उमड़ कर आ गए बादल—प्रवचन—अठारहवां
दिनांक:
18 नवंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
1—मैं
बचपन से ही
धर्मों से
घृणा करता था,
फिर भी कुछ
खोजने की
अचेतन
आकांक्षा दिल
में थी। अस्तु,
कई
तीर्थस्थलों
में भटका, किंतु
सब असफल रहा।
अचानक एक दिन
आपकी किताब पढ़कर
आपका दीवाना
हो गया और फिर
संन्यासी भी।
अब मैं बुढ़ापे
में भी अपने
को युवा अनुभव
करता हूं रोम—रोम
आनंदित है।
जिसकी खोज थी
वह मिल रहा है,
लेकिन ऊपरी
शरीर बिलकुल
मर—सा गया है।
प्रभु, यह
सब क्या है?
2—आप
और श्री
कृष्णमूर्ति
जीवन में
आदर्शों के
बहुत विरोध
में मालूम
होते हैं। यह
सच भी है कि
आदर्शों के
कारण जीवन में
बहुत पाखंड
पैदा हो जाता
है। लेकिन यदि
दूसरे छोर से
इस पहलू पर
विचार किया
जाये तो यह
खतरा खड़ा होता
है कि आदर्शों
की चुनौती के
बिना जीवन में
विकास असंभव
हो जायेगा।
मनुष्य और पशु
में भेद नहीं
रहेगा। तो
क्या आदर्शों
के चुनाव में
भूल है?
क्या
इस पर कुछ
कहने की
अनुकंपा
करेंगे?
3—ऐसा
कौन—सा जादू
है जो मुझे
यहां खींच
लाया है?
घर पर या
बाजार में
जहां भी रहता
हूं आपकी याद आती
रहती है।
ध्यान में भी
आपकी याद आती
है तो आंसू
बहने लगते
हैं। न कोई
मांग है और न
कुछ...। मैं
क्या करूं?
पहला
प्रश्न:
मैं
बचपन से ही
धर्मों से
घृणा करता था
फिर भी कुछ
खोजने की
अचेतन
आकांक्षा दिल
में थी। अस्तु
कई
तीर्थस्थलों
में भटका
किंतु सब असफल
रहा। अचानक एक
दिन आपकी
किताब पढ़कर
आपका दीवाना हो
गया और फिर
संन्यासी भी।
अब मैं बुढ़ापे
में भी अपने
को युवा अनुभव
करता हूं रोम—
रोम आनंदित है।
जिसकी खोज थी
वह मिल रहा है
लेकिन ऊपरी
शरीर बिलकुल
मर— सा गया है।
प्रभु यह सब
क्या है?
भोले
बाबा! नास्तिक
के लिए ज्यादा
संभावना है परमात्मा
को पाने की, आस्तिक
की बजाय।
क्योंकि
आस्तिक तो झूठ
से ही शुरू कर
रहा है। ईश्वर
का पता नहीं
है और ईश्वर
को मान लिया, यही तो
बेईमानी हो
गयी। और जब
मान ही लिया
तो अब खोज
क्या खाक होगी?
खोज का तो
अर्थ होता है :
अभी पता नहीं,
अभी खोजना
है। जब मान ही
लिया, झूठा
ही मान लिया, तो खोज का तो
अंत हो गया।
यह तो खोज का
गर्भपात हो
गया।
आस्तिक
झूठ से शुरू
कर रहा है।
इसलिए इतने
आस्तिक हैं
दुनिया में, लेकिन
धार्मिक कहा?
यह असली
आस्तिकता
नहीं है। जो
विश्वास से
पैदा होती है
वह आस्तिकता
असली नहीं है;
जो अनुभव से
आती है वही
आस्तिकता
असली है।
मगर
अनुभव के लिये
पहली शर्त है
कि जब तक जान न लो
तब तक मानना
मत। और जानना
महंगा सौदा है, मानना
सस्ता। मानने
में कुछ लगता
ही नहीं। मानना
तो उधार है।
परिवार कहता
है, समाज
कहता है, सभ्यता
कहती है—मान
लेते हो। न तो
सोचते, न
विचारते, न
ध्यान करते।
मानने में
तुम्हें कुछ
गंवाना पड़ता
ही नहीं।
हल्दी लगे न
फिटकरी, रंग
चोखा हो जाये!
कुछ लगता ही
नहीं और मुफ्त
बन गये
आस्तिक!
अहंकार पर एक
आभूषण चढ़ गया
और आस्तिकता
का!
नास्तिक
थे,
धर्मों से
घृणा थी, इसीलिए
मेरे पास आ
सके। धर्मों
से घृणा उसी
को होती है, जिसे असली
धर्म की तलाश
होती है। जिसे
असली धर्म की
तलाश है वह
मंदिर—मस्जिदों
से राजी न हो
सकेगा।
मंदिर—मस्जिद
उसे तृप्ति ही
न दे सकेंगे।
पंडित—पुरोहित
उसके मन को न
भायेंगे।
जिसे सच में
प्यास लगी है,
वह सरोवर की
तलाश करेगा।
पानी की
तस्वीरों से कैसे
उसकी तृप्ति
होगी? और
शास्त्रों
में सिवाय
परमात्मा के
सिद्धात के और
तो कुछ भी
नहीं है।
परमात्मा की
तस्वीरें हैं!
और पंडितों—पुरोहितों
के पास शब्दों
के सिवाय और
कुछ भी नहीं
है, निज का
कोई अनुभव
नहीं है।
अच्छा
था कि तुम
धर्मों से
घृणा कर सके।
वह बगावत की
शुरुआत थी। और
जो बगावती है, वही
एक दिन
धार्मिक हो
पाता है। जो
सच्चा नास्तिक
है, वह एक दिन
सच्चा आस्तिक
हो पाता है।
नास्तिक का
अर्थ ही यह
होता है कि
कैसे मान लूं
अभी मैंने देखा
नहीं, मैंने
जाना नहीं? कैसे मान
लूं? झूठ
कैसे मान लूं?
नास्तिकता
में एक
ईमानदारी है, एक
प्रामाणिकता
है। और उतनी
प्रामाणिकता
तो चाहिए ही।
जो 'नहीं'
भी
हृदयपूर्वक
नहीं कह सका, वह 'ही' कैसे
हृदयपूर्वक
कहेगा? जिसकी
'नहीं' भी
नहीं निकली, उसकी 'ही'
कैसे
जन्मेगी? 'नहीं'
ही जब
प्राणवान
होती है, तो
एक दिन 'ही'
भी
प्राणवान
होती है।
जिन्होंने
संदेह किया है
भरपूर, वे
ही एक दिन
श्रद्धा को
उपलब्ध होते
हैं।
इससे
तुम्हें बडा
विस्मय होगा, क्योंकि
तुम्हें तो
यही समझाया
गया है : संदेह
छोड़ो, श्रद्धा
करो। गलत बात
बताई गयी है।
संदेह छोड़ दोगे,
तो तुम जो
श्रद्धा
करोगे
श्रद्धा नहीं
होगी, लचर
नपुंसक
विश्वास
होगा। संदेह
भरपूर करो। जितना
कर सको, उतना
करो। आखिरी दम
तक करो। जब तक
कर सको तब तक करो।
जब करना ही
असंभव हो
जाये। संदेह
अपने से ही गिर
जाये, कर—करके
गिर जाये; सम्हालने
का कोई उपाय न
रह जाये—संदेह
जब ऐसे मरता
है, अपनी
अति पर पहुंच
कर, तो
पीछे जो शेष
रह जाता है
भाव, उसका
नाम श्रद्धा
है।
श्रद्धा
संदेह के
विपरीत नहीं
है। श्रद्धा संदेह
का अभाव है।
और श्रद्धा तक
वे ही पहुंचते
हैं,
जो संदेह की
यात्रा करते
हैं। संदेह का
मतलब है कि
अपना सिर पूरा
लगा दूंगा
जानने में। और
जहां—जहां
मुझे लगेगा
ठीक नहीं है, वहां—वहां
कहूंगा ठीक
नहीं है। इसी
को तो उपनिषदों
ने नेति—नेति
की प्रक्रिया
कहा है। जांचना,
परखना, कहना—यह
भी नहीं, यह
भी नहीं। करते
जाना निषेध, करते जाना
इंकार—उस क्षण
तक जब तक कि वह
घड़ी न आ जाये, जहां पूरे
प्राण ही, तुम
न भी कहना
चाहो, तो
भी तुम्हें
कहना पड़े कि
है, जहां
तुम्हारी
आंखें ही गवाह
बन जायें।
जहां तुम्हारी
आत्मा साक्षी
हो। उस घड़ी तक
आने के लिए
बहुत द्वारों
को इंकार करना
होगा। असली
द्वार तक आने
के लिए बहुत
द्वार छोड़
देने होंगे।
बड़ा
विचारक, वैज्ञानिक,
एडीसन एक
प्रयोग कर रहा
था। उसके
संगी—साथी, उसके
विसूतार्थी
थक चुके थे।
तीन साल से
प्रयोग चलता
था। कोई
परिणाम हाथ
आता नहीं था।
सात सौ बार
प्रयोग किया
गया था और
असफल हो गये
थे। मगर एडीसन
भी एक जिद्दी
आदमी था! ऐसे
ही जिद्दी
पहुंच पाते हैं
सत्य तक, ऐसे
ही हठी! रोज
सुबह आ जाता
था... फिर
प्रयोग शुरू..।
जब तीन साल
बीत गये और
सात सौ बार
प्रयोग असफल
हो गया, तो
सारे
संगी—साथियों
ने कहा कि अब
हम पागल हो जायेंगे।
अब हम सब को
मिल कर
प्रार्थना
करनी चाहिए।
सब
ने मिलकर
एडीसन को कहा
कि आप तो रोज
सुबह आ जाते
हैं फिर
उत्साह से भरे, फिर
प्रयोग
शुरू..। तीन
साल खराब हो
गये, सात
सौ बार असफल
हो गये। अब कब
तक.. क्या जीवन—
भर यही करते
रहेंगे? कुछ
और करें।
इसमें सफलता
मिलने वाली
नहीं है।
एडीसन
तो ऐसे चौंका, जैसे
किसी ने बड़ी
बेबूझ बात
कही! उसने कहा.
तुम कहते क्या
हो? हम सात
सौ बार असफल
नहीं हुए हैं,
हम सफलता के
करीब पहुंच
रहे हैं! सात
सौ प्रयोग
असफल हो गये।
समझो अगर
हजारवें
प्रयोग पर सफलता
मिलनी है, तो
अब तीन सौ ही
बचे हैं करने
को। हम
रोज—रोज करीब
आ रहे हैं।
जितनी—जितनी बातें
गलत हो गयीं, उतने हम
सत्य के करीब
आने लगे। एक
दिन तो ऐसी घड़ी
आयेगी कि सब
गलत बातें गलत
हो जायेंगी, तब जो शेष रह
जायेगा वही
सत्य है।
यही
नेति—नेति की
प्रक्रिया
है। यही निषेध
का उपाय है।
असार को असार
की तरह जानते
जाओ,
एक दिन सार
ही बच रहेगा।
मत मान लेना
जल्दी से कि
परमात्मा है।
जितना जल्दी
मान लोगे, उतनी
ही दो कौड़ी की
तुम्हारी
श्रद्धा होगी!
उसमें आग भी
नहीं होगी; तुम्हें
जलायेगी भी
नहीं, तुम्हें
निखारेगी भी
नहीं। उसमें
जल भी नहीं होगा।
तुम्हारी
तृप्ति भी
नहीं होगी। और
उसमें अमृत
कहां है! इतना
मुफ्त अमृत
नहीं मिलता, इतना उधार
नहीं मिलता।
मगर
लोगों को तो
सोच—विचार ही
खो गया है।
लोग तो कुछ भी
मान लेते हैं।
लोग अफवाहें
मान लेते हैं।
दो—चार दिन
पहले जब मुझे
खबर आयी कि
मस्जिदों में
मेरे खिलाफ
वक्तव्य दिये
जा रहे हैं, भाषण
हो रहे हैं।
और जब मेरे
पास भाषणों की
कापी आयी, तब
तो मैं चकित
हुआ देख कर!
मैं यहां
मौजूद हूं।
जिन्होंने
भाषण दिये, वे आ सकते थे
यहां; वे
पूछ तो लेते
कम—से—कम कि
बात क्या है? पहले तो
मेरी समझ में
ही नहीं आया
कि किस बात का
विरोध किया जा
रहा है? फिर
बहुत खोजबीन
करने पर पता
चला कि मैंने
महमूद गजनवी
के संबंध में
वक्तव्य दिया
है और मुसलमान
समझ रहे हैं, या समझाया
जा रहा है
उन्हें, कि
मैंने हजरत
मुहम्मद के
विरोध में
वक्तव्य दिया
है। महमूद
गजनवी—और हजरत
मुहम्मद! मगर
कोई भला मानस
यहां तक आ न
सका! आश्रम आ
कर पूछ जाता
कि मैंने
वक्तव्य दिया
भी है? लेकिन
व्याख्यान हो
गये—बड़े
व्याख्यान! उन
व्याख्यानों
को पढ्ने में
मुझे बड़ा मजा
आया—इस्लाम पर
हमला हो गया!
मुहम्मद की
मैंने
अवमानना कर
दी।...
धर्मयुद्ध!
मस्जिद में
व्याख्यान...
मौलवी
राजनेता और इस
तरह के लोग
व्याख्यान दे कर
लोगों को
समझाने लगे
हैं।
महमूद
और मुहम्मद
में तुम्हें
फर्क समझ में
नहीं आता? लेकिन
इतनी खोज की
भी इच्छा नहीं
है लोगों में।
यहां मौजूद
हूं मैं। यहां
दस ही कदम के
फासले पर थे, आ जाते। पूछ
तो जाते, इसके
पहले कि
व्याख्यान
देना शुरू
करते। मगर किसको
लेना—देना है!
आदमी ऐसा अंधा
हो गया है! यह
तुम्हारे
तथाकथित
विश्वासों का
परिणाम है। और
जो सुनने वाले
थे उन्होंने
भी मान लिया
होगा।
स्वाभाविक, तीन हजार
मुसलमान
इकट्ठे हो गये
मोर्चा ले जाने
के लिए। पुलिस
के पास पहुंच
गये, पुलिस
कमिश्नर के
पास। पुलिस
कमिश्नर का
आदमी आया, उसने
जब व्याख्यान
पढ़ा, उसने
कहा, इसमें
तो मुहम्मद के
खिलाफ कुछ है
ही नहीं। महमूद
गजनवी ने
ग्रतइrयां
तोड़ी, इसका
मैंने विरोध
किया है। यह
तो इतनी
सीधी—साफ बात
है, इतिहास
की मानी हुई
बात है।
सोमनाथ का
मंदिर गवाह
है। इसको तो
कोई इंकार
नहीं कर सकता
कि महमूद गजनवी
ने मूर्तियां
तोड़ी, मंदिर
नष्ट किये
हैं। मगर यह
मुहम्मद के
संबंध में
थोड़े ही
वक्तव्य है।
लेकिन
लोग ऐसे अंधे
हो गये हैं।
तुम्हें अंधेपन
का जहर पिलाया
जा रहा है।
फिर तुम्हारी
अंधेपन की आदत
हो जाती है।
फिर जो भी कुछ
कह दे, तुम मान
लेते हो।
अफवाहें उड़
जाती हैं और
दंगे हो जाते
हैं। अफवाहें
उड़ जाती हैं
और लोग' कट
जाते हैं, गोलियां
चल जाती हैं, छुरे भोंक
दिये जाते
हैं। सिर्फ
अफवाहों पर! जिनके
पीछे कोई सचाई
भी नहीं होती
या सचाई उल्टी
ही होती है।
इस तरह का
आदमी तो कैसे
परमात्मा को
जान सकेगा? फिर चाहे
तुम मंदिर जाओ,
चाहे
मस्जिद, चाहे
गिरजा, क्या
फर्क पड़ता है?
