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शनिवार, 25 अगस्त 2018

क्या मनुष्य एक यंत्र है?-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(जागरण के तीन सूत्र)

मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य एक यंत्र है और मनुष्य की चेतना जागी हुई नहीं है। मनुष्य एक सोती हुई आत्मा है। इस संबंध में बीते दो दिनों में थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं।
मनुष्य के सोए हुए होने से मेरा क्या अर्थ है? मनुष्य यंत्र है; इस बात को कहने से क्या प्रयोजन है? इस बात को कहने से मेरा प्रयोजन यह है कि हम जिसे जागरण समझते हैं, वह जागरण नहीं है। बल्कि स्वप्न देखने की ही एक दशा है। रात आकाश में तारे भरे होते हैं, सुबह सूरज निकलता है और हम सोचते होंगे कि सूरज निकलने के साथ तारे समाप्त हो गए या कि तारे कहीं चले गए? न तो तारे समाप्त होते हैं और न कहीं जाते हैं, सूरज की रोशनी में छिप जाते हैं, मौजूद रहते हैं। अगर कोई बहुत गहरे कुएं के भीतर चला जाए, अंधेरे में; तो वहां से उसे दिन में भी आकाश के तारे दिखाई पड़ सकते हैं। तारे मौजूद होते हैं, लेकिन रोशनी में छिप जाते हैं, दिखाई नहीं पड़ते।

रात हम स्वप्न देखते हैं, सुबह उठ कर हम सोचते हैं स्वप्न समाप्त हो गया। स्वप्न हमारे भीतर चलते रहते हैं, और अगर थोड़ी कोई आंख बंद करके अपने भीतर जाए तो पाएगा कि वहां सपने मौजूद हैं, वहां ड्रीम्स चल रहे हैं। किसी भी क्षण आंख बंद करें और भीतर देखें तो पाएंगे कि भीतर कोई स्वप्न चल रहा है। हो सकता है आप राष्ट्रपति बन गए हों अपने सपने में; या हो सकता है, आपने कोई बहुत बड़ा महल खड़ा कर लिया हो; या हो सकता है, आपने अपने दुश्मन की हत्या कर दी हो। आंख बंद करके भीतर देखेंगे तो पाएंगे कि वहां कोई स्वप्न मौजूद है। दिन में जागते हुए भी। और जिस चित्त में स्वप्न मौजूद है, उस चित्त को ही मैं सोया हुआ चित्त कहता हूं। रात भी हम सपने देखते हैं, और जाग कर दिन में भी सपने देखते रहते हैं। एक फर्क पड़ता है, दिन में और रात में, रात में आंखें बंद होती हैं, इसलिए केवल सपना मौजूद होता है, बाहर की दुनिया हमारी आंखों में नहीं होती। दिन में सपना भीतर मौजूद होता है, बाहर की दुनिया बाहर मौजूद हो जाती है।
इस बाहर की दुनिया के कोलाहल में भीतर का सपना दब जाता है, मिटता नहीं है। जैसे सुबह सूरज की रोशनी में आकाश के तारे दब जाते हैं, मिटते नहीं हैं। सांझ होते, सूरज के विदा होते ही तारे चमकने शुरू हो जाते हैं; वैसे ही दिन की रोशनी में बाहर की दुनिया के चित्र सामने खड़े हो जाते हैं; इसलिए भीतर के सपने दब जाते हैं; मिटते नहीं। आंख बंद करें और भीतर देखें सपना मौजूद होगा, सांझ होगी और बाहर की दुनिया से चित्त थक जाएगा और आप फिर सो जाएंगे, सपने फिर शुरू हो जाएंगे।
सपने चैबीस घंटे चल रहे हैं और उनकी एक कंटीन्युटी है। उनका एक क्रम है, लगातार। वह टूटता नहीं है। और इसलिए मैंने कहा कि मनुष्य सोया हुआ है, जो सपने देखता है, वह सोया हुआ है। वह नींद में है। जिस दिन चित्त सारे सपनों से मुक्त हो जाता है, भीतर कोई स्वप्न नहीं रह जाता, कोई ड्रीम नहीं रह जाता, भीतर एक शांति और सन्नाटा पैदा हो जाता है। जैसे किसी झील में लहरें न रह जाएं और झील बिलकुल शांत हो गई हो, तो उस झील में चांद और तारों के प्रतिबिंब बनने लगते हैं, वैसे ही चित्त में जब कोई स्वप्न नहीं रह जाता,और चित्त शांत हो जाता है, और सब लहरें बंद हो जाती हैं, तो शांत चित्त में ही सत्य का प्रतिबिंब बनना शुरू होता है। शांत चित्त में ही परमात्मा की छवि, परमात्मा उतरना शुरू होता है। उसका आलोक उतरना शुरू होता है। जाग्रत चित्त सत्य की और स्वयं की खोज का द्वार है। लेकिन हम सोए हुए हैं, और सोए हुए हम जो भी करेंगे, उससे हम सत्य के या स्वयं के या आनंद के निकट कभी नहीं पहुंच सकते। सोया हुआ आदमी चाहे कितना ही सोचे कि कहीं पहुंच गया है, कहीं पहुंचता नहीं है!
आपने हजारों बार रात सपने में देखा होगा कि आप कश्मीर पहंुच गए, हिमालय पहुंच गए, या तिब्बत पहंुच गए और सुबह जाग कर आपने पाया है कि आप वहीं हैं, जहां आप सोए थे आप कहीं नहीं पहुंचे। सोया हुआ आदमी पहंुचने के सपने देख सकता है, लेकिन कहीं पहुंचता नहीं। और जिस दिन भी जागेगा, जिस क्षण भी पाएगा कि मैं तो वहीं खड़ा हूं, जहां था। इसलिए सोया हुआ आदमी केवल यात्रा के सपने देखता है, लेकिन यात्रा नहीं कर पाता। सोया हुआ आदमी सोचता है, मैं यह बन जाऊं , मैं यह बन जाऊं , मैं यह हो जाऊं; यह सब सपना है। जिस दिन भी जागेगा वह पाएगा कि वह कुछ भी नहीं बना था, और वहीं का वहीं खड़ा है। इसलिए सोया हुआ आदमी जिंदगी भर विचार करता है, न मालूम क्या-क्या बन जाने के, लेकिन कुछ बन नहीं पाता है। मौत उसके सारे सपनों को तोड़ देती है, और वह पाता है कि मैं तो वहीं खड़ा हूं जहां मैं था।
यही है विफलता जीवन की, यही है फ्रस्ट्रेशन, यही है दुख, यही है विषाद। बहुत सोचते हैं कहीं पहुंचने का लेकिन कहीं पहंुच नहीं पाते। और जहां पहुंचते हैं, वहां कभी सोचा भी न था। सारी यात्रा मृत्यु में समाप्त होती है। जहां कोई नहीं पहुंचना चाहता, वहां हम पहुंच जाते हैं। जिंदगी भर चलकर मौत में पहंुच जाते हैं। जिंदगी भर दौड़ कर मृत्यु में पहंुच जाते हैं, जहां कोई भी नहीं पहुंचना चाहता।
तो मैं यह आपको आज प्रारंभ में निवेदन कर दूं, जो सोया हुआ है, वह कहीं नहीं पहुंचेगा सिवाय मृत्यु के। सोए हुए होने और मौत में कोई गहरा संबंध है। मौत असल में और गहरे रूप से सो जाने के सिवाय और क्या है? जो जिंदगी भर सोया रहा है, वह मृत्यु की गहरी निद्रा में पहुंच जाता है, और कहीं भी नहीं। लेकिन जो अपने भीतर जागना शुरू हो जाता है, उसके लिए मृत्यु मिट जाती है। सोया हुआ चित्त, स्लीपिंग मांइड मौत में पहंुचता है। जागा हुआ चित्त, अवेकंड माइंड, वहां पहुंच जाता है, जहां अमृत है, जहां कोई मृत्यु नहीं। हम सारे लोग सारी यात्रा करके कहां पहंुचते हैं? यह पूछ लेना जरूरी है, क्योंकि वह मंजिल बता देगी कि हम सोए हुए थे या जागे हुए थे।
एक फकीर से किसी ने जाकर पूछा, हमें कुछ जीवन और मृत्यु के संबंध में समझाएं उस फकीर ने कहा, कहीं और जाओ! अगर जीवन के संबंध में समझना है तो मैं समझाऊं, लेकिन मौत के संबंध में समझना है तो कहीं और जाओ। क्योंकि मौत तो हम जानते ही नहीं कहां है? हम तो केवल जीवन जानते हैं।
 जो जागता है वह केवल जीवन को जानता है, उसके लिए मौत जैसी कोई चीज नहीं रह जाती। जो सोता है; वह जीवन को कभी नहीं जान पाता, वह केवल मृत्यु को ही जानता है। सोया हुआ आदमी एक अर्थों में मरा हुआ आदमी है। इसलिए मैंने कहा, मनुष्य एक यंत्र है, क्योंकि सोया हुआ है और जो सोया हुआ है, और यंत्र है वह मृत है। उसे जीवन का केवल आभास है, कोई अनुभव नहीं। और इस सोए हुए होने में वह जो भी करेगा, चाहे वह धन इकट्ठा करे, चाहे वह धर्म इकट्ठा करे, चाहे वह दुकान चलाए और चाहे वह मंदिर, और चाहे वह यश कमाए, और चाहे त्याग करे।।इस सोई हुई स्थिति में जो भी किया जाएगा, वह मृत्यु के अलावा और कहीं नहीं ले जा सकता।
