कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

उड़ियो पंख पसार-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन--(सत्य का निमंत्रण)

दिनांक 19-05-1980 ओशो आश्रम पूना।
01-आपने कहीं कहा कि मैं मूर्तिभंजक हूं, भ्रमभंजक हूं। मुझे लगता है कि उससे बढ़कर आप महान धारणाभंजक हैं। क्या इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे?
02-इस मधुषाला से हम जितना पीते हैं उतना ही कम क्यों लगता है? मुझे ऐसा लगता है कि मैं चूकती जाती हूं। इतना आप पिलाते हैं, मैं नहीं पीती हूं। मेरे वष में नही है। क्या यह एक षिकायत की आदत तो नहीं है, कि सच में ऐसा है कि मैं साहस नहीं कर पाती?

03-निरंकारी बाबा गुरुवचन सिंह की हत्या किसी धर्मान्ध ने कर दी। बाबा ने किसी धर्म की निंदा नहीं कीं। उनका दोश केवल इतना था कि वे गुरु-ग्रंथ साहिब को अंतिम गुरुवाणी नहीं मानते थे। वे अन्य धर्म की पुस्तकों को भी मान देते थे। हमें डर है कि इस तरह सत्य के किसी पुजारी को सत्य बात नहीं कहने दी जाएगी। कृपा कर समझांए कि सत्य का गला घोंटने वालों से कैसे मुक्ति मिले?
04-क्या हम आपकी बातों को कभी भी नहीं समझेंगे या कि वह सौभाग्य का दिन भी कभी आएगा?
05-कुछ दिन पूर्व आपने कहा कि रूस में आपके संन्यासी बिना माला एंव कपड़े के रहते हैं। अभी इंदौर के एक षिबिर में मा आनंद मृदुला ने कहा था कि जो लोग माला एंव कपड़े नहीं पहनते हैं उन्हें उस तल के नुकसान हो सकते हैं जिन्हें वे जान भी नहीं सकते। क्या किसी बुद्धपुरूश की करूणा फिर से का्रेध की खाइयों में उतर सकती है? इसी भय से मैंने संन्यास वापस कर दिया है क्योंकि मैं न तो भीतर से संन्यासी था और न ही दो वर्श से माला कपड़े पहनता था। भगवान, मेरी उपरोक्त मनःस्थिती पर प्रकाष डालने की अनुकम्पा करें!


06-मैं उन्नीस सौ चैसठ से आपका प्रेमी हूं। आश्रम में चार बार आ चुका हूं और आपकी साठ पुस्तकें पढ़ चुका हूं। आप मुझे पूर्णतः सही लगते हैं परंतु आज तक संन्यास के लिए हृदय में भाव नहीं उठा। मेरी श्रद्धा और निष्ठा पर संदेह न करें और बताएं कि क्या मेरे लिए इस जीवन में कोई संभावना है?

पहला प्रश्न: ओशो, आपने कहीं कहा कि मैं मूर्तिभंजक हूं, भ्रमभंजक हूं। मुझे लगता है कि उससे बढ़ कर आप महान धारणाभंजक हैं। क्या इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे।

सहजानंद! मूर्तियां हों या भ्रम हों या धारणाएं हों, सब मन के अलग-अलग पहलू हैं। इन्हीं ईटों से मन का कारागृह निर्मित होता है। और एक-एक ईंट खिसकानी होगी, तो ही तुम अ-मनी दषा में प्रवेष कर सकते हो। तुम जो भी मानते हो, जो भी पूजते हो, उस सबको तुमसे छीन लेना होगा। कठोर लगता है यह। चोट पड़ती है इससे। घाव हो जाते हैं। जो कायर हैं वे तो भाग ही जाते हैं। जो साहसी हैं, वे ही मेरे पास टिक सकते हैं।
और यह सवाल नहीं है कि तुम्हारी धारणा सही है या गलत। कोई धारणा सही नहीं होती। धारणा अर्थात गलत। धारणा का अर्थ होता है: जो नहीं जाना है, उसे मान लिया। जिसका नहीं अनुभव किया है, जिसका नहीं साक्षात्कार हुआ है, जिसकी प्रतीति नहीं हुई है, उसे अंगीकार कर लिया है--किसी भय के कारण, किसी लोभ
के कारण, संस्कारों के कारण, समाज के कारण, सुविधा के कारण, सांत्वना के कारण। बचपन से सिखाया गया, इसलिए। बार-बार दोहराया गया, इसलिए। सदियों का प्रचार है, इसलिए। फिर इन्हीं धारणाओं को तुम सोचते हो तुम्हारी है और तुम इनके साथ इतने रग-रग जाते हो कि इनका टूटना ऐसा लगता है जैसे तुम टूटे। घबड़ाहट होती है, बेचैनी होती है। जैसे कोई पैर के नीचे से जमीन खींच ले।
मगर सदगुरू का काम ही यही है कि तुम्हारे सारे आधार छीन ले। क्यों? क्योंकि तुम निराधार हो जाओ, तो ही तुम्हें परमात्मा का आधार मिलेगा। जब तक तुम्हारे अपने आधार हैं, तब तक परमात्मा का आधार तुम्हें नहीं मिल सकता। तुम निरालंब हो जाओ, तो वह परम अवलंबन मिले। तुम सब सारी धारणाओं से षून्य हो जाओगे, तब तुम उससे पूर्ण हो जाओगे। तुम्हारी षून्यता उसे पाने की पात्रता है। तुम्हारा घड़ा खाली होना चाहिए, तो ही उसका अमृत तुममें भर सके। तुम इतने भरे हो-और कूड़ा-करकट से भरे हो! और यह मत सोचना कि तुम सुंदर षब्दों को सजाए बैठे हो, इसलिए उनको कैसे कूड़ा-करकट कहा जाए? तुमने गीता कंटस्थ कर ली है, कुरान तुम्हें याद है, बाइबिल तुम्हें मालूम है। स्वभावतः तुम सोचते हो और तर्कयुक्त लगती है बात कि गीता के ये सुभाशित वचन, कुरान की ये प्यारी आयतें, बाइबिल के ये अद्भुत बोल, ये कैसे कचरा हो सकते हैं? कृश्ण के मुंह में कचरा नहीं थे। कृश्ण की जबान पर अमृत थे। तुम्हारे हाथ में ही कचरा हो गये, आते ही कचरा हो गये।
सत्य हंस्तांतरित नहीं होता। और यही धारणा कि भा्रंति है। जिसने जाना है वह जब बोलता है तो षब्द ही नहीं बोलता, शब्द के पीछे उसका अर्थ खड़ा होता है। शब्द मे आत्मा होती है। शब्द में प्राण होते हैं। और जब तुम उसी शब्द को दोहराते हो तो वह निश्प्राण होता है, लाष होती है। लाशें सड़ जाती हैं। प्राण हों तो देह सड़ती नहीं। आत्मा भीतर हो तो देह ताजी रहती है, रोज-रोज अपने को ताजा कर लेती है। ऐसे ही षब्द भी सड़ जाते हैं जब उनमें अर्थ की आत्मा नहीं होती। और अर्थ की आत्मा तुम कहां से लाओगे? तुम्हारा अनुभव नहीं है। कृश्ण के ओंठो पर जो षब्द बड़े प्यारे हैं, तुम्हारे ओंठों पर बड़े व्यर्थ हो जाते हैं। षब्द वही, षतप्रतिषत वही; लेकिन तुम वही नहीं हो जो कृष्ण हैं। और यह भ्रांति टूट जाए तो तुम खुद ही सारी धारणाओं को छोड़ दोगे, छूड़ाने की जरूरत न रह जाएगी।
लेकिन तुम अगर एक धारणा छोड़ते भी हो तो तत्क्षण दूसरी पकड़ लेते हो। आस्तिक अगर यह धारणा छोड़ देता है कि ईष्वर है, तो तत्क्षण दूसरी धारणा पकड़ लेता है कि ईष्वर नहीं है। यह भी उतनी ही धारणा है। न तुम्हें पहली का अनुभव था, न तुम्हें दूसरी का अनुभव है। नास्तिक सोचता है कि ‘मैं ठीक, क्योंकि मैंने तो आस्तिक की धारणा छोड़ दी। ईष्वर का मुझे अनुभव नहीं हुआ, कैसे मानूं?’ लेकिन क्या तुम्हें ईष्वर के न होने का अनुभव हुआ है? उसे मान लिया। गीता छोड़ दी, कुरान छोड़ दीया, तो कार्लमाक्र्स की दास कैपिटल मान ली। भेद नहीं कुछ। एक किताब गयी, दूसरी किताब हाथ आ गयी। किताबें बदल लेते हो। हिंदू ईसाई हो जाता है, ईसाई हिंदू हो जाता है, कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम मंदिर जाओ कि मस्जिद, तुम तुम ही हो। तुम मस्जिद को भी गंदा करोगे, तुम मंदिर को गंदा करते रहे। तुम जहां जाओगे वहीं अपनी गंदगी ले जाओगे।
मैं चाहता हूं: तुम धारणा-षून्य हो जाओ। न आस्तिक न नास्तिक। न हिंदू न मुसलमान। तुम यह कहने की हिम्मत जुटा सको कि मुझे पता नहीं हैं, तो मैं क्या कहूं? मै अविष्वासी नहीं हूं, विष्वासी भी नहीं हूं। मुझे पता ही नहीं तो कैसा विष्वास कैसा अविष्वास?
तुम अपने अज्ञान को स्वीकार कर लो तो तुम्हारे जीवन में क्रांति की पहली किरण उतरे। क्योंकि अज्ञान को स्वीकार करने का अर्थ है: अहंकार की मृत्यू। यह अहंकार है जो अज्ञान को स्वीकार नहीं करने देता। इधर से बचते हो, उधर फंसा देता है; उधर से बचते हो, इधर फंसा देता है।
एक दिन मुल्ला नसरूद्दीन बस की लाइन में खड़ा था। उसने अपने पास ही खड़े हुए व्यक्ति को कहा: ‘क्या जमाना आ गया है! अब इस सामने खड़े हुए लड़के को देखो, कैसे कपड़े रखे हैं, बिलकुल लड़कियों जैसा दिखाई पड़ता है।’
‘महाषय, वह मेरी लड़की है।’ उस आदमी ने कहा।
‘ओह माफ करिएगा।’ नसरूद्दीन बोला। ‘मुझे पता नहीं था। मुझे क्या मालुम कि आप ही उसके पिता हैं्’
‘क्या बकते हो!’ वह आदमी बोला। ‘अजी मैं उसका पिता नहीं, मां हूं!’
धारणा भी बदलोगेतो तुम्हीं रहोगे न, कुछ फर्क तो पड़ेगा नहीं। एक भूल करते थे, दूसरी करोगे। गणित कौन बिठाएगा?
मैंने सुना है, एक गणित के प्रोफेसर बड़े भूलक्कड़ थे। कक्षा में बोर्ड पर सवाल करते-करते वे भूल जाते थे कि कहां से षुरू किया, क्या सवाल था। उत्तर आने के पहले इबारत भूल जाती थी। सो सवाल कुछ होता, उत्तर कुछ आता। लड़के हंसते ताली पीटते। बड़ी भद्द होती। एक दिन बिलकुल तय करके आए कि आज तो कुछ भी हो जाए, ठीक उत्तर लाना है। सो इसके पहले कि सवाल करें, उन्होंने किताब उलट कर पीछे उत्तर देख लिया। उत्तर को ध्यान में रखा, फिर सवाल कर दिया। उत्तर भी ठीक आ गया। लड़कों ने फिर भी ताली पीटी। लड़के फिर भी हंसें आज वे बहुत नाराज हो गये। उन्होंने कहा: ‘चुप रहो बदतमीजो! आज उत्तर बिलकुल ठीक है।’
लड़कों ने कहा: ‘उत्तर तो ठीक है मगर यह दूसरे सवाल का उत्तर है। आपने पीछे किताब उलट कर देखी, वह भी हम देख रहे हैं। मगर आप पांचवां सवाल कर रहे हैं, यह छठवें का उत्तर है।’
इधर से आदमी बचेगा तो उधर उलझ जाएगा। भुलक्कड़ आदमी है। भूलेगा ही।
तुम्हारा मन अषांत है, बेचैन है, चिंताओ से ग्रस्त है। इस मन की क्षमता नहीं है सत्य को जानने की। यह मन षांत हो, चिंताओं से मुक्त हो। यह मन निर्विचार के मौन में उतरे। यह मन मिटे तो फिर तुम जा जानोगे वह धारणा नहीं होगी, वह अनुभव होगा। और उस अनुभव के लिए तुम्हारी सारी धारणाओं को तोड़ना पड़ेगा।
और मुझे कई बार पीड़ा होती है, क्योंकि तुम्हारी मैं उस धारणा को तोड़ रहा होता हूं जिसको मैं जानता हूं कि जो गलत नहीं है। लेकिन मेरा जानना मेरा जानना है। लेकिन तुमसे तो छीननी ही होगी। और तुमसे छीनने को एक ही उपाय है कि तुमसे कहूं कि गलत है, नहीं तो तुम छोड़ोगे नहीं। इस भरोसे से कहे चला जाता हूं कि गलत है, कि जब तुम जानोगे तब तुम समझ लोगे मेरी बात कि क्यों मैंने गलत कहा था, क्यों मैंने तुमसे छीनना चाहा था? अगर मैं कहूं सही है तो तुम तो और जोर से छाती से चिपटा कर बैठ जाओगे। तुमको गलत कहता हूं, तब भी नहीं छोड़ते; अगर सही कह दूं, तब तो तुम छोड़ने वाले नहीं हो। तब तो असंभव हो जाएगा।
कल आनंद मैत्रेय ने प्रष्न पूछा था राम के संबंध में। आज उन्होंने प्रष्न पूछा है कि आपने जो उत्तर दिया, ऐसा कठोर मूल्यांकन तो पंाच हजार वर्शों में किसी ने राम का नहीं किया। और मेरा हिंदू मन तो घबड़ा गया है कि कहीं राम मुझ पर, धनुर्धारी राम मुझ पर नाराज तो नहीं हो जाएंगे?