परमात्मा
को जानने के
लिए थोड़ी
प्रतिभा को निखारो।
थोड़ी धार रखो।
थोड़ा संदेह को
प्रज्वलित
करो। संदेह
उपाय है
श्रद्धा की
तलाश का। संदेह
की तलवार पर
ही चल—चल कर
कोई श्रद्धा
की मंजिल तक
पहुंच पाता
है।
इसलिए
भोले बाबा, अच्छा
हुआ कि तुम
नास्तिक थे, धर्मों से
घृणा थी, तो
तुम हर किसी
की बात मानने
को राजी न
हुए। गये
होओगे तीर्थ,
गये होओगे
पंडित—पुरोहितों
के पास, लेकिन
तुम्हारा मन न
भरा। कैसे
भरता? किसका
भरता है? तुम्हारी
प्यास सच्ची
थी। तुम्हें
तलाश थी किसी
सरोवर की। तुम्हें
तलाश थी सच
में ही जीवन
को रूपांतरित
करने की।
इसलिए तुम
यहां आये और
दीवाने भी हो
गये।
और
यहां तो मैं
तुम से कह ही
नहीं रहा हूं
कि विश्वास
करो। यहां तो
मैं कह रहा
हूं प्रयोग
करो। यहां तो
मैं कह रहा
हूं अनुभव
केरी। इसलिए तुम्हें
मेरी बात जमी, रुची,
तुम्हारे
प्राणों में
समा गयी! यही
तुम चाहते थे।
तुम प्रयोग
करना चाहते थे
और लोग कह रहे
थे विश्वास
करो। तुम
अनुभव करना
चाहते थे और
लोग कहते थे
बस श्रद्धा कर
लो। अनुभव की
तुम्हें क्या
जरूरत? कृष्ण
तो जान चुके, मुहम्मद तो
जान चुके, महावीर
तो जान चुके, तुम्हें
जानने की क्या
जरूरत है अब
और? उन्होंने
जान लिया, तुम
भरोसा करो।
लेकिन
सत्य कोई ऐसी
चीज नहीं है
कि किसी ने जान
लिया और तुमने
जान लिया।
तुम्हें ही
जानना होगा।
मैं जल
पीयूंगा तो
मेरी प्यास
बुझेगी, तुम्हारी
नहीं। तुम
चाहे कितना ही
मुझ में भरोसा
करो, तो भी
प्यास मेरी
बुझेगी, तुम्हारी
नहीं। मैं
भोजन करूंगा
तो मुझे पोषण
मिलेगा, तुम्हें
नहीं, तुम
कितना ही
मुझमें
विश्वास करो।
तुम्हें भोजन
करना होगा अगर
पोषण चाहिए।
महावीर
में विश्वास
करने से तुम
जैन भला हो जाओ, तुम
जिन न हो
सकोगे! और जिन
होना असली चीज
है। जिन का
अर्थ है—जिसने
जीत लिया, जो
पहुंच गया, जो सिद्ध
हुआ। मुसलमान
हो जाओगे तुम,
मुहम्मद
में विश्वास
करने से।
लेकिन मुसलमान
होने से कुछ
भी न होगा, जब
तक कि मुहम्मद
ही न हो जाओ।
जब तक कि
मुहम्मद का
रंग ही
तुम्हारे
प्राणों में न
छा जाये, जब
तक वैसी ही
मस्ती और वैसा
गीत तुम्हारे
भीतर पैदा न
होने लगे, जब
तक परमात्मा
तुम्हें इस
योग्य न समझे
कि तुम्हारे
भीतर कुरान
गुनगुनाए—तब
तक कुछ भी न होगा।
परमात्मा
से सीधे जुड़ना
होता है।
परमात्मा से
किसी के
माध्यम से
जुड़ने का कोई
उपाय नहीं है।
सदगुरु भी
तुम्हें
परमात्मा से
जोड़ता नहीं, सिर्फ
इशारे करता
है।
बुद्ध
ने कहा है :
बुद्धपुरुष
केवल इशारे
करते हैं।
चलना तो
तुम्हें पड़ता
है। मंजिल तो
तुम्हें तय
करनी होती है।
तुम दीवाने हो
सके,
क्योंकि
जिसकी
तुम्हें तलाश
थी, उसकी
तुम्हें झलक
मिली। तुम
संन्यासी भी
हो सके।
और
ऐसा तुम्हारे
साथ ही नहीं हुआ
है,
ऐसा बहुतों
के साथ हुआ
है। मुझसे कुछ
जल्दी ही उनका
संबंध बन जाता
है जो नास्तिक
रहे हैं, खोजी
रहे हैं, संदेही
रहे हैं। उनसे
मेरा संबंध
जल्दी बन जाता
है। जो भरोसा
करते रहे, मानते
रहे, पंडित—पुरोहितों
की सुनते रहे,
उनसे मेरा
संबंध नहीं बन
पाता है। उनके
भीतर तो बहुत
कचरा भरा होता
है। उनके बीच
और मेरे बीच
उस कचरे की
दीवाल होती
है। लेकिन
जिसने किसी को
नहीं माना, जिसने कहा
खुद ही
जानेंगे—वह
खाली आता है।
उसके और मेरे
बीच कचरा नहीं
होता। उससे
मेरा जल्दी
संबंध जुड़
जाता है। उससे
मेरा नाता
तल्लण हो जाता
है।
तुम
दीवाने भी हुए, तुम
संन्यासी भी
हुए—संन्यास
दीवानापन है।
यह तो जो
पीयेगा, वही
जानेगा। यह तो
शराब
है—अंगूरों से
ढली हुई नहीं,
आत्मा से
ढली हुई। बाहर
से आयी हुई
नहीं, भीतर
इसकी रसधार
बहती है। यह
तो गूंगे का
गुड़ है। तुम
किसी दूसरे को
बताना भी
चाहोगे तो न बता
पाओगे। और जब
कोई मस्त हो
जाता है तो
परमात्मा के
पास होने लगता
है। मस्ती, आनंदमग्न—
भाव ही उससे
जोड़ता है।
विश्वास नहीं
जोड़ते, मस्ती
जोड़ती है।
तुम्हारे
थोथे आडंबर
नहीं जोड़ते, तुम्हारे
हृदय से उठा
हुआ नृत्य
जोड़ता है। तुम्हारे
बाह्य
क्रियाकांड
नहीं जोड़ते, लेकिन
तुम्हारे
अंतर से उठी
हुई प्रीति
जोड़ती है।
गीत—गीत
में,
शब्द—शब्द
में छाया
मधुमय प्यार
जब
तुम आये पहली
बार।
कण
—कण पर बिछ गयी
तुम्हारी रूप
—माधुरी,
स्वर
—स्वर में गा
उठी तुम्हारी
कंठ —बांसुरी,
किरणों
के अवगुंठन
में हंस उठी
पांखुरी,
मेरे
पग पा गये
तुम्हारी गति
का पंथ — पसार
जब
तुम आये पहली
बार।
बादल
पर ये
इंद्रधनुष के
चित्र खिल गये,
सावन
को हंसती
बिजली के
स्वप्न मिल
गये
जिस
दिन से तुम
रमे असीम अभाव
किल गये,
फूल
—फूल पर उमड़
उठा शत —शत
रंगों का
ज्वार।
जब
तुम आये पहली
बार।
सांस
मिल गयी युग
—युग के इस
विकल मरण को
पंथ
मिल गया भूले —
भटके थके चरण
को,
दीप
मिल गया
अंधकार के
महावरण को,
विधवा
सी सूनी रजनी
को मिला नखत
सिंगार।
जब
तुम आये पहली
बार।
गीत
—गीत में, शब्द
—शब्द में
छाया मधुमय
प्यार
जब
तुम आये पहली
बार।
परमात्मा
उतरता है एक
नृत्य की
भांति, एक
गीत की भांति।
मगर उतरता उसी
हृदय में है, जो मस्त है।
मैं तुम्हें
मस्ती सिखा
रहा हूं। मैं
तुम्हें
सिद्धात नहीं
दे रहा; मैं
तुम से कहता
ही नहीं कि
परमात्मा को
मानो। मैं तो
कहता हूं :
फूलों को मान
लो, परमात्मा
का मानना अपने
से आ जायेगा।
मैं तो कहता
हूं :
चांद—तारों को
मान लो; अगर
परमात्मा है
तो चांद—तारों
से धीरे—धीरे
तुम में उतर
आयेगा। इस जगत
के सौंदर्य को
मान लो। इस
जगत का
अपरिसीम यह जो
आनंद है, यह
जो उत्सव चल
रहा
है—वृक्षों
में, पौधों
में, पशुओं
में, मनुष्यों
में—यह जो
अनंत—अनंत लीला
फैली है, इसको
मान लो, इसको
जान लो। और इस
सबको मानने के
लिए किसी पर विश्वास
करने की जरूरत
नहीं है; तुम्हारी
आंखें
तुम्हें काफी
प्रमाण दे रही
हैं। आश्चर्य
तो यह है कि
तुमने क्यों
अब तक हरियाली
नहीं देखी, फूलों के
रंग नहीं देखे,
कोयल की
पुकार नहीं
सुनी! इसी से
उतरेगा
परमात्मा, शास्त्रों
से नहीं।
प्रकृति उसका
शास्त्र है।
तुम थोड़ा
नाचो।
मैं
तुम्हें गीत
सिखा रहा हूं
और नृत्य सिखा
रहा हूं। इस
गीत और नृत्य
के लिए ईश्वर
को मानना
अनिवार्य
शर्त नहीं है; यद्यपि
इस गीत और
नृत्य में
ईश्वर का
मानना अनिवार्य
रूप से घटित
होता है।
मुझसे
कोई नास्तिक आ
कर कहता है कि
क्या मैं भी
ध्यान कर सकता
हूं क्योंकि
मैं ईश्वर को
नहीं मानता? मैं
उससे कहता हूं
तुम्हारे
मानने न मानने
से ध्यान का
क्या
लेना—देना? तुम
चिकित्सक के
पास जाओगे, तुम लाख कहो
कि मैं मानता
नहीं एलोपैथी
में। लेकिन वह
कहेगा, तुम
फिक्र न करो, तुम मुझे
इलाज करने दो।
तुम्हारे
मानने न मानने
से एलोपैथी का
कोई लेना—देना
नहीं है। अगर इलाज
ठीक खोज लिया
गया तो बीमारी
ठीक होगी, तुम
मानो या न
मानो। और जब
ठीक हो जाये, तब मान
लेना। अभी
जल्दी मत करो।
मानने की अभी जरूरत
भी नहीं है।
अभी मानोगे भी
कैसे? यह
तो जहां झूठी
बातें चलती
हैं, वहां
मानने की बात
पहले लगायी
जाती है।
अगर
कोई तुम्हें
राख दे रहा है
और कह रहा है, यह
विभूति है, इसको ले
लोगे तो
बीमारी ठीक हो
जायेगी—यहां
मानना पड़ेगा।
यहां अगर नहीं
माना तो काम
ही नहीं
चलेगा। यहां
तो श्रद्धा
रखनी पड़ेगी।
तुमने कहा, यह तो राख है,
इससे क्या
होगा? फिर
कुछ भी नहीं
होने वाला है।
क्योंकि यह तो
एक झूठ था। इस
झूठ को तुम
सच्चा मान
लेते, भरोसा
कर लेते, और
अगर तुम्हारी
बीमारी भी
झूठी होती, तो ठीक हो
जाती। अब यह
ऐसा खयाल रखना,
कि बहुत—सी
झूठी बीमारियां
लोगों की हैं,
जो हैं नहीं,
सिर्फ
उन्होंने मान
रखी हैं।
तुम्हारे भूत
भी झूठे हैं
और तुम्हारे
ताबीज भी झूठे
हैं। इसलिए
झूठे ताबीज
झूठे भूतों पर
काम कर जाते
हैं।
एक
आदमी को वहम
हो गया कि वह
रात सोया था, मुंह
खोल कर सोता
था रात, एक
सांप उसके
भीतर घुस गया।
और वह
डाँक्टरों के
पास जाये, एक्सरे
निकलवाये।
सांप कहीं आये
न एक्सरे में।
वह कहे मैं
मानूं भी कैसे,
वह पेट में
चलता है। उसको
धीरे— धीरे
इतना भरोसा हो
गया सांप के
पेट में चलने
का कि उसका
जीवन ही
मुश्किल हो
गया। चौबीस
घंटे परेशांन!
कोई चिकित्सक
उसे ठीक न कर
सका, क्योंकि
सांप हो तो
कोई चिकित्सक
कुछ करे; सांप
था नहीं। एक
जादूगर ने उसे
ठीक कर दिया। उसने
कहा, ठीक
कर देंगे, निकाल
देंगे, तू
सो जा। उसे
चादर ओढ़ कर
सुला दिया, और उसकी
चादर में से
एक सांप निकाल
दिया—सांप, जो कि मदारी
के पास था। जब
उसने सांप
चादर में से
निकलते देख
लिया, सांप
भागता हुआ देख
लिया, एकदम
खड़ा हो गया, उसने कहा कि
अब कहो? वे
एक्सरे लेने
वाले और
बड़े—बड़े
डॉक्टर, अब
उन मूढ़ों को
कोई समझाओ कि
यह रहा सांप!
बस उसी दिन से
उसके पेट का
उपद्रव चला
गया। जब अपनी आंख
से देख लिया
सांप को
निकलते, बात
खत्म हो गयी।
झूठी थी
बीमारी, झूठे
इलाज की जरूरत
पड़ी।
तुम्हारी
कोई सत्तर
प्रतिशत
बीमारियां
झूठी होती
हैं। इसलिए
सत्तर
प्रतिशत झूठे
इलाज भी काम
कर जाते हैं।
इसलिए भभूत भी
काम कर जाती है, शक्कर
की गोलियां भी
काम कर जाती
हैं, ताबीज
भी काम कर
जाते हैं, मंत्र—तंत्र,
टोटके सब
काम कर जाते
हैं। वह सत्तर
प्रतिशत पर।
वे जो तीस
प्रतिशत असली
बीमारियां
हैं, उन पर
तो
चिकित्साशास्त्र
ही काम करेगा,
कोई और काम
न कर सकेगा।
जहां
परमात्मा का
अनुभव करने के
लिए प्रयोग किया
जा रहा हो, वहां
शर्त नहीं
होती कि मानो।
वहां तो इतना
ही आग्रह
पर्याप्त
होता है कि
प्रयोग करने
की तत्परता
रखी। तो मुझसे
कोई नास्तिक
पूछता है, मैं
ध्यान कर सकता
हूं? मैं
कहता हूं मजे
से। तुम तो
नास्तिक हो तो
और भी अच्छी
तरह से ध्यान
कर सकते हो, क्योंकि
आस्तिक को तो
हजार तरह के
सिद्धात सिर
में होते हैं,
तुम्हारे
सिर में वे भी
नहीं हैं। तुम
तो खाली हो और
खाली होना तो
ध्यान के लिए
बडी सुगम बात
है, बड़ी
आवश्यक बात
है। तुम्हारी
न कोई धारणा, न कोई
मान्यता, न
कोई सिद्धात,
न कोई
शास्त्र। यह
सब उपद्रव तो
कट ही गया! तुम तो
भली स्थिति
में हो। कोरा
कागज है! इस पर
तो जल्दी ही
कुछ घटना घट
जायेगी।
मगर
सुना है उसने
भी कि बिना
ईश्वर को माने
ध्यान नहीं हो
सकता, तो वह
फिर—फिर पूछता
है : आप ठीक कह
रहे हैं? ध्यान
कर सकता हूं
बिना ईश्वर को
माने? मैं
उनसे कहता हूं
: ईश्वर को
मानने का
ध्यान से
लेना—देना
क्या है? ध्यान
चुप हो कर
बैठना है।
इसमें ईश्वर
का मानना और न
मानना कहां
बाधा बनता है?
क्या कोई
आदमी चुप नहीं
बैठ सकता बिना
ईश्वर को माने?
ध्यान का
अर्थ है शांत
होना। शांत
होना किसी चीज
पर आधारित
नहीं है—न
कुरान पर, न
वेद पर, न
उपनिषद पर।
शांत होना एक
कला है।
तुम
यह तो नहीं
पूछते कि मैं
तैरना सीख
सकता हूं या
नहीं, अगर मैं
ईश्वर को न
मानूं? ईश्वर
के मानने न
मानने का
तैरने से क्या
लेना—देना है? तैरना एक
कला है। तुम
यह तो नहीं
पूछते, मैं
चित्र बनाना
सीख सकता हूं
या नहीं, ईश्वर
को मानूं या न
मानूं? तुम
यह तो नहीं
पूछते कि वीणा
बजा सकूंगा या
नहीं मैं
ईश्वर को नहीं
मानता हूं
नास्तिक हूं
वीणा बजेगी कि
नहीं g: अगर
वीणा बज सकती
है, अगर
चित्र बन सकता
है, अगर
गीत रच सकता
है, तो
ध्यान भी एक
कला है—चुप
होने की, मौन
होने की कला
है। शांत होने
की, निर्विचार
होने की कला
है।
ईश्वर
तो स्वयं ही
एक विचार है।
इसलिए उससे क्या
खाक सहायता
मिलेगी!
