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शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन--जीवन का नियम

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक युवा संन्यासी किसी आश्रम में मेहमान था। आश्रम के वृद्ध फकीर से उसने आत्मा के संबंध में कुछ बातें पूछीं। लेकिन वह वृद्ध फकीर दिन भर हंसता रहा और कोई जवाब न दिया।
जो भी जानते हैं, उन्हें जवाब देना बहुत मुश्किल है। जो नहीं जानते हैं, उन्हें जवाब देना बहुत ही आसान है।
सांझ हो गई, अंधेरा घिरने लगा, वह युवक खोजी वापस लौटने को हुआ। द्वार पर आया, अमावस की रात है, सूरज ढल गया, अंधेरा घिर गया, जंगल का रास्ता है। सीढ़ियां उतरते समय वृद्ध फकीर से वह कहने लगा, बहुत अंधेरा है, कैसे जाऊं?
उस बूढ़े फकीर ने कहा: जो अंधेरे में नहीं जा सकता, वह जा ही नहीं सकता है। सारे जीवन में ही अंधेरा है, अंधेरे में ही जाना पड़ेगा।
फिर भी वह युवक डरा हुआ मालूम पड़ा, अनजान रास्ता है, जंगल है, भटक जाने का डर है। उसने कहा: कोई दीया न दे सकेंगे?

वह वृद्ध फकीर फिर हंसने लगा। एक दीया जला कर लाया, उस जवान के हाथ में दिया। और जब जवान दीये को लेकर उतरता था सीढ़ियां, तब उस बूढ़े फकीर ने फूंक मार दी और दीया बुझा दिया। और उस युवक को कहा: बाहर के रास्तों पर तो मैं तुम्हें दीया दे दूंगा, लेकिन भीतर के रास्तों पर कौन तुम्हें दीया देगा? और बाहर के रास्तों पर कृत्रिम प्रकाश की व्यवस्था हो सकती है, लेकिन भीतर के रास्ते पर बाहर से प्रकाश का कोई आयोजन संभव नहीं है। और अगर भीतर जाना हो, तो अंधेरे से जाना ही पड़ेगा। जिस आत्मा की तुम बात पूछते थे, अंधेरे से गुजरे बिना कोई उस आत्मा को कभी नहीं पा सका। आत्मा तो प्रकाश है, लेकिन अंधेरे से गुजर जाना जरूरी शर्त है।
असल में जो व्यक्ति चिंता की आखिरी घड़ियों से गुजर जाता है, अशांति के गहरे से गहरे पर्दों को पार कर जाता है, संताप की गहरी से गहरी वृष्टि को झेल लेता है, अंधेरे के गहन से गहन पर्दों में कूद जाता है, उसकी जिंदगी में प्रकाश का उदय सुनिश्चित है।
लेकिन अंधेरे से एक डर है। बाहर के अंधेरे से डर है और इसी कारण धीरे-धीरे भीतर के अंधेरे से भी डर हो गया है। इसीलिए हममें से कोई भी भीतर नहीं जाना चाहता है। कोई भी भीतर नहीं झांकना चाहता है। क्यों डर गए हैं हम अंधेरे से?
शायद कुछ कारण हैं, वह हम समझ लें, तो अंधेरे से निर्भय भी हो सकते हैं। और जो अंधेरे से भयभीत है, वह अंधेरे में ही जीएगा। और जो अंधेरे से निर्भय हो जाता है, वह अंधेरे को पार कर जाता है। असल में भय से बड़ा कोई अंधेरा नहीं है। क्यों हम अंधेरे से भयभीत हैं?
शायद मनुष्य-जाति की बहुत आदिम अनुभूतियां कारण हैं। कोई लाखों वर्ष पहले आदमी के पास प्रकाश का कोई भी साधन नहीं था। लाखों वर्ष पहले आदमी के पास प्रकाश का कोई भी साधन न था। गुफाओं में जीवन था..पहाड़ों में, जंगलों में, खतरे में। रात का अंधेरा बहुत भयभीत करने वाला था, क्योंकि रात ही जानवर आदमी को उठा ले जाते थे। दिन के प्रकाश में तो आदमी जानवरों से रक्षा कर लेता था, रात के अंधेरे में असुरक्षित हो जाता था।
हमारे मन में आदिम वही भय अब तक बैठा हुआ है। भय वही है, परिस्थिति बिल्कुल बदल गई है। और इसीलिए जब पहली बार अग्नि का आविष्कार हुआ और आदमी आग जला सका, तो आग आदमी का पहला देवता बन गया। आग भगवान की पहली मूर्ति बन गई।
अग्नि की आदमी ने पूजा की, हवन किए, अग्नि के मंदिर बनाए। वह सब इस बात की स्वीकृति थी कि अंधेरे से आदमी बहुत पीड़ित हो चुका था। प्रकाश ने बड़ी राहत दी। रात का डर भी कम हो गया। लेकिन भीतर की दुनिया में अब भी अंधेरा है। और बाहर के अंधेरे का भय भीतर के अंधेरे से भी भयभीत किए हुए है।
वहां भी पशुओं का डर है, वहां भी जानवरों का डर है। वे जानवर बाहर के जानवर नहीं हैं, अपने ही भीतर के जानवर हैं। वहां भी उतना ही खतरा है, शायद ज्यादा खतरा है; क्योंकि भीतर क्रोध है, लोभ है, और हजार तरह के खतरे हैं, जो आदमी को डुबा लें, और इसलिए हम भीतर झांकने में डरते हैं।
अगर कभी एकांत में बैठ जाएं और दस मिनट के लिए मन में जो भी चलता हो उसे एक कागज पर लिख लें, तो अपने निकटतम मित्र को बताना भी मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि जो मन में चलता है वह इतना घबड़ाने वाला है, वह इतना डराने वाला है कि हम भी यह स्वीकार नहीं कर सकते कि हमारे काल्पनिक भय ही हमें इतना भयभीत किए हुए हैं। वे जो स्वयं को नहीं जानते, उनका भाग्य अंधेरे में ही घिरा है। वे अंधेरे में ही जीएंगे और मरेंगे। बाहर के अंधेरे ने भीतर के अंधेरे से भी हमें भयभीत कर दिया है। और हम छोटे से बच्चे को भी अंधेरे से भयभीत होने की शिक्षा देते हैं, जो बड़ी खतरनाक है।
अगर मां-बाप समझदार होंगे और आने वाली दुनिया अच्छी होगी, तो हम बच्चों को अंधेरे में जीने का आनंद लेने की शिक्षा देंगे। क्योंकि एक बार अंधेरे से कोई भयभीत हो जाए, तो फिर भीतर उतरना बहुत मुश्किल है; क्योंकि भीतर अंधेरा पार करना ही पड़ेगा। और इतना अंधेरा बाहर है ही नहीं, जितना अंधेरा भीतर है। उतनी रोशनी भी बाहर नहीं हैं, जितनी भीतर मिलेगी। लेकिन अंधेरे से जो गुजरेगा, उसी को मिलेगी। जो भीतर की रात पार करेगा, वह भीतर की सुबह को भी पहुंचेगा। भीतर की रात पार किए बिना, छलांग लगा कर, भीतर के सुबह पर पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। और भगवान की कोई कितनी ही प्रार्थना करे, कितनी ही खुशामद करे और कितनी ही भगवान को रिश्वत देने का वायदा करे कि नारियल चढ़ाएंगे, और यह करेंगे और वह करेंगे।
भीतर के अंधेरे से बचे बिना कोई भी नहीं पहुंच सकता वहां जहां प्रकाश है। अनिवार्य शर्त है, गुजरना ही पड़ेगा। मूल्य है जो चुकाना ही पड़ेगा।
और हम छोटे से बच्चे को अंधेरे से भयभीत कर देते हैं। हम अपना भय छोटे बच्चों के ऊपर हावी कर देते हैं। उनके मन को हम कंडीशन कर देते हैं, वे अंधेरे से भयभीत हो जाते हैं। और अंधेरे से भयभीत आदमी भीतर जाने की कल्पना ही छोड़ देता है। कंडीशनिंग बहुत खतरनाक है। कुछ भी संस्कार मजबूत किया जा सकता है।
पावलफ हुआ रूस में एक मनोवैज्ञानिक। उसने बहुत कंडीशनिंग पर संस्कार पड़ने पर काम किया है, और बड़े अदभुत उदघाटन किए हैं। एक कुत्ते के साथ उसने एक छोटा सा प्रयोग किया।
रोज कुत्ते को भोजन देता है, जब भी रोटी सामने रखता है कुत्ते की जीभ लटकने लगती है, लार टपकने लगती है। वह जब भी उसे खाना देता है, साथ में घंटी भी बजाता है। अब घंटी से लार टपकने का कोई भी संबंध नहीं है। किसी कुत्ते के सामने घंटी बजाएं, लार नहीं टपकेगी। पंद्रह दिन तक खाना दिया जाता है, घंटी बजाई जाती है, साथ ही कुत्ते के मन में रोटी और घंटी जुड़ गई, एसोशियन हो गया है।
पंद्रह दिन बाद रोटी नहीं दी सिर्फ घंटी बजाई है पावलफ ने, और कुत्ते की लार टपकने लगी, जीभ लटक गई। कुत्ते की लार का घंटी से कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन, अगर पंद्रह दिन तक रोटी के साथ घंटी बजाई जाए, तो घंटी से भी लार का संबंध हो जाता है।
मनुष्य के मन को हम किन्हीं भी चीजों से जोड़ दे सकते हैं। आदमी अंधेरे से डर गया है..बाहर के अंधेरे से। और हर मां-बाप अपने बच्चे को बाहर के अंधेरे से डरा रहा है। जैसे उसके मां-बाप ने उसे डराया था, वह अपने बच्चों को डरा रहा है। आने वाले बच्चों को उनके बच्चे डराते रहेंगे। मनुष्यता लाखों वर्ष से अंधेरे के भय को एक-दूसरे को सौंप जाती है।
