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शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन--अपना जीवन, अपना सत्य

अंधेरे से प्रकाश की ओर जाना तो दूर हम अंधेरे से और गहरे अंधेरे में उतरते चले जाते हैं। उपनिषद के किसी ऋषि ने कहा है: अज्ञान तो अंधकार में ले जाता है, ज्ञान महा अंधकार में ले जाता है। बहुत ही उलझी हुई और विरोधाभासी बात कही है। अज्ञान तो अंधकार में ले जाता है, ज्ञान और महा अंधकार में।
साधारणतः तो हमने यही सुना है कि ज्ञान प्रकाश में ले जाता है। निश्चित ही जो ज्ञान अंधकार में ले जाता होगा वह ज्ञान और ही तरह का ज्ञान होगा। और हम रोज-रोज गहरे से गहरे अंधकार में चले जाते हैं, तो निश्चय ही जिसे हम ज्ञान कहते हैं वह ऐसा ही ज्ञान होगा।
हमारा ज्ञान हमें और अंधकार में ले ही जाता है। क्योंकि हमारा ज्ञान हमारे भीतर से नहीं आता, हमारे बाहर से इकट्ठा होता है, और सिर्फ हमारे अहंकार को मजबूत कर जाता है। मैं जानता हूं, यह अहंकार जिसके भीतर भी घनीभूत हो गया, वह फिर प्रकाश की यात्राएं नहीं कर पाता है। प्रकाश की यात्रा के लिए अहंकार साथी नहीं हो सकता, वहां तो चाहिए, विनम्रता, अति विनम्र भाव, अति निर-अहंकार भाव, ईगोलेसनेस चाहिए।

जितनी मजबूत हमारे ईगो और अहंकार की दीवाल है, उतनी ही प्रकाश की किरणें हमारे भीतर नहीं पहुंच पाती हैं। हम अपने मकान के सब द्वार-दरवाजे बंद करके भीतर बैठ जाएं, फिर बाहर सूरज भी रहे, तो भी क्या फर्क पड़ता है? हम तो अंधेरे में ही जीएंगे। और अहंकार से ज्यादा मजबूत कोई दीवाल नहीं है, जिसके भीतर मनुष्य बंद हो सके। अहंकार के कैपसूल में, खोल में हम सब बंद हो जाते हैं।
और साधारणतः जिसे हम ज्ञान कहते हैं, वह हमारे अहंकार को ही बढ़ा जाता है। इसीलिए दुनिया जितनी शिक्षित होती मालूम पड़ती है, उतनी अहंकारी होती चली जाती है। शिक्षा से होना तो यह चाहिए था कि अहंकार छूट जाए। विश्वविद्यालय से निकलते समय होना तो यह चाहिए था कि मनुष्य विनम्र होकर बाहर आए। वहां से और अहंकार लेकर वापस लौटता है। अहंकार पर सील-मोहर भी लग जाती है। अहंकार और मजबूत हो जाता है। जितना ही हम जानने लगते हैं, लगता है कि हम उतने ही सुरक्षित हो गए हैं। उतने ही मजबूत हो गए हैं।
सब प्रकार का जानना जो भी बाहर से उपलब्ध होता है वह सभी जानना अंधकार में ले जाने की सीढ़ी बनता है। इस संबंध में थोड़ी बात समझ लेनी जरूरी होगी। प्रकाश की यात्रा के लिए उस तरफ सोचना और खोजना जरूरी है।
हम जानते क्या हैं? शायद ही कोई अपने से पूछता हो कि मैं क्या जानता हूं? एक बहुत बड़ा विचारक, एक फकीर के पास गया था। उस विचारक ने कोई तीस किताबें लिखी थीं। उन किताबों की बड़ी प्रशंसा की सारी दुनिया ने। उन किताबों में से एक किताब के बाबत तो ऐसा कहा जाता था कि, दुनिया की दो-चार बड़ी किताबों में एक है।
अगर आपने भी आपमें से किसी ने वह किताब देखी हो, वह है टर्सियम आर्गनम। पी डी आस्पेंस्की की एक किताब है: टर्सियम आर्गनम। ज्ञान का तीसरा सिद्धांत। अरस्तू ने एक किताब लिखी है: ज्ञान का पहला सिद्धांत, आर्गनम। बैकन ने एक दूसरी किताब लिखी है: नोवम आर्गनम, ज्ञान का नया सिद्धांत। और आस्पेंस्की ने एक किताब लिखी है, टर्सियम आर्गनम, ज्ञान का तीसरा सिद्धांत। और ये तीनों किताबें बहुत अदभुत हैं।
यह आस्पेंस्की इस किताब को लिखने के बाद एक बिल्कुल अपरिचित, अनजान, जिसे कोई नहीं जानता, ऐसे एक फकीर गुरुजिएफ के पास मिलने गया था ज्ञान से भरा हुआ। इस ख्याल से भरा हुआ कि न केवल मैं जानता हूं बल्कि मैं जानता हूं इसे दूसरे लोग भी जानते हैं। गुरुजिएफ से जाकर उसने कहा कि कुछ परमात्मा के, सत्य के संबंध में आपसे मुझे जानना है।
गुरुजिएफ ने कहा: अगर तुम पहले से जानते हो, तो जानना फिर बहुत मुश्किल है। और तुम जानने से भरे हुए मालूम पड़ते हो। एक छोटा कागज मैं तुम्हें देता हूं, इस पर लिखो। तुम जो जानते हो वह लिख दो। फिर उसकी मैं बात नहीं करूंगा। और तुम जो नहीं जानते हो वह लिख दो, तो मैं उसकी बात करूं जो तुम नहीं जानते हो। क्योंकि जो तुम नहीं जानते हो वही जानना उचित होगा। जो जानते ही हो उसे जानने की अब और क्या जरूरत है।
एक बगल के कमरे में भेज दिया आस्पेंस्की को कागज देकर। आस्पेंस्की ने तीस किताबें लिखी हैं। अदभुत उसकी प्रतिष्ठा है। वह कागज लेकर बैठ गया। सोचने लगा, क्या मैं जानता हूं? ईश्वर को मैं जानता हूं? ईश्वर के संबंध में हजारों पृष्ठ मैंने लिखे, लेकिन जानता हूं? तो भीतर से उत्तर नहीं आया कि जानता हूं। भीतर से उत्तर आया, क्या परिचय है हमारा ईश्वर से? ईश्वर है भी या नहीं, यह भी पता नहीं है। आत्मा को जानता हूं? स्वयं को जानता हूं?
भीतर से कोई उत्तर नहीं आया जानने का। आस्पेंस्की हैरान हुआ। जिंदगी भर यही ख्याल था कि मैं बहुत जानता हूं। कोरा कागज लाकर उस फकीर को वापस दे दिया और कहा, क्षमा करें, मैं तो कुछ भी नहीं जानता हूं।
उस फकीर ने नीचे से ऊपर तक देखा और उसने कहा: अब जानने की यात्रा हो सकती है। इतनी विनम्रता से यात्रा शुरू होती है।
लेकिन हमने कभी अपने से नहीं पूछा होगा किसी एकांत में, कि मैं जानता क्या हूं? हम एक दूसरे से विवाद भी कर लेते हैं कि मैं जो जानता हूं, वह ठीक है। लेकिन अपने से हमने कभी कोई विवाद नहीं किया है कि मैं जो जानता हूं, वह जानता भी हूं? ठीक और गलत होना तो बहुत दूर की बात है।
जिस क्षण व्यक्ति को पता चलता है कि मैं जो भी जानता हूं सब उधार, बासा, मरा हुआ है। मेरा अपना कोई जीवंत अनुभव नहीं है, उसी दिन एक क्रांति उसके जीवन में शुरू हो जाती है। अपने अज्ञान का बोध, अपने इग्नोरेंस का बोध।
साक्रेटीज कहता था, मैंने ऐसे लोग देखे जिनके ज्ञान को इग्नोरेंट नालेज कहा जा सकता है। इग्नोरेंट नालेज बड़े उलटे शब्द हैं। अज्ञानपूर्ण ज्ञान, क्या मतलब इसका? इसका मतलब है कि जो हैं तो अज्ञान में, लेकिन जिन्हें यह ख्याल है कि हम जानते हैं।
और साक्रेटीज कहता था, मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं जिनके ज्ञान को या जिनके अज्ञान को नोइंग इग्नोरेंस कहा जा सकता है..जानता हुआ अज्ञान। जो यह जानते हैं कि मैं नहीं जानता हूं, इससे बड़ी बात जिंदगी में दूसरी नहीं है जानने की कि जीवन के परम सत्यों के संबंध में हमें कुछ भी पता नहीं है।
लेकिन कैसे मानें? हमने किताबें पढ़ी हैं, हमने गुरुजनों से सुना है, हमने ऋषियों, मुनियों, महात्माओं की वाणी याद की है। हमें बहुत कुछ पता है, हम कैसे मानें कि हम नहीं जानते हैं? हमें ईश्वर के संबंध में करीब-करीब जो भी कहा गया है, सब पता है।
लेकिन ईश्वर के संबंध में जो भी कहा गया है, सब इकट्ठा कर लो, तो भी ईश्वर का कण भर अनुभव उस कहे हुए से नहीं निकलता है। और ईश्वर के संबंध में जो भी लिखा गया है सब इकट्ठा कर लो और सबका निचोड़ निकाल लो, तो भी ईश्वर के अनुभव की एक झलक उससे नहीं मिलती।
जैसे कोई किताब खोले और किताब में लिखा हो, घोड़ा, और किताब पर सवार हो जाए और घोड़े को हांकने लगे, तो हम उसे पागल कहेंगे। किताब में सिर्फ शब्द हैं, घोड़ा नहीं है। शास्त्रों में भी सिर्फ शब्द हैं, परमात्मा नहीं है। लेकिन किताब के घोड़े से कोई धोखे में नहीं आता और कभी घोड़े पर सवारी नहीं करता, लेकिन किताब के परमात्मा से बहुत लोग धोखे में आ जाते हैं। और किताब के परमात्मा से प्रार्थना करने लगते हैं। किताब के घोड़े पर चढ़ना और किताब के परमात्मा से बात करना बिल्कुल बराबर है, एक सा पागलपन है। लेकिन घोड़े पर आप चढ़िएगा तो पकड़ जाएंगे, घर के लोग पागलखाने ले जाएंगे। और किताब के परमात्मा से प्रार्थना करिए तो घर के लोग भी आपके पैर पड़ेंगे, पास-पड़ोस के लोगों में खबर हो जाएगी कि यह आदमी धार्मिक है।
किताब के परमात्मा से क्या संबंध है सत्य का? किताब में तो सिर्फ अक्षर लिखे हैं, वे स्याही के धब्बों से ज्यादा नहीं हैं। उनसे क्या मिलेगा? हां, शब्द मिल सकता है, परमात्मा शब्द मिल सकता है। और रोज-रोज, रोज-रोज पढ़ने से परमात्मा शब्द भीतर गहरे बैठ सकता है, और आप और हम यह भूल जा सकते हैं कि यह सिर्फ शब्द है, और अनुभव हमारे भीतर कहीं भी नहीं, और कई वर्षों के निरंतर याद करने से विस्मरण हो जाएगा कि मैं नहीं जानता था और भ्रम हो जाएगा कि मैं जानता हूं।
मनुष्य का ज्ञान शब्दों पर खड़ा हुआ है, सत्यों पर नहीं। इसलिए मनुष्य का ज्ञान भी अज्ञान में ही ले जाता है, अंधकार में। हमारा सारा ज्ञान शब्दों पर खड़ा हुआ है। शब्द पर खड़े हुए ज्ञान का क्या अर्थ हो सकता है? अनुभव पर ज्ञान खड़ा हो, तो ही ज्ञान है।
शब्द पर खड़ा हुआ ज्ञान सिर्फ धोखा है, डिसेप्शन है और खतरनाक, महंगा धोखा है। एकदम महंगा धोखा है। इतना महंगा धोखा दुनिया में दूसरा कोई भी नहीं है।
एक छोटे से बच्चे को हम बचपन से सिखाना शुरू कर देते हैं। मैं छोटा था, मेरी पहली जो स्मृति है वह यही है कि मुझे मंदिर में ले जाया गया। मुझे वहां सिर्फ पत्थर की मूर्तियां दिखाई पड़ रही थीं और मुझे कहा गया कि ये भगवान हैं। मैं नहीं मान सका इस बात को कभी भी। नहीं मान सका तो भगवान की खोज करनी जरूरी हो गई..फिर भगवान क्या है?
