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सोमवार, 20 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-17)

प्रवचन-सत्रहरवां 

चेतना की पूरी खिलावट

बंबई, रात्रि, दिनांक 5 जून, 1972
चिदाषितः पुष्पम।
कौन से फूल हैं जो कि पूजा के लिए हो सकते हैं? चेतना से भरे होना ही-वे फूल हैं।
आदमी एक बाज है-एक संभावना-एक प्रसुप्त संभावना। मनुष्य इतना ही हनीं है जितना कि वह है; वह वह भी है जो कि वह हो सकता है। जो कुछ भी मनुष्य है, जैसा भी वह है वह एक स्थिति है, एक द्वार है, एक संभावना है होने की। उसमें बहुत कुछ छिपा हुआ है, और जो हिस्सा छिपा हुआ है, वह प्रकट हिस्से से बहुत यादा है। इसलिए मैं कहता हूं मनुष्य एक बीज है। वह उग सकता है, बड़ सकता है और वह मनुष्य तभी हो सकता है जब कि वह बड़े, विकसित हो।
यदि एक बीज बीज ही रह जाए, तो उसका अर्थ होता है मृत्यु। यदि एक बीज बड़ नहीं रहा है, तो वह मर रहा है। और इन दोनों के बीच कोई तीसरी स्थिति नहीं हो सकती। या तो आपको विकसित होना पड़ेगा, या आपको मरना पड़ेगा। कोई बीच की स्थिति नहीं है; बड़ें या मरे। तीसरा कोई विकल्प नहीं है।
बीज तो केवल एक स्थिति है संभावना है विकास के लिए। और विकास का मतलब है अतिक्रमण। विकास का मतलब है कि किसी खास तल पर मरना, और एक दूसरे तल पर फिर से पैदा होना। एक बीज के लिए विकसित होने का क्या अर्थ होता है? बीज बीज की तरह मरे, तभी वह वृक्ष के रूप में पुनः उत्पन्न होता है। तभी होने की वास्तविक संभावना का प्रारंभ होता है।
एक बीज दो तरह से मर सकता है। वह बिना उगे भी मर सकता है, और यह एक नकारात्मक मृत्यु होगी। अथवा बीज मर सकता है विकसित होने के लिए। यह मृत्यु विधायक होगी। एक विधायक मृत्यु ही अनंत जीवन के लिए द्वार है। विधायक मृत्यु का अर्थ होता हैः किसी बात के लिए मरना-विकास के लिए मरना, एक तल से विलीन होकर दूसरे तल पर प्रकट होना। आदमी चाहे तो बीज हो रहा आ सकता है, और बहुत से आदमी तो नकारात्मक मृत्यु को ही उपलब्ध होते हैं। बिना विकसित हुए, बिना स्वयं का अतिक्रमण किए, बिना एक तल से गायब होकर दूसरे तल पर प्रकट हुए ही वे मर जाते हैं।
नीत्शे ने कहीं पर कहा है कि आदमी तभी हो पाता है, जब कि वह स्वयं का अतिक्रमण करता है। आप तभी हो पाते हैं, जब कि आप नीचे के तल से विलीन हो जाएं और ऊपर के तल पर प्रकट हो जाएं। यह एक सतत प्रक्रिया है पदार्थ रूप से मरने की व चेतना रूप में पुनः जागने की। किंतु बीज यदि चाहे तो बीज होने से ही संतुष्ट रहा आ सकता है और बीज ही बना रह सकता है। और एक बीज के लिए यह जानना बहुत कठिन है कि वह क्या हो सकता है। इसके बारे में कल्पना करना भी असंभव है। कैसे बीज कल्पना करे कि वह क्या कुछ हो सकता है? एक वृक्ष होने की संभावना की बात का तो सोचना भी उसे मूड़तापूर्ण लगेगा। जबकि सत्य यही है कि वृक्ष भी बीज से ही बनता है, किंतु बीज कैसे यह सोचे कि वृक्ष एक बीज से ही बना है और मैं भी एक वृक्ष बन सकता हूं।
बुद्ध ने कहा-मैं तुम्हें सत्य तो नहीं दे सकता, परंतु एक सपना अवश्य दे सकता हूं। मेरी और देखो और तुम्हारी संभावनाएं, तुम्हारा प्रसुप्त बीज, हिलने लगेगा। भविष्य के लिए कुछ स्पंदित होने लगेगा, तुम्हारे भीतर उसके लिए जो कि हुआ जा सकता है, प्यास लगेगी। बुद्ध एक वृक्ष हैं-खाली वृक्ष ही नहीं वरन ऐसा वृक्ष जो कि खिल गया है। और हम सब बीज है। अतः हम भी एक बीज की ही भांति सोचें कि हमारा खिलना कैसा होगा? चेतना के पुष्प, सचमुच, चेतना के पुष्प ही मानव-वृक्ष में हमें खिलाने होंगे।
यह सूत्र कहता है कि चेतना से भरे होना ही पूजा के लिए फूल है। चेतना से भरे होनाः पूर्ण चैतन्य होना-सजग होना। चेतना के लिए फूलों का यह प्रतीक बहुत से अर्थ रखता है। यह खाली एक प्रतीक ही नहीं है। चेतना वस्तुतः मनुष्य में एक विकास है। मनुष्य जब खिलता है, तो वह अपने ओमेला (अंतिम बिंदु) पर पहुंच जाता है। अचानक एक विकास का विस्फोट होता है। वही चेतना का खिलना होता है।
किंतु मनुष्य जैसा भी वह है, वह एक बीज है। वह सजग नहीं है, वह सचेतन नहीं है। यह कठिन है और बहुत ही ल जास्पद भी कि हम सोचते हैं कि हम तो सजग हैं। और यही सब से अधिक घातक, खतरनाक और विषैला विश्वास है-क्योंकि यदि हम सोचते हैं कि हम तो पहले से ही सजग हैं, तब हमारे लिए खिलने की कोई संभावना नहीं रह जाती है। एक बीज यदि सोचता है और विश्वास करता है कि वह पहले से ही एक वृक्ष है, पहले से ही खिला हुआ है, तो उस बीज के लिए विकसित होने की कोई संभावना नहीं है। उसने अपने को पूरी तरह खतरे में डाल दिया है।
गुरजिएफ ने कहा है-तुम कैद में हो, परंतु तुम्हें यह विश्वास हो सकता है कि तुम किसी कारागृह में नहीं हो, बल्कि यही तुम्हारा घर है। तुम अपने कारागृह को भी इस तरह सजा सकते हो कि वही तुम्हारा घर प्रतीत होने लगे। तुम्हें उकसे लिए गर्व भी हो सकता है, तुम उसके लिए बड़ी-बड़ी बातें भी कर सकते हो। तुम्हारी जंजीरें तुम्हारे लिए आभूषण भी बन सकती हैं। यह सब तुम्हीं पर निर्भर करता हैं। तुम विवेचना कर सकते हो और यह विवेचना एक तरह से बहु संतोष देने वाली होगी, क्योंकि तब कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती इस कारागृह के खिलाफ लड़ने की। तब तुम आराम से यही रह सकते हो। यह बहुत सुविधा पूर्ण है।
मनुष्य के सारे विश्वास सुविधाओं की उपज हैं, किंतु ये खतरनाक भी हैं, क्योंकि इनके कारण ही, उठने की जागने की सारी संभावनाएं पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं। एक बंदी आसानी से यह सोच सकता है कि वह बंदी नहीं, बल्कि एक मुक्त व्यक्ति है। ऐसा विश्वास बहुत सुविधाजनक है, क्योंकि तब कोई भी प्रयत्न छूटने के लिए करना शेष नहीं रह जाता। परंतु उस हालत में यह बंदी कभी भी मुक्त न हो सकेगा। इसीलिए गुरजिएफ कहते हैं कि पहला और जरूरी काम इस ल जास्पद तथ्य को जान लेना है कि तुम एक बंदी हो। तभी केवल मुक्ति संभव है।
