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बुधवार, 15 अगस्त 2018

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन--गुरु मिले अगम के बासी

(दिनांक 31 जनवरी 1978 से 10 फरवरी 1979 तक ओशो आश्रम पूना)

सूत्र:

गुरु मिले अगम के बासी।।
उनके चरणकमल चित दीजै सतगुरु मिले अविनासी।
उनकी सीत प्रसादी लीजै छुटि जाए चैरासी।।
अमृत बूंद झरै घट भीतर साध संत जन लासी।
धरमदास बिनवे कर जोरी सार सबद मन बासी।।
वो नामरस ऐसा है भाई।।
आगे-आगे दहि चले पाछे हरियल होए।
बलिहारी वा बृच्छ की जड़ काटे फल होए।।
अति कड़वा खट्टा घना रे वाको रस है भाई।
साधत-साधत साध गए हैं अमली होए सो खाई।।

नाम रस जो जन पीए धड़ पर सीस न होई।
सूंघत के बौरा भये हो पियत के मरि जाई।।
संत जवारिस सो जन पावै जाको ज्ञान परगासा।
धरमदास पी छकित भये हैं और पीए कोई दासा।।
खरोखश तो उठे रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया काफिला तो चले
चांद सूरज बुजुर्गों के नक्शे कदम
खैर बुझने दो इनको, हवा तो चले
हाकिमे शहर, यह भी कोई शहर है
मस्जिदें बंद हैं, मयकदा तो चले
बेलचे लाओ, खोलो जमीं की तहें
मैं कहां दफ्न हूं, कुछ पता तो चले
आदमी के जीवन की समस्या एक, समाधान भी एक। आदमी के जीवन में बहुत समस्याएं नहीं हैं और न बहुत समाधानों की जरूरत है। एक ही समस्या है कि मैं कौन हूं? और एक ही समाधान है कि इसका उत्तर मिल जाए। जीवन की सारी समस्याएं इस एक समस्या से उठती हैं। यह एक समस्या जड़ है।
और इस समस्या में उलझाव भारी है। उत्तर खोजने वाले भी उत्तर नहीं खोज पाते, उलझाव में भटक जाते हैं। क्योंकि बहुत उत्तर दिए गए हैं। और बाहर से दिया गया कोई भी उत्तर काम नहीं आता। उत्तर आना चाहिए भीतर से और बाहर उत्तरों की कतार खड़ी है। और हर उत्तर तुम्हारा उत्तर बन जाने को आतुर है। हर उत्तर तुम्हें फुसला रहा है, समझा रहा है, राजी करने की कोशिश में संलग्न है--मैं हूं तुम्हारा उत्तर। और स्वभावतः जिसके भीतर समस्या खड़ी हो वह किसी भी उत्तर को पकड़ने लगता है। कहते हैं न कि डूबते को तिनके का सहारा भी बहुत मालूम होता है। हालांकि तिनकों के सहारे कोई कभी बचता नहीं। लेकिन डूबते आदमी के पास तिनका भी आ जाए तो उसी को पकड़ लेता है।
ऐसे ही तुमने बहुत तिनके पकड़ लिए हैं। उन तिनकों के पकड़ने से तुम बचोगे नहीं। नाव तुम्हारे भीतर है। जहां से समस्या उठी है, वहीं समाधान छिपा है। समस्या के भीतर ही उतरना है तो समाधान मिलेगा। प्रश्न भीतर और उत्तर बाहर, अगर ऐसा होता तो सभी को उत्तर मिल गए होते। प्रश्न भी भीतर है और उत्तर भी भीतर है। इसलिए जो भीतर जाते हैं वे ही उत्तर पाते हैं।
तो पहला ध्यान रखना, मैं कौन हूं, शास्त्रों से इसका उत्तर मत ले लेना अन्यथा तुम सदा को भटक जाओगे। मैं कौन हूं, इसका उत्तर स्वयं से लेना है।
कोई उधार उत्तर काम न आएगा। सब उधार उत्तर झूठे हैं। इसलिए नहीं कि जिन्होंने वे उत्तर दिए थे उन्हें पता नहीं था, बल्कि इसलिए कि यह उत्तर ऐसा है कि कोई दूसरा किसी दूसरे को दे नहीं सकता।
मैं जानता हूं फिर भी तुम्हें दे नहीं सकता। और दूंगा तो देने में ही झूठा हो जाएगा। तुम लोगे, लेने में ही बेईमानी हो जाएगी। यह उत्तर ऐसा है जिसकी तलाश करनी होती है। तलाश में ही निर्मित होता है। खोज में ही इसका जन्म है।
कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है। किस कारण तुम हिंदू हो? क्योंकि तुमने कोई उत्तर स्वीकार कर लिया है बाहर से। किस कारण तुम मुसलमान हो? क्योंकि तुमने कोई उत्तर स्वीकार कर लिया है बाहर से। तो न तो हिंदू धार्मिक है, न मुसलमान धार्मिक है; न जैन, न ईसाई, न यहूदी। धार्मिक आदमी वह है जो बाहर से कोई उत्तर स्वीकार नहीं करता। जो अपनी अंतर-खोज में जाता है। जो कहता है, समस्या मेरी है, समाधान भी मुझे खोजना होगा। समस्या मेरे प्राणों के प्राण में उठी है, वहीं से समाधान भी उठना चाहिए। वहीं कहीं समाधान छिपा होगा। अपने उत्तर में जो जाता है उसे जवाब मिलता है। अपने प्रश्न में जो जाता है उसे जवाब मिलता है।
लेकिन हम बाहर भटकने के आदी हैं। हम हर चीज बाहर खोजते हैं। हम धन भी बाहर खोजते हैं। हम पद भी बाहर खोजते हैं। हम समाधान भी बाहर खोजते हैं। न धन बाहर है, न पद बाहर है, न समाधान बाहर है। असल में समाधि के ही ये अलग-अलग नाम हैं। धन कहो, समाधि का नाम है।
आज जिस फकीर की चर्चा हम शुरू करते हैं उसका नाम है, धनी धरमदास। कबीर के शिष्य थे धनी धरमदास। बहुत बड़े धनी थे। बहुत धन कमाया, बहुत पद-प्रतिष्ठा थी। कबीर के पास जब भी आते थे तो कभी कबीर उन्हें कुछ और नहीं, धरमदास कह कर ही पुकारते थे। फिर एक दिन फूल खिला। भीतर की आत्मा जगी। गुरु की चोट काम आई। और धरमदास ने सारा धन लुटा दिया। उस दिन कबीर ने उन्हें कहाः ‘धनी धरमदास! अब तू धनी हुआ! अब तेरी आंख भीतर मुड़ी! अब तेरी खोज बाहर नहीं है! अब बाहर पर तेरी पकड़ गई!’
धन भी भीतर है, पद भी भीतर है क्योंकि परमात्मा भीतर है। उससे बड़ा और क्या पद होगा? इसलिए तो उसे परमपद कहा है।
समाधि भीतर है। और समाधि ही सारे प्रश्नों का, समस्याओं का समाधान है। इसीलिए तो उसे समाधि कहा है--जहां समाधान हो जाए। सब मिल जाता है उत्तर मिल जाने पर। जैसे पानी खिल जाता है कमल खिल जाने पर। कमल के खिलते ही कमल ही नहीं खिलता; उसके आस-पास का सरोवर भी खिल जाता है। जब तुम्हारे भीतर उत्तर का जन्म होता है तो तुम्हारी आत्मा ही नहीं खिलती, तुम्हारी देह भी खिल जाती है। तुम्हारा केंद्र ही नहीं खिलता, तुम्हारी परिधि भी खिल जाती है।
सब मिल जाता है उत्तर मिल जाने पर। जैसे पानी खिल जाता है कमल खिल जाने पर। तब तुम हुए धनी।
एक ही खोज है कि मैं कौन हूं? और एक ही उपद्रव है कि बाहर सस्ते उत्तर मिल जाते हैं। मुफ्त मिल जाते हैं। बिना कुछ दांव पर लगाए मिल जाते हैं। यह महत उत्तर बिना दांव पर लगाए नहीं मिल सकता।
कल एक युवा संन्यासी ने मुझे आकर कहा--आनंद कबीर ने; विचारशील युवक हैं। कुलीन घर से आते हैं। उनके दादा ख्यातिनाम हैं। उनके दादा के सैकड़ों शिष्य हैं। पुष्ठिमार्ग के अनुयायी हैं। संन्यास ने खलबली पैदा कर दी है। दादा चैरासी वर्ष के हैं और एक विशेष संप्रदाय के विशेष व्यक्ति हैं। वे कबीर को समझाते हैं कि मैं मर जाऊं फिर तू संन्यास ले लेना। फिर तुझे जो करना हो करना, मेरे जीते-जी मत कर। मेरी प्रतिष्ठा को चोट लगती है। कबीर ने आकर कल मुझे कहा कि मैं क्या करूं? बड़ी अड़चन हो गई है। मैंने उनसे कहा कि चैरासी वर्ष तक किसी मार्ग पर चलने के बाद भी अगर व्यक्ति को प्रतिष्ठा का मोह नहीं मिटा है तो कुछ भी नहीं मिला। जाकर अपने दादा को समझाना कि तुम भी संन्यस्त हो जाओ।
प्रतिष्ठा, नाम, यश। प्रतिष्ठा तो दूसरे देते हैं। दूसरों से दी गई प्रतिष्ठा कोई प्रतिष्ठा है? ज्ञानियों ने आत्म-प्रतिष्ठा को प्रतिष्ठा कहा है। जो अपने में ठहर गया उसको प्रतिष्ठित कहा है। जो अब डांवाडोल नहीं होता उसको प्रतिष्ठित कहा है। जिसको अब हवा के झोंके हिलाते नहीं, जो निस्पंद हुआ है, तरंग-शून्य हुआ है। आएं अंधड़, आएं तूफान, लेकिन उसके भीतर लहर नहीं उठती। और फिर जो व्यक्ति जान चुका है वह दूसरे को स्वतंत्रता देगा। ज्ञान का अनिवार्य परिणाम है स्वतंत्रता। वह दूसरे का सम्मान करेगा।
लेकिन बाहर के उत्तर सस्ते हैं। आदमी उनको पकड़े-पकड़े मर जाता है। उनसे कुछ हल नहीं होता। सारी उलझन वैसी की वैसी बनी रहती है। आत्मवंचना है बाहर के उत्तर। सावधान रहना बाहर के उत्तरों से।
धनी धरमदास की भी ऐसी ही अवस्था थी। धन था, पद थी, प्रतिष्ठा थी। पंडित-पुरोहित घर में पूजा करते थे। अपना मंदिर था। और खूब तीर्थयात्रा करते थे। शास्त्र का वाचन चलता था, सुविधा थी बहुत, सत्संग करते थे। लेकिन जब तक कबीर से मिलन न हुआ तब तक जीवन नीरस था। जब तक कबीर से मिलना न हुआ तब तक जीवन में फूल न खिला था। कबीर को देखते ही अड़चन शुरू हुई, कबीर को देखते ही चिंता पैदा हुई, कबीर को देखते ही दिखाई पड़ा कि मैं तो खाली का खाली रह गया हूं। ये सब पूजा-पाठ, ये सब यज्ञ-हवन, ये पंडित और पुरोहित किसी काम नहीं आए हैं। मेरी सारी अर्चनाएं पानी में चली गई हैं। मुझे मिला क्या? कबीर को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या? मिले हुए को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या?
