अध्याय
14 : खंड 2
पूर्व-ऐतिहासिक
स्रोत
न
उसके प्रकट
होने पर होता
प्रकाश,
न
उसके डूबने पर
होता अंधेरा।
ऐसा
है वह अक्षय
और
अविच्छिन्न
रहस्य,
जिसकी
परिभाषा संभव
नहीं है।
और
पुनः-पुनः वह शून्यता
के आयाम में
प्रविष्ट हो
जाता है।
इसीलिए
निराकार ही
उसका आकार कहा
जाता है।
वह
शून्यता की
प्रतिमूर्ति
है।
इन
सब कारणों से
उसे दुर्गम्य
भी कहा जाता
है।
उससे
मिलो, फिर
भी उसका चेहरा
दिखाई नहीं
पड़ता;
उसका
अनुगमन करो, फिर
भी उसकी पीठ
दिखाई नहीं
पड़ती।
वर्तमान
कार्यों के
समापन के लिए
जो व्यक्ति पुरातन
व
सनातन
ताओ को सम्यकरूपेण
धारण करता है,
वह
उस आदि स्रोत
को जानने में
सक्षम हो जाता
है
सुबह
फूल खिलते हैं, सांझ
मुरझा जाते
हैं। सुबह
सूरज निकलता
है; सांझ
ढल जाता है।
जन्म है और
मृत्यु में
समाप्ति हो
जाती है।
प्रत्येक
घटना शुरू
होती है और
अंत होती है।
लेकिन
अस्तित्व सदा
है। अस्तित्व
की न कोई सुबह
है, न कोई
सांझ।
अस्तित्व का न
कोई जन्म है
और न कोई
मृत्यु।
लाओत्से इस
सूत्र में
अस्तित्व की इस
जन्म-मरणहीन,
अनादि, अनंत
सातत्य के
संबंध में सूचना
दे रहा है।
जो भी
हम जानते हैं, उसे
हम सीमाओं में
बांध सकते
हैं। कहीं
होता है
प्रारंभ और
कहीं अंत हो
जाता है। और
जो भी इस सीमा
में बंध सकता
है, उसकी
परिभाषा हो
सकती है।
परिभाषा का
अर्थ ही है कि
जिसे हम विचार
की परिधि में
घेर लें। लेकिन
जो शुरू न
होता हो, अंत
न होता हो, उसकी
परिभाषा
असंभव है।
क्योंकि हम
विचार की परिधि
में उसे घेर न
पाएंगे। कहां
से खींचें
रेखा? कहां
करें रेखा का
अंत? इसलिए
अस्तित्व की
कोई परिभाषा
नहीं हो सकती।
अस्तित्ववान
वस्तुओं की
परिभाषा हो
सकती है, स्वयं
अस्तित्व की
नहीं।
इसे हम
ऐसा समझें। और
यह सूत्र कठिन
है;
तो
बहुत-बहुत दरवाजों
से इसके रहस्य
को खोलना पड़े।
एक फूल दिखाई
पड़ता है; कहते
हैं सुंदर है।
चांद निकलता
है; कहते
हैं सुंदर है।
कोई चेहरा
प्रीतिकर
लगता है; कहते
हैं सुंदर है।
कोई कविता मन
को भाती है; कहते हैं
सुंदर है। कोई
संगीत हृदय को
स्पर्श करता
है; कहते
हैं सुंदर है।
लेकिन क्या
कभी आपने सौंदर्य
को देखा? कोई
गीत सुंदर
होता है, कोई
चेहरा सुंदर
होता है, कोई
आकाश में तारा
सुंदर होता है,
कोई फूल
सुंदर होता
है। आपने
वस्तुएं
देखीं जो
सुंदर हैं, लेकिन कभी
आपने सौंदर्य
को देखा?
तब एक
बड़ी कठिन
समस्या खड़ी हो
जाएगी। अगर
आपने सौंदर्य को
कभी नहीं देखा, तो
आप किसी वस्तु
को सुंदर कैसे
कहते हैं?
फूल
में आपको
सौंदर्य
दिखता है; लेकिन
आपने सौंदर्य
को कभी नहीं
देखा। फूल का सौंदर्य
सुबह खिलता है,
सांझ खो
जाता है। एक
चेहरे में
सौंदर्य
दिखता है। आज
है, कल
तिरोहित हो
जाता है। जो
आज तक था और कल
खो जाएगा, जो
सुबह दिखा था
और सांझ
विसर्जित हो
जाएगा, उसे
आपने कभी
वस्तुओं से
अलग देखा? कभी
आपने शुद्ध
सौंदर्य देखा
है?
आपने
सुंदर चीजें
देखी हैं, सौंदर्य
नहीं देखा। तो
फूल की
परिभाषा हो
सकती है। उसकी
सीमा है, आकार
है, पहचान
है। लेकिन
सौंदर्य की
परिभाषा नहीं
हो सकती। उसकी
कोई सीमा नहीं,
उसका कोई
आकार नहीं, उसकी कोई
पहचान नहीं।
और फिर भी हम
पहचानते हैं!
नहीं तो फूल
को सुंदर कैसे
कहिएगा?
अगर
फूल ही सुंदर
है,
तो फिर रात
का चांद सुंदर
न हो सकेगा।
फूल और चांद
में क्या संबंध
है? और अगर
चांद ही सुंदर
है, तो फिर
किन्हीं
आंखों को
सुंदर न कह सकिएगा।
आंख और चांद
में क्या
लेना-देना है?
सौंदर्य
कुछ है, जो
फूल में भी है,
चांद में भी
है, आंख
में भी है।
सौंदर्य कुछ
अलग है; फूल
से भिन्न है, चांद से
भिन्न है, आंख
से भिन्न है।
और आंख जो अभी
सुंदर मालूम
पड़ रही थी, क्रोध
से भर जाए और
असुंदर हो
जाएगी। घृणा
से भर जाए और
असुंदर हो
जाएगी। आंख
वही रहेगी, लेकिन कुछ
खो जाएगा।
तो
निश्चित ही
सौंदर्य न तो
फूल है, न
चांद है, न
आंख है।
सौंदर्य कुछ
और है। लेकिन
सौंदर्य को
कभी देखा? आमने-सामने
कभी देखा सौंदर्य
को? कभी
सौंदर्य से
मुलाकात हुई?
सौंदर्य
से कोई
मुलाकात नहीं
हुई। सौंदर्य
को कभी जाना
नहीं, देखा
नहीं।
सौंदर्य की
परिभाषा
असंभव है। फिर
भी सौंदर्य को
हम पहचानते
हैं। और जब
फूल में उतरता
है वह रहस्य, वह रहस्य का
लोक जब फूल
में समाविष्ट
होता है, तो
हम कहते हैं
फूल सुंदर है।
वही रहस्य जब
किन्हीं आंखों
में समाविष्ट
हो जाता है, तो हम कहते
हैं आंखें
सुंदर हैं।
वही रहस्य किसी
गीत में प्रकट
होता है, तो
हम कहते हैं
गीत सुंदर है।
लेकिन
सौंदर्य क्या
है?
फूल की
परिभाषा हो
सकती है कि
फूल क्या है; चांद
की परिभाषा हो
सकती है कि
चांद क्या है;
आंख की
परिभाषा हो
सकती है कि
आंख क्या है।
लेकिन
सौंदर्य क्या
है? वह
अपरिभाष्य है,
इनडिफाइनेबल है। क्यों? उसकी
परिभाषा
क्यों नहीं हो
पाती? पहचानते
हम उसे हैं।
किसी अनजान
रास्ते से उससे
हमारा मिलना
भी होता है।
किसी अनजान
रास्ते से
हमारे हृदय के
भीतर भी वह
प्रविष्ट हो
जाता है। किसी
अनजान रास्ते
से हमारी
आत्मा उससे आंदोलित
होती है।
लेकिन क्या है?
