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सोमवार, 20 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-16)

प्रवचन-सौहलवां 

बंबई, रात्रि, दिनांक 4 जून, 1972

प्रश्न एवं उत्तर

पहला प्रश्नः भगवान, कल रात्रि आपने कहा कि मन दो बातें एक साथ कर सकता यानी विचार करना व साक्षी होना। इससे ऐसा लगता है कि साक्षी होना एक मानसिक प्रक्रिया है, मन का एक कृत्य है। क्या सचमुच ऐसा है? कृपया इसे समझाएं। क्या आंशिक व समग्र रूप से साक्षी होना-ऐसी भी कोई चीज है?
साक्षी होना कोई मानसिक क्रिया नहीं है; विचार करना एक मानसिक प्रक्रिया है। बल्कि अच्छा हो कि यूं कहें कि विचार करना ही मन है। जब मन नहीं होता अर्थात मन अनुपस्थित होता है, विलीन हो गया होता है, केवल तभी आप साक्षी भाव को उपलब्ध होते हैं। वह मन के परे की चीज है।
झेन, बौद्ध मन को दो तरह से कम में लेते हैंः साधारण मन जिसका अर्थ होता है विचार करने वाला मन; दूसरा वह मन जो कि वैचारिक मन के पीछे होता है। चेतना मन के पीछे होती है, चेतना मन के द्वारा आती है। जब मन विचार कर रहा होता है, तब वह बंद हो जाता है-अपारदर्शी, बादलों से आच्छादित आकाश की भांति। तब आप आकाश को नहीं देख सकते। जब बादल नहीं होते, तब आप आकाश को देख सकते हैं।

जब विचारणा नहीं होती, तब आप साक्षी का अनुभव कर सकते हैं। वह पीछे शुद्ध आकाश का होना है। इसलिए जब मैंने कहा कि आप दोनों बातें एक साथ नहीं कर सकते, तो मेरा मतलब था कि या तो आप विचार कर सकते हैं या तो आप साक्षी हो सकते हैं। यदि आप विचार कर रहे हैं, तो साक्षी खो जाता है। तब मन एक बादल हो जाता है आपकी चेतना के ऊपर। यदि आप साक्षी हैं, तो आप उसके साथ विचार नहीं कर सकते। तब मन वहां नहीं है। सोचना, विचार करना सीखी गईप्रक्रिया हैं; साक्षी होना आपका स्वभाव है। इसलिए जब मैं कहता हूं कि आप दोनों नहीं कर सकते, अथवा मन दोनों बातें एक साथ नहीं करता, तब मेरा मतलब यह नहीं है कि साक्षी होना मन की एक प्रक्रिया है। मन तो विचार करने की प्रक्रिया है, मन तो मनन करने के लिए है, माइंसिंग के लिए है।
वस्तुतः बहुत सी समस्याएं केवल भाषा के कारण निर्मित हो जाती हैं। ऐसा मन की तरह कुछ भी नहीं है। केवल एक प्रक्रिया है, न कोई चीज। अच्छा हो कि कहें मइंडिंग-विचार करना-बजाय मन कहने के। यह लगातार विचार करने की प्रक्रिया है, एक विचार के पीछे दूसरे विचार का चले आना। केवल अंतरालों में, केवल दो विचारों के बीच की खाली जगहों में, आपको साक्षी स्वभाव की कुछ झलक मिल सकती है। किंतु विचार इतनी तीव्र गति से चलते हैं कि आप अंतराल को अनुभव ही नहीं कर पाते। यदि आप अपने विचारों के साक्षी हो जाएं, यदि आप उनको देखने लगे, तो विचार की प्रक्रिया थोड़ी मंद हो जाती है और तब आप अंतरालों को अनुभव कर पाते हैं। एक विचार चला गया है, दूसरा अभी नहीं आया है और एक अंतराल पैदा हुआ है। उसी अंतराल में आप साक्षी होते हैं। और विचार बिना अंतरालों के नहीं हो सकते, वरना वे एक दूसरे पर पड़ने लगेंगे। वे मेरी उंगलियों की भांति हैं, जिनके बीच में गैप हैं, अंतराल हैं।
यदि आपके विचार की प्रक्रिया मंद हो जाए (और ध्यान की प्रत्येक विधि कुछ और नहीं करती, वह केवल आपकी विचार-प्रक्रिया को मंद कर देती है। ) यदि वह धीमी हो जाए, तो आप अंतरालों को महसूस करने लगेंगे। इन्हीं अंतरालों में से साक्षी भाव जगता है। विचार है मन; विचार शून्य चेतना है साक्षी। विचार बाहर से आते हैं, साक्षी भीतर की बात है। चेतना आपके भीतर पैदा होती है, विचार बाहर से लिए जाते हैं, संग्रह किए जाते हैं। इसलिए आपके पास हिंदू विचार हो सकते हैं, आपके पास मुसलमान विचार हो सकते हैं, आपके पास ईसाईविचार हो सकते हैं, किंतु आपके पास एक ईसाई आत्मा नहीं हो सकती, आपके पास हिंदू आत्मा नहीं हो सकती। आत्मा तो बस आत्मा होती है, चेतना तो केवल चेतना ही होती है।
मन के टाइप होते हैं, प्रकार होते हैं। आपके पास एक खास प्रकार का मन है। वह खास मन आपका बड़ा होना आपके संस्कार, शिक्षा, संस्कृति आदि है। मन का अर्थ होता है जो कुछ भी बाहर से आपके भीतर डाल दिया गया है, और साक्षी का अर्थ होता है जो कि बाहर से आपके भीतर नहीं डाला गया है, किंतु जो कि आपका आंतरिक है, आत्यंतिक रूप से, स्वभाविक है। वह जो कि आपको स्वभाव है। मन एक उप-उत्पत्ति है, एक आदत है; साक्षी, चेतना, सजगता या जो भी आप नाम देकर पुकारें, स्वभाव है। परंतु आप कितनी ही आदतें सीख सकते हैं, और स्वभाव भीतर दब जा सकता है। आप उसे पूर्णतः विस्मृत कर सकते हैं। इसलिए धर्म स्वभाव के लिए आदतों के विरुद्ध लड़ना है। उसे उघाड़ना है जो कि ढका है, जो कि स्वभाविक है-मौलिक है, आपका वास्तविक होना है।
इसलिए पहली बात स्मरण रखेंः साक्षी व विचार दो भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। विचार आपके मन से संबंधित है। साक्षी आपकी चेतना से संबंधित है। और आप दोनों एक साथ नहीं कर सकते। आपकी चेतना उदघाटित हो इसके लिए मन को मर जाना पड़ेगा। विचारों को अवश्य रुक जाना पड़ेगा। आपके वास्तविक स्वभाव को उपलब्ध होने के लिए। इसलिए विचारक होना एक बात है, और एक प्रबद्ध व्यक्ति होना बिल्कुल ही भिन्न बात है।
बुद्ध विचार नहीं हैं। हीगल व कांट विचारक हैं। वे अपने मस्तिष्क का उपयोग करते हैं किन्हीं खास नतीजों पर पहुंचने के लिए। बुद्ध किसी भी निर्णय पर पहुंचने के लिए अपना मस्तिष्क कतई इस्तेमाल नहीं करते। वे वास्तव में एक अ-मन हैं। उन्होंने मन को काम में लेना बिल्कुल ही बंद कर दिया है। वे अपने किसी भी नतीजे पर पहुंचने के लिए स्वभाव को ही काम में लेते हैं न कि मन को। अतः मन के साथ आप किसी भी परिणाम पर पहुंच सकते हैं, परंतु सब परिणाम काल्पनिक (हाइपोथेटिकल) व सैद्धांतिक ही होंगे, क्योंकि एक विचार केवल दूसरे विचार को ही जन्म दे सकता है। परंतु विचार वास्तविकता को जन्म नहीं दे सकता, विचार सत्य को जन्म नहीं दे सकता।
साक्षी के द्वारा आप सत्य को पहुंचते हैं-न कि परिणामों या सिद्धांतों को, किंतु तथ्यों को, सीधे व तुरंत। उदाहरण के लिए मैं आपसे कुछ कह रहा हूं। आप उसके बारे में सोच सकते हैं, तब आप चूक गए। आप सोच सकते हैं कि साक्षी क्या है, मन क्या है! आप उसके बारे में विचार कर सकते हैं। यह एक तरीका है, यह मन का तरीका है। किंतु आप इसके साथ प्रयोग कर सकते हैं और विचार नहीं कर सकते हैं। प्रयोग से मतलब है कि आपको जानना है कि मन को कैसे रोकें व कैसे साक्षी का अनुभव करें। तब भी आप कहीं पहुंचते हैं, तब यह निष्कर्ष नहीं है, यह कुछ ऐसा नहीं है जो कि विचार से उपलब्ध किया गया है। तब आप वास्तव में कुछ उपलब्ध करते हैं।
कोई अरविंद से पूछ रहा था-क्या आप परमात्मा में विश्वास करते हैं? अरविंद ने कहा-नहीं, मैं परमात्मा में बिल्कुल विश्वास नहीं करता। प्रश्न पूछने वाला तो एकदम ही घबड़ा गया, क्योंकि वह बहुत दूर से आया था। उसने सोचा था कि अरविंद उसे अवश्य ही परमात्मा की ओर जाने का मार्ग बतलाएंगे। और अरविंद कहते हैं-मैं विश्वास ही नहीं करता। वह अपने कानों पर विश्वास न कर सकता। उसने फिर पूछा। उसने कहा-मैं तो बहुत घबड़ा गया हूं। मैं बहुत दूर से आपके पास आया हूं यह जानने के लिए कि परमात्मा तक कैसे पहुंचा जाए। और यदि आपको विश्वास ही नहीं, तब तो पहुंचने का प्रश्न ही नहीं उठता!