और जब अंधेरे से कोई भयभीत हो गया, तो फिर यह सवाल नहीं है कि वह अंधेरा बाहर का है, या भीतर का है। अंधेरे का भय, सब अंधेरे का भय बन गया है। फिर भीतर जाने में डर शुरू हो जाएगा। और इसी तरह की और कुछ बातें अंधेरे से जुड़ी हुई हैं। अकेले होने से भी हम डरते हैं।
सच तो यह है अंधेरे में जो डर है वह भी अकेले होने का डर है। अभी यहां रोशनी है, तो यहां कोई भी अकेला नहीं है। सब बाकी लोग हमें दिखाई पड़ रहे हैं। मैं आपको देख रहा हूं, आप मुझे देख रहे हैं।
अभी घुप्प अंधेरा हो जाए, हम सब अकेले हो गए। फिर कोई किसी को नहीं दिखाई पड़ रहा है, सिर्फ एक अपने को छोड़ कर। क्योंकि अपने को देखने की कोई जरूरत नहीं है। अपने को बिना देखे भी हम जानते हैं कि हम हैं, लेकिन दूसरे को बिना देखे हम नहीं जानते हैं कि वह है। दूसरे को बिना देखे हम नहीं जानते हैं कि वह है। दूसरा हमें दिखाई पड़ता है तो ही है। अंधेरे में हम अकेले हो जाते हैं, और बचपन से अकेले होने के संबंध में भी हमें भयभीत किया जा रहा है। छोटे बच्चों को हम अकेला नहीं छोड़ते हैं, अकेला कहीं जाने नहीं देते हैं, सदा कोई साथ है। साथ धीरे-धीरे मजबूत होता चला जाता है।
और जिसे भीतर जाना है उसे अकेला होना पड़ेगा। साथ कोई भीतर नहीं जा सकता। बाहर की यात्रा पर कोई भी साथी हो सकता है..संगी हो सकता है, मित्र हो सकता है..भीतर की यात्रा पर तो कोई संगी नहीं, कोई साथी नहीं। वहां तो असंग, अकेले, अलोन, वहां तो अकेले ही जाना पड़ेगा।
और हमारी बचपन से लेकर मरने तक की सारी व्यवस्था साथ होने की व्यवस्था है। समाज का मतलब है: साथ होना। समाज की पूरी की पूरी व्यवस्था साथ होने की व्यवस्था है।
और धर्म की व्यवस्था है अकेला होना। धर्म और समाज का मेल नहीं है। धर्म और समाज का मेल हो भी नहीं सकता। लेकिन हमने धर्म को भी सामाजिक बना लिया है। हम इतने भयभीत लोग हैं अकेले होने से कि मंदिर में भी हम भीड़ इकट्ठी कर लेते हैं। और जिस मंदिर में जितनी ज्यादा भीड़ इकट्ठी होती है वह मंदिर उतना सच्चा मालूम पड़ता है। क्योंकि भीड़ आराम देती मालूम पड़ती है। इसलिए जिस धर्म ने जितनी भीड़ इकट्ठी कर ली है वह उतना बड़ा धर्म है।
अगर ईसाईयों ने संख्या ज्यादा कर ली, तो वह ज्यादा बड़ा धर्म हो गया। और अगर मुसलमानों ने इकट्ठी कर ली, तो वे बड़े हो गए। अगर हिंदुओं ने इकट्ठी कर ली, तो वे बड़े हो गए।
जिसने जितनी भीड़ इकट्ठी कर ली, वह उतना बड़ा हो गया। जबकि धर्म का संबंध भीड़ से बिल्कुल नहीं है। धर्म का संबंध ही समाज से नहीं है। असल में समाज की सारी व्यवस्था हमें धार्मिक होने से रोक लेती है; क्योंकि समाज का मूल स्वर है सबके साथ। समाज का मतलब है: साथ होना, टू बी विथ। और धर्म का मतलब है: अकेले होना, टू बी अलोन। इन दोनों का क्या मेल है।
लेकिन हम अकेले होने को राजी नहीं हैं। हम अकेले होने को राजी नहीं। हमें बचपन से डराया गया है। शायद जन्मों-जन्मों से हम डरे हुए हैं। अकेले में डर है, कोई अकेला नहीं होना चाहता। इसलिए हम किसी तरह के दल बनाते हैं। सब दल भय पर खड़े हुए हैं। भयभीत आदमी इकट्ठे हो जाते हैं। और ध्यान रहे, अगर एक आदमी भयभीत है, तो दस आदमी, दस गुने ज्यादा भयभीत हो जाते हैं। और कोई फर्क नहीं पड़ता है।
अगर एक आदमी भयभीत है, तो दस आदमी इकट्ठे होने से क्या फर्क पड़ेगा? अगर एक आदमी गरीब है तो दस गरीब आदमी इकट्ठे होने से अमीर नहीं हो जाते। और अगर एक आदमी बीमार है, तो दस बीमार इकट्ठे होने से स्वस्थ नहीं हो जाते। और अगर एक आदमी पागल है, तो दस पागल इकट्ठे होने से ठीक नहीं हो जाते। दस पागल दस गुने पागल हो जाते हैं। एक पागल बहुत कम खतरनाक है, दस गुने पागल बहुत खतरनाक हैं। और दस में जोड़ ही नहीं होता, गुणनफल हो जाता है: दस पागल एक कमरे में इकट्ठे कर दें तो दस पागल नहीं हैं, दस गुणे दस, एक-दूसरे को काटेंगे और क्रास करेंगे।
भयभीत आदमी दल इकट्ठे कर रहा है। भयभीत आदमी संगठन बना रहा है। भयभीत आदमी राष्ट्र बना रहा है, नेशंस बना रहा है। सब भयभीत आदमी की चेष्टाएं हैं। अकेले होने में डर है, इसलिए कोई साथ होना चाहिए। किसका साथ होना चाहिए? कोई भीड़ होनी चाहिए जिसमें मैं खड़ा हो जाऊं और मैं विश्वस्त हो जाऊं कि मैं अकेला नहीं हूं, मेरे साथ और लोग भी हैं। और वे लोग भी मेरी वजह से विश्वस्त हैं कि डर नहीं है साथ कोई है। और सभी इस तरह से विश्वस्त हैं।
हमारे सारे संगठन भय के संगठन हैं। राष्ट्र हो, समाज हो, पार्टियां हों, धर्म हों, संप्रदाय हों, सब भय के संगठन हैं। और भय से धर्म का क्या संबंध हो सकता है? इसलिए धर्म का कोई संगठन नहीं हो सकता। धर्म का कोई अॅार्गनाइजेशन नहीं हो सकता। धर्म तो उन थोड़े से लोगों की बात है, जो अकेले जाने का साहस जुटा सकते हैं, जो बिल्कुल अकेले हो सकते हैं। हम कभी बिल्कुल अकेले नहीं होते। हां, यह हो सकता है कि आप कभी एक कोठे में अकेले बैठे हों, लेकिन फिर भी अकेले नहीं होते।
जापान में एक फकीर था, नानइन। एक आदमी उसके पास आया। वह अपनी पत्नी को छोड़ आया, मित्रों को छोड़ आया। वह संन्यासी होने आ गया। उसने नानइन का दरवाजा खोला। नानइन अकेला बैठा है अपने मंदिर में। वह युवक भीतर आया और उसने कहा कि मैं सब छोड़ कर आ गया हूं। मुझे दीक्षा दे दें। मैं भी उसकी खोज करना चाहता हूं जो प्रकाश है।
उस फकीर ने नीचे से ऊपर तक देखा और कहा: अकेले? अपने साथ की भीड़ बाहर छोड़ कर आओ।
उस युवक ने पीछे लौट कर देखा। उसके साथ कोई भी नहीं है। उसने कहा: आप मजाक तो नहीं करते हैं, मैं बिल्कुल अकेला हूं।
उस फकीर ने कहा: पीछे मत देखो, पड़ोस में मत देखो, आंख बंद करो, भीतर देखो।
उस युवक ने आंख बंद की और भीतर देखा। जिस पत्नी को वह छोड़ आया है, वह खड़ी है। जिन मित्रों को वह छोड़ आया है, वे सब वहां खड़े हैं। वहां भीतर भीड़ पूरी मौजूद है।
उस फकीर ने कहा: जाओ, सारी भीड़ छोड़ आओ। और अगर भीड़ छोड़ सको, तो यहां आने की कोई जरूरत नहीं; क्योंकि मैं भी तुम्हारे लिए भीड़ बन जाऊंगा। भीड़ छोड़ दो और अकेले हो जाओ।
और अकेले होते ही वह क्रांति घट जाती है। जो मनुष्य को वहां ले जाती है जहां हमारे अंतर्तम का निवास, जहां अंतर्यामी का निवास है। लेकिन उस मंदिर में कभी दो नहीं जा सकते। और हम सब साथ जाना चाहते हैं, पूरी भीड़ के साथ।
हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सब धार्मिक हैं। भीड़, भीड़ कभी धार्मिक नहीं होती। भीड़ अनिवार्य रूप से अधार्मिक होती है। और इसीलिए भीड़ जितने अधार्मिक काम करती है अकेले आदमियों ने कभी नहीं किए। भीड़ में अच्छा आदमी भी फौरन बुरा हो जाता है। क्योंकि भीड़ में जुड़ते ही उसकी आत्मा खो जाती है, वह सिर्फ भीड़ का एक हिस्सा होता है। फिर भीड़ जो करती है..आग लगाती है, तो वह भी आग लगाता है।
मैं उन लोगों से मिला हूं जिन्होंने हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे के समय आदमीयत खो दी और जंगली हो गए। जिन्होंने आगें लगाईं, स्त्रियों को चीरा-फाड़ा, छोटे बच्चों को काटा। उन सब लोगों को मिला हूं। उनसे मैंने पूछा कि तुम अकेले यह सब कर सकते हो?
