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मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-17)

सबद भया उजियालाप्रवचनसत्रहवां

दिनांक: 17 नवंबर, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:

ओम सबदहि सबदहि कूची, सबद भया उजियाला।
काटा सेती कांटा छे, कूची सेती ताला।।
सिद्ध मिलै तो साधिक निपजै, जब घटि होय उजाला।।
सबद हमारा षडूतर षाड़ा, रहणि हमारी सांची।
लेषै लिषी न कागद माडी, सो पत्री हम बांची।।
सबद बिंदी रे अवधू सबद बिंदी, थान—मान सब धंधा।
आतम मधै प्रमातमां दीषै, ज्यों जल मधे चंदा।।
व्यैत अव्यंत ही उपजै, व्यंता सब जग षीण।
जोगी व्यंता बीसरै, तो होइ अव्यंतहि लीन।।
सुणौ हो देवल तजौ जंजाल। अमिय पीवत तब होइबा बाल।
ब्रह्म मानि सींचत मूल। फूल्या फूल कली फिरि फूल।।
अधरा धरै बिचारिया, धर याही मैं सोई।
धर—अधर परचा सूता, तब दुतीया नाहीं कोई।।
सुरति गहौ संसय जिनि लागौ, पूंजी हीन न होई।
एक तत सूं स्पा निपजै, टार्या टरै न सोई।।
निहिचा हवै तो नेरा निपजै, भया भरोसा नेत।
परचा हवै ततषिन निपजै, नहींतर सहज नवेरा।।
अवधू सहजै गैग सहजै दैणा, सहजे प्रीति ल्यौ लाई।
सहजै सहजै चलेगा रे अवधू तो बासण करेगा समाई।।


ज्‍योति के पायल बजे, जागो प्रभात!

शब्द—पंछी मुक्त हो स्वर—पंख उकसाने लगे,
प्राण में नव चेतना के गान लहराने लगे,
स्वप्न के चिर सत्य की बजने लगीं शहनाइयां,
प्यार के विश्वास—पंथी लो निलय आने लगे।
खोलती पांखें कली सुधि की मदिर अभिजात!
ज्योति के पायल बजे, जागो प्रभात!

फूल की मुस्कान पर संगीत सा जुटने लगा,
सब कहीं कुमकुम पवन की सांस पर लुटने लगा,
आ रही है भैरवी की ध्वनि गगन के छोर से,
आज धरती से तिमिर का राज लो उठने लगा।
तुम अभी सोये, उषा आयी लिये सौगात!
ज्योति के पायल बजे, जागो प्रभात!

ज्वार की फेनिल तरंगों पर जलधि मुसका रहा,
बांसुरी पर दूर मांझी नवप्रभाती गा रहा,
वह अकेली झील नीली ले रही अंगड़ाइयां,
देवदारु प्रमत्त जिसको चूमने सा जा रहा।
लहर पर बिछले कि जिसके मसृण चिकने पात!
ज्योति के पायल बजे, जागो प्रभात!

जो जागे हैं, उन्होंने भीतर ज्योति ही नहीं पायी है, वरन स,गीतपूर्ण ज्योति पायी! उन्होंने ज्योति और संगीत का समन्वय पाया। अंतस को प्रकाश से भरा हुआ देखा, इतना ही नहीं; प्रकाश स्वरपूर्ण था, बोलता था, नाचता था। प्रकाश के पैरों में शर भी बंधे थे! प्रकाश के हाथ में वीणा भी थी! प्रकाश सूना—सूना नहीं था, संगीत से आपूर था!
जिस दिन अंतरात्मा में प्रवेश होता है, तो ये दोनों घटनाएं एक साथ घटती हैं। वह अनुभव केवल दर्शन नहीं है, श्रवण भी है। उसमें आंख का भी उतना ही हाथ होता है जितना कान का।
आंख और कान मनुष्य के भीतर छिपे हुए दुई के प्रतीक हैं। आंख है पुरुष का प्रतीक, कान है स्त्री का प्रतीक। इसलिए आंख हमला कर सकती है, कान हमला नहीं कर सकता। आंख का हमला जब होता है, तभी तो हम किसी आदमी को लुच्चा कहते हैं। क्ले का अर्थ होता है, जिसने आंख से हमला किया। लुच्चा शब्द बना है लोचन से, आंख से। लेकिन तुमने कभी कान से किसी पर हमला करते देखा किसी को? यह असंभव है।
बलात्कार पुरुष के साथ नहीं हो सकता, स्त्री के साथ ही हो सकता है। आंख बलात्कार कर सकती है, कान बलात्कार नहीं कर सकता। आंख का अनुभव पुरुष का अनुभव है। और चूंइक शास्त्र पुरुषों ने लिखे, इसलिए उन्होंने ज्ञानियों को द्रष्टा कहा, श्रोता नहीं। पुरुष अपने ही शब्दों का उपयोग करेगा; परमात्मा को पुरुष कहेगा, स्त्री नहीं; और ज्ञानी को द्रष्टा कहेगा, श्रोता नहीं।
आंख आक्रामक है; यह पुरुष—ऊर्जा है। कान ग्राहक है; सिर्फ स्वीकार करता है। कान एक गर्भ है। यह स्त्री—ऊर्जा है। मुझ से यदि पूछो तो वह जो परम अनुभव है, द्रष्टा और श्रोता का मिलैन है वहां। वहां आंख और कान एक हो जाते हैं। वहा आंख सुनती है, कान देखते हैं। वहां अपूर्व तिलिस्म घटित होता है। वहां प्रकाश भी है, लेकिन प्रकाश मुर्दा नहीं है, नाचता हुआ है। प्रकाश के हाथों में बांसुरी है—प्रकाश बज रहा है! प्रकाश छंद—बद्ध है! इस छंदबद्धता की प्रतीति को ही शब्द कहा है, नाद कहा है, ओंकार कहा है। शब्द, और ज्योतिर्मय! संगीत और आभा से परिपूर्ण, प्रदीप्त!
अभी तो तुम्हें कल्पना ही करनी पड़ेगी, तुम्हें ऐसा कोई अनुभव नहीं है। संगीत भी तुमने जाना है, लेकिन संगीत में प्रकाश नहीं देखा। और प्रकाश भी तुमने देखा है, लेकिन प्रकाश में कभी संगीत अनुभव नहीं किया।
इंद्रियां जो भी अनुभव देती हैं, वे आशिक होते हैं। अतींद्रिय अनुभव पूर्ण होता है। उसमें सारी इंद्रिया ऐसे ही डूब जाती हैं, जैसे सागर में सारी नदियां डूब जाती हैं। यह तो मैंने प्रतीक की बात कही; क्योंकि ये दो इंद्रियां प्रमुख इंद्रियां हैं। बाकी तीन इंद्रियां और हैं तुम्हारे पास। उनका भी दान होता है। इसलिए परमात्मा का अनुभव न केवल प्रकाश है, न केवल स्वर है—स्वाद भी है, गंध भी है, स्पर्श भी है। तुम्हारी सारी इंद्रियां अपने सारे अनुभव को उसमें डाल देती हैं। वह तुम्हारी सारी इंद्रियों का संयुक्त अनुभव है।
जब इंद्रियां बाहर की तरफ जाती हैं, अलग—अलग हो जाती हैं। जैसे कि तुम किसी वर्तुल के केंद्र से रेखाएं खींचो परिधि की तरफ, तो जैसे—जैसे वे परिधि की तरफ बढ़ेगी, एक—दूसरे से अलग होने लगेंगी। और अगर तुम परिधि से केंद्र की तरफ रेखाएं खींचो, तो जैसे—जैसे केंद्र की तरफ आने लगेंगी, वैसे—वैसे करीब होने लगेंगी; केंद्र पर आकर एक हो जायेंगी।
उसे केंद्र का नाम आत्मा है, जिस पर सारी इंद्रियां एक हैं।
दूर जाओगे, बाहर जाओगे, तो इंद्रियां अलग—अलग होने लगेंगी—कान अलग, आंख अलग, नाक अलग—सब अलग—अलग हो जायेंगे। इंद्रियां एक तरह की विशेषश हैं। आंख सिर्फ देखती है, कान सिर्फ सुनता है। लेकिन जब तुम केंद्र पर आओगे, तो वहां देखनेवाला भी है, सुननेवाला भी है, स्वाद लेनेवाला भी है। वहां सारी इंद्रियों का राजा है। वहां सारी इंद्रियों का मालिक है। उस मालिक की सारी क्षमताएं...।
इसलिए समाधि का अनुभव अमृत का स्वाद है। समाधि का अनुभव उस अनंत की सुवास है। समाधि का अनुभव आलिंगन है। समाधि का अनुभव प्रकाश के तूफान का बरस जाना है। और समाधि का अनुभव अनाहत का नाद है। सारी इंद्रियां अपना सब कुछ निछावर कर देती हैं। सारी इंद्रियों के अनुभव का जोड़ निश्चित ही अपूर्व होगा। उसकी तुम कल्पना ही कर सकोगे अभी। लेकिन कल्पना भी हृदय को तरंगित कर देगी। कल्पना भी हृदय में आवेश जगा देगी, प्यास जगा देगी।
फिर भिन्न—भिन्न अनुभोक्ताओं ने भिन्न—भिन्न वर्णन किये; वे उन पर निर्भर करते हैं। सभी के पास संगीत वाला कान नहीं होता। और सभी के पास ऐसी आंख नहीं होती जैसी चित्रकार के पास होती है। चित्रकार के पास ऊपर से तो ऐसी ही आंख होती है जैसी तुम्हारे पास, लेकिन चित्रकार बहुत गहरे में देखता है। उसे वे रंग दिखाई पड़ते हैं जो तुम्हें कभी दिखाई नहीं पड़े हैं। उसे रंगों की बारीकियां दिखाई पड़ती हैं—सूक्ष्मताएं। तुम देखते हो तो सारा बगीचा हरा दिखाई पड़ता है, उसे हरे में भी कई भेद दिखाई पड़ते हैं। अशोक के पत्तों की हरियाली आम के पत्तों की हरियाली से बड़ी भिन्न है। एक—सी नहीं है हरियाली; हरियाली हरियाली में बड़ी आभा के भेद हैं। जब चित्रकार देखता है, तो उसे अनेक हरे रंग दिखायी पड़ते हैं, उसे सूक्ष्मताएं दिखायी पड़ती हैं, जरा—जरा से भेद दिखाई पड़ते हैं। जब संगीतज्ञ सुनता है तो उसे स्वर की बारीकिया सुनाई पड़ती हैं; इतना ही नहीं, जो परम संगीतज्ञ है उसे स्वर का अभाव भी सुनाई पड़ता है। उसे शून्यता भी सुनाई पड़ती है। उसे दो स्वरों के बीच का अंतराल भी सुनाई पडता है। सूरदास जैसे व्यक्ति को जब आत्मानुभव होगा, तो स्वभावत: उसमें वर्णन प्रकाश का नहीं होगा, नाद का होगा। यह स्वाभाविक है। उनके पास नाद की प्रगाढ़ क्षमता है।
तो अनुभव तो सारी इंद्रियों का जोड़ होगा, लेकिन जब तुम बोलोगे अनुभव को, तो तुम्हारी जो इंद्रिय सर्वाधिक प्रबल है, उसी इंद्रिय की भाषा में तुम बोलोगे। मनुष्य की आंख सर्वाधिक उपयोगी रही है। जीवन में बिना कान के चल जाये, बिना हाथ के भी चल जाये, बिना नाक के तो मजे से चल जाता है, कोई अड़चन नहीं आती; लेकिन बिना आंख बड़ी मुश्किल हो जाती है। जीवन का अस्सी प्रतिशत आंख पर निर्भर है। इसलिए बहरे आदमी को देख कर तुम्हें उतनी दया नहीं आती जितनी अंधे आदमी को देख कर दया आती है, क्योंकि उसका अस्सी प्रतिशत जीवन छिन गया है!
चूंकि आंख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जीवन के अनुभव में, इसलिए अधिक ने परमात्मा का वर्णन प्रकाश की तरह किया है। गोरख परमात्मा का वर्णन शब्द की तरह करते हैं। उनके पास एक संगीतज्ञ का हृदय रहा होगा, निश्चित ही; उनके पद इसके गवाह हैं, गवाही हैं। एक—एक शब्द रसपूर्ण है। एक—एक शब्द काव्यपूर्ण है। और काव्य भी ऐसा नहीं है कि आयोजित हो, सहज प्रवाहित हुआ काव्य है। कोई गोरख कवि नहीं हैं, लेकिन अनुभव इतना रसपूर्ण हुआ है कि उसके कारण कविता अपने से बन गयी है। अनुभव से कविता बनी है, कविता बनायी नहीं गयी है। मात्राएं, छंद, व्यवस्था बिठाई नहीं गयी है; लेकिन भीतर इतना छंदपूर्ण अनुभव हुआ है, ऐसे संगीत का आविर्भाव हुआ है कि उसके आविर्भाव के कारण ही शब्दों में सौंदर्य आ गया है, रस आ गया है, छंद आ गया है।
ओंम सबदहि सबदहि कूची!
कहते हैं, ओम ही सब कुछ है। वही शब्दों का शब्द है। वही स्रोत है, जहां से सारे शब्दों का जन्म हुआ है।
सबद भया उजियाला।
और यह सूत्र बड़ा अदभुत है! बहुत कम संतों में मिलेगा। सबदहि भया उजियाला। संगीत जगा है, ओंकार का नाद पैदा हुआ है, लेकिन शब्द ज्योतिर्मय है! जैसे हर शब्द के भीतर उजियाला हो। जैसे हर शब्द के प्राण पर ज्योति जगमगाती हो। जैसे हर शब्द एक दीया हो! राग ही नहीं बज रहा है, राग के भीतर से रोशनी भी प्रगट हो रही है!
ओम सबदहि सबदहि कूची सबद भया उजियाला।
कांटा सेती कांटा बूटे कूची सेती ताला।
और जैसे कांटे से काटा निकल जाता है, ऐसे ही इस शब्द के जन्मने के साथ ही और सब शब्द निकल गये। और जो भीड़— भाड़ थी शब्दों की, सिद्धातों की, शास्त्रों की, इस एक शब्द के आने से सब गयी। एक ओंकार में सब लीन हो गया। इस एक के हाथ लग जाने से, ताला खुल गया! जीवन का रहस्य अब रहस्य नहीं है, अब अनुभव है। अब जीवन के रहस्य पर कोई घूंघट नहीं है; घूंघट हट गया। देख लिया जीवन का जो अंर्ततम है।
सिद्ध मिलै तो साधिक निपजै जब घटि होय उजाला।।
और कहते हैं कि जब तुम्हें कुछ किसी सौभाग्य से, किसी पुण्य से, किसी सिद्ध से मिलन हो जायेगा, तभी तुम्हारे भीतर वास्तविक साधक का जन्म होगा। लोग उल्टा सोचते हैं। लोग सोचते हैं—हम साधक हैं, इसलिए सिद्ध की तलाश कर रहे हैं; हम शिष्य हैं, इसलिए गुरु की तलाश कर रहे हैं। असलियत में बात उल्टी है। गुरु मिलेगा, तो तुम शिष्य बनोगे। और सिद्ध मिलेगा, तो तुम्हारे भीतर साधना पैदा होगी। क्यों? क्योंकि जब तक तुम्हें ऐसा व्यक्ति न मिल जाये जिसने जाना हो, जीया हो, स्वाद लिया हो, तब तक तुम्हारे भीतर कौन उठायेगा प्यास? कौन तुम्हें जगायेगा? कौन तुम्हें पुकारेगा? जिसने कभी देखा ही न हो कुछ भीतर, उसे भीतर की याद भी कैसे आये? असंभव है। जिसने भीतर कुछ अनुभव न किया हो, उसे भीतर जाने का सवाल भी नहीं उठता। वह तो बाहर—ही—बाहर घूमता है। वह तो बाहर—ही—बाहर प्रतीक्षा करता है।

