नयन मधुर आज मेरे—प्रवचन—सोलहवां
दिनांक:
16 नवंबर, 1978;
प्रश्न
सार:
1—जो
आपसे मिल रहा
है,
अहोभाग्य!
ऊर्जा का उठना,
फिर आगे आप
सब कुछ जानते
ही हैं।
2—कृपया
मार्गदर्शन
करें।
3—मैं
प्रार्थना को
बैठता हूं तो
रोने के सिवाय
कुछ सूझता
नहीं। मैं क्या
करूं? बुद्धपुरुषों
ने इतने धर्म
क्यों पैदा
किये हैं?
4—आपका
सत्संग मेरे
लिए स्वर्ग से
कम नहीं है। आप
से दूर होने
में बड़ा दर्द
होता है। इस
जन्म के बाद
दुबीरा जन्म
लेने की जरा
भी इच्छा नहीं
होती है।
लेकिन मुझसे
सैकड़ों भूलें
होती हैं।
कृपया
मार्गदर्शन देने
की अनुकंपा
करें।
5—मैं
ध्यान में
प्रकाश का
अनुभव करता
हूं शांति भी
अनुभव होती है, आनंद
भी। भगवान, क्या यही
समाधि की
अवस्था है?
6—मैं
परमात्मा से
मांग तो क्या
मांग?
पहला
प्रश्न:
जो
आपसे मिल रहा
है अहोभाग्य!
ऊर्जा का उठना, फिर
आगे आप सब कुछ
जानते ही हैं।
कृपया
मार्गदर्शन
करें।
रामपाल, अहोभाव
की इस दशा को
थिर रखना, इससे
बड़ी कोई
प्रार्थना
नहीं है।
अहोभाव से बड़ा
कोई सेतु नहीं
है परमात्मा
से जोड़ने
वाला। जो
कृतज्ञ है वह
धन्यभागी है।
और जितने तुम
कृतज्ञ होते
चलोगे उतनी ही
वर्षा सघन
होगी अमृत की।
इस गणित को
ठीक से हृदय
में सम्हाल कर
रख लेना।
जितना
धन्यवाद दे
सकोगे उतना
पाओगे।
शिकायत भूलकर
न करना। और
ऐसा नहीं है
कि शिकायत
करने के अवसर
न आएंगे। मन
की अपेक्षाएं
बड़ी हैं, तो हर
पल हर कदम पर
शिकायतें उठ
आती हैं; ऐसा
होना था, नहीं
हुआ। जब भी
ऐसा लगे कि
ऐसा होना था
नहीं हुआ, तभी
स्मरण करना कि
भूल होती है; क्योंकि
शिकायत अवरोध
बन जाती है।
शिकायत का अर्थ
हुआ कि तुम
परमात्मा पर
अपनी
आकांक्षा आरोपित
करना चाहते
हो।
और
ऐसा मत सोचना
कि शिकायत
तुमसे न होगी, जीसस
जैसे परम
पुरुष से भी
शिकायत हो गई
थी। आखिरी घड़ी
में सूली पर लटके
हुए एक क्षण
को निकल गई थी
पुकार, आकाश
की तरफ सिर
उठाकर जीसस ने
कहा था. 'हे
प्रभु, यह
तू क्या दिखला
रहा है?' सोचा
नहीं होगा कि
सूली लगेगी।
सोचा नहीं होगा
कि परमात्मा
इस तरह से
असहाय छोड़
देगा। पर तत्थण
अपनी गलती
पहचान गए, फिर
आंखें झुका
लीं और क्षमा
मांगी और कहा.
तेरी मर्जी
पूरी हो! तू कर
रहा है तो ठीक
ही कर रहा
होगा।
और
इतना ही फासला
है अज्ञान और
ज्ञान में।
इतना ही फासला
है अंधेरे में
और प्रकाश
में। इतना ही
फासला है भटके
हुए में और
पहुंचे हुए
में। बस इतने
से फासले में
सारी घटना घट
गई;
जरा—सी कमी
रह गई थी, वह
भी पूरी हो
गई। जो तेरी
मर्जी हो!
अहोभाव
को बनाए रखना।
उसकी तरफ से
थोड़ा—सा भी प्रकाश
मिले, नाचना, मस्त होना।
ऊर्जा उठे, धन्यवाद में
बह जाना। और
उठेगी ऊर्जा।
और फूल खिलेंगे।
जितना
तुम्हारा
धन्यवाद का
भाव बढ़ेगा, उतने ही
फूलों पर फूल
खिलेंगे।
शुभ
हो रहा है। बस
अहोभाव न
चूके। मेरी
दृष्टि में है, मेरे
खयाल में है, जो तुम्हारे
भीतर हो रहा
है। अकडू न आ
जाए। बस वहीं
चूक होती है।
बड़ी—से—बड़ी
चूक होती है।
ऊर्जा उठने
लगे, भीतर
ज्योति जलने
लगे, भीतर
नाद सुनाई
पड़ने लगे, अहंकार
पीछे के
रास्ते से आकर
पकड़ लेता है।
अहंकार कहेगा.
देखो, रामपाल
तुम खास हुए।
अब तुम कोई
साधारण पुरुष नहीं
हो, तुम
सिद्ध हो!
अहंकार
की
चालबाजियों
से बचना।
अहंकार अंत— अंत
तक पीछा करता
है। धन से ही
नहीं अकड़ता, पद
से ही नहीं
अकड़ता, प्रार्थना
से भी अकड़
जाता है, ध्यान
से भी अकड़
जाता है। और
जहां अहंकार
आया वहीं
द्वार बंद हो
गए; वहीं
तुम
विच्छिन्न हो
गए, टूट
गईं तुम्हारी
जड़ें
परमात्मा से।
कौन—सी
उपलब्धियों
से
इन
मुखर
विश्रब्धियों
से
तार
रस माते उलझते
बीन
भी
उन्मादिनी—सी।
सुख
व्यथा आलोक तम,
चेतन
अचेतन को
भुलाती,
बज
रही वर्जित
स्वरों की
रागिनी
अनुरागिनी—सी।
फूल
तारों के झरे
क्यों
फूल
करुणा के भरे
क्यों,
क्यों
हुई कातार में
काली
अमा
चंद्राननी—सी।
अमावस
पूर्णिमा में
बदलेगी, कांटे
फूल हो
जाएंगे। भीतर
अदभुत अपूर्व
चमत्कार
होंगे। पर
ध्यान रखना, जरा भी अकड़ न
आए। जितने
भीतर चमत्कार
होने लगें
उतने तुम तरल
हो जाना, उतने
विनम्र हो
जाना, उतने
झुक जाना। और
जितने झुकोगे
उतना पाओगे। झुकते—झुकते
मिट जाना है।
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी मरि गोरख
दीठा।।
और
ऐसा नहीं है
कि जो हो रहा
है वह विशिष्ट
नहीं है।
विशिष्ट है, इसीलिए
चेता रहा हूं।
विरल है, इसीलिए
चेता रहा हूं।
ऐसा
दिखता है कौन
धुनी?
अव्यक्त
आवरण में
लिपटी
उस
नृत्यमयी
निर्वसन नटी
के
चरणों से उठती, उर
में
जिसने
मधुध्वनि
निष्कपित
सुनी।
किसने
छू पायी वह
रेखा
जिसने
वह बिंदुमुखी
देखा,
ज्योतित
निनाद
प्राचीर तले,
प्राणों
से मन की ईंट
चुनी।
ऐसा
दिखता है कौन
धुनी?
विरल
है घटना। धुनी
हो,
लगे रहे हो,
खोदते ही
चले गए हो। अब
जलधार आने के
करीब आ रही
है। पहली
झलकें उतरनी
शुरू हुई हैं।
और अब खतरा
है। जिनके पास
कोई आत्मिक
अनुभव नहीं, उनके पास
गंवाने को भी
कुछ नहीं। वै
निश्चित रहें।
वे बेसुध सोए,
वे घोड़े
बेचकर सोए, कुछ हर्जा
नहीं। लेकिन
जब तुम्हारे
पास कुछ आने
लगे संपदा, तब सावधान
होना, तब
सजग, सावचेत
होना, क्योंकि
अब कुछ है जो
खो सकता है।
जो
ऊंचाइयों पर
चले,
उसे बहुत ही
जागरूक हो
जाना चाहिए
क्योंकि वहां
से गिरेगा तो
हड्डी—पसलियां
टूट जाएंगी, चकनाचूर हो
जाएगा। जो
सपाट भूमि पर
चल रहा है, उसे
डरने की जरूरत
नहीं। वह नशा
करके भी चले तो
चलेगा। लेकिन
अब तुम्हें
जरा भी
अस्मिता का नशा
न आए।
तुमने
देखा न, हमारे
पास एक शब्द
है : 'योग—
भ्रष्ट'।
लेकिन तुमने '
भोग— भ्रष्ट'
शब्द सुना?
भोगी को
भ्रष्ट होने
का उपाय नहीं
है, इसलिए
भोग— भ्रष्ट
जैसा शब्द
नहीं है। भोगी
सपाट जमीन पर
चलता है; वहा
से गिर ही
नहीं सकता।
योग— भ्रष्ट
कोई हो सकता
है, भोग—
भ्रष्ट क्या
होगा? योग
ऊंचाइयों पर
ले जाता है; वहां से पतन
संभव है। आकाश
में उड़ोगे तो
गिर सकते हो, इसलिए जितनी
ऊंचाई बढ़े
उतनी सजगता।
धन्यभागी
हो। इस
धन्यवाद को
प्रगट करना, अनेक—
अनेक रूपों
में; पर
भूलकर भी, अनजान
में भी, अचेतन
में भी, अस्मिता
को मत उठने
देना।
नयन
मधुकर आज मेरे
एक
अनजानी किरण
ने
गुदगुदी
उर में मचा दी,
फूट
प्राणों से
पड़ा गुंजन
सबेरे ही
सबेरे!
नयन
मधुकर आज
मेरे!
दूर
की मधुगंध
पागल
प्यास
प्राणों में
जगा दी
विश्व—मधुवन
में लगाता फिर
रहा मैं लाख
फेरे!
नयन
मधुकर आज
मेरे!
ये
पलक—पांखें
नशे में
झप
रही हैं, खुल
रही हैं
पुतलियां
मदहोश—सी हैं, कंटकों
को कौन हेरे!
नयन
मधुकर आज
मेरे!
दूर
कुंजों की कली!
मुझसे
नयन मेरे न
छीनो!
तुम
न घेरे हो
इन्हें, पर है
तुम्हारा रूप
घेरे!
नयन
मधुकर आज
मेरे!
आंखें
तुम्हारी
भरने लगीं हैं
दूर के प्रकाश
से,
पहली किरण
आयी है। और
कान तुम्हारे
भरने लगे हैं
दूर की मधुर—
ध्वनि से, पहले
स्वर का संबंध
हुआ है। सुवास
उठने लगी है।
अभी
बहुत होने को
है। यह कुछ भी
नहीं है, जो
होने को है
उसके
मुकाबले।
इसलिए जितना
हो उतना ही
जानना, अभी
और होने को
है। तत्परता न
छोड़ देना, खोदना
बंद मत कर
देना, खुदाई
जारी रहे
ध्यान जारी
रहे। ठीक चल
रहा है, ठीक
दिशा पकड़ ली
है, बस अब
इसी दिशा में,
नाक की सीध
में चलते
जाना।
दूसरा
प्रश्न :
मैं
प्रार्थना को
बैठता हूं तो
रोने के सिवाय
कुछ और सूझता
नहीं मैं क्या
करूं?