नास्तिक
निर्विचार हो
सकता है। और
जो निर्विचार
हो गया, वह
जानता है कि
परमात्मा है।
परमात्मा
निर्विचार का
अनुभव है। और
तब एक और ही
ढंग की आस्तिकता
आती
है—प्रज्वलित,
प्रदीप्त, हजार—हजार
दीयों से सजी
हुई एक
दीपमालिका
उतरती है!
भीतर फूल
खिलते हैं और
दीये जलते
हैं। फूल ऐसे
कि जिनमें दीये
जलते हैं!
दीये ऐसे जो
कि फूल जैसे
हैं! गंध और स्वाद
का एक अनंत
विस्तार फैल
जाता है। जीवन
रसमय हो उठता
है। जीवन में
छंद का जन्म
होता है। उसी
छंद का नाम
परमात्मा है।
भभक
उठी धरती की
छाती
भर
आया अंबर का
अंतर
मिलन
हुआ ऐसा
दीवाना
जल
बरसा घड़ियों
तक झर—झर।
बेसुध
झडियां, बेसुध
झोंके,
बेसुध
निरे सलोने
मेघ!
नभ
में घिरे
सलोने मेघ!
कूकी
पिकी, मयूर नच
उठा
इंद्रधनुष
उमड़ा पांखों
में
झूम
गई तसवीर
स्वाति की
चातक
की प्यासी
आंखों में!
सरिता
के जल में
हंसों के
दल—से
धिरे सलोने
मेघ!
नभ
मेघ! रात हुई
तम के मंडप
में
नाच
उठी
चपला—मधुबाला।
खनक
उठे बूंदों के
नूपुर
छलक
उठा प्याले पर
प्याला।
मद्यप—से
उठ—उठकर
फिर—फिर
भू
पर गिरे सलोने
मेघ!
नभ
में घिरे
सलोने मेघ!
जब
तुम मौन हो
जाते हो तो
तुम्हारे
भीतर अमृत के
मेघ घिरते हैं; परम
ज्योति की
बिजलियां
कौंधती हैं; रस की वर्षा
होती है। उस
सबका इकट्ठा
नाम परमात्मा
है।
परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं है, कि
बैठे हैं गणेश
जी हाथी की
सूंड लगाये
हुए और
तुम्हें उनके
दर्शन होंगे।
परमात्मा कोई
व्यक्ति नहीं
है, कि
बैठे हैं तीन
मुख लगाये
हुए। कोई नाटक
है? ब्रह्मा,
विष्णु, महेश—इधर
से देखो
ब्रह्मा, उधर
से देखो
विष्णु, इधर
देखो महेश।
मुखौटे लगाये
बैठे हैं!
परमात्मा कोई
व्यक्ति नहीं
है। परमात्मा
शाश्वत की
प्रतीति है; अनादि का, अनंत का
अनुभव है। जो
न कभी मरता और
न कभी जन्मता,
उस चैतन्य
की, उस
चेतना की
अनुभूति है।
और
तुमने पूछा कि
'जिसकी खोज
थी वह मिल रहा
है। लेकिन
ऊपरी शरीर बिलकुल
मर— सा गया है
प्रभु यह सब
क्या है?'
ऊपरी
तो मरेगा, अब
भीतरी जग रहा
है। परिधि तो
विदा हो
जायेगी अब, केंद्र
निर्मित हो
रहा है। इसलिए
तुम कहते हो :
बुढापे में भी
युवा अनुभव कर
रहा हूं। अब
जीवन— धारा
बदल रही है
अपना आयाम। अब
तक देह पर
ठहरी थी, अब
आत्मा में
ठहरेगी। शरीर
तो न के जैसा
हो जायेगा।
आत्मा सघन
होगी। शरीर तो
खोने ही लगेगा,
भूलने ही
लगेगा, विस्मरण
होने लगेगा।
यही तो अर्थ
है गोरख का :
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी मरि गोरख
दीठा।
ऊपर
से मौत हो
जायेगी, भीतर
से परम जीवन
का अनुभव
होगा। बाहर अब
धीरे— धीरे
व्यर्थ हो
जायेगा। अब
भीतर की
सार्थकता
आयेगी। अभी तक
तुम परिधि पर
जीये थे, अब
केंद्र पर
जीवन शुरू हो
रहा है। शुभ
यह घड़ी है।
सलोने मेघ घिर
रहे हैं। खूब
वर्षा होने के
करीब है! चलते
चलो—और मस्ती
में, और
गीत—गान में, और
नृत्यपूर्ण...।
देह
तो गिर ही
जायेगी। देह
तो गिरनी ही
है। गिरना देह
का स्वभाव है।
धन्यभागी हैं
वे,
जो मृत्यु
के पहले जान
लेते हैं कि
देह गिर गयी।
जो मृत्यु के
पहले मर जाते
हैं, फिर
उनकी कोई
मृत्यु नहीं
होती। फिर जब
मृत्यु में
देह गिरती है
तो उनका कुछ
भी नहीं
बिगड़ता। वे
जानते ही हैं
कि यह तो पहले
ही हो चुका
सिकंदर ने एक
फकीर को धमकी
दी थी कि मेरे
साथ यूनान चल;
अगर नहीं
चला तो गर्दन
काट दूंगा। वह
फकीर खिलखिला
कर हंसने लगा
था। उसने कहा
यह भी खूब रही! अब
तुम गर्दन
काटोगे? मैं
तो खुद ही उसे
कभी का काट
चुका! काटो
भाई काटो, उसने
कहा। तुम भी
काट लो।
तुम्हारा भी
मन रह जाये।
सिकंदर
के,
कहते हैं, हाथ ठहर गये
थे नंगी तलवार
लेकर! बहुत
लोग उसने देखे
थे, लेकिन
ऐसा आदमी नहीं
देखा था जो
कहने लगा : काटो
भाई काटो, काट
लो, तुम्हारा
भी मन रह
जाये। जहां तक
मेरी बात पूछते
हो, मैं तो
उसे पहले ही
काट चुका हूं।
अब गर्दन कट कर
गिरेगी तो तुम
भी देखोगे गिर
रही है, और
मैं भी
देखूंगा कि
गिर रही है।
मैं तो पहले ही
देख चुका हूं
कि उससे अलग
हूं। लेकिन
मैं तुम से
कहे देता हूं
कि मेरी गर्दन
को काट कर यह
मत सोचना कि
तुमने मुझे
काटा। इस भ्रांति
में मत पड़ना।
मुझे कोई भी
नहीं काट सकता
है।
नैनं
छिदति
शस्त्राणि, नाहम
दहति पावक:। न
तो शस्त्र
मुझे छेद सकते
हैं, न आग
मुझे जला सकती
है।
दूसरा
प्रश्न :
आप
और श्री
कृष्णमूर्ति
जीवन में
आदर्शों के बहुत
विरोध में
मालूम होते
हैं। यह सच भी
है कि आदर्शों
के कारण जीवन
में बहुत
पाखंड पैदा हो
जाता है लेकिन
यदि दूसरे छोर
से इस पहलू पर
विचार किया
जाये तो यह
खतरा खड़ा
होता है कि
आदर्शों की
चुनौती के
बिना जीवन में
विकास असंभव
हो जायेगा।
मनुष्य और पशु
में भेद नहीं रहेगा।
तो क्या
आदर्शों के
चुनाव में भूल
है?
क्या इस पर
कुछ कहने की
अनुकंपा
करेगे?
मैत्रेय!
पहली तो बात :
पशु और मनुष्य
में भेद होना
ही चाहिए, यह
अहंकार भी
क्यों? यह
भेद की भाषा
क्यों? मनुष्य
और पौधों में
भी क्यों भेद
होना चाहिए? मनुष्य और
पहाड़ों में भी
क्यों भेद
होना चाहिए? अभेद है। एक
ही प्रगट हुआ
है अलग— अलग
रूपों में।
वही पत्थर है,
वही
परमात्मा है।
इसी
बात की
उदघोषणा करने
के लिए तो
हमने पत्थर की
प्रतिमाएं
बनाईं। वे
प्रतिमाएं
परमात्मा की
प्रतिमाएं
नहीं हैं। वे
प्रतिमाएं
सिर्फ एक
शाश्वत सत्य
की घोषणा हैं कि
पत्थर में भी
वही है। पत्थर
सर्वाधिक
मूर्च्छित है; सर्वाधिक
मूर्च्छित
पत्थर में भी
सर्वाधिक जाग्रत
है। इसलिए
हमने बुद्ध की
प्रतिमा बनाई।
बुद्ध यानी
सर्वाधिक
जागरूक! और
संगमरमर का
पत्थर
सर्वाधिक
सोया हुआ है।
नितांत
प्रसुप्त
अवस्था में जो
पत्थर है, उसमें
भी जागरण का
जो परम रूप है,
वह छिपा पड़ा
है। पत्थर
परमात्मा की
ही निद्रा है
और परमात्मा
पत्थर का ही
जाग जाना है।
इस समीकरण की
घोषणा करने के
लिए हमने
पत्थर की प्रतिमाएं
बनाईं। वे
परमात्मा की
प्रतिमाएं नहीं
हैं, याद
रखना। वे तो
इस गहरे
समीकरण की
सूचनाएं हैं।
यह गणित जाहिर
करने का उपाय
है। यह प्रतीक
है।
तो पहली
तो बात : यह
भांति भी
अहंकार के कारण
पैदा होती है
कि मनुष्य को
पशु से कुछ विशिष्ट
होना चाहिए; मनुष्य
को पशु से
भिन्न होना
चाहिए।
और
सच यह है कि इस
भिन्नता की
दौड़ में
मनुष्य पशु से
ऊपर नहीं उठा, नीचे
गिर गया है।
कोई पशु इतना
खतरनाक नहीं
जितना मनुष्य
है! पशु हिंसा
भी करते हैं, लेकिन तभी
जब भूखे होते
हैं; आदमी
बिना भूख के
हिंसा करता
है। हिंसा को
खेल समझता
है—आखेट!
सताने में मजा
लेता है। पशु
तो किसी को
मार डालेंगे,
लेकिन कोई
पशु ऐटमबम, हाइड्रोजन
बम नहीं बनाता।
आदमी ने इतने
हाइड्रोजन बम
बना लिये हैं
कि पूरी
पृथ्वी
भस्मीभूत हो
सकती है
क्षणों में!
कोई पशु अपनी
ही जाति पर
हमला नहीं
करता, सिर्फ
आदमी को छोड़
कर! कोई सिंह
सिंह पर हमला
नहीं करता।
सिर्फ आदमी
अकेला है, जो
आदमियों को
मारता है।
इतना ही नहीं,
आदमी आदमी को
खाता भी रहा
है। अभी भी
कुछ कबीले
हैं—अभी भी, बीसवीं सदी
में भी—जो
मौका पा जायें
तो आदमी को खा
जायें!
कोई
पशु अपनी ही
जाति के
प्राणियों को
नहीं खा सकता।
ये तो खूब
खूबियां हुईं!
कोई पशु मनुष्य
जैसा विकृत
नहीं होता।
जंगल में पशु
कभी पागल नहीं
होते। अब तक कोई
पागल शेर नहीं
पाया गया, पागल
हरिण नहीं
पाया गया, पागल
तोता नहीं
पाया गया—जंगल
में। ही, अजायबघर
में पागल हो
जाते हैं।
अजायबघर आदमी की
दुनिया है, वहां पागल
हो ही जाये! अब
एक शेर को
पींजडे में बंद
कर दिया है; जो मीलों का
मालिक था, जो
छलांगें
लगाता था
पहाड़ियों पर,
उसको एक
पींजडे में
बंद कर दिया
है! अब वह पींजडे
में इधर से
उधर घूम रहा
है।
तुमने
देखा होगा
सरकस में या
अजायबघर में
शेर घूमता ही
रहता है
पींजडे में।
वह सैकड़ों मील
तक दौड़
भरनेवाला...
उसको एक
छोटे—से घेरे
में बंद कर
दिया है। पगला
नहीं जायेगा
तो क्या करेगा? आदमी
के साथ रह कर
जानवर तक पागल
हो जाते हैं, विक्षिप्त
हो जाते हैं।
एक
दिन अखबार में
खबर थी, मोरारजी
देसाई का
वक्तव्य था
सेक्स के
विरोध में, कामवासना के
विरोध में। वे
तो हमेशा वैसे
वक्तव्य देते
हैं। मगर उस
दिन बड़ा
मजेदार मामला
था! उसी अखबार
में दूसरे
पन्ने पर खबर
थी पूना के
अजायबघर की, कि वहां एक
सिंह को
सिंहनी नहीं
मिल सकी। उसको
कुछ नहीं सूझा
तो अपनी पूंछ
चबा गया!
सिंहनी नहीं
मिली, कामवासना
को दबाने के
कारण ऐसा
क्रुद्ध हो गया
कि अपनी पूंछ
चबा गया! एक ही
अखबार में ये
दोनों
खबरें...। एक
मोरारजी हैं
जो कह रहे हैं
कामवासना को
दबाओ और एक
सिंह है जो पूंछ
चबा गया!
अप्राकृतिक
कुछ भी
आत्मघाती हो
जाता है। आदमी
की पूंछ नहीं
है,
तो पूंछ तो
नहीं चबा सकता,
लेकिन
आत्मा चबा
जाता है! उसके
भीतर की सारी
गौरव—गरिमा मर
जाती है।
अप्राकृतिक
होना आदमी को
ही सूझा है।
और कोई पशु
अप्राकृतिक
नहीं है।
तो
आदमी को
विशिष्ट होना
ही चाहिए, यह
भ्रांति
क्यों ले कर
चलते हो? भिन्न
है, यह तो
सच है; मगर
विशिष्ट है, यह सच नहीं
है। दोनों बात
का भेद समझ
लेना। भिन्न
तो है निश्चित
ही। तोता
भिन्न है कौए
से; मगर
तोता विशिष्ट
है कौए से, यह
मत कहो। ऊंचा
है, नीचा
है, यह भी
मत कहो। कौआ
कौआ है, तोता
तोता है।
भिन्न हैं
दोनों, मगर
अपनी भिन्नता
में समान हैं।
ऐसे
ही मनुष्य भी
भिन्न है।
लेकिन
विशिष्ट मत कहो।
और मनुष्य खुद
ही कहता है
अपने को
विशिष्ट। यह
भी तुम थोड़ा
सोचो।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन गांव के
बाजार में जा
कर कह दिया कि
मेरी स्त्री
दुनिया में सबसे
ज्यादा सुंदर
है। किसी ने
पूछ लिया कि
बड़े मियां, यह
तो तुमने बड़ी
नयी खबर सुनाई,
मगर तुमको
बताया किसने?
'बताया
किसने, मेरी
स्त्री ने खुद
ही कहा है। अब
वह कोई झूठ थोड़े
ही बोलेगी।'
आदमी
खुद ही कह रहा
है! किसी जानवर
के हस्ताक्षर
लिये तुमने इस
पर?
किसी सिंह
से कहा कि भाई,
दस्तखत करो?
एक ऐसा
झपाटा
मारेगा... कि
सर्टिफिकेट
पर दस्तखत करो
कि आदमी
विशिष्ट है!
तुमने
कहानी तो सुनी
है न,
एक सिंह को
यह सवार हो
गया खयाल कि
फिर से पूछ ले
एक दफा राजा
मैं ही हूं न!
पूछा खरगोश
से। खरगोश ने
कहा कि मालिक,
आप ही हैं
और कौन होगा? खरगोश तो
घबड़ा गया, जैसे
ही सिंह ने
पकड़ा उसे कि
एक मुसीबत
आयी! जैसे ही
उसने कहा कि
मालिक, आप
ही हो राजा, खरगोश को
छोड़ दिया सिंह
ने। पकड़ा एक
हरिण को। उसने
भी कहा कि आप
ही हैं सम्राट,
सदा से आप
हैं! ऐसा और भी
पूछता फिरा।
फिर एक हाथी
के पास आया, हाथी से कहा
कि तुम्हारा
क्या खयाल है,
सम्राट कौन
है? हाथी
ने उसे अपनी
सूंड में लिया
और घुमाकर फेंका
कोई पचास फीट
दूर। जमीन पर
गिरा, हड्डी
चकनाचूर हो
गयी।
झाडू—पोंछ कर
उठा और हाथी
से बोला कि
भाई, अगर
तुम्हें ठीक
उत्तर मालूम
नहीं, तो
साफ कह देते!