जब बुद्धि
उसे पकड़ने
जाती है, तो
हम पाते हैं
वह खो गया।
करीब-करीब
ऐसे है, जैसे
कि अंधेरा भरा
हो इस कमरे
में। और हम
प्रकाश लेकर
जाएं खोजने कि
अंधेरा कहां
है, और
अंधेरा खो
जाए! शायद
जहां भी असीम
शुरू होता है,
वहीं
बुद्धि को
लेकर जब हम
जाते हैं, तो
असीम तिरोहित
हो जाता है।
क्योंकि
बुद्धि सीमित
को पहचान सकती
है। बुद्धि
सीमित को ही पहचान
सकती है। जहां
बुद्धि तय कर
सके कि यहां होती
है बात शुरू
और यहां होती
है समाप्त, रेखा खींच
सके, एक
परिधि बना सके,
खंड अलग
निर्मित कर
सके, तो
फिर बुद्धि
पहचान पाती
है।
इसलिए
बुद्धि
रोज-रोज छोटे
से छोटे खंड
निर्मित करती
है। जितना
छोटा खंड हो, बुद्धि
की पकड़ उतनी
गहरी हो जाती
है। इसलिए विज्ञान
चीजों को तोड़ता
है। क्योंकि विज्ञान
बुद्धि की खोज
है। और इसलिए
विज्ञान परमाणु
पर पहुंच गया।
परमाणु पर
उसकी पकड़ गहरी
है। विराट पर
बुद्धि की पकड़
नहीं बैठती।
जितना छोटा हो,
जितना छोटा
हो, जितना
टुकड़ा हो, बुद्धि
उसे ठीक से
घेर लेती है।
परमाणु
को भी तोड़
लिया गया है, अब
इलेक्ट्रान
पर या न्यूट्रान
पर बुद्धि की
पकड़ गहरी है।
और बुद्धि की
कोशिश यह है
कि न्यूट्रान
से भी नीचे
उतरा जा सके, इलेक्ट्रान से भी नीचे
उतरा जा सके।
जितना छोटा हो
खंड, उतना
परिभाष्य, डिफाइनेबल हो जाता है।
हम उसे रख
सकते हैं आंख
के सामने। जितना
हो विराट, जितना
हो असीम, हमारी
आंखें ओर-छोर
खोजती हैं, कहीं कोई
सीमा नहीं
मिलती, हम
भटक जाते हैं।
बुद्धि नाप
नहीं पाती और
कठिनाई हो
जाती है।
लाओत्से
कहता है, "न
उसके प्रकट
होने पर होता
प्रकाश, न
उसके डूबने पर
होता अंधेरा;
ऐसा है वह
अक्षय और
अविच्छिन्न
रहस्य, जिसकी
परिभाषा संभव
नहीं है।'
वह सदा
है। सूरज उगते
रहते हैं और
डूबते रहते हैं।
फूल खिलते हैं
और बिखरते
रहते हैं।
जीवन पैदा
होता है और
लीन हो जाता
है। सृष्टियां
बनती हैं और
विसर्जित हो
जाती हैं।
विश्व निर्मित
होता है और
प्रलय को
उपलब्ध हो
जाता है। वह
सदा है। कुछ
है--हम उसे कोई
भी नाम दें--कुछ
है,
जो पैदा
नहीं होता, मरता नहीं; जो सदा है।
वह है शुद्ध
अस्तित्व, प्योर
एक्झिस्टेंस।
जैसे
मैंने
सौंदर्य के
लिए कहा, वह
सिर्फ इसीलिए
कहा ताकि आप
अस्तित्व को
समझ सकें।
हमने कभी
अस्तित्व
नहीं देखा।
कभी हमने एक दरख्त
देखा है, जिसका
अस्तित्व है।
कभी एक नदी
देखी, जिसका
अस्तित्व है।
कभी एक आदमी
देखा, जिसका
अस्तित्व है।
कभी एक सूरज
देखा, जिसका
अस्तित्व है।
लेकिन
अस्तित्व
हमने कभी नहीं
देखा।
वस्तुएं देखी
हैं, जो
हैं।
लेकिन
जो वस्तुएं
हैं,
वे खो
जाएंगी। हम
कहते हैं, टेबल
है। इसे थोड़ा
समझें। दर्शन
के लिए गहनतम
प्रश्नों में
से एक है। और
मनुष्य की
प्रतिभाओं
में जो
श्रेष्ठतम
शिखर थे, उन्होंने
इसके साथ बड़ा
ऊहापोह किया
है। एक टेबल
है; हम
कहते हैं, है।
एक आदमी है; हम कहते हैं,
है। एक मकान
है; हम
कहते हैं, है।
जैसे मैंने
कहा: फूल
सुंदर है, तारा
सुंदर है, चेहरा
सुंदर है; टेबल
है, मकान
है, आदमी
है, सूरज
है। यह "है', अस्तित्व
क्या है? क्योंकि
टेबल में भी
है, सूरज
में भी है, आदमी
में भी है।
हमने आदमी
देखा, सूरज
देखा, टेबल
देखी; लेकिन
वह जो है-पन है,
इज़नेस,
वह जो
अस्तित्व है,
वह हमने कभी
नहीं देखा।
समझें, टेबल
को हमने नष्ट
कर दिया। हमने
कहा था, टेबल
है। दो चीजें
थीं: टेबल थी
और होना था।
हमने टेबल को
नष्ट कर दिया।
क्या हमने
होने को भी
नष्ट कर दिया?
फूल था।
कहते थे, है;
अब कहते हैं,
नहीं है।
फूल को हमने
मिटा दिया।
लेकिन फूल के
भीतर जो होना
था, अस्तित्व
था, क्या
उसे भी हमने मिटा
दिया?
अस्तित्व
को हमने कभी
देखा नहीं।
हमने सिर्फ चीजें
देखी हैं। एक
आदमी है, मर
गया। तो आदमी
है, इसमें
दो चीजें थीं।
आदमी था:
हड्डी, मांस-मज्जा
थी, शरीर
था, मन था।
और होना था, अस्तित्व
था। हड्डी टूट
गई, शरीर
गल गया; मिट्टी
हो गई। लेकिन
"है', वह जो
होना था, क्या
वह खो गया? क्या
वह होना भी
मिट गया?
जब हम
एक फूल को
मिटा देते हैं, तो
ध्यान रखना, हम केवल फूल
को मिटाते हैं,
सौंदर्य को
नहीं। जिस
सौंदर्य को
हमने देखा नहीं,
उसे हम मिटा
कैसे सकेंगे?
जिस
सौंदर्य को हम
कभी पकड़ नहीं
पाए, उसे
हम मिटा कैसे
सकेंगे? जिस
सौंदर्य को
हमने कभी छुआ
भी नहीं, उसकी
हम हत्या कैसे
कर सकेंगे? जो सौंदर्य
हमारी
इंद्रिय की
किसी भी पकड़
में कभी नहीं
आया, उसे
हम इंद्रियों
के द्वारा
समाप्त कैसे
कर सकेंगे?
हम फूल
को मिटा सकते
हैं। हम एक
आंख को फोड़
डाल सकते हैं।
लेकिन उस
सौंदर्य को
नहीं, जो आंख
से झलका था।
वह आंख से अलग
है। हम
अस्तित्व को
नहीं मिटा
पाते हैं।
सूरज बनते हैं,
बिखर जाते
हैं। सृष्टियां
आती हैं, खो
जाती हैं।
आदमी पैदा
होते हैं, कब्रें
बन जाती हैं।
लेकिन उनके
भीतर जो होना था,
जो
अस्तित्व था;
वह सदा, वह
सदा ही
प्रवाहित बना
रहता है।
लाओत्से
कहता है, न
उसके प्रकट
होने पर होता
प्रकाश, न
उसके डूबने पर
होता अंधेरा।
क्योंकि न वह
प्रकट होता है
और न वह डूबता
है। जो डूबता
है, जो
प्रकट होता है,
इससे उसे मत
पहचानना। वह
इससे गहरा है।
सूरज के प्रकट
होने पर भी जो
प्रकट नहीं
होता और सूरज
के डूबने पर
भी जो नहीं
डूबता, वही
है। फूल के
होने पर भी जो
होता नहीं और
फूल के न हो
जाने पर भी जो
मिटता नहीं, वही है।
जन्म के साथ
जिसका जन्म
नहीं होता और मृत्यु
के साथ जिसकी
मृत्यु नहीं
होती, वही
है।
जन्मता
है एक व्यक्ति, तो
हम सीमा-रेखा
खींच सकते हैं
जन्म की। राम
नाम का
व्यक्ति पैदा
हुआ, तो
हमने सीमा
खींची--इस दिन
पैदा हुआ। फिर
वह व्यक्ति
मरा, तो
हमने सीमा
खींची--इस दिन
मरा। यह राम
नाम के व्यक्ति
की सीमा है, लेकिन जीवन
की नहीं।
इसमें
थोड़ा हम गहरे
उतरें, तो
शायद हमें पता
चले।
किस
दिन को आप
जन्म-दिन कहते
हैं?
इसमें झगड़े
हैं। जिस दिन
बच्चा पैदा
होता है वह
जन्म-दिन है
या जिस दिन
बच्चे का
गर्भाधान
होता है वह
जन्म-दिन है? आमतौर से
जिस दिन बच्चा
मां के पेट से
बाहर आता है, हम कहते हैं
जन्म-दिन है।
लेकिन जिस दिन
बच्चा मां के
पेट में आता
है वह? तो
थोड़ा पीछे
हटें। ठीक
जन्म-दिन तो
वही है जिस
दिन बच्चा मां
के पेट में
आता है। जन्म
तो उसी दिन हो
गया।
लेकिन
थोड़ा और गहरे
प्रवेश करें।
मां के पेट में
जिस दिन बच्चे
का निर्माण
होता है, पहला
कोश जब
निर्मित होता
है, तो
उसमें का आधा
हिस्सा तो
पिता में
जिंदा था बहुत
पहले से और
आधा हिस्सा
मां में जिंदा
था बहुत पहले
से। उन दोनों
के मिलने से
जन्म की
शुरुआत हुई
विज्ञान के
हिसाब से। तो
यह जन्म की
घटना दो जीवन,
जो पहले से
ही मौजूद थे, उनके मिलन
की घटना है।
यह शुरुआत
नहीं है, यह
प्रारंभ नहीं
है। क्योंकि
जीवन दोनों
मौजूद थे; एक
पिता में छिपा
था, एक मां
में छिपा था।
उन दोनों के
मिलने से यह
जीवन शुरू
हुआ। इस जीवन
की, राम
नाम के जीवन
की शुरुआत
होगी यह।
लेकिन जीवन की
शुरुआत नहीं
है। क्योंकि
जीवन पिता में
छिपा था, मां
में छिपा था, मौजूद था।
पूरी तरह
जीवित था। तो
यह प्रकट हुआ,
मिलने से
प्रकट हुआ।
लेकिन मौजूद
था।
लेकिन
और पीछे चलें।
जो पिता में
छिपा है, वह
पिता के मां
और पिता में
छिपा था। और
चलते जाएं
पीछे। जो मां
में छिपा है, वह मां के
पिता और मां
में छिपा था।
यह जीवन कब शुरू
हुआ? आपका
जन्म आपका
जन्म हो सकता
है, लेकिन
आपके भीतर जो
जीवन है, उसका
जन्म नहीं है।
उसे हम लौटाए
जाएं पीछे, तो समस्त
इतिहास, ज्ञात-अज्ञात,
समाविष्ट
हो जाएगा। अगर
कभी कोई पहला
आदमी जमीन पर
रहा होगा, तो
आप उसके भीतर
जिंदा थे।
लेकिन वह पहला
आदमी भी कैसे
हो सकता है? पहले आदमी
के होने के
लिए भी जरूरी
है कि जीवन उसके
पहले रहा हो।
तो जीवन एक सातत्य
हो गया।
विज्ञान
के हिसाब से
थोड़ी सरल है
बात;
धर्म के
हिसाब से और
थोड़ी जटिल है।
क्योंकि धर्म
कहता है कि
मां और पिता
से मिल कर जो
परमाणु निर्मित
हुआ, वह तो
केवल देह का
जीवन है; और
आत्मा प्रवेश
करेगी उसमें।
इसलिए
बुद्ध के पिता
ने जब बुद्ध
से कहा कि मैंने
तुझे पैदा
किया, तो
बुद्ध ने कहा
कि आपसे मैं
पैदा हुआ, आपने
मुझे पैदा
नहीं किया।
मैं आपसे आया
हूं, आप
मेरे लिए
द्वार बने, मार्ग बने; लेकिन मैं
आपसे पैदा
नहीं किया गया
हूं। आप नहीं
थे, तब भी
मैं था। आपने
मेरे लिए
मार्ग दिया, मैं प्रकट
हुआ हूं।
लेकिन मेरी यात्रा
बहुत भिन्न
है।
पिता
नाराज थे।
पिता नाराज थे, क्योंकि
बुद्ध भिक्षा
मांग रहे थे
उस गांव में, जो उनकी
संपदा थी; राज्य
उनका था, उस
गांव में
भिक्षा-पात्र
लेकर भिक्षा
मांग रहे थे।
तो बुद्ध के
पिता ने कहा
था कि सिद्धार्थ,
हमारे
परिवार में
कभी किसी ने
भिक्षा नहीं
मांगी। बुद्ध
ने कहा था, आपके
परिवार का
मुझे कुछ पता
नहीं; लेकिन
जहां तक मुझे
अपनी पिछली
यात्राओं का पता
है, मैं
बहुत पुराना
भिखारी हूं।
मैं इस जन्म
के पहले भी
भीख मांगा हूं,
उस जन्म के
पहले भी भीख
मांगा हूं, जहां तक
मुझे मेरा पता
है, मैं
बहुत पुराना
भिखारी हूं।
आपका मुझे कुछ
पता नहीं है।
वे
अलग-अलग बातें
कर रहे थे, जिनका
कहीं मेल नहीं
होगा। बुद्ध
के पिता वैज्ञानिक
बात कर रहे थे;
बुद्ध
धार्मिक बात
कर रहे थे।
अगर
धर्म से देखें, तो
जीवन की जो
घटना मां के
पेट में घट
रही है आज, वह
भी अनंत है।
और आत्मा की
जो घटना उस
जीवन में
प्रविष्ट हो
रही है, वह
भी अनंत है।
दो अनंत का
मिलन हो रहा
है मां के
गर्भ में। मैं
सदा था इस
अर्थ में।
मेरे शरीर का
कण-कण सदा था।
मेरी आत्मा का
कण-कण सदा था। ऐसा
कोई भी क्षण
नहीं था इस
अस्तित्व में,
जब मैं नहीं
था या जब आप
नहीं थे। रूप कुछ
भी रहे हों, आकृतियां
कुछ भी रही
हों, नाम
कुछ भी रहे
हों; ऐसा
कोई क्षण कभी
नहीं था
अस्तित्व में,
जब आप नहीं
थे; और ऐसा
भी कोई क्षण
कभी नहीं होगा,
जब आप नहीं
होंगे। लेकिन
बहुत बार
जन्मे आप, बहुत
बार मरेंगे।
लाओत्से
कहता है, "न
उसके प्रकट
होने पर होता
प्रकाश, न
उसके डूबने पर
होता अंधेरा;
ऐसा है वह
अक्षय और
अविच्छिन्न
रहस्य, जिसकी
परिभाषा संभव
नहीं है।'
आपकी
परिभाषा हो
सकती है कि
आपका नाम क्या, आपका
गांव क्या, आपका
पता-ठिकाना
क्या, आपकी
परिभाषा हो
सकती है।
लेकिन उसकी
कैसे होगी
परिभाषा, जो
आप में प्रकट
हो रहा
है--शाश्वत, अनंत। उसकी
कोई परिभाषा
नहीं हो
सकती--क्या होगा
उसका गांव!
