आंखों देखी सांच-(विविध) -ओशो
पहला-प्रवचन--(जीवन की खोज)
घाटकोपर, बंबई, दिनांक 16 अप्रैल, 1966
मेरे प्रिय आत्मन्!मैं सोचता था, क्या आपसे कहूं? कौन सी आपकी खोज है? क्या जीवन में आप चाहते हैं? ख्याल आया, उसी संबंध में थोड़ी आपसे बात करूं तो उपयोगी होगा।
मेरे देखे, जो हम पाना चाहते हैं से छोड़ कर और हम सब पाने के उपाय करते हैं। इसलिए जीवन में दुख और पीड़ा फलित होते हैं। जो वस्तुतः हमारी आकांक्षा है, जो हमारे बहुत गहरे प्राणों की प्यास है, उसको ही भूल कर और हम सारी चीजें खोजते और इसीलिए जीवन एक वंचना सिद्ध हो जाता है। श्रम तो बहुत करते हैं, और परिणाम कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। दौड़ते बहुत हैं, लेकिन कहीं पहुंचते झरने उपलब्ध नहीं होते। जीवन का कोई स्रोत नहीं मिलता है। ऐसा निष्फल श्रम से भरा हुआ हमारा जीवन है। इस पर ही थोड़ा विचार करें। इस पर ही थोड़ा विचार मैं आपसे करना चाहता हूं।
क्या है हमारी खोज? यदि हम अपने पर विचार करेंगे, देखेंगे, आंखें खोलेंगे तो क्या दिखाई पड़ेगा? क्या हम खोज रहे हैं? शायद साफ ही हमें अनुभव हो, हम लोग सुख को खोज रहे हैं। और लगेगा कि मनुष्य का प्राण सुख तो चाहता है... . मनुष्य का ही क्यों, और सारे पशुओं की आकांक्षाएं सुख को पाने के लिए हैं, ऐसा हम विचार करेंगे।
हर कोई सुख चाहता है, लेकिन मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं प्रथम ही, और फिर उस पर विस्तार से समझाने का प्रयास करूंगा। सुख की खोज झूठी खोज है। वस्तुतः हम सुख नहीं चाहते हैं, हम कुछ और चाहते हैं। हम क्या चाहते हैं, वह मैं आपसे कहूंगा। और सुख हम क्यों नहीं चाहते, वह भी मैं आपसे कहूंगा। लेकिन आमतौर से ऐसा प्रतीत होता है कि हम सभी लोग सुख खोज रहे हैं। यह सुख की खोज चाहे किसी रूप में प्रकट हो रही हो... धन के रूप में, यश के रूप में, पद के रूप में और चाहे सुख की खोज जमीन पर चल रही हो और चाहे स्वर्ग की कल्पनाओं में, लेकिन हमारा मन जाने-अनजाने इस सुख के लिए पागल है।
क्या कभी यह विचार किया कि आज तक जमीन पर बहुत लोगों ने सुख खोजा है, लेकिन किसी ने सुख पाया है? क्या कभी यह विचार किया कि करोड़-करोड़, अरब-अरब लोग जिस बात को खोज चूके हैं और असफल हो गए, क्या मैं उसमें अपवाद सिद्ध हो जाऊंगा? और क्या कारण है कि सुख इतने लोग खोजते हैं, लेकिन सुख उपलब्ध नहीं होता है? जैसे ही किसी सुख को हम पा लेते हैं, वैसे ही वह व्यर्थ हो जाता है और हमारी आकांक्षा आगे बढ़ जाती है।
ऐसा क्यों होता है? किस कारण से यह होता है? क्या सुख का स्वभाव ऐसा है कि हम उसे पाए तो वह व्यर्थ हो जाए? या कि असलियत यह है कि सुख की खोज में हम किसी और खोज को छिपाए रहते हैं अपनी आंखों से? सुख की दौड़ में हम किसी और बात को अपनी आंखों से ओझल किए रहते हैं। कोई और है हमारी खोज। और हम सुख की दौड़ में उस खोज को भुलाए रखने का उपाय करते हैं। जैसे ही सुख मिल जाता है, सुख की दौड़ बंद हो जाती है, वैसे ही भीतर का सुख फिर दिखाई पड़ने लगता है। फिर हमें किसी नये सुख की खोज शुरू करनी पड़ती है ताकि सुख को फिर भुलाया जा सके। जब तक सुख मिलेगा नहीं, दौड़ रहेगी। मन उलझा रहेगा तो लगेगा कि सुख मिलने वाला है। जैसे सुख मिलेगा, दौड़ बंद होगी, मन खाली होगा, भीतर के दुख के दर्शन फिर शुरू हो जाएंगे। सुख जब तक पाने की चेष्टा चलती है, आकांक्षा चलती है, इच्छा चलती है, तब तक तो दुख भूला रहता है, और जैसे ही सुख मिला, दौड़ बंद हुई, मन खाली हुआ, मन थोड़ा काम से विश्राम में गया और भीतर का दुख फिर दिखाई पड़ने लगता है। फिर हमें नये सुख की खोज शुरू कर देनी पड़ती है। सुख की खोज ज्यादा से ज्यादा दुख को भुलाने का काम करती है, सुख की खोज ज्यादा से ज्यादा एक नशे का काम करती है, लेकिन कहीं पहुंचाती नहीं; न कहीं पहुंचा सकती है। सुख की कितनी ही बड़ी खोज हो, भीतर का दुख नष्ट नहीं हो सकता। यह असंभव है। यह इतना असंगत है, इन दोनों का कोई मेल नहीं है।
मैंने सुना है, एक मुसलमान बादशाह था, एक रात अपने पहल में सोया हुआ था। अंधेरी रात है, आधी रात है, ठंड के दिन हैं, सर्दी जोर से है। उसने देखा, उसके छप्पर पर कोई ऊपर चल रहा है। पुराने जमाने के मकान थे। छप्पर हिलने लगा। उसने पूछा, कौन है इस अंधेरी रात में? आधी रात में छप्पर के ऊपर कौन है? और राजा के भवन के ऊपर! ऊपर से आवाज आई, मैं हूं एक नागरिक। राजा ने पूछाः नागरिक हो? और भवन के ऊपर छप्पर पर क्या कर रहे हो? क्या तुम चोर हो? उसने कहा कि नहीं, चोर नहीं हूं, बल्कि मेरा ऊंट खो गया है, उसको खोज रहा हूं। राजा ने कहाः पागल, ऊंट खो जाए तो उसे भवन के छप्परों पर खोजा जाता है? ऊंट कहीं छप्परों पर खोता है? या छप्परों पर खोजने से मिल जाएगा? ऊपर से आवाज आई कि मैं तो आपका ही अनुकरण कर रहा हूं। अगर आप सिंहासन पर बैठकर सोचते हैं कि सुख मिल जाएगा, अगर आप सोचते हैं कि धन मिलने से सुख मिल जाएगा, अगर आप सोचते हैं, राज्य उपलब्ध हो जाने से प्राणों की प्यास तृप्त जाएगी, और अगर आप सही हैं तो फिर मैं कौन सी बड़ी भूल कर रहा हूं? छप्पर पर ऊंट भी खोया हुआ मिल सकता है।
राजा हैरान हुआ। वह आदमी पागल नहीं मालूम होता। भागकर बाहर आया। उसने लोगों को कहा, पकड़ो, ऊपर कोई है। वह आदमी तो नहीं मिला, बहुत खोजा। छप्पर पर तो नहीं मिला, लेकिन दूसरे दिन एक और घटना घटी। दूसरे दिन राजा भी महल में खोजने से नहीं मिला। वह भी रात ही चला गया।
छप्पर पर ऊंट खोजने से नहीं मिलेगा। छप्पर पर ऊंट खोता भी नहीं है। लेकिन हम सारे लोग वहीं खोज रहे हैं। हम खोज रहे हैं सुख। क्यों खोज रहे हैं सुख? सुख खोज रहे हैं, ताकि दुख मिट जाए। एक आदमी बीमार हो, स्वास्थ्य को खोजे... क्या होगा? क्या स्वास्थ्य खोजा जाता है? वह दौड़ता रहे दुनिया में और स्वास्थ्य की खोज करता रहे तो क्या होगा? स्वास्थ्य नहीं खोजा जाता। बीमारी मिटाई जाती है, बीमारी नष्ट की जाती है।
जो जानते हैं वे सुख को नहीं खोजते, बल्कि दुख को मिटाने का कोई उपाय करते हैं। दुख मिटाया जा सकता है, सुख नहीं पाया जा सकता। और जो सुख को पाने में जाएगा वह ज्यादा से ज्यादा दुख को भुलाने में समर्थ हो सकता है। थोड़ी देर के लिए विस्मरण हो सकता है, थोड़ी देर के लिए भूल सकता है, लेकिन दुख मिटेगा नहीं। दुख को मिटाना है तो दुख के कारण को जानकर, कारण को नष्ट करने से दुख नष्ट हो जाएगा और जो दुख को नष्ट कर देता है, वह जरूर सुख को उपलब्ध हो जाता है। और जो सुख को खोजता है, वह दुख को कभी नहीं मिटा पाता।
