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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(गगन-मंदिल दृढ़ डोरि लगाव हु)

सारसूत्र:

अरी, मैं तो नाम के रंग छकी।।
जब तें चाख्या बिमल प्रेमरस, तब तें कछु न सोहाई।
रैनि दिना धुनि लागि रहीं, कोउ केतौ कहै समुझाई।।
नाम पियाला घोंटिकै, कछु और न मोहिं चही।
जब डोरी लागी नाम की तब केहिकै कानि रही।।
जो यहि रंग में मस्त रहत है, तेहि कैं सुधि हरना।
गगन-मंदिल दृढ़ डोरि लगावहु, जाहि रहौ सरना।
निर्भय ह्वैकै बैठि रहौं अब, मांगौं यह बर सोई।।
जगजीवन विनती यह मोरी, फिरि आवन नहिं होई।।


मैं तोहिं चीन्हा, अब तौ सीस चरन तर दीन्हा।।
तनिक झलक छवि दरस देखाय।
तब तें तन मन कछु न सोहाय।।
कहा कहौं कछु कहि नहिं जाय।
अब मोहि कां सुधि समुझि न आय।।
होइ जोगिन अंग भस्म चढ़ाय।
भंवर-गुफा तुम रहेउ छिपाय।।
जगजीवन छवि बरनि न जाय।
नैनन मूरति रही समाय।।

रहिउं मैं निरमल दृष्टि निहारी।
ए सखि मोहिं ते कहिय न आवै, कस-कस करहुं पुकारी।।
रूप अनूप कहां लगि बरनौं, डारौं सब कुछु वारी।
रवि ससि गन तेहिं छबि सम नाहीं, जिन केहु कहा बिचारी।।
जगजीवन गहि सतगुरु चरना, दीजै सबै बिसारी।।

ये मैकशी है तो फिर शाने-मैकशी क्या है
बहक न जाए जो पीकर, वो रिंद ही क्या है
बस एक सम्त उड़ा जा रहा हूं वहशत में
खबर नहीं कि खुदी क्या है, बेखुदी क्या है
मैं जह्रेमर्ग गवारा करूं कि तल्खी-ए-जीस्त
मेरी खुशी तो है सब कुछ, तेरी खुशी क्या है
ये दर्स मैंने लिया मक्तबे-मोहब्बत से
किसी तरह जो कट जाय जिंदगी क्या है
और जिंदगी अधिक लोगों की बस किसी तरह ही कट जाती है। जन्म तो होता है, जीवन नहीं मिल पाता। जीवन मिल सकता है। लेकिन जीवन जन्म का पर्यायवाची नहीं है। जन्म अवसर है, जीवन खोजोगे तो मिल जाएगा। जन्म बीज है, बसंत की तलाश करोगे, भूमि खोजोगे, बीज को भूमि में डालने की सामर्थ जुटाओगे, मरने की तैयारी रखोगे--मिटने की कूबत--और जोखम उठाओगे, तो फूल खिलेंगे--जीवन के फूल। नहीं तो जन्म और मृत्यु के बीच में लोग यूं ही जी लेते हैं, झूठा ही जी लेते हैं। जीने का नाम ही रहता है, जीवन का कोई स्वाद नहीं मिल पाता। जिसे जीवन का स्वाद मिल जाता है, उसकी फिर मृत्यु नहीं है। क्योंकि जीवन की कैसी मृत्यु? जीवन शाश्वत है। जीवन अमृत है।
जब तक तुम्हें मृत्यु का भय हो, जाने रखना, अभी जीवन का पता नहीं चला है। जब तक मृत्यु सार्थक मालूम पड़ती हो, जब तक मृत्यु यथार्थ मालूम पड़ती हो तब तक भूल मत जाना, अभी जीवन की तलाश करनी है।
जीवन के मिलते ही मृत्यु एक झूठ है। मृत्यु से बड़ा फिर कोई झूठ नहीं है। अभी तो मृत्यु से बड़ा कोई सच नहीं है। अभी तो इस तथाकथित जीवन में जन्म के बाद अगर कोई चीज निश्चित है तो सिर्फ मृत्यु निश्चित है। बाकी कुछ भी निश्चित नहीं है। और कुछ होगा या न होगा, लेकिन मृत्यु जरूर होगी। जो जन्मा है, वह मरेगा। जैसे जन्म एक पहलू है उसी सिक्के का जिसका दूसरा पहलू मृत्यु है।
जन्म और मृत्यु के बीच में जीवन नहीं है। जीवन जन्म के पूर्व भी है और मृत्यु के पार भी है। जन्म और मृत्यु के बीच जीवन नहीं घटता, जीवन में जन्म और मृत्यु की घटनाएं घटती हैं। और ऐसी बहुत घटनाएं घट चुकी हैं। बहुत बार जन्मे हो, बहुत बार मरे हो, मगर जीवन से अभी पहचान नहीं हुई। बार-बार चूक गए हो।
ये दर्स मैंने लिया मक्तबे-मोहब्बत से
प्रेम की पाठशाला में मैंने यह पाठ सीखा।

ये दर्स मैंने लिया मक्तबे-मोहब्बत से
किसी तरह जो कट जाए जिंदगी क्या है
ऐसे बोझ की तरह जो कटे, घसिटते-घसिटते जो कटे, उसे जिंदगी मत समझना। जीवन तो एक नृत्य है, एक गीत है, एक महोत्सव है; जीवन तो खूब सतरंगा है; बोझ कहां? जीवन तो निर्भार है। जीवन के पास तो ऐसे पंख हैं कि सारा आकाश तुम्हारा हो जाए। जीवन यह कारागृह नहीं है जिसको तुमने जीवन समझा है। यह क्षुद्र, छोटी-छोटी घटनाओं में टूटने वाला, बिखरने वाला जीवन, इसे जीवन समझ लिया जिसने, वह चूक गया। उस व्यक्ति को ही मैं अधार्मिक कहता हूं, जो इस क्षुद्र जीवन को जीवन समझ लेता है। और इस क्षुद्र से इतना भर जाता है कि विराट को देखने की न तो अभीप्सा पैदा होती, न अवकाश मिलता। जो इस कूड़े-कचरे से, धन-पद-प्रतिष्ठा-अहंकार, इससे ही इतना भर जाता है कि जिसके भीतर जगह ही नहीं होती कि परमात्मा अगर अतिथि होना चाहे तो हो सके। और ऐसा नहीं है कि परमात्मा तुम्हारे द्वार पर दस्तक न देता हो। मगर दीवाने ही सुन पाते हैं दस्तक को। प्रेमी ही समझ पाते हैं उस संकेत को।
धर्म मस्त होने की कला है। अलमस्त होने की कला है। धर्म का उदासी से कोई भी संबंध नहीं है। इसलिए तुम्हारे मंदिरों-मस्जिदों में, तुम्हारे आश्रमों में अगर उदास लोग बैठे हों तो समझ लेना कि वहां अभी धर्म की कोई किरण नहीं उतरी। ये तुम्हारे उदास आश्रम मरघट हैं। यहां जीवन का कोई नृत्य नहीं हो रहा है। परमात्मा को पहचानना हो तो फूलों में खोजो, वहां नृत्य है; चांद-तारों में खोजो, वहां उत्सव है। बसंत में तलाशना; आकाश में मेघ घिर जाएं, वहां खोजना। पशु-पक्षियों की आवाज में, गीत में शायद मिल जाए; लेकिन तुम्हारे संत-महात्माओं के उदास चेहरों में नहीं मिलेगा। वे तो मौत से घबड़ा कर बैठ गए हैं वहां। उन्हें जिंदगी की कुछ भी खबर नहीं है।
इस भेद को ख्याल में ले लो।
मौत से घबड़ा कर जो धार्मिक होता है, वह धार्मिक नहीं है, धर्म का धोखा है। वैसा ही जैसा हम खेत में नकली आदमी खड़ा कर देते हैं। घास-फूस का। फिर चाहे तुम उसे चूड़ीदार पजामा पहना दो, अचकन पहना दो, जवाहर बंडी लगा दो, गांधी टोपी लगा दो, इससे क्या होता है! चूड़ीदार पाजामे के भीतर सिर्फ घास-फूस है। और सिर कहां है वहां? हंडी लगा देते हैं। हंडी पर गांधी टोपी रख दी। लेकिन पशु-पक्षियों को डराने के काम आ जाता है। यह खेत का झूठा आदमी भी कुछ काम आ जाता है। बस ऐसे ही तुम भी कुछ काम आ रहे हो। और मौत से घबड़ा जाओगे। और मौत से घबड़ाना ही होगा, क्योंकि मौत आ रही है। झूठा धार्मिक आदमी घास-फूस का होता है--मौत से घबड़ा कर ही जाता है--उसके धर्म का आधार भय होता है, भीरुता।
दुनिया की सभी भाषाओं में ऐसे शब्द हैं। धार्मिक आदमी को कहते हैंः धर्मभीरु। या ईश्वर-भीरु। गॉड फियरिंग। धार्मिक व्यक्ति और ईश्वर-भीरु! भीरु! ईश्वर से डरेगा धार्मिक आदमी! तो फिर ईश्वर के गले कौन लगेगा? धार्मिक आदमी और ईश्वर से डरेगा? तो फिर ईश्वर से प्रेम कौन करेगा? और जहां प्रेम है, वहां भय कैसा? और जहां भय है, वहां प्रेम कैसे हो सकेगा?
इसलिए मैं तुमसे कहता हूंः धार्मिक आदमी ईश्वर से भयभीत नहीं होता। सिर्फ धार्मिक आदमी ही ईश्वर से भयभीत नहीं होता। अधार्मिक होते होंगे भयभीत। अधार्मिक को भयभीत होने का कारण है। क्योंकि अधार्मिक का ईश्वर भय से ही निर्मित है। तुम्हारे मंदिरों और मस्जिदों में जिसकी पूजा हो रही है, वह तुम्हारे भय का ही सूत्र है। तुम्हारे भय से ही जन्मा है। तुम जो घुटने टेक कर प्रार्थना कर रहे हो, थरथरा रहे हो, कंप रहे हो, उसमें भय है। उसमें नरक का भय है। मौत का भय है--मौत आ रही है। और न मालूम कितने पाप हो रहे हैं। पता नहीं क्या होगा मृत्यु के बाद, समझा लो परमात्मा को, फुसला लो परमात्मा को, खुशामद कर लो उसकी। तुम्हारी प्रार्थनाएं, तुम्हारी स्तुतियां तुम्हारी रिश्वत से ज्यादा नहीं हैं। इसलिए जितने दुनिया में तथाकथित धार्मिक देश हैं, वहां खूब रिश्वत चलती है। उनके प्राणों में रिश्वत बसी है!
भारत से लोग रिश्वत हटाना चाहते हैं, हटेगी नहीं--जब तक भारत की धार्मिक मनोदशा नहीं बदलती। यह देश हजारों साल से परमात्मा को रिश्वत देता रहा है। एक नारियल चढ़ा आया--सड़ा नारियल! क्योंकि परमात्मा को कोई ठीक-ठीक नारियल नहीं चढ़ाता। परमात्मा को चढ़ाने के लिए अलग ही नारियल बाजार में बिकते हैं। बिल्कुल सड़े हुए। अक्सर तो परमात्मा के मंदिर के सामने ही नारियल की दुकान होती है। वे ही नारियल बार-बार चढ़ते रहे हैं--हजारों बार चढ़ चुके हैं। तुम चढ़ा आते हो, पुजारी फिर रात को बेच देता है, सुबह फिर चढ़ने शुरू हो जाते हैं। तुम नारियल चढ़ाकर परमात्मा को कुछ मांगने जाते हो। तुम कहते हो, बेटे की नौकरी लगवा देना। कि पत्नी बीमार है, यह रहा नारियल।
यह देश रिश्वत देता रहा है परमात्मा को, रिश्वत इसके प्राणों में भर गई है। रिश्वत बड़ी धार्मिक प्रक्रिया है! बड़ी प्राचीन परंपरा है। इसलिए इस देश को रिश्वत से छुड़ाना बहुत मुश्किल है। जब परमात्मा तक नारियल से मान जाता है, तो आदमी की क्या बिसात! फिर लेकर पुलिसवाले से और प्रधानमंत्री तक, सब नारियल से मान जाते हैं। छोटे नारियल, बड़े नारियल, तरह-तरह के नारियल। लेकिन जब परमात्मा तक मान जाता है तो फिर और किसकी क्या बिसात है!
फिर डालियां सजा कर भेजो! और अगर सीधा कोई उपाय न हो, तो पीछे का कोई दरवाजा खोजो। अगर नेता सीधा रिश्वत न लेता हो, तो पत्नी के चरण दबाओ, बेटों की स्तुति करो--कोई उपाय खोजो! उपाय मिल जाएंगे। यहां लेनेवाले के मन में भी रिश्वत की प्रतिष्ठा है और देने वाले के मन में भी रिश्वत की प्रतिष्ठा है। रिश्वत बड़ी धार्मिक प्रक्रिया है!
तुम क्या करते हो? तुम कहते हो कि प्रभु का नाम ले लेते हैं रोज सुबह। यह क्या है? प्रभु के नाम लेने से क्या होगा? क्यों ले रहे हो नाम? ईश्वर को जानते हो? पहचानते हो? उससे कुछ मुलाकात हुई? अभी तो अपने से भी मुलाकात नहीं हुई, उससे क्या मुलाकात होगी! अभी तो तुम्हें यह भी पता नहीं है कि मैं कौन हूं। अभी तो मिलने वाले का भी पता नहीं है, तो तुम तलाश पर क्या निकलोगे--अभी तो खोजी भी अंधेरे में डूबा है, अभी खोज कैसे होगी? लेकिन इस अंधेरे में भयभीत कंप रहे हो, डर रहे हो। इसी डर से प्रार्थना भी करते हो, पूजा भी करते हो, मंदिर के पुजारी को भी रिश्वत देते हो। प्रार्थना, यज्ञ-हवन, अर्चना, आराधना, इन सबके भीतर तुम्हारा भय छिपा है।
ख्याल रखना, भय से की गई प्रार्थना परमात्मा तक नहीं पहुंचती। और जो भय से प्रार्थना कर रहा है, वह प्रार्थना कर ही नहीं रहा है। जो आदमी कह रहा है कि मेरी पत्नी बीमार है, उसे ठीक कर दो, इसको परमात्मा से क्या लेना-देना है? इसकी पत्नी ठीक होनी चाहिए। इसका प्रयोजन साफ है। यह परमात्मा का भक्त है, तुम समझते हो? यह परमात्मा का भी शोषण करने गया है। यह परमात्मा से सेवा लेना चाहता है। यह परमात्मा का सेवक नहीं है, यह कहता है--जरा मेरी सेवा करो! मेरी पत्नी बीमार है, उसको ठीक करो! और ध्यान रखना, अगर मेरी पत्नी ठीक न हुई तो सब श्रद्धा उखड़ जाएगी। फिर मैं भरोसा न कर सकूंगा। एक मौका और देता हूं।
मेरे पास लोग आकर कहते हैं कि अगर हम जो मांगे वह प्रार्थना में मिल जाए, तो प्रमाण मिल जाए कि ईश्वर है। और अगर हमारी प्रार्थना पूरी न हो, तो उसके होने का प्रमाण क्या है? न तुम्हें पता है अपना, न उसका! हां, एक बात तुम्हें मालूम है कि यह जिंदगी जो तुमने बनाई है, रेत पर बनाया घर है; यह खिसक रही है। इसकी नींवें कंप रही हैं। मौत का झंझावात रोज करीब आ रहा है। ये बाल सफेद होने लगे, ये पैर कंपने लगे, ये हाथ डोलने लगे, ये बुढ़ापा करीब आने लगा--मौत करीब आ रही है! कुछ इंतजाम कर लें! कुछ और सहारा दिखाई नहीं पड़ता--धन साथ जाएगा नहीं, पद साथ जाएगा नहीं, संगी-साथी साथ जाएंगे नहीं, शास्त्र कहते हैं कि नाम-स्मरण साथ जाएगा, तो चलो राम-राम जप लें! तो बैठे हो तुम माला फेर रहे हो। मगर भय से भरा हुआ हृदय आयोजन कर रहा है मृत्यु से बचने का।
परमात्मा की तलाश, परमात्मा की खोज ऐसी नहीं होती। प्रेम से होती है परमात्मा की खोज। प्रेम ही उसका द्वार है। प्रेम की मस्ती चाहिए, तो उसके घूंघट खुल जाएं।
ये मैकशी है तो फिर शाने-मैकशी क्या है
अगर यह धर्मभीरुता, अगर यह ईश्वर से भय धर्म है, तो फिर अधर्म क्या होगा? और ये उदास, मुर्दों की तरह बैठे हुए लोग, जिनको तुम साधु-संत कहते हो, अगर ये धार्मिक हैं, तो फिर अधार्मिक कौन है?
ये मैकशी है तो फिर शाने-मैकशी क्या है

अगर यह मस्ती है, अगर यह धर्म का रस है, ये धर्म पीन वालों के ढंग हैं, तो फिर उसके रस पीने का न तो कोई गौरव रहा, न कोई गरिमा रही।

ये मैकशी है तो फिर शाने-मैकशी क्या है
बहक न जाए जो पीकर वो रिंद ही क्या है
और जो उसके प्रेम में बहक न जाए, नाच न उठे, भूल न जाए लोकलाज, मान-मर्यादा, बेखुद न हो जाए, वह न तो पियक्कड़ है और न प्रार्थना करने वाला।
प्रार्थना शराब है।
मेरे देखे, जिसने जीवन में प्रार्थना नहीं जानी, उसने जीवन की असली शराब नहीं जानी। वह ऐसा ही प्यासा आया और प्यासा गया। और जिसने प्रार्थना की शराब नहीं पी, वही और तरह की शराबें पीता है। परिपूरक। सोचता है, शायद इस तरह अपने को भुला लूं। हां, अंगूर से भी शराब बनती है, मगर घड़ी दो घड़ी को भुला पाती है। एक आत्मा की भी शराब है, जो डूबा सो डूबा, फिर लौटता नहीं। और यह भी घड़ी दो घड़ी के लिए डूबने का क्या प्रयोजन है। क्योंकि घड़ी दो घड़ी के बाद फिर चिंताएं वहीं की वहीं खड़ी हैं--और बदतर होकर खड़ी हैं। यह घड़ी दो घड़ी की मूर्च्छा कुछ साथ देने वाली नहीं है।
लेकिन एक बात तो साफ है, मनोवैज्ञानिक इस संबंध में राजी हैं, कि आदमी ने शराब खोजी ध्यान की ही खोज में। ध्यान नहीं खोज पाए जो, वे शराबों में उलझ गए। शराब में उलझ जाने के पीछे आकांक्षा तो एक ही है कि किसी तरह बेखुद हो जाऊं।
उस आकांक्षा को समझना--
शराबी में भी आकांक्षा तो परमात्मा की ही खोज की चल रही है। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि धनलोलुप में नहीं होती उतनी परमात्मा की खोज जितनी शराबी में होती है। पदलोलुप में नहीं होती, पद-पिपासु में नहीं होती उतनी परमात्मा की खोज जितनी शराबी में होती है। शराबी क्या खोज रहा है? शराबी अपने से परेशान है। अपने को भूलना चाहता है; कोई उपाय चाहता है जहां अपने को भुला दे। कुछ उपाय चाहता है जहां थोड़ी देर के लिए यह अहंकार विस्मृत हो जाए, यह अहंकार भारी है, छिद रहा है भाले की तरह, घाव बन गया है, इसके साथ जीना मुश्किल होता जा रहा है। इसी मुश्किल को हल करने के लिए आदमी ने शराबें खोजी।
अब तो और नये-नये वैज्ञानिक उपाय खोजे हैं--एल.एसड़ी. है, मारीजुआना है, और नई-नई तरकीबें खोजी जा रही हैं। मगर ये सारी तरकीबें किसी काम की नहीं हैं। ये झूठी हैं। ये थोथी हैं। ये रासायनिक हैं। इनसे थोड़ी देर के लिए भ्रांति पैदा हो जाती है--बस भ्रांति--फिर लौट आना पड़ता है असलियत के जगत में। वही चिंता, वही बेचैनी, वही उपद्रव, वही बाजार, वही शोरगुल। यह तो नींद जैसी बात है; थोड़ी देर के लिए नींद लग गई, राहत मिल गई, फिर वापिस।
और, राहत महंगी है। क्योंकि शरीर को नुकसान पहुंचा है। मन को नुकसान पहुंचा है। आत्मा को नुकसान पहुंचा है। एक गलत आदत निर्मित होनी शुरू हुई, जिससे छूटना मुश्किल हो जाएगा। रोज-रोज मुश्किल हो जाएगा। यह तो जहर पीकर अमृत को धोखा देना है। लेकिन आकांक्षा तो ठीक है। आकांक्षा तो यही है कि मैं बेखुद कैसे हो जाऊं?
आदमी का एक ही कष्ट हैः उसकी खुदी। उसका मैं-भाव। तुम भी जरा निरीक्षण करना। जितना मैं-भाव होता है, उतना जीवन में दुख होता है--उसी मात्रा में दुख होता है। जितना मैं-भाव कम होता है, उतना ही जीवन में कम दुख होता है। और जहां मैं-भाव बिल्कुल नहीं होता, वहां आनंद के फूल खिल जाते हैं। आ गया बसंत! गीत गूंजने लगते हैं। जीवन एक नई पुलक और उमंग से भर जाता है। एक नया उत्साह। पैरों में घूंघर बंध जाते हैं। ओंठ पर बांसुरी आ जाती है।
धार्मिक व्यक्ति का लक्षण यही है कि वह उत्सवपूर्ण हो।

ये मैकशी है तो फिर शाने-मैकशी क्या है
बहक न जाए जो पीकर वो रिंद ही क्या है

बस इक सम्त उड़ा जा रहा हूं वहशत में
खबर नहीं कि खुदी क्या है, बेखुदी क्या है
ऐसी घड़ी आ जाए, न पता चले ‘मैं’, न पता चले ‘तू’, जहां ‘मैं’ भी गया, ‘तू’ भी गया; जहां खुदी तो गई ही गई, यह भी ख्याल पैदा नहीं होता कि बेखुदी आ गई; अहंकार तो गया ही गया, निर-अहंकारिता का अहंकार भी जहां नहीं है, जहां कुछ भी शेष नहीं रहा, जहां मस्ती परिपूर्ण हो गई है, जहां नाच ही नाच है--नर्तक डूब गया नृत्य में, गायक खो गया गीत में--वैसी घड़ी में जीवन का अनुभव होता है। जीवन से पहली पहली बार संबंध जुड़ता है।
मैं जहरेमर्ग गवारा करूं कि तल्खी-ए-जीस्त

और फिर आदमी राजी हो जाता है, फिर चाहे मृत्यु का विष पीना पड़े, या जीवन की तिक्त कटुता पीनी पड़े।

मैं जह्रेमर्ग गवारा करूं कि तल्खी-ए-जीस्त
मिरी खुशी तो है सब कुछ, तिरी खुशी क्या है
फिर आदमी कहता है, मेरी खुशी की क्या फिकिर, तेरी खुशी क्या है? फिर उसकी मर्जी होनी शुरू होती है।
जिस दिन व्यक्ति के भीतर से परमात्मा जीता है, उस दिन जीवन मिला। जिस दिन क्षुद्र के भीतर से विराट बहता है, उस दिन जीवन मिला। जिस दिन बूंद से सागर झांकने लगता है, उस दिन जीवन मिला। फिर कोई मृत्यु नहीं है।
ये दर्स मैंने लिया मक्तबे-मोहब्बत से
किसी तरह जो बहल जाए जिंदगी क्या है
सावधान होओ! ऐसे ही जिंदगी को मत गंवा देना। जरा पर्दा उठाओ, पर्दे के पीछे मालिक छिपा है। जरा आंखें खोलो, आंख खुलते ही अपूर्व संपदा के दर्शन होते हैं। जरा जागो! जरा मस्त होओ! जरा बहको! जरा नाचो! जरा गाओ! जरा रोओ! जरा भावाविष्ट होओ! भावाविष्ट हो जाना ही भक्ति है। ये सब भाव की तरंगें हैं।
जगजीवन के आज के सूत्र बड़े प्यारे हैं। समझना--
अरी, मैं तो नाम के रंग छकी।।
जिन्होंने जाना है, उन्होंने ऐसा कहा है। जिन्होंने नहीं जाना, वे तो धर्म के नाम पर बड़े उदास हो जाते हैं। जीते-जी मुर्दा हो जाते हैं। इन्हीं मुर्दों से इस देश के आश्रम भरे पड़े हैं। इन्हीं मुर्दों के कारण यह पूरा देश भी मुर्दा हो गया है। इन मुर्दों ने इस देश को जीना नहीं सिखाया, आत्महत्या सिखाई है।
इस देश के पास सब है, सिर्फ इस देश की आत्मा खो गई है। कभी इस देश ने बड़ी ऊंचाइयां देखीं, बड़े शिखर देखे, कृष्ण की बांसुरी सुनी... तुम सोचते हो कृष्ण कुछ उदास ढंग के आदमी रहे होंगे? उदासी और बांसुरी का कुछ मेल बैठेगा? कृष्ण का नृत्य देखा है इस देश ने। कृष्ण का रास देखा। उदास आदमी नाचते हैं? मोरमुकुट बांधते हैं? वे स्वस्थ दिन थे। धर्म अपनी गहनता में, अपनी गहराई में प्रगट हुआ था।
फिर बड़े रुग्ण दिन आए। रुग्णचित्त लोग हावी हो गए। उन्होंने सारे देश के मन को उदासी से भर दिया; विस्तार चला गया, लोग सिकुड़ने लगे। हर चीज से भयभीत हो गए। ऐसा न करें, वैसा न करें। धर्म न करने की ही एक प्रक्रिया हो गईः क्या-क्या न करें। धर्म का करने से कोई संबंध न रहा। फैलाव का विज्ञान न रहा धर्म, सिकुड़ाव बन गया। सिकुड़े-सिकुड़े आदमी जीने लगे। और तभी न केवल देश की आत्मा मरी, देश का शरीर भी दीन-हीन हो गया।
हजारों साल से यह देश गरीब है और इस गरीबी के पीछे तुम्हारे तथाकथित झूठे धर्म की ही शिलाएं हैं। जो भीतर से समृद्ध होता है, उसे बाहर से दरिद्र होने का कोई भी कारण नहीं है। क्योंकि जो भीतर से समृद्ध होता है, उसकी समृद्धि बाहर भी फैलने लगती है। फैलनी ही चाहिए। वही सबूत है। जब भीतर गीत उठा हो, तो बांसुरी बजेगी, और स्वर बाहर फैल जाएंगे।
इस देश को कभी सोने की चिड़िया होने का सौभाग्य था। वे दिन थे, जब इस देश ने धर्म जाना था। तब वेद सहज जन्मे थे। तब उपनिषद ऐसे पैदा हुए थे जैसे गीत कोई गाता है, या पक्षी सुबह गुनगुनाते हैं। इतनी सरलता से सब हुआ था। लेकिन वे सिकुड़ाव के दिन नहीं थे; बड़े फैलाव के दिन थे। आश्रम उदास, मुर्दा लोगों के स्थान नहीं थे, वहां जीवन की धारा बहती थी। वहां हम भेजते थे अपने बच्चों को जीवन की कला सीखने। अब तो आश्रमों में केवल बूढ़े, वृद्ध इत्यादि जाते हैं। अब तो मरने के करीब जो होते हैं वे आश्रमों में जाते हैं। अब तुम अपने बच्चों को आश्रम में भेजते हो? कब से तुमने बच्चे आश्रम भेजने बंद कर दिए? पूछो तो क्यों बंद कर दिए?
मेरे पास लोग आकर पूछते हैं कि आपके आश्रम में जवान लोग दिखाई पड़ते हैं! उनको हैरानी होती है। हैरानी स्वाभाविक है, क्योंकि वे भूल ही गए हैं कि जहां जिंदगी होगी वहां जवानी भी होगी। वहां बच्चे भी होंगे। मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आप छोटे से बच्चे को भी संन्यास दे देते हैं! उनका ख्याल है कि सिर्फ बूढ़ों को ही संन्यास दिया जाना चाहिए। उनका सच में तो ख्याल यह है कि जब एक पैर कब्र में उतर जाए और एक बाहर रह जाए, तब जल्दी से संन्यास लेकर कब्र में गिर गए! संन्यास लेने का उनका मतलब ही यह है कि जब मर ही गए! अब ले लो संन्यास! जब तक जीते हो, तब तक जीवन से संबंध मत जोड़ो! तब तक क्षुद्र को इकट्ठा करो और बटोरो।
तुम्हें याद है न, इस देश में हम अपने बच्चों को गुरुकुल भेजते थे? वे गुरुकुल आश्रम थे। और जहां छोटे-छोटे बच्चे इकट्ठे होते होंगे, वहां किलकारियां न होती होंगी। वहां नाच न होता होगा! वहां गीत न गाए जाते होंगे! निश्चित यह सब होता होगा। वे हिम्मत के दिन थे। धर्म एक उभार पर था।
फिर एक सिकुड़ाव आता है। हर चीज में आ जाता है। क्योंकि हर चीज में एक लयबद्धता होती है। लहर उठती है, फिर गिरती है। हजारों साल से लहर गिरती रही है। अब उसने अपना आखिरी तल छू लिया है। मैं लहर को फिर उठाने की कोशिश कर रहा हूं। कि फिर बच्चे धार्मिक हों। कि फिर जवान धार्मिक हों। और निश्चित ही जवान जब धार्मिक होंगे तो धर्म का रंग-ढंग अलग होगा। होगा ही। क्योंकि सारी जवानी संयुक्त होगी। जवानी अपना रंग लेकर आएगी। और जब मंदिरों में जवान नाचेंगे तो रौनक होगी, तो उत्सव होगा, तो प्रेम जन्मेगा, तो मस्ती होगी।
धर्म को मैं यह जो नया रूप देने की चेष्टा कर रहा हूं, उससे पंडित, पुरोहित, पुजारी, राजनेता बड़े परेशान हैं। उनकी परेशानी यह है कि वे धर्म के एक मुर्दा रूप के आदी हो गए हैं। यह वे भूल ही गए हैं कि धर्म में भी सांस होनी चाहिए, हृदय धड़कना चाहिए। उनका धर्म का जो अर्थ हो गया है, वह लाश, मरघट, कब्र।
कल ही मैं तुमसे कह रहा था कि सरकार यह मानने को राजी नहीं है कि यह आश्रम धार्मिक है। इसलिए मानने को राजी नहीं है--कारण उन्होंने दिया है--क्योंकि यह न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न जैन है, न यहूदी है; यह कैसे धार्मिक हो सकती है जगह? मैं पूछना चाहता हूं कि जब बुद्ध ने धर्म को जन्म दिया, जब बुद्ध जिंदा थे, और बुद्ध चलते थे, उठते थे और बोलते थे, और जीवंत बुद्ध इस पृथ्वी पर था, तब तुम बुद्ध को धार्मिक मानते या नहीं? क्योंकि तब तक बुद्ध-धर्म पैदा नहीं हुआ था। बुद्ध हिंदू तो नहीं थे। हिंदू-धर्म को तो छोड़ चुके थे, उस मुर्दा घेरे से तो बाहर निकल गए थे। और अभी बुद्ध-धर्म का जन्म नहीं हुआ था। वह तो अच्छा हुआ कि मोरारजीभाई न हुए! नहीं तो बुद्ध को धार्मिक नहीं मान सकते थे, क्योंकि वह पूछते कि तुम कौन हो? हिंदू हो? जैन हो? ये दो धर्म थे उस वक्त। तुम दोनों नहीं हो। तो फिर तुम धार्मिक कैसे? लेकिन फिर बुद्ध के मरने के बाद बुद्ध-धर्म बना। और अब हम बुद्ध-धर्म को बुद्ध-धर्म मानते हैं। अब वह मुझसे पूछते हैं कि आप बौद्ध हैं?
जब जीसस थे, तो जीसस थे लेकिन ईसाइयत कहां थी? यहूदी तो वह नहीं थे। नहीं तो यहूदी उनको सूली न देते। उस मुर्दापन को तो उन्होंने छोड़ दिया था। और अभी ईसाइयत तो भविष्य के गर्भ में छिपी थी। तो ईसा को तुम धार्मिक मानोगे या नहीं? यह तो बड़े मजे की बात हो जाएगी कि ईसा तो धार्मिक नहीं हैं, ईसाइयत धार्मिक है; बुद्ध धार्मिक नहीं हैं, बुद्ध-धर्म धार्मिक है। यह तो बड़े मजे की बात हो जाएगी। कि कृष्ण तो धार्मिक नहीं हैं, कृष्णमार्गी धार्मिक हैं; मोहम्मद तो धार्मिक नहीं हैं, मुसलमान धार्मिक हैं। यह तो बड़े मजे की बात हो जाएगी कि गंगोत्री पर गंगा गंगा नहीं है और जब सब नगरों और गांवों की गंदगी और कूड़ा-करकट और सब मल-मूत्र उसमें मिल जाएगा, तो प्रयाग में आकर गंगा हो जाएगी। गंगोत्री पर गंगा नहीं हैं। यह तर्क।
यहां जो हो रहा है, न हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न जैन है, न बौद्ध है, न सिक्ख है। लेकिन जो भी नानक का प्राणों का स्वर था, जो बुद्ध के हृदय की आवाज थी, जो कृष्ण का गहनतम अनुभव था और जो जीसस की आकांक्षा थी और जो मुहम्मद की अभीप्सा थी, उस सबका प्रतिफलन है। वह सारी सुवास संयुक्त है। मुझे वे धार्मिक मानने को राजी नहीं हैं। जब तक कि सौ-दो सौ साल बाद कोई संप्रदाय खड़ा न हो जाए।
और मजा यह है कि जब सप्रदाय खड़ा होता है तो धर्म मर जाता है। धर्म मरता है तभी सप्रदाय बनता है। बुद्ध जब तक हैं तभी तक धर्म है। लेकिन तब तक सरकारें मानने को राजी नहीं होतीं। मूढ़ताएं तो बहुत होती हैं, लेकिन सरकारी मूढ़ता का कोई मुकाबला नहीं। सरकारी मूढ़ता तो ऐसी है जैसे करेला नीम चढ़ा। ऐसे ही करेला, फिर नीम पे चढ़ गया।
मैं तुम्हें मस्ती का एक स्वर दे रहा हूं। मैं चाहता हूं, तुम डोलो। मैं तुम्हें रंगना चाहता हूं इसी रंग में जिसकी जगजीवन बात कर रहे हैंः ‘अरी मैं तो नाम के रंग छकी।’ और छक सकते हो तभी। इस जिंदगी में कोई और चीज तुम्हें छका न सकेगी। तुम्हारा पात्र खाली-का-खाली रहेगा। कितना ही धन डालो इसमें, खो जाएगा। कितना ही पद डालो इसमें, खो जाएगा। पात्र खाली-का-खाली रहेगा। तुम भरोगे नहीं। भरता तो आदमी केवल परमात्मा से है। क्योंकि अनंत है हमारा पात्र और अनंत है परमात्मा--अनंत को अनंत ही भर सकेगा। हमारे भीतर शून्य का पात्र है। इस शून्य के पात्र को परमात्मा की पूर्णता के अतिरिक्त और कोई चीज नहीं भर सकती।
मैं तुम्हें सूफी कहानी याद दिलाऊं, मुझे प्रीतिकर है, बहुत बार मैंने कही है--
एक फकीर ने एक सम्राट के द्वार पर दस्तक दी। सुबह का वक्त था और सम्राट बगीचे में घूमने निकला था। संयोग की बात, सामने ही सम्राट मिल गया। फकीर ने अपना पात्र उसके सामने कर दिया। सम्राट ने कहा, क्या चाहते हो? फकीर ने कहा, कुछ भी दे दें, शर्त एक है, मेरा पात्र पूरा भर जाए। कुछ भी दे दें। लेकिन शर्त एक है, मेरा पात्र पूरा भर जाए। मैं थक गया हूं, यह पात्र भरता नहीं। सम्राट हंसने लगा और उसने कहाः तुम पागल मालूम होते हो। पागल न होते तो फकीर ही क्यों होते! यह छोटा-सा पात्र, यह भरता नहीं? अपने वजीर को कहा कि लाओ, स्वर्ण अशर्फियों से भर दो! इस फकीर का मुंह बंद कर दो सदा के लिए! फकीर ने कहा, मैं फिर याद दिला दूं कि भरने की कोशिश अगर आप करते हैं तो यह शर्त है कि अगर जब तक भरेगा नहीं पात्र, हटूंगा नहीं। सम्राट ने कहा तू घबड़ा मत पागल, भर देंगे। सोने से भर देंगे, हीरे-जवाहरात से कहे तो हीरे-जवाहरात से भर देंगे।
लेकिन जल्दी ही सम्राट को अपनी भूल समझ में आ गई। सोने की अशर्फियां डाली गयीं और खो गयीं। हीरे डाले गए और खो गए। लेकिन सम्राट भी जिद्दी था। और फिर फकीर से हार माने, यह भी तो जंचता न था। सारी राजधानी में खबर पहुंच गई। हजारों लोग इकट्ठे हो गए। और सम्राट अपना खजाना उलीचता गया। और उसने कहा, आज दांव पर लग जाना है। सब डुबा दूंगा मगर उसका पात्र भरूंगा। सांझ सूरज ढलने लगा, सम्राट के कभी खाली न होने वाले खजाने खाली हो गए। पात्र नहीं भरा सो नहीं भरा।
सोचते हो उस सम्राट की दयनीय दशा! मरते वक्त सभी सम्राटों की वही हो जाती है। गिर पड़ा फकीर के चरणों में और कहा, मुझे माफ कर दो! मेरी अकड़ मिटा दी, अच्छा किया। मैं तो सोचता था अखूत खजाना है। यह तेरे छोटे से पात्र को भी न भर पाया! बस अब एक ही प्रार्थना है--मैं तो हार गया, मुझे क्षमा कर दो, मैंने व्यर्थ ही तुझे आश्वासन दिया था भरने का--मगर जाने से पहले एक छोटी सी बात मुझे बता जाओ, दिन भर यही प्रश्न मेरे मन में उठता रहा है, यह पात्र क्या है? किस जादू से बना है? फकीर हंसने लगा, उसने कहा, किसी जादू से नहीं, इसे आदमी के हृदय से बनाया है। न आदमी का हृदय भरता है, न यह पात्र भरता है।
कहानी तो यहां खत्म हो जाती है। मगर यह कहानी आधी है। मैं तुमसे कहता हूंः यह पात्र भरता है। फकीर कहीं तुम्हें मिल जाए तो मेरे पास ले आना; यह पात्र भरता है। मगर धन से नहीं भरता, सम्राटों से नहीं भरता, बुद्धों से भर सकता है। यह पात्र परमात्मा से भरता है। अरी, मैं तो नाम के रंग छकी! न केवल भर जाता है, ऊपर से बहने लगता है। इतना भर जाता है कि बाढ़ आ जाती है। बांध तोड़कर बहने लगता है। वही तो करुणा है, जो हमने बुद्धों में देखी। इतना भर जाता है भीतर आनंद कि बहने लगता है बाहर, दूसरों तक पहुंचने लगता है। यही तो सत्संग है। जहां किसी का पात्र भर गया हो और बह रहा हो, उसके पात्र के पास बैठ जाना सत्संग है। क्योंकि कुछ बूंदें तुम पर भी पड़ जाएं। एक बूंद भी पड़ जाए तो तुम रंग जाओ। एक बूंद का भी स्वाद आ जाए तो तुम कुछ के कुछ हो जाओ। और के और हो जाओ।
दिल में तुम हो, नज्अ का हंगाम है
कुछ सहर का वक्त है कुछ शाम है

इश्क ही खुद इश्क का इंआम है
वाह क्या आगाज, क्या अंजाम है

पीने वाले एक ही दो हों तो हों
मुफ्त सारा मैकदा बदनाम है

दर्दो-गम दिल की तबीअत बन चुके
अब यहां आराम ही आराम है

भरता है पात्र, लेकिन पीने वालों का भरता है।

पीने वाले एक ही दो हों तो हों
मुफ्त सारा मैकदा बदनाम है

ये जो तुम्हें हजारों साधु-संत दिखाई पड़ते हैं, इनका नहीं भरा है।

पीने वाले एक ही दो हों तो हों
मुफ्त सारा मैकदा बदनाम है

ये मधुशालाओं में, मंदिरों में, मस्जिदों में जितने लोग तुम्हें बैठे दिखाई पड़ रहे हैं, ये सब पियक्कड़ नहीं हैं। एक ही दो हों तो हों, बाकी तो व्यर्थ ढोंग कर रहे हैं। ढोंग से बचो, तो एक दिन तुम्हारे जीवन में भी यह सौभाग्य की घड़ी आए--
अरी, मैं तो नाम के रंग छकी।।
जब तें चाख्या बिमल प्रेमरस, तब तें कछु न सोहाई।
और एक बूंद पड़ जाए उसके प्रेम के रस की, फिर कुछ और नहीं सुहाता--कैसे सुहा सकता है? जिस हंस ने मानसरोवर का जल पिया, वह तुम्हारे गांव की गंदी नालियों और डबरों का जल पीने को राजी हो सकेगा? जिसने आकाश की मुक्ति जानी, वह तुम्हारे कारागृहों में, तुम्हारी जंजीरों में आबद्ध होने को राजी होगा? जिसने परमात्मा का जरा-सा स्वाद लिया, इस जगत के सारे स्वाद व्यर्थ हो जाते हैं।
मैं तुमसे यही कहता हूंः त्यागना नहीं है संसार, परमात्मा का रस ले लो, सब छूट जाता है, छोड़ना नहीं पड़ता है। जिसे छोड़ना पड़ता है, वह व्यर्थ ही छोड़ रहा है, उसे अभी रस नहीं मिला। जो कहता हो कि मैंने त्याग किया, समझना कि उसे अभी कुछ मिला नहीं। जिसे मिल गया है, वह त्याग करता नहीं, त्याग हो जाता है। जैसे हाथ में कंकड़-पत्थर भरे हों और अचानक हीरों की खदान मिल जाए, तो क्या तुम कंकड़-पत्थरों का त्याग करोगे? याद ही न आएगा कब हाथ से गिर गए कंकड़-पत्थर! कौन हिसाब रखेगा? क्या तुम गिनती करोगे कि कितने पत्थर मैंने छोड़े? भर लोगे मुट्ठी हीरे-जवाहरातों से!
इसलिए मैं तुमसे कहता हूंः त्याग की प्रक्रिया नकारात्मक है। और उसी के कारण धर्म मुर्दा हो गया है। मैं तुम्हें परमात्मा का भोग सिखाता हूं, संसार का त्याग नहीं। और परमात्मा का भोग आ जाए तो संसार का त्याग अपने से घटता है। जिसको श्रेष्ठ मिलने लगे, निकृष्ट अपने-आप छूट जाता हैः निकृष्ट को छोड़ने से श्रेष्ठ नहीं मिलता--याद रखना; बार-बार दोहराता हूं, याद रखना--निकृष्ट को छोड़ने से श्रेष्ठ नहीं मिलता। तुम अपने हाथ के कंकड़-पत्थर छोड़ दोगे, इससे हीरे नहीं मिल जाएंगे। ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। लेकिन श्रेष्ठ के मिलने से निश्चित ही निकृष्ट छूटता है। दीया जल जाए तो अंधेरा अपने-आप समाप्त हो जाता है। ऐसे ही परमात्मा का भोग है। मैं तुम्हें भोग सिखाता हूं। मैं तुमसे कहता हूंः अभी तुमने जिसे भोग समझा है, वह भोग नहीं है, भ्रांति है।
जबतें चाख्या बिमल प्रेमरस, तब सें कछु न सोहाई।
रैनि दिना धुनि लागि रहीं, कोउ केतौ कहै समुझाई।।
फिर कोई कितना ही समझाए, फिर कोई लाख प्रलोभन दे, फिर कुछ रस इस संसार में पड़ नहीं सकता। फिर धन के अंबार लगे रहें, फिर पद के लिए कितने ही प्रलोभन आते रहें, फिर संसार कितने ही पुरस्कार दे, कुछ अंतर नहीं पड़ता। उसके रस की एक छोटी सी बूंद ऐसा भर जाती है कि फिर जगह ही नहीं बचती, और भरने का कोई सवाल ही नहीं होता।
पहले शराब जीस्त थी अब जीस्त है शराब
कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूं मैं
पहले तो शराब ही जिंदगी थी। अलग-अलग ढंग की शराबें हैं। इसीलिए तो हमने पद को भी शराब कहा है, पद-मद। राजनीति एक शराब है। भयंकर शराब है। धन को भी कहा हैः धन-मद। धन भी एक शराब है। जिसको पकड़ लेती है, छोड़ती नहीं। दौड़ता ही रहता है आदमी जिंदगी भरः और, और, अंत नहीं आता है। तरह-तरह की शराबें हैं।
पहले शराब जीस्त थी अब जीस्त है शराब
एक बार उसकी बूंद उतर जाए तो रूपांतरण होता है। पहले शराब ही जिंदगी थी, अब जिंदगी ही शराब हो जाती है।
कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूं मैं
और उसके अज्ञात हाथ ढाले चले जाते हैं। इसलिए तो सूफी फकीर उसको साकी कहते हैं। अस्तित्व को मधुशाला कहते हैं। उसके रस को शराब कहते हैं। उमर खय्याम का वही अर्थ नहीं है जो तुम उमर खैयाम की किताब पढ़कर समझ लेते हो। उमर खय्याम एक सूफी बुद्ध है। उमर खय्याम कोई साधारण कवि नहीं है। अपमानजनक है यह बात कि शराबखानों के नाम लोगों ने रख लिए हैंः ‘उमर खययाम,’ या ‘रुबाइयात।’ शराब प्रतीक है। उमर खैयाम एक पहुंचा हुआ फकीर है। उसके प्रतीक गलत समझ लिए गए हैं।
रैनि दिना धुनि लागि रहीं, ...
फिर सोते, उठते, जागते, बैठते एक ही धूम लगी रहती हैः उसकी ही याद, उसकी ही याद बनी रहती है। उसकी याद का दीया भीतर जगमगाता रहता है।
...  कोई केतौ कहै समुझाई।।
नाम पियाला घोंटि कै, कछु और न मोहिं चही।
अब कुछ और चाहना नहीं है। उसे पी लिया जिसने, श्रेष्ठतम को जिसने चख लिया, फिर और सब चाह चली जाती है।
जैसा वो चाहते हैं, जो कुछ वो चाहते हैं
आती हैं, मेरे दिल से लब तक वही दुआएं
अब तो वह जो चाहते हैं, जैसा चाहते हैं, वैसा हो रहा है। भक्त स्वयं नहीं जीता, परमात्मा को स्वयं के भीतर से जीने देता है।
इसलिए कृष्ण ने अर्जुन से कहा हैः छोड़-छाड़ और सब; आ मेरी शरण! ‘सर्वधर्मान परित्यज्य... ’ छोड़-छाड़ सब धर्म; आ मेरी शरण... ‘मामेकं शरणं व्रज’, मुझ एक की शरण आ जा। किस एक की बात कर रहे हैं कृष्ण? उस एक की बात कर रहे हैं जिसको उपनिषदों ने कहा हैः वह तो एक है लेकिन ज्ञानी अनेक नामों से उसे पुकारते हैं। कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि ‘मुझ कृष्ण’ की शरण आ। कृष्ण यह कह रहे हैंः ‘मुझ एक’ की शरण आ। वह ‘एक’ तो एक ही है। मेरे भीतर भी वही है, तेरे भीतर भी वही है। उस ‘एक’ की शरण आ। और छोड़-छाड़ सब धर्म! बड़ी अधार्मिक बात समझा रहे हैं, ‘सर्वधर्मान परित्यज्य’। छोड़ सब धर्म इत्यादि। डुबकी मार ले, झुक जा, झुक जा यानी अहंकार छोड़ दे, फिर सब हो जाएगा। फिर सब चाहत मिट जाती है।
जैसा वो चाहते हैं, जो कुछ वो चाहते हैं
आती हैं मेरे दिल से लब तक वही दुआएं
अब तो मैं प्रार्थना करता हूं, यह भी कहना ठीक नहीं। वही जो प्रार्थना करवा लेते हैं, मुझसे आती है, मेरे ओठों तक आती है।
इक जामे-आखिरी तो पीना है और साकी
अब दस्ते-शौक कांपे या पांव लड़खड़ाएं
अब जो भी हो, अब तो पीना है! अब दस्ते-शौक कांपे या पांव लड़खड़ाएं। फिर भक्त चिंता नहीं करता कि क्या परिणाम हो रहा है? लोग हंसते हैं कि लोग पागल समझते हैं? मीरा को लोगों ने पागल समझा। चैतन्य को लोगों ने पागल समझा। मेरे पास तुम आए हो, तुम्हें लोग पागल समझेंगे।
इक जामे-आखिरी तो पीना है और साकी
अब दस्ते-शौक कांपे या पांव लड़खड़ाएं
जब डोरी लागी नाम की तब केहिकै कानि रही।।
और जिसकी भी डोर उससे जुड़ गई, उसकी लोकलाज कब रही? उसकी मर्यादा कहां रही? उसे तो पागल सदा ही समझा गया है। उसे तो बावला समझा गया है। ‘तब केहिकै कानि रही।’ फिर कोई प्रतिष्ठा नहीं रह जाती इस तथाकथित दुनिया में।
ध्यान रखना, इस दुनिया ने सदा वास्तविक धार्मिक आदमी की निंदा की है। सूली दी है उसे, पत्थर मारे हैं उसे, अपमान किया है उसका। और इस दुनिया ने झूठे धार्मिक आदमी की बड़ी पूजा की है। यह बड़ी उल्टी बात है। लेकिन उल्टी, अगर समझो न। अन्यथा बिल्कुल ठीक है, गणित साफ है। यह दुनिया धर्म से बचना चाहती है। हां, धर्म के धोखे से इसे कोई डर नहीं है। पंडित-पुरोहित चलेगा; यज्ञ-हवन करनेवाले चलेंगे, साधु-संत जो इसी को सहारा दे रहे हों, वे भी चलेंगे, जो इसी दुनिया के व्यवस्था के अंग हैं, इसी दुनिया के न्यस्त स्वार्थों को सहयोग दे रहे हैं, वे भी चलेंगे। लेकिन जैसे ही कोई धार्मिक व्यक्ति पैदा होगा, कोई जिसके भीतर से परमात्मा बोले, वैसे ही अड़चन शुरू हो जाएगी। क्योंकि वह न्यस्त स्वार्थों का साथ नहीं देगा। समाज की मान्यताओं के अनुकूल नहीं होगा। वह तो सत्य कहेगा। और सत्य तुम्हारे झूठों को कंपा देते हैं। वह तो सत्य जीएगा और सत्य तुम्हारे पाखंडों को तोड़ देते हैं। और तब अड़चन शुरू हो जाती हैं।
जीसस को तुमने सूली दी। सूली देकर तुमने जाहिर किया कि जीसस ने कुछ बात कही थी जिससे तुम्हारा भवन थरथरा गया था। तुमने सुकरात को जहर पिलाया, जाहिर किया कि सुकरात जरूर कुछ खबर ले आया था दूर की, गहरी, नहीं तो तुम जहर पिलाने की झंझट न करते। तुमने मंसूर को मारा, तुमने खबर दी कि मंसूर के ओंठों से परमात्मा बोल गया था, तुम बरदाश्त न कर सके।
तुमने परमात्मा को कभी बरदाश्त नहीं किया। क्यों? क्योंकि तुम्हारी जिंदगी ऐसी है कि अगर परमात्मा को तुम सुनो और समझो और बरदाश्त करो, तो तुम्हें अपनी जिंदगी बदलनी पड़े। और जिंदगी तुम बदलना नहीं चाहते। तुम साधु-संतों के पास सांत्वना के लिए जाते हो, संक्रांति के लिए नहीं। तुम जाते हो मलहम-पट्टी के लिए, क्रांति के लिए नहीं। तुम जाते हो कि तुम्हारे घावों पर वे गुलाब का फूल रख दें कि घाव दिखना बंद हो जाए।
मेरे एक मित्र थे। बड़े राजनेता थे। उनके बेटे की मृत्यु हो गई, वह बड़े परेशान थे, मेरे पास आए। रोने लगे। मैंने उनसे कहाः व्यर्थ रो रहे हैं, बेटा मर गया, तुम भी मरोगे। वह तो एकदम नाराज हो गए! पचहत्तर साल के बूढ़े आदमी थे। कहा, आप इस तरह की बात बोलते हैं? मैं आचार्य तुलसी के पास गया, तो आचार्य तुलसी ने कहा, आप चिंता न करें, आपका बेटा मर कर देवलोक में देवता हुआ है। और आचार्य तुलसी ने आंखें बंद कीं और देवलोक गए और खबर दी कि बेटा देवलोक में देवता हो गया है।
उनका बेटा मंत्री था। मैंने कहा, हद्द हो गई, मंत्री और देवलोक! कुछ गलती हो गई, आचार्य तुलसी किसी दूसरी जगह पहुंच गए। मैं एक फकीर को जानता हूं, आप उसके पास जाएं, उसकी बड़ी गति है स्वर्ग-नरक वगैरह में जाने की।
वह फकीर वहीं मेरे पास ही रहते थे। कभी-कभी मेरे पास आते थे। उनको मैंने बता दिया कि ये आएं सज्जन तो तुम बता देना, इस-इस तरह बता देना।
वह गए। उस फकीर ने भी आंखें बंद कीं, बड़ा दूर निकल गया, और उसने कहा कि आपका एक बगीचा है फलां-फलां गांव में। उन्होंने कहा, हां, है! उसमें एक पीपल का झाड़ है? हां, है! उसी पीपल के झाड़ पर आपका बेटा भूत होकर बैठा है। उन्हें तो भरोसा ही नहीं आया कि यह फकीर को पता कैसे चला!! क्योंकि इसको तो कुछ मालूम ही नहीं है, मेरे गांव का, मेरे झाड़ का। और झाड़ है झंझटी। उसके बाबत कहानियां भी थीं। मैं तो उनके बगीचे को जानता था, आता-जाता था, तो मैंने फकीर को सब समझा दिया था कि झाड़ का वर्णन भी कर देना, स्थान भी बता देना कि ऐसा-ऐसा है, ऐसे स्थान पर है।
वह मेरे पास भागे आए, उन्होंने कहा कि यह भी किसके पास भेज दिया! आचार्य तुलसी ही ठीक कहते हैं। यह आदमी गलत है। मगर फिर भी उनको चिंता तो थी, फिर भी कहने लगे, एक बात जरूर है कि इसको पता कैसे चला कि मेरा बगीचा, उसमें पीपल का झाड़, इस-इस दिशा में उस झाड़ के पास कुआं, उस झाड़ की इस तरह की शाखाएं--इसको यह कैसे पता चला? मैंने कहा, इसकी भी बड़ी गति है। यह आंख बंद करके कहीं भी चला जाता है। मगर उन्होंने कहा, बात मुझे तुलसी जी की ही जमती है।
बात हमें वही जमती है जो हम चाहते हैं कि होनी चाहिए। मेरी बात उन्हें अच्छी नहीं लगी; मैंने कहा, तुम भी मरोगे; इसलिए बेटा मर गया इसमें अब व्यर्थ रोने-धोने में समय मत गंवाओ, याद करो कि तुम्हारी मौत भी आती होगी। जब बेटा भी गया तो बाप कैसे रुकेगा? पर उन्होंने कहा कि मैं ऐसी आशा नहीं करता था। मैं सांत्वना के लिए आया था। मैंने कहा कि मैं तुम्हें सत्य दे रहा हूं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि जब बेटा मरा है तो इस मौके को चूको मत। इस याद को गहरा बैठ जाने दो, तीर की तरह चुभ जाने दो। अब तुम भी जल्दी तैयारी करो; अब पार्लियामेंट जाने की और चिंता न करो दुबारा... चालीस साल से मेम्बर थे वह पार्लियामेंट के। अंग्रेजों के जमाने से वह पार्लियामेंट के मेम्बर होते रहे थे। अंग्रेज चले गए, तब भी वह मेम्बर होते रहे। वह पार्लियामेंट के सबसे पुराने मेम्बर थे। उनको पार्लियामेंट का पिता कहा जाता था। और वह फिर भी तैयारी कर रहे थे। और वह नहीं माने! बेटा मर गया मगर उन्होंने चुनाव फिर लड़ा। वह पार्लियामेंट के मेम्बर रहते ही रहते मरे। मेरी बात उन्हें जंची नहीं, उस दिन के बाद मेरे पास नहीं आए, क्योंकि उन्हें चोट लग गई बहुत। कि वह तो आए थे कि मैं कहूंगा कि बेटा स्वर्ग गया, देवता हो गया, इत्यादि-इत्यादि; और मैंने कह दियाः तुम भी मरोगे!
तुम ख्याल रखना, तुम उन साधु-संतों की पूजा करते हो जो तुम्हारे चित्त को सुलाते रहते हैं--लोरी गा-गा कर सुनाते रहते हैं, जो तुम्हें सुलाते रहते हैं। जो तुम्हें जगाएगा, उसे तुम फांसी दोगे। जिसने तुम्हें जगाया, उसके साथ तुमने दुर्व्यवहार किया। तुम जगना नहीं चाहते हो। तुम अपने सपनों में खूब मस्त हो। तुम अपने सपनों में बड़ा रस ले रहे हो। हालांकि सपने सब झूठे हैं। इसलिए जो जानता है, वह तुम्हें जगाएगा ही। वह कहेगा, कितना ही सुंदर सपना तुम देख रहे हो, मगर सपना सपना है। उठो!
जब डोरी लागी नाम की, तब केहि कै कानि रही।।
और जिसकी भी डोरी लग गई परमात्मा से, उसकी ही झंझट होने लगती है संसार में। फिर उसकी मर्यादा नहीं रह जाती। लोग तो सम्मान झूठ का करते हैं। लोग पूजा भी झूठ की करते हैं। लोग पूजा भी प्रपंच और पाखंड की करते हैं। नग्न सत्य तिलमिलाता है। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है भक्त को!
वाह रे शौके-शहादत कूए-कातिल की तरफ
गुनगुनाता, रक्स करता, झूमता जाता हूं मैं
वाह रे शौके-शहादत...
भक्त तो मिटना चाहता है परमात्मा में, भक्त ने थोड़ा-सा अनुभव किया है, .जरा क्षणभर को मिटकर जाना है, अब वह पूरा मिटना चाहता है...
वाह रे शौके-शहादत कूए-कातिल की तरफ
गुनगुनाता, रक्स करता, झूमता जाता हूं मैं

जो यहि रंग में मस्त रहत है, तेहि कैं सुधि हरना।
उनको तो सुध ही नहीं रह जाती संसार की। न अपनी सुधि रह जाती। उनकी तो सब सुधि जाती है। जो उसके रंग में मस्त हो जाते हैं, उनको तो बस उसकी ही सुधि रहती है और कुछ सुधि नहीं रह जाती। फिर कौन अपमान करता, कौन सम्मान करता, भेद नहीं पड़ता।
मंसूर को जब मारा गया, उसके हाथ-पैर काटे गए, तब भी वह आकाश की तरफ देख कर खिलखिला कर हंसा। भीड़ में से किसीने पूछा कि मंसूर, हंसने का कारण? तो उसने कहा कि परमात्मा को देख रहा हूं, यह थोड़ी सी बाधा थी शरीर की, यह भी तुम छीन ले रहे हो। यह थोड़ा सा पर्दा था, यह भी गिरा, इसलिए हंस रहा हूं खिलखिला कर हंस रहा हूं। तुम सोच रहे हो कि तुम मेरी दुश्मनी कर रहे हो, तुम मुझे नुकसान पहुंचा रहे हो? तुम नासमझ हो। तुम आखिरी पर्दा छीने ले रहे हो। तुम्हारी बड़ी कृपा, तुम्हारा धन्यवाद!
गगन-मदिल दृढ़ डोरि लगावहु, जाहि रहौ सरना।।
और जिसको यह जरा सा स्वाद मिलना शुरू होता है, वह फिर अपने शून्य के अंदर विराजमान हो जाता है। मिट जाना है शून्य हो जाना है। शून्य होना भक्त की साधना है। सारी साधनाओं का सार हैः शून्य। मिट जाना, न हो जाना। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, इस भाव से परिपूर्ण रूप से भर जानाः बस उसी क्षण--जिस क्षण यह बात वास्तविक हो जाएगी, सिर्फ वचन नहीं होगा, शब्द नहीं होंगे, वाणी ही नहीं होगी; जिस दिन तुम्हारे हृदय में यह गूंज बैठ जाएगी कि मैं नहीं हूं--अनुभवगत, अस्तित्वगत--उसी क्षण परमात्मा उतर आता है। उस क्षण पूर्ण उतर आता है। शून्य हो जाओ और पूर्ण को पा लो। पूर्ण को पाने की बस एक ही शर्त हैः शून्य हो जाना।
निर्भय ह्वैकै बैठि रहौं अब, ...
और तुम शून्य हो गए और पूर्ण का विराजमान होना हो गया, फिर निर्भय ह्वैकै बैठि रहो, फिर कोई भय नहीं। न मौत है, न कोई भय है, न कुछ छीना जा सकता है, न कुछ चुराया जा सकता है। तुम्हारी शाश्वत सम्पदा है फिर। तुम सम्राट हो। तुम अमृत हो।
निर्भय ह्वैकै बैठि रहौं अब, मांगौ यह बर सोई।।
जगजीवन विनती यह मोरी, फिरि आवन नहिं होई।।
फिर बैठ जाओ निर्भय होकर। एक ही विनती उठती रहती है कि अब दुबारा इस झंझट में पड़ना न हो। इस भ्रांति में, इस स्वप्न में दुबारा उतरना न हो।
मेरा जो हाल हो सो हो, बर्के-नजर गिरा जा
मैं युंही नालाकश रहूं तू युंही मुस्कराए जा

जहजा-ब-लहिजा, दम-ब-दम, जल्वा-ब-जल्वा आए जा
तिश्ना-ए-हुस्ने जात हूं तिश्नालबी बढ़ाए जा

जितनी भी आज पी सकूं उज्र न कर पिलाए जा
मस्त नजर का वास्ता, मस्ते-नजर बनाए जा

लुत्फ से हो कि कहर से होगा कभी तो रूबरू
उसका जहां पता चले शोर वहीं मचाए जा
पुकारो। जहां पता चले। गुलाब के फूल में पता चले, पुकारो वहीं, मंदिर-वंदिर जाने की जरूरत नहीं है। चांद-तारों में दिखाई पड़े, पुकारो उसे। किन्हीं की आंखों में दिखाई पड़े, पुकारो उसे। झुक जाओ वहीं, जहां उसके सौंदर्य की झलक मिले। झुक जाओ वहीं, जहां जीवन की धारा हो। एक वृक्ष के पास झुक जाओ, वहां परमात्मा हरा है। एक नदी के तट पर झुक जाओ, वहां परमात्मा गतिमान है। सूरज, उगते सूरज के सामने झुक जाओ, वहां परमात्मा फिर एक नई सुबह बनकर प्रकट हो रहा है।
लुत्फ से हो कि कहर से होगा कभी तो रूबरू
और फिकर मत करो, खुश होकर होगा सामने, या तुम शोर मचाते रहे तो नाखुश होकर सामने हो जाएगा--कोई फिकर नहीं--उसका जहां पता चले शोर वहीं मचाए जा।
जितनी भी आज पी सकूं उज्र न कर पिलाए जा
मस्त नजर का वास्ता, मस्ते-नजर बनाए जा

लहजा-ब-लहजा, दम-ब-दम, जल्वा-ब-जल्वा आए जा
तिश्ना-ए-हुस्ने-जात हूं तिश्नालबी बढ़ाए जा
भक्त जो कहता है, बस मेरी प्यास को गहन करते जाओ। भक्त और कुछ नहीं मांगता। भक्त मांगता हैः मेरी प्यास को गहरा करो। भक्त कहता हैः मेरी प्यास को ऐसा परिपूर्ण कर दो कि मैं प्यास ही प्यास रह जाऊं, पुकार ही पुकार रह जाऊं, प्रार्थना ही प्रार्थना रह जाऊं। यह जरूरी नहीं है कि शब्दों में ही कही जाए बात। कभी भक्त शब्दों में कहता है, कभी चुप भी कहता है। जैसा जब घट जाता है।
अर्जे-नियजे-गम को, लब-आशना न करना
ये भी इक इल्तिजा है, कुछ इल्तिजा न करना
कुछ न कहना भी कहने का ढंग है। शायद कहने का सबसे गहन ढंग हैः चुप रहना। तो भक्त कभी बोलता, परमात्मा से निवेदन करता, कभी चुप रह जाता, बिल्कुल चुप रह जाता है। सन्नाटे में बैठ जाता है।
उसे सैयाद ने कुछ, गुल ने कुछ, बुलबुल ने कुछ समझा
चमन में कितनी मानीखेज थी इक खामुशी मेरी
वह चुप हो जाता है, फिर कोई कुछ समझे!
उसे सैयाद ने कुछ गुल ने कुछ, बुलबुल ने कुछ समझा
चमन में कितनी मानीखेज थी इक खामुशी मेरी
मौन में जितना अर्थ है, उतना किसी शब्द में नहीं है। तो कभी भक्त गाता, कभी खामोश। कभी नाचता, कभी बैठा रहता। लेकिन जीता है स्वस्फूर्ति से। स्वस्फूर्ति शब्द को याद रखना। उपचार से नहीं, व्यवस्था से नहीं, अनुशासन से नहीं, स्वस्फूर्ति से। ऐसा करना चाहिए, इसलिए नहीं करता है कुछ, जैसा जब सहज होता है वैसा करता है। साधो सहज समाधि भली।
मैं तोहिं चीन्हा, अब तौ सीस चरन तर दीन्हा।।
मैं तुझे पहचान गया। अब यह सिर तेरे चरन रख देता हूं। अब इसके बोझ को न ढोऊंगा।
तनिक झलक छबि दरस देखाय।
जरा सी तूने झलक क्या दिखाई, रूपांतर हो गया, क्रांति हो गई।
तब तें तन-मन कछु न सोहाए।।
अब यह मेरा तन भी ले ले, यह मेरा मन भी ले ले। अब मेरे भीतर तू ही तू हो, मैं कहीं भी न बचूं।
कहा कहौं कछु कहि नहिं जाए। अब मोहि कां सुधि समुझि न आए।।
अब मुझे कुछ समझ नहीं पड़ता। सुकरात ने कहा हैः ज्ञानी वही है, जो जानता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता। भक्त कुछ जानता नहीं। भक्त तो जो जानता था, वह भी बह गया। वह भी आई बाढ़ उसके प्रेम की और सब बहा ले गई कूड़ा-करकट। भक्त तो बिल्कुल निर्दोष हो जाता है।
कहा कहौं कछु कहि नहिं जाए। अब मोहि कां सुधि समुझि न आय।।
होइ जोगिन अंग भस्म चढ़ाय। भंवर-गुफा तुम रहेउ छिपाय।।
अब तो मैं दीवानी हो गई हूं अब तो मैं पागल हो गई हूं, अब तो तुम्हारी धुन बजती रहती है, मेरे हृदय के इकतारे पर बस तुम्हारी धुन बजती रहती है। तुम्हारी जो हल्की-सी झलक मिली है, वह सब कह गई। जो होना था, हो गया है। अब पूरा-पूरा मुझे ले लो। अब जरा भी मुझे छोड़ो मत। अब रंचमात्र भी मेरा जीवन ऐसा न हो जो तुमसे रिक्त हो। और मैं जानता हूं कि तुम कहां छिपे हो। अब मैं पहचान गया हूं। ‘मैं तोहिं चीन्हा,’ अब तो पहचान हो गई। ‘भंवर-गुफा तुम रहेउ छिपाय,’ मेरे ही हृदय की गुफा में छिपे बैठे थे और मैं तुम्हें कहां-कहां खोजता फिरा। मैंने कहां-कहां नहीं तुम्हारे लिए तलाश की! काबा में और काशी में और कैलाश में और गिरनार में, मैंने कहां-कहां नहीं तुम्हें खोजा, और तुम मेरे भीतर छिपे बैठे थे! मेरी खोज इसीलिए व्यर्थ होती रही; क्योंकि तुम खोजनेवाले में ही छिपे थे। तुम मेरे स्वरूप हो। ‘मैं तोहिं चीन्हा।’ ‘भंवर-गुफा तुम रहेउ छिपाय।’
खुद अपने ही सोजे-बातिनी से निकाल कर इक शम्ए-गैरफानी
चिरागे-दैरो-हरम तो ऐ दिल, जला करेंगे बुझा करेंगे
ये मंदिरों-मस्जिदों में जो चिराग जल रहे हैं, ये तो पलते हैं, बुझते हैं, एक ऐसा भी चिराग है जो अपने भीतर छिपा है, जो न जलता, न बुझता; जो सदा है, शाश्वत है। अगर कुछ करना ही हो ज्योति पैदा, तो अपने हृदय में ही करो।
खुद अपने ही सोजे-बातिनी से निकाल कर इक शम्ए-गैरफानी
एक न मिटने वाली लपट तुम्हारे भीतर है। पुकारो! जगाओ!

चिरागे-दैरो-हरम तो ऐ दिल, जला करेंगे बुझा करेंगे
मंदिर-मस्जिदों के चिराग तो जलते हैं और बुझ जाते हैं, एक ऐसा भी चिराग है जो तुम हो--बिन बाती बिन तेल--वहां न तेल की जरूरत है, न बाती की जरूरत है, वहां रोशनी जलती है अकारण। और जो अकारण है, वही शाश्वत है। कारण होगा तो कभी न कभी चुक जाएगा कारण। तेल चुकेगा तो फिर बाती भी चुक जाएगी, फिर दीया बुझेगा। मंदिर-मस्जिदों में आदमी के बनाए हुए दीए जल रहे हैं, उनमें मत भटक जाना। तुम्हारे हृदय की गुफा में ही परमात्मा का जलाया हुआ दीया जल रहा है।
जगजीवन छवि बरनि न जाए।
और जब तुम उस ज्योति में विराजमान हो जाओगे, अपने ही हृदय में बैठोगे, ‘जगजीवन छवि बरनि न जाय,’ तब जिस सौंदर्य का तुम पर आविर्भाव होगा, जो सौंदर्य बरस जाएगा तुम पर, उसकी भाषा में कोई अभिव्यक्ति न हुई है, न हो सकती है। ‘जगजीवन छवि बरनि न जाए।’ उसका वर्णन नहीं होता। अनिर्वचनीय है वह।
नैनन मूरति रही समाय।।
दिखाई पड़ते हो, पहचान आते हो, कहे नहीं जाते। गूंगे का गुड़।
भक्त कुछ और मांगता भी नहीं। बस, ‘नैनन मूरति रही समाय।’
वहां भी आहें भरा करेंगे, वहां भी नाले किया करेंगे
जिन्हें है तुझसे ही सिर्फ निस्बत, वो तेरी जन्नत को क्या करेंगे।
उन्हें स्वर्ग से कोई प्रयोजन भी नहीं है। वे किसी और सुख की आकांक्षा भी नहीं करते। उनकी तो आकांक्षा एक ही है कि जो है, वह आंखों में समा जाए; जो है, उससे पहचान हो जाए।
रहिउं मैं निरमल दृष्टि निहारी।
और उसको देखते ही बस अवाक, ठिठक कर रह जाता है भक्त। ‘रहिउं मैं निरमल दृष्टि निहारी।’ और उसको देखते ही सब मल कट जाते हैं, दृष्टि निर्मल हो जाती है, निर्दोष हो जाती है, पारदर्शी हो जाती है।
ए सखि मोहिं ते कहिए न आवै, कस-कस करहुं पुकारी।।
कहना चाहती हूं, कह नहीं पाती। पुकार-पुकार कर कहना है। ए सखि मोहिं ते कहिय न आवै, कस-कस करहुं पुकारी।
तुम्हें पता नहीं है, जिन्होंने जाना है, उन्हें एक बड़ी दुविधा का सामना करना पड़ता है। जान लेते हैं, मगर जना नहीं पाते। स्वाद तो मिल गया, लेकिन कैसे कहें औरों से? और कहने की एक अनिवार्यता मालूम पड़ती है।
बुद्ध ने कहा हैः ध्यान की अनिवार्य परिणति है प्रज्ञा, और प्रज्ञा की अनिवार्य परिणति है करुणा। जिसने ध्यान किया, उसने जाना। और जिसने जाना, उसके भीतर एक अभीप्सा पैदा होती है कि औरों को भी जना दूं, क्योंकि कितने हैं अनंत-अनंत लोग जो अंधेरे रास्तों पर भटक रहे हैं, पुकारूं उनको भी कह दूं कि मत भटको, तुम्हारे हृदय में बैठा है, कहां जा रहे हो? काबा? काशी? और वह तुम्हारे भीतर बैठा है। मैं भी खूब भटका हूं, मत भटको, मैंने उसे अपने भीतर पा लिया है, तुम भी पा लो... जरा न.जर भीतर मोड़ो।
तो पुकार-पुकार कर, चिल्ला-चिल्ला कर भक्त कहता है। हालांकि जानता है हर बार कि जो कहा, वह वही नहीं है जो जाना। शब्द बड़े छोटे हैं, अनुभव बड़ा विराट है।
जीसस ने कहा है अपने शिष्यों को कि जाओ, चढ़ जाओ मकानों की मुंडेरों पर और चिल्ला-चिल्ला कर कहो। शायद कोई सुन ले। फिर भी ख़याल रखना, कहा है, शायद कोई सुन ले! जिनके पास आंखें हैं, वे देख लेंगे और जिनके पास कान हैं, वे सुन लेंगे। लेकिन मुश्किल से किसी के पास आंख है, मुश्किल से किसी के पास कान है। आंखें दिखाई पड़ती हैं, मगर हैं कहां? बाहर देखनेवाली आंख कोई आंख तो नहीं। जो भीतर ही नहीं देख सकती, वह भी कोई आंख है! बाहर की आवाज सुन लेनेवाले कान कोई कान तो नहीं। जो अपने ही भीतर की आवाज नहीं सुन पाए, वे भी कोई कान हैं। लोग आंख के होते हुए अंधे हैं, कान के होते हुए बहरे हैं।
लेकिन भक्त को एक अनुभव होता है, गूंज उठती है कि पुकार दूं, सबको जगा दूं, सबकी कह दूं... कहता भी है, इसी पीड़ा से तो ये गीत जन्मे हैंः अरी, मैं तो नाम के रंग छकी!
रहिउं मैं निरमल दृष्टि निहारी।
ए सखि मोहिं ते कहिए न आवै, कस-कस करहुं पुकारी।।
रूप अनूप कहां लगि बरनौं, डारौं सब कुछु वारी।’
सब निछावर करने को तैयार हूं, अगर कह पाऊं। मगर वह रूप अनूप है। कैसे उसका वर्णन हो? कहां से लाऊं शब्द, कहां से जुटाऊं रंग, कैसे बनाऊं उसकी मूरति? किस भांति कह दूं कि जिन्हें पता नहीं, उन्हें पता चल जाए? ताकि वे व्यर्थ ही जन्मों-जन्मों तक भटकते न रहें।
बुद्ध को ज्ञान हुआ, सात दिन तक वे चुप रहे। कहानी बड़ी प्रीतिकर है। आकाश के देवता बहुत घबड़ा गए। बुद्ध और चुप रह जाएंगे! तो न मालूम कितनों का उद्धार अवरुद्ध हो जाएगा। देवता आए और उनके चरणों में झुके।
समझ लेना, कहानी प्रतीक है। कोई ऐतिहासिक बात नहीं कह रहा हूं, सांकेतिक है, काव्य है, इतिहास नहीं। मगर बड़ा अद्भुत है अर्थ। चरणों में झुके और बुद्ध को कहाः आप बोलें; आप बोलें, आप चुप क्यों हैं, सात दिन हो गए! और बुद्ध ने कहाः क्या होगा बोलने से? कौन समझेगा? पहली तो अड़चन यह, कौन समझेगा? दूसरी अड़चन यह है कि कैसे कहूंगा? कहने के लिए शब्द नहीं हैं। बुद्ध जैसे व्यक्ति के पास शब्द नहीं हैं, तो बिचारे जगजीवन की तो क्या बिसात! कबीर की तो क्या बिसात! कबीर तो गरीब जुलाहा। शब्दों की संपदा भी बड़ी सीमित है कबीर की। जुलाहे जितने शब्द जानते हैं वही शब्द कबीर के हैं। इसीलिए तो--‘झीनी झीनी बीनी रे चदरिया’, ऐसे शब्दों का उपयोग किया है। मगर बुद्ध तो राजपुत्र थे। और इस देश के चरम शिखर पर जब संस्कृति थी तब पैदा हुए थे, इस देश में जो श्रेष्ठतम ज्ञान था, उन्हें उपलब्ध था। उन्होंने भी कहा कि कहूंगा कैसे? रूप अनूप कहां लगि बरनौं। नहीं कहा जा सकेगा। इसलिए झंझट में क्या पड़ना! और फिर मैं कहने की कोशिश करूं, इतनी परेशानी उठाऊं, समझेगा कौन? इसलिए व्यर्थ की झंझट में मैं पड़ना नहीं चाहता। जो समझ सकते हैं, वे मेरे बिना भी समझ लेंगे। और जो नहीं समझ सकते, मेरे कहे-कहे भी न समझेंगे।
देवता इकट्ठे हुए, उन्होंने कहा, अब क्या करें? तर्क तो ठीक ही है? लेकिन कोई तरकीब निकालें। और तरकीब तो सब जगह निकल आती है। तर्क सभी जगह रास्ते खोज लेता है। देवताओं ने खूब विचार-विमर्श किया, फिर बुद्ध के पास आए और कहा कि सुनें, आप ठीक कहते हैं कि कहना मुश्किल है, पूरा नहीं कहा जा सकता, लेकिन कुछ-कुछ झलक तो कही जा सकती है! हो सकता है अंधे को हम प्रकाश के संबंध में कुछ न कह सकें, लेकिन अंधे को भी धूप में खड़ा तो किया जा सकता है। धूप का उत्ताप, शरीर पर पड़ती हुई ऊष्मा, इसका तो उसे अनुभव हो सकता है। नहीं रोशनी के संबंध में हम कुछ कह पाएंगे, लेकिन रोशनी का उत्ताप! यह तो ख्याल में लाया जा सकता है। कुछ तो इशारे हो सकते हैं। पूरा नहीं होगा प्रकट, कुछ-कुछ ही सही--ना-कुछ से तो कुछ भी अच्छा, बेहतर। ना-कुछ से तो कुछ भी हुआ तो ठीक। न सागर समाएगा, बूंद ही आएगी, मगर जो प्यासे हैं उनके लिए बूंद भी सागर है। फिर बूंद के अनुभव से सागर की तलाश शुरू होगी। आप कहें।
और आप कहते हैं कि जो समझ सकते हैं वे मेरे बिना भी समझ लेंगे। यह सच है। और आप कहते हैं, जो नहीं समझेंगे वे मेरे कहे-कहे भी नहीं समझेंगे। यह भी सच है। लेकिन दोनों के मध्य में भी कुछ लोग हैं। आप कह देंगे तो समझ लेंगे, आप न कहेंगे तो पता नहीं कितनी देर में समझ पाएंगे! उन लोगों का भी ध्यान करें जो किनारे पर खड़े हैं, जरा सा धक्का लग जाएगा और छलांग हो जाएगी।
बुद्ध इसका उत्तर न दे सके। यह बात तो समझ में बुद्ध को भी आई। स्वीकार किया। बयालीस वर्ष तक बोलते रहे सतत, सुबह-सांझ-दोपहर, समझाते रहे। और देवताओं ने ठीक ही कहा था, और बुद्ध ने गलत नहीं कहा था। हजारों को कहा, एकाध-दो समझे। बुद्ध ने भी ठीक ही कहा थाः कौन समझेगा? देवताओं ने भी ठीक ही कहा था कि हजारों को कहेंगे, एकाध भी समझा तो भी कोई तो समझा!
फिर दीये से दीया जलता रहेगा। और बुद्ध की धारा जीवित रही है। अब भी दीये से दीये जलते रहे हैं। कोई न कोई समझता रहा है।
रूप अनूप कहां लगि बरनौं डारौं सब कुछु वारी।
जगजीवन कहते हैं, सब निछावर करने को तैयार हूं, काश, कह पाता! काश उस अवर्णनीय का थोड़ा-सा वर्णन कर पाता! जिन्होंने जाना है, वे गूंगे हो गए हैं। ओर जिन्होंने नहीं जाना है, वे बड़े मुखर हैं। पंडित-पुरोहित-मुल्ला-मौलवी बहुत मुखर हैं।
इस बात को ख्याल में रखना। पंडित बोले चले जाते हैं। शास्त्रों पर शास्त्र, टीकाओं पर टीकाएं लिखे चले जाते हैं। बिना झिझक। कोई अड़चन ही नहीं है। विवाद किए जाते हैं। न केवल खुद को सही, दूसरे को गलत भी कहे जाते हैं। और पता कुछ भी नहीं है। और जिनको पता है, वे ऐसी बिबूचन में पड़ गए हैं, ऐसी अड़चन में पड़ गए हैं।
आपस में उलझते हैं अब शैखो-विरहमन
काबा न किसी का है न बुतखाना किसी का
पंडित और मौलवी हैं कि लड़ रहे हैं। मंदिर न किसी का है और न मस्जिद किसी की है, मगर लड़ाई-झगड़े चल रहे हैं। मंदिर-मस्जिद को लड़ाया जा रहा है। और जो लड़ानेवाले हैं, इनको कुछ भी पता नहीं है। जिसको पता हो गया, वह तो बड़ा झिझकता है।
महावीर का स्मरण दिलाना उचित होगा। महावीर तो कोई भी वचन बोलते थे तो उसमें स्यात लगा कर बोलते थे। सिर्प इसीलिए, क्योंकि उसे कहा नहीं जा सकता। कुछ-कुछ कहा जा सकता है। थोड़ा-थोड़ा कहा जा सकता है। पूछो महावीर से, ईश्वर है? महावीर कहतेः स्यात्। है भी, नहीं भी है। जो कहते हैं, है, वह भी ठीक कहते हैं। वे भी उसका आधा वर्णन करते हैं। और जो कहते हैं, नहीं है, वे भी ठीक कहते हैं। वे भी उसका आधा वर्णन करते हैं। परमात्मा की उपस्थिति कुछ ऐसी है जैसे शून्य की। तो उसे कोई कहना चाहे, नहीं है--वह भी ठीक ही कहता है।
यह महावीर की अदभुत बात सुनी?
नास्तिक भी आधी बात कहता है, आस्तिक भी आधी बात कहता है। क्योंकि परमात्मा एक अर्थ में है, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। और एक अर्थ में नहीं है; क्योंकि तुम उसे कहीं भी पकड़ न पाओगे। तुम कहीं भी इशारा न कर पाओगे कि यह रहा परमात्मा। उसका न कोई पता है, न ठिकाना है। नहीं जैसा है। बेबूझ है। इसलिए ‘स्यात्।’
रवि ससि गन तेहिं छवि सम नाहीं, ...
भी फीका है--जिसने उसका प्रकाश देखा, उसके समक्ष। चांद में भी वह शीतलता कहां? वह सौंदर्य कहां? --जिसने उसका सौंदर्य देखा, उसके समक्ष।
... जिन केहु कहा विचारी।।
जिन्होंने भी विचार कर कहा है, बहुत विचार कर कहा है, वे भी नहीं कह पाए।
जगजीवन गहि सतगुरु चरना, दीजै सबै बिसारी।।
बस एक ही रास्ता बता सकता हूं, जगजीवन कहते हैं, कहीं कोई सतगुरु मिल जाए तो उसके चरण पकड़ लेना और चरण पर सब छोड़ देना --बस इतना ही कह सकता हूं। फिर मिलना हो जाएगा। सतगुरु यानी कोई ऐसा व्यक्ति जो मिट गया है। जो अब नहीं है। जो एक झरोखा है। जिस झरोखे में से दूर का आकाश दिखाई पड़ता है। तुम उस झरोखे पर समर्पित हो जाना। जगजीवन कहते हैं, और तुमसे कुछ नहीं कह सकता, इतना ही कह सकता हूं--सतगुरु मिले तो चूकना मत!
दिल है कदमों पर किसी के सर झुका हो या न हो
बंदगी तो अपनी फितरत है खुदा हो या न हो

ये जुनूं भी क्या जुनूं, ये हाल भी क्या हाल है
हम कहे जाते हैं, कोई सुन रहा हो या न हो
ज्ञानियों को अक्सर लगा हैः हम कहे जाते हैं, कोई सुन रहा हो या न हो। मगर कभी-कभी कोई सुन लेना है। लाख में एक सुन ले, तो भी काम पूरा हो गया। हजारों को पुकारो और एक आ जाए तो भी पुकार सार्थक हो गई। जगजीवन का सारसूत्र यही हैः ‘जगजीवन गहि सतगुरु चरना,’ इतना ही कह सकता हूं जगजीवन कहते हैं कि सतगुरु के चरण पकड़ लेना। शास्त्रों की शरण जाने से कुछ भी न होगा, क्योंकि शास्त्र तो निर्जीव हैं। उनमें से तुम वही अर्थ कर लोगे जो तुम करना चाहते हो। फिर शास्त्र तुम्हारी बुद्धि में ही समा कर रह जाएंगे, तुम्हारे हृदय को न मथ पाएंगे। शास्त्र से तुम ज्ञानी हो जाओगे और अज्ञान तुम्हारा मिटेगा नहीं। शास्त्र से अंधा आदमी प्रकाश की बात करना सीख जाएगा लेकिन आंखें न खुलेंगी। यह चमत्कार तो सत्संग में ही घटता है। और सत्संग यानी जहां सत्य जीवंत हुआ हो किसी व्यक्ति में।
कैसे पहचानोगे कि कोई सतगुरु है? क्या कसौटी है सतगुरु की? कोई बाहरी कसौटी काम नहीं आती। हिम्मतवर आदमी चाहिए। और बुद्धि को एक तरफ रख कर, हृदय को सामने करके बैठ जाने का साहस चाहिए, बस। हृदय गवाही दे देता है कि आ गया मुकाम। हृदय एकदम बोल देता है कि आ गया मुकाम!
अल्लाह-अल्लाह ये तिरी तर्को-तलब की वुसअतें
रफ्ता-रफ्ता सामने हुस्ने-तमाम आ ही गया

अव्वल-अव्वल हर कदम पर थीं हजारों मंजिलें
आखिर-आखिर इक मुकामे-बेमुकाम आ ही गया

सुहबुते-रिन्दां से वाइज कुछ न हासिल कर सका
बहका-बहका सा मगर तर्जे-कलाम आ ही गया
अगर पीने वाले के पास बैठोगे, ज्यादा कुछ न भी सीख पाए तो थोड़ी-थोड़ी बहकी-बहकी बातें आ ही जाएंगी।
सुहबते-रिन्दां से वाइज कुछ न हासिल कर सका
पियक्कड़ों के पास बैठ कर कुछ न मिला, तो भी कुछ बहकी-बहकी बातें आ जाएंगी।
बहका-बहका सा मगर तर्जे-कलाम आ ही गया

अल्लाह-अल्लाह ये तिरी तर्को-तलब की वुसअतें
रफ्ता-रफ्ता सामने हुस्ने तमाम आ ही गया
मगर बुद्धि से नहीं होगा यह काम। यह हुस्ने-तमाम, यह पूर्ण सौंदर्य, यह परमात्मा की अभिव्यक्ति, यह प्यारे का मिलन बुद्धि से नहीं होगा। बुद्धि के तर्कजाल को रख दो अलग; जहां जूते उतर आते हों, वहीं उसे छोड़ आना चाहिए। इतनी जोखिम जो उठा सकता है, उसी को पता चलता है कौन सतगुरु है, कौन नहीं।
हृदय झूठ बोलता ही नहीं। जैसे हम सोने को कसते हैं न कसौटी के पत्थर पर, ऐसे ही सत्य को कसने की जो कसौटी है, जो पत्थर है, वह हृदय है, बुद्धि नहीं। बुद्धि से कसोगे, उलझन में पड़ोगे।
समझो।
अगर तुम जैन-घर में पैदा हुए हो तो तुम्हारे पास बचपन से बुद्धि में दी गई धारणाएं हैं कि सदगुरु कैसा होना चाहिए। तुम्हें सिर्फ जैन-मुनि ही सदगुरु मालूम पड़ेगा। अगर तुम्हारा कृष्ण से मिलना हो जाए, तुम रास्ता बचा कर निकल जाओगे कि यह कहां का आदमी आ रहा है! यह कैसा आदमी आ रहा है! अगर तुम्हारा जीसस से मिलना हो जाए, तुम्हें पता ही न चलेगा, तुम पास से निकल जाओगे और तुम्हें जीसस के होने का पता न चलेगा। अगर बुद्ध तुम्हारे पास आ जाएं तो भी तुम्हें पता नहीं चलेगा। तुम्हारी बुद्धि में एक धारणा बैठी है कि कैसा होना चाहिए मुनि। नग्न होना चाहिए। और बुद्ध तो नग्न नहीं हैं। और मुनि तो सर्वत्यागी होना चाहिए। और कृष्ण तो मोरमुकुट बांधे हैं। तुम चूक जाओगे। तुमने जो भी धारणाएं बुद्धि से बना रखी हैं, उनकी कसौटी से तुम अक्सर सिर्फ परंपरागत गुरुओं को पकड़ पाओगे। और परंपरागत गुरु सतगुरु नहीं होते। सतगुरु किसी परंपरा का हिस्सा नहीं होता।
इसे तुम याद रखो, सतगुरु सदा ही परंपरा के बाहर होता है। अक्सर तो परंपरा के विपरीत होता है। क्योंकि सतगुरु जीवंत क्रांति है, अंगारा है। कोई परंपरा उसे नहीं सम्हाल सकती। परंपरा तो राख से बनती है। जब अंगारे बुझ जाते हैं और राख पड़ी रह जाती है, तब पूजा शुरू हो जाती है। उसी पूजा से परंपरा बनती है। सद्गुरु तो आग है। जो आग पीने को तैयार है, वही सद्गुरु के पास बैठ सकता है।
बुद्धि कसौटी नहीं है। बुद्धि को एक तरफ रख देना। जैन की बुद्धि, बौद्ध की बुद्धि, मुसलमान की, हिंदू की, एक तरफ रख देना। तुम्हारे पास एक हृदय है जो परमात्मा का दिया है। बुद्धि तो समाज की दी हुई है। वह तो संयोग की बात है। तुम जैन-घर में बड़े हुए, तो जैन-बुद्धि मिल गई। अगर बचपन में ही तुम्हें उठा कर मुसलमान के घर में रख दिया होता, तो तुम्हें कभी पता भी न चलता कि तुम जैन हो। कोई खून-हड्डी-मांस-मज्जा जैन थोड़े ही होते हैं। तुम अपने को मुसलमान मानते। और मुसलमान फकीर ही तुम्हें ज्ञानी मालूम पड़ता। और कुरान तुम्हें एकमात्र किताब मालूम पड़ती। और मस्जिद में ही तुम्हें परमात्मा दिखता, और कहीं न दिखता। यह तो संस्कार है, बुद्धि तो केवल संस्कार है--आदमी के द्वारा निर्मित; समाज के द्वारा आयोजित। हृदय परमात्मा का दिया हुआ है। जन्म के पहले से तुम उसे लेकर आए हो। वह तुम्हारी जो भाव की शुद्ध दशा है, वही पहचान सकती है। वही कसौटी है।
अल्लाह-अल्लाह ये तिरी तर्को-तलब की वुसअतें
रफ्ता-रफ्ता सामने हुस्ने-तमाम आ ही गया

अव्वल-अव्वल हर कदम पर थीं हजारों मंजिलें
आखिर-आखिर इक मुकामें-बबेमुकाम आ ही गया

सुहबते-रिन्दां से वाइज कुछ न हासिल कर सका
बहका-बहका सा मगर तर्जे-कलाम आ ही गया
थोड़ा हृदय तुम्हारा बहकने लगे, थोड़ा हृदय तुम्हारा नाचने लगे, थोड़ा हृदय तुम्हारा आंदोलित होने लगे, वहीं से पहचान है। उसी पहचान के धागे से धीरे-धीरे हुस्ने-तमाम, परिपूर्ण सौंदर्य का अनुभव हो जाएगा।

जगजीवन गहि सतगुरु चरना, दीजै सबै बिसारी।।
और अगर सतगुरु मिल जाए, तो फिर कुछ बचाना मत, सब उसके चरणों में निछावर कर देना।
जो इस तरह सब छोड़ देता है सद्गुरु के चरणों में, वही शिष्य है। इस प्रक्रिया को ही मैं संन्यास कहता हूं।

आज इतना ही।  

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