क्या होगा
उसका नाम!
बुद्ध
से कोई पूछता
है कि आपका
नाम क्या है? वे
घर छोड़ कर चले
गए हैं। अपना
राज्य छोड़
दिया है, ताकि
पहचानने वाले
लोग न मिलें।
अपरिचित स्थानों
में भटक रहे
हैं। कोई भी उन्हें
देख कर
आकर्षित हो
जाता है।
अप्रतिम उनका
सौंदर्य है।
भिखारी भी हों,
तो भी उनका
सम्राट होना
छिप नहीं
सकता। वह हर तरह
से प्रकट हो
जाता है। कोई
भी राहगीर
उत्सुक हो
जाता है पूछने
को कि आपका
नाम क्या? कौन
हैं आप?
तो
बुद्ध कहते
हैं,
किस जन्म का
नाम तुम्हें बताऊं? किस
जन्म का तुम
पूछते हो? क्योंकि
मेरे हुए बहुत
जन्म और बहुत
रहे मेरे नाम।
किस जन्म की
तुम खबर पूछते
हो? कभी
मैं आदमी भी
था, और कभी
मैं पशु भी था,
और कभी मैं
वृक्ष भी था।
कौन सी
तुम्हें खबर दूं?
स्वभावतः
पूछने वाला
आदमी समझेगा
कि पागल से पूछ
लिया। लेकिन
बुद्ध ठीक कह
रहे हैं, किस
जन्म की खबर
दें? किस
नाम की खबर
दें? जिसे
जीवन का बोध
शुरू हो जाए, उसे बड़ी
कठिनाई खड़ी हो
जाएगी, क्योंकि
फिर कोई
परिभाषा काम
नहीं करती।
कोई परिभाषा
काम नहीं
करती। जैसे
अनंत होने
लगती है
व्यवस्था, वैसे
ही परिभाषाएं
टूटने लगती
हैं।
अक्षय
है जीवन, कभी
क्षीण नहीं
होता। घटनाएं
घटती हैं, बिखर
जाती हैं; अस्तित्व,
अस्तित्व
बना रहता है।
पहली बात।
परिभाष्य क्यों
नहीं है? क्योंकि
असीम है।
ओर-छोर खोजना
संभव नहीं है।
इसलिए नहीं कि
हमारी खोजने
की व्यवस्था
कमजोर है, इसलिए
कि ओर-छोर हैं
ही नहीं।
ईसाइयत
ने इस पृथ्वी
के जन्म का
ऐतिहासिक सूत्रपात
माना है।
खोजियों ने, ईसाई
खोजियों ने तय
ही कर रखा कि
चार हजार साल पहले,
ईसा से चार
हजार चार साल
पहले, इस
पृथ्वी की
शुरुआत हुई।
और जिन्होंने
मेहनत की
उन्होंने यह
भी तय कर दिया
कि सुबह नौ
बजे चार हजार
चार साल पहले।
और जिन्होंने
खोज की
उन्होंने मिनट
और सेकेंड भी
तय कर दिए।
लेकिन
विज्ञान से
फिर बड़ी
कठिनाई हुई।
ईसाइयत को
पश्चिम में जो
बड़े से बड़ा
नुकसान
पहुंचा, वह
उसकी इन डेफिनीशंस,
परिभाषाओं
की वजह से
पहुंचा, ये
सीमाओं की वजह
से पहुंचा।
क्योंकि
विज्ञान ने सिद्ध
किया कि यह तो
बचकानी बात
है। यह पृथ्वी
बहुत पुरानी
है, कम से
कम चार अरब
वर्ष पुरानी
है। फिर सारे
प्रमाण
इकट्ठे हो गए
कि चार हजार
साल की तो बात
बिलकुल ही
बेकार है। और दिनत्तारीख
और समय तय
करना सब नासमझियां
हैं। ईसाइयत
को बहुत धक्का
पहुंचा इस बात
से, हालांकि
धर्म का इससे
कोई संबंध न
था।
अगर
धर्म को हम
ठीक से खोजने
चलें, तो धर्म
कभी भी तय
नहीं कर सकता
कि कहां चीजें
शुरू होती हैं
और कहां
समाप्त होती
हैं। धर्म तो
मानता ही यह
है कि जो है, वह न शुरू
होता और न
समाप्त होता।
अस्तित्व अनादि
है और अनंत
है। इसलिए ताओ
से, लाओत्से
के विचार से
विज्ञान का
कोई विरोध नहीं
हो सकता।
क्योंकि
लाओत्से यह कह
रहा है कि हम
अक्षय
अस्तित्व को
स्वीकार करते
हैं। यह कभी
शुरू नहीं हुआ
और कभी समाप्त
नहीं होगा। चार
हजार चार साल
पहले दुनिया
शुरू हुई, यह
तो बचकानी बात
हो गई। लेकिन
जो कहते हैं
कि चार अरब
वर्ष पहले
शुरू हुई, यह
भी बचकानी बात
है। सिर्फ समय
को लंबा कर देने
से कुछ फर्क
नहीं पड़ता।
चार हजार साल
हो कि चार अरब
वर्ष हो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
लाओत्से तो
कहेगा कि
चीजें इस जगत
में शुरू हो
ही नहीं
सकतीं। अस्तित्व
सदा है। हां, रूप बदल सकते
हैं। रूप बदल
सकते हैं। रूप
नए हो सकते हैं;
पुराने हो
सकते हैं।
आकृतियां बदल
सकती हैं। लेकिन
वह जो छिपा है
आकृतियों के
भीतर, वह
सदा है, वह
सतत है।
"और
पुनः-पुनः वह
शून्यता के
आयाम में
प्रविष्ट हो
जाता है।'
जटिलता
और बढ़ जाती है
परिभाषा की।
क्योंकि अस्तित्व, जैसा
हम आमतौर से
समझते हैं, अस्तित्व का
मतलब होता है
होना।
लाओत्से के लिए
न होना भी
अस्तित्व है।
लाओत्से के
लिए होना और न
होना
अस्तित्व के
दो पहलू हैं।
तो जब लाओत्से
या बुद्ध जैसे
लोग कहते हैं
नथिंगनेस, न
होना, तो
हमें बड़ी
भ्रांति हो
जाती है। हम
समझते हैं
उनका मतलब है
कि जब वे कहते
हैं नथिंगनेस,
न होना, तो
उसका मतलब है
कि कुछ भी
नहीं है। भूल
हो जाती है।
बुद्ध या
लाओत्से जैसे
व्यक्तियों
के लिए न-होना
अस्तित्व का
एक ढंग है।
प्रकट होना, अप्रकट होना
एक ही चीज की
दो
व्यवस्थाएं
हैं।
मैं
बोलता हूं; फिर
मैं मौन हो
जाता हूं। अगर
हम बुद्ध से
पूछें तो
बुद्ध कहेंगे,
बोलना और
मौन होना एक
ही शक्ति के
दो ढंग हैं। वह
शक्ति कभी
बोलती और कभी
मौन हो जाती।
मौन होने में
वह शक्ति मिट
नहीं जाती जो
बोलती थी, सिर्फ
मौन हो जाती
है। न होना
होने का
अप्रकट हो
जाना है, मिट
जाना नहीं।
इसे
ठीक से समझ
लें तो बहुत
सी बातें साफ
हो सकेंगी। न
होना मिट जाना
नहीं है।
क्योंकि लाओत्से
की दृष्टि है
कि जगत में
मिट तो कुछ भी
नहीं सकता।
मिट कहां सकता
है?