इतना नाराज
होने की क्या
बात थी? कह
देते कि हमें
नहीं मालूम, बात खत्म हो
गयी!
किसी
पशु से पूछो!
तोते से
पूछोगे, तो
कहेगा : कहां
है तुम्हारे
पास ऐसी
हरियाली जैसी
मेरे पास है? यह तोतापंखी
रंग! बगुले से
पूछोगे, तो
कहेगा. कहां
ऐसी सफेदी है
तुम्हारे पास?
कितनी ही
शुद्ध खादी
पहनो, मगर
कहां यह बगुले
जैसी सफेदी!
चाहे
पोलियेस्टर
खादी बना लो, मगर नहीं पा
सकोगे यह
सफेदी, यह
स्वच्छता! और
यह ध्यानमग्न
भाव. जब बगुला
खड़ा होता है
एक टाग पर।
योगी बड़ी
मेहनत से सिद्ध
करू पाते हैं
उसको—बगुलासन
कहते हैं। बड़ी
मुश्किल से एक
पैर पर खड़ा
होना सिद्ध कर
पाते हैं।
बगुला जन्म से
ही लेकर आता
है—बिलकुल
सिद्धपुरुष!
तुम
किसी से भी
पूछो। गुलाब
से पूछोगे, कहेगा
: कहां ऐसे फूल
तुम्हारे पास
हैं? कहां
ऐसी सुगंध? सिंह से
पूछोगे...
किससे पूछोगे?
जिससे
पूछोगे वही
हंसेगा तुम्हारी
बात पर, कि
जरा देखो भी
तो, अपनी
शक्ल तो आईने
में देखो। उड़
सकते हो आकाश में
मेरे जैसे? लेकिन आदमी
खुद ही अपने
को मान लिया
है कि श्रेष्ठ
है। यह अहंकार
भर है।
और
अक्सर ऐसा
होता है, जिनको
तुम धार्मिक
आदमी कहते हो,
उनमें यह
वहम बहुत होता
है कि आदमी
सबसे श्रेष्ठ
है। और आदमी
ही किताबें
लिखते हैं; कोई
पशु—पक्षी इस
तरह की झंझट
में पड़ते ही
नहीं। तो अपनी
किताबों में
खुद ही लिख
लेते। तुम्हारे
हाथ में है जो
लिखना है लिख
लो, तो लिख
लिया किताब
में कि
परमात्मा ने
आदमी को अपनी
ही शक्ल में
बनाया है। अब
न परमात्मा से
किसी ने पूछा,
न उसने कोई
सर्टिफिकेट
दिया, न
किसी और
पशु—पक्षी से
पूछा। अगर गधे
किताब लिखेंगे
तो बराबर
किताब में
लिखेंगे कि
परमात्मा ने
गधों को अपनी
ही शक्ल में
बनाया। और किसकी
शक्ल में
बनायेगा?
यह
तो प्रत्येक
की अस्मिता
है। यह अहंकार
धार्मिक
व्यक्ति को
नहीं होना
चाहिए। मगर
धार्मिक
व्यक्ति में
सर्वाधिक
पाया जाता है, कि
हम पशु से कुछ
श्रेष्ठ हैं।
यह श्रेष्ठ की
भावना तो सभी
में पायी जाती
है। यह अहंकार
तो सभी में
है। कोई कहता
है, कोई
नहीं कहता है।
यह कुछ
विशिष्ट बात
नहीं है। असली
विशिष्टता तो
तभी पैदा होती
है जब यह सारा
अहंकार चला
जाता है। मगर
उस घड़ी में न तो
तुम मनुष्य
होते, न
तुम पशु होते,
न पक्षी
होते—तुम
सिर्फ चैतन्य
मात्र रह जाते
हो। वह घड़ी
विशिष्ट है।
ये तो ऊपर के
ही खोलों के
भेद हैं—कोई
तोता है, कोई
कौआ है, कोई
बगुला है, कोई
आदमी है, कोई
घोड़ा है, कोई
सिंह है। ये
तो सिर्फ घरों
के भेद हैं, भीतर जो बसा
है वह तो एक ही
है—एक ही
चैतन्य! ये तो
आवरण— भेद
हैं। कोई
गुलाब है, कोई
जूही है, कोई
चमेली है; मगर
भीतर जो रसधार
बह रही है
जीवन की वह तो
एक ही है।
कहीं फूल सफेद
और कहीं लाल
और कहीं पीले,
मगर भीतर जो
खिल रहा है
फूलों में, वह खिलावट
तो एक ही है।
तो
पहली बात तो :
इस धारणा को
जाने दो कि
आदमी कुछ
विशिष्ट है।
नहीं तो यह
अकड़ बड़े
नुकसानों में
ले जाती है।
फिर आदमी पर
ही थोड़े बात
रुकती है। एक
दफा यह बीमारी
शुरू हो जाये
तो सवाल उठता
है कि आदमी
में गोरे
विशिष्ट हैं
कि काले? सवाल
खत्म तो नहीं
होता फिर आदमी
पर ही। फिर
लम्बी नाक
वाले विशिष्ट
हैं कि चपटी
नाक वाले? फिर
कौन उन्हें तय
करे?
जब
पहली दफा
अंग्रेज चीन
पहुंचे, तो वे
बड़े हैरान हुए
चीनियों को
देख कर! उन्होंने
अपनी किताबों
में, डायरियों
में लिखा कि
बड़े अजीब आदमी
हैं! ऐसे आदमी कभी
देखे नहीं।
दाढ़ी के नाम
पर चार—छह बाल!
चेहरे भी बड़े
अजीब हैं। नाक
भी बड़ी चपटी
है। हड्डियां
गाल की बड़ी
प्रगाढ़ हो कर
निकली हैं। और
मालूम है, चीनियों
ने क्या लिखा? उन्होंने
अपनी किताबों
में लिखा कि
ये तो आदमी
हैं कि बंदर!
ऐसे आदमी कभी
देखे नहीं। अब
दोनों की
किताबें
मौजूद हैं।
चीनियों ने
लिखा कि ये बंदर
हैं, आदमी
नहीं हैं। और
अनर्गल बकते
हैं। एक शब्द
समझ में नहीं
आता कि ये
क्या बोल रहे
हैं। इनको बोलना
आता ही नहीं।
अभी
कल ही मैं
किसी का
वक्तव्य पढ़
रहा था। बंगलोर
में
व्याख्यान
दिया उस
व्यक्ति ने।
खूब तैयारी की।
और जब
व्याख्यान के
बाद कोई
धन्यवाद देने
खड़ा हुआ; हिंदी
में ही
व्याख्यान
दिया। और
जिसने धन्यवाद
दिया उसने भी
खूब प्रशंसा
की, कि ऐसा
सुरुचिपूर्ण,
ऐसा
सिद्धांतपूर्ण,
ऐसा
तर्कयुक्त, ऐसा
गरिमायुक्त
प्रवचन
मुश्किल से
सुनने में
मिलता है! और
अंत में कहा
कि हम बड़े
धन्यवादी हैं
कि आपने ऐसा
अनर्गल
व्याख्यान
दिया।
वह
आदमी थोड़ा
चौंका कि
अनर्गल
व्याख्यान!
पहले इतनी
प्रशंसा की और
फिर कहा
अनर्गल
व्याख्यान! और
जब उसने किसी
और से भी बाद
में बात की तो
उसने भी यही
कहा कि गजब का
व्याख्यान
दिया! खूब.. बिलकुल
अनर्गल था!
तब
तो उसने पूछा
कि क्या मैं
समझ सकता हूं
कि यह अनर्गल
क्यों कह रहे
हैं आप लोग?
तो दक्षिण में
अनर्गल का
मतलब और ही
होता है। संस्कृत
में 'अर्गला'
शब्द
है—अर्गल, व्यवधान।
अनर्गल का
अर्थ होता है :
जिसमें कोई
व्यवधान
नहीं—धुआंधार!
बंगलोर
में अनर्गल का
वही मतलब होता
है। यहां तो
अनर्गल का
अर्थ होता
है—असंगत, बकवास।
बकवास भी
धुआंधार होती
है! बकवास में
कोई अर्गला
नहीं होती, कोई नियम
नहीं होता, कोई
व्यवस्था
नहीं होती।
अर्गलाशून्य
होता है। कोई
शृंखला नहीं
होती। एक से
दूसरी चीज पर
छलांग लगा गये,
इसीलिए
अनर्गल कहते
हैं। वहां अनर्गल
का और अर्थ
है।
जब
पहली दफा
योरोपीयन
पहुंचे चीन, तब
तो उनकी भाषा
कौन समझता! और
चीनियों की
भाषा वे क्या
समझते!
उन्होंने
अपनी किताबों
में लिखा है
कि ये तो बड़ी
अजीब—सी भाषा
बोलते हैं! यह कोई
भाषा है!
अंग्रेज, जिनकी
भाषा नहीं
समझते थे, उनको
ही वे बारबेरियन
कहते थे।
बारबेरियन का
मतलब है : बकवासी।
जो बक—बक, बक—बक
में लगे हुए
हैं, वे
बारबेरियन!
फिर धीरे—
धीरे
बारबेरियन का
मतलब हो गया
जंगली—बर्बर।
मगर
ये तो सभी की
धारणाएं
एक—दूसरे के
बाबत ऐसी ही
होने वाली
हैं। फिर कैसे
तय करोगे कि
आदमियों में
कौन श्रेष्ठ
है?
फिर झगड़ा
चलता है! फिर
अडोल्फ हिटलर
कहता है कि
नार्डिक ही
श्रेष्ठ हैं।
जर्मन जाति के
ही नार्डिक
श्रेष्ठ हैं,
बाकी कोई
श्रेष्ठ नहीं
है। और जापानी
मानता है कि
वही श्रेष्ठ
है, क्योंकि
वही सूरज से
सीधे पैदा हुए
हैं—वे सूर्यपुत्र
हैं! और हमारे
देश में भी सूर्यवंशी
रहे और
चंद्रवंशी
रहे। फिर कौन
तय करेगा कि
स्त्रियां
श्रेष्ठ हैं
कि पुरुष? अगर
पुरुष
किताबें
लिखेंगे तो वे
लिखते हैं पुरुष
परमात्मा है
और स्त्री नरक
का द्वार है। अब
स्त्रिया भी
लिखने लगी हैं
पश्चिम में
किताबें। तो
उसमें वे
लिखने लगी हैं
कि पुरुष दो
कौड़ी का है।
इसकी कोई कीमत
ही नहीं है, इसका कोई
मूल्य ही नहीं
है। इसके बिना
भी चल सकता
है। इसका काम
तो एक
इंजेक्यान से
भी हो सकता
है। इसका काम
ही क्या खास
है! असली काम
तो स्त्री का
है, जो नौ
महीने बच्चे
को गर्भ में
रखती है।
कौन
तय करेगा? और
अगर इस तरह
तुमने तय किया
तो तुम पाओगे
कि बड़ी
मुश्किल खड़ी हो
गयी। आखिर में
तुम यही पाओगे
अंततः कि तुम
ही श्रेष्ठ हो,
और कोई
श्रेष्ठ नहीं
है। अहंकार का
अंतिम निष्कर्ष
यह होता है कि
मैं श्रेष्ठ
हूं और बाकी सब
निकृष्ट हैं।
यह पशुओं पर
ही बात समाप्त
हो जाने वाली
नहीं है। अहंकार
की अगर तुम
तर्क—सरणी को
मान कर चलते
रहोगे तो अंत
में तुम्हीं
बचोगे
श्रेष्ठ, और
कोई श्रेष्ठ
नहीं बचेगा।
और यह तो
पागलपन है, यह तो
दीवानापन है।
धार्मिक
व्यक्ति का
लक्षण तो और
ही है। उसका लक्षण
तो यह है कि
यहां सारा
अस्तित्व
परमात्मा से
इतना लिप्त है, परमात्मा
में ऐसा लीन
है, यहां
कौन विशिष्ट?
परमात्मा
ही है और एक ही
परमात्मा है।
कौन विशिष्ट,
कैसा
विशिष्ट? भिन्नताएं
बहुत हैं, विविधताएं
बहुत हैं, मगर
सब के भीतर एक
ही स्वर बज
रहा है! वाद्य
अलग—अलग हैं, मगर राग एक
बज रहा है!
दूसरी
बात,
तुमने पूछा
:
'आप और श्री
कृष्णमूर्ति
जीवन में
आदर्शों का
विरोध करते
मालूम होते
हैं। यह भी सच
है कि आदर्शों
के कारण ही
जीवन में बहुत
पाखंड पैदा हो
जाता है '
आदर्शों
के कारण ही
पाखंड पैदा
होता है, नहीं
तो पाखंड का
कोई उपाय ही
नहीं है।
पाखंड आदर्श
की छाया है।
और जब तक आदमी
आदर्शों से
मुक्त न होगा,
तब तक
पाखंडों से
मुक्त न हो
सकेगा। और
जितने बड़े
आदर्श होंगे,
उतने बड़े
पाखंडी होंगे
दुनिया में!
लेकिन तुम देखते
नहीं कि जब हम
नियम बनाते
हैं, जितने
हम नियम बनाते
हैं, उतने
ही हम नियम
तोड़ने की
व्यवस्था कर
देते हैं।
जैसे
समझो, आज से
पचास साल पहले
स्मगलर, तस्कर
जैसा कोई आदमी
नहीं था, या
था? पचास
साल पहले अगर
तुम से कोई
कहता कि फलां
आदमी
स्मगलिंग
करता है, तुम
कहते : मतलब? शब्द ही
अनजाना था।
तस्करी! कोई
किसलिए तस्करी
करेगा? आवागमन
मुक्त था।
तुम्हें जो
चीज लानी हो
चीन से
हिंदुस्तान, ला सकते थे।
जो जापान से
लानी हो, ला
सकते थे। जो
तुम्हें
जापान को
बेचनी हो, बेच
सकते थे।
आवागमन मुक्त
था। कोई नियम
नहीं थे, कोई
बंधन नहीं थे।
तस्करी कैसे
पैदा करते? अब तुम
कहोगे कि
तस्करी तस्कर
कर रहे हैं।
मैं तुम से
कहूंगा.
तस्करी नियम
बनाने वाले
करवा रहे हैं!
और तस्करी
जारी रहेगी, जब तक कि
दुनिया इस तरह
के व्यर्थ के
नियमों को छोड़
नहीं देती है।
इनकी कोई
जरूरत नहीं
है। नाहक
हजारों लोगों
को तस्करी में
डाला हुआ है!
कोई आवश्यकता
नहीं है। यह
पूरी पृथ्वी
एक घर होना
चाहिए। लेकिन
पूरी पृथ्वी
की तो बात अलग,
गुजरात से
महाराष्ट्र में
कुछ लाना है
तो मुश्किल
है।
महाराष्ट्र
से गुजरात में
कुछ ले जाना
है तो मुश्किल
है। जिले—जिले
में
पाबंदियां
हैं। जगह—जगह
नाके हैं।
तुम
जितने नियम
बनाओगे, उतने
तुम नियम को
तोड़ने का
इंतजाम
करवाते हो। फिर
जब नियम टूटते
हैं, तो
तोड़ने वाले
पापी मालूम
पड़ते हैं।
सचाई बात कुछ
और है। नियम
के बनाने में
ही पाप की
शुरुआत है।
नियम घटाओ और
पाप घट जाते
हैं। इतने
न्यूनतम नियम
होने चाहिए, जो कि
बिलकुल
मजबूरी में
हों, वही
नियम होने
चाहिए दुनिया
में, उतने
ही पाप कम हो
जायेंगे। अगर
नियम न्यूनतम होंगे,
तो नियम का
उल्लंघन
न्यूनतम हो
जायेगा।
आदर्श जितने
कम होंगे, उतने
पाखंड कम
होंगे। और
तुम्हारे
आदर्श जितने
ज्यादा होंगे,
उतने पाखंड
बढ़ते
जायेंगे।
इसलिए जितना
आदर्शवादी
देश होता है, उतना ही
पाखंडी होता
है। यह
विरोधाभास
घटता है। भारत
जैसा पाखंडी
देश दुनिया
में खोजना मुश्किल
है, क्योंकि
इस जैसा
आदर्शवादी
देश खोजना
मुश्किल है। लोग
बहुत चौंकते
हैं इस बात को
देख कर कि ये
दोनों बातें
एक साथ क्यों
घटती हैं! ये
घटने ही वाली
हैं।
जब
तुम अति आदर्श
बना दोगे, जो
जीवन की सहजता
को
छिन्न—भिन्न
करने लगेंगे,
जो जीवन पर
तनाव बन
जायेंगे, तो
लोग पीछे के
रास्ते निकाल
लेते हैं।
आखिर जिंदा भी
तो रहना है न!