इसलिए तो लोग जिसे मिल गया है उसके पास जाने से डरते हैं। क्योंकि उसके पास जाकर कहीं अपनी दीनता और दरिद्रता दिखाई न पड़ जाए। लोग उनके पास जाते हैं जो तुम जैसे ही दरिद्र हैं। उनके पास जाने से तुम्हें कोई अड़चन नहीं होती, चिंता नहीं होती, संताप नहीं होता।
अब तुम थोड़ा समझना, आमतौर से लोग साधु-संतों के पास संतोष पाने जाते हैं, संताप पाने नहीं। लोग कहते हैं संतुष्ट नहीं हैं हम इसलिए तो जाते हैं। सांत्वना चाहिए। संताप तो वैसे ही बहुत है। लेकिन मैं तुमसे कहूं कि सच्चे साधु के पास जाकर तुम पहली दफा संताप से भरोगे। पहली दफा तुम्हारी जिंदगी में असली चिंता का जन्म होगा। पहली दफा बवंडर उठेगा। पहली दफा आंख खुलेगी कि अब तक जो किया, वह व्यर्थ है। और जो सार्थक है वह तो अभी शुरू भी नहीं हुआ। स्वभावतः प्राण कंप जाएंगे, छाती हिल जाएगी। फिर छाती चाहिए आगे बढ़ने को। लेकिन फिर पीछे भी नहीं लौटा जा सकता है। एक बार किसी ज्ञानी से आंख मिल जाए तो फिर पीछे भी लौटा नहीं जा सकता। इसलिए लोग ज्ञानियों से आंख चुराते हैं, आंख बचाते हैं। जिनके पास कुछ भी नहीं है उनके चरण छूने में कोई अड़चन नहीं है। ज्ञानियों के पास लोग सम्हल-सम्हल कर जाते हैं। उनसे लगाव लगाना खतरे का सौदा है।
जिस साधु के पास जाकर तुम्हें सांत्वना मिलती हो समझ लेना, वह साधु ही नहीं है। साधु सांत्वना देने को थोड़े ही होते हैं! सांत्वना से तो तुम जैसे हो वैसे के वैसे रहोगे; मलहम-पट्टी हो गई। दर्द था थोड़ा, वह भी भूल गया। घाव था, उसे भी छिपा दिया। चिंताएं थीं, उनको भी हल कर दिया। कम से कम ऐसा अहसास दिला दिया कि हल हो गईं चिंताएं। असली साधु के पास तुम्हारी चिंताएं पहली दफा उमगती हैं। पहली दफा फूट पड़ता है तुम्हारा सारे भीतर का सांत्वना का बना-बनाया संसार, सब बिखर जाता है। तुम पहली दफा अपने को खंडहर की भांति देखते हो। तुम्हारे हाथ में जो धन है वह कचरा; तुम्हारे पास जो ज्ञान है वह कचरा; तुम्हारे पास जो चरित्र है वह दो कौड़ी का। तुम्हारा आचरण, तुम्हारी प्रतिष्ठा, तुम्हारा यश किसी मूल्य का नहीं है। स्वभावतः आदमी घबड़ा जाएगा। लेकिन उसी घबड़ाहट से क्रांति की शुरुआत होती है।
साधु के पास सांत्वना नहीं मिलती, संक्रांति मिलती है। और क्रांति हो जाए तो एक दिन सांत्वना आती है। लेकिन वह सांत्वना नहीं है फिर, वह परम संतोष है; वह परितोष है। वह किसी के दिए नहीं आता, वह तुम्हारे भीतर जब कमल खिल जाता है तो सब खिल जाता है। वह ऊपर से आरोपित नहीं होता।
धनी धरमदास खोजते थे। तीर्थ जाते, साधु-सत्संग करते। खूब सांत्वना बटोरते थे। फिर मथुरा में सौभाग्य से--उस दिन तो दुर्भाग्य ही लगा था--कबीर से मिलना हो गया। कबीर ने तो झंझावात की तरह सब झकझोर दिया। मूर्ति मूढ़ता मालूम होने लगी। सगुण की उपासना अज्ञान मालूम होने लगा। वे पूजा-पाठ, वे यज्ञ-हवन, सब अंधविश्वास थे। कबीर की चोट तो ऐसी पड़ी कि धरमदास तिलमिला गए। मथुरा छोड़ कर भाग गए। अपने घर चले गए वापस। बांधवगड़ में उनका घर था।
लेकिन कबीर जैसे व्यक्ति की चोट पड़ जाए तो तुम भाग नहीं सकते। कहीं भागो, कबीर तुम्हारा पीछा करेंगे। कहीं जाओ, तुम्हारे सपनों में छाया आएगी। आदमी, आदमी जैसा होना चाहिए वैसा पहली दफा देखा था, भूलो भी तो कैसे भूलो! बड़ी बेचैनी हो गई। प्रार्थना फिर भी करते लेकिन प्रार्थना में रस जाता रहा, उत्साह जाता रहा। मंदिर में थाली भी सजाते, पूजा भी उतारते लेकिन हाथों में प्राण न रहे। शास्त्र भी सुनते, लेकिन अब दिखाई पड़ने लगा कि सब कूड़ा-करकट है। दूसरों के उत्तर अपने उत्तर नहीं हैं; नहीं हो सकते हैं।
कबीर ने ऐसी चोट मारी कि नींद लेना मुश्किल हो गया। उदास रहने लगे, चिंता से भरे रहने लगे। और फिर यह भी चिंता पकड़ी कि एक ज्ञानी के पास से भाग आया। कमजोर हूं, कायर हूं। फिर कबीर की तलाश में जाना ही पड़ा। काशी में जाकर कबीर से मिले। कबीर से मिलने की घटना उन्होंने अपनी किताब ‘अमर सुखनिधान’ में गाई है। वह घटना बड़ी प्यारी है। वे वचन धनी धरमदास के समझने जैसे हैं।
धरमदास हरसित मन कीन्हा
बहुर पुरुस मोहि दरसन दीन्हा
जिसको देखा था मथुरा में फिर वही पुरुष का दर्शन हुआ। फिर वही ज्योति, फिर वही आनंद, फिर वही नृत्य।
धरमदास हरसित मन कीन्हा
मथुरा से तो लौट गए थे बहुत चिंता लेकर, उद्विग्न होकर।
यहां रोज यह घटता है। कभी कोई आ जाता है भूला-चूका तो उद्विग्न हो जाता है, परेशान हो जाता है। बस जो परेशान हो गया वह आज नहीं कल हर्षित भी हो सकता है। जो यहां से उद्विग्न होकर लौटा, वह आज नहीं कल आएगा। आना ही पड़ेगा। क्योंकि यहां से जो बीमार होकर लौटा उसका इलाज फिर कहीं और नहीं हो सकता।
जाना ही पड़ा कबीर के पास। कहाः ‘धरमदास हरसित मन कीन्हा।’ लेकिन इस बार कबीर को देख कर बड़ा हर्ष हुआ। क्या हो गया? वह जो चार-छह महीने भगोड़ेपन में बिताए कबीर से, उन चार-छह महीनों ने सारी धूल झाड़ दी। कबीर ने जो कहा था उसका सत्य दिखाई पड़ा। उसका स्वयं साक्षात्कार हुआ। आधी यात्रा पूरी हो गई।
व्यर्थ व्यर्थ की तरह दिखाई पड़ जाए तो सार्थक को सार्थक की तरह देखना सुगम हो जाता है। व्यर्थ को जब तक हम सार्थक मानते हैं तब तक सार्थक को देखें तो अड़चन होती है। झूठ को सच माना है, सच सामने खड़ा हो जाए तो बेचैनी होती है, क्योंकि जिसे तुमने सच माना था वह झूठ होने लगता है। इतने दिन उसमें लगाए, इतना धन-मन, समय लगाया। तुम्हारा न्यस्त स्वार्थ हो जाता है उसमें। अगर कोई व्यक्ति तीस साल तक एक बात को पकड़े रहा, फिर अचानक कोई और बात सुनाई पड़े जो तीस साल को गलत करती हो, तो बड़ी हिम्मत चाहिए कि मेरे तीस साल व्यर्थ गए इसे स्वीकार कर लूं। आदमी का मन होता है, मेरे और तीस साल व्यर्थ गए? मैं इतना मूढ़ हूं क्या? आदमी रक्षा करता है, बचाने की कोशिश करता है।
इन चार-छह महीनों में धरमदास ने अपने को बचाने की सब तरह कोशिश की। लेकिन कबीर का टेंडपा ऐसा है कि पड़ जाए तो सिर खुल गया था। चोट भारी थी। सब दिखाई पड़ने लगा। जो कबीर ने मथुरा में कहा था, वह दिखाई पड़ने लगा कि मूर्ति पत्थर है, किसकी पूजा कर रहे हो? ये पंडित-पुजारी, जिनकी तुम सुन रहे हो, खुद दो कौड़ी के नौकर हैं। इन्हें खुद भी कुछ पता नहीं है। ये दूसरों के कान फूंक रहे हैं, इनके कान अभी परमात्मा ने खुद नहीं फूंके हैं। ये दूसरों को मार्ग दे रहे हैं, इन्हें खुद मार्ग मिला नहीं है। इनके हृदय में अभी फूल खिला नहीं। इनके पास खुद भी सुगंध नहीं। ये सत्य बांटने चल पड़े हैं और सत्य की इन्हें कोई भी खबर नहीं है। यह छह महीने तक जो-जो कबीर ने कहा था, एक-एक बात सही मालूम पड़ी। आधी बात तो पूरी हो गई। अब कबीर की बात सुन कर चोट लगने का कोई कारण नहीं था, अब तो हर्षित होने की बात थी।
धरमदास हरसित मन कीन्हा
बहुर पुरुस मोहि दरसन दीन्हा
एक दिन जिससे भाग गए थे भयभीत होकर, आज उसके पास वापस लौटे हैं और इसलिए आनंदित हैं कि कबीर ने उन्हें पुनः दर्शन दिया। कबीर ने फिर वही झलक दी। कबीर ने वही झरोखा फिर खोला।
मन अपने तब कीन्ह बिचारा
इनकर ज्ञान महाटकसारा
इस आदमी के पास कुछ है। असली सिक्के हैं। टकसाल से निकले सिक्के हैं। मैं झूठे नकली सिक्कों में पड़ा रहा हूं।
इनकर ज्ञान महाटकसारा
दोई दिन के करता कहाई
इनकर भेद कोऊ नहीं पाई
आज पहली दफा प्रेम से भर कर, हर्ष से भर कर कबीर को देखा। पहली बार तो झिझक से देखा होगा, डरते-डरते देखा होगा, अपने को दूर-दूर रखा होगा, बीच में फासला रखा होगा, दीवाल रखी होगी। अपनी धारणाएं, अपने पक्षपात, अपना विचार, अपना सिद्धांत, उन सबकी दीवाल स्वभावतः रही होगी। उसके पार से कबीर को देखा था। आज सब हटा कर देखा। छह महीने में वे सब दीवालें अपने आप हट गईं।
गुरु मिल जाए, उसकी भनक भी पड़ जाए कान में तो फिर मिथ्या गुरु की पकड़ ज्यादा देर नहीं चल सकती। थोड़ी-बहुत देर तुम अपने को धोखा दे लो, दे लो।
इनकर भेद कोऊ नहीं पाई
आज पहली दफा आंख भर कर देखा। असीम था सामने। इस छोटी सी देह में जैसे द्वार था असीम का; जैसे अगम का मार्ग खुलता था।
इतना कह मन कीन्ह बिचारा
तब कबीर उन ओर निहारा
पहले कबीर ने जो बातें कही थीं, कह दी थीं। लेकिन गुरु निहार कर तो शिष्य की तरफ तभी देखता है, जब शिष्य हर्ष से प्रमुदित होकर गुरु के पास बैठता है।
जुन्नैद ने कहा है कि मैं अपने गुरु के पास था। तीन साल तक तो उन्होंने मेरी तरफ देखा ही नहीं। बैठा रहता उनके पास मगर वे मेरी तरफ न देखते। और लोग आते, और बातें होतीं, मैं बैठा रहता, बैठा रहता। तीन साल बाद उन्होंने मेरी तरफ निहारा। मैं धन्यभाग हो गया। फिर तीन साल तक ऐसे ही बैठा रहा, बैठा रहा। फिर तीन साल के बाद, उन्होंने मेरी तरफ देख कर मुस्कुराया। फिर और तीन साल बीत गए बैठे-बैठे। फिर एक दिन उन्होंने मुझे छुआ, मेरे कंधे पर हाथ रखा। और तीन साल बीत गए तब उन्होंने अपने गले से मुझे लगाया, आलिंगन किया। बारह साल गुरु के पास बैठे-बैठे आलिंगन की घड़ी आती है।
तब कबीर उन और निहारा
गुरु देखता ही तब है...इस बात को समझना। गुरु के देखने से मेरा मतलब यह नहीं है कि कबीर पहली दफा जब धरमदास को देखे तो आंख बंद रखे होंगे। कि कबीर को नहीं देखा, कि कबीर को दिखाई नहीं पड़े होंगे धरमदास। देखा था, बस यह ऊपर की आंख से देखा था। एक और आंख है गुरु की, उस आंख से तो कोई तभी देखा जाता है जब कोई तैयार हो जाता है। वह आंख तो तुम्हारे भीतर तभी उतर सकती है जब हर्ष तुम्हारे भीतर द्वार खोल दे। तुम्हारे भीतर चिंताएं खड़ी हैं, बेचैनियां खड़ी हैं, फिकरें खड़ी हैं, सही-गलत का हिसाब खड़ा है, संदेह खड़े हैं, अश्रद्धा खड़ी है, अनास्था खड़ी है, तो गुरु अपनी वह आंख खराब नहीं करता। उस आंख की अभी तुम्हें जरूरत नहीं है। उस आंख की जब जरूरत होती है तभी वह आंख तुममें डाली जाती है। वही आंख वास्तविक दीक्षा है। वही है गुरु के साथ जुड़ जाना। उसी आंख एक की झलक, और जोड़ बन जाता है। फिर जोड़ नहीं टूटते।
इतना कह मन कीन्ह बिचारा
इस हर्ष का विचार ही उठा था, यह आनंद का भाव ही उठा था,
तब कबीर उन ओर निहारा
आओ धरमदास पगु धारो
कबीर ने कहा धरमदास को--
आओ धरमदास पगु धारो
चिंहुक-चिंहुक तुम काहे निहारो
ऐसे दूर-दूर से, चिंहुक-चिंहुक! ऐसे डरते-डरते, ऐसे भयभीत...!