यही
तो प्रार्थना
है।
प्रार्थना
सूझ रही है। रोना
प्रार्थना
है। शब्दों की
प्रार्थना तो ओछी
होती है, आंसुओ
की प्रार्थना
गहरी होती है।
वाणी से जो
कही, वह
बहुत दूर नहीं
जाती; आंखों
से जो रोयी, उसे पंख मिल
जाते हैं आकाश
तक पहुंचने
के।
तो
रोने को रोकना
मत।
प्रार्थना
चाही है, प्रार्थना
मिल रही है।
अब इसे
पहचानो।
प्रार्थना
भाव है। और
आंसुओ से
ज्यादा
भावपूर्ण क्या
है तुम्हारे
पास? मुंह
से बोलोगे, मस्तिष्क
बोलेगा, आंखों
से रोओगे, हृदय
बोलेगा। और
प्रार्थना
हृदय से उठती
है, मस्तिष्क
से नहीं।
सीखी—सिखायी
प्रार्थनाओं
का कोई मूल्य
नहीं है, दो
कौड़ी की जानना
उन्हें।
प्रार्थना
तो अपनी ही
होनी चाहिए, निज
की होनी
चाहिए। और
आंसू अत्यंत
निजी होते हैं।
जैसे हर
अंगूठे की छाप
अलग होती है, ऐसे ही हर
आंख का आंसू
अलग होता है।
शब्द
तो बासे होते
हैं। तुम भी
उन्हीं
शब्दों को
बोलते हो, दूसरे
भी उन्हीं
शब्दों को
बोलते हैं।
शब्द तो
सामूहिक होते
हैं, सार्वजनिक
होते हैं।
आंसू
बस तुम्हारे
हैं,
और किसी के
भी नहीं।
तुम्हारी
अंतर—व्यथा से
आ रहे हैं, तुम्हारे
विरह से उठ
रहे हैं। आंसू
तो तुम्हारे
ही भीतर लगे
फूल हैं; उधार
नहीं, बासे
नहीं, बाजार
से खरीदे
नहीं। अगर
तुमने
हिंदुओं की प्रार्थना
की, बाजार
से खरीदी
प्रार्थना है,
मुसलमानों
की की, बाजार
से खरीदी
प्रार्थना
है। यह
प्रार्थना बहुत
दूर न जाएगी, इस
प्रार्थना का
कोई मूल्य ही
नहीं है। यह
तो तुम तोते
की तरह दोहरा
रहे हो।
प्रार्थना
अपनी होनी
चाहिए।
आते
हैं आंसू आने
दो। बहो
उनमें। डाल दो
अपने पूरे
हृदय को
उनमें। फिर और
कुछ आएगा।
आंसुओ के पीछे
छिपे गीत भी
आएंगे। मगर वे
फिर तुम्हारे
होंगे। आंसू
रास्ता साफ कर
देंगे। आंसू
पवित्र कर
जाएंगे, आंसू
स्नान करा
जाएंगे। फिर
उसी स्नान से
तुम्हारे गीत
भी आएंगे, नाच
भी आएगा, उमंग
भी उठेगी, उत्साह
उठेगा। बहुत
कुछ होगा, लेकिन
फिर तुम्हारा
अपना होगा।
आंखों
से शुरू हो
रहा है, शुभ
लक्षण है।
लेकिन हमें तो
ऐसा खयाल होता
है कि
प्रार्थना का
एक विधि—विधान
होता है; अब
ये आंसू बीच
में आ गए, विधि—विधान
कौन करे? इतना
पानी डालना था,
इतने फूल
चढ़ाने थे, इतना
अक्षत रखना था,
कि इतने
मंत्र—जाप
करने थे, इतनी
माला फेरनी थी;
अब ये आंसू
आ गए, अब यह
सब कौन करे? वह सब
व्यर्थ है।
जिंदगी— भर
तुम चढ़ाते रही
फूल, उतारते
रहो आरती, कुछ
भी न होगा।
ठीक हृदय से
झरना फूट रहा
है प्रेम का।
और
इन आंसुओ को
तुम दुख के ही
मत मान लेना।
आंसू जरूरी
रूप से दुख के
ही नहीं होते।
आंसू से दुख
का कुछ
लेना—देना
नहीं है। आंसू
सुख के भी होते
हैं,
प्रेम के भी
होते हैं।
आंसुओ के तो
बहुत ढंग हैं,
बहुत रंग
हैं।
आंसुओ
में एक बात
जरूर होती है, फिर
चाहे दुख के
हों, सुख
के हों, प्रेम
के हों, एक
बात निश्चित
होती है—और वह
है कि कोई भाव
इतना ज्यादा
होता है कि
हृदय उसे
सम्हाल नहीं
पाता। वही
अनसम्हाला
भाव आंसुओ से
बहता है। फिर दुख
हो तो भी।
इतना दुख हो
कि हृदय न
सम्हाल पाए तो
आंखें गीली हो
जाएंगी। और
इतना सुख हो
कि हृदय न
सम्हाल पाए तो
भी आंखें गीली
हो जाएंगी।
और
भक्त के आंसू
तो बड़े
विरोधाभासी
होते हैं; उसमें
दुख का भी
स्वर होता है
और सुख का भी।
उसमें दुख का
स्वर होता है,
क्योंकि
प्रभु का अभी
मिलन नहीं
हुआ। उसमें
विरह की वेदना
होती है। और
उसमें सुख का
भी स्वर होता है,
कि प्रभु की
पुकार उठने
लगी। इतना ही
क्या कम है? अनंत—अनंत
हैं जिनमें
पुकार ही नहीं
उठती। बहुत
हैं जिनके
जीवन में
परमात्मा की
छाया भी नहीं
पड़ती, परमात्मा
का मिलना तो
बहुत दूर।
बहुत हैं
अभागे, जिनके
जीवन में
परमात्मा
शब्द में कोई
अर्थ ही नहीं
होता; परमात्मा
शब्द जिनके
बीच कभी आता
ही नहीं। धन आता
है, पद आता
है।
प्रतिष्ठा
आती है, बहुत
कुछ आता है; मगर
परमात्मा
जिनके जीवन की
शृंखला में
नहीं होता, परमात्मा की
कोई कड़ी नहीं होती।
तो
भक्त आनंदित
भी होता है।
विरह उठा तो
मिलन की
संभावना पकी।
विरह पकेगा तो
एक दिन मिलन
बनेगा। विरह
कच्चा फल है।
मिलन इसी फल
का पक जाना
है।
तो
भक्त दुखी भी
होता है; उसकी
आंख में पीड़ा
भी होती है।
पीड़ा—कि कब
मिलोगे? पीड़ा—कि
कब तक
प्रतीक्षा
करनी होगी? पीड़ा—कि कब
तक और राह
दिखाओगे? और
आनंद भी—कि
तुम्हारी
पुकार आने
लगी। तुमने जरूर
मुझे चुन लिया
होगा। तुमने
जरूर मेरी याद
की होगी, क्योंकि
तुम याद न
करते तो मुझ
अभागे की क्या
सामर्थ्य थी
कि मैं
तुम्हें याद
करता। तुमने चुन
ही लिया होगा,
इसलिए मैं
चुन रहा हूं।
तुमने मुझे
अंगीकार कर
लिया है। अब
देर—अबेर जब भी
आना हो आ जाना,
मैं
प्रतीक्षारत
रहूंगा, मेरी
आंखों के पट
खुले रहेंगे।
कुछ
विकल जगारों
की लाली,
कुछ
अंजन की रेखा
काली,
ऊषा
के अरुण
झरोखों में
जैसे
हो काली रात
बसी!
दो
नयनों में
बरसात बसी!
बिखरी—बिखरी
रूखी अलकें,
भीगी—
भीगी भारी
पलकें
प्राणों
में कोई पीर
बसी
मन
में है कोई
बात बसी!
दो
नयनों में
बरसात बसी!
लज्जा
की लतिके, डोलो
तो
हे
मधुभाषिणि!
कुछ बोलो तो!
सुधि
के इस भीगे
आंचल में
किसकी
निष्ठुर
सौगात बसी!
दो
नयनों में
बरसात बसी!
झरने
दो आंखें, होने
दो वर्षा।
बनने दो आंखों
को बरसात। ऐसे
रोओ कि कुछ
बचे न भीतर।
अपने को पूरा
उंडेल दो रोने
में। कृपणता न
करना। कंजूसी
न करना।
शरमाए—शरमाए
लजाए—लजाए मत
रोना। मदमस्त
होकर रोना।
दिल भर कर
रोना। और तभी
तुम्हारे
रुदन में वंदन
की भनक सुनाई
पड़ेगी। तभी
तुम्हारे
आंसुओ में
अर्चना का
स्वाद आ
जाएगा।
अलकों
की छाह बिना
शायद पूनम भी
काली हो जाये,
यदि
साथ रहो मेरे
तुम तो हर रात
दीवाली हो जाये।
यह
माटी से
निर्मित काया
अविराम स्नेह
की भूखी है,
दीपक
कैसे जल पाये, यदि
वर्तिका
प्राण की रूखी
है।
रजनी
की काली अलकों
में उलझा हर
तारा कहता है
है
स्नेह नहीं वह
कोष कि जो
लुटने से खाली
हो जाये।
यदि
साथ रहो मेरे
तुम तो हर रात
दीवाली हो जाये।
जीवन
के सूने मंदिर
में?
आशा के पावन
शंख बजे,
तुम
आओ तो
अंधियारे में
किरणों के
स्वर्णिम फूल
खिलें।
चंदन—सी
महक उठें
सासें आंसू
अक्षत बनकर
बिखरे,
सपनों
की राख
तुम्हें छूकर
कुमकुम की
लाली हो जाये।
यदि
साथ रहो मेरे
तुम तो हर रात
दीवाली हो जाये।
मगर
रोओ। यही आंसू
एक दिन
दीप—मालिकाए
बन जाएंगे।
यही आंसू दीये
बनेंगे। यही
आंसू दीवाली लाएंगे।
दीपक
कैसे जल पाये, यदि
वर्तिका
प्राण की रुखी
है।
यही
आंसू तो
तुम्हारी प्राण
की वर्तिका को
गीला करेंगे, कितके।
है
स्नेह नहीं वह
कोष कि जो
लुटने से खाली
हो जाये।
और
कंजूसी मत
करना, क्योंकि
यह ऐसा खजाना
नहीं है, जो
कि बहने से
खाली होता है।
यह ऐसा खजाना
है जो बहने से
बढ़ता है।
जितना रोओगे
उतना हृदय विस्तीर्ण
होगा। जितना
रोओगे उतने
भाव गहन
होंगे। जितना
लुटाओगे उतना
अपने को भरा
पाओगे। एक तो
बाहर के जगत
का
अर्थशास्त्र है;
वहां अगर
लुटाओगे तो
खजाना खाली हो
जाता है। वहां
तो दूसरों को
लूटोगे तो
खजाना भरा
रहेगा।
एक
भीतर का
अर्थ—शास्त्र
है—प्रेम का
अर्थ—शास्त्र; उसकी
तर्क— सरणी
बिलकुल उल्टी
है। वहां
बचाओगे, सड़
जाएगा। वहां
लुटाओगे, बढ़
जाएगा। जिसने
प्रेम को भीतर
रोक कर रखा कि कहीं
ऐसा न हो कि दे
दूं किसी को
तो लुट जाए, खाली हो
जाऊं, फिर
क्या करूंगा,
दीन—दरिद्र
हो जाऊं—उसका
प्रेम मर ही
जाएगा।
प्रेम
तो फूल जैसा
है;
इसे कोई
तिजोड़ी में
छिपाकर थोड़े
ही रखना होता
है। इसे तो
निवेदन कर
देना होता
है—सूरज को, चांद—तारों
को, हवाओं
को। इसकी गंध
तो बिखेर देनी
होती है। और—और
फूल आते
रहेंगे। जिस
अज्ञात से यह
फूल आया है, उसी अज्ञात
से और—और फूल
आते रहेंगे।
जिन अचेतन
गर्भों से ये
रंग आए हैं, उन्हीं
अचेतन गर्भों
से और— और रंग
आते रहेंगे।
जहां से इस
सुगंध का आगमन
हुआ है, उसी
स्रोत से और
भी सुगंधें
आती रहेंगी।
और जितना तुम
दोगे उतना ही
तुम पाओगे।
जितना बाटोगे,
लुटाओगे, उतना ही
तुम्हारा
बढ़ता जाएगा।
जीवन की आतरिक
संपदा लुटाने
से बढ़ती है, बचाने से
घटती है।
है
स्नेह नहीं वह
कोष कि जो
लुटने से खाली
हो जाये।
आंसू
आ रहे हैं, आने
देना; लाने
की झूठी
चेष्टा मत
करना। लाए गए
आंसुओ का कोई
मूल्य नहीं
है। वह भी
तुम्हें याद
दिला दूं
अन्यथा मैंने
आंसुओ की
प्रशंसा की, तुम सोचो कि
फिर आंसू लाना
चाहिए। लाए जा
सकते हैं
आंसू। नाटक
में अभिनेता
भी ले आता है।
पर उन आंसुओ
का कोई अर्थ नहीं।
वे हृदय से
नहीं आते।
उनका तुमसे
कोई आत्मिक
संबंध नहीं
है। वे
कृत्रिम हैं।
जैसे तुम
मुस्कुरा
सकते हो झूठ, बस
मुस्कुराहट
ओंठ पर ही
होती है—ऊपर
से चिपकायी, पोती गई।
ऐसे ही आंसू
का भी अभ्यास
हो सकता है।
मगर उस आंसू
का कोई मूल्य
नहीं है, इसलिए
तुम्हें याद
दिला दूं।
नहीं तो इसी
तरह भ्रांतियां
होती हैं, इसी
तरह
क्रिया—कांड
पैदा होते हैं
कि आंसू आने
चाहिए
प्रार्थना
में। यह मैं
नहीं कह रहा
हूं कि आंसू
आने चाहिए।
मैं यह कह रहा
हूं आते हों
तो आने देना, बहने देना, रोकना मत।
अड़चन मत
डालना। लाने
का प्रयास भी
मत करना, क्योंकि
लाए गए झूठे
होंगे। रोकना
बुरा है, लाना
बुरा है। आएं
तो स्वागत
करना।
आनंद—मग्न हो
स्वागत करना।
और
अगर तुम जीवन
के रस को जरा
देखोगे, जीवन
के सौंदर्य को,
जीवन की
गरिमा को, तो
आंसू आएंगे, अपने से
आएंगे। अभागा
है वह आदमी कि
गुलाब का फूल
खिले और उसकी
आंखें गीली न
हो जाएं।
पत्थरों में
फूल खिलते हैं,
इतने बड़े
चमत्कार होते
हैं, मिट्टी
फूल बन जाती
है, तुम्हारी
आंख के सामने
जादू हो रहा
है। जहां केवल
दुर्गंध :ही
दुर्गंध थी, जहां तुमने
खाद लाकर डाली
थी, वहां
फूल की सुगंध
है।
तुम्हारे
सामने
रूपांतरण हो
गया है, खाद
की दुर्गंध
गुलाब की
सुगंध बन गई
है। क्रांति
घटी। इस
अपूर्व घटना
को देखकर
तुम्हारी आंख
आनंद से गीली
नहीं हो आती? बीज बोया था
कल, आज
अंकुरित हो
गया है, दो
हरे पत्ते फूट
आए हैं।
चमत्कार
प्रतिपल हो
रहे हैं। आंख
खोलकर देखो, थोड़ी
संवेदनशीलता
जगाओ। कभी
वृक्ष को गले
लगाओ। कभी पड़े
रहो भूमि पर, जैसे कोई
मां की गोद
में पड़ा हो—सब
भूलकर, सब
बिसार कर। और उसी
पृथ्वी से
तुम्हारे
भीतर एक
अपूर्व पुलक का,
एक अपूर्व
ऊर्जा का
फैलाव शुरू हो
जाएगा। है, तो हम्।
पृथ्वी के
हिस्से। आदमी
में आधा आकाश
है, आधी
पृथ्वी है।
कभी लेट जाओ
जमीन पर हाथों
के।
फैलाकर—नग्न,
आलिंगनबद्ध—और
तुम्हारे
भीतर जो
पृथ्वी है, वह बाहर की
पृथ्वी से
संवाद करने
लगेगी। कभी आकाश
की तरफ आंख
खोलकर बैठे
रहो, देखते
रहो, देखते
रहो आकाश को।
जाओ दूर—दूर, उड़ने दो
आंखों को, बन
जाने दो आंखें
को पक्षी।
किसी मंदिर
में तुम्हें
जाने की जरूरत
न रहेगी। यहीं
चारों तरफ वह
विराजमान है।
और अचानक एक
दिन तुम पाओगे
आंसू बहने लगे
हैं। अकारण
बहने लगे हैं।
अहेतुक बहने
लगे हैं।
बहाने की
कोशिश मत
करना। ही, जहां
बह सकते हों, उस तरंग में
अपने को ले
जाना। जहां
दीवाने बैठते
हों चार, होते
हों मस्त, गाते
हों गीत, प्रभु
की स्तुति
करते हों, नाचते
हों, आंसू
उनके बहते हों,
उनके पास
बैठना। उनका
रंग तुम्हें
भी लग जाएगा।
मगर
चेष्टा करके
जबर्दस्ती
आंसू मत लाना।
वह अनाचार है।
वह व्यभिचार
है। वह स्वयं
के साथ बलात्कार
है। और जिसके
आंसू भी झूठ
हो गए उसका सब
झूठ हो गया।
इसलिए
कम—से—कम आंसू
को तो झूठ मत
करना।
तुम्हारी
मुस्कुराहट
तो झूठ हो ही
गई है।
तुम्हारा
रोना ही बचा
है,
उसे झूठ मत
करना; नहीं
तो तुम्हारे
पास सच कुछ भी
न रह जाएगा। इतना
सच तुम्हारे
पास अभी है कि
तुम्हारे
आंसू सच हैं।
इसी सच से तुम
परमात्मा के
सत्य से जुड़
सकते हो, क्योंकि
सत्य से ही
सत्य के साथ
सेतु बन सकता है।
तीसरा
प्रश्न:
बुद्धपुरुषों
ने इतने धर्म
क्यों पैदा
किए हैं?