उनसे मैं निपट लूंगा, तुम फिक्र छोड़ो! धनुर्धारी राम से निपटना है, वह मैं देख लूंगा। मुझे तो कई से निपटना पड़ेगा। इस जमीन से छूटते ही न मालूम कितनों से निपटना पड़ेगा! उसमें धनुर्धारी राम भी सही। मगर तुम चिंता न लो। तुमसे तो मैं सब छीन लूंगा। तुमसे तो छीनता चला जाऊंगा। जितने तुम राजी होते जाओगे उतना ज्यादा छीनता चला जाऊंगा।
संसार छोड़ने को मैं नहीं कहता, मन छोड़ने को कहता हूं। मन कैसे छोड़ोगे तुम? अगर मन की धारणाएं पकड़े रहे तो मन नहीं जाएगा।
सहजानंद, तुमने ठीक कहा कि मैं धारणाभंजक हूं। मूर्ति भी धारणा है। इसलिए मूर्तिभंजक हूं। मूर्ति क्या है? पत्थर में धारणा को आरोपित कर लिया। अभी तुम रास्ते के किनारे एक पत्थर रख कर बैठ जाओ, पोत दो सिन्दूर, चढ़ा दो दो फूल, एक नारियल फोड़ दो। आंख बंद करके माला जपने लगो। तुम चकित होओगे कि जो भी निकलता है वही झुक कर नमस्कार करता है। थोड़ी देर में कोई आएगा, जो फूल चढ़ा जाएगा। थोड़ी देर में आकर कोई चंठोतरी कर जाएगा। थोड़ी देर में कोई आएगा, मनौती कर जाएगा कि अगर मेरा बच्चा हो गया तो हे हनुमानजी, ऐसा-ऐसा करूंगा!
एक सूफी फकीर एक गांव में ठहरा। एक आदमी ने उसकी बड़ी सेवा की। जब फकीर जाने लगा तो अपना गधा, जिस पर बैठ कर वह यात्रा करता था, उस भक्त को दे गया। भक्त ने तो अहोभाव माना। क्योंकि फकीर के पास कुछ और था नहीं, बस यही गधा था जिस पर वह यात्रा करता था। और यह गधा कोई साधारण गधा तो नहीं हो सकता; पहुंचे हुए फकीर का गधा था, पहुंचा हुआ ही गधा होना चाहिए। तो वह गधे का बड़ा सम्मान करता था। फिर गधा मरा; सोचा, अब क्या करना। फकीर का गधा है, पहुंचा हुआ गधा है, सिद्ध गधा है! तो उसने उसकी समाधि बनायी। इधर समाधि बन कर तैयार हुई कि कोई पूजा के फूल चढ़ाने लगा, कोई आ कर ऊदबत्ती लगाने लगा। कोई पैसे चढ़ाने लगा! यह आदमी तो गरीब आदमी था। इसने तो कहा, यह अच्छा धंधा षुरू हुआ! सांझ होते-होते उसे लगा कि यह तो काम बन गया। पांच-सात साल में तो समाधि केे आसपास एक बड़ा मंदिर खड़ा हो गया।
कोई दस साल बाद फकीर पुनः गांव में आया। उसने पूछा कि मेरा एक भक्त यहां हुआ करता था, वह कहां है? लोगों ने कहा: ‘अब वह खुद भी एक पहुंचा हुआ फकीर हो गया है। वह आप जो देखते हैं दूर से संगमरमर का मंदिर, वह उसी फकीर का है। और बड़ा चम्तकारी फकीर है। और न मालूम किस सिद्ध पुरूश की समाधि उसने बनवायी है, राज खोलता नहीं। कोई कुछ पूछता है तो बिलकुल चुप रह जाता है, चुप्पी साध जाता है। हंसता है, मुस्कुराता है, बोलता नहीं। कुछ रहस्य की बात है। मगर चढ़ौतरी बढ़ती जा रही है, दूर-दूर से लोग आने लगे; अब तो हर साल मेला भी भरने लगा है। उर्स मनाया जाता है, कव्वालियां पढ़ी जाती हैं। बड़े कव्वाल आते हैं। षोरगुल मचा रहता है। गांव में रौनक आ गयी, जिन्दगी आ गयी। यह मुर्दा गांव की धूल झड़ गयी। सारे गांव को लाभ हो रहा है।’
फकीर भी पहुंचा। उसने भी देखा कि गजब हो गया। उसने अपने षिश्य को अलग बुलाया, कहा कि भाई मुझे तो कम से कम कम बता, किस सिद्ध पुरूश की समाधि है? उसने कहा: ‘अब आप से क्या छिपाना! वह जो आप सिद्ध गधा दे गये थे, बड़े गजब का गधा था! क्या चीज आपने भेंट दी! वह तो यह कहो कि मैं समझदार था, अगर गधा ही समझता उसको तो चूक जाता। मगर मैंने उसे सिद्ध पुरूश माना। उसका आज यह फल भोग रहा हूं।’
बूढ़ा फकीर हंसने लगा। उसने कहा: ‘वह था सिद्ध पुरूश ही। अरे वही क्या, उसका बाप भी ऐसा ही सिद्ध पुरूश था। आखिर मैं किसकी समाधि पर बैठा हुआ हूं! इसका बाप! यह खानदानी था।
इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम पत्थर को रंग कर रख कर बैठ जाओ। आखिर हैं भी क्या तुम्हारी मूर्तियंा-पत्थर ही हैं! इससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस तरह के भ्रम पाल लेते हो। अब अभी रोज करीब-करीब अफ्रीका से पत्र आने षुरू हो गये हैं। एक नयी मुसीबत षुरू हुई। अफ्रीका से मैं चाहता ही नहीं कि पत्र आएं। मगर अब सारी दुनिया से लोग आएंगे तो अफ्रीका को भी बचाया नहीं जा सकता। अफ्रीका से भी बचा नहीं जा सकता। कोई को जवाब नहीं दिए जाते। अफ्रीका के लिए मैंने मना कर रखा है, जवाब देना ही मत। क्योंकि अफ्रीका से जो पत्र आते हैं, बस उनमें यह होता है कि मेरी पत्नी को भूत लग गया है, प्रेत लग गया है; मेरे बच्चे को कोई चुडै.ल ने फांस लिया है। ताबीज चाहिए, मंत्र चाहिए। आपका किसी तरह से पता लगा है तो आपको पत्र लिखता हूं। बस आप ही एकमात्र आषा हैं अब।
अफ्रीका में अभी भी कोई तीन हजार साल पहले लोग रह रहे हैं। अभी वहां मंत्र-तंत्र, जादू-टोना वही काम है। धर्म का मतलब ही वही है। वहां धर्मगुरू का अर्थ होता हैः मदारी। सत्य साई बाबा जैसे आदमी वहां जाएं तो बहुत भीड़-भड़क्का हो, बहुत लोग इकट्ठे हों, भारी प्रसिद्धि हो। ऐसे भी देखने-दिखाने में वे अफ्रीकन ज्यादा मालूम पड़ते हैं। उनके बाल देखे? बुद्धि भी अफ्रीकन है। खून में जरूर नीग्रो हिस्सा होना चाहिए।
पर इन सारे लोंगो को और इसमें ऐसे लोग नहीं कि गैर पढ़े-लिखे लोग हों-प्रोफेसर, डाॅक्टर, इनके भी पत्र आते हैं तो बस बात यही है कि ताबीज भिजवा दें, कि कंठी भिजवा दें, कि माला भिजवा दें, कि कुछ मंत्र भेज दें, कुछ ऐसा करें कि मेरे घर को भूत प्रेत छोड़ दें। किसी के घर में भूत-प्रेत चढ़े हुए हैं। किसी के घर पर दुष्मन ने जादू कर रखा है, वह जादू कटवाना है। अफ्रीका में धर्म का भी यही अर्थ है। मगर यह भ्रम औरों के टूट गये, लेकिन दूसरे भ्रम पाले हुए हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कैसे भ्रम पाले हुए हो। तुम जब तक जागे नहीं हो, तब तक भ्रम पालोगे ही। तुम जब तक जागे नही ंतब तक सपने देखोगे ही। फिर तुम सपने क्या देखते हो, इसका मुझे विचार नहीं है, इसकी बहुत चिंता मैं नही लेता। मैं तुम्हारे सपने ही तोड़ना चाहता हूं। अ देखो कि ब देखो कि स देखो, सपना सपना है।
सहजानंद, तुम्हारी सारी धारणाओं को छोड़ सको, तो ही मेरे संन्यासी हो, तो ही मेरे करीब आए। जितनी तुम्हारी धारणाएं कम होती जाएंगी उतने ही तुम मेरे निकट होते जाओगे। जिस दिन तुम्हारे और मेरे बीच कोई धारणा खड़ी न रह जाएगी, उस दिन मिलन है।


दूसरा प्रश्न:  भगवान,
इस मधुषाला से हम जितना पीते हैं उतना ही कम क्यों लगता है? मुझे ऐसा लगता है कि मैं चूकती जाती हूं। इतना आप पिलाते हैं, मैं नहीं पीती हूं। मेरे वष में नही है। क्या यह एक षिकायत की आदत तो नहीं है, कि सच में ऐसा है कि मैं साहस नहीं कर पाती?