अब तो
विज्ञान भी
कहता है कि
कोई भी चीज
मिटाई नहीं जा
सकती। कैसे मिटाइएगा? एक
रेत के छोटे
से कण को
मिटाने लगिए,
तब आपको पता
चलेगा कि आप
मिटा नहीं
सकते। आप पीस
डालेंगे। तो
जो इकट्ठा था,
वह टुकड़ों
में मौजूद हो
जाएगा। आप जला
डालेंगे। तो
जो अभी अनजला
था, वह जल
कर राख हो
जाएगा; लेकिन
मौजूद रहेगा।
आप मिटाइएगा
कैसे? आप
एक रूप को
मिटा कर दूसरा
रूप कर देंगे।
और कुछ भी न कर
पाएंगे। पानी
है, तो
बर्फ हो सकता
है। बर्फ है, तो भाप हो
सकती है। नदी
सागर हो सकती
है। सागर आकाश
के बादल बन
सकता है। बादल
फिर नदियां
बन जाएंगे।
लेकिन आप मिटा
नहीं सकते।
पानी की एक
बूंद भी मिटाई
नहीं जा सकती
है। मिटाना असंभव
है।
यह
बहुत मजे की
बात है कि
विज्ञान कहता
है कि जब से
अस्तित्व है, न
तो एक कण
इसमें बढ़ा है
और न एक कण घटा
है। क्योंकि
घटेगा कैसे? और बढ़ेगा
कैसे? इतना
परिवर्तन
होता रहता है,
लेकिन टोटल,
समग्र उतना
का ही उतना
है। कितना
विराट है अस्तित्व!
कितना उपद्रव
चलता है! तारे
बनते हैं, मिटते
हैं, बिखरते
हैं। पृथ्वियां
आती हैं, खो
जाती हैं।
कितने लोग, कितने जीवन
आते हैं, चले
जाते हैं।
कितने महल, कितनी
कब्रें, कितना
शोरगुल, फिर
कितना
सन्नाटा!
कितनी जीवन की
उथल-पुथल और
फिर कितनी
मृत्यु की
शांति! लेकिन
इस जगत में एक
कण न घटता है
और न बढ़ता है।
बढ़ेगा कहां से?
इस जगत
का अर्थ है: सब
कुछ। इसके
बाहर कुछ भी
नहीं है। तो
बढ़ेगा कहां से? और
इस जगत का
अर्थ है: सब
कुछ। तो घटेगा
कैसे? क्योंकि
इसमें से एक
कण भी तो कहीं
गिर नहीं सकता।
जगत की
समग्रता, टोटल,
जोड़ सदा वही
का वही है।
उसमें कोई
फर्क नहीं पड़ता।
रूप बदलते
रहते हैं; जो
रूपायित है, वह वही का
वही है। चीजें
खो जाती हैं, विलीन हो
जाती हैं, फिर
भी अस्तित्व
उतना का ही
उतना है।
लाओत्से
कहता है, "और
वह पुनः-पुनः
शून्यता के
आयाम में
प्रविष्ट
होता है।'
यह जो
अस्तित्व है, इसके
दो आयाम हैं:
इसके प्रकट
होने का अर्थ
है रूप में
होना, इसके
शून्य में
होने का अर्थ
है अरूप हो
जाना। एक गीत
मैं गाऊं,
क्षण भर
पहले तक वह
गीत नहीं था।
फिर मैंने गाया।
वह गीत हुआ।
फिर क्षण भर
बाद सब खो
गया। वह गीत
फिर शून्य में
समाविष्ट हो
गया। एक फूल
खिला। क्षण भर
पहले वह नहीं
था। सौंदर्य
आया। सूरज की
किरणों ने उस
फूल को
नहलाया। वह
फूल आनंद से
नाचा। उस फूल
ने अपने जीवन
का गीत गाया।
उस फूल ने
सुगंध छोड़ी।
फिर सांझ
कुम्हला गया।
फिर गिर गया।
फिर खो गया।
प्रत्येक
वस्तु होती है
और नहीं हो
जाती है। लेकिन
नहीं हो जाने
का अर्थ मिट
जाना नहीं है।
नहीं हो जाने
का अर्थ है
लीन हो जाना, खो
जाना वापस
शून्य में।
शून्य का अर्थ
है अप्रकट हो
जाना, अनमेनिफेस्ट हो जाना। मेनिफेस्टेशन
और अनमेनिफेस्टेशन,
होना और न
होना
अस्तित्व के
दो पहलू हैं।
एक
बहुत अदभुत
घटना है।
लाओत्से से
कोई मिलने आया
है। वह
नास्तिक है।
और वह कहता है
कि ईश्वर नहीं
है। और
लाओत्से के
पास पहले से
ही कोई उसका
शिष्य बैठा
है। वह आस्तिक
है। वह कहता
है,
ईश्वर है।
लाओत्से कहता
है, तुम
दोनों सही हो;
क्योंकि
तुम दोनों ही
ईश्वर के
एक-एक रूप की चर्चा
कर रहे हो।
तुममें कोई
विवाद नहीं
है। तुममें
कोई विरोध
नहीं है।
ईश्वर का एक
रूप है होना
और एक रूप है न
होना। नास्तिक
न होने की
चर्चा कर रहा
है, आस्तिक
होने की चर्चा
कर रहा है। और
तुम दोनों सही
हो और दोनों
गलत; क्योंकि
तुम दोनों ही
अधूरी बातें
कर रहे हो।
लाओत्से
कहता है, ईश्वर
है और ईश्वर
नहीं है; यह
दोनों एक साथ
सत्य है।
क्योंकि ये
दोनों उसके
होने के ढंग
हैं। तो
लाओत्से
हमारे लिए
मुश्किल हो
जाता है। परिभाषा
कठिन हो जाती
है। कोई कहे, ईश्वर है; तो परिभाषा
हो गई। कोई
कहे, नहीं
है; तो भी
परिभाषा हो
गई। दोनों
निश्चित हैं।
लाओत्से कहता
है, ईश्वर
है और नहीं है,
दोनों। तो
परिभाषा
मुश्किल हो
गई।
लेकिन
लाओत्से ठीक
कह रहा है।
लाओत्से ठीक
कह रहा है। न
होना भी होने
का एक ढंग
है--विरोध नहीं, विपरीत
नहीं। यह अगर
दिखाई पड़े, तो जन्म भी
मेरे होने का
एक ढंग है और
मृत्यु भी
मेरे होने का
एक ढंग है।
जन्म में मैं
प्रकट होता; मृत्यु में
मैं लीन होता।
जागना भी मेरे
होने का एक
ढंग है; नींद
भी मेरे होने
का एक ढंग है।
जागने में मैं
गतिमान होता;
नींद में
मैं गतिशून्य
हो जाता।
जागने में मैं
बाहर चलता; नींद में
मैं भीतर चलने
लगता। होश भी
मेरे होने का
एक ढंग है और
बेहोशी भी
मेरे होने का
एक ढंग है।
होश में मेरे
भीतर हलन-चलन
होता; बेहोशी
में सब शांत
हो जाता, होश
भी शांत हो
जाता।
हमारे
मन में होने
और न होने के
बीच जो विरोध
है,
उसे तोड़
देना जरूरी
है। तो ही
लाओत्से समझ
में आए। दोनों
में कोई
विपरीतता
नहीं है, कोई
शत्रुता नहीं
है। दोनों एक
ही बात के दो ढंग
हैं। तब
परिभाषा और
कठिन हो गई।
क्योंकि
पुनः-पुनः वह
शून्य में
प्रविष्ट हो
जाता है। अगर
वह सदा बना
रहे, तो भी
हम उसकी
परिभाषा कर
सकते हैं।
लेकिन वह कभी-कभी
खो जाता है, न हो जाता
है। तो
परिभाषा और
मुश्किल हो
जाती है।
"इसीलिए
उसे निराकार
रूप में
वर्णित किया
जाता है। दैट्स
व्हाय इट इज़ काल्ड
दि फार्म ऑफ
दि फार्मलेस।'
इसीलिए
निराकार ही
उसका आकार कहा
जाता है। उसका
आकार ही
निराकार होना
है। वह इस ढंग
से है कि आकार, रूप
उसमें नहीं
हैं। यह भी
थोड़ा कठिन
पड़ेगा; क्योंकि
हमारे सोचने
के सभी ढंग
चीजों को विपरीत
कर लेते हैं। और
लाओत्से के
सोचने, देखने
का ढंग सभी
चीजों को जोड़
लेना है।
हम
जानते हैं उन
लोगों को, जो
सगुण ईश्वर को
मानते हैं। वे
कहते हैं, वह
आकारवान है, रूपवान है।
हम जानते हैं
उन लोगों को, जो निर्गुण
ईश्वर को
मानते हैं। जो
कहते हैं, निराकार
है, उसकी
कोई आकृति
नहीं। और
कितना विवाद
है उनमें!
इस्लाम
निराकार को
मानता है। तो
उसने सारी दुनिया
से आकार तोड़ने
की कोशिश की।
जहां-जहां मूर्ति
हो,
मिटा दो; क्योंकि
ईश्वर का कोई
आकार नहीं है।
आकार मानने
वाले लोग हैं।
इस्लाम ने, मक्का के
मंदिर में तीन
सौ पैंसठ
मूर्तियां थीं,
उनको तोड़
डाला। वे तीन
सौ पैंसठ
मूर्तियां
प्रत्येक दिन
के लिए एक
ईश्वर का आकार
था। पूरे वर्ष
के लिए आकार
थे। प्रत्येक
दिन ईश्वर का
एक आकार था।
बड़े
कल्पनाशील
लोग थे, जिन्होंने
वह मंदिर
बनाया होगा।
प्रत्येक दिन
के लिए ईश्वर
की एक आकृति
स्वीकृत थी।
उस दिन उस
आकृति की पूजा
करते थे, दूसरे
दिन दूसरी
आकृति की, तीसरे
दिन तीसरी
आकृति की। बड़ी
कीमत की बात
थी। कीमत यह
थी कि आकार
में पूजते थे,
फिर भी
निराकार को
मानते रहे
होंगे। नहीं
तो रोज आकार
बदलेगा कैसे?