रत्नेश, बुद्धों
ने तो एक ही
बात कही है, इतनी बातें
नहीं। एक ही
धर्म कहा है, इतने धर्म
नहीं। मगर
बुद्धओं ने
बना लिये बहुत
धर्म। और
बुद्धओं की
भीड़ है।
ये
जो इतने धर्म
हैं,
ये बुद्धों
के कारण नहीं
हैं। ईसाइयत
के पीछे जीसस
का हाथ नहीं
है, और न ही
बौद्ध धर्म के
पीछे बुद्ध का
हाथ है। यद्यपि
बुद्ध में जो
दीया जला था, उसके ही
कारण सिलसिला
शुरू हुआ, फिर
भी बुद्ध उसके
लिए
जिम्मेवार
नहीं, जिम्मेवार
तो बुद्ध के
पीछे आनेवाले
पंडितों का
समूह है।
बुद्ध बोले, जो कहा वह
सुना लोगों ने,
पकड़ा लोगों
ने। शास्त्र
बने, व्याख्याएं
हुईं, संप्रदाय
बने। बुद्ध के
मरने के बाद
छत्तीस संप्रदाय
बने बुद्ध के
पीछे, क्योंकि
अलग—अलग
आचार्य थे!
सुना सबने
बुद्ध को ही
था। एक ही
व्यक्ति के
चरणों में
बैठे थे। मगर
फिर भी सुना
तो अपने— अपने
ढंग से था।
किसी ने कुछ
सुना था, किसी
ने कुछ सुना
था। किसी ने
कुछ अर्थ
निकाला था, किसी ने कुछ
अर्थ निकाला
था। शून्य भाव
से तो बहुत कम
लोग सुनते
हैं। भीतर तो
विचार तैयार
ही रहतै हैं।
जैसे
उदाहरण के लिए
: किसी ने
बुद्ध से पूछा, ईश्वर
है? बुद्ध
चुप रह गए, कुछ
भी न बोले।
देखा लोगों ने
कि बुद्ध से
पूछा गया
ईश्वर के
संबंध में, बुद्ध चुप
रह गए। घटना
तो एक ही घटी.
बुद्ध चुप रह
गए, कोई
उत्तर न दिया।
लेकिन बुद्ध
के मरने के
बाद किसी ने
कहा कि बुद्ध
इसलिए चुप रह
गए कि
परमात्मा है
तो, लेकिन
शब्दों में
कहा नहीं जा
सकता। अब यह
व्याख्या
हुई। किसी ने
कहा कि बुद्ध
इसलिए चुप रह
गए कि
परमात्मा है
ही नहीं, तो
कहना क्या? किसी ने यह
कहा कि बुद्ध
इसलिए चुप रह
गए कि अगर
परमात्मा को
जानना हो तो
चुप हो जाओ, तो जान लोगे,
और जानने का
कोई उपाय नहीं
है। अब यह तो
बड़ी मुश्किल
की बात हो गई।
बुद्ध
का क्या अर्थ
था चुप रह
जाने में? इसके
तो अर्थ पर
अर्थ निकलने
लगे, बात
में से बात
निकलने लगी, विवाद शुरू
हो गए। और
अर्थ बड़े
भिन्न हैं।
किसी ने कहा
कि ईश्वर है
ही नहीं, इसलिए
बुद्ध चुप
हुए। और किसी
ने कहा ईश्वर
है, इसीलिए
चुप हुए, क्योंकि
वह इतना
विराट. कहा
कैसे जाए? अब
ये तो
आस्तिक—नास्तिक,
इतने
विपरीत अर्थ
बुद्ध की
चुप्पी से
निकल आए! इनसे
धर्म बनते
हैं। इन अर्थ
करनेवालों से
धर्म बनते
हैं।
बुद्धों
ने तो एक ही
बात कही। उनका
स्वर तो एक जैसा
है,
यद्यपि
भाषा उनकी
अलग— अलग है।
जीसस बोले तो
अरेमैक भाषा
में बोले; वही
उनकी भाषा थी,
वही
सुननेवालों
की भाषा थी।
बुद्ध बोले तो
पाली में बोले;
वही उनकी
भाषा थी, वही
सुननेवालों
की भाषा थी।
कृष्ण संस्कृत
में बोले।
लाओत्सु चीनी
में बोले।
स्वाभाविक।
तो भाषा का
भेद है।
फिर
प्रतीकों के
भेद भी होंगे, क्योंकि
कोई पांच हजार
साल पहले हुआ।
पांच हजार साल
में भाषा के
प्रतीक बदले,
बदलते गए
हैं। आज हम
किन्हीं
शब्दों का
उपयोग करते
हैं जो पांच
हजार साल पहले
किया ही नहीं
जा सकता था।
कोई बात ही न
थी करने की।
जैसे आज हम
कहते हैं, अगर
कोई चीज बहुत
तेजी से जा
रही हो तो हम
कहते हैं
जैट—गति। अब
बुद्ध तो
जैट—गति शब्द
का उपयोग नहीं
कर सकते थे।
जैट ही नहीं
था तो जैट—गति क्या
होती? उसका
कोई अर्थ नहीं
हो सकता था।
प्रत्येक
युग की भाषा
बदल जाती है, प्रतीक
बदल जाते हैं।
फिर
व्यक्ति—व्यक्ति
के भी प्रतीक
अलग होते हैं।
बुद्ध
राजपुत्र थे,
अभिजात
उनकी शिक्षा
थी, तो
उन्होंने जो
शब्दों का
उपयोग किया वह
भी अभिजात है।
और कबीर
जुलाहे थे, उन्होंने जो
भाषा उपयोग की
वह जुलाहे की
है। अब तुम
सोच सकते हो
बुद्ध यह
लिखें, झीनी—झीनी
बीनी ३ चदरिया?
बाप—दादे ने
कभी बीनी थी? यह सोच ही
कैसे सकते हैं
बुद्ध कि
झीनी—झीनी बीनी
३ चदरिया? यह
तो कबीर ही
सोच सकता है, यह तो
जुलाहा कबीर
ही सोच सकता
है। यह तो
कबीर के भीतर
ही भाव उठ
सकता है कि ये
जो भजन मैं
बना रहा हूं यह
ऐसे ही है
जैसे कोई
झीने—झीने
चदरिया बीनता
है। अब बुद्ध
यह कह सकते थे,
ज्यों की
त्यों धरि
दीन्हीं
चदरिया? यह
चदरिया कबीर
के लिए सार्थक
है, सुबह
से सांझ
चदरिया ही
बुनते रहे, तो जब मरे तो
कहा कि ज्यों
की त्यों धरि
दीन्हीं
चदरिया। खूब
जतन से ओढी ३
चदरिया! फिर
जरा भी दाग
नहीं लगने
दिया उस
पर—ऐसी की ऐसी ही
रख दी। अब यह
जुलाहे का
प्रतीक है; यह प्रतीक
बुद्ध में
नहीं हो सकता,
महावीर में
नहीं हो सकता,
कृष्ण में
नहीं हो सकता।
जीसस
ऐसे बोले जैसा
कि एक बढ़ई का
बेटा बोलेगा।
स्वाभाविक।
इसलिए भाषा
में भेद पड़ते
हैं,
प्रतीक अलग
होते हैं। फिर
व्यक्ति—व्यक्ति
के भी भेद
हैं। कोई
मूर्तिकार
सत्य को
जानेगा तो
सत्य की
मूर्ति
बनाएगा
संगमरमर में,
क्योंकि
वही उसके लिए
निकटतम होगी
संभावना प्रगट
करने की। और
कोई कवि सत्य
को जानेगा तो
गीत रचेगा और
कोई चित्रकार
सत्य को
जानेगा तो चित्र
बनाएगा। अब
चित्र बनाना,
मूर्ति
बनाना, गीत
रचना, बड़ी
अलग
प्रक्रियाएं
हैं। और
स्वभावत: इनके
माध्यम
अलग—अलग हैं।
गीत
जो रचेगा उसे
रंगों की कोई
जरूरत न पड़ेगी, तूलिका
की कोई जरूरत
न पड़ेगी, छैनी—हथौड़े
की कोई
आवश्यकता न
होगी। जो
मूर्ति
बनाएगा, छैनी—हथौड़ा
होगा उसके पास;
पत्थर होगा
उसके पास, वह
पत्थर में
खोदेगा। और जो
चित्र बनाएगा
वह रंग भरेगा।
अब ऐसा भी हो
सकता है कि
तीनों एक ही बात
प्रगट करना
चाहें, मगर
तीनों के
माध्यम इतने
भिन्न हैं कि
देखनेवाले ही
पहचान पाएंगे,
समझने वाले
ही समझ
पाएंगे।
सुबह
हुई,
सूरज निकला,
आह्लाद से
भर गए
तुम्हारे
हृदय। किसी ने
अपनी वीणा उठा
ली और तार छेड़
दिए। वह कैहना
चाहता है कि सुबह
बड़ी सुंदर है।
वह वीणा के
तार छेड़ रहा
है। वह वीणा
के तारों में
सुबह के सूरज
को भरने की कोशिश
कर रहा है। वह
तार मीड़ रहा
है और उनसे उठा
रहा है उस
माधुर्य को, जो सुबह के
सूरज में है, अब बड़ी
पारदर्शी आंख
हो तो ही पकड़
पाएगी कि सुबह
के सितार
बजाने में, या सुबह के
गीत में, या
सुबह की लय
में, छंद
में, सूरज
का आगमन हो
रहा है। नहीं
तो तुम कैसे
पहचान पाओगे?
ध्वनि
सुनाई पड़ेगी,
मगर शायद ही
तुम्हें खयाल
आए कि
संगीतज्ञ को सुबह
ने आदोलित कर
दिया है। यह
सुबह के सूरज
को अभिव्यक्ति
दे रहा है।
चित्रकार
चित्र बनाएगा
सूरज का और
गीतकार गीत
रचेगा। फिर
सभी गीतकार
नहीं हैं, चित्रकार
नहीं हैं, मूर्तिकार
नहीं हैं; फिर
हर आदमी का
अपना ढंग
होगा।
अनंत—
अनंत मार्गों
से बुद्ध
आए—अनंत—अनत
मार्गों से, अनंत—
अनंत
अभिव्यक्तियों
को लेकर, अनंत—अनंत
संभावनाओं को
लेकर; लेकिन
जब उन्होंने
सत्य को जाना
तो जो जाना वह
तो एक था, लेकिन
जब कहा उसे तो
अनेक हो गया।
कहते ही अनेक
हो जाता है।
फिर सुना जब
तुमने तो और
भी अनेक में
से अनेक हो
गया, क्योंकि
फिर
सुननेवालों
ने अपने अर्थ
दिए। फिर
सदियां बीतती
हैं, फिर
व्याख्याओं
पर
व्याख्याएं
आरोपित होती चली
जाती हैं।
इससे हिंदू
ईसाई, जैन,
बौद्ध..
दुनिया में
कोई तीन सौ
धर्म हैं।
सत्य तो एक
है। इसे अगर
स्मरण रखोगे
तो वैमनस्य
चला जाएगा।
इसे अगर स्मरण
रखोगे तो
दूसरे के प्रति
सदभाव होगा।
इसे अगर स्मरण
रखोगे तो गीता
के प्रति सम्मान
और कुरान के
प्रति अपमान
नहीं होगा।
तुम्हें गीता
प्रीतिकर हो
तो गीता से
खोजना, लेकिन
जो कुरान से
खोज रहा है, उसकी
अवहेलना मत
करना, क्योंकि
वह भी उसी तरफ
चला है। हम सब
उसी की तरफ चल
रहे हैं। इस
तरह की
सदभावना पैदा
न हो तो समझना
कि तुम
धार्मिक
व्यक्ति ही नहीं
हो।
और
खयाल रखना, जब
मैं सदभावना
कहता हूं तो
मेरा मतलब वही
नहीं होता जो
आमतौर से
लोगों का मतलब
सहिष्णुता से
होता है।
सहिष्णुता तो
कुछ खास
सहिष्णुता नहीं
है।
सहिष्णुता का
तो अर्थ होता
है कि सह लेते
हैं, कि ठीक
है, कि हम
हिंदू हैं और
जानते हैं कि
हम ठीक हैं और तुम
ईसाई हो और
जानते हैं हम
कि तुम इतने
ठीक नहीं हो, मगर सह लेते
हैं कि ठीक है,
तुम्हारी
मर्जी, जो
रहना हो रही, बर्दाश्त कर
लेते हैं।
सहिष्णुता का
अर्थ है :
बर्दाश्त कर
लेते हैं।
मगर, बर्दाश्त
करना! तो विरोध
तो शुरू हो ही
गया। भीतर खटक
तो आ ही गई। नहीं
तो बर्दाश्त
करने की बात
ही न उठनी थी।
स्वागत होना
था। कहना था
कि हम स्वागत
करते हैं
तुम्हारा, क्योंकि
अगर गीता ही
होती दुनिया
में और कुरान
न होता, तो
दुनिया गरीब
होती। कुरान
ने कुछ
समृद्धि दी है
जगत को, कुछ
स्वर दिए हैं
जो कुरान के
अपने हैं, जो
गीता नहीं दे
सकती। और गीता
ने कुछ दिया
है जो गीता का
अपना है, जो
कुरान नहीं दे
पाता।
क्या
तुम सोचते हो
कि जो वीणा
बजाता है वह
बांसुरी को
सहता है? सहिष्णु
होता है
बांसुरी के
प्रति? नहीं,
वह बांसुरी
का स्वागत
करता है। वह
कहता है : वीणा
ने कुछ दिया
जगत को, लेकिन
जो बांसुरी दे
सकती है वह तो
बांसुरी ही दे
सकती है। लाख
वीणा सिर पटके
तो भी जो
बांसुरी दे
सकती है, वीणा
नहीं दे सकती;
और जो वीणा
दे सकती है वह
बांसुरी नहीं
दे सकती। ये
अनंत वाद्य
हैं। यह
संगीतज्ञ
इनको सहता थोड़े
ही है, इनका
स्वागत करता
है। वह कहता
है : इतने
वाद्य हैं, इतना अच्छा;
क्योंकि
इतने वाद्यों
के कारण जगत
इतना संगीतपूर्ण
है।
बगिया
में इतने फूल
हैं तो तुम
सहन थोडे ही
करते हो कि
चलो कोई बात
नहीं, सह लेते
हैं, गेंदे
को भी सह लेते
हैं, जूही
को भी सह लेते
हैं, वैसे
फूल तो सिर्फ
कमल का ही है!