 धर्म श्रद्धा,
साहस तुझमें पूरा है। साहस की कोई कमी नहीं है। श्रद्धा तेरी अनूठी है। तेरा भाव समग्र है। तू यूं ही किसी औपचारिकता से संन्यासिनी नहीं हो गयी है; हार्दिकता से हुई है। यह समर्पण किसी लोभ में, किसी भय में नहीं हुआ है। यह प्रीति का फूल है।
लेकिन यह जो परमात्मा का रस है, यह रस ही ऐसा है: कितना ही पीओ, फिर भी पीने को षेश रह जाएगा। कितना ही जानो, फिर भी जानने को षेश रह जाएगा। इस मधुरस को पीने से प्यास बुझती नहीं, बढ़ती है। यह तेरा कसूर नहीं। यह तेरी परवषता भी नहीं। यह तो षराब का ही गुण है कि पीने से और प्यास बढ़ेगी, और सघन होगी, और बढ़ती जाएगी। इसका कोई अंत नहीं है। इसलिए तो परमात्मा को अनंत कहते हैं।
तू कहती है: ‘इस मधुषाला से हम जितना पीते हैं उतना ही कम क्यों लगता है?’ जितना-जितना पीएगी उतना-उतना कम लगेगा। क्योंकि जितना जानोगे उतना ही पाओगे कि कितना अनंत जानने को षेश पड़ा है। अज्ञानियों को लगता है: सब जान लिया; ज्ञानियों को लगता है: क्या खाक जाना! अभी तो क ख ग भी नहीं पढ़े। अज्ञानियों को लगता है: उस पार पहुंच गये; ज्ञानियों को लगता है: अभी तो यही पार छूटा है, अभी दूसरा पार तो दिखाई भी नहीं पड़ता। सच पूछो तो दूसरा पार है ही नहीं। इस पार से छूटे कि फिर मझधार ही मझधार है। फिर तुम अनंत में प्रवेष करोगे, जिसका कहीं कोई पारावर नहीं है।
पीओ, जी भर कर पीओ! मगर इस आषा में मत पीना कि तृप्ति हो जाएगी। जिससे तृप्ति हो जाए वह साधारण बात है। जिससे तृप्ति हो ही न और अतृप्ति सघन होती चली जाए, एक दिन तुम प्यास ही प्यास रह जाओ, तो ही जानना कि परमात्मा के द्वार पद दस्तक पड़ी है; तो ही जानना की प्रार्थना उठी है, पूजा का थाल सजा है।
षुभ हो रहा है, श्रद्धा। षिकायत का कोई सवाल नहीं है इसमें। मगर तुझे लगता होगा कि कहीं ऐसा नहीं है कि मेरी षिकायत की आदत हो गयी है, इसलिए यह षिकायत कर रही हूं। नहीं, षिकायत का कोई सवाल नहीं है। जो भी पीएंगे, उन सभी को ऐसा अनुभव होगा। और पहले ऐसा ही लगेगा। यह भी षुभ लक्षण है कि अपनी ही कोई भूल होगी, कि अपने ही साहस की कमी होगी, कि अपनी ही षिकायत की आदत होगी। न साहस की कमी है, न षिकायत की आदत है। यह परमात्मा का लक्षण है कि हम उसे पीएंगे, उतना ही पीने को और-और! एक रहस्य का द्वार खुलेगा, और-और द्वार खुल जाएंगे। अंतहीन रहस्यों की षृंखला है। एक दीया जला कि फिर जलते ही चले जाते हैं दीयों पर दीये! फिर यह पूरी दीवाली है। फिर अंत नहीं आता इस पंक्ति का। फिर ये दीए कहीं समाप्त नहीं होते। असीम है परमात्मा, अनंत है परमात्मा। अगाध है, अपार है, अगम है!

तीसरा प्रष्न: भगवान,

निरंकारी बाबा गुरूबचन सिंह की हत्या किसी धर्मान्ध ने कर दी। बाबा ने किसी धर्म की निंदा नहीं कीं। उनका दोश केवल इतना था कि वे गुरू-ग्रंथ साहिब को अंतिम गुरूवाणी नहीं मानते थे। वे अन्य धर्म की पुस्तकों को भी मान देते थे। हमें डर है कि इस तरह सत्य के किसी पुजारी को सत्य बात नहीं कहने दी जाएगी। कृपा कर समझांए कि सत्य का गला घोंटने वालों से कैसे मुक्ति मिले?
 षांतिस्वरूप भारती,
हत्या तो किसी की भी बुरी है। हत्या ही बुरी बात है। विध्वंस अधर्म है। इसलिए जिसने भी किया हो, वह पागल है।
लेकिन एक और कारण से भी यह हत्या बिलकुल व्यर्थ हुई, कयोंकि निंरकारी बाबा गुरूबचन सिंह में ऐसा कुछ भी नहीं था कि हत्या करने की जरूरत पड़े। ये तीन गोलियां बेकार गयीं। कोई कृश्णमूर्ति की हत्या करे, समझ में आता है। बाबा गुरूबचन सिंह की हत्या करने में कुछ भी सार नहीं है। बिलकुल असार है। बात में कुछ जान ही नहीं थी। अब नाहक उपद्रव खड़ा कर दिया इस आदमी ने उनकी हत्या करके। हत्या करके अब उनको षहीद बना दिया। हत्या करके अब उनको मसीहा बना दिया। ऐसा कुछ भी नहीं था। अच्छे आदमी थे, बुरे आदमी नहीं थे। मगर कोई जीसस को सूली लगाए तो समझ में आता है, कोई सुकरात को जहर पिलाए तो समझ में आता है। निरंकारी बाबा में ऐसा कुछ भी नहीं है कि इनको कोई सूली लगाओ कि जहर पिलाओ। नाहक जहर खराब करना! नाहक सूली को बदनाम करना!
यह आदमी पागल भी था, मूढ़ भी था। और इसी तरह के मूर्खो के कारण दुनिया में न मालूम कितने लोग व्यर्थ ही पुज जाते हैं। अब बाबा गुरूबचन सिंह से छुटकारा मुष्किल है। ऐसे तो अपने-आप मर जाते। सभी को मरना होगा। भूल-भाल जाते लोग उन्हें। लेकिन अब भूलना बहुत मुष्किल हो जाएगा। अब इस पागल आदमी ने सील-मोहर लगा दी।
तुम कह रहे हो कि ‘बाबा ने किसी धर्म की निंदा नहीं की।’ ये राजनैतिक चालबांजिया हैं। ये कोई धार्मिक व्यक्ति के लक्षण नहीं हैं। धार्मिक व्यक्ति तो सत्य कहेगा; निंदा हो किसी की तो निंदा हो, प्रषंसा हो किसी की तो प्रषंसा हो। धार्मिक व्यक्ति तो सत्य कहेगा। ये राजनैतिक व्यक्तियों के हिसाब-किताब हैं। जैसे महात्मा गांधी रोज भजन करते रहते थे-‘अल्ला ईष्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान।’ वह सिर्फ राजनैतिक भजन था, उसमें कहीं कोई धर्म नहीं है। जिन्दगी भर यही कहते रहे-अल्ला ईष्वर तेरे नाम! लेकिन गीता को कहा कि मेरी माता है। कुरान को नहीं कहा कि मेरे पिता है। माता हो तो पिता भी होना चाहिए। और जब गोली लगी महात्मा गांधी को तो मुंह से अल्लाह नहीं निकला, राम निकला-हे राम! वह जो भीतर छिपा था, जो संस्कार था हिंदू होने का, वह बाहर आया। उस वक्त भूल गया अल्ला ईष्वर तेरे नाम! कम से कम मरते वक्त तो इतना कह देते-अल्ला ईष्वर तेरे नाम! मगर उस वक्त कहां राजनीति याद रहे! उस वक्त संस्कार बोला। उस बार मन की जो बंधी हुई धारणा थी, वह बोली।
ये सब राजनीतिक चालबाजियां हैं। अगर यह सच हो कि धार्मिक व्यक्ति आलोचना नहीं करता तो बुद्ध ने फिर वेद की आलोचना की, तो धार्मिक व्यक्ति नहीं रहे होगें। और महावीर ने हिंदू धर्म की आलोचना की, तो धार्मिक व्यक्ति नहीं रहे होगें। तो षंकराचार्य ने बुद्ध की आलोचना की, तो धार्मिक व्यक्ति नहीं रहे होगें। तो मुहम्मद ने मूर्ति-पूजा की आलोचना की, और सारे धर्म मूर्तिपूजक थे, तो मुहम्मद फिर धार्मिक व्यक्ति नहीं रहे होगें। तो फिर जीसस को सूली क्यों लगी? जीसस ने आलोचना की, गहरी आलोचना की। जीसस ने यहूदियों की मान्यताओं की गहरी आलोचना की-जितनी गहरी आलोचना हो सकती थी।
धार्मिक व्यक्ति तो सत्य बोलेगा। और सत्य तो चमकती हुई तलवार है, उसमें धार होती है।
ये बोथले लोग हैं। ये सब धर्मो की प्रषंसा करते रहेंगे। ये सबको मान देते रहेंगे-तुम भी ठीक, तुम भी ठीक। इनकी फिक्र है कि जितने ज्यादा षिश्य मिल जाएं.... और अब एक बात तो साफ ही है कि सारे लोग बंटे हुए हैं, नये आदमी कहां खोजोगे? उसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन है, बौद्ध है, ऐसा आदमी तो खोजना मुष्किल है जो अभी कोई धर्म का नहीं है। तो नयी गुरूडम बनानी हो तो तुम आदमी कहां से लाओगे? तो गुरूग्रंथ की भी प्रषंसा करो, ताकि कुछ सिक्ख फंसे; कुरान की भी प्रषंसा करो, ताकि कुछ मुसलमान फंसे; गीता की भी प्रषंसा करो, ताकि कुछ हिंदू फंसे। आखिर लोग तो बंटे हुए हैं, इनको लाना है इनकी दुकानों से।
मेरा जैसा काम तो बहुत मुष्किल से कोई करेगा। मेरे पास तो सिर्फ वे ही लोग आ सकेंगे जो कि सच में ही सत्य के अन्वेशण के लिए सब कुछ गंवाने को तैयार हैं। क्योंकि मैं किसी की कोई प्रषंसा करने नहीं बैठा हूं, न किसी को सम्मान देने बैठा हूं। मुझे तो जो सत्य है वही कहना है। कोई सुने तो ठीक, कोई न सुने तो ठीक। तुम हो तो ठीक, तुम नहीं होओगे, मुझे बोलना है तो अकेले में बोलूंगा। इससे क्या फर्क पड़ता है? दीवालों से बोल लूंगा, मगर वही बोलूंगा जो बोलना है। लेकिन कोई समझौता नहीं करूंगा।
ये सब समझौतावादी लोग हैं। ये सब दांत-निपोर लोग हैं। ये जहां जाएंगे वहीं दांत निपोर कर खड़े हो जाएंगे, कि हां-हां बिलकुल ठीक, यही तो बात है, यही तो सच है। ये थोड़ी-सी कुरान की भी प्रषंसा करेंगे, गीता की भी प्रषंसा करेंगे, रामायण की भी प्रषंसा करेंगे। ये सबकी प्रषंसा कर देंगे। ये सबकी खुषामद कर रहे हैं। ये तुम्हारे अहंकार पर मक्खन लगा रहे हैं। ये कह रहे हैं कि आओ, तुम भी आ जाओ। तुम्हारा धर्म भी बिलकुल ठीक है।
आलोचना निंदा नहीं है। निंदा आलोचना नहीं है। लेकिन लोग आलोचना को निंदा समझ लेते हैं। अब मैं यह कैसे बर्दाष्त कर सकता हूं कि राम किसी षुद्र के कानों में सीसा पिघलवा कर भरवां दें! इसकी मैं सख्त आलोचना करूंगा, चाहे कुछ भी मूल्य चुकाना पड़े। यह बात गलत है। चाहे राम को मानने वाले कितने ही दुखी हो जाएं और नाराज हो जाएं, इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन यह बात गलत है तो गलत है, फिर राम ने की हो या किसी ने की हो। इसे मैं स्वीकार नहीं कर सकता हूं, क्योंकि मुझे कुछ राजनीति नहंी करनी है।
ये तुम्हारे तथाकथित निरंकारी बाबा सिर्फ राजनैतिक खिलाड़ी हैं, और कुछ भी नहीं। तो मैं भी इनके मारे जाने के विरोध में हूं, लेकिन मेरा कारण और है। मेरा कारण यह है कि तीन कारतूस बेकार खराब किए। कुछ भले काम में लगाते। कुछ मारना था तो मारने योग्य आदमी को मारते। क्या मक्खियां मार रहे हो! कुछ मारने योग्य भी नहीं है।
लेकिन सिक्ख नाराज थे। स्वभावतः। यह बात समझने जैसी है। गांधी को मुसलमानों ने नहीं मारा, हिंदूओं ने मारा। पूछो क्यों? आखिर मारना चाहिए था मुसलमानों को, यह तर्कयुक्त होता। लेकिन मुसलमानों ने नहीं मारा। नोआखाली में भी गांधी निहत्थे घूमते रहे, जहां मुसलमान हिंदूओ की हत्या करने में लगे थे, फिर भी उन्होंने गांधी को नहीं मारा। पत्थर भी नहीं मारा, गोली मारनी तो दूर। कारण? क्योंकि गांधी कुरान की प्रषंसा कर रहे थे। कोई हिंदू कुरान की प्रषंसा कर रहा हो तो मुसलमान कैसे नाराज हों? मुसलमान के तो दिल को बड़ी खुषी हो रही थी। मुसलमान ही करते हैं प्रषंसा कुरान कि, किसी हिंदू ने तो कभी की नहीं थी। यह पहला हिंदू है। यह पहला हिंदू महात्मा है जो कुरान की प्रषंसा कर रहा है। इसलिए मुसलमानों ने गांधी को नहीं मारा। लेकिन मारा हिंदूओं ने। हिंदू ही मारेंगे, क्योंकि यह दगाबाज है, धोखेबाज है। यह कुरान की प्रषंसा कर रहा है! गीता के रहते! रामायण के रहते, वेद के रहते, उपनिशद के रहते- इसको कुरान की प्रषंसा करने की पड़ी है!