व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।

रात भर बही पुरवा, रात भर खिले तारे,
रात भर रहे बहते अश्रु दर्द के मारे!
रात भर गया गूंथा, पर बिखर गया था जो,
एक हार अंबर का, एक हार मेरा था।
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।

कूक—कूक उठती थी कुंज में विकल कोयल,
झूम—झूम उठता था गंध का चपल आंचल।
मौन थे खड़े पर्वत, मौन प्राण की बस्ती,
एक भार धरती का, एक भार मेरा था।
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।

क्या कहूं मधुर कितना राग का जमाना था,
हर घड़ी नये स्वर थे, हर घड़ी तराना था।
दर्द को समेटे जो चुप रहा उनींदा—सा,
एक तार वीणा का, एक तार मेरा था।
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो,
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।

फूल पर किरण लिखती रूप की कहानी थी,
चांद की जवानी पर कल बड़ी जवानी थी।
चूर—चूर टकराकर जो हुआ किनारों से
एक प्यार सागर का, एक प्यार मेरा था!
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो,
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था!

जन्मों—जन्मों से बाहर की तरफ प्रतीक्षा कर रहे हो। द्वार—दरवाजे खोले किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? न वह कभी आया, न कभी आयेगा। और जिसे तुम देख रहे हों—बाहर टकटकी बांधे, वह भीतर मौजूद है। तुम जिसे खोजने चले हो, वह खोजनेवाले में छिपा है। लेकिन कौन तुम्हें जगाये तुम्हारे प्रति? कौन तुम्हें झकझोरे? कोई जो स्वयं जागा हो! सिद्ध ही मिले, तो तुम साधक हो सको। गोरख ठीक कहते हैं :
सिद्ध मिलै तो साधिक निपजै जब घटि होय उजाला।
और जब तक तुम्हारे भीतर साधक का ही जन्म नहीं हुआ है, तो सिद्ध होने की तो बात बहुत दूर। तो तुम्हारे भीतर उजियाले की बात तो बहुत दूर। किसी उजियाले से भरे आदमी से संग—साथ जोड़ लो। किसी उजियाले से भरे आदमी के साथ भांवर पाडू लो, विवाह रचा लो। यही है गुरु और शिष्य का संबंध। यही है साधक और सिद्ध का संबंध। कोई जो जग गया, जगा सकता है उसे, जो सोया है। कोई जो भर गया, भर सकता है उसे, जो अभी खाली है।
सबद हमारा षडूतर षाड़ा।
लेकिन खयाल रखना, सिद्धों के पास होना आसान मामला नहीं है। उनके शब्द तलवारों की तरह होते हैं। उनके शब्द चोट करते हैं। वे चोट न करें तो तुम्हें जगा भी न सकेंगे। सिद्धों के शब्द मलहम—पट्टा नहीं करते और तुम मलहम—पट्टी की तलाश में होते हो; इसलिए तुम सिद्धों से चूक जाते हो। और दो कौड़ी के लोगों के हाथ के शिकार हो जाते हो—पडित—पुरोहित, जिन्होंने खुद भी कुछ जाना नहीं है। लेकिन एक बात वे जानते हैं, उन्हें तुम्हारी आकांक्षा का पता है कि तुम क्या खोज रहे हो। उन्हें पता है कि तुम सांत्वना खोज रहे हो, सत्य नहीं। भला तुम लाख कहो कि मैं सत्य खोज रहा हूं तुम खोज रहे हो सांत्वना। तुम डरे हो, भयभीत हो। मौत आती है, तुम्हारे पैर कंप रहे हैं! रोज मौत घटती है, रोज कोई मरता है, रोज अर्थी उठती है, और हर बार तुम्हें झकझोर जाती है। तुम डरे हो। तुम सोचते हो, आगे का कुछ इंतजाम कर लूं।
तुम सांत्वना चाहते हो। तुम चाहते हो कोई तुम्हें भरोसा दिला दे कि तुम रहोगे, आगे भी रहोगे, मिट न जाओगे। शरीर ही छूटेगा, आत्मा बचेगी—ऐसा कोई तुम्हें समझा दे। कोई तुम्हें सिद्धात पकड़ा दे, कोई तुम्हें विश्वास दे दे। कोई तुम्हें थोथे सिद्धातों की आडू में सुरक्षित कर दे। कोई कह दे कि इतनी पूजा कर लो रोज, कि इतना पुण्य कर देना, कि गंगा—स्नान कर आना, कि सब ठीक हो जायेगा। कोई सस्ता—सा, सुगम—सा उपाय बता दे। जागना भी न पड़े। क्योंकि जागना महंगा सौदा है। जागने के लिए मरना होता है।
तुमने जिसे अभी तक जिंदगी जाना है, वह जिंदगी छूटेगी अगर जागना चाहोगे। वही है मृत्यु का अर्थ। तुमने जिसे जिंदगी जाना वह जायेगी। तभी वह जिंदगी आयेगी जिससे तुम अभी परिचित नहीं हो। एक जिंदगी जाये तो दूसरी जिंदगी आये। जैसे तुम हो ऐसे मर जाओ, तो तुम वैसे पैदा होओ जैसे तुम्हें होना चाहिए।
मरौ हे जोगी मरौ मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणी मरौ जिस मरणी मरि गोरष दीठा।।
कौन—सी मृत्यु से अनुभव होगा? एक तुमने जिंदगी बना ली है—व्यर्थ की; जिसका कोई मूल्य नहीं है। ऊपर—ऊपर से... कागज की! उसी को तुम जिंदगी मानते हो। तुम उसी जिंदगी की सुरक्षा मांगते हो। और जब तुम सिद्ध के पास जाओगे, तुम्हारी सुरक्षाएं छीन ली जायेंगी। तुम्हारी नावें कागज की हैं, डुबा दी जायेंगी। और तुम्हारे भवन रेत पर खड़े हैं, गिरा दिये जायेंगे। और तुम्हारे सारे आकांक्षाओं के, अभीप्साओं के जाल ताश के पत्तों के महल हैं; सिद्ध की एक चोट, और सारे महल भूमिसात हो जायेंगे। इसलिए सिद्धों से लोग बचते हैं, डरते हैं; पंडितों के पास जाते हैं। पंडित तुम्हें सांत्वना देता है। सिद्ध की जरा उत्सुकता नहीं तुम्हें सांत्वना देने में, क्योंकि सात्वनाओं के कारण ही तो तुम अब तक उलझे हो, भटके हो। सांत्वनाओं के जहर ने ही तौ तुम्हें मारा है। मगर सिद्ध की बात कड्वी मालूम पड़ेगी।
कबीर ने कहा है : कबिरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाठी हाथ। कि मैं लट्ठ लिये बाजार में खड़ा हूं। लिए लुकाठी हाथ! जो घर बारै आपना, चलै हमारै साथ। जिसकी तैयारी हो, अपना घर राख कर देने की, वह आ जाये, हमारे पीछे हो ले। और वह लुकाठी ऐसे ही नहीं लिए हैं, वह तुम्हारे सिर पर पड़ेगी। वह लुकाठी ऐसे कोई टेक—टेक कर चलने के लिए नहीं है, सिद्ध को अब टेक—टेक कर चलने कासवाल ही न रहा। उसे कहीं चलना ही नहीं, वह तो पहुंच गया! वह जो लुकाठी है, वह तुम्हारे सिर पर पड़ेगी!
सबद हमारा षडूतर षाड़ा।
गोरख कहते हैं : शब्द हमारा कडुवा है, खड्ग की धार जैसा है।
रहणि हमारी सांची।
और हम किन्हीं आदर्शों के अनुसार नहीं जी रहे हैं; हम तो वैसे ही जी रहे हैं जैसा परमात्मा ने हमें बनाया है—प्रामाणिक! समझना; यह शब्द मूल्यवान है!