जीने भी तो
दोगे किसी को
कि नहीं जीने
दोगे? अगर
इतने तुमने
नियम बना दिये
हैं टैक्स
भरने के कि
आदमी का जीना
मुश्किल हो
जाये, तो
वह स्वभावत:
दो तरह के
खाते—बही
रखेगा। जीना
तो है न? जीना
तो पड़ेगा, तो
नंबर दो का
खाता पैदा
होता है।
यहां
जब पहली दफा
पश्चिम से लोग
आते हैं, जिनके
देश में नंबर
दो का खाता
नहीं होता, उनको समझाना
ही मुश्किल
होता है कि
नंबर दो का
खाता क्या है।
वे कहते हैं : 'नंबर दो का
क्यों? नंबर
दो से मतलब
क्या? नंबर
दो का खाता
तभी पैदा होता
है जब नंबर एक
का खाता जीवन
को खाने लगे, जीवन को
बचने ही न दे।
असंभव कर दे
जीना। अनिवार्यत:
पैदा हो जाता
है।
मैं
दोष नहीं देता
नंबर दो के
खाता
बनानेवालों
को। मेरी
मान्यता है कि
वह नंबर एक के
खाते को तुमने
इतना मुश्किल
कर दिया है, कि
अब जिनको भी
जीना है उनको
मजबूरी में
नंबर दो का
खाता बनाना
पड़ेगा। और
जिनको नहीं
जीना है, जिनको
मरना है, वे
खाता ही क्यों
रखेंगे?
नंबर एक का भी
क्यों? उनके
लिए पहाड़, नदी,
बहुत से
स्थान हैं
मरने के लिए!
खाते में क्यों
सिर मारेंगे!
जिनको मरना ही
—है, आत्मघात
ही करना है, उनके लिए
बहुत उपाय हैं।
और अगर
आत्मघात करने
की हिम्मत
नहीं है, तो
कम—से—कम
साधु—संत होकर
तो बैठ ही जा
सकते हैं! न
रहा खाता, न
खाते की झंझट
रही। न रहा
बांस न
बांसुरी के बजने
का उपद्रव
रहा। मगर
मंदिर—मस्जिद
में बैठ जायेंगे
साधु—संत हो
कर, तो भी
उनको
खिलायेगा कौन? नंबर
दो का खाता ही
खिलायेगा!
क्योंकि नंबर
एक का खाता तो
लोगों को नहीं
खिला पा रहा
है, साधु—संतों
को कहां से
खिलायेंगे?
इसे
थोड़ा समझो, तुम
आदर्श अगर अति
बना लोगे, आदर्श
अगर असंभव बना
लोगे तो शायद
कोई एकाध झक्की,
पागल, दुराग्रही
उसको पूरा
करने में लग
जाये, लेकिन
बाकी निन्यानबे
प्रतिशत
सीधे—सादे लोग
अड़चन में पड़
जायेंगे।
उनके पास एक
ही उपाय रहेगा
कि मुखौटे ओढ़
लें; दिखाएं
कुछ, करें
कुछ; बतायें
कुछ, हों
कुछ।
मैं
एक ऐसी दुनिया
चाहता हूं
जहां आदर्श
कम—से—कम हों, न्यूनतम
हों; जो
मजबूरी में
हों बिलकुल।
किस बात की
मजबूरी? उतने
ही आदर्श होने
चाहिए, 'उतने
ही नियम होने
चाहिए जिनके
आधार से दूसरे
को हम नुकसान
न पहुंचा सकें,
बस। दूसरे
के जीवन में
बाधा हम न डाल
सकें, इतने
नियम
काफी हैं।
इससे ज्यादा
नियम की कोई
आवश्यकता
नहीं है। और
उतने नियम
आदमी बराबर
पूरे कर सकता
है। कोई अड़चन
नहीं है। कौन
किसी की
जिंदगी में
बाधा डालना
चाहता है? किसलिए?
अगर
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपना जीवन
जीने की सुविधा
मिले, सुख
मिले, शाति
मिले, कौन
किसके जीवन
में बाधा
डालना चाहता
है? बाधा
दूसरे के जीवन
में डालो, तो
खुद के जीवन
में भी बाधा
पड़ती है। यह
कोई सस्ता
सौदा नहीं है!
तुम दूसरे को
परेशांन
करोगे, तो
तुम परेशांन
किये जाओगे।
फिर
आदर्श से अर्थ
होता है. दूर
आकाश के तारे
हैं..! ऐसा होना
है,
वैसा होना
है। और उस
होने की दौड़
में तुम यह भूल
जाते हो कि
तुम कैसे हो।
जो है, वह
तो भूल जाता
है; और जो
होना है, उस
पर आंखें अटक
जाती हैं। और
जो है वही
यथार्थ हैं।
जैसे एक आदमी
को टी. बी. है, यह तो
यथार्थ है; और स्वस्थ
होना चाहिए, मुहम्मद अली
की तरह पहलवान
होना चाहिए कि
गामा की तरह
पहलवान होना
चाहिए—यह
आदर्श है। तो
घर में गामा
पहलवान की
तस्वीर लगाये
हुए हैं, रोज
उसकी आरती
उतारते हैं।
और टी. बी. है।
भीतर सड़ रहे
हैं, मगर
आंखें गामा
पहलवान की
तसवीर पर लगा
रखी हैं! क्या
होगा इससे? इससे कोई टी
बी से छुटकारा
हो जायेगा? सच तो यह है
कि इसके कारण
टी. बी से
छुटकारे का उपाय
ही न रह
जायेगा।
तुम्हारी आंख
ही टी बी. पर नहीं
है। तुम्हारी
आंख लगी है
गामा पहलवान
की तसवीर पर।
और तुम्हारी
आंख होनी चाहिए
थी टी बी. पर, तो कुछ उपाय
हो सकता था, तो चिकित्सा
हो सकती थी।
आदमी
क्रोध से जला
जा रहा है और
अक्रोध का आदर्श
बना कर बैठा
है! क्रोध पर
नजर रखो, क्रोध
पर ध्यान लाओ।
अक्रोध
इत्यादि के
आदर्श छोड़ो।
उनसे कुछ भी न
होगा। क्रोध
पर नजर गड़ाओ।
जो तुम्हारा
यथार्थ है उसी
यथार्थ के साथ
जीने में
मार्ग है। जो
व्यक्ति अपने
क्रोध के
प्रति जागेगा,
वह धीरे—
धीरे क्रोध से
मुक्त हो
जायेगा। अब यह
बड़े मजे की
बात है कि
क्रोध से
मुक्त हो जाये
तो अक्रोध
फलित होगा।
अक्रोध आदर्श
की तरह नहीं
आयेगा। तथ्य
को जानने, तथ्य
से मुक्त होने
में फलित होता
है। तुम्हारे
भीतर तो घृणा
भरी है—और
प्रेम का
आदर्श, बातें
प्रेम की, भाईचारे
की, विश्वबंधुत्व
की। और भीतर
घृणा भरी है, और भीतर
घृणा का जहर
भरा है। उसी
घृणा के जहर को
तुम छिपा रहे
हो प्रेम की
ओट में। इससे
क्या होगा? बाहर प्रेम
की बातें होती
रहेंगी और
भीतर घृणा
बढ़ती जायेगी,
फैलती
जायेगी; कैंसर
की तरह
तुम्हारी
आत्मा को घेर
लेगी!
नहीं, मैं
तुमसे कहता
हूं : प्रेम के
आदर्श छोड़ो।
घृणा यथार्थ
है, तो इसी
घृणा पर आंखें
गडाओ। इसके
साक्षी बनो। इसको
पहचानो। इसकी
पर्त—दर—पर्त
गहराई में
उतरो। इसकी
सीढ़ियों को पार
करो। इस घृणा
से परिचित
होना ही होगा
कि यह घृणा
क्यों है, क्या
है? कहा से
आती है? क्यों
आती है? इसका
राज क्या है? इसका बल
कहां छिपा है?
इसी खोज से
तुम चकित हो
जाओगे। जिस
दिन तुम घृणा
के सारे मार्ग
जान लोगे, उसके
उठने के, जगने
के सारे उपाय
पहचान लोगे; जिस दिन तुम
घृणा का सारा
शिकंजा समझ
लोगे—उसी दिन
तुम उसके बाहर
हो जाओगे। समझ
मुक्ति है। क्योंकि
जिसने घृणा के
सब रास्ते जान
लिये, वह
भूल कर भी
घृणा नहीं कर
सकता। वह नींद
में भी घृणा
नहीं कर सकता।
स्वप्न में भी
घृणा नहीं कर
सकता। क्यों?
क्योंकि
घृणा
आत्मघाती है।
यह अपने ही
जीवन के आनंद
को अपने ही
हाथों नष्ट
करना है। और
जो घृणा नहीं
कर सकता, उसके
भीतर प्रेम का
आविर्भाव
होता है।
तो
तुम यह मत
समझना कि मैं
नहीं चाहता
हूं कि तुम्हारे
जीवन में
प्रेम आये।
प्रेम तो आना
चाहिए, मगर
आदर्श की तरह
प्रेम नहीं
आयेगा। आदर्श
के कारण ही
नहीं आ पा रहा
है। आदर्शों
को जाने दो।
तथ्यों
में जीयो। फिर
तथ्य चाहे
कितने ही कडुवे
क्यों न हों, और
कितने ही
कांटे की तरह
क्यों न चुभते
हों, जो
हमारी असलियत
है उससे
परिचित होना
ही होगा। और
तब क्रांति घटती
है—अपूर्व
क्रांति! तथ्य
के परिचय से
सत्य का जन्म
होता है। और
जो ऊर्जा
क्रोध बनी थी,
वही ऊर्जा
क्रोध से
मुक्त हो जाती
है, करुणा
बन जाती है।
जो ऊर्जा
कामवासना बनी
थी, वही
कामवासना से
मुक्त हो जाती
है तो राम की खोज
बन जाती है।
जो काम थी, वही
राम बन जाती
है। और जो
ऊर्जा घृणा
बनी थी, वही
घृणा से मुक्त
हो जाती है।
तो प्रेम की
वर्षा होने
लगती है।
घृणा
और प्रेम एक
ही ऊर्जा के
दो ढंग है।
घृणा गलत ढंग
है,
प्रेम सही
ढंग है। लेकिन
गलत ढंग को
जाने बिना कोई
सही ढंग को
उपलब्ध नहीं
होता। और सही
ढंग को उपलब्ध
होने के लिए
कुछ भी नहीं
करना पड़ता, सिर्फ गलत
को जान लेना
होता है। जिस
दिन तुम्हें
समझ में आ गया
कि यह दीवाल
है, इससे
निकलना संभव
नहीं है, सिर
टूटता है—बस
उसी दिन दीवाल
से निकलना बंद
हो गया। अब
तुम दरवाजे की
तलाश करोगे।
और दरवाजा है।
जैसे दीवाल है,
वैसे ही
दरवाजा भी है।
तुम्हारे
जीवन में
ऊर्जा को
रूपांतरित करने
की व्यवस्था
है—जन्मगत!
कंकड़—पत्थर हो
कर भी मर सकते
हो, हीरे—जवाहरात
भी हो सकते हो!
लेकिन
आदर्शों के
कारण तुम नहीं
हो पा रहे हो, यही अड़चन की
बात है।
आदर्श
की बात बड़ी
ऊंची मालूम
पड़ती है।
लेकिन आदर्श
ही मनुष्य को रूपांतरित
नहीं होने
देता। हिंसा
भरी है; ' अहिंसा
परमो धर्म: ' दीवाल पर
लटकाये बैठे
हैं! भीतर कोई
परमात्मा का
भाव नहीं है
और घर में एक
परमात्मा की
मूर्ति लगा ली
है। एक पुजारी
किराये पर रख
लिया है, वह
घंटी इत्यादि
बजा कर
परमात्मा को
समझा—बुझा कर,
सुला कर चला
जाता है। फिर
उसको कोई
तुम्हारे ही
घर के एक परमात्मा
को थोड़े ही
सुलाना है, और भी कई
घरों में जाना
है। जा कर
जल्दी से घंटी
बजा कर, जंतर—मंतर
करके... कोई
देखता भी नहीं
कि वह क्या कर
रहा है! फिर
उसको जल्दी भी
रहती है, कई
को निपटाना
है। कोई एकाध
का थोड़े ही
मामला है।
तुम
क्या कर रहे
हो?
तुम्हारे
जीवन में
परमात्मा का
कोई अनुभव नहीं
और घर में एक
कोने में
मूर्ति लगा दी
है। और वह भी
एक किराये का
नौकर रख छोड़ा
है! उस मंदिर में
तुम खुद भी
कभी नहीं
जाते। उस
मंदिर में कभी
तुम बैठकर दो
आंसू नहीं
बहाते।
तुम्हारी जिंदगी
में है ही
नहीं प्रेम्;
तुम्हारी
जिंदगी में है
ही नहीं
प्रार्थना। मगर
यह मंदिर
तुम्हें धोखा
दे देता है।
इससे तुम्हें
ऐसा एहसास
होने लगता है
कि अब और क्या करना
है, जो
करना था कर तो
दिया! मंदिर
बनवा दिया।
मूर्ति लगवा
दी। पुजारी
रखवा दिया। अब
और क्या जान
के पीछे पड़े
हो? आदर्श
और क्या चाहिए? जिनके पास
और सुविधा है,
और मंदिर
बनवा देते हैं,
गाव—गांव
बनवा देते
हैं। जगह—जगह
मंदिर खड़ा करवा
देते हैं।
इतने तो
परमात्मा के
मंदिर बनवा दिए,
और क्या
करना है? इस तरह
से आदमी आदर्श
की आडू में
अपने यथार्थ
को बचाये चला
जाता है।
आदर्श
का विरोध
इसलिए नहीं है
कि हम नहीं
चाहते कि जगत
में प्रेम हो।
हम चाहते हैं
कि जगत में प्रेम
हो,
इसलिए
विरोध है। हम
चाहते हैं जगत
में अहिंसा हो,
इसलिए 'अहिंसा
परमो धर्म: इस
आदर्श से
छुटकारा पाओ।
अभी तो हिंसा
तुम्हारा
यथार्थ है।
अपनी बीमारी
पहचानो। अपनी
बीमारी के
प्रति जागो।
उसी जागरण से
तुम स्वस्थ
होना शुरू
होओगे।
तुम
पूछते हो कि
अगर आदर्श छोड़
दिए जायें, तो
जीवन में
चुनौती न रह
जायेगी, फिर
विकास कैसे
होगा? चुनौती
तो जीवन ही
काफी दे रहा
है। आदर्श से
कहीं चुनौती
मिलती है? आदर्श
से झूठी
चुनौती मिलती
है, असली
चुनौती जीवन
से मिलती है।
जब भी तुम
क्रोध करते हो,
क्या
तुम्हें पीड़ा
नहीं होती? जब भी तुम
क्रोध में
जलते— भुनते
हो, क्या
तुम्हें सुख
मिलता है? सच,
सुख मिलता
है? फूल
बरसते हैं? काटे—ही—कांटे
छाती में नहीं
चुभ जाते हैं?
पछताते
नहीं हो? पीछे
हारे— थके
अनुभव नहीं
करते हो? पीछे
सोचते नहीं हो
कि यह मूढ़ता
कब छूटेगी? हर बार
क्रोध करके
तुम मूढ़ सिद्ध
नहीं होते हो?
तुम्हारी
आंखों में
अपनी ही
प्रतिष्ठा
नहीं गिर जाती?