तुम बात को समझना, सीधी बात है। मुसलमान को तो ठीक लग रहा है, अच्छा लग रहा है, क्योंकि एक हिंदू प्रषंसा कर रहा है, इससे अच्छा और क्या होगा! इससे जाहिर होता है कि कुरान श्रेश्ठ है। मुसलमान तो प्रषंसा करते ही करते हैं, हिंदू महात्मा तक प्रषंसा कर रहे हैं! लेकिन हिंदूओं को चोट लग रही है कि अपना आदमी अपनी किताबों को छोड़ कर और मुसलमानों की किताबों की प्रषंसा कर रहा है! और बाइबिल की प्रषंसा कर रहा है! और जैन षास्त्रों की प्रषंसा कर रहा है! महावीर और बुद्ध के गुणगान गा रहा है!
हिंदू ग्रंथों में महावीर का उल्लेख भी नहीं है, इतनी उपेक्षा की है कि उल्लेख भी नहीं किया। निंदा की तो बात छोड़ दो तुम, आलोचना की फिक्र छोड़ दो। इतना भी सम्मान नहीं दिया। मित्रता का सम्मान न देते, कम से कम षत्रुता का सम्मान तो दे देते! कम से कम इतना तो कह देते कि तुम गलत हो! यह भी नहीं कहा, बिलकुल उपेक्षा ही कर दी। महावीर का उल्लेख ही नहीं किया हिंदू षास्त्रों में। ऐसे छोड़ दिया कि बात ही करने की नहीं है; जैसे दो कौड़ी की बात है, क्या इसका हिसाब रखना!
और बुद्ध की तो कठोर निंदा की। कोई एक हजार साल तक हिदूं षास्त्र बुद्ध की निंदा से भरे रहे।
और यह महावीर की प्रषंसा कर रहे हैं महात्मा गांधी। तो जैनियों को तो बहुत जंचा। जैनी तो बड़े प्रसन्न हुए। यह जान कर तुम हैरान होओगे कि जितने जैनियों ने खादी पहनी इस देष में, उतने किसी और ने नहीं पहनी। और जितने जैनियों ने चरखा चलाया, उतने किसी और ने नहीं चलायां क्योंकि उनको पहली दफा एक हिंदू महात्मा ने उनकी अहिंसा परमोधर्मः को स्वीकार किया। घोशणा कर दी कि धर्म तो सच्चा यही है। जितने जैन जेल गये-उनके अनुपात की दृश्टि से.....जैनों की संख्या बहुत कम है-कुल तीस-पैतींस लाख। जिस अनुपात में जैन जेल गये, उस अनुपात में कोई दूसरे लोग जेल नहीं गये। जैन तो बिलकुल नाच उठे। दो हजार ढाई साल में किसी हिंदू महात्मा ने प्रषंसा नहीं की थी। प्रषंसा की बात क्या, निंदा तक नहीं की थी। इस आदमी ने कम से कम सम्मान तो दिया-और ऐसा सम्मान दिया! स्वभावतः जैन खुष थे, मगर हिंदू नाराज थे। असली नाराजगी हिंदूओं में थी। मुसलमान खुष थे, असली नाराजगी हिंदूओं में थी।
ईसाई खुष थे। ईसाईयों को तो आषा थी कि महात्मा गांधी को किसी तरह ईसाई बना लेंगे। ईसाईयों ने बहुत प्रयास किए और एक घड़ी ऐसी भी आ गयी थी कि महात्मा गांधी भी सोचने लगे थे ईसाई हो जाना चाहिए। अफ्रीका में ईसाई मिषनरियों ने काफी उन पर डोरे डाले, क्योंकि जोे आदमी ईसा की इतनी प्रषंसा कर रहा है उसे ईसाई क्यों न बना लिया जाए!
महात्मा गांधी ने तीन व्यक्तियों को अपना गुरू सिद्ध किया था। एक थे जैन-श्रीमद रामचंद्र। सो जैन खुष थे कि हमारे एक जैन तपस्वी को गांधी ने अपना गुरू स्वीकार किया है। और षेश दो थे ईसाई-टाॅलस्टाय और रसकिन। ईसाई भी खुष थे। इनमें हिंदू तो एक भी नहीं था। ये तीन गुरू थे; उनमें एक जैन था, दो ईसाई थे।
इसलिए मुसलमानों ने हत्या नहीं की, हिंदूओं ने हत्या की।
तुम जान कर यह हैरान हाओगे, मैं जैन घर में पैदा हुआ: मुझसे जितने नाराज जैन हैं, उतना कोई भी नहीं। स्वभावतः, क्योंकि जैनों को आषा थी कि मैं उनके धर्म का प्रचार करूंगा सारी दुनियां में। उनकी आषा पर मैंने पानी फेर दिया। जितनी आलोचना मैंने उनकी की है, किसी और की नहीं की। उसका कारण भी साफ है, क्योंकि जितना मैं उनसे परिचित हूं उतना किसी और से परिचित नहीं हूं। उनकी पोर-पोर से, रग-रग से परिचित हूं। उनकी हर हरकत से परिचित हूं। तो स्वभावतः जितनी आलोचना मैंने उनकी की है उतनी आलोचना मैंने किसी की नहीं की। आखिर आलोचना के लिए जानना तो जरूरी है, पूरा जानना जरूरी है। प्रषंसा के लिए इतना जानना जरूरी नहीं है। प्रषंसा ऊपर-ऊपर की जा सकती है, लेकिन आलोचना के लिए तो भीतर जाना पड़ेगा, ठीक जड़ पकड़नी पड़ेगी। तो जैन जितने मुझसे नाराज हैं, उतना मुझसे कोई नाराज नहीं है।
यह बाबा गुरूबचन सिंह से अगर अकाली नाराज थे, सिक्ख नाराज थे, तो उसका कारण था। उसका कारण यह था कि ‘गुरूबाणी के होते हुए, दस गुरूओं की वाणी मौजूद है, गुरूग्रंथ साहब मौजूद हैं, उसके होते हुए तुम दूसरे धर्मो के ग्रंथों को सम्मान देते हो, षर्म नहीं आती? यह अपमानजनक बात है!’ और जिन-जिन सिक्खों को.....अधिकतर तो उनके मानने वाले सिक्ख ही हैं, क्योंकि खुद भी सिक्ख थे, इसलिए सिक्खों से संबंध था। सिक्खों को धीरे-धीरे तोड़ लिया था उन्होंने। तो सिक्खों को दुख था कि यह हमारे बीच एक गद्दार है, जो हमारे लोंगो को तोड़ रहा है। वे जो सबको मान दे रहे थे, वही सिक्खों को दुख का कारण था। वही अकालियों को दुख का कारण था। वही पीड़ा थी उनकी। उस पीड़ा का बदला लिया जाने वाला था। इसका धर्म इत्यादि से कुछ लेना-देना नहीं है।
निरंकारी बाबा के वचनों में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसको कोई मूल्यवान कहा जा सके। पिटी पिटाई बातें हैं। वही सड़ी-सड़ायी बातें हैं, जो सदा से इस देष में लकीर के फकीर कहते रहे हैं। उनमें एक भी बात न तो मौलिक है, न अनुभवगत है, न स्वंय के साक्षात पर खड़ी है। मगर आदमी कुषल थे, होषियार थे, राजनैतिक थे। ठीक से अपना काम चला रहे थे। नाहक उनको मारने की कोई आवष्कता नहीं थी।
इस तरह हम गलत लोंगो को मार कर उनको ठीक लोंगो की पंक्ति में खड़ा कर देते हैं। अब यह षांतिस्वरूप तक को ऐसा लग रहा है कि बड़ा गला घोंट दिया गया है सत्य का! सत्य है ही नहीं, सिर्फ गला जरूर घोंटा गया है। मगर गला घोंटने से ऐसा लगता है कि सत्य को गला घोंटा गया है। सत्य वगैरह कुछ भी नहीं है। सिर्फ गला घोंटने से हमेषा सत्य का ही गला नहीं घोंटा जाता।
तुम पूछ रहे हो: ‘उनका दोश केवल इतना था कि वह गुरूग्रंथ साहब को अंतिम गुरूवाणी नहीं मानते थे।’ यही तो दोश था। यही तो अकालियों को अखरता था, क्योंकि प्रत्येक धर्म एक दावा रखता है। जैसे जैनों ने कहा कि चैबीस तीर्थकर होते हैं, सिर्फ चैबीस तीर्थकर होते हैं एक कल्प में। एक कल्प का अर्थ होता है-एक सृश्टि से प्रलय। अनंत काल बीतता है। इसको एक कल्प कहते हैं। एक कल्प में सिर्फ चैबीस तीर्थंकर होते हैं। चैबीस तीर्थंकर हो चुके।
जैनियों का एक समूह मुझसे मिलने आया था। मैं कलकत्ते में था। समूह के लोंगो ने कहा कि आप जैसा व्यक्ति हो तो हमारा धर्म सर्वभौम हो सकता है, जगत के कोने-कोने तक पहुच सकता है।
मैंने कहा: ‘बहुत मुष्किल है, क्योंकि तुम पच्चीसवां तीर्थकर स्वीकार न कर सकोगे।’
उन्होंने कहा कि मतलब आपका?
मैंने कहा कि मैं पच्चीसवां तीर्थकर हूं!
उन्होंने कहा: ‘क्या कह रहे हैं आप! तीर्थकर तो चैबीस ही होते हैं, पच्चीस हो ही नहीं सकते।’
मैंने कहा: ‘ मैं कहता हूं पच्चीस हो सकते हैं। जब मैं खुद ही कह रहा हूं, मैं पच्चीसवां हूं! तुम पहले इस पर सोच लो।’
फिर वे दिखाई नहीं पड़े उस दिन के बाद मुझे। फिर उनका पता ही नहीं चला। वे जो मेरे द्वारा सारी दुनिया में जैन धर्म का प्रचार करवाना चाहते थे, जरा-सी बात ने.....और मैं मजाक ही कर रहा था। मुझे कोई पच्चीसवां होने का षौक नहीं। जब मैं प्रथम हो सकता हूं, तो पच्चीसवां क्यों होना! कोई मैं पागल हूं कि क्यू में खड़े हैं पच्चीसवें! वे अगर राजी भी हो जाते तो मैं राजी नहीं होने वाला था। वह तो मैं मजाक ही कर रहा था। कोई छोटे-मोटे काम करने में मेरा रस ही नहीं है, पच्चीसवां क्या होना! मगर वे घबड़ा गये, क्योंकि चैबीस....जैनियों ने अपना दरवाजा बंद कर दिया।
यह सारे धर्मो की तरकीब रही हैं। यह धर्मो की राजनीति है। दरवाजा बंद करना पड़ता है, क्योंकि दरवाजा अगर बंद न करें तो पीछे आने वाले लोग कहीं रद्दोबदल कर दें। समझो महावीर चैबीसवें तीर्थकर हुए, पच्चीसवां कोई तीर्थकर हो और वह महावीर की बातों में रद्दोबदल करेगा ही करेगा। क्योंकि समझो दो हजार साल बाद हो, परिस्थिति बदल जाएगी, लोग बदल जांएगे, धारणाएं बदल जाएंगी, जगत बदल जाएगा। वह कैसे महावीर की पिटी-पिटाई बातों को दोहराता रहेगा? उसमें कुछ भी प्राण होंगे, कुछ भी जीवन होगा, तो कुछ नयी कहेगा, कुछ नयी सूझ की बात देगा, कुछ नया दर्षन देगा, नयी दृश्टि देगा, नये चलने, नये जीने की षैली देगा।
अब महावीर ने कहा रात्रि को भोजन मत करना। मैं मानता हूं कि उस समय की बात ठीक थी। लेकिन बिजली नहीं थी। और महावीर का कहना ठीक था। आज भी गांव में, जहां बिजली नहीं है, वहां लोग अंधेरे में भोजन करते हैं। दीया भी नहीं, क्योंकि भारत तो....देवता भला यहां तरसते हों आने को, मगर घासलेट का तेल कहां? घासलेट का तेल तरसता ही नहीं यहां आने को। देवता तरसते हैं! पता नहीं वे क्यों तरसते हैं! उनको ऐसी क्या बेचैनी पड़ी है! बिना घासलेट के तेल के पता चल जाएगा!.....तो तेल भी कहां है गाव में? एकदम जरूरत की चीजें भी गांव में कहां है? तो लोग अंधेरे में भोजन करते हैं। अंधेरे में पतंगा भी गिर जाए, छिपकली भी गिर जाए, कुछ भी गिर जाए, कीड़े-मकोड़े, कुछ भी हो जाए। तो महावीर ने ठीक कहा कि रात्रि-भोजन नहीं करना, सुर्यास्त हो जाएं तो भोजन नहीं करना। यह बात बिलकुल ठीक है, वैज्ञानिक है, स्वास्थपूर्ण है, सम्यक् है। मगर आज के लिए तो अर्थपूर्ण नहीं।
मैं एक बहुत बडे. जैन धनपति, सोहनलाल दूगड़ के घर में मेहमान था। पूरा घर एयरकंडीषंड, साउंडप्रफू। उसमें न मक्खी, न मच्छर। मगर सूरज डूबा, कि फिर भोजन नहीं हो सकता। मैंने सोहनलाल को कहा कि तुम पागल तो नहीं हो! महावीर को पता था यह कि सोहनलाल दूगड़ नाम के आदमी होंगे ढाई हजार साल बाद साउंडप्रूफ एयरकंडीषंड घर में रहेंगे? तो वे पहले ही कह गये होते कि भैया, मजे से जब भोजन करना हो कर लेना, क्योंकि मक्खी नहीं मच्छर नहीं। तुम काहे के लिए घबड़ा रहे हो?