इस सूत्र के बारे में पहली बात जो मैं आपको बताना चाहूंगा वह यह है कि इस बात को पूरी तरह जान लें कि आप जागे हुए नहीं हैं। यह जानना ही सजगता की ओर पहला कदम है। आप सजग बिल्कुल भी नहीं हैं, आप एक अचेतन, मूर्च्छित जीवन जीते हैं। जो कुछ भी आप करते हैं, वह रोबेट की तरह हैं-यांत्रिक। उदाहरण के लिए, आप मुझे सुन रहे हैं, किंतु आप उस बात के प्रति सजग नहीं हैं कि आप मुझे सुन रहे हैं। अब आप सजग हो सकते हैं, मेरे कहने के बाद, किंतु इसके पहले नहीं थे। एक क्षण के लिए आप सजग हो सकते हैं कि आप मुझे सुन रहे हैं, किंतु सिर्फ एक क्षण के लिए और फिर आप पुनः मूर्च्छित अवस्था को पहुंच जाते हैं। तब आप मुझे सुनेंगे, किंतु एक सजग आदमी की तरह से नहीं। आप मुझे एक यांत्रिक वस्तु की भांति सुन लेंगे।
इसमें क्या भेद है? यदि आप मुझे सुन रहे हैं, तो आप मेरे प्रति-बोलने वाले के प्रति सजग हैं- किंतु आप सुनने वाले के प्रति सजग नहीं हैं। आपकी सजगता एक ही ओर है; लक्ष्य केवल बोलने वाले की तरफ है; और आप खुद छाया में हैं। प्रकाश का फोकस केवल बोलने वाले की तरफ है, और आप अंधेरे में हैं। एक क्षण के लिए, यदि मैं कुछ इस बारे में कहता हूं, तो आप सजग हो सकते हैं। लेकिन जैसे ही आप सुनने वाले के प्रति सजग होते हैं, आप बोलने वाले के प्रति मूर्च्छित हो जाते हैं। यदि आप दोनों के प्रति सजग हैं, यदि आपकी चेतना एक ही साथ बोलने वाले व श्रोता दोनों के प्रति जाग्रत हो गई है, तो आप सजग हैं।
जब मैं कहता हूं कि आप जागे हुए नहीं हैं, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि ऐसे क्षण बिल्कुल नहीं हैं जब कि आप सजग होते हैं। कभी-कभी ऐसे क्षण होते हैं, किंतु बहुत ही कम। और वे भी इस संभावना को बताते हैं। यह ऐसा ही है जैसे ही आप ऊपर को उछलें, और फिर जमीन पर लौट आए। एक क्षण के लिए आप गुरुत्वाकर्षण को तोड़ सकते हैं, परंतु फिर आप उसमें ही लौट आते हैं। यह क्षणिक सजगता ऐसी ही है।
कभी-कभी किन्हीं खास स्थितियों में, हम अचेतना के बाहर कूद जाते हैं। एक क्षण के लिए हम गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकल जाते हैं, परंतु वास्तव में हम उससे बाहर नहीं जा पाते, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण लगातार काम कर रहा है और वह आपको फिर से नीचे ले आएगा। एक क्षण के लिए आपको मुक्तता की अनुभूति हो सकती है, परंतु उसके बाद तो आप फिर जमीन पर लौट ही आते हैं।
किन्हीं खास खतरनाक स्थितियों में, आप सजग हो जाते हैं। कोई आपको कत्ल करने आता हैः अचानक आप सजग हो जाते हैं-न केवल मारने वाले के प्रति ही, किंतु अपने प्रति भी, वह जो कि मारा जाने वाला है। तब चेतना का लक्ष्य दोनों ओर हो जाता है, किंतु केवल एक क्षण के लिए, और फिर आप पृथ्वी पर होत हैं। कभी-कभी गहरे प्रेम में आप अपनी मूर्च्छा के बाहर कूद जाते हैं। तब न केवल आप अपने प्रेम अथवा प्रेम का के प्रति सजग होते हैं, बल्कि आप अपने स्वयं के प्रगति सजग हो जाते हैं- किंतु केवल एक क्षण के लिए, फिर आप वापस वहीं लोट जाते हैं, एकांगी सजगता के क्षेत्र में।
अचानक किसी दुर्घटना में किसी गहरे घाव की अनुभूति में भी कोई सजग ही जाता है। किंतु ऐसे क्षण बहुत ही थोड़े होते हैं। सौ वर्ष की लंबी जिंदगी में कुछ ही ऐसे क्षण हो सकते हैं जो कि आपकी उंगलियों पर गिने जा सकें। वे केवल इस संभावना को बतलाते हैं कि सजग हो सकते हैं; उभयगामी सजगता संभव है।
साधारणतः आप ओटोमेटा-एक यंत्र की भांति जाते हैं। वास्तव में, एक यंत्र की भांति जीना आपको सुविधापूर्ण लगता है। सचमुच एक यंत्र की भांति जीना आरामदेह है आप एक यांत्रिक प्रक्रिया में जीते हैं। आपको अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आपका शरीर, आपका मन एक मशीन की तरह काम करता है और इसमें वह कुशल भी है। और यह सजग न होना काफी सुविधापूर्ण है, क्योंकि जो वस्तुएं आपके चारों ओर फैली हैं, उनके प्रति सजग होना एक ऐसी संवेदनशीलता प्रदान करता है कि वह आपको बड़ी दुःख पूर्ण लगेगी।
बुद्ध हो जाना केवल आनंदपूर्ण हो जाना ही नहीं हैं, जहां तक बुद्ध का अपना संबंध है, वे आनंदपूर्ण हैं। वे आनंद के उच्चतम अनुभव कोप्राप्त करते हैं। किंतु साथ ही उन्हें इसकी बहुत बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है, क्योंकि अब वे इतने संवेदनशील हो जाते हैं कि उनके चारों तरफ जो चीजें फैली हैं, वे उन्हें दुःख देती हैं। वे दूसरों के दुःख से पीड़ित होने लगते है। एक भिखारी आपको मिलता है। आप उसे बिना जाने ही निकल जाते हैं, कोई समस्या नहीं है। यह बिल्कुल सुविधापूर्ण है। यदि आज सजग हो जाते हैं, तब यह इतना आसान नहीं होगा। तब आपको ऐसा अनुभव होगा ही कि इसमें आपका भी हाथ है। आप भी इस कुरूप संसार के एक हिस्से हैं। जो कुछ हो रहा है उसके लिए आप भी जिम्मेवार हैं; चाहे कि फिर वह वियतनाम का युद्ध हो, और चाहे हिंदू-मुसलमान का झगड़ा अथवा गरीबी हो। यदि आप सजग हो जाते हैं तो जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिए आप भी जिम्मेवार हो जाते हैं। अब उससे बचना मुश्किल है। यह कीमत है जो कि चुकानी ही पड़ती है।
इसलिए ऐसा कभी न सोचें कि बुद्ध सिर्फ एक आनंदमय स्थिति में ही रहते हैं। कोई भी नहीं हो सकता। प्रत्येक को कीमत चुकानी ही पड़ती है, और जितना बड़ा अनुभव होता है, उतनी ही बड़ी कीमत भी देनी पड़ती है। एक बुद्ध अपने में शांतिपूर्ण हैं। वे इस आनंद को पहुंचते हैं, क्योंकि वे इतने चैतन्य को उपलब्ध हुए। परंतु साथ ही, इतने चैतन्य के कारण ही, वे इतने संवेदनशील भी हो जाते हैं कि चीज के कारण जो कि उनके चारों तरफ होती है, वे दुःख पाते हैं।
इसलिए यह सुविधापूर्ण है कि हम अचेतन, बिना जागे हुए लोगों की तरह ही जिए। हम जीते चले जाते हैं, हम इस निद्रा को लंबी करते चले जाते हैं। यह एक गहरी नींद में चलना है। गहरी नींद में सोए हुए ही हम चले जाते हैं और काम करते चले जाते हैं। हमको कुछ भी नहीं छूता। हम पूर्णतः संवेदनहीन हैं। संवेदनशीलता सजगता पर निर्भर करती है। जितने अधिक आप सजग होते जाते हैं, उतने ही अधिक आप संवेदनशील होते चले जाते हैं। संवेदनशील होना खतरनाक है और असंवेदनशील होना सुविधापूर्ण है। इसलिए आप एक मत बोझ भी तरह चलते रह सकते हैं। आपको कोईचिंता की जरूरत नहीं रहती।
इस सुविधा के कारण ही हम बीज के बीज ही रह जाते हैं। मेरे लिए इस सुविधा को खोना, इसे फेंकना ही एकमात्र त्याग है। वास्तव में इस आराम को, इस सुविधा को ही फेंकना है-न कि घर को, कुटुंब को। घर-कुटुंब तो कुछ भी नहीं हैं। इस सुविधा-केंद्रित चित्त को ही फेंकना है। आप को भी, संवेदना-शील होना पड़ेगा उसके प्रति जो कुछ भी चारों ओर है। तभी केवल आप सजग हो सकते हैं।
