छठवां-प्रवचन-(अंतर्यात्रा है परमात्मा
प्रश्न-सार
01-॰ प्रभु की पुकार कैसे सुनाई दे?02-॰ सत्यबोध और आत्मानुभूति हेतु साधना से कार्य-कारण-संबंध नहीं बनता, फिर पद्धतिबद्ध साधन-ध्यान करने की क्या आवश्यकता है?
03-॰ प्रवचन से पहले जगजीवन के पदों का पाठ किया गया तो अकस्मात मेरा दिल भर आया और सारे समय आंसू बहते रहे। पदों का पाठ रुका तो मेरे आंसू बंद हुए। इन पदों का मतलब मैं आपके प्रवचन के बाद समझा। भगवान, ऐसा क्यों हुआ?
04-॰ उठूं ऊपर या मनुहार करूं पता नहीं पाता हूं जितना मुट्ठी को कसता हूं दूर चला जाता हूं क्या करूं प्रभु? मार्ग दीजिए!
05-॰आप राजनेताओं का सदा मजाक क्यों उड़ाते हैं? और राजनेता चूड़ीदार पाजामा ही क्यों पहनते हैं?
पहला प्रश्नः प्रभु की पुकार कैसे सुनाई दे?
यह प्रश्न शुभ है। प्रभु को पुकारें कैसे, यह तो बहुत लोग पूछते हैं, प्रभु की पुकार कैसे सुनाई दे, यह कभी-कभी कोई पूछता है। इसलिए प्रश्न महत्वपूर्ण है, विरल है, थोड़ा बेजोड़ है। और सत्य के ज्यादा करीब है।
असली सवाल प्रभु को पुकारने का नहीं है। हमारे पास जबान कहां जिससे हम प्रभु को पुकारें! और हमारी वाणी की सामर्थ्य कितनी? जाएगी थोड़ी दूर और खो जाएगी शून्य में। कितनी यात्रा करेगी हमारी वाणी? और हम जो भी कहेंगे, उसमें कहीं न कहीं हमारी वासना की छाप होगी। हमारी प्रार्थनाएं हमारी वासनाएं ही हैं। और वासनाएं उस तक कैसे पहुंचेगी?
प्रार्थना में वासना छिपी हो तो जैसे पक्षी के कंठ में किसी ने पत्थर बांध दिया। अब उड़ान संभव न हो सकेगी। और हमारी सारी प्रार्थनाएं वासनाओं से भरी होती हैं। प्रार्थना शब्द का अर्थ ही मांगना हो गया। प्रार्थी का अर्थ हो गया मांगने वाला, क्योंकि प्रार्थना के नाम से हम सदा ही मांगते रहे हैं।
इसलिए हम कैसे प्रार्थना करें, इससे झूठा धर्म पैदा होता है। यह सवाल ज्यादा गहरा हैः प्रभु की कैसे पुकार सुनाई दे? प्रभु पुकार ही रहा है, सिर्फ हमारे मस्तिष्क इतने शोरगुल से भरे हैं कि उसकी धीमी सी पुकार, उसकी सूक्ष्म पुकार, उसकी अति सूक्ष्म पुकार हमें सुनाई नहीं पड़ती। नक्कारखाने में उसकी वीणा के स्वर खो जाते हैं। वह वीणावादक है। उसके स्वर बारीक हैं, नाजुक हैं। उसके स्वरों को सुनने के लिए शून्य चित्त चाहिए। जितना शांत चित्त होगा, जितना निर्विचार चित्त होगा, उतनी ही संभावना बढ़ जाएगी, उसके स्वर सुनाई पड़ने लगेंगे।
निर्विचार चित्त में परमात्मा तत्क्षण उतर आता है। जैसे द्वार पर ही खड़ा था, प्रतीक्षा करता था कि कब हम निर्विचार हो जाएं और कब भीतर आ जाए। निर्विचार होते ही हमारा घूंघट उठा देता है; आमना-सामना हो जाता है, दरस-परस हो जाता है। चित्त को निर्विचार करो तो उसकी आवाज सुनाई पड़ेगी। और तब ऐसा नहीं है कि उसकी आवाज कृष्ण की आवाज में ही सुनाई पड़ेगी और राम की आवाज में, बुद्ध की आवाज में ही सुनाई पड़ेगी, इन कौओं की कांव-कांव में भी उसकी ही आवाज है। एक बार उसकी आवाज सुन ली, तो तुम सब जगह उसे पहचान सकोगे। एक बार उसकी छवि आंख में आ गई, तो फिर तुम कहीं भी चूक न सकोगे। फिर कोयल में ही नहीं, कौए की कांव-कांव में भी, सुंदर फूल में ही नहीं, कांटे में भी उसकी ही छवि है। जीवन में ही नहीं, मृत्यु में भी उसका ही नृत्य है। और सुख में ही नहीं, दुख में भी उसकी ही छाया है, उसका ही साथ है। मन चाहिए शांत, शून्य। उसकी आवाज सुननी है तो ध्यान की अवस्था साधनी होगी।
ध्यान का इतना ही अर्थ होता हैः अपने को खाली करना। ध्यान प्रार्थना की तैयारी है। ध्यान पूजा का आयोजन है। ध्यान का अर्थ हैः निर्मल चित्त। ध्यान का अर्थ हैः शांत, सद्यस्नात, अभी-अभी नहाया हुआ, ताजा जैसे सुबह की ओस; एक स्वर नहीं, एक तरंग नहीं, अपना एक भी शब्द नहीं--निःशब्द-- तत्क्षण उसकी आवाज सुनाई पड़ने लगेगी।
फूल हुए पात हुए गंध हुए हम
ऋतुओं के पहले
संबंध हुए हम
एक वृक्ष चींहा-सा
याद बना
पाकर
हम आए दूर बहुत
एक देह
गाकर,
अधरों के छुए अनुबंध हुए हम
ऋतुओं के पहले
संबंध हुए हम
टेर-टेर बांसुरी
बजाई रे
उस पारे
गांव घर मुंडेर जगे
मुंह धोए
भिनसारे,
नींदों के लिए प्रतिबंध हुए हम
ऋतुओं के पहले
संबंध हुए हम
चोंच मांजती चिड़िया
मन में
बिजली-अषाढ़
तिनके-सा अपनापन
अपनी यह
नदी बाढ़,
मेंह के लिखे नये निबंध हुए हम
ऋतुओं के पहले
संबंध हुए हम
परमात्मा से हमारा संबंध तो प्रथम से है। अभी भी है, अंत तक होगा। परमात्मा से हम विच्छिन्न नहीं हुए हैं। सिर्फ विस्मृत हुआ है परमात्मा हमें। और हम परमात्मा को विस्मृत नहीं हुए हैं। यही तो आशा है, यही तो आश्वासन है। हम भूल गए हों उसे, वह हमें नहीं भूला है।
फूल हुए पात हुए गंध हुए हम
हम बहुत रूप ले लिए हैं।
फूल हुए पात हुए गंध हुए हम
ऋतुओं के पहले
संबंध हुए हम
लेकिन सबसे पहले, प्रथम में हम उससे ही जुड़े थे--सारी ऋतुओं के पहले। और अभी भी हम उससे ही जुड़े हैं। फूल हो गए हों, पात हो गए हों, लेकिन जड़ें तो हमारी अभी-भी भूमि में उसकी ही गड़ी हैं। जीवन तो हम उसी से पाते हैं। कितना ही बड़ा वृक्ष हो जाए, भूमि का ही अंग है, भूमि का ही विस्तार है। और कितने ही हम कहीं भी चले जाएं, हम उसके ही हाथ हैं। जिस दिन जागेंगे, उस दिन चकित होकर पाएंगे कि न तो संबंध कभी टूटा था, न टूट सकता था, बीच में विस्मृत हुआ था। जैसे नींद आ गई थी और एक सपना देखा था। और सपने के कारण जो था, विस्मृत हो गया था। जो नहीं था, अपना मालूम होने लगा था। इसलिए ज्ञानियों ने जगत को माया कहा--एक सपना--जिसमें जो अपना नहीं है अपना मालूम होने लगता है और जो अपना है, उसकी विस्मृति हो जाती है, उसकी याद खो जाती है।
इस देह से हमने अपने को जोड़ लिया है। इस देह के नाते-रिश्तों से हमने अपने को जोड़ लिया है।
तन मंदिर-सा मन मृगछाला