यह शायरी शायरी नहीं है—
रजज की आवाज,
बादलों की गरज है
तूफान की सदा है!
कि जिसको सुनकर
पहाड़ आते हैं सब्ज माथों पर बर्फ की कलगिया लगाये,
धुओं के बालों में सुर्ख शोलो के हार गूंथे।
समंदर आते हैं झाग की झांझने बजाते
घटाएं आती हैं बिजलियों पर सवार होकर
यह शायरी शायरी नहीं है।
ये कोई कविताएं नहीं हैं जो हम यहां पढ़ रहे हैं।
यह शायरी शायरी नहीं है—
रजज की आवाज,
बादलों की गरज है
तूफान की सदा है!
गोरख जैसे व्यक्ति जब बोलते हैं, तो यह बादलों की गरज है।
रजज की आवाज
तूफान की सदा है!
यह रणभेरी की आवाज है!
कि जिसको सुनकर
पहाड़ आते हैं सब्ज माथों पर बर्फ की कलगिया लगाये,
धुंआ के बालों में सुर्ख शोलो के हार गूंथे।
समंदर आते हैं झाग की झांझने बजाते
घटाएं आती हैं बिजलियों पर सवार होकर

यह रणभेरी है! यह एक अंतर—युद्ध के लिए पुकार है। जो खड्ग की धार पर चलने को राज़ी
हों, वे ही सिद्धों से दोस्ती कर सकते हैं।

कम—निगाहों को मैं अंदाजे—नजर देता हूं
बे—सहर रात को भी रंगे—सहर देता हूं
बदगुमां मुझसे खिजां हैं तो खफा वीराने हैं
आमदे—फसले—बहारा की खबर देता हूं

इश्क का नगमा जुनू के साज पर गाते हैं हम
अपने गम की आंच से पत्थर को पिघलाते हैं हम
जिंदगी को हमसे बढ़कर कौन कर सकता है प्यार
और अगर मरने पर आ जायें तो मर जाते हैं हम
दफ्न होकर खाक में भी दफ्न रह सकते नहीं
लाल—ओ—गुल बन के दीवारों पर छा जाते हैं हम

मैं रात की गोद में
सितारे नहीं,
शरारे बखेरता हूं!
सहर के दिल में—
जो अपने अश्कों से
बी रहा हूं
बगावतें हैं।

फकीर बगावतें बोते हैं। उनके बीज बगावतों के बीज हैं। वे क्रांतिया उगाते हैं। वे क्रांतियों की फसलें काटते हैं। इसलिए जो तैयार हो सिर कटाने को, वही सिद्धों के साथ हो सकता है, जो मरने को राजी हो, जो अपनी सूली को अपने कंधे पर ले कर आये!
सबद हमारा षडुतर कड़ा रहणि हमारी सांची
शब्द हमारे कठोर हैं; तुम्हें तिलमिलायेगे, तुम्हें जलायेंगे, तुम्हारे भीतर अंगारों की तरह पड़ जायेंगे। शब्द कठोर हैं। उन्हें होना ही पड़ेगा कठोर, क्योंकि तुम मीठे—मीठे शब्दों के जहर में खूब खो गये हो। तुम सांत्वनाओं की चांदरों पर चांदरें ओढ़े बैठे हो। उनके ही कारण जिंदगी को समझना मुश्किल होता जा रहा है।
जार्ज गुरजिएफ कहता था, कि जैसे रेलगाड़ी के दो डब्बों के बीच में बफर लगे होते हैं, ताकि अगर टकराहट हो जाये, कुछ हो जाये, तो डब्बे एक—दूसरे से धक्के न खायें। कारों के नीचे स्पिंग लगे होते हैं, ताकि रास्तों के गड्डों का, कार में बैठे आदमी को पता न चले। ऐसी ही हालत आदमी की है। सांत्वनाओं के स्सिंग लगा रखे हैं उसने अपने चारों तरफ, बफर लगा रखे हैं। जिंदगी में तकलीफें आती हैं, मुसीबतें आती हैं; बफर पी जाते हैं! जिंदगी में गड्डे बहुत हैं, मगर स्त्रिंग सम्हाल लेते हैं। और जो जिंदगी से इस तरह सम्हल—सम्हल कर गुजर जाता है, वह जगेगा कैसे; उसने तो सोने का पूरा आयोजन कर रखा है। फकीर उसे हिलाते हैं, उसके बफर तोड़ देते हैं, उसके स्थिंग छीन लेते हैं। उसे जिंदगी के गड्डों का ठीक—ठीक दर्शन कराते हैं। उसे जिंदगी के दुख का पूरा बोध हो जाये, जिंदगी मौत में जा रही है, इसकी उसे प्रतीति हो जाये, तो ही सत्य की खोज शुरू होगी, अन्यथा सत्य की खोज शुरू नहीं होती है। सब भ्रम से तो ही तुम सिद्ध की तलाश में निकलोगे। तुम्हारे सब स्वप्न भंग हों, तभी तुम आंखें खोलने को राजी होओगे। जब तक मीठे—मीठे सपने चलते हैं और सपनों में तुम देखते हो कि तुम सम्राट हो और सोने के तुम्हारे महल हैं, और परियों जैसी तुम्हारी पलिया हैं, तब तक तुम कैसे आंखें खोलोगे? कोई आंख खोलेगा तुम्हारी, तो दुश्मन मालूम होगा!
गुरु दुश्मन मालूम होता है। इसीलिए तो जीसस को सूली दी तुमने। इसीलिए तो मंसूर को मारा। इसीलिए तो सुकरात को जहर पिलाया। यह तुम्हारी तैरफ से सत्कार है उनका! उनके शब्द कठोर रहे। उन्होंने तुम्हारे सिर पर चोट कर दी। उनकी लुकाठी भारी पड़ी! तुम बर्दाश्त न कर सके, हालांकि तुम्हारे हित में ही की गयी थी चोट। जैसे कि सर्जन तुम्हारे हित में ही चीर—फाड़ करता है। मगर अगर तुम नासमझ होओ तो यह देखकर कि सर्जन छुरा लिये हाथ—पैर में काट कर रहा है, तुम उठ कर ही खड़े हो जाओ, हमला ही बोल दो सर्जन पर—कि हम तो आये थे इलाज कराने, यह दुष्ट हमारे हाथ—पैर काटे डाल रहा है! शायद इसीलिए इसके पहले कि सर्जन सर्जरी करे, तुम्हें बेहोश कर देता है, ताकि तुम पड़े रहो चुपचाप, अन्यथा तुम बीच—बीच में उठ—उठ आओगे कि यह क्या हो रहा है? यह मेरे साथ क्या किया जा रहा है?
मगर यह जो सिद्धों के पास घटना घटती है, यह तो होश में ही घटने वाली है; इसमें तुम्हें बेहोश नहीं किया जा सकता। इसमें कोई क्लोरोफार्म का उपाय नहीं है; क्योंकि यह तो जागने की ही प्रक्रिया है। यह सुलानेसे हल नहीं हो सकती, यह तो जगाने से ही हल होगी। और तुम जन्मों से सो रहे हो!
सिद्धों का जीवन भी तुम्हारी समझ में नहीं आता, क्योंकि उनके जीवन का एक बुनियादी भेद है—रहणि हमारी सांची! सिद्ध सहजता से जीता है—सांचा। तुम इसका अर्थ कुछ और लगा लोगे; क्योंकि तुमने तो सब चीजों के अर्थ अपने मन से लगा लिये हैं। तुम जीते हो आदर्शों से; सिद्ध जीता है स्वभाव से। आदर्श और स्वभाव का कहीं कोई मेल नहीं होता। आदर्श कल्पनाएं हैं। तुम सोचते हो मुझे ऐसा होना चाहिए, फिर वैसा होने की तुम चेष्टा करते हो। तुम्हें सिखाया भी गया है बचपन से कि ऐसे होओ, ऐसे होओ, ऐसे होओ...! तुम्हारे पास हजार तरह के आदर्श हैं। वैसे तुम हो नहीं। और उन आदर्शों के कारण तुम वैसे हो भी न पाओगे। सिर्फ होगा इतना कि तुम्हारे भीतर एक पाखड पैदा हो जाएगा। भूख तो लगती है, लेकिन आदर्श कहते हैं उपवास करो। तो भीतर भूख और बाहर उपवास! भीतर भूख धक्के मारेगी और बाहर से तुम उपवास थोपोगे।
यह सांची रहनी न हुई, यह तो झूठी रहनी हो गयी। शरीर मांग रहा है भोजन, और मन थोप रहा है उपवास, क्योंकि बिना उपवास के स्वर्ग न मिलेगा। इससे उल्टी भी हालत होती है। शरीर तो कह रहा है. बस, अब और भोजन नहीं चाहिए, पेट भर गया। लेकिन मन कहता है. बड़ा स्वादिष्ट है, थोड़ा और...। ये दोनों एक जैसी ही घटनाएं हैं। ये दोनों हालत में तुम अपने स्वभाव के प्रतिकूल जा रहे हो। और जो स्वभाव के प्रतिकूल जाता है, वह कभी भी सत्य को उपलब्ध न हो पायेगा।
झेन फकीर बोकोजू से किसी ने पूछा : तुम्हारी साधना क्या है? तो बोकोजू ने कहा. जब भूख लगती है, तब मैं भोजन करता; और जब नींद आती है, तब सो जाता। तुमने भी पूछा होता, तुम भी चौंकते—यह कोई साधना हुई! जिसने पूछा था वह भी चौंका, उसने कहा : यह तो सभी करते हैं!
बोकोजू ने कहा कि नहीं; इतना ही तुम कर लो तो सब हो जाये! जब भूख नहीं होती तब तुम भोजन करते हो, क्योंकि समय हो गया! अगर बारह बजे रोज भोजन करते हो, तो घड़ी में देखकर कि बारह बजे, कि भूख लग आती है। वह भूख झूठी है। अगर घड़ी बंद हो गयी हो घंटे— भर पहले, अभी ग्यारह ही बजे हों, तुम्हें भूख न लगेगी। अगर तुम्हें पक्का पता हो कि अभी ग्यारह ही बजे हैं, भूख न लगेगी। वह भूख झूठी है, वह भूख सांची नहीं है। रोज एक खास समय सो जाते हो, उस वक्त जम्हाई आने लगती है, नींद आने लगती है। मगर वह नींद सच्ची नहीं है। अगर तुम घड़ी— भर जाग जाओ, वह नींद खो जायेगी। अगर सच्ची नींद होती, तो और भी जोर से आनी थी। लोगों को जब नींद का समय हो जाता, अगर वे घंटे भर आधा घंटा और जग जायें, न सोये किसी कारण से, तो फिर रात— भर नींद न आये!' बस आदत थी, एक यंत्रवत व्यवस्था थी।
बोकोजू ने कहा कि नहीं, सभी ऐसा नहीं करते। उन्हें नींद नहीं आती, तब सो जाते हैं; और जब नींद आ रही होती है, तब उठ आते हैं। जब भूख नहीं लगती, खा लेते हैं। और कभी भूख लगी होती है और नहीं खाते, उपवास करते हैं। बोकोजू ने कहा, हम सरलता से जीते हैं; यही हमारी साधना है। हम किसी आदर्श के अनुकूल नहीं जीते।
जो आदर्श के अनुकूल जीता है, वह नैतिक। और जो सहजता से, सुगमता से जीता है, वह धार्मिक। जिसने एक लक्ष्य बना रखा है कि इस भांति जीऊंगा...। रोज ब्रह्म—मुहूर्त में उठना है, चाहे उठने की इच्छा हो न हो, देह कहे न कहे...।
एकनाथ को एक आदमी मिलने गया। वे एक शिव के मंदिर में ठहरे हुए थे। वह आदमी तो बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि उन्होंने अपने पैर शिव की पिण्डी पर टेक रखे थे।
वह आदमी खुद १गई नास्तिक था, मगर इतना नास्तिक नहीं था। लोगों ने उससे कहा था कि तेरी नास्तिकता अगर कोई मिटा सकता है तो एकनाथ। इसीलिए एकनाथ की तलाश में आया था। यहां एकनाथ को देखकर तो वह चौंका। उसने कहा कि हालांकि मैं नहीं मानता कि ईश्वर है, मगर इतनी हिम्मत मेरी भी नहीं है कि शंकर जी की पिण्डी पर पैर रख कर लेटूं। यह तो महा नास्तिक मालूम होता है। और अभी सो रहा था, और सूरज कब का निकल चुका है—और साधु को तो ब्रह्ममुहूर्त में उठ आना चाहिए! उसने झकझोरा, एकनाथ को उठाया, कहा कि साधु को तो ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। एकनाथ ने कहा : साधु जब उठे, तब ब्रह्ममुहूर्त है।
यह बड़ी और जीवन की व्यवस्था हुई—साधु जब उठे, तब ब्रह्ममुहूर्त!
'और शंकर जी की पिण्डी पर पैर रख कर क्यों लेटे हो? चलो ठीक है, साधु जब उठे तक ब्रह्ममुहूर्त; मगर यह क्या कर रहे हो?' तो एकनाथ ने कहा : कहीं भी पैर रखूं वही है। जहां भी पैर रखूं वही है। कहां पैर रखूं? और पैर में क्या खराबी है, क्योंकि पैर में भी वही है। अब उसके अतिरिक्त मुझे कोई और दिखायी नहीं पड़ता। भीतर भी वही, बाहर भी वही। सिर में भी वही, पैर में भी वही। कहां पैर रखूं?
यह सिद्ध की अवस्था है। यह सरल जीवन है। इसमें कोई आदर्श नहीं है। और आदर्श नहीं है इसलिए पाखंड नहीं है। आदर्श से पाखंड पैदा होते हैं। पाखंड आदर्श की छाया है। तुमने एक आदर्श बना लिया : ब्रह्ममुहूर्त 'में उठेंगे। फिर एक दिन न उठ पाये, तो भी तुम्हें पाखंड की खबर रखनी पड़ेगी, लोगों को तुम्हें यही बताना पड़ेगा, आज भी उठे थे।
पाखंड का अर्थ होता है : एक आदर्श बना लिया, अब पूरा नहीं हो रहा है तो भी दिखलाना पड़ेगा कि पूरा हो रहा है। चोरी से भोजन कर लेंगे, लेकिन बाहर जाहिर रखेंगे कि उपवास चल रहा है! छिपे—छिपे एक ढंग के आदमी होओगे तुम, और प्रगट—प्रगट दूसरे ढंग के आदमी होओगे। अंतस अलग, आचरण अलग हो जायेगा। बाहर कुछ, भीतर कुछ...।
रहणि हमारी सांची।
गोरख कहते हैं : हम ऐसे नहीं रहते। हमारा न कोई आदर्श है, न हमारा कोई एक जीवन का बंधा हुआ ढांचा है। प्रतिपल जो सच है, जो हमारे स्वभाव में है, उसके अनुसार जीते हैं। और यहीं अड़चन खड़ी होती है। इसीलिए तुम सिद्ध को पहचान भी न पाओगे। क्योंकि सिद्ध तुम्हारे किसी ढांचे में बंधेगा नहीं। सिद्ध तुम्हारी किसी कसौटी पर कसा न जा सकेगा। तुमने जो—जो कसौटियां बना रखी हैं, सिद्ध उन सब को तोड़ कर बह जायेगा। सिद्ध की कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती, क्योंकि सिद्ध किसी आधार से नहीं जीता—प्रतिपल, पल—पल जीता है; पल के प्रति संवाद से जीता है। कोई एक बंधा हुआ ढांचा हो, तो सिद्ध की भविष्यवाणी हो सकती है। लेकिन उसके पास कोई ढांचा नहीं है, कोई आचरण नहीं है।
तुम यह जानकर चकित होओगे कि सिद्ध आचरण—मुक्त होता है। इसीलिए सिद्ध को बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है। छोटे—मोटे तथाकथित साधुओं को तुम बर्दाश्त कर लेते हो, बर्दाश्त ही नहीं कर लेते, उनका अंगीकार भी करते हो, स्वागत भी करते हो! तुमने सुकरात को सूली दी; लेकिन यूनान में और बहुत लोग थे, जो ज्ञान की बातें कर रहे थे, उनको तुमने सूली नहीं दी। तुमने जीसस को सूली दी, लेकिन उसी समय में बहुत थे और यहूदी—साधु, सम्मानित धर्मगुरु; उनको तुमने सूली नहीं दी। उनके तुमने चरण छुए, उनका तुमने सम्मान किया। वे तुम्हारी धारणाओं के अनुकूल थे। जीसस तुम्हारी धारणाओं के प्रतिकूल पड़ गये। जीसस ने स्वतंत्र जीवन शुरू कर दिया। जीसस ने अपनी स्वतंत्र चेतना की घोषणा कर दी। वही उनका कसूर है। काश, वे तुमसे राजी होते! काश वे तुम्हारे अनुकूल चलते! तुम जैसे बिठाते, बैठते; तुम जैसे उठाते, उठते। तुमने उन्हें भी खूब सम्मान दिया होता।
लेकिन कोई सिद्ध तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी नहीं कर सकता है। और जो करे तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी, वह सिद्ध नहीं है। सिद्ध तो परमात्मा की अपेक्षाएं पूरी करता है, तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी नहीं करता। और परमात्मा की अपेक्षाएं बाहर से नहीं आतीं, भीतर से आती हैं, अंतरतम से आती हैं।
सबद हमारा षडूतर षाड़ा रहणि हमारी सांची।
और कहते हैं गोरख : शब्द हमारे खरे हैं, चोट करने वाले हैं, खड्ग की धार की तरह तीखे हैं, क्योंकि रहनी हमारी सच्ची है! हम वैसे रह रहे हैं जैसा स्वभाव हमें चला रहा है। हम किसी के बंधे हुए नहीं हैं, किसी के गुलाम नहीं हैं, किसी परंपरा के दास नहीं हैं। किसी व्यवस्था, संस्कार का हम पर कोई आरोपण नहीं। हम स्वतंत्र हैं।
लेषै लिषी न कागद माडी।
हम उस ढंग से रह रहे हैं न तो जैसी कागज में लिखी है, न किसी लेख में बतायी गयी है। जिसकी शास्त्रों में चर्चा नहीं है। हो ही कैसे सकती है? गोरख इसके पहले तो हुए नहीं थे। शास्त्र तो बाद में बनेगा। कोई शास्त्र गोरख का वर्णन नहीं कर सकता। ही, शास्त्र औरों का वर्णन करेंगे, महावीर का वर्णन करेंगे, बुद्ध का वर्णन करेंगे; लेकिन गोरख गोरख हैं, न बुद्ध न महावीर। महावीर अपनी शैली से रहे, अपनी निजता में जीए; बुद्ध अपनी निजता में। गोरख अपनी निजता में जीयेगे। गोरख किसी की छाया नहीं हैं, किसी की कार्बन—कापी नहीं हैं। प्रत्येक सिद्ध मौलिक होता है।
और यही परीक्षा है, यही कसौटी है। साधु कार्बन—कापी होते हैं, सिद्ध मौलिक होते हैं। साधु ऐसे होते हैं, जैसे कि तुम कारखाने से कारें निकालते हो। हजार फियेट गाड़ियां एक—सी खड़ी कर दो। एक—दूसरे की कापी, एक—ही सांचे में ढली! अब तुम हजार जैन साधु खड़े कर दो, क्या फर्क होता है उनमें? कोई फर्क नहीं होता! एक ही व्यवस्था से जीते हैं। एक ही आचरण की संहिता से जीते हैं। लेकिन सिद्ध मौलिक होता है, अनूठा होता है, अद्वितीय होता है। और यही अड़चन है। कोई शास्त्र उसका निर्वचन नहीं करते।
और एक तरह का सिद्ध एक ही बार होता है, दोबारा नहीं होता। क्योंकि जो सिद्ध हो गया, फिर नहीं लौटता। गया सो गया, फिर वापिस नहीं आता। एक ही बार तुम उसकी झलक पाते हो—बुद्ध की, महावीर की, कृष्ण की, क्राइस्ट की, मुहम्मद की। एक ही बार तुम झलक पाते हो, फिर गये सो गये। फिर विराट में लीन हो गये। फिर दोबारा उन जैसा आदमी नहीं होगा, नहीं हो सकता है।
मगर बहुत लोग अनुकरण करेंगे, नकलची होंगे। उनको तुम साधु कहते हो। उन नकलचियों का बड़ा सम्मान है, क्योंकि वे तुम्हारे शास्त्र के अनुसार मालूम पड़ते हैं। उन नकलचियो का बड़ा आदर होगा, प्रतिष्ठा होगी; क्योंकि वे तुम्हारी अपेक्षा की तृप्ति करते हैं, वे तुम्हारे अहंकार को तृप्त करते हैं। वे कहते हैं : ठीक, हमारी ही अपेक्षा के अनुसार यह आदमी जी रहा है। यह आचरण है, यही शुद्ध आचरण है। जब भी सिद्ध आयेगा, सब अस्त—व्यस्त कर देगा। सिद्ध आता ही क्रांति की तरह है!
रजज की आवाज,
बादलों की गरज है
तूफान की सदा है!
इश्क का नग्मा जुनू के साज पर गाते हैं हम।
सिद्ध तो अपने दीवानेपन के साज पर प्रेम का गीत गाता है।
इश्क का नगमा जुनू के साज पर गाते हैं हम
अपने गम की आच से पत्थर को पिघलाते हैं हम
जिंदगी को हमसे बढकर कौन कर सकता है प्यार
और अगर मरने पर आ जायें तो मर जाते हैं हम
दफ्त होकर खाक में भी दफ्त रह सकते नहीं
लाल—ओ—गुल बन के दीवारों पर छा जाते हैं हम