आओ धरमदास पगु धारो
कबीर ने कहा, अब रखो पग। यह खुला मार्ग। मैं हूं मार्ग, रखो पग।
आओ धरमदास पगु धारो
अब दूर खड़े रहने से न चलेगा। पहली दफा तो कबीर ने खंडन किया था कि मूर्ति गलत, कि पूजा गलत, कि प्रार्थना गलत, कि शास्त्र गलत। पहली दफे तो सारे आकार और सगुण की धारणा का खंडन ही खंडन किया था। इस बार निमंत्रण दिया।
आओ धरमदास पगु धारो
चिंहुक-चिंहुक तुम काहे निहारो
अब दूर रहने की कोई जरूरत नहीं। अब दूर-दूर से देखने की कोई जरूरत नहीं। आ जाओ पास, निकट आ जाओ। इस निकट आ जाने का नाम सत्संग है। और धन्यभागी हैं वे जिन्हें गुरु बुला ले और कहे--
आओ धरमदास पगु धारो
चिंहुक-चिंहुक तुम कहो निहारो
कहिए छिमा कुसल हो नीके
कबीर कह रहे हैं धरमदास से,
कहिए छिमा कुसल हो नीके?
सब ठीक-ठाक है?
सुरत तुम्हार बहुत हम झींके
कितने-कितने समय से तुम्हारी सूरत की याद कर रहे थे।
सुरत तुम्हार बहुत हम झींके
यह मत सोचना कि शिष्य ही गुरु को खोजता है। गुरु शिष्य से ज्यादा खोजता है। शिष्य की खोज तो अंधी है, अंधेरी है। शिष्य को तो पता नहीं ठीक-ठीक क्या खोज रहा है। गुरु को पता है। इजिप्त के पुराने शास्त्र कहते हैं, जब शिष्य तैयार होता है तो गुरु उसे खोज लेता है। शिष्य तो कैसे खोजेगा? शिष्य तो कैसे पहचानेगा कौन गुरु है? गुरु से मिलन भी हो जाएगा तो भी प्रत्यभिज्ञा नहीं होगी। गुरु सामने भी खड़ा होगा तो भरोसा नहीं आएगा। हजार बाधाएं पड़ेंगी, हजार चिंताएं अड़चन डालेंगी। हजार संदेह उठेंगे। मैं भी इस बात से राजी हूं कि पहला कदम गुरु उठाता है, शिष्य नहीं। पहला निमंत्रण गुरु देता है।
आओ धरमदास पगु धारो
चिंहुक-चिंहुक तुम काहे निहारो
कहिए छिमा कुसल हो नीके?
सुरत तुम्हार बहुत हम झींके
मथुरा में देखा था धरमदास को। तब धरमदास तो नहीं पहचान सका था अपने गुरु को लेकिन गुरु अपने शिष्य को पहचान लिया था। देखा होगा बीज धरमदास का। देखी होगी संभावना इसके वृक्ष बन जाने की, किसी दिन आकाश में फूल खिल जाने की। देखी होगी इसकी अनंत संभावना। गुरु उसी दिन चुन लिया था। धरमदास को तो उस दिन पता भी नहीं था। धरमदास को तो कुछ पता हो भी नहीं सकता था।
सुरत तुम्हार बहुत हम झींके
धरमदास हम तुमको चीन्हा
कबीर कहते हैं कि हमने तुम्हें पहचाना।
बहुत दिनन में दरसन दीन्हा
इतनी देर लगाई और हम राह देखते और राह देखते।
बहुत ज्ञान कहसीं हम तुमहीं
बहुर के तुम अब चीन्हों हमहीं
हम तो तुम्हें चीन्ह लिए, अब तुम हमें चीन्हो। हम तो तुम्हें पहचान लिए, अब तुम हमें पहचानो। गुरु पहले पहचानता है तभी शिष्य के पहचानने की संभावना प्रगाढ़ होती है। गुरु पहले चुनता है, तब शिष्य चुनता है।
भली भई दरसन मिले बहुरि मिले तुम आए
जो कोऊ मोंसे मिले सो जुग बिछुरि न जाए
कबीर कहते हैं, अच्छा हुआ, भली भई दरसन मिले! आ गए तुम। ये बड़े सम्मान से कहे गए वचन हैं। सदगुरु के मन में शिष्य के प्रति बड़ा सम्मान होता है। और जिस गुरु के मन में शिष्य के प्रति सम्मान न हो वह गुरु ही नहीं; उसे पता ही नहीं। क्योंकि शिष्य और गुरु में भेद क्या है? भेद शिष्य की तरफ से होगा, गुरु की तरफ से कुछ नहीं हो सकता। गुरु तो जानता है, जो मेरे भीतर विराजमान है वही शिष्य के भीतर विराजमान है। मेरे भीतर जाग गया, शिष्य के भीतर सोया है। लेकिन सोने-जागने से क्या फर्क पड़ता है? स्वभाव तो एक है।
शिष्य को भेद पता चलता है कि मैं कहां, गुरु कहां! मैं अंधेरा-भरा, गुरु रोशन! मुझे कुछ मिला नहीं, गुरु को सब मिला! लेकिन गुरु को तो यह दिखाई पड़ता है न, कि जैसा मुझे मिला वैसा ही तुझे अभी मिल सकता है, इसी वक्त मिल सकता है। तेरी अपनी संपदा है। कहीं मांगने नहीं जाना। कहीं खोजने नहीं जाना। अभी परदा उठा, अभी भीतर झांक और अभी पा ले। क्षण भर की भी देर करने की जरूरत नहीं है। इसलिए गुरु के मन में शिष्य के प्रति उतना ही सम्मान होता है, जितना शिष्य का गुरु के प्रति होता है।
भली भई दरसन मिले बहुरी मिले तुम आए
फिर से तुम आ गए! मैं राह देखता, मैं प्रतीक्षा करता था।
जो कोऊ मोंसे मिले...