मगर वे बोले: ‘नियम...। आप बात तो ठीक कहते हैं, मगर अंतःकरण को कचोट लगती है। जब तक चल सके, दिन में ही चला लेते हैं।’
मैंने कहा: ‘दिन को सूरज में ही इतनी रोषनी नहीं होती जितनी तुम्हारे घर में बिजली की रोषनी है।’
फिर मुझे खाने पर बिठाया तो पंखा झलने लगे लेकर। मैंने कहा: ‘तुम होष में हो? तुम पंखा किस लिए झल रहे हो? मुझे खाना खाने दोगे क्या नहीं?’
उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, घर में कोई साधु-महात्मा आए तो राजस्थान का पुराना रिवाज है पंखा झलना। मैंने कहा कि राजस्थान का होगा पुराना रिवाज, मगर यहां झल किस लिए रहे हो पंखा? बिजली है, एयरकंडीषंड है, सब ठंडा है, साउंडप्रूफ है। कोई आवाज नहीं आ रही, जिसको तुम पंखे से भगा रहे होओ। कोई मक्खी-मच्छर नहीं, जिनको हटाओ। हवा की कोई जरूरत नहीं। और नाहक मेरे सामने बैठ कर मुझे षांति से भोजन भी नहीं करने दे रहे! पंखा हिला रहे हो मेरे सामने बैठ कर!
वे बोले: ‘आप बात तो ठीक कहते हैं। आप बात तो हमेषा पते की ही कहते हैं। मगर संस्कार!’
अब कोई पच्चीसवां तीर्थकर होगा तो ठीक है, स्वभाविक है किवह बहुत से फर्क करेगा, बहुत-से भेद कर देगा। महावीर को पता नहीं था कि जैन मुनि का सीमेंट रोड पर, कोलतार रोड पर चलना
पड़ेगा। कच्ची मिट्टी पर चलना एक बात है, कोलतार पर चलना बिलकुल दूसरी बात है। महावीर को पता होता कि कोलतार पर जैन मुनि को चलना होगा, तो नग्न पैर चलने की बात का आग्रह नहीं करते। आज पच्चीसवां तीर्थकर हो तो वह बराबर कहेगा कि कम से कम कैनवस के जूते तो पहन ही लो, इसमें चमड़ा तो है नहीं, तो कोई पाप तो हो नहीं रहा है। कैनवस के जूते पहनने में क्या हर्जा है? नंगे रहना होतो रहो, मगर कम से कम कैनवस को जूता तो पहनो! और जंचोगे भी बहुत। एक चटाई का हैट लगाए हुए हैं जापानी ढंग का और कैनवस के जूते और नंग-धड़ंग! एक दर्षनीय दृष्य भी होगा।
मुल्ला नसरूद्दीन के घर एक दिन किसी दम्पति ने दरवाजा खटखटाया। सांझ का वक्त, मुलला ने ऐसा जरा-सा दरवाजा खोला। पति-पत्नी ने बाहर से देखा, तो दोनों बड़े हैरान हुए। मुल्ला नंग-धड़ंग खड़ा है! सिर्फ टाई बांधे हुए है! मगर अब क्या करना? एकदम हट जाना भी ठीक नहीं मालूम होता, अभद्रता मालूम होगी और मूल्ला भी एकदम दरवाजा बंद कर दे तो भी अभद्रता मालूम होगी। तो मुल्ला ने कहा: ‘आइए-आइए! उनको भी भीतर आना पड़ा। भारतीय नारी, वह पीछे पति के छिपकर आयी कि करना क्या, यह कहां फंस गये! और पति ने इस तरह का भाव दिखाया कि जैसे उसको कुछ पता ही नहीं कि मुल्ला नंगा है। कहिए कैसे हैं, सब यह-वह इधर-उधर की बात चलने लगी। मगर पत्नी को तो एक ही पड़ा था कि ये और सब बातें चल रही हैं, असली बात कब होगी? आखिर पत्नी ने कहा: ‘यह सब बकवास बंद करो जी! पहले यह तो पूछो कि ये नंगे क्यों हैं? मैं पूछे लेती हूं अगर तुमसे नहीं बनता तो, कि आप नंगे क्यों हैं?’
तो नसरूद्दीन ने कहा: ‘इतने वक्त मुझे कोई मिलने आता ही नहीं। और गरमी के दिन, तो अपने घर में नंगा न रहूं तो किसी और के घर में नंगा रहूं? अरे अपने बाप का घर है! किसी और के बाप का है? जैसे रहना है वैसे रहेंगे। और इस वक्त कोई आता ही नहीं मिलने।’
तो पति ने कहा: ‘ अच्छा यह भी ठीक है। फिर टाई क्यों बांधे हुए हो?’
तो मुल्ला ने कहा: ‘ अरे, कभी कोई भूल-चूक से आ जाए, जैसे तुम आ गये, तो कुछ तो कम से कम पहने रहो!’
अगर मैं जैन मुनि को आज व्यवस्था दूं तो कहूंगा कैनवस के जूते, चटाई का हैट, बाकी तुम नंगे घूमो, कोई हर्जा नहीं है, बेफिक्री से घूमो।
तो बंद कर देना पड़ा, चैबीसवें तीर्थकर पर बात रोक देनी पड़ी। उसके आगे बढ़ाने में खतरा है।
ठीक वैसा सिक्खों को करना पड़ा, दसवें गुरू पर रोक देनी पड़ी बात, क्योंकि ग्यारहवां गुरू हो और कुछ गड़बड़ कर दे। इसलिए मुसलमानों को मुहम्मद पर रोक देनी पड़ी बात। बस आखिरी पैगम्बर हो गये, अब कोई पैगम्बर नहीं होगा। ईसाईयों को रोक देनी पड़ी जीसस पर बात, कि जीसस इकलौटे बेटे हैं। बस परमात्मा ने एक दफा भेज दिया, जो संदेष देना था दे दिया। अब कोई जरूरत नहीं है। अब उसी के अनुसार सभी को चलना चाहिए।
यह इस तरह का आयोजन सभी धर्मो को करना पड़ा-सिर्फ इसलिए, ताकि जो भी उनकी धारणा है उसमें कोई रदृदोबदल करने वाला पीछे न पैदा हो। तो अगर निरंकारी बाबा कहते थे कि गुरूग्रंथ साहब ही अंतिम गुरूबाणी नहीं है तो सिक्खों को चोट लगेगी, क्योंकि सिक्खों की मान्यता है वही अंतिम गुरूबाणी है, बस बात खत्म हो गयी। जो कहना था परमात्मा को, दस गुरूओं से बोल चुके। सब आ गया गुरूबाणी में। गुरूग्रंथ साहब में सब आ गया, अब आगे कुछ कहने को नहीं है। और सिक्ख होकर कोई यह बात कहे और सिक्खों को भड़काए और भरमाए, तो उनको बड़ा एतराज हो जाएगा। तो कोई मुसलमान ने उनकी हत्या की हो, इसकी संभावना नहीं है। कोई हिंदू ने की हो, इसकी संभावना नहंीं है। किसी ईसाई ने की हो, इसकी संभावना नहीं है। संभावना इसी की है कि उन्होंने की होगी, जिस धर्म में वे पैदा हुए थे।
जीसस को यहूदियों ने सूली दी थी, किसी और ने नहीं। और सुकरात का यूनानियों ने ही जहर पिलाया था, किसी और ने नहीं। गांधी को हिन्दूओं ने मारा, किसी और ने नहीं। यह बात समझने जैसी है। क्यों चोट लगती है उसी धर्म के लोंगों को? उसी धर्म के लोंगो को चोट लगती है कि अपना होकर और अपने से धोखा! दूसरों की तारीफ करोगे तो उतने दूर तक समझौता करना पड़ेगा न!
गांधी को कहना पड़ा कि कुरान में भी सत्य है- वही सत्य है जो गीता मैं है। तो यह बात तो हिंदू बर्दाष्त नहीं कर सकते। मुसलमान आल्हादित हो जांएगे।
ये सब राजनैतिक चालबाजियां हैं। गांधी को हिंदू-मुसलमानों के दोनों के वोट चाहिए थे, दोनों का तालमेल चाहिए था, दोनों को पीछे चलाना था, दोनों का मत उनके साथ होना चाहिए।
निरंकारी बाबा को हिन्दू चाहिए थे, मुसलमान चाहिए थे, ईसाई चाहिए थे, जैन चाहिए थे, सिक्ख चाहिए थे: सबको सम्मान देना पड़ेगा। मगर ये राजनैतिक चालबाजियां हैं।
जीसस ने सभी की प्रषंसा नहीं की है। सत्य की प्रषंसा की है। और बुद्ध ने भी सभी की प्रषंसा नहीं की है। और महावीर ने भी सभी की प्रषंसा नहीं की है। दुनिया का कोई सत्पुरूश, जिसने जाना हो सत्य को, सत्य के लिए सब कुछ निछावर कर देगा। उसमें कोई राजनीति नहीं होती। उसमें दांव-पेंच नहंीं होते।
इसलिए मैं कोई निरंकारी बाबा को सत्य के पुजारी नहीं मानता षांतिस्वरूप। सत्य वगैरह से इन्हें क्या लेना देना है? सब झूठ का गोरखधंधा है। मगर तुम्हें इसलिए लग रहा है कि हमें डर है कि इस तरह के पुजारी को सत्य बात नहीं कहने दी जाएगी। बस किसी का गला घोंट दिया तो वे सत्य के पुजारी हो गये! यह तो बड़ा सस्ता काम हो गया। सत्य के पुजारी होना हो, बस कोई गला घोंटनेवाला तैयार कर लों कि तुम सत्य के पुजारी हो गये! और गला घोंटने वाले कई बेवकूफ मिल जांएगे। उनकी कोई कमी है? नालायकों की कोई कमी है? एक ढूंढो, हजार मिलते हैं। ढूंढो ही मत, तो भी मिलते हैं। तुम बचना भी चाहो, तो भी मिलते हैं।
सत्य के गला घोंटने वालों से मुक्ति कैसे मिले, तुम पूछते हो। नहंीं इनसे कभी मुक्ति मिल सकती है, न मिलने की कोई जरूरत है, न कोई आवष्यकता है। सत्य का होना ही एक क्रांति है। जब भी सत्य प्रगट होगा, उपद्रव होगा। क्योंकि अधिकतर लोग असत्य में जीते हैं; इसलिए उनके जीवन में दखल पड़ेगी, खलल पड़ेगी। लोग सो रहे हैं और सत्य उनको जगाना चाहता है। कौन जगना चाहता है? कोई जगना नहीं चाहता। प्यारी नींद लगी है। ठंडी-ठंडी सुबह की हवा चली है। मधुर सपने चल रहे हैं। और तुम जगाने पंहुच गये! जगानेवालों को कोई पसंद नहीं करता।
तुम इसकी चिंता छोड़ दो षांतिस्वरूप। और सत्य को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। जीसस का सूली लगने से कोई नुकसान नहीं हुआ। खतरा इससे नहीं है कि सत्य को सूली लगे; खतरा इससे है कि कहीं भूल-चूक से जब असत्य को सूली लग जाती है तब खतरा पैदा होता है। जैसे अब यह निरंकारी बाबा को गोली मार दी, अब खतरा है। खतरा यह है कि गोली मारने की वजह से न मालूम कितने नामसमझ यह समझेंगे कि यह बात सत्य थी, तभी तो गोली मारी! अब यह झूठी बात को सत्य बात होने को प्रमाण मिल गया। सत्य को सूली लगे, इससे तो कुछ हर्जा नहीं है, लाभ ही लाभ है। क्योंकि सत्य को सूली लग जाती है तो सत्य सदियों तक अनुगुजित रहता है। लेकिन खतरा कब होता है? खतरा तब होता है जब कभी असत्य को सूली लग जाती है।