मैं रात की गोद में सितारे नहीं,
शरारे बखेरता हूं!
अंगारे बिखेरता हूं...।
सहर के दिल में— जो अपने अश्कों से
बो रहा हूं
बगावतें हैं।




   प्रत्येक सिद्ध बगावत लेकर आता है, एक क्रांति का संदेश लेकर आता है, एक आग की लपट लेकर आता है—एक तूफान रोशनी का! लेकिन जो अंधेरे में रहे हैं, उनकी आंखें अगर एकदम से उतनी रोशनी को न झेल सकें और नाराज हो जायें, तो कुछ आश्चर्य नहीं।
लेषै लिषी न कागद माडी सो पत्री हम बांची।
गोरख कहते हैं. हम करें भी क्या, हमने वह बीच लिया है जो कहीं लिखा नहीं गया है, कभी नहीं लिखा गया है। हमने अनलिखे को पढ़ लिया है। इसलिए हम अब वैसे ही जी रहे हैं। अनलिखे को जिसने पढ़ लिया, अदृश्य को जिसने देख लिया, अनिर्वचनीय का जिसे अनुभव हो गया है, अब वह किन्हीं मनुष्य के द्वारा बनाई गयी समाज, परंपराएं, संस्कारों की व्यवस्थाओं का मानकर नहीं चलेगा। अब उसके लिए कोई बंधन संभव नहीं है। अब वह तुम्हारी सारी व्यवस्थाओं के अतीत होगा।
लेषै लिषी न कागद माडी सो पत्री हम बांची
इस जगत में शास्त्र बहुत हैं—वेद हैं, बाइबिल है, कुरान है, धम्मपद है। उनमें जो तुम पढ़ोगे, वह परम सत्य नहीं है। और ऐसा नहीं है कि जिन्होंने वेद गाये, उनको परम सत्य का पता नहीं था। या जिससे कुरान पैदा हुई, उसे परम सत्य का पता नहीं था। परम सत्य का पता था, इसीलिए कुरान पैदा हुई; मगर जैसे ही कही गयी बात, वैसे ही असत्य हो जाती है। जैसे ही उस विराट को हम शब्दों में बांधते हैं, शब्दों की संकीर्णता के कारण वह विराट अपना रूप खो देता है।
ऐसा ही समझो कि तुम गये समुद्र के तट पर। सुबह की ताजी हवा थी। सूरज की किरणें थीं। पक्षी गीत गाते थे। लहरों में रंग था। सूरज नाचता था। सुबह की यह ताजी हवा, यह सागर के तट का हवा का नमकीन स्वाद, तुम्हें इतना भाया कि तुम एक पेटी में इस हवा को बंद कर के घर ले आये। सोचा कि फुर्सत में जब कभी मौज होगी पेटी को खोलेंगे, इस हवा का आनंद लेंगे। मगर क्या तुम सोचते हो, तुम उस ताजी हवा को पेटी में बंद करके घर ले आ सकोगे? और जब घर आ कर पेटी खोलोगे, तो न तो वह नमकीन स्वाद होगा उस हवा में, न वह ताजगी होगी, न वे सूरज की किरणें होंगी, न पक्षियों के गीत होंगे, कुछ भी न होगा—एक खाली पेटी होगी और उसमें गंदी हवा होगी!
यही हो जाता है, शब्दों की पेटियों में सत्य समाता नहीं है। सत्य जीवंत अनुभव है। जो जानता है, उसे कहना पड़ता है; मजबूरी है। मगर सब कहनेवालों ने यह भी कहा है साथ—साथ कि हम कह नहीं पाये; कहने की कोशिश की है और हार—हार गये हैं।
रवीन्द्रनाथ जब मरे, घड़ी— भर पहले किसी ने कहा, कि तुम्हें तो प्रसन्न विदा होना चाहिए; तुमने छह हजार गीत गाये। दुनिया में किसी कवि ने इतने गीत नहीं गाये! तुम महाकवि हो!
रवीन्द्रनाथ ने आंखें खोलीं, उनकी आंखों में आंसू थे, और उन्होंने कहा : मत कहो यह बात, क्योंकि मैं परमात्मा से प्रार्थना कर रहा था अभी, तुमने व्यर्थ बीच में बाधा डाल दी। मैं प्रार्थना कर रहा था कि हे प्रभु, जिंदगीभर कोशिश कर—करके बामुश्किल थोड़ा—सा साज बिठा पाया और यह तो जाने का वक्त आ गया! अभी मैंने वह गीत गाया कहां जो मैं गाना चाहता था! ये छह हजार गीत तो सिर्फ चेष्टाएं हैं उस गीत को गाने की, जो मैं गाना चाहता था और नहीं गा पाया। और यह तूने क्या किया कि यह तो विदाई का वक्त आ गया! और अभी तो केवल साज बिठा पाया था, अभी संगीत शुरू न हुआ था। और जिन्होंने इसे संगीत समझ लिया, उनकी भी मजबूरी है। उन्हें तो यही विराट था; उन्होंने तो इतना भी नहीं देखा था।
मैंने सुना है, लखनऊ के एक नवाब ने एक अंग्रेज वाइसराय को निमंत्रण दिया। लखनऊ... स्वागत में बड़े संगीतज्ञ बुलाए। नवाब बैठा, वाइसराय बैठा, दरबारी बैठे। लखनवी संगीतज्ञ अपना साज बिठाने लगे—तबला ठोंकने लगा कोई, सारंगी के तार कसने लगा कोई। वाइसराय ने पहली दफे ही ऐसा संगीत सुना था। दस—पंद्रह मिनट जब यह चलता रहा... उसने कहा : वाह! वाह! और नवाब से कहा : बस, यह संगीत चलता रहे। बहुत आनंद आ रहा है। यह अभी साज ही बिठाया जा रहा था, अभी संगीत शुरू न हुआ था! नवाब तो बहुत चौंका! लेकिन अब जब वाइसराय कहे कि यही चलना चाहिए, तो फिर यही चला, रात— भर यही चला! संगीतज्ञों ने सिर पीट लिया! नवाब की खोपड़ी पक गयी! दरबारी भी चकित हुए; मगर वाइसराय बड़ा प्रसन्न! उसने कभी सुना न था। उसने समझा यही संगीत है; कैसा मजा आ रहा है! ठोंक रहे हैं; अपना काम चल रहा है!
रवीन्द्रनाथ ठीक कहते हैं कि जिन्होंने मेरे गीतों को गीत समझ लिया, उन्हें अभी असली गीतों का कोई पता नहीं। उन्हें उस गीत का पता नहीं जो मैं गाना चाहता था और नहीं गा पाया हूं। यही तो उपनिषद कहते हैं, कि उस अनिर्वचनीय को कैसे कहें? यही तो लाओत्सु कहता है, कि सत्य कहा गया कि असत्य हो जाता है। यही तो शास्त्र कहते हैं—सारे शास्त्र, सारे जगत के शास्त्र—कि शब्दों में वह समाता नहीं।
लेषै लिषी न कागद माडी
क्या तुम सोचते हो गोरख को पता नहीं था कि वेद हैं, गीता है, धम्मपद है। भलीभांति पता था, लेकिन फिर भी कहते हैं : लेषै लिषी न कागद माडी, सो पत्री हम बांची। जरूर पंडित नाराज हो गये होंगे—वेद का इंकार हो गया, तो फिर वेद में क्या है? तो फिर वेद में सत्य नहीं? छोटी बुद्धि के लोग नाराज हो गये होंगे, कुपित हो गये होंगे। यही अड़चन है!
सिद्ध तो वही कहेंगे जैसा है। वेद में सत्य को कहने की चेष्टा की गयी है, खूब चेष्टा की गयी है; मगर सत्य कभी कहा नहीं जा सका है। और जिन्होंने चेष्टा की है, हम उनके अनुगृहीत हैं। उनकी चेष्टा में भी कुछ पग—चिह्न पृथ्वी पर छूट गये हैं। भला संगीत न गाया जा सका हो, लेकिन साज को बिठाने में भी कुछ स्वर तो हमारे कानों तक पहुंच गये हैं—टूटे—फूटे सही, अस्त—व्यस्त सही—मगर कुछ स्वर तो पहुंच गये! यह भी क्या कम है? इन्हीं स्वरों के सहारे हम चलते रहेंगे तो शायद मूलस्रोत तक, उदगम तक भी पहुंच जायेंगे।
मगर याद रहे, कि शास्त्रों से इशारे लेना, शास्त्रों को छाती पर रख कर मत बैठ जाना! शास्त्र मील के पत्थर हैं, जो कहते हैं—और आगे...। जिन पर तीर का निशान बना है, कि बढ़े जाओ; ठीक दिशा में हो, बढ़े जाओ! लेकिन अंततः तो पहुंचना है वहां—
लेषै लिषी न कागद माडी सो पत्री हम बांची।
कठिन है उसे कहना। जीवन में जब भी तुम्हारे कोई अनुभव गहरा होगा, तभी कठिनाई हो जायेगी कहने की। शब्द बने हैं छिछली बातों को कहने के लिए। हा, बाजार में उनका उपयोग है, लेकिन जैसे ही तुम बाजार के जगत से थोड़े हटे कि उपयोग कठिन हो जाता है। तुम्हारा किसी से प्रेम हो गया। बस, शब्द फिर असमर्थ हो जाते हैं। तुमने रात तारों भरा आकाश देखा और सौंदर्य से अभिभूत हो गये। बस, फिर शब्द कहने में असमर्थ हो जाते हैं।
मैं कोई शेर न भूले से कहूंगा तुझ पर
फायदा क्या जो मुकम्मिल तेरी तहसीन न हो
कैसे अल्फाज के सांचे में ढलेगा ये जमाल
सोचता हूं कि तेरे हुस्न की तौहीन न हो

हर मुसब्बर ने तेरा नक्‍श बनाया लेकिन
कोई भी नक्‍श तेरा अक्से—बदन बन न सका
लब— ओ—रुखसार में क्या—क्या न हसी रंग भरे
पर बनाये हुए फूलों से चमन बन न सका

हर सनमसाज ने मरमर से तराशा तुझको
पर ये पिघली हुई रफ्तार कहां से लाता
तेरे पैरों में तो पाजेब पहना दी लेकिन—
तेरी पाजेब की झंकार कहां से लाता

तेरे शाया कोई पैरायए—इजहांर नहीं
सिर्फ विजदान में इक रंग—सा भर सकती है
मैंने सोचा है तो महसूस किया है इतना
तू निगाहों से फकत दिल में उतर सकती है