अरविंद ने कहा-कौन कहता है कि प्रश्न ही नहीं उठता। मैं विश्वास नहीं करता, क्योंकि मैं जानता हूं कि परमात्मा है, परंतु वह मेरा विश्वास नहीं है, वह कोई वैचारिक निष्कर्ष भी नहीं है। यह कोई विश्वास नहीं है। मैं जानता हूं-यह मेरा जानना है।
मन यादा से यादा विश्वास कर सकता है। वह कभी भी जान नहीं सकता। वह केवल विश्वास कर सकता है कि या तो परमात्मा है या नहीं है। किंतु दोनों ही विश्वास हैं। आस्तिक और नास्तिक दोनों ही विश्वास करने वाले लोग हैं। उनके विश्वास नकारात्मक अथवा विधायक होते हैं। एक विश्वास करता है कि परमात्मा है, दूसरा विश्वास करता है कि परमात्मा नहीं है। ये दोनों ही विश्वास हैं। दोनों ही अपने-अपने निष्कर्षों पर पहुंचे हुए होते हैं, मन के द्वारा, विचार के द्वारा। वे विचारक ही होते हैं। उन्होंने तर्कसंगत जांच करने का प्रयत्न किया और तब वे कुछ खास नतीजों पर पहुंचे।
बुद्ध विश्वास करने वाले व्यक्ति नहीं हैं। वे जानते हैं। और जब मैं कहता हूं कि वे जानते हैं, तेरा मतलब है कि जानना केवल एक ही तरीके से संभव होता है, और वह मन के द्वारा नहीं होता। वह मन को पूर्णतः फेंक देने पर होता है। यह सोचना भी बहुत कठिन है, क्योंकि यह भी हमें मन के ही द्वारा सोचना पड़ेगा, और वही कठिनाई है। मुझे आपसे मन के माध्यम से ही बात करनी पड़ेगी, और आपको भी मन के माध्यम से ही मुझे सुनना पड़ेगा। इसलिए जब मैं कहता हूं कि उन्होंने मन के द्वारा नहीं जाना, तो आप यह बात मन से सुनते हैं और मन के लिए यह समझना बहुत कठिन होता है।
मैं इसके लिए एक थ्योरी (सिद्धांत) भी निर्मित कर सकता हूं। आप यह भी विश्वास करने लगे जाएंगे कि सत्य को मन के द्वारा नहीं जाना जा सकता। यदि आप यह विश्वास करने लगें, तो फिर आप मन में ही पहुंच गए। आप कह सकते हैं कि मुझे भरोसा नहीं होता। मैं विश्वास नहीं करता कि कुछ भी ऐसा है जो कि मन के पार है। तब फिर आप मन में ही हैं।
आप मन के पार कभी भी नहीं जा सकते, यदि आप उसे ही काम में लेते जाए। आपको छलांग लगानी पड़ेगी, और ध्यान का अर्थ होता है छलांग। इसलिए ध्यान अतर्कपूर्ण है, असंगत है। और इसे तर्कसंगत नहीं बनाया जा सकता, उसे तर्क में सीमित नहीं किया जा सकता। आपको उसे अनुभव करना पड़ेगा। जब आप इसे अनुभव करेंगे, तभी केवल आप उसे जानेंगे।
इसलिए इसका प्रयोग करें। इसके बार में सोचें नहीं, किंतु अपने ही विचारों के साक्षी होने का प्रयत्न करें। आराम से बैठ जाएं, अपनी आंखें बंद कर लें, और अपने विचारों को चलने दें जैसे कि परदे पर फिल्म चल रही हो। उन्हें देखें, उनकी ओर देखें, उन्हें अपने विषय बना लें। एक विचार उठता हैः उसको गहराई से देखें, उसके बारे में कुछ भी न सोचें; केवल देखें। यदि आप उसके बारे में सोचने लगे, तो आप साक्षी नहीं रहे। तो फिर आप उसी में पड़ गए।
बाहर होने की आवाज सुनाई पड़ती है, एक विचार उठता है। कोई कार गुजर रही है, अथवा कुत्ता भौंकता है, या कोई और बात होती है। उसके बारे में कुछ भी नहीं सोचें, केवल उस विचार की ओर देखें। विचार उठा और उसने रूप ले लिया। अब वह आपके सामने है। जल्दी ही वह गुजर जाएगा। दूसरा विचार उसकी जगत ले लेगा। इस विचार प्रक्रिया को देखते रहें। यदि एक क्षण के लिए भी आप इस विचार-प्रक्रिया को देखने में समर्थ हो गए बिना विचार किए, तो आपने साक्षी को कुछ थोड़ा सा उपलब्ध कर लिया और आपने साक्षी होना जान लिया। यह एक स्वाद है-विचार करने से भिन्नप्रकार का स्वाद-बिल्कुल ही भिन्न। परंतु किसी कोप्रयोग करना पड़ेगा इसके साथ।
धर्म और विज्ञान बिल्कुल भिन्न हैं किंतु एक बात में वे समान हैं और उनका जोर एक ही हैः विज्ञान प्रयोग पर निर्भर करता है और धर्म भी। केवल दर्शनशास्त्र ही अप्रायोगिक है। दर्शनशास्त्र विचार पर, चिंतन पर निर्भर करती है। विज्ञान और धर्म दोनों ही प्रयोगों पर निर्भर करते हैं। विज्ञान प्रयोग करता है वस्तुओं पर और धर्म वैयक्तिकता पर। विज्ञान आपसे अलग दूसरी चीजों पर प्रयोग करता है और धर्म सीधा आपके ही ऊपर।
और यह कठिन है, क्योंकि विज्ञान में, एक तोप्रयोग करने वाला होता है, दूसरा प्रयोग होता है, और तीसरा वह वस्तु होती है जिस पर कि प्रयोग। धर्म में ये तीनों आप ही होते हैं एक साथ। आपको अपने ही ऊपर प्रयोग करना पड़ता है। आप ही विषय होत हैं, और आप ही वस्तु होते हैं और आप ही प्रयोगशाला भी होते हैं।
अतः सोचें नहीं। प्रारंभ करें, कहीं से भी शुरू करें प्रयोग करना। तब आपको सीधे अनुभव होगा कि सोचना क्या है और साक्षी क्या है। तब आप जानेंगे कि आप दोनों एक साथ नहीं कर सकते, जैसे कि आप बैठना और दौड़ना दोनों एक साथ नहीं कर सकते। यदि आप दौड़ते हैं तो आप बैठ नहीं सकते। और जब आप बैठे हैं, तब आप दौड़ नहीं सकते। दौड़ना पैरों का काम है, बैठना पैरों का काम नहीं है। बल्कि बैठना, पैरों से कोई काम नहीं लेना है। जब पैर काम कर रहे हैं, तब आप बैठे हुए नहीं हैं। पैरों का काम नहीं करना ही बैठना है, दौड़ना तो उनका काम करना है।
वही बात मन के साथ हैः सोचना मन का काम करना है, साक्षी मन का काम नहीं करना है। जब मन काम नहीं कर रहा है, आप साक्षी हैं। तब आप सजग हैं। इसीलिए मैंने कहा कि आप दोनों बातें मन से हनीं कर सकते। आप अपने पैरों से दौड़ना व बैठना दोनों काम एक साथ नहीं कर सकते। लेकिन तब इसका मतलब यह नहीं है कि बैठना पैरों का काम है। यह कोई काम है ही नहीं; यह पैरों का काम नहीं करना है।
और आपने पूछा है कि क्या कोई आंशिक साक्षी व समग्र साक्षी जैसी कोई चीज है? नहीं! कोई आंशिक व समग्र साक्षी जैसी चीज नहीं है। साक्षी होना ही समग्र है। चाहे वह एक क्षण के लिए ही क्यों न हों, किंतु जब वह होता है, तो समग्र होता है। क्या आप आंशिक रूप से अथवा समग्रता से बैठ सकते हैं? हम आंशिक बैठने से क्या समझ सकते हैं? साक्षी होना एक समग्र बात है। वास्तव में, जीवन में कुछ भी आंशिक नहीं है। जीवन में आंशिकता केवल मन के साथ ही है। इसे समझ लें। मन के साथ कुछ भी समग्र नहीं हैं, और न कभी कुछ भी समग्र हो सकता है, किंतु जब मन नहीं होता है तो हर चीज समग्र होती है; कुछ भी आंशिक नहीं होता। इसलिए, मन ही फैकल्टी, वह विभाग है जो कि जीवन में आंशिकता का, टुकड़ों का प्रवेश करवाता है।
उदाहरण के लिए, एक बच्चे को क्रोध में देखें। बच्चा अभी बच्चा है, असंस्कारित है। उसके क्रोध की ओर देखेंः क्रोध समग्र है, वह आंशिक नहीं है। कुछ भी दबाया नहीं गया है, वह पूरा खिला हुआ है। इसीलिए बच्चे क्रोध में भी इतने सुंदर लगते हैं। प्रत्येक समग्रता का एक अपनी सौंदर्य होता है।
जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपका क्रोध कभी समग्र नहीं होता। आपका मन बीच में आ जाता है, और क्रोध आंशिक हो जाता है। कुछ न कुछ अवश्य दबा हुआ रह जाएगा और वह जो दबा हुआ रह जाएगा, वही आपको आंशिक कर देगा। इसी तरह आपका प्रेम भी पूरा नहीं हो सकता। वह आंशिक ही होगा। न तो आप समग्रतः प्रेम कर सकते हैं, न ही घृणा। जो कुछ भी आप करेंगे, वह आंशिक होगा, क्योंकि आपका मन काम कर रहा है।