रोज आकार
उसी का बदल
सकता है, जो
निराकार हो।
जिसका आकार है,
उसका रोज
आकार कैसे
बदलेगा? और
जो रोज आकार
बदल लेता है, उसका अर्थ
ही यह हुआ कि
उसका कोई
निश्चित आकार
नहीं है।
इसलिए कोई भी
आकार में वह
प्रकट हो सकता
है।
हमारे
मुल्क में
हिंदुओं ने
हजारों आकार
निर्मित किए
हैं ईश्वर के।
एक वृक्ष के
नीचे रखे हुए अनगढ़
पत्थर से लेकर
खजुराहो की
सुंदरतम
मूर्तियों तक
बहुत आकार
निर्मित किए
हैं। तैंतीस करोड़
देवताओं की
कल्पना इस
मुल्क में रही
है। अनंत आकार
निर्मित किए
हैं।
आकार
वालों में और
निराकार
वालों में बड़ा
विरोध है।
क्योंकि
निराकार वाला
सोच नहीं सकता
कि जिसका कोई
आकार नहीं, उसकी
मूर्ति कैसे
होगी? और
आकार वाला यह
नहीं सोच सकता
कि जो सब इतने
आकारों में
प्रकट हुआ है,
वह मूर्ति
में क्यों
प्रकट नहीं
होगा? इतने
आकारों में जो
प्रकट हो रहा
है, अनंत-अनंत
आकारों में, तो वह मेरी
पत्थर की
मूर्ति में
प्रकट होने में
उसे क्या बाधा
है? और
पत्थर भी उसी
का आकार है; अन्यथा
पत्थर भी होगा
कैसे? इसलिए
बहुत बाद में
आकार वालों ने
मूर्तियां गढ़नी शुरू
कीं। पहले तो
कोई भी पत्थर
पर सिंदूर लगा
कर मूर्ति
निर्मित हो
जाती थी। सभी
पत्थरों में
वही है, सिंदूर
लगाने से
भक्तों के लिए
प्रकट हो गया
था। इसलिए अगर
गांव में जाएं
और अनगढ़
पत्थरों पर
सिंदूर पुता
देखें, तो
खयाल में नहीं
आता कि यह
देवता कैसे बन
गया है? शायद
गांव के लोग
आकार न बना
सकते होंगे, मूर्ति न
खोद सकते
होंगे। नहीं,
ऐसा नहीं
है। कोई भी
पत्थर का कोई
भी आकार वस्तुतः
उसी का आकार
है। सब आकार
उसके हैं, तो
कोई भी आकार
काम दे देगा।
इन
दोनों
विचारों में
विरोध दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
हमें निराकार
और आकार
विपरीत शब्द मालूम
पड़ते हैं।
लाओत्से के
लिए कहीं भी
विरोध नहीं
है। लाओत्से
की मौलिक
दृष्टि जीवन
में अविरोध को
देखना है--सभी
जगह। गुण भी
उसी के हैं; निर्गुण भी
वही है। आकार
भी वही है; निराकार
भी वही है।
इसलिए
बहुत बढ़िया
वचन है यह, "दैट्स व्हाय
इट इज़ काल्ड
दि फार्म ऑफ
दि फार्मलेस।'
हम
निराकार को ही
उसका आकार
कहते हैं। हम
निर्गुणता को
ही उसका गुण
कहते हैं। न
होने को भी हम
उसका होना
कहते हैं।
उसकी
अनुपस्थिति
उसके उपस्थित
होने का एक
ढंग है। हिज
एब्सेंस इज़ जस्ट
ए वे ऑफ हिज
प्रेजेंस। तब
परिभाषा और
कठिन हो जाती
है। क्योंकि
अगर हम शब्दों
की विपरीतता
मानें, तो
सीमाएं खींची
जा सकती हैं।
अगर हम कहें
वह गुणवान है,
तो निर्गुण
से अलग कर
सकते हैं। अगर
हम कहें वह
आकार वाला है,
तो निराकार
से अलग कर
सकते हैं। या
हम कहें कि वह
निराकार है, तो आकार को
काट सकते हैं
और सीमा खींच
सकते हैं।
लेकिन अगर वह
दोनों है, तो
सीमा और भी धुंधली
होकर खो जाती
है। फिर
परिभाषा और भी
कठिन है।
"वह
शून्यता की
प्रतिमूर्ति
है।'
मूर्ति
तो सदा ही
वस्तुओं की
होती है।
शून्यता की
कैसे मूर्ति
होगी? मूर्ति
का तो अर्थ ही
होता है आकार;
निराकार की
कैसे मूर्ति
होगी? लेकिन
लाओत्से कहता
है, वह
शून्यता की
प्रतिमूर्ति
है। विपरीत को
आत्यंतिक रूप
से जोड़ने
की चेष्टा है।
नहीं है वह, यह भी उसके
होने का आयाम
है।
हमें
कठिन पड़ेगा।
क्योंकि हमें
साफ है, एक
चीज है और एक
चीज नहीं है।
लेकिन कुछ
चीजें हमारे
अनुभव में भी
हैं, जो
हैं और जिनको
होने की किसी
भी भाषा में
नहीं रखा जा
सकता। आपके
हृदय में
प्रेम जाग आए
किसी के
प्रति। है, लेकिन
बिलकुल न होने
जैसा है। यही
तो प्रेमी की
तकलीफ है कि
जो वह अनुभव
करता है, उसे
कह भी नहीं
पाता। जो वह
अनुभव करता है,
उसे बता भी
नहीं पाता। जो
वह अनुभव करता
है, अगर
प्रमाण मांगे
जाएं, तो
कोई भी प्रमाण
नहीं है।
अगर
पूछें किसी
प्रेमी से कि
तू जिस प्रेम
की इतनी बातें
करता है, रातों
जिसका चिंतन
करता है, श्वास-श्वास
जिससे तेरी भर
गई है, रोएं-रोएं
में जिसका तू
कंपन अनुभव
करता है, उसका
प्रमाण कहां
है? कहां
है वह प्रेम? तो प्रेमी
के पास कोई
उपाय नहीं है
कि वह बता सके
कि प्रेम कहां
है। और जिन
बातों से वह
बताने की
कोशिश भी करता
है, वे
कितनी अधूरी
हैं! और इसलिए
प्रेमी अनुभव
करता है कि
कितनी
असमर्थता है!
कैसे प्रकट
करे? गले
से किसी को
लगा लेता है, लेकिन कुछ
भी तो प्रकट
नहीं होता।
हड्डियां हड्डियों
को छूती हैं
और अलग हो
जाती हैं।
प्रेमी को
भीतर अनुभव
होता है: नहीं,
प्रकट नहीं
हो पाया जो
प्रकट करना
था। प्रेमी अपनी
जान भी दे दे, तो भी कुछ
प्रकट नहीं हो
पाता। जान ही
दी जाती है, और भीतर
लगता है कि जो
प्रकट करना था,
वह तो
अप्रकट रह
गया। प्रेम है;
पर ऐसा है, जैसे न हो।
प्रेम के होने
का ढंग ठीक
वैसा ही है, जैसा
परमात्मा के
होने का ढंग
है।
इसलिए
जीसस ने
परमात्मा की
परिभाषा में
ही प्रेम शब्द
का प्रयोग
किया और कहा
कि लव इज़
गॉड।
इसका
कारण यह नहीं
है कि
परमात्मा
प्रेमी है। यह
भ्रांति हुई।
यह भ्रांति
हुई और ईसाइयत
ने परिभाषा की
कि परमात्मा
बहुत
प्रेमपूर्ण
है। नहीं, ईसा
का यह मतलब
नहीं है।
क्योंकि
परमात्मा को प्रेमपूर्ण
कहने का कोई
अर्थ ही नहीं
है। क्योंकि
जहां कोई घृणा
न हो, वहां
प्रेमपूर्ण
कहने का कोई
भी अर्थ नहीं
है।
परमात्मा
प्रेम है, इसका
अर्थ यह है कि
इस अस्तित्व
में प्रेम ही एकमात्र
हमारे पास
प्रमाण है, जिसमें होना
और न होना एक
साथ संयुक्त
है। है प्रेम;
पूरे वजन से
है। और एक
आदमी अपने
प्रेम के लिए
अपने जीवन तक
को खोने को
तैयार है, तो
उस आदमी को
प्रेम अपने
जीवन से भी
ज्यादा वास्तविक
मालूम पड़ता है,
तभी। लेकिन
उस प्रेम को
है की परिभाषा
में कहीं भी
रखने का कोई
उपाय नहीं।
उसे कहीं भी
बताया नहीं जा
सकता कि यह
है। इसलिए
ईश्वर को जीसस
ने प्रेम कहा,
सिर्फ
इसलिए कि आपके
अनुभव से एक
सूत्र जुड़ सके।
लेकिन
हमें तो प्रेम
का ही कोई पता
नहीं होता। तो
फिर बहुत
कठिनाई हो
जाती है। बहुत
कठिनाई हो
जाती है।
इसलिए
जो
चिंतन-प्रक्रियाएं
प्रेम से
जितनी दूर
होती हैं, उतनी
ही ईश्वर को
इनकार करने
वाली हो जाती
हैं। जैसे गणित,
गणित ईश्वर
को स्वीकार
नहीं कर सकता;
क्योंकि
प्रेम से बहुत
दूर की
व्यवस्था हो
गई। विज्ञान,
विज्ञान
ईश्वर को
स्वीकार नहीं
कर सकता; क्योंकि
प्रेम से
विज्ञान का
क्या
लेना-देना?