इसलिए पहली बात जो कि समझ लेनी है कि हम क्यों मूर्च्छित ही जिए चले जाते हैं? उसका भी कुछ कारण है, उसके लिए भी कुछ तर्क हैं। कारण यह है कि वह सुविधापूर्ण है। एक मृत जीवन जीना सुविधापूर्ण है, एक मृत लाश की तरह जीना आरामदेह, क्योंकि तब चारों ओर की कुरूपता का आप पर कोई असर नहीं होता, आपको किसी बात से कोई मतलब नहीं। आपके पास एक रोजाना का कार्यक्रम है, जिसे कि आप सुबह से शाम तक पुरा करते चले जाते हैं। आप सारी जिंदगी एक वर्तुल में ही घूमते रहते हैं। आप अपने पुराने ढांचे में चलते चले जाते हैं। जितना पुराना ढांचा होगा, उतना ही वह सुविधापूर्ण होगा। अंततः आप उसमें ही जम जाते हैं।
इस मनोदशा की ओर देखें, इस स्थिति को देखें। यदि यही स्थिति चलती चली जाती है तो आप बीजत्व का अतिक्रमण नहीं कर सकते। एक बीज जब बीजत्व का अतिक्रमण करता है, तो वह बहुत बड़े खतरों को बुला रहा होता है। एक बीज तो सुरक्षित है, परंतु एक पौधा सुरक्षित नहीं है। वह सदैव ही खतरे में है। एक बीज कभी खतरे में नहीं होता। बीज एक मृत जीवन जीता है, परंतु एक पौधा जिंदा हो जाता है, अतः कोमल और असुरक्षित हो जाता है। यही वास्तविक खतरा है सजग होने में।
मां के गर्भ में एक बच्चा पूर्णतः सुरक्षित है। सर्वाधिक आराम की जगह जो कि खोजी जा सकती है, गर्भाशय ही है। क्योंकि वहां जाने के लिए कोई संघर्ष नहीं है। वह एक पूरी तरह आराम की स्थिति है। मनोवैज्ञानिक यही कहते हैं, और वे ठीक ही कहते हैं कि यह जो शांति के लिए, समता के लिए, एकलयता के लिए इतनी दौड़-धूप है, चाह है, वह वास्तव में गर्भ की स्थिति की स्मृति ही है, क्योंकि बच्चा गर्भ में ऐसे ही रहता है, जैसे कि स्वर्ग में हो।
हिंदुओं की एक कल्पना है कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष होते हैं। उन कल्प वृक्षों के नीचे, इच्छा और उसकी पूर्ति में जरा भी अंतराल नहीं होता। आप इच्छा करें और वह पूरी हो जाती है, बीच में समय का कोई अंतराल नहीं है। आप कुछ भी चाहें, और वह पूरा कर दिया जाता है।
गर्भाशय भी कल्पवृक्ष की भांति ही है। कोई अंतराल नहीं है इच्छा में और उसके पूरे होने में। बच्चे को तो इच्छा भी नहीं करनी पड़ती। जो कुछ भी चाहिए, वह प्राप्त हो जाता है-कोईप्रयत्न नहीं, कोई इच्छा नहीं, कोई तनाव नहीं। बच्चा एक पूर्ण मुक्ति में है। और यदि हम एक बच्चे से गर्भ को छोड़कर बाहर आने के लिए कहें, और यह बच्चे की मरजी पर हो, तो कोई भी बच्चा तैयार नहीं होगा। क्योंकि गर्भ से बाहर आना स्वर्ग से बाहर निकलना है। वह ईदन के बाग से बाहर जाना है। अब हर एक चीज एक संघर्ष हो जाने वाली है। अब इच्छा और उसका पूरा होना इतना आसान नहीं है, और अब इच्छाओं को इतनी सरलता से पूरा नहीं किया जा सकता। अब हमेशा ही इच्छा और उसकी पूर्ति में एक अंतराल होगा। और जब वह पूरी हो जाएगी तो भी वह तृप्ति नहीं होगी, क्योंकि उस तृप्ति के बाद तुरंत दूसरी इच्छाओं का जन्म हो जाएगा। और यह एक सतत संघर्ष है। इसलिए यदि यह बच्चे की मरजी पर हो कि गर्भाशय को छोड़े या न छोड़े, तो कोई भी बच्चा उसे नहीं छोड़ेगा। वह बड़ी ही आरामदेह जगह है-पूर्णतः आरामदेह। परंतु यह एक मृत स्थिति है, इसमें कोई विकास संभव नहीं है। विकास अभी संभव है, जब आप जागते हुए भी खतरे मोल लेते हैं। जब आप अनजाने मार्गों पर चलते हैं, तो आप विकसित होते हैं। जब आप खतरा उठाते हैं, तो आप बड़ाते हैं। इसी तरह से, आदमी फिर से गर्भ में होता है-अचेतन के गर्भ में। इसे समझने की कोशिश करें, अचेतनता का गर्भ! इसे छोड़ना एक दूसरा जन्म लेना है।
भारत में जिसका जन्म दोबारा हो गया होता है, उसे हम द्विज कहते हैं। ब्राह्मण केवल इसीलिए द्विज कहलाते हैं यानी पहला जन्म तो मां के गर्भ से बाहर आना हुआ, और दूसरा जन्म आपकी अपनी ही अचेतनता के गर्भ में से बाहर निकलना। और जब तक आप अपनी अचेतना से निकल कर दुबारा जन्म नहीं लेते और चेतन नहीं हो जाते, आप ब्राह्मण नहीं हैं। यदि आप जागे हुए सजग, चेतन नहीं हैं, तो आप ब्राह्मण नहीं हैं। ब्राह्मण का अर्थ होता है, वह जो कि ब्रह्म को जानता है, उस अंतिम को जानता है। यदि आप पूर्ण चैतन्य हैं, तो आप उस अंतिम, उस अल्टीमेट से संयुक्त हो जाते हैं; ब्राह्मण हो जाते हैं। यह दूसरा जन्म आपकी स्वयं की अचेतनता के गर्भ से ही होता है।
यह अचेतनता क्या है? फ्रायड कहता है कि एक आदमी समुद्र में तैरते हिमखंड की तरह हैः नब्बे प्रतिशत पानी में और केवल दस प्रतिशत उसके ऊपर-नौ हिस्से पानी में छिपे हुए और केवल एक हिस्सा, दसवां हिस्सा पानी के ऊपर। मनुष्य एक हिमखंड है। केवल एक हिस्सा चेतन, नौ हिस्से अचेतन और यह एक हिस्सा अक्षम है नौ हिस्सों के मुकाबले। यादा हिस्सा अचेतनता का है। केवल बहुत थोड़ा सा हिस्सा चेतन है। इसीलिए आप हमेशा अचेतनता द्वारा खींच लिए जाते हैं-बनाए जाते हैं, निर्मित किए जाते हैं। आप यह सोचते रह सकते हैं कि निर्णय करने वाले आप ही हैं। वस्तुतः आप हैं नहीं, वह जो अचेतन छिप हुआ मन है, वही हमेशा निर्णय करता है।
आप प्रेम में पड़ते हैं। क्या यह आपका निर्णय है? क्या यह आपका सचेतन निर्णय है? क्या आप सचेतन रूप से प्रेम में हैं? आप कहते हैं कि ऐसा हो गया। इसका क्या मतलब होता है कि कुछ अचेतन शक्तियां आपके भीतर आपकी खींच रही हैं। आप तो सिर्फ एक कठपुतली हैं। इसीलिए यदि यह अचानक हो गया है, तो एक दिन यह अचानक गायब भी हो सकता है। क्या कर सकते हैं आप? आप तो केवल उसके शिकार थे, आप से कभी कुछ पूछा नहीं गया। और केवल प्रेम के लिए ही नहीं, बल्कि जो कुछ भी आप सोचते हैं, करते हैं या अनुभव करते हैं, उसमें गहरे भीतर चले जाए और आप इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि कुछ अज्ञात शक्तियां आपसे सब कुछ करवाती चली जाती हैं। आप अपने कोधोखा देते रह सकते हैं कि ये आपके निर्णय हैं। वस्तुतः वे आपके निर्णय नहीं हैं।
आप निर्णय करते हैं कि आप क्रोध नहीं करेंगे, और फिर भी क्रोध आता है। प्रत्येक आदमी ने अपने निर्णय की विफलता को अनुभव किया है। प्रत्येक क्षण आप उसे अनुभव करते हैं। आप किसी भी बात की न करने का निश्चय करें और बावजूद इसके, आपको उसे करना पड़ेगा। तब आप उसके लिए तर्क, कारण निर्मित कर लेते हैं। वे तर्क भी सब सुविधाएं हैं। आप निर्णय करते हैं कि आप क्रोध नहीं करेंगे। तब एक संभावना यह है कि आप गहरे भीतर जाएंगे। अपन भीतर गहरा खोदेंगे और इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि आप कुछ भी निर्णय लेने में समर्थ नहीं हैं, आप बिल्कुल अक्षम हैं।