और जो मुझसे मिल जाता है--
...सो जुग बिछुरि न जाए।
फिर बिछुड़ना संभव नहीं है। अब तुम आ गए तो आओ ही मत, मिल ही जाओ ताकि फिर बिछुड़ना न हो सके।
और ऐसा ही हुआ। धरमदास फिर न लौटे। लौट कर नहीं देखा। कायर ही लौट कर देखते हैं। हिम्मतवर आदमी आगे देखता है, पीछे नहीं देखता। वहीं से सब लुटवा दिया। घर भी लौट कर नहीं गए। लुटाने को भी नहीं गए। अब उसके लिए भी क्या जाना! वहीं से खबर भेज दी कि सब बांट दो। जो है सब बांट-बूंट दो। जिनको जरूरत है, ले जाएं। सारे गांव को कह दो जिसको जो ले जाना है ले जाए। लौट कर भी नहीं गए। असल में लौट कर भी जाते तो थोड़ी चूक हो जाती। देने के मजे में भी तो अहंकार भरता है। इतना लुटा रहा हूं, इतना दे रहा हूं, यह मजा लेने भी चले गए होते तो थोड़ा अहंकार घना होता। धन का मूल्य तो फिर भी स्वीकार कर लिया होता कि धन बड़ी कीमती चीज है, जाऊं, लुटाऊं, बांट आऊं। धन का कोई मूल्य ही न रहा। इधर कबीर से आंख क्या मिली, सब मिल गया। वहीं से खबर भेज दी। अपने आदमी भेज दिए होंगे जो साथ आए थे कि भाई जाओ, मैं तो गया। तुम जाओ, जो है, सब बांट-बूंट दो। जैसा है निपटा-सिपटा दो। मेरा अब आना न हो सकेगा।
जब कबीर कहते हैंः सो जुग बिछुरि न जाए! जो मुझसे आ मिला फिर कभी बिछुड़ता नहीं, तो अब इतना भी बिछोह न सहूंगा। फिर धरमदास कबीर की छाया होकर रहे। कबीर के समाधि-उपलब्ध शिष्यों में एक थे धरमदास। और जिस दिन धरमदास ने सब लुटवा दिया, उस दिन से कबीर ने उनको कहा धनी धरमदास।
एक धन है जो बाहर का है। जिससे कोई आदमी धनी नहीं होता, सिर्फ भिखारी बनता है। और एक धन है भीतर का, जिससे आदमी वस्तुतः धनी होता है। धन की परिभाषा क्या है? धन की परिभाषा है जो बांटने से बढ़े। जो बांटने से घट जाए वह धन नहीं। यह भीतर का धन ऐसा है, जितना बांटो उतना बढ़ता है। इसलिए कबीर ने उनको धनी कहा। अब अटूट धन मिल गया, अखूट धन मिल गया। धनों का धन मिल गया।
शिष्य और गुरु का जहां मिलन होता है वहीं परमात्मा प्रकट होता है। उस मिलन की घड़ी में ही परमात्मा प्रकट होता है। तुमने देखा? एक प्रेमी और प्रेयसी मिलते हैं, एक प्रेमी और प्रेयसी के मिलने पर संभोग का क्षणिक सुख पैदा होता है, जहां शिष्य और गुरु मिलते हैं, वह भी प्रेमी और प्रेयसी का मिलना है--किसी बहुत दूसरे आयाम में, तब वहां समाधि फलित होती है। प्रेमी और प्रेयसी मिलते हैं तो जीवन का आविर्भाव होता है, एक बच्चे का जन्म होता है। जहां शिष्य और गुरु मिलते हैं, वहां ईश्वर का आविर्भाव होता है, वहां जीवन के मूल का आविर्भाव होता है।
सब लुटा कर धरमदास धनी हुए। इनके वचन अपूर्व हैं। उन्हीं के वचनों की यात्रा हम आज शुरू करते हैं।
गुरु मिले अगम के बासी।
अगम का अर्थ होता है, जहां बुद्धि की गति न हो। जहां तक बुद्धि की गति है वहां तक तो गुरु की जरूरत भी नहीं है, वहां तक तो तुम्हारी बुद्धि ही गुरु है। जहां बुद्धि हारती, थकती, ठहर जाती, ठिठक जाती, जहां से आगे चलने से बुद्धि इनकार कर देती, वहीं से गुरु की जरूरत है। इसलिए बुद्धिमान आदमी अक्सर गुरु से वंचित रह जाते हैं। उन्हें यह भ्रांति होती है कि उनकी बुद्धि सदा उनके काम आती रहेगी। उन्हें यह भ्रांति होती है कि जहां तक बुद्धि ले जाती है बस वहीं तक यात्रा है। उसके आगे कुछ है ही नहीं। जो आदमी कहता है, ईश्वर नहीं है, वह क्या कह रहा है? वह यह कह रहा है कि मेरी बुद्धि के बाहर है। और जो मेरी बुद्धि के बाहर है वह हो कैसे सकता है? मेरी बुद्धि के भीतर जो है, वही है। मेरी बुद्धि कसौटी है अस्तित्व की।
यह बड़ी मूढ़तापूर्ण बात है। बुद्धि कसौटी नहीं है अस्तित्व की। जीवन में तुम ऐसी बहुत सी बातों को जानते हो जो बुद्धि के बाहर हैं--जैसे प्रेम। तुम्हारा किसी स्त्री से प्रेम हो गया, किसी पुरुष से प्रेम हो गया। बुद्धि के भीतर इसमें कुछ भी नहीं है। बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी जब प्रेम में पड़ता है तो वैसे ही प्रेम में पड़ता है जैसे मूढ़ से मूढ़ आदमी पड़ता है। कुछ भेद नहीं होता। बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी वैसा ही पगला जाता है प्रेम में, जैसा बुद्धू पगला जाता है। इसलिए तो प्रेम को बुद्धिमान अंधा कहते हैं। समझदार प्रेम को नासमझी कहते हैं। लेकिन प्रेम है, इसे तो इनकार न कर सकोगे। बुद्धि के बाहर है, फिर भी है। बुद्धि की पकड़ में नहीं आता, फिर भी है। बुद्धि परिभाषा नहीं कर सकती कि क्या है, फिर भी है। ऐसी ही प्रार्थना है, ऐसा ही परमात्मा है। वे प्रेम के ही और-और ऊंचे रूप हैं। वहां बुद्धि की कोई गति नहीं है। इसलिए उन लोगों को अगम कहा है।
जिस व्यक्ति को यह अनुभव शुरू हो जाता है कि मेरी बुद्धि जहां तक ले जाती है वहां अस्तित्व समाप्त नहीं होता, अस्तित्व आगे भी फैला है, आगे भी गया है, तब गुरु की जरूरत अहसास होती है। तो किसी ऐसे का हाथ पकडूं जो आगे गया हो। बुद्धि जहां तक ले आई, ठीक। मैं बुद्धि का दुश्मन नहीं हूं। बुद्धि जहां तक ले जाए वहां तक बुद्धि के साथ जाना। लेकिन जहां बुद्धि कहे कि बस अब मेरी सीमा आ गई, वहीं मत रुक जाना; उसके आगे बहुत कुछ है। असली उसके आगे है। मूल्यवान उसके आगे है। परम उसके आगे है।
गुरु मिले अगम के बासी।
जब तुम्हें कोई अगम का वासी मिल जाए, जो उस अगम में रहता हो जो बुद्धि के आगे है, तभी समझना कि गुरु मिला। और ऐसा नहीं है कि गुरु सदा जो बातें कहता है वह बुद्धि के विपरीत होती हैं। बुद्धि के अतीत होती हैं, विपरीत होना आवश्यक नहीं है। अतीत होने के कारण विपरीत मालूम हो सकती हैं।
कबीर की बातें तो बुद्धि के विपरीत नहीं हैं। कबीर तो बड़े बौद्धिक व्यक्ति हैं। इस पृथ्वी पर थोड़े से ऐसे बौद्धिक संत हुए हैं जिसके पास तर्क का बड़ा प्रांजल रूप है। कबीर तो एकदम बौद्धिक हैं। जो बुद्धि में न आए, जो बुद्धि में न समाए, ऐसी बात वे कहते नहीं। लेकिन वहीं समाप्त नहीं हो जाते। जहां तक बुद्धि ले जाती है वहां तक तुम्हें बुद्धि के साथ ले जाते हैं, जहां बुद्धि समाप्त हो जाती है वहां वे कहते हैं, अब छलांग लो; अब बुद्धि-अतीत में कूदो। जो बुद्धि-अतीत है वह बुद्धि के विपरीत नहीं है सिर्फ अतीत है, आगे है।
बुद्धि की सीमा है, अस्तित्व असीम है। बुद्धि छोटी सी है। एक छोटी सी खोपड़ी, कितना इसमें समाता है; जितना समाता है वह भी चमत्कार है। इतना समझ में आ जाता है वह भी चमत्कार है। जिस व्यक्ति की वाणी में तुम्हें और जिस व्यक्ति के व्यक्तित्व में तुम्हें कुछ पार की बात की झलक मिलती हो उसका साथ पकड़ लेना। उसके पास कुछ राज है। उससे सीख ही लेना राज।
गुरु मिले अगम के बासी।।
उनके चरणकमल चित दीजै सतगुरु मिले अविनासी।
यहां तो सभी मरणधर्मा हैं। उस अर्थ में तो कबीर भी मरणधर्मा हैं। लेकिन जब शिष्य भाव से भर कर झुकता है, गुरु की आंख में आंख डाल कर देखता है, झांकता है; जब मौन और शांति में गुरु को सुनता है, समझता है तो उसे दिखाई पड़ता है कि शरीर तो मरणधर्मा है लेकिन भीतर अमृत का वास है। जिसके भीतर तुम्हें अमृत का वास दिखाई पड़ जाए वही तुम्हारा गुरु।
तुम किसी भांति अपने गुरु चुनते हो? तुम जैन घर में पैदा हुए इसलिए जैन मुनि तुम्हारा गुरु? न तुम्हें अमृत की झलक मिलती है, न तुम्हें अगम का कुछ पता चलता है, लेकिन संस्कारवश जो तुम्हें सिखाया गया है कि ऐसा होना चाहिए, वैसा तुम्हारा मुनि कर रहा है। रात भोजन नहीं करना, तो वह रात भोजन नहीं करता है। बस गुरु हो गए! पानी छान कर पीना, वह पानी छान कर पीता है, गुरु हो गए! कसौटियां क्या हैं तुम्हारी? किस क्षुद्र सी कसौटियों के आधार पर तुम गुरु खोज रहे हो! ब्राह्मण घर में पैदा हुए तो ब्राह्मण गुरु हो गया, मुसलमान घर में पैदा हुए तो मुसलमान गुरु हो गया। इतना आसान है गुरु को खोजना?
अगम का वासी होना चाहिए। फिर हिंदू हो कि मुसलमान कि ईसाई, क्या फर्क पड़ता है! फिर ब्राह्मण हो कि शूद्र, क्या फर्क पड़ता है! अमृत का धनी होना चाहिए। जिसके पास तुम्हें अमृत की झनकार सुनाई पड़ती हो, जिसकी आंखों में झांक कर तुम्हें लगता हो कि कुछ शाश्वत है। और पहले-पहले तो सिर्फ लगेगा ही। सिर्फ प्रतीति होगी, हलकी-हलकी झलक होगी। उसी झलक के सहारे आगे बढ़ोगे तो धीरे-धीरे प्रगाढ़ हो जाएगी अनुभूति।
उनके चरणकमल चित दीजै...
गुरु के चरणों को कमल कहा है शास्त्रों ने। क्यों? जिसके मस्तिष्क का कमल खिल गया है, जिसका सहस्रार खिल गया है...सात चक्र योगी कहते हैं। मूलाधार पहलाः जहां से काम-ऊर्जा उठती है, जहां से वासना उठती है। अधिकतर लोग वहीं जीते हैं, वहीं मर जाते हैं। और अंतिम चक्र है सहस्रार। जब काम-ऊर्जा उठते-उठते अपनी आखिरी मंजिल पर पहुंच जाती है और तुम्हारे भीतर काम-ऊर्जा का कमल खिलता है। कमल प्रतीकात्मक है। जैसे कीचड़ से कमल खिलता है, ऐसे ही काम-ऊर्जा कीचड़ जैसी है। इसी कीचड़ से उठती है कोई रहस्यमय शक्ति और तुम्हारे पूरे चैतन्य पर कमल की तरह खिल जाती है। हजार पंखुड़िया ेंवाला कमल कहा है उसे। हजार सिर्फ सूचक है। जिनकी पंखुड़ियों की गिनती न हो सके, यह उसका अर्थ है। असीम का कमल खिलता है। अगम का कमल खिलता है।
जिसकी चेतना में अगम का कमल खिल गया है, उसके चरण भी पकड़ लो तो भी धन्यभागी हो। क्यों? क्योंकि जिसका अंतिम खिल गया है उसका प्रथम भी कमल खिल जाता है। इसे थोड़ा समझना। तुम वही होते हो जो तुम्हारे चैतन्य में घटता है। अगर तुम्हारी चेतना में कामवासना ही घूमती रहती है तो तुम्हारे सिर को भी कोई छुए तो भी कामवासना को ही छुएगा। तुम्हारा सिर भी अपवित्र है। तुम्हारे सिर में भी अश्लील विचार घूमते रहेंगे। तुम्हारा सिर भी छूने योग्य नहीं है। जिसकी चेतना में राम का कमल खिल जाए, प्रेम का कमल खिल जाए, परमात्मा का उदय हो, प्रकाश पैदा हो, जो जाग गया हो उसके पैर में भी वही जागृति है। क्योंकि हम इकट्ठे हैं। जो होता है वह हमारे पूरे व्यक्तित्व पर फैल जाता है। उसके पैर से भी तुम्हें परमात्मा की ही भनक सुनाई पड़ेगी।
एक बात--कि तुम अखंड हो। काम में होते हो तो तुम पूरे के पूरे काम होते हो। और राम में होते हो तो तुम पूरे के पूरे राम होते हो, इस बात की सूचना।
और दूसरी बात--कि शिष्य तो चरण में ही झुक सकता है क्योंकि अभी लेना है। जिसे लेना है उसे झुकना चाहिए। क्योंकि झुकने में ही लेना घट सकता है। जितने तुम झुकोगे उतने ही ज्यादा तुम भर जाओगे। स्वीकार करना है, ग्रहण करना है, तो झुकना होगा।
उनके चरणकमल चित दीजै सतगुरु मिले अविनासी।
उनकी सीत प्रसादी लीजै...