काव्य
ईश्वर को
स्वीकार कर
सकता है; क्योंकि
काव्य प्रेम
के निकट है।
नृत्य ईश्वर को
स्वीकार कर
सकता है; क्योंकि
नृत्य प्रेम
के निकट है।
संगीत ईश्वर
को स्वीकार कर
सकता है; क्योंकि
संगीत प्रेम
के निकट है।
जो
व्यवस्थाएं
प्रेम के निकट
हैं,
वे ईश्वर को
स्वीकार करने
की तरफ पैर
उठा सकती हैं।
जो
व्यवस्थाएं
प्रेम से
जितनी दूर हैं,
उतनी ही
सख्त होती चली
जाती हैं और
ईश्वर को
मानना उन्हें
कठिन होता चला
जाता है।
क्योंकि उनके
लिए न होना और
होना एक साथ
कैसे हो सकते
हैं, यह
बात ही
ग्राह्य नहीं
होती।
लाओत्से
कहता है, शून्यता
ही जैसे उसकी
मूर्ति है।
नहीं है, यही
उसका होना है।
"इन सब
कारणों से उसे
दुर्गम्य कहा
जाता है।'
ये सब
कारण हैं कि
वह समझ में
नहीं आता, ऐसा
कहा जाता है।
"उससे
मिलो, फिर
भी उसका चेहरा
दिखाई नहीं
पड़ता; उसका
अनुगमन करो, फिर भी उसकी
पीठ दिखाई
नहीं पड़ती।'
यह वचन
बहुत गहन है:
"उससे मिलो, फिर
भी उसका चेहरा
दिखाई नहीं
पड़ता।'
वह मिल
भी जाए, तो भी
उसका चेहरा
दिखाई नहीं
पड़ता। उसका
कोई चेहरा
नहीं है। उसका
चेहरा हो भी
नहीं सकता। सभी
चेहरे चूंकि
उसके हैं, कोई
भी चेहरा उसका
नहीं हो सकता।
अगर उसका भी अपना
कोई चेहरा है,
तो फिर सभी
चेहरे उसके
नहीं हो सकते।
लाओत्से
की प्रसिद्ध
पंक्तियां
हैं: ही इज़
नो व्हेयर, बिकाज
ही इज़
एवरी व्हेयर।
ही इज़ नो
वन, बिकाज ही इज़
एवरी वन। कहीं
भी नहीं है वह,
क्योंकि सब
जगह वही है।
कोई भी नहीं
है वह, क्योंकि
सभी में वही
है।
उसका
कोई चेहरा
नहीं हो सकता; उससे
मिलन हो सकता
है। इसलिए जो
लोग चेहरों से
आविष्ट हो
जाते हैं, वे
उससे कभी भी
नहीं मिल
पाते। कोई राम
से जकड़ जाता
है। कोई कृष्ण
से जकड़ जाता
है। कोई जीसस
से जकड़ जाता
है। ये चेहरे
हैं। इन
चेहरों में भी
वही है, लेकिन
ये कोई भी
चेहरे उसके
नहीं या सभी
चेहरे उसके
हैं। इसे
ध्यान रखना
जरूरी है; अन्यथा
भूल हो जाती
है। तो राम का
भक्त राम के
चेहरे को ही
खोजता रहता
है। और वह
चेहरा-मुक्त
है, फेसलेस है। यह
चेहरा ही फिर
बाधा बन जाता
है। एक सीमा तक
राम का चेहरा
सहयोगी होता
है, क्योंकि
राम के चेहरे
में उसकी झलक
हमें मिली।
फिर एक सीमा
के बाद राम का
चेहरा बाधा बन
जाता है, क्योंकि
अब चेहरा
महत्वपूर्ण
हो गया और झलक
गैर-महत्वपूर्ण
हो गई।
श्री
अरविंद ने कहा
है कि थोड़ी
दूर तक जो सीढ़ियां
हैं,
थोड़ी देर के
बाद बाधाएं बन
जाती हैं।
थोड़ी दूर तक
जो मार्ग था, थोड़ी दूर के
बाद वही भटकाव
है।
इसलिए
हर मार्ग को
चुनना ध्यान
रख कर कि कब तक वह
मार्ग है। और
यह बहुत कठिन
है,
यह बहुत
कठिन है। हर
सीढ़ी को चढ़ना
तब तक, जब
तक वह सीढ़ी
हो। और जब
रोकने लगे, तब उससे हट
जाना।
राम का
चेहरा सहयोगी
है,
क्योंकि
राम के चेहरे
में जितनी
सरलता से उसका
शून्य चेहरा
प्रकट हुआ है,
वैसे कम
चेहरों में
प्रकट हुआ है।
राम का चेहरा
उपयोगी है, क्योंकि राम
के चेहरे से
वह शून्य
प्रकट हुआ है।
लेकिन फिर
चेहरा
महत्वपूर्ण
होता चला
जाएगा। और धीरे-धीरे
चेहरा इतना
महत्वपूर्ण
हो जाएगा कि
उस चेहरे से
फिर शून्य
प्रकट नहीं
होगा।
ऐसा
निरंतर होता
है। बुद्ध के
पास जब कोई
पहली दफा जाता
है,
तो बुद्ध के
चेहरे से कोई
लगाव तो नहीं
होता, बुद्ध
की आंखों से
कोई लगाव नहीं
होता। लगावरहित
अवस्था होती
है। उस क्षण
में बुद्ध की
आंखों से वह
दिखाई पड़ जाता
है, जो
बुद्ध के पार
है। फिर लगाव
शुरू होता है।
फिर लगाव घना
होता है। फिर
आसक्ति
निर्मित हो जाती
है। फिर
धीरे-धीरे वह
जो पार है, वह
दिखाई पड़ना
बंद हो जाता
है। फिर तो
बुद्ध का
चेहरा ही हाथ में
रह जाता है।
इसलिए बुद्ध
ने मरते वक्त
कहा कि मेरी
मूर्तियां मत
बनाना। कारण
यह नहीं था कि
बुद्ध मूर्ति
के विपरीत थे।
कारण कुल इतना
था कि बुद्ध
को दिखाई पड़ा
कि वह जो पीछे
था, वह तो
खोता जा रहा
है। मेरा
चेहरा
महत्वपूर्ण
होता जा रहा
है। और धीरे-धीरे
मेरा चेहरा ही
हाथ में रह
जाएगा।
लेकिन
बुद्ध का
चेहरा इतना
प्यारा था कि
बुद्ध की भी
लोगों ने
फिक्र नहीं
की। कहा था
उन्होंने, मेरी
मूर्ति मत
बनाना; लेकिन
जितनी बुद्ध
की मूर्तियां
बनीं पृथ्वी
पर उतनी किसी
की मूर्तियां
नहीं बनीं।
इतनी
मूर्तियां
बनीं कि बहुत
सी भाषाओं में
मूर्ति के लिए
शब्द ही बुद्ध
से बन गया।
जैसे उर्दू, अरबी, फारसी
में बुत। बुत
बुद्ध का
अपभ्रंश है।
इतनी
मूर्तियां
बनीं कि कुछ
लोगों ने तो
पहली जो मूर्ति
देखी, वह
बुद्ध की ही
थी। इसलिए
मूर्ति का मतलब
ही बुत हो गया,
बुत यानी
मूर्ति। और
बुत का मतलब
है बुद्ध। और
जिस आदमी ने
कहा था मेरी
मूर्ति मत
बनाना! लेकिन
वह चेहरा ऐसा
प्यारा था कि
उसे छोड़ना
मुश्किल था।
यहां
कठिनाई खड़ी
होती है।
चेहरा सहयोगी
हो सकता है, अगर
पार का दर्शन
होता रहे।
चेहरा उपद्रव
हो जाता है, अगर पार का
दर्शन बंद हो
जाए। फिर
चेहरा दीवार
है। अगर पार
दिखाई पड़ता
रहे, बियांड दिखाई पड़ता
रहे, तो
चेहरा द्वार
है। तो मूर्ति
द्वार हो सकती
है, अगर
निराकार का
स्मरण बना
रहे।
लाओत्से
कहता है, उससे
मिलो, फिर
भी उसका चेहरा
नहीं दिखाई
पड़ता। उसके
पीछे चलो, लेकिन
उसकी पीठ का
कोई पता नहीं
चलता।
इसे भी
हमें समझना
आसान होगा, अगर
हम प्रेम से
इसे जोड़ें।
अगर
आपके जीवन में
कभी भी वह
सौभाग्य का
क्षण आया है, जब
आपने किसी को
प्रेम किया
हो...। यह इसलिए
कहता हूं कि
बहुत मुश्किल
से कभी करोड़
में एकाध बार
कोई आदमी किसी
को प्रेम करता
है। चर्चा
करते हैं लोग
प्रेम की। और
चर्चा इसीलिए
करते हैं, क्योंकि
प्रेम का कोई
अनुभव नहीं।
चर्चा से मन
को भरते हैं, समझाते हैं।
संतुलन खोजते
हैं चर्चा से,
सांत्वना
खोजते हैं।
अगर कभी किसी
ने किसी को प्रेम
किया हो, क्षण
भर को भी वह
झलक मिली हो, तो एक अनूठा
अनुभव होगा कि
जिससे आप
प्रेम करेंगे,
अगर प्रेम
के क्षण में
आप हों तो
आपको उसका चेहरा
नहीं दिखाई
पड़ेगा। यह
बहुत कठिन
मामला है। अगर
आपने किसी को
प्रेम किया है,
एक क्षण को
भी आपका हृदय
प्रेम से भर
गया है, तो
आपके प्रेमी
का, आपकी
प्रेयसी का
चेहरा खो
जाएगा। और
आपको अपने
प्रेमी में, अपनी
प्रेयसी में
उसकी झलक
मिलेगी, जिसका
कोई चेहरा
नहीं है।
इसीलिए
जिन्होंने
गहरा प्रेम
किया है, उन्होंने
अपने
प्रेमियों की
ऐसे चर्चा की
है जैसे वे
ईश्वर की
चर्चा कर रहे
हों। इसलिए
बहुत मुश्किल
है, प्रेमियों
के वचन खोज कर यह
तय करना
मुश्किल है कि
वे प्रेमी की
चर्चा कर रहे
हैं कि
परमात्मा की
चर्चा कर रहे
हैं! अगर आपने
प्रेम-काव्य
पर कभी नजर
डाली है, तो
आपको निरंतर
कठिनाई अनुभव
होगी कि यह
प्रेमी की
चर्चा है या
परमात्मा की!