एक बच्चा कभी इसी क्षण क्रोध में हो सकता है, और दूसरे ही क्षण वह प्रेम में हो सकता है। और जब वह क्रोध में है, तो वह एक समग्र बात है, और जब वह प्रेम में है, तब भी वह एक समग्र बात है। प्रत्येक क्षण वह समग्र है। मन भी विकसित नहीं हुआ। एक ज्ञानी भी पुनः एक बच्चे की तरह से हो जाता है। कितने ही भेद होते हैं, परंतु फिर भी बच्चे का सा भाव फिर से आ जाता है, और वह फिर से समग्र हो जाता है। किंतु अब वह क्रोध में नहीं हो सकता।
जहां तक इस जीवन का संबंध है, बच्चा बिना मन के होता है। अतीत के जीवन और उनके बहुत से मन, अचेतन में संगृहीत, काम में संलग्न होते हैं। इसलिए एक बच्चा समग्र दिखलाई पड़ता है, किंतु वह वास्तव में समग्र नहीं होता। इस जीवन का मन विकसित हो रहा होता है। किंतु उसके पास बहुत से मन छिपे हुए हैं अर्द्ध-चेतन में, अचेतन में, मन की गहरी परतों में।
एक ज्ञानी बिल्कुल ही बिना मन के होता है; इसलिए वह किसी भी कार्य में समग्र हो सकता है। वह क्रोध में नहीं हो सकता; वह घृणा में नहीं हो सकता। और कारण फिर वही है कि कोई भी क्रोध में समग्र नहीं हो सकता। क्रोध दुःख पूर्ण है, और आप किसी भी ऐसी चीज में समग्र नहीं हो सकते, जो कि आपको दुःख देती हो। वह घृणा में भी नहीं हो सकता, क्योंकि अब वह किसी भी ऐसी चीज में नहीं हो सकता, जिस में कि वह समग्र हो सकता हो। यह कोई अच्छाई और बुराई का प्रश्न हनीं है, यह कोई नैतिकता का प्रश्न नहीं है। वास्तव में, ज्ञानी के लिए यह समग्र होने का सवाल है। वह इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता।
लाओत्जू कहता है-मैं उसे ही शुभ कहता हूं, जिसमें कि आप समग्र हो सकते हैं और उसे ही बुरा कहता हूं, जिसमें कि आप कभी भी समग्र नहीं हो सकते। आंशिक होना ही पाप है। यदि आप इसको दूसरी तरह देखें, तो मन ही पाप है, क्योंकि मन ही वह फैकल्टी, व्यवस्था है, जिससे आंशिकता उपजती है।
साक्षी होना समग्र है, किंतु हमारे जीवन में कुछ भी समग्र नहीं है-कुछ भी नहीं! हम हर बात में आंशिक हैं। इसलिए कोई आनंद नहीं है, कोई परम सुख नहीं है। क्यों कि जब आप किसी काम में समग्र होते हैं, तभी केवल आप को आनंद का क्षण उपलब्ध होता है, अन्यथा कभी भी नहीं। आनंद का अर्थ होता हैः किसी चीज में समग्र होना और हम किसी भी चीज में समग्र हनीं हैं। केवल हमारा एक हिस्सा ही किसी चीज में जाता है और बाकी हिस्सा तो हमेशा बाहर ही रह जाता है। यही तनाव पैदा करता हैः कि एक हिस्सा तो यहां है और बाकी हिस्सा कहीं ओर है। इसलिए जो कुछ भी हम करते हैं, यहां तक कि यदि तुम हम प्रेम भी करें, तो वह भी तनाव होता है, वह भी संताप होता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, यदि आप किसी व्यक्ति का प्रेम में अध्ययन करें, तब प्रेम भी ऐसा लगेगा जैसे कि कोई रोग हो। प्रेम भी आनंदपूर्ण बात दिखलाई नहीं पड़ती है। वह भी संताप है-एक भारी बोझ है। इसीलिए कोई कभी-कभी प्रेम से भी तंग आ जाता है, ऊब जाता है, क्योंकि मन जब आनंद में नहीं होता, तो वह दुख में होता है। जब भी किसी चीज में हम आंशिक होंगे, हम तनाव से भरे बिना नहीं कर सकते, तब हम संताप में पड़ेंगे ही। आंशिक होने का अर्थ ही यह होता है कि हम बंट गए और मन तो बंटा हुआ होगा ही। क्यों? क्योंकि मन कोई एक चीज तो है नहीं; मन का अर्थ होता हैः बहुत सी चीजें। मन संग्रह है, यह कोई यूनिटी-इकाई नहीं है।
आपका स्वभाव एक इकाई है; आपका मन तो एक संग्रहालय है। यह कोई समग्रता, युनिटी नहीं है। उसे तो इकिं किया गया है। कितने ही लोगों ने आपके मन कोप्रभावित किया है, कितने ही प्रभावों ने इसे निर्मित किया है। कोई भी चीज ऐसी नहीं गुजरती जो कि आपके मन कोप्रभावित न करती हो। जो कुछ भी गुजरता है, वह आपके मन कोप्रभावित करता ही है। आपके मित्र इसे प्रभावित करते हैं, और आपके शत्रु भी। आपके आकर्षण इसे प्रभावित करते हैं और आपके विकर्षण भी। जो कुछ भी आप पसंद करते हैं, वह आपकोप्रभावित करता है और जो कुछ भी आप पसंद नहीं करते, उससे भी आप प्रभावित होते हैं। इसीलिए मन एक कूड़ा घर हैं, वह कोई इकाई, टोटेलिटी नहीं है। वह बहु-विश्वगत है। वह कोई एक विश्व, यूनिवर्स नहीं है, इसलिए वह कभी भी समग्र नहीं हो सकता। समग्र वह हो भी कैसे सकता है? वह तो एक भीड़ है-अनेकानेक विरोधी प्रभावों से भरी अराजक भीड़, बिना किसी क्रम या अनुशासन वाली।
पुराना मनोविज्ञान एक चित्त में विश्वास करता था, किंतु नया मनोविज्ञान कहता है कि यह झूठी धारणा है। मन बहुत सी चीजों का ढेर है, वह एक नहीं है। आपके पास एक मन नहीं है। यह केवल भाषा की हमारी आदत है कि हम एक मन की बात करते चले जाते हैं। हम कहते चले जाते हैं-मेरा मन। किंतु यह गलती है-तथ्यगत गलती। अच्छा हो कि कहें-मेरे मन-माई माइंडस।
महावीर इस तथ्य को दो हजार वर्ष पहले ही जान गए थे। उन्होंने ऐसा कहा है कि मनुष्य एक चित्त वाला (यूनीसाइकिक) नहीं है; मनुष्य बहु-चित्तवान (पॉलिसाइकिक) है-उसके पास बहुत सारे मन हैं। इसीलिए आप अपने मन के साथ कभी समग्र हनीं हो सकते। या तो मन की बड़ी संखया वाला हिस्सा आपके साथ होगा या अल्प संखया वाला हिस्सा। मन का कोई भी निर्णय पार्लियामेंट (संसद) के निर्णय की भांति होगा। यादा से यादा आप बहुमत का दावा कर सकते हैं। और तब एक दूसरी ही चीज होती हैः कि यह जो भीड़ है यह निश्चित नहीं है, यह हमेशा बदलती रहती है। हर क्षण इसमें कुछ न कुछ जोड़ा जा रहा है, और कुछ न कुछ कम हो रहा है, इसलिए हर क्षण आपका मन नया है।
बुद्ध एक शहर से गुजर रहे हैं, और कोई इनके पास आता है और उनसे कहता है-मैं मनुष्य जाति की सेवा करना चाहता हूं, मुझे कोई रास्ता बतलाएं। बुद्ध अपनी आंखें बंद कर लेते हैं, और चुप हो जाते हैं। वह आदमी तो चकित रह जाता है। वह फिर पूछता है-मैं कह रहा हूं कि मैं मनुष्य जाति की सेवा करना चाहता हूं। आप चुप क्यों हो गए? क्या मेरे इस पूछने में कोई गलती है? बुद्ध अपनी आंखें खोलते हैं और कहते हैं-तुम मानव जाति की सेवा करना चाहते हो! किंतु तुम हो कहां? पहले होओ! तुम तो हो ही नहीं; तुम तो एक भीड़ हो। तुम इस क्षण मानव जाति की सेवा करना चाहते हो, किंतु अगले ही क्षण मानव जाति को नष्ट भी करना चाह सकते हो! जब तक मन स्वयं नहीं हो जाते, तुम कुछ भी नहीं कर सकते। इसलिए कुछ करने की न सोचो। पहले अपने होने की बात सोचो।
यह होना, यह बीइंग केवल साक्षी से ही घटित हो सकता है, न कि कभी भी विचार से। साक्षी समग्र होता है, क्योंकि वही आपका स्वभाव है। आप एक ही तरह पैदा होते हैं, उसके बाद आप बहुत से चित्त इकिं करते हैं। और तब ये बहुत से मन आप ऐसे महसूस करने लगते हैं जैसे कि ये ही आप हैं, तक आप इन से तादात्म्य जोड़ लेते हैं। इस तादात्म्य तोड़ना है।
प्रश्नः भगवान, पिछली रात्रि आपने साक्षी को एक विधि बतलाया; इसके पहले मैंने आपको कहते हुए सुना है कि समग्र हो जाओ जो भी करो; जो भी स्थिति हो, उसमें पूरे हो जाओ। कितनी ही बार मेरी यह समझ में नहीं आता कि इन दो में से किसका अनुकरण किया जाए? पीछे खड़े हो कर, अलग हट कर साक्षी हुआ जाए अथवा कुछ भी करते समय समग्र हुआ जाए-उदाहरण के लिए, जब कि क्रोध हो या प्रेम हो अथवा दुःख हो। क्या ये दोनों मार्ग विरोधी नहीं हैं? क्या ये दोनों भिन्न-भिन्न स्थितियों अथवा अलग-अलग प्रकार के लोगों के लिए हैं? और बतलाएं कि कब कोई इन्हें करे?