अगर तुम्हारा किसी से प्रेम हुआ है तो ही मुश्किल हो जाती है! कौन अपनी प्रेयसी की तस्वीर बना पाया? कौन अपनी प्रेयसी की प्रशंसा कर पाया? कौन अपनी प्रेयसी के लिए ठीक—ठीक शब्द चुन पाया? सारे शब्द छोटे पड़ जाते हैं!
मैं कोई शेर न भूले से कहूंगा तुझ पर
नहीं, कोई कविता नहीं कही जा सकती, कोई नग्मा नहीं गाया जा सकता।
फायदा क्या जो मुकम्मिल तेरी तहसीन न हो।
अगर तेरी पूर्णता का बखान न कर सकु तो अर्थ ही क्या है?
फायदा क्या जो मुकम्मिल तेरी तहसीन न हो।
कैसे अल्फाज के सांचे में ढलेगा यह जमाल।
तेरा यह सौंदर्य शब्दों की छोटी—छोटी सीमाओं में कैसे अटेगा, कैसे भरेगा?
सोचता हूं कि तेरे हुस्न की तौहीन न हो।
यह चेष्टा ही ठीक नहीं। सोचता हूं कि यह तो तेरा अपमान हो जायेगा, तेरे सौंदर्य का अपमान हो जायेगा। यह तो साधारण प्रेयसी के लिये हो जाती है बात, तो जिन्होंने परमात्मा को देखा है, उनका तो सोचो कुछ!
हर मुसब्बर ने तेरा नक्‍श बनाया लेकिन
कलाकारों ने तेरे चित्र बनाये हैं।
हर मुसब्बर ने तेरा नक्‍श बनाया लेकिन
कोई भी नक्‍श तेरा अक्से—बदन बन न सका
कोई भी नक्‍शा तेरी वास्तविक छवि को नहीं ला पाया; कुछ चूक ही गया, कुछ चूकता ही रहा। कुछ ऐसा है जो चूक ही जायेगा। क्योंकि कहां एक जिंदा व्यक्ति और कहां एक तस्वीर! तस्वीर तो कागज पर केवल छाया है। कहां एक जिंदा व्यक्ति—बोलता, हंसता, नाचता, गाता—और कहां एक तस्वीर! कितने ही रंग भरो, सब रंग फीके हैं!
हर मुसब्बर ने तेरा नक्‍श बनाया लेकिन
कोई भी नक्‍श तेरा अक्से—बदन बन न सका
लब—ओ—रुखसार में क्या—क्या न हसी रंग भरे
तेरे ओठों में, तेरे कपोलों में कैसे—कैसे न सुंदर रंग भरे हैं!
लब—ओ—रुखसार में क्या—क्या न हसी रंग भरे
पर बनाये हुए फूलों से चमन बन न सका
लाख खरीद लाओ तुम बाजार से कागज के फूल और लटका दो उन्हें वृक्षों में, शायद किन्हीं राहगीरों को धोखा भी हो जाये, मगर तुम तो जानोगे ही कि फूल कागजी हैं। तुम तो जानोगे ही कि फूल असली नहीं हैं। तुम तो जानोगे ही कि इन फूलों से कोई गंध न आयेगी।
लब— ओ—रुखसार में क्या—क्या न हसी रंग भरे
पर बनाये हुए फूलों से चमन बन न सका
हर सनमसाज ने मरमर से तराशा तुझको,
कितने मूर्तिकारों ने संगमरमर में तुझे खोदना चाहा!
हर सनमसाज ने मरमर से तराशा तुझको
पर ये पिघली हुई रफ्तार कहां से लाता?
वह जो तुम्हारी प्रेयसी चलती है, डोलती है, नाचती है—वह पिघली हुई रफ्तार कहा से लाता? पत्थर तो पत्थर है, संगमरमर ही सही; कितना ही प्यारा हो, फिर भी पत्थर तो पत्थर है। इसलिए बुद्ध की मूर्ति बन सकी, क्योंकि बुद्ध चुप बैठे हैं। पत्थर की तरह ही बैठे हैं वृक्ष के नीचे! उनकी वही निजता थी। लेकिन मीरा की मूर्ति कैसे बनाओगे? राधा की कैसे बनाओगे? राधा की मूर्ति में कुछ गलती हो जायेगी! बुद्ध की मूर्ति बन जाये, लेकिन राधा की न बन सकेगी।
यह आकस्मिक नहीं है कि सबसे पहले बुद्ध की मूर्तियां बनीं जमीन पर, तब तक मूर्तिया नहीं बनी थीं। इसलिए उर्दू में तो बुद्ध शब्द का ही रूपांतरण—बुत, मूर्ति का पर्यायवाची हो गया। बुत यानी बुद्ध। मूर्ति और बुद्ध एक ही अर्थ हो गये! बुद्ध की मूर्ति बन सकी, क्योंकि वे ऐसे शांत बैठे हैं वृक्ष के नीचे जैसे पत्थर की मूर्ति हों! मगर राधा को कैसे बनाओगे? कृष्ण को कितना ही बनाओ, बना न पाओगे।
हर सनमसाज ने मरमर से तराशा तुझको
पर ये पिघली हुई रफ्तार कहां से लाता?
तेरे पैरों में तो पाजेब पहना दी लेकिन—
तेरी पाजेब की झंकार कहां से लाता?
पत्थर की मूर्ति के पैर में तुम पाजेब भी पहना दो, मगर पाजेब में झंकार कहां से लाओगे? वे पैर तो चलते नहीं, वे पैर तो नाचते नहीं! पत्थर की मूर्ति के ओंठों पर बांसुरी रख दो, मगर बांसुरी में स्वर कहां से लाओगे?
तेरे शायां कोई पैरायए—इजहांर नहीं।
कोई वक्तव्य तुझे कह सके, ऐसा नहीं है।
तेरे शायां कोई पैरायए—इजहांर नहीं
सिर्फ विजदान में इक रंग—सा भर सकती है
ही, कविता में थोडा—सा रंग आ जाता है तेरी बातें करते हैं तो। पर कोई वक्तव्य तुझे प्रगट नहीं कर पाता।
मैंने सोचा है तो महसूस किया है इतना
तू निगाहों से फकत दिल में उतर सकती है।
प्रेयसी आंखों से हृदय में उतर जाती है; फिर हृदय से उसे वाणी तक लाना असंभव है। और यह तो साधारण प्रेयसी की बात हुई, उस परम प्रिय की क्या बात कहें, कैसे कहें? न उसे कोई कभी लिख सका, न कभी कोई उसकी मूर्ति बना सका और न कभी कोई बना सकेगा।
लेषै लिषी न कागद माडी सो पत्री हम बांची।
सबद बिंदौ रे अवधू सबद बिंदौ थान— मान सब धंधा
आतम मधै प्रमातमां दीषै ज्यों जल मधे चंदा।
इसलिए कहते हैं कि तुम शास्त्रों में न उलझो—अंतर के संगीत में डूबो।
सबद बिंदौ रे अवधू सबद बिंदौ।
यह जो भीतर तुम्हारे शब्द का गुंजार हो रहा है, ओंकार, इसमें डुबकी मारो। यह जो वीणा भीतर बज रही है जीवन की, यह जो हृदय का संगीत है भीतर, इसमें डुबकी मारो!
सबद बिंदौ रे अवधू सबद बिंदौ थान— मोन सब धंधा।
और बाकी सब बकवास छोड़ो—प्रतिष्ठा, मान, सम्मान। क्योंकि तुम अगर प्रतिष्ठा चाहोगे, तो तुम्हें लोगों की अपेक्षाएं पूरी करनी पड़ेगी। तुम अगर सम्मान चाहोगे तो यह मुफ्त नहीं मिलता। यह पारस्परिक समझौता है, व्यवसाय है। अगर किसी को सम्मान चाहिए तो उसे ध्यान रखना पड़ेगा कि सम्मान देने वाले की अपेक्षा क्या है।
एक तेरापंथी जैन मुनि ने मुझे लिखा कि आपकी बातें ठीक लगती हैं। मैं यह सब जाल छोड़ देना चाहता हूं। मगर मैं दस साल का था तब मैं दीक्षित हो गया। मेरी मां मर गयी। मेरे पिता दीक्षित हुए। घर में कोई और था नहीं, तो मुझे भी दीक्षा दे दी गयी। दस साल का था तब से मैं संन्यासी हो गया हूं। न तो पढ़ा हूं न लिखा हूं। अब तो उम्र भी हो गयी कोई पचास साल। चालीस साल तक कोई काम भी नहीं किया है; सेवा ही पायी है, सम्मान ही पाया है। अब मुझे लगता है कि यह सब धोखा है, थोथा है; छोड़ दूं। मगर तब डर लगता है, क्योंकि मेरा सम्मान खो जायेगा, प्रतिष्ठा खो जायेगी। अभी जो मेरे पैर छूते हैं, कल अगर मैं इनके द्वार पर जाकर चौकीदार की भी नौकरी मांगूंगा, तो वह भी ये मुझे न देंगे।
सम्मान मुफ्त तो नहीं मिलता। जिनसे तुम सम्मान लेते हो, उनके बदले में कुछ चुकाना पड़ता है। उनकी अपेक्षाएं पूरी करनी पड़ती हैं। अगर वे कहते हैं मुंहपट्टी बाधों, तो मुंहपट्टी बांधनी पड़ती है। अगर वे कहते हैं ऐसे उठो ऐसे बैठो, यह खाओ यह न खाओ—तो वैसा करना पड़ता है। जरा तुम चूके, कि सम्मान गया!
इसलिए कहते हैं गोरख कि इस झंझट में मत पड़ना। अगर सच में सत्य को जानना हो तो इसी की —संभावना बहुत है कि अपमान मिलेगा तुम्हें, सम्मान नहीं। इस अंधों की दुनिया में आंखवालों को अपमान ही मिलेगा, सम्मान नहीं। थीन—मौन सब धंधा! वे सब धंधे छोड़ दो। एक ही की फिक्र करो— भीतर तुम्हारे जो जीवन— धारा बह रही है, उसमें डुबकी मारो।
आतम मधे प्रमातमां दीषै
और वहीं तुम परमात्मा को पाओगे। न मंदिरों में, न मस्जिदों में, न गिरजों में, न गुरुद्वारों में—स्वयं के भीतर।
ज्यों जल मधे चंदा।
जैसे झील में चांद झलक जाता है, ऐसे ही स्वयं में तुम्हें उसकी झलक मिलेगी।
व्यैत अव्यंत ही उपजै।
चिंता से तो चिंता ही पैदा होती रहती है।
व्यंता सब जग षीण।
चिंता में ही तो सारा जग मरा जा रहा है!
जोगी व्यंता बीसरै तो होड़ अव्यंतहि लीन।
योगी वही है जो चिंता से मुक्त हो जाये। चिंता से मुक्त होना अचिंत्य में लीन होने की प्रक्रिया है। कैसे चिंता से मुक्त होओगे? अगर चिंता से मुक्त होने की चेष्टा की, और चिंता में पड़ जाओगे। पुरानी चिंता तो रही ही रही, एक नयी चिंता और शुरू हो गयी, कि अब चिंता से कैसे मुक्त हों?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं : मन बड़ा अशांत है, शांति चाहिए। अब यह एक नयी अशांति शुरू हुई! मन अशांत था, वह तो था ही; अब शांति चाहिए। और शांत नहीं हो रहा है मन तो और मुश्किल हो गयी। इससे तो जो अशांत हैं और शांति नहीं चाहते हैं, वे ही कम अशांत हैं। कम—से—कम उनकी अशाति इकहरी है।
तो चिंता से मुक्त होने को नयी चिंता मत बना लेना। चिंता से मुक्त होने में तो सिर्फ एक इंगित है चिंता से मुक्त होने की कला है; उस कला का नाम साक्षीभाव है, ध्यान है। कोई चिंता नहीं करनी पड़ती चिंता से मुक्त होने के लिए। वह तो कीचड़ से कीचड़ धोना होगा। और कीचड़ मच जायेगी!
चिंता से मुक्त होने का तो एक ही उपाय है : साक्षी। जो भी भीतर चलता है, विचारों की तरंगें आती—जाती हैं, तुम देखते रहना। तुम पक्षपात न करना। तुम यह भी मत कहना कि यह अच्छा विचार यह बुरा विचार, यह पकड़ लूं यह छोड़ दूं। इसी से चिंता पैदा हो रही है—पकड़ने—छोड़ने से। तुम तो देखते रहना निष्पक्ष। जैसे कोई राह चलते लोगों को देखता है, ऐसे ही चित्त की राह पर चलते विचारों को तुम चुपचाप बैठ कर देखते रहना। अगर तुम एक घड़ी रोज इतना ही कर सको कि सिर्फ बैठ जाओ और देखते रहो...।
शांत होने की चेष्टा मत करना, नहीं तो और अशांत हो जाओगे। चिंता से छूटने की चिंता मत करने लगना। जो भी हो रहा है चित्त में—अशांति, चिंता, उपद्रव, व्यर्थ की बकवास, पागलपन—जों भी हो रहा है, चुपचाप इसे देखना। जैसे तुम दर्पण हो और दर्पण के सामने से जो भी निकल रहा है, उसकी छाया बन रही है। दर्पण को क्या लेना—देना है! कोई छाया बनने से दर्पण बिगड़ता तो नहीं, विकृत तो नहीं होता। कुरूप आदमी दर्पण के सामने खड़ा हो जाये तो दर्पण कुरूप तो नहीं हो जाता? और न सुंदर के खड़े होने से सुंदर हो जाता है। तो क्या फर्क पड़ता है, सुंदर खड़ा हो कि कुरूप खड़ा हो, दर्पण को क्या लेना—देना है? दर्पण अलिप्त भाव से देखता रहता है।