मान लेता तो मर जाता, वे मूर्तियां ही भगवान हो जातीं और खोज समाप्त हो जाती। बहुत लोगों ने मान लिया है और रुक गए हैं। मैं नहीं समझ सका कि इन मूर्तियों में भगवान कहां है? रात के अंधेरे में जाकर उन मूर्तियों को हिला-डुला कर, और पैर की लात मार कर भी देखा। उनसे कोई पता नहीं चला कि वे पत्थर से ज्यादा हैं।
लेकिन घर के लोग, पड़ोस के लोग सभी कहे जाते रहे कि वे भगवान हैं, पैर पड़ो। घर के लोगों के डर से हाथ भी जोड़ता था। लेकिन वे हाथ झूठे थे, और भीतर जानता था किसको हाथ जोड़ रहा हूं? बहुत मजाक मालूम पड़ता था। लेकिन सौभाग्य था कि मान नहीं सका कि वहां भगवान है। तो भगवान की खोज जरूरी हो गई।
और जो लोग मान लेते हैं मूर्तियों में, शब्दों में, पत्थरों में, सिखाई हुई बातों में, उनकी खोज वहीं बंद हो जाती है। हम हर बच्चे की खोज बंद करने की कोशिश करते हैं। समाज बहुत दुश्मन है। समाज की सारी व्यवस्था सत्य के विपरीत है। हम हर बच्चे की सत्य की खोज बंद कर देना चाहते हैं, सब द्वार-दरवाजे बंद कर देना चाहते हैं। हम उसे राजी कर लेना चाहते हैं कि तुम यह मानो, और यह ठीक है। और बच्चा अबोध है, वह सोचता है कि जो बड़े हैं वे जानते होंगे। उसे पता नहीं कि छोटे का अज्ञान छोटा है, बड़े का अज्ञान और बड़ा हो गया है, और कोई फर्क नहीं पड़ा है। उम्र के बढ़ने से ज्ञान तो बढ़ता नहीं। हां, उम्र के बढ़ने से आदमी ज्यादा भयभीत हो जाता है, और भयभीत आदमी अज्ञान को ही ज्ञान मान कर रुक जाता है। हम एक-एक बच्चे को सिखा देते हैं शब्द, जो उसे जानना चाहिए, वह हम सिखा देते हैं और सिखा देने की वजह से वह जानने की दिशा में कभी कदम नहीं उठाता।
अगर हम कहीं एक स्कूल खोल लें और वहां लोगों को प्रेम करना सिखाएं, बच्चों को, छोटे बच्चों को प्रेम करना सिखा दें और उन्हें प्रेम का एक-एक गेस्चर सिखा दें, और प्रेम के समय कैसी आंख करनी चाहिए, और कैसे शब्द बोलने चाहिए, कैसे किसी को गले लगा लेना चाहिए, और कैसे किसी का चुंबन ले लेना चाहिए, सब सिखा दें, बच्चों को प्रेम के संबंध में सारी कला सिखा दें, एकिं्टग सिखा दें, फिर ध्यान रहे, ये बच्चे कभी प्रेम नहीं कर पाएंगे, ये एकिं्टग ही करते रहेंगे, क्योंकि एकिं्टग से ही काम चल जाएगा।
और ध्यान रहे, एकिं्टग असलियत से अक्सर ज्यादा कुशल होती है। क्योंकि झूठी होती है। झूठ के साथ कुशलता पैदा करनी बहुत आसान है। क्योंकि झूठ को जैसा चाहो वैसा मोड़ा जा सकता है। सत्य मुड़ता नहीं आपको ही मुड़ना पड़ता है। सत्य के साथ आप कुछ नहीं कर सकते, सत्य ही आपके साथ करता है। झूठ के साथ आप कुछ भी कर सकते हैं। झूठ में कला प्रविष्ट हो सकती है।
इसलिए प्लेटो जैसे विचारशील आदमी ने तो यह कहा कि सब कला झूठ है। और कवियों से ज्यादा झूठा कोई भी नहीं। उसका मतलब सिर्फ इतना था कि सब अभिनय झूठ पर खड़ा है।
अगर बच्चों को किसी दिन हमने प्रेम करना सिखा दिया..और कुछ लोग हैं, अमरीका में एक आदमी है इलिकटोम, वह कहता है, दुनिया में प्रेम करना सिखाना चाहिए, क्योंकि लोग प्रेम कर नहीं रहे हैं। अगर बात मान ली गई, और मान ली जाएगी जल्दी, क्योंकि आदमी इतना नासमझ है कि नासमझी की बातें बहुत जल्दी मान लेता है।
अगर दुनिया में प्रेम सिखाने के प्रशिक्षण खुल गए, ट्रेनिंग स्कूल खुल गए और बच्चों को हमने प्रेम सिखा दिया, तो ध्यान रहे, फिर शायद ही भूल-चूक से कोई बच्चा अगर बच जाए तो प्रेम कर सके, अन्यथा अभिनय ही जारी रहेगा।
वैसे अभी भी अभिनय ही चलता है। अभी भी बहुत कम लोग प्रेम कर पाते हैं। अभिनय ही करते चले जाते हैं। जब आप अपनी पत्नी को कहते हैं, तुझसे सुंदर कोई भी नहीं है, तब कभी आपने सोचा कि आप क्या कह रहे हैं? रोज सड़क पर पता चल जाता है कि पत्नी से ज्यादा सुंदर स्त्रियां हैं। लेकिन पत्नी से यही कहे चले जा रहे हैं तुझसे ज्यादा सुंदर कोई भी नहीं। अभिनय चल रहा है।
अभी अभिनय चल रहा है बिना सीखे हुए। और अगर सिखाने की व्यवस्था कर दी जाए, तो अभिनय फिर ज्यादा निष्णात, ट्रेंड, कल्टीवेटेड और व्यवस्थित होगा। भूल-चूक कम होगी। लेकिन फिर प्रेम नहीं हो सकेगा।
असल में जीवन की कोई भी गहरी चीजें बाहर से सिखा दी जाएं तो आदमी सिर्फ बाहर ही अभिनय करके मुक्त हो जाता है। फिर भीतर जाने की जरूरत नहीं रह जाती। भीतर तो कोई तभी जाता है, जब बाहर कोई उपाय नहीं मिलता। जब तक बाहर कोई सहारा मिल जाए कोई भीतर नहीं जाना चाहता। अगर प्रेम की तरकीब बाहर ही मिल जाए, फिर भीतर कोई किसलिए जाए? फिर भीतर कौन हृदय को जगाए?
हृदय को जगाना पीड़ापूर्ण है। अभिनय में सुख ही सुख है। सच्चे प्रेम में दुख भी बहुत है। अभिनय में दुख कभी भी नहीं। अभिनय में सुख ही सुख है। लेकिन जिस अभिनय में दुख न हो, उसका सुख भी बहुत ऊपरी होगा, उसका भी बहुत कोई गहरा अर्थ नहीं हो सकता। क्योंकि जितना दुख गहरा होता है, उतना ही सुख गहरा होता है। उनकी गहराइयां हमेशा बराबर होती हैं।
अभिनेता न कभी दुखी होता है, न सुखी होता है। कुछ अभिनेता मेरे मित्र हैं, उनकी पत्नियों से मैं पूछता हूं कि तुम्हें शक नहीं होता कि जब तुम्हारा पति तुम्हें प्रेम करता है तो कहीं यह वही मंच वाला प्रेम तो नहीं है? तो एक स्त्री ने मुझे कहा कि निरंतर शक होता है कि यह आदमी फिर वही डायलॅाग बोल रहा है जो इसने मंच पर भी बोले। लेकिन आम पत्नियों को यह शक नहीं होता, क्योंकि आम पतियों को उन्होंने मंच पर नहीं देखा है, सिर्फ अकेले में देखा है।
आम पति भी डायलॅाग बोल रहे हैं। आम पत्नियां भी डायलॅाग बोल रही हैं। सीखा हुआ है, लेकिन फिर भी अभी बहुत व्यवस्थित नहीं है। आज नहीं कल सब व्यवस्थित हो जाएगा।
लेकिन प्रार्थना के संबंध में बहुत व्यवस्था है। प्रेम तो अभी हम सिखाते नहीं है बहुत, लेकिन प्रार्थना सिखाते हैं, परमात्मा सिखाते हैं। जब प्रेम ही नहीं सिखाया जा सकता तो परमात्मा तो और गहरा अनुभव है। उससे गहरा तो कोई अनुभव नहीं होता। प्रेम तो बिल्कुल ही उथला है परमात्मा की दृष्टि से।
हालांकि मनुष्य के जीवन में प्रेम सबसे गहरा अनुभव है, लेकिन परमात्मा को ख्याल न रखें, तो प्रेम सबसे उथला अनुभव है। मनुष्य के जीवन का सबसे गहरा अनुभव भी परमात्मा को ध्यान में रखने में सबसे उथला अनुभव है। प्रेम भी नहीं सिखाया जा सकता, तो परमात्मा कैसे सिखाया जा सकता है?