ये दो आधारभूत मार्ग है-केवल दो ही। एक संकल्प का मार्ग है, और एक समर्पण का-द पाथ ऑफ सरेंडर और द पाथ ऑफ विल। ये दोनों पूर्णतया विरोधी मार्ग हैं, जहां तक इन पर चलने का संबंध है। किंतु ये दोनों एक ही लक्ष्य को पहुंच जाते हैं, ये एक ही आत्म-बोध को उपलब्ध होते हैं। इसलिए हमें थोड़ा और विस्तार से समझना पड़ेगा।
संकल्प का मार्ग आपे साक्षी से प्रारंभ होता है। यह आपके अहंकार से सीधा संबंधित नहीं-सिर्फ परोक्ष रूप से संबंधित है। साक्षी से प्रारंभ करना, अपने कृत्यों के प्रति सजग होना-यह सीधा आपके आंतरिक स्व को जगाने से संबंधित है। यदि आंतरिक स्व जगा दिया जाए, तो अहंकार विलीन हो जाता है परिणाम में। आपको अहंकार के साथ सीधे कुछ भी नहीं करना है। वे दोनों एक साथ नहीं हो सकते। यदि आपका स्व जगा दिया, तो अहंकार विलीन हो जाएगा। संकल्प का मार्ग आंतरिक केंद्र को सीधे ही जगाने का प्रयत्न करता है। कितनी ही पद्धतियां काम में ली जाती हैं। स्व की जगाएं? इस पर हम बातें करेंगे।
समर्पण का मार्ग सीधा ही अहंकार से संबंधित है, न कि स्व से। जब अहंकार विलीन हो जाता है, तो आंतरिक स्व अपने आप ही जग जाता है। समर्पण का मार्ग सीधे अहंकार से संबंधित है। आपको अपने आंतरिक स्व को नहीं जगाना है। आपको सिर्फ अपने अहंकार को समर्पित कर देना है। जिस क्षण भी अहंकार समर्पित हो जाता है, आप अपने आंतरिक स्व को जागा हुआ पाते हैं। सचमुच, ये दोनों विरोधी दिशाओं में काम करेंगे, क्योंकि एक अहंकार से संबंधित होगा, और एक स्व से संबंधित होगा। उनकी पद्धतियां, उनकी विधियां होंगी। और कोई भी दोनों का अनुगमन नहीं कर सकता। उनकी कोई जरूरत भी नहीं है, और असंभव भी है। और हर एक को चुनाव करना पड़ेगा।
यदि आप संकल्प का मार्ग चुनते हैं, तो आप अपने ऊपर काम करने के लिए अकेले छूट जाते हैं। यह बहुत कठिन काम है। किसी को भी इसमें बहुत संघर्ष करना पड़ता है-पुरानी आदतों से लड़ना पड़ता है, जो कि नींद लेता है। तब एकमात्र लड़ाई नींद के खिलाफ होती है, और जो एकमात्र आकांक्षा होती है, वह भीतर गहरी जागरूकता के लिए होती है। जो संकल्प का अनुकरण करते हैं, वे केवल एक ही पाप को जानते हैं और वह है, आध्यात्मिक निद्रा।
कितनी ही विधियां हैं। कुछ पर मैंने बात की है। उदाहरण के लिए, गुरजिएफ एक सूफी विधि का उपयोग करता था। सूफी उसे हाल्ट, रुक जाना कहते हैं। जैसे, आप सब यहां बैठे हैं, और यदि आप रुक जाने की विधि का अभ्यास कर रहे हैं, तो उसका अर्थ होता है टोटल हाल्ट-पूरी तरह रुक जाना। जब कभी गुरु कहे-स्टाप या हाल्ट, तब आपको पूरी तरह रुक जाना होगा, चाहे आप कुछ भी कर रहे हों। यदि आपकी आंखें खुली हैं, तो उन्हें वहीं और वैसी रोक लेना है। अब आप उन्हें बंद नहीं कर सकते। यदि आपका हाथ ऊपर उठा हुआ है, तो उसे वहीं रहने देना है। जो कुछ भी आपकी स्थिति अथवा हाव-भाव हो, उसी में जम जाना है। कोई हलचल नहीं। पूर्णतः रुक जाएं। इसका प्रयत्न करें और अचानक आपको भीतरी जागरण अनुभव होगा-उसकी अनुभूति होगी। अचानक आपको अपने जम जाने की प्रतीति होगी।
सारा शारीर जम गया है। आप एक सखत पत्थर हो गए हैं, आप मूर्ति के समान बन गए हैं। यदि आप अपने कोधोखे में रखते हैं, तो फिर आप निद्रा में पड़ गए। और आप अपने कोधोखा दे सकते हैं। आप कह सकते हैं-मुझे कौन देख रहा है? मैं अपनी आंखें बंद कर सकता हूं। वे दर्द कर रही हैं। आप स्वयं कोधोखा दे सकते हैं। तब फिर आप गहरी नींद में, बेहोशी में गिर जाओगे।
प्रवचना, धोखा ही नींद है। अपने कोधोखा न दें, क्योंकि दूसरे से तो यहां संबंध ही नहीं है। यह केवल आप तक ही सीमित है। यदि आप एक अकेले क्षण के लिए भी जम जाएं, तो आप अपने को अलग ही रूप में देखने लगेंगे और आपका केंद्र आपके जमे हुए शरीर के प्रति सजग होगा।
दूसरे मार्ग भी हैं। उदाहरणार्थ, महावीर और उनकी परंपरा ने उपवास का उपयोग किया है स्व-बोध के लिए। यदि आप उपवास करते हैं, शरीर भोजन की मांग करने लगता हैं। शरीर आप पर जोर डालने लगता है। महावीर ने कहा है-केवल साक्षी हो जाओ, और कुछ भी न करो। आपको भूख का अनुभव होता है, उसे होने दो। शरीर भोजन की मांग करेगा, आप उसके केवल साक्षी हो जाओ, और कुछ भी न करो। जो भी हो रहा हो, उसके प्रति केवल साक्षी हो जाओ।
और यह एक बहुत गहन बात है। केवल दो ही चीजें शरीर के लिए गहन हैंः सेक्स (यौन) व भोजन। इन दो से यादा कुछ भी गहन नहीं है, क्योंकि भोजन की आवश्यकता व्यक्ति के जीने के लिए है, और सेक्स की आवश्यकता सारी मनुष्य जाति के जीने के लिए है। ये दोनों ही जीने के लिए यांत्रिक प्रबंध हैं। एक अकेला व्यक्ति बिना भोजन के नहीं जी सकता और सारी मानव जाति या कोई भी बिना यौन के नहीं जी सकती। इसलिए यौन जरूरी है जाति के लिए, और भोजन जरूरी है व्यक्ति के लिए। ये दो गहनतम चीजें हैं, क्योंकि ये आपके जिंदा रहने से संबंधित हैं-सर्वाधिक बुनियादी चीजें हैं। इनके बिना आप मर जाएंगे।
अतः यदि आप उपवास कर रहे हैं और केवल साक्षी हैं, देख रहे हैं, तो आपने गहरी से गहरी नींद को स्पर्श कर दिया। और यदि आप बिना तादात्म्य बनाए, बिना चिंता किए साक्षी रह सकें-कि शरीर दुःख भोग रहा है, शरीर भूखा है मांग रहा है और आप केवल द्रष्टा हैं, तो अचानक शरीर भिन्न हो जाएगा। आपमें और आपके शरीर में एक अंतराल पैदा हो जाएगा, एक सातत्य टूट जाएगा।
महावीर ने उपवास का उपयोग किया। मुसलमानों ने रात्रि जागरण का उपयोग किया-कोई नींद नहीं। एक सप्ताह तक न सोएं, और तब आप जानेंगे कि किस तरह आपका सारा अस्तित्व नींद से भर जाता है, और इस जागरण को बनाए रखना कितना कठिन है। किंतु यदि कोई दृड़ता से जगा रहे, तो अचानक एक क्षण आता है, जब शरीर और आप अलग हो जाते हैं। और तब आप देख सकते हैं कि नींद की जरूरत शरीर को है, वह कोई आपकी जरूरत नहीं है।
कितनी ही विधियां हैं कि कैसे आप सीधे अपने आप में सजगता को और अधिक बड़ाए। कि कैसे अपने आपको अपने तथाकथित सोए हुए अस्तित्व से ऊपर उठाए। कोई समर्पण की आवश्यकता नहीं है, वरन आप को समर्पण के विरुद्ध लड़ना पड़ेगा। किसी समर्पण की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह संघर्ष का मार्ग है, न कि समर्पण का। इस मार्ग के कारण ही महावीर को महावीर का नाम दिया गया। यह उनका नाम नहीं था। उनका नाक तो था वर्द्धमान। उन्हें महावीर इसलिए कहते थे, क्योंकि वे बड़े वीर पुरुष थे, जहां तक आंतरिक संघर्ष का प्रश्न है। उनका कोई गुरु भी नहीं था, क्योंकि यह अकेले का ही मार्ग था। इस मार्ग पर किसी की सहायता लेना भी ठीक नहीं है। वह हो सकता है आपकी नींद बन जाए।
एक कहानी है कि महावीर उपवास कर रहे थे और मौन थे कई वर्षों तक। किसी गांव में कुछ उपद्रवी लोग उनको सता रहे थे, पीड़ा पहुंचा रहे थे, और वे अपने मौन में थे। उन्हें कितनी ही बार इसलिए पीटा गया, क्योंकि वे बोले नहीं। और वे नग्न थे-बिल्कुल नग्न! इसलिए गांव के लोग बड़े हैरान थे कि आखिर वे हैं कौन? और बोलते भी नहीं हैं। और इससे भी यादा कि वे नग्न हैं। इसलिए एक गांव से दूसरे गांव में उनको खदेड़ दिया जाता, गांव से बाहर।