दर्पण की भांति अगर तुम एक घडी रोज बैठने लगो, तो तुम चकित हो जाओगे, बैठते—बैठते एक दिन अचानक एक क्रांति घट जाती है! चिंता विलीन हो जाती है। अचिंत्य में लीन हो जाता है। साधक साक्षी बनते—बनते चिंता से मुक्त हो जाता है, अचिंत्य में लीन हो जाता है। और उस अचिंत्य में लीन होओगे, तो ही पढ़ सकोगे :
लेषै लिषी न कागद माडी सो पत्री हम बांची।
सुणौ हो देवल तजौ जंजाल। अमिय पीवत तब होइबा बाल।
कहते हैं : सुनो! जंजाल छोड़ो—सिद्धातों का, शास्त्रों का, धारणाओं का। क्या ठीक, क्या गलत? क्या शुभ, क्या अशुभ? ये जंजाल छोड़ो!
अमिय पीवत तब होइबा बाल।
साक्षी— भाव में बैठ जाओ, तो बच्चे के जैसे भोले हो जाओ। दर्पण के जैसे निर्मल हो जाओ। उसी निर्मलता का नाम अमृत है! और जिसने उस अमृत को पी लिया, उसने सब जान लिया। सब जानने योग्य जान लिया, पाने योग्य पा लिया!
ब्रह्म मानि सीचत मूल? फूल्या फूल कली फिरि फूल।
और तब उस निर्दोष अवस्था में ऐसी घटना घटती है जैसे गंगा वापिस लौट गयी गंगोत्री में! जैसे फूल फिर कली हो गया! जैसे वृक्ष फिर बीज हो गया! लौट गये अपने मूलस्रोत पर, अपने उदगम पर। उस मूल उदगम पर लौट जाना ही परमात्मा में लौट जाना है। लक्ष्य आगे नहीं है, लक्ष्य तुम्हारे भीतर पड़ा है। मूलस्रोत ही अंतिम गंतव्य है।
अधरा धरे विचारिया धर याही मैं सोई।
धर अधर परचा का तब दुतीया नाहीं कोई।।
अधरा धरे विचारिया..।
शून्य में सब ठहरा हुआ है।
अधरा धरे विचारिया..।
यह पृथ्वी भी अधर में है, शून्य में है, और तुम भी शून्य में हो। सारा अस्तित्व शून्य में है। शून्य ध्यान का दूसरा नाम है।
अधरा धरे विचारिया धर याही मैं सोई।
तुम अब जिस दिन इसी शून्य में फिर प्रवेश कर जाओगे, उसी दिन सब चिंता टूटी, सब तनाव गये, सब संताप मिटा। परमानंद हुआ।
धर अधर परचा हूवा........
और जिस दिन तुम्हारा इस शून्य से परिचय हो जायेगा—
तब दुतीया नाहीं कोई।
फिर दूसरा कोई बचता नहीं। फिर एक ही बचा। उसे चाहे आत्मा कहो चाहे परमात्मा, चाहे मैं कहो चाहे तू मगर एक ही बचा—तत्त्वमसि। उसे फिर कोई भी नाम दो। दो नहीं बचे। बूंद सागर में गिर गयी।
अब चाहे तो यह कहो कि बूंद सागर हो गयी, और चाहे तो यह कहो कि सागर बूंद हो गया, कुछ भेद नहीं पड़ता है।
सुरति गहौ संसय जिनि लागौ पूंजी हांन न होई।
एक तत सूं एत? निपजै टार्या टरै न सोई।।
इतना धन मिल जायेगा कि बांटते रही, बांटते रहो, टारते रहो, टारते रहो, तो भी टार न पाआगे !' सुरति गहो, बस इतना ही खयाल करो—जागो! सुरति गहो, थोड़ा होश जगाओ।
सुरति गहौ संसय जिनि लागौ।
तो जहां अभी संशय चल रहा है वहां सुरति का प्रकाश हो जाये, बोध हो जाये, ध्यान हो जाये।
पूंजी हांन न होई।
फिर तुम पाओगे परम पूंजी, जिसकी कभी कोई हानि नही होती।
एक तत सूं एता निपजै।
और तब उस एक से तुम्हारा मिलन हो गया, जिससे ऐसी संपदा पैदा होती है, ऐसी रसधार बहर्ता है। टार्या टरै न सोई
जिसे तुम बांटते रहो, बांटते रहो, बांट न पाओ! जिसे चुकाने का कोई उपाय नहीं है।
इस जगत की तो सभी कूंइजयां बांटने से बंट जाती हैं। इसलिए उनका कुछ मूल्य नहीं है। मौत आयेगी और सब छिन जायेगा। सब ठाठ पड़ा रह जायेगा। खाली हाथ मौत तुम्हें ले जायेगी। लेकिन एक ऐसी पूंजी भी है जो बांटने से नहीं बंटती, बल्कि बांटने से बढ़ती है। इसीलिए तो जिन्होंने जाना उन्होंने बांटा। जिन्होंने जाना, वे बांटते ही रहे जिंदगी— भर।
बुद्ध बयालीस साल जीये ज्ञान के बाद, बांटते ही रहे, उलीचते ही रहे। कबीर ने कहा : दोनों हाथ उलीचिये यही सज्जन को काम। मिल जाये, तो फिर उलीचना ही पड़ेगा। क्योंकि जितना उलीचोगे, उतने नये स्रोत, नये झरने फूटते आयेंगे। यह तो कुएं जैसी बात है, कुएं से पानी निकालते रहो तो कुआं ताजा रहता है। उसका पानी जीवंत रहता है। कंजूस हो जाओ, कुएं को ढांक कर बंद कर दो, सोचो कि ऐसे रोज निकालते—निकालते पानी चुक गया एक दिन तो मुसीबत होगी; भरा रखो कुएं को; ताला डाल दो। तो सड़ जायेगा मानी। पीने योग्य भी न रह जायेगा, विषाक्त हो जायेगा।
कुएं में और हौज में यही फर्क है। हौज भी ऊपर से लगती है पानी से भरी; मगर धोखा है, क्योंकि हौज में कोई झरना नहीं है। अगर उलीचोगे, चुक जाएगी। कुएं में झरने हैं। यही भेद है। अदृश्य झरने हैं। जो दिखायी नहीं पड़ रहे ऊपर से। उलीचोगे, झरनों से नया जल आता जायेगा। यही पंडित और ज्ञानी का फर्क है। पंडित यानी हौज। ज्ञानी यानी कुआं। पंडित उलिच जा सकता है। उसके पास बंध—बंधाये सिद्धातों का संग्रह है, जानकारी है। ज्ञानी को तुम समाप्त नहीं कर सकते। उसके पास नये झरने हैं! सागर से जुड़ा है वह!
निहिचा हवै तो नेत निपजै भया भरोसा नेरा।
परचा हबै ततषिन निपजै नहीतर सहज नवेरा
फिर चाहिए क्या? इस शून्य में उतरने के लिए क्या चाहिए? क्या आधार है इस शून्य में उतरने का? श्रद्धा। निहिचा, निश्चय, दृढ़ता, साहस—ये सब श्रद्धा के ही अलग—अलग रंग और रूप हैं। इस शून्य में उतरने के लिए श्रद्धा के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। संदेह किया तो डर जाओगे। डर जाओगे तो शून्य से भाग खड़े होओगे। संदेह करने वाला ध्यान में नहीं उतर सकता। संदेह करने वाला तो विचार में ही उलझा रहेगा। संदेह तो विचार का जन्मदाता है। संदेह से विचार पैदा होते हैं। करो संदेह और तत्‍क्षण विचारों की झड़ी लग जाती है। एक संदेह करो, हजार विचार आ जाते हैं।
तुम्हारे पास कोई आ कर बैठा, संदेह करो कहीं चोर न हो! बस इतना ही संदेह काफी है, फिर विचारों की झड़ी आयी। फिर और गौर से देखो, दिखता तो चोर ही मालूम पड़ता है। चेहरे से भी लगता है। आंख भी शरारती है। बैठा भी इस ढंग से है कि जेब पर हाथ मारेगा। छुरा—बुरा न लिये हो! अब तुम बढ़ने लगे, सोचने लगे, चिंतित होने लगे। जरा सा संदेह... और विचारों का सिलसिला शुरू होता है।
जहां श्रद्धा होती है, वहां विचार अपने—आप शांत हो जाते हैं। अगर तुम्हारी किसी पर भी श्रद्धा है तो उसके पास जा कर विचार शांत हो जायेंगे। उसके पास गये कि विचार बंद हुए। इसी श्रद्धा में बैठने का नाम सत्संग है। किसी ऐसे व्यक्ति के पास बैठना, जिस पर तुम्हें श्रद्धा हो। वहां विचार छूट जाते हैं, अपने से छूट जाते हैं। विचार की जरूरत ही न रही। विचार तो संदेह के लिए ही आवश्यक हैं। सुरक्षा है विचार में। संदेह पैदा होता है, सुरक्षा का जाल हम खड़ा कर लेते हैं विचार के द्वारा। जब श्रद्धा ही है तो विचार की कोई जरूरत न रही।
दो प्रेमी पास बैठते हैं, विचार बंद हो जाते हैं। दो मित्र साथ बैठते हैं, विचार क्षीण हो जाते हैं। दो दुश्मनों को पास बिठा दो, फिर कितने विचार चलने लगते हैं जिसका हिसाब नहीं!
इसीलिए हम जल्दी परिचय बनाते हैं। ट्रेन में तुम बैठे, पास में जो बैठा है उससे तुम जल्दी पूछते हो : आप कहां जा रहे हैं? कहां से आ रहे हैं? नाम क्या है? पता क्या? क्या काम करते हैं?' क्यों पूछते हो, इतनी जल्दबाजी क्या है? थोड़ा—सा निश्चय हो जाये—कौन है, कहां से है, तो थोड़ी निश्चितता हो, नहीं तो अड़चन होगी।
अगर अजनबी बना रहा, तो संदेह उठा रहेगा मन में कि पता नहीं, अजनबी के पास बैठे हैं! पागल हो क्या पता, एकदम उछल कर गर्दन पकड ले! एकांत का मौका है, रात का वक्त है, ट्रेन का सफर है, पता नहीं कौन आदमी है! हम सो जायें और यह पेटी लेकर उतर जाये। या हम तो सोये और यह कुछ—का—कुछ कर दे। पूछते हो : भाई कहां से आते हो? नाम पूछ लेते हो, भरोसा बढ़ने लगता है। हालांकि, कुछ खास नहीं पता चल रहा है। उसने भी कह दिया कि मेरा नाम रामदास है तो इससे क्या होता है? नाम रामदास हो और सेवा रावण की करता हो, कुछ अड़चन नहीं है। मगर फिर भी रामदास है तो थोड़ा—सा निश्चय हुआ कि चलो भला ही आदमी होगा, रामदास है। फिर भरोसा आया कि हिंदू है। हम भी हिंदू यह भी हिंदू चलो ठीक है। कह दिया कि ब्राह्मण हूं और भरोसा आ गया, कि भला आदमी है, ब्राह्मण है, इससे ज्यादा खतरे की संभावना नहीं है। थोड़ी और बातचीत की। थोड़ा परिचय और गहन हो गया। थोड़ा—सा निश्चय हो गया। अब अपरिचय न रहा। इसका कोई पक्का नहीं कि इसने रामदास झूठ ही बताया हो, इसका नाम कुछ और ही हो। ब्राह्मण बता रहा हो, पता नहीं हो ब्राह्मण न हो! कहता है फलां जगह से हूं कहीं और से हो! नहीं; मगर निश्चय कर लिया तो अब इतना भरोसा है कि तुम कहते हो मेरा सामान देखना।
और एक बड़े मजे की बात घटती है कि हर रोज हर स्टेशन पर सारी दुनिया में सैकड़ों लोग अपना सामान अजनबियों के पास छोड्कर जाते हैं, लेकिन कभी उसकी चोरी नहीं होती। क्यों? क्योंकि जब तुमने भरोसा किया तो दूसरे ने भी भरोसा किया। भरोसा भरोसे को जन्माता है। तुमने जब श्रद्धा की तो दूसरे का तुमने इतना सम्मान किया कि अब तुम्हें धोखा दे, इतना दीन कोई भी नहीं, इतना हीन कोई भी नहीं। तुम संदेह करते तो शायद तुम्हें मजा चखा देता। क्योंकि तब तुम उसको चुनौती दे देते, कि अच्छा, तो तुमने समझा क्या है? तुम अगर उससे न कह कर पास में खड़े पुलिसवाले से कह गये होते, कि भई जरा देखना, यह मेरा सामान रखा है और यह आदमी बैठा है, इस पर मुझे शक है। तो शायद निश्चित ही वह आदमी कुछ—न—कुछ शरारत करता। करना ही पड़ता, आखिर अपनी आत्मरक्षा उसको भी करनी है। अपने सामने अपना आत्मगौरव उसको भी बचाना है। वह तुम्हें पाठ पढ़ाता। लेकिन तुम उसको ही कह गये। अब बहुत मुश्किल है। तुम अगर चोर से भी कह जाओ कि जरा मेरा सामान देखना, तो कोई चोर भी इतना ज्यादा गिरा हुआ नहीं है कि तुम्हें धोखा दे दे।