लेकिन परमात्मा हम सिखा रहे हैं। बचपन से परमात्मा सिखाया जा रहा है। प्रार्थना सिखाई जा रही है। सब झूठ हो जाता है। मंदिर में हाथ जोड़े हुए जो आदमी खड़ा है, अगर उसकी खोपड़ी हम खोल सकें, तो जल्दी हम उस झूठ को खोज लेंगे कि कब इसको हाथ जोड़ना सिखाया गया है। यह हाथ जुड़े हुए, सीखे हुए हाथ हैं। और आदमी को इतना व्यवस्थित सिखाया जा सकता है कि उसे पता खुद भी न रहे।
मैंने सुना है, पहले महायुद्ध में एक आदमी युद्ध से बर्खास्त हो गया। उसके पैर में चोट लग गई। अब युद्ध में तो सब सीखे हुए आदमी होते हैं। युद्ध में असली आदमी प्रवेश नहीं कर सकता। सब नकली आदमी होते हैं। मिलिटरी की सारी ट्रेनिंग आदमी को नकली करने की व्यवस्था है। एक आदमी से हम कह रहे हैं, लेफ्ट टर्न, राइट टर्न। तीन-चार साल, दस साल बाएं घूमो, दाएं घूमो, आगे जाओ, पीछे जाओ। उसका मस्तिष्क खराब नहीं हो जाएगा तो बचेगा? मशीन का उपयोग करवा रहे हैं उससे, और जरा भी आज्ञा से भिन्न नहीं..बाएं घूमना है, तो बाएं घूमना है। एक क्षण देर नहीं। बाएं घूमते-घूमते, बाएं घूमो तो वह मशीन की तरह घूमने लगता है। फिर आदमी नहीं घूम रहा है। बटन जैसे दबे और पंखा घूम जाएं, ऐसा बाएं घूमो, यह सुनते ही वह आदमी घूम जाता है। उस आदमी को भीतर घूमना नहीं पड़ता। यह बिल्कुल यांत्रिक हो गया।
एक आदमी बर्खास्त हुआ है, वह एक सड़क से गुजर रहा है। एक मनोवैज्ञानिक है, विलियम जेम्स। वह एक होटल में बैठा हुआ किसी मित्र से बात कर रहा है। और वह कह रहा है कि आदमी को बिल्कुल मशीन बनाया जा सकता है। तभी वह बाहर से आदमी निकला है। विलियम जेम्स ने जोर से चिल्ला कर कहा, अटेंशन।
वह आदमी अंडे लिए हुए था एक टोकरी में। वह अटेंशन खड़ा हो गया, टोकरी गिर गई, अंडे फूट गए। जब खड़ा हो गया अटेंशन, तब उसे ख्याल आया कि यह मैंने क्या किया। सारे अंडे फूट गए। भीड़ इकट्ठी हो गई।
विलियम जेम्स अपने मित्र को ले जाकर खड़ा हो गया कि देखते हो? उस आदमी ने कहा: यह तुमने कैसी मजाक की। नुकसान कर दिया।
विलियम जेम्स ने कहा: हमने तो सिर्फ अटेंशन कहा। तुमसे किसने कहा था कि तुम रुक जाओ।
उसने कहा: यह कोई अब कहने, सुनने, समझने की बात है। दस साल अटेंशन, यानी अटेंशन था। मैं भूल ही गया कि मिलिटरी में अब नहीं हूं, सड़क पर चल रहा हूं। अटेंशन! सुना कि घूम गई मशीन। मैं खड़ा हो गया। ये सब अंडे टूट गए हैं, इनके पैसे कौन चुकाएगा? मैं गरीब आदमी हूं।
विलियम जेम्स ने कहा: पैसे हम चुका देंगे, लेकिन तुम्हारी आत्मा कौन चुकाएगा? तुम खो गए, तुम गए, तुम आदमी नहीं रहे, मशीन हो गए हो।
हनुमानजी का मंदिर दिखा और आपके हाथ जुड़ गए, आप समझ रहे हैं, कोई और भिन्न बात है? वही अटेंशन। बचपन से सिखाया गया है, इधर भगवान हैं।
मेरे एक मित्र हैं, मेरे साथ घूमने जाते हैं सुबह-सुबह। कोई भी मंदिर पड़ जाए, बिना हाथ जोड़े वे आगे नहीं बढ़ते। मुझे जानते नहीं थे। घूमने में ही उनसे दोस्ती हो गई थी। धीरे-धीरे उनसे बातें हुईं। मेरी बातें सुनीं, मेरी बातें समझीं। दूसरे दिन मेरे साथ सुबह गए, मंदिर पड़ा। उन्होंने बड़ी ताकत लगा कर अपने को रोका होगा। हाथ जुड़ना चाहते थे। मेरे साथ दस कदम बिना हाथ जोड़े निकल गए।
लेकिन मैंने देखा, वे बहुत परेशान हो गए हैं। फिर रुके और मुझसे कहा, माफ करिए, मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा, दिन भर खराब हो जाएगा। मुझे वापस जाकर हाथ जोड़ आने दीजिए। हुआ क्या है? यह मेरी कल्पना के ही बाहर है कि उस मंदिर के सामने से मैं बिना हाथ जोड़े निकल जाऊं। कभी नहीं निकला। आज बीस साल से हाथ जोड़ता हूं। नहीं! मुझे वापस जाने दें।
वे गए, उन्होंने हाथ जोड़े, लौटे। वे बड़े रिलैक्स, शांत मालूम पड़े। बड़ी बेचैनी हो गई। यह मिलिटरी से ज्यादा भिन्न बात हुई? अटेंशन से ज्यादा भिन्न बात हुई?
हम भी जिन मंदिरों में हाथ जोड़ रहे हैं, जिन मस्जिदों में कवायद कर रहे हैं, जिन गिरजों में हाथ उठा कर भगवान को पुकार रहे हैं..हमारी यह पुकार, हमारी ये प्रार्थनाएं, हमारी ये कवायदें, ये नमाजें सिखाई हुई हैं, या हमारे प्राणों से कहीं इनका कोई संबंध है? नहीं तो मुसलमान का बेटा मुसलमान कैसे हो जाए? हिंदू का बेटा हिंदू कैसे हो जाए? अगर बातें सिखाई हुई न हों। हिंदू का बेटा तो मुसलमान नहीं हो जाता? मुसलमान का बेटा तो हिंदू नहीं हो जाता? जो सिखाया गया है हम वही हो जाते हैं। हमारा हिंदू होना सीखा हुआ होना है। हमारा मुसलमान होना सीखा हुआ होना है।
हम सब झूठे अभिनय कर रहे हैं। हिंदू होना एक अभिनय है, मुसलमान होना एक अभिनय है। आदमी होना एक सचाई हो सकती है। हिंदू-मुसलमान से ज्यादा झूठी कोई बातें हो सकती हैं? लेकिन वह हम सीखे हुए हैं। और बच्चों को उस समय से सिखा रहे हैं, जब उन्हें कोई होश नहीं है। उनके दिमाग में भर रहे हैं, यह रहा भगवान, यह रही किताब, यह रहा ग्रंथ, यह रहा शास्त्र, यह है सत्य। उसके दिमाग में भरे चले जा रहे हैं। और हम सब इसी तरह के ज्ञान से भरे हुए लोग हैं। हमारा यह ज्ञान प्रकाश की तरफ ले जाने वाला नहीं है। यह हमें अंधेरे की तरफ ही ले जा रहा है।
बहुत पहले आदमी के मस्तिष्क की बहुत गहरी तरकीबें, कुछ होशियार लोगों को पता चल गईं, उनका ही काम जारी है। कोरियन युद्ध के बाद चीन में जिन अमरीकी सैनिकों को पकड़ लिया गया था, उनके साथ चीन में बहुत से प्रयोग किए गए। माइंड वॅाश के प्रयोग किए गए। उनका दिमाग साफ कर देने की कोशिश की गई। तो क्या किया? उन लोगों को उपवासा रखा।
भूखा आदमी सजेस्टिव हो जाता है। जितना भूखा आदमी हो उतना कोई भी सुझाव उसको दिया जा सकता है। इसलिए भूखे लोग हमेशा खतरनाक हैं। भूखे लोग कोई भी सुझाव पकड़ सकते हैं। और भूखा आदमी कोई भी काम कर सकता है। भूखे आदमी का मन सोचने-विचारने की स्थिति में नहीं रह जाता। उसके दिमाग में जो डाल दिया जाए, वह जल्दी से पहुंच जाता है। खाली पेट किसी भी चीज को स्वीकार कर लेता है। भरा पेट पच्चीस दफे सोचता है। भरे पेट को सोचने की सुविधा है। भूखे पेट को सोचने की सुविधा नहीं है।
तो उन सैनिकों को भूखा रखा गया और सोने नहीं दिया गया।
अगर सोने न दिया जाए तो दिमाग बहुत ही सुझावशील हो जाता है, सजेस्टिव हो जाता है। एक आदमी को दो-चार दिन मत सोने दें, फिर उससे जो भी आप कहेंगे, वह हां भरने लगेगा। अब वह होश में नहीं है। अब मस्तिष्क ने सब संतुलन खो दिया। इसलिए कैदियों के साथ, जिनसे कंफेशन करवाना हो, उनको जगा कर रखते हैं। उनको सोने नहीं देते। उनको दस-पंद्रह दिन मत सोने दो, जैसे ही वे सोएं, हिला दो। फिर वे होश के बाहर हो गए। फिर उनसे पूछो, तुमने हत्या की थी? तो पहले इनकार करते थे, अब वे हां भरने लगेंगे। अब उनको पता नहीं चल रहा है कि क्या हो रहा है। वे अब सपने में जी रहे हैं करीब-करीब, सपने में, बेहोशी में, मूच्र्छा में।