मैं आपसे कहूं, हम सारे लोग सुख खोज रहे हैं, यह वास्तविक बात नहीं है, वास्तविक खोज नहीं है। हमारी वास्तविक खोज है कि हम दुख को मिटाना चाहते हैं। लेकिन उस वास्तविक खोज को एक भ्रांत मार्ग से हम पकड़ते हैं और हमें लगता है कि हम सुख को पाना चाहते हैं। क्या मैं आपको याद दिलाऊं, दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं... एक वे लोग जो सुख को खोजते हैं, एक वे लोग जो दुख को मिटाने को खोजते हैं। और यह जमीन-आसमान का फर्क है दोनों में। ये शब्द एक से मालूम हो सकते हैं। ऊपर से दुखने पर ऐसा लगेगा, जो सुख को खोजता है वह भी वही खोज रहा है, जो दुख को मिटाने को खोजता है, वह भी वही खोज रहा है। नहीं, बिल्कुल नहीं। जमीन और आसमान में भी इतना फर्क नहीं है जितना इन दो बातों में फर्क है।
जो सुख को खोजता है, वह दुख में पड़ जाता है। और जो दुख को मिटाने को खोजता है, वह सुख को उपलब्ध होता चला जाता है। क्या कारण है? क्यों हम इस तथ्य को नहीं देखते कि हमारे भीतर दुख है? आप क्यों सुख को खोज रहे हैं? निश्चित ही, जब आप सुख को खोज रहे हैं, यह इस बात का प्रमाण है और सबूत है कि आप सुखी हैं। अगर कोई आदमी सुखी नहीं है तो सुख को क्या खोजेगा? अगर कोई आदमी निर्धन नहीं है तो धन क्यों खोजोगे? इसलिए जो आदमी जितना ज्यादा धन खोजता हो, जानना चाहिए उतना ही गहरा वह निर्धन होगा। नहीं तो क्यों खोजेगा? जो आदमी बीमार नहीं है, वह स्वास्थ्य को क्यों खोजेगा? और जो ज्यादा से ज्यादा स्वास्थ्य को खोजता हो, जानना चाहिए वह उतना ही गहरा बीमार है।
एक फकीर था। एक बहुत बड़े बादशाह से उसका प्रेम था। उस फकीर से गांव के लोगों ने कहा, बादशाह तुम्हें इतना आदर देते हैं, इतना सम्मान देते हैं। उनसे कहो कि गांव में एक छोटा सा स्कूल खोल दें। उसने कहा, मैं जाऊं, मैं जाऊं। मैंने आज तक कभी किसी से कुछ मांगा नहीं, लेकिन तुम कहते हो तो तुम्हारे लिए मांगूं। वह फकीर गया। वह राजा के भवन में पहुंचा। सुबह का वक्त था और राजा अपनी सुबह की नमाज पढ़ रहा था। फकीर पीछे खड़ा हो गया। नमाज पूरी की, प्रार्थना पूरी की। बादशाह उठा। उसने हाथ ऊपर फैलाया। कहा, हे परमात्मा, मेरे राज्य की सीमाओं को और बड़ा कर। मेरे धन को और बढ़ा, मेरे यश को और दूर तक आकाश तक पहुंचा। जगत की कोई सीमा न रह जाए जो मेरे कब्जे में न हो; जिसका मैं मालिक न हो जाऊं। हे परमात्मा, ऐसी कृपा कर। उसने प्रार्थना पूरी की, वह लौटा। उसने देखा कि फकीर सीढ़ियों से नीचे उतर रहा है। उसने चिल्ला कर आवाज दी क्यों वापस लौट चले? फकीर ने कहाः मैं सोच कर आया था कि किसी बादशाह से मिलने आया हूं। यहां देखा कि यहां भी भिखारी मौजूद है। और मैं तो दंग रह गया, जितनी बड़ी जिसकी मांग हो उतना ही बड़ा वह भिखारी होगा। तो आज मैंने जाना कि जिसके पास बहुत कुछ है, बहुत कुछ होने से कोई मालिक नहीं होता। मालिक की पहचान तो इससे होती है कि कितनी उसकी मांग है। अगर कोई मांग नहीं तो वह मालिक है, बादशाह है, और अगर उसकी बहुत बड़ी मांग है तो उतना बड़ी भिखारी है।
इसलिए दुनिया बहुत अजीब है। यहां जो बहुत मांग रहे हैं और बहुत धन है, बहुत खोज है, बहुत पद है। जानना कि भीतर बहुत निर्धन और दरिद्र होंगे। उसी को भुलाने के लिए उपाय कर रहे हैं, अन्यथा कोई कारण नहीं है। इसलिए दुनिया में बड़े से बड़ा धन है, आदमी अपने भीतर बहुत गहरा निर्धन होता है। और बड़े से बड़े पदों पर बैठा हुआ व्यक्ति अपने भीतर बहुत दयनीय और दरिद्रता होता है। और बहुत बड़ी महत्वाकांक्षा के लोग दुनिया को जीत लेने की आकांक्षा रखते हैं, भीतर बहुत कमजोर होते हैं अपने को जीतने में बहुत असफल और असमर्थ होते हैं।
यह जो मैंने कहा, यह हमारी खोज है... चाहे धन की, चाहे यश की, चाहे सुख की, मूलतः तो सुख की खोज है। यह हम सुख इसलिए खोजते हैं कि वह जो हमें दुख प्रतीत होता है, वह मिट जाए। लेकिन क्या यह उचित होगा... क्या यह उचित होगा कि दुख भीतर है, उसे मिटाने के लिए हम सुख खोजें? या यह उचित होगा कि दुख अगर भीतर तो उसके कारण को खोजें, पहचाने कि कौन सा कारण है मेरे भीतर, जिसके कारण मैं दुखी और पीड़ित हूं, और उस कारण को मिटाए और उस कारण से मुक्त हो जाए। क्या यह वैज्ञानिक होगा, या पहली बात वैज्ञानिक होगी? क्या कोई बीमारी हो तो उसके कारण खोज कर उस बीमारी को नष्ट करना होगा या कि किसी काल्पनिक स्वास्थ्य को खोजने के लिए हिमालय और पहाड़ों पर जाना होगा? लेकिन हमें ऐसा दिखाई पड़ता है।
और यह मनुष्य की बुद्धि के सबसे बड़े भ्रमों में से, सबसे बड़े झूठे तर्कों में से एक तर्क है कि जब उसे दुख अनुभव होता है तो बहुत सुख को खोजने लगता है। यह खोज वास्तविक न होकर, दुख को मिटाने वाली न होकर दुख को भुलाने वाली हो जाती है। और स्मरण रखें, दुख से भी खतरनाक बात दुख को भुला देना है। क्योंकि जो चीज भूल जाती है ऊपर से, वह भीतर सरकती रहती है और फैलती चली जाती है। इसलिए ऊपर हम सुख को खोजते जाते हैं और भीतर दुख घना होता जाता है। और भीतर चित्त की पर्त पर गहरे अचेतन, और गहरे मन के कोनों में, मन के भवन के बहुत दूर के कमरों में, प्रकोष्ठों में, तलघरों में हमारा दुख फैलता चला जाता है। ऊपर हम सुख को खोजते रहते हैं, भीतर दुख घना होता जाता है। जितना ज्यादा बाहर सुख की खोज होगी उतने ज्यादा दुख के कारण मजबूत हो जाएंगे और भीतर दुख घना हो जाएगा और व्यापक हो जाएगा, सुख के खोजी अंत में पाते हैं कि दुख में घिर गए हैं।
इसलिए मैंने प्रारंभ में ही यह बात आपको कहनी चाही। इस संबंध में थोड़ी आपसे बात कहूं, यह सुख की खोज एकमात्र भ्रांति है, एकमात्र अज्ञान है। सुख की खोज से दुख नहीं मिटेगा। दुख के निदान, दुख के कारण को जानने, पहचानने और अमटाने से दुख मिटेगा तो पहली तो बात यह कि सुख की खोज भ्रांत है और दुख को स्पर्श भी नहीं करती है, दुख के ऊपर-ऊपर फैल जाती है और भीतर दुख मजबूत बना रहता है, उसे कहीं भी नहीं छूती है।
यह वैसी ही है जैसी कोई एक वृक्ष हो और हम उसकी जड़ों को तो काटें नहीं और उसके पत्तों को काटते रहें। क्या आप जानते हैं कि पत्तों के काटने से और ज्यादा पत्ते वृक्ष में आ जाएंगे? क्या कोई वृक्ष पत्तों के काटने से नष्ट होता है? नहीं, और भी सघन हो जाता है। और भी घना हो जाता है। और भी उसके विकास के मार्ग खुल जाते हैं। वृक्ष नष्ट होता है जड़ों को नष्ट करने से। सुख की खोज दुख के पत्तों को छांटने जैसी है, दुख की जड़ को नष्ट करने जैसी नहीं है। जो व्यक्ति सुख की खोज कर रहा है, उसे मैं अधार्मिक कहता हूं और जो व्यक्ति दुख के कारणों को नष्ट करने की खोज कर रहा है, उसे मैं धार्मिक कहता हूं। उनको धार्मिक नहीं कहता जो मंदिर जा रहे हों, प्रार्थना कर हरे हों; क्योंकि हो सकता है, उनका मंदिर जाना और प्रार्थना करना सभी सुख की खोज हो। दुख को मिटाने का वैज्ञानिक उपाय नहीं है, इस बात को ठीक से समझ लेना। यह हो सकता है कि मंदिर में उनकी प्रार्थना सुख को ही पाने की खोज का हिस्सा हो और वह भगवान को भी सुख की खोज में अध्यात्म बनाना चाहते हों और वहां भी जाकर प्रार्थना कर रहे हों सुख को पाने की। और अगर भगवान उन्हें सुख देता हुआ मालूम पड़े तो वे मानेंगे कि भगवान है और कुछ नारियल चढ़ाएंगे, फूल चढ़ाएंगे। और अगर सुख देता हुआ न मालूम पड़े तो वे इनकार करेंगे कि भगवान का कोई प्रमाण नहीं मिलता। हम तो दुखी हैं। उनकी सुख की खोज ही उन्हें दुकान से हटा कर मंदिर तक ले जा सकती है। लेकिन सुख के खोजी को मैं धार्मिक नहीं कहता हूं।
एक दुनिया है, जहां हम धन कमा रहे हैं, भवन बना रहे हैं, यश प्रतिष्ठा को इकट्ठा कर रहे हैं, संग्रह कर रहे हैं, परिग्रह कर रहे हैं। एक सीमा आती है कि मनुष्य को दिखाई पड़ता है कि इससे तो दुख मिटता नहीं, और मुझे चाहिए सुख। यह भी हो सकता है कि इसी प्रतिक्रिया में, इसके रिएक्शन में वह सारा घर-द्वार छोड़ दे, संपत्ति छोड़ दे, साधु हो जाए। कष्ट झेलने लगे, शरीर को पीड़ा देने लगे, भूखा रहने लगे, शरीर को कोड़े मरने लगे, कांटों पर सोने लगे, धूप में पड़ा रहने लगे, नंगा रहने लगे। जितने कष्ट शरीर को दे सकता है, देने लगे। लेकिन स्मरण रहे यह हो सकता है कि यह सारा कष्ट और पीड़ा भी स्वर्ग में, इस लोग में, परलोक में इस जन्म में, अलग जन्म में, कहीं सुख को पाने की आकांक्षा से किया जा रहा हो ये कृत्य अधार्मिक हो जाते हैं।
यह तो आपको ज्ञात ही होगा, सारे धर्मों ने स्वर्ग की कल्पना की है और स्वर्ग में उन सभी सुखों की व्यवस्था की है, जो यहां हमें उपलब्ध नहीं हैं; या जिनकी यहां वर्जना है और निषेध है। यह किस बात का सबूत है? यह इस बात का सबूत है कि जो लोग इस लोक में सुख पाने में असमर्थ हो जाते हैं, उनकी आकांक्षाओं की हद नहीं है। वह परलोक में उन्हीं सुखों को पाने की कामना से फिर पीड़ित हो जाते हैं।
ऐसा मुल्क है, ऐसे लोग हैं जिन्होंने स्वर्ग में कल्पना की है कि शराब के झरने बहुत है। यहां शराब निषिद्ध है। धर्म कहते हैं, यहां शराब पीना बुरा है। लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है, वे धर्म जो कहते है, शराब पीना बुरा है वे, ही कहते हैं, जो शराब नहीं पीएंगे, ऐसे स्वर्ग में जाएंगे, जहां शराब की नदियां बहती हैं। यह विरोध दिखाई पड़ता है। यह समझ में आता है कि जिन्होंने यहां शराब छोड़ी है, उन्होंने इस वजह से भी छोड़ी हो सकती है कि वे ऐसे स्वर्ग में प्रवेश पाना चाहते हैं जहां। शराब के झरने बहते हों, नदियां बहती हो। यहां जिन-जिन कामनाओं को निषेध किया गया है, उन्हीं-उन्हीं कामनाओं की परिपूर्ण तृप्ति की व्यवस्था स्वर्ग में की गई है। ये सब बुभुक्षित, प्यासे भूखे, सुख-लोभी लोगों की कल्पनाओं से ज्यादा नहीं हो सकते हैं। और इसलिए दुनिया के जिस मुल्क में जिस तरह की बात सुख मानी जाती है उस मुल्क के लोगों ने अपने स्वर्ग में उसकी व्यवस्था कर ली है। सभी मुल्कों के स्वर्ग एक जैसे नहीं है, क्योंकि सभी मुल्कों की सुख की कामनाएं भिन्न-भिन्न हैं।
अगर आप तिब्बत में पैदा हों तो वह वहां सर्दी बहुत दुख है, वहां ठंड बहुत पीड़ा देती है। इसलिए उन्होंने अपने स्वर्ग में उष्ण की कामना की है। वहां सर्दी बिल्कुल नहीं है, बर्फ बिल्कुल नहीं है, पहाड़ बिल्कुल नहीं हैं, मैदान हैं। तिब्बतयों का जो स्वर्ग है वहां सर्दी बिल्कुल नहीं है, बड़ा उत्तप्त वातावरण है। लेकिन हमारा जो स्वर्ग है, वहां शीतल हवाएं बहती हैं। गर्म मुल्क का स्वर्ग अलग होगा। तिब्बतियों का जो नरक है, वहां बर्फ ही बर्फ है, वहां जो पड़ेगा गल जाएगा। हम गर्म मुल्क के लोग हैं, गर्मी कष्ट देती है। हमने नरक में कष्ट की व्यवस्था कर रखी है। और शीतलता सुख देती है तो स्वर्ग को एअरकंडीशंड कर रखा है। ठंडे मुल्क के लोग हैं, उनकी कल्पना में ठंड बहुत पीड़ा दे रही है। उन्होंने अपने स्वर्ग में गर्मी की व्यवस्था कर ली है और नरक में सर्दी की व्यवस्था कर ली है। यह हमारी सुख-दुख की कल्पनाओं के प्रक्षेपण हैं, उसके ही प्रोजेक्शन हैं, उसका ही विस्तार है।
हम जिन सुखों को यहां नहीं पा पाते, बहुत से लोग जो यहां पीड़ित रह जाते हैं, यहां अनुभव करते हैं कि नहीं मिलता, उससे भी वे जागते नहीं। उससे भी उन्हें यह ख्याल नहीं आता कि मेरी सुख की खोज जगत है, बल्कि यह ख्याल आता है कि इस संसार में सुख की खोज गलत है, उस संसार में सुख खोजना चाहिए। सुख की खोज मौजूद रह जाती है। अगर सुख की खोज के पीछे कोई संन्यास में गया हो तो वह संन्यासी भी, वह साधु भी संसारी का हिस्सा है, संसार के बाहर नहीं है। उसकी खोज अभी टूटी नहीं। अभी उसे यह स्मरण नहीं आया कि सुख की खोज ही भ्रांत है, चाहे इस लोक में, चाहे उस लोक में। उस लोक में तो और भी ज्यादा भ्रांत है। और भी ज्यादा। क्योंकि और भी ज्यादा कल्पना की बात होगी। हम कल्पना में उन्हीं बातों की व्यवस्था कर लेते हैं, जो हमारे भीतर कहीं हमारे चित्त को पकड़े रहती है।
मैंने सुना है, एक घर में एक कुत्ते और बिल्ली दोनों का आवास था। दोनों साथ-साथ रहते थे तो मैत्री हो गई थी। एक रात दोनों सोए, बहुत उठते तो बिल्ली बहुत प्रसन्न थी। उसकी आंखों में बड़ा जोश था। बड़ी अकड़ कर चल रही थी। तो कुत्ते ने पूछाः बात क्या हो गई? बिल्ली ने कहाः रात तो गजब हो गया। वर्षा आने को है, बादल घिर गए हैं, रात मैंने क्या देखा, तब मैंने देखा कि इस वर्ष वर्षा में पानी की वर्षा नहीं हो रही है, बल्कि चूके बरस रहे हैं। उस कुत्ते ने कहा, नासमझ मूर्ख बिल्ली! जब देखती है, गलत बात देखती है। कभी ऐसा हुआ है? जब भी वर्षा होती है तो साथ में हड्डियां बरसती हैं, चूहे आज तक न कभी बरसे हैं और न कभी बरस सकते हैं, कुत्ते के स्वर्ग में हड्डियां होंगी, बिल्ली के स्वर्ग में चूहे होंगे। बिल्ली के सपने में वही होगा, जो उसका सुख है। कुत्ते के सपने में वही होगा, जो उसका सुख है। क्या आपको पता है, स्वर्ग में जिन लोगों ने अप्सराओं की व्यवस्था कर रखी है और उनके अंग-अंग का वर्णन किया है क्या ये वे ही लोग नहीं होंगे जो स्त्रियों से यहां अतृप्त रह गए हैं? क्या यह सचाई नहीं ही भीतर, क्या यह मन शास्त्र इतनी भी नहीं समझ सकता? क्या हम इतने अंधे हैं कि यह भी नहीं जान सकते कि जिन्होंने स्वर्ग में अप्सराओं के अंग प्रत्यंग की बड़ी-बड़ी सुंदर-सुंदर कल्पना की है और एक-एक अंग का वर्णन किया है, ये लोग वे ही होंगे जो स्त्री से यहां अतृप्त रह गए हैं और स्त्री की कल्पना वहां तक चली गई है?
आपको यह पता है, स्वर्ग में अप्सराएं कभी बुद्ध नहीं होती? सदा युवा रहती है, चिर युवा रहती हैं। क्या आपको पता है, स्वर्ग में कल्पवृक्ष होते हैं, जिनके नीचे बैठती ही सब कामनाएं पूरी हो जाती हैं? जो धर्म कहते हैं, सब कामनाएं छोड़ दो, वे ही धर्म कहते हैं, कामना छोड़ने वाले लोगों को स्वर्ग मिल जाएगा, जहां कल्पवृक्षों के नीचे बैठ कर सारी कामनाएं तृप्त हो जाती हैं। ये सब सुख का ही विस्तार है। यह कोई धर्म की खोज नहीं है। यह कोई वास्तविक जीवन की दिशा नहीं है और इस अर्थ में सारी दुनिया के धर्मों ने उन लोगों को, जो उनकी बातों को मानेंगे, स्वर्ग की व्यवस्था दे दी है और उन लोगों को, जो उनकी बातों को नहीं मानेंगे, नरक की व्यवस्था दे दी है। जो उनकी बातों को मानेंगे, उनको सुख का आयोजन है और जो नहीं मानेंगे, उनके लिए दुख की बड़ी व्यवस्थाएं हैं।
और कितना आश्चर्यजनक है, स्टैलिन को, हिटलर को या मुसोलिनी को भी जिन बातों का पता नहीं होगा कि आदमियों को किस-किस भांति कष्ट दिए जाएं, उनके बहुत पुराने गुरुओं ने सब ग्रंथों में लिख दिया है। नरक में कौन-कौन से कष्ट दिए जा सकते हैं, कौन कौन सी कल्पना की जा सकती है, वह बहुत पहले कर ली गई है। अभी बाद में फेसिस्ट मुल्कों ने आदमियों को परेशान करने की बहुत ईजादें निकालीं। अगर उनको समझ होती और वह सारे पुराने ग्रंथ पढ़ लेती और नरक में क्या-क्या योजना की गई हैं, अगर उनको जान लेते तो उनके कारागृह और भी समृद्ध हो जाते। वहां वे और परेशान करने के, टार्चर करने के, लोगों को पीड़ा देने की नई-नई ईजाद जान सकते। लेकिन जिन लोगों ने यह कल्पना की है कि जो हमारी बातों नहीं मानेंगे, उनको इस-इस तरह के दंड दिए जाएंगे, ये लोग कोई अच्छे लोग नहीं रहे होंगे। असल में जो अपने लिए सुख खोजता है वह सदा दूसरे के लिए दुख खोजने का आकांक्षी होता है। यह तो नियम की बात है। जो अपने लिए सुख खोजता है वह अनिवार्यतया दूसरे के लिए दुख खोजने की व्यवस्था रखता है। इसीलिए तो मैंने कहा, सुख का खोजी अधार्मिक होता है।
अगर आप सारा सुख छीन लेना चाहते हैं तो कैसे छीनेंगे, जब तक कि दूसरे लोगों का सारा सुख आपके पास न आ जाए? आप कैसे सुखी हो जाएंगे? सबका सुख छीन लो, ये सुख के कामियों ने नरक की भी कल्पना की है, जहां कि जो उनके विरोध में हैं, उनको डाल दिया जाएगा। और आप हैरान हो जाएंगे, छोटे-छोटे निर्दोष पापों के लिए... जिनको कि पाप भी कहना कठिन है, उनके लिए इटर्नल कंडमनेशन तक की भी व्यवस्था अनंतकाल के लिए भी! एक आदमी जिंदगी में कितने पाप कर सकता है? अगर मैं हिसाब लगाऊं तो जितने पाप किए होंगे, कल्पना में सोचे होंगे, अगर सबका भी कोई सख्त से सख्त मजिस्ट्रेट से फैसला करवाऊं तो पांच साल से ज्यादा सजा मिलना मुश्किल है। दस पांच साल की सजा होगी, सौ साल की सजा होगी, लेकिन इटर्नल कंडमनेशन, अनंतकाल तक नरक में पड़े रहना! जरूर किन्हीं दुष्ट मनों की, किन्हीं बहुत वायलेंट, किन्हीं हिंसक मनों की, यह कल्पना है। लेकिन जो आदमी भी सुख की खोज करता है, वह आदमी हिंसा होता ही है, क्योंकि उसके भीतर होता है दुख, उसके भीतर होती है परेशानी, उसके भीतर होती है अशांति, और सुख की वह खोज करता है। लेकिन भीतर इतना बेचैन, अशांत, परेशान और दुखी होता है कि वह कभी किसी दूसरे को सुख में नहीं देख सकता। दूसरे को सुख में देखना उसे कठिन हो जाएगा। वह तत्क्षण दूसरे के सुख को मिटा देना चाहेगा। चाहेगा कि मुझे सब मिल जाए और शेष सबका सब छिन जाए।
यह जो दौड़ है, क्राइस्ट को जिस दिन सूली दी गई उस दिन उनके सारे शिष्य उनके पास इकट्ठे थे और उन शिष्यों ने क्राइस्ट से पूछा कि यह खतरा मालूम होता है कि शायद आप पकड़ लिए जाए और आपको सूली दे दी जाए। तो आप कृपा करके यह तो बता दें कि हमने जो आपके साथ इतनी तकलीफें सहीं, मरने के बाद स्वर्ग में हमारी पद प्रतिष्ठा क्यों होगी?
आपको पता है, यह क्राइस्ट से उनके शिष्यों ने पूछा कि आप कल अगर मर गए तो कम से कम इतना तो आश्वासन दे दें कि जब आप मर जाएंगे, जब हम भी मरकर स्वर्ग में आएंगे तो कौन कहां बैठेगा? परमात्मा के आसपास की क्या व्यवस्था होगी? किसका क्या पद होगा?
ये कैसे लोग रहे होंगे! और क्राइस्ट के मन को कैसा नहीं लगा होगा, कैसी दया नहीं आई होगी... कैसे पागल लोग! जो कहते हैं, हमने इतना छोड़ा, हमने इतना खोया, आपके पीछे इतनी तकलीफ उठाई। वह जो आदमी गहरी भूख से मर रहा है, उपवास कर रहा है, शरीर को कष्ट दे रहा ह... ऐसे फकीर हुए हैं, जिनको कोड़े मार रहे हैं जिंदगी भर, क्योंकि यह ख्याल है कि शरीर को जितना सताओगे, परमात्मा उसके प्रतिफल में पर लोग में उतना ही सुख देगा। ये सब सुखवादी हैं, ये सब मैटीरियलिस्ट हैं, ये सब हेडानिस्ट हैं। ये सबके सब सुख की खोज कर रहे हैं। ये उस जगत में सुख की व्यवस्था करने के लिए तकलीफ झेल रहे हैं। यह तकलीफ वास्तविक नहीं है, यह तपश्चर्या झूठी है। तपश्चर्या तभी वास्तविक होती है जब वह सुख की खोज के लिए न हो, बल्कि दुख के मूल कारण मिटाने के लिए हो। जब वह दुख के भीतर से मूल कारण नष्ट करने के लिए है।
तो सबसे पहली जरूरत तो यह है कि हम यह जाने लें और यह पहचान लें कि चाहे इस लोक में, चाहे पर-लोग में सुख की जो आकांक्षा है, वही भटकाने वाला तत्व है, वही भ्रांत दिशा में ले जाने वाला ख्याल है। क्यों है भांति दिशा में ले जाने वाला? भ्रांत दिशा में ले जाने वाला इसलिए नहीं है कि दूसरों ने कहा, है, शास्त्रों ने कहा है, साधुओं ने कहा है, गुरुओं ने कहा है, इसलिए नहीं; अगर आप खुद अनुभव करें, विचार करें तो आपको दिखाई पड़ेगा कि सुख कहीं भी ले जाने में समर्थ नहीं है। कभी आप कल्पना में भी विचार करें, जो भी सुख आपने पाना चाहा है, अगर उसे पा लें तो फिर क्या करेंगे? फिर क्या होगा? उसके बाद बात खत्म जो जाएंगी?
यताति का उल्लेख है, पुरानी कहानी है... यताति सौ वर्ष का हो गया, मरने का हुआ... एक पुराना राजा था, काल्पनिक कथा होगी... मरने को हो गया, मौत करीब आ गई। यताति ने कहाः यह क्या? अभी तो मैं जी भी नहीं पाया, कोई सुख पा भी नहीं पाया और मौत आ गई! यह कैसा अन्याय है परमात्मा! और मैं तो रोज पूजा करता था, प्रार्थना करता था। यह कैसा धोखा है! मौत ने कहाः क्या सौ वर्ष बीत गए, तुम सुख उपलब्ध नहीं कर पाए? यताति ने कहा, अभी तो कुछ भी नहीं मिला। अभी तो खाली हाथ हूं। कृपा करो, सौ वर्ष मुझे और दे दो। मौत ने कहाः मैं असमर्थ हूं। मुझे तो किसी को ले जाना पड़ेगा। तुम्हारे लड़कों में से कोई राजी हो जाए तो मैं उसको ले जाऊं, तुमको छोड़ जाऊं। तुम उसकी उम्र ले लो और सौ वर्ष जी लो। उस बूढ़े ने अपने लड़कों से हाथ जोड़े और प्रार्थना की कि कृपा करो और मुझे उम्र दे दो। कौन लड़का देगा? और बाप कैसा पागल था, कैसा नासमझ था! जब तुम बूढ़े होकर मरने को राजी नहीं तो जवान लड़कों से उसने प्रार्थना की। लेकिन जो सबसे छोटा लड़का था, अभी बीस ही वर्ष उसकी उम्र थी, उसने कहा, मेरी उम्र ले लें। मौत ने उससे पूछा कि तू कैसा पागल है? बाप तेरा मरना नहीं चाहता है, तू मरना चाहता है। उसने कहा, मैं समझ गया, जब सौ वर्ष में पिता को सुख नहीं मिला तो मुझे कैसे मिल जाएगा? मेरे लिए मामला हल हो गया। मेरी उम्र ले लें, बात खत्म हो गई। मैं प्रयोग करके देखता, वह मुझे दिखाई पड़ गया। यही तो मेरा होगा जो पिता का हुआ, यही दौड़ में भी दौडूंगा।
हर आदमी करीब-करीब एक सी दौड़ दौड़ रहा है। क्या आपको पता है, हम सब लोग एक ही तरह की जिंदगी रिपीट कर रहे हैं? यहां इतने लोग बैठे हैं, क्या आप सोचते हैं, आप अलग-अलग जिंदगी जी रहे हैं? वही क्रोध है, वही काम है, वही लोभ है, वही दुख है, वही पीड़ा है। एक सी जिंदगी रिपीट कर रहे हैं। यह कहानी बिल्कुल एक है, बहुत भेद नहीं है। इसमें थोड़े बहुत के अंतर होंगे। दुनिया में इसका कोई बहुत भेद नहीं है।
उस लड़के ने कहा, बात समझ में आ गई, यही जिंदगी तो मैं जीऊंगा उम्र दे दी। सौ वर्ष फिर बीत गए। फिर सौ वर्ष बीतने में देर कितनी लगती है! सौ वर्ष फिर बीत गए। फिर मौत आ गई। यताति चैंक गया। उसने कहा कि अभी? इतने समय बीत गया क्या? अभी तो मैं कुछ उपलब्ध कर नहीं पाया। मौत ने कहा, फिर तुम्हें छोड़ सकती हूं, अगर तुम्हारा एकाध लड़का... .इस सौ वर्ष में फिर उससे लड़के हो गए... कोई अपनी उम्र देने को राजी हो जाए। और ऐसी कहानी चलती है। यताति एक हजार वर्ष जीया। और एक हजार वर्ष के बाद जब मौत आई तो मसला वहीं था। उसने कहा कि अभी? मैं तो वहीं का वहीं हूं।
क्या आपको ख्याल है कि कल सुबह आप जहां थे, आज सुबह भी वही थे? क्या आपको ख्याल है कि एक वर्ष पहले जहां थे, इस वर्ष भी वही थे? क्या आपको ख्याल है, दस वर्ष पहले आप जहां थे, इस वर्ष भी आप वहीं थे? या कि सुख की मात्रा में कोई विकास हो गया? और अगर दस साल में विकास नहीं हुआ तो सौ साल में कैसे होगा, हजार साल में कैसे होगा? यह तो सिर्फ गणित को थोड़ा बड़ा कर लेना है। यह तो थोड़े से गणित की बात है, यह तो कोई बहुत समझदारी का, कोई बहुत बड़े तर्क की बात नहीं है, कल सुबह आप वही थे, आज सुबह भी वही हैं, कल सुबह भी वहीं होंगे तो क्या होगा? हजार साल बीतें कि लाख साल बीतें, आप वहीं की वहीं होंगे।
इस जीवन में, जिसे हम सुख की खोज मानकर चलते हैं, कभी कोई उपलब्धि नहीं हुई है, न हो सकती है। न हो सकने का कारण है। पहली बात, जो आदमी सुख कोख जाता है, जैसा मैंने कहा उसके भीतर दुख तो बना ही रहता है, वह तो कहीं जाता नहीं, सुख से छूता भी नहीं। सुख की नई-नई झलक विलीन हो जाती है, दुख फिर खड़ा हो जाता है। इसलिए सारी दुनिया में सुख के जो पागल हैं वे नये से नये सेंसेस की, नई से नई संवेदनाओं की खोज करते हैं। नई से नई संवेदनाओं की खोज करते हैं। और यही कारण है कि विज्ञान ने बहुत सी नई संवेदनाएं खोज दी हैं, जिनको हम सुख की संवेदनाएं कहें। और यही कारण है कि विज्ञान और यह स्वर्ग वादी धार्मिक जो हैं, विरोध में पड़ गए। दो तरह के सुख वाद हो गए दुनिया में, दोनों में झगड़ा शुरू हो गया। और लोग वैज्ञान के सुख वाद की ओर जल्दी झुक गए, क्योंकि परलोक की रोटी का क्या विश्वास! इस लोक में जो रोटी मिलती है, वह ज्यादा विश्वास है; असंदिग्ध है। अस पर शक नहीं किया जा सकता। जब तक दुनिया में विज्ञान नहीं था, यह तथाकथित धर्म का, यह जो स्वर्ग और नर्कवादी धर्म है, यह जो सुख का विश्वास दिलाने वाला धर्म है कि जो ऐसा करेगा उसे सुख मिलेगा, जो ऐसा नहीं करेगा उसे दुख मिलेगा, ऐसा जो धर्म है, जिसका प्रलोभन और भय से नाता है, जो प्रलोभन देता है कि यह-यह सुख देंगे तुमको, इस तरह का जीवन जीओ, तो जो सुख पाने के आकांक्षी हैं, उस तरफ का जीवन जीने को राजी हो जाते हैं।
इस तरह का जो धर्म है, विज्ञान का जब तक जन्म नहीं हुआ, अकेला था। सारी दुनिया धार्मिक मालूम पड़ती थी। फिर एक नया प्रतियोगी पैदा हुआ इधर तीन सौ वर्षों में। और विज्ञान ने कहा, छोड़ो स्वर्ग की बकवास हम यही बनाए देते हैं। छोड़ो अप्सराओं की फिकर, हम अप्सराएं जमीन पर खड़ी किए देते हैं। छोड़ो यह फिकर, हम यही भवन बनाए देते हैं जो कि सुखद होंगे। और बड़े जोर से पागलपन शुरू हुआ जमीन को ही स्वर्ग बनाने का। धार्मिक लोग घबड़ा गए। झूठे धार्मिक लोग सब घबड़ा गए, क्योंकि बड़ी दिक्कत हो गई। उसमें ग्राहक छिन जाने का डर बहुत से जोर पैदा हो गया। क्योंकि ग्राहक परलोक की दुकान पर अब राजी नहीं हो सकते थे। अब जब यहां प्रत्यक्ष मिलता हो तो कल्पना में कौन फिकर करे? इसलिए विज्ञान का जोर से प्रभाव हुआ। सारी दुनिया में विज्ञान का भौतिकवाद प्रभावी हो गया। धार्मिक लोग गाली देने लगे कि हम आध्यात्मिक हैं और ये भौतिकवादी है।
मैं आपको कहूं, भौतिक का ही भौतिकवाद से विरोध हो सकता है। आध्यात्मिक का भौतिकवाद से कोई विरोध ही नहीं हो सकता है। कैसे हो सकता है? अध्यात्मवाद का भौतिकवाद से क्या विरोध हो सकता है? वे तो दिशाएं ही अलग हैं। लेकिन भौतिकवाद का भौतिकवाद से विरोध हो सकता है। पुराने तरह का जो मैटीरियलिज्म था, वह जो स्वर्ग नरक की भाषा में सोचता था, पाप पुण्य के प्रतिफल देने की भाषा में सोचता था। अमीर आदमी हो जमीन पर तो हम कहते थे कि पिछले जन्मों के पुण्य कर्म का फल भोज रहा है। जब कि असलियत यह है कि इसी जन्म के पापों का फल है, धन; पिछले जन्म के पुण्यों का फल नहीं। और गरीब था दरिद्र था तो उसको कहते कि पिछले जन्म के पापों का फल भोग रहा है। यह हमारी व्यवस्था थी, हिसाब था कि लोगों के दिमाग में किसी तरह की क्रांति संभव न हो, कोई विचार, कोई विद्रोह पैदा न हो। लोगों को हमने तय कर रखा था कि जो गरीब है, वह पाप की वजह से गरीब है, जो अमीर है, वह पुण्य की वजह से अमीर है।
यह सारी जो व्यवस्था थी, यह सारी की सारी पदार्थवादी भौतिकवादी व्यवस्था थी, सब मैटीरियलिज्म था। इन सारे के सारे मेटी रियलिज्म से साइंस के मैटीरियलिज्म का विरोध हो गया। साइंस ने जो भौतिकवाद खड़ा किया वह सबल साबित हुआ। सारे धार्मिक घबड़ा गए और गाली देने लगे विज्ञान को। लेकिन गाली हमेशा कमजोर देता है और देने से कोई फल नहीं होता है। वह गाली देते बैठे रहे और विज्ञान का भौतिकवाद जोर से फैलता गया। मैं इसमें कोई बहुत विरोध नहीं देखता हूं। ये दोनों एक ही तरह के भौतिकवाद हैं। धर्म बहुत दूसरी बात है। वह भौतिकवाद है ही नहीं, वह सुख की खोज ही नहीं है। वह तो तभी शुरू होती है धर्म की बुनियाद, धर्म की दिशा, वह जो वास्तविक धर्म है, उसकी दिशा तभी शुरू होती है जब कोई व्यक्ति सुख की दौड़ के भ्रम से जाग जाता है। और उसे दिखाई पड़ता है कि यह तो पागल दौड़ है, इसका कोई अंत नहीं है, इसका कोई अर्थ नहीं है। जब यह दिखाई पड़ता है कि सुख की दौड़ कहीं भी नहीं ले जा सकती, उस क्षण में, उस डिइलूजनमेंट में, उस भ्रम के टूट जाने पर व्यक्ति का चित्त किसी और दिशा में मुड़ना शुरू होता है और वह दिशा धर्म की दिशा होती है।
हम अनेक-अनेक प्रकारों के भौतिकवादी होंगे। कोई धार्मिक प्रकार का भौतिकवादी होगा, कोई वैज्ञानिक प्रकार का भौतिकवादी होगा, लेकिन ये सब भौतिकवाद हैं। ये सब भौतिकवाद हैं। दिखाई नहीं पड़ते, बहुत सूक्ष्म हो सकती है हमारी पकड़। हमारी मैटीरियलिस्ट जो पकड़ होती है, वह सूक्ष्म हो सकती है।
मैं एक साध्वी से मिलता था... कल ही मैं बात कर रहा था; कल ही मैं लोगों से कह रहा था... एक साध्वी से मिलता था, मेरा कपड़ा उड़ता था हवा में, उसको छू गया। वह घबड़ा गई। हवा उड़ती रही, कपड़ा छूता रहा, वह बहुत घबड़ाती रही। किसी ने मुझे रोका और कहा कि साध्वी को पुरुष का कपड़ा नहीं छूना चाहिए। तो मैंने कहा, मैं समझ ही नहीं पाता कि साधु-साध्वी कहते हों कि हम आत्मा हैं और शरीर नहीं हैं, वह कपड़े के छूने से घबड़ा जाएं। कपड़ा किसको छूता है; आत्मा को या शरीर को? और जब शरीर को कपड़ा छूता हो, और वह कपड़ा भी पुरुष और स्त्री का हो जाए तो बहुत आश्चर्य की बात हो जाएगी। यह तो हद्द दर्जे का, बहुत नीचे दर्जे का पदार्थवाद हो गया कि मेरा कपड़ा चूंकि पुरुष पहने हुए है इसलिए कपड़ा भी पुरुष हो गया और स्त्री पहने हुए है तो कपड़ा स्त्री हो गया। कपड़ा तो कपड़ा है बस।
लेकिन यह हमारी बहुत बहुरी भौतिकवादी पकड़ है और भौतिकवाद की यह विरोधी पकड़ दिखाई नहीं पड़ती। यह हमारे ख्याल में नहीं आती, क्योंकि हमने परंपरा से सुन रखा है कि यह ठीक है और हम परंपरा से माने बैठे हैं कि यह ठीक है। जो हम बहुत दिन तक ठीक माने रहते हैं, बहुत दिन तक, बहुत समय तक, बहुत वर्षों तक जो बातें हमें ठीक समझाई जाती रहती हैं, हम उनकी ठीक मानने को राजी हो जाते हैं... बिना विचारे, बिना सोचे हुए।
ये सब भौतिकवाद के रूप हैं। इनका अध्यात्म से कोई गहरा संबंध नहीं है, अध्यात्म का संबंध, धर्म का संबंध तो सारी दिशा के और खोज के परिवर्तित हो जाने से, एक रिव्योलूशन, एक क्रांति हो जाने से है।
एक छोटी सी कहानी आपसे कहूं और उसके बाद मैं कहूं, यह क्रांति हो तो उसके बाद क्या होगा? लेकिन कैसे हो? छोटी सी बच्चों की कहानी है।
एक अलाइस नाम की लड़की है, वह परियों के देश में पहुंच गई है। परियों का देश है, वह वहां पहुंच गई है। बच्चों की कहानी है, काल्पनिक कथा, वह पहुंच गई है। थक गई जमीन से आकाश तक पहुंचने में। भूख लग आई, प्यास लग आई। उसने आंख उठा कर देखा, तो देखा, बड़ा हरा-भरा है परियों का देश। परियों की रानी... वह दूर एक वृक्ष के नीचे खड़ी है। किसी कल्पवृक्ष के नीचे खड़ी होगी। रानी के पास बहुत मिठाइयां है, बहुत फल हैं। उस रानी ने उसे हाथ से इशारा किया कि आओ, आवाज दी। करीब ही है दरख्त, ज्यादा दूर भी नहीं है। शीतल छाया है उसके नीचे, पानी का झरना है, मिठाइयां है, फल हैं। वह इलाइस दौड़ने लगती। भूखी है लड़की। जमीन से स्वर्ग तक की यात्रा की है। वह वह भागने लगी। सुबह थी, सूरज उग रहा था, वह भागती गई, भागती गई और भागती गई। आखिर में घबड़ा गई, दोपहर हो गई और उसने खड़े होकर देखा, रानी और उसके बीच फासला उतना का उतना है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने बहुत चिल्लाकर पूछा कि यह क्या बात है? मैं दौड़ते-दौड़ते थक गई, सुबह से दोपहर हो गई और अभी तक मैं कहीं पहुंची नहीं। रानी ने कहा, सोचो मत, जो सोचता है, वह दौड़ता नहीं है। रानी ने कहा, सोचो मत। जो सोचता है, फिर दौड़ नहीं पाता। दौड़े चलो। जो दौड़ता चलता है, वह ही दौड़ सकता है। जिसने सोचा, कि रुक जाएगा, खड़ा हो जाएगा; फिर मुश्किल हो जाएगी। आओ, घबड़ाओ मत, जरूर पहुंच जाओगी।
फिर उसने दौड़ना शुरू किया। फिर वह दौड़ी। और दौड़ी और दौड़ी। सांझ होने लगी, सूरज ढलने लगा तो फिर खड़ी हो गई। उसने चिल्लाकर पूछा, मामला क्या है? यह समस्या कैसी है? यह पहेली क्या है? सांझ होने के करीब आ गई, दौड़ते-दौड़ते मैं थक गई हूं, फासला उतना की उतना है, डिसटेंस वही का वही है। वह रानी खड़ी है सामने और दोनों के बीच का अंतर उतना का उतना है। रास्ता उतना अभी भी पार करना है। उस रानी ने कहाः देखो, मैंने फिर भी कहा, सोचो मत, जो सोचता है, रुक जाता है। दौड़ो। अगर पहुंचना है तो दौड़ते रहो। वह फिर दौड़ने लगी, सूरज ढल गया, रात हो गई। उसने चिल्ला कर कहाः अब तो रात होने लगी। यह तुम्हारी दुनिया कैसी है, जहां कोई चले तो रास्ता पूरा नहीं होता? वह रानी हंसने लगी। उसने कहाः पागल! किसी दुनिया में, किसी भी दुनिया में कोई कितना चले, कोई भी रास्ता कभी पूरा नहीं होता। तुम्हारी दुनिया में कोई कितना चले, कोई भी रास्ता कभी पूरा नहीं होता। तुम्हारे दुनिया में भी कोई कितना ही चले, कोई कितना ही दौड़े कोई कितना ही श्रम करे, रास्ता कभी पूरा नहीं होता। जो पाना था, वह जन्म के दिन जितना दूर रहता है, मृत्यु के दिन भी उतना ही दूर पाया जाता है।
वह फासला वही का रहता है। जन्म के दिन जितना अधूरा होता है आदमी, जितना दुखी होता है, मृत्यु के दिन भी उतना ही पता है। कोई सुख उपलब्ध नहीं होता। उपलब्ध हो ही नहीं सकता, अगर कोई सुख को खोजेगा तो। फिर कैसे हो सकता है? फिर कैसे होगा? और जितना कोई सुख को खोजता है, पीछे दुख खड़ा हो ही रहता है। सुख और दुख दोनों एक ही सिक्के के दो पहले हैं। वे अलग-अलग नहीं है। वे एक ही बात के दो पहलू हैं। क्या आपको पता है कि सुख और दुख एक-दूसरे के पीछे छिपे रहते हैं? प्रेम और घृणा एक-दूसरे के पीछे छिपे रहते हैं? शांति और क्रोध एक-दूसरे के पीछे छिपे रहती हैं? अभी आप शांत हैं और बगल का आदमी जरा सा एक गाली आपकी तरफ फेंक दे और शांति विलीन हो जाएगी, अशांति आ जाएगी। अभी आप मुझे बड़ा प्रेम कर रहे हैं और मैं एक ऐसी बात कह दूं, कि प्रेम विलीन हो जाएगा और घृणा सामने आ जाएगी। अभी आप मुझे बड़ा आदर कर रहे हैं, एक छोटा सा काम ऐसा कर दूं, सब आदर विलीन हो जाएगा, अनादर सामने आ जाएगी। जिसको आप फूल की माला पहना रहे हैं, जरा कुछ बात गड़बड़ हो जाए, फूल की माला अलग और गर्दन पर छुरी लेकर खड़े हो जाएंगे।
आपके भीतर शांति के पीछे अशांति छिपी रहती है, आपके प्रेम के पीछे घृणा छिपी रहती है, आपके सुख के पीछे दुख छिपा रहता है, अभी सुखी हैं, एक क्षण में दुखी हो सकते हैं। अभी दुखी हैं, एक क्षण में सुखी हो सकते हैं। ये एक-दूसरे के पहलू हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तो जो आदमी कितना ही सुख को खोजे, जाएगा कहां? दूसरा पीछे छाया की तरह खड़ा रहेगा। आप कितना ही भागें, आपकी छाया आपके साथ होगी। कितना ही सुख खोजें, दुख पीछे छाया की भांति खड़ा रहेगा। जरा ही आंख मोड़ेंगे, पाएंगे वह मौजूद है।
इसलिए जिन्होंने सुख के जीवन का विश्लेषण किया हो... आप भी करें, कोई भी करे, उसे दिखाई पड़ेगा, सुख की खोज कहीं ले जाती नहीं। यह बिल्कुल ही वंध्या, यह बिल्कुल मार्ग जो है, वंध्या मार्ग है। इस पर कहीं कुछ उत्पत्ति नहीं होती, इस पर कुछ कहीं पाया नहीं जाता। यह बिल्कुल बांझ है। यह दिशा बिल्कुल ही उत्पत्तिहीन है। यह बिल्कुल ऊजड़ जमीन है, जमीन है, इस पर कुछ नहीं होता। यह सुख की खोज की जो जमीन है, यह जब दिखाई पड़े, यह जब ख्याल में आए तो आपको लगेगा, यह तो क्या हुआ, यह तो जीवन व्यर्थ गया, अब क्या करूं? अब क्या ाहो? यह सुख की खोज तो सब फिजूल हो गई और मैं कहीं पहुंचा हनीं। अब क्या हो? तो आप अपने दुख को देखें कि वह कहां है? आप भीतर जाए और पहचाने कि दुख कहां है, कहां है दुख का क्या स्वरूप है? क्या मिलेगा?
अगर भीतर झांक कर देखेंगे तो दुख के स्वरूप क्या मिलेंगे? हाथ-पैर में दर्द है, यह दुख नहीं है, यह तो कष्ट है। यह तो दवा दे देंगे तो ठीक हो जाएंगे। किसी के शरीर में कोई बीमारी है, यह कोई दुख नहीं है, यह तो कष्ट है। यह तो इलाज से ठीक हो जाएगी। कष्ट को तो विज्ञान ठीक कर लेता है। लेकिन अगर कोई बीमारी न हो, कोई हाथ-पैर में तकलीफ न हो, सब भांति सुविधा हो, घर में कोई असुविधा न हो तो क्या आप सोचते हैं, आपके भीतर दुख नष्ट हो जाएगा? अगर यह सच होता तो महावीर को घर छोड़कर भागने का क्या सवाल था? बुद्ध को घर-द्वार दौड़ देने का क्या सवाल था? सब सुख उनके पास था। कौन सी कमी थी? कौन सी बात नहीं थी? सब था, लेकिन भीतर दुख था। कष्ट न हो, इससे दुख नहीं मिटता। कष्ट सब मिट जाए, दुख कोई और बात है। दुख क्या है? दुख है आत्म-अज्ञान। स्वयं को न जानना ही दुख है। स्वयं के परिचित न होना ही दुख है। स्वयं से पहचान न होना ही दुख है। खुद के स्वरूप के प्रति अनजान, अपरिचित, अज्ञान में बने रहना ही दुख है। दुख है एक कि मैं स्वयं को नहीं जानता हूं। और जब तक मैं स्वयं को न जान लूं तब तक दुख के बाहर नहीं हो सकता हूं। और जिस दिन मैं स्वयं को जान लूं उसी दिन सुख के और आनंद के द्वार खुल जाएंगे और मैं दुख के बाहर हो जाऊंगा।
स्वयं को जानना... यही है, यही है वह चाबी, वह सीक्रेट, वह रहस्य जो मनुष्य को धर्म की दिशा में ले जाता है। और बस जान ले, कुछ भी होगा। इसको जानना ही होगा, जो भीतर बैठा है। कैसे इसे जानेंगे, कैसे इसे पहचानेंगे? क्या करेंगे जिससे यह जाना जा सके? एक छोटा सा काम करेंगे तो शायद यह जाना जा सके। इस छोटे से सूत्र को मैं अंत में आपसे कहता हूं, अगर इसकी प्रयोग हो तो जाना जा सकता है कि भीतर कौन है? साधारणतः दुख आता है तो हम कहने लगते हैं कि मैं दुखी हूं। सुख आता है तो हमने कहने लगते हैं, मैं सुखी हूं। जो भी घटना हम पर घटने लगती है, हम कहने लगते हैं, मैं यही हूं। बच्चा होता हूं तो मैं कहने लगता हूं, मैं बच्चा हूं। जवान होता हूं तो कहने लगता हूं, मैं जवान हूं। बूढ़ा हो जाता हूं, तो कहने लगता हूं, बूढ़ा हूं।
यह मैं क्या बच्चा भी हो सकता है, जवान भी हो सकता है, बूढ़ा भी हो सकता है? यह मैं दुखी भी हो सकता है, सुखी भी हो सकता है। तो क्या इससे यह बात ख्याल में नहीं आती कि यह जो मैं नाम का तत्व होगा, सुख से, दुख से, चुपचाप से, बुढ़ापे से अलग होगा?
अभी मैं यहां बैठे हुए हैं, यहां भवन के बाहर बैठे हुए हैं। आप चाहें तो भगवान के भीतर जा सकते हैं। आप चाहे तो फिर बाहर आ सकते हैं। तो जो आदमी भवन के भीतर जा सकता है, बाहर आ सकती है, उसके भीतर जाने और बाहर आने से क्या वह प्रमाणित नहीं होता है कि वह भीतर जाने और बाहर आने से क्या वह प्रमाणित नहीं होता है कि वह भवन से पृथक और अलग है? अगर मैं दुख में जा सकता हूं और दुख के बाहर आ सकता हूं, सुख में जा सकता हूं, सुख के बाहर आ सकता हूं, तो क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि मैं सुख और दुख दोनों से अलग हूं। अगर मैं दुखी होता तो फिर मैं सुखी नहीं हो सकता था। अगर मैं सुखी होता तो फिर मैं दुखी नहीं हो सकता था। मैं सुबह एक झाड़ के नीचे बैठ जाऊं, सूरज निकलेगा, प्रकाश फैल जाएगा तो मैं कहूंगा कि मैं दिन हूं? रात आएगी, अंधेरा भर जाएगा, तो क्या मैं कहूंगा कि मैं रात्रि हूं? मैं कहूंगा कि मैंने देखा कि दिन आया, मैंने देखा कि रात आई और मैं तो अलग हूं।
जीवन के प्रत्येक अनुभव के साथ अपने को बांध देने से कि मैं यही हूं, अज्ञान घना होता है और आत्म-अज्ञान प्रगाढ़ होता है। और जीवन के प्रत्येक अनुभव से स्वयं को पृथक कर लेने से कि मैं दुख को देखने वाला हूं, दुखी मैं नहीं। मैं केवल सुख को देखने वाला हूं, सुखी में नहीं। मैं केवल देखने वाला हूं कि युवा अवस्था आ गई, मैं केवल देखने वाला हूं कि बुढ़ापा आ रहा है, मैं केवल देखने वाला हूं कि अभी जाग रहा हूं और अब नींद आ रही है। और मैं केवल देखने वाला हूं कि दिन हुआ, प्रकाश हुआ, रात्रि हुई और अंधेरा हुआ। अगर यह द्रष्टा का तत्व, अगर यह देखने वाले का बोध पृथक हो सके, अगर यह साक्षी का भाव पृथक हो सके... हो सकता है, निश्चित हो सकता है। पहाड़ खोद कर पानी निकाला जा सकता है, चांद पर यात्रा की जा सकती है, ग्रह नक्षत्रों की यात्राएं संभव हो जाएंगी, समुद्र के भीतर मीलों गहराइयों में रत्न खोजे जा सकते हैं, तो अपने भीतर इस स्वयं को क्यों नहीं खोजा जा सकता?
मनुष्य ने बड़ा पुरुषार्थ दिखलाया है बाहर के जगत में। इतना बड़ा पुरुषार्थ दिखाया है, अगर उतना ही साहस और सामथ्र्य और श्रम स्वयं के भीतर प्रविष्ट किया जाए, स्वयं के साथ लगाया जाए तो भी कारण नहीं है कि हम स्वयं को क्यों न जान सकें? जो हम हैं, वह क्यों न जाना जा सके? स्वयं को जानने का सूत्र है, सब अनुभवों से, सब एक्सपीरिएंसेस से जो अनुभूतियां होती हों, अपने को अलग कर लेना, भिन्न कर लेना। चैबीस घंटे कोई मंदिर जाने की बात नहीं है। अगर मंदिर जाए, तो जानें कि मंदिर जाने वाला मैं नहीं हूं, मैं केवल देख रहा हूं कि फलां सज्जन मंदिर जा रहे हैं। रास्ते पर चलते हैं तो जानें कि रास्ते पर मैं चलने वाला नहीं हूं, मैं देख रहा हूं कि फलां सज्जन चल रहे हैं।
एक साधु थे, उनका नाम था राम। वह ऐसा नहीं कहते थे कि मैं फलां जगह गया। वह कहते थे, रात फलां जगह गए। वह कभी ऐसा नहीं कहते थे कि वहां लोग आए और मुझे गालियां दीं। वह कहते थे कि वहां कुछ लोग आए और राम को गालियां देने लगे। तो लोग उनसे पूछते कि कौन राम? तो वह कहते, यह। तो लोग कहते कि आप ऐसा क्यों नहीं कहते कि मैं? उन्होंने कहा कि नहीं, मैं कैसे कहूं? मैं तो देखने वाला था। लोग राम को गालियां दे रहे थे, मैं भी देख रहा था।
एक तीसरा बिंदु पैदा करे, एक साक्षी का बिंदु पैदा करें, जो अलग खड़ा हो सके आपके जीवन में। जो आपके सारे जीवन के चलते हुए घेरे से दूर खड़ा हो सके, देख सके, जाने सके, साक्षी हो सके, विटनेंस हो सके। अगर ऐसा बिंदु आप धीरे-धीरे विकसित करें, आज बीज की तरह है, कल अंकुर बनेगा, परसों बड़ा पौधा बन सकता है। फिर बड़ी घनी छाया दे सकता है। और जब यह जितना विकसित होता जाएगा, आप पाएंगे, न तो दुख है, न सुख है। आप पाएंगे, न तो कोई पीड़ा है। तब आप पाओगे, न तो अंधेरा है, न प्रकाश है। मैं तो अलग हूं, मैं तो पृथक हूं। मैं तो हर अनुभूति से दूर हूं और भिन्न हूं। जब यह अनुभव में होगा कि मैं पृथक हूं, अल हूं, मैं तो दूर हूं, तब एक तत्व चेतना आपके भीतर जाग्रत होगी तो आप पाएंगे कि उस तत्व को पा लेना ही आनंद को पा लेना है। उस तत्व को पा लेना ही धर्म को पा लेना है। उस तत्व को पा लेना ही धर्म है। क्योंकि धर्म का क्या अर्थ है? धर्म का अर्थ है स्वरूप। अपने खुद के स्वरूप को पा लेना धर्म है। और उसे जो पा लेता है वह जीवन के अभिप्राय को पा लेता है। वह कृतार्थ हो जाता है, वह धन्य हो जाता है।
लेकिन हम सुख को खोजते रहेंगे, दुख से बचते रहेंगे, तो उसको हम कैसे पाएंगे, जो न सुख है और न दुख है? हम अंधेरे में भागते रहेंगे और प्रकाश को खोजते रहेंगे तो उसे कैसे पाएंगे, जो न प्रकाश है और न अंधेरा है? अगर हम भोजन को खोजते रहेंगे या फिर कभी उपवास को खोजने रहेंगे तो उसे हम कैसे पाएंगे जा कि भोजन करने का भी द्रष्टा है और उपवास करने का भी द्रष्टा है... वह जो दोनों से अलग है। अगर वह गृहस्थी को खोजते रहेंगे और फिर संन्यास को खोजते रहेंगे तो उसे कैसे पाएंगे जो कि गृहस्थी को भी देखने वाला है और संन्यास को भी देखने वाला है? वह जो सबसे पृथक है और किसी अनुभूति में, किसी अनुभव में आविष्ट नहीं होता, बाहर रह जाता है, उसको कैसे देख पाएंगे? उसे देखने के लिए तो जानना होगा, पहचानना होगा, श्रम करना होगा। उठते, बैठते, सोते, जागते उसका स्मरण रखना होगा। अगर हम उसका स्मरण रख सकें... अभी आप सुन रहे हैं। मेरी बात, एक क्षण को, जब आप सुन रहे हैं मेरी बात तो आपको यह ख्याल हो रहा होगा कि मैं बोल रहा हूं और आप सुन हरे हैं। अगर मेरी तरफ से लें तो मैं यह देख रहा हूं कि बोला जा रहा है। अगर आप भी थोड़ा ख्याल करें तो आपको फौरन दिखाई पड़ेगा कि आप देखने वाले पीछे खड़े हैं और आपके भीतर कोई मन है जो सुन रहा है। अभी मैं बोल रहा हूं, एक क्षण को भी अगर उस तरफ ख्याल जाए तो आपको स्पष्ट दिखाई पड़ेगा कि आप सुन रहे हैं, इसको भी जानने वाला आपके भीतर एक तत्व मौजूद है। आप सुन रहे हैं, इसका भी बोध करने वाला एक तत्व मौजूद है, जो अलग खड़ा हुआ है।
उस तत्व की तरफ ध्यान विकसित हो, उस तत्व की तरफ दिशा चले तो आपकी धर्म की तरफ दिशा होगी। और जिस दिन आप उस तत्व को खोज लेंगे, उस दिन आप मंदिर में प्रविष्ट हो जाएंगे। उस दिन आप परमात्मा के सामने खड़ा हो जाएंगे। अभी इन मकानों में मत खोजते फिरे, जिनको हमने मंदिरों के नाम दे रखे हैं। हम बहुत पागल हैं, हम चीजों पर भी लेबल लगा देते हैं, मकानों पर भी लगा देते हैं... कोई मस्जिद का, कोई मंदिर का। वे सब मकान हैं। मंदिर तो भीतर है और परमात्मा वहां है और वहां खोलने की मैं आपको चाबी कह रहा हूं... जागें और साक्षीभाव को, जो अलग है हमेशा। जब रात आप सोने जाते हैं तो खाल करें, एक व्यक्ति सो रहा है और आपके भीतर एक तत्व है जो जान रहा है कि कोई सोने जा रहा है। जब भूख लगती है तब आप देखें, विचार करें, समझें तो आपको दिखाई पड़ेगा, एक तल पर भू, लग रही है, दूसरे तल पर कोई देख रहा है कि भूख लग रही है। भूख लगने को को जाना जा रहा है।
दो दिशाएं मैंने आपसे कहीं... एक सुख की खोज की दिशा है और एक दुख के मूल कारण को मिटाने की दिशा है। दुख का मूल कारण मैंने कहा, आत्म-अज्ञान। और ध्यान का मैंने अर्थ आपसे कहा, उस तत्व के प्रति सजग होना जो हमारे भीतर प्रत्येक स्थिति में ज्ञाता है, प्रत्येक स्थिति में नोअर है, प्रत्येक स्थिति में ज्ञान है और प्रत्येक स्थिति में केवल जान रहा है। यह जानना ही आत्मा का स्वरूप है। यह ज्ञान... यह केवल ज्ञान मात्र ही आत्मा का स्वरूप है। यही चेतना का प्राण है, इसे, इस दिशा में कुछ गति करेंगे... .और ऐसा न सोचें।
लोग मुझसे कहते हैं, बड़ी कठिन बात कर रहे हैं। इससे सरल और कोई बात नहीं हो सकती, क्योंकि सत्य से सरल और क्या हो सकता है? असत्य कठिन होता है, जटिल होता है। सत्य से सरल और क्या होगा? यह बिल्कुल सरल बात है, यह बिल्कुल सीधी बात है। अगर यह कठिन मालूम होगी तो कठिनता आपके मन में कहीं होगी। अगर यह जटिल मालूम होती है तो कोई पूर्व धारणाएं बनी होंगी जिनके कारण जटिल मालूम होती होंगी। अगर मन की सारी धारणाओं को एक क्षण अलग कर दें, अपने सीखे हुए सिद्धांत एक तरफ रख दें तो सीधे जो मैं कह रहा हूं, उसके तथ्य पर, उसके फैक्ट पर विचार करें तो आपको स्वयं दिखाई पड़ेगा कि सीधी और सरल बात है। और जीवन में सत्य को पाया जा सकता है और प्रत्येक पा सकता है। यह कुछ चुने हुए लोगों का, कोई चूजेन फ्यू, उनका अधिकार नहीं है। सत्य सबका अधिकार है, प्रत्येक का स्वरूपसिद्ध अधिकार है। और अगर हम न पा सकें तो हमारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेदार नहीं होगा। और कोई जिम्मेदार नहीं होगा, उत्तरदायित्व हमारा है। इस उत्तरदायित्व को समझें, विचार करें, जीवन में प्रयोग करें, इसकी प्रार्थना करता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और सबसे अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
घाटकोपर, बंबई, दिनांक 16 अप्रैल, 1966
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