और गुरु की झूठन मिल जाए गिरी पड़ी, तो प्रसाद है।
उनकी सीत प्रसादी लीजै छुटि जाए चैरासी।
सीत प्रसादी का अर्थ होता है, गुरु का झूठा भी मिल जाए तो भी अमृत है। अमृत को जिसने छुआ वह अमृत हो गया।
ये प्रतीक हैं। ये बड़े प्यारे प्रतीक हैं। और ये इस देश में ही सिर्फ पैदा हुए क्योंकि इस देश ने ही इन ऊंचाइयों पर उड़ान भरी है। पश्चिम से कोई आता है, उसकी समझ में नहीं आता कि किसी के चरणों में क्यों झुका जाए। क्यों? उसे पता ही नहीं है कि चरणों में झुकने की एक कला है। सिर्फ झुक-झुक कर कुछ चीजें हैं, जो पाई जाती हैं।
कुछ चीजें लड़ कर पाई जाती हैं। धन है, पद है, प्रतिष्ठा है, इनमें लड़ना पड़ता है। इनमें झुकोगे तो नहीं मिलेगा। इनमें जूझना पड़ता है। इनमें संकल्प की जरूरत है। इनमें अहंकार की जरूरत है। आक्रमण की जरूरत है, हिंसा की जरूरत है। अब तुम ऐसे झुके-झुके रहोगे तो बाजार में पिट जाओगे। बाजार में तो लड़ने वाला चाहिए, जूझने वाला चाहिए। चाहे पास एक कौड़ी न हो, लेकिन अकड़ कर ऐसा चले कि लाखों बैंक में जमा हैं। उससे काम चलता है। चाहे भीतर कुछ भी न हो, लेकिन बाहर किसी को खबर नहीं होना चाहिए। बाहर तो दीवाली रहे, चाहे भीतर दिवाला हो। कोई फिकर नहीं। क्योंकि दुनिया बाहर के देखे चलती है।
बैंक उसको लोन देती है जिसको लोन की जरूरत नहीं है। जिसको जरूरत हो उसको नहीं देती। दुनिया बड़ी अजीब है। बैंक का यह नियम है कि जिसको जरूरत नहीं है, बैंक का मैनेजर उसकी तलाश करता आता है कि भाई कुछ ले लो। जिसको जरूरत है वह बैंक के मैनेजर की तलाश करता है। उसको कुछ नहीं मिलता। जिसको जरूरत हो उसको कौन देता है? तो जो होशियार है वह अपने को दीन नहीं बताता बाजार में। बाजार में दीन बताया कि गए, काम से गए! फिर न टिक सकोगे। वहां तो अपनी अकड़ कायम रखनी जरूरी है। वहां तो किसी को कानोंकान खबर न लगे कि तुम्हारी हालत खराब है। वहां तो कुछ भी न हो तुम्हारे पास तो भी दिखाना चाहिए। टेलीफोन न भी हो आफिस में तो ऐसे ही चोर बाजार से टेलीफोन उठा कर लाकर रख लेना। कनेक्शन की उतनी जरूरत नहीं है, मगर लोगों को दिखाई पड़ता रहे कि टेलीफोन है। लाखों से नीचे की बात मत करना। चाहे कौड़ियां न हो घर में, लेकिन बात लाखों की करना। लोग सुनें कि लाखों की बात चलती है। बाजार अहंकार पर खड़ा है।
एक और दूसरी दुनिया है जहां यही बातें बाधाएं हो जाती हैं। गुरु के पास जाकर अगर अपने ज्ञान की अकड़ बताओगे तो चूक जाओगे। क्योंकि गुरु तुम जो दिखाते हो वह नहीं देखता, तुम जो हो वह देखता है। उसकी आंखों से तुम बच न सकोगे। उसकी आंखें पारदर्शी हैं। उसकी आंखें एक्सरे हैं। वह तुम्हारे भीतर देख रहा है। वह देख रहा है कि वहां कुछ भी नहीं है, तुम दीन-हीन हो। उसे तुम्हारा दिवाला दिखाई पड़ रहा है।
ये तुम जो दीये हाथ में सजा कर आ गए हो ये उधार दीये हैं। ये दूसरों से तेल मांग लिया और दूसरों की बाती और रोशनी भी किसी और की। ये सब दीये गुरु को धोखा न दे सकेंगे। वहां तो गिर पड़ना। वहां तो घोषणा कर देना कि मैं दीन हूं। तुम्हारी दीनता की घोषणा ही तुम्हारे धनी होने का सबूत होगी। तुम गड्ढे की तरह गुरु के पास जाना ताकि गुरु तुम्हें भर दे। तुम इस अकड़ में मत जाना कि मैं भरा हुआ हूं। नहीं तो भरने की कोई जरूरत ही नहीं है। तो गुरु के पास जो अकड़ कर जाता है वह चूक जाता है। वहां जो दीन होकर जाता है, दरिद्र होकर जाता है, वहां जो भिखारी होकर जाता है, जो कहता है मेरे पास कुछ भी नहीं है; कि मैं एक रिक्त अस्तित्व हूं, मुझे भरो; जो झुकता है।
और अगर गुरु के जूठन का हिस्सा भी हाथ लग जाए--उनकी सीत प्रसादी लीजै! वही प्रसाद है। जिसे गुरु के ओंठों ने छू दिया वही प्रसाद है। जो गुरु बोलता है वही प्रसाद है। उसे सम्हाल कर रख लेना, वह संपदा है। कई बार ऐसा भी लगेगा कि अपने किसी काम की नहीं यह बात। आज न हो काम की, कल हो जाएगी काम की, परसों हो जाएगी काम की। गुरु तुम्हें तैयार कर रहा है अंतिम यात्रा के लिए। कब कौन सी चीज काम पड़ जाएगी नहीं कहा जा सकता। गुरु ने कही है तो काम की होगी ही। तुम अपने हिसाब मत रखना कि मुझे जंचे तो सम्हालूं, मुझे न जंचे तो न सम्हालूं। तुम अपना ही हिसाब रखोगे तो चूकोगे। तुम्हारी बुद्धि इन बातों को नहीं समझ पाएगी। गुरु चोट भी करे तो अनुग्रह से स्वीकार कर लेना। चोट भी तुम्हारे हित में होगी। और गुरु के सामने नग्न हो जाना। सब खुला छोड़ देना। कुछ बचाना मत, कुछ छिपाना मत, जूठन भी मिल जाए।
उनकी सीत प्रसादी लीजै...
तो स्वीकार कर लेना। वही तुम्हारा भोजन बन जाए। वही तुम्हारी पुष्टि हो।
...छुटि जाए चैरासी।
फिर तुम्हें बार-बार नहीं आना होगा। जिसने गुरु को पकड़ा उसे फिर बार-बार नहीं आना होगा। उसे यह चक्कर, यह जन्म और मरण की पीड़ा, ये नरकों की यात्रा फिर नहीं करनी होगी। अहंकार करवाता है ये सारी यात्राएं--ये चैरासी कोटि की यात्राएं, ये नरकों का आवागमन अहंकार करवाता है। अहंकार अग्नि है, नरकों में जो जलती है।
तुमने सुना नरक में अग्नि जलती है, उसमें तुम जलाए जाओगे? उस अग्नि को ईंधन कहां से आता है? तुम्हीं ले जाते हो। तुम्हारा अहंकार ही ईंधन बनता है। और सच तो यह है कि नरक थोड़े ही जाना पड़ता है जलने के लिए! अभी तुम जल रहे हो। जब तक अहंकार है तब तक तुम जल रहे हो। जहां अहंकार है वहां जलन है, वहां पीड़ा है, वहां दुख है।
गुरु के चरण पकड़ने का अर्थ है, अहंकार छोड़ा। समर्पण का और क्या अर्थ होता है! इतना ही कि अब मैं नहीं तुम। कोई एक ऐसा व्यक्ति मिल गया जिसके सामने हम कह सकते हैं अब मैं नहीं, तुम। अब मेरे हृदय में तुम विराजो। मैं हटता हूं, मैं सिंहासन खाली करता हूं, तुम आओ।
गुरु के इस सिंहासन पर बिठा लेने का प्रयोजन क्या है? एक ही प्रयोजन है कि इस बहाने अहंकार गिर जाए। गुरु वहां बैठता थोड़े ही है! गुरु तुम्हारे सिंहासन को भरता थोड़े ही है! गुरु तो सिर्फ निमित्त है। वह तो सिर्फ तुम्हारा अहंकार छूट सके इसलिए एक निमित्त है। जैसे ही अहंकार छूट जाता है...गुरु तुम्हारे सिंहासन पर कभी नहीं बैठता। अहंकार छुटाने का उपाय है गुरु। जैसे ही अहंकार छूट जाता है, परमात्मा को तुम अपने सिंहासन पर बैठा हुआ पाओगे। इसलिए तो गुरु को भगवान कहा है। क्योंकि बुलाया था गुरु को, आता भगवान है। गुरु नहीं बैठता। और अगर कोई गुरु तुम्हारे सिंहासन पर बैठ जाए तो फिर चैरासी की यात्रा शुरू हो गई। वह गुरु गुरु ही नहीं था, जो तुम्हारे सिंहासन पर बैठ गया। वह तो सिर्फ एक उपाय था।
बुद्ध ने इस शब्द का उपयोग कियाः उपाय। गुरु के चरणों में सिर झुकाने का मतलब यह नहीं है कि अब वे चरण तुम्हारे हृदय में विराजमान हो गए। उनको विराजमान करने की चेष्टा में अहंकार हट जाएगा। अहंकार के हटते ही परमात्मा प्रविष्ट हो जाता है। कबीर ने कहा नः ‘गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पांव।’ इधर अहंकार गया कि दोनों एक साथ खड़े होते हैं सामने। ‘गुरु गोविंद दोई खड़े। बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय।’ तो गुरु की बलिहारी वही है कि जैसे ही अहंकार हटा, शिष्य के सामने दोनों खड़े होंगे--गुरु और गोविंद।
और गुरु गोविंद की तरफ इशारा कर देगा कि अब उन्हें बैठने दो। मेरा काम पूरा हो गया। मेरा काम औषधि की तरह था। तुम्हारा अहंकार थी बीमारी, मैं था औषधि, यह रहा स्वास्थ्य। गोविंद आकर खड़े हो गए। बीमारी गई, औषधि भी जाने दो। औषधि को क्या करोगे अब? अब परम स्वास्थ्य उतरता है इसे अंगीकार करो। गुरु संसार से छुड़ाता है, और परमात्मा से मिलाता है। कोटि, एक यात्रा चैरासी कोटियों की अचानक समाप्त हो जाती है। एक दूसरी यात्रा शुरू होती है--अनंत की, अगम की।
अमृत बूंद झरै घट भीतर साध संत जन लासी।
और जैसे ही तुम झुकोगे वैसे ही तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर अमृत की बूंद झरने लगी। अकड़े रहे, जहर से भरे रहोगे। अकड़ की गांठ जहर पैदा करती है। इसलिए अहंकार से भरा हुआ आदमी सदा दुखी है।
अमृत बूंद झरै घट भीतर...