यह चूंकि बड़ा ल जास्पद है, इसलिए कोई भी इसकी जड़ तक नहीं जाता, और वह तर्क देता रहता है। वह कहता है कि मुझे क्रोधित होना पड़ा, क्योंकि यह किसी व्यक्ति की मदद करने के लिए जरूरी था; मुझे क्रोध करना पड़ा, क्योंकि किसी को बदलना था; मुझे सदभावना से क्रोधित होना पड़ा। तब आप एक झूठ निर्मित कर लेते हैं कि यह आपका निर्णय है। ऐसा करके आप अपने को ही धोखा दे रहे हैं। पता लगाएं कि क्या वास्तव में ही आपने कभी कोई निर्णय लिया है? क्या कभी भी आपका कोई निर्णय सफल हुआ है? मन का सचेतन हिस्सा बिल्कुल ही शक्तिहीन है अचेतन इतना बड़ा है-नौ गुना अधिक बड़ा। आपका सचेतन हिस्सा कुछ और नहीं है, बल्कि अचेतन के हाथों की एक कठपुतली मात्र है। इसलिए आप सचेतन में जो चाहें निर्णय करते चले जाए। अचेतन को उसकी कोई भी चिंता नहीं है। जो कुछ भी निश्चित किया जाने वाला है, वह तो अचेतन से ही किया जाने वाला है। और जब वही क्रियान्वित भी किया जाने वाला है, उस वक्त सचेतन बिल्कुल बेमानी हो जाएगा।
आप अपने भीतर गहरे खोदकर देखें। यह अचेतन ही आपका गर्भ है। आपको इसमें से ही बाहर निकलना हो, इसका ही अतिक्रमण करना है, अन्यथा आपको दास होना पड़ेगा, और आप कभी भी मालिक नहीं हो सकेंगे। और आप खाली एक अंडा ही-एक बीज रह जाएंगे। आप कभी भी वृक्ष नहीं बनेंगे, जो कि खिल सके। तब खिलना, पल्लवित होना आपके लिए कभी भी संभव नहीं होगा।
प्रथम यह अनुभव करने की कोशिश करें कि यह अचेतन है क्या, कहां है! यह एक अच्छा प्रारंभ होगा-अचेतन के प्रति चेतन होना, अपने ही कारागृह के प्रति सजग होना, अपने ही बीजत्व के प्रति जागना। अपने कोधोखा न दें, यही सोचते न चले जाएं कि आप यह हैं, और वह हैं। खोज करें कि आप वस्तुतः क्या हैं; एक प्रतिमा निर्मित न करें।
गुरजिएफ ने एक कहानी का उल्लेख किया है। उसने कहा कि एक जादूगर था, जिसके पास बहुत सी भेड़ें थीं। हर रोज एक भेड़ को मार डाला जाता था उसके भोजन के लिए। वे भेड़ें देखती थीं कि हर रोज एक भेड़ काटी जाती है, किंतु वे कभी कोई विद्रोह नहीं करती थीं, वे कभी भी उसके विरुद्ध खड़ी नहीं होती थीं। एक दिन एक मेहमान उस जादूगर के पास ठहरा हुआ था। उसने उस जादूगर से कहा-यह तो चमत्कार है। हर रोज एक भेड़ को चुना जाता है, दूसरी भेड़ों के सामने ही उसे काटा जाता है, और फिर भी इनको इतनी सी बात समझ में नहीं आती कि जल्दी ही उनका भी दिन आएगा। वे बच कर भाग भी तो सकती हैं! वे विद्रोह भी तो कर सकती हैं।
वह जादूगर हंसा और उसने कहा-यह एक चालाकी की बात है। मैंने इन सारी भेड़ों को सम्मोहित कर दिया है। मैंने इन्हें सम्मोहित करके इनको कह दिया है कि तुम भेड़ नहीं हो; तुम भेड़ बिल्कुल नहीं हो। दूसरी सब भेड़ें हैं, परंतु तुम नहीं हो। तुम तो शेर हो। इसलिए प्रत्येक भेड़ यह समझती है कि यह तो शेर है और बाकी सब भेड़ें हैं। इसलिए जब एक भेड़ मारी जाती है, तो दूसरी की कोईचिंता नहीं होती, क्योंकि वे सब अपनी कल्पना में शेर हैं।
यह कहानी अच्छी है। यह मनुष्य के मन के कहानी है। आप सदैव उसके बारे में सोचते रहते हैं। जो आप नहीं हैं, और जो कुछ भी आप हैं उसके प्रति अपनी आंखें बंद किए रहते हैं। इस तथ्य की, इस वास्तविकता की पहचान ही कि आप क्या है, प्रारंभ है। और यह एक ठीक प्रारंभ हैः सर्वप्रथम इस बात की पहचान कि आपका सब करना अचेतन है, न कि चेतन। आपका प्रेम आपकी घृणा, आपका क्रोध, आपकी मित्रता, आपकी शत्रुता, वे सब आपके अचेतन के हिस्से हैं। आप एक सजग व्यक्ति नहीं हैं, आपके पास एक बहुत छोटा सा हिस्सा चेतन का है। इसलिए इस बात को समझा जा सकता है कि आप सजग व्यक्ति नहीं हैं।
यदि किसी पागल आदमी को यह समझाया जा सके कि वह पागल है, तो यह प्रमाण है कि उसके दिमाग का एक हिस्सा अभी भी विक्षिप्त नहीं है। यदि कोई पागल व्यक्ति यह महसूस कर सके कि वह पागल है, तो इसका अर्थ होता है कि उसके मस्तिष्क का एक हिस्सा अभी भी पागल नहीं है। परंतु आप किसी भी पागल आदमी को नहीं समझा सकते कि वह पागल है। और यदि उसे यह विश्वास दिला सकें कि वह पागल हैं, तो इसका मतलब है कि आप गलत हैं। वह पागल नहीं है, कम से कम उसे दिमाग का एक हिस्सा तो कतई पागल नहीं है। इसलिए यदि आप इतना अनुभव कर सकें कि आप एक अचेतन आदमी हैं तो यह एक अच्छी शुरुआत है। इसका मतलब होता है कि आपका एक हिस्सा चेतन है-चाहे एक बहुत छोटा हिस्सा ही क्यों न हो। परंतु उस हिस्से का उपयोग किया जा सकता है।
आप उसका उपयोग दो तरह से कर सकते हैं-या तो तर्क बैठाने में कि आप पहले ही सजग हैं-यह वही है, जो हम अभी कर रहे हैं। अथवा गहरे खोदने में और यह महसूस करने में कि हम अचेतन हैं, मूर्च्छित हैं। वह छोटा सा चेतना का खंड, जो मनुष्य के हिमशैल का दसवां हिस्सा है, दो तरह से उपयोग में लाया जा सकता हैः एक तो, बुद्धिगत तर्क करते जाने में, सोचने में, कल्पना में, स्वप्न देखने में कि आप एक जागे हुए आदमी हैं-यही है वह, जो हम कर रहे हैं। अथवा आप उसका उपयोग भीतर गहरे खोदने के लिए भी कर सकते हैं और यह जानने के लिए भी कर सकते हैं कि आप कतई जागे हुए हनीं हैं। यही वह बात है जिसकी कि एक साधक से आशा की जाती है। यदि एक बार भी आपको ऐसा प्रतीत हो जाए कि आप सजग नहीं हैं, तो सजगता आपके अंदर प्रारंभ हो गई। आप रास्ते पर लग गए। अब बहुत कुछ किया जा सकता है।
एक बार आपको यह प्रतीत हो भर जाए कि आप कारागृह में हैं, और यह आपका घर नहीं है, बल्कि एक कारागृह है, तो फिर बहुत कुछ किया जा सकता है इसे तोड़ने के लिए, इसमें से निकलने के लिए। अनेक उपाय काम में लाए जा सकते हैं। कुछ भी प्रबंध किया जा सकता है। अब कारागृह के पहरेदारों को रिश्वत दी जा सकती है, अथवा कुछ भी किया जा सकता है। लेकिन तब कुछ भी नहीं किया जा सकता, जब आप यही सोचते रहें कि आप बंदीगृह में नहीं हैं, और यह तो आपका घर है, और बंदीगृह के पहरेदार आपके ही घर के चौकीदार हैं और वे आपकी ही नौकरी में हैं। और यदि आप वाकई कारागृह में पैदा हुए हैं, तो ऐसा लगेगा कि प्रत्येक आपकी सेवा के लिए है, बंदीगृह की सारी व्यवस्था आपकी सेवा है। यदि आप बंदीगृह में ही पैदा हुए हैं, तो आप यह सोच भी कैसे सकते हैं कि यह कारागृह है?