जिस पर तुमने भरोसा किया, उसमें तुम भरोसे को जन्माते हो। और इस तरह भरोसा भरोसे को सहारा देता है। शिष्य जब गुरु पर भरोसा कर लेता है, गुरु जब शिष्य पर भरोसा कर लेता है, भरोसे का आदान—प्रदान शुरू होता है। श्रद्धा सघन होने लगती है, गहन होने लगती है। एक ऐसी घड़ी आती है, सारे संदेह गिर जाते हैं, श्रद्धा ही रह जाती है। उसी श्रद्धा में उसे पाया जाता है, बहुत ही पास पाया जाता है। जरा भी दूर नहीं है वह, सिर्फ श्रद्धा का सेतु नहीं है।
निहिचा हवै तो नेत निपजै।
पास ही निकल आता है वह, जिसको हम खोजते फिरते थे जन्मों—जन्मों से। नेत—पास ही निपज आता है।
भया भरोसा नेत।
जैसे ही भरोसा हुआ वैसे ही वह पास है।
भया भरोसा नेरा।
फिर दूर नहीं है। उतना ही दूर है जितना संदेह है।
ऐसा समझ लो, तुम्हारी संदेह की मात्रा ही तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच की दूरी है। जितना संदेह कम होगा उतनी दूरी कम हो जायेगी। संदेह अर्थात दूरी। और जब बिलकुल संदेह न रह जायेगा, सब दूरी समाप्त हो गयी—नेत, पास ही, निकट ही, निकट से भी निकट। मुहम्मद ' ने कहा है : वह तुम्हारे इतने निकट है, जितना तुम्हारे हृदय की धड़कन भी तुम्हारे निकट नहीं है।
परचा हवै ततषिन निपजै।
और श्रद्धा हो तो इसी क्षण घटना घटेगी। तत्‍क्षण! ऐसा नहीं है कि कल घटेगी। कल की दूरी की भी कोई जरूरत नहीं है। कि परसों घटेगी, कि अगले जन्म में घटेगी। कि जनम—जनम चेष्टा करोगे तब घटेगी। यह तो उन्होंने तुम से कहा, जिनको पता नहीं है। यह तो उन्होंने तुमसे कहा है जिन्होंने तुम्हें धोखा दिया है। यह तो उन्होंने तुमसे कहा है जिन्होंने—तुम्हें सांत्वना दी है, सत्य नहीं दिया है।
सत्य तो अभी घट सकता है, यहीं घट सकता है, इसी क्षण! क्योंकि परमात्मा जितना इस क्षण है, इससे ज्यादा कभी नहीं होगा और न कभी कम होगा। इतना का इतना है। और जितने दूर अभी है, इतने ही दूर सदा है, और इतने ही दूर सदा होगा।
परमात्मा ने तुम्हें घेरा हुआ है। हम तो मछलियां हैं उसके सागर में! उसी में जीते हैं, उसी से जन्मे हैं, उसी में विसर्जित हो जाना है। दूरी कहां है? वही तो हमारी श्वासों की श्वास है!
परचा हवै ततषिन निपजै।
श्रद्धा हो जाये तो परिचय हो जाये। परिचय हो जाये, तो इसी क्षण क्रांति घट जाये!
नहीतर सहज नवेरा।
और अगर ऐसा न किया तो फिर निपटारा आसान नहीं है। अगर तुमने सोचा कल होगा... कल अभी आता है? अभी या कभी नहीं। तुमने कहा अगले जन्म में होगा। तुम्हें पिछले जन्म की याद है? तुमने पिछले जन्म में भी यही कहा होगा कि अगले जन्म में होगा। यह रहा अगला जन्म, अभी नहीं हो रहा है। और ऐसे तुमने कितने जन्म गंवाए! अगले जन्म में भी तुम्हें याद नहीं रहेगी फिर, खयाल रखना। फिर तुम कहोगे, अगले जन्म में होगा। ऐसे तो कभी नहीं होगा।
यह तरकीब है। यह जालसाजी है। यह मन की बेईमानी है। यह टालने का उपाय है। तुम्हें जो करना होता है वह तुम अभी कर लेते हो। और जो तुम्हें नहीं करना होता है, तुम कहते हो कल करेंगे। जैसे किसी ने गाली दी तो तुम यह नहीं कहते कि क्रोध कल करेंगे। अभी, इसी वक्त, नगद! क्रोध नगद और प्रेम आ जाये तो उधार! प्रार्थना जन्मे तो उधार! कहते हो प्रार्थना कल करेंगे?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं. संन्यास लेना तो है, लेकिन अभी नहीं। लेंगे, एक दिन जरूर लेंगे। वृद्ध हो जायें, फिर लेंगे।
एक के सज्जन मेरे पास आये। उम्र होगी कोई पचहत्तर वर्ष। उनके लड़के ने संन्यास ले लिया। बडे नाराज थे। कहा कि आपने यह क्या उपद्रव खड़ा कर दिया! अभी मेरा लड़का जवान है, अभी से इसको आपने संन्यास दे दिया। शास्त्र तो कहते हैं कि संन्यास वृद्धावस्था में लेना चाहिए।
तो मैंने कहा कि चलो ठीक, सौदा निपटाये लेते हैं, आप संन्यास ले लो, आपके लड़के को हम छोडे देते हैं। आप तो के हो चुके हो! यह वे सोचकर न आये थे कि शास्त्र अपने ही गले में पड जायेगा! वे लड़के की तो भूल ही गये। कहा कि मैं फिर आ कर सोच कर आपको बताऊंगा। फिर आये ही नहीं। अब मैं राह ही देख रहा हूं उनकी।
लोग टालते रहते हैं—वृद्धावस्था में लेंगे। फिर वृद्धावस्था में सोचते हैं, मरते वक्त नाम ले लेंगे। अजामिल हुआ न, मरते वक्त पुकारा—नारायण! नारायण उनके बेटे का नाम था। वह कोई ऊपर के नारायण को बुला नहीं रहे थे। मगर ऊपर के नाराधण धोखे में आ गये और उन्होंने समझा कि मुझे बुलाया है, गदगद हो गये। एकदम अजामिल को छाती लगा लिया। ले गये वैकुण्ठ।
जिन्होंने ये कहानियां गढ़ी हैं, बड़े बेईमान लोग रहे होंगे, बड़े चालबाज रहे होंगे। ये परमात्मा को भी धोखा देने का इंतजाम रखते हैं। तब तो हद्द हो गयी, अगर परमात्मा भी इस तरह धोखा खा जाता है कि तुम अपने बेटे को बुला रहे... और अजामिल जिंदगीभर का पापी, पक्का समझो कि बेटे को भी बुला रहा होगा कुछ जालसाजी के लिए। बेटे को बुला रहा होगा बता जाने के लिए कि चोरी का धन कहां गड़ा है, या मेरे मरने के बाद तू क्या—क्या करना।
क्योंकि मैंने सुना है, एक आदमी मर रहा था, उसने अपने चारों बेटे बुलाये और कहा कि अब मैं मर रहा हूं मेरी आखिरी इच्छा, बेटे, पूरी कर दो। तुमने कभी मेरी इच्छा पूरी नहीं की, अब पूरी कर दो। बड़े तीन तो बिलकुल चुपचाप खड़े रहे। बोले ही नहीं, तटस्थ। छोटा जरा अभी— अभी विश्वविसूतालय से आया था, वह एकदम पास आ गया, उसने कहा : आप बोलिये। बड़े भाइयों ने उसे रोकना भी चाहा, लेकिन वह रुका नहीं, जा कर पिता के पास पहुंच गया। पिता ने उसके कान में कहा कि देख, ये बड़े तो सब नालायक हैं। इन्होंने तो मुझे कभी सुख न दिया। एक तुझ पर मेरा भरोसा है। इत्ता— भर कर देना बेटा, मैं मर जाऊं तो मैं तो मर ही गया, मेरे हाथ—पैर काट—काट कर पड़ोसियों के घरों में फेंक देना और पुलिस में रिपोर्ट करवा देना। बस, मेरी आत्मा जब जा रही होगी वैकुण्ठ की तरफ और ये सब जा रहे होंगे हवालात की तरफ, चित्त गदगद हो जायेगा। इतना तू कर देना। बस इतना देख कर चला जाऊं इस दुनिया से कि चले जा रहे हैं बंधे... बस, मेरी आत्मा को शाति मिल जायेगी। यह तेरा कर्तव्य है। और तू ऋण से मुक्त हो जायेगा, पितृ—ऋण से मुक्त हो जायेगा।
वह अजामिल ने भी पता नहीं किसलिए बुलाया था! कुछ बुलाया होगा इसी तरह की.. जिंदगी भर अजामिल की जो कथा रही.. मृत्यु कोई आकस्मिक थोड़े ही होती है। जीवन— भर तुम जीये हो, उसी का सार—निचोड़ होती है। मगर बेईमानों ने ये कहानियां गढ़ी। उन्होंने, जो तुम्हें सांत्वना देना चाहते हैं, वे कहते हैं : घबड़ाओ मत, मरते वक्त नाम ले लेना। वह तो उन्होंने इतना भी इंतजाम कर दिया कि तुम न ले पाओ, कोई फिक्र नहीं; पंडित—पुरोहित को बुला कर तुम्हारे कान में नाम दिलवा देंगे। तुम्हारी जबान भी लड़खड़ा गयी हो तो कोई फिक्र नहीं।
आदमी मर रहा है, उसे होश नहीं है, उसके कान में मंत्र फूंके जा रहे हैं! जिसकी जिंदगी में कभी कोई ईश्वर—स्मरण नहीं था, उसके मुंह में गंगाजल डाला जा रहा है! यह तुम कर क्या रहे हो? ये धोखे के आयोजन...। मगर सारे लोग इनमें उलझे हैं। इनमें सुविधा है, टाल दिया कल पर। कौन झंझट ले! नहीं तो घटना अभी घटती है।
परचा हवै ततषिन निपजै नहीतर सहज नवेरा।
नहीं तो बड़ी कठिन है बात, नबेर न पाओगे, सुलझा न पाओगे।
अवधू सहजै गैग सहजै दैणा सहजै प्रीति ल्यौ लाई।
सहजै सहजै चलेगा ३ अवधू तो बासण करेगा समाई
तुम्हारे बर्तन में सागर भर सकता है। तो बागा करेगा समाई
अनंत भर सकता है तुम में। तुम अनंत हो, लेकिन सहज हो जाओ।
अवधू सहजै लैणा सहजै दैणा।
तुम्हारा सब लेन—देन, सब व्यवहार, सब संबंध सहज हो जाये। जैसे हो, वैसे ही प्रगट करो। नग्नता में, अपनी परिपूर्ण नग्नता में जीयो। छिपाओ मत। आड़े मत खड़ी करो। धोखे मत दो। क्योंकि परमात्मा को कैसे धोखे दे पाओगे?
सहजै गैग सहजै दैणा।
सब जीवन का लेन—देन, व्यवहार सहज करो।
सहजै प्रीति ल्यौ लाई।
इसी सहज में से धीरे— धीरे प्रीति उमगती है। जो सहज है वह अपने— आप प्रीतिपूर्ण हो जाता है। असहज कभी प्रीतिपूर्ण नहीं होता। कपटी कभी प्रेम नहीं कर सकता। चालबाज, गणित बिठानेवाला, होशियार, कभी प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम तो सहजता से जन्मता है।
इसलिए दुनिया में जितनी शिक्षा बढ़ती है, प्रेम कम होता चला जाता है। यह बड़ी हैरानी की बात है—शिक्षा बढ़े और प्रेम कम हो जाये! होना तो उल्टा था। दुनिया सभ्य होती है और प्रेम विदा होता जाता है। गाव का ग्रामीण शायद प्रेम से थोड़ा—बहुत अभी परिचित है, लेकिन शहर का शहरी तो बिलकुल भूल गया है प्रेम! जितना चालबाज हो जाता है, जितना होशियार हो जाता है, जितना गणित बिठाने लगता है, हर चीज में हिसाब—किताब लगाने लगता है, हर चीज में धंधा करने लगता है, कि देना कम और लेना ज्यादा। धंधे का मतलब होता है देना कम, लेना ज्यादा। जितना कम—सें—कम दिया जा सके उतना देना, और जितना ज्यादा—से—ज्यादा लिया जा सके उतना लेना। अगर बिना दिये लिया जा सके, बस तो यही सबसे ज्यादा कुशल आदमी का लक्षण है।
तो जो सबसे ज्यादा कुशल हैं, होशियार हैं, वे ऐसे धंधे करते हैं जिसमें देने की जरूरत ही नहीं है, सिर्फ लेना ही लेना है। और तब उनके जीवन में प्रेम की कोई संभावना नहीं रह जायेगी। और जहां प्रेम नहीं वहां परमात्मा नहीं।
अवधू सहजै गैग सहजै दैणा सहजै प्रीति ल्यौ लाई।
सहजै सहजै चलेगा रे अवधू.. ।
और अगर ऐसे सहज—सहज चलते रहे,
तो बासण करेगा समाई।
तो तेरे पात्र में परमात्मा बरस उठेगा!
प्रेम जगे, तो इस जगत में हर जगह उसी के सौंदर्य की झलक मिले!

आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
आज क्यों चांद—सितारों पै नजर जायेगी
क्या रखा है जो बहारों पै नजर जायेगी
तू कि खुद माहवशाने—चमन अन्दाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है

एक तुगियाने—तरब है मेरे काशाने में
एक सनम आ ही गया दिल के सनमखाने में
शहर में एक कयामत तेरे इकदाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है

दिल की धड़कन को इशारे की जरूरत न रही
किसी रंगीन नजारे की जरूरत न रही
रंग नजरों में तेरे आरिजे—गुलफाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है

तेरी पलकों के झपकने की अदा काफी है
तेरी झुकती हुई आंखों का नशा काफी है
अब न शीशे से गरज है न मै—ए—जाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है

दिल में उतरी चली जाती हैं निगाहें तेरी
मुझको हल्के में लिये लेती हैं बाहें तेरी
इक उजाला—सा मेरे गिर्द सरे—शाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है

एक बार उस प्यारे की थोड़ी—सी झलक मिल जाए, उस प्रियतमा की थोड़ी—सी झलक मिल जाए; उससे संबंध जुड़ जाए तो फिउर सारा जगत एक प्रेम का पारावार हो जाता है।
एक तुगियाने—तरब है मेरे काशाने में
घर में आनंद की बाढ़ आ जाती है।
एक तुगियाने—तरब है मेरे काशाने में
एक सनम आ ही गया दिल के सनमखाने में
बस! दिल के मंदिर में वह प्यारा आ गया। और उसका आना कठिन नहीं है, उसका आना सरल है; अति सरल है। अगर वह नहीं मिल पा रहा है तो इसलिए कि तुम कठिन हो, तुम जटिल हो, तुम उलझे हुए हो।
अवधू सहजै लैणा सहजै दैणा, सहजै प्रीति ल्यौ लाई।
सहजै सहजै चलेगा रे अवधू तो बासण करेगा समाई।।
पात्र तुम्हारे पास है, परमात्मा बरसने को राजी है, लेकिन तुम पात्र को उल्टा रखे बैठे हो, बरसे भी तो भी तुम न भरोगे। पात्र को सीधा करो, सहज करो। ऐसे जीने लगो कि चालबाजी न रहे। चालबाजिया कर—कर भी क्या पाओगे? बड़े—बड़े चालबाज क्या पा सके? कहां है सिकंदर? और कहां है हिटलर? और कहां है नादिरशाह? और कहा है तैमूरलंग? बड़े—बड़े चालबाज क्या पा सके? जरा मनुष्य का इतिहास तो उठा कर देखो, क्या सारी चालबाजियों की हार स्पष्ट लिखी नहीं पड़ी है पृष्ठ—पृष्ठ पर? सारी चालबाजिया व्यर्थ हो गयीं! तुम भी क्या चालबाजिया कर पाओगे? चालबाजियों से क्या पा सकोगे? छोड़ो चालबाजिया, सहज हो जाओ।
और तुम्हारी सहजता से ही प्रीति की सुवास उठेगी। और वही सुवास उसके मंदिर में उठी धूप, उसके मंदिर में जला दीप है।
अवधू सहजै गैग सहजै दैणा सहजै प्रीति ल्यौ लाई।
सहजै सहजै चलेगा  अवधू तो बासण करेगा समाई।।

आज इतना ही।



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