कहानी कहती हैं कि इंद्र, देवताओं के सम्राट, उनके पास आए और महावीर से बोल-मैं आपकी रक्षा कर सकता हूं। यह कितना पीड़ादायी हो गया है। आप बिना मतलब ही पीटे जाते हैं, इसलिए मुझे आज्ञा दें कि मैं आपकी रक्षा करूं। महावीर ने मदद लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह संकल्प का मार्ग अकेले का ही है। कोई तुम्हारे साथ मदद करने के लिए भी हनीं होना चाहिए, क्योंकि तब संघर्ष कम हो जाता है, तब संघर्ष आंशिक हो जाता है। तब आप किसी अन्य पर निर्भर हो सकते हैं। और जहां कहीं भी निर्भरता है, वहीं नींद भीतर प्रवेश कर जाती है। किसी को भी समग्ररूपेण अनिर्भर होना पड़ेगा। केवल तभी कोई जाग सकता है।
यह एक मार्ग है-एक आधारभूत रुख। ये सारी साक्षी की विधियां, इसी मार्ग से संबंधित हैं। इसलिए जब मैं कहता हूं-साक्षी हो जाएं, तो मेरा मतलब उनसे है, जो कि संकल्प के मार्ग के यात्री हैं।
इसके बिल्कुल विपरीत जो पद्धति है, वह समर्पण की। समर्पण आपके अहंकार से संबंधित है, न कि आपके स्व से। समर्पण में आपको अपने अहंकार को छोड़ना पड़ता है सचमुच, आप अपना स्व तो दे ही नहीं सकते, वह असंभव है। जो कुछ भी आप दे सकते हैं, वह केवल आपका अहंकार ही होगा। केवल अहंकार को ही दिया जा सकता है, क्योंकि वह बिल्कुल ही आकस्मिक है आपके पास। वह आपके बीइंग का, आपकी सत का हिस्सा नहीं है, किंतु मात्र कुछ जोड़ा हुआ है। वह एक मिल्कियत है। सचमुच, मिल्कियत जो आपकी मालिक बन गई। वह एक पजेशन, एक मिल्कियत, एक संपत्ति है। वह आप नहीं हैं। समर्पण का मार्ग कहता है-अपने अहंकार को गुरु के चरणों में समर्पित कर दो, दिव्य को, बुद्ध को।
जब कोई बुद्ध के पास आता है और कहता है-बुद्धं शरणं गच्छामि-मैं आपके चरणों की शरण जाता हूं--मैं बुद्ध के चरणों में समर्पण करता हूं-तो वह क्या कर रहा है? स्व को समर्पण नहीं किया जा सकता। उसे अलग ही छोड़ें। जो कुछ भी आप समर्पित कर सकते हैं, वह है आपका अहंकार। वही आपकी संपत्ति है, आप उसे ही समर्पित कर सकते हैं। आप अपने अहंकार को किसी को भी समर्पण कर सकते हैं। इससे कोईफर्क नहीं पड़ता कि किसको-वह एक अर्थ में असंगत है। असली बात तो समर्पण है। इसलिए आप आकाश में बैठे परमात्मा को भी समर्पित कर सकते हैं। वह वहां पर है या नहीं है, यह बात ही असंगत है। लेकिन आकाश में दिव्य की धारणा यदि आपको
समर्पण करने में मदद करती हो, तो यह एक अच्छा उपाय है।
वास्तव में, योग-शास्त्र कहते हैं कि ईश्वर तो केवल एक उपाय है, केवल एक उपाय, तरकीब कि किसको समर्पण करें। इसलिए इस बात की चिंता न करें कि ईश्वर है या नहीं। वह तो एक उपाय है, क्योंकि शून्य में समर्पण करना आपके लिए मुश्किल होगा। इसलिए एक परमात्मा तो होना ही चाहिए, जिसके प्रति आप समर्पण कर सकें। यहां तक कि एक झूठी तरकीब भी मदद कर सकते है। आप एक रस्सी को देखते हैं सड़क पर और आप उसे सांप समझ लेते हैं। वह सांप की तरह हिलती है। आप डर जाते हैं, आप कांपने लगते हैं¤ आप दौड़ने लगते हैं, आप पसीना-पसीना हो जाते हैं। और पसीना असली होता है। और वस्तुतः कोई सांप नहीं है। केवल वह रस्सी है, जिसे कि सांप समझ लिया गया है।
योग-सूत्र कहते हैं कि ईश्वर तो केवल एक उपाय है, जिसके प्रति अहंकार समर्पित किया जा सकता है। परमात्मा है या नहीं, यह बात बहुत अर्थ-पूर्ण नहीं है, आपको इसकी चिंता करने की जरूरत भी नहीं। समर्पण के पहले आप उसकी फिकर न करें। यदि वह है, तो आप से जान लेंगे। यदि वह नहीं है, तो भी आप जान लेंगे। इसलिए कोई विवाद नहीं, कोई तर्क नहीं, किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। और यह बहुत सुंदर हैः वे कहते हैं-कि वह एक मार्ग है-मात्र एक परिकल्पना की चीज है जिसके प्रति कि आपको समर्पण करना है-आपको समर्पण के लिए मदद करने के हेतु ही है; इसलिए एक गुरु ईश्वर हो सकता है; एक गुरु तो परमात्मा है ही। जब तम कि आपको ऐसा न लगे कि गुरु परमात्मा है, आप समर्पण नहीं कर सकते। समर्पण संभव हो जाता है, यदि आपको ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर परमात्मा है, बुद्ध परमात्मा हैं। तब आप असरलता से समर्पण कर सकते हैं। कोई बुद्ध वास्तव में परमात्मा हैं या नहीं, यह असंगत है। यह केवल उपाय है, और यह मदद करता है।
बुद्ध कहा करते थे कि हर एक सत्य एक उपाय है मदद करने के लिए। हर एक सत्य मात्र एक उपयोगिता है। और कोई आधार नहीं है उसको असत्य कहकर पुकारने का। यदि वह काम करता है, तो वह सत्य है।
समर्पण के मार्ग पर, समर्पण ही केवल एकमात्र विधि है। संकल्प के मार्ग पर बहुत सी विधियां हैं, और आप बहुत से प्रयत्न कर सकते हैं स्वयं को जगाने के लिए। किंतु जब कोई केवल समर्पण कर रहा है, तो फिर कोई विधियां नहीं हैं।
एक दिन रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। वह एक हजार सोने के सिक्के रामकृष्ण को भेंट करने के लिए आया था। रामकृष्ण ने कहा-मुझे इनकी कोई आवश्यकता नहीं है, किंतु जब तुमने इतना कष्ट किया है कि इस भारी बोझ को अपने घर से दक्षिणेश्वर, मेरी झोपड़ी तक लाए हो, तो यह अच्छा नहीं होगा कि इसे तुम वापस ले जाओ। इसलिए तुम इन्हें गंगा नदी में फेंक दो।
वह आदमी बहुत गहरी मुश्किल में पड़ गया-एक बड़ी भारी कठिनाई। क्या करे? वह झिझका, इसलिए रामकृष्ण ने कहा-तुमने इन्हें भेंट कर दिया है, अब ये तुम्हारे नहीं हैं। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं कि इनको गंगा में फेंक दो। उसे जाना पड़ा। वह गया तो, पर देर तक लौटकर नहीं आया। एक घंटा बीत गया। रामकृष्ण ने किसी से पूछा कि वह आदमी कहां गया? जाओ और उसका पता लगाओ! अतः कुछ शिष्य गए, और उसे लौटा कर लाए। रामकृष्ण ने कहा-इतनी देर लगा दी? क्या कर रहे थे तुम? जो लोग उसे ढूंड़ने गए थे बोले कि यह एक-एक करके गिनता जा रहा था और फेंकता जा रहा था! एक दो, तीन-इस तरह गिनकर एक हजार सिक्के फेंक रहा था। यह पहले सोने के सिक्के को देखता, और फिर उसे फेंकता था। अतः रामकृष्ण ने कहा-क्या मूर्खता की बात है! जब फेंकने ही हैं, तो गिनना क्या? जब कोई इकिं करता है, तो गिनने की जरूरत पड़ती है। तब तुम्हें आवश्यकता है जानने की कि तुम्हारे पास कितने सिक्के हैं। किंतु जब तुम उन्हें फेंकने ही गए हो, तो गिनने में समय बर्बाद क्यों करना? बस फेंक दो और छुट्टी।
समर्पण अपने अहंकार कोफेंकना है। कोई गिनती नहीं है, और कोई विधि नहीं है। आप तो केवल फेंक दे। वह खुद ही विधि है। समर्पण के मार्ग पर समर्पण ही खाली मार्ग है और समर्पण ही विधि है। संकल्प के मार्ग पर संकल्प मार्ग है, और कितनी ही विधियां हैं। इसलिए जान लें, तब निर्णय करें।
किंतु समर्पण सरल है एक तरह से। आप केवल अपने अहंकार कोफेंक दें। जिस क्षण भी आप अपने अहंकार कोफेंक देते हैं (और केवल अहंकार को ही फेंका जा सकता है) तो अचानक आप सजग हो जाते हैं-अपने आंतरिक केंद्र के प्रति सजग। आप उसी बिंदु को पहुंच जाते हैं, किंतु एक बहुत ही उल्टे मार्ग से।
एक बात और समझने जैसी है। (और वह पूछी भी गई है) कि सजग हुआ जाए या किसी चीज में डूबा जाए? जब कभी मैं समर्पण की बात करता हूं, तो मैं किसी चीज में डूबने की बात करता हूं। एक मीरा नाच रही है-उसे पता नहीं है कि वह नाच रही है। वह तो नृत्य ही हो गई है। कोई अंतराल नहीं है। उसने अपना अहंकार पूरी तरह छोड़ दिया है। केवल नृत्य हो रह गया, और उसे कुछ पता नहीं है। वह उसमें पूरी तरह डूब गई है। जब आप पूर्णतया डूब जाएं, एक हो जाएं, तो आप समर्पण में हैं-पूरी तरह डूबे हुए। लेकिन केवल अहंकार ही डुब सकता है।-केवल अहंकार। और जब अहंकार डूब जाता है, तो स्व अपनी समग्र शुद्धता में होता है।