यह जानना कि यह एक कारागृह है, उससे निकलने के लिए पहला बुनियादी कदम है, क्योंकि तभी कुछ किया जा सकता है। अतः आप मूर्च्छित हैं और यह कोई सिद्धांत नहीं है यह एक सामान्य तथ्य है। और यह कोई थियोलॉजी की बात भी नहीं है; यह तो सामान्य विज्ञान है। इसका धर्म से कोई भी संबंध नहीं है, और न ही परा-काल्पनिक माइथोलॉजी से इसका कोई संबंध है। अब तो यह एक विज्ञान का तथ्य है। यही कारण है कि फ्रायड को इतनी घृणा मिली, उसे इतना निंदित किया गया।
कहते हैं कि तीन क्रांतियां हुई! प्रथम कोपरनिकस की थी। कोपरनिकस ने कहा कि पृथ्वी सारे विश्व पर केंद्र नहीं है और सूरज पृथ्वी का चक्कर नहीं लगा रहा है, परंतु पृथ्वी सूरज का चक्कर लगा रही है। पृथ्वी की मान्यता कम हो गई, पृथ्वी सिंहासन से नीचे उतार दी गई। यह आदमी के लिए बड़े अपमान का कारण बना, क्योंकि जब पृथ्वी केंद्र थी, तब आदमी भी सारे विश्व का केंद्र था। प्रत्येक चीज आदमी के चारों ओर घूम रही थी, और हर वस्तु आदमी की पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगा रही थी। अचानक पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगा रही थी। अचानक पृथ्वी केंद्र न रही-और खाली केंद्र ही न रही होती तो भी ठीक था, वह तो कोई महत्वपूर्ण वह भी नहीं रही। पृथ्वी तो ऐसा वह है जो कि न के बराबर है! पृथ्वी को सूरज के चारों ओर चक्कर लगाते हुए पाया गया। और सूरज-हमारा सूरज और बड़े सूर्यों के चक्कर लगाता हुआ पाया गया। तो फिर हम तो कुछ भी न रहे।
फिर डारविन आया और उसने कहा कि आदमी परमात्मा से संबंधित नहीं है, बल्कि पशुओं से संबंधित है। वह ईश्वर का वंशज नहीं है, परंतु बंदरों से, बैबून से, चिंपाजी से जुड़ा हुआ है। वह एक लंबी पशु-परंपरा से संबंधित है। यह दूसरी क्रांति थी-बहुत ही ल जाजनक-बहुत ही यादा अहंकार पर चोट करने वाली। पृथ्वी केंद्र नहीं थी और आदमी जो देवताओं से जरा ही नीचे रह गया था, वह अब जानवरों से जरा सा ऊपर था और उससे यादा कुछ भी नहीं। और वह ऊपर होना भी पक्का नहीं था। आदमी कोसिंहासन से उतार दिया गया और उसे अपमानित होना पड़ा। वह सिर्फ एक पशु था।
और उसके बाद आई तीसरी क्रोधित, जो कि फ्रायड की थी। उसने कहा कि आप होश में ही हनीं हैं, आप तो केवल अचेतन शक्तियों के हाथ में हैं। इसलिए अरस्तू, फ्रायड के अनुसार बिल्कुल ही गलत था, क्योंकि उसने कहा था कि आदमी एक बुद्धिजीवी प्राणी है।
आदमी बुद्धिजीवी नहीं है। आदमी सर्वाधिक अबुद्धिजीवी प्राणी है। कुत्ते भी यादा रैशनल हैं, बौद्धिक हैं। सारे दूसरे जानवर यादा बौद्धिक है इस अर्थ में कि वे अधिक पूर्वकथनीय हैं, प्रैडिक्टेबल हैं। आदमी अनप्रैडिक्पेबल (अपूर्वकथनीय), सर्वाधिक अबुद्धिसंगत प्राणी है। आप उस पर निर्भर नहीं कर सकते, क्योंकि तर्क एक गणित की चीज है। यदि एक कुत्ता एक विशिष्ट तरीके से व्यवहार करता है, तो आप पहले से ही निर्धारित कर सकते हैं कि वह इस तरह से व्यवहार करेगा। आप आदमी के बारे में पूर्व धारणा नहीं कर सकते। और फिर वह तर्कसंगत भी नहीं है, क्योंकि उसका सारा काम अचेतन मन से हो रहा है। वह प्रेम करता है, वह लड़ता है, वह लड़ाई के मैदान में जाता है, वह धन इकिं करता चला जाता है, वह चिंता करता चला जाता है बिना किसी भी कारण के। वह सर्वाधिक विक्षिप्त पशु है। केवल एक बात निश्चित है उसके लिए और वह अपवाद है और वह यह है कि वह अपने बारे में कुछ ऐसी बातें सोचता है, जो कि सत्य नहीं हैं। केवल एक अपवाद है उसके बारे में।
पशु सीधे पृथ्वी पर हैं। उनके पास कोई कल्पना नहीं है। वे जो हैं, हैं। खाली मनुष्य ही एक कल्पना करने वाला स्वप्न देखने वाला प्राणी है। और वह स्वप्न देख सकता है और अपने सपनों में विश्वास भी कर सकता है। वह स्वयं को सम्मोहित कर सकता है और वह यह भरोसा कर सकता है कि जो कुछ भी कल्पना वह कर रहा है, सच है। अतः यह कोईधार्मिक मामला नहीं है कि यह कह दिया कि मनुष्य मूर्च्छित है। अब तो वैज्ञानिक आधार पर इसे सिद्ध भी कर दिया गया है।
भारतीय मनोविज्ञान पश्चिमी मनोविज्ञान से बहुत पुराना है। पश्चिम में, मनोविज्ञान अभी भी बच्चा है। वास्तव में, फ्रायड ही उसका पिता है, इसलिए वहां केवल इसी सदी ने मनोविज्ञान को जन्म दिया है। परंतु भारत के लिए तो वह एक बहुत पुराना, लंबा विज्ञान है, पतंजलि एक मनोवैज्ञानिक है, बुद्ध एक मानस शास्त्री हैं, और कपिल मानसवेत्ता हैं। और अच्छा होगा कि हम इनकी तरफ भी ऐसे ही देखें, जैसे कि एक मनोवैज्ञानिक की तरह देखते हैं, बजाय इसके कि धार्मिक व्यक्तियों की भांति इनको पूजें, क्योंकि तब एक दूसरा ही आयाम सामने आता है, और तभी आप वस्तुतः समझ पाते हैं कि वे क्या कर रहे हैं।
बुद्ध कहते हैं कि केवल एक सजगता ही आपको आदमी बना सकती है, अन्यथा आप सिर्फ एक पशु हैं। बुद्ध शब्द का अर्थ ही है कि एक जागा हुआ व्यक्ति। वह कोई उनका नाम नहीं था। उनका नाम तो गौतम सिद्धार्थ था। परंतु गौतम सिद्धार्थ तो एक मूर्च्छित व्यक्ति था। जब गौतम सिद्धार्थ जागा, सजग हुआ, तब ही उसे बुद्ध के नाम से पुकारा गया-एक जागा हुआ आदमी। बुद्ध जब पूर्ण चैतन्य हो गए, तो उन्होंने परमात्मा के लिए कुछ भी नहीं कहा, मोक्ष के लिए भी कुछ न कहा, न ही निर्वाण के लिए कुछ कहा। उन्होंने ऐसा कहा बताते हैं-अब मैं जागा हुआ हूं, पहले मैं सोया हुआ था। अब मैं जागा हुआ हूं।
महावीर का नाम जिन है। उसी जिन नास से जैन निकला। जिन का अर्थ होता है जीतनेवाला। महावीर ने कहा-मैं सोया हुआ था। अब मैं अचेतन का दास था, अब मैं जाती हुआ हूं, जिन हूं, क्योंकि अब कोई अचेतन नहीं है, जो कि मुझे दास बनाए। पतंजलि के सारे सूत्र मात्र एक पद्धति हैं-विधियां हैं सजगता को और अधिक बड़ाने के लिए। सारी योग-साधना मनुष्य में और यादा चेतना कैसे बड़े इसी के लिए ही हैं।
पूरब के लिए यह एक बहुत अनुभूत तथ्य है, एक जाना हुआ तथ्य है कि आदमी सोया हुआ है। परंतु पश्चिमी विज्ञान ने अभी-अभी इस तथ्य को जाना है। इसलिए क्या किया जाए यदि मनुष्य सोया है, मूर्च्छित है? उसको कैसे जगाया जाए? उसको कैसे सजग किया जाए? पहली बात तो यह है कि इस तथ्य को जाना जाए कि आप अचेतन हैं, मूर्च्छित हैं। यह जानना कठिन है कि आदमी मूर्च्छित है। बिल्कुल कठिन नहीं हैं, क्योंकि तब आप उसमें सम्मिलित नहीं हैं। तब आदमी मूर्च्छित है, न कि आप। परंतु जब मैं कहता हूं कि मनुष्य मूर्च्छित है, तो मेरा मतलब है कि आप मूर्च्छित हैं, न कि मनुष्यता।