नहीं, अगर
कमल ही कमल
बगीचे में
होंगे, बगीचा
दरिद्र होगा,
दीन होगा, बेरौनक होगा,
उबानेवाला
होगा। इन सब
छोटे—बड़े
फूलों में खूब
रंग भरा है।
ये सब सुंदर
हैं।
तो
मैं तुमसे जब
कहता हूं
सदभाव, तो
इतना नहीं कह
रहा हूं कि
सहिष्णु; मैं
कह रहा हूं
स्वागत। और जब
मैं तुमसे कह
रहा हूं स्वागत,
तो यह नहीं
कह रहा हूं
जैसा आमतौर से
आजकल सुसंस्कृत
लोग मानते
हैं। ईसाई
कहते हैं कि 'ही, हिंदू
धर्म में भी
सत्य है, यद्यपि
पूरा नहीं; पूरा तो
ईसाइयत में
है। हिंदू
धर्म में भी
सत्य है, लेकिन
पूरा नहीं, अधूरा—
अधूरा, खंड—खंड,
टूटा—फूटा!
झलक है कुछ
सत्य की!' और
इस तरह का
आदमी सोचता है
कि बहुत
सुसंस्कृत
है।
जैन
मानता है कि 'सत्य
तो मैं ही हूं
मगर कहीं—कहीं
दूसरों में भी
सत्य की थोड़ी
झलक मिली है।
दूसरे सब धर्म
आशिक
दृष्टियां
हैं, नय, थोडा— थोड़ा
सत्य उनमें
है। वे भी ठीक
हैं। ' ' भी' पर खयाल
रखना। 'वे
भी ठीक हैं!
मगर ठीक की
कसौटी मैं
हूं। ' यह
कोई सदभाव
नहीं है। यह
तो बहुत
चालबाज अहंकार
है। इससे तो
वह आदमी ही
गंवार अच्छा,
जो कहता है : 'मैं ठीक, तुम
गलत। ' कम—से—कम
साफ—साफ तो
कहता है।
कम—से—कम
ईमानदार तो
है। वह कहता
है. 'मैं
ठीक, तुम
गलत!' निपटारा
साफ—साफ है। 'मैं सौ
प्रतिशत ठीक,
तुम सौ
प्रतिशत गलत। '
यह आदमी
कम—से—कम
सीधा—साफ है।
जो आदमी कहता
है. नहीं, तुम
भी ठीक हो, मुझे
मालूम है
तुममें भी कुछ
ठीक है। पूरा
ठीक मैं हूं।
और चूंकि तुम
मुझसे कुछ—कुछ
मेल खाते हो, उतने—उतने
तुम भी ठीक
हो।
जितना—जितना
तुम मुझसे मेल
खाते हो
उतने—उतने तुम
भी ठीक हो।
महात्मा
गांधी ने
कुरान में से
वे हो वचन चुन लिए
हैं जो गीता
से मेल खाते
हैं,
और उनको कहा
कि ठीक हैं।
और बाकी वचन, जो गीता से
मेल नहीं खाते,
बल्कि गीता
के विपरीत
पड़ते हैं, उनकी
बात नहीं
उठाई। अब जरा
सोचो, दूसरा
आदमी जो
मुसलमान है, समझ लो कि
मौलाना आजाद
यही काम करें,
तो वे गीता
में से
वही—वही वचन
चुन लेंगे जो
कुरान से मेल
खाते हैं और
बाकी छोड़
देंगे। कुरान
ठीक है; फिर
जो भी कुरान
से मेल खाता
है वह भी ठीक
है, और जो
मेल नहीं खाता
वह गलत है।
इसको हम बडी
संस्कारशीलता
कहते हैं। मगर
भीतर चालबाजी
है; गणित
है, हिसाब
है।
महात्मा
गांधी जीवन—
भर गुनगुनाते
रहे अल्लाह—ईश्वर
तेरे नाम, लेकिन
जब मरे तो
अल्लाह का नाम
नहीं निकला, राम का नाम
निकला। जब
गोली लगी तो
कहा : हे राम!
राम केंद्र पर
है। अल्लाह को
भी स्वीकार
किया है।
सहिष्णुता
रखी।
राजनैतिक
कुशलता है
इसमें, पर
धर्म— भाव
नहीं।
राजनैतिक
कुशलताएं बड़ी
छिपी गतियों
से काम करती
हैं। ऊपर से
पता भी नहीं
चलता, अगर
गहरे
में
छानने चलोगे
तो दिखायी पड़ना
शुरू होता है।
तुम मस्जिद को
भी बर्दाश्त करते
हो,
गिरजे को भी
बर्दाश्त
करते हो, मगर
बर्दाश्त
करते हो! अगर
बहुत ही
सुसंस्कृत हो
तो सह लेते
हो।
सदभाव
बड़ी और बात
है। सदभाव यह
कहता है : मैं
भी ठीक हूं
तुम भी ठीक
हो। मैं भी सौ
प्रतिशत ठीक हूं
तुम भी सौ
प्रतिशत ठीक
हो। तुमने और
ढंग से सत्य
को देखा, मैंने
और ढंग से। यह
मेरा रुझान, वह तुम्हारा
रुझान। यह
मेरी पसंद, वह तुम्हारी
पसंद। तुमने
जूही को प्रेम
किया, मैंने
बेले को; मगर
बेले में भी
वही खिला है
उसी की गंध है,
और जूही में
भी वही खिला
है उसी की गंध
है। ये हमारी
पसंद—नापसंद
के भेद हैं, जूही और
गुलाब, बेला
और कमल। ये
हमारी
पसंद—नापसंद
के भेद हैं, मगर खिलावट
उसी एक की है, गंध उसी एक
मालिक की है।
तब, तब
तुम्हें यह
कहने की जरूरत
नहीं रहेगी. ' अल्लाह—ईश्वर
तेरे नाम। ' तब तुम राम
भी दोहराते
रहे तो चलेगा।
क्योंकि तुम जानते
हो गहनतम में
कि अल्लाह भी
उसी का नाम है।
इसे दोहराने
की जरूरत नहीं
है। और तुम
अल्लाह
दोहराते रहे
तो भी चलेगा, क्योंकि तुम
जानते हो उसका
ही दूसरा नाम
राम है, इसे
दोहराने की
आवश्यकता
नहीं है। यह
मेरी पसंद है
कि मुझे
अल्लाह पसंद
पड़ा, यह
तुम्हारी
पसंद है कि
तुम्हें राम
पसंद पड़ा; लेकिन
हम दुश्मन
नहीं हैं, हम
सहयात्री हैं;
हम एक ही
दिशा में
गतिमान हैं।
चौथा
प्रश्न :
आपका
सत्संग मेरे
लिए स्वर्ग से
कम नहीं है। आपसे
दूर होने में
बड़ा दर्द होता
है इस जन्म के बाद
दुबारा जन्म
लेने की जरा
भी इच्छा नहीं
होती है।
लेकिन मुझसे
सैकड़ों भूलें
होती हैं।
कृपया मार्गदर्शन
देने की
अनुकंपा करें!
श्रीचंद!
भूलों को भी
स्वीकार करो।
अपनी
अपूर्णता को
भी स्वीकार
करो। वह भी
हमारा अहंकार
है कि मुझसे
कोई भूल न हो, कि
मुझसे कोई भूल
होनी ही नहीं
चाहिए, कि
मुझसे और कैसे
भूल हो सकती
है! वह भी
अहंकार
है—सात्विक
अहंकार, पुण्यात्मा
का अहंकार, संत का
अहंकार, लेकिन
अहंकार तो
अहंकार ही है,
संत का हो
कि पापी का।
ऐसा क्यों? सब उस पर छोड़
दो। भूलें भी
हो रही हैं तो
वही मालिक है।
उसकी मर्जी।
मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
भूलें करते ही
चले जाओ। खयाल
करना मेरी बात
को। मेरी
बातों से गलत
अर्थ निकालना
बहुत आसान है।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
भूलें करते ही
चले जाओ! कि
जिद्द करके
करना कि भूलें
तो करनी ही
पड़ेगी, क्योंकि
उसकी मर्जी।
नहीं, मैं
तुमसे भूलें
करने को नहीं
कह रहा हूं।
लेकिन जो हो
रही हैं, उन्हें
सरल भाव से
स्वीकार करो।
और तुम चकित
हो जाओगे, तुम्हारे
सरल भाव से
स्वीकार करने
में ही बहुत
—सी भूलें
गिरनी शुरू हो
जाएंगी, बंद
हो जाएंगी।
तुम
जैसे हो अपने
को वैसा
अंगीकार करो।
तुमने आदर्श
बना रखा होगा
अपने मन में
कि कैसा होना चाहिए, कि
श्रीचंद को
कैसा होना
चाहिए—महावीर
जैसा कि बुद्ध
जैसा। महावीर
भी मुश्किल
में पड़ते अगर
श्रीचंद जैसा
होना चाहते। वह
तो अच्छा हुआ
कि उनको यह
खयाल ही पैदा
न हुआ। अगर
उनको यह सुन
सवार हो जाती
कि श्रीचंद
जैसे होना, बस फिर
मुसीबत में
पड़ते, फांसी
लग जाती। फिर
कभी महावीर न
हो पाते। उन्होंने
फिक्र ही नहीं
की किसी और
जैसे होने की;
जैसे थे, जो थे, उसको
उसकी
परिपूर्णता
में जीया।
किसी
के आदर्श के
अनुकूल चलने
की तुम चेष्टा
कर रहे होओगे, तो
भूलें मालूम
होती हैं।
महावीर नग्न
खड़े हैं, तुम
अभी भी वस्त्र
नहीं छोड़ सकते,
पाप हो रहा
है। तुम अभी
भी संत नहीं
हो पाए। संत
फ्रांसिस
कोढियों को
गले लगा रहे
हैं, कोढ़ियों
का चुंबन ले
रहे हैं; तुम्हें
कोढ़ी को छूने
में घबड़ाहट
होती है, कोढ़ी
को देखकर तुम
दूसरे रास्ते
से निकल जाते हो।
बस अगर संत
फ्रासिस
तुम्हारे
आदर्श है, अड़चन
हो गई। तुमसे
पाप हो रहा
है। तुम अभी
पुण्यात्मा
नहीं हो।
महावीर
तो कोई
कोढ़ियों को
चुंबन करते
नहीं घूमे।
अगर महावीर को
खयाल आ जाता
संत फ्रांसिस
का,
पड़ते
मुसीबत में।
सत फ्रांसिस
को करने दो जो
संत फ्रांसिस
को सहजता से
उमग रहा है।
संत फ्रासिस
को अपनी निजता
में जीने दो, महावीर को
उनकी निजता
में, और
श्रीचंद को
आज्ञा दो कि
वह भी उनकी
निजता में जीये।
उनको बाधा मत
डालो।
बड़ी
से बड़ी
क्रांति
दुनिया में घट
सकती है, अगर
व्यक्ति अपने
को स्वीकार कर
ले। मगर हमें स्वीकार
करने की
शिक्षा नहीं
दी गई। बचपन
से बताया गया
है : ऐसे हो जाओ,
ऐसे हो जाओ,
ऐसे हो जाओ।
वे जो होने के
लक्ष्य सामने
खड़े हैं, बड़े—बड़े
आदर्श, और
सब उधार, क्योंकि
कोई ऐसा आदर्श
नहीं है जिस
जैसे सभी मनुष्यों
को होना है या
होना चाहिए।
कोई ऐसा आदर्श
नहीं है। और
वह दुनिया बड़ी
बेहूदी
दुनिया होगी
जहां सभी
मनुष्य एक
जैसे होंगे।
वैविध्य न रह
जाएगा, रंग—बिरंगापन
न रह जाएगा।
इंद्रधनुष खो
जाएगा, इकरंगापन
हो जाएगा, इकढंगापन
हो जाएगा। ऊब
पैदा होगी।
बर्ट्रेंड
रसेल ने बात
बड़े पते की
लिखी है। उसने
लिखा है कि
मैं स्वर्ग
जाने में डरता
हूं। डर उसे
ज्यादा नहीं
है,
क्योंकि वह
मानता नहीं है
कि आत्मा है; वह मानता
नहीं है कि
शरीर के बाद
कुछ बचेगा
इसलिए कहता है
ज्यादा मुझे डर
नहीं है।
लेकिन कभी—कभी
कौन जाने..
पक्का तो नहीं
हो सकता कि
बचूंगा कि
नहीं। तर्क तो
यही कहता है
नहीं बचूंगा,
लेकिन अगर
बचा तो मुझे
स्वर्ग जाने
में डर लगता
है, क्योंकि
वहां एक जैसे
संत, बैठे
अपनी— अपनी
सिद्धशिला पर...।
बड़ी ऊब होगी
वहां। बड़ी
उदासी होगी।
सभी पहुंचे
हुए उदास वहां
बैठे हैं; वहां
कोई घटना भी
नहीं घटेगी
कभी। कोई
अफवाह भी नहीं
उड़ेगी, घटना
की तो बात
क्या।
अनंतकाल तक
वहां सन्नाटा
ही बना रहेगा।
रसेल
कहता है : मेरा
मन बड़ा डरता
है। इससे तो
नरक बेहतर।
अगर बचूं ही
बाद में तो
नरक बेहतर।
वहां कुछ
राग—रंग तो होगा, कुछ
उत्सव—जलसा तो
होगा, कुछ
कुतूहल को
जगानेवाली
घटनाएं तो
घटेंगी!
