से अगर तय करके आया है आदमी, तो वह यह मानेगा ही नहंी कि यह बीमारी तुम्हे हो सकती हैं। असंभव! तो तुमने नींद में ही सपना देखा होगा कि मुझे नींद नहीं आती।
रूपचंद, अपनी समझ दरवाजे के बाहर छोड़ कर आओ। फिर तुम देखोगे, बातें मेरी बहुत सीधी-साफ हैं। इतनी सीधी-साफ बात कभी कही नहीं गयी है जैसी मैं तुमसे कह रहा हूं। दो टूक है।
नसरुद्दीन तेजी से एक जानवरों को बेचने वाली दुकान में घुसा और दुकानदार से बोला: ‘महोदय मुझे पांच सौ खटमल और करीबन दो हजार मच्छर चाहिए।’
दुकानदार तो चैंका और बोला कि महोदय, मिल तो जाएंगे, मगर आप उनका करेंगे क्या? नसरुद्दीन बोला जनाब दरअसल बात यह है कि मकान मुझे उसी हालत में छोड़ना चाहिए जैसा कि वह किराए पर लेने के वक्त था।
तो वह खटमल और मच्छर और चुहे सब इकट्ठे कर रहा है। दीवालें खोद रहा है, फर्श में गड्ढे बना रहा है, छप्पर तोड़ रहा है। पूर्व-अवस्था में करके जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी गुलजान को किसी कारणवश अदालत जाना पड़ा। मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि क्या आप बताएंगी, आपकी उम्र क्या है?
गुलजान बोली: ‘जी यही बाईस साल, कुछ महिने।’
मजिस्ट्रेट ने शक से पूछा: ‘बाईस साल कुछ महिने! आखिर कितने महिने?’
‘बाईस साल चैरासी महिने।’ गुलजान ने जवाब दिया।’
तुम्हारी धारणाओं का मुझे पता नहीं, कौन सी बातें अड़चन दे रही हैं। लेकिन जरूर कुछ धारणाएं होंगी, अन्यथा मैं कोई कठिन बात कह रहा हूं? सीधी-सीधी बात कह रहा हूं, सरल सी बात कह रहा हूं कि मन को साक्षी-भाव से देखना है, ताकि तुम धीरे-धीरे मन से हट जाओ और साक्षी हो जाओ। मन से हट जाओ और अपनी अवस्था में पहुंच जाओ। अब इससे सरल और क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन का नयी-नयी शादी हुई। सुहागरात की रात गुलजान ने जल्दी से अपने कपड़े उतारे, साज-संवार की, बिस्तर पर लेट गयी। लेकिन नसरुद्दीन खिड़की के पास कुर्सी रख कर बैठा है सो बैठा है। थोड़ी देर गुलजान ने राह देखी।....जीवन भर की प्रतीक्षा, और इसको क्या हुआ है! आखिर उसने कहा कि नसरुद्दीन, बिस्तर पर नहीं आना है? सुहागरात नहीं मनानी है?
नसरुद्दीन ने कहा: ‘वही मना रहा हूं। तू सो जा, बीच में बकवास न कर! मेरी मां ने मुझसे कहा था कि सुहागरात की रात बस एक ही बार आती है, सो खिड़की के पास बैठ कर रात को देख रहा हूं। आत रात सोऊंगा नहीं। यह रात फिर दुबारा नहीं आनी। तू सो जा। तुझसे तो कल मिल लेंगे। मगर यह सुहागरात की रात, यह चांद, ये तारे, ये फिर दुबारा नहीं आने। मेरी मां ने बार बार मुझे जता कर कहा था कि बेटा नसरुद्दीन, सुहागरात एक ही बार आती है। अब तू दखलंदाजी न कर।’
जरूर रूपचंद कुछ अदभुत समझ ले कर तुम यहां आए होओगे। हिंदू की समझ, मुसलमान की समझ, ईसाई की, जैन की, पता नहीं कौन सी समझ! कौन सी किताबें तुम्हारी खोपड़ी में भरी हैं,पता नहीं! कौन-सी दीवालों को पार करके मेरे शब्द तुम्हारे भीतर पहुंच रहे हैं, पता नहीं! मगर दीवारें होगी।
तुम बहरे हो, अन्यथा मैं जो कह रहा हूं इसको समझने के लिए क्या कोई बहुत बड़ी गणित, विज्ञान, कोई बहुत बड़ी कला चाहिए? दो और दो चार होते हैं, ऐसी सीधी बात कह रहा हूं।
रात को होटल का कमरा बहुत ठंडा हो गया था। चंदूलाल एक कम्बल के नीचे ठिठुरा जा रहा था। तो उसने सोचा कि एक कंबल बुलाने के लिए उसने रिसेप्शनिस्ट को फोन किया: ‘सुनिए मिस, मुझे बहुत सर्दी लग रही है। आपकी बड़ी मेहरबानी होगी अगर आप...’
चंदूलाल पूरी बात भी नहीं कह पाया था कि जवाब मिला: ‘अच्छा-अच्छा, मैं अभी दो मिनिट के अंदर आपकी खिदमत में पेश होती हूं। तब तक आप कपड़े वगैरह उतार कर तैयार रहिए।’
तुम अपनी समझ छोड़ो। मेरी बातें तो सीधी-साफ हैं।
तुम पूछते हो: ‘मैं तो आपको समझने की कोशिश करते थक गया।’
अच्छा हुआ थक गये। अगर सच में थक गये हो तो अब छोड़ दो अपनी समझ। अब और न लड़ो। अब गिर जाने दो अपनी समझ को। उसी की वजह से कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
और अब पूछ रहे हो: ‘अब क्या करूं?’
जब समझ में ही नहीं आ रहा है तो क्या करोगे? मैं जो कहूंगा वह भी समझ में नहीं आएगा। मैं जो करने को कहूंगा वह भी समझ में नही आएगा। कुछ का कुछ समझ लोगे। पहले अपनी समझ गिरा दो।
यहां तो यूं आओ जैसे निर्दोश बच्चे हो। यहां तो यूं बैठो जैसे कुछ मालूम नहीं! और फिर देखो बातें कैसी सीधी उतर जाती हैं और कैसे हृदय तक चली जाती हैं! फिर देखो, जैसा प्रज्ञा को हुआ है वैसा ही तुम्हें भी हो सकता है--
दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी।
शोर बरपा है खाना-ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी।
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी।
कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी
और यह चोट भी नयी है अभी।
दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी।
आज इतना ही।
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