अब इसके लिए
कोई अक्रोध का
आदर्श थोड़े
चाहिए, क्रोध
ही काफी
चुनौती है। और
अगर क्रोध भी
चुनौती नहीं
है, तो
अक्रोध का
सिद्धात, जो
किताबों में
लिखा है, वह
क्या खाक
चुनौती बनेगा?
क्रोध ही तो
काफी मौके दे
रहा है, रोज—रोज
मौके दे रहा
है। जब भी
क्रोध होता है,
तभी तो
तुम्हें खबर
दे रहा है
क्रोध, कि
फिर... फिर
तुमने
मूढ़तापूर्ण
व्यवहार
किया। फिर
तुमने
मूर्च्छित
व्यवहार
किया। और
मूर्च्छा दुख
लाती है। और
जागरूकता आनंद
लाती है।
जब
भी तुम प्रेम
करते हो, तभी
रस बहता है, आनंद आता
है। जब भी तुम
किसी को हाथ
बढ़ाकर सहारा
देते हो, तब
तुमने देखा
कैसी पुलक फैल
जाती है भीतर,
प्राणों पर!
कैसी आभा तैर
जाती है! इससे
बड़ी और क्या
चुनौती चाहिए?
जीवन
पर्याप्त है।
जीवन में सब
तो है। यहां
सुख के अनुभव
हैं। सुख
चाहिए, तो
उन अनुभवों को
गहराये जाओ।
यहां दुख के
अनुभव हैं।
दुख चाहिए तो
दुख के
अनुभवों को
गहराये जाओ।
आदर्शों के
कारण अड़चन हो
रही है, उलझाव
हो रहा है!
सीधी—सीधी
बातें नहीं
दिखाई पड़ पातीं!
जीवन बिलकुल
साफ है। सामने
खड़ा है। और
जीवन पर्याप्त
है। जीवन के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
चाहिए।
जब
कोई तुम्हें
अपमानित करता
है,
तो तुम्हें
पीड़ा होती है।
इसमें ही तो
सारी चुनौती
छिपी है! इससे
साफ हो गया :
किसी को
अपमानित मत
करना, अन्यथा
उसे पीड़ा
होगी। और पीड़ा
का प्रतिफल
अच्छा तो नहीं
होगा। जिसको
तुम अपमानित
करोगे, वह
बदला लेगा।
बुद्ध ने कहा
है. वैर से वैर
शांत नहीं
होता। यह कोई
सिद्धात नहीं
है, न कोई
आदर्श है; यह
तो सीधे जीवन
का अनुभव है।
यह तो
तुम्हारा भी
अनुभव है।
प्रेम से
प्रेम बढ़ता है,
घृणा से
घृणा बढ़ती है।
अब तुम्हें
अपनी बगिया
में अगर फूल
लगाने हों, तो काटे मत
बोओ, बबूल
मत बोओ।
लेकिन
आदर्श में
सुविधा है.
बोते बबूल हो, आशा
रखते हो
गुलाबों की।
सोचते हो कल
गुलाब होंगे,
एक दिन तो
गुलाब होंगे।
आज नहीं तो कल,
कल नहीं तो
परसों, इस
जन्म में नहीं
तो अगले जन्म
में, एक
दिन तो गुलाब
पैदा करने
हैं! और
गुलाबों पर आंखें
अटकी रहती हैं,
और
मूर्च्छा में
तुम्हारे हाथ
बबूल बोते रहते
हैं। तुम आज
बबूल बो रहे
हो, कल भी
बबूल काटोगे,
परसों भी
बबूल काटोगे!
क्योंकि जो
तुमने बोया ही
नहीं है आज, उसकी फसल
कैसे काटोगे!
मैं कहता हूं :
आंखें तुम
जमीन पर लाओ।
वापिस जमीन पर
आओ। यथार्थवादी
बनो, आदर्शवादी
नहीं।
यूनान
में ऐसा हुआ, एक
ज्योतिषी रात
आकाश के तारों
का अध्ययन करता
हुआ चला जा
रहा था, एक
कुएं में गिर
पड़ा। पाट नहीं
थी कुएं पर।
आंखें आकाश
में अटकी थीं।
चांद—तारों का
अध्ययन हो रहा
था। कुएं में
गिर पड़ा तो
चिल्लाया।
पास के ही
झोपड़े से एक
गरीब बुढ़िया
ने उसे
बामुश्किल
निकाला। वह
यूनान का सबसे
बड़ा ज्योतिषी
था। सम्राट भी
उसके द्वार पर
आते थे।
उसने
बुढ़िया का
बहुत—बहुत
धन्यवाद किया
और कहा कि देख, तुझे
पता नहीं कि
तुझे सौभाग्य
से किसको बचाने
का अवसर मिला
है! मैं यूनान
का सबसे बड़ा
ज्योतिषी
हूं। तारों, नक्षत्रों,
उनकी
गतिविधियों, मनुष्य के
भाग्य से उनके
संबंध में
मुझसे बड़ा कोई
जानकार
पृथ्वी पर
नहीं है। बड़े
से बड़े सम्राट:
मेरे पास आते
हैं। मेरी फीस
भी बहुत ज्यादा
है। लेकिन
तूने मुझे
बचाया है तो
तेरा भाग्य
मैं बिना फीस
के देख दूंगा,
तू कल आ
जाना।
वह
बुढ़िया हंसने
लगी। उस
ज्योतिषी ने
कहा : तू हंसती
क्यों है? उसने
कहा. मैं
इसलिए हंसती
हूं कि जिसे
अपने सामने का
कुआं नहीं
दिखाई पड़ता, उसे
चांद—तारों की
गतिविधि, नक्षत्र
और भविष्य...।
तुझे अपने पैर
सम्हलते नहीं
हैं, तू
मेरा भविष्य
बतायेगा? होश
में आ!
और
कहते हैं यह
घटना उस
ज्योतिषी के
जीवन में क्रांति
का कारण बन
गयी। उसने
ज्योतिष छोड़
दी। यह चोट
भारी थी! यह
बात भी इतनी
सच थी! सामने
पैर के कुआं
है,
नहीं दिखाई
पड़ा! मगर उसे
क्यों कुआं
नहीं दिखाई
पड़ा था? नहीं
कि उसके पास
आंख नहीं थी; आंख थी, मगर
आंख दूर के
तारों पर अटकी
थी!
यही
आदर्शवादी की
भ्रांति है, उसकी
आंख दूर के
तारों पर अटकी
है।
आदर्शवादी कहता
है मोक्ष
पायेंगे! अभी
यह सड़ा—गला
क्रोध, इससे
छुटकारा नहीं
हो रहा है। यह
सड़ा—गला काम, इससे
छुटकारा नहीं
हो रहा है। मोक्ष
पायेंगे!
बैकुंठ
जायेंगे!
निर्वाण होगा!
आंखें बड़े दूर
के आकाश पर
लगी हैं। और
उसकी वजह से
रोज—रोज
गड्डों में
गिर रहे हो।
गड्डे—क्रोध
के, काम के,
वैमनस्य के,
ईर्ष्या के,
घृणा के!
मैं तुमसे
कहता हूं :
आंखें लौटा
लाओ जमीन पर।
जहां चलना है
वहीं आंखें
होनी चाहिए।
इस क्षण में
ही आंखें होनी
चाहिए, क्योंकि
गड्डे यहां
हैं। और सारे
गड्डों से तुम
बच जाओ, तो
उसी बचाव का
नाम मोक्ष है।
मोक्ष कहीं
दूर आकाश में
नहीं है।
जिसके जीवन
में गिरने की
संभावना न रही,
वही मुक्त
है।
तीसरा
प्रश्न:
ऐसा
कौन— सा जादू
है जो मुझे यहां
खींच लाया है? घर
पर या बाजार
में जहां भी
रहता हूं आपकी
याद आती रहती
है ध्यान में
भी आपकी याद
आती है तो आंसू
बहने लगते
हैं। न कोई
मांग है और न
कुछ... मैं क्या
करूं?
सीताराम!
इन आंसुओ में
डुबकी लगाओ।
ये आंसू परम सौभाग्य
के आंसू हैं!
और जो अभी
तुम्हारे हृदय
में मेरी
स्मृति है, उसी
स्मृति का
सहारा पकड़—पकड़
कर धीरे— धीरे
परमात्मा की
स्मृति को
जगाओ। मुझ से
तुम्हारा जो
संबंध बना है,
वह अंतिम
नहीं है। वह
अंतिम नहीं
होना चाहिए। मुझसे
तुम्हारा जो
संबंध बना है,
उसका उपयोग
कर लो। उस
संबंध को
परमात्मा की
याद में रूपांतरित
कर लो। याद
आने लगी मेरी,
तो एक बात
तो पक्की हो
गयी कि याद की
कला आ गयी। अब
जरा याद का
विषय बदलना
है। आधा काम
तो पूरा हो
गया। तैरना तो
आ गया; अब
पूरब तैरें कि
पश्चिम तैरें,
यह उतनी
कठिन बात
नहीं। इसमें
क्या कठिनाई
है? असली
बात कठिनाई की
है—याद।
तुम
कहते हो : 'ऐसा
कौन— सा जादू
है जो मुझे
यहां खीच लाया?'
जादू
चल गया! असली
बात तो हो गयी!
'घर पर या
बाजार में
जहां भी रहता
हूं आपकी याद आती
रहती है।
ध्यान में भी
याद आती है और
आंसू बहने
लगते हैं '
अब
धीरे—धीरे
मेरी इस याद
को परमात्मा
की याद में
रूपांतरित
करो। इसलिए
गुरु को
परमात्मा कहा
है;
क्योंकि
गुरु को धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे
रूपांतरित कर
लेना है
परमात्मा में।
गुरु सिर्फ
शिष्य के लिए
परमात्मा है,
सभी के लिए
नहीं। और उसको
परमात्मा
मानने के पीछे
बड़ा राज है।
राज यही है कि
अगर वह
परमात्मा है,
तो ही हम
उससे परमात्मा
पर छलांग लगा
सकेंगे, नहीं
तो छलांग नहीं
लग पायेगी।
गुरुर्ब्रह्मा...।
गुरु से तो
शुरुआत है। वह
तो बीज है।
गुरु ने हाथ
पकड़ लिया। अब
जल्दी ही गुरु
का हाथ
परमात्मा के
हाथ में
रूपांतरित होना
चाहिए। याद
आने लगी, शुभ
घड़ी आ गयी।
आंसू बहने लगे,
बड़ा प्यारा
क्षण है। अब
इसी याद को
परमात्मा की
याद में बदलना
है। अब एक कदम
और उठाना है।
जब मेरी याद
में इतना रस आ
रहा है, तो
उसकी याद में
कितना रस न
आयेगा! और जब
मेरी याद में
इतना जादू
मालूम पड़ता है,
तो उसकी याद
में महाजादू
नहीं हो
जायेगा! निश्चित
हो जायेगा!
तारकों
को रात चाहे
भूल जाये,
रात
को लेकिन न
तारे भूलते
हैं
दे
भुला सरिता
किनारों को
भले ही,
पर
न सरिता को
किनारे भूलते
हैं
आंसुओ
से तर बिछुड़ने
की घड़ी में
एक
ही अनुरोध
तुमसे कर रहा
हूं—
हास
पर संदेह कर
लेना भले ही,
आंसुओ
की धार पर
विश्वास करना!
प्राण!
मेरे प्यार पर
विश्वास करना!
लोग
कहते हैं कि
भौंरा
गुनगुनाता,
किंतु
मैं कहता कि
वह है आह भरता
क्या
पता रंगीन
कलियों को कि
उन पर
एक
जीवन में
भ्रमर सौ बार
मरता!
तीर—सी
चुभती
बिछुड़ने की
घड़ी में
एक
ही अनुरोध तुम
से कर रहा हूं—
जीत
पर संदेह कर
लेना भले ही
पर
हृदय की हार
पर विश्वास
करना!
प्राण!
मेरे प्यार पर
विश्वास करना!
अश्रु
मेरे जा रहे
मुझको गलाये
आग
मेरी जा रही
मुझको जलाये
रह
न जाये द्वैत
तुममें और
मुझमें—
जा
रहा हूं इसलिए
हस्ती मिटाये!
सांझ—सी
धुंधली
बिछुड़ने की
घड़ी में
एक
ही अनुरोध
तुमसे कर रहा
हूं—
जिंदगी
पर मत भले
करना भरोसा,
पर
मरण—त्यौहार
पर विश्वास
करना!
प्राण!
मेरे प्यार पर
विश्वास करना!
शिष्य
और गुरु के
बीच पाठ क्या
है?
पाठ है
प्रेम का। पाठ
है आंसुओ का।
पाठ है प्रार्थना
का। पाठ है
आत्मा का।
गुरु और शिष्य
के बीच कौन—सी
महत यात्रा चल
रही है? यह
दूसरों को
नहीं दिखाई
पड़ेगी। यह तो
केवल उन्हीं
को दिखाई
पड़ेगी जो
मार्ग पर चल
पड़े हैं। जिन्होंने
आंखें गुरु की
तरफ मोड़ी हैं,
केवल उनको
ही दिखाई
पड़ेगी।
तुम्हारा
मुझसे नाता बन
गया। इस नाते
से सुख की
पहली झलक आनी
शुरू हो गयी।
इसलिए तुम
चकित हो, सोचते
हो कौन—सा
जादू हो गया
है! यह कुछ भी
नहीं है, अभी
बहुत कुछ होना
है। जो होना
है उसके
मुकाबले यह
कुछ भी नहीं।
यह बूंद भी
नहीं है, अभी
सागर होना है!
मगर ठीक दिशा
पकड़ गयी है।
अब इस दिशा को
और— और
निखारते चलना
है। जब मेरी
याद आये तो
मेरी याद के
साथ अब
परमात्मा की याद
को जोड़ो।
धीरे— धीरे
दोनों यादें
साथ—साथ आने
लगेंगी। फिर
जब दोनों
यादें साथ—साथ
आने लगें तो
मेरी याद को
छोड़ देना। फिर
परमात्मा की
याद को ही पकड़
लेना। और भूल
कर भी यह मत
सोचना कि मुझे
छोड़ने में
तुमने मुझे
छोड़ दिया।
मुझे पकड़ा तो
मैं छूट
जाऊंगा।
परमात्मा को
पकड़ा तो मुझे
तुम कभी भी
नहीं छोड़
पाओगे, क्योंकि
वही असली
गंतव्य है।
मैंने
अंगुली बताई
चांद की तरफ, तुम
मेरी अंगुली
पकड़ लोगे, तो
चूक जाओगे।
अंगुली पकडने
के लिए नहीं
बताई गयी थी।
अंगुली बताई
थी चांद देख
लेने के लिए।
अगर तुम समझ
गये, तो
अंगुली को तो
भूल जाओगे और
चांद को देख
लोगे। और जिस
घड़ी तुमने चांद
को देखा, तुमने
मेरी चेष्टा
सफल कर दी।
क्योंकि चांद
तुम्हें दिख
जाये, यही
मेरा प्रयास
था। ऐसा मत
सोचना कि कैसे
इस प्यारी
अंगुली को छोड़
दूं जिसने
चांद दिखाया;
मैं तो
अंगुली को
पकडूगा।
अंगुली पकड़ी
कि भूल हो
जायेगी।
इसी
तरह लोग
अंगुली पकड़े
बैठे हैं।
किसी ने महावीर
की अंगुली
पकड़ी है, किसी
ने मुहम्मद की,
किसी ने
मूसा की, किसी
ने बुद्ध की, किसी ने
कृष्ण की, किसी
ने क्राइस्ट
की—अंगुलिया
पकड़ ली हैं! और उनसे
अगर अंगुलिया
छुड़ाओ, तो
वे नाराज होते
हैं। वे कहते
हैं कि आप यह क्या
कर रहे हैं? यह अंगुली
हमारी बड़ी
प्यारी है! यह
तो हम सदियों
से पकड़े हैं।
यह हम छोड़ न
देंगे। यह हम
कभी न छोड़ेंगे।
प्राण भले चले
जायें, मगर
यह अंगुली न
छोड़ेंगे।
चांद
कब देखोगे, जिसकी
तरफ अंगुली
उठाई गयी थी? उसी चांद की
तरफ कुरान का
इशारा है, उसी
चांद की तरफ
वेद का, उसी
चांद की तरफ
गीता का, धम्मपद
का। मगर कोई
धम्मपद को
छाती से लगाये
बैठा है, कोई
वेद को सिर पर
रखे बैठा है।
दबे जा रहे हो,
मरे जा रहे
हो। और कोई
अगर बोझ
उतारना भी
चाहे तो उसको
तुम दुश्मन
समझते हो।
क्योंकि तुम
समझते हो यह
बोझ नहीं है, संपदा है।
मैं
तुम्हारा बोझ
नहीं बनना
चाहता। मैं
नहीं चाहता कि
मेरी अंगुली
तुम पकड़ लो! हौ, शुरू—शुरू
में पकड़ाता
हूं तुम्हें
अंगुली, क्योंकि
एक बार अंगुली
पकड़ में आ
जाये, तो
फिर चांद की
तरफ यात्रा
करवायी जा
सकती है।
तो
गुरु के काम
के दो हिस्से
हैं।
पहला—शिष्य की
पकड़ में आये
और दूसरा कि
शिष्य की पकड़
से छिटक जाये।
जब काम पूरा
हो जाये, तो हट
जाये बीच से।
नहीं तो गुरु
बड़ी बाधा बन सकता
है।
कोई
सदगुरु बाधा
नहीं बनना
चाहता, लेकिन
शिष्य अपनी
मूढ़ताओं में
बाधा बना ले
सकता है।
असदगुरु जरूर
बाधा बनना
चाहते हैं। वे
तो कभी नहीं
चाहेंगे कि
तुम्हारे बीच
से हट जायें।
अगर तुम हटने
लगे, उनको
हटाने लगे, तो बड़े
नाराज हो
जायेंगे। वे
तो कहेंगे
गद्दारी है!