परंतु उससे कोई मतलब नहीं है। समर्पण के मार्ग पर उससे कुछ लेना-देना नहीं है। मीरा का सजगता से कोई संबंध नहीं है, चेतना से कुछ लेना। देना नहीं है। उसका संबंध तोप्रभु के नृत्य में पूरी तरह खो जाने से है, पूरी समग्रता से डूब जाने से है।
सचमुच, जिसे खोया ही हनीं जा सकता, वह वहां होगा, किंतु उसकी कोईचिंता नहीं करनी है। संकल्प के मार्ग पर, अहंकार से कोई मतलब नहीं, स्व से, सेल्फ से संबंध है। समर्पण के मार्ग पर स्व से कुछ मतलब नहीं है। इस अंतर को ध्यान में रखें, अंतर के इस जोर को। इसीलिए इतना विरोध है-भक्त में और योगी में। योगी संकल्प के मार्ग पर है, और भक्त समर्पण के मार्ग पर। इसलिए वे बिल्कुल ही भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलते हैं। उनमें कोई सेतु नहीं है। योगी होने की कोशिश कर रहा है और भक्त नहीं होने की, मिटने की कोशिश कर रहा है। योगी सजग होने का प्रयत्न कर रहा है, और भक्त पूर्णतः डूब जाने का, खो जाने का प्रयास कर रहा है।
इसीलिए तो वे बिल्कुल विरोधी भाषा बोलेंगे, और उनमें विरोध होगा, बहुत विवाद होगा। किंतु विवाद तथा वे विरोध किसी वास्तविक योगी, अथवा भक्त से संबंधित नहीं है; वे तो शास्त्रीय ज्ञानियों व पंडितों से ही संबंधित हैं। जो लोग कि भक्ति के बारे में सोचते हैं, और योग के बारे में सोचते हैं, वे इन समस्याओं पर बहस करते चलते जाते हैं और फिर कोईबिंदु ऐसा नहीं आता जहां कि मिलन हो सकते, क्योंकि मिलने के बिंदु तक तो केवल अनुभव से ही पहुंचा जा सकता है, यदि आप जो शब्दावली, जो भाषा वे काम में लेते हैं, उसी से चिपके रहें, तो आप फिर उलझन में पड़ जाएंगे।
एक चैतन्य, एक भक्त, महावीर की भाषा नहीं बोल सकता, क्योंकि वे दोनों एक ही मार्ग से संबंधित नहीं। फिर भी अंततः वे उसी बिंदु को पहुंच जाते हैं। और चूंकि दे दोनों कभी भी एक ही मार्ग पर यात्रा नहीं करते, उनके अनुभव भी अवश्यमेव भिन्न होंगे। आखिर आनंद तो वही होगा, किंतु उसे कहा नहीं जा सकता। वही समस्या है। अंतिम अनुभव तो वही होगा, किंतु वह अवर्णनीय है। उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। और जो कुछ भी व्यक्ति किया जा सकता है, वह केवल मार्ग का अनुभव है। भिन्न तो वे होंगे ही, साथ ही विरोधी भी होंगे।
एक महावीर मार्ग पर अधिक, और अधिक केंद्रित होते जाएंगे-यादा, और यादा स्व होते जाएंगे। और एक चैतन्य कम, और कम स्व होते जाएंगे मार्ग पर। वह अपने में खोता चला जाएगा, डालता चला जाएगा अपने कोप्रभु के चरणों में। महावीर को यह सब आत्मघात जैसा लगेगा और चैतन्य को महावीर का रास्ता बहुत ही अहंकार से भरा हुआ दिखलाई पड़ेगा।
महावीर कहते हैं कि कोई परमात्मा नहीं है, इसलिए समर्पण मत करो। वास्तव में, महावीर परमात्मा को अस्वीकार इसलिए करते हैं, ताकि समर्पण असंभव हो जाए। यदि योग परमात्मा को पूर्व-निर्धारित करता है एक उपाय की भांति, तो महावीर कोईईश्वर नहीं हैं, ऐसा प्रस्तावित करते हैं पुनः एक उपाय की ही भांति-एक डिवाइस, एक उपाय संकल्प के मार्ग पर। यदि परमात्मा है, तो आप संकल्प के मार्ग पर नहीं चल सकते। यह बहुत मुश्किल है, क्योंकि यदि कोई परमात्मा है तो फिर कुछ है जो कि आपसे अधिक शक्तिशाली है, अधिक संभावना से भरा है। तब वह आपसे अधिक ऊंचा है, तो फिर आप किस तरह प्रामाणिक रूप से स्व हो सकते हैं?
महावीर कहते हैं, यदि परमात्मा है, तो फिर मुझे सदैव बंधन में रहना पड़ेगा, क्योंकि कुछ चीज है जो हमेशा ही मुझसे ऊपर रहेगी। और यदि आप कहते हैं कि परमात्मा ने संसार को बनाया है, और मुझे भी परमात्मा ने ही बनाया है, तब फिर मैं क्या कर सकता हूं। तब मैं तो उसके हाथ में एक कठपुतली हूं। तब संकल्प कहां है? तब संकल्प की कोई संभावना नहीं है। तब केवल एक गहरी विवशता है कि जो वह चाहे सो करे। तब फिर कुछ भी नहीं किया जा सकता। इसलिए महावीर ने एक उपाय की भांति परमात्मा को हटा ही दिया संकल्प के मार्ग पर। कोई परमात्मा नहीं है, महावीर कहते हैं, तुम्हीं परमात्मा हो, और कोई परमात्मा नहीं है, इसलिए कोई आवश्यकता समर्पण की नहीं है।
चैतन्य ने परमात्मा के चरणों में जाने की-शरण की बात को एक बुनियादी धार्मिक प्रयास बतलाया। लेकिन महावीर कहते हैं-अशरण-किसी के चरणों में न जाओ। वास्तव में शरण-परमात्मा के चरणों में जाना, और परमात्मा के चरणों में जाना निरर्थक है, क्योंकि कोई चरण परमात्मा के नहीं हैं सिवा तुम्हारे। ये दोनों दोबिल्कुल ही विरोधी दृष्टिकोण हैं, किंतु प्रारंभ में और केवल रास्ते पर ही। अन्यथा वे दोनों एक ही चीज को पहुंच जाते हैं। चाहें तो अपना अहंकार समर्पित कर दें, और तब सब कुछ अपने आप होने लगेगा। यदि आप समर्पण नहीं कर सकते, तो आपको बहुत कुछ करना पड़ेगा, क्योंकि तब आप अपने पर ही निर्भर हैं लड़ने के लिए, संघर्ष के लिए।
दोनों ही मार्ग ठीक हैं, और सवाल यह नहीं हैं कि कौन सा बेहतर है। यह तो उस व्यक्ति पर निर्भर करेगा जो कि अनुगमन कर रहा है। यह तो आपके अपने टाइप पर निर्भर करता है। हर एक मार्ग ठीक है, और कितने ही उप-मार्ग भी हैं-मार्गों की शाखाएं हैं। कुछ शाखाएं संकल्प के मार्ग की हैं, और कुछ समर्पण के मार्ग ही। मार्ग, उपमार्ग, हर चीज ठीक है, किंतु सबके लिए, सभी कुछ ठीक नहीं हो सकता। केवल एक हो चीज आपके अपने लिए ठीक हो सकती है। तब किसी उलझन में न पड़ें कि हर चीज ठीक है इसलिए मैं किसी भी बात का अनुगमन कर सकता हूं। आप अनुगमन नहीं कर सकते। आपको एक ही मार्ग का अनुगमन करना पड़ेगा। कोई एक सत्य नहीं है, बल्कि बहुत से सत्य हैं, किंतु आपको केवल एक ही सत्य को चुनना पड़ेगा।
इसलिए पहली बात जो कि साधक के लिए आवश्यक हैं, वह यह कि वह अपने टाइप को पहचान ले कि वह क्या है; और उसके लिए क्या ठीक होगा, और उसका भीतरी झुकाव किस तरफ है। क्या वह समर्पण कर सकता है? क्या आप अपने अहंकार को मिटा सकते हैं? यदि वह संभव है, तो फिर मात्र समर्पण काम दे सकता है। किंतु यह इतना सरल नहीं है, यह बहुत कठिन भी है। अहंकार को मिटाना, पोंछ डालना इतना आसान नहीं है किसी और को अपने से ऊपर बैठाना, तो और भी कठिन है। नीत्शे ने कहा हैं कि यदि मैं प्रथम होता हूं, तो मैं नरक में होना पसंद करूंगा। मैं स्वर्ग में भी रहना पसंद नहीं करता, यदि वहां मुझे किसी की भी तुलना में दूसरा करके रखा जाए तो। नर्क में भी रहना ठीक है, यदि कोईप्रथम हो।
बायजीद एक बहुत बड़ा सूफी रहस्यवादी था। उसका एक बहुत बड़ा आश्रम था, और दुनिया के बहुत से हिस्सों से उसके पास साधक आते थे। एक दिन एक व्यक्ति आया और उसने कहा-मैं यहां आपके आश्रम में रहना चाहता हूं। मैं आपके पास जो लोग यहां रहते हैं, उनमें रहना चाहता हूं। बायजीद ने उस व्यक्ति से कहा-हमारे पास यहां दो तरह के लोग रहते हैंः एक तो वे लोग हैं जो कि शिष्य हैं, दूसरे वे हैं जो कि गुरु हैं। तुम उनमें से किसके साथ रहना चाहते हो? वह व्यक्ति तो सत्य की खोज में आया था। उसने कहा-मुझे थोड़ा समय दीजिए सोचने के लिए। इसलिए बायजीद ने कहा-उसकी कोई जरूरत नहीं है। तुमने सोच ही लिया है। मुझसे कह दो! अतः उसने कहा-अच्छा हो, यदि मैं गुरुओं के दल में ही रखा जाऊं!