एक कहानी मुझे बहुत प्रीतिकर रही है, वह आपसे कहूं। एक राजा ने रात सपना देखा। रात उसने सपना देखा और वह घबड़ा गया और उसकी नींद टूट गई। और उसने सारे महल को जगा दिया, और उसने सारी राजधानी में खबर पहंुचा दी कि मैंने एक सपना देखा है और जो लोग भी मेरे सपने का अर्थ कर सकें, उसकी व्याख्या कर सकें, वे शीघ्र चले आएं। गांव में जो भी विचारशील लोग थे, समझदार लोग थे, ज्ञानी थे, वे भागे हुए राजमहल आए। उन्होंने राजा से पूछा कि कौन सा सपना देखा कि आधी रात में और हमारी जरूरत पड़ गई? उस राजा ने कहाः मैंने सपने में देखा, मौत मेरे कंधे पर हाथ रख कर खड़ी है, और मुझसे कह रही है, आज सांझ ठीक समय पर, और ठीक जगह पर मुझे मिल जाना। मेरी कुछ समझ में नहीं आता है, इस सपने का क्या अर्थ है? तुम मुझे समझाओ।
वे विचार में पड़ गए और इस सपने का अर्थ करने लगे। क्या होगी इसकी सूचना, क्या है लक्षण और तभी उस राजा के बूढ़े नौकर ने कहा, इनके अर्थ और इनकी व्याख्याएं, और इनके शास्त्र बहुत बड़े हैं, सांझ जल्दी होे जाएगी। और मौत ने कहा है कि सांझ होते-होते, सूरज ढलते-ढलते मुझे ठीक जगह पर मिल जाना; मैं तुम्हें लेने आ रही हूं। उस नौकर ने कहा कि उचित तो यह होगा कि आपके पास जो तेज घोड़ा हो, उसको लेकर इस महल से जितनी दूर निकल सकें, निकल जाएं। इस महल में एक क्षण भी रुकना खतरनाक है। जितने दूर जा सकें चले जाएं। मौत से बचने का इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। और अगर इन पंडितों की व्याख्या के लिए बैठे रहे कि ये क्या कहेंगे और क्या अर्थ? तो उस बूढ़े ने कहा, मैं आपसे कहे देता हूं, पंडित आज तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं। कोई निष्पत्ति, कोई समाधान पर नहीं पहुंचे हैं; हजारों साल से विचार कर रहे हैं, और अभी तक वह जीवन का ही कोई अर्थ नहीं निकाल पाए, तो मौत का क्या अर्थ निकाल पाएंगे। सांझ बहुत जल्दी हो जाएगी, इनका अर्थ न निकल पाएगा, आप भागें। उचित यही है कि इस महल को छोड़ दें।
राजा को बात समझ में आई, उसने अपना तेज से तेज घोड़ा बुलाया और बैठा और भागा। दिन भर उस दिन वह भागता रहा। न उसने धूप देखी न छंाव, न उस दिन उसे प्यास लगी न भूख; जितने दूर निकल सके, निकल जाना था, मौत पीछे पड़ी थी। महल जितना दूर छूट जाए, उतना अच्छा था। मौत के पंजे के बाहर जितना हो जाए, उतना अच्छा। सांझ होते-होते वह सैकड़ों मील दूर निकल गया। उसने एक बगीचे में जाकर अपने घोड़े को रोका, वह प्रसन्न था। वह काफी दूर आ गया था। सूरज ढल रहा था, उसकी आखिरी किरण डूबने लगी, वह घोड़ा बांध रहा था, उसे अनुभव हुआ कि पीछे किसी ने कंधे पर आकर हाथ रख दिया है। उसने पीछे लौट कर देखा, जो काली छाया सपने में उसको दिखाई पड़ी थी, वही खड़ी थी। वह घबड़ा गया, उसके सारे प्राण कंप गए। उसने कहा तुम? तुम कौन हो? उस मृत्यु ने कहा मैं हूं तुम्हारी मृत्यु। क्या भूल गए, सुबह ही आज ही रात, बीती रात ही तो मैंने तुम्हें स्मरण दिलाया था कि सांझ होने के पहले सूरज ढलने के पहले ठीक जगह मिल जाना। मैं तो बहुत घबड़ाई हुई थी, क्योंकि तुम जहां थे वहां से इस झाड़ के नीचे तक आने में बड़ी कठिनाई थी, लेकिन तुम्हारा घोड़ा बहुत तेज था, तुम ठीक जगह आ गए हो। मैं तुम्हारे घोड़े को धन्यवाद देती हूं, इस जगह तुम्हें मरना था। और मैं चिंतित थी कि तुम आ पाओगे ठीक जगह कि न आ पाओगे।
दिन भर की दौड़ सांझ को मौत में ले गई। सोचा था बचने के लिए भाग रहा है, वह राजा। उसे पता भी न था कि बचने के लिए नहीं भाग रहा था, जिससे बचना चाह रहा था, प्रतिक्षण उसी के मुंह में चला जा रहा था। हम सब भी अपने-अपने घोड़ों पर सवार और हम सब भी मौत के मुंह में चले जा रहे हैं। और हम जो भी करेंगे वह शायद हमें ठीक जगह पहुंचा देगा, जहां मौत है। और हम जिस रास्ते पर भी चलेंगे, वो हमें मौत के अतिरिक्त और कहीं नहीं ले जाएगा, आज तक यही होता रहा है। सोया हुआ आदमी जो कुछ भी करेगा, वह मौत में ले जाता है। सोने का अंतिम परिणाम मौत ही हो सकती है। लेकिन जरूरी नहीं है कि कोई सोया ही रहे, जागा जा सकता है। लोग जागे हैं, लोग आज भी जाग सकते हैं। और जागने का मार्ग भी है, रास्ता भी है, द्वार भी है। लेकिन पहली बात सोने को तोड़ना है, नींद को तोड़ना है। नींद में हम जो भी करेंगे उससे कुछ भी होने को नहीं है। हमारी पूजा और हमारी प्रार्थना भी कुछ न करेगी। नींद बुनियादी रूप से पहले चरण की तरह टूट जानी चाहिए, फिर कुछ हो सकता है। वह नींद कैसे टूटे उस पर आज, आज की संध्या आपसे बात करनी है। कैसे भीतर जागरण, कैसे भीतर चेतना होश से भर जाए, भीतर दिया जल जाए बोध का? उसकी आज आपसे बात करनी है।
पहली बात ही ठीक से समझ लें। सोए हुए कुछ भी नहीं हो सकता है। एक घटना मुझे स्मरण आती है। एक फलों की दुकान के पास एक भिखारी खड़ा हुआ था, दोपहर हो गई थी, और फलों की दुकान का मालिक अपने घर भोजन करने को जाना चाहता था। उसने एक लोमड़ी पाल रखी थी, जब वह भोजन के लिए जाता था, तो वह लोमड़ी उसकी दुकान के बाहर बैठ कर पहरा दिया करती थी। उसने उस लोमड़ी को कहा कि तू बाहर आ जा, और द्वार पर बैठ; और आस-पास कोई भी आदमी आए तो खयाल रखना, वह कोई ऐसा काम तो नहीं कर रहा है, जिससे दुकान को नुकसान पहुंचने की संभावना हो; अगर वह कुछ काम करता हुआ दिखाई पड़े तो सचेत हो जाना, और आवाज दे देना। और देख लोमड़ियां कुत्तों से भी ज्यादा होशियार होती हैं, इसलिए मैंने तुझे पाला है, और तेरे ऊपर यह जिम्मा छोड़ा है। उस लोमड़ी से जब यह कहा गया, वह दुकान के पीछे से बाहर आकर बैठ गई।
वह मालिक चला गया और जो भिखारी पास में खड़ा हुआ यह बात सुनता था, लोमड़ी से कही गई बात उसने सुनी थी। वह चुपचाप जहां बैठा हुआ था, वहीं लेट गया और सो गया। आंखें बंद कर लीं और सो गया। लोमड़ी ने सोचा, सो जाना तो कोई क्रिया नहीं है, स्लीपिंग इ.ज नॉट डूइंग एनीथिंग। तो सो रहा है, यह कुछ कर तो रहा नहीं है, तो इसके सोने से तो कोई भी खतरा नहीं है दुकान को। क्योंकि वह कुछ करता, तो कुछ खतरा हो सकता था, लेकिन यह तो कुछ कर नहीं रहा है, सोना कोई करना नहीं है। उसने यह अपने मन में सोचा। और यह तर्क बड़ा उचित था कि सोना कोई क्रिया तो नहीं है, यह कुछ कर तो नहीं रहा है, जिससे दुकान को कोई खतरा और हानि का डर हो, सिर्फ सो रहा है। लेकिन उसे सोते देख कर लोमड़ी को भी नींद आने लगी। नींद बड़ी संक्रामक बीमारी है, अगर पास में आपके दो-चार लोग सोने लगें तो बहुत मुश्किल हो जाएगा आपका जागना; आप भी सो जाएंगे। उस लोमड़ी को नींद आने लगी। और कोई खतरा भी न था, एक आदमी था, जिससे खतरा हो सकता था, वह भी सो गया था, तो लोमड़ी भी सो गई।
लोमड़ी के सोते ही वह आदमी उठा, दुकान के भीतर घुस गया और जो चोरी उसे करनी थी, वह उसने कर ली। लोमड़ी को यह पता नहीं था कि सोते हुए लोग भी कुछ करते हैं, लोमड़ी भोली-भाली थी, उसे आदमियों का कोई अंदाज नहीं था कि आदमी बहुत खतरनाक है। सोए हुए आदमी से भी डर है। और सच तो यह है कि सोए हुए आदमी से ही डर है। और उस आदमी ने चोरी की।