मैंने तेरा
इतना भला किया,
तुझे इतनी
दूर ले आया, अब तू मुझे
छोड़ता है! वे
तो ऐसी नाव
हैं जो तुम्हें
उस पार ले
जायेंगे, लेकिन
उतरने न देंगे
नाव से—कि नाव
में बैठो; इतनी
दूर तक ले आये,
अब हमें
छोड़ते हो!
सदगुरु
तो कहेगा, मैं
नाव हूं। जब
पार हो जाओ तो
छोड़ देना। उस
पार उतर जाना,
बात पूरी हो
गयी। मैं भी
खुश हूं कि
तुम्हारे काम
आ गया। मेरा
आनंद कि तुम
अंधेरे में थे
रोशनी में आ
गये! कि तुम
मुर्दा थे और
जिंदा हो गये!
लेकिन
हालतें ऐसी
हैं,
किसी और
मित्र ने पूछा
है कि
परमात्मा के
साक्षात्कार
में गुरु
आवश्यक क्यों
है? पहले
आदमी यही
पूछते हैं कि
गुरु की
आवश्यकता क्या
है? बिना
गुरु के नहीं
चल सकता? ये
ही लोग एक दिन
दूसरे सवाल
उठायेंगे कि
अब गुरु तो
मिल गया, अब
गुरु को पकड़
लिया, अब
छोड़ने की
आवश्यकता
क्या है? ये
ही लोग! ये
भिन्न लोग
नहीं हैं। ये
ही लोग! पहले
पकड़ने में
अडचन देंगे, फिर छोड़ने
में अड़चन
देंगे!
मेरा
अपना अनुभव
ऐसा है : जो
सरलता से
पकड़ता है वह
सरलता से छोड़
देता है। जो
कठिनता से
पकड़ता है वह
कठिनता ही से
छोड़ता है।
मैंने
सुना है कि
कुछ लोग
यात्रा पर जा
रहे हैं।
अमृतसर के
स्टेशन पर
गाड़ी खड़ी है।
एक दार्शनिक
किस्म का आदमी, वह
भी उनके गिरोह
में है, वह
कहने लगा कि
भाई, इस
गाड़ी में चढ़ना
तो बहुत
मुश्किल है, इसमें से
उतरना तो नहीं
पड़ेगा? उसके
साथियों ने
कहा, उतरना
तो पड़ेगा।
हरिद्वार
पहुंचे कि
उतरे। उसने कहा,
जब उतरना ही
है तो चढ़ना
किसलिए? इतनी
झंझट क्यों
करनी? मारपीट
करो, मार
खाओ, झंझट
में पड़ो। फिर
उतरना है ही
आखिर, फिर
उतरना ही है, तो चढना
क्यों?
गाड़ी
जाने को होने
लगी। अब
दार्शनिक को
समझाने के लिए
समय भी नहीं
है साथियों
को। उन्होंने
जबर्दस्ती...
वह चिल्लाता
ही रहा कि
क्यों मुझे
जबर्दस्ती कर
रहे हो। उन्होंने
उसे घसीट कर..
पंजाबी तो
पंजाबी! उन्होंने
घसीट कर उसे
भीतर ही कर
लिया।
उन्होंने कहा, तू
चुप रह। अब यह
कोई वक्त
दार्शनिक
सिद्धात का
नहीं है, हरिद्वार
में देखेंगे।
हरिद्वार
आया;
फिर झंझट
शुरू। वह उतरे
नहीं। वह कहे
कि जब चढ़ ही
गये तो अब
उतरना क्या? और अब तो मजा
आ रहा है, सब
लोग छोड़ कर जा
रहे हैं, मस्त
हो कर रहेंगे।
अब पैर फैला
कर सोयेंगे। खड़े—खड़े
थक भी गये, परेशांन
भी हो गये, दम
घुट गया! अब
मित्र उसको
फिर खींच रहे
हैं। पंजाबी
तो पंजाबी!.. यह
बकवास पीछे
करेंगे, अभी
नीचे उतरो। और
वह है कि पकड़
रहा है बैंच
कि मैं जाऊंगा
नहीं।
बामुश्किल तो
चढ़ पाये!
हंसो
मत,
ऐसी ही हालत
है! पहले चढने
में बड़ी
मुश्किल है।
चढ़ गये तो फिर
उतरने में बड़ी
मुश्किल है।
पहले गुरु के
सामने झुकने
में बड़ी
मुश्किल है।
पहले गुरु का
हाथ पकड़ने में
अहंकार को बड़ी
चोट लगती है।
जो सरलता से
हाथ पकड़ लेता
है, वह
सरलता से एक
दिन हाथ छोड़
भी देता है।
और हाथ छोड़ने
में कोई गुरु
की अवमानना
नहीं है, गुरु
का सम्मान है,
समादर है, गुरु की
आकांक्षाओं
की परितृप्ति
है। और हाथ छोड़ने
में कोई गुरु
का छोडना नहीं
है, हाथ
छोड़ने में
परमात्मा का
मिलना है।
पहले गुरु में
परमात्मा को
पाया था, अब
परमात्मा में
गुरु को पा
लेंगे। कुछ
छूटना नहीं
है।
फिर
से दोहरा दूं :
पहले बूंद में
सागर देखा था, अब
सागर में बूंद
को देख लेंगे।
जब बूंद तक में
सागर दिख सका,
तो सागर में
बूंद के दिखने
में क्या अड़चन
आयेगी? कठिन
बात तो पहली
थी कि बूंद
में सागर को
देखना। सागर
में तो बूंद
बड़ी आसानी से
दिख जायेगी।
गुरु में
परमात्मा
देखना बहुत
कठिन बात है, लेकिन
परमात्मा में
गुरु को देखना
तो कोई भी कठिन
बात न होगी।
यह तो सरलता
से हो जायेगा।
इसलिए न
अवमानना है, न गद्दारी
है, न
अकृतज्ञता
है। आनंद—
भावै से, अहोभाव
से, धन्यवाद
से सिर झुका
कर एक दिन
गुरु की
स्मृति को
परमात्मा की
स्मृति बना
देना आवश्यक
है।
बढ़के
काबे से भी
हंसी है कौन?
झुक
रहा हूं सलाम
करने को
पहली
बार जब गुरु से
मिलना होता है, तो
सब
मंदिर—मस्जिद
फीके पड़ जाते
हैं। क्योंकि
मंदिर—मस्जिदों
में सिर्फ
मूर्तियां
हैं, मृण्मय
है। जब, गुरु
से मिलना होता
है तो चिन्मय,
चैतन्य का
आविर्भाव...।
पहली बार
जीवंत सत्य से
संस्पर्श
होता है!
बढ़के
काबे से भी
हंसी है कौन?
झुक
रहा हूं सलाम
करने को
मगर
रुक नहीं जाना
है—और आगे, और
आगे! जब तक परम
विस्तार न मिल
जाये अस्तित्व
का, तब तक
रुकना ही नहीं
है।
अब
जाके आरजू का
मुकम्मल हुआ
है नक्श
सब
मानने लगे कि
मैं दीवाना हो
गया।
गुरु
मिलेगा तो लोग
तुम्हें पागल
समझेंगे। इससे
अन्यथा न कभी
हुआ है न हो
सकता है। गुरु
मिलेगा तो
सारा जगत
तुम्हें पागल
समझेगा।
क्योंकि
उन्हें तो कुछ
दिखाई नहीं पड़
रहा है; और
तुम्हें कुछ
गंध मिलने लगी,
कुछ रोशनी
मिलने लगी, कुछ सुराग
मिलने लगा, जिसकी
उन्हें खबर भी
नहीं है। कोई
तुमसे राजी न
होगा कि
तुम्हें जो
दिखाई पड़ा है,
सच है। लोग
कहेंगे :
भ्रांति में
पड़ गये हो।
लोग कहेंगे.
पागल हो गये
हो। जब गुरु
मिलेगा तो
सारी दुनिया
तुम्हें पागल
कहेगी। और जिस
दिन तुम गुरु
का हाथ छोड़ोगे,
उस दिन
तुम्हारा मन
ही तुम्हें
पागल कहेगा। दोनों
से सावधान
रहना। दुनिया
पागल कहे, कहने
देना। कहना कि
ठीक, यह
पागलपन
पुराने
गैर—पागलपन से
बेहतर है। और जब
तुम्हारा मन
ही तुम्हें
पागल कहे कि
किसे छोड़ रहे
हो, जो
इतनी दूर तक
ले आया, उसका
हाथ छोड़ते हो?
लेकिन जब
गुरु स्वयं
हाथ छुड़ा रहा
हो, तो
तुम्हारा मन
लाख कहे कि यह
पागलपन है—मत
फिक्र करना।
सब छोड़ा है
गुरु के लिए, यह भी छोड़
देना। जिस दिन
तुम दोनों ये
कदम उठा लोगे,
उस दिन
यात्रा पूरी
हो गयी।
लेकिन
अहंकारी
व्यक्ति पहले
पूछते हैं कि
क्यों, क्या
गुरु की जरूरत
है? क्या
आवश्यकता है?
अब तुम
पूछते ही
क्यों हो? इस
प्रश्न का
उत्तर भी तुम
खुद तो पा
नहीं सकते, इसलिए पूछते
हो। यह गुरु
की तलाश शुरू
हो गयी। नहीं
तो पूछने की
जरूरत क्या है?
अभी तुम
अपने को नहीं
बचा सकते।
क्या
बचाते किसी
सफीने को
अपनी
किश्ती को खुद
डुबो बैठे
तुम
तो अभी डुबा
ही सकते हो
अपनी किश्ती
को। अभी तो
तुमने सिर्फ
डुबाने के ढंग
ही सीखे हैं जन्मों—जन्मों
में। अभी किसी
से संग—साथ
जोड़ लो, जिसे
किश्ती को
तिराना आ गया
हो। उसके
संग—साथ
तुम्हारी
किश्ती भी
तिरना सीख
जायेगी। गुरु के
संग—साथ का और
क्या अर्थ है :
किसी को तैरना
आता है, उसके
साथ हो लिए, ताकि
तुम्हें भी
तैरना आ जाये।
आयेगा तो तुम्हारे
भीतर से ही।
तैरना कोई ऐसी
चीज नहीं है
कि गुरु दे
देगा। लेकिन
गुरु को देख
कर, गुरु
के तार बजते
देख कर
तुम्हारे
भीतर की वीणा
पर झंकार हो
जायेगी। गुरु
के हाथ—पैर
फिकते देख कर
तुम्हें भी
हाथ—पैर
फेंकने की
हिम्मत आ
जायेगी। गुरु
को पानी में
तिरता देख कर
तुम्हें भी
लगेगा—जब गुरु
तिर सकता है
तो मैं भी तिर
सकता हूं। मैं
भी तो मनुष्य
हूं। अगर पानी
गुरु के वजन
को उठा लेता
है तो मेरे
वजन को क्यों
न उठायेगा? अगर
परमात्मा ने
गुरु को उठा
लिया है, तो
मुझे क्यों न
उठायेगा? गुरु
को देख कर
भरोसा आयेगा,
जैसे पानी
गुरु को उठा
रहा है वैसे
ही परमात्मा
मुझे भी उठा
लेगा। समर्पण
करने की
क्षमता आयेगी।
फिर, पहले
तो सभी तैरना
सीखने वाले
उल्टे—सीधे
हाथ फेंकते
हैं। कभी—कभी
मुंह में पानी
भी भर जाता
है। कभी थोड़ी
घबड़ाहट भी हो
जाती है, डुबकी
भी खा जाते
हैं, यह
बिलकुल
स्वाभाविक
है। इन्हीं
डुबकियों को
खा कर तैरना आ
जाता है। इसी
हाथ—पैर को
गलत—सलत फेंक
कर ठीक—ठीक फेंकना
आ जाता है। ये
गलत हाथ भी
ठीक दिशा में
ही फेंके जा
रहे हैं!
तो
घबड़ाना मत।
भयभीत न होना।
मगर अकेले
तैरना सीखने
जाओगे, तो
खतरा है। और
मैं तुम से यह
नहीं कह रहा
हूं कि तैरना
कोई तुम्हें
दूसरा दे सकता
है। तैरना तो
तुम्हारे
भीतर से
आयेगा। लेकिन
अकेले अगर
तैरना सीखने
जाओगे, तो
खतरा है। खतरा
यही है कि
कहीं गहरे न
उतर जाना।
खतरा यही है
कि अभी
तुम्हें
भरोसा कैसे आयेगा
कि पानी
तुम्हें उठा
सकता है, कि
पानी तुम्हें
सम्हाल लेगा।
तुम्हें श्रद्धा
कैसे आयेगी? और तुम्हें
श्रद्धा न
आयेगी, तो
तुम डरे—डरे
भयभीत रहोगे।
तुम्हारा भय
ही तुम्हें
डुबायेगा।
तैरना
जानने वाले
में और तैरना
न जानने वाले
में जो भेद
होता है वह
सिर्फ
आत्मविश्वास
का होता है।
इस बात को तुम
खूब याद कर
लो। सिर्फ आत्मविश्वास
का,
और कोई भेद
नहीं होता।
तैरने वाले को
कोई नयी बात
नहीं मिल गयी
है जो न तैरने
वाले के पास
नहीं है। सब
उतना ही है
बराबर, मगर
एक नयी बात
है—तैरने वाले
को
आत्मविश्वास है।
वह जानता है
कि पानी
डुबाता नहीं
है, पानी
दुश्मन नहीं
है।
तुम
देखते हो न, जिंदा
आदमी डूब जाता
है और मुर्दा
आदमी तैर जाता
है। मुर्दा
आदमी को
कौन—सी कला
आती है? जिंदा
आदमी क्यों
डूब जाता है, मुर्दा आदमी
क्यों तैर
जाता है? पानी
तो तैराने को
राजी ही था, मगर वह
जिंदा अपने भय
में डूब मरा!
वह अपनी आत्मविश्वास
की कमी में
डूब मरा!
मुर्दे को तो
कोई डर ही
नहीं है। अब
क्या डर? अब
मर ही गये तो
डर क्या? अब
डरने वाला ही
नहीं है कोई।
तो मुर्दा तैर
जाता है।
मुर्दे को अब
भय नहीं है, बस, निर्भय
हो गया। ऐसा
ही तैरने वाला
निर्भय हो जाता
है। उसे पानी
से अब भय
नहीं। पानी से
मैत्री है
उसकी। वह
जानता है कि
पानी दुश्मन
नहीं है। पानी
कभी किसी को
नहीं डुबाता,
पानी तो
तैराता है।
पानी की तो
क्षमता यही है
कि वह
गुरुत्वाकर्षण
के विपरीत
तुम्हें ऊपर उठाता
है। मगर
तुम्हें
भरोसा हो न!