वह खोजने आया था, किंतु वह गुरुओं में गिना जाना चाहता है, न कि शिष्य बनना। इसलिए बायजीद ने कहा-वह दूसरा दल, गुरुओं का, मेरे आश्रम में नहीं है। वह तो केवल एक तरकीब थी। इसलिए तुम जा सकते हो। हमारा मार्ग तो शिष्यों का है-उनका है जो कि समर्पण कर सकें। इसलिए तुम हमारे लिए नहीं हो, और हम तुम्हारे लिए नहीं हैं। उस आदमी ने कहा-यदि ऐसी बात है तो मैं शिष्यों के साथ रहने को राजी हूं। बायजीद ने कहा-नहीं, वह संभव नहीं है। तुम्हें यहां से जाना ही होगा।
यदि आप समर्पण कर सकते है, तो आप शिष्य हो सकते हैं। संकल्प के मार्ग पर, आप ही गुरु हैं, और आप ही शिष्य हैं। समर्पण की राह पर, आप सिर्फ शिष्य हैं। और कभी-कभी यह बड़ा कठिन हो जाता है।
इब्राहीम, बल्ख का सम्राट एक सूफी फकीर के पास आता और उसने कहा-मैंने अपना साम्रा य छोड़ दिया है। अब मुझे अपना शिष्य स्वीकार करें। गुरु ने कहा-इसके पहले कि मैं तुम्हें स्वीकार करूं, तुम्हें एक खास परीक्षा पास करनी पड़ेगी। इब्राहीम ने कहा-मैं तैयार हूं- किंतु मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकता, इसलिए परीक्षा ले लें। गुरु ने कहां-नंगे हो जाओ और अपनी राजधानी का चक्कर लगाकर जाओ। और मेरी एक चप्पल भी ले जाओ और उससे अपना सिर पीटते जाओ।
जो लोग वहां बैठे थे, वे चकित रह गए। एक वृद्ध आदमी न गुरु से कहा-आप उस गरीब के साथ क्या कर रहे हैं? उसने पहले ही अपना रा य छोड़ दिया है। इससे अधिक आपको क्या चाहिए? आप कह क्या रहे हैं? और मैंने ऐसी बातें पहले तो कभी नहीं देखी। न ही आपने ऐसी बातों की मांग पहले कभी की है! किंतु गुरु ने कहा-यह तो करना ही पड़ेगा। वापस लौटकर आओगे, तब मैं सोचूंगा कि शिष्य बनाना है या नहीं।
इब्राहीम नंगा हो गया, उसने चप्पल उठाई और अपना सिर पिटना शुरू किया, और शहर में से गुजरा। वह लौटकर आया, तो गुरु नीचे झुका और उसने इब्राहीम के चरण छुए। उसने कहा-तुम तो पहले ही ज्ञान को उपलब्ध हो गए। और इब्राहीम ने कहा-मुझे भी एकाएक नया परिवर्तन अनुभव हो रहा है। मैं एक दूसरा ही आदमी हो गया हूं। किंतु किस चमत्कार से आपने मुझे बदल दिया? पूरा शहर हंस रहा था कि मैं पागल हो गया हूं।
यही समर्पण है। तब समर्पण पर्याप्त है। यह एक अचानक घटित होने वाली विधि है। यह क्षण में काम करती है। यह आपको क्षण में विस्फोटित कर सकती है। सतह पर यह आसान प्रतीत होती है-कि किसी को कुछ भी नहीं करना पड़ता। केवल समर्पण करना है। तब आप नहीं जानते कि समर्पण का क्या अर्थ है। उसका कुछ भी अर्थ हो सकता है। यदि गुरु कहे कि सागर में कूद जाओ, तब जरा भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। समर्पण का अर्थ होता है कि अब मैं नहीं हूं; अब तुम्हीं हो, कुछ भी करो, जो जी चाहो।
मिस्र में एक रहस्यवादी व्यक्ति हुआ जिसे कि जुन्नुन के नाम से पुकारा जाता था। वह अपने गुरु के पास एक प्रश्न पूछने के लिए गया था। उसके गुरु ने कहा-जब तक मैं तुम्हें नहीं कहूं कि पूछो, तब तक मत पूछना और प्रतीक्षा करना। बारह वर्षों तक जुन्नुन प्रतीक्षा करता रहा। वह रोज सवेरे आता-वह पहला आदमी होता था, जो कि गुरु की झोपड़ी में घुसता और वहां बैठ जाता। कितने ही लोग वहां आते और प्रश्न पूछते और उनको उत्तर दे दिया जाता। और उसके बाद गुरु ने किसी से भी हनीं कहा कि प्रतीक्षा करो। यह तो बहुत हो गया। और वह आदमी जुन्नुन बारह वर्षों तक इंतजार करता रहा। उसे पूछने की आज्ञा नहीं मिली। केवल वही पहली बात हुई थी जो कि वह बोला था-मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं। और तब गुरु ने कहा था कि तुम प्रतीक्षा करो जब तक मैं न कहूं कि पूछो, तुम नहीं पूछ सकते। तब तक प्रतीक्षा करो।
बारह वर्षों तक यह प्रतीक्षा करता रहा। गुरु उसकी तरफ देखता भी नहीं था; गुरु कोई इशारा भी ऐसा नहीं देता था कि अब वह उसे पूछने की आज्ञा देने वाला है। ऐसा लगता था कि वह बिल्कुल भूल गया कि जुन्नुन भी वहां मौजूद है। जुन्नुन, रात और दिन बारह वर्षों तक प्रतीक्षा करता रहा और अचानक एक दिन गुरु उसकी ओर मुड़ा और बोला-जुन्नुन, अब तुम्हें पूछने की आवश्यकता नहीं है। तुम कोईप्रश्न पूछने आए थे। अब मैं तुम्हें पूछने की आज्ञा देता हूं, किंतु अब तुम्हें पूछने की जरूरत ही नहीं है। जुन्नुन नीचे झुका और उसने गुरु के चरण स्पर्श किए और बोला-आपने मुझे काफी उत्तर दे दिया।
क्या हो गया जुन्नुन को, उन बारह वर्षों में? आप प्रतीक्षा नहीं करते, जब तक कि आप संपूर्ण समर्पित नहीं हो जाते। तब संदेह अवश्य उठेंगे कि क्या आप पागल हो गए हैं! कि क्या वे आपकोबिल्कुल भूल गए हैं! और तो किसी से भी गुरु ने नहीं कहा कि ठहरो। हजारों-हजारों आदमी आए और उन्होंने पूछा और उसने उत्तर दिया और यह लगातार चलता रहा, दिन-प्रतिदिन, और वह आदमी प्रतीक्षा करता रहा। यह एक पूर्ण श्रद्धा है। गुरु बोल-अब तुम्हें पूछने की जरूरत नहीं है। और जुन्नुन ने कहा कि अब कोईप्रश्न ही बाकी नहीं बचा। इन बारह वर्षों में आपने क्या चमत्कार मेरे ऊपर किया! आपने मेरी तरफ देखा भी नहीं। कैसा चमत्कार! आपने कोई संकेत भी नहीं किया।
समर्पण का अर्थ होता हैः पूर्ण श्रद्धा। तब आपकी आवश्यकता नहीं है। यदि आप पूरी तरह श्रद्धा नहीं कर सकते हैं, यदि आप समर्पण नहीं कर सकते हैं; तो एक मात्र संकल्प का मार्ग शेष रह जाता है। किंतु किसी प्रकार की शंका में, उलझन में न पड़े। मैं कितने ही ऐसे लोगों को जानता हूं, जो कि इस तरह की उलझन में पड़े घूमते हैं। वे चाहते हैं कि उन्हें ऐसा कुछ हो जाए जो कि समर्पण के मार्ग में होता है, किंतु वे समर्पण करने को तैयार नहीं हैं। वे एक संकल्प वाले आदमी की तरह व्यवहार करना पसंद करेंगे और चाहेंगे कि समर्पण की राह पर जो होना हो, वह हो जाए।
कल ही मेरे पास एक पत्र आया है, और मुझे ऐसे कितने ही पत्र मिले हैं। पत्र लिखने वाला कहता है-मैं आपसे बहुत कुछ सीखना चाहता हूं, किंतु मैं आपको अपना गुरु स्वीकार करने को राजी नहीं हूं। मैं आपके पास आना चाहता हूं और आपके साथ रहना चाहता हूं, किंतु मैं आपका शिष्य बनना नहीं चाहता। क्या कह रहा है यह आदमी? यह जिस तरह कि समर्पण में प्राप्त होता है, ऐसा उपलब्ध भी करना चाहता है, और अपने संकल्प में दृड़ भी बना रहना चाहता है! यह असंभव है। किसी को चुनाव करना पड़ेगा, और हर चीज एक उपाय है।
दो तीन दिन पहले कुछ मित्र आए और उन्होंने कहा-जब लोग आपको भगवान कहते हैं, तो आप स्वीकार क्यों करते हैं? मैंने उनसे कहा-हो सकता है कि यह बात उन लोगों को सहायक हो। यह आपकी चिंता तो नहीं है। वे लोग नहीं समझ सके, क्योंकि उन लोगों के लिए सभी कुछ तथ्य है। या तो है, या फिर नहीं है। मेरे लिए प्रत्येक बात एक उपाय है, डिवाइस है।
यदि कोई मेरे पास समर्पण के लिए आता है, तो फिर उसके लिए कोई उपाय चाहिए। और यदि कोई समर्पण करने नहीं आया है, तब वह डिवाइस, वह उपाय उसके लिए व्यर्थ है, अर्थहीन है। परंतु अपने बारे में तो जो भी आप हों, स्पष्ट हों कि क्या आप खोजना चाहते हैं, और उसको किस भांति खोजना चाहते हैं? क्या आप अपना अहंकार छोड़ सकते हैं? तब सजगता की कोई जरूरत नहीं है। तब आपको गहरे डूब जाने की जरूरत है। पूरी तरह डूब जाएं, खो जाएं, घुल जाएं। भूल ही जाए, बजाय स्मरण करने के स्वयं को विस्मृत कर दें!