चीन में उन अमरीकी सैनिकों को खाना कम दिया, सोने नहीं दिया और दिन-रात उनके सामने कम्युनिज्म का प्रचार किया जा रहा है, दिन-रात कम्युनिज्म की बातें की जा रही हैं। वह जाग रहे हैं, बैठे हैं। सो गए, तो हिला दिया। फिर किताब पढ़ी जाने लगी। खाना दिया नहीं जाता, भोजन दिया नहीं जाता। छह महीने तक यह उपद्रव जारी है। कभी कुछ थोड़ा खाना दे दिया है, कभी कुछ दवा दे दी है। जिंदा उनको रखने का पूरा उपाय है। मरने भी नहीं देंगे और जीने भी नहीं देंगे।
छह महीने के भीतर उनका सब होश गड़बड़ हो गया। उनकी सब पुरानी स्मृति गड़बड़ हो गई। छह महीने के बाद जब वे बाहर आए, तब वे चीन की प्रशंसा करते हुए बाहर आए, वे कम्युनिज्म की इज्जत करते हुए बाहर आए। उन्होंने जाकर अमरीका में कहा कि कम्युनिज्म ही ठीक चीज है और कोई चीज ठीक नहीं है। बड़ी हैरानी हुई कि इनको क्या हो गया? इनको हो क्या गया? इनके दिमाग को पूरा पोंछ डाला गया। लेकिन चीन में यह अभी किया गया, धार्मिक लोग हमेशा से यही कर रहे हैं।
बच्चों के साथ माइंड वॅाश किया जा रहा है और मां-बाप ने जितना अनाचार बच्चों के साथ किया है, और किसी ने कभी किसी दूसरे के साथ नहीं किया है। होश में नहीं हो रहा है यह, हमें पता नहीं है। शायद पता हो जाए, तो हम बंद भी कर दें। हमें पता ही नहीं है।
हिंदू बाप बेटे को हिंदू बनाने की पूरी कोशिश में हैं। मुसलमान बाप मुसलमान बनाने की कोशिश में हैं। इस कोशिश का क्या मतलब है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान पुनरुक्त होते रहेंगे? इस कोशिश का क्या मतलब है कि हिंदू-मंस्लिम दंगे जारी रहेंगे? इस कोशिश का क्या मतलब है कि हत्या जारी रहेगी, आदमी आदमी लड़ता रहेगा? इस कोशिश का यही मतलब है।
लेकिन कोशिश जारी रहेगी। और कोशिश क्या है? एक निर्बोध, क्लीन स्लेट बच्चा पैदा हुआ है, जिसकी तख्ती पर अभी कुछ भी नहीं लिखा गया है। मां-बाप जो भी लिख देंगे वह उस तख्ती पर पकड़ जाएगा। और मां-बाप बहुत जल्दी में हैं कि कुछ लिख दें कि कोई और न लिख दे कुछ।
धार्मिक लोग बड़े डरे रहते हैं। हिंदुओं की किताबों में लिखा है, पुरानी किताबों में, कि अगर जैन मंदिर के सामने से निकलते हो और पागल हाथी आ जाए, तो उस पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना, लेकिन जैन मंदिर में शरण मत लेना। बचने की उम्मीद हो तो भी भीतर मत जाना। क्यों? क्योंकि कहीं जैन धर्म की कोई बात कान में न पड़ जाए। जैनियों के ग्रंथों में भी यही लिखा हुआ है: ठीक यही कि हिंदू के मंदिर के सामने से निकलते हों, पागल हाथी आ जाए, तो उसके पैर के नीचे मर जाना बेहतर है, लेकिन हिंदू मंदिर में प्रवेश मत करना। नहीं तो कोई हिंदू धर्म की बात कान में पड़ जाए।
अब कान में पड़ी बात को निकालना मुश्किल होता है। पड़ गई तो पड़ गई और भीतर सब गड़बड़ हो जाएगा। इसलिए दुनिया के सारे धर्मों ने यह कोशिश की है कि दूसरे धर्म से परिचित मत हो जाना। दूसरे धर्म की किताब मत पढ़ना, दूसरे धर्म की बात मत सुनना। अपना धर्म, अपनी किताब, अपना गुरु..अपना गुरु सही, अपनी किताब सही, अपना धर्म सही। बाकी सब गलत हैं।
यह गलत का इतनी जोर से प्रचार जो किया जाता है, यह इसीलिए कि तुम दूसरे को सुनना ही मत, उस तरफ ध्यान ही मत देना। हर मां-बाप, हर समाज, हर संप्रदाय, बच्चे के मन को जल्दी से भर देना चाहता है। ताकि खाली न रह जाए। लेकिन उसे पता नहीं कि वह उसे मुसलमान होने से बचा लेगा, ईसाई होने से बचा लेगा, हिंदू बना देगा। लेकिन उसे पता नहीं कि उसने अपने बेटे को धार्मिक होने से भी सदा के लिए बचा लिया है। मुसलमान अपने बेटे को हिंदू होने से बचा लेगा, ईसाई होने से बचा लेगा, लेकिन उसे पता नहीं कि उसने अपने बेटे को सदा के लिए धार्मिक होने से भी बचा लिया है। क्योंकि धार्मिक होने के लिए खोज चाहिए थी, वह खोज अब नहीं होगी।
इसका मन भर गया, इस भ्रम से भर गया कि अब मैं जानता हूं कौन है भगवान, क्या है भगवान? इसके प्रश्न सब मर गए। इसकी जिज्ञासा मार डाली गई, इसको ज्ञान दे दिया गया।
ध्यान रहे, दो तरह के ज्ञान हैं..एक ज्ञान, जो जिज्ञासा और खोज के बाद उपलब्ध होता है वह प्रकाश में ले जाता है, और एक ज्ञान, जो जिज्ञासा और प्रश्नों की हत्या करके पकड़ लिया जाता है, वह अंधकार में ले जाता है। वह प्रकाश में नहीं ले जाता।
हमारे पास कैसा ज्ञान है? हमारे पास जो ज्ञान है वह हमने खोज से पाया है? पूछ कर, प्रश्न करके, जिज्ञासा करके, संदेह करके? हमने उसे खोजने के लिए कोई श्रम किया है? कोई ऊहापोह किया है? कोई चिंतना की है? कोई मनन किया है? नहीं, हमने उसे पाने के लिए जितना मनन हो सकता था, चिंतन हो सकता था उसकी सब संभावनाएं तोड़ दी हैं। प्रश्न हो सकते थे, उनकी जड़ काट दी है। जिज्ञासा हो सकती थी, उसको मार डाला है और ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
जिज्ञासा की हत्या पर जो ज्ञान खड़ा है। वह अंधकार में ले जाने वाला ज्ञान है। वह ज्ञान कभी भी प्रकाश में नहीं ले जा सकता है। और हम सबके पास ऐसा ही ज्ञान है। हमने कभी पूछा है गहरे मन से कि ईश्वर है? नहीं! पूछने के पहले हमने मान लिया है कि है। जिसने पूछा ही नहीं वह जानेगा कैसे? फिर कुछ भी माना जा सकता है।
रूस में बच्चे पैदा होते हैं, तो उनको वे समझा रहे हैं कि ईश्वर नहीं है। बच्चे यही मान लेते हैं। बच्चे अबोध हैं। रूस में बीस करोड़ की संख्या में अधिकतम लोग यही मानते हैं न कोई ईश्वर है, न कोई मोक्ष है, न कोई आत्मा है। आदमी बस शरीर है।
ये बीस करोड़ लोग अज्ञानी हैं? हमको ऐसा ही लगेगा कि अज्ञानी हैं; क्योंकि ज्ञानी आत्मा को मानते हैं, मोक्ष को मानते हैं, ईश्वर को मानते हैं। लेकिन हम अपने से पूछें कि हममें उनमें फर्क क्या है? उनके बच्चों की स्लेट पर लिखा जा रहा है, ईश्वर नहीं है। बच्चे वह दोहरा रहे हैं। हमारे बच्चों की स्लेट पर लिखा जा रहा है, ईश्वर है। बच्चे वह दोहरा रहे हैं। दोनों के बच्चे दोहरा रहे हैं। दोनों के बच्चे नहीं जान रहे हैं। फर्क क्या है?
इससे क्या फर्क पड़ता है कि आप क्या दोहरा रहे हैं? तोता यह कहे कि ईश्वर है या तोता यह कहे कि ईश्वर नहीं है, क्या फर्क पड़ता है? सिर्फ इतना ही पता चलता है कि एक तोते का मालिक कहता है, ईश्वर है, और दूसरे तोते का मालिक कहता है कि ईश्वर नहीं है। और तो कोई पता नहीं चलता। दोनों तोते हैं, और दोनों मालिक की बातें दोहरा रहे हैं। उनका अपने पास कुछ भी नहीं है।
आदमियत को हमने तोतों की हालत में डाल दिया है। एक-एक आदमी को तोता बना दिया है; लेकिन दुख होता है मन को। इसलिए हम कभी फिकर भी नहीं करते कि हम तोते तो नहीं हैं। हम कहीं प्रोपेगेंडा के शिकार तो नहीं हैं? विक्टिम तो नहीं हैं?