यह उमर खय्याम
किसकी बात कर
रहा है? प्रेयसी
की या परमात्मा
की? शराब
की या समाधि
की? बहुत
कठिन है, बहुत
कठिन है।
इसलिए शराब
बेचने वाली
दुकानें उमर खय्याम
नाम रख लेती
हैं।
प्रेमी
प्रेम के क्षण
में निराकार
से संबंधित हो
जाता है, आकार
खो जाता है।
रूप खो जाता
है, अरूप
प्रकट होता
है। प्रेम की
कीमिया, प्रेम
की अल्केमी
यही है कि रूप
से उसकी
शुरुआत होती
है, अरूप
पर उसका अंत
होता है। पहले
तो रूप ही खींचता
है। लेकिन रूप
खींचता
इसीलिए है कि
रूप में से
कुछ भीतरी
स्वर्ण झलकता
है, कोई
भीतरी दीप्ति,
जो रूप की
नहीं है।
खींचता तो फूल
ही है पहले, लेकिन फूल
भी इसीलिए
खींचता है कि
सौंदर्य उसके
इर्द-गिर्द
आभा बनाए हुए
है। रूप ही
खींचता है
पहले, लेकिन
भीतर अरूप की
दीप्ति! जैसे
कि हम एक कांच
के घर में एक
छोटा सा दीया
जला दें। दीया
कहीं भी दिखाई
न पड़े, कांच
का घर ही
दिखाई पड़े; लेकिन दीए
की झलक, दीप्ति
बाहर आती हो।
दीए की लौ तो
दिखाई न पड़ती
हो, लेकिन
दीए की किरणें
बाहर आती हों,
हलकी रोशनी
बाहर झलकती
हो। तो कांच
का घर हमें
खींचे अपनी
तरफ। लेकिन
अगर घर पर ही
हम रुक जाएं, तो भूल हो
गई। घर के
भीतर जो छिपा
है!
एक
सुंदर शरीर
खींचता है
निकट, कुछ भी
बुरा नहीं है,
कुछ भी पाप
नहीं है।
बुराई तो तब शुरू
होती है, जब
भीतर के दीए
का पता ही
नहीं चलता और
सुंदर शरीर ही
सब कुछ हो
जाता है। तब
उपद्रव शुरू
होता है। अगर
रूप खींचे और
अरूप अनुभव
में आने लगे, तो एक क्षण
आएगा कि रूप
भूल जाएगा और
अरूप ही रह
जाएगा।
अगर
कोई ठीक से
प्रेम भी कर
ले एक व्यक्ति
को भी, तो परमात्मा
को और अलग से
खोजने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। क्योंकि
वही व्यक्ति
द्वार बन जाएगा।
चूंकि हम
प्रेम नहीं कर
पाते हैं, इसलिए
हमें
प्रार्थना
करनी पड़ती है।
और चूंकि हम
प्रेम नहीं कर
पाते हैं, इसलिए
साधना करनी
पड़ती है।
चूंकि प्रेम
नहीं कर पाते
हैं, इसलिए
फिर बहुत कुछ
करना पड़ता है।
प्रेम ही कोई
कर ले, तो
फिर कोई और
उपाय, कोई
विधि...। तो
मीरा कह सकती
है कि न कोई
उपाय है, न
कोई विधि है, न कोई ज्ञान
है, न कोई
ध्यान है।
मीरा कह सकती
है; क्योंकि
प्रेम की उसे
खबर मिल गई
है। कबीर कह सकते
हैं कि छोड़ो
सब यज्ञ-योग, छोड़ो सब जपत्तप,
छोड़ो सब, उसका
नाम ही काफी
है।
लेकिन
उसका नाम उसके
लिए ही काफी
है,
जिसके भीतर
प्रेम की झलक
आई हो। नहीं
तो नाम बिलकुल
काफी नहीं है।
रटते रहो।
यही
कठिनाई है कि
कबीर कहते हैं, नाम
काफी है।
क्योंकि
प्रेम से लिया
गया नाम पर्याप्त
है, और
क्या चाहिए? फिर लोग
सोचते हैं, नाम ही काफी
है। और प्रेम
का उनके पास
कोई अनुभव
नहीं है। तो
फिर नाम जपते
रहते हैं
जिंदगी भर।
यंत्रवत
तोतों की तरह
दोहराते रहते
हैं। और कहते
हैं, कबीर
ने कहा, नानक
ने कहा कि नाम
काफी है, तो
फिर हम नाम जप
रहे हैं। नाम
काफी है, नाम
भी काफी है।
नाम से कम और
क्या होगा? नाम भी काफी
है। लेकिन
काफी है उस
हृदय को जहां
प्रेम है। और
प्रेम हो, तो
नाम भी
गैर-जरूरी है।
प्रेम ही काफी
है।
लाओत्से
कहता है, मिल
जाए वह, फिर
भी चेहरा
दिखाई नहीं
पड़ता। अनुगमन
करो उसका, पीठ
दिखाई नहीं
पड़ती। मीट इट,
एंड यू डू
नॉट सी इट्स
फेस; फालो इट, एंड
यू डू नॉट सी इट्स बैक।
मिलते
ही कोई सीमा
नहीं दिखाई
पड़ती। किसी भी
उपाय से कोई
मिले, मिलते
ही कोई अनुभव
निर्मित नहीं
होता। इसलिए
कोई अगर कहे
कि मैंने
ईश्वर को देख
लिया, तो
समझना कि कोई
स्वप्न देखा
है, धार्मिक
स्वप्न देखा
है। प्रीतिकर,
सुखद, लेकिन
स्वप्न देखा
है। कोई कहे
कि मैंने उसका
चेहरा देख
लिया, तो
समझना कि
कल्पना प्रगाढ़
हो गई है।
उसका चेहरा
कभी किसी ने
नहीं देखा। कभी
कोई देख भी
नहीं सकेगा।
उसका कोई
चेहरा नहीं
है। उसकी कोई
रूप-रेखा नहीं
है। अस्तित्व
रूप-रेखा
शून्य है।
"वर्तमान
कार्यों के
समापन के लिए
जो व्यक्ति इस
सनातन ताओ को सम्यकरूपेण
धारण करता है,
वह उस आदि
स्रोत को
जानने में
सक्षम हो जाता
है जो कि ताओ
का सातत्य है।'
अंतिम
सूत्र साधक के
लिए है। जो
बातें पहले कही
गईं,
वे इशारे
हैं उस परम
रहस्य की तरफ।
उस परम रहस्य
को कैसे पाया
जा सके, इस
आखिरी सूत्र
में उसकी तरफ
निर्देश है। दोत्तीन
बातें समझनी
पड़ें।
एक, समय
मनुष्य की
ईजाद है।
परमात्मा के
लिए समय नहीं
है। अतीत, वर्तमान,
भविष्य
हमारे विभाजन
हैं।
परमात्मा के
लिए अतीत, वर्तमान
और भविष्य
नहीं हैं। तो
परमात्मा के लिए
जो शब्द उपयोग
किया जा सके
समय की जगह, वह सनातन है,
पुरातन है,
चिरनूतन है,
इटरनल है, इटरनिटी है।
समय
हमारा विभाजन
है। अतीत का
अर्थ है, जो अब
हमारे लिए
नहीं है।
भविष्य का
अर्थ है, जो
अभी हमारे लिए
हुआ नहीं।
वर्तमान का
अर्थ है, जो
हमारे लिए है।
लेकिन
परमात्मा तो
सभी को घेरे
हुए है। अतीत
भी उसके लिए
अभी है; भविष्य
भी उसके लिए
अभी है; और
वर्तमान भी
उसके लिए अभी
है। अगर ठीक
से समझें तो
परमात्मा के
लिए एक ही
काल-क्षण है, वह वर्तमान
है।
इसे
ऐसा समझें कि
दीवार में एक
छेद कर ले कोई
और बाहर से
देखे। एक कोने
से देखना शुरू
करे हाल के
भीतर, तो सबसे
पहले उसे मैं
दिखाई पडूं।
फिर क्रमशः उसकी
नजर आप पर
चलती जाए। जब
आप उसे दिखाई
पड़ें, तो
मैं दिखाई पड़ना
बंद पड़ जाऊं।
फिर और पीछे
उसकी नजर जाए,
तो आप दिखाई
पड़ने बंद हो
जाएं। वह पीछे
हटता जाए, कतार-कतार,
दूसरे
चेहरे उसे
दिखाई पड़ें।
जो नहीं दिखाई
पड़ते अब, वे
अतीत हो गए।
जो अभी दिखाई
पड़ेंगे, वे
भविष्य हैं।
जो दिखाई पड़
रहा है, वह
वर्तमान है।
लेकिन कोई इस
कमरे के भीतर
मौजूद है।
बाहर के आदमी
के लिए तीन
हिस्से हो गए;
कमरे के
भीतर जो मौजूद
हैं, उसके
लिए एक ही है।
सब मौजूद हैं,
अभी-यहीं।
परमात्मा
अस्तित्व के
केंद्र पर
मौजूद है, हम
परिधि पर। हम
जो भी देखते
हैं, उसमें
हमें बहुत कुछ
छोड़ना पड़ेगा।
हमारी आंखों
की देखने की
क्षमता सीमित
है। हम चुन कर
ही देख सकते
हैं। जो छूट
जाता है, वह
अतीत हो जाता
है। जो होने
वाला है, वह
भविष्य हो
जाता है। जो
है, वह
वर्तमान। और मजे
की बात है, परमात्मा
के लिए सिर्फ
वर्तमान है।
कोई अतीत नहीं,
कोई भविष्य
नहीं। इसलिए
वर्तमान शब्द
का उपयोग करना
ठीक नहीं है
उसके लिए।
क्योंकि
वर्तमान का
मतलब ही होता
है: अतीत और
भविष्य के बीच
में। जिसके
लिए कोई अतीत
नहीं, कोई
भविष्य नहीं,
उसके लिए
वर्तमान शब्द
ठीक नहीं है।
इसलिए सनातन,
इटरनल,
सदा।
इकहार्ट
ने कहा है: इटरनल
नाउ, सदा
अभी।
उसके
लिए सब कुछ
वर्तमान है।
और हमारे लिए, अगर
हम खोजने जाएं,
तो कुछ भी
वर्तमान नहीं
है। हम कहते
हैं: वर्तमान,
अतीत, भविष्य।
लेकिन कभी
आपने देखा, आपका अतीत
भी काफी बड़ा
है। अगर आप
पचास साल जीए
हैं, तो
पचास साल का
अतीत है। और
अगर आपको
पिछले जन्मों
की याद आ जाए, तो
अरबों-खरबों
साल का अतीत
है। भविष्य भी
अनंत है। अगर