सोया हुआ आदमी चोरी ही कर सकता है। सोया हुआ आदमी असत्य बोल सकता है, सोया हुआ आदमी बेईमानी कर सकता है, हिंसा कर सकता है। सोया हुआ आदमी ही यह काम कर सकता है, यह लोमड़ी को पता नहीं था। लोमड़ी ने समझा कि सोना कोई काम थोड़े ही है, जो सो गया, सो गया; उससे क्या डर है? लोमड़ी भोली-भाली थी, उसे जानवरों का पता होगा, आदमियों का कोई पता नहीं था। आदमी बड़े खतरनाक हैं, और सोता हुआ आदमी बहुत खतरनाक है। क्योंकि सोया हुआ आदमी कुछ न कुछ करेगा, और नींद में वह जो भी करेगा, वह खतरनाक है, वह चोरी होगी, हिंसा होगी, झूठ होगा, असत्य होगा।
वह आदमी चोरी करके भाग गया। उसका मालिक वापस आया, उसने देखा चोरी हो गई है। चोरी हो गई थी। फल चुरा लिए गए थे। और लोमड़ी घबड़ाई हुई बैठी थी। उसने उससे पूछा कि क्या हुआ? लेकिन लोमड़ी तो खुद सो गई थी, वह क्या बताती? वह भागा बाहर, थोड़ी ही दूर एक दरख्त के पीछे उसने उस आदमी को छिपा हुआ, फल खाते हुए पाया, जिसने चोरी की थी। वह उसके पास गया और उसने कहाः मेरे मित्र, क्या मैं तुमसे पूछ सकता हूं कि तुमने चोरी कैसे की? उसने कहा बहुत आसान है। लोमड़ी को मैंने सोने का धोखा दिया, मैं सो गया और लोमड़ी धोखे में आ गई। उसने शायद सोचा हो कि सोया हुआ आदमी क्या कर सकता है? लेकिन मैं तुम्हें बता देता हूं, आज तक दुनिया में जो कुछ भी किया है, वह सोए हुए आदमी ने ही किया है। इसलिए दुनिया इतनी बदतर है। तुम्हारी लोमड़ी धोखे में आ गई, तुम धोखे में मत आना कभी। अगर लोमड़ी मेरे सोने के धोखे में न आती, तो मैं चोरी न कर पाता।
मैंने यह कहानी सुनी और यह कहानी मुझे बड़ी हैरानी की लगी, और बड़ी सच्चाई से भरी हुई लगी। यह हम जो कुछ भी कर रहे हैं, जीवन में उससे दुख फलित होता है, हिंसा, चोरी, अनाचार । शायद हमें इस बात का पता भी नहीं है, और शायद इस बात का हमें कोई खयाल भी नहीं है, ये सारी बातें हमारे सोने से पैदा होती हैं, सोने से निकलती हैं। हम नींद में हैं, हमारी चेतना सोई हुई है। और इस सोई हुई स्थिति में अगर हम चाहें कि इन सारी क्रियाओं को बदल दें, तो यह असंभव है। यह बिलकुल इंपासिबिलिटी है। इसे दो-टूक ठीक से समझ लें, इसे बहुत स्पष्ट रूप से समझ लें कि सोई हुई स्थिति में कोई परिवर्तन मनुष्य के जीवन में संभव नहीं है। और अगर परिवर्तन कोई अपने ऊपर थोप भी लेगा तो वह झूठा होगा, और पाखंड होगा। उसके प्राणों में कोई क्रांति नहीं होगी, वह वही का वही आदमी भीतर होगा। सोई हुई चेतना ऊपर उठने में असमर्थ है, सोई हुई चेतना सत्य को और जीवन को जानने में असमर्थ है।
कैसे इसे जगाएं, क्या करें? लोग कहते हैं कि अगर आत्मा को जानना है, तो आत्मा को मानना पड़ेगा। मैं नहीं कहता। सोया हुआ आदमी क्या मान सकता है? उसके मानने का कितना मूल्य है? उसके मानने का कितना अर्थ है, उसके विश्वास का कितना अर्थ है? आत्मा को मानना नहीं पड़ेगा, बल्कि जागना पड़ेगा, और जो जागता है वह पाता है कि आत्मा के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है। लेकिन यह जागरण कहां से शुरू हो? लोग आपसे कहेंगे कि भीतर झांके। मैं आपसे कहूंगा, जो बाहर झांकने में समर्थ नहीं है, वह भीतर कभी नहीं झांक सकेगा। इसलिए जागरण का पहला चरण है, बाहर जो जगत फैला हुआ है, उसके प्रति जागरण। वह जो हमारे चारों तरफ फैला हुआ जगत है, उसके प्रति जागरण पहला चरण है, वहीं से शुरुआत हो सकती है। जो बाहर के प्रति जागेगा वह धीरे-धीरे-धीरे भीतर के प्रति भी जागना शुरू हो जाता है। क्यों? क्योंकि बाहर और भीतर दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज के दो छोर हैं। जो बाहर के प्रति जागना शुरू होगा, वह धीरे-धीरे उसका जागरण, उसकी अवेयरनेस गहरी होगी और भीतर आता चला जाएगा। इसलिए जागरण के लिए पहला सूत्र है, जो हमारे चारों तरफ फैला हुआ जगत है, उसके प्रति जागना है।
आप कहेंगे कि उसके प्रति तो हम जागे हुए हैं। लेकिन मैं निश्चित आपको कहूं कि उसके प्रति हम जागे हुए नहीं हैं। जो वृक्ष आपके द्वार पर लगा है, उसको कभी आपने जाग कर देखा है? उसको कभी आपने आंख भर कर देखा है, कभी आप उसके पास दो क्षण रुके हैं? जो पत्नी आपके घर में बीस वर्षों से आपकी सेवा कर रही है, कभी उसकी आंखों में झांका है, कभी देखा है? कभी दो क्षण उसके प्रति होश से भरे हैं? वह बच्चा जो आपके घर में पैदा हुआ है, कभी उसके पास दो क्षण बैठकर आपने उसे देखा है, निहारा है, निरीक्षण किया है? नहीं, बिलकुल भी नहीं। चारों तरफ जो हमारी जिंदगी फैली है, उसके प्रति हम बिलकुल सोए-सोए चलते हैं। लेकिन कैसे यह पता चलेगा? यह पता तो तभी चल सकता है, कभी जिंदगी में आप पर कोई खतरे आए हैं? कभी रास्ते में चलते कोई आदमी ने अचानक आपके ऊपर छुरा उठा लिया है? कभी आप किसी गड्ढे के ऊपर से गुजरे हैं, जहां गिरने और मर जाने का डर हो?
अगर मैं अभी आपके पास आऊं और आपकी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाऊं , तो आपको पहली दफा पता चलेगा कि आप अब तक सोए रहे थे। उस खतरे में एक क्षण को शायद आप जाग जाएं और आप गौर से देखें कि क्या हो रहा है? लेकिन साधारणतः हम सोए-सोए चलते हैं। जिंदगी में दो-चार मौके आते हैं, जब जीवन खतरे में होता है, तब एक जाग, एक जागरण एक क्षण को भीतर पैदा होता है, और हम फिर सो जाते हैं। लेकिन ऐसा कोई भी आदमी खोजना कठिन है, जिसे ऐसे क्षण न आएं हों, जब उसने जागरण का अनुभव किया हो।
 सामान्यतः हम सोए-सोए चलते हैं। कभी आपने अपने घर के बाहर चलती हुई सड़क को गौर से देखा है? अगर आप पांच क्षण भी बैठ कर गौर से देखेंगे तो आप पाएंगे कि लोग सोए हुए चले जा रहे हैं। आप लोगों को देख कर पाएंगे कि वे सड़क पर चल रहे हैं, लेकिन उनका मन कहीं और चल रहा है। आप लोगों की आंखें, चेहरे और कदम देख कर समझ सकेंगे कि जैसे वे नींद में चले जा रहे हों, उन्हें चारों तरफ का कोई पता नहीं है। चारों तरफ की एक फीकी सी झलक है, जिसकी वजह से वे कामचलाऊ रूप से चल लेते हैं, निकल जाते हैं रास्तों पर से। लेकिन कोई बोध नहीं है कि क्या हो रहा है चारों तरफ।
अगर आप यहां बैठें हैं और कोई आपको आकर खबर दे कि आपके मकान में आग लग गई, तो आप यहां से उठेंगे और अपने घर की तरफ भागेंगे। क्या आपको रास्ते में चलते हुए लोग दिखाई पड़ेंगे? क्या कोई आपको नमस्कार करेगा तो सुनाई पड़ेगा? सुनाई तो जरूर पड़ेगा, क्योंकि कान हैं तो सुनेंगे और दिखाई तो जरूर पड़ेगा क्योंकि आंखें हैं तो दिखाई पड़ेगा। लेकिन कल मैं अगर आपसे पूछूं कि रास्ते पर किन लोगों ने आपको नमस्कार किया और कौन लोग दिखाई पड़े थे? आप कहेंगे मुझे कोई होश नहीं था, मेरे मकान में आग लगी थी। कान सुनते थे, आंखें देखती थीं, लेकिन कोई होश भीतर नहीं था। रास्ते से आप गुजर भी गए, बिना टकराए; बिना किसी से उलझे आप अपने घर भी पहुंच गए। लेकिन आपको कुछ भी पता नहीं, रास्ते पर क्या हुआ ? तो मैं कहूंगा, रास्ते पर आप सोए हुए निकले। अभी भी हम रोज सोए हुए निकल रहे हैं, थोड़ी मात्राओं का भेद होगा नींद का, लेकिन हम सोए हुए निकल रहे हैं। हमें कोई पता नहीं, क्या हो रहा है हमारे चारों तरफ? क्या फैला है हमारे चारों तरफ इसका भी हमें कोई बोध नहीं है?