मनुष्यता जैसी कोई चीज नहीं है, केवल आदमी है-अ आदमी, ब आदमी, स आदमी आदि। कोई मनुष्यता कहीं है नहीं, केवल व्यक्ति हैं। मनुष्यता तो खाली समष्टिगत नाम है। आप मूर्च्छित हैं। इस तथ्य को चेतना के तीर का दोनों और लक्ष्य करके देखें। मैं फिर दोहराता हूं कि आप मूर्च्छित हैं। अपने साथ कोई तर्क न करें, और स्वयं कोधोखा न दें। जो कुछ भी आप कर रहे हों, स्मरण रखें कि वह एक मूर्च्छित कर्म है।
अचानक आप कामतुर हो जाते हैं, तब याद रखीं कि यह अचेतन है। अब अचेतन है। अचेतन आपको किसी खास कृत्य के लिए जबरदस्ती खींच रहा है। लड़ें नहीं, क्योंकि लड़ाई भी अचेतन है। वह इसलिए है कि समाज ने कहा है कि काम बुरा है, इससे तुम पाप में पड़ोगे और वह आपके गहरे अचेतन में चला गया है। इसलिए अचेतन के दो हिस्से हैंः एक जैविक है और दूसरा सामाजिक। एक तो वहां वृत्तियां हैं और दूसरे सामाजिक भय है। समाज ने बहुत सारी बातें आपके अचेतन में डाल दी हैं। उसे ही हम अंतःकरण कहते हैं। कुछ चीजें बुरी हैं, कुछ चीजें अच्छी हैं। वह आपके अचेतन में जबरदस्ती डाल दी गई हैं।
इसलिए यदि आपको बच्चे को कोई भी नैतिकता सिखानी है, तो सात वर्ष की अवस्था के पहले यदि उसे सिखाया जाए, तो ही आप उसमें सफल होंगे। सात वर्ष की अवस्था के बाद आप सफल हनीं हों सकते। इसलिए हर एक धर्म बच्चों में यादा दिलचस्पी रखता है, और प्रत्येक धर्म की एक संस्था है। माता-पिता के द्वारा, कुटुंब के द्वारा, धर्म बच्चों के मन को संस्कारित करता है, जब कि मन बिल्कुल मूर्च्छित होता है। एक हिस्सा भी चेतन नहीं होता, इसलिए उस समय कोई विरोध भी नहीं होता। जो कुछ भी आप बच्चे से कहेंगे, वह सीधा उसके गहरे अचेतन में उतर जाएगा। कोईप्रतिरोध नहीं होगा। एक बार बच्चा बड़ा हो जाए, तब बहुत मुश्किल हो जाएगा उसके अचेतन में प्रवेश करना। इसलिए बच्चा सात वर्ष तक जो कुछ भी सीख लेता है, वह उसकी पृष्ठभूमि बन जाता है। तब जो कुछ भी आप अपनी जिंदगी में करते हैं, यदि आप समाज, जिसने कि आपकोप्रशिक्षित किया और आपको अपना अंतकरण दिया किसके खिलाफ भी जाते हैं, तो वास्तव में आप उसके खिलाफ नहीं जा सकेंगे। उसके विरुद्ध जाने में आप उन्हीं शिक्षाओं का अनुगमन करेंगे, जो कि आपके अचेतन में डाल दी गई हैं। किसी चीज के खिलाई विद्रोह करना भी उसी से संबंधित होता है।
यदि मनुष्य जाति को इन तथाकथित धर्म सिद्धांतों से बचाना है, तो उन्हें बच्चों को सिखलाना, अपराध घोषित करना पड़ेगा। बच्चों कोधार्मिक मन, सिद्धांत, कट्टर विश्वास न सिखाएं। उन्हें कुछ भी न सिखाएं। पहले उन्हें बड़ा हो जाने दें। जब वे प्रौड़ हो जाएं, तभी उनको सिखाएं। किंतु तब यह बड़ा कठिन होगा। तब चेतन मन पैदा हो चुका होगा। वह चुनाव करता है और सोचता है। उसका एक हिस्सा जैविक है, वंश परंपरा का है, और दूसरा सामाजिक है।
काम उठता है-सजग हो जाए कि आपकी अचेतन वृत्ति आपकी शारीरिक यांत्रिकता को किसी खास वस्तु की तरफधकेल रही है, किसी विशेष कृत्य की और ले जा रही है। परंतु लड़े नहीं क्योंकि वह लड़ना भी फिर उसी सामाजिक अचेतन से आ रजा है जो कि कहता है कि काम पाप है। दोनों के प्रति सजग हो जाएं, दोनों के प्रति जाग जाएं-कि एक तो यह कि काम है, और दूसरीः एक धारणा है कि काम पाप है। दोनों ऐसी जगह से आ रहे हैं, जिसका कि आपको कोई पता नहीं-एक गहरे अंधकार से जो कि भीतर है। सजग होने की कोशिश करें। सेक्स से, काम से लड़े नहीं, उसकी निंदा भी न करें, न ही उसमें जाए, और न ही संलग्न हों। सिर्फ इस तथ्य के प्रति सजग हों की भीतर कुछ हो रहा है। यदि आप इस तथ्य के साथ रह सकें बिना कुछ किए, तो आपको महसूस होगा कि आपकी सजगता बड़ रही है और अचेतन के घने अंधकार में प्रवेश कर रही है।
क्रोध उठा है आपको; कुछ भी न करें, उसके पक्ष अथवा विपक्ष में और न ही उसमें संलग्न हों, न ही उसे दबाए। उस पर ध्यान करें। अपनी आंखें बंद कर लें और क्रोध के तथ्य पर ध्यान करें। जब मैं कहता हूं-ध्यान करें, तो उसमें बहुत सी बातें समझ लेनी हैं। निर्णय न करें। यह न कहें कि क्रोध बुरा है; यह न कहें कि क्रोध अच्छा है। कुछ भी न करें। क्रोध वहां है, ऐसे ही जैसे कि एक सांप कमरे में आ जाए। केवल सजग हो जाए। क्या सांप कोई परमात्मा है कि उसकी पूजा करें? नहीं। क्या सांप कोई शत्रु है कि उसे मार डालें? नहीं। केवल सजग हो जाए कि सांप आ गया है। सांप को एक वस्तु की तरह से लें, मात्र सजग होने के लिए।
इसी तरह से क्रोध आपके भीतर चमक उठा है। सजग हों, जागें, सावधान हों, और कुछ भी न करें। केवल सावधान रहें, क्योंकि जैसे ही आप कुछ भी करने लगते हैं, आप सचेत नहीं कर सकते। आपके पास ऊर्जा की मात्रा इतनी कम है कि आप कुछ भी करने में लगें, तो ऊर्जा उसी काम में लग जाएगी। कुछ न करें। चुप हो जाए। शांत व पूरे सजग। अपनी सारी क्षमता को सावधान होने में लगा दें इस तथ्य के प्रति कि क्रोध है, और अचानक आप पाएंगे कि आपकी चेतना का फोकस (घेरा) बड़ रहा है। आप अचेतन में प्रवेश कर रहा है। और आप जितना अचेतन के अंधेरे में प्रवेश करते हैं, उतने ही आप सजग हो जाते हैं।
यह एक लंबी कठिन प्रयास है-बहुत कठिन, क्योंकि यह एक बहुत गहरी असुविधा निर्मित करता है। आपको बड़ी भारी बेचैनी का अनुभव होगा। इसका प्रयत्न करें और आपको मालूम पड़ेगा कि यह बहुत कठिन है। और यह यादा आसान है कि दोनों में से कुछ भी एक काम करें। आप क्रोध कर सकते हैं। यह आसान है, क्योंकि तब आप उससे मुक्त हो जाते हैं। चाहे फिर कुछ भी परिणाम हो, परंतु उस क्षण के लिए तो आप मुक्त हो जाते हैं। आप आंतरिक अचेतन तनाव से मुक्त हो जाते हैं। दूसरे, आप क्रोध से लड़ सकते हैं। यदि आप लड़ते हैं, तब तो आप मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि क्रोध से लड़ने में वही ऊर्जा काम आ रही है, जो कि क्रोधित होने में काम में आती।
इसे स्मरण रखें कि एक आदमी जो कि अपने क्रोध से लड़ रहा है, बहुत सिर्फ वस्तु बदल रहा है। मैं आप पर क्रोधित हूं। मैं आपसे लड़ने वाला था, परंतु अब मैं सारी लड़ाई अपने ही क्रोध के खिलाफ लड़ने में लगा लेता हूं। मैं उसे उल्टा कर लेता हूं। मैं आपसे लड़ाई करने जा रहा था। परंतु मैं एक नैतिक आदमी हूं, मैं साधु हूं, मैं एक धार्मिक आदमी हूं, इसलिए मैं आपसे नहीं लड़ सकता। परंतु मुझे किसी से तो लड़ना ही पड़ेगा, इसलिए मैं अपने आप से ही लड़ता हूं; मैं अपने ही क्रोध से लड़ता हूं। वही ऊर्जा और वही युक्ति घटित होगी। मैंने लड़ लिया, और मुझे एक गहरा संतोष मिलेगा।
वह जो संतोष तथाकथित साधुओं के मुख पर दिखलाई पड़ता है, वह कुछ और नहीं बल्कि लड़ने और जितने का ही संतोष है। और वस्तुतः यह और भी यादा बड़ी चालाकी है, क्योंकि किसी और से लड़ना परिणामों की एक लंबी क्रांखला निर्मित करता है। यदि आप दोनों हो जाए, यदि आप अपने के दो बांट लें-एक अच्छा आदमी जो कि कभी क्रोधित नहीं होता, और एक बुरा व्यक्ति, एक मूर्च्छित आदमी जो कि क्रोध करता है-यदि आप अपने को दो में विभाजित कर लें, आप हमेशा-हमेशा के लिए बाह्यरूप से नहीं भी लड़ सकते हैं। आप साधु हो जाएंगे, परंतु भीतर से आप एक वाला मुखी हो जाएंगे-मात्र एक गहन हलचल और कुछ भी नहीं-एक रुग्णता अंतस में, एक निरंतर द्वंद्व अंतस में।
जो लोग काम से लड़ते हैं, उन्हें फिर जिंदगी भर सतत काम से लड़ना पड़ेगा। जो क्रोध से लड़ने लगते हैं, उन्हें फिर लगातार क्रोध से लड़ना पड़ेगा। यह एक सतत द्वंद्व है। भीतर कोई शांति नहीं है; वह हो भी नहीं सकती। इसीलिए हम अपने को दो में बांट देते हैंः वह जो बुरा है और वह जो अच्छा है। आपके भीतर दो हिस्से हैं। स्मरण रखें, कि जो बुरा हिस्सा है, वह अचेतन है, और अच्छा है, वह चेतन है। और एक बार भी यदि आप अपने अचेतन को शत्रु की भांति समझ लेते हैं, तो आप फिर उसे कभी भी बदल वे रूपांतरित नहीं कर सकते। तब कोई रूपांतरण सींव नहीं हो सकता, क्योंकि अचेतन कोई दुश्मन नहीं है। वह तो आपका ऊर्जा स्रोत है, आपकी जैविक ऊर्जा का स्रोत। अपने में ही विभाजित आप कभी भी स्वस्थ नहीं होंगे। आप एक रुग्णता हो जाएंगे।
मनोविकारों से लड़ें नहीं; उनमें संलग्न भी न हों, हालांकि दोनों कि आसान हैं। दोनों ही बातें सरल हैं। केवल एक चीज जो कि बहुत दुःखदायी है और बहुत बेचैन करने वाली है, वह है सावधान होना, सचेत होना। आदत की सारी यांत्रिकता आपको कुछ करने के लिए बाध्य करेगी। क्या करेंगे आप? कुछ भी करें। कुछ भी करना चलेगा, किंतु आप कुछ भी न करें। क्योंकि सी आदत को तो तोड़ना है। इसलिए पहली बात यह जानना और महसूस करना है कि आप मूर्च्छित हैं। दूसरी चीज कि जब भी अचेतन आपको कुछ करने के लिए धक्के मारे, सजग हो जाएं, जागे हुए रहें, और सावधान हो जाए। एक बहुत साधारण सी निष्क्रिया सजगता की आवश्यकता होती है।
यदि आप सजग रहते हैं, तो दो बातें घटित होंगीः कि जो ऊर्जा संलग्न होने में लगने वाली थी अथवा दमन करने में खर्च होने वाली थी, वही ऊर्जा आपकी सजगता का हिस्सा बन जाएगी। आपकी सजगता उसी ऊर्जा से और भी अधिक होगी। वह ऊर्जा आपकी जागरूकता को मिल जाएगी, और आप और भी अधिक सजग हो जाएंगे। वही ऊर्जा आपकी चेतना के लिए इृध! धन बन जाएगी। आप और अधिक सजग हो जाएंगे। और पहली बार अचेतन आपको बाध्य नहीं कर सकेगा। पहली बार अचेतन आपको चलाने में असमर्थ होगा। और जहां एक बार भी आपको इस मुक्ति का अनुभव हो गया कि अचेतन फिर आपको नहीं चला सकेगा। अब आप लड़ते भी हनीं हैं, आप कोई संघर्ष भी नहीं करते हैं, तब कोई द्वंद्व भी नहीं है-क्योंकि अब आप की चेतना और अधिक मजबूत हो गई है।
और धीरे-धीरे चेतना का क्षेत्र बड़ने लगेगा और अचेतन का क्षेत्र सिकुड़ने लगेगा। आप मनुष्य रूपी हिमशैल का एक हिस्सा और प्राप्त कर लेंगे और आप दो हिस्से चेतन होंगे वे आठ हिस्से अचेतन। यह एक लंबी यात्रा है, और धीरे-धीरे आप तीन हिस्से चेतन होंगे और सात हिस्से अचेतन। और इसी तरह क्रमशः आप शत-प्रतिशत चेतन हो जाएंगे।
जैसे-जैसे आप अधिकाधित उपलब्ध करते जाएंगे, तो यह ऐसे ही होगा जैसे कि समुद्र से जमीन को वापस प्राप्त करना। आपको एक-एक इंच जमीन लेनी होगी। परंतु जिस क्षण भी आप जमीन पर पुनः अधिकार कर लेते हैं, समुद्र पीछे खिसक जाता है। अंततः एक दिन आता है, जैसे कि बुद्ध के अथवा जीसस के जीवन में आया, अब आपके दसों हिस्से हो गए चेतन और अचेतन विलीन हो गया। आप भीतर तक प्रकाश ही प्रकाश हो जाएंगे, और कोई अंधकार नहीं होगा। यही खिलाना है, प्रस्फुटित होना है, और पहली बार आप अपने अमरत्व के प्रति बोध से भर उठेंगे। पहली बार आप एक चीज नहीं होंगे। पहली बार ऐसा होगा कि आपके लिए कुछ भी होना बाकी नहीं होगा। आपको जो होना था, आप हो गए होंगे। यदि यह कहना ठीक हो, तो आप अपने स्वरूप कोप्राप्त हो गए, अपने बीइंग को उपलब्ध हो गए, आप अपने होने को पहुंच गए।
बुद्धत्व की इस स्थिति में, कोई दुख, कोई द्वंद्व, कोई संताप नहीं होगा। आप आनंद से भर गए होंगे। भीतर आप आनंद हैं, और बाहर करुणा। आप प्रत्येक चीज के प्रति संवेदनशील हो गए होंगे। इस संवेदनशीलता के कारण से ही बुद्ध बाहर करुणापूर्ण हैं। भीतर एक गहन शांत आनंद के सरोवर व बाहर मात्र करुणा। बुद्ध के होंठ एक गहरे आनंद में मुस्कुरा रहे हैं, और उनकी आंखें एक गहरी करुणा के कारण आंसुओं से भरी हुई हैं।
कदाचित आपने सुना होगा कि में सातवां चक्र है सहस्र दल-कमल-एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल। यह एक प्रतीक है। सहस्र दल कमल सातवां चक्र है आपे सिर के ऊपर। वह सातवां चक्र अंतिम स्थिति है, चेतना का एवरेस्ट, शिखर।
पहला चक्र मूलाधार काम केंद्र है और अंतिम चक्र है सहस्रार। काम आपमें सब से अचेतन चीज है, और सहस्रार सर्वाधिक चेतन। ये दोध्रुव हैं। हम काम-केंद्र के इर्दगिर्द ही रहते हैं, ओर चलते चले जाते हैं। जो कुछ भी हम करते हैं, वह सब काम से संबंधित है, चाहे वह कितनी भी दूर की बात लगती हो। आपका पैसा कमाना, आपका धन इकिं करना, ऐसा प्रतीत भले ही न हो कि काम से संबंधित है, परंतु वह सब है उसी से संबंधित। जितना यादा धन आपके पास होगा, उतना ही अधिक आप काम को उपलब्ध कर सकते हैं। वह और भी यादा संभव हो जाता है। जितनी अधिक सत्ता आपके पास होगी, उतना ही अधिक काम आप भोग सकते हैं।
आप बिल्कुल भूल भी सकते हैं, और साधन साध्य बन सकते हैं, तथा साध्य साधन बन सकते हैं; वह दूसरी बात है। एक व्यक्ति अपनी सारी जिंदगी धन एकत्रित करने में पूरी कर दे सकता है, और वह बिल्कुल ही भूल सकता है कि वह यह सब क्यों कर रहा है। परंतु सत्ता की हर एक खोज काम के लिए है; हम काम केंद्र के पास ही घूमते रहते हैं। हमको घूमना ही पड़ेगा, क्योंकि जब तक हम चेतना में नहीं बड़ते, हम उसके पार नहीं जा सकते। वह अचेतन में सब से गहरे जड़ जमाए, सब से नीचे का केंद्र है, और इसी कारण यह सब से अधिक गहरा व सर्वाधिक मूर्च्छित है।
जितना अधिक आप चेतना में बड़ते हैं, उतने ही दूर आप सेक्स से जाते हैं। और तब एक भिन्न ही प्रकार का विकास होता है। सारी ऊर्जा सातवें चक्र-सहस्रार को मिल जाती है। और जब सारी ऊर्जा सातवें चक्र को आती है, तो वह एक फूल बन जाती है-एक हजार पंखुड़ी वाला फूल। वह एक बहुत ही सुंदर प्रतीक है। इसका अर्थ होता है कि अंतत, असीम पंखुड़ियों के साथ फूल खिल गया है।
यह सूत्र खाली एक प्रतीक ही नहीं है। वास्तव में, कोई भी प्रतीक खाली प्रतीक ही नहीं है; वह एक वास्तविकता की ओर संकेत करता है। और जब आप समाधि की स्थिति को पहुंचते हैं, चेतना के सातवें चक्र तक आते हैं, तो आपके भीतर एक सूक्ष्म अनुभूति खिलने की होती है कि कुछ फूट कर खिल गया है। अब आप खाली एक कली ही नहीं हैं; अब आप एक फूल हैं। इस फूल के साथ ही प्रभु के मंदिर में आए। यही अर्थ है इस सूत्र का। बाजार से खरीदे हुए फूल यहां काम न देंगे। मैं कहता हूं-बाजार से खरीदे हुए क्योंकि आज उन्हें उगाना भी असंभव हो गया है। ऐसा लगता है कि फूल दुकानों पर उगते हैं; पैदा किए जाते हैं।
खरीदे हुए फूल काम न देंगे, बाहरी फूलों से पूजा न होगी। आपके स्वयं के विकास की आवश्यकता पड़ेगी, और केवल वही स्वीकृत होगी। यह बहुत कठिन व लंबा है, परंतु असंभव नहीं है। मनुष्य के लिए यही एक मात्र चुनौती है। मनुष्य के लिए यही एकमात्र चुनौती है। बाकी सब तो बच्चों की मूर्खता की बात है पूर्ण चेतना कोप्राप्त होना-यही एकमात्र चुनौती है।
चांद पर पहुंचना, किसी दूर के ग्रह पर पहुंचना-ये सब बच्चों की बातें हैं, क्योंकि आप चांद पर जा सकते हैं और वही के वही रह सकते हैं, आप तब भी बीज ही रहते हैं। जब तक आप फूल नहीं हो जाते, आपने कोई गति नहीं की। आंतरिक विकास के साथ ही आप रूपांतरित होते हैं। आप बदलते हैं, आपका नया जन्म होता है। प्रयास की जरूरत है, बहुत प्रयास की जरूरत है।
और यदि (और यह यदि बहुत बड़ा है) आप तैयार हैं पहला कदम उठाने को, तो फिर अंतिम कदम दूर नहीं है। परंतु यह यदि पहले कदम से संबंधित है। यदि आपने पहला कदम उठा लिया है, तो आधी यात्रा तो पूरी हो ही गई। पहला कदम ही सर्वाधिक कठिन बात है। यह जानना कि आप मूर्च्छित हैं, आपके अहंकार को मिटाने वाला है, यह बिल्कुल तोड़ने वाला, धब्बा लगाने वाला है। परंतु यदि कोई तैयार रहे कि इस धक्के कोझेलने, इसका स्वागत करने के लिए, तो फिर अंतिम कदम दूर नहीं है।
सच ही कहा है कृष्णमूर्ति ने कि प्रथम चरण ही अंतिम है। वह ठीक ही है क्योंकि जो पहला चारण उठाएगा, वही अंतिम भी उठाएगा। महावीर ने कहा है कि यदि आपने प्रथम चरण उठा लिया है, तो आप पहुंच गए, क्योंकि जो पहला कदम उठाने के लिए तैयार है, उसके लिए कोई समस्या कठिन नहीं है। यात्रा शुरू जो हो गई होती है।
प्रारंभ करना ही कठिन है। पहुंचना उतना कठिन नहीं है क्योंकि एक बार एक ही कदम चलना पड़ता है। एक हजार मील की यात्रा भी पूरी हो जाती है एक-एक कदम चलकर। किसी को दो कदम एक साथ उठाने की आवश्यकता नहीं है। यदि आपने पहला कदम उठा लिया है तो आपने एक कदम उठा लिया और एक कदम ही आवश्यक चीज है। अब एक-एक कदम उठाते चले जाए। एक-एक कदम जुड़ कर ही एक हजार मील की यात्रा पुरी हो जाती है। हम सब पहले ही कदम के बारे में सोचते हुए, चिंतन करते हुए बैठे हैं! कुछ तोबिल्कुल सोच ही रहे हैं, कुछ स्वप्न में हैं कि उन्होंने प्रथम चरण उठा लिया है।
कुछ दिन पहले कोई मुझसे मिलने के लिए आया था। उसने मुझे कहा कि मैं कुछ आगे बड़ चुका हूं, इसलिए मुझे क, ख, ग ये प्रारंभ न करें। वह एक विक्षिप्त प्रकार का आदमी था, इसलिए मैंने पूछा कि मुझे बताएं कि आप कहां तक पहुंच गए हैं? आपने क्या कुछ उपलब्ध कर लिया है? उसने कहा-मुझे ध्यान में कृष्ण नजर आते हैं, कभी-कभी तो मैं उनके साथ स्वप्न में नृत्य भी करता हूं। मैं स्वप्न में बहुत सुंदर-सुंदर स्थान-झीलें, पहाड़ियां आदि भी देखता हूं। जो कुछ भी उसने बताया, वह सब उसका सपना था। इसलिए मैंने उससे कहा-यदि यही तुम्हारा मतलब बहु बड़े होने से है, तो फिर आगे चलना बहुत कठिन है, क्योंकि तुम तो सिर्फ स्वप्न देख रहे हो। तुमने तो अभी प्रथम चरण भी नहीं उठाया।
प्रथम चरण ही सर्वाधिक कठिन हैः यह जानना कि आप मूर्च्छित हैं, सोए हुए व्यक्ति हैं, एक रोबोट की तरह यंत्रवत नींद में चल रहे हैं, काम कर रहे हैं, नींद में ही रह रहे हैं-स्वप्न में ही हैं। इसे पहचानें; इस तथ्य को अपने भीतर गहरे उतर जाने दे। यह कितना भी पीड़ादायी हो, इसका स्वागत करें। केवल तभी कुछ हो सकता है। यदि आप इसे पहचान लेते हैं, तो आप नम्र हो जाएंगे। यदि आप इसे जान लेंगे, तो आप सामान्य हो जाएंगे। यदि आपको इसको बोध हो जाएगा, तो आप एक बच्चे के भांति हो जाएंगे। तब काफी संभावना है। तब बहुत कुछ खुलता है।
और तब दूसरा चरणः सजग हो जाएं, जो कुछ भी अंतर्मन में हो, उसके प्रति सजग हो जाए। कोई भी क्रिया न करें, कुछ भी करने की जल्दी न करें। उस तथ्य के साथ रहें-सजग, सावधान। तब देखें कि यह सजगता अदभुत ढंग से काम करती है। यह एक चमत्कार है। अचेतना को देखें और अचानक परिवर्तन घटित होगा। मन का गुण, उसका सारा गुण-धर्म ही बदल जाता है। जैसे ही भीतर आप एक देखनेवाले बन जाते हैं, भीतर एक चेतना हो जाते हैं, मन का गुण-धर्म ही बदल जाता है। बीज टूट जाता है और पौधे का जन्म होता है।
सचमुच यह बहुत कोमल है-बहुत नाजुक। और इसे लगातार बचाना पड़ता है कितने ही दिनों, कितने ही वर्षों, कितने ही जीवन। परंतु एक बार प्रारंभ भर हो जाए, एक बार बीज टूट भर जाए, फिर तो पौधा वृक्ष बनेगा ही और उसमें फूल भी खिलेंगे ही।
उन फूलों का खिलना, वह विकास ही धर्म से संबंधित है। मनुष्य का फूल की भांति खिलाना ही धर्म का अर्थ है।
आज के लिए इतना ही।
बंबई, रात्रि, दिनांक 5 जून, 1972

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