मैंने आपसे कहा कि गुरजिएफ कहता था कि स्मृति ही विधि है। मीरा के लिए, चैतन्य के लिए, भूलना ही विधि हैः न कि स्मृति, बल्कि विस्मृति, भूलना। अपने आपकोबिल्कुल ही भूल जाए। आपने कोबिल्कुल ही मिटा दें, पोंछ डालें। और यदि वह आपके लिए संभव नहीं है, तो फिर हर संभव प्रयत्न करें जागने का। तब अपने को किसी भी चीज में न छोड़ें-संगीत में भी नहीं।
मुहम्मद केवल इसी कारण से संगती के खिलाफ थे-संकल्प के मार्ग पर, संगीत बाधा है, क्योंकि आप उसमें अपने को भूल सकते हैं। इसलिए किसी भी चीज में आपने को न भूलें, अपने कोढीला न छोड़ें। किंतु उन विधियों का उपयोग करें जो कि आपको और जगाती हैं, और यादा सचेतन करती हैं, और अधिक सावधान, सजग करती हैं। और एक बात ख्याल में रखें कि आप दोनों नहीं कर सकते। यदि आप दोनों कर रहे हैं, तो बहुत यादा उलझन में पड़ेंगे-और आपका प्रयास बेकार हो जाएगा, और आपकी ऊर्जा व्यर्थ ही नष्ट होगी। चुनाव करें, और फिर उसी में लगे रहें। केवल तभी कुछ हो सकता है।
यह एक लंबी प्रक्रिया है-कठिन भी, और कोई शार्ट कटस (छोटे मार्ग) भी नहीं हैं। सारे शार्ट कट धोखा देने वाले हैं। परंतु क्योंकि हर एक इतना सुस्त है और प्रत्येक चाहता है कि बिना कुछ किए ही हो जाए, इसलिए छोटे रास्तों की खोज की जाती है। कोई छोटा रास्ता नहीं है-नो शार्ट कट!
ऐसा कहा जाता है कि युक्लिड, जिसने रेखा गणित की खोज की, सिकंदर का गुरु भी था। युक्लिड सिकंदर को गणित पड़ाता था-विशेषतः रेक्षागणित्त। सिकंदर ने युक्लिड से कहा-इस लंबे रास्ते से मत पड़ाओ। मैं कोई साधारण विद्यार्थी तो नहीं हूं। कुछ शॉर्ट कटस निकालो। युक्लिड फिर लौटकर नहीं आया। एक दिन बिता, दो दिन तीन दिन, एक सप्ताह, तब फिर सिकंदर ने पता लगाया। युक्लिड ने नोट लिखकर भेज दिया वह कहते हुए कि-कोई शॉर्ट कटस नहीं हैं। और यदि तुम्हें छोटे-रास्ते ही पसंद हैं, तो मैं तुम्हारा गुरु नहीं हो सकता। तब तुम्हें ऐसे गुरु की आवश्यकता है जो कि तुम्हें धोखा दे सके। इसलिए मैं तुम्हारे लिए नहीं हूं। किसी और कोढूंड़ लो। कोई भी मिल जाएगा जो कि कहेगा कि मैं छोटे-रास्ते जानता हूं। परंतु ज्ञान के लिए कोई छोटे मार्ग नहीं होते। किसी को भी लंबे रास्ते पर चलना होता है।
इसलिए धोखे में न आए, और न ही यह सोचें कि यदि दोनों मार्गों को मिला देंगे, तो वह आपके लिए अच्छा होगा-नहीं। हर एक पद्धति अपने आप में पूर्ण है, और जैसे ही आप उसे किसी और और के साथ मिलाते हैं, आप उसका जीवंत एकता को नष्ट कर देते हैं।
कितने ही लोग हैं जो कि निरंतर धर्मों के समन्वय की बातें करते हैं, यह एक बिल्कुल मूर्खतापूर्ण बात है। प्रत्येक धर्म पूर्ण है, जीवंत रूप से समग्र है। उसे किसी और के साथ मिश्रित की कोई जरूरत नहीं है। यदि आप मिश्रित करते हैं, तो आप सब कुछ नष्ट कर देते हैं। बाइबिल और कुरान व वेदों में एक सी बात हो सकती है, किंतु ये सब ऊपरी, सतही एकरूपताए हैं। भीतर, गहरे में उनका प्रत्येक का अपना भिन्न ही जीवंत ऐक्य है।
इसलिए यदि कोईईसाई है तो उसे सौप्रतिशत ईसाई होना चाहिए। और यदि कोईहिंदू है, तो उसे सौप्रतिशत ही हिंदू होना चाहिए। एक पचास प्रतिशत हिंदू, पचास प्रतिशत ईसाई सिर्फ पागल हैं। यह ऐसा ही है, जैसे पचास प्रतिशत आयुर्वेदिक दवाई और पचास प्रतिशत एलोपैथिक दवाई हो। वह आदमी विक्षिप्त हो जाएगा। चिकित्सा पद्धतियों में कोई समन्वय नहीं हो सकता। और प्रत्येक धर्म एक चिकित्सा की विधि की भांति ही है। वह एक दवा ही है, एक विज्ञान ही है।
चूंकि मैंने दवा की बात कर दी है, अच्छा होगा इसी निष्पत्ति से खत्म करूं कि संकल्प का मार्ग प्राकृतिक चिकित्सा की तरह से है। आपको अपने ही ऊपर निर्भर रहना पड़ता है; कोई सहायता नहीं। समर्पण का मार्ग बहुत कुछ एलोपैथी की तरह से है, कि आप दवा ले सकते हैं।
इसे इस भांति सोचेंः जब कोई बीमार होता है, तो दो बातें होती हैं-आंतरिक स्वास्थ्य की संभावना तथा एक आकस्मिक, अथवा किसी दुर्घटना के कारण बीमारी। प्राकृतिक चिकित्सा बीमारी से सीधे कोई संबंध नहीं रखती। प्राकृतिक चिकित्सा सीधे स्वास्थ्य को बड़ाने से मतलब रखती है। इसलिए स्वास्थ्य को बड़ाओ-प्राकृतिक चिकित्सा स्वास्थ्य को विधायक रूप से बड़ाना है। जब आपका स्वास्थ्य अच्छा हो जाएगा, तो रोग अपने से ही चला जाएगा।
ऐलोपैथी का स्वास्थ्य को सीधे बड़ाने से कोई संबंध नहीं है। इसका सीधा रोग से है। रोग को नष्ट करें और आप अपने अप ही स्वस्थ हो जाएंगे। संकल्प के मार्ग का संबंध विधायक रूप से सजगता को बड़ाने का है। यदि सजगता बड़ती है, तो अहंकार विलीन हो जाएगा, वही न कि विधायक रूप से स्वास्थ्य को बड़ाने से। रोग को काट दो, अहंकार को समर्पित कर दो और आपका स्वास्थ्य बड़ जाएगा।
समर्पण का मार्ग एलोपैथिक इलाज की तरह से है, और संकल्प का मार्ग प्राकृतिक चिकित्सा की भांति है। परंतु दोनों को मिश्रित न करें, अन्यथा आप अधिक बीमार हो जाएंगे। तब स्वास्थ्य उपलब्ध करने की आपकी चेष्टा और भी यादा समस्या पैदा कर देगी। और प्रत्येक व्यक्ति उलझन में है। कोई सोचता ही रहता है निरंतर, कि यदि उसने बहुत सी पैथियों का उपयोग किया, तो गणित के हिसाब से उसे स्वास्थ्य जल्दी प्राप्त होना चाहिए। गणित के हिसाब से व तर्क की दृष्टि से, ऐसा संभव लग सकता है, किंतु वास्तव में ऐसा है नहीं। हो सकता है कि आप एक ऐसे केस हो जाए जिसे सुलझाना असंभव हो जाए।
आज के लिए इतना ही।!
बंबई, रात्रि, दिनांक 4 जून, 1972

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