जिंदगी एक यंत्र की भांति एक रूटीन की भांति रोज चलती जाती है। हो सकता है यह आपको खयाल में न हो, तो घर लौट कर अपनी पत्नी को दो क्षण गौर से देखना, इस स्त्री को आपने कभी देखा है? इसके साथ आप वर्षों रहे हैं, इसको कभी आपने देखा है? कभी आपने बहुत शांत मन से इसको निहारा है? दूसरी चीजें तो बहुत दूर, जीवन जो चारों तरफ फैला हुआ है, वह तो बहुत दूर है, जो हमारे बहुत निकट खड़ा हुआ जीवन है, उसके प्रति भी हम होश से भरे हुए नहीं हैं। और जब हम इस बाहर की रेखा पर होश से भरे हुए न हों, तो होश भीतर नहीं ले जाया जा सकता।
अंधी हैलन केलर को किसी ने पूछा कि तुम्हें जिंदगी में सबसे बड़े चमत्कार की, और सबसे बड़े रहस्य की, और सबसे बड़ी मिस्टिरीयस बात क्या अनुभव हुई? हैलन कैलर ने कहाः एक बात मैंने अनुभव की, लोगों के पास आंखें हैं, लेकिन शायद ही कोई अपनी आंखों से देखता हो। उसने कहाः लोगों के पास आंखें हैं, लेकिन शायद ही कोई आंखों से देखता हो। लोगों के पास कान हैं, लेकिन शायद ही कोई कानों से सुनता हो। लोगों के पास हृदय हैं, लेकिन शायद ही कोई हृदय से अनुभव करता हो। हम अपनी आंखों का उपयोग करते हैं? हम अपने कानों का उपयोग करते हैं?
हमने अपने सारे जीवन के जो द्वार हैं, जिनसे बाहर का जीवन संप्रेषित होता है, और अनुभव होता है, उसे सबको बंद कर रखा है। हमारे पास जीवन की कोई खबर भीतर नहीं आ पाती। अगर, अगर ये द्वार खुले हों और जीवन की खबर आनी शुरू हो जाए, तो हम एक बिलकुल दूसरे मनुष्य के रूप में परिवर्तित होने लगेंगे। अगर कोई एक व्यक्ति अपने घर के द्वार पर खड़े हुए दरख्तों को भी ठीक से देख ले तो उसके जीवन में कुछ और बात शुरू हो जाएगी। लेकिन नहीं, यह हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। हमारी आंखों पर जैसे एक पर्दा है नींद का। और उस पर्दे के पार हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। यहां आप बैठे हुए हैं, मैं यहां बोल रहा हूं; लेकिन इस बात की बहुत कम संभावना है कि आप मुझे सुन रहे हों। आपका मन न मालूम कहां-कहां हो सकता है। और अगर मन कहीं और है, तो आपको यह भ्रम पैदा होगा कि आप मुझे सुन रहे हैं, लेकिन सुन नहीं पाएंगे। सुनने का खयाल पैदा होगा, कान से आवाज टकराएगी और लौट जाएगी। और आपको यह भ्रम दे जाएगी कि आपने मुझे सुना, लेकिन आपका मन कहीं और है तो आप यहां सोए हुए होंगे।
और हमारा मन हर क्षण कहीं और है, इसलिए हम हर जगह सोए हुए हैं। जब हम भोजन कर रहे हैं तब मन दफ्तर में है, और जब हम दफ्तर में हैं तब मन भोजन करता है। हमारा मन कहीं और है, जहां हम हैं, वहां नहीं। और नींद का यही लक्षण है कि मन कहीं और हो, जहां हम हों वहां न हो।
यह जो चित्त की दशा है, बाहर के प्रति भी हम सोए-सोए हैं, हमारी संवेदनशीलता, रिसेप्टिविटी, बाहर के प्रति हमारी ग्राहकता भी ना के बराबर है, हमें कुछ बाहर की, बाहर की घटनाएं हमें छूती नहीं, न बाहर का सौंदर्य हमें छूता है, न बाहर की कुरूपता हमें छूती है। न बाहर का दुख, न बाहर का आकाश, न तारे, न नदियां, न पहाड़, न पर्वत कुछ हमें छूता नहीं। हम उन सबके पास से अंधे और बहरे की तरह गुजर जाते हैं। हमें कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता कि यह क्या हो रहा है? काश हमें दिखाई पड़ सके तो शायद हमारा जीवन दूसरा हो जाए। यह कैसे दिखाई पड़े?
बाहर के प्रति जागने के लिए जरूरी है, अचानक आकस्मिक रूप से कभी भी दो क्षण को ठहर जाएं, और बाहर की दुनिया को देखें कि यह क्या है? अभी यहां मैं बोल रहा हूं, दो क्षण को सजग हो जाएं और देखें कि कौन बोल रहा है, और क्या बोल रहा है? तो शायद आपको भीतर एक लहर दौड़ती हुई मालूम पड़े और लगे कोई चीज सोई थी और उठ गई। रास्ते पर चलते-चलते अचानक रुक जाएं और दो क्षण रास्ते पर खाली आंख घुमा कर देखें कि यह क्या हो रहा है? यह क्या है? तो शायद अचानक रुकने से भीतर चलते हुए सपने ठहर जाएं एक क्षण को और आप देख सकें एक क्षण को कि क्या हो रहा है? किसी वृक्ष के पास से निकलते वक्त एकदम से रुक जाएं, आंखें उठाएं और वृक्ष को देखें। कभी रात छत पर निकल आएं, आंखें उठाएं और आकाश को देखें, सिर्फ देखें। तो शायद एक आध क्षण को अचानक रुकने से, झटका लगने से भीतर की चेतना में फर्क पड़े, फर्क पड़ता है।
 जो मैं कह रहा हूं, वह बहुत सैकड़ों प्रयोग के आधार पर कह रहा हूं। उसे करके देखें, कभी भोजन करते वक्त एक क्षण को रुक जाएं और खयाल करें कि मैं देखंू क्या हो रहा है? तो आप पाएंगे कि भीतर जैसे कोई चीज जागी, एक क्षण को झलक आएगी और चली जाएगी। लेकिन उसकी झलक दो बातें साफ कर देगी, एक तो यह साफ कर देगी कि साधारणतः आप सोए हुए हैं, और दूसरी बात यह साफ कर देगी कि वह जागरण क्या है? उसका आपक ो बोध हो जाएगा।
एक छोटे से गांव में मैं बहुत दिन तक था। उस गांव की नदी के पास एक छोटी पहाड़ी थी और उस पहाड़ी पर एक इतनी संकरी कगार थी कि अगर उस पर किसी को चलाया जाए तो गिरने के और मर जाने के बहुत मौके थे। जब भी मुझसे कोई पूछता कि यह जागरूकता क्या है? यह अवेयरनेस क्या है, जिसकी आप बातें करते हैं? तो मैं उससे कहता कि आओ मेरे साथ नदी पर चलो। और मैं उसे उस पहाड़ी की कगार पर ले जाता, आगे उसके चलता और उससे कहता कि आओ मेरे पीछे। वह कगार थी इतनी संकरी कि एक पैर चूक जाए तो कोई दो सौ फीट नीचे गड्ढे में गिरना पड़ेगा, जो कि खतरनाक था और कोई भी गिरने को राजी नहीं था। जो दूसरा व्यक्ति आता उसे एक-एक कदम सम्हाल कर रखना पड़ता; एक-एक श्वास सम्हाल कर लेनी पड़ती; वहां सोए हुए चला नहीं जा सकता था। कगार पार करने के बाद मैं उससे पूछता, तुम्हें कुछ फर्क अनुभव हुआ तुम्हारे भीतर? क्या तुम्हें यह अनुभव हुआ कि इस बीच जब तक तुम कगार को पार कर रहे थे, तुम्हारे भीतर न तो कोई विचार चला, न कोई सपना चला? क्या तुम्हें पता चला कि तुम बहुत सावधान थे, बहुत अटेंटिव थे? क्या तुम्हें पता चला कि तुम भीतर बिलकुल जागे हुए थे? और वह मुझसे कहता कि इसका पता चला। भीतर अनुभव हुआ कि जैसे मैं बिलकुल और तरह से चल रहा हूं, जैसा मैं कभी नहीं चला। एक-एक कदम होश से भरा हुआ था, एक-एक श्वास भी, हृदय की धड़कन भी मुझे सुनाई पड़ने लगी थी, बीच में। और सब तरफ मैं जागा हुआ था, क्योंकि एक पैर खतरे में और मौत सामने थी।
कभी क्षण भर को एकदम रुक जाएं, अचानक। रास्ते पर चलते हुए, भोजन करते हुए, बिस्तर पर लेटते हुए, सीढ़ियां चढ़ते हुए, रास्ते पर से गुजरते हुए, अचानक रुक जाएं दिन में दो चार बार, एक सैकेंड को; और चारों तरफ जाग कर देखें कि क्या है? तो आप को भीतर एक फर्क मालूम पड़ेगा; जैसे नींद क्षण भर को टूटी। एक गैप पैदा हुआ। और अगर यह निरंतर अनुभव में आता चला जाए, और उस क्षण के आनंद की प्रतीति हो, जो कि होगी। और उस क्षण में कोई दुख, कोई अशांति मालूम न होगी, क्योंकि उस जागे हुए क्षण में न कोई दुख है और न कोई अशंाति है, तो शायद वे क्षण बढ़ते चले जाएं, और आपके जागने की क्षमता बढ़ती चली जाए। लेकिन एक तो कभी-कभी ठहर कर जाग लेना जरूरी है, दूसरा जीवन के प्रति निरन्तर, सतत ऑब्जर्वेशन का, निरीक्षण का भाव रखना भी जरूरी है।