जो झुका उसके घट के भीतर अमृत की बूंद झरने लगती है।
...साध संत जन लासी।
यही साधु-संतों का पेय है। यही उनकी लस्सी है। यही उनकी चाशनी है--लासी। वे इसी को पीते, इसी को पी-पी कर मस्त होते हैं। यही उनकी शराब है।
धरमदास बिनवे कर जोरी सार सबद मन बासी।
धरमदास कहते हैं, मैं हाथ जोड़ कर तुमसे प्रार्थना करता हूं, इस ढंग से मैंने पाया, तुम भी पा लो। यह रास्ता था मेरे पहुंचने का, तुम भी पहुंच जाओ।
धरमदास बिनवे कर जोरी सार सबद मन बासी।
सार शब्द को मन में बसाओ। सार शब्द यानी क्या? जिसने जान लिया, जिसने पा लिया, उसकी ध्वनि को अपने भीतर जाने दो। उसके लिए सब द्वार खुले छोड़ दो। उसकी किरणों को बुलाओ, पी जाओ। गुरु को पीओ। गुरु को पचाओ।
...सार सबद मन बासी।
और जैसे-जैसे तुम गुरु को अपने भीतर बसाओगे और उसकी वाणी को अपने भीतर गूंजने दोगे, तुम चकित हो जाओगे। क्या होगा चमत्कार? चमत्कार यह होगा कि गुरु की वाणी जैसे ही तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होनी शुरू होती है निर्बाध, वैसे ही तुम्हारे भीतर जो शब्द सोया पड़ा है जन्मों-जन्मों से वह जाग उठता है।
समझो, तुम सो रहे हो। मैं आया और मैंने तुम्हें पुकारा कि उठो। मेरे उठने-उठाने, मेरे शब्द से तुम्हारे भीतर क्या होता है? जो सोया है वह जग जाता है। ‘उठो’ शब्द थोड़े ही काम में आता है! ‘उठो’ शब्द का तो सिर्फ इतना प्रयोजन था कि तुम्हें चैंका गया। लेकिन उसी चैंकने में नींद टूट गई। तुम्हारे भीतर जागरण खड़ा हो गया। जागरण की क्षमता तुम्हारे भीतर है। जागोगे तुम। गुरु के शब्द तुम्हारे भीतर पड़े सार-शब्द को ध्वनित कर देते हैं। गुरु की मौजूदगी, तुम्हारे भीतर वह जो परमात्मा सोया पड़ा है उसकी तुम्हें स्मृति से भर देती है। गुरु बार-बार तुम्हें तुम्हारे ऊपर फेंकता है। चोटें करता है। पुचकारता भी है, भागने भी नहीं देता। हर चेष्टा करता है कि तुम्हारे भीतर जो चेतना दबी पड़ी है, वह बीज की तरह फूट जाए, अंकुरित हो जाए।
धरमदास बिनवे कर जोरी सार सबद मन बासी।
नामरस ऐसा है भाई।
वह नाम का रस ऐसा है कि अगर पड़ जाए तुम्हारे भीतर तो तुम्हारे भीतर जो राम सोया पड़ा है वह जग जाए।
नामरस ऐसा है भाई।
आगे-आगे दहि चले पाछे हरियल होए।
यह बड़ा प्यारा वचन है। यह कहता है कि अगर तुम इस रस में डूबोगे तो आगे-आगे तो यह जलाता है, और पीछे-पीछे हरा करता है। यह बड़ा अदभुत वचन है। पहले तो सूली पर चढ़ा देता है। और उसी सूली पर चढ़ने में सिंहासन निर्मित होता है। पहले तो मार डालता है और उसी मृत्यु में नये जन्म का आविर्भाव है--आगे-आगे दहि चले!
तो गुरु से घबड़ा कर भाग मत जाना। क्योंकि गुरु पहले तो जलाएगा।
मथुरा में वही हुआ था। कबीर से जब मिलना हुआ धरमदास का--आगे-आगे दहि चले! तो कबीर टूट पड़े धरमदास पर। जैसे अंगारों की वर्षा हो गई। जैसे कहा कि सब पाखंड है तेरी यह पूजा और तेरी यह आराधना, और तेरे यह मंदिर और तेरी मूर्तियां और तेरे शास्त्र, सब पाखंड है। आग बरस गई होगी। जो आदमी जीवन भर से मूर्तिपूजा में तल्लीन रहा हो, जिसने बड़ी आवभगत से मंदिर में प्रतिष्ठा की हो भगवान की। जिसने शास्त्रों को सदा सिर पर रखा हो, सिर झुकाया हो, यह सुन कर एकदम चैंक गया होगा। जल गया होगा। भारी चोट खाई होगी। घाव लग गए होंगे। आगे-आगे दहि चले! छह महीने तक वह जलन रही। वह आग जलाती रही। और फिर जब कबीर को देखा जाकर--
धरमदास हरसित मन कीन्हा
बहुर पुरुष मोहि दरसन दीन्हा
फिर पीछे हर्ष उदय हुआ, आनंद उदय हुआ। फिर सब हरा हो गया। कहते हैं यह अनूठी प्रक्रिया है; पहले जलाती है और सुखा डालती है। और जब तुम बिलकुल सूख जाते हो तब नये पत्ते लगते हैं, नये फूल लगते हैं। पुराने से मुक्त होना ही पड़ता है तभी नये का जन्म होता है। अतीत से छुटकारा चाहिए तभी कुछ हो सकता है। अन्यथा कुछ भी नहीं हो सकता है। तुम इतने अतीत से दबे हो...इसीलिए दबे हो। अतीत को हटा दो। यह राख हटा दो अतीत की तो तुम्हारा अंगारा प्रकट हो जाए।
बलिहारी वा बृच्छ की जड़ काटे फल होए।
मथुरा में मिल कर तो लगा होगा कि कबीर ने जड़ें काट दीं। धर्म की जड़ें काट दीं। यही तो मेरे पास जो पहली दफे आता है उसको लगता है कि धर्म की जड़ें काट दीं। यह तो धर्म का विनाश हो गया।
बलिहारी वा बृच्छ की जड़ काटे फल होए।
पहले तो सोचा था कि जड़ें काट दीं। और अब देखते हैं धरमदास, तो फल लगे हैं; जड़ काट कर फल लगे हैं! यही जीवन का सार सूत्र है। यहां भी जीवन का वृक्ष ऐसा ही है। इसमें जो जीवन के मूल को, जड़ को काट देता है--जीवेषणा। जीवेषणा मूल है, जीवन की जड़ है। जीने की इच्छा--कि जीऊं, और जीऊं, सदा जीऊं, कभी मरूं न। मैं रहूं, और रहूं, और रहूं यह जीवन की जो मूल आकांक्षा है यही जड़ है। इसी जड़ के कारण तुम मरते हो, और मरते हो, और मरते हो। चाहते हो जीओ, चाह के कारण मरते हो। बार-बार मरते हो। पुनः-पुनः मरते हो। जिसने इस जड़ को काट दिया, जीवेषणा को काट दिया, फिर नहीं मरता। फिर अमृत हो जाता है।
बात जरा उलटबांसी है, उलटा लगता है। मगर जीवन के बहुत से सत्य ऐसे ही हैं, विरोधाभासी हैं। धन के पीछे दौड़ो और तुम निर्धन बने रहते हो। और धन की तरफ पीठ कर लो, धनी धरमदास! तुम धनी हो गए। सम्मान के पीछे दौड़ो और सम्मान नहीं मिलता, उलटे अपमान मिलता है। उपेक्षा से भर जाओ। और अचानक तुम पाते हो, सम्मान आने लगा। जीवन बड़ा बेबूझ है। ‘बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चून’। बड़ा अजीब है जीवन का शास्त्र। यहां जिनके पास सब कुछ है, तुम पाओगे उनके पास कुछ भी नहीं। और कभी ऐसा आदमी मिल जाएगा जिसके पास कुछ नहीं है और सब है। यहां भिखारियों में सम्राट मिल जाते हैं और सम्राटों में भिखारी।
यहां जीवन के परम अनुभव को कौन उपलब्ध हुए? जिन्होंने जीवन की आकांक्षा छोड़ दी--कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कबीर, कोई नानक। जिन्होंने जीवन की आकांक्षा छोड़ दी, ये परम जीवन को उपलब्ध हुए। इनके व्यक्तित्व में जैसा जीवन खिला वैसा सिकंदर या तैमूरलंग या नादिरशाह के व्यक्तित्व में थोड़े ही खिलता है! बुद्ध में जो फूल खिलता है वह एडोल्फ हिटलर में थोड़े ही खिलता है? और मजा यह है कि एडोल्फ हिटलर जीना चाहता है, सदा जीना चाहता है। और बुद्ध, इसी क्षण मौत आती हो तो इसी क्षण मरने को तैयार हैं। एक क्षण नहीं टालेंगे। जब मौत आ जाए तब राजी। ये जो मौत के लिए इस भांति राजी हैं इनकी आंखों से अमृत झलकता है। और जो मरने से भयभीत हैं, वे जीते भी क्या खाक जीते हैं! वे रोज मरते हैं, मरते हैं। कहते हैं न, कायर हजार बार मरता है! दिन में हजार बार मरता है। जरा-जरा सी बात उसे मौत की खबर ले आती है।
बलिहारी वा बृच्छ की जड़ काटे फल होए।
जीवन का जो वृक्ष है उसकी जड़ है आसक्ति, जीवेषणा। उसके काट जाने पर मुक्ति का फल लगता है।
अति कडुवा खट्टा घना रे वाको रस है भाई।
लेकिन अपने अनुभव से धरमदास कहते हैं कि अति कडुवा खट्टा घना...। क्योंकि पहले जब चखा था तो बहुत कडुवा था। मथुरा में जब चखा था तो बहुत कडुवा था।
अति कडुवा खट्टा घना रे वाको रस है भाई।
सदगुरु जब मिलेगा तो खयाल रखना, पहले तो कडुवा ही लगेगा। जो पहले से मीठा लगे उससे बचना। क्योंकि वह जो पहले से मीठा लग रहा है वह असली फल नहीं है। वह तो मीठा लग रहा है इसीलिए कि तुम्हें फांस लेना चाहता है। उसकी मिठास तुम्हें फांसने के लिए जाल है। उसकी मिठास तो निर्मित है। असली फल तो कडुवा होगा।
ज्ञानी की बात कडुवी लगती है। क्योंकि ज्ञानी कि बात तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन खींच लेती है। तुम भले-चंगे चले जा रहे थे और ज्ञानी तुम्हें उलझन में डाल देता है। सब ठीक-ठाक चलता था और मुश्किल खड़ी हो जाती है। पछताते हो कि कहां सुन ली यह बात! किस दुर्भाग्य के क्षण में इस आदमी के पास पहुंच गए। अच्छा होता न गए होते। यह क्या सत्संग हुआ कि दिन और रात का चैन भी गया। अपने चले जाते थे मस्जिद, पढ़ लेते थे कुरान, हो आते थे मंदिर कभी, चढ़ा देते थे दो पैसे, सब ठीक-ठाक चल रहा था। यह संसार भी ठीक चल रहा था, उस लोक को भी सम्हाल रह थे, दे देते थे ब्राह्मण को भोजन, कि कन्या-भोज करवा देते थे कि सत्यनारायण की कथा करवा देते थे। सस्ता था धर्म, सुविधापूर्ण था।
यह क्या बात सुन ली कि सत्यनारायण की कथा से कुछ भी न होगा; कि ब्राह्मण को भोज देने से कुछ भी न होगा कि ब्राह्मण तो ब्राह्मण है ही नहीं। किसी ब्रह्म के जानने वाले को खोजो, तब ब्राह्मण मिला। ब्राह्मण के घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। अब कहां खोजो ब्राह्मण को? अब कहां खोजो ब्रह्मज्ञानी को? तुम्हारे पैर के नीचे से जमीन खिसकेगी, तो कडुवा तो लगेगा।
यहां रोज यह घट जाता है। मेरे पास लोग आकर कहते हैं कि हम आए तो सांत्वना के लिए थे, हमारी जो और बची-खुची सांत्वनाएं थीं वे भी टूट गईं। हम तो सोचते थे कि सब ठीक ही चल रहा है, इसी दिशा में थोड़े और आगे चले जाएंगे तो सब ठीक हो जाएगा। लेकिन सब हमारी आधारशिलाएं उखड़ गईं। आपने हमारी बुनियाद हिला दी। अब हम निशिं्चत न हो सकेंगे। अब हम मंदिर में जाएंगे भी, तो घबड़ाहट लगेगी। लगेगी कि मैं यह क्या कर रहा हूं? इसमें कुछ सार नहीं। उत्साह नहीं होगा। जो हमारा धर्म था वह तो आपने नष्ट कर दिया। और आपका धर्म पता नहीं कितने दूर है, कैसा है, हमें मिल सकेगा कि नहीं मिल सकेगा?