तुम्हें भरोसा
नहीं है।
अभी
जापान में एक
मनोवैज्ञानिक
ने छोटे बच्चों
पर प्रयोग
किये। उसने
प्रयोग किये
कि कितनी छोटी
उम्र का बच्चा
तैरना सीख
सकता है? तुम
जान कर हैरान
होओगे, छह
महीने का
बच्चा तैरना
सीख सकता है!
छह महीने के
बच्चों को
उसने तैरना
सिखा दिया! अब
छह महीने का
बच्चा न तो
बोल सकता है, न उसको समझा
सकते; लेकिन
छह महीने के
बच्चे को
तैरना सिखा
दिया! कैसे? छह महीने के
बच्चे को बिठा
देता है टब के
पास। दूसरे
बच्चे तैरते
हैं, वह
बच्चा देखता
है, देखता
रहता है। छोटा
बच्चा है, यद्यपि
अभी आंख तो
खुल गयी है, देखता तो है
कि ये बच्चे
तैर रहे हैं, मजे से तैर
रहे हैं। उसका
दिल भी होता
है। वह भी
सरकना चाहता
है, पानी
में वह भी
जाना चाहता
है। वह जाना चाहता
है तो उसे
जाने देता है।
एकाध दो दफे
डुबकी भी खाता
है। घबड़ा भी
जाता है। मगर
और बच्चे तैर
रहे हैं, बस
जल्दी उसे
भरोसा आ जाता
है। एक बार
भरोसा आ गया
तो बिना भाषा
के, बिना
कुछ कहे, बिना
कुछ बताये वह
भी धीरे—धीरे
हाथ—पैर फेंकने
लगता है। वह
भी धीरे—धीरे
सीख जाता है।
उस
मनोवैज्ञानिक
ने बड़े अदभुत
प्रयोग किये!
वह कहता है, छह
महीने का
बच्चा
पर्याप्त
योग्य है
तैरना सीखने
के लिए। बस
बड़ी से बड़ी
बात जो जरूरी
है वह यह
है—संक्रामक
आत्मविश्वास
हो जाना
चाहिए! उसे
भरोसा आ जाना
चाहिए कि यह
घटना घट सकती
है। वह शायद
और प्रयोग करे,
तो और छोटे
बच्चों को
तैरा सके। ऐसे
भी बच्चे मां
के पेट में
तैरते तो पानी
में ही हैं।
जल में ही
तैरते हैं। तो
नौ महीने का
अनुभव तो लेकर
आते ही हैं।
कोई हमें कुछ
बाहर से देने
वाला नहीं है,
न देने की
कोई जरूरत है।
मगर कौन
जगायेगा विश्वास?
गुरु
ज्ञान नहीं
देता, सिर्फ
श्रद्धा जगा
देता है। सोई
श्रद्धा को झकझोर
देता है। और
जरूरी नहीं है
कि गुरु क्या कहता
है उसे तुम
समझो, तभी
तुम पहुंच
पाओगे। जरूरी
यही है कि
गुरु से
प्रीति लग
जाये। जरूरी
यही है कि
उसके साथ एक रस
का, स्नेह
का भीगा नाता
बन जाये।
जब
खामोशी की मदद
लेनी पड़ी
गुफ्तगू
में वह मुकाम
आ ही गया
बात
करने की बात
नहीं है सत्य।
खामोशी, चुपचाप
मौन में
संबंधित हो
जाने की बात
है। असली बात
तो चुप्पी में
ही कही जाती
है। है तो सब तुम्हारे
भीतर, लेकिन
कोई याद दिला
दे तुम्हें।
तुम्हें अपना
विस्मरण हो
गया है।
फिर
कोई कैद न
तेरे लिए बाकी
रहती
तू
अगरचे दाम से
खुद अपनी रिहा
हो जाता
अपनी
अजमत का नहीं
खुद तुझे
गाफिल एहसास
बंदगी
अपनी जो करता
तो खुदा हो
जाता
सब
कुछ था तेरे
भीतर।
अपनी
अजमत का नहीं
खुद तुझे
गाफिल एहसास।
ऐ
बेहोश! तुझे
अपने गौरव का, गरिमा
का कुछ पता
नहीं है!
बंदगी
अपनी जो करता
तो खुदा हो
जाता
सब
हो सकता है।
बिना गुरु के
हो सकता है।
सच तो यह है, बिना
गुरु के ही
होगा। लेकिन
फिर भी बिना
गुरु के नहीं
होता है, क्योंकि
तुम्हें
विश्वास पैदा
नहीं होता। गुरु
की आवश्यकता
एक कैटेलिटिक
की आवश्यकता है,
जिसकी
मौजूदगी में
तुम्हें
भरोसा आ जाये;
जिसकी
मौजूदगी में
तुम्हें
तुम्हारे
भीतर सोया हुआ
गौरव, गरिमा
का बोध जग
जाये।
तुम्हें एक
पुकार उठे कि
मैं भी कर
सकता हूं। बस
इतना ही। अगर
हड्डी—मांस—मज्जा
के देहधारी
किसी व्यक्ति
को हुआ है, तो
मुझे भी हो
सकता है।
और
इसीलिए मैं
तुमसे बार—बार
कहता हूं
कृष्ण को पकड़े
रहो,
शायद
तुम्हें न हो।
क्योंकि
कृष्ण के
संबंध में
तुमने
कहानियां गढ़
ली हैं कि वे
परमात्मा के
अवतार हैं, कि वे जन्म
से ही
परमात्मा
हैं। इस कहानी
में खतरा है।
इसका मतलब यह
हुआ कि तुम
में और कृष्ण
में बहुत
फासला हो गया!
वह तो परमात्मा
हैं, तुम
आदमी हो! अगर
उनको हो गया, तो होना ही
चाहिए; तुमको
कैसे हो सकता
है? महावीर
को हुआ, क्योंकि
वे तो
तीर्थंकर
हैं। उनको तो
होना ही था।
और चौबीस ही
तीर्थंकर
होते हैं
दुनिया में, अब तुम्हें
कैसे होगा? अब
पच्चीसवें को
कैसे हो सकता
है! मुहम्मद
को हुआ, वह
तो पैगंबर थे।
उनको तो होना
था। जीसस
ईश्वर के बेटे
थे, इसलिए
हुआ। अब तुम
तो साधारण
आदमी हो—किसी
दुकानदार के
बेटे, किसी
दर्जी के बेटे,
किसी
स्टेशन
मास्टर के
बेटे। तुम कोई
ईश्वर के बेटे
तो हो नहीं।
ईश्वर का तो
बेटा सिर्फ एक
जीसस है।
तुम्हें कैसे
होगा? जैसे—जैसे
समय बीतता
जाता है, लोग
सदगुरुओं के
आसपास ऐसी
कथाएं गढ़ लेते
हैं कि उन
कथाओं के कारण
उनका
मनुष्यों से
बहुत दूर का
नाता भी नहीं
रह जाता। बड़ा
फासला हो जाता
है। वही फासला
घातक है।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं : तुम
किसी जिंदा गुरु
को खोजना। जो
अभी तुम्हारी
ही जैसी
हड्डी—मास—मज्जा
की देह में हो; जो
अभी जमीन पर
हो; जिसे
तुम्हारी ही
जैसी बीमारी
पकड़ती हो, और
तुम्हारी
जैसी ही भूख
लगती हो, और
जिसे
तुम्हारी
जैसी ही प्यास
लगती हो, और
जो रात सोता
हो—जो ठीक तुम
जैसा हो।
उसमें अगर
तुम्हें
दिखाई पड़ जाये
कि कुछ हुआ है,
तो ही
तुम्हें
भरोसा आयेगा,
अन्यथा
तुम्हें
भरोसा नहीं
आयेगा। उसके
चले जाने के
बाद लोग उसके
आसपास भी
कहानिया गढ़
लेंगे।
कहानियां
गढनेवाले सदा
मौजूद हैं।
कहानियां
गढनेवाले
कहानियां
गढ़ते ही रहते
हैं।
आज
मैं यहां हूं
अभी अगर
तुम्हें मुझ
पर भरोसा आ
जाये तो
तुम्हारे भीतर
कुछ हो सकता
है। क्योंकि
मैं ठीक तुम
जैसा हूं। जरा
भी भेद नहीं
है। या बस
जरा—सा भेद
है। भेद इतना
जरा—सा है, कि
तुम जरा
तिलमिला जाओ
तो तुम्हारे
भीतर भी घटना
घट जाये! तुम
सोये हो, मैं
जागा हूं। मैं
तुम्हें हिला
दूं। तुम राजी
हो जाओ, तुम
कह दो कि हौ
मुझे हिलाओ, कि मैं
नाराज न
होऊंगा, कि
मुझे हिला
दो—कि
तुम्हारे
भीतर जो सोया
पड़ा है वह जग
जाये। इतना—सा
भेद है, ना—कुछ
के बराबर भेद
है।
मगर
कल जब मैं जा
चुका, तो
कहानियां गढ
जायेंगी। उन
कहानियों से
तुम्हारे और
मेरे बीच
फासला होने
लगेगा। असल
में कहानियां
गढ़ी ही इसलिए
जाती हैं ताकि
प्रत्येक
शिष्य अपने
गुरु को
विशिष्ट करके
बता सके, जैसा
कोई भी नहीं
था। तो ईसाई
कहते हैं कि
जीसस क्वांरी
मां से पैदा
हुए। दुनिया
में और कोई
कभी क्वांरी
मां से पैदा
नहीं हुआ। यह
विशिष्टता
बताने के लिए
जरूरी हो गया।
हमारा गुरु कोई
साधारण गुरु
थोड़े ही है! तो
वे जैनी से कह
सकते हैं कि
तुम्हारे
महावीर, क्यारी
मां से पैदा
हुए थे? नहीं
हुए तो ठीक, साधारण
मनुष्य थे।
मगर जीसस
ईश्वर के बेटे
हैं!
कोई
जैन भी पीछे
नहीं रह जाते
हैं! उनको यह
नहीं सूझा उस
वक्त, उन्होंने
कुछ और बातें
सोच लीं। वे
कहते हैं कि महावीर
की देह से
पसीना नहीं
निकलता। गरम
देश है और
बिहार..। तुम
सोच ही सकते
हो, धूल—
धवांस, अभी
भी बहुत है
बिहार में, उस समय की तो
सोच ही लो! और
महावीर को
बेचारों को
नग्न घूमना, धूल— धवांस..!
और वे नहाते
भी नहीं, क्योंकि
नहाने में
शरीर का
प्रसाधन होगा,
ऐसी धारणा
है। उनको तो
पसीना आये तो
बड़ी मुश्किल हो
जाये, गांव—गांव,
दूर—दूर तक
पसीना फैल
जाये, उसकी
बदबू फैले! तो
वे कहते हैं
कि नहीं, उनको
पसीना आता ही
नहीं है।
मूल—सूत्र का
निष्कासन भी
महावीर को
नहीं होता। तो
पूछ सकते हैं
जीसस के मानने
वाले को कि
तुम बताओ, तुम्हारे
गुरु में यह
खूबी है?
ये
शिष्यों के
झगड़े हैं। मैं
तुमसे कहता
हूं : महावीर
को भी पसीना
निकलता था और
जीसस भी उसी तरह
पैदा हुए थे
जिस तरह तुम
पैदा हुए हो।
कोई विशिष्ट
नहीं। मगर इस
बात से झगड़ा
खड़ा हो जाता
है। शिष्यों
को आग लग जाती
है कि हमारा
गुरु विशिष्ट
नहीं है? और सब
के गुरु नहीं
होंगे
विशिष्ट, हमारा
गुरु विशिष्ट
है! यह अहंकार
का अंग बन गया!
तुम्हें गुरु
से परमात्मा
पाना है या
गुरु को भी
अहंकार का
आभूषण बनाना
है? तुम
गुरु के
द्वारा
पहुंचनाचाहते
हो कहीं? कि
गुरु केनाम
कोलेकर भी
अटकनाचाहतेहो!
जिंदा
गुरु खोज
लेना।
सौभाग्यशाली
हैं वे, जिन्हें
जिंदा गुरु
मिल जाये।
सीताराम, तुम
सौभाग्यशालीहो!
फराहम
करके मेरे दिल
के
अजजाए—परेशां
को
मेरी
बिखरी हुई
हस्ती को सूरत
बख्श दी तूने
कहां
बाकी रहा था
जिंदगी का
हौसला मुझमें
मुझे
इक बार फिर
जीने की
हिम्मत बख्श
दी तूने
वो
गम हो, मसर्रत
हो, वो
मरना हो कि
जीना हो
मुझे
हर हाल में
अपनी जरूरत
बख्श दी तूने
यही
गुरु करता है।
तुम्हारे
टुकड़ो को
इकट्ठा कर
देता है।
फराहम
करके मेरे दिल
के
अजजाए—परेशां
को।
वह
जो
टुकड़े—टुकड़े
दिल था, वह जो
परेशांनियोंमें
बंटा हुआ, चिंताओं
में बंटा हुआ
दिल था, गुरु
उसेइकट्ठाकरदेताहै।
फराहम
करके मेरे दिल
के
अजजाए—परेशां
को
मेरी
बिखरी हुई
हस्ती को सूरत
बख्श दी
तूने।
वह
जो टूट—फूट
गयी थी हस्ती, बिखर
गयी थी, उसे
फिर तूने रंग
दे दिया, रूप
दे दिया।
कहां
बाकी रहा था
जिंदगी का
हौसला मुझमें
मुझे
इक बार फिर
जीने की
हिम्मत बख्श
दी तूने वो गम
हो,
मसर्रत हो,
वो मरना हो
कि जीना हो
मुझे
हर हाल में
अपनी जरूरत
बख्श दी
तूने।
गुरु
सिर्फ
तुम्हें जगा
देता है
तुम्हारी संभावनाओं
के प्रति।
गुरु जगा देता
है तुम्हें सिर्फ
तुम्हारी
अनंतताओं के
प्रति। गुरु
तुम्हे सचेत
कर देता है कि
तुम उतने ही
नहीं हो जितना
तुमने अपने को
समझा है। तुम
सागर हो। तुम
बूंद बने बैठे
हो! बूंद होना
तुम्हारी
नियति नही, सागर
होना
तुम्हारी
नियति है।
आंनदित होओ, नाचो, मग्न
होओ। यह जादू
जो तुम पर छा
रहा है और
छाने दो।
उमड़कर
आ गये बादल
गगन
में छा गये
बादल!
गगन
का उर उमड़कर
ज्यों
धरा
के पास आ
पहुंचा
पुलकती
दूब पर कुछ
फूल—से
बिखरा गये
बादल!
उमड़कर
आ गये बादल!
उठी
सौंधी भभक—सी
एक
मिट्टी
के कपोलों से
धरा
के रूप—यौवन
की
शिखा
सुलगा गये
बादल!
उमड़कर
आ गये बादल!
बुझेगी
बिंदुओं से
क्या
तृषा
जो सिंधु जैसी
है!
पपीहे
की तृषा को और
भी
भड्का गये
बादल!
उमड़कर
आ गये बादल!
उधर
कुछ मेह बरसा
नेह
आंखों से इधर
बरसा
हरे
अंकुर
तुम्हारी याद
के
उकसा गये बादल
उमड़कर
आ गये बादल!
व्यथा
की भाप में
सुख की
क्षणिक
बिजली चमकती
है!
मुझे
भीगे दृगों से
भेद
यह
समझा गये
बादल!
उमड़कर
आ गये बादल!
तुम्हारे
ऊपर बादल
घिरने शुरू हो
गये हैं—जादू
बरसेगा, मेहा
बरसेगा, समाधि
बरसेगी! इस
स्मृति को
प्रगाढ़ करो।
और धीरे— धीरे
गुरु की
स्मृति
परमात्मा की
स्मृति बने, इसका उपाय
करो।
एक—एक
मोती पिरो कर
माला बन जाती
है और एक —एक बूंद
से सागर बन
जाता है।
ऐसे
एक—एक स्मृति
सघन होते—होते
उस महास्मृति
में रूपांतरित
हो जाती है, जिस
महास्मृति का
नाम चाहे
मोक्ष कहो, चाहे
निर्वाण कहो,
चाहे समाधि
कहो। बुद्ध ने
तो उसे 'मेघ'
ही कहा
है—समाधि का
मेघ—मेघ—समाधि!
आज
इतना ही
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें