चौथा-प्रवचन-(महासुखः फैलना और फैलते जाना)
प्रश्न-सार
01-॰ हम खुदा के तो कभी कायल न थेतुम्हें देखा तो खुदा याद आया।
शवूर सिजदा नहीं है मुझको, तू मेरे सिजदों की लाज रखना
यह सिर तेरे आस्तां से पहले, किसीके आगे झुका नहीं है।
02-॰ भगवान,
मेरी पत्नी के मन में कोई प्रश्न नहीं उठता! क्या कारण है?
03-॰ जब भी कभी ईश्वर-स्मरण की भावना भीतर उमड़ती है, तब कोई न कोई रूप उमड़ आता है। किंतु आपके कथन से आश्वस्त हूं कि सब आकार मन की सीमा के भीतर हैं और कल्पनाएं हैं।
कृपया बताएं कि दिन भर में या ध्यान के समय जब भी प्रभु-स्मरण की प्रबल भावना उमड़े, तब उसका क्या स्वरूप हो?
04-॰ मनुष्य जीवन का मूल संताप क्या है?
05-॰ एक मित्र का एक ध्यान-अनुभव से उत्पन्न स्थितियों पर प्रकाश डालने के लिए व भावी साधना-हेतु मार्ग-निर्देशन करने के लिए भगवान से अनुरोध!
पहला प्रश्नः हम खुदा के तो कभी कायल न थे
तुम्हें देखा तो खुदा याद आया।
शवूर सिजदा नहीं है मुझको, तू मेरे सिजदों की लाज रखना
यह सिर तेरे आस्तां से पहले, किसी के आगे झुका नहीं है।
और क्या कहूं, बस अब आप कुछ ऐसी तदबीर करें कि जिससे यह जो एक तीर-ए-नीमकश दिल में चुभा है, सीने के पार हो जाए। प्रश्न लिखने के बहाने ही आंसू बह निकले हैं। आप इसका जवाब देंगे तब भी खूब बहेंगे, नहीं देंगे, तब भी। क्या करूं, अब तो बरसात आ ही गई! पर पता नहीं वर का साथ कब होगा? होगा भी या नहीं?
कृष्णतीर्थ! सत्संग का यही अर्थ है। जिस निमित्त परमात्मा की याद आ जाए, वही सत्संग है। सागर में उठते हुए तूफान को देख कर परमात्मा की याद आ जाए, तो वहीं सत्संग हो गया। आकाश में उगे चांद को देख कर याद आ जाए, तो वहीं सत्संग हो गया। जहां सत्य की याद आ जाए, वहीं सत्य से संग हो जाता है।
और परमात्मा तो सभी में व्याप्त है। इसलिए याद कहीं से भी आ सकती है--किसी भी दिशा से। और परमात्मा तुम्हें सब दिशाओं से तलाश रहा है, खोज रहा है। कहीं से भी रंध्र मिल जाए, जरा सी संध मिल जाए, तो उसका झोंका तुममें प्रवेश हो जाता है। वृक्षों की हरियाली को देख कर, उगते सूरज को देख कर, पक्षियों के गीत सुन कर, पपीहे की ‘पी कहां’ की आवाज सुन कर... । और अगर तुम गौर से सुनो तो हर आवाज में उसी की आवाज है। तुम्हें अगर मेरी आवाज में उसकी आवाज सुनाई पड़ी, तो उसका कारण यह नहीं है कि मेरी आवाज ही केवल उसकी आवाज है, उसका कुल कारण इतना है कि तुमने मेरी आवाज को गौर से सुना। सभी आवाजें उसकी हैं। जहां भी तुम शांत होकर, मौन होकर, खुले हृदय से सुनने को राजी हो जाओगे, वहीं से उसकी याद आने लगेगी।
खुदा के कायल होना ही होगा, क्योंकि खुदा तो सब तरफ मौजूद है। आश्चर्य तो यही है कि कुछ लोग कैसे बच जाते हैं खुदा के कायल होने से? चमत्कार है कि परमात्मा से भरे इस अस्तित्व में कुछ लोग नास्तिक रह जाते हैं? उनके अंधेपन का अंत न होगा! वे बहरे होंगे। उनके हृदय में धड़कन न होती होगी। उनके हृदय पत्थर के बने होंगे। यह असंभव है! अगर कोई जरा आंख खोले तो चारों तरफ वही मौजूद है, उसी की छवि है। मंदिरों और मस्जिदों में जाने की जरूरत इसीलिए पड़ती है कि हम अंधे हैं। अन्यथा जहां हो वहीं मंदिर है--खुली आंख चाहिए। थोड़े जाग्रत होकर जहां भी बैठ जाओगे, वहीं तुम उसकी वर्षा पाओगे। बरस ही रहा है। उसकी वर्षा अनवरत है।
तुम कहते होः
‘हम खुदा के तो कभी कायल न थे
तुम्हें देखा तो खुदा याद आया।’
इससे मेरा कुछ संबंध नहीं है। जिस ढंग से तुमने मुझे देखा, उसी ढंग से अब औरों को भी देखना शुरू करो। और तुम्हें जगह-जगह खुदा ही नजर आएगा और तुम कायल पर कायल होते चले जाओगे। और एक दिन वह अपूर्व चमत्कार भी घटेगाः दर्पण के सामने खड़े अपनी तस्वीर देखोगे और खुदा दिखाई पड़ेगा। जिस दिन वह भी घट जाए, उस दिन जानना है कि यात्रा पूरी हुई। जिस दिन तुम्हें अपने में भी परमात्मा की ही याद आने लगे।
सबसे कठिन बात वही है। क्योंकि लोगों को सदा से आत्मनिंदा सिखाई गई है। तुम्हारे सबके मन आत्मनिंदा से भरे हैं--मैं ना-कुछ, अपात्र, पापी! तुम्हें सिर्फ तुम्हारी भूलें ही दिखाई पड़ती हैं क्योंकि तुम्हारी भूलें ही तुम्हें सुझाई गई हैं बार-बार। बचपन से लेकर अब तक, सदियों-सदियों में तुम्हें एक ही बात सिखाई गई है कि तुम दो कौड़ी के हो। तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूंः तुम अमूल्य हो! तुम्हारे भीतर परमात्मा विराजमान है। तुम्हारी छोटी-मोटी भूलों इत्यादि से तुम्हारे भीतर के परमात्मा का कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं। तुम्हारी निर्मलता वैसी की वैसी है। जैसे आकाश में बादल घिरते हैं और विदा हो जाते हैं और आकाश का क्वांरापन जरा भी खंडित नहीं होता, ऐसा ही तुम्हारा क्वांरापन है।
अगर तुम्हें मेरे पास बैठ-बैठ कर परमात्मा का स्मरण आने लगा है, तो अब इस भूल में मत पड़ जाना कि परमात्मा बाहर है; नहीं तो फिर चूके! पहले चूकते रहे, क्योंकि परमात्मा नहीं है--एक चूक--फिर दूसरी चूक कि परमात्मा बाहर है, किसी और में है। नास्तिक चूकता है, आस्तिक भी चूक जाता है। नास्तिक चूकता है मानकर कि परमात्मा नहीं है और आस्तिक चूक जाता है मान कर कि ‘राम’ में है, ‘कृष्ण’ में है, ‘बुद्ध’ में है।
धार्मिक कौन है?
धार्मिक वह है, जिसे दिखाई पड़ता हैः ‘मुझमें।’ और जब मुझमें है, तो सब में ही होगा। क्योंकि मुझ तक में हो सकता है, मुझ ना-कुछ में हो सकता है, तो फिर कोई स्थान रिक्त नहीं है।
तुम कहते, कृष्णतीर्थः
शवूर सिजदा नहीं है मुझको, तू मेरे सिजदों की लाज रखना
यह सिर तेरे आस्तां से पहले, किसी के आगे झुका नहीं है।
सिर है ही कहां? झुकाओ तो पता चलता है कि है ही नहीं। न झुकाओ तो पता चलता है कि है। अहंकार छोड़ना थोड़े ही पड़ता है। हो तो छोड़ो। जब आंख खुलती है तो पता चलता है कि है ही नहीं। रात तुमने स्वप्न देखा कि तुम सम्राट हो, बड़ा साम्राज्य है, महल हैं स्वर्ण के, अप्सराओं जैसी तुम्हारी रानियां हैं। देवताओं जैसे सुंदर तुम्हारे पुत्र हैं। और फिर सुबह आंख खुली, फिर क्या रात के सपने को छोड़ना पड़ता है? हंसी आती है। इस धोखे में पड़ सके, इस पर भरोसा नहीं आता! छोड़ना क्या है? सिर तभी तक है जब तक झुका नहीं। जब तक जागे नहीं, तब तक सपना है। और तब तक सपना सच है। तब तक सपना बहुत सच है। जागे कि सपना कहां? झुके कि सिर कहां? इसलिए झुकने के बाद फिर कोई सिजदा की कला थोड़े ही सीखनी होती है! झुकने के बाद तो पता चलता है कि सिजदा चल ही रहा था, हम नाहक ही सिर के सपने में पड़ गए थे। सिर था ही नहीं झुककर ही पता चलता है कि सिर नहीं है। अगर एक बार भी झुक गए, तो फिर तुम दुबारा अपने सिर को न खोज पाओगे। झुके कि अहंकार गया।
अहंकार उस नींद का नाम है, जिसको अकड़ कहें। झुके, झुक सके, एक बार भी, तो झलक मिल जाएगी। झलक मिल जाए समर्पण की, आनंद बरस जाए। फिर कौन पकड़ता है उस नर्क को जिसका नाम अहंकार था!
नहीं, सिजदा की कोई कला नहीं होती। सिजदा सीखना भी नहीं होता। सीखा जा भी नहीं सकता। हां, कभी अनायास किसी की सन्निधि में घट जाता है। निमित्त मात्र किसी की मौजूदगी कारण बन जाती है। कभी-कभी तो ऐसा होता है, व्यक्ति न भी हो तो भी सिजदा हो जाता है।
कभी सुबह एकांत में वन के किसी राह पर, ताजा-ताजा सूरज उगता हो, जमीन से उठती हो सोंधी सुगंध, वृक्ष हरे हों, घास पर अभी भी ओस के मोती जमे हों, पक्षी गीत गाते हों--नहीं क्या कभी मन होता कि झुक जाएं, घुटने टेक दें भूमि पर, सिर लगा दें जमीन पर? नहीं कोई चरण हैं, नहीं कोई मूर्ति है, लेकिन फिर भी झुक जाने का एक अपूर्व भाव उठता है। और अगर झुक जाओ--किसके सामने झुके? कोई भी न था। लेकिन किसके सामने झुकने का सवाल ही नहीं है, झुकने में असली राज है। झुक गए, सिजदा हो गया। उठोगे, दूसरे ही आदमी होकर उठोगे। बिना सिर के हो जाओगे। संन्यासी का अर्थ ही यही हैः जिसका सिर दूसरों को दिखाई पड़ता है, उसकी तरफ से नहीं हो गया है। उनको दिखाई पड़ता है जो अभी भी सो रहे हैं। उनके सपने में हैं। लेकिन उसके जागरण में सिर खो गया है।
शवूर सिजदा नहीं है मुझको...
किसको है? इसकी कोई कला तो नहीं होती। कला का उपाय ही नहीं। और अगर किसी ने कला सीख कर सिर झुकाया, तो सिर झुकाना झूठा हो जाता है--यह भी याद रहे! मंदिरों-मस्जिदों में कितने लोग तो सिर झुका रहे हैं, मगर झुकता कहां? हालत उलटी है। मंदिर-मस्जिद में जाने वाले का सिर और अकड़ जाता है। वह और अकड़ कर बाहर आता है कि मैं धार्मिक हूं! कि देखो रोज मंदिर जाता हूं--और तुम पापी!
मुहम्मद एक दिन एक युवक को लेकर मस्जिद गए। पहली दफा युवक मस्जिद गया मोहम्मद के साथ। जब प्रार्थना कर के वापस लौटते थे--गर्मी के दिन थे और कुछ लोग अभी भी रास्तों पर अपने बिस्तरों में सोए थे--उस युवक ने मोहम्मद से कहाः हजरत! इन पापियों का क्या होगा? ये नरक में पड़ेंगे? यह समय प्रार्थना का है और ये अभी भी बिस्तरों में पड़े हैं। इन काहिलों, इन आलसियों की क्या गति होगी, कुछ बताएं। मोहम्मद ठिठक कर खड़े हो गए। उनकी आंख से आंसू गिरने लगे। हाथ जोड़ लिए, वहीं झुक गए जमीन पर और परमात्मा से क्षमा मांगने लगे। वह युवक तो बहुत घबड़ाया। उसने कहा, बात क्या है, आप किस बात की क्षमा मांग रहे हैं? उन्होंने कहा मैं क्षमा मांग रहा हूं कि मैं तुझे मस्जिद क्यों ले गया? तू न जाता मस्जिद तो ही भला था। कम से कम तुझे यह तो ख्याल नहीं था कि तू पुण्यात्मा है और दूसरे पापी हैं। मुझसे और एक भूल हो गई। तू भी सोया पड़ा रहता था रोज, तेरे मन में कभी यह अहंकार न उठा था कि मैं पुण्यात्मा और दूसरे पापी। आज एक बार तू मस्जिद क्या हो आया, तू पुण्यात्मा हो गया! दूसरे नरक में पड़ेंगे, इसका विचार करने लगा, किस नरक में पड़ेंगे, पूछताछ करने लगा! मुझे वापस जाना होगा मस्जिद। मुझे नमाज फिर से करनी होगी। भाई, तू घर जा और सो। मेरी नमाज खराब हो गई! मैंने सोचा था कि मेरे संग-साथ तेरी नमाज भी उड़ जाएगी पंख खोल कर, ... मेरी नमाज तक के पंख तूने तोड़ दिए। मुझसे बड़ी भूल हो गई।
मोहम्मद दुबारा गए। फिर से नमाज पढ़ी।
धार्मिक आदमी जिसको तुम कहते हो, उसकी अकड़ देखते हो? किसी ने जनेऊ पहन रखा है, किसी ने तिलक लगा रखा है--उसकी अकड़ देखते हो? वह रोज मंदिर हो आता है, थोड़ा मंदिर की घंटी बजा देता है... वह घंटा भी क्यों लटका रखा है मंदिर में, मालूम है! वह खबर कर रहा है भगवान को--कि सुनो, मैं आ गया। जोर से घंटा बजा रहा है, कि कहीं झपकी खा रहे होओ, या सो गए होओ तो जाग जाओ! --देखो, कौन आया? और फिर वह घूमता है जगत में एक पवित्र अहंकार लिए। और अहंकार कहीं पवित्र हुआ है! नहीं, सिजदे की कोई कला नहीं होती। प्रार्थना की कोई कला नहीं होती। प्रार्थना तो सरलता है।
तो कृष्णतीर्थ, झुक गए, बस उसी झुकने में प्रार्थना है। यह पूछो ही मतः कैसे झुकें? कैसे झुके रहें? --पूछो ही मत! जिसने झुका लिया है, वही आगे भी झुकाता रहेगा। तुम अपने हाथ में यह काम मत ले लेना। तुम प्रार्थना करने को अपना कृत्य मत बना लेना। उसने झुका लिया है, वही झुकाए रखेगा। तुम इसे औपचारिक नियम मत बना लेना।
मनुष्य की बड़ी से बड़ी भूलों में एक है कि वह जीवन की श्रेष्ठतम चीजों को भी औपचारिक नियम बना लेता है। बस, जैसे ही औपचारिक नियम बनते हैं, श्रेष्ठता खो जाती है, जीवन खो जाता है, जड़, मुर्दा चीजें हाथ में रह जाती हैं।
कहा हैः ‘और क्या कहूं, बस आप ऐसी तदबीर करें जिससे कि यह जो एक तीर-ए-नीमकश दिल में चुभा हुआ है, सीने के पार हो जाए’। न तो मेरी तरकीब से होगा, न तुम्हारी तरकीब से होगा। जैसे अनायास यह तीर लग गया है सीने में और आधा पार हो गया है, ऐसे ही अनायास पूरा भी पार हो जाएगा। कार्य-कारण के नियम काम नहीं करते।
फिर जल्दी भी न करो। थोड़ा तड़पो! यह जो आधा-आधा छिदा हुआ तीर है हृदय में, इसकी पीड़ा को भी आनंद से भोगो। इसकी पीड़ा मधुर है, मीठी है। जल्दी मत करो, अधैर्य भी मत करो कि जल्दी यह पार हो जाए। इसको ही मैं आस्तिकता कहता हूं, इसी को मैं श्रद्धा कहता हूं--जो हो रहा है, उससे आनंदित। और जितनी देर प्रतीक्षा करनी होगी, उतनी देर प्रतीक्षा को तैयार। अगर जन्मों-जन्मों भी लगेंगे, तो भी तैयार। जैसे ही तुमने सोचा कि जल्दी हो, पूरा हो जाए, वैसे ही जो हो रहा था, वह भी रुक जाएगा। तुम आ गए, तुम बीच में आ गए। परमात्मा को करने दो--यही जगजीवन का सार-सूत्र है। यही भक्ति का अर्थ हैः उसे करने दो। अगर आधा तीर चुभा है तो अभी आधे की ही जरूरत होगी। अभी जरूरत होगी कि तुम तड़पो। क्योंकि तड़पने से निखार आता है। अभी पीड़ा आवश्यक होगी, क्योंकि पीड़ा मांजती है। पीड़ा प्रौढ़ता देती है। यह आग तुम्हारी शत्रु नहीं है। इसी आग से गुजर कर तुम शुद्ध स्वर्ण बनोगे, कुंदन बनोगे।
मैं तुम्हारी तकलीफ भी जानता हूं। हम सब जल्दी में हैं। और हमारी जल्दी के कारण ही देर हुई जा रही है। और तुम्हें भी भलीभांति पता है, तुम्हारे जीवन के सामान्य अनुभव में भी रोज हाता है--जब तुम जल्दी करते हो, देर हो जाती है। ट्रेन पकड़नी है, समय हो गया, टैक्सीवाला हार्न बजाए जा रहा है और तुम भाग-दौड़ में लगे हो और अपना किसी तरह सामान बांध रहे हो। चाभी हाथ में है और चाभी खोज रहे हो! चश्मा नाक पर चढ़ा है और चश्मे की तलाश कर रहे हो कि चश्मा कहां है? जल्दी में और देर हुई जा रही है। नहीं तो ऐसी भूलें नहीं होतीं। जल्दी में मन उत्तप्त हो जाता है। जितनी जल्दबाजी, उतना ही मन चिंतित हो जाता है। जितना चिंतित हो जाता है, उतना ही अंधा हो जाता है।
परमात्मा की खोज अनंत प्रतीक्षा है। अनंत प्रतीक्षा ही प्रार्थना है।
नहीं, कोई जल्दी न करो। और मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। जिन्हें स्वाद नहीं लगा है बिल्कुल, उन्हें तो जल्दी होती ही नहीं। जल्दी का कोई कारण ही नहीं है, स्वाद ही नहीं लगा है। जिन्हें स्वाद लगा--तुम धन्यभागी हो, तुम्हें स्वाद लगा! तीर छुआ है तुम्हारे हृदय को, चोट लगी है, चुभन हो रही है--अब तुम चाहते हो कि यह जो घटना घट गई, यह पूरी घट जाए। मगर अगर तुमने बहुत जल्दबाजी की, तुमने अगर बहुत आतुरता दिखाई, तुम अगर बहुत चिंतित हो गए, तो तीर जो आधा चुभा है, वह भी गिर जाएगा। नहीं, राह देखो। धन्यवाद दो जो हुआ है! और इस पीड़ा को अहोभाव से भोगो! और यह पीड़ा बड़ी अनूठी पीड़ा है। यह प्रेम की पीड़ा है! जल्दी क्यों! यह विरह की रात लंबी हो तो लंबी सही। यह विरह की रात है। और उसकी याद में बीतेगी। और उसका इंतजार भी उसके मिलने से कुछ कम आनंद की बात नहीं।
तुम ठीक कहते हो कि ‘बरसात तो आ गई, अब वर का साथ कब होगा?’
वह भी होगा। जब बरसात आ गई तो वर भी आता होगा।
है कितना दिलफरेब यह बरसात का आलम।
अल्हड़ हसीं का जैसे ख्यालात का आलम।।
आता है इस तरह से पवन झूमता हुआ।
हो जैसे किसी रिंद-ए-खराबात का आलम।।
दिखलाई नहीं देतीं यों आकाश में चिड़ियां।
जैसे कि दिल आने पे वजूहात का आलम।।
छिपती है किरन अब्र के घूंघट से झांक कर।
तौबा ये कनाए से इशारात का आलम।।
तेजी से गुजरना है ये घनघोर घटा का।
या सुबहे-शबे-वस्ल में लमहात का आलम।।
रुकती ही नहीं बूंदों की छनछूम-छननछूम।
ये बरखा की छागल के हैं नगमात का आलम।।
कोयल कहे है कौन है, पी बोले पपीहा।
उफ रे! यह सवालातो-जवाबात का आलम।।
शाखों की दुल्हन पहने हुए फूलों के जेवर।
अल्लाह रे! ये पहली मुलाकात का आलम।।
बूंद पड़ने लगी। पहली-पहली बरखा की बूंदें आ गईं। रुकती ही नहीं बूंदों की छनछूम-छननछूम। बाढ़ भी आती होगी। घनघोर वर्षा भी होगी। बरसात आ गई। दबे बीज, जन्मों-जन्मों दबे बीज फूटेंगे, अंकुरित होंगे; फलेंगे, फूलेंगे। भरोसा रखो! अनंत भरोसा रखो!
और मैं जानता हूं कि जब तीर लगता है और आधा-आधा लगता है--और सदा आधा-आधा ही लगता है शुरू में; यही प्रक्रिया है जीवन-रूपांतरण की--तो कहते भी नहीं बनता कि क्या हो रहा है--जबान लड़खड़ाती है।
क्या हुस्न का अफसाना महदूद हो लफ्जों में
आंखें ही कहें उसको आंखों ने जो देखा है
शब्द कह नहीं पाते। भीतर जो अनुभव होता है, वह भी वही समझ पाएगा जिसे अनुभव हुआ है। तो इस तीर-ए-नीमकश की बात उनसे मत करना जिन्होंने न तीर देखे हैं, न खाए हैं। जो कभी प्रेम से घायल नहीं हुए, उनसे इसकी बात मत करना। अन्यथा वे हंसेंगे और पागल समझेंगे। और झुकना हो गया है, तो असली बात तो घट गई, द्वार तो खुल गए मंदिर के।
सरे-नियाज न जब तक किसी के दर पे झुका
बराबर इक खलिश-सी मिरी जबीं में रही
तब तक सिर झुकता नहीं, तब तक एक चुभन सी बनी रहती है। झुकने का आनंद अपूर्व है।
झुकने का आनंद मिटने का आनंद है।
झुकने का आनंद निर्भार होने का आनंद है।
झुकने का आनंद अहंकार से छुटकारे का आनंद है।
जैसे पक्षी छूट जाए पिंजड़े से, सारा आकाश उसका अपना हो। अहंकार बड़ा छोटा पिंजड़ा है। जो नहीं झुक पाते, वे अभागे हैं। तुम सौभाग्यशाली हो! और तुम झुके तो तीर भी लगा।
अब प्रतीक्षा करो! अश्रुपूर्ण होगी प्रतीक्षा। लेकिन आंसू तुम्हारे आनंद के आंसू हों। आनंद, तुम्हारे अहोभाव, तुम्हारी कृतज्ञता के आंसू हों। इस पीड़ा को छाती से लगाकर पड़े रहो।
फुर्सत कहां कि छेड़ करें आस्मां से हम
लिपटे पड़े हैं लज्जते दर्दे-निहां से हम
इस भीतर की पीड़ा की लज्जत अनुभव करो।
लिपटे पड़े हैं लज्जते दर्दे-निहां से हम
यह संपदा है, इसे छाती से लगा लो।
फुर्सत कहां कि छेड़ करें आस्मां से हम
लिपटे पड़े हैं लज्.जते दर्दे-निहां से हम
इस दर्जा बेकरार थे दर्दे-निहां से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवां से हम
ऐ चारा-साज! हालते-दर्दे-निहां न पूछ
इक राज है जो कह नहीं सकते जबां से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख्याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातुवां से हम
आएंगे ख्याल--दूर आकाश से उड़ते हुए--अनंत के, अज्ञात के और खूब आंसू बहेंगे। कंजूसी मत करना। कृष्णतीर्थ, कृपणता मत करना! आंसुओं के अतिरिक्त हमारे पास और कोई अर्घ्य है भी नहीं जो हम चढ़ाएं परमात्मा के चरणों में। आंसुओं के अतिरिक्त और हमारे पास है भी क्या जो हम भेंट करें! इसलिए बचाना मत। जो दिल खोल कर रो सकता है, वह पहुंच ही गया। उसके पहुंचने में देर नहीं है।
प्रेम के मार्ग पर आंसुओं से सीढ़ियां पार की जाती हैं, एक-एक आंसू सोपान बन जाता है। रोओ, आनंदमग्न होकर रोओ। इस पीड़ा को आलिंगन करो। और अनंत प्रतीक्षा की तैयारी रखो।
अंतिम बात। जो अनंत प्रतीक्षा की तैयारी रखता है, उसकी घटना हो सकता है अभी घट जाए, यहीं घट जाए। और जो चाहता है अभी घटे, यहीं घटे, हो सकता है उसे अनंतकाल तक प्रतीक्षा करनी पड़े और कभी न घटे। ऐसा उल्टा नियम है अध्यात्म का। यहां दौड़ने वाले चूक जाते हैं, यहां बैठे रहनेवाले पहुंच जाते हैं।
दूसरा प्रश्नः मेरी पत्नी के मन में कोई प्रश्न नहीं उठता। क्या कारण है?
सुमति सरस्वती! तुम धन्यभागी हो, तुम्हारी पत्नी तुमसे ज्यादा बुद्धिमान है।
सुमति सरस्वती ने कम से कम दो दर्जन प्रश्न पूछे हैं आज। और सुमति को ख्याल होगा कि इस तरह के इतने प्रश्न पूछना बुद्धिमानी का लक्षण है। इतने प्रश्न पूछना सिर्फ विक्षिप्तता का लक्षण है, बुद्धिमानी का नहीं। और जब तुम्हारे प्रश्न मैंने देखे, तो मुझे तुम्हारी पत्नी पर बहुत दया आई। न मालूम किन कर्मों का फल बेचारी को तुम मिले! एक से एक अदभुत प्रश्न हैं। नमूने के तौर पर--
‘ध्यान से छुटकारा कब होगा?’
अभी ध्यान हुआ नहीं, अभी ध्यान का कुछ पता नहीं है, लेकिन छुटकारे का पहले से उपाय कर रहे हैं। ध्यान का मतलब ही क्या होता है? चित्त से छूट जाने का नाम ध्यान है। फिर ध्यान से कैसा छुटकारा? ध्यान का अर्थ ही परम छुटकारा है। तुम्हारा प्रश्न ऐसा ही है जैसे कोई कारागृह में पड़ा हुआ बंदी पूछे कि ठीक है, कारागृह से तो छुटकारा हो जाएगा, फिर स्वतंत्रता से कब छुटकारा होगा? स्वतंत्रता से छुटकारा! तो तुम समझे ही नहीं। ध्यान तो दूर है, अभी तुम्हें ध्यान का अर्थ भी पता नहीं है। मगर हां, प्रश्न उठ रहे हैं--संगत, असंगत। नमूने के लिए--
पूछा हैः ‘कुछ ऐसा कर दें कि मेरे और मेरी पत्नी के बीच झगड़ा न हो।’
पत्नी का तो कसूर दिखाई नहीं पड़ता। कृपा आपकी ही होगी! तुम्हारे दो दर्जन प्रश्न देख कर सब साफ हो गया मुझे कि कौन झंझट खड़ी कर रहा होगा? अब देखो, यह भी प्रश्न, इससे तुम्हें क्या लेना-देना है कि तुम्हारी पत्नी के मन में प्रश्न क्यों नहीं उठते? यह भी तुम्हारा प्रश्न है! यह भी पत्नी को ही पूछने दो। तुम उसकी जान खाते होओगे कि पूछ! प्रश्न क्यों नहीं पूछती? बुद्धू है? मूढ़ है? प्रश्न क्यों नहीं पूछती? जैसे कि प्रश्न पूछना कोई बड़े ज्ञान की बात है। प्रश्न उठता ही हमारी विक्षिप्तता से है, हमारी उलझन से। और मैं तुम्हें जो उत्तर देता हूं, वह इसलिए नहीं देता कि तुम्हारे प्रश्न बड़े सार्थक हैं, उत्तर सिर्फ इसलिए देता हूं ताकि धीरे-धीरे, धीरे-धीरे तुम्हें यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाए कि सब प्रश्न व्यर्थ हैं। उस दिन शुभ घड़ी होगी जब तुम्हारे मन में कोई प्रश्न न उठेगा। जिस दिन मन में कोई प्रश्न न उठेगा। जिस दिन मन निष्प्रश्न हो जाता है, उसी दिन भीतर का उत्तर प्रकट हो जाता है।
उत्तर तुम्हारे भीतर है। मगर तुम प्रश्नों में उलझे हो। इसलिए उत्तर का पता नहीं चलता। तुम प्रश्नों में इतना शोरगुल मचा रहे हो कि उत्तर भीतर है भी तो सुनाई नहीं पड़ सकता। उसकी धीमी-धीमी आवाज, उसका धीमा-धीमा स्वर तुम्हारे कोलाहल में खो जाता है। तुम्हारे सारे प्रश्न शांत हो जाएं, तो तुम चकित हो जाओगे--जीवन के सारे उत्तर तुम्हारी चेतना में छिपे पड़े हैं। तुम जब तक पूछते रहोगे, तब तक चूकते रहोगे। जिस दिन पूछोगे नहीं, उसी दिन तुम्हारे भीतर ही वेदों का वेद जन्मता है। तुम्हारे चैतन्य में ही सारा रहस्य बीज रूप में पड़ा है। मगर तुम बाहर भटक रहे हो। प्रश्न पूछने का मतलब हैः कोई दूसरा उत्तर देगा। और तुम्हारे प्रश्नों से मुझे लगा कि तुम अपनी पत्नी से भी कहते होओगे कि पूछ, चल किसी से न पूछ तो मुझसे ही पूछ!
एक बात ख्याल रखना कि पत्नी दुनिया में जब सब के भीतर परमात्मा देख लेगी, आखिर में पति के भीतर देख पाती है--अंतिम। यद्यपि पतियों की कोशिश बड़ी पुरानी है कि समझाते हैं स्त्रियों को कि पति परमात्मा है। तुम्हारे समझाने से ही जाहिर हो रही बात, कि तुम्हें शक है। थोपते रहे हो स्त्रियों के ऊपर कि पति को परमात्मा मानो। और पत्नियां मुस्कुराती हैं कि तुम और परमात्मा! किसी पत्नी को यह भरोसा नहीं आ सकता है कि पतिदेव और परमात्मा। किसी और का पति हो सकता है, मगर अपने पति को तो स्त्रियां भलीभांति जानती हैं। तुमसे ज्यादा अच्छी तरह तुम्हारी पत्नी तुम्हें पहचानती है। तुम्हारी नस-नस से वाकिफ है। तुम्हारी नाड़ी कहां से दबानी, कब दबानी, कैसे दबानी, सब उसे पता है। तुम्हें एक क्षण में पूंछ हिलाने को मजबूर कर देती है। तुम्हारा सारा ज्ञान इत्यादि उसे पता है। तुम्हारे ज्ञान-व्यान का कोई मूल्य उसके सामने नहीं है। तुम सोचते होओगे कि वह तुमसे पूछे।
एक महिला--पढ़ी-लिखी महिला यहां आती है। चोरी से आना पड़ता है, क्योंकि पति कहते हैंः कहीं जाने की जरूरत ही नहीं है। जब मैं तेरा पति हूं, तो कहीं जाने की क्या जरूरत? क्या पूछना है, मुझसे पूछ? मेरी किताबें इत्यादि पति फेंक देते हैं। फिर डर के कारण उठाकर उनको सिर से भी लगा लेते हैं--क्योंकि भय भी लगता है कि कहीं कोई नुकसान न हो जाए! उनकी पत्नी ने ही मुझे कहाः कि मेरे सामने तो फेंक देते हैं, और फिर मैंने चोरी-छिपे देखा कि सिर झुका कर उनको नमस्कार करते हैं और माफी मांगते हैं कि क्षमा करना! अब ऐसे पति से क्या पत्नी डरेगी? और पत्नी के सामने अकड़ कर बैठ जाते हैं कि पूछ, क्या तुझे पूछना है? किस तरह का ज्ञान चाहिए? मेरी मौजूदगी में तुझे कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं। अब उनकी पत्नी कहती है कि इनसे पूछने का मन ही नहीं होता। इनसे पूछना क्या है? यह तो मुझसे पूछें उलटे। छोटी-छोटी बात में क्रोधित होते हैं, छोटी-छोटी बात में चिंतित हो जाते हैं, छोटी-छोटी बात में बच्चे की तरह हो जाते हैं--मुझे इनकी मां का भी काम करना पड़ता है। इनसे मैं क्या पूछूंगी? मगर अकड़। पुरुष का अहंकार। पुरुष का दंभ।
मैंने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा कि तेरी पत्नी और तेरे बीच कभी झगड़ा नहीं सुनाई पड़ता? उसने कहा, झगड़े का कोई कारण ही नहीं। शादी के दिन ही हमने निर्णय कर लिया कि जिंदगी के जो बड़े-बड़े सवाल हैं, वे मैं तय करूंगा, जो छोटे-छोटे सवाल हैं, वे तू ही तय करना। और तब से समझौता चल रहा है और कोई झंझट नहीं आती। मैंने कहा, फिर भी मैं थोड़ा पूछना चाहता हूं कि बड़े-बड़े सवाल से तुम्हारा क्या मतलब? और छोटे-छोटे सवाल से तुम्हारा क्या मतलब? उसने कहा, आप यह न पूछें तो अच्छा! मैंने कहा, फिर भी मैं किसी को कहूंगा नहीं। तो उसने कहा, बड़े-बड़े सवाल, जैसे ईश्वर है या नहीं? कितने स्वर्ग हैं? कितने नर्क हैं? वियतनाम का युद्ध होना चाहिए कि नहीं? इजरायल और मिस्र के बीच समझौता किस ढंग से हो? ऐसे जो बड़े-बड़े सवाल हैं--धर्म के, राजनीति के, अध्यात्म के, दर्शनशास्त्र के--वे मैं तय करता हूं। छोटे-मोटे सवाल, जैसे लड़के को किस स्कूल में भर्ती करवाना, किस फिल्म को देखने जाना, कौन सी कार खरीदनी? ये सब छोटे-मोटे सवाल पत्नी तय करती है।
अब तुम समझ लो, कि बड़े-बड़े सवाल का मतलब है कि बेकार सवाल! जिनसे कुछ लेना-देना नहीं। अब ईश्वर है या नहीं, करते रहो तय! तुमसे पूछ कौन रहा है कि इ.जराइल और मिस्र के बीच समझौता कैसे हो? वियतनाम में युद्ध होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए; तुम्हारी सलाह कौन मांग रहा है? स्त्रियां कुशल हैं, व्यावहारिक हैं। स्त्रियां भूमि के बहुत निकट हैं। इसलिए स्त्रियों को पृथ्वी कहा है। अत्यंत व्यावहारिक हैं। तुम्हारे जैसे व्यर्थ सवाल तुम्हारी पत्नी नहीं पूछेगी। अब जैसे पत्नी को यह सवाल ही नहीं उठ सकता कि ध्यान से छुटकारा कैसे हो? यह बात ही मूढ़तापूर्ण है। पत्नी को यह सवाल नहीं उठेगा।
तुम इस चिंता में पड़ो क्यों? अच्छा है, शुभ है कि पत्नी के मन में सवाल नहीं उठते हैं। तुम्हारे मन में उठते हैं, वह पूछो कि मेरे मन में इतने सवाल क्यों उठते हैं? क्योंकि तुम्हारे सवाल गिरें तो अच्छा है! तुम्हारे सवाल विदा हो जाएं तो अच्छा है! एक ऐसी घड़ी आ जाए जब तुम्हारे भीतर कोई प्रश्न न रह जाए तो वही घड़ी ध्यान की घड़ी होगी।
बुद्ध अपने शिष्यों को कहते थे कि जब तक तुम्हारे भीतर सवाल उठते हैं, तब तक मत पूछो। वर्ष-दो वर्ष ध्यान में डूबो। फिर जब सवाल न उठें, तब पूछ लेना। यह भी खूब रही! जब सवाल न रहें, तब पूछ लेना! जब सवाल न रह जाते तो कोई पूछता कैसे? बुद्ध अपने शिष्यों को पूछते थे साल, दो साल ध्यान करने के बाद कि अब कुछ पूछना है? शिष्य हंसते थे और कहते थेः नहीं, कुछ पूछना नहीं। बुद्ध कहतेः देखो, जब तुम पूछते थे, अगर मैं जवाब देता तो व्यर्थ ऊहापोह होता। न तुम्हारी कुछ समझ में आता, न तुम्हारी कुछ पकड़ में आता। और मेरे जवाब तुम्हारे लिए नये-नये प्रश्न पूछने का कारण बन जाते, और कुछ भी न होता।
इसका यह अर्थ नहीं है कि बुद्ध ने जवाब नहीं दिए हैं। बुद्ध ने जवाब दिए हैं उनको, जिनको ध्यान के लिए फुसलाना है और राजी करना है। लेकिन जिनमें भी बुद्ध ने देखा कि ध्यान की क्षमता है, करीब ही किनारे के खड़े हैं--जरा सा धक्का और ध्यान की लपट जल उठेगी, उनको जवाब नहीं दिए हैं।
मैं भी तुम्हें जवाब देता हूं, सिर्फ इसीलिए कि तुम्हें राजी करना है। किसी तरह तुम ध्यान में उतर जाओ। एक बार तुम ध्यान में उतर जाओ, तो सब प्रश्न गिर जाएंगे, सब उत्तर की आकांक्षा समाप्त हो जाएगी। तुम निश्चिंतमनः, आश्वस्त भाव से जानोगे--क्या है? वह परम अनुभव की दशा ही तृप्ति दे सकती है, किसी और के दिए गए उत्तर नहीं।
मैं तुम्हें उत्तर देता हूं, उसमें जो समझदार हैं वे उत्तर के माध्यम से अपने प्रश्नों को हटा देते हैं। जो नासमझ हैं, वे मेरे उत्तर में से और दस प्रश्न खड़े कर लेते हैं।
अब दो दर्जन प्रश्न पूछने का कोई कारण नहीं है! एकाध प्रश्न तुम्हारे जीवन में जो मूल्यवान हो, पूछो। प्रश्न पूछने के लिए ख्याल रखना चाहिए, जैसे जब तुम जाते हो पोस्ट आफिस टेलीग्राम करने तो एक-एक शब्द का ख्याल रखते हो, क्योंकि एक-एक शब्द की कीमत चुकानी पड़ती है। दस शब्द जा सकते हैं एक रुपए में तो तुम काटते जाते हो, काटते जाते हो--बारह हैं तो दो और काटो, और काटो। एक रुपए में जितने जा सकते हैं उतने भेज देते हो। और तुमने एक चमत्कार देखा? कि तुम्हारी दस पन्नों की चिट्ठी का वह असर नहीं होता, जो दस शब्दों के तार का होता है! क्या कारण होगा? क्योंकि व्यर्थ तुमने काट दिया, सार्थक-ही-सार्थक बचा लिया। जो अत्यंत आवश्यक था, अपरिहार्य था, वही बचा लिया।
ऐसे ही तुम्हें प्रश्न भी पूछने चाहिए।
तुम्हारे जीवन के लिए जो अत्यंत सार्थक मालूम पड़े, जिसके बिना पूछे तुम्हें चैन न पड़े, वही पूछना चाहिए, उतना ही पूछना चाहिए। तो शायद धीरे-धीरे तुम्हारी यात्रा निष्प्रश्न ध्यान की ओर शुरू हो जाए। लेकिन तुम कुछ भी पूछे जाते हो। जो भी तुम्हारे सिर में उठ आता है, बस लिख दिया, चले पूछने। अब यह भी कोई प्रश्न है! मेरी पत्नी के मन में कोई प्रश्न नहीं उठता; क्या कारण है?
तुम्हारी पत्नी बुद्धिमान है। या हो सकता है, तुम्हारे कारण प्रश्न नहीं उठता। डरती होगी कि प्रश्न उठाया कि तुम उत्तर दोगे। इससे प्रश्न न उठाना ठीक है।
एक बार ऐसा हुआ। एक सिंधी मित्र थे मेरे, बहुत बकवासी! मेरे साथ पंजाब की यात्रा पर गए। उनकी पत्नी कभी मेरे साथ यात्रा पर नहीं गई थी, इस बार उनकी पत्नी भी यात्रा पर गई। मैं बड़ा हैरान हुआ--दोनों में बड़ा विरोधाभास! पति इतना बकवासी कि चुप हो ही न, बोले ही चला जाए। और पत्नी ऐसी चुप कि जैसे उसे बोलना ही नहीं आता। पति स्नान करने को गए तो मैंने पत्नी से पूछा कि यह जरा हैरानी की बात है! तुम्हारे पति इतने बकवासी हैं, तुम इतनी चुप क्यों हो? पत्नी ने कहा कि मेरी तरफ से और उनकी तरफ से, दोनों का काम वही कर रहे हैं। शादी जब हुई थी तो मैं भी कुछ-कुछ बोलती थी, मगर उन्होंने मौका ही नहीं दिया।
इतने बकवासी पति के पास अब करना क्या और? चुप रहना ही, क्योंकि बोलना तो खतरनाक है। तुम एक शब्द बोलो, वह घंटों बकवास करेंगे। बिना बोले बकवास करते हैं। अगर चुप बैठे हो तो पूछते हैं--चुप क्यों बैठी है। अगर बोलो तो मुश्किल, न बोलो तो मुश्किल।
उनकी पत्नी मुझे बोल रही थी--बंबई रहते थे दोनों--कि जब मैं पति की आवाज सुन लेती हूं--तीसरे मंजिल पर रहती हूं--जब मैं पहली मंजिल पर उनकी आवाज सुन लेती हूं कि वह आ गए, तब मैं खाना पकाना शुरू करती हूं। और जब तक वह घर में आते हैं, तब तक खाना पक जाता है। क्योंकि चपरासी से लेकर और जो मिलेगा, और लिफ्टमैन, और जो... उससे चलता ही रहता है उनका! जब मैं आवाज सुन लेती हूं तब मैं शुरू करती हूं भोजन पकाना--कि आ गए पतिदेव! कम से कम घंटा-डेढ़ घंटा उनको लग जाता है--तीन मंजिल पार करने में! जब तक वह आते हैं घर में, घंटी बजती है, तब तक भोजन उनका तैयार हो जाता है।
उस महिला ने मुझे कहा कि मुझे एक लाभ रहा है इनके साथ कि बिना किसी धर्मगुरु के पास गए, मौन आ गया। और बड़ी शांति रहती है। और मैं सुनती रहती हूं, क्योंकि और कोई उपाय नहीं है। धीरे-धीरे सुनना भी साक्षीभाव से होने लगा है कि अब यह तो उन्हें बकना ही है, बकने दो। यह क्या कहते हैं, क्या नहीं कहते, अब इसका हिसाब-किताब भी नहीं रखती।
शायद यही दशा सुमति, तुम्हारी पत्नी की हो। मौन आ गया हो। उसको मौन रहने दो। तुम अपनी चिंता करो। इतने प्रश्न व्यर्थ ही हो सकते हैं। सार्थक प्रश्न थोड़े होते हैं। सार्थक प्रश्न तो अगर ठीक से समझो तो एक ही हैः ‘मैं कौन हूं?’ बाकी कोई प्रश्न सार्थक नहीं है। यही पूछो। बस इसी एक प्रश्न को ध्यान बना लोः ‘मैं कौन हूं!’ उठो, बैठो, सोओ, यह एक प्रश्न तुम्हारे भीतर गूंजता रहे कि मैं कौन हूं? और जल्दी उत्तर मत देना। क्योंकि तुमसे मुझे डर है। तुम्हारे पास उत्तर भी काफी हैं। एक दफा पूछोगेः मैं कौन हूं? और जल्दी से उत्तर दोगेः ‘अहं ब्रह्मास्मि।’ कि मैं ब्रह्म हूं। उपनिषद और वेद सब चले आएंगे। यह उत्तर तुम्हारा नहीं है। इनको इनकार कर देना। कहना ये उत्तर मेरे नहीं हैं। तुम तो उस उत्तर की प्रतीक्षा करना जो सद्यस्नात, ताजा-ताजा, नया तुम्हारे भीतर उमगे।
जब तक वह उत्तर न आए, इंकार करते जाना, बाकी सब कचरा है। किसी ने कहा हो, कितने ही महाज्ञानी ने कहा हो, मगर तुम्हारा नहीं है तो सत्य नहीं है। उधार यानी असत्य। बुद्ध ने कहा हो, महावीर ने कहा हो, कृष्ण-क्राइस्ट ने कहा हो, तुम्हारा नहीं है तो किसी काम का नहीं है। न तो तुम बुद्ध की आंख से देख सकते हो और न कृष्ण की जबान से बोल सकते हो। न महावीर के पैर से चल सकते हो। न कृष्ण की धड़कन से जी सकते हो। तुम्हारा ज्ञान ही तुम्हारे जीवन को आलोकित करेगा।
पूछते जाना इस एक प्रश्न कोः ‘मैं कौन हूं?’ उत्तर आएंगे--रटे-रटाए, तोते की तरह, कंठस्थ। जो तुमने पढ़े हैं, सुने हैं, पूछे हैं लोगों से, वे उत्तर उठेंगे। उनको इंकार करते जाना; कहनाः नहीं; नेति-नेति, कहते जानाः यह भी नहीं, यह भी नहीं। एक दिन ऐसी घड़ी आती है जब प्रश्न ही रह जाता है और कोई उत्तर नहीं रहता। ‘मैं कौन हूं?’ और सन्नाटा। ‘मैं कौन हूं?’ और सन्नाटा। ‘मैं कौन हूं?’ और सन्नाटा गहन होता जाता है, कोई उत्तर नहीं आता। यह बड़ी परम घड़ी है। क्योंकि वह सन्नाटा ही उत्तर है। वह शून्य जो ‘मैं कौन हूं’ के पीछे आता है--जैसे तूफान के पीछे शांति आती है, ऐसे उस ‘मैं कौन हूं’ के झंझावात के पीछे जो सन्नाटा, शांति, मौन, शून्य आता है, उसी शून्य के स्वाद में तुम्हें उत्तर मिलेगा। उसी शून्य में तुम पूर्ण को विराजमान पाओगे। वही ध्यान है, वही समाधि!
तीसरा प्रश्नः जब भी कभी ईश्वर-स्मरण की भावना भीतर उमड़ती है, तब कोई न कोई रूप उमड़ आता है। अधिकतर श्रीविष्णु अथवा शिव। किंतु आपके कथन से आश्वस्त हूं कि सब आकार मन की सीमा के भीतर हैं और कल्पनाएं हैं। तो कृपया बताएं कि दिन-भर में या ध्यान के समय जब भी प्रभुस्मरण की प्रबल भावना उमड़े, तब उसका क्या स्वरूप हो? वे हैं, इसे किस रूप में अनुभव करूं?
रूप तो मन की ही योजना होगी। नाम-रूप मन के ही अंग हैं। इसलिए परमात्मा है, इसे नाम और रूप में अनुभव नहीं किया जा सकता। जो नाम-रूप में परमात्मा को अनुभव करने की चेष्टा करेगा, उसने पहले से ही गलत कदम उठा लिए। वह कल्पना-जाल में पड़ जाएगा। और मीरा, क्योंकि तुझे समझ में बात आ रही है कि ये सब आकार मन की ही कल्पना के जाल हैं, इसलिए अड़चन ज्यादा नहीं है।
परमात्मा है, इसे हम दो तरह से अनुभव कर सकते हैं। एक, रूप में अर्थात पर की भांति। कृष्ण खड़े हैं। राम खड़े हैं। या बुद्ध, या महावीर। तुमसे भिन्न। तुम हो द्रष्टा और जिस परमात्मा को तुम देख रहे, वह है दृश्य। दृश्य यानी रूप। एक तो यह ढंग है परमात्मा को स्मरण करने का। यह गलत ढंग है। इससे सावधान। दूसरा ढंग है, द्रष्टा की भांति अनुभव करना--दृश्य की भांति नहीं। साक्षी की भांति अनुभव करना। यह जो चैतन्य मेरे भीतर है, यह जो मैं हूं--यही। तब कल्पना का कोई उपाय नहीं।
कृष्ण दिखाई पड़ रहे हैं, लेकिन किसको दिखाई पड़ रहे हैं? देखने वाला कोई है। मीरा, तेरे भीतर कौन साक्षी है जो कृष्ण को देख रहा है? जोर कृष्ण पर मत डालो, जोर देखने वाले पर डालो। सारा ध्यान देखने वाले पर केंद्रित कर दो। उस साक्षी को पकड़ो। कृष्ण तो आएंगे, चले जाएंगे, साक्षी सदा है। उस साक्षी में ही भगवान को अनुभव करने की चेष्टा सम्यक चेष्टा है। परमात्मा साक्षी रूप है, चैतन्य रूप है।
कृष्ण के भीतर साक्षी का भाव घटा, इसलिए कृष्ण को हमने भगवान कहा। कृष्ण ने जाना कि मैं साक्षी हूं, इसलिए कृष्ण को हमने भगवान कहा। बुद्ध को अनुभव हुआ द्रष्टा का, दृश्य से मुक्त हुए, बाहर से भीतर लौटे, तो हमने भगवान उनको कहा। यह बुद्ध को, कृष्ण को, राम को, महावीर को भगवान कहने का कारण सिर्फ इतना ही है कि उन्होंने अपने भीतर के चैतन्य को पहचाना, चैतन्य के साथ पूरा तादात्म्य किया, चैतन्य में डुबकी लगाई--बस इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। ऐसा ही तुम भी करो।
तुम राम की पूजा करो, इससे कुछ भी न होगा। तुम कृष्ण की पूजा करो, इससे कुछ भी न होगा। कृष्ण ने किसकी पूजा की थी, कभी पूछा? कृष्ण ने तो किसी की पूजा नहीं की है। कृष्ण तो जागे, होश से भरे। ऐसे ही तुम भी होश से भरो। अगर तुम्हारा कृष्ण से प्रेम है, तो इतना ही सार लो कि जो उन्होंने किया वही तुम भी करो। यही ठीक अनुकरण होगा, नहीं तो अंधानुकरण है।
बुद्ध ने मरते वक्त अपने शिष्यों को कहाः ‘आत्मदीपो भव।’ अपने दिए बनो। रोने लगे थे शिष्य... से विदा हो रहे हैं, बुद्ध अब सदा को लीन हो जाएंगे; यह लहर, यह प्यारी लहर, यह अदभुत लहर फिर कभी प्रगट न होगी, सागर में खो जाएगी! ... रोना स्वाभाविक था। इस व्यक्ति के साथ चालीस वर्ष तक रहने वाले भिक्षु थे। इसके साथ जिंदगी आई, गई। इसके साथ जवानी-बुढ़ापा आया। इसके साथ बहुत-बहुत अनुभव हुए। इस प्यारे आदमी को विदा देना आसान तो बात न थी; छाती टूटती होगी। लेकिन बुद्ध ने आंखें खोलीं और कहाः रोओ मत। मुझसे मत बंधो। तुम मुझसे बंध जाओगे तो चूक जाओगे। यही तो मेरी देशना का सार है कि वह बाहर नहीं है, भीतर है। वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। वह तुम हो।
मीरा, कृष्ण हों, कि विष्णु या कोई और रूप हो--हिंदू का, मुसलमान का, ईसाई का--इससे फर्क नहीं पड़ता। एक बात का ख्याल रखना, जब भी हम कुछ अनुभव करते हैं तो उस अनुभव में दो खंड हो जाते हैंः एक दृश्य और एक द्रष्टा। अगर दृश्य को पकड़ा, चूके। अगर द्रष्टा में डूबे, पहुंचे।
इश्क की बरबादियों को रायगां समझा था मैं
बस्तियां निकलीं, जिन्हें वीरानियां समझा था मैं
और तुमने कभी भीतर झांक कर देखा ही नहीं--तुम तो समझते हो, वहां क्या? भीतर क्या रखा है? वहां तो तुम्हें शून्य मालूम होता है। अकेले छूट जाते हो कभी एकांत में, तो मन नहीं लगता। कहते होः कोई चाहिए, कोई दूसरा चाहिए--कोई मित्र मिल जाए। अकेले में एकदम जी ऊबता है--क्यों? खाली-खाली लगते हो, रिक्त-रिक्त लगते हो। कुछ खोया-खोया लगता है। तुम्हें अपना पता ही नहीं। तुम्हें पता ही नहीं कि संपदाओं की संपदा तुम्हारे भीतर पड़ी है। पूर्ण परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है।
इश्क की बरबादियों को रायगां समझा था मैं
बस्तियां निकलीं, जिन्हें वीरानियां समझा था मैं
हर निगह को तबए-नाजुक पर गरां समझा था मैं
सामने की बात थी, लेकिन कहां समझा था मैं
क्या खबर थी खुद वो निकलेंगे बराबर के शरीक
दिल की हर धड़कन को अपनी दास्तां समझा था मैं
जिंदगी निकली मुसलसल इम्तिहां-दर-इम्तिहां
जिंदगी को दास्तां ही दास्तां समझा था मैं
मेरी ही रूदादे-हस्ती थी मिरे ही सामने
आज तक जिसको हदीसे-दीगरां समझा था मैं
जिसको तुमने दूसरा समझा है, वह दूसरा नहीं है। लेकिन तुम्हारी अपने से पहचान ही नहीं है अभी, इसलिए दूसरा दूसरा दिखाई पड़ रहा है। अपने से पहचान हो जाए तो दूसरा भी दूसरा नहीं है।
मेरी ही रुदादे हस्ती थी मिरे ही सामने
आज तक जिसको हदीसे-दीगरां समझा था मैं
जब तुम विष्णु को देखते, कृष्ण को देखते, राम को देखते, तो अभी तुम्हें अपने से पहचान नहीं, इसलिए वे पर मालूम होते हैं। जब अपने से पहचान हो जाएगी, तो तुम चकित हो जाओगे, वे तुम्हारी ही तरंगें हैं! फिर कुछ भेद नहीं है। फिर एक ही है। फिर मैं और तू में कोई अंतर नहीं है। लेकिन पहले मैं को पहचानना होगा, इस मैं की गहराई में जाना होगा, इस मैं की गहराई को जाने बिना कोई भी परमात्मा से परिचित न हुआ है, न हो सकता है।
और आसान लगता है ‘पर।’ किसी मित्र से प्रेम किया, पत्नी से प्रेम किया, पति से प्रेम किया, बेटे से प्रेम किया--ये सब ‘पर’ से प्रेम थे। फिर इसी ‘पर’ के ही गणित में परमात्मा से प्रेम किया। तो फिर मित्र और पति और पत्नी जैसे ‘पर’ थे, ऐसे हो परमात्मा को भी ‘पर’ बना लिया--विष्णु, कृष्ण, राम... । मगर यह बात वही-की-वही रही, रूपांतरण न हुआ। पत्नी की जगह राम को रख लिया, पति की जगह कृष्ण को रख लिया--भेद कहां हुआ? कुछ भेद न हुआ। असली क्रांति तो तब घटती है जब ‘पर’ की जगह ‘स्व’ आ जाए। तो रूपांतरण। तो आंख फिरी। तो लौटे घर की तरफ। तो दृष्टि जो बाहर जाती थी, अंतर्मुखी हुई। अंतर्यात्रा शुरू हुई।
रखते हैं खिज्र से, न गरज रहनुमां से हम
चलते हैं बच के दूर हर इक नक्शे-पा से हम
न तो किसी पथ-प्रदर्शक से हमारा कोई संबंध है, न किसी पैगंबर से।
रखते हैं खिज्र से, न गरज रहनुमां से हम
चलते हैं बच के दूर हर इक नक्शे-पा से हम
और चरण-चिह्न तो बहुत बने हैं समय की धार पर। कितने बुद्ध चल चुके हैं, कितने चरण-चिह्न बन चुके हैं! उन्हीं की पूजा में मत उलझ जाना।
मानूस हो चले हैं जो दिल की सदा से हम
शायद कि जी उठें तेरी आवाजे-पा से हम
भीतर की आवाज से परिचित हो लो।
मानूस हो चले हैं जो दिल की सदा से हम
यह जो पहचान हो जाए भीतर की आवाज से, अंतरतम की आवाज से, तो शायद तुम परमात्मा के चरणों की आवाज को भी पहचान पाओ, क्योंकि तुम्हारे भीतर की आवाज उसके चरणों की ही आवाज है।
ओ मस्ते-नाजे-हुस्न, तुझे कुछ ख़बर भी है
तुझ पर निसार होते हैं किस-किस अदा से हम
ये कौन छा गया है दिल-ओ-दीदा पर कि आज
अपनी नजर में आप हैं, नाआशना-से हम
और एक चमत्कार घटता है। जब तुम अपने से परिचित हो जाओगे, तो तुम चकित होओगे कि जिसको तुमने अब तक समझा था कि मैं हूं, वह तो तुम नहीं हो। वह तो भ्रांति थी। जिस नाम को तुमने समझा था ‘मैं’, जिस रूप को समझा था ‘मैं’, जिस देह को समझा था ‘मैं’, जिस मन को समझा था ‘मैं’ वह तो तुम नहीं हो, वह तो तुम्हारा व्यक्तित्व था, बाहर की खोल थी, वस्त्र थे, परिधान थे। उन सब के भीतर छिपी हुई ज्योतिर्मय किरण हो तुम। उस ज्योतिर्मय किरण का नाम ही परमात्मा है।
वह सबके भीतर हैं। लेकिन सबसे पहली पहचान अपने भीतर करनी होती है, क्योंकि वहीं से हम निकटतम हैं मंदिर के। कहीं जाना नहीं है। कहीं झोली नहीं फैलानी है। सम्राट हो तुम, भिखारी बने हुए झोली मत फैलाओ! न कृष्ण के सामने, न राम के सामने। क्योंकि राम और कृष्ण तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। यह बात बड़ी विरोधाभासी लगेगी, मगर मैं तुमसे कहना चाहता हूं, इसे याद रखना, राम और कृष्ण को पकड़ा तो राम और कृष्ण को कभी न पा पाओगे। छोड़ो राम-कृष्ण को, पकड़ो स्वयं को। और उसी पकड़ने में राम भी मिल जाएंगे, कृष्ण भी मिल जाएंगे।
चौथा प्रश्नः मनुष्य जीवन का मूल संताप क्या है?
एक ही संताप है कि मनुष्य वह न हो पाए जो होने को पैदा हुआ है। एक ही संताप है, कि बीज बीज रह जाये, फूल की तरह खिल न पाए। बिखेर न सके अपनी सुवास को अनंत-अनंत हवाओं में; कर न सके गुफ्तगू चांद-तारों से; निवेदन न कर पाए अपने रंगों का आकाश के प्रति; अभिव्यक्त न हो पाए--एक ही संताप है। कवि के भीतर की कविता प्रकट न हो सके--तो संताप। चित्रकार चित्र न बना सके--तो संताप। नर्तक नाच न सके, पैरों में जंजीरें पड़ी हों--तो संताप। संताप का एक ही अर्थ होता हैः जो हम होने को हैं, जो हमारी सहज प्रकृति और निर्यात है, वह न हो पाए और हमें अन्यथा होने को मजबूर होना पड़े, तो संताप पैदा होता है। तो जीवन में विषाद घिरता है।
और इतने जो अनंत-अनंत लोग तुम्हें विषादग्रस्त दिखाई पड़ते हैं, संताप में डूबे हुए, नरक में जी रहे, उसका कारण इतना ही है कि उनमें से प्रत्येक बीज लेकर आया है परमात्मा होने का और न मालूम क्या छोटी-छोटी चीज होकर समाप्त हो गया है। कोई डाक्टर हो गया, कोई इंजीनियर हो गया, कोई दुकानदार हो गया। परमात्मा होने जो आया है, वह दुकानदार हो जाए तो कैसे संतुष्टि मिले? पीड़ा बनी ही रहेगी। जरा सोचो तो, सम्राट होने जो आया था, वह रास्तों पर भीख, मांगता फिरे... तुम उसकी पीड़ा का अनुमान तो लगाओ! प्रत्येक व्यक्ति उस यात्रा पर है जहां अंततः उसे परमात्मा हो जाना है। उससे कम में कोई तृप्ति नहीं है। उससे कम में कोई परितोष नहीं है। उससे कम में रुका भी नहीं जा सकता--फिर-फिर आना होगा, जनम-जनम, बार-बार आना होगा जब तक कि तुम परमात्मा होने को अनुभव न कर लो।
और बार-बार आने में संताप है।
जैसे कोई विद्यार्थी बार-बार असफल हो जाए, फिर-फिर उसी पाठशाला में भेजा जाए। तुम उसकी पीड़ा समझो। हर बार नया वर्ष शुरू होता है, फिर उसी स्कूल में! ऐसे ही हर बार नई जिंदगी शुरू होती है, फिर वही पाठ, फिर वही भटकाव, फिर वही चिंताओं का जाल, फिर वही व्यवसाय, फिर भवसागर।
ये दिन बहार के अब के भी रास आ न सके
कि गुंचे खिल तो सके, खिल के मुस्करा न सके
ये आदमी है वो परवाना शमए-दानिश का
जो रौशनी में रहे रौशनी को पा न सके
न जाने आह कि उन आंसुओं पे क्या गुजरी
जो दिल से आंख तक आए, मिजह तक आ न सके
करेंगे मर के बका-ए-दवाम क्या हासिल
जो जिंदा रह के मुकामे-हयात पा न सके
ज.हे खुलूसे-मोहब्बत कि हादिसाते-जहां
तुझे तो क्या, मिरे नक्शे-कदम मिटा न सके
उन्हें सआदते-मंजिल-रसी नसीब हो क्या
वो पांव, राहे-तलब में जो डगमगा न सके
घटे अगर तो बस इक मुश्ते-खाक है इंसां
बढ़े तो वुसअते-कौनैन में समा न सके
आदमी जैसा है वैसा ही रह जाए तो बस ‘मुश्ते खाक है इंसां,’ एक मुट्ठी भर मिट्टी।
घटे अगर तो बस इस मुश्ते-ख़ाक है इंसां
बढ़े तो वुसअते-कौनैन में समा न सके
और अगर फैल सके, तो यह सारा आकाश छोटा पड़ जाए। यही पीड़ा है। होने को तो आकाश और रह गए हैं छोटे-छोटे आंगन--इरछे-तिरछे, संकीर्ण। पंख तो मिले थे कि चांद-तारों से दोस्ती करें, और पड़े रह गए हैं कारागृहों में। और मजा ऐसा--बड़ा व्यंग्य है, विडंबना है--कि कारागृहों में जो लोग पड़े हैं उनके कारागृहों में लगे तालों की चाभियां तो किन्हीं और के हाथ में होती हैं, तुम जिस कारागृह में पड़े हो, तुम्हीं कारागृह में पड़े हो, तुम्हीं ताले हो, तुम्हीं ताला डालने वाले हो, तुम्हीं चाभी हो--तुम्हारे अतिरिक्त वहां कोई भी नहीं, सारा खेल तुम्हारा है। तुम जिस क्षण चाहो, बाहर निकल आओ कोई रोकने वाला नहीं; कोई पहरे पर नहीं खड़ा है। तुम जो नाटक रच रहे हो, यह एकालाप है।
तुमने कभी नाटक देखा है--‘मोनोलॉग?’ एक ही आदमी सारे अभिनय करता है। बस यह तुम्हारा नाटक वैसा ही है--एकालाप, ‘मोनोलॉग।’ एक ही आदमी सारे काम करता है।
कुछ दिनों पहले एक कलाकार मेरे पास आया था। वह एकालाप में कुशल था। उसने एक छोटा सा दृश्य मुझे बताया। वह मुंह से आवाज करता है, जैसे तांगा चलता हो। खट्-खट्, खट्-खट्, तांगे की आवाज, घोड़े की टापों की आवाज... बिल्कुल दृश्य पैदा कर देता है कि तांगा चल रहा है। कोड़े की फटकारने की आवाज, घोड़े की हिनहिनाने की आवाज, तांगा चलाने वाले की आवाज, तांगे में बैठे हुए आदमी की आवाज--यह सब वह अकेला ही करता है।
तांगे में बैठा आदमी उससे कुछ कहता है, तो अलग ढंग से बोलता है। तांगे वाले की तरह बोलता है तो अलग ढंग से बोलता है। राह में चलते हुए लोगों को चिल्लाता है तो एक ढंग से, और राह में चलता हुआ कोई आदमी कहता है कि भाई, क्या मार ही डालोगे, तो अलग ढंग से। वहां कोई भी नहीं है, बस अकेला है वह। सारे काम अकेला ही कर रहा है। जब उसने मुझे यह खेल दिखाया, उससे मैंने कहा कि तू इससे कुछ समझा? उसने कहा कि क्या? मैंने कहाः यही तेरी जिंदगी है, यही सब की जिंदगी है। यहां तुम्हीं हो नाटक लिखने वाले, तुम्हीं नाटक के पात्र; तुम्हीं दर्शक, उन्हीं दिग्दर्शक। सब तुम्हीं हो।
घटे अगर तो बस इक मुश्ते-खाक है इंसां
बढ़े तो वुसअते-कौनैन में समा न सके
थोड़ा सोचो, जो आकाश होने को पैदा हुआ है, वह एक छोटा-सा आंगन होकर रह जाए--संताप न हो तो क्या हो?
ये दिन बहार के अब के भी रास आ न सके
कि गुंचे खिल तो सके, खिल के मुस्करा न सके
यह जिंदगी फिर चली! ऐसे ही न मालूम कितनी बार जिंदगी आई और गई। वसंत कितने आए और कितने गए। इस बार भी वसंत चला। फिर जिंदगी हाथ से जाने लगी। इसलिए बच्चों में तो संताप नहीं दिखाई पड़ता। बच्चे तो बड़े आशातुर होते हैं; सोचते हैं, इस बार बात हो लेगी। बड़ी कल्पनाओं से भरे होते हैं। बड़ी आकांक्षाओं, अभीप्साओं से। जैसे-जैसे जवान होते हैं वैसे-वैसे जिंदगी का यथार्थ प्रकट होने लगता है। तीस-पैंतीस साल के होते-होते समझ में आने लगती है बात कि यह मौसम भी गया, कुछ हो न सका, फिर चूक गए; तीर हाथ से निकल चुका है, अब लौटाया जा सकता नहीं, लक्ष्य का कुछ पता नहीं चलता है।
ये दिन बहार के अब के भी रास आ न सके
कि गुंचे खिल तो सके, खिल के मुस्करा न सके
फिर बिना मुस्कराए ही मर जाना होगा। सिर्फ बुद्धपुरुष ही मुस्कुराते हुए मरते हैं। नहीं तो कली खिल जाती है, मगर कली खिले और मुस्कुराए न तो क्या खिली! क्या खाक खिली!! खिलखिलाहट फैल जाए आकाश में तो ही खिलना है।
ये आदमी है वो परवाना शमए-दानिश का
जो रौशनी में रहे, रौशनी को पा न सके
जरा सोचो, इस आदमी की हालत वैसी है, उस पतंगे जैसी कि दिया दूर नहीं, रोशनी में जीता है, लेकिन दिए तक पहुंच नहीं पाता। हाथ के भीतर है परमात्मा और चूकते चले जाते हैं। शांति हमारा स्वत्व है, हमारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है और चूकते चले जाते हैं। संगीत हमारे हृदय की वीणा में भरा पड़ा है और हम छेड़ ही नहीं पाते। इतने करीब और इतने दूर, इतने पास और इतने फासले पर।
ये आदमी है वो परवाना शमए-दानिश का
जो रौशनी में रहे, रौशनी को पा न सके
इसलिए संताप है, इसलिए पीड़ा है कि सब इतना पास लगता है कि अब पा लूं, अब पा लूं, अब पाया, अब पाया, और फिर भी चूक-चूक हो जाती है। कुछ मूल भूल होती रहती है। जो भीतर है, उसे हम बाहर तलाशते हैं, जो मिला है उसे हम वहां तलाशते हैं, जहां न कभी किसी को मिला है, न मिल सकता है। यही संताप है।
न जाने आह कि उन आंसुओं पे क्या गुजरी
थोड़ा सोचो उन आंसुओं के संबंध में--
न जाने आह कि उन आंसुओं पे क्या गुजरी
जो दिल से आंख तक आए, मिजह तक आ न सके
जो दिल से निकल गए किसी तरह, आंख तक भी आ गए, लेकिन पलकों तक न आ सके, अटक गए। ऐसी दशा है आदमी की। परमात्मा के करीब आते-आते अटका है। एक कदम और, बस एक कदम और और यात्रा पूरी हो जाए। मगर वह एक कदम नहीं उठ पाता। एक छलांग और पतंगा ज्योति में मिले और ज्योति हो जाए, मगर वह एक छलांग नहीं लग पाती। हजार बाधाएं खड़ी हैं, हजार आकांक्षाएं खड़ी हैं, हजार वासनाएं खड़ी हैं। हजार विचार खड़े हैं, हिमालय की तरह बीच में खड़े हैं। फिर लोग सोचने लगते हैं कि ठीक है, जिंदगी में नहीं मिला परमात्मा, मर कर पा लेंगे। ऐसी सांत्वना देते अपने को।
इसलिए तुम्हारे शास्त्रों में यह सब लिखा होता हैः यहां नहीं मिला, कोई बात नहीं, मृत्यु के बाद तो मिलेगा ही। मरते वक्त रामनाम ले लेंगे; गंगाजल पी लेंगे; काशी-करवट ले लेंगे; गीता-पाठ सुनते-सुनते मर जाएंगे; मरते वक्त दान-पुण्य कर देंगे; मरते-मरते कुछ इंतजाम कर लेंगे, आखिर-आखिर इंतजाम कर लेंगे। मगर भ्रांति में मत रहना।
करेंगे मर के बका-ए दवाम का क्या हासिल
जो जिंदा रह के मुकामे-हयात पा न सके
जिंदा रह कर भी तुम न पा सके, तो मर कर पा लोगे, इस पागलपन में पड़ते हो! पाना हो तो जिंदगी का उपयोग करो। पाना हो तो जिंदगी को समर्पित करो। पाना हो तो जिंदगी को दांव पर लगाओ। इतना सस्ता नहीं है कि मरकर पा लेंगे। और हमने खूब सस्ती तरकीबें खोजीं! तीर्थयात्रा कर आएंगे; हज हो आएंगे। क्या लेना-देना है हज से और काशी से और प्रयाग से। प्रयाग में जो लोग रहते हैं सदा, तुम सोचते हो, परमात्मा को पा लिया? और तुम दो दिन के लिए हो आओगे कुंभ के मेले में और तुम पा लोगे? और जो हज में ही रहते हैं, जो काबा के पास ही बसे हैं, तुम सोचते हो वे सब स्वर्ग पहुंच जाएंगे? अगर वे नहीं पहुंचते, जो वहीं पैदा होते, वहीं मरते, तो तुम एक चार दिन के लिए हो आओगे और तुम स्वर्ग पहुंच जाओगे! तुम किसको धोखा दे रहे हो? धर्म के नाम पर आदमी ने कितने धोखे दिए अपने को!
इस तरह नहीं चलेगा। ये होशियारी की बातें हैं, ये चालाकी की बातें हैं, ये गणित की बातें हैं। परमात्मा मिलता है उन्हें, जो मस्त होने की हिम्मत रखते हैं। ये मस्ती की बातें नहीं हैं, ये पियक्कड़ों की बातें नहीं हैं।
उन्हें सआदते-मंजिल-रसी नसीब हो क्या
जो पांव, राहे-तलब में जो डगमगा न सके
थोड़ा मस्त होओ, थोड़ा डगमगाओ, थोड़ा नाचो। थोड़ी मस्ती को उतरने दो! वही है असली सार। थोड़ा डोलो आनंदमग्न होकर। जो मिला है उसके लिए धन्यवाद दो। और जो मिला है, काफी है; तुम्हारी पात्रता से बहुत ज्यादा है। तुम्हारा पात्र बड़ा छोटा है और सागर का सागर तुम पर बरस पड़ा है। नाचो, गुनगुनाओ--मैं तुम्हें एक उत्सव का धर्म देना चाहता हूं--तो तुम्हारा संताप मिट जाए।
जो जीस्त को न समझें, जो मौत को न जानें
जीना उन्हीं का जीना, मरना उन्हीं का मरना
ऐसे मस्त हो जाओ कि न पता चले जिंदगी का, न पता चले मौत का। ऐसे मस्त हो जाओ कि जिंदगी और मौत सब बराबर। ऐसे मस्त हो जाओ कि मौत आए तो नाचता हुआ पाए। ऐसे मस्त हो जाओ कि मौत भी उदास न कर सके। तुम्हारा गीत गूंजता ही रहे। अगर मौत के क्षण में भी तुम्हारा गीत गूंजता रहे तो तुम जीत गए। तुमने मौत को पराजित कर दिया।
जो जीस्त को न समझें, जो मौत को न जानें
जीना उन्हीं का जीना, मरना उन्हीं का मरना
दरिया की जिंदगी दर सदके हजार जानें
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
किनारों पर मत मर जाना जिंदगी के। तूफानों में मरो। जिंदगी की चुनौती स्वीकार करो। जिंदगी बहुत सी चुनौतियां लाती है। जो चुनौती स्वीकार नहीं करते, वे उदास हो जाते हैं। जो चुनौती स्वीकार नहीं करते, वे हारे-थके, सर्वहारा हो जाते हैं। चुनौती स्वीकार करो, हर चुनौती तुम्हारे भीतर सोए को जगाती है। हर चुनौती तुम्हारे भीतर जो अप्रगट है, उसको प्रकट करती है।
दरिया की जिंदगी पर सदके हजार जानें।
निछावर कर दो हजार जीवन, लेकिन तूफान पर। मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना।
किनारे पर मत मर जाना। किनारा सुरक्षित है, माना, और किनारा बड़ा सुविधापूर्ण है, माना, लेकिन सुविधा और सुरक्षा कब्र के लक्षण हैं। जीवन तो असुरक्षित होता है। इसलिए मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि भाग जाओ और हिमालय की गुफाओं में छिप जाओ। मैं अपने संन्यासियों को नहीं कहता कि भगोड़े बनो।
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
दरिया की जिंदगी पर सदके हजार जानें
यह संसार तूफानपूर्ण है। अगर परमात्मा ने यह संसार दिया है तो इसके पीछे अर्थ है। अर्थ एक ही है कि जो इसकी चुनौती स्वीकार करेगा, उसकी नींद टूट जाएगी। जो इसकी चुनौती स्वीकार करेगा, वह अखंड हो जाएगा। जो इसकी चुनौती स्वीकार करेगा, फौलाद हो जाएगा। उसके भीतर आत्मा का जन्म होगा। आत्मा ऐसे ही जन्मती है। यह आत्मा को जन्माने का महत प्रयोग है संसार।
कुछ आ चली है आहट उस पाए-नाज की सी
तुझ पर खुदा की रहमत, ऐ दिल जरा ठहरना
और अगर तुम तूफानों में जीने के आदी हो जाओ, और अगर तुम जिंदगी और मौत को खेल समझने लगो, ज्यादा देर न लगेगी, उसके चरण तुम्हारे निकट आने लगेंगे, उसकी आहट तुम्हें सुनाई पड़ने लगेगी।
संताप एक ही हैः सिकुड़े-सिकुड़े मर जाना। और सुख एक ही है--महासुख--फैलना और फैलते जाना।
ब्रह्म शब्द का अर्थ होता हैः विस्तार। जो फैलता ही चला जाए, वही ब्रह्म। और जो फैलने की कला जानता है, वही ब्राह्मण है। तुम्हारे तथाकथित ब्राह्मण तो बहुत सिकुड़े हुए लोग हैं। उनसे ज्यादा सिकुड़े हुए लोग पाना मुश्किल है। वे तो बड़े सम्हल-सम्हल कर, सिकुड़-सिकुड़ कर जी रहे हैं। कहीं कोई छू न जाए। कहीं अछूत की छाया न पड़ जाए। यह भी कोई जिंदगी है! फैलो, विस्तीर्ण होओ।
इतने विस्तीर्ण कि सब उसमें समा जाए। उस विस्तार का ही नाम ब्रह्म है। और उस विस्तार की कला का ही नाम धर्म है।
संताप है एकः कि बीज बीज रह जाए और समाधिः कि बीज फूल हो जाए--खिल जाए स्वर्ण-कमल तुम्हारे भीतर। खिल सकता है। मगर भगोड़ों के जीवन में नहीं खिलता। जीवन की चुनौती परम आनंद से स्वीकार करनी है। जीवन में रहना है और जीवन में खो नहीं जाना है। जीवन में रहना है और साक्षी बने रहना है। जीवन रहे, खेल से ज्यादा न हो। फिर मौत भी खेल से ज्यादा नहीं है।
नजर मिलते ही दिल को वक्फे-तस्लीमो-रजा कर दे
जहां से इब्तिदा की है वहीं पर इंतिहा कर दे
जहां से प्रारंभ है, वहीं अंत है। जहां से आए हैं, वहीं पहुंचना है। इसी विस्तार से आए हैं, इसी विस्तार में लीन हो जाना है। ये बीच के सपने हैं जिनमें तुम खो गए हो।
वफा पर दिल की सदके, जान को नज्रे-जफा कर दे
मोहब्बत में ये लाजिम है कि जो कुछ हो फना कर दे
मोहब्बत में ये लाजिम है कि जो कुछ हो फना कर दे।
जो हो तुम्हारे पास, जो तुम होओ--अच्छे-बुरे, गरीब-अमीर--समर्पित कर दो इस विराट को। तोड़ दो आंगन की दीवालें। फैल जाओ।
चमन दूर आशियां बरबाद, ये टूटे हुए बाजू
मेरा क्या हाल हो, सय्याद गर मुझको रिहा कर दे
लेकिन तुम्हारी हालत बुरी है। तुम्हारी हालत ऐसी हैः ‘चमन दूर... बहुत दूर है’ चमन, ‘आशियां बरबाद... घर उजड़ा हुआ है, खंडहर है,’ ये टूटे हुए बाजू... और तुमने अपने पंख अपने ही हाथों से तोड़ लिए हैं। कोई हिंदू हो गया है कोई मुसलमान--पंख तोड़ लिए। कोई ब्राह्मण हो गया है, कोई शुद्र--पंख तोड़ लिए। तुमने अपने को न मालूम--कितनी सीमाओं और सीमाओं में बांध लिया है। जितनी सीमाएं, उतने ही पंख टूट गए हैं।
चमन दूर आशियां बर्बाद, ये टूटे हुए बाजू
मेरा क्या हाल हो, सय्याद गर मुझको रिहा कर दे
और तब डर लगता है कि अगर आज शिकारी मुझे मुक्त भी कर दे इस पिंजड़े से, तो भी मेरा हाल क्या होगा? मैं उड़ूंगा कैसे? पंख तो टूटे हुए हैं! इसलिए लोग मुक्त होने से डरते हैं। स्वतंत्रता शब्द घबड़ाता है। भले ही लोग बात करते हैं कि स्वतंत्र होना है, मोक्ष पाना है, लेकिन उन्हें शायद ठीक-ठीक पता नहीं वे क्या कह रहे हैं! बात तो मोक्ष की करते हैं, पकड़ते हैं जंजीरों को। अगर मोक्ष पाना है, तो कुछ सबूत तो दो! अगर स्वतंत्रता को पाना है, तो जंजीरों से मोह छोड़ने के कुछ तो प्रमाण दो! लेकिन जंजीरों को इतने जोर से पकड़े हो और चिल्लाए चले जाते हो कि मोक्ष पाना है। मुत्त होना है तो मुक्त होने की धीरे-धीरे प्रक्रिया में उतरो। छोड़ो जंजीरें हिंदू की, मुसलमान की, ईसाई की। छोड़ो जंजीरें ब्राह्मण की, शूद्र की, क्षत्रिय-वैश्य की। छोड़ो जंजीरें हिंदुस्तानी की, पाकिस्तानी की। छोड़ो जंजीरें। तोड़ दो सीमाएं। जितने असीम हो सको, उतना शुभ है।
लेकिन बहुत अजीब लोग हैं! दुनिया बड़ी अजीब है! ...
अभी कुछ दिन पहले सरकारी आदेश मिला है इस आश्रम को कि इस आश्रम को धार्मिक स्थान नहीं माना जा सकता। क्यों? कारण दिया हैः क्योंकि धार्मिक तो कोई तभी माना जा सकता है जब वह किसी संप्रदाय को मानता हो। हिंदू हो तो धार्मिक, मुसलमान हो तो धार्मिक, ईसाई हो तो धार्मिक। इस आश्रम को सरकार धार्मिक संस्था मानने को राजी नहीं है, क्योंकि यहां हिंदू भी हैं, मुसलमान भी हैं, ईसाई भी हैं, बौद्ध भी हैं, पारसी भी हैं, यहूदी भी हैं--यह कैसा धर्म?
मजा देखते हो!
संकीर्ण संप्रदाय को धर्म मानने को सरकार राजी है, विस्तीर्णता को धर्म मानने को राजी नहीं है। अगर हिंदू धार्मिक है और मुसलमान धार्मिक है और ईसाई धार्मिक है, तो तीनों जहां मिल गए हैं वहां तीन गुना धर्म होगा कि कम धर्म होगा! कम कैसे हो जाएगा? अगर मस्जिद में परमात्मा है, मंदिर में परमात्मा है, गिरजे में परमात्मा है, गुरुद्वारा में परमात्मा है, और अगर हम एक ऐसा मंदिर बनाएं जिसका एक द्वार गुरुद्वारा हो और एक द्वार मस्जिद हो और एक द्वार मंदिर हो और एक द्वार गिरजा हो, तो वहां परमात्मा नहीं होगा--यह तुम्हारी सरकार का तर्क है। वहां कैसा परमात्मा! और मैं तुमसे कहता हूं कि वहीं परमात्मा है, जहां सारे मंदिर मिल गए हैं। और वहीं परमात्मा है, जहां सारे संप्रदाय खो गए हैं और क्षीण हो गए हैं।
इस आश्रम को अगर धार्मिक नहीं माना जा सकता, तो फिर किस स्थान को धार्मिक मानोगे? और यहां कोई आयोजन भी नहीं किया जा रहा है मिलाने का, यह मिलन सहज हो रहा है। यहां बैठ कर हम रोज दोहराते भी नहीं कि ‘अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको संमति दे भगवान।’ इस तरह की बकवास यहां हम करते भी नहीं। यहां जो आता है, भूल ही जाता है; समझ जाता है कि बात एक ही है। यहां कोई किसी को समझा नहीं रहा है कि भाई, तुम हिंदू, तुम मुसलमान, दोनों एक हो जाओ। जहां एक करने की बात चल रही है, वहां दो तो मान ही लिया। हम तो दो मानते नहीं। यहां कोई फिकर ही नहीं करता। यहां कोई चिंता ही नहीं किसी को एक करने की। यहां तो जो आता है, इस हवा में जल्दी ही उसे बोध हो जाता है कि यहां अपने को भिन्न मानना, पृथक मानना मूढ़ता का लक्षण है, अज्ञान का लक्षण है। यहां कोई पूछता नहीं, कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है, कौन ईसाई है। यह स्थान सरकार को धार्मिक नहीं मालूम होता। इसलिए जो सुविधाएं सरकार धार्मिक स्थानों को देती है, वह इस आश्रम को देने को राजी नहीं है।
यह बेईमानी देखते हो!
और यह उनकी बेईमानी जो ‘अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सब को संमति दे भगवान’ का पाठ करते हैं राजघाट पर बैठ कर! गांधी की मरण-तिथि पर राजघाट पर बैठ कर चरखा चलाते हैं। कुरान पढ़ी जाती वहां, वेद पढ़े जाते वहां, गीता दोहराई जाती वहां, यह उनका वक्तव्य है कि यह स्थान धार्मिक नहीं है। इस दुनिया में इस तरह के पाखंड चल रहे हैं। और इस तरह के धूर्त पदों पर बैठ गए हैं, जिनका कुल काम धोखाधड़ी है। गांधी का नाम लेते हैं, क्योंकि गांधी के नाम से ‘वोट’ मिलती है। नहीं तो उन्हें कोई मतलब गांधी से नहीं है।
और गांधी का खुद का भी कोई प्रयोजन हिंदू को और मुसलमान को एक करने से कभी नहीं था। वह भी राजनीतिक चालबाजी थी। चली नहीं चालबाजी, क्योंकि जिन्ना भी उतना ही कुशल और होशियार आदमी था--उतना ही राजनीतिज्ञ! महात्मा गांधी को गोली लगी--तो जिंदगी भर कहा था कि ‘अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम’--लेकिन जब नाम निकला गोली लगने पर तो राम का निकला, अल्लाह का नहीं निकला। जब गोली लगी तो गांधी के मुंह से निकलाः ‘हे राम!’ अल्लाह याद नहीं आया। क्यों? राम क्यों याद आया? भीतर तो सब हिंदू-भाव भरा बैठा है। गीता को कहा है माता, कुरान को पिता नहीं कहा। कुरान को पिता कहते तो हिंदू भी नाराज हो जाते कि हद हो गई, गीता को माता और कुरान को पिता! झगड़ा हो जाता। तो गीता को तो गांधी जी माता कहते हैं, कुरान को पिता नहीं कहते। और कुरान में उन-उन वचनों की ही प्रशंसा करते हैं, जिन वचनों का गीता से मेल है, बस। उन वचनों को बिल्कुल छोड़ देते हैं जो गीता के विपरीत पड़ते हैं।
यह सब राजनीति है।
जिन्हें धार्मिक होना है सच में, उन्हें इन राजनीतिक चालबाजियों से ऊपर उठना होगा। मैं तुम से कहना चाहता हूंः धर्म विस्तार की कला है। ऐसे विस्तार की कला कि सारा आकाश भी छोटा पड़ जाए, तुम सबको अपने में समा लो।
संताप यही है कि तुम सीमित हो गए हो, संकीर्ण हो गए हो; आनंद यही होगा कि तुम विस्तीर्ण हो जाओ। तोड़ो सीमाएं, तोड़ो संकीर्णताएं। धर्म का कोई विशेषण नहीं है--न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई। धर्म तो वह है जिससे सारा जगत सधा है। अगर धर्म हिंदू हो, तो मुसलमान को कौन साधे। अगर धर्म ईसाई हो, तो हिंदू को कौन साधे? और धर्म अगर आदमी का ही हो, तो वृक्षों की कौन चिंता करे? और धर्म अगर वृक्षों का ही हो, तो जानवरों की कौन फिकर करे! सारा अस्तित्व जिससे सधा है, उस जीवन के मौलिक आधार का नाम धर्म है। हम उस मौलिक आधार को यहां जीने की कोशिश कर रहे हैं। और सरकार कहती है कि इस स्थान को धार्मिक स्वीकार नहीं किया जा सकता!
आखिरी प्रश्नः एक शिविर में मैंने पांच ध्यान किए। मुझे ज्ञात नहीं किस क्षण क्या घटित हुआ? वहां से लौटने पर मैं चार माह तक अपने भीतर एक अजीब से आनंद का अनुभव अनवरत करता रहा और मेरा शरीर पेंडुलम की भांति डोलता रहा। मुख से अनायास ही ‘ओम आनंद’ का उच्चारण होता रहा और मैं एक मदहोशी का अनुभव करता रहा, जिसे अब भी अनुभव करता हूं। तथा भजन, कीर्तन या प्रवचन अथवा ध्यान के समय दूसरों को ध्यान करते देखने मात्र से मेरा शरीर डोलने लगता है। साथ ही आवेश या थोड़े परिश्रम के उपरांत भी शरीर डोलने लगता है। कृपया अनुग्रहपूर्वक उक्त स्थिति का विश्लेषण कर भावी साधना हेतु मार्ग दर्शन कर तथा संभावना पर प्रकाश डाल कृतार्थ करें।
भगवानदास! ध्यान एक शराब घोल देता है हृदय में। शुभ लक्षण हुआ। तुम डोलने लगे, तुम मस्त होने लगे। इसे अंगीकार करो। लगता है, तुम्हारे मन में अभी थोड़ी इसे अंगीकार करने में झिझक है। तुम थोड़े डरे-डरे हो। तुम थोड़े भयभीत हो। तुम संदिग्ध हो--जो हुआ ठीक हुआ कि नहीं हुआ? कहीं मैं विक्षिप्त तो नहीं हुआ जा रहा हूं?
ध्यान की पहली घटना जब घटती है तो ऐसा ही लगता है कि पागल हुए।
न जाने दिल में वो क्या सोचते रहे पैहम
मिरे जनाजे पे ता-देर सर झुकाए हुए।
उन्हीं में राजे-मोहब्बत किसी का पिन्हां था
जो खुश्क हो गए आंसू, मिजा तक आए हुए।
हुदूदे-कूचा-ए-महबूब है वहीं से शुरू
जहां से पड़ने लगें पांव डगमगाए हुए।
प्यारे की सीमा वहीं से शुरू होती है, जहां से पैर डगमगाने लगते हैं।
हुदूदे-कूचा-ए-महबूब है वहीं से शुरू
जहां से पड़ने लगें पांव डगमगाए हुए
तुम्हारे पैर डगमगा गए। यह अच्छा हुआ। इससे बेचैनी भी होगी। क्योंकि तुम अब सामान्य ढंग से न जी सकोगे। मगर यह केवल एक संक्रमण काल की बात है। डरो मत, ध्यान में डूबो! शुरुआत में पैर डगमगाते हैं। फिर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे पैर फिर स्थिर हो जाते हैं। ध्यान का प्राथमिक चरण मस्ती है, ध्यान का अंतिम चरण परम शांति है। अगर आगे बढ़ते चले गए तो धीरे-धीरे यह डोलना अपने आप विलीन हो जाएगा।
ऐसा ही समझो कि नया-नया किसी आदमी को शराब पिला दो। तो डोलता है, नाचता है, कूदता-फांदता है, सड़कों पर गिर जाता है। ये कोई पुराने पियक्कड़ों के लक्षण तो नहीं। पुराना पियक्कड़ तो तुम्हें पता ही न चले कि पिए है।
मैं एक पियक्कड़ को जानता हूं। उनकी पत्नी ने मुझे कहा कि आप मेरे पति को समझाएं--वह आपके पास आते हैं--शराब पीना बंद करें। मैं ने कहा, तू इतनी बार आई, तूने कभी मुझे कहा नहीं। उसने कहा, मुझे पता ही नहीं था। दो साल हो गए हैं शादी हुए। मगर एक दिन वह बिना पिए घर आए, तब पता चला! नहीं तो मैं तो समझती थी, यह उनका स्वाभाविक ढंग है। बिना पिए आ गए तब समझ में आया।
पीने में जब कोई आदी हो जाता है, तो फिर पैर नहीं लड़खड़ाते। यह तो सिक्खड़ गिर पड़ते हैं रास्तों पर। ये नये-नये सीखने वाले, जिन्हें अभी स्वाद लगा है।
अच्छा है, शुरुआत हो गई! मगर शुरुआत को... दो बातें ख्याल रखना। एक, डरना मत। नहीं तो रुक जाओगे, घबड़ा जाओगे। और अगर डर गए और रुक गए, तो एक बहुमूल्य अवसर आते-आते हाथ में चूक गया। दूसरी बात ख्याल रखना, कि यही ध्यान का अंत नहीं है कि बस अब डोलते ही रहे जिंदगी भर! नहीं तो फिर भटक गए। फिर सम्हलना है!
ध्यान जारी रखो, जैसे एक दिन डोलना आया, ऐसे ही एक दिन अचानक पाओगे सन्नाटा उतरा, सब सम्हल गया, सब संतुलित हो गया। और जब ध्यान संतुलित हो जाता है, जब पिए भी बैठे हैं लेकिन किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती कि यह आदमी पिए बैठा है, तभी जानना कि ठीक अवस्था आ गई। मीरा का नृत्य ध्यान की शुरुआत है, बुद्ध का वृक्ष के नीचे शांत पत्थर की मूर्ति की भांति बैठा होना ध्यान की पूर्णाहुति। पर जारी रखो, यात्रा जारी रहे।
तुमने यह भी पूछा है कि ‘चिंता की परिस्थितियों में भी रुचि और तीव्रता से सांसारिक कार्यों में प्रवृत्त नहीं हो पाता हूं। शारीरिक और मानसिक शिथिलता अब तक बनी हुई है। तेजी से पहले की भांति चल भी नहीं पाता और न ऊंची आवाज में बात कर पाता हूं। कभी हठात शारीरिक श्रम का कार्य कर लेने से शरीर डोलने लगता है। उक्त परिस्थिति के चलते बहुधा मन विषयों की ओर चला जाता है। इससे मन में गहरा विषाद भी छा जाता है। किंतु मदहोशी का अनुभव तब भी होता रहता है।’
सब शुभ लक्षण हैं। जब ध्यान की ऊर्जा पहली बार पकड़ेगी तो तुम्हारी बहुत सी शक्ति उस ऊर्जा में लीन होगी। इसलिए शरीर थोड़ा कमजोर मालूम होने लगेगा। जैसे-जैसे ध्यान ठहरने लगेगा, ध्यान की ज्योति अकंप होने लगेगी, शरीर पुनः शक्तिशाली हो जाएगा। और पहले से भी ज्यादा शक्तिशाली हो जाएगा।
ये बीच के संक्रमण हैं। जैसे कोई आदमी नया-नया व्यायाम शुरू करे तो शरीर थक जाता है। दिन भर थका-थका रहता है। क्योंकि व्यायाम ही शक्ति ले लेता है। अभी देने की बजाय लेता है। लेकिन अगर व्यायाम जारी रखे, तो धीरे-धीरे लेने के बजाय देने लगता है। ध्यान अंतस का व्यायाम है। तो अभी शक्ति ध्यान में लग जाती होगी--तुम डोलते होओगे, नाचते होओगे, उतनी शक्ति व्यय हो जाएगी, उतनी शक्ति कम पड़ जाएगी। तो तुम पाओगे, सामान्य जीवन में थोड़ी कमजोरी आ गई। जोर से बोल नहीं सकते। कोई काम बहुत मेहनत का करना पड़े, थक जाते हो। मगर ये प्राथमिक लक्षण हैं। अगर चलते रहे, जल्दी ही तुम पाओगे, सब पुनः व्यवस्थित हो गया।
और फिर जोर से बोलने की जरूरत भी क्या है? अच्छा ही है। जितनी व्यर्थ की चीजें कट जाएं उतना अच्छा ही है। गाली-गलौज न दे पाओगे। क्रोध न कर पाओगे। द्वेष-ईर्ष्या थकाने वाले मालूम पड़ेंगे। यह अच्छा है।
पहला आघात तुम पर हुआ है। और पहला आघात ऐसा ही होता है जैसे बिजली गिर जाए। सब अस्तव्यस्त हो जाता है। और मैं समझ पा रहा हूं तुम्हारी अड़चन को।
धीरज रखो! ध्यान जारी रखो, बंद मत करना। क्योंकि जो ध्यान से हुआ है, वह ध्यान से ही शांत होगा।
और दूसरी बात, एक सक्रिय ध्यान करो और एक निष्क्रिय ध्यान करो। सुबह सक्रिय ध्यान कर लो, सांझ निष्क्रिय ध्यान--विपस्सना, या नादब्रह्म। और धीरे-धीरे जैसे-जैसे चित्त शांत होने लगे, वैसे-वैसे सक्रिय ध्यान को कम करते जाना, निष्क्रिय ध्यान को बढ़ाते जाना। एक छह-नौ महीने की प्रक्रिया में सक्रिय ध्यान धीरे-धीरे छोड़ देना और निष्क्रिय ध्यान को ही पकड़ लेना। सारी शक्ति वापस लौट आएगी! सारा संतुलन वापस आ जाएगा! और नये प्रकाश को लेकर, नये आनंद, नई मस्ती को लेकर।
चित्त में अभी वासनाएं उठ रही हैं, उठती रहेंगी। जल्दी नहीं जातीं-- जन्मों-जन्मों की हैं। मगर ध्यान की किरण अगर आनी शुरू हुई, तो ज्यादा देर यह अंधेरा टिकेगा नहीं। ये वासनाएं भी चली जाएंगी। तुम ध्यान पर शक्ति लगाओ। और वासनाओं के प्रति सिर्फ तटस्थ-भाव रखना। लड़ना मत। झगड़ना मत। हटाने की कोशिश मत करना। क्योंकि अगर हटाने में लगे, तो बहुत देर लग जाएगी। उपेक्षा करना। ख्याल कर लेना कि ठीक है, यह कामवासना उठी, यह लोभ उठा, यह ईर्ष्या उठी, ध्यान दे दिया, बस पर्याप्त है। न तो इसमें जाना, न इससे लड़ना। न इसके पीछे चलना, न इससे भागना। स्वीकार कर लेना कि ठीक है। बस! और अपने काम में ध्यान के लगे रहो।
जीवन की साधारण प्रक्रिया को चलने दो। उसको रोकना मत, नहीं तो खतरा होगा। यह सोचकर कि अभी कमजोरी है तो बाकी सब काम रोक दें, सिर्फ ध्यान करें, तो फिर तुम पंगु हो जाओगे। फिर आठ महीने-दस महीने के बाद मुश्किल हो जाएगा काम में लौटना। इसलिए काम तो जारी ही रखना। अड़चन भी हो तो भी जारी रखना। काम तो जारी ही रखना है। संसार से भागना तो है ही नहीं। भागने का मन बहुत बार होगा। क्योंकि भागने में सुविधा मालूम पड़ती है--मिटी सब, छूटी सब झंझट, सब उत्तरदायित्व गया। मैं तुम्हें उत्तरदायित्व से भगाना नहीं चाहता। सारा उत्तरदायित्व स्वीकार रखो, सारा काम जारी रखो, एक सक्रिय ध्यान सुबह, एक निष्क्रिय ध्यान सांझ। धीरे-धीरे सक्रिय को छोड़ते जाना, निष्क्रिय को गहन करते जाना। अंततः नौ महीने बाद मुझे कहना जब निष्क्रिय ही बच जाए और जब सब शांत हो जाए।
सब शांत निश्चित हो जाएगा। ऐसी घटना यहां प्रत्येक को घटती है। कुछ नया नहीं है।
आज इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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