हम सब शिकार हैं। हमारा सारा ज्ञान प्रोपेगेंडा से आया हुआ है। हमारा ज्ञान और कहीं से नहीं आया हुआ है। एक के आस-पास हिंदू प्रोपेगेंडा चल रहा है, वह हिंदू हो गया। एक के पास मुसलमान प्रोपेगेंडा चल रहा है, वह मुसलमान हो गया। एक के पास कम्युनिस्ट प्रोपेगेंडा चलेगा, वह कम्युनिस्ट हो जाएगा। नास्तिक का चलेगा, नास्तिक होगा। आस्तिक का चलेगा, आस्तिक हो जाएगा।
सारी मनुष्यता प्रोपेगंडे से घिरी है, प्रचार से। प्रचार ज्ञान नहीं बन सकता। प्रचार डाला हुआ ज्ञान है। और डालने की तरकीबें जाहिर हो गई हैं, और डाली जा रही हैं। सब तरफ से तरकीबें की जा रही हैं डालने की। आदमी के भीतर-बाहर से ज्ञान डालने की कोशिशें चल रही हैं।
और अब तो हमें और भी अच्छे उपाय मिल गए हैं। अभी अमरीका के एक वैज्ञानिक ने एक घोड़े की खोपड़ी में छेद करके एक इलेक्ट्रोड डाल दिया उसकी खोपड़ी में, एक छोटा सा यंत्र डाल दिया, उस घोड़े को कुछ पता नहीं है। वह यंत्र जो है रेडियो से प्रभावित किया जा सकता है। रेडियो का दूसरा हिस्सा वैज्ञानिक के पास है। वह उस रेडियो से कहता है, घोड़े, नाच, घोड़ा नाचने लगता है। घोड़े को कुछ पता नहीं। घोड़ा यही सोच रहा होगा कि मैं नाच रहा हूं। वह कहता है, घोड़ा रुक, तो घोड़ा रुक जाता है।
यह अभी प्रयोग के तल पर घटना घटी है। यह आदमी के साथ भी कल घटेगी। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। कम्युनिस्ट हुकूमत होगी, जो आदमी गड़बड़ करेंगे उनकी खोपड़ी में आपरेशन करके इलेक्ट्रोड डाल देगी और कहेगी कैपिटल ही असली धर्मग्रंथ है, तो वह आदमी कहेगा कैपिटल ही असली धर्मग्रंथ है। कहेगी, ईश्वर नहीं है, तो वह आदमी कहेगा ईश्वर नहीं है। जो इस इलेक्ट्राड को कहा जाएगा वह खोपड़ी में वही ध्वनि पैदा कर देगा और वह आदमी मुंह से वही बोल देगा।
यह इलेक्ट्रोड नई तरकीब है। पुरानी तरकीब लंबी थी, पंद्रह-बीस साल खोपड़ी पर बच्चे के भरो कि कुरान ही सत्य है, बाइबिल ही सत्य है, गीता ही सत्य है। बीस-तीस साल लग जाते थे, तब कहीं उसकी खोपड़ी दोहराती थी। अब हमने नई तरकीब निकाल ली। वह बैलगाड़ी का रास्ता था, यह जेट प्लेन का रास्ता है। इलेक्ट्रोड डाल देंगे, जो चाहेंगे वह उससे कहलवा लेंगे। आदमी बड़ा निरीह हो जाएगा।
आदमी अभी भी निरीह रहा है। आदमी बहुत हेल्पलेस है। प्रोपेगेंडा खतरनाक है। वह चारों तरफ से आदमी को जकड़ने की कोशिश करता है। और मन का नियम है कि उस पर दोहराए चले जाओ एक बात, तो कितनी देर मन विरोध करेगा, मन धीरे-धीरे, धीरे-धीरे ऊब जाता है और स्वीकार कर लेता है। हमें पता नहीं है। अब जो खोज करते हैं वे कहते हैं।
तीस बच्चे पहली कक्षा में भरती हुए हैं। एक लड़के से सवाल नहीं बना। उसका गुरु उसे कहता है, तुम बिल्कुल गधे हो। उसे पता नहीं वह इलेक्ट्रोड डाल रहा है उसकी खोपड़ी में। उस बच्चे को सुनाई पड़ता है, मैं बिल्कुल गधा हूं। वह डर गया है। अब वह कल सवाल करता है, क्योंकि उसके भीतर इलेक्ट्रोड बोल रहा है। तू है तो गधा, सवाल क्या कर पाएगा?
अब वह डरा हुआ सवाल कर रहा है। गधे कहीं सवाल करते हैं? अब वह सवाल कर रहा है और वह सवाल ठीक नहीं हो पाता है, क्योंकि भीतर तो वह जानता है, मैं गधा हूं। फिर गुरुउसका कहता है कि तू बिल्कुल गधा है, तू कभी नहीं सीख सकता। तुम तीन पीढ़ी से गधे रहे हो। तुम्हारी तीन पीढ़ियां यहां पढ़ी हैं इसी स्कूल में।
उस लड़के के मन में और बात बैठ गई कि मैं बिल्कुल गधा हूं। और बाकी लड़के भी खुश हो रहे हैं कि यह गधा है। दूसरे को गधा देखने में सभी को खुशी होती है। सारी कक्षा मानती है यह गधा है। यह दोहरता चला जाएगा, वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष, यह लड़का गधा हो जाएगा। इलेक्ट्रोड डाल दिया गया।
जिस गुरु ने कभी किसी बच्चे को कहा है, तुम गधे हो, उस गुरु ने इतनी बड़ी हत्या की है जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। डाल दी गई बात। पकड़ ली जाएगी। गहरी होती चली जाएगी और वह बच्चा भी धीरे-धीरे स्वीकार कर लेगा कि मैं ऐसा हूं, मुझसे कुछ होने वाला नहीं।
एक बाप अपने बेटे से कहता है, तुम बिल्कुल निकम्मे हो, तुमसे कभी कुछ नहीं हो सकता। उस बाप को पता नहीं, इलेक्ट्रोड डाल दिया बेटे के मन में। अब वह बेटा जानेगा कि मैं निकम्मा हूं, मुझसे कभी कुछ हो नहीं सकता। और अपने बाप की बात को तो सिद्ध करना ही पड़ेगा उसको। तो वह सब तरह की कोशिश करेगा कि बाप गलत न हो जाए। वह सब तरह के प्रयोग करेगा और जानेगा कि ठीक ही है, बाप कहते हैं, कुछ हो नहीं सकता, तो कुछ हो नहीं रहा है। पिता ठीक ही कहते थे। पिता कभी गलत नहीं कहते थे। और वह निकम्मा हो जाएगा। वह निकम्मा हो जाएगा। निकम्मे होने का हमने उसके भीतर सूत्र डाल दिया।
हम जो भी सूत्र डाल रहे हैं, आदमी वही हो जाता है। हमारा सारा ज्ञान इसी तरह का है, डाला हुआ है, हमारा पाया हुआ नहीं है। और मैं कहना चाहता हूं कि डाला हुआ ज्ञान मनुष्य को अज्ञान में खड़ा रखता है, कभी ज्ञान की तरफ नहीं जाने देता है।
हमें डाले हुए ज्ञान से मुक्त होना पड़ेगा। जो आदमी डाले हुए ज्ञान से मुक्त होता है, वह अपने आदमी होने की घोषणा करता है। वह यह कहता है, मैं मशीन नहीं हूं, मैं तोता नहीं हूं, मुझे सिखाओ मत, मैं खोजना चाहूंगा, मैं जानना चाहूंगा। मैं खुद ही खोजना और जानना चाहता हूं। कृष्ण को कोई विशेष हक नहीं है कि वह खुद जानें। महावीर को कोई विशेष हक नहीं है कि वह खुद जानें। मुझे भी उतना ही हक है कि मैं जानूं। क्योंकि जब जानूंगा तभी मेरी आंखें प्रकाश से भरेंगी। जब जानूंगा तभी मेरे प्राण नाचेंगे, जब जानूंगा तभी मैं रूपांतरित होऊंगा।
दुनिया के सब आदमियों को खुद जानने का हक है। लेकिन नहीं, यह नहीं हुआ अब तक। अब तक अधिक लोगों को दूसरे लोग जना रहे हैं, कोई किसी को जानने नहीं दे रहा है। और हम सब उसी ज्ञान से भरे हुए हैं, जो दूसरे हममें डाल देते हैं। यह अचेतन हो गया है, हमें पता ही नहीं, कब से ज्ञान हममें डाला जा रहा है। बच्चा पैदा हुआ और ज्ञान डालना शुरू हो जाता है। बच्चा पैदा हुआ, उस नासमझ बच्चे के पास भी राम के गीत गाए जा रहे हैं और मोहम्मद की प्रशंसा की जा रही है। उसके मन में पकड़ी जा रही हैं बातें, पकड़ी जा रही हैं बातें।
अब हमारी समझ में यह आना शुरू हुआ है कि हर आदमी का मन सिखाया हुआ मन है, किसी आदमी के पास अपना मन नहीं है। और अपना मन न हो तो हम क्या हैं? हमसे ज्यादा निर्धन कोई भी नहीं हो सकता। माइंड भी बारोड, मन भी उधार। तो फिर हम क्या हैं? हमारी आत्मा क्या है? हमारा होना क्या है? जो सिखा दिया जाए, वही आदमी सीख लेता है। खतरनाक से खतरनाक बातें सिखाई जा सकती हैं।
हिटलर ने अपने मुल्क को सिखा दिया कि यहूदियों को मारे बिना जर्मनी का कोई उद्धार नहीं है। अब बेचारे यहूदियों का कोई संबंध नहीं है जर्मनी के उद्धार और अनुद्धार से। पहले तो लोग हंसे। यहूदियों ने कहा: क्या पागलपन की बात है? दूसरों ने भी कहा: यह क्या पागलपन की बात है?
लेकिन हिटलर होशियार है, ज्यादा जानता है। वह कहता है, फिकर मत करो, दोहराए चले जाओ। जो आज कह रहे हैं पागल, वह कल कहेंगे ठीक। हिटलर दोहराए चला गया, चला गया, चला गया।
पांच-सात साल के भीतर जो कहते थे पागल, वे भी दोहराने लगे कि सब यहूदियों की ही गड़बड़ है। सब अखबार यही कहते हैं, सब रेडियो यही कहते हैं, तो आदमी कब तक बचेगा? एक-एक आदमी क्या करेगा? वह भी कहने लगा, सब यहूदियों की गड़बड़ है, यहूदियों को मारना जरूरी है।
फिर हिटलर ने यहूदी मारने शुरू किए। अकेले एक आदमी ने एक करोड़ यहूदियों की हत्या की। और हम हैरान हैं कि इतना बड़ा विचारशील मुल्क, जर्मनी जैसा विचारशील मुल्क हिटलर की इस बेवकूफी में राजी कैसे हो गया? इलेक्ट्रोड डाल दिया खोपड़ी में। वह राजी हो गए।
फिर जर्मनी बहुत दूर है, उसे छोड़ दें। हमने हिंदुस्तान-पाकिस्तान के नाम पर जो किया, वह क्या है? कुछ नेता चिल्लाए चले गए कि हिंदू-मुसलमान दुश्मन हैं। सम्मिलित था और राम-लीला मुसलमान भी देखता था, कोई सवाल न था, कोई झगड़ा न था; लेकिन ऊपर से लोग चिल्लाए चले गए, हिंदू-मुसलमान दुश्मन हैं। कुछ लोग चिल्लाए चले गए, नहीं दुश्मन नहीं हैं, भाई-भाई हैं।
हालांकि ध्यान रहे, जब भी भाई-भाई का सवाल उठता है तब दुश्मनी स्वीकृत हो चुकी होती है। नहीं तो कोई भाई-भाई नहीं कहता। अगर कभी मुझे आपसे आकर कहना पड़े कि हम दोनों बिल्कुल भाई-भाई हैं, पक्का मानिए भाई-भाई हैं, तो समझना चाहिए झगड़ा शुरू हो चुका है। नहीं तो भाई-भाई दोहराना नहीं पड़ता। भाई-भाई होना काफी है। दोहराने की जरूरत तब पड़ती है जब दुश्मनी साफ होने लगे। जिससे हमारी दुश्मनी होने लगती है उससे हम कहते हैं कि हम बिल्कुल भाई-भाई हैं। हम तो बिल्कुल सगे भाई हैं। यह कहने की जरूरत दुश्मनी के बाद पैदा होती है।
कुछ लोग चिल्लाते गए दुश्मन हैं, कुछ लोग कहते गए भाई-भाई हैं। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, कोई फर्क नहीं। मुल्क के मन में बैठता चला गया। पहले मुल्क हंसा पाकिस्तान की बात सुन कर कि पाकिस्तान! मुसलमान भी हंसे! लेकिन फिर धीरे-धीरे जिन्ना दोहराए चला गया, पाकिस्तान! पाकिस्तान! पाकिस्तान! धीरे-धीरे वह मन में बैठता चला गया। वह धीरे-धीरे पकड़ता चला गया। उसने मुसलमानों को पकड़ लिया कि पाकिस्तान होना ही। उसने हिंदुओं को भी पकड़ लिया कि पाकिस्तान नहीं होने देंगे। लेकिन पाकिस्तान एक सचाई बन गया।
हिंदुस्तान को अखंड रखेंगे हिंदुओं ने कहा। अखंड रखने की आवाज में खंडित हो जाने का डर पूरी तरह प्रविष्ट हो गया। तोड़ देंगे हिंदुस्तान को, उसमें भी बात पूरी प्रविष्ट हो गई। फिर टूटना जरूरी हो गया, वह टूट गया।
यह टूटना कैसे हुआ? इलेक्ट्रोड तोते बना दिया हिंदुस्तान के लोगों को, उनके दिमाग में बात बिठा दी। और फिर हम समझते हैं, बहुत अच्छा हो गया। फिर हम समझते हैं कि बिल्कुल जरूरी था। लेकिन कुछ भी जरूरी नहीं था। दुनिया में मनुष्यता के बीच सब खंड, हमें तोतों की तरह सिखा कर पैदा किए गए हैं। कोई आदमी किसी दूसरे आदमी से भिन्न नहीं है। न चमड़ी का रंग अलग करता है, न देश की हवाएं अलग करती हैं, न पहाड़ों की सीमाएं अलग करती हैं, न समुद्रों की दूरियां अलग करती हैं। मनुष्यता एक है। लेकिन मनुष्यता एक बिल्कुल नहीं मालूम पड़ती है, हजार-हजार टुकड़ों में टूटी हुई, वे टुकड़े हमें दिखाए गए हैं।
धर्म एक है, धर्म दो हो नहीं सकते।
लेकिन हजार-हजार धर्म हैं। वह हमें सिखाए गए हैं। इन सिखाए हुए धर्मों, सिखाए हुए देशों, सिखाई हुई जातियों, और सिखाए हुए ज्ञान से छुटकारा कैसे हो?
बस एक ही रास्ता है, अगर हमें यह ख्याल हो जाए कि यह सिखाया हुआ है; हम पूरे कांशस हो जाएं कि यह सिखाया हुआ है। मैं तोता बनाया गया हूं, बस काम शुरू हो जाएगा, बगावत शुरू हो जाएगी। फिर आप सिखाई हुई बात को दोहराना बंद करेंगे। आप कहेंगे: यह मैं नहीं दोहरारूंगा।
कौन कहता है कि मैं मुसलमान हूं? कौन कहता है कि मैं हिंदू हूं? मुझे पता नहीं। और जब तक परमात्मा नहीं मिलता मैं पूछूं भी किससे कि मैं कौन हूं? कौन बताने वाला हो सकता है?
परमात्मा कभी मिलेगा तो पूछ लूंगा कि तूने मुझे हिंदू बनाया है या मुसलमान बनाया है? तूने मुझे भारतीय बनाया है कि चीनी बनाया है? तूने मुझे क्या बनाया है? शूद्र बनाया है कि ब्राह्मण बनाया है। यह भगवान के सिवाय और किससे पूछा जा सकता है। उससे पूछ लेंगे जब मिलेगा। लेकिन हम आदमी से पूछ कर और आदमी से सीख कर चुप बैठ गए हैं। हमारा सारा ज्ञान ऐसा है।
जीवन के परम सत्यों के संबंध में हमने कुछ बातें सीख ली हैं और दोहराए चले जा रहे हैं। क्या हम इन्हीं बातों को दोहराते-दोहराते कभी सत्य तक पहुंच जाएंगे? कुछ लोग कहते हैं कि असत्य को दोहराते रहो, तो धीरे-धीरे सत्य हो जाता है। हिटलर कहता है अपनी आत्म-कथा में कि घबड़ाओ मत, बस असत्य को दोहराते रहो और सत्य हो जाएगा।
लेकिन असत्य दोहराने से सत्य हो सकता है? कितना ही दोहराओ। सत्य दिखाई पड़ सकता है, सत्य हो नहीं सकता। असत्य को दोहराते-दोहराते ऐसा हो सकता है कि लगने लगे यही सत्य है। लेकिन वह सत्य हो नहीं जाएगा। असत्य तो असत्य ही रहेगा।
असत्य के सत्य होने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन असत्य सत्य मालूम पड़ने लगेगा। और यह असत्य से भी ज्यादा खतरनाक बात है असत्य का सत्य मालूम पड़ना। नहीं, आदमी को अगर खोजना हो ज्ञान, खोजना हो प्रकाश, तो मन की पट्टी को साफ रखें। मन की पट्टी को साफ रखें, मत लिखने दें किसी को अपनी पट्टी पर कि परमात्मा है या नहीं है। मत लिखने दें कि आत्मा अमर है या नहीं है। कहें कि मैं नहीं जानता हूं, और मैं जानने के लिए उत्सुक हूं; लेकिन सीखने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। क्योंकि सीखने से कभी जानना नहीं हो सकता।
रमण के पास कोई आया और कहने लगा: मैं सीखना चाहता हूं धर्म। रमण ने कहा: सीखना चाहते हो? पागल हो गए हो? किसी ने कभी धर्म सीखा है?
तो उसने कहा: फिर मैं क्या करूं?
तो रमण ने कहा: सीखो मत। लर्निंग की जरूरत नहीं है। अनलर्न करो, अनसीखा करो, जो सीखा है वह भी छोड़ दो। खाली होकर आ जाओ।
उस आदमी ने कहा: यह तो मुश्किल है। जो मैं सीखा हूं, आप और कुछ सिखा दें, उसमें जोड़ सकता हूं, एडीसन कर सकता हूं। सरल वही है। आप मुझे कुछ और बता दें, तो मैं उसको भी जोड़ लूंगा।
रमण ने कहा: जोड़ने का सवाल नहीं है; क्योंकि गलत में सिर्फ गलत ही जुड़ सकता है। गलत में सही नहीं जुड़ सकता। माने हुए में सिर्फ माना हुआ जुड़ सकता है, माने हुए में जाना हुआ नहीं जुड़ सकता। उनका कोई तालमेल नहीं है। तू पहले खाली होकर आ। फिर हम तुझे उस तरफ उठने की बात कहें कि कैसे तू खाली होकर खड़ा हो सकता है परमात्मा के समक्ष! सीखी हुई बातों को छोड़ आ। किसने कहा तुझसे कि ईश्वर है? हो सकता है हो, हो सकता है न हो!
बुद्ध एक गांव में प्रवेश किए, सुबह ही सुबह है अभी। एक आदमी मिला है दरवाजे पर गांव के और उसने पूछा है, ईश्वर है? मैं आस्तिक हूं।
बुद्ध ने कहा: ईश्वर? ईश्वर बिल्कुल नहीं है। तुझसे किसने कहा पागल कि ईश्वर है। तू कैसे आस्तिक बन गया? तू किसकी बातों में आ गया? ईश्वर तो है ही नहीं। मैंने खोज लिया, कहीं भी नहीं है। सब कुछ है, ईश्वर भर नहीं है।
वह आदमी झाड़ के नीचे अवाक खड़ा रह गया। उसने सोचा था, बुद्ध से सहायता ले लेगा, अपनी मान्यता को और मजबूत कर लेगा। बुद्ध कहेंगे, है, तो फिर अपनी आस्था और मजबूत हो जाएगी। पता तो नहीं है कि है, मानते हैं कि है। बुद्ध जैसा प्रामाणिक आदमी कह देगा, है, तो हम और जोर से मान लेंगे कि है, इसीलिए आया था।
गुरुओं के पास लोग इसीलिए जाते हैं, अपना अज्ञान और मजबूत करने के लिए! कि वे गुरुभी कह दें कि तुम जो मानते हो बिल्कुल ठीक है। किताब पढ़ते हैं; कि किताब कह दे कि तुम जो मानते हो, बिल्कुल ठीक है। और जहां कोई कहे नहीं, यह ठीक नहीं है, फिर वहां जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। जहां कोई ज्ञान छीन ले वहां कोई नहीं जाता। जहां ज्ञान मिलता हो वहां लोग जाते हैं।
और मैं मानता हूं, जो ज्ञान छीन ले, वह आपका मित्र है, जो ज्ञान दे दे वह आपका दुश्मन है। क्योंकि ज्ञान दिया ही नहीं जा सकता, दिया हुआ ज्ञान झूठा हो जाता है।
बुद्ध ने कहा: नहीं है ईश्वर।
वह आदमी झाड़ के नीचे खड़ा रह गया। बुद्ध हंसते हुए आगे बढ़ गए। बुद्ध के साथ एक भिक्षु है आनंद। वह बड़ा हैरान हो गया। बुद्ध ने कह दिया, बिल्कुल नहीं है। रात पूछ लूंगा एकांत में।
दोपहर को एक आदमी और आया उस गांव में। उस आदमी ने कहा: मैं नास्तिक हूं, मैं ईश्वर को बिल्कुल नहीं मानता हूं। आपका क्या ख्याल है?
वह आदमी भी उसी इच्छा से आया है, जिस इच्छा से सुबह वाला आदमी आया था। अलग-अलग बातें हैं, इच्छा एक ही है। बातों में, भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। बातें अलग हो सकती हैं, सवाल इच्छा का है। वह आया है जानने कि बुद्ध भी कह दें कि ईश्वर नहीं है, तो मैं निशिं्चत हो जाऊं। वह भी परेशान है।
विश्वास करने वाला कभी निशिं्चत नहीं हो पाता। क्योंकि उधार ज्ञान कैसे निशिं्चत करेगा? तो डर बना ही रहता है कि पता नहीं गलत न हो। तो और पक्का कर लें, और पक्का कर लें, और पक्का कर लें। गारंटी कहीं से कोई लिख कर दे दे तो ठीक हो जाए।
बुद्ध से उसने कहा: मैं नास्तिक हूं, ईश्वर को नहीं मानता। आप क्या कहते हैं?
बुद्ध ने कहा: ईश्वर नहीं मानते, पागल हो गए हो? किसने तुमसे कहा ईश्वर को मत मानो? ईश्वर है। मैंने बहुत खोजा, ईश्वर के सिवाय और कुछ भी नहीं पाया।
अब तो आनंद बहुत परेशान हो गया। सुबह इस आदमी ने क्या कहा, दोपहर क्या कह रहा है यह आदमी, यह बुद्ध को क्या हो गया? यह इतनी जल्दी बदल कैसे गए? सोचा, रात जल्दी हो जाए, एकांत मिल जाए तो पूछ लूं।
सांझ और मुश्किल हो गई। एक आदमी और आया, उसने बुद्ध से कहा कि मुझे कुछ भी पता नहीं ईश्वर है या नहीं, मैं क्या करूं?
तो बुद्ध ने कहा: तुझे जो भी थोड़ा-बहुत और पता हो, वह और छोड़ दे। बिल्कुल ऐसा हो जा कि तुझे कुछ भी पता नहीं, खाली हो जा। फिर मुझसे पूछने मत आ। जो होगा वह तुझे पता चल जाएगा। तू खाली हो जा, फिर जो है वह तुझे दिखाई पड़ जाएगा। तू भरा रह, फिर जो है वह तुझे दिखाई नहीं पड़ सकता।
भरी हुई आंखें कुछ देख सकती हैं? खाली आंखें देख सकती हैं। भरे हुए दर्पण में तस्वीर बनेगी? खाली दर्पण में तस्वीर बन सकती है।
तू खाली हो जा, तू दर्पण की तरह बिल्कुल खाली हो जा, तू भाग जा। और मेरे पास आया तो ठीक है, अब और किसी के पास मत जाना, नहीं कोई तुझे भर दे। बचना, गुरुओं से बचना। गुरुओं से बचना बड़ा मुश्किल है। गुरु तलाश करते हुए घूमते हैं कि कहीं कोई फंस जाए, तो जल्दी से उसकी गर्दन पकड़ लें। गुरु सब तरफ घूम रहे हैं कि कोई मिल जाए। बुद्ध ने कहा: गुरुओं से बचना। जाना मत किसी के पास अब पूछने। अच्छा हुआ मेरे पास आया। क्योंकि मैं गुरु नहीं बनता। इसलिए तू बच गया। नहीं तो तुझे फांस लेता। तू बिल्कुल खाली हो जा।
आनंद की तो मुश्किल बढ़ गई और तूफान चलने लगा, आंधी उठने लगी कि यह क्या मामला है? बुद्ध का मतलब क्या है? तीन उत्तर देते हैं एक ही दिन में?
हमारा सबका ख्याल यह है कि जो आदमी जानता है वह बहुत कंसिस्टेंट होगा। वह वही उत्तर सुबह देगा, वही दोपहर, वही सांझ। यह गलत है। बुद्धुओं के सिवाय कंसिस्टेंट कोई भी नहीं होता। बुद्धिहीनों के सिवाय कंसिस्टेंट कोई भी नहीं होता। जितना बुद्धिमान आदमी है हर पल उसका उत्तर बदल जाएगा। क्योंकि सब बदल गया। वह आदमी बदल गया है जिससे बात करनी है। वह घड़ी बदल गई, वह सवाल बदल गया। उसका उत्तर बदल जाएगा।
सांझ, रात सब चले गए हैं, आनंद ने बुद्ध के पैर पकड़ लिए और कहा: मुझे मुश्किल में डाल दिया, तीन-तीन उत्तर एक ही दिन में, बिल्कुल उलटे! बिल्कुल भिन्न! आप कहते क्या हैं? आप बिल्कुल असंगत मालूम पड़ते हैं। सुबह आपने कहा, ईश्वर नहीं है, दोपहर कहा, है, सांझ कहा, कुछ भी मत मान, न है, न ना है, खाली हो जा। मैं क्या करूं?
बुद्ध ने कहा: पागल, तुझे तो मैंने एक भी उत्तर न दिया था, तूने उत्तर क्यों लिया? तुझसे तो मैंने बात ही नहीं की थी, तेरा प्रश्न ही नहीं था, तो तूने उत्तर कैसे पकड़ा? जिनके प्रश्न थे उनको मैंने उत्तर दिए थे, बात खत्म हो गई।
उस आनंद ने कहा: और मुश्किल में मत डालो मुझे; क्योंकि मैं कोई बहरा नहीं हूं, मुझे उत्तर सुनाई पड़ गए।
बुद्ध ने कहा: जो दूसरों को दिए गए उत्तर सुनता है वह मुश्किल में पड़ ही जाएगा। अब इसमें मैं क्या कर सकता हूं? लेकिन तूने पूछा है, तो मैं तुझे कहता हूं। मैंने दिन में एक ही काम किया, जो जहां था उसे वहां से हिलाया। मैंने कोई तीन अलग काम नहीं किए। जो जहां था उसे वहां से हिलाया। जो जिसने सीख रखा था, वह उससे छीना। जो जिसने मान रखा था, उस पर हथौड़ा मार दिया। जो जहां खड़ा था वहां से उसे धक्का दिया कि आगे बढ़। आस्तिक को कहा, नहीं-नहीं, इतना काफी नहीं है। नास्तिक को कहा, पागल है। धक्के दिए उनको। और जो आदमी आया था, जिसने कहा, न आस्तिक हूं, न नास्तिक हूं, उसे कहा, और भी बिल्कुल ख्याल ही छोड़ दे इन सब बातों का, बिल्कुल ही ख्याल छोड़ दे। आस्तिक-नास्तिक होना ही नहीं है।
हम सब भी कहीं-कहीं जकड़ कर खड़े हो गए हैं। हिंदू को हिंदू धर्म से छुड़ाने की जरूरत है, मुसलमान को मुसलमान धर्म से छुड़ाने की जरूरत है, ईसाई को ईसाइयत से, जैन को जैन होने से, कम्युनिस्ट को कम्युनिस्ट होने से, नास्तिक को नास्तिक होने से।
बड़ा उलटा मामला है। छीनने वाले तो लोग हैं, लेकिन छीनने के पहले वे देना शुरू कर देते हैं। मुसलमान भी हिंदू से हिंदू होना छुड़ाना चाहता है, हिंदू भी ईसाई से ईसाई होना छुड़ाना चाहता है, लेकिन इसलिए कि उसको हिंदू बना ले। मुसलमान हिंदू को, हिंदू मिटाना चाहता है कि वह मुसलमान बना ले। छुड़ाने वाले लोग बहुत हैं, लेकिन कुछ देने की आकांक्षा पीछे है। और जो कुछ दे देता है, छुड़ाने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
जैसे मरघट हम अरथी ले जाते हैं, एक कंधे पर रखते-रखते रास्ते में कंधा थक जाता है, फिर दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। कंधा बदल जाता है, वजन उतना ही रहता है, कोई फर्क नहीं पड़ता। कुरान उतनी ही वजनी है जितनी गीता, और मस्जिद उतनी ही खतरनाक है जितना मंदिर, और बाइबिल उतनी ही बांध सकती है जितनी रामायण।
सवाल बाइबिल, गीता, कुरान का नहीं है, सवाल बंधने का है। सवाल मंदिर और मस्जिद का नहीं है, सवाल किन्हीं दीवालों के भीतर खड़े हो जाने का है। कोई भी दीवाल काम दे देती है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सवाल नाम का नहीं है कि इस्लाम हो, कि ईसाई हो कि हिंदू हो।
कोई भी नाम आदमी को घेरे में खड़ा कर देता है। और सारे संप्रदाय और सारे संगठन मनुष्य को धार्मिक नहीं बनाना चाहते, सिर्फ उसे कुछ सिखाना चाहते हैं। और सिखाया हुआ आदमी तोता बन जाता है। आदमी भी नहीं रह जाता, धार्मिक होना तो बहुत दूर है।
मैं आपसे क्या कहना चाहता हूं आज की सुबह, कुछ आपको देना नहीं चाहता। क्योंकि देने की तो बात ही गलत है। आपसे कुछ छीन लेना चाहता हूं, बिना शर्त। कुछ पीछे देने का सवाल नहीं है कि आप यह छोड़ दें और यह पकड़ लें। नहीं, पकड़ छोड़ दें। यह छोड़ दें और दूसरा पकड़ लें, पकड़ जारी रहेगी। नहीं, पकड़ छोड़ दें। पकड़ें मत। और जो सीखा है, सजग हो जाएं कि वह सीखा हुआ आपकी चेतना को विकसित नहीं होने दे रहा है, कारागृह बन गया है। वह सीखा हुआ, आपको तोता बना दिया है, मशीन बना दिया है, यंत्र बना दिया है। हम सबको यंत्र बना दिया है। इस यांत्रिकता से मुक्त हो जाएं, इसे तोड़ डालें..न आस्तिक रह जाएं, न नास्तिक; न हिंदू, न मुसलमान। कोई वाद न रह जाए। क्योंकि हमें कोई सत्य का पता नहीं, हमें वाद कैसे पकड़ें? हमें परमात्मा का कोई पता नहीं, हम किस मंदिर को सही कहें?