अति कडुवा खट्टा घना रे वाको रस है भाई।
साधत-साधत साध गए हैं अमली होए सो खाई।।
लेकिन अगर कोई साधता रहे, साधता रहे, साधता रहे, साधते-साधते सध जाता है। और बड़ा अमृत है।
...अमली होय सो खाई।।
जिसमें साहस हो और परमात्मा को खोजने का अपूर्व अनुराग हो, जो सत्य को खोजने के लिए हर कीमत चुकाने को राजी हो, अमली हो, वही उस फल को खा सकता। जो कहे सत्य को खोजने के लिए अगर सब गंवाना पड़ेगा तो राजी हूं, कुछ बचाऊंगा नहीं। वही उस फल को चख पाएगा।
और उसकी पहली मुलाकात, फल की बड़ी कडुवी है। कडुवी क्यों है? सत्य का फल कडुवा क्यों है? इसे थोड़ा समझो। सत्य का फल वस्तुतः कडुवा नहीं है तुम असत्य के फल को बहुत दिन तक अयास किए हो। वह तुम्हें मीठा लगने लगा है। अयास से चीजें मीठी हो जाती हैं। तुमने कभी पहली दफा शराब पी है? जब पहली दफा शराब पीओगे तो बड़ी तिक्त मालूम पड़ती है। कडुवी मालूम पड़ती है। तुम्हें भरोसा ही नहीं आएगा कि आखिर लोग शराब किसलिए पीते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन शराब पीता। उसकी पत्नी, जैसी सभी पत्नियां शराबियों को समझाती रहती हैं, उनका काम ही यही है। पतियों का काम शराब पीओ, पत्नियों का काम समझाते रहो, ऐसे दोनों की जिंदगी खराब होती है। पत्नी समझाते-समझाते थक गई। एक दिन उसे एक बात सूझी। उसने कहा कि बहुत हो गया। अब और कोई उपाय नहीं है। मुल्ला शराब घर गया था, वह भी पीछे-पीछे पहुंच गई।
वहां मुल्ला पी रहा था मजे से बैठ कर अपने पियक्कड़ों के बीच। वह भी जाकर टेबल पर, कुर्सी पर बैठ गई। मुल्ला बहुत घबड़ाया, कि यह तो कभी आई नहीं थी शराबघर। और यह भला भी नहीं लगता, कि घर में रहने वाली स्त्री, बुर्का पहनने वाली स्त्री और बुर्का उघाड़ कर शराब घर आ गई। और उसने कहा, आज मैं भी पीऊंगी। वह सिर्फ चोट करने के खयाल से उसने कहा था। अब मुल्ला कुछ कह भी न सका। उसकी पत्नी ने तो बोतल से उंड़ेल ही ली गिलास में। पत्नी ने कभी शराब तो पी ही नहीं थी। न उसे सोडा मिलाने का पता था। कि ऐसी खालिस शराब नहीं पी जाती, नहीं तो जल जाओगे बुरी तरह। वह तो पानी ही पीती रही थी और तो उसने पीना कुछ जाना नहीं था। गटागट पी गई। फिर बड़ा मुंह बिगाड़ा, उसने कहा कि यह तो जहर है। मुल्ला ने कहाः और तू समझती थी हम यहां मजा कर रहे हैं? अब तुझे पता चला कि यह मजा नहीं है। यह बड़ी कठिन चीज है।
शराब पहली दफा पीयोगे तो कडुवी लगेगी। लेकिन पीते ही रहे तो शराब भी मधुर मालूम होने लगेगी।
असत्य को जन्मों-जन्मों तक पचाया है। असत्य कडुवा है, जहर है, लेकिन जन्मों-जन्मों का अयास--रुचिकर हो गया है। और जिसको असत्य मीठा लगने लगे उसे सत्य कडुवा लगेगा ही। क्योंकि असत्य से सत्य बिलकुल उलटा है। इसलिए शुरू-शुरू में सत्य कडुवा लगता है। इसलिए कबीर कठोर मालूम होते हैं। इसलिए सदगुरु तीर की तरह चुभ जाता है। तुम्हारी गलत आदतों का परिणाम है, और कुछ भी नहीं।
सिगरेट पहली दफा पीओ तो खांसी आती है, आंख में आंसू आ जाते हैं। फिर पीते ही रहो तो खांसी भी बंद हो जाती है, आंख में आंसू भी आने बंद हो जाते हैं, फिर तो बिना पीए नहीं चलता। अयस्त हो गए। जहर का भी अयास हो सकता है। तब जहर में भी माधुर्य मालूम होने लगेगा।
और अगर जन्मों-जन्मों तक अयास चला हो तो जब सत्य तुम्हारे कान में पहली दफे पड़ेगा, तो तुम्हें बिलकुल भी रुचिकर नहीं मालूम होगा। दुर्गंध का अयास हो गया है, सुगंध समझ में नहीं आती। शोरगुल का अयास हो गया है, शांति काटती है। शब्द का बहुत अयास हो गया है, मौन डराता है। भीड़-भाड़ की आदत हो गई है, अकेले नहीं बैठा रहा जाता। भीड़-भाड़ चाहिए। चाहिए ही भीड़-भाड़।
अति कडुवा खट्टा घना रे वाको रस है भाई।
साधत-साधत साध गए हैं अमली होए सो खाई।।
लेकिन अगर कोई साधता रहे, साधता रहे, तो जब जहर भी मीठा हो जाता है साधते-साधते तो अमृत तो मीठा है ही। साधते-साधते हो जाएगा। साधने का इतना ही अर्थ है कि साधते-साधते जहर की आदत छूट जाएगी। और जहर मीठा है यह भ्रांति साफ हो जाएगी। यह भ्रांति मिट जाएगी। उसी दिन अमृत का स्वाद पहली बार मिलेगा। वही स्वाद मुक्ति है।
सूंघत के बौरा भये हो पियत के मरि जाई।
प्यारे वचन हैं। धनी कहते हैंः ‘सूंघत के बौरा भये हो।’ कि जो उसे सूंघ लेता है, उस सत्य के रस को, वह बावला हो जाता है, पागल हो जाता है। क्योंकि जिसको तुमने अभी समझदारी समझी है वह समझदारी नहीं है। तुम जिसे अभी समझदारी कहते हो वह एक तरह का पागलपन है।
क्या है तुम्हारी समझदारी? धन इकट्ठा कर लो और मर जाओ। और धन में से कुछ ले जा न सकोगे। अब यह बड़े मजे की बात है, एक आदमी जिंदगी भर वह इकट्ठा करता है जिसमें से कुछ ले जा न सकेगा। इसको तुम समझदार कहते हो? यह कैसी समझदारी हुई? ऐसी चीज इकट्ठी की, जो ले जा न सकेगा। और इसको इकट्ठा करने में न कभी चैन से सोया, न कभी चैन से बैठा। जिंदगी खराब हुई और बाद में सब पड़ा रह गया। इसको तुम समझदारी कहते हो? यह समझदारी तो नहीं हो सकती। मगर इसी को लोग समझदारी मानते हैं।
इसलिए जब पहली दफा धरमदास ने धन लुटवा दिया होगा तो लोगों ने कहा, पागल हुआ। स्वभावतः उन सबने मिल कर कहा होगा--बाजार के लोगों ने कि गया। भला-चंगा था, भजन-पूजन, कीर्तन करता था, सब ठीक-ठाक चल रहा था, यह कबीर की झंझट में पड़ गया। यह मालूम होता है कबीर से सम्मोहित हो गया। यह पागल हो गया। लोगों ने कहा होगा हम तो पहले ही से जानते थे। लोग सदा यही कहते हैं कि हम तो पहले से ही जानते थे। हमने कहा नहीं था पहले ही कि यह आदमी झंझट में पड़ेगा! यह जाता तीर्थाटन करता, और मेला जाता, और मंदिर जाता, और गलत आदमियों का साथ जोड़ता, उसको सत्संग कहता था। अब फंसा! अब हुआ बरबाद। अब अपने हाथ से अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली।
तो सांसारिक लोग तो इसे पागल कहेंगे ही। बुद्ध को उन्होंने बुद्धू कहा था; उसी से तो बुद्धू शब्द पैदा हुआ। महावीर को कोई सम्मान नहीं दिया था, पागल कहा था, पत्थर मारे थे। जीसस को सूली पर लटकाया। सुकरात को जहर पिलाया। इतने पागल कि तुम उन्हें बरदाश्त ही न कर सके। अब जीसस किसी का कुछ न बिगाड़ रहे थे। इन्हें सूली देने की क्या जरूरत थी? लेकिन जिन्होंने सूली दी उनके पीछे कारण है। जीसस किसी का कुछ न बिगाड़ रहे थे लेकिन लोगों को यह लगने लगा, इस आदमी के साथ कई लोग पागल हुए जा रहे हैं।
सुकरात को जब जहर दिया गया तो अदालत ने उससे यह कहा था कि तुम्हें हम मौका देते हैं। तुम आदमी अच्छे हो, तुमने कोई ऐसा प्रकट नुकसान किसी का कभी किया नहीं है। तुम एथेंस छोड़ कर चले जाओ। यह नगर छोड़ दो, और इसमें दुबारा मत आना। तो हम तुम्हें छोड़ दे सकते हैं। तो तुम्हारी मृत्यु बच सकती है।
सुकरात ने पूछाः क्या फिर मैं कभी नहीं मरूंगा? अदालत ने कहा, यह तो बात फिजूल की कर रहे हो। मरना तो पड़ेगा ही। हम तुम्हें अभी मारने से रोक सकते हैं अपने को, लेकिन मौत तो आएगी ही। तो सुकरात ने कहाः जब मौत आनी ही है तो आज कि कल, क्या फर्क पड़ता है? फिर तुम्हारी दया, और तुम्हारी भिक्षा क्या मांगनी? फिर मौत से बचने के लिए एथेंस छोड़ कर क्या जाना? फिर कायरता क्या करनी? फिर भगोड़ापन क्या करना, फिर आने दो। जब आनी ही है तो दिन दो दिन और ज्यादा जीए, उससे क्या सार है?
अदालत को बड़ी दया थी। क्योंकि आदमी यह प्यारा था। ये आदमी सब प्यारे थे। सुकरात हो, कि मंसूर हो, कि जीसस हो, कि बुद्ध, कि महावीर, ये प्यारे लोग थे। इनसे प्यारे लोग जमीन पर और कहां हुए? लेकिन जमीन पर बसे लोगों को ये बेचैन तो करते थे। इनकी मौजूदगी कांटे की तरह चुभती थी।
अदालत ने कहाः हम दूसरा विकल्प देते हैं, एथेंस में ही रहो, मगर अब तक तुम जो बातें लोगों से करते थे वे बातें करना बंद कर दो। सुकरात ने कहा, यह तो और भी मुश्किल है। क्योंकि जो मुझे मिला है वह मुझे बांटना है। उसके मिलने में ही बांटना आ गया है। वह मुझे बांटना ही पड़ेगा। वह मेरा दायित्व है, परमात्मा के प्रति। नहीं तो मैं वहां गुनहगार हो जाऊंगा। तुम्हारी अदालत में गुनहगार होने से मुझे कोई अड़चन नहीं है। लेकिन उसकी अदालत में मैं गुनहगार नहीं होना चाहता। जो मुझे मिला है, मुझे बांटना पड़ेगा। उसके साथ ही यह शर्त जुड़ी है कि बांटो। तो सत्य बोलना मैं नहीं रोक सकता। वह तो मेरा धंधा है। सत्य तो मैं बोलूंगा, तुम्हें मारना हो तुम मारो।
लेकिन सत्य बोलने वाले लोग इतने हमें बेचैन क्यों करते हैं कि हमें जहर देना पड़ता है? हमारा असत्य डगमगाता है। उनकी मौजूदगी से हमारे भीतर हीनता पैदा होती है। उन्हें देख कर हमें लगता है होना तो ऐसा चाहिए था, और हम हो क्या गए! उनके कारण हमारे अहंकार को कचोट होती है। मिटा दो इन्हें, हटा दो इन्हें, तो हम निशिं्चत हो जाते हैं। हम घोषणा करते हैं कि ये लोग पागल हो गए हैं और इनसे बचो। इनके पास मत जाओ।
बड़ा मजा है। संसारी समझते हैं संन्यासियों को पागल। और संन्यासी समझते हैं कि संसारी पागल हैं। और अगर दोनों में विचार करोगे तो तुम एक दिन पाओगे कि संसारी ही पागल है। क्योंकि संन्यासी वह जोड़ता है जो मौत में भी साथ जाएगा। वह ध्यान इकट्ठा करता है, धन नहीं। ध्यान उसका धन है। वह पद नहीं जोड़ता, प्रेम जोड़ता है। प्रेम उसका पद है। वह इस संसार की व्यर्थ चीजें इकट्ठी नहीं करता, वह सिर्फ परमात्मा को पाने की पात्रता जुटाता है। वह अपने पात्र को खालिस करता है, शुद्ध करता है, परिशुद्ध करता है कि किसी दिन परमात्मा उसमें बरसे तो वह तैयार रहे। वह जीवन में जो महत्वपूर्ण है वही करता है। अब ऐसा ही समझो कि तुम गए समुद्र के तट पर, वहां हीरे भी पड़े थे, और कंकड़-पत्थर भी पड़े थे। तुम कंकड़-पत्थर बीनते रहे, और संन्यासी ने हीरे बीन लिए। हालांकि तुम उसे पागल कहोगे क्योंकि तुम अपने कंकड़-पत्थरों को हीरा समझते हो। और वह तुम्हें पागल कहेगा। क्योंकि वह जानता है, हीरा क्या है।
और एक बात खयाल रखना, संन्यासी संसार का भी अनुभव रखता है, तुम संन्यास का अनुभव नहीं रखते। तुम्हारी बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं हो सकती। उसने दोनों बातें जानी हैं। उसने संसार जाना है और संन्यास जाना है। ऐसा ही समझो कि एक जवान आदमी है, और बूढ़ा आदमी है। हम बूढ़े आदमी की बात का ज्यादा मूल्य क्यों मानते हैं? इसीलिए कि उसने जवानी भी जानी और बुढ़ापा भी जाना। तुमने सिर्फ जवानी जानी है। तुम्हें अभी दूसरे पहलू का कुछ पता नहीं है। इसलिए जवान आदमी की बात का कोई बहुत मूल्य नहीं माना जाता। पहले जवानी को जाने दो। पहले इसका उतार भी देखो। अभी तुमने वसंत ही देखा है, पतझड़ भी देखो। फिर तुम जो कहोगे उसमें ज्यादा संतुलन होगा। ऐसे ही हमने इस देश में ब.ूढे को आदर दिया। क्योंकि बूढ़े का अनुभव जवान से ज्यादा है। जवान को हम आदर देते हैं बच्चे से ज्यादा, क्योंकि बच्चे से जवान का अनुभव ज्यादा है।
और हम संन्यासी को ज्यादा आदर देते हैं संसारी की तुलना में। क्योंकि उसका अनुभव--इस जगत का और उस जगत का, बाहर का और भीतर का।
साधत-साधत साध गए हैं अमली होए सो खाई।
सूंघत के बौरा भये हो...
धनी धरमदास कहते हैं कि सूंघते ही पागल हो जाते हैं लोग। ऐसी बात है यह।
...पियत के मर जाई।
और जो इसको पी लेते हैं वे मर जाते हैं। मगर ध्यान में पागल हो जाना बुद्धिमत्ता की अंतिम ऊंचाई पा लेना है। और ध्यान में मर जाना अमर जीवन की शुरुआत है। सूली ही पुनर्जन्म है।
सूंघत के बौरा भये हो पियत के मर जाई।
इसलिए तो मैं कहता हूं, मैं मृत्यु सिखाता हूं। क्योंकि मृत्यु के द्वारा ही तुम जीवन को जान पाओगे।
नाम रस जो जन पीए धड़ पर सीस न होई।
और जिसने भी नाम का रस पीया, वह अचानक पाता है कि धड़ तो बचा, शीश नदारद हो गया। शीश नदारद हो गया अर्थात अहंकार खो गया। अब अकड़ न रही। सिर तुम्हारी अकड़ है।
नाम रस जो जन पीए धड़ पर सीस न होई।
और इस संबंध में यह भी खयाल रख लेना जरूरी है कि कबीर का एक ध्यान-प्रयोग है, जो वह अपने शिष्यों को कराते थे। वह प्रयोग बड़ा महत्वपूर्ण है। तुम्हारे भी काम का है इसलिए उसे समझ लेना चाहिए। वह अपने शिष्यों को कहते थे, दर्पण के सामने खड़े हो जाओ। दर्पण में अपने सिर को देखो और एक ही भाव अपने भीतर करो कि मेरा कोई सिर नहीं है। मैं सिर नहीं हूं। यह सिर दिखाई पड़ रहा है लेकिन है नहीं, यह भ्रांति है। इस भाव में गहरे उतरो कि सिर भ्रांति है, है नहीं। मेरे सिर है ही नहीं। दो-चार-छह महीने के निरंतर अयास से तुम चकित हो जाओगे। एक दिन दर्पण में तुम देखोगे, सिर दिखाई नहीं पड़ रहा है। घबड़ा भी जाओगे।
अगर तुम्हें भरोसा न हो तो स्वभाव वहां पीछे बैठे हैं, स्वभाव से तुम पूछना। यह प्रयोग मैंने स्वभाव को दिया था। फिर एक दिन बहुत घबड़ाहट आ गई। सिर खो गया! दर्पण के सामने खड़े रहोगे, सिर दिखाई नहीं पड़ेगा तो घबड़ाहट तो आएगी ही कि यह हुआ क्या! हो गए पागल, अब हुए पागल। वह तो स्वभाव के घर के लोग समझते हैं कि गया काम से। पागल हो गया!
लेकिन एक बार तुम्हें समझ में आ जाए, दिखाई पड़ जाए कि सिर है ही नहीं, परम शांति फल जाती है। भीतर सब शांत हो जाता है। फिर अकड़ नहीं होती।
इसलिए तो गुरु के चरणों में सिर रखते हैं कि ले लो मेरा अहंकार; कि मैं थक गया हूं। उतार लो मेरे अहंकार को। यह मेरा सिर रहा। इसलिए सिर गंवाने की हिम्मत हो तो ही कोई संन्यासी होता है।
सूंघत के बौरा भये हो पियत के मर जाई।
नाम रस जो जन पीए धड़ पर सीस न होई।
संत जवारिस सो जन पावै जाको ज्ञान परगासा।
धरमदास पी छकित भये हैं और पीए कोई दासा।।
संत जवारिस सो जन पावै जाको ज्ञान परगासा।
इतने पागल होने की हिम्मत हो, इतना दुस्साहस हो अपना सिर गंवाने का तो ही वह परम औषधि मिलती है। जवारिस का अर्थ होता हैः परम औषधि, समाधि। जिसमें सारी व्याधियां खो जाती हैं; इसलिए उसका नाम औषधि।
संत जवारिस जो जन पावै...
यह उसी को मिलती है जो इस दुनिया की आंखों में पागल होने को तैयार है। यह उसी को मिलती है जो दुनिया की आंखों में शून्य होने को तैयार है। यह उसी को मिलती है जो अपने हाथ से सूली पर चढ़ने को तैयार है। यह उसी को मिलती है जो अपने हाथ से अपने सिर को उतार कर रख देता है।
संत जवारिस सो जन पावै जाको ज्ञान परगासा।
और जब यह समाधि फलती है, यह परम औषधि भीतर उतरती है, यह संजीवनी आती है, तो प्रकाश होता है। वही प्रकाश ज्ञान है। ज्ञान शास्त्र से नहीं आता, उस समाधि के दीये के जलने पर जो प्रकाश भीतर होता है उसका नाम ज्ञान है--जाको ज्ञान परगासा!
ज्ञान जानकारी नहीं है, ज्ञान अनुभव है। तुम्हारा साधारणतः जिसे तुम ज्ञान कहते हो वह तो अंधे के द्वारा प्रकाश के संबंध में सुनी गई बातों जैसा है। या बहरे के द्वारा संगीत के संबंध में पढ़ी गई बातों जैसा है। उसका कोई मूल्य नहीं है। अंधे की आंख खुले--जाको ज्ञान परगासा! तब प्रकाश होता है, तब प्रकाश का अनुभव होता है। और अनुभव से ही जानना है। इसलिए मैंने तुमसे शुरू में कहा, कि एक ही सवाल हैः मैं कौन हूं? और एक ही उत्तर है। मगर उत्तर तुम्हारे भीतर है और तुम बाहर खोजते हो, इसलिए नहीं पाते हो।
धरमदास पी छकित भये हैं...
धरमदास कहते हैं, मैंने पीया। मेरी सुनो। मेरी गुनो। मैं पीया और छक गया। ऐसा भर गया लबालब, भरपूर, कोई कमी न रही, कोई छिद्र न रहे, कोई आकांक्षा न रही। परितृप्त हो गया हूं।
धरमदास पी छकित भये हैं और पीए कोई दासा।
और धरमदास कहते हैं कि मैं तो ऐसा भर गया हूं लबालब, ऊपर से बहा जा रहा हूं। अगर किसी और की हिम्मत हो तो वह भी आए और मुझसे पी ले।
...और पीए कोई दासा।
लेकिन तैयारी चाहिए परमात्मा के दास होने की। वहां मालकियत नहीं चलती। वहां संकल्प नहीं चलता, वहां समर्पण चलता है। वहां झुकने में जीत है, वहां हारने में जीत है। तुमने सुना न, बार-बार लोगों को कहते कि प्रेम की हार जीत है। और परमात्मा के साथ तो परम प्रेम का संबंध है, तो परम हार का संबंध है। वहां तो तुम बिलकुल हार जाओगे, सर्वहारा हो जाओगे, सब हार दोगे वहां। चरणों में पड़ जाओगे बिलकुल सूने होकर; वहीं जीत फलित हो जाएगी।
धरमदास पी छकित भये हैं और पीए कोई दासा।
तुममें भी जो दास होने के लिए तैयार हों उनके लिए निमंत्रण है।
धरमदास के ये वचन तुम्हारे जीवन में क्रांति का कारण बन सकते हैं। इन्हें सुनना जाग कर, हृदयपूर्वक, तन्मय होकर।

आज इतना ही।


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