आपको अभी पचास
साल जीना है, तो पचास साल
का। और अगर
आपको खयाल आ
जाए पुनर्जन्मों
का, तो
अनंत भविष्य
है। अनंत है
अतीत, अनंत
है
भविष्य--हमारे
लिए। और
वर्तमान क्या
है? एक
क्षण भी नहीं।
अगर हम बारीकी
से खोजने जाएं,
तो किस क्षण
को आप वर्तमान
कहेंगे? जब
आप कहेंगे, तब वह अतीत
हो चुका होगा।
जब तक आप
जानेंगे कि यह
वर्तमान है, वह अतीत हो
चुका होगा।
अगर मैं कहूं
कि नौ बज कर
पैंतीस मिनट
पर अभी यह
क्षण वर्तमान
है; लेकिन
मेरे इतना
कहने में ही
वह क्षण अतीत
हो गया। अब वह
है नहीं।
हमारे पास
वर्तमान इतना
कम है कि हम
उसकी घोषणा भी
नहीं कर सकते।
घोषणा करें, वह अतीत हो
जाता है। सच
तो यह है कि
हमारे लिए वर्तमान
का केवल एक ही
अर्थ है: जहां
हमारा भविष्य
अतीत होता है,
वह बिंदु।
व्हेयर फ्यूचर
पासेस
इनटू पास्ट, जहां भविष्य
हमारा अतीत
बनता है, बस
वह जगह।
वर्तमान का
हमें कोई पता
नहीं है।
परमात्मा
के लिए सब कुछ
वर्तमान है, हमारे
लिए सब कुछ
अतीत या
भविष्य है।
जहां हमारा
भविष्य अतीत
बनता है, उसी
रेखा पर हम
मान कर चलते
हैं कि
वर्तमान है।
हमें उसका अनुभव
कभी नहीं
होता।
अगर उस
वर्तमान को हम
अनुभव करने
लगें, उस
वर्तमान को
अगर हम पकड़ने
लगें, वह
वर्तमान अगर
हमारी चेतना
से संयुक्त
होने लगे, इसी
का नाम ध्यान
है। हम
वर्तमान को
पकड़ नहीं पाते,
क्योंकि
चित्त हमारा
इतनी तेजी से
चल रहा है और
समय इतनी तेजी
से भाग रहा है
कि इन दोनों
के बीच मिलना
नहीं हो पाता।
समय को हम रोक
नहीं सकते, वह हमारे
हाथ के बाहर
है। चित्त को
हम रोक सकते
हैं, वह
हमारे हाथ के
भीतर है। अगर
चित्त बिलकुल
रुक जाए, तो
वह जो वर्तमान
का क्षण है, उससे हमारा
मिलन हो सकता
है। वर्तमान
के क्षण से
हमारा मिलन ही
परमात्मा से
हमारा मिलन
है। फिर धीरे-धीरे
अतीत और
भविष्य हमारे
लिए भी खो
जाते हैं, वर्तमान
ही रह जाता
है।
लाओत्से
या बुद्ध जैसे
व्यक्तियों
के लिए कोई
अतीत नहीं, कोई
भविष्य नहीं;
वर्तमान सब
कुछ है। जिस
दिन कोई
व्यक्ति ऐसी
अवस्था में आ
जाता है कि
वर्तमान सब
कुछ है, उस
दिन वह
परमात्मा से
एक हो गया, परमात्मा
हो गया। अतीत
और भविष्य जिस
मात्रा में
बड़े हैं, उसी
मात्रा में हम
परमात्मा से
दूर हैं; जिस
मात्रा में कम
हैं, उतने
निकट हैं; जिस
दिन खो गए, उस
दिन हम एक हैं।
अब इस
लाओत्से के
सूत्र को
समझें।
वर्तमान
कार्यों के
समापन के
लिए--रोज
दैनंदिन काम
में भी, क्षण-क्षण,
वर्तमान
क्षण में--जो
व्यक्ति
सनातन ताओ को
सम्यक रूप
धारण करता है।
जो वर्तमान
में जीते हुए
एक-एक क्षण
में भी सनातन
को ही धारण
करता है और
स्मरण रखता है,
जिसका न कोई
अतीत है, न
कोई भविष्य, जो सदा है।
दुकान पर बैठा
है, बाजार
में है, दफ्तर
में है, घर
में है, भोजन
कर रहा है, सो
रहा है, लेकिन
अतीत का स्मरण
नहीं, भविष्य
का स्मरण नहीं,
सनातन का
स्मरण! वह जो
सदा है और अभी
भी है, दि इटरनल नाउ,
सनातन और
अभी, उसका
जिसे स्मरण
है। जो सम्यकरूपेण
धारण करता है
सनातन को, वह
उस आदि स्रोत
को जानने में
सक्षम हो जाता
है, वह उस
परम स्रोत को
पहचानने में
पात्र हो जाता
है, जो कि
ताओ का सातत्य
है।
ताओ का
अर्थ--धर्म।
ताओ का
अर्थ--सत्य।
ताओ का अर्थ--नियम, ऋत।
ताओ का अर्थ
वह परम रहस्य,
जहां कोई
समय नहीं है।
जहां कोई बनना
और मिटना नहीं
है, जहां
कोई सुबह और
सांझ नहीं है,
जहां कोई
जन्म और
मृत्यु नहीं
है। उस परम
सातत्य को
उपलब्ध हो
जाता है।
समय
द्वार है। अगर
आप अतीत और
भविष्य में
डोलते रहते
हैं,
तो आप संसार
में हैं। अगर
समय की दृष्टि
से हम कहें, तो संसार का
अर्थ है: अतीत +
भविष्य; वर्तमान
नहीं। अगर
संसार से पार
जाना है, तो
अतीत और
भविष्य जहां
मिलते हैं, उस बिंदु से
नीचे गिरना
पड़े, वहीं
से छलांग
लगानी पड़े, वहीं से
नीचे उतरना
पड़े। शुद्ध
वर्तमान अर्थात
मोक्ष; शुद्ध
वर्तमान
अर्थात ताओ।
लाओत्से
से कोई पूछता
है कि
तुम्हारा
सबसे
श्रेष्ठतम वचन
कौन सा है? तो
लाओत्से कहता
है, यही! जो
मैं अभी बोल
रहा हूं। वानगाग
से कोई पूछता
है, तुम्हारी
श्रेष्ठतम चित्रकृति
कौन सी है? कौन
सी सबसे
श्रेष्ठ
तुम्हारी
पेंटिंग है? तो वानगाग
पेंट कर रहा
है और कहता है,
यही! जो मैं
अभी पेंट कर
रहा हूं।
अभी जो
हो रहा है, वही
सब कुछ है। इस
अभी में जो
सनातन को
स्मरण रख कर
जीना शुरू कर
देता है, उसे
रास्ता मिल
गया, उसे
सेतु मिल गया।
छोड़ें अतीत को,
छोड़ें
भविष्य को, पकड़ें वर्तमान
को। धीरे-धीरे
अतीत को
विसर्जित करते
जाएं।
हम तो
उसे ढोते हैं।
इसलिए बूढ़े
आदमी की कमर
झुक जाती है।
शरीर से कम, अतीत
का वजन बहुत
हो जाता है।
इतना अतीत हो
जाता है, थक
जाता है, पहाड़
छाती पर रख
जाता है। सब
अतीत हो जाता
है। बूढ़ा आदमी
बैठा हो
कुर्सी पर आंख
बंद किए, तो
आप समझ सकते
हैं कि वह
क्या कर रहा
होगा। वह अतीत
को कुरेद रहा
होगा। जवानी,
बचपन; सफलताएं,
असफलताएं;
प्रेम, विवाह,
तलाक, वह
सब खोज रहा
होगा। खोज रहा
होगा कि क्या
हुआ! बोझ बढ़ता
जाता है।
उसे
हटाते चलें, वह
बोझ खतरनाक
है। क्योंकि
वह सनातन से
कभी न जुड़ने
देगा।
बच्चे
को खोजें, जवान
को खोजें, वह
क्या कर रहा
है? भविष्य!
महल जो बनाने
हैं, यात्राएं
जो करनी हैं, सफलताएं जो
पानी हैं--महत्वाकांक्षाएं,
सपने।
बच्चे को
देखें, तो
भविष्य का
विस्तार है
बड़ा। बूढ़े को
देखें, तो
अतीत का।
भविष्य के
सपने हैं
बच्चे के पास,
बूढ़े के पास
उन्हीं सपनों
की राख। इन
दोनों के बीच
हम चूक जाते
हैं उसको, जो
वर्तमान है।
जैसा मैंने
कहा कि हमारा
वर्तमान वह
बिंदु है जहां
भविष्य अतीत
बनता है, और
हमारी जवानी
भी वह बिंदु
है जहां हमारा
भविष्य अतीत
बनता है, जहां
हमारे सपने
राख बनते हैं।
कभी
आपने कृष्ण की
कोई मूर्ति, कोई
चित्र देखा, जिसमें
कृष्ण बूढ़े
हों? बुद्ध
का कोई चित्र
देखा, जिसमें
बुद्ध बूढ़े
हों? महावीर
की कोई
प्रतिमा देखी,
जिसमें
महावीर बूढ़े
हों? बूढ़े
तो जरूर हुए
थे, इसमें
कोई शक-शुबहा
नहीं है।
बुद्ध बूढ़े
हुए थे, इसमें
कोई शक-शुबहा
नहीं है।
लेकिन चित्र
हमने सब उनके
जवानी के ही
शेष रखे हैं।
कारण हैं।
कारण हैं, इस
खबर को देने
के लिए कि
बुद्ध के लिए
वर्तमान सब
कुछ हो गया।
जवानी सब कुछ
हो गई, युवापन
सतत हो गया।
बूढ़े हो गए
शरीर से, लेकिन
चेतना बूढ़ी
नहीं हुई।
क्योंकि
चेतना पर कोई
अतीत का बोझ न
रहा। यह जो
खयाल है, वर्तमान
में अगर कोई
सतत जी रहा हो,
तो एक सतत
युवापन, एक
ताजगी, एक
प्रतिपल जीवन
का नया, नवीन,
प्रतिपल
ताजा, निर्दोष
फूल खिलता चला
जाता है। वह
कभी बासा नहीं
पड़ता।
"न
उसके प्रकट
होने पर होता
प्रकाश, न
उसके डूबने पर
होता
अंधेरा--ऐसा
है वह अक्षय और
अविच्छिन्न
रहस्य, जिसकी
परिभाषा संभव
नहीं है।'
आज
इतना ही। बैठें
लेकिन पांच
मिनट, कीर्तन
में सम्मिलित
हों।
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