और मजा यह है कि जिसको परमात्मा का पता हो गया हो, उसको या तो सभी मंदिर गलत हो जाते हैं या सभी मंदिर सही हो जाते हैं। और दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं। इसमें कोई फर्क नहीं है। लेकिन जिसको पता नहीं है, वह कहता है, यह सही है और वह गलत है। और उपद्रव शुरू होता है। हम सब विश्वास से भरे हुए लोग, विलीफ से भरे हुए लोग, आस्था से भरे हुए लोग अंधे हो जाते हैं।
आस्था अंधा करती है। आस्था जिज्ञासा की हत्या है, मर्डर है। एक आदमी को मार डालना इतना बुरा नहीं है; क्योंकि सिर्फ शरीर मरता है, लेकिन एक आदमी की आत्मा को मार डालना बहुत बुरा है, क्योंकि सब मर जाता है, सब कुछ मर जाता है। शरीर तो हम बचा लेते हैं, आत्मा की हत्या करना शुरू करते हैं।
जैसे किसी आदमी को जन्म के साथ ही पैरालिसिस के इंजेक्शन लगाने शुरू कर दिए जाएं, कि सारा शरीर पैरालाइज्ड हो जाए, तो बेचारा बीस-पच्चीस वर्ष का होते-होते किस हालत में पहुंच जाएगा? पड़ा रहेगा बिस्तर पर, हाथ-पैर हिल नहीं सकेंगे, क्योंकि सारा शरीर लकवा खा गया है।
इसी तरह हमारी आत्मा को जन्म के साथ ही पैरालाइज किया जा रहा है, लकवा मारा जा रहा है। लकवे के अलग-अलग नाम हैं, अच्छे-अच्छे नाम हैं। बीमारियों की दुकान चलानी हो, तो नाम अच्छे रखने पड़ते हैं, और अगर कारागृह में भी लोगों को निमंत्रण करना हो, तो कृष्ण-मंदिर नाम रख दो, तो बहुत जंचता है। और अगर हथकड़ियों में भी लोगों को खुद ही बुलाना हो कि आओ और अपनी तरफ से हथकड़ियां पहन लो, तो हथकड़ियां मत कहना उनको, सोने का पालिस चढ़ा देना और आभूषण कहना।
कई नासमझ सोने की हथकड़ियां पहने हुए हैं, सिर्फ उनको आभूषण समझ कर। आभूषण समझ में आ गया, तो हथकड़ी आदमी पहन लेता है। और मंदिर ख्याल में आ जाए, सिर्फ दरवाजे पर लिखा हो मंदिर, तो जेल के भीतर प्रवेश कर जाता है।
अच्छे शब्द बीमारियों को देना पड़ते हैं। तो हम कहते हैं, धर्म-शिक्षा दे रहे हैं बच्चों को। सिर्फ पैरालाइज कर रहे हैं। उनकी आत्मा को लकवा लगा रहे हैं कि उनकी आत्मा कभी चिंतन न कर सके, कभी मुक्त होकर सोच न सके, कभी विचार न कर सके, कभी प्रश्न न उठे, कभी जिज्ञासा न उठे। मर जाए भीतर सब, बस आदमी शरीर रह जाए और चलता रहे। भीतर कोई चिंतन नहीं, विचार नहीं, मनन नहीं, सवाल नहीं, प्रश्न नहीं, संदेह नहीं। मर गई आत्मा।
आत्मा जितना संदेह करती है, जितना पूछती है, जितना विचार करती है, उतनी विकसित होती है। जितना खोजती है, उतना आगे बढ़ती है। जितना गतिमान होती है, एक-एक कोने में खोजती है, जगह-जगह खटखटाती है..द्वार-दरवाजे, नये रास्ते, अनजान रास्तों पर यात्रा करती है, अनजान सागरों में उतरती है नौका को लेकर, उतनी ही परमात्मा के निकट पहुंचने लगती है; क्योंकि परमात्मा से ज्यादा अनजान और कोई भी नहीं।
और अगर हमें अपने भीतर उस प्रकाश को जानना हो, तो हमें बाहर के झूठे प्रकाश छोड़ देने पड़ेंगे। हमने बाहर ज्ञान के झूठे प्रकाश के स्तंभ बना लिए हैं और हम मान लिए हैं कि हम जान गए, सब ठीक हो गया। सब बात खत्म हो गई है।
मैंने सुना है, एक जादूगर था, उस जादूगर के पास बहुत सी भेड़ें थीं। उन भेड़ों को बेचने का ही वह काम करता था। रोज भेड़ें कटती थीं। एक भेड़ दूसरी भेड़ों के सामने कटती थीं। बाकी भेड़ें बहुत घबड़ा जाती थीं, बहुत डर जाती थीं, चिल्लाती थीं, रोती थीं, बहुत बीमार पड़ जाती थीं; क्योंकि उनको पता हो गया कि कल हम भी कट जाएंगी। सब भेड़ें जानती हैं कि कटने का वक्त आ जाएगा आज नहीं कल। जादूगर बड़ा परेशान था कि बाकी भेड़ों को इस घबड़ाहट से, परेशानी से कैसे बचाया जाए? फिर उसने एक तरकीब की। उसने सब भेड़ों को बेहोश किया, हिप्नोटाइज किया और उन भेड़ों से कह दिया कि सिर्फ दूसरी कटेंगी, तू नहीं कटने वाली है। सब भेड़ों के सामने कह दिया बेहोश करके कि दूसरी भेड़ें कटती हैं, तू नहीं कटेगी। क्योंकि दूसरी भेड़ें हैं। तू तो..तू तो सिंह है, तू भेड़ नहीं है।
सब भेड़ों को ख्याल आ गया कि वह तो सिंह हैं, भेड़ नहीं हैं। फिर भेड़ें बड़ी मस्त रहने लगीं। एक भेड़ कटती, तो बाकी भेड़ समझती हैं कि वह भेड़ है, इसलिए कट रही है। हम तो सिंह हैं। हमारे कटने का कोई सवाल ही नहीं है।
फिर भेड़ें बीमार पड़ना बंद हो गईं। फिर एक भेड़ कटती, दूसरी भेड़ें नाचती रहतीं, घूमती रहतीं। फिर दूसरी भेड़ कटती, लेकिन हर भेड़ यह समझती है कि वह भेड़ है। बाकी सब भेड़ हैं, मैं भर सिंह हूं।
वह जादूगर बड़ा निशिं्चत हो गया। भेड़ों ने भागना बंद कर दिया, वह जंगल में छिपना बंद कर दिया। भे.ड़ को कटते देख कर उन्होंने दुख मनाना बंद कर दिया। जादूगर निशिं्चत हो गया। रोज भेड़ कटती रही।
लेकिन भेड़ों का यह दंभ, यह ख्याल कि हम सिंह हैं, सब भय से उन्हें मुक्त कर दिया। एक तरह वह निर्भय हो गईं, मौत जारी रही, वह एक मूच्र्छा में पड़ गईं, मौत जारी रही। वह बेहोशी में रहीं, मौत जारी रही। उनको जो ज्ञान दे दिया उसने कि तुम सिंह हो, वह खतरनाक हो गया।
हम सब भी इसी तरह की भेड़ें हैं, जिनको सिंह होने का ख्याल पैदा हो गया है। रोज कोई मरता है, लेकिन हमको यह ख्याल नहीं आता कि मैं मरूंगा। हम समझते हैं, वह मर गया, बेचारा। जो मर जाता है, वह बेचारा हो जाता है। बहुत बुरा हुआ। हम इतने मजे से उससे यह बात करते हैं कि बहुत बुरा हुआ। यह सहानुभूति हम ऐसे रसपूर्ण ढंग से प्रकट करते हैं कि बहुत बुरा हुआ। कि ऐसा लगता है कि यह बुरा हम पर कभी होने को नहीं है।
उससे हम जब बेचारा कहते हैं, तो हम ऐसा कहते हैं, हम दो जाति के लोग हैं। वह बेचारा, हम बहुत अलग हैं। यह मरना यहां होने वाला नहीं है।
भेड़ें कुछ भ्रम में हैं। हमें कुछ भ्रम है कि हम अमर हैं। वह आत्मा अमर है, वह जो हमें दोहराया जा रहा है, हम सबके दिमाग में बैठ गया कि हम अमर हैं। इसलिए हम तो मरने वाले नहीं हैं, दूसरे लोग मर जाते हैं। और हम सबके मन में बैठ गया कि सबके भीतर परमात्मा है। सब ब्रह्मस्वरूप हैं, बस सब ठीक है, फिर अब कुछ करना नहीं है, न कुछ खोजना है, न कहीं जाना है। सब ब्रह्म हैं ही, सब ईश्वर हैं ही, तब और क्या करना है, अब और क्या खोजना है? यह ज्ञान बड़ा खतरनाक है।
ये बातें सच हो सकती हैं। किसी दिन हम उस जगह पहुंच सकते हैं जहां हम जानें कि हम आत्मा हैं। लेकिन वहां हम अभी पहुंच नहीं गए हैं। किसी दिन हम उस जगह खड़े हो सकते हैं जहां पता चले कि मैं परमात्मा के साथ एक हूं, लेकिन वहां हम अभी पहुंच नहीं गए। अभी यह उधार ज्ञान महंगा पड़ सकता है। तो आज की सुबह की इस चर्चा में मैं आपसे कहना चाहता हूं, तोते मत बनना। और जो तोता बनाने की कोशिश करे उसे दुश्मन जानना। वह गुरु नहीं है।
और जिन मंदिरों में आदमी तोता बनाया जा रहा हो वे कारागृह हैं। मनुष्य की दासता के सबसे पुराने स्थान और दुकानें..दासता एक ही है..ज्ञान की दासता। ज्ञान के लिए गुलाम मत बनना, किसी के भी नहीं। ज्ञान के लिए मुक्त होने की कोशिश करनी जरूरी है, तभी हम अंधकार से प्रकाश की यात्रा कर सकते हैं।
और सूत्रों के बाबत बाद में हम बात करेंगे।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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