जैसे गांधी को गोली लग गयी। अब गांधी चढ़ बैठे भारत ही छाती पर। अब उनको उतारना मुष्किल है। अब भारत मरा जा रहा है, मगर गांधी को उतारना मुष्किल है। जिन्होंने गांधी को गोली मारी, वे भी गांधी की फोटो लटकाए हुए हैं। राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग। ऐसे वे षिवाजी और राणाप्रताप की फोटो लटकाए रखते थे, अब गांधीजी की फोटो भी लटकाने लगे। और अब लोंगो को धोखा देने के लिए उन्होंने नयी जनता पार्टी बना ली-भारतीय जनता पार्टी! वहां गांधी का फोटो, जयप्रकाष नारायण को फोटो। वहां तुम हैरान होओगे देख कर कि न षिवाजी का फोटो है, न राणाप्रताप का फोटो है। और इन सबके दिल में षिवाजी और राणाप्रताप का फोटो है। ये सब जनसंघी हैं। मगर जनसंघ के नाम से लोग नाक-भौंह सिकोड़ते हैं। गांधी का नाम बिकता है, तो गांधी के हत्यारे भी गांधी के नाम के पीछे खड़े हो जाएंगे। वे भी गांधी के भक्त हो जाएंगे। वे भी राजघाट पर जाकर षपथ लेंगे। वे भी गांधी के दावेदार हो जाएंगे।
अब गांधी को उतारना मुष्किल है। भारत मर रहा है, सड रहा है। उसमें बड़े से बड़ा कारण महात्मा गांधी का छाती पर बैठे होना है। सबको कपड़े मिल सकते हैं, मगर चरखे चलाने से नहीं मिल सकते। सबको रोटी मिल सकती है, लेकिन ग्रामोद्योग से नहीं मिल सकती। सबको मकान मिल सकते हैं, सबको जीवन की सारी सुविधांए मिल सकती हैं। सारी दुनिया में मिल गयी हैं, कोई हमारा ही सवाल नहंीं हैं। लेकिन मिली हैं विज्ञान से। और गांधी विज्ञान-विरोधी थे, दुष्मन थे विज्ञान के। वे तो रेलगाडी के भी खिलाफ थे। वे तो टैलीग्राफ के भी खिलाफ थे। वे तो पोस्ट आॅफिस के भी खिलाफ थे। वे तो बिजली के भी खिलाफ थे। अगर गांधी का वष चले तोे वे बाबा आदम के जमाने में पहुंचा दें, मगर इतना वष जरूर चलता है कि वे तुम्हें बढ़ने नहीं देते आगे।
आज तीस साल हो गये भारत का आजाद हुए। चीन दस साल बाद प्रगति के पथ पर बढ़ना षुरू हुआ, आज चीन हमसे बहुत आगे पहुंच गया। कुल कारण इतना है कि गांधी जैसा पत्थर छाती पर नहीं है। हम एक पत्थर छाती पर बांध कर तैरने की कोषिष कर रहे हैं। मगर पत्थर को छोड़े कैसे! पत्थर का नाम-महात्मा गांधी! और महात्मा गांधी को गोली लग गयी, सो वे हो गये सत्य के पुजारी। अब उनको छोड़ना मुष्किल है।
सत्य को सूली लगे, इसमें तो कोई खतरा नहीं है; असत्य को जब सूली लग जाती है तब मुष्किल खड़ी हो जाती है। वही मुष्किल खड़ी निरंकारी बाबा के पीछे होगी अब। अब जो लोग निरंकारी बाबा को मानते थे, वे और दीवाने हो जाएंगे मानने में कि जरूर बाबा में कुछ खबी थी, नहीं तो गोली क्यों मारी! अरे कोई भी पागल गोली मार सकता है। गोली मारने में भी कोई बहुत बड़ी बुद्धिमत्ता की जरूरत हैं? कोई बुद्धिमान गोली मारते हैं? कोई भी बुद्धू मार सकता है। मगर वह बुद्धू काम कर गया। अब उस बुद्धू के कारण यह बाबा के पीछे अब कहानियां गड़ी जाएंगी। अब वे मसीहा हो गये।
एक अखबार में मैं पढ़ रहा था एक लेख: ‘एक मसीहा का और अंत।’ मसीहा हो गये, गोली लग गयी तो। गोली नहीं लगी, तब तक कोई उनको मसीहा कहने वाला नहीं था। अब वे मसीहा हो गये। बस गोली लगने की बात थी।
इस दुनिया में बड़े अजीब लोग हैं। इनकी अजीब धारणाएं हैं चीजों को पकड़ने और पहचानने की।
मुझे भी विरोध है कि गोली मारी गयी। विरोध का कारण मेरा बिलकुल अलग है। मेरा कारण यह है कि इस तरह मे लोंगो को गोली मार कर तुम लोंगो की छाती पर बोझ बढ़ाए चले जाते हो। अरे मारना ही हो गोली तो कोई ढंग के आदमी को तो मारो, कुछ मतलब के आदमी को मारो। गोली मारनी हो तो ऐसे आदमी को मारो की अगर उसका नाम टिका रह सदियों तक तो लोंगो को कुछ लाभ हो। जहां सुई से काम चल जाए, वहां तलवार चलाते हो! खटमल मारने चले हैं, लिए बंदूक! कुछ तो अकल का उपयोग करो! कोई बंदूकों से खटमल मारे जाते हैं! और बंदूक से खटमल मारोगे, खटमल महात्मा हो जाएगा। और लोग कहेंगे-‘एक मसीहा का और अंत!’

चैथा प्रष्न: भगवान,
क्या हम आपकी बातों को कभी भी नहीं समझेंगे, या कि वह सौभाग्य का दिन भी कभी आएगा?
धर्म कृश्ण,
सब तुम पर निर्भर है। मैं तो अपनी तरफ से पूरी चेश्टा कर रहा हूं। जितनी तुम्हारी ठोंक-पीट कर सकता हूं, करता हूं। तुम्हारे सिर पर जितने डंडे बरसा सकता हूं, बरसाता हूं। डंडे तुम्हें नहीं समझ में आते तो हथौड़े से भी चोट करता हूं। जैसा मरीज देखता हूं: सुनार से मान गये तो सुनार और लुहार से माने तो लुहार हो जाता हूं। हथौड़ी तो हथौड़ी, हथौड़ा तो हथौड़ा-जो भी जरूरत हो। मैं फिर इसकी फिक्र नहीं करता।
लेकिन कुछ ऐसे लोग हैं, जो इस तरह बंद हैं, इस तरह बंद हैं कि उनमें से रंघ्र खोजनी मुष्किल है। उनमें भीतर प्रवेष करना मुष्किल है।
मुल्ला नसरूद्दीन ने डाॅक्टर को फोन किया आधी रात, कि पत्नी को बहुत जोर से पेट में दर्द हो रहा है, लगता है बच्चा पैदा होने का क्षण आ गया, आप इसी वक्त आ जाएं। आधी रात, वर्शा, आंधी! डाॅक्टर बेचारा उठा किसी तरह, गाड़ी स्टार्ट न हो, बमुष्किल धक्का दे-दाकर गाड़ी स्टाट हुई, किसी तरह पंहुचा। जाकर अंदर पहुंचा, एक पांच मिनट बाद उसने खिड़की के बाहर मुंह झांका और नसरूद्दीन से कहा: ‘नसरूद्दीन, हथौड़ा है?’
नसरूद्दीन थोड़ा डरा-हथौड़ा! हथौड़ा लाया निकाल कर। एक-दो मिनिट बाद फिर खटर पटर की आवाज अंदर से आती रही। नसरूद्दीन थोड़ा डरा भी कि हथौड़े का क्या कर रहा है यह! आदमी होष में है, नषा वषा तो नहीं किए हुए है? यह डाॅक्टर है कि विटनरी डाॅक्टर है, क्या है मामला? फिर दो मिनिट बाद वह डाॅक्टर बाहर आया और नसरूद्दीन से कहा कि ऐसा करो भाई.....आरी तो नहीं हैं?
नसरूद्दीन फिर भी कुछ नहीं बोला, आरी लेकर दे दी। वह तो दो मिनिट बाद फिर डाॅक्टर बाहर आ गया और कहने लगा: ‘एक बड़ी चट्टान हो तो उठा लाओ।’
नसरूद्दीन ने कहा: ‘बहुत हो गया डाॅक्टर साहब! माजंरा क्या है? मेरी पत्नी को तकलीफ क्या है?’
डाॅक्टर ने कहा: ‘तुम्हारी पत्नी से सवाल ही अभी कहां उठती है! अभी मेरी पेटी ही नहीं खूल रही। पहले मेरी पेटी तो खुले, फिर तुम्हारी पत्नी की जांच-परख करूं।’
तो कई की पेटी ऐसी बंद है कि खुलती ही नहीं। हथौड़ा बुलाओ, आरी बुलाओ चट्टान लाओ........अब आखीर में उसने कहा कि चट्टान पटक कर पेटी को तोड़ ही डालो, क्योंकि पत्नी मरी जा रही है, चिल्ला रही है, चीख पुकार मचा रही है। और नसरूद्दीन उसकी चीख-पुकार सुन रहा है, और खटर-पटर की आवाज सुन रहा है। उसको लग रहा है कि डाॅक्टर कर क्या रहा है! हथौड़े मार रहा है मेरी पत्नी को, आरी चला रहा है उसके पेट पर या क्या कर रहा है? यह किस तरह का आपरेषन हो रहा है?
यहां मोहल्ले-पड़ोस के लोंगो को यही डर लगा रहता है, क्योंकि यहां से आवाजें उठती हैं आश्रम से एक-एक तरह की। किसी पर आरी चलायी जा रही हैं, किसी पर हथौड़ा मारा जा रहा है। और यहां सिर्फ पेटी नहीं खुल रही! पहले पेटी तो खुले, फिर आगे कुछ दूसरा काम हो। पेटी तुम ऐसी बंद किए बैठे हो सदियों से, जन्मों-जन्मों से, चैरासी करोड़ योनियों से, पेटी को ऐसा बंद किया, ऐसी जंग खा गयी कि उसको खोलना मुष्किल हो रहा है। और ताले भी इतने पुराने हैं कि अब उनकी चाबी मिलना मुष्किल है।
मेरी तरफ से तो पूरी कोषिष करता हूं, धर्म कृश्ण। तुम कहते हो: ‘क्या हम आपकी बातों को कभी नहीं समझेंगे, या कि वह सौभाग्य का दिन भी कभी आएगा?’
टिके रहे तो आएगा। आना ही पडे.गा। आखिर कब तक? पेटी ही है, तोड़ ही लेंगे। खून-पसीना एक कर देंगे, मगर तोडें.गे। रोज सुबह से लग जाता हूं तोड़ने में। सब तरह के उपाय यहां किए हैं तोड़ने के। तुमसे भी उपाय करवाता हूं कि तुम भीतर से तोड़ो, मैं बाहर से तोड़ता हूं।
मगर देर तो लगने वाली है, क्योंकि समझ.....मैं कुछ कहूंगा, तुम कुछ समझोगे। वह स्वभाविक है।
मुल्ला नसरूद्दीन बहुत दिनों से गुलजान के पिता से मिलने की सोच रहा था, मगर हिम्मत न जुटा पाता था। लेकिन जब बहुत दिन हो गये तो एक दिन हिम्मत करके पहुंच ही गया और गुलजान के पिता से बोला कि मैं आपकी बेटी से निकाह करना चाहता हूं। पिता ने मुल्ला नसरूद्दीन को ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा: ‘मगर क्या तुम गुलजान की मम्मी से भी मिले या नहीं?’
‘जी’- नसरूद्दीन ने कहा-‘उनसे भी मिला, मगर मुझे गुलजान ही ज्यादा पसंद आयी।’
अब मैं क्या कहूंगा और तुम क्यो समझोगे, इसमें भेद तो होने वाला ही है।
 गुलजान भागती हुई आयी और नसरूद्दीन से बोली कि जल्दी से कुछ करो, मुन्ने ने दस पैसे का सिक्का निगल लिया है। मुल्ला नसरूद्दीन बोला: ‘तो निगल भी लेने दो! आखिर दस पैसे में अब आता ही क्या है? निकाल कर भी क्या करेंगे?’