एक वृद्ध वैज्ञानिक अपने बच्चों को समझा रहा था कि निरीक्षण क्या है? उसके बच्चों ने उससे पूछा कि विज्ञान की खोज में सबसे बड़ी बात क्या है? उस वृद्ध वैज्ञानिक ने कहाः दो बातें जरूरी हैं, एक तो करेज, साहस, और दूसरा निरीक्षण, ऑब्जर्वेशन। उन बच्चों ने कहा कि हमें ठीक से समझा दें, तो शायद हमारी समझ में आ जाए। वह वृद्ध वैज्ञानिक एक प्याली में नमक का बहुत कड़वा, बहुत बेस्वाद घोल बना कर लाया, और उसने उन बच्चों को कहा कि यह नमक का घोल है, बहुत कड़वा, बहुत बेस्वाद; इसे जीभ पर रखोगे तो वमन हो जाएगा, उलटी हो जाएगी। सारा मुंह तिक्त और कड़वा हो जाएगा। लेकिन इसकी जांच करनी है और इसे पहचानना है। तो मैं अपनी अंगुली इसमें डुबाऊंगा और उसे अपनी जीभ पर रखूंगा। तुम ठीक से निरीक्षण करते रहना कि मैं किस भांति यह कर रहा हूं? जब मैं कर चुकूं तो तुम्हें भी यही करना होगा, अंगुली डुबानी होगी और जीभ पर रखनी होगी। ठीक से निरीक्षण करना। जैसा मैं करूं ठीक वैसा ही तुम्हें भी करना है। उन बच्चों ने गौर से देखा, वे टकटकी लगा कर देखते रहे, निरीक्षण करना जरूरी था। फिर उनको भी वैसा ही करना था। उस बूढ़े ने अपनी अंगुली डुबाई, फिर अंगुली को जीभ पर रखा।
लेकिन जैसा बच्चों की अपेक्षा थी कि उसके चेहरे पर बेस्वाद होने के भाव आएंगे, शायद उसे उलटी हो जाएगी, न तो उसे उलटी हुई, न उसके चेहरे पर कोई भाव आए, न कोई फर्क हुआ। फिर इसके बाद वह प्याली घुमाई गई और हर बच्चे ने उसमें अंगुली डुबाई और अपनी जीभ पर रखी। लेकिन जीभ पर रखते से ही जैसे जहर मुंह में पहंुच गया हो, वे सारे बच्चे थूकने लगे, कुछ बच्चों को उलटी हो गई। उन सारे बच्चों के चेहरे एकदम घबड़ाहट से भर गए, उनकी आंखों में आंसू आ गए। जब वे सारे बच्चे यह प्रयोग कर चुके तो उस वृद्ध वैज्ञानिक ने कहाः मेरे बच्चों जहां तक साहस का सवाल है, तुम सब पूरे अंक पाने में सफल हो गए। तुम सब साहसी हो, लेकिन जहां तक निरीक्षण, ऑब्जर्वेशन का सवाल है, तुम सब असफल हो गए। क्योंकि मैंने जो अंगुली घोल में डुबाई थी, वही मैंने जीभ पर नहीं रखी थी, मैंने दूसरी अंगुली जीभ पर रखी थी। तुमने निरीक्षण नहीं किया, तुमने ठीक से नहीं देखा। जो अंगुली मैंने डुबाई थी, वही मैंने जीभ पर नहीं रखी, मैंने दूसरी अंगुली जीभ पर रखी थी। तो साहस तो तुमने किया लेकिन निरीक्षण तुम नहीं कर पाए।
जो उस वृद्ध वैज्ञानिक ने उन बच्चों को समझाया, जीवन के संबंध में भी मैं आपसे यही कहता हूं कि हममें से बहुत से लोग साहस तो करते हैं, लेकिन निरीक्षण नहीं कर पाते। और बिना निरीक्षण के साहस खतरनाक है। सोया हुआ आदमी साहसी हो जाए तो बड़ा खतरनाक है, उससे दुनिया में सिवाय बुराई के और कुछ भी पैदा नहीं हो सकता। हम सबने साहस तो बहुत किया दुनिया में, लेकिन निरीक्षण नहीं किया। जीवन को देखा नहीं कि क्या हो रहा है, चारों तरफ क्या है? उसके प्रति हमने आंख को कभी बहुत सतेज करके, जाग कर देखा नहीं। तो निरीक्षण, सतत निरीक्षण चाहिए जीवन के चारों तरफ। जीवन बड़ी विराट बात है। शायद सुबह से लेकर सांझ तक हर आदमी के जीवन में चारों तरफ इतनी घटनाएं घट रही हैं कि अगर वह उन्हें जाग कर देखे, अगर उनका निरीक्षण करे, तो न मालूम क्या हो जाए?
एक फकीर मरने को था, तो उसके मित्रों ने उससे पूछा, तुमने जीवन में यह सारी शिक्षाएं कहां पाईं? उस फकीर ने कहा, मैंने जाग कर जो भी मेरे आस-पास से निकला उसको देखा, मैं होशपूर्वक जीया। और तब पूरा जीवन ही मेरे लिए गुरु हो गया और ज्ञान हो गया। उन्होंने कहा कि तुम मुझे ठीक से समझाओ तो हम समझ सकें। उस फकीर ने कहाः मैं एक गांव से गुजरता था; आधी रात भटक गया था, और गांव में पहुंचा, सारा गांव सोया हुआ था। एक व्यक्ति अंधेरी गली में मुझे मिला, मैंने उससे कहा कि मैं परदेसी हूं और इस गांव में ठहर जाना चाहता हूं, क्या मुझे ठहरने की कोई जगह बता सकोगे? आधी रात हो गई है, मैं कहां जाऊं? उस आदमी ने कहाः मालूम होता है आप कोई साधु हैं, तो साधु से झूठ क्या बोलना? मैं एक चोर हूं और मैं चोरी करने निकला हूं। क्या आप मेरे घर मेहमान बन सकते हैं, तो मैं आपको अपने घर ले चलूं? वह चोर, उस साधु ने कहा, मुझे अपने घर ले गया। मैं डर रहा था, उसके घर जाऊं या न जाऊं? लेकिन उसकी सच्चाई ने मेरे प्राणों को इतना प्रभावित कर दिया कि उसने मुझसे कहा कि मैं एक चोर हूं। इतनी हिम्मत से तो मैं अपने बाबत भी कुछ न कह सकता था। मेरी दृष्टि में वह चोर मुझसे बड़ा साधु हो गया। और मैं डर रहा था, उसके घर जाने में। डरना तो उसे चाहिए था कि वह एक साधु को घर ले जाए कि न ले जाए। डर मैं रहा था उसके घर जाने में कि मैं जाऊं या न जाऊं । तब मुझे ज्ञात हुआ कि मेरी साधुता उसके चोर होने से कमजोर है।
मैं उसके घर गया। उसने मुझे घर सुलाया और कहा कि अब आप विश्राम करें, मैं सुबह तक वापस लौट आऊंगा। सुबह कोई सूरज उगने के थोड़ी देर पहले वह वापस लौटा, तो मैंने उससे पूछा कि रात में कुछ मिला या नहीं? उसने कहा, आज तो कुछ भी नहीं पाया। लेकिन कल फिर कोशिश करूंगा। और उसकी आंखों में मुस्कुराहट थी, उसके ओंठों पर आशा थी। उसके चेहरे पर कोई निराशा न थी कि वह निराश हो गया। और मैं हैरान हुआ। मैं एक महीने उसके घर में रुका रहा। और रोज रात को वह गया और रोज सुबह लौटा। और रोज मैंने उससे पूछा, और उसने कहा, आज तो नहीं मिला, लेकिन कल फिर कोशिश करूंगा। फिर एक महीने के बाद मैंने उससे विदा ले ली। और जब मैं परमात्मा की खोज में रोज-रोज असफल हो जाता था, और मेरा मन होता था, छोड़ दूं यह खोज। न मालूम परमात्मा है भी या नहीं। छोड़ दूं यह काम, लौट जाऊं वापस। तभी मुझे उस चोर की स्मृति आती थी और खयाल आता था, वह जो साधारण सी संपत्ति खोजने रोज जाता था, और हारकर लौट आता था, लेकिन निराश नहीं हुआ; तो मैं तो परमात्मा की संपत्ति खोजने निकला हूं और इतनी जल्दी निराश हो जाऊं ? मैंने उस चोर को गौर से देखा तीस दिन। और उसका फल यह हुआ कि मेरे जीवन से निराशा हमेशा को चली गई।
और उस फकीर ने कहा कि मैं एक गांव से निकलता था, सांझ का वक्त था, एक छोटा सा बच्चा हाथ में दीया लिए चला जा रहा था। शायद वह किसी के घर दीया पहुंचाने को था। मैंने उस बच्चे को रोका और मैंने पूछा कि प्यारे बेटे! क्या तुम यह बता सकते हो कि दीये में ज्योति कहां से आती है? यह मैंने इसलिए पूछा कि उस वक्त मेरे दिमाग में बड़े दार्शनिक प्रश्न उठा करते थे और मैं बड़े ऊहापोह में विचार में पड़ा हुआ था। जगत कहां से आया, आत्मा कहां से आई? इसी तरह के प्रश्न सोचता था। उस बच्चे को दीया लिए हुए देख कर मेरे मन में खयाल हुआ कि दीये में ज्योति कहां से आई?