उन्होंने कहा: अकेले? तो हम आज सोचते हैं, तो हमें विश्वास नहीं आता कि हमने यह कभी किया। हम नहीं कर सकते। लेकिन भीड़ के साथ सब हो गया। हम थे ही नहीं, भीड़ थी। भीड़ आग लगा रही थी, हम उसके हिस्से थे।
भीड़ ने जितने पाप किए हैं दुनिया में उतने अकेले आदमियों ने कभी नहीं किए। अकेला आदमी पाप करने में भी डरता है। भीड़ के साथ वह डर भी खत्म हो जाता है। और ध्यान रहे, हम सब, हममें से कोई भी, अकेला होने को राजी नहीं है। तो अंधेरे से प्रकाश की यात्रा भी नहीं हो सकती।
प्लोटिनस हुआ है एक मिस्टिक यूनान में। एक किताब लिखी है। किताब का नाम बहुत अदभुत है। किताब का नाम है: फ्लाइट अॅाफ द अलोन टु द अलोन, अकेले की उड़ान अकेले तक।
शायद सारे धर्म का सार इतना ही है, अकेले की उड़ान, अपने तक!
लेकिन हम सब तो भीड़ में जीने के आदी हैं। भीड़ छोड़ते से डर लगता है। अगर आज पता चल जाए कि मैं हिंदू नहीं हूं, मैं भारतीय नहीं हूं, मैं कोई भी नहीं हूं, मैं निपट आदमी हूं, तो सब प्राण थरथरा जाएंगे। फिर मेरे साथ कोई भी नहीं है। नहीं, मैं हिंदू हूं, मैं मुसलमान हूं, मैं भारतीय हूं, मैं चीनी हूं, पाकिस्तानी हूं। तो इतनी भीड़ मेरे साथ है।
एक जैन संन्यासी को अभी कोई पंद्रह-बीस दिन पहले मिला। मैंने उनसे कहा: संन्यासी हो गए, फिर भी तुम जैन बने हुए हो? अब तो कम से कम जैन होना छोड़ दो। कम से कम संन्यासी को तो जैन, हिंदू, मुसलमान नहीं होना चाहिए। यह तो बहुत ही अभद्र है। बाकी लोग ठीक हैं, घर-गृहस्थी वाले लोग हैं, डरते हैं। अगर आदमी हिंदू नहीं रह जाएगा, लड़की की शादी कहां करेगा? कहां खोजेगा? क्या करेगा, क्या नहीं करेगा? दुख-सुख में कौन साथ होगा? कल मर जाएगा, और अगर हिंदू नहीं है, तो कौन मरघट तक पहुंचाएगा? मुसीबतें। लेकिन संन्यासी को तो कम से कम फिकर छोड़ देनी चाहिए।
उन्होंने कहा: क्या कहते हैं? अगर मैं जैन न रह जाऊं, तो मुझे भी रोटी मिलनी मुश्किल है। कौन मुझे रोटी देगा? कौन मुझे मंदिर में ठहराएगा?
तो फिर संन्यासी भी समाज का एक हिस्सा है, तो फिर संन्यासी भी संन्यासी नहीं है। फिर संन्यासी भी संन्यासी नहीं है। वह भी अकेले होने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।
अकेले होने की हिम्मत, भीतर प्रवेश की अनिवार्य सीढ़ी है। और इसीलिए हम अंधेरे से डरते हैं। अंधेरा अकेला करता है, प्रकाश हमें जोड़ देता है। प्रकाश में सब मालूम पड़ते हैं, सब हैं। और भी कुछ कारण हैं। प्रकाश परिचित मालूम पड़ता है, अंधेरे में कुछ भी अननोन, अपरिचित घट सकता है। कुछ नहीं जानता अंधेरे में क्या हो जाए, हम सजग नहीं हो सकते हैं। अंधेरे में कुछ भी हो सकता है।
प्रकाश में? प्रकाश में हम सजग हो सकते हैं। प्रकाश में हम जानते हैं, क्या हो रहा है? हम परिचित हैं चारों तरफ से। अंधेरे में हम अपरिचित हो जाते हैं। अपरिचित का बड़ा डर है, अपरिचित से बड़ा भय है। परिचित से हम अभय मालूम करते हैं, निर्भय मालूम होते हैं। जानते हैं इस आदमी को, जानते हैं इस मकान को, जानते हैं इस भाषा को। तो लगता है, जिसे हम जानते हैं, उससे भय कम है। क्योंकि उसे हम जानते हैं। अनजाना वह कुछ भी नहीं करेगा, लेकिन अनजान स्थिति हमें घबड़ाने लगती है।
और ध्यान रहे, भीतर जिसे जाना है, उसे अपरिचित में, अननोन में, अज्ञात में, अनजान में जाना ही पड़ेगा। उसे तो अनजान दुनिया की यात्रा करनी ही पड़ेगी। क्योंकि भीतर से हम बिल्कुल परिचित नहीं हैं। चाहे हमने कितने ही जन्मों की यात्रा की हो, हम बाहर से ही परिचित रहे हैं, भीतर से हमारा कोई परिचय नहीं है। अगर आज कोई जोर से आपको पकड़ ले, पूछे, कौन हैं आप? ...नहीं, सच में कोई पता नहीं है कि मैं कौन हूं? हां, कुछ तस्वीरें याद आती हैं, कुछ नाम याद आते हैं, कुछ पदवियां याद आती हैं। उन्हीं को मैंने समझा है कि वही मैं हूं।
लेकिन थोड़ा भीतर जाता हूं तो पता चलता है कि वह सब तो बाहर से चिपकाई गई चीजें हैं, बाहर ही छूट जाती हैं। भीतर तो मैं कोई भी नहीं रह जाता हूं। जो भी मैं जानता हूं, कम से कम वह तो मैं नहीं हूं।
फिर मैं कौन हूं? और अगर कोई अपरिचित से डरता है तो स्वयं से ही डरता रहेगा। क्योंकि स्वयं से ज्यादा अपरिचित इस दुनिया में और कोई भी नहीं है। स्वयं से ज्यादा स्ट्रेंज और स्टेंजर, अजनबी और कोई भी नहीं है। आप अपने लिए अजनबी नहीं हैं। आप अपने को जानते हैं। कितने दिन अपने साथ रहे हैं, लेकिन अपने को कहां जानते हैं? कौन सा परिचय है हमें हमारा? कौन सी पहचान है हमें हमारी? कल अगर हमारे कपड़े उतार लिए जाएं और नाम छीन लिया जाए, तो पहचानना मुश्किल हो जाएगा।
एक आदमी दूसरे महायुद्ध में चोट खा गया, गिर पड़ा। और भूल गया कि मैं कौन हूं। नाम भी भूल गया, गांव भी भूल गया। बड़ी मुश्किल हो गई। युद्ध में कहीं उसका नंबर भी खो गया था, जब उसे लाया गया स्ट्रेचर पर, उसका नंबर भी नहीं था। नंबर होता तो पता चल जाता।
कितनी झूठी है हमारी पहचान कि नंबर से पता चलता है कि कौन है यह आदमी? उसका नंबर भी कहीं गिर गया है। उसके नंबर का भी कोई पता नहीं कि वह कौन है। यह भी तय करना मुश्किल है कि मित्र है कि शत्रु है। वह अपनी तरफ से लड़ता था कि दुश्मन की तरफ से लड़ता था, यह भी कुछ पता नहीं। वह आदमी सब भूल गया।
फिर युद्ध के बाद खोज-बीन शुरू हुई कि उस आदमी को उसके गांव पहंुचाया जाए उसके घर। लेकिन कौन उसके पिता हैं, कौन उसकी पत्नी है? आखिर यही तय हुआ, उसे दस-पांच गांवों में ले जाया जाए और उससे कहा जाए कि वह पहचाने कि यह गांव कुछ पहचान आता है?
एक गांव में ले गए, वह आदमी अजनबी की तरह खड़ा हो गया, कुछ पहचान नहीं आता। उसने कहा कि नहीं, यहां तो मुझे कुछ याद नहीं आता कि मैं कभी आया हूं?
दूसरे गांव ले गए, तीसरे गांव ले गए, दसवें गांव ले गए, पंद्रहवें गांव ले गए, घबड़ा गए। वह आदमी पहचान ही नहीं पाता। फिर यह शक हुआ कि हो सकता है वह अपने गांव को भी भूल गया हो। लेकिन आखिरी में सफलता मिल गई। एक गांव में उसे उतारा और वह भागा, दा.ैडा, गलियों को पार किया। जो साथी आए थे खोजने उसके पीछे दौड़ रहे हैं। एक दरवाजे के सामने जाकर खड़ा हो गया। भीतर चला गया। उसके मित्रों ने कहा: यही है? उसने कहा: यही मेरा घर है।
हम भी बाहर हैं और भूल गए हैं कि कौन हूं मैं? और भीतर न जाएंगे तो वह घड़ी न आएगी कि हम उस घर पर पहुंच जाएं जहां हम कह सकें यही हूं मैं, यही रहा मेरा घर। लेकिन बाहर-बाहर इस घर को बनाते हैं, उसको मिटाते हैं, कोई मेरा घर नहीं है, कोई मेरी पहचान नहीं है और भटकते चले जाते हैं, भटकते चले जाते हैं।
जो जानते हैं वे कहते हैं जन्मों से यह भटकन है। बहुत जन्मों से यह भटकन है। और बहुत जन्मों तक यह भटकन चल सकती है। क्योंकि उसके बुनियादी कारण अगर शेष रह गए, तो चलती ही रहेगी, चलती ही रहेगी। इससे सवाल नहीं उठता कि कितनी बार हमने यात्रा की है एक रास्ते पर। सवाल यह है अगर गलत रास्ते पर यात्रा कर रहे हैं, तो कितनी ही बार यात्रा करें, कहीं पहुंच नहीं सकेंगे। हम बाहर ही यात्रा किए चले जा रहे हैं। बाहर, और बाहर, और बाहर, होते चले जा रहे हैं।
भीतर हम कदम ही नहीं उठाते। लेकिन अपरिचित से हमें डर लगता है। अगर मैं अपरिचित हूं, तो रात मेरे साथ कमरे में ठहरने में बहुत डर लगेगा। तो पहले आप परिचय बना लेना चाहेंगे, आप कौन हैं, क्या नाम है, क्या धर्म है, क्या करते हैं? ट्रेन में भी किसी आदमी के साथ आप अकेले हैं एक डिब्बे में, तो वह जल्दी से बेचैनी जाहिर करेगा, वह पहले परिचित हो जाना चाहेगा कौन हैं आप?
और आप उससे कह दें कि मैं एक हत्यारा हूं, तो फिर वह रात भर नहीं सो पाएगा। या आप कह दें कि मैं एक चोर हूं, तो फिर रात भर नहीं सो पाएगा। या अगर वह ब्राह्मण है और आप कह दें कि मैं शूद्र हूं, तो भी रात भर नहीं सो पाएगा। या अगर वह हिंदू है, आप कह दें, मैं मुसलमान हूं, और जरा गौर से उसे देख लेना, तो मुश्किल हो गई। अपरिचित, पराए, दूर के लोग, हमसे थोड़े भी भिन्न लोग, बस, मुश्किल शुरू हो गई। अपरिचित के साथ जीने में बड़ा डर लगता है।
और हम अपने ही साथ जी रहे हैं, जो कि बिल्कुल अपरिचित है। जो कल हत्यारा हो सकता है, उसके साथ हम जी रहे हैं। जो कल चोरी कर सकता है, उसके साथ हम जी रहे हैं। जो कल आग लगा सकता है, उसके साथ हम जी रहे हैं। जिसने पीछे हत्या की हो, आग लगाई हो, आग लगाने का सोचा हो, उसके साथ हम जी रहे हैं। लेकिन वह हम भीतर झांकते ही नहीं, हम देखते नहीं कि वह कौन है। उसकी हम फिकर ही नहीं करते। उसके डर की वजह से हमने द्वार ही बंद कर दिया है। हम बाहर ही रहते हैं, हम भीतर जाते ही नहीं।
यह हमारा द्वार पर खड़ा होना ही अधार्मिक होना है। जो आदमी अपने ही द्वार बंद करके बाहर खड़ा हो गया है वह आदमी अधार्मिक है। वह टीका लगाता है कि नहीं, उसने चोटी बढ़ाई कि नहीं, यह सवाल अत्यंत नासमझी के हैं, स्टुपिडिटी के हैं। वह आदमी मंदिर जाता है या नहीं, माला फेरता है या नहीं, ये सवाल सब अत्यंत मूढ़तापूर्ण हैं। सवाल सिर्फ एक है कि उस आदमी ने अपने ही पर दरवाजा तो बंद नहीं कर दिया था? कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह अपनी ही तरफ पीठ करके खड़ा हो गया हो? हम सब इसी तरह खड़े हुए हैं। लेकिन डर लगता है उस तरफ झांकने से। बहुत डर लगता है। जैसे किसी बड़ी खाई में झांकने से डर लगता हो।
ले जाऊं किसी पहाड़ी पर आपको, और बड़ा गड्ढा है, और कहूं, झांकें, तो आप कहेंगे, झांकने में डर लगता है, नीचे गड्ढा है। अगर बहुत डर लगेगा तो आप पीठ करके खड़े हो जाएंगे, और अगर, और ज्यादा डर लगेगा तो आप कहेंगे, गड्ढा है ही नहीं, कौन कहता है, गड्ढा है ही नहीं। इनकार कर देंगे गड्ढे को, ताकि मन निशिं्चत हो जाए।
हम जिन चीजों से डरते हैं उनको इंकार करते चले जाते हैं। लेकिन जिसे हम इनकार करते हैं वह भीतर खड़ा है, हमारे इनकार से कुछ भी नहीं मिटता। जो आदमी सेक्स से भयभीत है वह सेक्स को इनकार कर देता है, आंख बंद कर लेता है। जो क्रोध से भयभीत है क्रोध को इंकार कर देता है। जो आदमी लोभ से भयभीत है लोभ को इनकार कर देता है, और द्वार बंद करके खड़ा हो जाता है कि है ही नहीं।
लेकिन नहीं कहने से कुछ भी नहीं हो जाता। वह भीतर खड़ा है और उसके डर के कारण अब हम पीछे लौट कर भी नहीं देख सकते। हमने बहुत से भय खड़े कर लिए हैं। हमने पूरा अनकांशस, पूरा अचेतन अत्यंत भयभीत चीजों से भर दिया है। और अब भीतर जाना बहुत मुश्किल हो गया है, बहुत मुश्किल हो गया है। अब हम बाहर घूमते हैं, घूमते हैं। बस, भीतर नहीं जाते हैं।
आदमी चांद पर चला गया है। वह कल सूरज पर जाएगा, तारों पर जाएगा, सब जगह चला जाएगा। यह सारी भाग-दौड़ बहुत अदभुत है। यह सारी भाग-दौड़ बहुत पैथालॅाजिकल है, बीमार है। वह एक चीज से बचकर, सब तरफ भाग रहा है। अपने से बच कर सब तरफ भाग रहा है।
चांद पर पहुंच जाए, खुश होगा थोड़ी देर, फिर क्या करेगा? जब जमीन पर रहना नहीं आता तो चांद पर पहुंच कर क्या करिएगा? चांद पर भी यही करिएगा? बेचारे चांद को भी झंझट और मुसीबत में लाना है। वहां की शांति भी भंग करनी है? जब यहां हम नहीं रह सकते तो हम वहां क्या करेंगे जाकर, जमीन ही जैसी जमीन वह भी है।
दूर से सब चीजें चमकती हैं। चांद भी चमकता है। यह जमीन भी चांद पर से चमकती है। दूर से सब चीजें चमकती हैं। पास तो सब चीजें वैसी ही हैं। सवाल असल में यह नहीं है कि आदमी कहां पहुंच जाएगा, सवाल यह है कि आदमी क्या हो जाएगा? आदमी जैसा है उसे देख कर अच्छा नहीं मालूम होता है कि वह चांद पर जाए, तारों पर जाए, सब जगह उपद्रव पहुंचा देगा।
अभी हमने तो, आर्मस्ट्रांग और उसके साथी लौटे, तो एक महीने तक बंद रखा, सब जांच-परख की कि कोई कीटाणु तो नहीं ले आए, लेकिन हमने यह फिकर छोड़ दी कि कोई कीटाणु वहां तो नहीं छोड़ आए? यह आदमी की बीमारी कहीं वहां तो नहीं छोड़ आए कुछ थोड़ी-बहुत? नहीं तो चांद पर भी युद्ध शुरू हो जाएंगे, अगर ये कीटाणु वहां भी पहुंच गए, आदमी के पागलपन के! तो आदमी जहां जाएगा, यही करेगा; क्योंकि आदमी जो है। यही तो आदमी वहां भी पहुंच जाएगा। यही करेगा। यही पागलपन वहां भी जारी रहेगा।
पर आदमी इतनी दौड़ में क्यों है? किस चीज से आदमी दौड़ रहा है? किस चीज के लिए दौड़ रहा है? अगर कोई पूछे कि चांद पर किसलिए जाना है? कोई उत्तर नहीं है बहुत। या शुक्र पर, या मंगल पर किसलिए जाना है? उत्तर नहीं है। इसका उत्तर कोई भी नहीं है कि आप जाना क्यों चाहते हैं वहां? लेकिन बहुत गहरे में हम छानेंगे, तो हम अपने से बचना चाहते हैं। हम कहीं भी जाना चाहते हैं, पर हमें अपने भीतर न जाना पड़े। वहां हम नहीं जाना चाहते हैं।
और मैं आपसे कहता हूं, अंतरिक्ष की बड़ी से बड़ी यात्रा उतनी बड़ी नहीं है जितनी कि अंतर की यात्रा है। और मैं आपसे कहता हूं, अंतरिक्ष के बड़े से बड़े यात्री भी कहीं नहीं पहुंचेंगे। चांद पर झंडा गाड़ दो, प्रयोजन क्या है? एवरेस्ट पर झंडा लगा दो, मतलब क्या है? एक जगह भीतर अगर खाली रह गई और वहां नहीं पहुंच सके, तो सब जगह पहुंचना व्यर्थ हो जाएगा।
लेकिन चांद पर पहुंचने की चर्चा सारे जगत में होगी। और अगर कोई आदमी स्वयं पर पहुंच जाए, तो कहीं कोई चर्चा नहीं होगी। क्योंकि हम उसे पहुंचने योग्य जगह ही नहीं मानते हैं। वह कोई चर्चा के लायक नहीं है। वह कोई न्यूज नहीं है। असल में जिसको हम समाचार और न्यूज कहते हैं, उलटी और बेवकूफी की बातों को ही समाचार कहते हैं।
बर्नार्ड शॅा ने एक दफा कहा था। किसी ने पूछा कि आप किस चीज को न्यूज कहते हैं? समाचार क्या है?
तो बर्नार्ड शॅा ने कहा: कुत्ता आदमी को काट खाए, तो यह कोई न्यूज नहीं है। आदमी कुत्ते को काट खाए, तो यह न्यूज है।
और आपके सब अखबारों में बस वही न्यूज है जिसमें आदमी कुत्ते को काट रहा है..वह दिल्ली में काटता है कि अहमदाबाद में, यह मामला दूसरा है। कहीं भी काट रहा है। लेकिन आदमी अपने पर पहुंच जाए, यह न्यूज बनने लायक भी नहीं है। यह कोई समाचार ही नहीं है। चांद पर पहुंच जाए, तो समाचार है। लेकिन कोई पूछे कि क्या होगा? क्या प्रयोजन है?
एक बुनियादी चीज को छोड़ कर आदमी सब तरफ भाग रहा है, अपने को छोड़ कर। एक जगह हम जाना ही नहीं चाहते। वहां अंधेरा है, इसलिए? वहां अकेले हो जाएंगे, इसलिए? वहां अपरिचित मिलेगा, इसलिए?
अगर ये आपके भय हैं, तो आप भीतर की यात्रा पर कभी भी नहीं निकलेंगे। ये भय तोड़ने पड़ेंगे। अंधेरे का भय तोड़ना पड़ेगा। जिसे जीवन में कोई भी क्रांति करनी हो प्रकाश की उसे अंधेरे का भय तोड़ना पड़ेगा।
और ध्यान रहे, यह बहुत अदभुत बात है कि जो आदमी अंधेरे का भय छोड़ देता है उसकी जिंदगी में प्रकाश तत्क्षण भरना शुरू हो जाता है।
अंधेरे का भय ही प्रकाश और हमारे बीच दीवाल है। अंधेरा नहीं, डार्कनेस नहीं, फियर अॅाफ डार्कनेस। अंधेरा नहीं है हमारे और प्रकाश के बीच दीवाल, भय, अंधेरे का भय दीवाल है। क्योंकि भयभीत आदमी आंख बंद कर लेता है। प्रकाश और हमारे बीच अंधेरे की दीवाल नहीं, आंख बंद होने की दीवाल है। आंख बंद होना ही अंधेरा है।
भीतर आंख बंद होना ही अंधेरा है। हम वहां आंख बंद किए हैं, इसलिए अंधेरा है। और भय के कारण आंख बंद किए हैं। शुतुरमुर्ग होता है, तो रेत में सिर खपा लेता है। दुश्मन आ रहा है तो वह रेत में सिर गड़ा लेगा, और खड़ा हो जाएगा। फिर निशिं्चत हो जाएगा। क्योंकि अब आंख बंद है, अब दुश्मन नहीं है। आंख बंद होने से दुश्मन मिटते होते तो दुनिया बड़ी आसान हो जाती।
हम सब शुतुरमुर्ग का काम कर रहे हैं; आंख बंद किए हैं भीतर की तरफ और कहते हैं बात खत्म हो गई। लेकिन आंख बंद करने से कुछ भी न होगा। आंख खोलनी पड़ेगी।
और आंख वही खोल सकता है, जो निर्भय है।
भय आंख को खुलने नहीं देता। भय कहता है, आंख बंद रखो, पता नहीं क्या दिख जाए? जो नहीं देखना है वह दिख जाए, जो देखना है वह न दिखे, तो आंख बंद रखो। अपनी कल्पना से जो देखना है देखते रहो। जो नहीं देखना है, इंकार करते रहो।
सब आदमियत अंधे की तरह चल रही है। भीतर की दुनिया में हम सब अंधे हैं। बाहर की दुनिया में कुछ थोड़े से लोग अंधे पैदा होते हैं, भीतर की दुनिया में हम सब अंधे पैदा होते हैं। बाहर की दुनिया में आज नहीं कल, अंधों की आंखें भी हम ठीक कर लेंगे। सवाल भीतर की दुनिया का है, वहां क्या होगा?
कुछ लोग बाहर की आंखें लेकर पैदा नहीं होते, लेकिन अधिक लोग भीतर की आंखें बिना पैदा किए मर जाते हैं। भीतर की आंख जन्म के साथ खुली हुई नहीं मिलती, खोलनी पड़ेगी।
लेकिन जन्म से लेकर हम जो भी शिक्षण देते हैं वह सब भय का है। हम फियरलेसनेस सिखाते ही नहीं, हम भय ही सिखाते हैं। हजार-हजार तरह के भय सिखाते हैं, इसीलिए दुनिया बुरी है। और जब तक दुनिया में भय की शिक्षा जारी रहेगी तब तक दुनिया अच्छी नहीं हो सकती।
सब तरह के भय सिखाए जा रहे हैं। अनेक-अनेक रूप हैं भय के। पहले नरक सिखाते थे हम दुनिया को। हर आदमी को कंपा दिया था, बिल्कुल डरा दिया था। एक-एक आदमी डरा हुआ था। नरक के बड़े-बड़े भय हमने पैदा किए थे। वे सब कल्पित और झूठे भय थे। और आदमी को डराने के लिए पैदा किए गए थे। और जिन्होंने पैदा किया था उन्होंने सोचा था हम डरा कर आदमी को धार्मिक बना लेंगे।
डर कर कोई आदमी धार्मिक बना है? हां, डर कर अधार्मिक होने से बच सकता है, धार्मिक नहीं बन सकता है। और अधार्मिक होने से जो बच गया है, वह अधार्मिक होने की सारी क्षमता को भीतर इकट्ठी कर लेता है। वह आदमी बड़ा खतरनाक हो जाता है।
जो आदमी रोज क्रोध कर लेता है वह बहुत खतरनाक नहीं है। और जो क्रोध को दबाता चला जाता है वह बहुत खतरनाक है; क्योंकि वह किसी दिन हत्या से कम करने वाला क्रोध नहीं करेगा। जब भी करेगा उसके पास काफी होलसेल, इकट्ठा हो जाएगा। रिटेल तो वह काम करते नहीं, रोज फुटकर काम नहीं करता है। थोक, इकट्ठा हो जाएगा।
जो लोग खोज-बीन करते हैं वे कहते हैं कि रोज-रोज छोटी-छोटी बातों में क्रुद्ध हो जाने वाले लोग दुनिया में कभी बड़े खतरे नहीं करते। जो क्रोध को पीते चले जाते हैं वे बड़े खतरनाक हो जाते हैं। इतना क्रोध इकट्ठा हो जाता है एक दिन, कि ओवरफ्लो, ऊपर से बह जाना जरूरी हो जाता है। फिर बहुत खतरे हो जाते हैं।
भय ने मनुष्य को धार्मिक नहीं बनाया, सिर्फ अधार्मिक होने से डरा कर रोक दिया। और वह सब अधर्म भीतर इकट्ठा हो गया है। अब वह फूट रहा है जगह-जगह से। इसके लिए जिम्मेवार आज का आदमी नहीं है। इसके लिए जिम्मेवार, पांच हजार साल की मनुष्यता की पूरी संस्कृति है।
वह संस्कृति पूरी गलत थी। उसने आदमी को गलत भय सिखाए, निर्भय नहीं बनाया। भयभीत किया, डराया, नरक, दंड, ऐसे-ऐसे भय दिखाए कि घबड़ाने वाले हैं।
ईसाइयत कहती है कि एक दफा, बस एक ही जीवन है। और अगर एक दफा पाप किया, तो फिर अनंतकाल के लिए, फॅार इटरनिटि नरक में पड़े रहना होगा। फिर कोई छुटकारा नहीं है। कल नहीं, परसों भी नहीं, इस वर्ष नहीं, अगले वर्ष भी नहीं, इस युग में नहीं, अगले युग में नहीं..हजार, करोड़, अरब..नहीं, अनंतकाल तक फिर कोई छुटकारा नहीं है, ऐसा आदमी को कंपा दिया।
बट्र्रेंड रसल ने कहीं लिखा है कि मैं अपनी जिंदगी भर के किए गए पापों और नहीं किए गए, सोचे गए पापों का सब ब्यौरा इकट्ठा करता हूं, तो कोई सख्त से सख्त मजिस्ट्रेट भी मुझे तीन-चार साल की सजा दे सकता है, इससे ज्यादा नहीं। लेकिन ईसाइयत कहती है कि मुझे अनंतकाल तक नरक में सड़ना पड़ेगा।
और नरक के दृश्य जिन्होंने खींचे हैं, बड़े क्रिमिनल माइंड्स रहे होंगे, बड़े अपराधी चित्त रहे होंगे। ऐसी-ऐसी तरकीबें ईजाद की हैं कि हिटलर, हिटलर और उसके जो साथी थे, उन्होंने भी नहीं कर पाए इतनी तरकीबें ईजाद जितनी नरक की कथा रचने वालों ने ईजाद की हैं।
कैसी, कैसी मजेदार है। प्यास लगेगी, पानी सामने होगा, लेकिन पी नहीं सकेंगे। पीएंगे तो पानी आग हो जाएगा। दूर से देखेंगे तो पानी, पास जाएंगे आग, और प्यास जलेगी अनंतकाल तक।
ऐसा आप मत सोचना कि कभी थोड़ी-बहुत देर, कोई कोका-कोला की दुकान नरक में मिल जाएगी। वह मिलने वाली नहीं है। वहां कोई दुकान नहीं है। अनंत काल तक प्यास, लाखों, करोड़ों कीड़े एक-एक आदमी के शरीर में घुसेंगे। छेद करके दूसरी तरफ से निकलेंगे। लाखों कीड़े पूरे शरीर में चक्कर लगाएंगे, छेद ही छेद हो जाएंगे। न आदमी मरेगा, न कीड़े मार सकेंगे आप।
कोई कीड़ा मरने वाला नहीं। नरक में कोई मरता ही नहीं। आप कीड़े को मार नहीं सकते। आप भी मर नहीं सकते, और करोड़ों कीड़े छेद करेंगे, सारे शरीर को सड़ा देंगे। लेकिन मर नहीं सकते। बीमारियां होती हैं नरक में, मौत नहीं होती है वहां! वहां कैंसर भी हो सकता है, टी. बी. भी हो सकती है, लकवा भी हो सकता है, लेकिन मौत नहीं हो सकती।
और ध्यान रहे, मौत का न होना नरक में सबसे बड़ा खतरा है। क्योंकि मर जाए तो आदमी छूट भी सकता है, वहां से छूट नहीं सकता। कढ़ाइयों में आदमी जलाया जाएगा, जलेगा, लेकिन जल ही नहीं जाएगा, बस जलता रहेगा। ऐसे सब जिन्होंने इंतजाम किया है इतने टार्चर का, बड़े अदभुत लोग रहे होंगे। ऐसा मालूम होता है, उनके मन में सताने की बड़ी प्रवृत्ति रही होगी। उसको निकाल नहीं पाए, तो आगे का हिसाब लगा कर, उन्होंने मन को खाली कर लिया होगा।
ऐसा है, आदमी के मन में जो घूमता है, उसे निकालने की बहुत तरकीबें हैं। जो लोग कभी प्रेम नहीं कर पाते हैं, वे प्रेम की कविताएं लिख कर भी निकाल लेते हैं। जो लोग कभी किसी स्त्री को नहीं मिल पाते, वह उपन्यास में स्त्रियों को खूब मिल लेते हैं। जिंदगी में नहीं हो पाता, वह कविता में कर लेते हैं। जिनका मन सताने का रहा होगा, वह नहीं सता पाए। तो सताने की उन्होंने पूरी योजना कल्पना में गढ़ ली।
नरकों की लंबी योजना है और इस योजना से घबड़ाया है सिर्फ आदमी को। आदमी को कुछ समझ नहीं आ सकी है, न कोई रोशनी आ सकी है। फिर बहुत तरह के भय हैं। नरक का भय तो है ही, अब और नये-नये भय हमने विकसित किए हैं। असफलता का भय है, आदमी असफल न हो जाए। महत्वाकांक्षा से शून्य न रह जाए, खाली न रह जाए, एंबीशन कहीं खाली न चली जाए। कहीं जिंदगी में यश न मिले, प्रतिष्ठा न मिले, धन न मिले। दस लोग नमस्कार न करें, कहीं जिंदगी ऐसे ही न खो जाए। बड़ा भय है।
तो जिंदगी में जो भयभीत हम हैं, उस भय के कारण जो भी हम कर सकते हैं, कर रहे हैं..धन इकट्ठा करो, दौड़ो, बड़ा मकान बनाओ, क्योंकि छोटा मकान बड़ा भय लाता है। कहीं बड़ा मकान मिल ही न पाए, कहीं मौका चूक जाएं, बड़ा मकान बनाओ। लेकिन कोई पूछे, कि क्यों? क्यों इतना धन? क्यों इतना यश? एक ही सवाल है कि हम असफल हो जाएंगे।
असफल हम नहीं रहना चाहते। दूसरा सफल हुआ जा रहा है, हम असफल हुए जा रहे हैं। दूसरा जीतता चला जा रहा है, हम हारते चले जा रहे हैं। रूस इकट्ठा कर रहा है एटम, तो अमरीका इकट्ठा कर रहा है। पूछो, क्यों, तो वह कहता है रूस से पूछो। रूस से पूछो, तो वह कहता है, अमरीका से पूछो। वह दंड-बैठक लगाए चला जा रहा है, हम मुश्किल में हुए चले जा रहे हैं, जब तक वह लगा रहा है हम रुक नहीं सकते; क्योंकि रुकना खतरनाक है जब तक। उससे पूछो, वह कहता है, जब तक रूस कर रहा है, हम नहीं रुक सकते। सब एक-दूसरे से भयभीत हैं और भागे जा रहे हैं।
और हम पूरी मनुष्यता को एक-दूसरे से भयभीत किए हुए हैं। हिंदू मुसलमान से डरा हुआ है, मुसलमान हिंदू से डरा हुआ है। पड़ोसी पड़ोसी से डरा हुआ है। गुजराती मराठी से डरा हुआ है। हिंदी बोलने वाला गैर हिंदी बोलने वाले से डरा हुआ है। सब एक-दूसरे से डरे हुए हैं। हमने पूरी आदमियत को सिर्फ डराया है। हजार तरह के डर पैदा किए हैं।
अगर पाकिस्तान हमला कर दे! अगर चीन हमला कर दे! चीन भी इसी भाषा में सोचता है, पाकिस्तान भी इसी भाषा में सोचता है।
सारे लोग एक ही भाषा जानते हैं, लैंग्वेज अॅाफ फियर, बस भय की एक भाषा है। तो बैंक में इंतजाम रखो, कल कुछ भी हो सकता है। अब वह भी डर का मामला है। बैंक का इंतजाम भी गड़बड़ हो सकता है। तब कहीं और गड़ाओ, फिर से गड़ाना पड़ेगा पैसा! फिर कहीं इंतजाम करो, यूरोप में बैंक बनाओ, कहीं और इंतजाम करो। इंतजाम करो, भयभीत रहो, भागते रहो। लेकिन, लेकिन क्या कोई भय की इस दौड़ में कभी अभय हो सका है?
अभय हो सकता है आदमी। भय की दौड़ में दौड़ कर नहीं; जिन-जिन चीजों से भय है उनका साक्षात्कार, उनका एनकाउंटर करने से। भय क्या है, उसका सीधा साक्षात्कार करना जरूरी है। भागने से क्या होगा।
अगर अकेले होने का भय है, तो मत भागते रहें कि इस पत्नी को इकट्ठा करो, इस बच्चे को इकट्ठा करो। फिर पक्का विश्वास रखो कि पत्नी छोड़ तो नहीं देगी? तो शास्त्र बनाओ और पत्नी को समझाओ कि पति परमात्मा है, कभी छोड़ना मत, नहीं तो नरक में सड़ना पड़ेगा। वह पति सुरक्षा कर रहा है अपनी। वह यह कह रहा है, कल पत्नी छोड़ भी सकती है। कल पत्नी किसी और के साथ भी जा सकती है। तो पर्दा लगाओ, बुर्का पहनाओ, दरवाजे बंद रखो, किसी से मिलने मत देना। सब भय है। पत्नी भी भयभीत, वह भी पता लगा रही है कि पति दफ्तर से सीधा घर आता है कि नहीं आता?
सब भयभीत हैं। बच्चे भयभीत हैं मां-बाप से। मां-बाप बच्चों से भयभीत हैं। हम सब एक-दूसरे से भयभीत हैं। हमारी सारी रिलेशनशिप, सारा संबंध भय का है। इसलिए तो जिंदगी इतना दुख हो गई है, इतनी पीड़ा, इतनी चिंता हो गई है, इतनी विक्षिप्तता हो गई है। नहीं! भय से भागने से नहीं, भय का सामना ही करना पड़ेगा। क्या भय है?
पहला तो भय स्वयं को जानने का भय है। कोई आदमी स्वयं को नहीं जानना चाहता है। यह बुनियादी, बेसिक फियर है, जो हर आदमी के भीतर है। और खुद को न जानने की वजह से हर आदमी अपनी एक इमेज बना लेता है, जो बिल्कुल झूठी है। और वह मान लेता है कि यही मैं हूं। अहंकारी से अहंकारी आदमी से पूछें, तो वह यही कहता है कि मैं तो बिल्कुल विनम्र आदमी हूं। मुझसे ज्यादा विनम्र आदमी खोजना मुश्किल है। क्रोधी से क्रोधी आदमी यही समझता है कि दूसरे लोग मुझे क्रोध दिला देते हैं। मैं तो सदा शांत हूं। दुष्ट से दुष्ट आदमी भी यही सोचता है कि मुझसे ज्यादा सदय और दयावान कौन हो सकता है?
हर आदमी अपनी एक प्रतिमा बना लेता है, ताकि उसे न जान सके, जो वह है। और ऊपर से एक वस्त्र ओढ़ लेता है। दूसरों को धोखा दो, ठीक भी है। हम अपने को ही धोखा दिए चले जाते हैं। और मैं मानता हूं कि दूसरों को धोखा वही दे सकता है जो अपने को ही धोखा दे रहा हो। और यह भी मजे की बात है कि अगर हम दूसरों को धोखा देते चले जाएं, तो धीरे-धीरे खुद भी धोखे में आ जाते हैं।
झूठ बड़ी अदभुत चीज है। अगर मैं अपने संबंध में एक झूठ प्रचलित करूं, आप अगर उस पर विश्वास करने लगें, तो एक न एक दिन मुझे भी उस पर विश्वास आ जाएगा। इतने लोग मानते हैं तो गलत मानते होंगे?
मैंने सुना है, एक बार एक पत्रकार मरा और भूल से स्वर्ग पहुंच गया। अब पत्रकारों के स्वर्ग जाने की संभावना जरा कम है। लेकिन पहुंच गया। और भूल-चूक सब जगह होती है। किसी तरकीब से निकल गया होगा। और तरकीब पत्रकार बहुत सी जानता है। वह सब तरकीबों से कहीं भी पहुंच जाता है, जहां कोई नहीं पहुंच पाता।
वह पहुंच गया। दरवाजे पर दस्तक दी जोर से उसने, उसी अकड़ से, जैसा वह प्रधानमंत्रियों का डरा दे, राष्ट्रपतियों को डरा दे। दस्तक दी जोर से, पहरेदार ने झांका, उसने कहा कि कैसे आ गए हैं आप?
उसने कहा कि मैं पत्रकार हूं, भीतर आने दें। इतना काफी है, पत्रकार होना भीतर आने के लिए।
स्वर्ग के पहरेदार ने कहा: माफ करें, स्वर्ग का दस पत्रकारों का कोटा पूरा हो चुका है। अब किसी पत्रकार की कोई जरूरत नहीं है यहां। फिर यहां कोई अखबार भी नहीं निकलता। वह दस भी खाली बैठे हुए हैं। आप नरक चले जाएं, वहां अखबार भी बहुत निकलते हैं, घटनाएं भी बहुत घटती हैं, न्यूज वहां बहुत हैं। आप वहां चले जाएं।
उस आदमी ने कहा: लेकिन मैं यहीं रहना चाहता हूं। आप एक काम करें, अगर मैं दस में से एक को राजी कर लूं नरक जाने के लिए, तो मैं अंदर आ सकता हूं?
उसने कहा: आप अंदर आ जाएं। चैबीस घंटे आप राजी करने की कोशिश करें। अगर कोई आपकी जगह चला जाए, तो हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, हम आपको रख लेंगे।
वह पत्रकार भीतर गया। जो आदमी उसको मिला, अफवाह उड़ाने में तो वह कुशल था। जो आदमी उससे मिला, उससे कहा, सुना तुमने, नरक में एक नया अखबार निकल रहा है और संपादकों के लिए बड़ी जरूरत है और बड़ी अच्छी पोस्ट है, तनख्वाह भी अच्छी है, बंगला भी है, नौकर भी है, कार भी है, सब इंतजाम हैं। और अखबार निकल रहा है, नये संपादकों की जरूरत है।
सारे स्वर्ग में सुबह से शाम तक उसने यही खबर की। चैबीस घंटे पूरे हुए, वह वापस आया। सोचा, शायद एकाध पत्रकार इस अफवाह में चला गया हो। द्वार पर पहरेदार से उसने कहा, कोई गया?
पहरेदार ने हाथ रोक कर दरवाजे के भीतर, दरवाजा बंद कर लिया और कहा, भाग मत जाना। वे बाहर दस के दस ही जा चुके हैं। दस ही जा चुके हैं। अब कोई नहीं है। अब तुम रुको, अब तुम मत चले जाना।
उस आदमी ने कहा: ऐसा कैसे हो सकता है? हो सकता है अखबार निकल ही रहा हो। मुझे जाने दो। जब दस लोग गए हैं और सारे स्वर्ग में यही चर्चा है, कौन जाने? मैंने तो झूठ ही शुरू किया था, लेकिन बात सच भी हो सकती है। मैं नहीं रुक सकता।
आदमी दूसरे को धोखा देते-देते कब खुद को धोखा दे जाता है, पता नहीं चलता। दूसरे विश्वास करने लगें, धीरे-धीरे खुद को विश्वास आ जाता है। क्योंकि हम अपने को भी सीधा तो जानते नहीं, दूसरे की आंख में झांक कर जानते हैं कि दूसरा आदमी क्या कह रहा है? अगर सब लोग मुझे अच्छा समझते हैं, तो मैं अच्छा आदमी हो जाता हूं।
अगर कुछ लोग मुझे बुरा समझने लगें, तो शक पैदा होता है कि कहीं बुरा तो नहीं हूं। अगर सब लोग बुरा समझने लगें, तो पीड़ा शुरू हो जाती है।
हम दूसरे से इसीलिए भयभीत होते हैं और फिकर करते हैं कि दूसरा क्या सोच रहा है? सिर्फ एक भय पीछे काम करता है, क्योंकि हमारी इमेज, हमारी प्रतिमा, दूसरे की आंख की झलक चुरा कर, हमने बनाई। वह अगर झलक चली गई, तो प्रतिमा गई।
हम सब जो नहीं हैं, वह हम अपने को मान कर बैठे हुए हैं। जो हम हैं, उसे हम देखना भी नहीं चाहते। और इसलिए जो हम हो सकते हैं, उसकी कोई यात्रा नहीं हो पाती।
क्या मन होता है कभी इस सत्य को भी जानने का कि वह कौन है जो मेरे रूप में पैदा हुआ? क्या कभी मन होता है इस सत्य को जानने का कि वह कौन है जो बच्चा था जवान हो गया? क्या कभी प्रश्न नहीं उठता भीतर कि मैं कौन हूं? किसी अंधेरे में, एकांत में, किसी कोने में, जिंदगी के किसी क्षण में यह सवाल नहीं पकड़ लेता है कि मैं कौन हूं? यह कौन है जो जी रहा है? यह कौन है जो कल मर जाएगा? नहीं पकड़ता यह सवाल आपको? यह ख्याल कभी भीतर तीर की तरह नहीं घुसता?
घुसता होगा। आप बच कर निकल जाते होंगे फौरन, दूसरे काम में लग जाते होंगे। रेडियो खोल लेते होंगे, अखबार पढ़ने लगते होंगे, मित्र से बात करने लगते होंगे, पत्नी को प्रेम जताने लगते होंगे। जल्दी इससे बच जाते होंगे कि यह कहां का सवाल उठ रहा है? इस सवाल को उठने नहीं देना है; क्योंकि यह सवाल बहुत खतरनाक है। यह सवाल इसलिए खतरनाक है कि यह आपको पूरा बदल देगा अगर उठ जाए। यह सवाल खतरनाक है। क्योंकि आप वही नहीं रह सकेंगे जो आप सवाल पूछने के पहले थे। यह सवाल खतरनाक है; क्योंकि यह पूरी क्रांति का आवागमन है। आगमन है। यह सवाल खतरनाक है; क्योंकि यह आग में कूदना है, कौन हूं मैं?
तो मेरी पुरानी प्रतिमा जलेगी। क्योंकि जिसने यह पूछा कौन हूं मैं, वह संदिग्ध हो गया। उसकी प्रतिमा वही, वह नहीं है। और जिस दिन कोई पूछेगा, कौन हूं मैं, तो भीतर जाना पड़ेगा, नहीं तो मैं जानूंगा कैसे कि कौन हूं मैं? किससे पूछूंगा मैं? अगर मुझे पता लगाना हो कि मैं कौन हूं, तो किसके पास जाऊं? कौन मुझे बताएगा?
दुनिया में कोई मुझे नहीं बता सकता; क्योंकि जब मैं ही अपने को नहीं जानता, तो और कौन मुझे जान सकेगा? लेकिन मैं अपनी पत्नी से कहता हूं, मुझे जानती है न? अपने पति से कोई कहता है, मुझे जानते हैं न? अपने बेटे से कोई कहता है, मैं तुम्हारा पिता हूं, मुझे जानते हो न? मित्र, मित्र से कहता है, जानते हो न? लेकिन मैं ही स्वयं को नहीं जानता, तो कौन मुझे जानेगा? और सब जान लें मुझे, और उनका सबका जानना मैं इकट्ठा कर लूं, सबका, टोटल एग्रीगेट, सबको जोड़ लूं, तो भी मेरा पता नहीं चलेगा कि मैं कौन हूं। यह ऐसा ही होगा जैसे मेरे पचास फोटो उतारे जाएं, पचास निगेटिव। और फिर पचास निगेटिव एक ही पाजिटिव पर उतार दिए जाएं। पचास का जोड़ एक ही पाजिटिव फोटो पर उतार दिया जाए। एक निगेटिव उतारा, फिर उसी पर दूसरा, फिर उसी पर तीसरा, पचास का एग्रीगेट..वह ज्यादा अच्छा होना चाहिए एक की बजाय; क्योंकि पचास तस्वीरें मेरी जुड़ गईं, तो पचास गुना ज्यादा अॅाथेंटिक होंगी?
वह सब धूमिल हो जाएगा, उस पर रेखा भी समझ में नहीं आएगी किसकी है। पचास आंखों में जोड़ कर जो मैं अपनी तस्वीर बनाऊंगा, कुछ बनने वाला नहीं है। सिर्फ पचास निगेटिव इकट्ठे हो जाएंगे, कोई तस्वीर बनेगी नहीं। और तस्वीर क्या बनेगी, सिर्फ एक पागलपन हो जाएगा। हम सब इसीलिए पागल हो गए हैं। हमें अपनी कोई तस्वीर नहीं बनती।
नौकर कुछ और कहता है मेरे बाबत, मेरा मालिक कुछ और कहता है, दोस्त कुछ और कहते हैं, दुश्मन कुछ और कहते हैं। अ कुछ कहता है, ब कुछ कहता है। पचास हजार निगेटिव इकट्ठे हो जाते हैं। उन्हीं को जोड़-तोड़ कर मैं अपनी तस्वीर बनाता हूं कि यह मैं हूं। कोई तस्वीर बनती नहीं। बड़ी तरल रहती है तस्वीर, इधर से खिसक जाती है, उधर से बिखर जाती है। बना-बनूं के तैयार नहीं हो पाता है कि गिरनी शुरू हो जाती है।
नहीं, मैं नहीं जान पाऊंगा इस तरह कि मैं कौन हूं। मैं दूसरे से पूछ कर नहीं जान सकता। और दूसरे से पूछने जाऊं क्यों? सिर्फ इसलिए जाता हूं कि अपने से पूछने में डरता हूं। कोई मुझे नहीं बता सकेगा। न कोई शास्त्र, न कोई गुरु। कहीं नहीं लिखा है कि मैं कौन हूं। मैं बिल्कुल अनलिखा हूं। कोई शास्त्र खबर नहीं देता कि मैं कौन हूं। और कोई गुरु नहीं इशारा कर सकता है कि मैं कौन हूं।
मुझे अपने भीतर प्रवेश करना...उठता है, कई बार उठता है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है कि किन्हीं क्षणों में..कभी दुख में उठ सकता है, कभी सुख में उठ सकता है, कभी हारे हुए होने में उठ सकता है, कभी जीते होने में उठ सकता है, कभी रास्ते पर चलते उठ सकता है, कभी बैठे, सोते उठ सकता है। सवाल बहुत बार उठता है।
बहुत बार भीतर से खबर आती है कि खोजो कौन हूं मैं? हम उसे दबा देते हैं, हटा देते हैं, ताश खेलने लगते हैं, शतरंज खेलने लगते हैं। बहुत तरह की शतरंजें हैं, बहुत तरह के ताश हैं, उनमें हम लग जाते हैं और उसे भुला देते हैं। और कभी सवाल को नहीं उठने देते।
शायद डर लगता है कि यह सवाल सब गड़बड़ कर देगा। डिस्टर्बेंस हो जाएगा। सब टूट-बिखर जाएगा। ठीक है, जैसा चल रहा है। बैठे रहो, ऐसे ही बने रहो, चलते चले जाओ। लेकिन इस चलने से कोई कभी कहीं पहुंचता नहीं। यह पूछना ही पड़ेगा कि मैं कौन हूं? और इस पूछने के लिए भीतर की एक यात्रा करनी पड़ेगी।
तीन सूत्र मैंने कहे, उन्हें थोड़ा ख्याल में लेकर सोचेंगे। अंधेरे से मत डरें, भीतर अंधेरा है। भीतर के अंधेरे में उतरना पड़ेगा। अकेले होने से मत डरें, भीतर आप अकेले हैं। कई बार बहुत सख्त मालूम होती हैं कुछ बातें।
जीसस के पास एक आदमी आया और जीसस ने उससे कहा: अपनी मां को छोड़ कर आ, अपनी पत्नी को छोड़ कर आ, अपने बेटे को छोड़ कर आ, फिर आ। डिनाय योर मदर, डिनाय योर फादर।
बड़ी सख्त मालूम पड़ती है बात कि ईसा जैसा भला आदमी, जीसस जैसा प्यारा आदमी यह कहता है: इनकार करो अपने पिता को, इनकार करो अपनी मां को, इनकार करके आ।
क्या मतलब है? क्या कहा है कि पिता को जाकर कह आ कि तू मेरा पिता नहीं है? नहीं, यह नहीं कहा है। कहा है कि भीतर से तू जान कि तू अकेला है। न कोई मां है, न कोई पिता है।
जीसस एक भीड़ में खड़े हैं, कुछ लोगों ने घेर रखा है, एक बाजार है। जीसस की मां मरियम मिलने गई है। उसने भीड़ को छांटने की कोशिश की है। किसी आदमी से उसने कहा है, मैं जीसस की मां हूं, मुझे भीतर जाने दें।
भीड़ बहुत है, किसी आदमी ने चिल्ला कर कहा, जीसस, तेरी मां मिलने आई है, रास्ता दो! जीसस की मां भीतर आती है।
जीसस ने कहा: मेरी कोई मां नहीं। बड़ी सख्त बात मालूम पड़ती है, बहुत सख्त बात मालूम पड़ती है। बहुत कठोर मालूम पड़ती है कि जीसस कहें, मेरी कोई मां नहीं है।
लेकिन जीसस जैसे आदमी से कठोरता की आशा नहीं है, क्योंकि वह कहता है: एक गाल तुम्हारे चांटा कोई मारे, दूसरा सामने कर देना। वह आदमी यह कैसे कह सकता है कि मेरी कोई मां नहीं है? लेकिन उसने कुछ और ही अर्थ में कहा है। निश्चित ही उसने इस अर्थ में कहा है कि मैं अकेला हूं। शायद वह अपनी मां को भी कहना चाहता है, तेरा कोई बेटा नहीं है। आदमी अकेला है।
और जो अकेला होने को राजी नहीं है, वह भीतर नहीं जा सकता। वहां अकेला होना ही पड़ेगा। संग-साथ बाहर है। भीतर सब अकेला है। मौत से हम इसीलिए डरते हैं कि अकेले हो जाएंगे, और इसलिए ध्यान से डरते हैं। समाधि से डरते हैं कि अकेले हो जाएंगे। इसलिए भीतर जाने से डरते हैं कि अकेले हो जाएंगे। साथ चाहिए, सहारा चाहिए, एक-दूसरे का हाथ पकड़े रहें। भीतर किसी का हाथ कैसे ले जाएंगे?
नहीं, कोई भीतर साथ नहीं जा सकता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पत्नी को छोड़ कर कोई भाग जाए। बच्चों को छोड़ कर कोई भाग जाए। वह नासमझी है। छोड़ कर भागने का कोई सवाल नहीं है। यह जानना जरूरी है कि भीतर मैं अकेला हूं। छोड़ कर भी भागने का क्या सवाल है? जो छोड़ कर भाग रहा है उसने शायद मान लिया था कि कोई मेरा है, इसलिए छोड़ कर भाग रहा है। लेकिन जो जानता है, अकेला है..न छोड़ना है, न भागना है, बाहर से कोई परिवर्तन करने की जरूरत नहीं। भीतर अकेले होने की हिम्मत जुटाने की जरूरत है।
पहली बात, अंधेरे की तैयारी करनी पड़ेगी, अकेले होने की हिम्मत जुटानी पड़ेगी, और तीसरी बात, यह भय, यह डर अनजान का, अननोन का, अपरिचित का छोड़ देना पड़ेगा।
अनचार्टर्ड है वहां, भीतर कोई नक्शा नहीं है हाथ में कि कोई नक्शा दे दे कि यहां जाओ, तो इस चैरस्ते पर पहुंचोगे। वहां से आगे बढ़ोगे, तो यह मकान मिलेगा। फिर पुलिस थाना है, इस तरह कोई खबर नहीं है भीतर। वहां कोई रास्ता नहीं है। वहां तो आप जाएंगे, जाने से ही रास्ता बनेगा।
वहां रास्ता पहले से तैयार नहीं है कि बना हो। वहां तो जाएंगे और जाना ही रास्ता बनेगा। बिल्कुल पाथलेस पाथ है, रास्ता नहीं है, पथ नहीं है वहां, लेकिन जाने से रास्ता बन जाता है। कोई जाए..और आपके भीतर कोई दूसरा नहीं जा सकता, इसलिए तैयार रास्ता मिलेगा कैसे? कोई गया होता, तो पगडंडी बन गई होती, पैरों के चिह्न होते।
आपके भीतर कोई नहीं गया, न कोई जा सकता है। आप ही जा सकते हैं, और आप अब तक नहीं गए। वहां रास्ता कैसे हो सकता है? अनजान है, अपरिचित है। लेकिन अपरिचित में घुसने की हिम्मत जुटानी पड़ती है।
ये तीन बातों पर सोचना, फिर आगे हम बात करेंगे।
अंधेरे की स्वीकृति, अंधेरे का स्वागत।
अकेले होने का साहस।
अपरिचित, अपरिचित को आलिंगन करने की हिम्मत जो आदमी जुटा लेता है वह भीतर के अंधेरे, भीतर के अज्ञान, भीतर की अविद्या को अतिक्रमण कर जाता है, ट्रासेंड कर जाता है, उस लोक में पहुंच जाता है जहां सदा प्रकाश है।
अंधेरे से प्रकाश की ओर की यात्रा में ये तीन बातें बहुत ध्यान रखने योग्य हैं। शेष सुबह हम बात करेंगे। आपके जो भी प्रश्न होंगे, लिखित दे देंगे ताकि कल सांझ उनकी बात हो सके।

मेरी बातों को इतनी प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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