ऐसे ही एक दिन उसने डाॅक्टर को फोन किया कि मेरा लड़का मेरा फाउन्टेन पेन निगल गया है, तो मैं क्या करूं? तो डाॅक्टर ने कहा कि मैं आता हूं।आधा घंटा तो लग ही जाएगा।
तो मुल्ला ने कहा: ‘लेकिन आधा घंटा मै क्या करूं?’
तो डाॅक्टर ने कहा: ‘अब आधा घंटा तुम क्या करो! अरे तब तक पेंसिल से लिखो, और क्या करोगे? बालप्वाइंट हो तो उससे लिखों।’
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी समझ तो चलेगी। सुनोगे तुम मुझे, समझोगे तो तुम अपनी।
मुल्ला नसरूद्दीन घबड़ाते हुए बोला: ‘सुनती हो फजलू की अम्मा, भूल से फजलू का कम्बल मेरे हाथ से बालकनी से नीचे गिर गया है!’
पत्नी बोली मुल्ला से: ‘हाय, अब फजलू को सर्दी लग गयी तो?’
मुल्ला बोला: ‘घबड़ाओ नहीं, फजलू को सर्दी कभी नहीं लग सकती। फजलू भी कम्बल में लिपटा हुआ है।’
मुल्ला नसरूद्दीन एक रात अपनी पत्नी से कह रह था: ‘फजलू की मां, जेल में रहने से कई फायदे हैं। एक तो बड़ा फायदा है।’
पत्नी ने कहा: ‘क्या उल्टी सीधी बातें बकतें हो! जेल में रहने से फायदा! क्या फायदा है जी?’
मुल्ला बोला: ‘यही कि वहां कोई कम्बख्त आधी रात को जाकर यह नहीं कहता कि जाकर देख आओ, पिछवाड़े वाला दरवाजा बंद है कि खुल्ला है?’
नसरूद्दीन ने अपने व्याख्यान के बाद लोंगो से कहा कि मित्रो, यदि किसी को कुछ पूछना हो तो कृपया एक कागज पर लिख कर पूछ लें। सिर्फ एक ही कागज आया, जिस पर सिर्फ इतना ही लिखा हुआ था: गधा!
नसरूद्दीन बोला: ‘मित्रो, किसी सज्जन ने अपना नाम तो लिख कर भेज दिया है, लेकिन प्रष्न नहीं पूछा।’
धर्मकृश्ण, मैं कोषिष करता रहूंगा। तुम भी कोषिष करते रहो। बनते-बनते षायद बात बन जाए। और न भी बनी तो हर्ज क्या? अनंत काल पड़ा है, अगले जन्म में किसी और बुद्ध को सताना। तुम यही काम करते रहे पहले से। न मालूम किन किन बुद्धों को तुमने सताया होगा! आखिर बुद्धों को भी तो काम चाहिए न! नहीं तो वे किसको मुक्त करेंगे?
तो कुछ लोग तो टिके ही रहो। लाख समझाऊं, समझ में भी आ जाए, मत समझना। क्योंकि आगेवाले बुद्धों का भी ख्याल रखना आवष्यक है।

पांचवा प्रष्न: भगवान,
कुछ दिन पूर्व आपने कहा कि रूस में आपके संन्यासी बिना माला एंव कपड़े के रहते हैं। अभी इंदौर के एक षिबिर में मा आनंद मृदुला ने कहा था कि जो लोग माला एंव कपड़े नहीं पहनते हैं उन्हें उस तल के नुकसान हो सकते हैं जिन्हें वे जान भी नहीं सकते।
 क्या किसी बुद्धपुरूश की करूणा फिर से क्रोध की खाइयों में उतर सकती है? इसी भय से मैंने संन्यास वापस कर दिया है क्योंकि मैं न तो भीतर से संन्यासी था और न ही दो वर्श से माला कपड़े पहनता था।
भगवान, मेरी उपरोक्त मनःस्थिती पर प्रकाष डालने की अनुकम्पा करें!
 चंद्रप्रभु,
वीर पुरूश हो, तुम जैसे वीर पुरूशों के कारण ही तो भारत देष महान है! धन्य हो तुम!
इंदौर रूस का कब से हिस्सा हो गया? इंदौर में कौन-सी तुम्हें अड़चन आ रही थी? कौन फांसी लगा रहा था तुम्हारी? कौन-सी गर्दन कटी जा रही थी तुम्हारी? कायरता को छिपाने के लिए तुम्हें यह बात मिल गयी। इसी को मैं कहता हूं कि तुम जो सुनना चाहते हो सुन लेते हो। इतने दिन में तुमने इतनी बात सुनी कि मैंने कहा कि रूस में संन्यासी बिना माला एवं कपड़े के रहते हैं। तुम्हारा दिन बागबाग हो गया। तुमने कहा: ‘वाह! अरे यही तो हम कर रहे थे इंदौर में। तो जब रूस में रह सकते हैं, इदौर में क्यों नहीं रह सकते?’
मगर तुम्हें मालूम है रूस के वे जो संन्यासी हैं, उन्होंने तो चाहा था कि वे कपड़े और माला में रहें, मैंने उन्हें मना किया है। तुमने पूछा था? दो साल कायर की तरह तुम छिपे रहे। न तुमने खबर दी, न तुमने बताया। जब दो साल से तुम पाते थे कि न भीतर से संन्यासीन बाहर से, तो क्या जरूरत थी छिपे रहने की? खबर कर दी होती कि मैं संन्यासी नहीं हूं।
और इंदौर में कौन-सी कठिनाई आ रही थी तुम्हें? तुम्हें रूस की कठिनाइयों का अंदाज है? तुम्हें रूस की मुसीबतों का अंदाज है, कि रूस में जो भी व्यक्ति एक जरा-सी भी ऐसी बात करता हुआ पाया जाए जो सरकारी धारणा के विपरीत है, फिर उस व्यक्ति का पता ही नहीं चलता!
खरूष्चेव जब हुकूमत में आया तो एक सभा में बोल रहा था कम्यूनिस्टों की। और स्टेलिन की खूब निंदा कर रहा था, जी भर कर निंदा कर रहा था। जीवन भर का दबा-दबाया रोश प्रगट हो रहा था। एक आदमी ने पीछे से आवाज लगायी कि जब स्टेलिन जिंदा था, तब आप क्यों नहीं बोले? तब तो उसकी खुषामद करते रहे। पूरी जिदंगी! अब बड़ी बहादुरी दिखा रहे हैं!
खरूष्चेव एक क्षण रूका और उसने कहा कि मेरे बन्धु, कामरेड, आप कौन हैं? जरा खड़े हो जाएं। मैं जरा आपकी षकल देख लूं और अपना नाम बता दें।
कोई खड़ा नहीं हुआ और कोई नाम नहीं बताया। ख्रूष्चेव ने कहा कि देखते हैं आप, जब तक मैं जिंदा हूं तब तक तुम भी खड़े नहीं हो सकते और नाम नहीं बता सकते। यही हालत मेरी थी, जो हालत तुम्हारी है। मैं बोलता तो कभी का खतम हो जाता। तुम बोलो, घर नहीं पहुंचोगे।
रूस में कब कौन आदमी दफ्तर से ही नदारद हो जाएगा, कहना मुष्किल है। दीवालों के कान हैं। अपनी पत्नी से भी कोई व्यक्ति सच्ची बात नहीं कह सकता, क्योंकि कौन जाने; क्योंकि पत्नी स्त्रियों की कम्यूनिस्ट लीग की सदस्या है। अपने बच्चों से मां बाप सच बात नहीं कह सकते, क्योंकि बच्चे बच्चों की कम्यूनिस्ट लीग के सदस्य हैं। वे वहां जाकर खबर देते हैं। राश्ट्र के हित में वे सब एक-दूसरे की खबर देते रहते हैं। कोई किसी से नहीं बोल सकता।
दो रूसी एक रास्ते पर मिले। एक ने कहा: ‘अहा, क्या सुंदर कार है! रूस में भी कैसी कैसी सुंदर कांरे बनने लगीं!
दूसरे ने कहा: ‘यह रूसी कार नहीं है। रूस में इतनी बड़ी कारें नहीं बनती। और तुम भी जानते हो कि यह रूसी कार नहीं है। साफ दिखाई पड़ रहा है। यह अमरीकन गाड़ी है। इतनी बड़ी गाड़ियां रूस में बनती ही नहीं। इस तरह की गाड़ियां रूस में बनती ही नहीं। क्या तुमको इतनी भी अकल नहीं है?’
उस आदमी ने कहा: ‘वह तो मुझे भी पता है कि यह कार कहां की बनी है। लेकिन मुझे यह पता नहीं कि आप कौन हैं!’
इतना कहना भी खतरे से खाली नहीं है कि यह अमरीकी गाड़ी है। पता नहीं यह आदमी खबर कर दे, झंझट में पड़ जाओ तुम!
तीन आदमी जेल में बंद थे। तीनों पूछने लगे: ‘भाई, किसलिए तुम आए?’
तो एक ने कहा कि मैं इसलिए जेल में बंद किया गया हूं कि मैं दफ्तर देर से पहुंचा। तो उन्होंने कहा कि यह अनुषासन भंग हो गया। तुम देर से क्यों आए?
दूसरे ने कहा: हद हो गयी! मैं दफ्तर जल्दी पहुंच गया, इसलिए मुझे बंद कर दिया। कहने लगे तुम कोई जासूसी करने आए हो? तुम दफ्तर पहले क्यों पहुंचे? तुम कोई फाइलें वगैरह उलट कर देखना चाहते हो? तुम इधर-उधर ताका-झांकी कर रहे थे।
तीसरे ने कहा: ‘हद हो गयी! मैं दफ्तर बिलकुल ठीक वक्त पर पहुंचा, इसलिए बंद हूं।’
दोनों पूछने लगे: ‘फिर तुम्हें क्यों बंद किया?’
उसने कहा कि उन्होंने कहा मालूम होता हैं तुम्हारे पास इम्पोटेंड घड़ी है। तुम ठीक वक्त पर कैसे पहुंचे? रूसी घड़ी कहीं ठीक समय बता सकती है!
रूस की हालतों का तुम्हें चंद्रप्रभु, पता नहीं है। इसलिए मैंने उन्हें कहा। वे तो चाहते थे कि कपड़े पहनें। लेकिन क्या प्रयोजन है? उनको जेल में डलवा देने का कोई अर्थ नहीं है। उनको माला पहनवा देने से अगर उनका जीवन व्यर्थ ही संकट में पड़ जाए, तो काम को नुकसान ही पहुंचेगा। वे ध्यान कर रहे हैं और उनका तो भाव पूरा है। वे आज राजी हैं। जिस दिन मैं खबर कर दूंगा उस दिन वे पहन कर माला निकलने को राजी हैं, फिर जो परिणाम हों।
तुम्हें इंदौर में कौन-सी मुसीबत आ रही थी? तुम निपट कायर हो! और तुम बेईमान भी हो। और तुम अकेले नहीं हो ऐसे बेईमान, इसलिए तुम्हारे प्रष्न का उत्तर दे रहा हूं। क्योंकि ऐसे बहुत बेईमान हैं, जो पूना आ जाते हैं तो गैरिक वस्त्र पहन लिए, माला पहन ली; पूना से गये कि बस ट्रेन में ही वे गैरिक वस्त्र और माला छिपा देते हैं। अपने गांव पहुंचते हैं, उसी षकल में जिस षकल में चले थे; किसी को पता भी नहीं चलने देते कि वे संन्यासी हैं।
इसलिए तो मृदुला को मैं भोजता हूं जगह-जगह कि जरा देखना कौन-कौन...क्योंकि यहां तो तुम्हें कोई अड़चन नहीं है। और जब तुम भीतर-बाहर से संन्यासी थे ही नहीं, तो तुम क्या कह रहे हो कि मैंने संन्यास वापिस कर दिया! जो था ही नहीं वह तुम वापिस क्या खाक करोगे! पहले होना भी तो चाहिए वापिस करने के लिए! था ही नहीं संन्यास, तो तुमने वापिस क्या कर दिया? किस लिए कपड़े रखे हुए थे और माला रखे हुए थे। इसीलिए ताकि यहां जब आओ तब धोखा दे सको; यहां संन्यासी होने की अकड़ और संन्यासी होने का लाभ ले सको।
यह कायरता छोड़ो! संन्यास लेना हो तो संन्यासी रहो, नहीं लेना हो तो कोई मजबूरी नहीं है, किसी पर जोर-जबरदस्ती नहीं हैं। और मृदुला ने ठीक कहा कि तुम्हें ऐसे नुकसान हो सकते हैं। लेकिन नुकसान इसलिए नहीं होंगे कि बुद्धपुरूश की करूणा क्रोध में बदल जाती है; नुकसान इसलिए होंगे कि तुम्हारी बेईमानी ही तुम्हें गड्ढ़ों में गिराएगी। तुम्हारा धोखा ही.....। जो अपने गुरू को भी ही धोखा दे रहा है, इस दुनिया में इससे ज्यादा और गया-बीता आदमी क्या होगा! कम से कम मेरे सामने तो अपने को प्रगट करो-जैसे हो वैसे ही अपनी नग्नता में, अपनी सहजता में; अपनी सरलता में, अपनी भूले-चुकें जो भी हैं! अगर मेरे सामने भी तुम प्रगट नहीं कर सकोगे, तो कहां प्रगट करोगे?