और
यह बात सच है, अगर
नर्क कहीं
होगा तो
ज्यादा रंगीन
होगा। क्योंकि
वहां सारे
रंगीन लोग
होंगे। वहां
तरह—तरह की
घटनाएं
घटेंगी। वहा
तरह—तरह की
कहानियां
होंगी। सारे
रंगीन लोग वहा
होंगे। बेरंग
इकट्ठे हो गए
होंगे स्वर्ग
में। और अगर सारे
बेरंग स्वर्ग
में इकट्ठे हो
गए तो स्वर्ग
नर्क हो गया।
ऐसा
कोई आदर्श
नहीं है जिसके
अनुसार सभी को
ढलना है।
इसलिए कोई ऐसे
आदर्श को अपनी
छाती पर लेकर
मत चलो, अन्यथा
व्यर्थ बोझ
में दबे—दबे
मर जाओगे।
फिर
मैं तुमसे
क्या कहना
चाहता हूं? मैं
कहना चाहता
हूं : अपने को
स्वीकार करो।
अपनी सारी
भूलें, छोटी—छोटी
भूलें, उनको
अंगीकार करो।
आदर्श का भाव
छोड़ दो। अपने तथ्य
को जीयो। और
उसी तथ्य में
रहो। और तुम
चकित हो
जाओगे. आदर्श
के भाव के
जाते ही
बहुत—सी भूलें
तो विदा हो
गईं, क्योंकि
अब उनको भूलें
कहने का कोई
कारण न रहा।
भूलों का कारण
ही था आदर्श।
जिस
आदमी ने तय कर
लिया आदर्श, उसने
भूलें भी तय
कर लीं। जिसने
तय कर लिया.. जैसे
कि ईसाई कहते
हैं, जीसस
कभी हंसे
नहीं। अगर
ईसाई सच कहते
हैं तो जीसस
फिर मुझे नहीं
रुचते, फिर
मुझे नहीं
जंचते। यह
आदमी भी क्या
हुआ? तो
ईसाई गलत ही
कहते होंगे।
मगर ईसाईयों
का लक्ष्य यह
बन गया फिर कि
संत को हंसना
नहीं चाहिए।
अब
अगर तुमने यह
लक्ष्य बना
लिया कि
संतत्व का
लक्षण है
हंसना नहीं, तो
हंसे तो भूल
हो गई। अब
हंसी में कोई
भूल न थी; मगर
हंसना नहीं, यह लक्ष्य
बना लिया, तो
हंसना भूल हो
गई। अब तुम
परेशांनी में
पड़े। अब तुम
अपने को
सम्हाले बैठे
हो हमेशा, कि
कहीं हंसी न आ
जाए। हंसी
भीतर उठ भी
रही हो तो
दबाए बैठे हो।
तुम द्वंद्व
से घिर गए और
तुम झूठे हो
गए।
हंसी
में कोई पाप नहीं
है। स्वीकार
करो। फिर हंसी
का परिष्कार किया
जा सकता है।
हंसी के कई तल
हैं। जब तुम
दूसरे पर
हंसते हो तो
उसमें थोड़ी
हिंसा होती
है। जब तुम
अपने पर हंसते
हो,
तो उसमें
बड़ी अहिंसा
होती है। फिर
कुछ लोग हैं
जो ऐसी बातों
पर ही हंस
सकते हैं जो
बहुत भौंडी
हों, बेहूदी
हों; उनको
हंसी के
सूक्ष्म तलों
का कोई बोध
नहीं है। वे
तभी हंस सकते
हैं जब कोई
केले के छिलके
पर फिसलकर गिर
पड़े, हड्डी—पसली
टूट जाए उसकी,
तब उनका
चित्त
प्रसन्न होता
है, उन्हें
कोई बारीक बात
प्रसन्न नहीं
कर पाती; उन्हें
कोई स्थूल बात
चाहिए कुछ
अभद्र।
हंसना
नहीं चाहिए, यह
लक्ष्य बनाने
की जरूरत नहीं
है। लेकिन हंसी
में, तुम्हारी
हंसी में बहुत
परिष्कार हो
सकते हैं।
हंसी बड़ी
कलात्मक हो
सकती है। हंसी
का अपना काव्य
है, अपना
संगीत है।
हंसी में फूल
झर सकते हैं।
फिर तुम अपनी
हंसी को
परिष्कृत करो,
सुधारो, जगह—जगह
से रंग भरो।
हंसी को गहन
करो।
तुमने
देखा, अलग—अलग
लोग हंसते हैं,
जरा उनकी
हंसी देखो, अलग—अलग।
कोई हंसता है
तो बिलकुल ऐसा
लगता है ऊपर
से खोखला, हृदय
से आती नहीं
मालूम होती; बिलकुल लगता
है गले में से
पैदा कर रहा
है, जबरदस्ती
पैदा कर रहा
है। हंसना
चाहिए, इसलिए
हंस रहा है।
किसी की हंसी
आती है तो बड़ी
गहराई से आती
है।
तो
हंसी के सारे
रंग परखो, ढंग
परखो। अपने
भीतर भी हंसी
की सारी
संभावनाएं
परखो। तुम
उतने ही नहीं
हो तुम जितने
बने हो आज; तुम्हारे
भीतर बहुत कुछ
पड़ा है, जिसका
परिष्कार
होना है। मगर
आदर्श के
द्वारा नहीं,
तुम्हारे
यथार्थ में
परिष्कार
होना है। किसी
आदर्श के
अनुसार नहीं।
तुम्हें
वही बनना है।
जो तुम बनने
को पैदा हुए
हो। इसलिए
दूसरे को
सामने
प्रतिमा की
तरह खड़ा मत
करना, अन्यथा
ऐसी भूलें
दिखायी पड़ने
लगेंगी जिनको तुम
हल भी न कर
पाओगे; हल
करने की कोशिश
की तो दुविधा में
पड़ोगे, द्वंद्व
में पड़ोगे, पाखंडी हो
जाओगे। इसी
तरह तो
तथाकथित
धार्मिक लोग
पाखंडी हो गए।
फिर स्वयं के
स्वीकार में
ही जागरण की
संभावना है।
जब कोई भविष्य
नहीं है—ऐसा
नहीं होना, वैसा नहीं
होना—तों
वर्तमान सब
कुछ है, यही
क्षण सब कुछ
है। अब इस
क्षण में
जागकर हम
जीएं।
मैं
तुमसे नहीं
कहता कि
धूम्रपान
करते हो तो छोड़
दो। यह मैं
नहीं कहता, क्योंकि
यह तो तुमसे
बहुत कहा गया
है और तुम नहीं
छोड़ सके। यह
तो तुम्हारे
साधु—संत
कह—कहकर मर गए
और तुम नहीं
छोड़ सके। तो
मैं यही
दोहराऊं, इससे
सार क्या है? जो साधु—संत
यही दोहराते
हैं, मैं
मानता हूं वे
बुद्धिहीन
हैं। क्योंकि
कितने लोग
दोहराते रहे,
लोगों ने
सुना नहीं, तो दोहराने
में कहीं भूल
है। शायद
धूम्रपान के
मूल कारण को
ही नहीं पकड़ा
गया है, बस
व्यर्थ की
बातें दोहराई
जा रही हैं।
कोई कहता है
तुमसे कि
धूम्रपान मत
करो, क्षयरोग
हो जाएगा। मगर
यह तो मान
लिया है उसने
कि तुम क्षय रोग
से डरते हो।
कौन डरता है
क्षयरोग से!
लोग कहते हैं :
जब होगा जब
देखा जाएगा।
फिर दवा है, इलाज है। और
अगर तुम किताब
में पढ्ने
जाओगे तो वे
कहते हैं कि
एक आदमी अगर
बारह सिगरेट
रोज पीए तो
बीस साल में
जितनी सिगरेट
पीए, तब
कहीं उसे
क्षयरोग हो
सकता है। कौन
फिक्र करता है
बीस साल की! और
बारह सिगरेट
रोज और बीस साल
तक... और फिर
देखेंगे। और
फिर यह भी
पक्का नहीं है
कि बीस साल
में सभी को हो
जाता है।
क्योंकि सैकड़ों
सिगरेट
पीनेवाले हैं,
जो बारह
नहीं चौबीस
पीते हैं रोज
और जिंदगी— भर
से पी रहे हैं
और क्षयरोग
नहीं हुआ। फिर
ऐसे लोग हैं, सिगरेट तो
दूर कहो, पानी
भी छान—छान कर
पीते हैं और
क्षयरोग हो गया।
तो
आदमी सोचता
है. इस झंझट
में पड़ा क्या
है?
मतलब क्या
है? यह
पानी छान—छान
कर पीते रहे
सज्जन और
क्षयरोग से
ग्रस्त हैं।
और इधर शराब
पीनेवाले पडे
हैं, जिन्हें
क्षयरोग नहीं
हुआ। सब तरह
से सात्विकता
से जीते थे और
कैंसर हो गया।
और दूसरा है कि
जिसने
सात्विकता
कभी जानी ही
नहीं, जिन्होंने
कसम खा ली थी
कि सात्विकता
से कभी न
जीएंगे, जो
कभी वक्त से न
उठे न सोए, न
वक्त पर खाना
खाया, न
ढंग का खाना
खाया; कुछ
भी खाया, कुछ
भी पीया, कहीं
भी सोए, कहीं
भी बैठे, कभी
जागे, कोई
हिसाब—किताब न
रखा—और अभी तक
कैंसर नहीं हुआ!
तो आदमी देखता
है कि ये
बातें सिर्फ
डरवाने की
हैं। कौन डरता
है!
मुल्ला
नसरुद्दीन से
किसी ने कहा
कि तुम अगर सिगरेट
पीना बंद न
करोगे तो
तुम्हारी तीन
साल उम्र कम
हो जाएगी।
मुल्ला ने कहा
: तीन साल कम
जीना बेहतर, मजे
से जीना
बेहतर। अगर
तीस साल भी
उम्र बढ़ती हो
और न सिगरेट
पीयो और न चाय
पीयो और न
शराब पीयो तो
जी कर भी क्या
करेंगे? सिर्फ
जीते ही
रहेंगे —? करने
को कुछ बचता
नहीं।
एक
आदमी मर कर
स्वर्ग
पहुंचा। बड़ा
साधु था!
स्वर्ग के
द्वार पर उससे
पूछा गया।
नब्बे साल का
होकर मरा था।
पूछा स्वर्ग
के द्वार पर
कि तुमने
क्या—क्या पाप
किए,
क्योंकि
पहले यही पूछा
जाता
है—क्या—क्या
पाप किए? पुण्य
तो कोई
कभी—कभार करता
है; असली
चीजे तो पाप
है। उस आदमी
ने कहा पाप? पाप मैंने
कभी किए ही
नहीं।
तो
द्वारपाल ने
विस्तार से
पूछा : शराब पी? उसने
कहा कि नहीं।
'दूसरा कोई
और नशा किया?'
'नहीं।'
'सिगरेट पी?'
'नहीं।'
'पान खाते थे?'
'नहीं।'
'तंबाकू खाते
थे?'
'नहीं।'
'सुंघनी
सूंघते थे?'
'नहीं।'
'स्त्रियों
के पीछे
दीवाने थे?'
उसने
कहा. इस झंझट
में मैं पड़ा
ही नहीं। मैं
तो सात्विकता
से जीया। तो
देवदूत ने भी
सिर पर हाथ
मार लिया।
उसने कहा : फिर
नब्बे साल तक
तुम करते क्या
रहे?
इतनी देर
क्यों लगाई? नब्बे साल!
सुंघनी भी न
सूंघी, समय
कैसे बिताया,
यह तो बताओ?
तुम
ऐसे डरवा कर
किसी को छुड़वा
न सकोगे और
तुम्हारे
धर्म सिर्फ
डरवाते रहे।
वे कहते हैं :
नर्क में पड़ना
पड़ेगा। बात भी
कुछ बेहूदी
लगती है कि
कोई आदमी धुआं
भीतर ले जाता
है बाहर ले
जाता है, इसके
कारण नर्क में
पड़ना पड़ेगा।
यह
बात कुछ जंचती
नहीं। इसमें
कोई न्याय
नहीं मालूम
पड़ता। यह तो
कोई अदालत भी
नहीं कह सकती
कि एक आदमी
बैठकर धुआं बाहर—
भीतर ले जाता
था,
कुछ किसी को
नुकसान भी
नहीं कर रहा
था, किसी
को मार भी
नहीं रहा था, किसी का खून
भी नहीं पी
रहा था, सिर्फ
धुआं बाहर—
भीतर करता था,
इसको नर्क
में डाला गया
है। यह बात
जंचती नहीं।
यह तो नर्क
में जो डालता
होगा वह भी
फिर अन्याय कर
रहा है। यह बात
तो उखड़ गई। तो
अब धर्मगुरु
यह नहीं कहते
कि नर्क में
पड़ना पड़ेगा, वे कहते हैं
क्षयरोग हो
जाएगा। मगर
तर्क वही है :
भय। पहले नर्क
का भय बताते
थे, अब वह
किसी को जंचता
नहीं, तो
अब वे दूसरे
भय बताते हैं
कि क्षयरोग हो
जाएगा।
एक
गांव में एक
शराबी
लड़खड़ाता—लड़खड़ाता
पादरी के पास
पहुंचा और
उसने कहा. एक
बात मुझे
पूछनी है, आदमी
को गठिया कैसे
हो जाता है? पादरी को
मौका मिला। इस
तरह के लोग तो
इसी मौके की
तलाश में रहते
हैं। पादरी को
मौका मिला। उसने
कहा : मैंने
तुम से हजार
बार कहा कि
शराब पीना बंद
करो, नहीं
तो गठिया हो
जाएगा। यह
अच्छा अवसर था,
इस अवसर पर
शिक्षा दे
देनी चाहिए।
ऐसे ही तो साधु—संत
शिक्षा दे
देते हैं।
कितनी बार
मैंने कहा कि
गठिया हो
जाएगा, अगर
शराब पीनी बंद
न की।
उसने
कहा : मैं अपने
बाबत नहीं कुछ
पूछ रहा हूं मैंने
अखबार में पढ़ा
है कि वैटिकन
में पोप को
गठिया हो गया है।
तो मैं तो
इसलिए पूछ रहा
हूं कि गठिया
कैसे हो गया!
मुझको हो जाए
ठीक;
मैं तो शराब
पीता हूं
जाहिर बात है।
मगर पोप को
कैसे गठिया हो
गया?
तब
पादरी चौंका, अब
बहुत देर हो
चुकी थी।
भय
से तुम लोगों
को डरवा कर
कुछ बदल सके
नहीं। भय की
तो प्रक्रिया
व्यर्थ गई है।
और जब तुम
बहुत बार भय
देते हो और
आदमी डरता ही नहीं
और पीये चला
जाता है, तो
उसकी भय के
प्रति जो
संवेदनशीलता
है वह भी क्षीण
हो जाती है।
लाभ की जगह
हानि हो जाती
है। हानि हो
जाती है। वह
डरता ही नहीं
फिर। वह कहता
है : अब जो होगा,
देखा
जाएगा।
मैं
तुमसे कहता
हूं : सिगरेट
अगर पीते हो
तो ध्यानपूर्वक
पीयो। यह और
ही बात कह रहा
हूं। मैं
तुमसे कह रहा
हूं : जब तुम
सिगरेट अपने
खीसे से निकालो, पाकेट
सिगरेट का
निकालो, तो
जल्दी मत
निकालना जैसे
तुम रोज
निकालते हो।
जल्दी क्या? धीरे से
निकालना। बस
विपस्सना
शुरू हो
जाएगी। बिलकुल
धीरे से
निकालना।
इतने आहिस्ता
जैसे कोई जल्दी
नहीं, अनंत
काल पड़ा है, जल्दी क्या
है? बिलकुल
आहिस्ता—आहिस्ता
निकालना।
जितने धीरे
निकाल सको
उतने धीरे
निकालना। जब
सिगरेट ही
पीने जा रहे
हैं तो जरा
ढंग से पीयो, थोड़ी शालीनता
से पीयो। यह
क्या
चोरी—चपाटी कि
जल्दी से
निकाला और
किसी तरह धुआं
अंदर—बाहर
फेंका, फेंकी
सिगरेट, पश्चात्ताप
भी किए जा रहे
हैं कि नहीं
पीना चाहिए, यह बहुत
बुरा हो रहा
है, कि
श्रीचंद, भूल
हो रही है।
थोड़ी संस्कार
से पीयो! थोड़ी
शालीनता, थोड़ा
प्रसाद!
सिगरेट का
डब्बा हाथ में
लो, फिर
सिगरेट को
बाहर निकालो,
फिर ठीक से
सिगरेट को
डब्बे पर ठोको,
बजाओ। फिर
आहिस्ता से
मुंह में रखो।
फिर माचिस
निकालो। फिर
माचिस जलाओ।
आहिस्ता से, जैसे कि
पूजा... धीमे से
कोई पूजा का
दीप जलाता है,
ऐसे सिगरेट
को जलाओ।
भयभीत क्या हो?
इतने डरे
क्या हो? पश्चात्ताप
क्या है? तुम्हें
प्रीतिकर लग
रहा है, तुम्हारा
जीवन है, तुम
अपने मालिक
हो। तुम किसी
की कोई हानि
नहीं कर रहे
हो। और अगर
तुम अपनी हानि
भी करना चाहते
हो तो तुम
उसके भी हकदार
हो।
लेकिन
इसको एक
कलात्मकता
दो। और तुम
चकित हो जाओगे, तुम्हें
पहली दफा पाप
नहीं मालूम
पड़ेगा, मूर्खता
दिखायी
पड़ेगी। और
वहीं भेद है।
पाप नहीं, पाप
से तो कोई
छुटकारा हुआ
नहीं। पाप है,
ऐसा तो
कहते—कहते
सदियां बीत
गईं। किस पाप
से आदमी को
छुड़ा पाए हो? मैं नहीं
कहता सिगरेट
पीना पाप है; यद्यपि मैं
जरूर कहता हूं
मूढ़ता है। पाप
क्या है? पर
मूढ़ता
निश्चित है।
बस मूढ़ता
तुम्हें दिखाई
पड़ने लगे... और
जितने धीमे—
धीमे इस
प्रक्रिया को
करोगे उतनी
स्पष्टता से
मूढ़ता दिखाई
पड़ेगी। इसका
वैज्ञानिक
कारण है।
जिस
काम को भी हम
करने के आदी
हो गए हैं, वह
काम यंत्रवत
हो जाता है; मशीन की तरह
कर लेते हैं।
अगर तुम उस
प्रक्रिया को
शिथिल कर दो
तो तुम अचानक
पाओगे कि तुम
उसी काम को
होशपूर्वक कर
रहे हो, यंत्रवत
नहीं। तुम एक
खास चाल से
चलते हो। बौद्ध
ध्यानशालाओं
में वे
तुम्हारी चाल
बदल देते हैं।
वे कहते हैं :
इसको आधा कर
दो, चाल
को।
होशपूर्वक
धीमे चलो।
छोटे—छोटे कदम
रखो।
तुम
चकित होओगे, जब
भी तुम्हारा
होश खो जाएगा,
तुम फिर कदम
जोर से रख
दोगे, जो
तुम्हारी आदत
है। अगर होश
रखना है तो
कदम धीमे रखना
पड़ेगा; अगर
कदम धीमे रखना
है तो होश
रखना पड़ेगा।
अगर होश खोकर
चलना है तो
फिर पुरानी
आदत पर्याप्त होगी।
किसी भी
प्रक्रिया को,
अगर तुम
उसकी गति धीमी
कर दो तो उसके
साथ होश जुड़
जाता है। भोजन
भी अगर
आहिस्ता करो,
बहुत
आहिस्ता, अड़तालीस
बार चबाओ हर
कौर को, तो
तुम चकित हो
जाओगे कि
कितना
होशपूर्वक
तुम कर रहे हो!
क्योंकि
हिसाब रखना है,
अड़तालीस
बार चबाना है,
ऐसे ही
लीलते नहीं
चले जाना है।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि ज्यादा
भोजन मत करो।
मैं कहता हूं
अड़तालीस बार
चबाओ और
होशपूर्वक धीमे—
धीमे भोजन
करो। अपने— आप
भोजन की
मात्रा एक तिहाई
हो जाएगी।
उतनी ही हो
जाएगी जितनी
जरूरी है, और
ज्यादा तृप्त
करेगी, ज्यादा
परितृप्त
करेगी।
क्योंकि उसका
रस फैलेगा, ठीक पचेगा।
ऐसी ही किसी
भी प्रक्रिया
को धीमा करो।
अगर वह सार्थक
प्रक्रिया है
तो टूटेगी नहीं।
अगर व्यर्थ
प्रक्रिया है
अपने—आप टूट
जाएगी, क्योंकि
मूढ़ता स्पष्ट
हो जाएगी। पाप
को छोड़ना पड़ता
है, मूढ़ता
को छोडना नहीं
पड़ता; जानना
ही पड़ता है, मूढ़ता छूट
जाती है।
इसी
तरह श्री चंद, तुम्हें
जो—जो भूलें
दिखायी पड़ती
हों, आदर्शों
के कारण नहीं,
अपने जीवन
अनुभव से
तुम्हें
भूलेदिखायी
पड़ती हों...।
आदर्शों
को हटा दो, नब्बे
प्रतिशत
भूलें तो विदा
हो गईं उसी
वक्त, जैसे
आदर्श हटा
दिए। फिर दस
प्रतिशत
भूलें बची। इन
दस प्रतिशत के
प्रति सजग हो
जाओ, जागरूक
हो जाओ। इनको
यांत्रिकता
से मुक्त कर दो।
और तुम हैरान
हो जाओगे, इनमें
जो—जो
मूढ़तापूर्ण
हैं, वे
छूट जाएंगी।
और जो—जो
मूढ़तापूर्ण
नहीं हैं, उन्हें
छोड़ने की कोई
जरूरत भी नहीं
है; वे
भूलें ही नहीं
हैं।
पांचवां
प्रश्न:
मैं
ध्यान में
प्रकाश का
अनुभव करता
हूं शांति भी
अनुभव होती है
आनंद भी।
भगवान! क्या
यही समाधि की
अवस्था है?
इतनी
जल्दी नहीं।
समाधि की पहली
झलक कहो। पहली
गंध का झोंका
आया। बसंत का
पहला फूल खिला, ऐसा
कहो। मगर बसंत
का पहला फूल
खिल जाना ही
बसंत का आ
जाना नहीं है।
आ रहा बसंत।
आता होगा।
पहले पाहुन आ
गए। लेकिन
इसको ही सब मत
मान लेना, अन्यथा
अटक जाओगे, रुक जाओगे।
अभी बहुत होने
को है।
और
अंतिम बात तो
तब समझना हो
गई,
जब कोई
अनुभव शेष न
रहे, प्रकाश
का अनुभव भी
शेष न रहे, शांति
का अनुभव भी
शेष न रहे, आनंद
का अनुभव भी
शेष न रहे।
तुम चौकोगे
थोड़ा।
अभी
तुमने दुख
जाना है, इससे
विपरीत सुख का
अनुभव; चित्त
में थोड़ी—सी
ध्यान की
अवस्था गहरी
होगी तो दुख
की जगह सुख
आएगा। फिर
दुख—सुख दोनों
चले जाएंगे।
द्वंद्व गया।
फिर आनंद की
पुलक आएगी।
लेकिन आनंद की
पुलक भी इसलिए
आनंद मालूम हो
रही है कि इसे
पहले जाना नहीं
था; नई है, इसलिए मालूम
हो रही है। जब
तुम इसमें
परिपक्व हो
जाओगे तो आनंद
का भी पता
नहीं चलेगा।
ऐसा
समझो कि तुम
बीमार थे, फिर
तुम स्वस्थ
होते हो, तो
बीमारी के बाद
जब तुम स्वस्थ
होते हो तो कुछ
दिन तक
स्वास्थ्य का
पता चलता है; बीमारी के
कारण पता चलता
है। बीमार रहे,
विपरीत को
जाना, फिर
स्वस्थ हुए तो
स्वास्थ्य का
ठीक—ठीक बोध होता
है। जैसे किसी
ने काले तख्ते
पर सफेद खड़िया
से लकीर खींच
दी, ऐसी
बीमारी की
पृष्ठभूमि
में
स्वास्थ्य का
अनुभव हुआ।
फिर तुम
स्वस्थ ही रहे,
धीरे— धीरे
बीमारी भूल गई,
स्वास्थ्य
भी भूल जाएगा।
स्वास्थ्य
की परिभाषा
यही है कि
जिसका पता न चले।
पता तो बीमारी
का चलता है, सिरदर्द
होता है तो
पता चलता है।
सिर में दर्द
न हो तो पता
चलता है? तुम
कहते फिरते हो
लोगों से कि
भई सुनो आज
सिर में दर्द
नहीं है? आज
पता चल रहा है
कि सिर में
दर्द नहीं है!
सिर में दर्द
नहीं है, इसका
कभी पता चलता
है? दर्द
होता है तो
पता चलता है।
वेदना का ही
ज्ञान होता
है। इसलिए तो
उसको वेदना
कहते हैं। वेदना
के दो अर्थ
होते हैं :
पीड़ा और
ज्ञान। उसी से
बना है 'वेदना'
शब्द, जिससे
'वेद', विद—जानना।
पीड़ा का ही
ज्ञान होता
है। पैर में
काटा चुभता है
तो पता चलता
है; काटा
नहीं चुभता तो
न तो पैर का
पता चलता; और
यह तो पता
कैसे चलेगा कि
कांटा नहीं
चुभा है 7 अभाव
का तो कोई पता
नहीं होता।
तो
पहले दुख
जाएगा, सुख
की प्रतीति
होगी। फिर
सुख—दुख दोनों
का द्वंद्व
गया, आनंद
की झलक आएगी।
जन्मों—जन्मों
से नहीं जाना
है। खूब गहन
होकर पता
चलेगा। एकदम
घनघोर वर्षा
हो जाएगी।
लेकिन फिर उसी
में पक जाओगे।
फिर वही
स्वभाव हो
जाएगा। फिर
उसका भी पता न चलेगा।
जब आनंद का भी
पता न चले तब
जानना कि आ गए
घर। अंधेरे
में रहे हो तो
जब प्रकाश
पहली दफा
मालूम होगा तो
पता चलेगा।
फिर जब प्रकाश
में ही
रहते—रहते
प्रकाश के साथ
आत्मसात हो
जाओगे, एक
हो जाओगे, फिर
किसको पता
चलेगा प्रकाश
का 2: फिर
प्रकाश का भी
कोई पता नहीं
चलेगा।
अंतिम
अनुभव में सब
अनुभव लीन हो
जाते हैं, कोई
अनुभव नहीं
होता। सिर्फ
एक बोध मात्र
होता है। बोध
का दीया भर
जलता होता है।
पर
जो हो रहा है, अच्छा
है, शुभ
है। ध्यान में
प्रकाश
दिखायी पड़े, अच्छे लक्षण
हैं। शुभ
लक्षण हैं।
शांति अनुभव,
आनंद...
समझना कि वसंत
करीब!
पीतांबर
लहराता आया
मधुमास!
सुरभित
केश झुमाता
आया मधुमास!
मेघहीन
अंबर में नीलम
का हास,
निर्मल
सरित—सरोवर, मंथर
वातास!
रह
—रह झूम रहे
हैं सरसों के
खेत,
मंद
—मंद मुसकाता
आया मधुमास!
पीतांबर
लहराता आया
मधुमास!
हरे
—हरे पत्तों
से बोझिल हर
डाल,
लाल
हुए लज्जा से
कलियों के
गाल!
भौंरों
की गुजारे, कोयल
की टेर
रंग—
अबीर उड़ाता
आया मधुमास!
पीतांबर
लहराता आया मधुमास!
पहन
कल्पना आई
वासंती चीर,
पाटल
के सुमनों—सा
सुकुमार शरीर!
तरुण—
अरुण नयनों
में काजल की
रेख
मृदुल
करतलों पर हैं
मेंहदी के
लेख!
केशों
में मदमाती
चंपा की गंध,
छमक
रही पगपायल, गजगति
मृदु मंद
नगर—नगर
झनकाता वीणा
के तार—
कवि
के स्वर में
गाता आया
मधुमास!
पीतांबर
लहराता आया
मधुमास!
शुरुआत
हो गई। पहली
झलक मिली।
पहली बार
झरोखा खुला, एक
किरण उतरी।
मगर किरण को
सूरज न समझ
लेना। अभी
बहुत यात्रा
है शेष। इतने
को ही मानकर
रुक मत जाना।
ऐसा इसलिए
कहता हूं
क्योंकि बहुत
रुक जाते हैं।
किसी को
थोड़ी—सी
कुंडलिनी
शक्ति का
जागरण अनुभव
हुआ कि रुक
गया, कि
उसने सोचा हो
गए सिद्ध।
किसी को थोड़ा
भीतर प्रकाश
का अनुभव हुआ,
कि रुक गया,
कि मान लिया
आ गई समाधि।
ये तो मील के
पत्थर हैं। इन
मील के
पत्थरों को
छाती से लगाकर
मत बैठ जाना।
अभी मंजिल दूर
है। और मील के
पत्थर बुरे
नहीं हैं, शुभ
हैं, क्योंकि
खबर देते हैं
कि थोड़ी
यात्रा हो गई,
कुछ मील चल
आये। मील के
पत्थर शुभ
संकेत हैं—मंजिल
करीब आती जाती
है, इस बात
के।
लेकिन
मन बड़ा चालबाज
है,
और अहंकार
हर कहीं अटका
लेता। छोटी—सी
बात हो जाए, उसको बड़ा
तूल दे देता।
तिल को हम ताड़
बना लेते हैं।
हर
चितवन को
प्यार न समझो!
हर
लहरी को ज्वार
न समझो!
जीवन
की साधें
अगणित हैं
सांसों
की झोली सीमित
है,
पथ
चलते जो भी
मिल जाये—
तुम
उसको उपहार न
समझो!
हर
चितवन को
प्यार न समझो!
भौंरों
से आराधन सीखो,
कोयल
से स्वर—साधन
सीखो;
यदि
दो फूल खिले
बगिया में—
तो
आ गई बहार न
समझो!
हर
चितवन को
प्यार न समझो!
जीवन
भर भटकाने
वाली—
प्यास
कहां है आंखों
वाली?
जो
कुछ प्याले
में ढलता है
तुम
उसको रसधार न
समझो!
हर
चितवन को
प्यार न समझो!
अलकों
की छाया मोहक
है,
नयनों
की माया मादक
है;
दो
दिन के मीठे
परिचय को
सपनों
का आधार न
समझो!
हर
चितवन को
प्यार न समझो!
जीवन
भर मृग—से
भटकोगे,
बालू
पर माथा
पटकोगे;
मृगजल
की चंचल लहरों
को
छवि
का पारावार न
समझो!
हर
चितवन को
प्यार न समझो!
दीपक
राग नहीं बन
पाये
आग
न जीवन में लग
जाये!
वीणा
पर जो कुछ बजता
है
उसको
मेघ—मल्हार न
समझो!
हर
चितवन को
प्यार न समझो!
वीणा
पर और बहुत
कुछ भी बजता
है। हर बजने
वाली चीज
मेघ—मल्हार
नहीं। जीवन
में जैसे बाहर
बहुत अनुभव
होते हैं, ऐसे
ही भीतर भी
बहुत अनुभव
होते हैं।
इतने ही अनुभव
भीतर हो सकते
हैं जितने
बाहर हुए हैं,
क्योंकि
इतना ही बड़ा
विराट
अस्तित्व
भीतर फैला है
जितना बाहर।
जितना बड़ा
आकाश बाहर है
उतना ही बड़ा
आकाश भीतर है।
बहुत
अनुभव होंगे
और बड़े मादक
अनुभव होंगे!
और ऐसे
चित्ताकर्षक
अनुभव होंगे
कि लगेगा. अब
और इससे
ज्यादा क्या
हो सकता है! जब
पहली दफा प्रकाश
झर—झर हो उठता, तो
प्राण ऐसे
तृप्त हो जाते
कि यह मानने
का सवाल ही
नहीं उठता कि
इससे आगे भी
कुछ और हो
सकता है।
जन्मों—जन्मों
से अंधेरे से
ही आंखें भरी रहीं,
प्रकाश की
यह थोड़ी—सी
झलक अपूर्व
रूप से तृप्ति
देती है। मगर
यहीं गुरु
चेताता है, चेताता रहता
है कि और चले
चलो, और चले
चलो।
एक
सूफी कहानी
है। एक फकीर
एक वृक्ष के
नीचे ध्यान
करता है। रोज
एक लकड़हारे को
लकड़ी काटते ले
जाते देखता
है। एक दिन
उससे कहा कि
सुन भाई, दिन—
भर लकड़ी काटता
है, दो जून
रोटी भी नहीं
जुट पाती। तू
जरा आगे क्यों
नहीं जाता g: वहां आगे
चंदन का जंगल
है। एक दिन
काट लेगा, सात
दिन के खाने
के लिए काफी
हो जाएगा।
गरीब
लकड़हारे को
भरोसा तो नहीं
आया,
क्योंकि वह
तो सोचता था
कि जंगल को
जितना वह जानता
है और कौन
जानता है!
जंगल में ही
तो जिंदगी
बीती।
लकड़ियां
काटते ही तो
जिंदगी बीती।
यह फकीर यहां
बैठा रहता है
वृक्ष के नीचे,
इसको क्या
खाक पता होगा?
मानने का मन
तो न हुआ, लेकिन
फिर सोचा कि
हर्ज क्या है,
कौन जाने
ठीक ही कहता
हो! फिर झूठ
कहेगा भी क्यों?
शांत आदमी
मालूम पड़ता है,
मस्त आदमी
मालूम पड़ता
है। कभी बोला
भी नहीं इसके
पहले। एक बार
प्रयोग करके
देख लेना
जरूरी है।
तो
गया। लौटा फकीर
के चरणों में
सिर रखा और
कहा कि मुझे
क्षमा करना, मेरे
मन में बड़ा
संदेह आया था,
क्योंकि
मैं तो सोचता
था कि मुझसे
ज्यादा लकड़ियां
कौन जानता है।
मगर मुझे चंदन
की पहचान ही न
थी। मेरा बाप
भी लकड़हारा था,
उसका बाप भी
लकड़हारा था।
हम यही काटने
की, जलाऊ—लकड़ियां
काटते—काटते
जिंदगी
बिताते रहे, हमें चंदन
का पता भी
क्या, चंदन
की पहचान
क्या! हमें तो
चंदन मिल भी
जाता तो भी हम
काटकर बेच आते
उसे बाजार में
ऐसे ही। तुमने
पहचान बताई, तुमने गंध
जतलाई, तुमने
परख दी। जरूर
जंगल है। मैं
भी कैसा अभागा!
काश, पहले
पता चल जाता!
फकीर ने कहा
कोई फिक्र न
करो, जब
पता चला तभी
जल्दी है। जब
घर आ गए तभी
सबेरा है। दिन
बड़े मजे में
कटने लगे। एक
दिन काट लेता,
सात— आठ दिन,
दस दिन जंगल
आने की जरूरत
ही न रहती। एक
दिन फकीर ने
कहा; मेरे
भाई, मैं
सोचता था कि
तुम्हें कुछ
अक्ल आएगी।
जिंदगी— भर
तुम लकड़ियां
काटते रहे, आगे न गए; तुम्हें
कभी यह सवाल
नहीं उठा कि
इस चंदन के आगे
भी कुछ हो
सकता है? उसने
कहा; यह तो
मुझे सवाल ही
न आया। क्या
चंदन के आगे
भी कुछ है? उस
फकीर ने कहा :
चंदन के जरा
आगे जाओ तो
वहां चांदी की
खदान है।
लकडिया—वकडिया
काटना छोड़ो। एक
दिन ले आओगे, दो—चार छ:
महीने के लिए
हो गया।
अब
तो भरोसा आया
था। भागा।
संदेह भी न
उठाया। चांदी
पर हाथ लग गए, तो
कहना ही क्या!
चांदी ही
चांदी थी!
चार—छ: महीने
नदारद हो
जाता। एक दिन
आ जाता, फिर
नदारद हो
जाता। लेकिन
आदमी का मन
ऐसा मूढ़ है कि
फिर भी उसे
खयाल न आया कि
और आगे कुछ हो
सकता है। फकीर
ने एक दिन कहा
कि तुम कभी जागोगे
कि नहीं, कि
मुझी को
तुम्हें
जगाना पड़ेगा।
आगे सोने की खदान
है मूर्ख!
तुझे खुद अपनी
तरफ से सवाल, जिज्ञासा, मुमुक्षा
कुछ नहीं उठती
कि जरा और आगे
देख लूं? अब
छह महीने मस्त
पड़ा रहता है, घर में कुछ
काम भी नहीं
है, फुरसत
है। जरा जंगल
में आगे देखकर
देखूं यह खयाल
में नहीं आता?
उसने
कहा कि मैं भी
मंदभागी, मुझे
यह खयाल ही न
आया, मैं
तो समझा चांदी,
बस आखिरी
बात हो गई, अब
और क्या होगा?
गरीब ने
सोना तो कभी
देखा न था, सुना
था। फकीर ने
कहा : थोड़ा और
आगे सोने की
खदान है। और
ऐसे कहानी
चलती है। फिर
और आगे हीरों
की खदान है।
और ऐसे कहानी
चलती है। और
एक दिन फकीर ने
कहा कि नासमझ,
अब तू हीरों
पर ही रुक गया?
अब तो उस
लकड़हारे को भी
बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी
हो गया था, महल
खड़े कर लिए
थे। उसने कहा
अब छोड़ो, अब
तुम मुझे
परेशांन न
करो। अब हीरों
के आगे क्या
हो सकता है?
उस
फकीर ने कहा.
हीरों के आगे
मैं हूं। तुझे
यह कभी खयाल
नहीं आया कि
यह आदमी मस्त
यहां बैठा है, जिसे
पता है हीरों
की खदान का, वह हीरे
नहीं भर रहा
है, इसको
जरूर कुछ और
आगे मिल गया
होगा! हीरों
से भी आगे
इसके पास कुछ
होगा, तुझे
कभी यह सवाल
नहीं उठा?
रोने
लगा वह आदमी।
सिर पटक दिया
चरणों पर। कहा
कि मैं कैसा
मूढ़ हूं मुझे
यह सवाल ही
नहीं आता। तुम
जब बताते हो, तब
मुझे याद आता
है। यह तो
मेरे
जन्मों—जन्मों
में नहीं आ
सकता था खयाल
कि तुम्हारे
पास हीरों से
भी बड़ा कोई धन
है। फकीर ने
कहा : उसी धन का
नाम ध्यान है।
अब खूब तेरे
पास धन है, अब
धन की कोई
जरूरत नहीं।
अब जरा अपने
भीतर की खदान
खोद, जो
सबसे आगे है।
यही
मैं तुमसे
कहता हूं : और
आगे,
और आगे।
चलते ही जाना
है। उस समय तक
मत रुकना जब
तक कि सारे
अनुभव शांत न
हो जाएं।
परमात्मा का
अनुभव भी जब तक
होता रहे, समझना
दुई मौजूद है,
द्वैत
मौजूद है, देखनेवाला
और दृश्य
मौजूद है। जब
वह अनुभव भी चला
जाता है तब
निर्विकल्प
समाधि। तब
सिर्फ दृश्य
नहीं बचा, न
द्रष्टा बचा,
कोई भी नहीं
बचा। एक
सन्नाटा है, एक शून्य
है। और उस
शून्य में
जलता है बोध
का दीया। बस बोधमात्र,
चिन्मात्र!
वही परम है।
वही परम—दशा
है, वही
समाधि है।
छठवां
प्रश्न:
मैं
परमात्मा से
मांगूं तो
क्या मांगूं?
कुछ
भी मांगोगे तो
भूल हो जाएगी।
न मांगो तो
सबसे अच्छा। न
मांगो तो
श्रेष्ठतम।
बिन मांगे मोती
मिलें, मांगे
मिले न चून।
परमात्मा के
द्वार पर
भिखारी होकर
क्यों जाओ? भिखारी होकर
जाओगे तो वही
मिलेगा जो
मांगते हो। और
कई बार बड़ी
भूल हो जाती
है, क्योंकि
तुम मांगोगे
भी तो वही जो
तुम्हारी बुद्धि
में समाता है।
तुम मांगोगे
भी क्षुद्र।
जरा
सोचो, क्या
मांगोगे? तुम
वह तो मांग ही
न सकोगे जो
मांगना चाहिए,
क्योंकि
उसकी तो
तुम्हें याद
ही न आएगी।
उसका तुम्हें
कोई स्वाद ही
नहीं है। और
तब पछताओगे बहुत।
मैंने
सुना, एक बहुत
समृद्ध महिला
अपने
चिकित्सक के
पास गई।
बीमारी उसकी
ठीक हो गई थी, चिकित्सक को
उसकी फीस
चुकाने गई थी।
तो उसने एक
बहुमूल्य
रत्नजटित
झोले में कुछ
रखकर
चिकित्सक को
भेंट किया।
चिकित्सक ने
कहा कि यह तो
ठीक है, लेकिन
मेरी फीस का
क्या? न तो
चिकित्सक समझ
सका कि
रत्नजटित है,
उसने तो
समझा कि है बस
कांच। कौन
रत्नजटित झोले
देता है भेंट!
और यह महिला
सस्ते में
निकली जा रही
है। उसने
हिसाब लगा रखा
था, कम—से—कम
तीन सौ रुपये
उसकी फीस थी।
और यह झोला
देकर ही बची जा
रही है। तो
उसने कहा कि
झोला तो ठीक
है, तुम्हारे
प्रेम का
उपहार
स्वीकार करता
हूं लेकिन
मेरी फीस का
क्या? उस
महिला ने
पूछा.
तुम्हारी फीस
कितनी है? तो
ज्यादा से
ज्यादा जो वह
बता सकता था, उसने कहा, तीन सौ
रुपया।
उस
महिला ने झोला
खोला, उसमें
कम—से—कम दस
हजार के नोट
थे, तीन सौ
रुपये निकाल
कर चिकित्सक
को दे दिए, बाकी
रुपये और झोला
लेकर वह वापिस
चली गई। अब उस
चिकित्सक पर
क्या गुजरी
होगी, तुम
सोचते हो! उस
दिन के बाद
बीमार ही हो
गया होगा। उस
दिन के बाद
फिर उसकी
चिकित्सा
मुश्किल हो गई
होगी। कितना न
पछताया होगा!
दस हजार रुपये
लेकर आयी थी
महिला देने और
यह तो उसे बाद
में पता चला
मित्रों से कि
वे कांच के टुकड़े
न थे, हीरे—जवाहरात
थे। मगर उसने
सोचा था कि
तीन सौ बहुत
बड़ी—से—बड़ी
फीस।
तुम
मांगोगे भी तो
क्या मांगोगे?
तुम्हारी बड़ी
से बड़ी मांग
भी बड़ी
छोटी—से—छोटी
होगी, खयाल
रखना। इसलिए न
मांगो तो
अच्छा। वह जो
दे, अहोभाव
से स्वीकार कर
लेना। फायदे
में रहोगे।
मांगोगे, नुकसान
में पड़ोगे। और
दुर्भाग्य
ऐसा है कि शायद
तुम्हें कभी
पता भी नहीं
चलेगा कि
तुम्हें क्या
मिल सकता था
और क्या
मांगकर तुम
लौट आए! क्या
पा सकते थे, पता भी न
चलेगा। उस
चिकित्सक को
तो खैर पता भी चल
गया, तो
दुबारा ऐसी
भूल न करेगा।
मगर तुम्हें
पता भी न
चलेगा। कौन
तुम्हें
बताएगा?
पहली
बात खयाल रखो :
प्रार्थना
मांग नहीं
बननी चाहिए।
यद्यपि हमारी
मूढ़ता के कारण
प्रार्थना
शब्द का अर्थ
ही मांगना हो
गया है।
मांगनेवाले
को हम प्रार्थी
कहते हैं।
क्योंकि हमने
प्रार्थना को
मांग ही मांग
से भर दिया
है। हम
प्रार्थना ही
तब करते हैं, जब
हमें कुछ
मांगना होता
है।
प्रार्थना
में मांगो मत।
दे सको तो दो।
अपने को दे
सको तो दो।
अपने को उंडेल
सको तो उंडेलो।
मांगो मत।
कठिनाई होगी
बहुत, क्योंकि
भिखमंगापन
हमारे
प्राणों का
आधार बन गया
है। जनम—जनम
मांगा है।
भिखमंगे तो
मांगते ही हैं,
सम्राट भी
मांगते हैं और
भिक्षमंगे
हैं। मांग ही
मांग चल रही
है।
लेकिन
अगर असंभव ही
हो और बिना
मांगे रह ही न
सको,
तो फिर कुछ
ऐसा मांगना
जैसे कोई
प्रेमी अपनी
प्रेयसी से
मांगता है, या कोई
प्रेयसी अपने
प्रेमी से
मांगती है। क्या
मांगती है? प्रेमी अपनी
प्रेयसी से
क्या मांगता
है? प्रेम
ही मांगता है।
अगर परमात्मा
से बिना मांगे
न रह सको तो
प्रेम मलना।
उसी को मांग
लेना। मालिक
मिल गया तो सब
मिल गया। वह
मिल गया तो सब
मिल गया, उसका
सब मिल गया।
छोटी—छोटी
चीजें क्या
मांगना? उस
एक को ही मांग
लेना। और जब
कोई प्रेमी
अपनी प्रेयसी
से कुछ मांगता
है, तो
मांग नहीं
होती वह; उस
मांग में भी
स्तुति होती
है, प्रशंसा
होती है।
तेरी
पेशानिए—रंगी
में झलकती है
जो आग
तेरे
रुखसार के
फूलों में
दमकती है जो
आग
तेरे
सीने में
जवानी की
दहकती है जो
आग
जिंदगी
की यह हसी आग
मुझे भी दे—दे
तेरी
आंखों में
फरोजा हैं
जवानी के शरार
लबे—गुलरंग
पै रक्सां हैं
जवानी के शरार
तेरी
हर सांस में
गलती हैं
जवानी के शरार
जिंदगी
की यह हसी आग मुझे
भी दे—दे
हर
अदा में यह
जवा
आतिशे—जज्वात
की रौ
यह
मचलते हुए
शोले, यह
तड़पती हुई लौ
आ
मेरी रूह पै
भी डाल दे
अपना परतौ
जिंदगी
की यह हसी आग
मुझे भी दे—दे
कितनी
महरूम
निगाहें हैं, तुझे
क्या मालूम
कितनी
तरसी हुई
बाहें हैं, तुझे
क्या मालूम
कैसी
धुंधली मेरी
राहें हैं, तुझे
क्या मालूम
जिंदगी
की यह हंसी आग
मुझे भी दे—दे
आ
कि जुल्मत में
कोई नूर का
सामी कर लूं
अपने
तारीक
शबिस्ता को
शबिस्ता कर
लूं
इस
अंधेरे में
कोई शमअ फरोजा
कर लूं
जिंदगी
की यह हसी आग
मुझे भी दे—दे
बारे—जुल्मात
से सीने की
फजा है बोझिल
न
कोई
साजे—तमन्ना, न
कोई सोजे— अमल
आ
कि मशअल से
तेरी मैं भी
जला लूं मशअल
जिंदगी
की यह हसी आग
मुझे भी दे—दे
प्रेमी
प्रेयसी से
मांग रहा है:
तेरी
पेशानिए—रगी
में झलकती है
जो आग!
तेरे
मस्तिष्क पर
जो रोशनी है, आभा
है, जो आग
है।
तेरे
रुखसार के
फूलों में दमकती
है जो आग!
तेरे
कपोलों के
फूलों में वह
जो रोशनी है, वह
जो दीप्ति है!
तेरे
सीने में
जवानी की
दहकती है जो
आग!
वह
जो तेरे
प्राणों में
बहता हुआ यौवन
है,
बहता हुआ
जीवन है।
जिंदगी
की यह हसी आग
मुझे भी दे—दे!
यह
सुंदर आग
थोड़ी—सी मुझे
भी दे—दे।
तेरी
आंखों में
फरोजा हैं
जवानी के
शरार!
तेरी
आंखों में
स्फुल्लिंग
की तरह यौवन
की दमक है, चमक
है, अंगारे
हैं।
लबे—गुलरंग
पै रक्सा हैं
जवानी के
शरार!
तेरे
ओंठों पर
नृत्य हो रहा
है यौवन का।
तेरी
हर सांस में
गलती हैं
जवानी के
शरार।
और
तेरी हर सांस
जवानी की, यौवन
की आंख से भरी
है।
जिंदगी
की यह हसी आग
मुझे भी दे—दे!
यह
सुंदर आग, यह
थोड़ी—सी लपट, यह थोड़ा
जीवन मुझे भी
दे—दे।
हर
अदा में यह
जवा
आतिशे—जच्चात
की री।
यह
मचलते हुए
शोले, यह
तड़पती हुई ली
आ
मेरी रूह पै
भी डाल दे
अपना परतौ
थोड़ी—सी
छाया भर मेरी
आत्मा पर भी
डाल दे।
आ मेरी
रूह पै भी डाल
दे अपना परतौ!
जिंदगी
की यह हसी आग
मुझे भी
दे—दे।
कितनी
महरूम
निगाहें हैं, तुझे
क्या मालूम!
मैं
कितना अतृप्त
हूं मेरी
आंखें कितनी
प्यासी हैं!
कितनी
महरूम
निगाहें हैं, तुझे
क्या मालूम!
कितनी
तरसी हुई
बाहें हैं, तुझे
क्या मालूम!
आ, मेरे
आलिंगन में आ
जा!
कितनी
महरूम
निगाहें हैं, तुझे
क्या मालूम!
कितनी
तरसी हुई
बाहें हैं, तुझे
क्या मालूम!
कैसी
धुंधली मेरी
राहें हैं, तुझे
क्या मालूम!
जिंदगी
की यह हंसी आग
मुझे भी
दे—दे।
थोड़ा—सा
प्रसाद मुझे
भी मिल जाए कि
मेरे अंधेरे
रास्ते पर
थोडी रोशनी हो
जाए। मेरी
खाली बाहें भर
जाएं। मेरी आंखों
की प्यास बुझ
जाए।
आ
कि जुल्मत में
कोई नूर का
सामी कर लूं आ
जा!
कि
मैं अंधेरे
में थोड़ा
प्रकाश का
इंतजाम कर लूं।
आ
कि जुल्मत में
कोई नूर का
सामा कर लूं
अपने
तारीक
शबिस्ता को
शबिस्तां कर
लूं
इस
उजड़े हुए घर
को बसा लूं।
इस खाली घर को
बसा लूं।
इस
अंधेरे में
कोई शमअ फरोजा
कर लूं।
यह
बहुत अंधेरा
है। यहां बहुत
अंधेरा है। एक
शमा जल जाए।
जिंदगी
की यह हसी आग
मुझे भी
दें—दें।
बारे—जुल्मात
से सीने की
फजा है बोझिल।
अंधकार
से दबा जाता
हूं अंधकार से
बोझिल हूं अंधकार
की अधिकता से
बोझिल हूं।
बारे—जुल्मात
से सीने की
फजा है बोझिल।
न
कोई
साजे—तमन्ना, न
कोई सोजे—अमल
न
तो कोई
अभिलाषा बची, न
कोई आकांक्षा
बची, न कोई
जिंदगी में रस
बहता मालूम
होता है।
आ
कि मशअल से
तेरी मैं भी
जला लूं मशअल।
तेरी
मशाल को मेरे
करीब ले आ, ताकि
मेरी बुझी
मशाल फिर से
जल जाए।
जिंदगी
की यह हसीं आग
मुझे भी
दे—दे।
अगर
मांगना ही हो...
पहले तो कहता
हूं मांगो न
तो अच्छा। अगर
बिना मांगे रह
ही न सको तो
उसी तरह मांगना
जैसे प्रेमी
प्रेयसी से
मांगता है। उसकी
मांग में भी
प्रेयसी की
सिर्फ
प्रशंसा का गीत
है। मांग उसकी
मांग नहीं है; मांग
उसकी स्तुति
है। मांग उसकी
सच में ही प्रार्थना
है।
तुम्हारी
प्रार्थना भी
मांग होती है।
और प्रेमी की
मांग भी
प्रार्थना
होती है। मांग
सको तो घटना
घटती है—मगर
ठीक से मांग
सको तो!
ठीक—ठीक मांग
सकी तो! जरा से
में चूक हो
जाती है। न
मांगों तो सुनिश्चित
घटना घटती है; चूक
हो ही नहीं
सकती।
जिसने
मांगा ही नहीं
है,
उससे भूल
कैसे होगी? वह तो सिर्फ
हृदय खोलकर जो
भी घटे उसे
लेने को राजी
है। जो भी
पात्र में गिर
जाए! मिले तो
प्रसन्न है, न मिले तो
प्रसन्न है। न
मिले तो भी वह
जानता है कि
अभी ऐसी घड़ी
होगी कि नहीं
मुझे मिलना
चाहिए, इसी
में मेरा हित
होगा, इसलिए
नहीं मिला है।
वह हर हाल
राजी है।
और
या फिर प्रेमी
की तरह मांगो।
मगर उसमें कभी
भूल हो सकती
है;
उसमें बड़ी
सावधानी
बरतनी पड़ेगी।
या तो शून्य भाव
से बैठो, श्रेष्ठतम;
या फिर
प्रेम— भाव से
बैठो, वह
नंबर दो।
चांद
तारों की हसीं
छांव में मेरे
दिल तक
नूरो—निकहत
की कोई मौज
बढ़ी आती है
सरसराती
हुई फूलों से
गुजरती है सबा
तेरी
आहट,
तेरी आवाज
चली आती है
सांस
में देर से
कलियों की चटक
है पैदा
आप
इक फूल की
मानिंद खिला
जाता हूं
हाय
यह कैफ, कि
मुमकिन ही
नहीं तेरे
बगैर
दिल
धड़कता है तो
मदहोश हुआ
जाता हूं
अपने
बरबत के जरा
तार मिला ले ऐ
दिल!
उसके
आने पै कोई
गीत तो गाना
होगा
लहजा—लहजा
कोई पुर सहर
नजर उठेगी
लमहा—लमहा
कोई जादू का
फसाना होगा
कैसी
कर्मो में
मेरी रूह घुटी
जाती है
अब
तो नजदीक ही
छागल की सदा
आती है
काश, तुम
शून्य होकर
बैठ सको तो
उसके पैरों
में बंधे हुए
शर जल्दी ही
तुम्हें
सुनायी पड़ने
लगें।
कैसी
कर्मो में
मेरी रूह घुटी
जाती है
अब
तो नजदीक ही
छागल की सदा
आती है
चांद
तारों की हसीं
छांव में मेरे
दिल तक
नूरो—निकहत
की कोई मौज
बढ़ी आती है
तूफान
आता
है—सौंदर्य का, आनंद
का। तूफान की
तरह आता है
परमात्मा।
छोटी—छोटी
बूंदाबादी
नहीं होती, मूसलाधार
वर्षा होती
है। मगर तुम
शून्य होओ।
चांद—तारों
की हसी छांव
में मेरे दिल
तक
नूरो—निकहत
की कोई मौज
बढ़ी आती है
सरसराती
हुई फूलों से
गुजरती है सबा
तेरी
आहट तेरी आवाज
चली आती है
और
फिर तो वृक्षों
से गुजरती हुई
हवा में भी
उसकी ही आहट
मालूम होगी।
फिर तो तुम
जहां जाओगे, जहां
देखोगे, वहीं
उसकी पगध्वनि
सुनाई पड़ने
लगेगी।
सांस
में देर से
कलियों की चटक
है पैदा
और
तुम्हारी
श्वास—श्वास
में कलियां
चटकने लगेंगी।
आप
इक फूल की
मानिंद खिला
जाता हूं!
मांगो
मत,
बिन मांगे
बहुत मिलता है
और जब
परमात्मा
बरसेगा, तुम
फूल की तरह
खिल जाओगे।
सांस
में देर से
कलियों की चटक
है पैदा
आप
इक फूल की
मानिंद खिला
जाता हूं!
हाय
यह कैफ...
यह
आनंद इतना
ज्यादा है, सम्हाले
नहीं
सम्हलता।
हाय
यह कैफ, कि
मुमकिन ही
नहीं तेरे
बगैर।
एक
बात निश्चित
है कि यह तो
इतना आनंद बरस
रहा है, तू
जरूर ही पास
होगा, क्योंकि
तेरे बिना यह
मुमकिन ही
नहीं है।
हाय
यह कैफ, कि
मुमकिन ही
नहीं तेरे
बगैर
दिल
धड़कता है तो
मदहोश हुआ
जाता हूं
अपने
बरबत के जरा
तार मिला ले ऐ
दिल!
अपनी
वीणा के, अपनी
हृदय की वीणा
के तार मिलाकर
रखो।
अपने
बरबत के जरा
तार मिला ले ऐ
दिल!
उसके
आने पै कोई
गीत तो गाना
होगा
लहजा—लहजा
कोई पुर सहर
नजर उठेगी
लमहा—लमहा
कोई जादू का
फसाना होगा
कैसी
नग्मों में
मेरी रूह घुटी
जाती है
अब तो
नजदीक ही छागल
की सदा आती है
very inspiring and thoughtful.Facts of life and questions which arise in our mind have been explained so beautifully and in such a simple manner that any person can understand
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