मैंने उस बच्चे को पूछा, क्या तुम मुझे बता सकते हो? यह ज्योति कहां से आई? उस बच्चे ने मेरी तरफ देखा और दीये को फूंक मार कर बुझा दिया, और वह मुझसे बोला, क्या आप बता सकेंगे कि ज्योति कहां चली गई? मैंने उस बच्चे को गौर से देखा और मैंने उसके पैर छू लिए, मेरा यह भ्रम टूट गया कि मेरी उम्र ज्यादा है और इसलिए छोटे बच्चे से मुझे ज्ञान नहीं मिल सकता और मुझे उसे ज्ञान देना चाहिए, मेरा यह भ्रम टूट गया। मेरा उम्र का भ्रम टूट गया उसी दिन। मैंने ठीक से निरीक्षण किया उस बच्चे का, मेरा उम्र का भ्रम टूट गया। हम दोनों एक जगह खड़े थे। जितना बच्चा जानता था, उतना मैं जानता था और जो बच्चा नहीं जानता था, वह मैं भी नहीं जानता था। उस दिन से मेरा उम्र का जो भ्रम था, वह टूट गया, वह खत्म हो गया। उस दिन के बाद फिर मेरे जीवन में उम्र नहीं आई। उस दिन के बाद मैं बच्चा का बच्चा हूं, फिर उम्र खत्म हो गई। क्योंकि मैं भी तो नहीं जानता कुछ, और बच्चा भी नहीं। मुझमें और उसमें कोई भेद नहीं रहा। उस दिन से मैं ज्ञानी नहीं रह गया।
मैंने उस बच्चे का निरीक्षण किया, ठीक से उस घटना को देखा और एक क्रांति हो गई। जीवन में चैबीस घंटे घटनाएं घट रही हैं। चारों तरफ और हम अन्धे की तरह निकले जा रहे हैं। इसलिए हमारे जीवन में कोई चीज जाग नहीं रही।
मैं आपसे निवेदन करूंगा, पहली बात जो जीवन चारों तरफ फैला हुआ है, उसके प्रति जागना है। चैबीस घंटे, सतत, उठते-बैठते जो भी चारों तरफ हो रहा है, उसे बहुत निरीक्षण से, बहुत गौर से, बहुत आंख खोल कर, कान खोल कर देखना और समझना जरूरी है। क्या होगा उससे? उससे दो बातें हो सकती हैं। पहली बात, अगर बाहर के जीवन का ठीक निरीक्षण हो, अगर बाहर के जीवन का ठीक-ठीक बोध हो, हम सब देखें, सुनें, जानें और मन के द्वार खुले रखें, और होश से भरे रहें, सोए हुए न हों; तो जिस मात्रा में हम बाहर के प्रति जागेंगे उसी मात्रा में हमारे भीतर जागरण की शक्ति बड़ी होती चली जाएगी। क्योंकि जागेगा कौन? जागूंगा मैं। जागूंगा बाहर के प्रति, लेकिन जागेगा कौन? जागूंगा मैं। मेरे भीतर बोध विकसित होगा, जागरण तेज होगा, गहरा होगा। और जितना मेरा जागरण गहरा होगा, उतना ही आप हैरान हो जाएंगे, जितना जागरण गहरा होगा, उतनी ही सूक्ष्म चीजों के प्रति जागा जा सकता है।
 अभी तो हम बाहर के पहाड़-पत्थरों के प्रति भी जागे हुए नहीं हैं, तो आत्मा के प्रति कैसे जागेंगे? जब आप बाहर के प्रति जागने लगेंगे, देखने लगेंगे, आंख-कान खुले हुए होंगे। हमें तो लेकिन उलटी बातें सिखाई गई हैं। हमको तो सिखाया गया है, आंख बंद कर लो, अगर भगवान को पाना है। मैं आपसे कहता हूं, भूलकर आंख बंद मत करना, अगर भगवान को पाना हो। आंख पूरी खुली हुई होनी चाहिए, बंद नहीं। कान बंद कर लो, अगर भगवान को पाना है। हमें तो सिखाया गया है, सब इंद्रियों को बंद कर लो, भीतर रह जाओ अगर भगवान को पाना है। मैं आपसे कहता हूं भूल कर भी यह गलती मत कर लेना।
 अगर भगवान को पाना है तो सारा जीवन जागा हुआ होना चाहिए। सारी इंद्रियां जागी हुई होनी चाहिए। और जिस मात्रा में सारा सब कुछ जागा हुआ होगा, उसी मात्रा में हमारे भीतर जागरण की शक्ति बढ़ेगी और विकसित होगी। और जब आप बाहर के प्रति जागेंगे, तो धीरे-धीरे आपको शरीर के प्रति जागरण अपने आप आना शुरू हो जाएगा। आप चलेंगे तो आपको पता चलेगा कि मैं चल रहा हूं। आपके हृदय की धड़कन भी आपको सुनाई पड़ने लगेगी। आपकी नाड़ी की गति भी आपको प्रतीत होने लगेगी। आपका शरीर भी आपको एहसास होने लगेगा। अभी एहसास नहीं होता आपको अपना शरीर। अभी तो एहसास शरीर का तभी होता है, जब कोई दर्द हो। सिर में तकलीफ होती है तो सिर का पता चलता है, अगर सिर में कोई तकलीफ न हो तो सिर का कोई पता ही नहीं चलता। अगर पैर में चोट लग जाए तो पैर का पता चलता है, अगर चोट न लगे, पैर का कोई पता नहीं चलता। शरीर का हमें कोई पता ही नहीं चलता कि शरीर है।
लेकिन जब आप बहुत गौर से जागेंगे, तो आपको शरीर का पता चलेगा। और जब शरीर का पता चलेगा तभी आपको यह भी पता चलेगा कि मैं और शरीर में कुछ फासला है, फर्क है। जब तक शरीर का पता नहीं चलेगा, तब तक फासला कैसे पता चलेगा? तब तक डिस्टेंस कैसे मालूम होगा कि मैं और शरीर में कुछ भेद है। मैं कुछ और हूं। और शरीर मैंने कपड़े की भांति ओढ़ा हुआ है, यह पता नहीं चल सकता। शरीर का धीरे-धीरे बोध होगा। अभी तो हमें शरीर का कोई बोध नहीं।
एक आदमी बैठा हुआ है कुर्सी पर, वह पैर हिलाए जा रहा है, आप उससे पूछिए क्यों पैर हिला रहा है? तो शायद कोई उत्तर न दे सके। कोई उत्तर नहीं है उसके पास क्यों हिला रहा है, बस हिला रहा है। कोई बोध नहीं है, हमें शरीर का। जब आप क्रोध में आ जाते हैं और उठाकर चांटा मार देते हैं। आपको पता है कि आपने चांटा मारा है? आपको कोई बोध नहीं कि आपका हाथ उठा और आपने चांटा मारा। शायद आपको पता न हो, जमीन पर हर मुल्क में हजारों हत्यारों ने इस बात को कहा है कि हमें पता नहीं कि हमने हत्या की है। हालांकि कानून उनको मानता नहीं है, अदालत मानती नहीं है, वह समझती है कि झूठ बोल रहे हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, वे बिलकुल सच बोल रहे हैं। हजारों हत्यारों का यह अनुभव है कि मारने के बाद वो कहते हैं कि हमें पता नहीं कि हमने मारा है।
एक राजा की सवारी एक गांव से निकलती थी। और एक आदमी ने किनारे खड़े होकर गालियां दीं और पत्थर फेंके। दूसरे दिन राजा ने उस आदमी को दरबार में बुलवा लिया। और उस आदमी से कहा क्या तुमने कल पत्थर मारे और गालियां दीं? उस आदमी ने कहा, क्षमा करें, मैं क्रोध में था इसलिए मैं जिम्मेवार नहीं हूं। मैं होश में नहीं था। जिसने पत्थर मारे, वह कोई दूसरा आदमी रहा होगा। जिसने गालियां दीं वह कोई दूसरा रहा होगा। क्योंकि अभी मैं होश में हूं, न तो मैं आपको गालियां दे सकता हूं और न पत्थर मार सकता हूं। मैं बिलकुल बेहोश था।
हम सारे लोग ऐसा ही कर रहे हैं। हत्यारे हत्याएं कर रहे हैं। प्रेम करने वाले प्रेम कर रहे हैं और कोई होश नहीं है। शरीर का हमें कोई बोध नहीं कि यह क्या हो रहा है।
बुद्ध के पास उनका एक भिक्षु आनंद, वर्षों तक रहा। एक दिन सुबह उसने पूछा बुद्ध से कि मैं देखता हूं, रात आप सोते हैं, तो आप एक ही करवट सोते हैं, और जहां पैर रखते हैं, जिस पैर के ऊपर पैर रखते हैं, जहां हाथ रखते हैं, रात भर आपका हाथ वहीं रहता है, पैर वहीं रहता है, सुबह आप वैसे ही उठते हैं जैसा रात सोए थे; क्या रात भर आप जागे रहते हैं? बुद्ध ने कहाः जब से शरीर का बोध हुआ है, तब से शरीर वही करता है, जो मैं कराना चाहता हूं। अन्यथा शरीर कुछ भी नहीं करता। अगर मैं करवट बदलना चाहूं, तो ही बदलूंगा, नहीं तो नहीं बदलूंगा। शरीर का जब से बोध हुआ है, मैं शरीर का मालिक हो गया हूं। तो पैर जहां रखता हूं वहीं रखे रहता हूं, कोई जरूरत क्या है उसे बदलने की, जरूरत हो तो बदलूं। चूंकि वर्षों से कोई जरूरत नहीं पड़ी इसलिए उसे वहीं रखे रहता हूं।
यह हमें खयाल में भी नहीं आएगा। हमें तो जागे हुए भी अपने शरीर का कोई पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है, तो सोए हुए शरीर का कैसे पता हो सक ता है? लेकिन जिसको जागने में शरीर का पता हो जाएगा, उसे सोने में भी शरीर का अहसास होता रहता है कि शरीर है एक खोल की तरह और जब शरीर एक खोल की तरह अहसास होने लगता है, तब चेतना और जाग्रत होती है। शरीर पर अनुभव करके तब और जाग्रत होती है, और सूक्ष्म होती है और मन के विचारों को देखने में समर्थ हो जाती है।
जापान में एक बहुत अदभुत भिक्षु था। वहां के एक बहुत बड़े सरदार ने अपने लड़के को उस भिक्षु के पास जीवन के सत्य को जानने के लिए भेजा। लेकिन उस गुरु ने कहा कि मेरे जीवन के सत्य को बताने की जो विधि है बड़ी अजीब है। मैं पहले तलवार चलाना सिखाता हूं, फिर जीवन के सत्य के बाबत बताता हूं। उसका पिता बहुत हैरान हुआ कि तलवार सिखाने से उस सत्य का क्या संबंध? लेकिन उस गुरु ने कहा, फिर कहीं और ले जाएं, मेरी पद्धति तो यही है। तो दो वर्ष तक तो इसे तलवार चलाना सिखाऊंगा, फिर सत्य के बाबत बात करूंगा। मजबूरी थी, उस गुरु के अतिरिक्त कोई ऐसा व्यक्ति न था, जो शायद सत्य के संबंध में कुछ कह सके। उस बच्चे को वहां छोड़ना पड़ा।
उस युवक को उस गुरु ने कहा, देख दो वर्ष बाद तो सत्य की बात करूंगा, उसके पहले तुझे तलवार चलाना सिखाऊंगा। और मेरे तलवार सिखाने की पद्धति भी बड़ी अजीब है, और वह यह है कि मैं वक्त-बेवक्त तेरे अनजाने, तेरे ऊपर तलवार से हमला कर दूंगा। लकड़ी की तलवार होगी, शुरू-शुरू में , फिर बाद में असली तलवार भी आएगी। जैसे कि तू बुहारी लगा रहा है और मैं पीछे से आकर लकड़ी की तलवार से हमला कर दूंगा। जैसे तू खाना खा रहा है, मैं पीछे से आकर हमला कर दूंगा तो तू सचेत रहना। होश में रहना हमेशा, अटेंटिव रहना। कभी भी हमला हो सकता है, आगे-पीछे से, उसकी कोई सूचना नहीं होगी।
लड़का बहुत हैरान हुआ, यह तो बड़ी पागलपन की बात थी। लेकिन मजबूरी थी। वह बुहारी लगाता है, पीछे से आकर गुरु हमला कर देता है लकड़ी से। सिर में चोट आ जाती है। खाना खाता है, पीछे से हमला हो जाता है। किताब पढ़ने बैठता है, हमला हो जाता है। और कभी भी, चैबीस घंटे में कभी भी हमला हो सकता है, दस-बीस दफा हमला हो जाता है। एक दिन, दो दिन भीतर उसके होश रहने लगा। वह सचेत रहने लगा कि पता नहीं कब हमला हो जाए। उसके भीतर एक तरह का निरंतर खयाल रहने लगा। एक स्मृति रहने लगी, एक माइंडफुलनेस पैदा हो गई  कि पता नहीं कब हमला हो जाए। चार-छह दिन बीतते-बीतते वह सचेत रहने लगा, गुरु के पैर भी आने शुरू होते कमरे में और वह सजग होकर सीधा खड़ा हो जाता। पैर की आवाज सुनाई पड़ने लगी। जो उसे कभी सुनाई नहीं पड़ी थी। पैर की आवाज मालूम होने लगी। गुरु एकदम छुपे-छुपे आता जैसे बिल्ली चूहे को पकड़ने आती हो। उसके पैर की आवाज भी न होने देता। महीना-डेढ़ महीना बीतते-बीतते गुरु हमला करता और हमले के साथ उसका हाथ उठ जाता। तलवार रोक ली जाती, लकड़ी की तलवार थी।
तीन महीने बीतते-बीतते गुरु के वार असफल जाने लगे। हमला होता और हमला रोक दिया जाता। छह महीने बीतते-बीतते कोई वार सफल नहीं होता था। एक भीतर निरंतर सजगता एहसास होने लगी। तब तो गुरु नींद में भी हमला करने लगा। सोया हुआ है युवक और वह हमला कर देता। अब और मुसीबत हो गई, जागना फिर भी ठीक था, लेकिन नींद में, लेकिन नींद में भी सचेत रहना जरूरी हो गया क्योंकि सोते में रात में दो-चार बार हमला होने लगा। महीना बीतते-बीतते सोते में भी गुरु के कदम पड़ते कमरे में, और उसके माइंड को अहसास होने लगता युवक को कि गुरु आ रहा है, वह उठ कर बैठ जाता। हम सब को भी थोड़ा अहसास होता है, हम यहां इतने लोग हैं अगर हम सारे लोग सोए हों, और मैं आकर बुलाऊं राम, राम, तो जिसका राम नाम होगा उसकी नींद खुल जाएगी, बाकी किसी की नींद नहीं खुलेगी। राम शब्द से उसकी चेतना जुड़ गई है, निरंतर सुनते-सुनते। और किसी की नींद नहीं खुलती, राम उठ जाता है।
यहां एक घर में दस महिलाएं सो रही हों, और एक मां सो रही हो, जिसका बच्चा हो और बच्चा रोएगा, दस महिलाएं सोई रहेंगी; जो मां है वह जग जाएगी। उसके मां होने की चेतना, उस बच्चे के रोने से जुड़ गई है। और बाकी सब सोए रहेंगे, मां उठ जाएगी। नींद में भी वह सूत्र जुड़ा हुआ है। धीरे-धीरे नींद में भी उसे बोध होने लगा, गुरु आता कमरे के बाहर वह उठकर बैठ जाता, नींद में भी वह हमले को रोकने लगा। साल पूरा हो गया, एक सुबह उस युवक को यह खयाल आया, बाहर बैठ कर वह अपनी किताब पढ़ रहा था और गुरु दूर दूसरे बरामदे में बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। बूढ़ा आदमी था, कोई नब्बे साल की उसकी उम्र थी। उस युवक को यह खयाल आया कि मुझे तो यह निरंतर हमला करता है, जब चाहे तब मेरे ऊपर हमला कर देता है, सोते-जागते मेरी तो मुसीबत कर दी है, एक क्षण भी मुझे विश्राम में होने का मौका नहीं देता। हमेशा अटेंशन में मुझे रखता है। तो आज मैं भी इस बूढ़े पर हमला करके देखूं यह खुद भी अटेंटिव है यानहीं। यह खुद भी जागरूक रहता है या नहीं? दूर बरामदे में गुरु बैठा था, उसने अपनी किताब जिसमें वह लिख रहा था, आंख उठाई, और इससे कहा, मेरे बेटे! हमला मत कर देना, मैं बूढ़ा आदमी हूं, हड्डी-पसली टूट जा सकती हैं।
यह तो घबड़ा गया। इसने कहा, क्या हुआ? मैंने तो सिर्फ सोचा। उस बूढ़े ने कहाः तू ठहर दो वर्ष पूरे हो जाने दे, अभी तो मेरे पैर की ध्वनि सुनता है, नींद में हमले की खबर तुझे मिल जाती है। जितना-जितना तू जागरूक होगा, विचार की ध्वनि भी तुझे मिलने लगेगी, अभी पैर की ध्वनि सुनाई पड़ती है, फिर मेरे भीतर चलते विचार के पैर भी तुझे सुनाई पड़ने लगेंगे।
जितना भीतर जागरण बढ़ता है, उतनी सूक्ष्म चीजें दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं। अनुभव में आनी शुरू हो जाती हैं। उसने कहा तू घबड़ा मत, एक साल और रुक जा और हमला कर, उसमें कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन मैं बूढ़ा आदमी हूं, और कहीं तुझे सिखाने के पहले ही समाप्त हो गया तो मुश्किल में पड़ जाएगा, इसलिए मैंने रोका, नहीं तो रोकने की कोई बात न थी। विचार भी दूसरे का सुना जा सकता है, जाना जा सकता है, जागरण चाहिए, होश चाहिए भीतर। लेकिन हम तो अपने ही विचार जानने में समर्थ नहीं हैं। दूसरे के विचार की बात तो बहुत दूर, हम तो अपने विचार को ही पूरा नहीं जानते कि क्या-क्या भीतर चल रहा है? आप जानते हैं अपने पूरे विचार को, क्या-क्या भीतर चल रहा है? बिलकुल नहीं जानते।
किसी दिन बैठ जाएं, अकेले में और एक कागज पर दस मिनट जो भी भीतर चले उसे लिखें, तो आप घबड़ा जाएंगे यह आपने लिखा है या किसी पागल ने लिखा है? यह क्या चल रहा है आपके भीतर। अगर आप अपने किसी मित्र को उसे दिखाने ले जाएं, तो वह कहेगा आप इलाज करवाइए, आपका दिमाग खराब हो गया है। क्या चल रहा है भीतर उसका हमें भी बोध नहीं है। हम उस तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे हैं, वह चल रहा है, चल रहा है, चल रहा है। तो दूसरे के विचार तो बहुत दूर हैं, लेकिन अगर अवेयरनेस, निरीक्षण बढ़ता जाए, बढ़ता जाए तो शरीर के प्रति आता है, फिर धीरे-धीरे विचार दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। विचार की सूक्ष्म-सूक्ष्म अचेतन पर्तें, वह जो अनकांशस है सब, वह भी उभरना शुरू हो जाता है, और दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।
एक ही बात भीतर चलकर ध्यान में रखनी जरूरी है, बाहर का निरीक्षण, शरीर का निरीक्षण आसान है। विचार के निरीक्षण में एक बात जरूरी है, जो कि हमारी शिक्षा ने हमें बहुत कठिनाई में डाल दिया है। हम विचारों में फर्क करने लगे हैं, यह अच्छा विचार है, यह बुरा विचार है। इसको पकड़ो, इसको छोड़ो। अगर आपने इस भांति का फर्क किया कि यह अच्छा विचार है, यह बुरा विचार है, अच्छे को पकडूंगा, बुरे को छोडूंगा, तो फिर आप निरीक्षण नहीं कर पाएंगे। फिर आपका ऑब्जर्वेशन सच्चा नहीं हो पाएगा। फिर बुरे विचार आपके डर के कारण बाहर ही न निकलेंगे, भीतर ही छिपे रह जाएंगे। वह अचेतन में दबे रह जाएंगे, फिर बाहर नहीं आएंगे; वह आपसे डर जाएंगे कि ये तो हमारे दुश्मन हैं, इनके सामने मत जाओ। फिर आपका चित्त आपके सामने पूरा नहीं आ सकेगा। और जिसके सामने पूरा चित्त नहीं आएगा, उसका चित्त कभी विसर्जित नहीं होगा, विदा नहीं होगा। और चित्त जब तक विदा न हो जाए, विसर्जित न हो जाए, तब तक आत्मा का कोई अनुभव नहीं हो सकता है।
तो बुरे और भले के, शुभ का और अशुभ का कोई खयाल न रखें, कोई डिसक्रिमिनेशन न रखें। कोई भेद न रखें, जो भी भीतर चल रहा हो, उसे देखें शांति से। जैसे हम बाहर के दरख्तों को देखते हैं, रास्ते पर चलते लोगों को देखते हैं, वैसा ही विचार को भी देखें। बाहर, शरीर और मन, ये तीन घेरे हैं, जिन पर मनुष्य को जागना जरूरी है। और अगर इन तीन घेरों पर जाग जाए, तो एक अदभुत क्रांति घटित हो जाएगी। वह स्वयं को जानने में समर्थ हो जाएगा। जागरण की जो पूरी इंटेंसिटी है, वह जो पूरी तीव्रता है, वही तीव्रता स्वयं का अनुभव है। आत्मा का अर्थ है जाग्रति की पूरी अवस्था। आत्मा का अर्थ है जागरण की पूरी स्थिति। ये तीन तलों पर मनुष्य को जागना जरूरी है, यही ध्यान है, यही योग है।
 यही सारे धर्म का सार है कि हम जागे हुए आदमी बन जाएं। सोए हुए नहीं। इसको बाहर से शुरू करना पड़ेगा। वही आसान है। सबसे करीब है। सबसे सुलभ है, वहां से जागना शुरू करें, बाहर के जीवन से, फिर शरीर का जीवन और फिर मन का जीवन। इन तीन सीढ़ियों में जागते हुए आएं और अगर इन तीनों सीढ़ियों पर आप पूरी तरह जाग गए, तो चैथी सीढ़ी अपने आप उपलब्ध हो जाएगी, उसके लिए कुछ करना नहीं होता है। फिर जागरण शेष रह जाएगा, चैतन्य शेष रह जाएगा, कांशसनेस शेष रह जाएगी, वही आत्मा है, वही सत्य है। उसका स्वयं में अनुभव आत्मा का अनुभव है, उसका सबमें अनुभव परमात्मा का अनुभव है।
जो स्वयं में उसे जान लेता है, वह सबके भीतर उसे जानने में समर्थ हो जाता है। क्योंकि जो एक में है वह सब में है, और जो अणु में है वह विराट में है। और जो यहां है, वह वहां है। एक ज्योति का मुझे अपने भीतर अनुभव हो जाए तो सारा जीवन ज्योति का सागर हो जाता है। एक बिंदु को मैं जान लूं तो मैं पूरे सागर को पहचान लेता हूं। तो उस एक बिंदु को जो हमारे भीतर है, जानने का रास्ता है निरंतर-निरंतर माइंडफुल होते जाना है, होश से भरते जाना है, जागरूक होते जाना है। इसकी शुरुआत करनी होगी बाहर के जगत से और फिर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे भीतर डूबना पड़ेगा और भीतर आना पड़ेगा।
जितनी, जितनी क्षमता हो हमारी, जितनी हमारी सामथ्र्य हो, जितना हमारा साहस हो, उस सबको प्रयोग में लगा देना जरूरी है। क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं। आज आप हैं कल हो सकता है न हों। अभी हैं, थोड़ी देर बाद न हों। थोड़े से क्षण आदमी के हाथ में होते हैं, ऐसे तो एक ही क्षण आदमी के हाथ में होता है, ज्यादा क्षण हाथ में नहीं होते। एक मोमेंट आता है, फिर दूसरा आता है, फिर तीसरा आता है। एक क्षण से ज्यादा किसी के हाथ में कुछ होता नहीं, दूसरे क्षण का कोई पक्का नहीं होता कि वह आएगा या नहीं आएगा। इसलिए जो क्षण मेरे हाथ में है, उसे पूरी शक्ति और पूरे साहस से अगर मैं प्रयोग करूं और जागने की कोशिश करूं तो कोई कारण नहीं है कि मैं क्यों न जाग जाऊं ? लेकिन न जागने का सिर्फ एक कारण है कि हम सोचते हैं कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे, पोस्टपोनमेंट है। कल करेंगे, परसों करेंगे, फिर कर लेंगे। सुन ली है बात, समझ ली है बात, कल देखेंगे। जो आदमी कहता है कल करेंगे, उसे इस बात का पता ही नहीं है कि कल कभी नहीं आता! जो आदमी कहता है कल करेंगे, उसे इस बात का पता ही नहीं है कि जिसने कल पर छोड़ा है, उसने हमेशा के लिए छोड़ दिया। जो आदमी कहता है कल करेंगे, उससे ज्यादा भूल भरी बात और कोई भी नहीं कहता।
एक सुबह एक पहाड़ी निर्जन स्थान में पांचों पांडव एक झोपड़े में बैठे हुए थे। और एक भिखारी आया और उस भिखारी ने कहा, क्या मुझे कुछ मिल जाएगा? युधिष्ठिर कुछ काम में लगे थे, युधिष्ठिर ने कहाः कल आ जाना। वह भिखारी तो लौट गया, लेकिन भीम उठा और जोर से नाचने लगा और एक घंटा लेकर घंटा बजाने लगा और कहा मैं गांव में जाऊं और एक बात खबर कर आऊं । आज एक अदभुत बात हो गई है हमारे घर में! युधिष्ठिर ने पूछाः तुम पागल हो गए हो? क्या हो गया है? उसने कहाः मैं गांव में खबर कर आऊं मेरे बड़े भाई ने समय के ऊपर विजय पा ली है। उन्होंने एक भिखारी को कहा है कि कल आ जाना, कल मैं तुझे दूंगा। क्या कल पर आपने विजय पा ली है? आपको निश्चित है कि कल आएगा? आपको निश्चित है कि कल भिखारी बचेगा? आपको निश्चित है कि कल आप होओगे? आपको निश्चित है कि कल भी आपकी देने की...इकट्ठी हो जाएगी, एकत्रित हो जाएगी, आप दे ही देंगे।
मैंने सुना है, न्यूयार्क की एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में एक खिड़की के ऊपर कोई छत्तीस इंच के व्यास वाला एक कांच लगा हुआ है। उस कांच में जो सूरज की किरणें पड़ती हैं, छत्तीस इंच के व्यास वाले कांच पर वे सारी इकट्ठी होकर एक बिंदु पर इकट्ठी हो जाती हैं। उस कांच के माध्यम से इकट्ठी हो गई किरणों से कागज तो दूर, स्टील के भीतर भी छेद हो जाता है, लोहे के भीतर छेद करके वे पार निकल जाती हैं। छत्तीस इंच का केवल कांच है, एक साधारण-सी खिड़की पर लगा हुआ है, उस खिड़की में से रोज धूप आती है घर में, लेकिन वही धूप इकट्ठी हो जाती है, एक बिंदु पर और लोहे को फोड़ कर पार निकल जाती है। आदमी के चित्त की भी खिड़की तो छोटी है, लेकिन बड़ी ताकत है उसमें। लेकिन जिंदगी के लंबे फैलाव पर सब बिखर जाती है, उसकी कोई ताकत नहीं रह जाती है।
 लेकिन जो आदमी मोमेंट टु मोमेंट जीना शुरू कर देता है, एक-एक क्षण में जीने लगता है, उसकी सारी चित्त की शक्ति एक क्षण में इकट्ठी हो जाती है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं, वह शक्ति फौलाद को भी पार कर सकती है। वह चित्त इकट्ठा हुआ चित्त एक क्षण में सारी बाधाओं को पार करता है और परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है।
 इसलिए एक ही निवेदन है आज।।कल पर छोड़ने की भूल छोड़ दें। और कुछ प्रयोग करना हो तो अभी और यहीं, यहां से चलते वक्त रास्ते पर थोड़े जागरण का प्रयोग करते हुए लौटना। घर जाकर भोजन करते वक्त, सोते वक्त, बात करते वक्त थोड़े होश की कोशिश करना, रुक-रुक कर देखने की कोशिश करना। जो आज शुरू हो जाए बात, तो कोई भी नहीं कह सकता कि किसी की बात आज ही पूरी हो जाए। एक बात तय है, जो इतनी हिम्मत रखता है कि अभी शुरू कर सके, और एक क्षण में कुछ प्रयोग करने का साहस दिखा सके, एक बात तय है उसके जीवन में वह क्षण दूर नहीं होगा, जब जो सबसे बड़ी संपदा है, जो सबसे बड़ा आनंद है, जो सबसे बड़ा सत्य है, वह उसे उपलब्ध न हो जाए। सूत्र है।।जागरण, तीन बिंदु।।बाहर, शरीर और मन। वस्तुओं का जगत, शरीर का जगत और विचार का जगत। इन तीन सीढ़ियों पर उसका प्रयोग करना है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उससे बहुत-बहुत आनंदित हूं। कल संध्या जो आपके प्रश्न होंगे इस संबंध में उनके उत्तर दूंगा। अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा के प्रति मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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