मगर तुम बड़े होषियार आदमी मालूम होते हो। बजाए इसके कि तुमने मृदुला की बात का यह अर्थ लिया होता कि तुम बेईमानी कर रहे हो, जो कि गलत है, जिसका कि नुकसान तुम्हें होगा ही-तुमने मतलब यह लिया कि ‘क्या बुद्धपुरूश भी करूणा से उतर कर क्रोध की खाइयों में जा सकते हैं?’ बुद्धपुरूश न आते न जाते, जहां हैं वही हैं। करूणा और क्रोध दोनों ही तुम्हारी दुनिया के षब्द हैं; बुद्धपुरूश दोनों के पार हैं। न वहां करूणा है न वहां क्रोध हैं। वहां परम सन्नाटा है, परम मौन है, परम षांति है। वहां परम षून्यता है। वहां मन ही न बचा तो ये तो मन की ही लक्षणाएं हैं-क्रोध और करूणा, प्रेम और घृणा। ये सब तो द्वंद्व मन के ही हैं। जहां मन ही नहीं वहां कैसा द्वंद्व!
लेकिन तुम अपने हाथ से अपने को नुकसान पहुंचा सकते हो। तुम ही अपने को नुकसान पहुंचाओगे। तुम ही को भीतर पाखंड पकड़ रहा है। मैं पाखंड का इतना विरोध करता हूं और मेरे संन्यासी होकर भी तुम पाखंडी ही रहोगे! यह पाखंड है कि तुम यहां दिखाओ कि संन्यासी हो और इंदौर लौट जाओ और वहां दिखाते रहो कि हमें संन्यासी से कुछ लेना-देना नहीं है।
मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं जो छिप कर मेरी किताबें पढ़ेंगे, जो मुझसे राजी हैं; मगर किसी के सामने कह न सकेंगे, किसी के सामने प्रगट न कर सकेंगे। सामने तो मेरी निंदा करेंगे। इतनी हिम्मत नहीं है, इतना साहस नहीं है!
और अब तुम कह रहे हो कि मेरी उपरोक्त मनःस्थिति पर प्रकाष डालने की क्या अनुकम्पा......साफ ही है, इसमें क्या प्रकाष डालना है और? अंधेरा ही अंधेरा है।
जीवन में प्रामाणिक होना सीखो। संन्यास नहीं तो संन्यास नहंीं, कोई हर्ज नहीं। लेकिन प्रामाणिक जो होनी ही चाहिए। एक सचाई तो होनी ही चाहिए। अभी भी तुम नाम संन्यास का ही उपयोग कर रहे हो। वह नाम भी तुम छोड़ दो। वह तुम्हें षोभा नहीं देता। लौट जाओ अपने पुराने नाम पर, वही ठीक है-लल्लूमल कल्लूमल जो भी तुम रहे हो! चंद्रप्रभू बड़ा प्यारा नाम है, इसको खराब न करो। इसको मैं किसी और को दूंगा। यह किसी और के काम आएगा। माला लौटा दी, कपड़े पहनना बंद कर दिए हैं, अब यह नाम को क्यों पकड़े हुए हो? इसको भी जाने दो। जैसे थे वैसे ही ठीक। ‘पुनःमूशको भव!’ फिर से चूहे हो जाओ।
तुमने चूहे की कहानी तो सुनी है न, कि चूहे ने बहुत परेषान होकर हनुमान चालीसा पढ़ा और बहुत हनुमान जी की भक्ति की! आखिर हनुमान जी को प्रगट होना पड़ा। कहा: ‘क्यों रे चूहे के बच्चे, क्यों मेरे पीछे पड़ा है? और तू गणेष का वाहन है तो हमको क्यों सताता है? गणेष जी से ही क्यों नहीं बात करता?’
तो चूहे ने कहा: ‘गणेष जी सुनते नहीं, ऊपर ही छाती पर चढे. रहते हैं। बोली निकले तब! इतना भारी-भरकम षरीर, बोली निकलने ही नहीं देते। प्राण निकले जा रहे हैं, बोली कहां से निकले? इसलिए तुम्हें याद किया है। इतनी-सी कृपा करो कि मुझे बिल्ली बना दो। मैं चूहा रहते रहते थक गया। एक तो गणेष जी सता रहे हैं और दूसरी यह बिल्ली। अगर गणेष जी पीछा छोड़ते हैं तो बिल्ली पीछे पड़ जाती है।’
हनुमान जी ने अपना पीछा छुड़ाने के लिए कहा: ‘ठीक है, तू बिल्ली हो जा।’
बस वह तो दो दिन बाद फिर हनुमान चालीसा पढ़ने लगा, और जोर-जोर से म्याऊं-म्याऊं मचायी उसने! हनुमान जी फिर प्रगट हुए कि भाई तू कैसा आदमी है। अब तो षांति रख!
उसने कहा कि यह बिल्ली होने से काम नही चलेगा, मुहल्ले भर के कुत्ते मेरे पीछे लगे हैं। तुम मुझे कुत्ता बना दो!
‘चल कुत्ता बन जा’-उन्होंने कहा-‘मगर अब मेरा पिण्ड छोड़। और भी काम मुझे पड़े हैं दूसरे। हजारों मेरे भक्त हैं और सबका मुझे ध्यान रखना पड़ता है।’
मगर वह तो दो दिन बाद फिर पढ़ने लगा हनुमान चालिसा। अब और जोर जोर से भौंकने लगा। हनुमान जी ने कहा कि भाई तू चुप होगा कि नहीं? अब क्या तकलीफ आ गयी?
उसने कहा कि नहीं चलेगा यह। जब से कुत्ता हो गया हूं, तब से और मुसीबत आ गयी है। जो देखो वही डंडा मारता है! जहां जाता हूं वहीं से लोग भागते हैं, दुत्कारते हैं। चैन से रहना मुष्किल है। और बाकी कुत्ते भी हमला करते हैं। कुत्तों में भी बड़ी कसा-कसी चलती है, बड़ी खींचतान मची हुई है, बड़ी राजनीति है। आप तो कृपा करके मुझे चूहा बना दों। वही अच्छा था। कम से कम गणेष जी का सत्संग भी रहता था। और ऐसी कुछ अड़चन न थी। अड़चनें बढ़ती चली गयी।
तो उन्होंने कहा: ‘ठीक है भैया, तू फिर से चूहा हो जा। मगर अब हनुमान चालीसा मत पड़ना। कितबिया लौटा दे।’
चंद्रप्रभू, अब तुम फिर से चूहे हो जाओ। इंदौरी चूहे ऐसे भी बहुत प्रसिद्ध चूहे होते हैं। मगर तुम्हें एक बहाना दिखा, तुमने देखा कि जब रूस में हो सकते हैं लोग संन्यासी बिना कपड़े और बिना माला के, तो इंदौर में क्यों नहीं!
और तुम कहते हो: ‘मैं भीतर से भी संन्यासी नहीं हूं।’
तो तुम किस लिए नाहक के उपद्रव में पड़े हो? यहां भी आने की क्या जरूरत है? क्यों परेषान हो रहे हो? क्यों मेरा समय खराब करना, क्यों अपना समय खराब करना? यहां तो जीवन दांव पर लगाने की बात है। यहां तो जुआरियों का काम है।

 आखिरी प्रष्न: भगवान,
 मैं उन्नीस सौ चैसठ से आपका प्रेमी हूं। आश्रम में चार बार आ चुका हूं और आपकी साठ पुस्तकें पढ़ चुका हूं। आप मुझे पूर्णतः सही लगते हैं परंतु आज तक संन्यास के लिए ह्द्य में भाव नहीं उठा। मेरी श्रद्धा और निश्ठा पर संदेह न करें और बताएं कि क्या मेर लिए इस जीवन में कोई संभावना है?
 विलास कुमार,
जरूर संभावना है। मुझे भी तो पंडितों की जरूरत पडे.गी न! जल्दी ही तुम पंडित विलासकुमार षास्त्री हो जाओगें अब और क्या कमी रह गयी? साठ पुस्तकें पढ़ चुके, कंठस्थ ही हो चुकी होंगी। उन्नीस सौ चैसठ से प्रेम कर रहे हो, अब तक तो प्रेम भी पक चुका होगां फसल कटने का वक्त आ गया होगा।
और कहते हो कि आप मुझे पूर्णतः सही लगते हैं। मगर यह ‘पूर्णतःसही लगना’ सिर्फ खोपड़ी में ही लग रहा होगा। क्योंकि तुम कहते हो: ‘संन्यास का भाव नहीं उठता।’ ह्दय है भी, टटोल कर देखो! धक्धक् होती है कि नहीं? कहीं खोपड़ी में ही तो नहीं जी रहे हो? नहीं तो भाव उठे कहां! भाव के लिए ह्दय चाहिए
और कैसे प्रेमी हो कि भाव नहीं उठता! और उन्नीस सौ चैसठ.गजब की साधना कर रहे हो! प्रेम की साधना चल रही हैं उन्नीस सौ चैसठ से! भाव कब उठेगा? भाव का क्या अर्थ होता है! पे्रम ही तो भाव है।
संन्यास का क्या अर्थ है? संन्यास का इतना ही अर्थ है कि तुम मेरे प्रेम में पड़े हो और तुम मेरे रंग में रंग गये हो। संन्यास का इतना ही तो अर्थ है कि तुम मेरे साथ चल पड़े हो अनंत की याात्रा पर, कि तुम मेरे साथ खतरे उठाने को राजी हो, कि तुम मेरी नाव में बैठ गये हो श्रद्धापूर्वक, कि डुबाऊंगा भी तो ठीक। डुबाऊंगा भी, तो भी उबरना होगा। डूबने में भी अगर उबरना दिखाई पड़ने लगे, तो ही प्रेम है।
प्रेम तो पागलपन है! और अगर तुममें इतना पागलपन भी नहीं है कि तुम संन्यासी हो सको, तो फिर एक ही उपाय बचता है कि तुम पंडित हो जाना, षास्त्री हो जाना। और उसी तैयारी में तुम लगे हो। जरूरत पड़ेगी। मेरे जाने के बाद कई पंडित और कई षास्त्री इकट्ठे होने वाले हैं। वह सदा से काम रहा है उनका। उसमें तुम्हारा भी नंबर रहेगा। तुम अपने कार्य में लगे रहो। घबड़ाओ मत। इतनी ही संभावना है तुम्हारे लिए, इससे ज्यादा नहीं।
और तुम मुझसे कह रहे हो: ‘मेरी श्रद्धा और निश्ठा पर संदेह न करें।’
मैं नही करता संदेह, लेकिन तुम्हें अपनी निश्ठा और अपनी श्रद्धा पर भरोसा है? तुम्हें भरोसा है? तुम्हें अपनी श्रद्धा पर श्रद्धा है? तुम्हें अपने प्रेम पर भरोसा है? तो फिर छलांग ले लो। मैं क्यों संदेह करूं? मैं तो साफ बात कह देता हूं, दो टूक बात कह देता हूं, कि अभी तुम्हारा मुझसे संबंध खोपड़ी का है। और खोपड़ी का कोई संबंध संबंध नहीं होता।
बहुत लोग हैं इस देष में जो किताबें पढ़ते हैं, जो विचारों से सहमत हैं। लेकिन यह मामला विचार से सहमत होने का नहीं है। यह मामला तो ह्द्य से ह्द्य के मिलाने का है, ह्द्य से ह्द्य के जुड़ाने का है। यह तो दीवानापन का रास्ता है। यह तो पागलों का रास्ता है। यह तो मतवालों का रास्ता है। यह तो षमा जल रही है, परवानों को पुकारा जा रहा है, पंडितों को नहीं।
तुम्हारी संभावना पंडित होने की है। और मेरी दृश्टी में पंडित होना अर्थात सबसे बड़ी दुर्गति। वह महापाप है। उससे बड़ा कोई पाप नहीं है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें