दसवां-प्रवचन-(समाधि समाधान है)
प्रश्न-सार:
01-दीनता, धीरज और शील को कैसे साधें?02-प्रकृति के कण-कण की भगवत्ता और बुद्धत्व की भगवत्ता के गुणधर्म में क्या फर्क है?
03-क्या कभी भगवान भी भक्त होता है?
04-सार-असार की सीमा-रेखा कहां है?
05-स्वप्नों से रहित जीवन भी रसपूर्ण कैसे होता है?
06-फरीद जैसे संत हमें इतने आत्मीय क्यों लगते हैं?
07-परमात्मा ने हमें बनाया..फिर भी उसका विस्मरण क्यों?
पहला प्रश्नः संत फरीद ने दीनता, धीरज और शील की बात कही, और आपने उनकी व्याख्या करते हुए उन्हें बहुत महत्वपूर्ण बताया। कृपापूर्वक बताएं कि क्या ये गुण बाहर से सीखे जा सकते हैं, बाहर से साधे जा सकते हैं?
धर्म को बाहर से सीखने का कोई उपाय नहीं है। और जिसने धर्म को बाहर से सीखना चाहा, वह धर्म के नाम पर सिर्फ अपने को धोखा देगा।
धर्म तो आविर्भूत होता है भीतर से। वह तुम्हारे भीतर के जागरण का परिणाम है।
धर्म आचरण नहीं है। भूल कर भी धर्म को आचरण मत समझना। इसका यह अर्थ नहीं है कि धर्म से आचरण रूपांतरित नहीं होता; रूपांतरित होता है, लेकिन आरोपित नहीं किया जाता। तुम बदलते हो इसलिए तुम्हारा व्यवहार बदल जाता है। तुम नये हो जाते हो इसलिए तुम्हारे व्यवहार में नई गंध आ जाती है। लेकिन तुम्हारा व्यवहार बदलने से तुम न बदलोगे। तुम तुम्हारे व्यवहार से बहुत बड़े हो। तुम जो करते हो, उससे तुम्हारा होना बहुत विराट है। तुम्हारा कृत्य तुम्हें न छू सकेगा। कृत्य तो ऐसा है जैसा वृक्षों पर लगे पत्ते हैं, हजारों हैं। और ध्यान रखना, वृक्ष के पत्तों को तुम रंग डालो, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा; वृक्ष में जब नये पत्ते आएंगे तब फिर वे उसी रंग के होंगे जिस रंग के थे। तुम्हारे रंगे पत्ते दिन दो दिन के लिए धोखा दे दें, इससे ज्यादा काम के नहीं है। वृक्ष की जड़ में ही कोई रूपांतरण हो, जड़ से ही बदलाहट हो, तो वृक्ष में नये रंग, नये ढंग आ सकते हैं।
जीवन को बदलने के दो उपाय हैं। एक है कि तुम बाहर से जीवन पर रंग-रोगन कर लो। नीति यही करती है। इसलिए नीति के पास तुम धर्म के संबंध में सभी झूठे सिक्के पाओगे। जैसे धर्म कहता हैः दीनता! अगर भीतर से आएगी तो इस दीनता में कोई भी अहंकार न होगा; अगर बाहर से रोपोगे तो इस दीनता में अहंकार होगा। बाहर से तुम दीनता को रोपोगे तो तुम दिखलाना चाहोगे कि तुम दीन हो। तुम चाहोगे कि लोग जानें कि तुम दीन हो। तुम जगह-जगह उछालते फिरोगे अपनी दीनता को। प्रदर्शन होगा उसका।
एक फकीर सुकरात को मिलने आया। वह बड़ा दीन फकीर था। उसके कपड़े फटे थे। और सुकरात से जब वह बात करने लगा तो सुकरात थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि आदमी के कपड़े तो फटे थे लेकिन अहंकार बिल्कुल ताजा था, साबुत था। कपड़ों में तो छेद थे, जरा-जीर्ण थे, ऊपर से तो गरीबी थी; लेकिन भीतर बड़े अहंकार का भाव था। सुकरात ने उससे कहाः महानुभाव, कपड़े फाड़ने से कुछ भभ न होगा। तुम्हारे कपड़ों के छेदों से तुम्हारा अहंकार ही झलक रहा है, और कुछ भी नहीं।
अगर दीनता तुमने ऊपर से थोपी तो तुम्हें दीनता की अकड़ पैदा होगी। लेकिन अगर दीनता भीतर से आई, तो तुम्हारे अहंकार को पूरा बहा ले जाएगी। तुम भूल ही जाओगे कि तुम दीन हो। तुम्हें याद ही न रहेगी कि तुम दरिद्र हो। तुम इसकी घोषणा न करते फिरोगे। कौन घोषणा करेगा? भीतर एक शून्य छा जाता है।
तो एक तो शून्य की दीनता है, शून्य से उपजी दरिद्रता है, जिसको जीसस ने पुअर इन स्प्रिट कहा है..वे जो अपने भीतर से आत्मा से दीन हो गए हैं। और एक तुम्हारे तथाकथित साधु, संन्यासी, मुनियों की दीनता है, जो उन्होंने ऊपर से थोप ली है। उनकी आंखों में जरा आंख डाल कर देखना और तुम वहां अहंकार को ही झांकता पाओगे।
फरीद कहता हैः धीरज! भीतर से जो धीरज आएगा, उस धीरज में परम शांति होगी, कोई तरंग भी न उठेगी बेचैनी की। बाहर से जो धीरज होगा, वह केवल धीरज का आश्वासन होगा। बाहर से जो धीरज होगा वह धीरज कम, एक तरह की सांत्वना होगी। तुम कहोगेः घबड़ाओ मत, ज्यादा देर नहीं है, बस अब आने ही आने को हुआ है प्रीतम; अब प्यारा आता ही होगा; थोड़ी धीरज और रख मन, बस अब आने में देर नहीं है।
ऐसा तुम समझाओगे। तुम्हारा धीरज समझावट होगी। तुमने अपने को समझा-बुझा कर बिठा लिया है, लेकिन भीतर तो तुम्हारा अधैर्य जगता रहेगा। और तुम्हारे बाहर क्या है, यह परमात्मा नहीं देखता; तुम्हारे भीतर क्या है, वही कसौटी है।
धीरज जिसके भीतर फलित हुआ है वह तो फिकर ही छोड़ देता है, वह आएगा कि नहीं आएगा; समझाता भी नहीं कि अब आता ही होगा। जिसको धीरज भीतर से आया है उसके लिए तो परमात्मा आ ही गया। परमात्मा की तरफ से आना जब होगा, होगा; लेकिन भगत की तरफ से तो आना हो ही गया। वह तो उसके धीरज में ही आ गया, अब कुछ और अलग से आने की बात नहीं है। अब न आए अनंत तक तो भी भक्त पीछे लौट कर न देखेगा, अब तक आए नहीं। शिकायत न होगी।
और दोनों धीरज में बड़ा फर्क है। एक धीरज दिखावा है, एक धीरज सत्य है।
शील! ..फरीद कह रहा है। शील का अर्थ हैः पवित्रतम आचरण।
तो एक तो पवित्रता होती है, जो तुम्हें समाज सिखलाता हैः क्या करो, क्या न करो। हर समाज की पवित्रता की धारणाएं अलग हैं। हिंदू किसी बात को पवित्र मानते हैं, मुसलमान किसी बात को पवित्र मानते हैं, जैन किसी तीसरी बात को पवित्र मानते हैं। अगर तुम जैन घर में पैदा हुए तो तुम्हारी पवित्रता और तुम्हारा शील और आचरण मुसलमान से भिन्न होगा, हिंदू से भिन्न होगा, बौद्ध से भिन्न होगा; क्योंकि वह तुमने सीखा है। लेकिन अगर भीतर से शील आया तो तुम अचानक पाओगे, तुम्हारे आचरण का न तो हिंदू से, न मुसलमान से, न ईसाई से कुछ लेना-देना है। अब तुम्हारे भीतर एक आचरण पैदा हुआ जो तुम्हारा अपना है। शील तुम्हारा होगा तब। तब संस्कार न होगा। तब तुम्हारे अनुबोध से आएगा, तुम्हारी समझ से आएगा। तुम ठीक करोगे, क्योंकि तुम्हारे पास ठीक देखने का ढंग होगा। दूसरे लोग कहते हैं, क्या ठीक है, इस कारण नहीं, तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि क्या ठीक है। सम्यक दृष्टि होगी तुम्हारे पास।
इन तीनों गुणों को बाहर से साधने का कोई उपाय नहीं, भीतर से ही साधा जा सकता है। बाहर से साधने का अर्थ है, तुम उत्सुक हो कि दूसरे लोग तुम्हें कैसा मानते हैं। भीतर से साधने का अर्थ है कि तुम उत्सुक हो कि तुम भीतर से कैसे हो। दूसरों से क्या लेना है, क्या प्रयोजन है? दूसरे समझते हों कि तुम अधैर्यवान हो, और तुम धैर्यवान हो..क्या अंतर पड़ता है? क्या समझाने जाना है उनको? उनसे क्या प्रयोजन? दूसरे समझते हैं, तुम आचरणहीन हो। तुम आश्वस्त हो अपने आचरण से, अब तुम किसी को समझाने, दावा करने, प्रमाण देने तो नहीं जाओगे। क्या प्रयोजन है? कौन किसको समझा पाया है? और जब तुम आचरणवान हो, बात समाप्त हो गई।
परमात्मा यह नहीं पूछेगा कि दूसरे तुम्हारे संबंध में क्या कहते थे; परमात्मा के सामने जब तुम खड़े होओगे, तुम्हारा अंतस झलकेगा।
कैसे इन्हें भीतर से साधें? बाहर से साधना आसान है। भीतर से साधना बड़ा कठिन है। क्योंकि बाहर से साधने में बदलना तो पड़ता ही नहीं। तुम तो तुम ही रहते हो, ऊपर से थोड़ा सा कपड़े बदल लेते हो। तुम तो तुम ही रहते हो, तुम्हारी कुरूपता तो कुरूपता ही रहती है, ऊपर से थोड़ा सुगंध छिड़क लेते हो।
बाहर से साधना तो बिल्कुल आसान है। वह ता नाटक है। वह तो अभिनय है। भीतर से साधना तो कठिन है; क्योंकि तुम्हें बदलना होगा। इंच-इंच बदलाहट करनी होगी। नये को जन्म देना होगा, पुराने को विदा करना होगा। क्रांति होगी। आग से गुजरोगे।
भीतर से कैसे साधोगे? और क्या आधार होगा भीतर के साधने का।
दो आधार हैं, जैसा मैंने तुमसे फरीद की चर्चा में बार-बार कहा। एक आधार प्रेम है और एक आधार ध्यान है। जिसको भीतर से साधना है, या तो वह परमात्मा के गहन प्रेम में पड़ जाए। क्योंकि जब तुम उसे वस्तुतः प्रेम करने लगते हो, तो वही प्रेम तुम्हें बदल देगा। तुमने प्रेम किया और तुम बदले। क्योंकि जिसे तुमने प्रेम किया, उसे तुम धोखा तो न दे सकोगे। और जिसे तुमने प्रेम किया, चाहा, पूरे मन से चाहा, तुम उसके लिए अपने को तैयार भी करोगे। जिसको बुलाया है, उसके पात्र भी होना पड़ेगा। निमंत्रण भेजा है तो शील भी निर्मित होगा। लेकिन इसे तुम्हें कुछ करना न होगा; तुम्हारा प्रेम ही कर लेगा।
तो या तो तुम प्रेम में पड़ जाओ अस्तित्व के, तब तुम में फूलों जैसी गंध, सुबह की ओस जैसी ताजगी अपने आप विदा होने लगेगी। और एक अनंत धैर्य तुममें आ जाएगा। क्योंकि उसकी याद भी जब इतना सुख देगी, उसका स्मरण भी जब तुम्हें इतनी पुलक और नृत्य से भर जाएगा, तो उसके मिलन की तो बात ही क्या कहनी! उसके मिलन का ख्याल भर काफी होगा; मिलन तो बहुत दूर हो तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। उससे मिलन होने वाला है..बस इतना काफी होगा। इससे ही तुम धैर्य से भर जाओगे। तुम्हारे मन की झील पर कोई लहर न उठेगी, सब लहरें सो जाएंगी। सन्नाटे में चुप होकर तुम उसकी प्रतीक्षा करोगे। मौन होकर प्रतीक्षा करोगेः कहीं बेचैनी में वह आए और तुम चूक न जाओ। कहीं ऐसा न हो कि तुम विचारों में उलझे रहो, वह द्वार पर दस्तक दे और तुम पहचान न पाओ। कहीं ऐसा न हो कि वह किसी ऐसे रूप में आए और तुम उसकी प्रत्यभिज्ञा न कर सको। वह तो आता है हजार रूपों मेंः हजार बहानों से तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है; बहुत-बहुत रूपों में तुम्हारे हाथ पकड़ता हैः बहुत-बहुत रूपों से तुम्हें पुकारता है, बुलाता है, रिझाता है। तुम ही अपने भीतर इतने बेचैन हो, और उलझे हो कि तुम्हें ये बातें समझ में नहीं आतीं। तुम कुछ का कुछ समझ लेते हो।
तो जैसे ही तुम उसके प्रेम से भरोगे, तुम सन्नाटे से भर जाओगे।
तुमने कभी दो प्रेमियों को पास बैठे देखा है? वे चुप हो जाते हैं। बोलना भी बाधा मालूम पड़ती है। बोलने से भी यह जो सन्नाटा दोनों के बीच चल रहा है, टूट जाएगा। शब्द उपद्रव करेंगे। वे चुप हो जाते हैं। एक गहन मौन में उनका मिलन होता है।
यह तो साधारण प्रेमियों की बात है। जब तुम अस्तित्व के प्रेम में पड़ोगे, परमात्मा के, तब तो तुम बिल्कुल चुप हो जाओगे। उसका प्रेम ही तुम्हें उठा लेगा तुम्हारे गर्त से। उसका प्रेम ही सेतु बन जाएगा, सहारा बन जाएगा। तुम अपनी गहरी अंधेरी खाइयों के बाहर चले आओगे। सूरज की तरफ आंख उठाते ही तुम्हारे जीवन की यात्रा प्रकाश की तरफ हो जाती है।
एक तो मार्ग है प्रेम। एक मार्ग है ध्यान। अगर तुम प्रेम न कर पाओ; तुम कहो, किसे प्रेम करें; तुम पूछो, कहां है वह, पहले पता हो तभी तो प्रेम करेंगे; अगर तुम अज्ञात को प्रेम न कर पाओ..और सब प्रेम अज्ञात का प्रेम है। जब तुम किसी साधारण व्यक्ति के भी प्रेम में पड़ जाते हो तो तुम जानते हो, कौन है वह? पहचानते हो? कुछ पता-ठिकाना है? शकल-सूरत पहचानने से क्या होता है; कौन है भीतर? वहां तो अजनबी छिपा है, अज्ञात छिपा है। एक स्त्री के प्रेम में पड़ो, एक पुरुष के प्रेम में पड़ो, एक छोटे बच्चे से लगाव लग जाए..कौन है वहां भीतर? पहचाने हो? ठीक-ठीक पता कर लिया? प्रेम जैसा गहन संबंध बांधने चले हो, पहचान ठीक से कर ली है या नहीं?
तो भीतर तो अजनबी है। सभी प्रेम अज्ञात का प्रेम है। प्रेम अज्ञात की ही घटना है।
तो अगर तुम पूछो कि कहां है परमात्मा, पहले पता हो, पहले ठीक से जांच परख कर लें, पुलिस में जाकर पुलिस के बहीखातों में देख लें कि इस आदमी के संबंध में क्या-क्या लिखा है, कोई काले करनामे तो नहीं हैं, औरों से पूछ लें जो इसके प्रेम में पड़े हैं कि पड़ कर कुछ पाया है कि गंवाया है..अगर तुमने इतनी होशियारी बरतनी चाही तो तुम प्रेम में न पड़ सकोगे। इतना विचार, इतनी कुशलता, इतनी होशियारी, इतनी चालाकीः प्रेम के लिए दरवाजा बंद हो जाता है।
प्रेम तो निर्दोष मन की प्रार्थना है। वह तो भोलेपन का भाव है। वह तो एक छोटे बच्चे के साथ, जैसे छोटे बच्चा बाप का हाथ पकड़ कर चल पड़ता है, बिना फिकर किए कि बाप कहां ले जाएगा। गड्ढे में गिराएगा, क्या करेगा..वैसा ही है। प्रेम तो एक ट्रस्ट, एक श्रद्धा है।
अगर वह न हो सके तो ध्यान मार्ग है। घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं। प्रेम न हो सके तो जबरदस्ती करने की कोशिश में मत पड़ना; क्योंकि जबरदस्ती प्रेम होता ही नहीं। न हो तो समझना कि वह द्वार तुम्हारे लिए नहीं है। लेकिन कुछ चिंता की बात नहीं है; और भी एक द्वार है। और यह मेरी प्रतीति है कि जो भी प्रेम में असमर्थ पाता है, ध्यान में एकदम समर्थ है। जो ध्यान में असमर्थ पाता है, प्रेम में समर्थ है। परमात्मा ने तुम्हें कितने ही दूर भेजा हो, दरवाजे बंद नहीं कर लिए हैं। और तुम कितने ही दूर चले आए होओ उसकी तरफ पीठ करके, लेकिन उस तरफ पहुंचने के द्वार सदा ही खुले हैं। हां, गलत द्वार पर दस्तक मत देना, अपना द्वार ठीक से पहचान लेना।
अगर प्रेम न कर सको तो ध्यान।
ध्यान का अर्थ हैः शांत हो जाना अपने में, बिना किसी के सहारे के; मौन हो जाना बिना किसी की मौजूदगी के; अपने तईं मौन हो जाना; अपने एकांत में ही लीन हो जाना। फिर न तो किसी की प्रतीक्षा करनी है, इसलिए धीरज का सवाल नहीं है। प्रतीक्षा ही नहीं करनी है तो अधैर्य कहां से होगा? कोई आने ही नहीं है तो अधैर्य कहां से होगा? तुम ही हो, तुम काफी हो..बस इसी से धीरज पैदा हो जाता है। इसको धीरज कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि इसमें अधैर्य को भी मिटाने की भी बात नहीं है। कोई आने को ही नहीं है, किसी के लिए तैयारी ही नहीं करनी है। लेकिन तुम जब अपने भीतर उतरते हो तो तुम पाते हो, जितने तुम पवित्र होते हो उतने आनंदित होते चले जाते हो। अब शील परमात्मा को पाने का उपाय नहीं है; अब तो शील भीतर का आनंद है। तुम जितने पवित्र होते हो उतना ही मधुर संगीत बजने लगता है। पवित्रता का गीत पैदा होता है; वह तुम्हें खींचता चला जाता है। शील बढ़ता चला जाता है।
किसी और के लिए अच्छे होने के लिए नहीं, अपने ही प्रति अच्छे होने की बात है। और जैसे-जैसे तुम शांत होते हो, शील बढ़ता है, धैर्य उपलब्ध होता है..तुम अचानक पाते हो, भीतर एक शून्य उतरने लगा। पूर्ण तो तुम्हें नहीं उतरेगा; क्योंकि तुम्हारी भाषा में ध्यानी की भाषा में, परमात्मा का नाम शून्य है, पूर्ण नहीं। प्रेमी की भाषा में शून्य का नाम पूर्ण है, परमात्मा है। ये भाषा के भेद हैं, उतरता तो वही है। उसका एक नाम पूर्ण है, एक नाम शून्य है। ध्यानी जब उसे देखता है तो वह शून्य मालूम होता है। प्रेमी जब उसे देखता है तो वह पूर्ण मालूम होता है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये देखने के ढंग पर निर्भर हैं।
इसलिए बुद्ध, महावीर शून्य की बात करते हैं। कृष्ण, मीरा, चैतन्य, पूर्ण की बात करते हैं। इनमें कुछ विरोध नहीं है, हो ही नहीं सकता। शब्द कितने ही विपरीत हों, इनकी अनुभूति तो एक है।
तो या तो अपने भीतर उतरते जाओ, धीरे-धीरे तुम शून्य होओगे, दीन हो जाओगे। लेकिन वह दीनता अहोभाग है। उस शून्य में कुछ भी न बचेगा, सब खो जाएगा। तुम परिपूर्ण दीन हो जाओगे। लेकिन उस दीनता से बड़ी कोई संपदा नहीं है। उस दीनता में ही धैर्य होगा, क्योंकि न कहीं जाना है, न कहीं कुछ पाना है। स्वयं को तो पाए ही हुए हो। वह मिली ही हुई बात है। वहां तो तुम पहुंच ही गए हो। वह मंदिर तो सदा तुम्हारे साथ ही था; तुमने आंख न फेरी थी उस तरफ, बस इतनी ही बात थी। अब आंख देख ली मोड़ कर, पहचान गए। अब धैर्य है। अब एक शील की सुगंध उठनी शुरू होती है।
तो चाहे प्रेम, चाहे ध्यान..पर घटनाएं भीतर से बाहर की तरफ बहेंगी, बाहर से भीतर की तरफ नहीं। जैसे गंगोत्री से गंगा बहती है, ऐसे ही तुम्हारे भीतर की गंगोत्री से गंगा बहेगी तुम्हारे जीवन की। गंगा गंगोत्री की तरफ नहीं बहती है। तो बाहर से तुम्हारे भीतर के स्रोत की तरफ आचरण न बहेगा। वैसा आचरण पाखंड है। और वैसे आचरण से कोई कभी रूपांतरित नहीं होता; उलटे, जो समय रूपांतरण के काम आ जाता, वह व्यर्थ गंवा दिया जाता है। हां, पाखंड से तुम चाहे दूसरों को धोखा दे लो, अपने को धोखा न दे पाओगे। और जिसने अपने को धोखा न दिया, वह व्यक्ति आज नहीं कल क्रांति में से गुजर ही जाएगा।
दूसरा प्रश्नः एक भगवत्ता है जो प्रकृति के कण-कण में, नदी, झरने में, वृक्ष, पक्षी के गीत में बसती है; और एक भगवत्ता है जो किसी मनुष्य के बुद्धत्व के माध्यम से प्रकट होती है। क्या दोनों एक ही हैं या उनके गुणधर्म में कुछ फर्क है?
दोनों एक ही हैं। गुणधर्म में कोई भी फर्क नहीं है। लेकिन अभिव्यक्ति में भेद है।
पक्षी गाते हैं, बुद्धपुरुषों के कंठ से भी एक गीत पैदा होता है। लेकिन पक्षी बेहोशी में गाते हैं। बुद्धपुरुष का गीत परिपूर्ण होश का है, जागरण का है।
पक्षी गाते हैं, उन्हें पता नहीं; क्यों गाते हैं? पक्षी गाते हैं, उन्हें यह भी पता नहीं कि वे गाते हैं। बुद्धपुरुष गाते हैं तो उन्हें पता हैः क्यों गाते हैं? उन्हें पता है कि वे गाते हैं।
तो एक तो गीत सोए हुए प्राणों से पैदा हो रहा है और एक गीत जाग्रत पैदा हो रहा है। गुणधर्म में तो कोई फर्क नहीं है, क्योंकि गीत एक ही स्रोत से आ रहा है वह जो चैतन्य की गंगोत्री है वहीं से आ रहा है। लेकिन अभिव्यक्ति में फर्क है।
जैसे तुम कभी रात सो गए और तुमने नींद में गुनगुनाया, तुमने एक गीत की कड़ी गाई, या प्रार्थना का एक स्वर उठाया..यह हो सकता है कि उसी समय मंदिर में जाग कर कोई उसी कड़ी को दोहराता हो। उन कड़ियों में कोई भेद न होगा। जहां से आती हैं वहां से भी कोई भेद नहीं है। तुम नींद में गुनगुनाओ या जाग कर..तुम ही गुनगुनाते हो। लेकिन अभिव्यक्ति में फर्क है। तुम नींद में गुनगुना रहे हो, तुम्हें पता नहीं तुमने क्या गुनगुनाया। तुम्हें यही पता नहीं कि तुमने गुनगुनाया। सुबह उठ कर तुम भूल ही जाओगे। कोई दूसरा तुम्हें याद दिलाएगा तो भी तुम मानोगे न कि यह कैसे हो सकता है कि मैं नींद में गुनगुनाऊं; नहीं, ऐसी ही अफवाह उड़ा दी होगी किसी ने।
लेकिन जिसने जाग कर गुनगुनाया...!
ऐसा समझो कि तुम्हें इस बगीचे में लाया गया। तुम शराब पीए बेहोश थे। फूलों की गंध तुम्हारे नासापुटों को छुएगी। वृक्षों की हरियाली तुम्हारी आंखों को स्पर्श देगी। बगीचे की ठंडक तुम्हारे रोएं-रोएं को शीतल करेगी। पक्षियों के गीत भी तुम्हारे कानों से टकराएंगे। लेकिन तुम्हें कुछ भी पता न होगा, तुम शराब पीए बेहोश हो। फिर दूसरे दिन तुम होश में आए, शराब नहीं पीए थे, भीतर जलता हुआ होश का दिया था..वे ही पक्षी थे, वे ही वृक्ष थे, वही फूल थे, वही आकाश था; लेकिन अब बात ही और है।
बुद्धपुरुषों से जो प्रकट होता है वह वही है जो झरनों और पहाड़ों से प्रकट हो रहा है। लेकिन बुद्धपुरुषों में झरने और पहाड़ जाग गए हैं। बुद्धपुरुषों में पक्षी और वृक्ष होश से भर गए हैं। पक्षी और वृक्षों में बुद्ध सोए हुए हैं। चट्टान से चट्टान में भी भविष्य का कोई बुद्ध सोया है। परम बुद्धत्व में भी अतीत की कोई चट्टान जागी है। इसलिए चट्टान पर भी सम्हाल कर पैर रखना, पवित्र भूमि है। क्षमा मांगना जब पैर रखो। और चट्टान जब तुम्हें पार करने का मार्ग बने, सीढ़ी बने तो धन्यवाद देना, क्योंकि कोई बुद्धपुरुष सोया है।
चट्टानों में और बुद्धपुरुषों में फासला है..फासला गुण का नहीं है, फासला केवल सोने और जागने का है।
तीसरा प्रश्नः आपने कहा है, भक्त ही भगवान हो जाता है। क्या कभी भगवान भी भक्त होता है?
भगवान तो भक्त हुआ ही हुआ है, अन्यथा भक्त आएगा कहां से?
तुम भगवान हो! तुम्हें पता न हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
भगवान तो भक्त हुआ ही है वह घटना तो घटी ही है, उसको घटने की अब और कोई जरूरत नहीं है। वह तो प्रतिपल वही घट रही है। अब तो दूसरी घटना को पूरा करना है कि भक्त भगवान हो। भगवान ही है..अनेक-अनेक रूपों में, अनंत-अनंत अभिव्यक्तियों में। गहरे खोजोगे तो सदा उसी को पाओगे। जैसे हर लहर में खोजोगे तो सागर को पाओगे, ऐसे हर अभिव्यक्ति में खोजोगे तो उसी को पाओगे।
जीसस ने कहा हैः उठाओ पत्थरों को, मुझी को दबा पाओगे। तोड़ो वृक्षों को, मुझी को छिपा पाओगे।
वह तो मौजूद ही है। भगवान तो भक्त हो ही गया है।शृंखला पूरी हो जाएगी, अगर भगवान जैसे भक्त हुआ, वैसे भक्त पुनः भगवान हो जाए..तो यात्री अपने घर वापस लौट जाएगा; तो यात्रा पूरी हो जाएगी।
चौथा प्रश्नः आज हमें जो सारपूर्ण लगता है वही कल असार हो जाता है। सार और असार के बीच सीमा-रेखा कहां है? क्या आप बुद्धपुरुषों को सार-असार साथ-साथ दिखते हैं?
जो तुम्हें आज सार लगता है, कल असार हो जाता है। जो आज असार लगता है, कल सार हो सकता है। क्यों, क्योंकि तुमने जाग कर नहीं देखा है। बिना जागे जो तुम देखते हो, वह देखना अधूरा है।
अंधेरी रात है, तुम एक राह से गुजरते होः दूर दिखता है कि कोई चोर छिपा है अंधेरे में, डरते हो, घबड़ाते हो। वही प्रतिक्रिया होती है जो चोर को छिपे देख कर होगीः रास्ता निर्जन है, निकलना जरूरी है, पार तो होना है..छुरा निकाल लेते हो, सम्हल जाते हो, हमले की तैयारी कर लेते हो। लेकिन जैसे-जैसे पास आते हो, पाते हो कि नहीं, चोर नहीं है; यह तो वर्दी पुलिसवाले की मालूम होती है, कोई पुलिसवाला खड़ा है। छुरे को वापस रख लेते हो। फिर निशिं्चत चलने लगते हो, गीत गुनगुनाने लगते होः कोई डर नहीं है। और पास आते हो, पाते हो कि पुलिसवाला भी नहीं है, वृक्ष का ठूंठ है। अंधेरे में धोखा हो गया। फिर बिल्कुल पास आ जाते हो। फिर वृक्ष छूकर देखते हो, टार्च जला लेते हो, सब तरफ से पहचान लेते हो। अब कोई फर्क न पड़ेगा। अब तुम दूर भी चले जाओ, और फिर अंधेरे में तुम्हें भ्रम होने लगे कि कहीं पुलिसवाला तो नहीं खड़ाः तुम खुद ही हंसोगे। तुम कहोगेः वह ठूंठ है; कहीं कोई चोर नहीं छिपा है। तुम खुद ही हंसोगे। तुम कहोगे वह पुराना ठूंठ है। हमने उसे पास से देख लिया है।
आज जो सार है, कल असार हो जाता है। आज जो असार है, कल सार हो जाता है। क्योंकि तुमने दूर से देखा है, बड़े दूर से देखा है।
दूरी क्या है? दूरी है बेहोशी की। तुमने ठीक-ठीक आंख खोल कर नहीं देखा। तुमने तंद्रा में देखा है, मूच्र्छा में देखा है। जिस दिन तुम परिपूर्ण होश से भर कर देखोगे, उसी दिन बात समाप्त हो जाएगी। उस दिन जो जैसा है वैसा ही दिख जाएगा। फिर सार सार ही रहता है, असार असार ही रहता है।
इसलिए हमने इस देश में जो कसौटी बनाई है, वह यह है कि जब तुम उस चीज को जान लो जो बदलती न हो, तभी जानना कि सत्य से पहचान हुई। जो बार-बार बदल जाती हो वह कामचलाऊ है।
इसलिए तुम चकित होओगे जान कर कि भारत में हमने ज्ञान के दो विभाजन किए थे। एक को हम कहते हैं विद्या और एक को कहते हैं अविद्या। तुम शायद सोचते होओगे कि अविद्या का अर्थ अज्ञान है तो तुम गलती में हो। अविद्या ज्ञान का एक विभाजन है, अज्ञान नहीं। जिसको आज साइंस कहते हैं उसको उपनिषदों ने अविद्या कहा है। जिसको आज विाान कहते हैं उसको अविद्या कहा है, अज्ञान को नहीं! अविद्या ऐसी विद्या है जो थिर नहीं है; जो बदलती चली जाती है; जो आज कुछ, कल कुछ, परसों कुछ वैज्ञानिक दावे से नहीं कह सकता कि मैं जो कह रहा हूं वह सत्य है? वह इतना ही कहता है। करीब-करीब!
करीब-करीब सत्य का क्या अर्थ होता है? तुम कभी किसी से कहते हो कि मैं तुम्हें करीब-करीब प्रेम करता हूं? भूल कर मत कहना; नहीं तो दूसरा कहेगाः अपने रास्ते पर लगो। करीब-करीब प्रेम का क्या मतलब होता है? करीब-करीब का अर्थ तो हुआः नहीं।
विज्ञान कहता हैः यह जो हम की रहे हैं, आज तक जो जाना है उसका निचोड़ है, कल यह बदल सकता है।
पिछले दो सौ वर्षों में विज्ञान ने जो भी कहा, वह हर बार बदलना पड़ा। इधर वैज्ञानिक कह नहीं पाता कि कोई दूसरा वैज्ञानिक उसे गलत सिद्ध करने को तैयार हो जाता है। तब तो विज्ञान कहता है कि कोई निर्णीत सत्य है ही नहीं; सभी सत्य कामचलाऊ हैं। जब तक काम चलता है ठीक है; जब बड़ा सत्य प्रकट होगा तो वे गिर जाएंगे।
इस बात को उपनिषदों ने, वेदों ने, अविद्या कहा है। अविद्या का अर्थ हैः अभी सार मालूम पड़ता है, फिर असार मालूम पड़ने लगता है। और कई बार ऐसा होता है कि वर्षों के बाद वह जो असार सिद्ध हो गया था, फिर से सार हो जाता है।
तुम्हारा मन ही डांवाडोल ही है। तुम्हारा मन चंचल है। उस चंचल मन के माध्यम से तुम जो देखते हो, वह सब डांवाडोल है, कंपता हुआ है। उस कंपते हुए में तुम सत्य को न पा सकोगे।
फिर सत्य कैसे पाओगे?
सत्य को पाने का सवाल वस्तु से नहीं है, ऑब्जेक्ट से नहीं है, विषय से नहीं है..सत्य को पाने का संबंध तुम्हारे भीतर के अहर्निश जागरण से है। तुम्हारी चेतना की लौ न कंपे, तुम्हारी चेतना की लौ निष्कंप हो जाए, जैसे कोई हवा का झोंका न आता हो, द्वार-दरवाजे बंद हों, और दीये की लौ अकंप जलती हो..उसको गीता ने स्थितप्रज्ञ की अवस्था कहा है, जहां प्रज्ञा की ज्योति स्थिर हो गई हो। उस स्थिर दशा में कोई भी चीज कंपती नहीं है। उस स्थिर दशा में तुम जो जानते हो, वह विद्या है। फिर तुम जैसा जानते हो, वैसा ही है; फिर वह सदा सदा के लिए वैसा है, फिर चिरकाल के लिए वैसा है।
इसलिए महावीर को, बुद्ध को हमने सिर्फ ज्ञानी नहीं कहा है; क्योंकि ज्ञानी तो कई बार बदलते देखे जाते हैंः आज कुछ कहते हैं, कल कुछ कहते हैं। हमने उनको त्रिकालदर्शी कहा है। यह सोचने जैसा है। त्रिकालज्ञ कहा है। इसका अर्थ है कि वे जो जानते हैं वह तीनों काल में, सत्य है..अतीत में, वर्तमान में, भविष्य में; किसी काल में असत्य नहीं होगा। उन्होंने जो कहा है, बस ऐसा ही सदा काल में सदा-सदा सत्य होगा।
जिसकी प्रज्ञा थिर हो गई वह त्रिकालज्ञ है। उसका मतलब यह नहीं है कि तुम उससे पूछने जाओगे कि मेरे घर पत्नी गर्भवती है तो लड़का होगा कि लड़की, तो वह तुम्हें बताएगा कि लड़का होगा। त्रिकालज्ञ का मतलब तुम यह मत समझ लेना।
तुम तो जीवन की गहरी से गहरी चीज को बाजार में खींच लाते हो। तुम यह मत पूछने चले जाना कि नंबर लगा रहे हैं घोड़े पर, कौन सा घोड़ा आएगा, कि लाटरी की टिकट खरीद रहे हैं, अब बता ही दो जब त्रिकालज्ञ हो, तो नंबर बता दो वही खरीद लें, क्यों झंझट में पड़ें! त्रिकालज्ञ का अर्थ यह नहीं होता कि वह तुम्हें अतीत और भविष्य बताएगा।
त्रिकालज्ञ का अर्थ होता है कि उसने जो भी जाना है वह तीनों कालों में सत्य है। इस फर्क को ठीक से समझ लेना। नहीं तो जैनियों ने महावीर की फजीहत करवा डाली है। वे कहते हैंः त्रिकालज्ञ! तो फिर महावीर ने जो-जो कहा है वह भविष्यवाणी है। अगर वैसा न हो तो मुसीबत; क्योंकि उससे महावीर का त्रिकालज्ञ होना संदिग्ध होता है।
त्रिकालज्ञ का कुल अर्थ इतना ही है कि महावीर ने जो भी कहा है, जो भी उन्होंने अपने परम ज्ञान के प्रकाश में जाना है वह किसी काल में भी बाधित न होगा, वह हर समय सत्य होगा। इसका कोई संबंध इस आपा-धापी के संसार से नहीं है। इसका कोई संबंध इतिहास, रोजमर्रा की घटनाओं से नहीं है। इसका संबंध जीवन के निगूढ़तम सत्यों से है। फिर जो सार है वह सार है, और जो असार है वह असार है।
और ठीक पूछा हैः ज्ञानी को, जाग्रत पुरुष को दोनों साथ-साथ दिखाई पड़ते हैं?
अलग-अलग नहीं दिखाई पड़ते, दोनों साथ-साथ दिखाई पड़ते हैं। जब प्रज्ञावान व्यक्ति देखता है कि संसार झूठ, उसी क्षण देखता है युगपत..परमात्मा सत्य। ये दो बातें नहीं हैं कि पहले वह देखता है कि संसार झूठ, माया, और फिर वर्षों की खोज के बाद पाता है कि परमात्मा सत्य है। नहीं, जब देखता हैः संसार असत्य; उसी का दूसरा पहलू हैः परमात्मा सत्य। तुम जब देखते हो, परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, उसका अर्थ है कि तुम्हें संसार दिखाई पड़ता है।
परमात्मा जब तक असत्य है, संसार सत्य है। जब तक संसार असत्य है तब तक परमात्मा असत्य है।
और अज्ञानियों ने भी बड़े अजीब-अजीब प्रश्न ज्ञानियों से पूछे हैं! जैसे शंकर के पास लोग पहुंच जाते हैं। वे कहते हैंः ठीक है, तुम कहते हो..संसार माया, ब्रह्म सत्य; हम तुमसे पूछते हैं, दोनों का संबंध क्या? प्रश्न बिल्कुल ठीक मालूम पड़ता है। और प्रश्न बिल्कुल गलत है। क्योंकि दो तो दिखाई ही नहीं पड़ते शंकर को। जब संसार माया दिखाई पड़ता है, तभी तो परमात्मा सत्य दिखाई पड़ता है। ये एक ही बात के दो पहलू हैं, ये दो चीजें नहीं है।
ऐसा समझो कि एक रस्सी पड़ी है और तुमने अंधेरे में समझा कि सांप है; फिर तुम पास आए, दीया जलाया, देखा कि रस्सी है..तो जो सांप तुमने देखा था, माया हो गया, असार हो गया, असत्य हो गया; और जो रस्सी अब तक न देखी थी, वह सत्य हो गई। अब तुमसे कोई यह पूछे कि जो सांप तुमने पहले देखा था, और रस्सी तुम जो देख रहे हो, इन दोनों में संबंध क्या है..तो तुम क्या कहोगे? तुम कोई संबंध बता सकोगे? तुम कहोगेः पागल हो? दो हों तो संबंध हो सकता है; दो हैं कहां? जब तक मैंने सांप देखा तब तक रस्सी नहीं देखी थी..तब भी एक था। जब मैंने रस्सी देखी तब सांप नहीं दिखाई पड़ा..तब भी एक ही रहा। अब दोनों के बीच तुम संबंध पूछते हो? दो साथ हों तो संबंधित हो सकते हैं।
एक ही दिखाई पड़ता है। जिनको संसार दिखाई पड़ता है उन्हें ब्रह्म दिखाई नहीं पड़ता। जिन्हें ब्रह्म दिखाई पड़ता है उन्हें संसार दिखाई नहीं पड़ता।
तुम्हें जो दिखाई पड़ता है, उसमें, और मुझे जो दिखाई पड़ता है, उसमें क्या संबंध है? कोई संबंध नहीं है। वह तुम्हारा देखना है, यह मेरा देखना है। मैंने जो अज्ञान में देखा, उसमें, और मैंने जो ज्ञान में देखा, उसमें क्या संबंध है? वे दोनों एक साथ तो कभी आते ही नहीं, संबंध हो ही नहीं सकता।
इसलिए शंकर उत्तर देने की कोशिश भी करते हैं तो भी उत्तर जम नहीं पाता। और लोग पूछे चले जाते हैं तो उत्तर देना पड़ता है। नहीं तो लोग सोचते हैंः हमारी उपेक्षा हो रही है, उत्तर नहीं दिया जा रहा, और हम इतना कीमती सवाल पूछ रहे हैं, इतना महत्वपूर्ण, माया और ब्रह्म को जोड़ने वाला सवाल! और अगर जवाब न दे सको तो कुछ कमी है तुम्हारे ज्ञान में।
बुद्ध शंकर से ज्यादा हिम्मतवर हैं। शंकर ने तो कुछ न कुछ जवाब दिए, किसी न किसी तरह समझाने की कोशिश की; बुद्ध ने साफ कह दिया कि नहीं, ये सवाल ही मत पूछो, ये सवाल ही गलत हैं..उत्तर मैं न दूंगा।
भारत से बुद्ध का प्रभाव समाप्त हो गया..उसका कुल कारण इतना है कि भारत की आदत व्यर्थ के सवाल पूछने और उत्तर पाने की है। बुद्ध ने उस आदत का सहयोग न किया। लोगों ने कहाः तो फिर इनको पता ही नहीं होगा।
भारत पुराना पंडित है। यहां दुकान-दुकान पर बैठा, पान की दुकान पर बैठा, पान बेचने वाला भी पंडित है। यहां ब्रह्मज्ञान तो घर-घर में है। यहां हर आदमी को ब्रह्मज्ञानी मान सकते हो। सभी को पता है।
और जब बुद्ध ने कहाः नहीं, इसका कोई जवाब न देंगे, ये प्रश्न ही गलत हैं..तो लोगों ने कहाः पता ही न होगा इस आदमी को। अगर प्रश्न ही गलत थे तो वेद में क्यों उत्तर दिया गया है? उपनिषद में क्यों उत्तर है? सदा ज्ञानी उत्तर देते रहे हैं; यह आदमी कहता हैः प्रश्न गलत है। मामला मालूम होता है, इसे उत्तर पता ही नहीं है। और हमें पता है उत्तर, और उसको पता नहीं है।
बुद्ध का प्रभाव भारत से उठ गया! उसका कुल कारण इतना ही था, बुद्ध ने भारत की पांडित्यपूर्ण, पांडित्यपूर्ण मनोदशा के साथ कोई सहयोग न किया।
जब असार दिखता है तभी सार दिखाई पड़ जाता है।
सार और असार दो चीजें नहीं है..एक ही प्रकाश का अनुभव है। एक चीज असार हो जाती है, दूसरी चीज सार हो जाती है। जो कल तक असार थी वह आज सार हो जाती है; जो कल तक सार थी, आज असार हो जाती है। लेकिन, अगर यह अनुभव निर्बाध हो, भविष्य में कभी खंडित न हो, तुम्हारी प्रज्ञा ने थिर होकर जाना हो तो फिर शाश्वत होगा, फिर बदलेगा नहींः मानी हुई बातें तो बदल जाएंगी, जानी हुई बातें भी बदल जाएंगी। सिर्फ जीए हुए अनुभव नहीं बदलते हैं। तां सत्य को जानना नहीं है..सत्य को जीना है; सत्य के साथ एकरूप हो जाना है। तुम्हारी प्रज्ञा थिर होकर सत्य हो जाए। तुम्हारी प्रज्ञा का कंपन खो जाए, ध्यानस्थ हो जाए, समाधिस्थ हो जाए..उस समाधि की दशा में जो समाधान तुम्हें मिलेगा, वह किसी काल में, किसी लोक में, खंडित नहीं होता है। उस अखंड को ही हम सत्य कहते हैं।
पांचवां प्रश्नः हमें तो स्वप्नों से रहित जीवन रसहीन लगता है। पर आप जैसे बुद्धपुरुषों का जीवन तो स्वप्नों से रहित है, फिर भी इतना रसपूर्ण क्यों है?
तुम्हें जीवन रसहीन लगता है बिना स्वप्नों के, क्योंकि तुमने जीवन का रस तो जाना नहीं। तुम सपने का ही रस जानते हो और उसी से अपने को समझाए चले जा रहे हो।
ऐसा समझो, तुम्हें भूख लगी है और तुम्हें असली भोजन मिला ही नहीं, तो आंख बंद करके तुमने सपने के भोजन किए हैंः सुस्वादु थे, खूब दिल भर कर खाया, खूब चबाया, खूब जुगाली की, अपने को धोखा भी दे लिया कि भूख समाप्त हो गई; लेकिन सपने का भोजन असली भूख को न मिटा सकेगा। यह हो सकता है कि धोखा धीरे-धीरे इतना गहरा हो जाए कि असली भूख ही लगना बंद हो जाएः लेकिन शरीर सूखेगा कुम्हलाएगा। और जितना ही शरीर सूखेगा, कुम्हलाएगा, और जीवन से जड़ें जितनी ही उखड़ी-उखड़ी होने लगेंगी, उतने ही ज्यादा सपने तुम्हें देखने पड़ेंगे, क्योंकि तब और सपनों की जरूरत पड़ेगी, ताकि तुम अपने को समझा लो कि नहीं, भोजन तो हम रोज कर रहे हैं, घंटों कर रहे हैं।
जीवन झूठे भोजन से नहीं भरता, और न ही रस सपनों से आ सकता है। सपने तो जीवन में तुम जो रस चूक रहे हो उसके परिपूरक हैं। झूठे परिपूरक हैं। ऐसा ही है जैसे कि छोटे बच्चे को हम चूसनी मुंह में दे देते हैं, वह सोचता है स्तन है मां का; वह चूसनी को चूसता है..सो जाता है। इससे कुछ पेट नहीं भरता, न पुष्टि मिलती है, न रक्त बनता, न हड्डियां बनतीं..लेकिन झपकी लग जाती है सोचते-सोचते कि दूध पी रहा हूं, सो जाता है। हमने बच्चे को धोखा दे दिया। बच्चा इस धोखे से कभी न कभी सम्हल ही जाएगा क्योंकि हमने दिया है। फिर जीवन में ऐसे भी धोखे हैं जो तुम खुद ही को दे रहे हो, उनसे जागना बहुत मुश्किल हो जाता है।
तुमने कभी कुत्ते को देखा? ..सूखी हड्डी को चबाता है और बड़ा रस लेता है! सूखी हड्डी में कोई रस है नहीं। सूखी हड्डी से कोई रस निकल भी नहीं सकता। होता क्या है? जब कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है, तो सूखेपन के कारण, हड्डी की कठोरता के कारण, उसके मुंह में से खून निकलने लगता है। वह उसी खून को चूसता है और सोचता है कि हड्डी से रस आ रहा है। घाव बने रहे हैं मुंह में हड्डी से रस नहीं आ रहा है! नुकसान हो रहा है। हानि हो रही है। घातक है। लेकिन कुत्ते को कौन समझाए? अगर तुम हड्डी छीनना चाहो, कुत्ता मरने-मारने को उतारू हो जाएगा। क्योंकि कुत्ता सोच रहा है कि जो खून भीतर उसके कंठ से उतर रहा है वह हड्डी से निकल रहा है।
दूसरों के धोखे तो तोड़ देना आसान है; तुम खुद ही अपने को धोखा दो तो बहुत मुश्किल है।
जिनको तुम पागल कहते हो, वे कौन हैं? वे तुम्हारे जैसे ही लोग हैं, जिन्होंने सपना इतना देखा, इतना देखा कि धीरे-धीरे सपना ही सच हो गया और जिंदगी पूरी झूठ हो गई। सपने में इस बुरी तरह खो गए हैं कि अब तुम उनको उस सपने के बाहर खींच कर नहीं ला सकते, तुम उन्हें जगा नहीं सकते। लेकिन तुम जानते हो कि पागल कितने ही मस्त दिखाई पड़ें उनकी मस्ती झूठी है। इलाज की जरूरत है। पागलों के जीवन में कितना ही रस दिखाई पड़े, तुम जानते हो तुम इस रस को पागल होकर लेने को राजी न होओगे।
पागलखाने में जाओ, तुम पागलों को साधारण लोगों से ज्यादा मस्त पाओगे। कारण क्या है? क्या उनको कोई मस्ती उपलब्ध हो गई है? नहीं, वे सपनों में इतने खो गए हैं कि अब जिंदगी के यथार्थ उनको चैंकाते भी नहीं। वे अपने सपनों में ही रहते हैं। किसी का प्रेम इजिप्त की रानी क्लियोपैत्रा से है। क्लियोपैत्रा को मरे हुए हजारों साल हो गए। लेकिन पागलखाने में कोई उसका प्रेमी है क्लियोपैत्रा का, वह क्लियोपैत्रा के साथ अपने सपने में रह रहा है। वह उसी के साथ उठता है, बैठता है, बात करता है। वह क्लियोपैत्रा के साथ ही जी रहा है। तुम सब हंसोगे, लेकिन वह प्रसन्न है। उसका जीवन बड़ा रसपूर्ण मालूम होगा।
तुम्हारे सपनों का रस भी ऐसा ही है। तुम बिना सपने के नहीं रह पाते; क्योंकि तुम्हारी जिंदगी में कुछ खालीपन है जो तुम सपनों से भरते हो। और ध्यान रखना, ऐसे अगर तुम अपने को धोखा देते गए, और झूठी चूसनी ही चूसते रहे, और झूठे भोजनों में रस लेते रहे, और कल्पना के ताने-बाने बुनते रहे..तो धीरे-धीरे तुम्हारा यथार्थ से सारा संबंध टूट जाएगा, तब जागना बहुत मुश्किल होगा।
बुद्धपुरुषों के जीवन में जो रस दिखाई पड़ता है, वह सपनों का नहीं है, वह वास्तविक जीवन का है।
दुनिया में दो तरह के लोग मस्त दिखाई पड़ते हैं..या तो बुद्धपुरुष या पागल; या तो विक्षिप्त या विमुक्त। इसलिए कई बार तो बुद्धपुरुषों को भी लोगों ने पागल समझ लिया है; या तो विक्षिप्त या विमुक्त। इसलिए कई बार तो बुद्धपुरुषों को भी लोगों ने पागल समझ लिया है; क्योंकि उनमें एक बात समान दिखाई पड़ती है। और कई बार ऐसा भी हुआ है कि पागलों को बुद्धपुरुष समझ लिया है, क्योंकि उनमें भी समानता मालूम पड़ती है।
पूरब में ऐसा बहुत बार हुआ कि पागलों को लोगों ने परमहंस समझ लिया, क्योंकि मस्ती तो उनकी ऐसी ही लगती है जैसी बुद्धपुरुषों की है। और हमारे पास नापने-मापने का कोई उपाय नहीं है। और पश्चिम में ऐसा आज भी हो रहा है, कि बहुत से ऐसे पुरुष जो पागल नहीं हैं, सिर्फ मस्त हैं अपनी मस्ती में, पागलखानों में पड़े हैं। क्योंकि पश्चिम कहता हैः और तो कोई कारण नहीं, सिर्फ पागल...! जैसे पूरब में पागल परमहंस हो गए बहुत बार, वैसा पश्चिम में बहुत से परमहंस पागलखानों में पड़े हैं। क्योंकि पूरब में एक तरह की भ्रांति थी कि जो भी मस्त हो गया वही ज्ञान को उपलब्ध है। सभी मस्त हो जाने वाले ज्ञान को उपलब्ध नहीं होते। सभी ज्ञान को उपलब्ध हो जाने वाल मस्त जरूर हो जाते हैं; लेकिन सभी मस्ती को उपलब्ध लोग ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो जाते। बहुतों की मस्ती तो पागलपन की होती है, विक्षिप्तता की होती है।
तो दो तरह से रस संभव हैः या तो तुम पागल हो जाओ, या तुम जाग जाओ; या तो तुम मन में इस भांति खो जाओ कि बाहर निकलने की जगह ही न रह जाए; या मन बिल्कुल खो जाए और मन के लौटने का रास्ता न रह जाए; या तो तुम मन में खो जाओ या मन तुम में पूरी तरह खो जाए; या मन बिल्कुल खो जाए और मन के लौटने का रास्ता न रह जाए; या तो तुम मन में खो जाओ या मन तुम में पूरी तरह खो जाए। दो उपाय हैं। इन दोनों के बीच में साधारण आदमी जीता है। न तो वह पागल है न वह परमहंस है। वह थोड़ा-थोड़ा यथार्थ भी देखता है, थोड़ा-थोड़ा सपना भी देखता है। उसका जीवन बड़ी दुविधा का है। वह बीच में फंसा है त्रिशंकु की भांति।
तुम भी सपने देखते रहते हो। दुकान पर बैठे हो, ग्राहक नहीं है..सपना आना शुरू हो जाता है कि अचानक रास्ते पा करोड़ो रुपये की थैली मिल गई है। अब तुम जानते हो, तुम भलीभांति जानते हो कि क्या पागलपन सोच रहे हो। कई बार तुमको समझ में भी आ जाता है कि यह क्या पागलपन है; लेकिन फिर भी रस मालूम होता है और सोचते हो कि चलो, कोई हर्जा नहीं, क्या करोगे अगर करोड़ रुपये मिल जाएं? ..तो तुम मकान बना रहे हो, महल खड़े कर रहे हो। फिर भी तुम्हारे भीतर कोई कहे चला जाता है कि कर रहे हो; क्यों समय खराब कर रहे हो; क्यों व्यर्थ की बातों में पड़े हो? लेकिन फिर भी रस आता है! हड्डी से अपने ही मुंह का खून बहने लगता है।
सपना झूठा है, यह जानते हुए भी, तुम्हारे जीवन में सच्चा भेजन इतना कम है कि झूठे भोजन में भी रस आने लगता है, तुम उसी रस में डूबने लगते हो।
मैं जानता हूं, तुम्हारा प्रश्न ठीक है कि हमें तो स्वप्नों से रहित जीवन रसहीन लगता है। लगेगा ही, क्योंकि तुम्हें असली रस से कोई परिचय नहीं है।
‘और आप जैसे बुद्धपुरुषों का जीवन स्वप्नों से रहित है, फिर भी इतना रसपूर्ण क्यों है? ’
क्योंकि रस का पता है। और जितना जल्दी जाग सको सपनों से, चाहे जागने में कितनी ही रसहीनता पैदा हो, उसे झेलना पड़ेगा। वह तपश्चर्या है। वही साधना है। झूठे सपने को तोड़ना ही पड़ेगा, चाहे टूट कर तुम अचानक पाओ कि महल है ही नहीं, झोपड़े में बैठे हैं, महल केवल सपने में था। शायद सपना टूट कर तुम पाओ कि सामने पत्थर-कंकड़ों के ढेर लगे हैं, ये हीरे-जवाहरात नहीं हैं। लेकिन इस यथार्थ से परिचित होना पड़ेगा; क्योंकि यथार्थ से परिचित हो कर ही कोई महायथार्थ की तरफ जा सकता है। अगर ये कंकड़-पत्थर हैं तो छोड़ो, हीरों की खोज में निकलो।
लेकिन जो आदमी कंकड़-पत्थरों का सपना देख रहा है कि हीरे हैं वह तो कभी हीरों की खोज में न जाएगा; उसे तो हीरे मिले ही हुए हैं। पीड़ा होगी। इसलिए पागलपन से परमहंस की तरफ जाने में, स्वप्न से सत्य की तरफ जाने में, एक संक्रमण का काल है, जब बड़ी पीड़ा होगी; जो-जो था वह छूटता मालूम पड़ेगा; जो-जो मान रखा था कि मिला ही है; अचानक जानना होगा कि कभी मिला न था, अपने को धोखा दे रहे थे; हाथ थोड़ी देर के लिए बिल्कुल खाली हो जाएंगे; बड़ी रिक्तता पकड़ेगी।
ध्यान रखना; रिक्तता और शून्यता में यही फर्क है। रिक्तता का अर्थ हैः जो था नहीं, मान रखा था है, वह खो गया..तो रिक्तता, एंप्टीनेस..और जब कोई इस रिक्तता में रहने को राजी हो जाता है, तो धीरे-धीरे उसका अवतरण होता है जो है; जो सदा ही छिपा था और हम व्यर्थ में उलझे रहे, इसलिए उसकी तरफ नजर न गई..अब उसका अवतरण होता हो रहा है। उसका नाम शून्यता है।
शून्यता और रिक्तता में बड़ा फर्क है। रिक्तता है सपनों का टूट जाना। शून्यता है सत्य का उतर जाना। रस तो सत्य में है। रसो वै सः! रस तो बस उसी में ही है।
और किसी रस में अपने को मत उलझाना। और तुम जानते हो भलीभांति क्योंकि कितना ही धोखा दो, कैसे धोखा दे पाओगे? तुम जानते हो कि रस का दिखावा कर रहे हो कि मिल रहा है, लेकिन मिल नहीं रहा; अन्यथा तुम्हारे चेहरे इतने उदास क्यों हैं? कोशिश करते हो हंसने की, मुस्कुराने की; लेकिन कंठ में कुछ अटक जाता है; लगता है व्यर्थ ही हंस रहे हो, हंसने योग्य कुछ नहीं है, शायद इसलिए हंस रहे हो, कहीं रोने न लगो, कहीं आंसू न आ जाएं; शायद आंसुओं को छिपा रहे हो मुस्कुराहटों में।
ये धोखे बंद करो। ये खेल किससे खेल रहे हो? ये खेल अपने से ही चल रहा है और आत्मघाती है। इस खेल को छोड़ो, तोड़ो। इसके बाहर आओ। कितनी ही पीड़ा हो, बाहर आना ही होगा; क्योंकि तभी आनंद के द्वार खुल सकते हैं।
छठवां प्रश्नः फरीद जैसे संत हमें हमारे अपने इतने आत्मीय क्यों लगते हैं?
स्वाभाविक है कि वे आत्मीय लगें, क्योंकि वे तुम्हारे उस दुख को भी पहचानते हैं जहां तुम हो, और वे तुम्हारे उस आनंद को भी पहचानते हैं जहां तुम हो सकते हो। वे तुम्हारा वर्तमान भी बोलते हैं और तुम्हारा भविष्य भी। वे तुम्हारे आज के दुख की गाथा भी कहते हैं और कल के सुख का परम सौभाग्य भी।
फरीद में तुम अपने आज के यथार्थ को भी पाओगे और कल के सत्य को भी। फरीद एक सेतु हैं। वे तुम्हें खबरें देते हैं, तुम कौन हो और कहां हो। वे तुम्हें जगाते हैं तुम्हारी नींद से और तुम्हें बुलाते हैं उस जागरण की ओर भी, जो तुम हो सकते हो, जो तुम्हारा स्वभाव सिद्ध अधिकार है; जिसे खोने का कोई कारण नहीं है, सिर्फ जागने मात्र से जो मिल जाएगा; जिसे तुमने खोया है अपनी ही छोटी सी भूलों के कारण, छोटी-छोटी भूलों के कारण खोया है। तुम अकारण ही भिखारी बने हो। वे तुम्हारे भिखारीपन का भी बोध देते हैं और तुम्हारे भीतर छिपे सम्राट की तरफ भी इशारा करते हैं। वे तुम्हें दुख भी देते हैं और तुम्हें महासुख की तरफ भी उठाते हैं।
इसलिए फरीद जैसे संत बहुत आत्मीय मालूम होंगे। फरीद जैसे व्यक्ति के साथ तुम्हें बड़ी निकटता मालूम होगी। वे कल तुम्हारे ही साथ थे..उन्हीं अंधेरे रास्तों पर जहां तुम हो, उन्हीं अंधेरी अंधी गलियों में भटकते थे जहां तुम हो; तुम्हारे जैसे ही पीड़ा और दुख और नरक में जीते थे; तुम जहां खाइयों में पड़े हो, गड्ढों में पड़े हो..लंगड़े अपाहिज, अपंग..ऐसे ही वे भी थे। पर उन्होंने हिम्मत जुटाई। उन्होंने अपने को सम्हाला..उठे। राह उन्हें मिल गई। प्रकाश का अवतरण हुआ। अब वे तुम्हें पुकार रहे हैं।
तुम पंडितों की भाषा में इस तरह की आत्मीयता न पाओगे। पंडित की भाषा में तुम निंदा पाओगे..यह फर्क है संत और पंडित की भाषा का। पंडित की भाषा में तुम पाओगे कि वह तुमसे कह रहा हैः तुम पापी हो, निंदित हो, बुरे हो। संत की भाषा में तुम पाओगे, वह कहेगा कि तुम बुरे नहीं हो, तुमने मान रखा है कि तुम बुरे हो; तुम भले हो। तुमसे भला और कुछ भी नहीं है। तुम परमात्मा हो स्वयं। पंडित कहेगाः तुम नारकीय हो, पापी हो, तुमने बहुत बुरे कर्म किए हैं। संत कहेगाः बुरे कर्म तुमसे हो ही कैसे सकते हैं! जरा जागो! हुए होंगे नींद में, सपने देखे होंगे। लेकिन पाप तुम्हें छू कैसे सकता है? तुम्हारे भीतर परमात्मा का कमल है; उसे पानी छूता नहीं, ऐसे तुम्हें पाप नहीं छूता है।
संत तो तुम्हें भरते हैं आश्वासन से; तुम जो हो सकते हो, उसकी तरफ इशारा है उनका..मुक्त आकाश की तरफ। पंडित तुम्हें निंदा से भरते हैं; तुम जो अभी हो, उसकी तरफ उनका इशारा है। पंडित तुम्हें डराते हैं, क्योंकि डरा कर ही तुम्हारा शोषण हो सकता है। तुम भयभीत हो जाओ तो तुम पंडित के पैर पकड़ लोगे, पुरोहित के पैर पकड़ लोगे, पुरोहित के पैर पकड़ लोगे कि अब कुछ करो; बीच-बचाव करो, कुछ दलाली जो तुम्हें लेना हो ले लेना। हम तो पापी हैं। हमारे अपवित्र शब्द तो उस तक न पहुंच पाएंगे। तुम पुण्यात्मा हो, तुम हमारे लिए प्रार्थना करो, आशीर्वाद दो। तुम परमात्मा से हमारे लिए तरफदारी करो, तुम हमारे वकील हो जाओ!
पंडित तुम्हें डरवाता है, कंपाता हैः नरक का भय, पापों की लंबी कथा! वह तुम्हें इतना कंपा देता है कि फिर तुम कभी जीवन में सम्हल न पाओगे, भीतर डर लगता ही रहेगा। उसी डर में तुम मंदिर में झुकोगे, मस्जिद में झुकोगे, गुरुद्वारे में जाओगे। उसी डर में कुरान पढ़ोगे, बाइबिल पढ़ोगे, वेद दोहराओगे। उसी डर में तुम्हारे सब क्रियाकांड, यज्ञ पैदा होंगे।
लेकिन भय से भगवान का क्या संबंध हो सकता है?
हां, पंडित तुम्हें चूसेगा, तुम्हारा शोषण करेगा, तुम्हारी मालकियत करेगा। पुरोहित तुम्हारे ऊपर छाती पर बैठ जाएगा।
संत को तुम्हारा कोई शोषण नहीं करना है। संत को तुम्हें जगाना है ताकि तुम्हारा शोषण ही असंभव हो जाए। संत तुम्हें किसी मंदिर का रास्ता नहीं बताता; वह कहता हैः तुम मंदिर हो! संत किसी परमात्मा की तरफ आकाश में तुम्हारी आंखें नहीं उठाता; वह कहता हैः करो आंखें बंद वह रब तुम्हारे भीतर है, वह परमात्मा तुम्हारे घट-घट में है..झांको वहां।
पांडित्य आलोचना सिखाता है, दूसरे की निंदा सिखाता है, और दूसरे की निंदा से तुम्हारे अहंकार को भरने के उपाय देता है। संत कहता हैः अपने गरेबां में देखो। जे तू अकलि लतीफ...फरीदा जे तू अकलि लतीफ..अगर तू बुद्धिमान है फरीद, तो अपनी तरफ देख, दूसरे के खिलाफ काले अंक मत लिख; दूसरे की भूल मत देख, अपने गरेबां में झांक!
संत तुम्हें तुम्हारी तरफ मोड़ते हैं। संत तुम्हें तुम्हारे घर वापस ले आते हैं। इसलिए स्वभावतः संतों के वचनों में एक माधुर्य है। पंडितों के वचनों में एक कर्कशता है। पंडित के वचनों में तर्क हो भला, शास्त्र हो, शास्त्रीय शब्द हों..लेकिन हृदय का अंतर्नाद नहीं है। उधार है सब। बासा है। झूठा है। हजार-हजार ओंठों से चला है। गंदा है।
संत फिर से मूल-स्रोत से खबर लाता है। संत वेद नहीं दोहराता; संत स्वयं वेद है। पंडित वेद दोहराते हैं। संत उपनिषद, कुरान, बाइबिल के लिए प्रमाण इकट्ठे नहीं करता; संत स्वयं प्रमाण है। सभी कुरान, सभी बाइबिल, सभी वेद उसके होने से सच हैं। संत में फिर से परमात्मा उतरता है..अभिनव रूप, फिर से नया और ताजा, सद्यःस्नात! इसलिए संत मधुर है, प्रीतिकर है। एक काव्य है संत में, जो तुम्हारे हृदय को गुदगुदाएगा। संत से तुम्हारी आत्मीयता सध जाएगी।
संत से सिर्फ उन्हीं लोगों की आत्मीयता नहीं सधती है जो महा अहंकारी हैं। संत की वाणी उन्हीं तक नहीं पहुंचती जिनके हृदय पर अहंकार के पत्थर हैं। संत की वाणी उन्हीं के प्राणों को नहीं पुकार पाती जिनके प्राण करीब-करीब मुर्दा हैं और मर चुके हैं, जो जीते-जी लाश बन गए हैं। संत केवल उन्हीं को नहीं जगा पाता जिनके संप्रदायों ने शराब की तरह असर किया है। संत केवल उन्हीं को नहीं उठा पाता जो शास्त्रों में इस बुरी तरह दब गए हैं कि अब उनकी उठने की सामथ्र्य छूट गई है। संत केवल उन्हीं को मुक्त नहीं कर पाता जिन्होंने अपने कारागृहों को मोक्ष समझ रखा है, जिन्होंने अंधेरे को प्रकाश मान लिया है; मृत्यु को जीवन समझ रहे हैं। अन्यथा तुम थोड़े भी जीते-जी हो अभी और तुम्हारी श्वास अभी टूट नहीं गई है और तुम्हारे भीतर रत्ती भर भी बोध है, और तुमने जीवन को केवल शास्त्रों की आंखों से नहीं, अपनी आंखों से भी देखने की कोशिश की है तो कोई न कोई फरीद तुम्हारे लिए नाव बन जाएगा; किसी न किसी फरीद की वाणी तुम्हें उस पार ले जाने के लिए रास्ता बन जाएगी।
स्वाभाविक है कि संत आत्मीय मालूम पड़ते हैं। आत्मीय न मालूम पड़ें तो चिंतित होना। उसका अर्थ है कि तुम कहीं गलत हो। अगर संतों से तुम्हें चोट लगे, उनके होने से तुम्हें पीड़ा हो, तो समझना कि तुम रुग्ण हो, बीमार हो। जैसे बुखार के बाद सुस्वादु भोजन भी सुस्वादु नहीं मालूम होता, ऐसे ही अहंकार के बाद संतों की मधुर वाणी भी मधुर नहीं मालूम होती। तुम्हारी जीभ ही खराब हो गई, तुमने स्वाद की क्षमता ही खो दी, अन्यथा यह बिल्कुल स्वाभाविक है, जैसे पक्षियों के गीत मधुर लगते हैं; फूल प्राणों को लोभित करते हैं; आकाश के तारे पुकारते हैं; एक अहोभाव पकड़ता है..संतत्व तारों से बड़ा तारा है; फूलों से बड़ा फूल है; वृक्षों से ज्यादा हरियाली है उसमें; वह जीवन का परम शिखर है; उसके पार फिर कुछ भी नहीं है; वह परमात्मा की इस पृथ्वी पर श्रेष्ठतम झलक है; अधिकतम परमात्मा इस पृथ्वी पर वह है। इसलिए तो संतों को हमने अवतार कहा।
अवतार का इतना ही मतलब है कि तुझे यहां पाना बहुत मुश्किल है, पर कभी-कभी कोई तुझे यहां भी खींच लाता है। जैसे भगीरथ की कथा है कि गंगा को भगीरथ पृथ्वी पर ले आए। बड़ा मुश्किल था लाना। गंगा का विराट रूप था। डर था कि पृथ्वी डूब न जाए। लाना भी जरूरी था, क्योंकि गंगा के बिना पृथ्वी भी क्या पृथ्वी होती? गंगा के बिना सब सूना होता। स्वर्ग में बहती थी गंगा। स्वर्ग की गंगा चाहिए ही पृथ्वी पर; नहीं तो पृथ्वी निष्प्राण हो जाएगी, एक बड़ा मरघट हो जाएगी।
भगीरथ ने बड़ी साधना की। गंगा को रिझाया, राजी किया। गंगा राजी तो हो गई, लेकिन उसने कहा कि मेरे आघात को न झेल पाओगे। पवित्रता का आघात भी तो बड़ा है। जैसे पांच कैंडल के बल्ब में और हजार कैंडल की बिजली दौड़ जाए तो फ्यूज उड़ जाए, बल्ब टूट जाए, फूट जाए खतरा हो।
गंगा ने कहाः मैं स्वर्ग में बहती रही हूं, इतनी बड़ी पवित्रता, इतना स्वर्गीय पुण्य पृथ्वी न झेल सकेगी! मुश्किल हो जाएगी। तुम जाओ, किसी को राजी करो जो मुझे झेलने को राजी हो।
भगीरथ ने गंगा को तो आने को राजी कर लिया, लेकिन अब झेलेगा कौन? उन्होंने शिव की बड़ी प्रार्थना की, पूजा की कि तुम इसे रोक लो। कथा बड़ी मधुर है। शिव राजी हो गए। और कहते हैं, गंगा उतरी तो उनकी जटाओं में कई जन्मों तक भटकती रही। जटाओं में उतार लिया उसे। भटकती रही वहां। रास्ता ही मिलना मुश्किल हो गया उसे। मिटाने की तो बात दूर, पृथ्वी को डुबाने की बात दूर..उसे शिव की जटाओं से बाहर आने का उसेरास्ता न मिले। तब तक उसका जो तूफानी रूप था, अंधड़ जो उसके प्राणों में था वह शांत हो गया। शिव ने उसे कोमल बना दिया। शिव ने उसे नम्र बना दिया। अकड़ चली गई।
पवित्रता की भी एक अकड़ है। स्वर्ग की गंगा थी! बड़ी अकड़ थी! बड़ी अस्मिता थी! शिव के सिर में भटक कर वह अहंकार खो गया। दीन अनुभव हुई। फिर उतरी पृथ्वी पर।
शिवत्व का अर्थ, शिव का अर्थ है, ऐसे बुद्धपुरुष!
और जटा-जूट की बात बड़ी ठीक है, क्योंकि जब पहली दफा परमात्मा उतरता है तो वह तुम्हारे सिर के भीतर, बाहर के जटा-जूट में नहीं, भीतर के जटा-जूट में उतरता है, भीतर जो अनंत नाड़ियों का जाल है, मस्तिष्क में जो कोई सात करोड़ सेल हैं..उनमें ही उतरता है, उनमें ही भटकता है, उनसे ही रास्ता खोजता है।
बुद्धपुरुष का मस्तिष्क जब जागता है तो परमात्मा उतरा! फिर शिव मिले स्वर्ग की गंगा को! फिर वर्षों लग जाते हैं वहां भटकने में। वहां सौम्य रूप ग्रहण होता है। जैसे तुम मिट्टी को सीधा न खा सकोगे, हालांकि रोज मिट्टी को खाते हो..कभी गेहूं की शक्ल में खाते हो, कभी अनार की शक्ल में खाते हो, कहीं अमरूद, आम की शक्ल में खाते हो..खाते मिट्टी को ही हो; पर मिट्टी को सीधा न खा सकोगे। पहले वृक्ष मिट्टी को खाता है, फिर वृक्ष मिट्टी को रूपांतरित करता है, फल बन जाता है। फिर फल तुम खा लेते हो। है मिट्टी ही; लेकिन बीच में वृक्ष का माध्यम जरूरी था।
परमात्मा को तुम सीधा न खा सकोगे। वह तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा। कोई शिव पहले उसे पचाता है, फिर वह तुम्हारे योग्य हो जाता है। फिर तुम्हें छोटे-छोटे, जितनी तुम्हें जरूरत है, जितना तुम झेल सकोगे, पचा सकोगे, उस मात्रा में मिल जाता है। बुद्ध तो पूरे परमात्मा को पचा लेते हैं, फिर उनके एक-एक वचन में एक-एक फल की तरह वे तुम पर बरसने लगते हैं, एक-एक फूल में तुम्हारे पास आने लगते हैं। गंगा का तूफान तो शिव झेल लेते हैं, फिर गंगा सौम्य हो जाती है; फिर तुम उस पर तीर्थयात्रा कर पाते हो; फिर तुम घाट बना लेते हो; फिर मंदिर बना लेते हो; फिर तुम पूजा कर पाते हो।
संतपुरुष उस गंगा को बार-बार लाते हैं।
अतीत में भी वह गंगा हजारों बार उतरी है; लेकिन शास्त्रों में जो उसके संबंध में लिखा है, वह अब बहुत पुराना पड़ गया, उस पर बहुत धूल जम गई, उस पर शब्दों की पर्त दर पर्त इकट्ठी हो गई है। अब पहचानना मुश्किल है। उसकी ताजगी खो गई है। पंडित उसी को दोहराए चले जाते हैं। वे उसी पर और भी पर्तें जमाए चले जाते हैं..अर्थों की पर्तें..अर्थ और छिपता चला जाता है। पंडित जितनी टीका करते हैं, उतने ही शास्त्र बेबूझ हो जाते हैं। फिर बात इतनी कठिन हो जाती है कि उस तरफ से मार्ग ही नहीं रह जाता। फिर कोई संतपुरुष, कोई फरीद, कोई कबीर, कोई दादू, कोई सहजो फिर उतार लाती है।
स्वाभाविक है कि उनसे तुम्हें आत्मीयता लगे। न लगे तो समझना कि तुम रुग्ण हो, तुम्हारा चित्त विषाक्त है। आत्मीयता न लगे तो समझना कि स्वयं को स्वस्थ करना जरूरी है।
सातवां प्रश्नः परमात्मा ने हमें बनाया, और वही हमारा सुखकर्ता और दुखकर्ता है; फिर हमें जन्म के साथ उसका विस्मरण क्यों हो जाता है? परमात्मा हमें उसकी चिरंतन याद क्यों नहीं दिलाता है?
परमात्मा ने हमें बनाया, वही हमारा सुखकर्ता, दुखकर्ता है..ऐसा तुमसे किसने कहा? यह तुमने कैसे जाना? तुमने सुन लिया होगा। किसी ने कह दिया होगा। तुमने बात पकड़ ली।
दूसरों की बातों को मत पकड़ो, जब तक तुम्हें ही पता न हो; क्योंकि दूसरों की उधार बातों से जो तुम प्रश्न उठाओगे, वे तुम्हें कहीं भी न ले जाएंगे। प्रश्न तुम्हारे प्राणों से आना चाहिए। मुझसे उन प्रश्नों के उत्तर मांगो जो तुम्हारे प्राणों में उठते हों, जो कुछ लाभ होगा।
पहले तो प्रश्न ही झूठा है, क्योंकि तुम्हें पता ही नहीं कि परमात्मा ने बनाया। यही जिसको पता चल गया उसके क्या कोई प्रश्न शेष रह जाते हैं?
तुम्हें पता नहीं है कि परमात्मा दुखकर्ता-सुखकर्ता है। यही तुम्हें पता होता तो फिर और क्या बाकी रह जाता है जानने को? सुख और दुख में सभी आ गया। कुछ और बचा होगा, वह परमात्मा में आ गया। सब समाप्त हो जाता है।
नहीं, यह तुमने सुन लिया है। इसे तुमने सुना है, माना भी नहीं है। अभी तुम्हारे हृदय ने इसको स्वीकार भी नहीं किया है। तुम्हें संदेह बना है। लेकिन संदेह को भी सीधा पूछने की हिम्मत नहीं है। उसको भी तुम आस्तिक के ढंग से पूछते हो। नास्तिक के ढंग से पूछना बेहतर हैः कम से कम ईमानदार होता है।
तो तुम कहते हो ऊपर सेः हमें परमात्मा ने बनाया; वही सुखकर्ता, दुखकर्ता! फिर हमें जन्म के साथ-साथ उसका विस्मरण क्यों हो जाता है?
अगर विस्मरण ही हो गया है तो किस परमात्मा की बात कर रहे हो जिसने तुम्हें बनाया? यह बकवास छोड़ो। सीधा कहो कि हमें परमात्मा का कोई स्मरण नहीं है..यह परमात्मा कौन है? कहां है? हमें तो कोई भी याद नहीं है। हम कैसे मानें कि उसने हमें बनाया? हम कैसे मानें कि उसने ही सुख, उसने ही दुख बनाए?
सीधी बात पूछो, तो रास्ता आसान हो जाता है। जब तुम उलटी-सीधी बातों में पड़ते हो, तो रास्ता और भी कठिन हो जाता है।
ठीक है बात, तुम्हें याद नहीं है, विस्मरण हो गया है। यह भी सवाल इसीलिए उठता है कि तुमने मान लिया कि कोई परमात्मा है जिसकी हमें याद नहीं है, जिसका हमें विस्मरण हो गया है। इस मान्यता की झंझट पड़ोगे तो प्रश्न के बाद प्रश्न उठते चले जाएंगे।
तुम मन की स्लेट को कोरी करो। किसी की मत मानो। इतना ही कहो कि मैं हूं, इससे ज्यादा मुझे कुछ भी पता नहीं। यह ईमानदारी होगी। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें और क्या पता है? तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारी बाकी जितनी बातें हैं, सब मान्यताएं हैं।
मैं यहां बोल रहा हूं, यह भी पक्का नहीं हो सकता; क्योंकि हो सकता है, तुम स्वप्न देख रहे हो। कैसे तय करोगे कि मैं जो यहां बैठ कर बोल रहा हूं, वस्तुतः हूं, और तुम्हारा स्वप्न नहीं है? कैसे तय करोगे? क्या उपाय है? कभी-कभी तुमने स्वप्न में भी मुझे बोलते सुना है। जब स्वप्न में बोलते सुना है तब बिल्कुल ऐसा लगा है कि बिल्कुल सत्य है, सुबह जाग कर पाया कि यह बात झूठ थी। क्या तुम्हें पक्का है कि किसी दिन जाग कर तुम न पाओगे कि जो तुम सुन रहे थे, वह तुमने सुना ही नहीं था, तुम्हारे ही मन का खेल था?
दूसरे का भरोसा भी नहीं हो सकता। भरोसा तो सिर्फ एक चीज का हो सकता है..वह तुम्हारा अपना होना है। परमात्मा तो बहुत दूर; पत्नी और पति का भी पक्का भरोसा नहीं हो सकता कि वे हैं। तुम्हारे पड़ोस में जो बैठा है, जिसे तुम छू सकते हो, उसका भी पक्का भरोसा नहीं हो सकता है कि वह है, क्योंकि स्वप्न में भी तुमने कई बार लोगों को छुआ है और पाया है कि वे हैं। यह भी स्वप्न हो सकता है।
तो साधक को, जो खोज पर निकला है परमात्मा की, सत्य की, कोई भी नाम, या जीवन की..उसके लिए एक बात ख्याल रखनी चाहिएः सुनिश्चित आधारों से शुरू करो यात्रा। एक ही चीज सुनिश्चित है कि मैं हूं और कुछ भी सुनिश्चित नहीं है। हां, इस पर संदेह असंभव है कि मैं हूं; क्योंकि इस पर संदेह करने के लिए भी मुझे होना पड़ेगा, नहीं तो कौन संदेह करेगा? अगर मैं कहूं कि पता नहीं मैं हूं या नहीं..तो भी पक्का है कि मैं हूं; अन्यथा कौन कहेगा कि पता नहीं मैं हूं या नहीं? स्वप्न देखने के लिए भी तो एक देखने वाला चाहिए। झूठ दोहराने के लिए भी तो कोई चाहिए जो सचमुच हो, अन्यथा झूठ भी कौन दोहराएगा?
एक चीज सुनिश्चित है कि मैं हूं। अब बेहतर यही होगा कि मैं इसी को जानने चलूं कि यह मैं कौन हूं, क्या हूं!
जैसे ही तुम इसमें उतरने लगोगे सीढ़ी-सीढ़ी, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि यह तो बड़ी अनूठी बात होने लगी कि उतरते तुम अपने में हो, पहुंचते परमात्मा में हो! जानते अपने को हो, पहचान परमात्मा से होने लगती है। क्योंकि तुम परमात्मा हो। और जिस दिन तुम अपने भीतर पूरे उतर जाओगे, अपनी पूरी गहराई को छू लोगे और ऊंचाई को छू लोगे अपने पूरे विस्तार को स्पर्श कर लोगे, अपनी अनंतता के स्वाद से भर जाओगे, उस दिन तुम पहली दफा जानोगे कि परमात्मा है और उस दिन तुम यह भी जानोगे कि वही सब कुछ है। और उस दिन तुम यह भी जानोगे कि उसे हमने भुला दिया हो, लेकिन हम भुला न पाए; भुलाने की कोशिश की हो, लेकिन सफल न हो पाए।
कोई मनुष्य परमात्मा को भुलाने में सफल नहीं हो पाया है। इसलिए तो इतने मंदिर हैं, इतनी मस्जिदें, इतने गिरजे, गुरुद्वारे हैं। ये इसी बात के सबूत हैं कि तुमने लाख कोशिश की है भुलाने की, भुला नहीं पाते।
परमात्मा को भुलाना असंभव है, क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव है। हां, तुम चाहो तो उसकी याद न करो, यह हो सकता है। यह जरा जटिल होगा। मैं फिर से दोहरा दूंः परमात्मा को भुलाना असंभव है; हां चाहो तो याद न करो, यह हो सकता है। तुम अपनी याददाश्त को दूसरी चीजों से भरे रहो..धन है, पद है, प्रतिष्ठा है, घर है, संपत्ति है, दुकान है, बाजार है, तिजोड़ी है..इस सबसे भरे रहो अपनी याददाश्त को, तुम उसे जगह ही न दो प्रकट होने की, तुम मौका ही न दो कि वह तुम्हें याद आ जाए, बस इतना तुम कर सकते हो; परमात्मा को भूला नहीं सकते। हां, परमात्मा को दबा सकते हो, दूसरी याददाश्तों से भर सकते हो। लेकिन जिस दिन भी तुम चाहोगे, बस चाह चाहिए। जिस दिनन तुम चाहोगे, जिस दिन तुम ऊब जाओगे इस सब खेल से, इस बकवास से जिससे तुमने अपने को भर लिया है..उसी दिन एक क्षण में तुम हटा दोगे यह कचरा, झांक कर भीतर देखोगे, उसे तुम बैठा पाओगे। वह सदा मौजूद है, क्योंकि तुम ही वही हो।
कोई परमात्मा को कभी भूला नहीं है। नास्तिक भी नहीं भूलते हैं। उनके याद करने का ढंग अलग है। वे कहते हैं, परमात्मा नहीं है..यह उनके याद करने का ढंग है।
मैंने सुना है, एक ऋषि किसी पर नाराज हो गया, तो उसने अभिशाप दे दिया कि तुझे तीन जन्मों तक संसार में भटकना पड़ेगा। जिस पर नाराज हो गया था, उसने बड़ी ऋषि की सेवा की, तो वह प्रसन्न हो गया; लेकिन अभिशाप को काटा नहीं जा सकता, दे दिया, दे दिया। छूट गए तीर शब्द के, उन्हें वापस कैसे लौटाओगे? जो शब्द छूट गया छूट गया, अब उसे लौटाया नहीं जा सकता। जो हो चुका, हो चुका।
तो ऋषि बहुत प्रसन्न हो गया। उसने कहाः मजबूरी है। अब मैं वापस नहीं लौटा सकता, जो हो गया। शाप तो दे दिया। तीन जन्म तू भटकेगा। अब तू कोई वरदान चाहता हो तो वह मैं दे सकता हूं। तू वरदान मांग ले।
तो उसने कहा कि तीन जन्म भटकूंगा, आप मुझे एक ही वरदान दे दें कि मैं परमात्मा को कभी भूलूं न। उस ऋषि ने बहुत सोचा। उसने कहाः अच्छा जा, तू नास्तिक हो जा।
वह आदमी बहुत घबड़ाया। उसने कहाः यह कैसा वरदान? यह तो अभिशाप हो गया। पहले से भी बुरा हो गया। तीन जन्म के बाद तो वापस लौटना हो जाता; अब ये तीन जन्म अगर नास्तिक रहे, तो फिर लौटना कैसे होगा? यह तो हद हो गई। अब आप कहोगे, ये शब्द भी निकल गए, वापस नहीं लौट सकते।
ऋषि ने कहाः मैं तुझे सोच कर अनुभव से कहता हूं। आस्तिक तो कभी-कभी भूल जाता है, नास्तिक कभी नहीं भूलता। वह कहता ही रहता है, ईश्वर नहीं है। चैबीस घंटे लड़ने को तत्पर है कि ईश्वर नहीं है। विवाद करने को हजार काम छोड़ कर तैयार है। आस्तिक भी कहता है भई, अभी तो फुरसत नहीं है, दुकान में लगे हैं। नास्तिक लड़ने को तैयार है। उसकी भी चेष्टा ईश्वर की याददाश्त की है; वह भुलाने की कोशिश कर रहा है, भुला नहीं पाता। वह चाहता है, ईश्वर न हो; लेकिन चाहने से क्या होता है? वह सिद्ध करता है कि नहीं है, लेकिन उसी को सिद्ध करने में लग जाता है।
नहीं, कोई उपाय नहीं है। न आस्तिक भूल सकता है, न नास्तिक। भूल तो तुम नहीं सकते हो, लेकिन तुम दूसरी चीजों की याददाश्त से भर सकते हो।
ध्यान का कुल इतना अर्थ है कि तुम बाकी याददाश्त को हटा दो, उसकी याददाश्त आर्विभूत हो जाएगी..जैसे ज्वालामुखी फूट पड़े! वह तुम्हारे भीतर दबी है।
प्रेम का इतना ही अर्थ है कि तुम दूसरी याददाश्तों को हटा दोः अचानक तुम पाओगे कि उसके विरह का गीत उठने लगा। अचानक तुम पाओगे, तुमने उसे टटोलना शुरू कर दिया, खोजना शुरू कर दिया। और जब भी किसी ने पाया है..चाहे ध्यानी ने चाहे प्रेमी ने..सभी ने अपने को भीतर पाया है।
इसलिए तुम अलग नहीं हो जो उसे भूल जाओ। तुम वही हो। स्वयं को कोई कैसे भूल सकेगा? हां, भूलने का खेल चाहे जितनी देर खेलना हो खेल लो। इसलिए संसार को हम लीला कहते हैं; वह परमात्मा की लुका-छिपी है। उसको जितनी देर खेलना है वह खेल ले सकता है। जिस दिन भी तुम्हारी अभीप्सा प्रगाढ़ होगी कि अब घर लौटना है, तुम लौट जाओगे।
अंत करना चाहूंगा बुद्ध की एक घटना से।
बुद्ध गुजर रहे हैं एक गांव से। नदी के तट पर उन्होंने कुछ बच्चों को रेत के घर बनाते देखा। वे खड़े हो गए। ऐसी उनकी आदत थी। भिक्षु भी चुपचाप, उनके साथ थे, वे खड़े हो गए। बच्चे खेल रहे हैं, रेत के घर बना रहे हैं नदी के तट पर। किसी का पैर किसी के घर में लग जाता है। रेत का घर बिखर जाता है। झगड़ा हो जाता है। मार-पीट भी होती है, गाली-गलौज भी होती है कि तूने मेरा घर मिटा दिया। वह उसके घर पर कूद पड़ता है। वह उसका घर मिटा-मिटा देता है। फिर अपना घर बनाने में लग जाते हैं। बड़े तल्लीन हैं! उनको पता भी नहीं है कि बुद्ध आकर चुपचाप खड़े हो गए हैं। वे घाट पर चुपचाप खड़े देख रहे हैं। वे बच्चे इतने व्यस्त हैं कि उन्हें कुछ पता भी नहीं है। घर बनाना ऐसी व्यस्तता की बात भी है। और फिर दूसरे दुश्मन हैं, उनसे ज्यादा अच्छा बनाना है, प्रतियोगिता है, जलन है, ईष्र्या है, सब अपने-अपने घर को बड़ा करने में लगे हैं। और जितना बड़ा घर होता है उतनी ही जल्दी गिर जाने का डर भी होता है। उसकी रक्षा भी करनी है, यह सब हो रहा है। और तभी अचानक एक स्त्री ने आकर घाट पर आवाज दी कि सांझ हो गई, मां घरों में याद करती हैं, घर चलो। बच्चों ने चैंक कर देखा, दिन बीत गया, सूरज डूब गया, अंधेरा उतर रहा है। वे उछले-कूदे अपने ही घरों पर, सब मटियामेट कर डाला। अब कोई झगड़ा भी नहीं किसी दूसरे से कि तू मेरे घर पर कूद रहा है कि मैं तेरे घर पर। अपने ही घर पर कूदे। अब कोई लड़ा भी नहीं। कोई ईष्र्या भी न उठी, कोई जलन भी न उठी। खेल ही खत्म हो गया! मां की घर से आवाज आ गईः वे सब भागते-दौड़ते अपने घर की तरफ चले गए। दिन भर का सारा झगड़ा व्यवसाय, मकान, अपना-पराया सब भूल गया। घर से आवाज आ गई!
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा। ऐसे ही एक दिन जब घर से आवाज आ जाती है तब तुम्हारे बाजार, तुम्हारी राजधानियां ऐसी ही पड़ी रह जाती हैं। रेत के घर! जब तक खेलना हो खेलो, खेल रहे हो तब भी घर भूल थोड़े ही गए हो। अगर भूल ही गए होते घर तो जब द्वार पर आकर कोई आवाज देता है, या घाट पर आवाज देता है कि मां घर याद करती है, चलो, तब तुम कैसे पहचानते होः कौन मां, कैसा घर?
अगर मैंने तुम्हें आवाज दी है और कहा है कि सांझ हो गई है, अब घर चलो..और अगर तुमने उस आवाज को सुना, और तुम अगर थोड़ा भी समझ पाए हो, तो उसका अर्थ यही है कि परमात्मा को भूल कर भी भूला नहीं जा सकता। भुलाने की कोशिश कर सकते हो; सफल उसमें कभी कोई भी नहीं हुआ है। परमात्मा को भुलाने की कोशिश असफल ही होती है। वह सफल हो ही नहीं सकती। सफलता संभव ही नहीं है। हां, देर हो सकती है। लेकिन एक न एक दिन सांझ होगी, सूरज डूबेगा, तुम्हें आवाज सुनाई पड़ेगी। आवाज सुनाई पड़ते ही यह सारा संसार ऐसे ही हो जाता है जैसे रेत के घर-घुले। फिर उसमें पैदा हुए वैमनस्य, ईष्र्या, संघर्ष..सब खो जाते हैं। अदालत, मुकदमे, बाजार, हिसाब-किताब सब व्यर्थ हो जाता है जब घर की याद आ जाती है! और घर को कोई कभी भूलता है? कोई कभी नहीं भूलता।
ठीक ऐसी ही घटना कबीर के जीवन में है। एक बाजार से गुजरते हैं। एक बच्चा अपनी मां के साथ बाजार आया है। मां तो शाक-सब्जी खरीदने में लग गई और बच्चा एक बिल्ली के साथ खेलने में लग गया है। वह बिल्ली के साथ खेलने में इतना तल्लीन हो गया है कि भूल ही गया कि बाजार में हैं; भूल ही गया कि मां का साथ छूट गया है; भूल ही गया कि मां कहां गई।
कबीर बैठे उसे देख रहे हैं। वे भी बाजार आए हैं, अपना जो कुछ कपड़ा वगैरह बुनते हैं, बेचने। वे देख रहे हैं। उन्होंने देख लिया है कि मां भी साथ थी इसके और वे जानते हैं कि थोड़ी देर में उपद्रव होगा, क्योंकि मां तो बाजार में कहीं चली गई है और बच्चा बिल्ली के साथ तल्लीन हो गया है। अचानक बिल्ली न छलांग लगाई। वह एक घर में भाग गई। बच्चे को होश आया। उसने चारों तरफ देखा और जोर से आवाज दी मां को। चीख निकल गई। दो घंटे तक खेलता रहा, तब मां की बिल्कुल याद न थी..क्या तुम कहोगे?
कबीर अपने भक्तों से कहतेः ऐसी ही प्रार्थना है, जब तुम्हें याद आती है और एक चीख निकल जाती है। कितने दिन खेलते रहे संसार में, इससे क्या फर्क पड़ता है? जब चीख निकल जाती है, तो प्रार्थना का जन्म हो जाता है।
तब कबीर ने उस बच्चे का हाथ पकड़ा, उसकी मां को खोजने निकले। तब कोई सदगुरु मिल ही जाता है जब तुम्हारी चीख निकल जाती है। जिस दिन तुम्हारी चीख निकलेगी, तुम सदगुरु को कहीं करीब ही पाओगे..कोई फरीद, कोई कबीर, कोई नानक, तुम्हारा हाथ पकड़ लेगा और कहेगा कि हम उसे जानते हैं भलीभांति; हम उस घर तक पहुंच गए हैं, हम तुझे पहुंचा देते हैं।
प्रार्थना का अर्थ हैः याद, कि अरे, मैं कितनी देर तक भूला रहा! प्रार्थना का अर्थ हैः स्मृति, कि अरे, मैंने कितनी देर तक विस्मरण किया! प्रार्थना का अर्थ हैः याद, कि अरे, क्या यह भी संभव है कि इतनी देर तक याद भूल गई थी! तब एक चीख निकल जाती है। तब आंखें आंसुओं से भर जाती हैं; हृदय एक नई अभीप्सा से! तब सारा संसार पड़ा रह जाता हैः रेत के घर-घुले हैं! फिर तो जब तक मां न मिल जाए, तब तक चैन नहीं।
इसलिए तो फरीद कहते हैं कि बड़ा विरह है, बड़े रो रहे हैं हड्डी-हड्डी इस लंबी यात्रा से थक गई है! पैर उठते नहीं। सब सपने धूल-धूसरित हो गए हैं। अब बस एक तेरी आस है! सच्चे, एक तेरी आस! यही प्रार्थना है। इस प्रार्थना के पीछे ही छिपा परमात्मा है। बस तुम प्रार्थना कर लो, शेष परमात्मा पर छोड़ दो। तुम पुकारो हृदय भर कर! और मैं तुमसे कहता हूं, कोई पुकार कभी खाली नहीं गई है।
आज इतना ही।
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