वरन हुई मैं बिन वरमाला
आंख खुली देखा सब भटके
क्षुद्र देह के अंधकार में
राग नहीं जाग्रत हो पाया
कंठ फंस गया रत्नहार में
बंधन की इस महारात्रि में
ढूंढ रही हूं मुक्त उजाला
ताल-भंग स्वर-सी निर्वासित
हुई कला की दूकानों से
कीर्ति शिखर पर होती कैसे
दूर रही मैं पहचानों से
सहम गई जब देखा मैंने
कैसे किसने, किसे उछाला
सुख-दुख की छीना झपटी में
आधी सोई, आधी जागी
मलिन हुआ जब भी यात्रापथ
अश्रु-कणों में आग लगा दी
मोह-भंग तो हुआ उसी दिन
जिस दिन पांव महावर डाला
तन मंदिर-सा मन मृगछाला
वरन हुई मैं बिन वरमाला
आंख खुली देखा सब भटके
क्षुद्र देह के अंधकार में
राग नहीं जाग्रत हो पाया
कंठ फंस गया रत्नहार में
बंधन की इस महारात्रि में
ढूंढ रही हूं मुक्त उजाला
एक नींद है, एक नींद का अंधेरा है। अंधेरा और कहीं भी नहीं है, सारा अस्तित्व रोशनी से भरा है, सिर्फ अंधेरा है तो हमारी आंख बंद है, नींद है, उसके कारण है। तुम्हारे कान बहुत शोरगुल से भरे हैं बाजार के, व्यर्थ के। दूसरों के शब्दों ने तुम्हारे कानों को अवरुद्ध कर दिया है। इसलिए भीतर जो वीणा बज रही है--अहर्निश बज रही है--सुनाई नहीं पड़ती है। चुप होओ, मौन बैठो; कुछ और करना नहीं है, घड़ी दो घड़ी को ऐसे हो जाना है जैसे नहीं हो; संसार के लिए मृतवत, अपने में डूबे।
शुरू-शुरू अड़चन होगी, आदत पुरानी हो गई है विचार की, विचारों का तांता लग जाएगा--आंख बंद करोगे, और भी बाजार के विस्तार खड़े हो जाएंगे, मौन बैठना चाहोगे, विचारों की भीड़ आक्रमण कर देगी; लड़ना मत, झगड़ना मत; देखते रहना, साक्षी बनना। आएं विचार, आने देना। आएंगे, चले भी जाएंगे। दूर खड़े रहना--अलिप्त। जैसे कोई राह के किनारे खड़े होकर राह पर चलते हुए लोगों को देखता है। न कुछ लेना है, न कुछ देना है; न कोई अपना, न कोई पराया। सुंदर निकले तो ठीक, असुंदर निकले तो ठीक; साधु, तो ठीक, असाधु, तो ठीक। अच्छा-बुरा विचार कुछ भी निकले, निर्णय मत करना। अच्छा भी मत कहना, बुरा भी मत कहना। निर्णायक मत बनना। निर्णायक बने कि उलझे, कि राग बना, कि आसक्ति बनी। कि एक विचार को पकड़ा और दूसरे को हटाया। बुरे को हटाने में लग गए तो उलझ गए। अच्छे को पकड़ने में लग गए तो उलझ गए। न तो कुछ रुकता है, न कुछ हटाया जा सकता है। तुम सिर्फ जाग कर बैठे रहना, जैसे दर्पण हो। जो दिखाई पड़ता है दर्पण को, देख लेता है। जिसकी छाया पड़ती है, पड़ जाती है; फिर छाया मिट जाती है, दर्पण खाली का खाली। ऐसे ही तुम भीतर बैठे रहना, बैठे रहना... । अगर थोड़ा भी धैर्य है तो ध्यान फल जाएगा। धैर्य से फलता है ध्यान, कोई और प्रक्रिया नहीं है वस्तुतः।
एक महीना, दो महीना, तीन महीना, छह महीना, अगर तुम सिर्फ बैठते ही रहो, इतना सा धीरज हो कि एक घंटा बैठते ही रहेंगे, आएंगे विचार तो आने देंगे, नहीं लड़ेंगे, बैठे रहेंगे; और जल्दी भी न करेंगे कि तीन दिन बैठते हो गए, अब तक कुछ नहीं हुआ, अब क्या सार है, अब बैठना बंद करें। अगर तुम एक वर्ष भी हिम्मत रख लो, तो किसी न किसी दिन उसकी पुकार सुनाई पड़ जाएगी। आज सुनाई पड़ सकती है, कल सुनाई पड़ सकती है, परसों--कहा नहीं जा सकता कब? क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की अनंत-अनंत जीवन की, अनंत-अनंत यात्रापथों की, अलग-अलग संस्कार की देह बनी है। भिन्न भी हो, एक-दूसरे से अलग-अलग हो। किसी को आज हो सकता है, किसी को कल, किसी को परसों। लेकिन मेरे अनुभव में ऐसा है कि नौ महीने और बारह महीने, अधिक से अधिक, अगर कोई धैर्य से बैठता रहे, जल्दबाजी न करे, फल की आकांक्षा और आतुरता न करे, तो एक दिन घटना घट जाती है। और जिस दिन घटती है, उस दिन तुम चकित होओगे। सबसे बड़ा चकित होना तो यही है कि जिसे हम खोजते थे, उसे कभी खोया नहीं था। जिसे हम पाने चले थे, वह हमारे भीतर विराजमान था। जिस वीणा को हम सुनना चाहते थे, बज ही रही थी। जिस दिए को हम जलाना चाहते थे, जल ही रहा था।
दूसरा प्रश्नः सत्यबोध और आत्मानुभूति हेतु साधना से कार्य-कारण-संबंध नहीं बनता, फिर पद्धतिबद्ध साधन-ध्यान करने की क्या आवश्यकता है।
हम परमात्मा में ही हैं, ऐसा एक बार मान कर बस जो भाए किया जाए और जैसा भी हो जीवन वैसा जी लिया जाए, तो ध्यान-साधन क्यों आवश्यक है? कृपया विश्लेषण कर अनुगृहीत करें।
सीताराम! मान कर नहीं होगा, जान कर होगा! मानोगे तो झूठ ही रहेगी बात। मानने का मतलब ही झूठ होता है। मैंने कहा, तुमने मान लिया; मैंने कहा, तुम परमात्मा ही हो और तुमने मान लिया; तुम्हारे लिए तो यह झूठ ही है। यह तो बुनियाद से ही तुमने झूठ रख दिया। मैंने कहा, इसलिए मान लिया। या किसी और ने कहा, इसलिए मान लिया। कि वेद में लिखा है; कि कुरान कहता है, इसलिए मान लिया; लेकिन मानना तो उधार होगा। उधार यानी झूठ। सत्य की यात्रा उधार पूंजी से नहीं की जा सकती। जानने से करनी होगी।
मैंने सुना है मुल्ला नसरुद्दीन फ्रांस की यात्रा पर गया। फ्रांसीसी भाषा उसे आती नहीं है। किसी फ्रांसीसी मित्र ने उसे अपने घर आमंत्रित किया है, कुछ और मित्रों को भी बुलाया। भोजन के बाद गपशप हुई। एक सज्जन ने एक फ्रांसीसी चुटकुला कहा। सारे फ्रांसीसी सुन कर जोर से हंसने लगे। मुल्ला भी खिलखिला कर हंसा; ऐसा कि सब को मात कर दिया। एकदम लोटने ही पोटने लगा। उसकी हंसी, उसका लोटना-पोटना देख कर उन सब की हंसी तो खो ही गई। वे एकदम सकते में आ गए! उन्होंने पूछा कि क्या आप हमारी भाषा समझते हैं? मुल्ला ने कहा, भाषा नहीं समझता, लेकिन आप में मुझे विश्वास है। बात जरूर कुछ हंसी की ही रही होगी। मैं आप पर भरोसा करता हूं। मैं आस्तिक आदमी हूं। मैं सदा दूसरों पर भरोसा करता रहा हूं। जब आप सब हंस रहे हैं, तो बात हंसी की रही ही होगी। अब उसमें और मुझे जानने की जरूरत क्या है?
पर भेद तुम्हें समझ में आता है? एक बात को समझ कर तुम हंसे हो और एक बात को मान कर कि होगी ही हंसने की, इसलिए हंसे, इसमें भेद तुम्हें समझ में आता है? जमीन-आसमान का अंतर हो गया! यह तो हंसी झूठी रही, चाहे कितना ही लोटो-पोटो। चाहे कितने ही जोर से खिलखिलाओ, लेकिन तुम्हारे हृदय से यह नहीं उठी। नहीं उठ रही है, नहीं उठ सकती है।
तुम कहते होः ‘हम परमात्मा में ही हैं, ऐसा एक बार मान कर।’
मगर यह मानना तो झूठ होगा। और तुम्हें बार-बार याद आती रहेगी कि पता नहीं, तुम जो बात मान कर चल पड़े हो वह ठीक भी है? कौन जाने? तुम्हारे पैर डगमगाते रहेंगे।
जान लो, फिर जीवन का मजा और है! फिर ठीक कह रहे हो तुम, फिर ऐसा ही होता है। एक बार जान लिया कि परमात्मा भीतर विराजमान है, फिर कुछ करने को बचा क्या? फिर तो जीओ। फिर तुम नहीं जीते, वही जीता है। फिर न कुछ बुरा है, न कुछ भला है। फिर बुरा-भला कैसे हो सकता है? क्योंकि परमात्मा जो जिए, वही ठीक है, वही शुभ है।
यही साधु और संत शब्द का भेद है।
साधु का अर्थ होता हैः जो सोच-सोच कर, विचार कर-कर के, क्या ठीक है, उसको जीए। और संत का अर्थ होता है, जिसने सब परमात्मा पर छोड़ दिया, अब परमात्मा जैसा जीता है, वही ठीक है। साधु जो ठीक है, वैसा सोचकर जीवन आचरण करता है। उसका एक चरित्र होता है। चरित्र का एक अनुशासन होता है। उसकी एक मर्यादा होती है। संत? सोच कर जीता ही नहीं कि क्या ठीक है, क्या गलत है। उसने तो सब छोड़ ही दिया। संत तो बचा ही नहीं। अब तो परमात्मा ही उससे जीता है; इसलिए जो भी जीता होगा, ठीक ही जीता है। अब बुरे होने का कोई उपाय ही नहीं रहा।
संत का कोई आचरण नहीं होता। साधु का आचरण होता है। और इसीलिए अकसर ऐसा हो जाता है कि साधु को तो पूजा मिल जाती है, संत से तुम चूक जाते हो क्योंकि आचरण तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता है। आचरण तुम्हें समझ में आता है सरलता से। तुम्हारे गणित में और साधु के गणित में भेद नहीं है। तुम भी जानते हो सोच-सोच कर कि क्या ठीक है, और वही साधु जी रहा है। तुम सहज ही साधु के चरणों में झुक जाते हो। संत अड़चन डाल देता है। संत तुम्हारी मर्यादा के बाहर होता है, अमर्याद होता है।
जीसस को जिन लोगों ने सूली दी, वे कोई बुरे लोग नहीं थे, साधु लोग थे। साधुओं ने सदा संतों को सूली दे दी है--यह याद रखना! क्योंकि जिन्होंने सूली दी, तुम यह मत सोचना कि बुरे लोग थे, हत्यारे थे, पापी थे। नहीं, भले लोग थे, अच्छे लोग थे। जिनका तुम भी आदर करते, वैसे लोग थे; आचरणवान थे, मर्यादाबद्ध थे। और जीसस मर्यादामुक्त थे। यही अड़चन थी। जीसस की कोई मर्यादा न थी। कोई सीमा न थी। जीसस कहते थे : मैं और परमात्मा एक। इसलिए जो वह करवाए, वही ठीक। जैसा करवाए, वैसा ही ठीक। मैं कौन हूं निर्णायक? मैं हूं ही नहीं बीच में कोई। मैं तो बांस की पोली पोंगरी, वह जो गाए, गीत उसका। अच्छा, तो उसका, बुरा, तो उसका। मैं उससे ऊपर अपने को कैसे रखूं?
यही भेद राम और कृष्ण में है।
राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे साधुता की पराकाष्ठा हैं। कृष्ण संतत्व की पराकाष्ठा हैं। वे अमर्याद हैं, असीम हैं। इसलिए हमने राम को आंशिक अवतार कहा, कृष्ण को पूर्णावतार कहा। संत में परमात्मा पूरा उतरता है। साधु में बस झलक मात्र है, अंश मात्र। साधु में एक चेष्टा है; नियम, व्यवस्था, विधि-विधान है। साधु को सदा सम्मान मिल जाता है। राम कहीं भी हों तो सम्मान मिल जाएगा, कृष्ण को कहीं भी अड़चन होगी। कृष्ण को होने ही वाली है अड़चन, क्योंकि कृष्ण का जीवन बेबूझ मालूम पड़ेगा।
कृष्ण ने अर्जुन को भी यही कहा है कि तू भी सब फल उस पर ही छोड़ दे और जो वह करवाए, सो कर। तू फल की आकांक्षा न कर।
साधु तो फलाकांक्षी होता है। वह तो पूरे वक्त फल का ही विचार करता है कि ऐसा करूंगा तो ऐसा होगा, ऐसा करूंगा तो ऐसा होगा। ऐसा किया तो स्वर्ग और ऐसा किया तो नरक।
ऐसा किया तो पुण्य और ऐसा किया तो पाप। साधु तो चिंता ही करता रहता है इसी की। कृष्ण तो जो शिक्षा दे रहे हैं वह साधुता की नहीं है। साधु को तो लगेगा असाधुता की है।
इसलिए जैनियों ने, जो कि साधुता की पराकाष्ठा हैं, कृष्ण को नरक में डाल दिया है। उनके शास्त्रों में कृष्ण नरक में पड़े हैं। छोटे-मोटे नरक में नहीं, सातवें नरक में पड़े हैं। वह साधु का वक्तव्य है संत के प्रति। क्यों नरक में पड़े हैं? क्योंकि कृष्ण का जीवन चरित्रहीन मालूम होता है। कोई नियम नहीं है। सब तरफ से नियममुक्त है, स्वच्छंद है, अराजक है।
तुम ख्याल रखना, साधु और संत के बीच बड़ी खाई है; उससे भी बड़ी जितनी असाधु और साधु के बीच है। असाधु-साधु के बीच बड़ी खाई नहीं है, उनकी तर्कसरणी एक है। उनके सोचने का गणित एक है। असाधु बुरा-बुरा सोच कर कर रहा है कि यह-यह बुरा है, यह-यह करना है। और साधु सोच-सोचकर अच्छा-अच्छा कर रहा है। मगर दोनों सोच कर जी रहे हैं। दोनों व्यवस्था बांधकर जी रहे हैं। दोनों अपने चारों तरफ एक सीमा बांध लिए हैं, अपनी परिभाषा बना लिए हैं। संत दोनों से मुक्त है, न साधु है, न असाधु है; द्वंद्वातीत है। न पाप है, न पुण्य है वहां। न अच्छा है, न बुरा है वहां। वहां कोई लक्ष्य ही न रहा। वहां परमात्मा को पूरी छूट है, परमात्मा को बहने की पूरी व्यवस्था है। साधु नहर जैसा होता है, संत नदी जैसा।
नहर और नदी में फर्क ख्याल रख लेना।
नहर सीमित होती है; जब चाहो तब चलाओ, जैसा चाहो वैसा चलाओ; जितना पानी लाना हो, लाओ, न लाना हो, न लाओ। नहरों में बाढ़ें नहीं आतीं।
और नहरों का रास्ता बंधा हुआ होता है। जैसे रेलगाड़ियां पटरियों पर डोलती हैं लोहे की, ऐसा साधु भी पटरियों पर दौड़ता है आचरण की। लेकिन संत मुक्त सरित-प्रवाह है। लेकिन वह मुक्त सरित-प्रवाह श्रद्धा पर खड़ा नहीं हो सकता, मानने पर खड़ा नहीं हो सकता, जानने पर ही खड़ा हो सकता है। उतनी जोखिम सिर्फ मानकर कौन लेगा?
तो सीताराम, तुम्हारा प्रश्न अर्थपूर्ण है। तुम कहते होः ‘हम परमात्मा में ही हैं, ऐसा एक बार मान कर बस जो भाए किया जाए।’
मान कर करोगे तो कभी तृप्ति नहीं होगी, बीच-बीच संदेह उठते रहेंगे कि जो मैं कर रहा हूं, ठीक कर रहा हूं? यह जो मैं कर रहा हूं, परमात्मा की मर्जी है? यह जो मैं कर रहा हूं, सच में परमात्मा ऐसा चाहेगा? यह तो मैं अपनी ही मर्जी कर रहा हूं परमात्मा के नाम से। यह मैं किसको धोखा दे रहा हूं! यह तो मैंने बड़ी तरकीब निकाल ली, करता हूं अपने मन की, कहता हूं कि परमात्मा करवा रहा है। मानने वाला आदमी मुक्त नहीं हो सकता जीवन में, बंधा रहेगा।
और तुम्हारी दूसरी बात भी सोचनीय है। तुमने कहा, ‘सत्यबोध और आत्मानुभूति हेतु साधना से कार्य-कारण-संबंध नहीं बनता, फिर पद्धतिबद्ध साधन-ध्यान करने की क्या आवश्यकता है?’ निश्चित ही कोई कार्य-कारण-संबंध नहीं है तुम्हारी साधना में और सत्य के अनुभव में। लेकिन, तुम्हारे जीवन को मान्यता से मुक्त करने में पद्धतिबद्ध ध्यान और साधन का बड़ा उपयोग है। सत्य को तुम्हारे पास लाने में कोई उपयोग नहीं है, लेकिन असत्य को तुमसे दूर करने में उपयोग है।
तुम ऐसा ही समझो, जैसे औषधि... आयुर्वेद का बुनियादी सिद्धांत है कि औषधि के द्वारा हम किसी को स्वास्थ्य नहीं दे सकते। औषधि में और स्वास्थ्य में कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है। लेकिन औषधि से हम बीमारी दूर कर सकते हैं। और बीमारी दूर हो जाए तो स्वास्थ्य के जन्मने में सुविधा होती है। स्वास्थ्य तो परमात्मा देता है, कोई वैद्य नहीं दे सकता; नहीं तो आदमी मरे ही नहीं। वैद्य तो सिर्फ बीमारी दूर कर सकता है। ऐसा ही समझो कि एक झरना है, उसके रास्ते में एक चट्टान पड़ी है। हम चट्टान अलग कर सकते हैं। चट्टान अलग करने से झरना पैदा नहीं होता, कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है कि चट्टान अलग की तो झरना पैदा हो गया। चट्टान अलग करने से झरने पैदा होने का क्या लेना-देना? कोई संबंध नहीं है। लेकिन चट्टान के अलग करने से झरना बह उठता है। चट्टान रहती अड़ी बीच में तो झरना रहता भी मगर बहता नहीं। पता ही न चलता किसी को।
तुम जब कुआं खोदते हो तो क्या तुम सोचते हो तुम्हारे खोदने से जमीन में पानी आ जाता है? पानी तो है ही। तुम्हारे खोदने से पानी के पैदा होने का कोई कार्य-कारण-संबंध नहीं है, लेकिन तुम्हारे खोदने से बीच का अवरोध हट जाता है, मिट्टी-पत्थर, कूड़ा-करकट बीच से हट जाता है, पानी उपलब्ध हो जाता है। तुम्हारे और पानी के बीच में जो बाधा थी, वह हट जाती है। औषधि बीमारी को हटा देती है। और बीमारी के हटते ही स्वास्थ्य स्वभावतः खिल उठता है। स्वास्थ्य का अर्थ ही यही होता है।
हमारा शब्द बड़ा अदभुत है।
स्वास्थ्य का अर्थ होता हैः जो स्वयं से पैदा हो। जो स्व से जन्मे। कोई बाहर से ला नहीं सकता, स्वयं की ऊर्जा है, स्वस्फूर्त है। स्वास्थ्य तो तुम्हारा स्वभाव है, बीमारी परभाव है। बीमारी बाहर से आती है, इसलिए बाहर की दवाई उसे दूर भी कर सकती है। जो बाहर से आती है, वह बाहर से ही दूर की जाएगी। और स्वास्थ्य तो भीतर से उठता है, बाहर से डाला नहीं जा सकता। स्वास्थ्य के इंजेक्शन कहीं मिलते हैं? कि गए डाक्टर के पास कि .जरा लगा दो स्वास्थ्य का एक इंजेक्शन! हां, बीमारी को दूर करने के इंजेक्शन होते हैं, बीमारी को काटने के इंजेक्शन होते हैं। चिकित्साशास्त्र स्वास्थ्य नहीं देता है, केवल बीमारी को छीन लेता है। बीमारी के हटते ही तुम्हारी जो जीवनऊर्जा है, अवरुद्ध नहीं रह जाती, प्रवाहित हो उठती है।
ऐसा ही ध्यान है। ध्यान से सत्य नहीं मिलता। सत्य तो मिला ही हुआ है। इसलिए ध्यान से कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है। ध्यान बीज नहीं है सत्य का। कि ध्यान का बीज बोओगे तो सत्य की फसल काटोगे। ध्यान तो सिर्फ तुम्हारे भीतर जो विचारों का व्यर्थ ऊहापोह है, कूड़ा-करकट है, उसको काट जाएगा। ध्यान सिर्फ औषधि है। और इसीलिए, जब ध्यान परिपूर्ण हो जाता है, तो ध्यान भी छोड़ देना पड़ता है। क्योंकि जब स्वास्थ्य आ गया, फिर औषधि लेना खतरनाक है। फिर यह मत सोचना कि इस औषधि से इतना लाभ हुआ, अब इसको कैसे छोड़ें? हो गए स्वस्थ, वह ठीक, लेकिन हुए तो इसी औषधि के द्वारा, तो औषधि को तो लेना जारी रखेंगे! तो औषधि फिर बीमारी बन जाएगी। वही औषधि जो बीमार के लिए सहयोगी है, स्वस्थ के लिए घातक हो जाएगी।
इसलिए परम अवस्था जब आती, जब बीमारी कट गई, विचार कट गए, ध्यान का काम पूरा हो गया। फिर ध्यान भी छूट जाता है। जैसे एक कांटा गड़ा है, दूसरे कांटे से निकाल लेते हैं, फिर दोनों कांटों को फेंक देते हैं। विचार का कांटा गड़ा है, ध्यान के कांटे से निकाल लिया, फिर दोनों कांटे फेंक दिए।
तुम यह मत सोचना कि बुद्ध जब ज्ञान को उपलब्ध हो गए, तब भी ध्यान करते हैं। फिर क्यों ध्यान करेंगे? फिर किसलिए ध्यान करेंगे? इसलिए बुद्ध ने कहा हैः धर्म नाव जैसा है। उस पार पहुंच गए, फिर नाव छोड़ देना; फिर सिर पर ढोए हुए मत चलना, नहीं तो लोग मूढ़ कहेंगे। इसलिए जो धर्म को उपलब्ध हो जाता है, उससे धर्म छूट जाता है।
ये बातें तुम्हें चौंकाने वाली मालूम पड़ेंगी।
धर्म को उपलब्ध होते ही धर्म छूट जाता है। फिर कोई जरूरत न रह गई।
नियमबद्ध, पद्धतिबद्ध साधन की प्रक्रियाएं--ध्यान की, योग की--मूल्यवान हैं। मूल्यवान है क्योंकि तुम बीमार हो। मूल्यवान हैं, क्योंकि तुम विचार से ग्रस्त हो। तुम्हारे विचार को काट देंगी। विचार के कटते ही तुम्हारे भीतर का सत्य आविर्भूत हो जाएगा।
लेकिन यह बात मान कर नहीं चलनी है।
तुम सोचते हो, ध्यान की क्या जरूरत? तुमने मेरी बात सुनी, तुम्हारा चित्त प्रसन्न हुआ होगा कि चलो झंझट मिटी! तो ध्यान में और सत्य में कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है। चलो, यह एक झंझट तो कटी, ध्यान करने से बचे! सीताराम इतनी आसानी से न बचोगे। अब तुमने सोचा, इतनी सी ही बात मान लें कि हम परमात्मा ही हैं, फिर सब ठीक है। कुछ भी ठीक न होगा, सीताराम! बस जैसे तुम सीताराम हो, ऐसे ही सीताराम रहोगे! न राम मिलेंगे, न सीता मिलेंगी, कुछ न मिलेगा। मान लोगे। मानने के लिए तो यह नाम तुम्हें दे दिया है--सीताराम। इसका मतलब कि परमात्मा ही हो तुम।
पुराने दिनों में सारे नाम ही परमात्मा के दिए जाते थे। सभी नाम परमात्मा के थे। हर आदमी को हम परमात्मा का नाम देते थे--संकेत के रूप में। किसी को राम, किसी को कृष्ण, किसी को हरि, किसी को हरिहर, किसी को कुछ... हिंदुओं के, मुसलमानों के, सारे नाम परमात्मा के हैं। रहीम, रहमान--सब नाम परमात्मा के हैं।
पुराने दिनों में यह प्रक्रिया जान कर अख्तियार की गई थी। ये मां-बाप यह कह रहे थे कि तुम्हें हम याद दिला रहे हैं कि तुम भी परमात्मा हो। मगर इससे होता क्या है? सभी के नाम परमात्मा के हैं; कोई विष्णु है, कोई राम है, कोई कृष्ण है, मगर इससे होता क्या है? नाम ही रह जाता है, मान्यता ही रह गई, रहते तो तुम वही हो जो तुम हो। तुम्हारी सारी बीमारियां वहीं की वहीं, कुछ अंतर नहीं पड़ता। ज्यादा-से-ज्यादा रामलीला के राम बन गए, और क्या होगा! रामलीला के राम से कुछ नहीं हल होता। धोखे के राम हो गए, झूठे राम हो गए--अभिनेता हो गए। लेकिन भीतर तो तुम जानते ही रहोगे कि तुम नहीं हो, यह तुम नहीं हो।
मानने से नहीं होगा। मानना तो अनुमान है। अनुमान से सत्य उपलब्ध नहीं होता।
मैंने सुना है, एक नामी शिकारी के पोते ने दीवाल पर उलटे टंगे हुए एक सांभर के सिर की ओर इशारा करके अपने नन्हे सहपाठियों को बताया, दादा जी ने इसे तब मारा था, जब यह शीर्षासन कर रहा था। अनुमान लगाया बेटे ने कि जरूर, जब शीर्षासन कर रहा होगा सांभर तब मारा होगा। तभी तो सिर उलटा लटका है।
तुम्हारे सारे अनुमान ऐसे ही हैं। तुम्हारे ईश्वर के संबंध में लगाए गए अनुमानों का कोई मूल्य नहीं है। अनुमान नहीं, बोध चाहिए, साक्षात्कार चाहिए--स्वयं का निज का। उस निज के बोध के लिए मार्ग में जितनी बाधाएं हैं, हटानी पड़ेंगी।
और फिर दोहरा दूं, तुम्हारे करने से और उसके मिलने का कोई कार्य-कारण-संबंध नहीं है।
तीसरा प्रश्नः भगवान प्रवचन से पहले जब जगजीवन के पदों का पाठ किया गया तो मेरा दिल अकस्मात भर आया, आंखें डबडबा आईं और पदों का पाठ चलता रहा तब तक मेरे आंसू आप ही आप बहते रहे। पाठ की समाप्ति हुई तो आंसू बंद हुए। मैं इन पदों का मतलब ‘भगवान श्री’ के प्रवचन के बाद समझा।
ऐसा क्यों हुआ?
डा. सुमेरसिंह, एक समझ बुद्धि की है, एक समझ हृदय की। हृदय बुद्धि के बहुत पहले समझ लेता है। हृदय शब्दों को नहीं समझता, भावों को समझ लेता है। हृदय भाषा को नहीं समझता, लेकिन भाषा से भी कुछ गहरा होता है तो पकड़ लेता है। और ऐसे ही ये पद हैं। यही तो भेद है साधारण कवियों और ऋषियों का। साधारण कवियों की कविता में सिर्फ शब्द ही होते हैं, शब्दों का ही जमाव होता है--सुंदर जमाव, प्यारा जमाव! मात्रा, छंद, व्याकरण, सब दृष्टियों से पूर्ण होता है। बस एक बात की कमी होती है--प्राण नहीं होते। ऋषि का अर्थ होता है, जिसकी वाणी में आत्मानुभव भी उंडेला हुआ है। फिर यह भी हो सकता है, शायद मात्रा और छंद पूरे न हों, व्याकरण भी ठीक न हो--कबीर को कोई बहुत व्याकरण आती भी नहीं; कहा ही है कि ‘मसि कागद छूयौ नहीं,’ कभी कागज और स्याही तो छुई नहीं--तो इसलिए कुछ भाषा का तो जमाव नहीं होगा। और अगर भाषा में कोई जमाव है, तो वह भाषा का नहीं है, भाव के जमाव की ही छाया है। भाव जम गए हैं।
तो जब कभी किसी ऋषि की वाणी गूंजी तुम्हारे पास और तुम अगर उस समय ग्राहक चित्त की दशा में होओ, तो आंखें डबडबा आएंगी, आंसू झरने लगेंगे। और तुम चौंकोगे भी। चौंकोगे अर्थात तुम्हारा सिर चौंकेगा। चौंकोगे अर्थात तुम्हारी बुद्धि चौंकेगी कि यह क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, क्यों मैं रो रहा हूं? तुम्हें थोड़ा लगेगा कि कुछ विक्षिप्त हुए जा रहे हो! यह कैसी दीवानगी?
इसलिए सत्संग की बड़ी महिमा है। सत्संग का इतना ही अर्थ हैः जहां ऐसे लोग बैठे हों कि तुम रोओ अगर तो कोई यह न समझे कि तुम पागल हो गए हो। जहां तुम रोओ तो लोग तुम्हारे रोने को सम्मान दें। जहां तुम्हारी आंखों से आंसू गिरने लगें तो पास बैठे लोगों को ईर्ष्या हो, आदर हो; तुम्हारे आंसुओं का मूल्य हो, निंदा न हो। सत्संग का अर्थ होता हैः जहां सभी पियक्कड़ इकट्ठे हों। जहां भाव की भाषा समझी जाती हो। भाषा के ही भाव नहीं, भाव की भाषा समझी जाती हो। और जहां भांव को समादर दिया जाता हो।
तुम खुले मन से बैठे थे... । जो भी यहां मेरे पास आए हैं, अगर सच में मेरे पास आना चाहते हैं तो एक ही उपाय है कि खुले मन से बैठें। तुम खुले मन से बैठे थे। तुम्हारे हृदय के द्वार खुले थे। तुमने कोई सुरक्षा न की थी। तुमने दरवाजे-ताले न लगाए थे, तुमने पहरेदार न बिठा रखे थे। तुमने तर्क को हटा दिया था एक तरफ। तुम निर्मल चित्त सत्संग के लिए आतुर थे। पकड़ गई तरंग तुम्हें। बुद्धि समझे, इसके पहले हृदय समझ गया। बुद्धि समझे, इसके पहले हृदय भीग गया। और हृदय का भीगना ही असली है।
फिर बाद में जब मैंने तुम्हें अर्थ समझाए, तब तुम्हें अर्थ समझे में आए। सच तो यह है, अगर तुम्हारा हृदय न भीगा होता तो मैंने जो अर्थ समझाए, वे भी तुम्हें समझ में न आ सकते थे। तुम्हारा हृदय भीगा था, इसलिए बुद्धि ने अनुसरण किया।
इस बात को खूब समझ लो।
अगर बुद्धि मालिक हो, तो जीवन नरक हो जाता है। अगर हृदय मालिक हो और बुद्धि उसकी अनुचर, तो जीवन स्वर्ग हो जाता है। बुद्धि बड़ी उपयोगी है, मालिक की तरह नहीं, सेवक की तरह। बस इतना ही फर्क है। कुछ लोगों में बुद्धि मालिक हो गई है और हृदय सेवक हो गया है। ये उनके दुर्दिन हैं। यह दुर्घटना हो गई। यह तुम नाव पर सवार न रहे, नाव तुम पर सवार हो गई। यह तुम घोड़े पर सवार न रहे, घोड़ा तुम पर सवार हो गया!
मैंने सुना है, एक छोटे बच्चे को उसका पिता रोज बगीचे में घुमाने ले जाता था और वहां सिकंदर महान की मूर्ति थी--घोड़े पर बैठा हुआ सिकंदर। बच्चा रोज उस मूर्ति के पास जाकर निश्चित खड़ा हो जाता था और बड़ा आनंदित होता था। बाप भी प्रसन्न था कि चलो अच्छा है, सिकंदर महान के प्रति इसके मन में इतना आदर है, कुछ बन कर रहेगा, कुछ होकर रहेगा! पूत के लक्षण पालने में! फिर गांव छोड़ना पड़ा, बदली हो गई बाप की। तो बेटे ने कहा कि एक बार चल कर सिकंदर महान के दर्शन और कर आएं। बाप तो बहुत आनंदित हुआ। उसे लेकर फिर बगीचे गया। बेटे की आंखों से आंसू गिरने लगे--विदाई का क्षण। बाप ने पूछाः तू रोता है? तेरा इतना प्रेम है सिकंदर महान से? उसने कहा, हां, मुझे बहुत प्रेम है। सिर्फ एक सवाल मुझे पूछना है कि सिकंदर महान पर चढ़ा हुआ कौन बैठा है?
उसको तो घोड़े से लगाव था!
क्योंकि मैंने कभी आपसे पूछा नहीं, मगर अब जाने का दिन आ गया तो मैं यह पूछना चाहता हूं, सिकंदर महान तो गजब का है, मगर इसके ऊपर चढ़ा कौन बैठा है? इसको कोई उतारता क्यों नहीं? आखिर सिकंदर महान भी थक जाता होगा!
बच्चे की अलग दुनिया है। उसके लिए सिकंदर महान में दो कौड़ी का मूल्य है, घोड़े में जान है। बच्चे की नजर घोड़े पर है। बाप को तो घोड़ा कभी शायद दिखाई भी न पड़ा हो। वह सिकंदर महान को जो देख रहा है, उसको घोड़ा कहां दिखाई पड़े?
जीवन में दुर्घटना हो गई तुम्हारे, अगर तुम्हारी बुद्धि तुम पर सवार हो गई। यही पंडित का दुर्भाग्य है। पापी भी पहुंच जाते हैं परमात्मा तक, पंडित पहुंचते हैं ऐसा कभी सुना नहीं। हृदय सवार हो तो बुद्धि बड़ी सुंदर, बड़ी उपयोगी, बड़ी बहुमूल्य है।
ऐसा ही हुआ, डाक्टर सुमेरसिंह! भाव पहले नाच उठा। तरंग पहले तुम्हारे हृदय में चली गई। गीत तुम्हारे प्राणों में गूंज गया। तुम गीले हो गए; तुम भीग गए, नहा गए। और तभी तुम मैंने जो अर्थ समझाया, वह समझ पाए। क्योंकि भाव अब तैयार था, अब अर्थ बड़े अभिव्यंजक हो जाएंगे।
इसलिए यहां तो मुझे सुनने वाले लोग हैं, दो तरह के लोग हैं। वे, जो पहले भाव को भिगाते हैं। वही शिष्यत्व का अर्थ है। भाव भीग जाए तो तुम शिष्य हो गए। अगर भाव न भीगे, सिर्फ बुद्धि से समझो तो तुम विद्यार्थी हो, शिष्य नहीं। मुझसे लोग आकर पूछते हैं, पत्र लिखते हैं, कि हम नये-नये आए हैं, हमें आगे बैठने दिया जाए। जो लोग सदा आगे बैठते हैं, वे अगर पीछे बैठें तो कुछ हर्जा है? हम नये आए हैं, हम बड़े दूर से आए हैं! हम तो थोड़े दिन के लिए आए हैं, जो अंतेवासी हैं आश्रम के, वे तो सदा ही सामने बैठते हैं, हमें क्यों न सामने बैठने दिया जाए? तुम अभी विद्यार्थी हो। तुम्हें पीछे भी बैठने दिया जाता है तो तुम अनुग्रह मानो! सामने तो मैं उन्हीं को बिठालता हूं जिनके भाव भीगते हैं।
इसलिए तुम्हें यह भी चमत्कार दिखाई पड़ेगा कि बहुत लोग, जैसे मैं अभी हिंदी में बोल रहा हूं, बहुत से लोग आगे बैठे हैं जो हिंदी जानते ही नहीं। मगर उसकी कोई चिंता नहीं है, उनके भाव भीगे हैं! हिंदी न जानते हों, मुझे जानते हैं। और वह जानना ज्यादा मूल्यवान है। भाषा में क्या रखा है। थोड़ी देर शब्द मन में गूंजते रहेंगे और विलीन हो जाएंगे। मगर अगर हृदय आंदोलित हुआ, अगर हृदय पर छाप पड़ी! क्या मैंने कहा है, इसका सवाल नहीं है बड़ा, कहां से कहा है, इसका सवाल है बड़ा। इसलिए जो संन्यासी की तरह यहां सुनता है, उसकी उपलब्धि बहुत है, अनंत गुना है। और जो ऐसे ही जिज्ञासु की तरह सुनता है, उसकी उपलब्धि उतनी नहीं है। तुम्हें आगे नहीं बिठाया जा सकता।
कभी-कभी ऐसा हो जाता है, कोई एकाध आदमी भी आगे ऐसा बैठ जाता है जिसका भाव नहीं भीगता, तो उसके कारण व्यवधान पड़ता है। उसके कारण एक खाली जगह रह जाती है, एक रिक्त स्थान रह जाता है। और रिक्त स्थान रहता तो भी बेहतर था, उसकी मौजूदगी, उसकी तरंग उसके आस-पास भी विघ्न और बाधा खड़ी करते हैं।
सुमेरसिंह, तुम सौभाग्यशाली हो कि तुम्हारा भाव भीगा, पीछे तुम्हें अर्थ समझ में आया। पहले डूबो, फिर समझ। पहले रंग जाओ, फिर समझ। पहले हृदय में उतर जाने दो बातों को, फिर बुद्धि अपने आप हिसाब-किताब लगा लेगी। जो लोग कहते हैं, पहले हम बुद्धि से हिसाब-किताब लगाएंगे, और फिर हृदय को डुबाएंगे, उनका हृदय कभी नहीं डूबता है, क्योंकि बुद्धि का हिसाब-किताब कभी पूरा नहीं होता। कभी पूरा नहीं होता! बुद्धि कभी निष्कर्ष तक आती ही नहीं, बुद्धि के पास निष्कर्ष होते ही नहीं। बुद्धि निष्कर्ष लेना जानती ही नहीं। बुद्धि निष्कर्ष ले ही नहीं सकती, क्योंकि बुद्धि का स्वभाव संदेह है। हृदय का स्वभाव श्रद्धा है। बुद्धि संदेह कर सकती है, विचार कर सकती है, निष्कर्ष नहीं ले सकती। हृदय विचार नहीं कर सकता, संदेह नहीं कर सकता, छलांग लेता है--और निष्कर्ष आ जाता है। ये दोनों प्रक्रियाएं बड़ी भिन्न हैं। इसलिए बुद्धिमान का और भावुक का वार्तालाप भी नहीं हो सकता। वार्तालाप में ही दुविधा हो जाती है, विवाद हो जाता है। उपाय ही नहीं है।
अच्छा हुआ! जब भाव से इतनी मस्ती आई, तो मुझे समझ भी सके। और अब भाव और समझ, दोनों के मिलन से समृद्धि खूब बढ़ेगी!
न ताबे-मस्ती न होशे-हस्ती कि शुक्रे-ने’ मत अदा करेंगे
खिजां में जब है ये अपना आलम, बहार आई तो क्या करेंगे
‘न ताबे-मस्ती न होशे-हस्ती’, ... होश भी नहीं है अपना... ‘कि शुक्रेने’ मत अदा करेंगे’, कि तेरे अनंत-अनंत प्रसादों का धन्यवाद भी दे सकें परमात्मा। कोई उपाय नहीं है, होश ही नहीं है। और जब पतझड़ में यह हालत है... ‘खिजां में जब है ये अपना आलम, बहार आई तो क्या करेंगे?’ जब भाव से ही इतना हो गया, आंसू बहे, तो जब समझ भी आ जाएगी, समझ और भाव दोनों मिलेंगे, जब हृदय और बुद्धि का मेल होता है, तो तुम सम्राट हो जाते हो। उसी मेल का नाम सम्राट हो जाना है। फिर तुम्हारे पास कुछ भी न हो, कोई फिक्र नहीं, लेकिन तुम सम्राट हो।
बुद्धि और हृदय जिसका मेल खा जाता है, समन्वय हो जाता है, जीवन का सबसे बड़ा द्वंद्व समाप्त हुआ। आ गई बहार, वसंत आ गया! अब फूल ही फूल हैं, अब गीत ही गीत हैं।
यह जो घटा है आज, यह रोज-रोज घटता रहे, इसकी प्रार्थना करना। यह जो घटा है, इसके लिए धन्यवाद देना प्रभु को। अनायास घटा है आज, ऐसा न हो कि तुम आगे चूको! जो आज अनायास घटा है, इसे धीरे-धीरे राह देना, ताकि जोर से घटे, और-और घटे! धीरे-धीरे यह तुम्हारा स्वभाव बन जाए।
और डरना मत। रोने से बड़ा डर लगता है, क्योंकि सदियों से हमें सिखाया गया हैः रोना मत। आंखों को हमारे पत्थर बनाने की कोशिश की गई है। और आंखें पत्थर हो गई हैं अनंत-अनंत लोगों की। आंसू आते ही नहीं। आंखें सूख गई हैं, वह हृदय के सूख जाने का सबूत है। और जब आंखों में आंसू नहीं आते, तो जीवन भी सूख जाएगा; रसधार न बहेगी। और परमात्मा तो रस है, प्रेम-रस, कहा जगजीवन ने। रसो वै सः। वह तो रसरूप है। तुम्हारे भीतर रस बहे तो ही उस परम रस से संबंध हो सके।
चखो इस रस को, डूबो इसमें--सब लोकलाज छोड़। कहा जगजीवन ने सब लोकलाज मिट जाती है, सब मान-मर्यादा मिट जाती है। पागल होने की हिम्मत चाहिए, तो ही कोई परमात्मा को पाने में सफल हो पाता है।
चौथा प्रश्नः उठूं ऊपर या मनुहार करूं
पता नहीं पाता हूं
जितना मुट्ठी को कसता हूं
दूर चला जाता हूं।
क्या करूं प्रभु? मार्ग दीजिए।
विशेष! मुट्ठी को जितना ही बांधोगे, उतना ही चूकोगे। आकाश को मुट्ठी में नहीं बांधा जा सकता। आकाश को पाना हो तो मुट्ठी खुली रखनी पड़ती है। खुले हाथ में तो आकाश होता है, बंद हाथ में समाप्त हो जाता है।
संसार और परमात्मा के नियम विपरीत हैं। गणित अलग-अलग है। संसार में मुट्ठी खोलो कि गई संपदा। संसार में मुट्ठी बांधकर रखनी पड़ती है, तो ही संपदा बच सकती है। क्योंकि यहां संपदा हैः छीना-झपटी। यहां संपदा तुम्हारी नहीं है किसी की नहीं है। यहां संपदा छीना-झपटी है, शोषण है। यहां तो मुट्ठी बांध कर रखनी होगी, जोर से बांध कर रखनी होगी। और तुम मुट्ठी भी बांधे रहो तब भी दूसरे तुम्हारी मुट्ठी खोलने की कोशिश में लगे रहते हैं। तुम कुर्सी पर बैठ गए, दूसरे तुम्हें कुर्सी से धक्का देने में लगे रहते हैं। उनको भी वहीं बैठना है, उसी कुर्सी पर बैठना है। संसार की संपदा सीमित है; इसलिए बड़ा संघर्ष है। तुम्हारे पास है तो मेरे पास नहीं हो सकती। मेरे पास है तो तुम्हारे पास नहीं हो सकती। न्यून है संसार की संपदा। इसलिए वहां तो प्रतियोगिता रहेगी, गलाघोंट प्रतियोगिता रहेगी।
लेकिन परमात्मा तो असीम है। मुझे परमात्मा मिल जाए, इससे तुम्हारे मिलने में कोई बाधा नहीं पड़ती। कि तुम्हें सब कैसे मिलेगा क्योंकि मुझे मिल गया है, कि तुम्हें मिल गया तो, अब तुम्हारे पड़ोसी को कैसे मिलेगा, परमात्मा असीम है। सच तो यह है, मुझे मिल गया इसलिए तुम्हें आसानी से मिल सकेगा। अगर तुम्हारे पड़ोसी को भी मिल गया, तो तुम्हें और भी आसानी से मिल सकेगा। जितने ज्यादा लोगों को मिल जाए, उतनी सुविधा तुम्हारे भी मिलने की हो जाएगी। बुद्ध को मिला, इसलिए तुम्हारा छिना नहीं, बुद्ध को मिला, इसलिए तुम्हें याद है कि हमें भी खोजना है। अगर बुद्ध को मिल सका तो हमें भी मिल सकता है, यह आश्वासन पैदा होता है।
तो परमात्मा कोई न्यून संपत्ति नहीं है। इसलिए अर्थशास्त्र का जो नियम जगत में लागू होता है, वह परमात्मा में लागू नहीं होता। उससे उल्टी दशा है वहां। वहां मुट्ठी बांधने की जरूरत नहीं है। क्योंकि परमात्मा ऐसा धन है जो तुम्हारा है ही, मुट्ठी बांधने की कोई जरूरत नहीं। न उसे कोई चुरा सकता है, न कोई छीन सकता है। कृष्ण ने कहा हैः न उसे शस्त्र छेद सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। मृत्यु भी उस संपदा का बाल बांका न कर सकेगी। मुट्ठी क्यों बांधनी है? मुट्ठी बांधने में सांसारिक भ्रांति काम कर रही है। परमात्मा को तिजोरी में बंद करके थोड़े ही रखना है, संसार में किसी चीज को बांटो तो कम हो जाती है, परमात्मा के जगत में किसी चीज को रोको तो कम हो जाती है, बांटो तो बढ़ती है। जैसे प्रेम जितना बांटो उतना बढ़ता है। इसलिए प्रेम परमात्मा का सूत्र है। परमात्मा जिसे मिल जाता है उसे बांटना ही होता है। वह जितना बांटता है, उतना ज्यादा पाता है।
फिर मुट्ठी बांधने की आकांक्षा अहंकार की आकांक्षा है। मेरा हो! मुट्ठी किसकी है? मुट्ठी यानी अहंकार--मेरा हो! परमात्मा किसी का नहीं हो सकता। जब मैं-भाव मिटता है, तब परमात्मा प्रकट होता है।
तो विशेष, तुम ठीक कहते होः
उठूं ऊपर या मनुहार करूं
पता नहीं पाता हूं’
न तो ऊपर उठने से मिलेगा, क्योंकि ऊपर उठने की आकांक्षा भी अहंकार की आकांक्षा है। ख्याल करना, अहंकार ऊपर उठना चाहता है, श्रेष्ठ होना चाहता है। अहंकार महत्वाकांक्षी है, बड़े से बड़े पद पर होना चाहता है--और ऊपर, और ऊपर... । ऊपर उठने से परमात्मा नहीं मिलेगा। और जो लोग आकाश की तरफ देखते हैं परमात्मा को ख्याल करके, ख्याल रखना, वे अहंकार की ही भाषा बोल रहे हैं--ऊपर। परमात्मा भीतर है, ऊपर नहीं। ऊपर उठने से नहीं मिलेगा। चले जाओ उठते आकाश में, नहीं मिलेगा।
लोग सोचते थे पहले कि कैलाश पर्वत पर है। फिर आदमी कैलाश पर्वत पर पहुंच गया, वहां नहीं पाया। फिर सोचने लगे चांद पर है; अब आदमी चांद पर पहुंच गया, वहां भी नहीं पाया। तुम्हें मालूम है रूस में उन्होंने अंतरिक्ष यात्राओं से आए हुए पत्थरों इत्यादि का संग्रहालय बनाया है। उस पर जो वचन खोदा है संग्रहालय पर, वह यही है कि ‘चांद पर भी खोज लिया गया, ईश्वर वहां भी नहीं है।’
यूरी गागारिन ने लिखा है, जब वह अपने गांव पहुंचा, तो एक बूढ़ी स्त्री, होगी कोई अस्सी-पच्चासी साल की, उसने उसे पकड़ लिया और कहाः गागारिन सच में तू चांद पर होकर आया है? परमात्मा के दर्शन हुए? गागारिन ने कहा कि नहीं, कोई परमात्मा नहीं है। वह बूढ़ी हंसने लगी, उसने कहाः तू मुझे धोखा मत दे! या तो तू चांद पर नहीं गया, और या फिर मजाक कर रहा है। बूढ़े आदमियों से मजाक नहीं करना चाहिए। सच-सच बता! यूरी गागारिन ने लिखा है कि दो ही विकल्प थे। या तो मैं गया ही नहीं हूं चांद पर; और अगर गया हूं तो झूठ बोल रहा हूं। क्योंकि परमात्मा चांद पर है। अब चांद पर आदमी पहुंच गया, परमात्मा को वहां से भी हटना पड़ेगा। हट ही गया। अब रखो कहीं भी उसको, वहां भी आदमी पहुंच जाएगा। तुम ऊपर-से-ऊपर रखते हो और परमात्मा तुम्हारे भीतर है। भीतर-से-भीतर।
ऊपर की खोज, ऊपर उठने की खोज अहंकार की खोज है।
उठूं ऊपर या मनुहार करूं
और मनुहार भी, स्तुति भी अहंकार का ही उपाय है। चलो झुका जाता हूं, तुम्हारे चरणों में सिर रखे देता हूं। देखो मेरा त्याग, देखो मेरी विनम्रता! मेरा झुकना देखो, मेरा समर्पण देखो! यह भी अहंकार की ही प्रक्रिया है।
अहंकार के दो ढंग हैं। पहले झुकाने की कोशिश करता है दूसरे को। सारे संसार में यह कोशिश चलती है कि झुका लो दूसरे को, किसी तरह झुका लो दूसरे को। झुकाना अहंकार की भाषा है। फिर अहंकार सोचता है, परमात्मा को तो झुकाया नहीं जा सकता, इसलिए हम झुक जाएं। मगर भाषा वही की वही है। शीर्षासन कर रही है वही भाषा, लेकिन वही की वही है--हम झुक जाएं। न तो परमात्मा झुकाने से मिलता है, न झुकने का सवाल है। क्योंकि झुकने में भी अहंकार मौजूद है। मिटने से मिलता है, झुकने का सवाल है। क्योंकि झुकने में भी अहंकार मौजूद है। मिटने से मिलता है, झुकने से नहीं। मिटने से! बाल भी नहीं बचना चाहिए तुम्हारा, अहंकार का भाव भी नहीं बचना चाहिए। यह भी अहंकार का नया परिवेश है कि देखो, मैं झुक गया! देखो, मैं ना-कुछ हूं! यह भी दावा अहंकार का है। यह बड़ा शुभ दावा मालूम होता है। यह साधु का दावा है कि देखो, मैं बिल्कुल ना-कुछ तुम्हारे पैर की धूल।
तुमने कभी देखा, कोई आदमी कहे कि मैं ना-कुछ, मैं आपके पैर की धूल और तुम कह दो कि भई, हमें तो पहले ही से मालूम। हम तो पहले ही से कहते हैं कि तुम हो ही पैर की धूल, कुछ भी नहीं! वह आदमी तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगा। कभी क्षमा नहीं करेगा! उसका मतलब यह थोड़े ही था कि तुम मान ही लो कि मैं तुम्हारे पैर की धूल हूं। वह तो यह कह रहा था कि देखो मुझे, दुनिया अहंकार से भरी है, एक मैं हूं--निर-अहंकारी! जरा देखो मुझे कि तुम्हारे जैसे दो कौड़ी के आदमी के पैर की धूल बता रहा हूं अपने को! जरा मेरी गरिमा समझो। और तुमने कह दिया कि भई, तुम नाहक मेहनत कर रहे हो, हमें तो पता ही है, तुम हो ही पैर की धूल।
मैंने सुना है, एक राजनेता एक मनोवैज्ञानिक के पास गया और कहा कि मैं हीनता की ग्रंथि से पीड़ित हूं, इंफीरिआरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित हूं। मनोवैज्ञानिक ने विश्लेषण किया, महीने दो महीने चिकित्सा की, सोच-विचार किया। फिर एक दिन उसने कहा कि तुम बिल्कुल निश्चिंत हो जाओ, तुम्हें चिंता का कारण नहीं है। राजनेता बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने कहा कि क्या छुटकारा हो गया मेरा झंझट से? मनोवैज्ञानिक ने कहा, मुझे गलत मत समझो, सच बात यह है कि सारी खोजबीन से यह पता चला कि तुम हीनता की ग्रंथि से पीड़ित नहीं हो, तुम हीन हो ही। यह कोई बीमारी नहीं है। उसका कोई इलाज भी नहीं है। क्योंकि तुम यह हो ही। तुम शुद्ध, साकार हीनता हो, और कुछ भी नहीं।
अब यह राजनेता क्षमा नहीं करेगा इस मनोवैज्ञानिक को। हीनता की ग्रंथि से लोग पीड़ित होते हैं। वे यह कह रहे हैं कि हम हीन तो नहीं हैं, मगर यह हीनता की ग्रंथि हम पर सवार है। इससे हमें छुटकारा दिला दो। हैं तो हम बड़े श्रेष्ठ, मगर हमें यह भ्रांति सवार हो गई है कि हम श्रेष्ठ नहीं हैं। यह बीमारी छीन लो, हमें हमारी श्रेष्ठता वापस कर दो।
नहीं, ऊपर उठना, मनुहार करना, इनसे कुछ भी न होगा, पता तुम्हें मिलेगा नहीं। और परमात्मा का कोई पता थोड़े ही है! और जितने पते दिए गए हैं, कोई काम न आएंगे। जानने वालों ने कोई पता नहीं दिया है। जानने वालों ने कहाः लापता है; बेमुकाम है; उसकी कोई जगह नहीं है। हां, न जानने वालों ने पता पूछने वालों का खूब शोषण कर लिया है। तो उन्होंने बना दिया काबा कि यहां है, खड़ी कर दी काशी कि यहां है। यह रहा मंदिर, चढ़ाओ अपनी पूजा और अर्चना यहां।
वहां सिर्फ पंडित और पुजारी बसे हैं।
नानक काबा गए। रात सोए तो बड़ी सनसनी फैल गई, क्योंकि वह काबा के पत्थर की तरफ पैर करके सो गए। संत ही ऐसा कर सकता है। यह कोई साधु की हिम्मत नहीं है। साधु तो चूमते हैं काबा के पत्थर को। अब देखते हो मूढ़ता! मोहम्मद ने कहा कि उसकी कोई प्रतिमा मत बनाना। और काबा का पत्थर जितना चूमा गया है, दुनिया का कोई पत्थर नहीं चूमा गया! यह प्रतिमा बन गई। और क्या प्रतिमा का अर्थ होता है?
लेकिन नानक पैर करके सो गए। पुजारी आए और वे नानक से बहुत नाराज हुए, और कहाः हमने तो सुना था कि तुम एक फकीर हो, एक पहुंचे हुए संत हो, यह क्या मामला है--यह क्या व्यवहार? तुम्हें इतनी भी तमीज नहीं? यह बदतमीजी है कि तुम पवित्र पत्थर की ओर पैर करके सो रहे हो। परमात्मा का यह अपमान है। तो नानक ने कहाः मेरे पैर उस ओर कर दो जहां परमात्मा न हो। मैं खुद मुश्किल में हूं कि पैर करूं तो करूं कहां? सोऊं तो न! पैर कहां करूं? तुम पैर कर दो मेरे जहां परमात्मा न हो।
बात तो इतनी ही है, लेकिन कहानी लिखने वालों ने थोड़ी और खींची है। वह खींचना भी सार्थक है, व्यर्थ नहीं है।
पुजारियों ने, कहते हैं, नानक के पैर दूसरी दिशा में करने की कोशिश की, लेकिन जिस दिशा में पैर किए, वहीं काबा का पत्थर हट गया। ऐसा हुआ हो, ऐसा मैं नहीं मानता। ऐसा हो सकता है, ऐसा भी नहीं मैं मानता। लेकिन बात सार्थक है। बात इतनी ही है कि कहीं भी पैर करो, परमात्मा तो वहीं है। काबा का पत्थर हटे कि न हटे, सब तरफ वही विराजमान है। उसका पता कैसे हो सकता है? पता उनका हो सकता है जिनकी सीमा है। हां, तुम्हारा पता हो सकता है। उसका पता कैसे हो सकता है?
मैंने सुना, एक अजनबी बहुत देर से किसी का घर ढूंढ रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन उसे एक झाड़ के नीचे बैठा मिल गया। तो उसने मुल्ला से पूछा कि बड़े मियां, ये मेनकाबाई कहां रहती हैं? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, वे क्या करती हैं? अजनबी ने कहाः डांसर हैं, नर्तकी हैं। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहाः उनकी बड़ी-बड़ी आंखें हैं? अजनबी ने उत्साह से कहा, हां-हां वही! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा खूबसूरत हैं और नाभि के नीचे साड़ी बांधती हैं? अजनबी ने खुशी से कहा कि बिल्कुल ठीक, वही, वही! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, लहरा कर चलती है! लंबे-लंबे बाल हैं और... अजनबी ने बेचैनी से कहा, अरे मियां, बिल्कुल ठीक! जल्दी बताओ न कहां रहती हैं? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, मुझे क्या पता?
अजनबी बहुत झुंझलाया, उसने कहा कि इतना कुछ तुम्हें मालूम है और यह पता नहीं कि कहां रहती हैं? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, जी नहीं, सभी ‘डांसर’ ऐसी ही होती हैं।
परमात्मा का क्या पता हो सकता है? परमात्मा कोई ‘डांसर’ तो नहीं। परमात्मा का कोई चेहरा तो नहीं, कोई रंग-रूप तो नहीं। परमात्मा की कोई दिशा तो नहीं, कोई स्थान तो नहीं। तो तुम कितने ही ऊपर उड़ो और कितनी ही मनुहार करो, तुम पता नहीं पाओगे। और अकसर ऐसा हो जाता है कि जब बहुत खोज से पता नहीं मिलता तो आदमी सोच लेता है--परमात्मा होगा ही नहीं। यह सबसे बड़ा खतरा है खोज का। क्योंकि खोजी जब थक जाता है, हताश हो जाता है, ... कब तक खींचता रहे खोज को?
यह दुनिया में जो इतने नास्तिक हुए हैं, इन पर तुम नाराज मत होना। ये भी खोजी हैं। ये भी पता खोजने निकले थे और पता नहीं मिला। आखिर एक सीमा होती है धैर्य की! कब तक माने चले जाएं उसको जिसका कोई पता नहीं मिलता? एक घड़ी तो आदमी को तय करना पड़ता है कि भाई, होगा ही नहीं। इतना खोजा और नहीं मिलता, तो अब हम कब तक अपना जीवन गंवाते रहें? कुछ और भी तो करना है।
लेकिन कठिनाई यह नहीं है कि परमात्मा नहीं है। परमात्मा तो है, तुम्हारी खोज की दिशा भ्रांत है। वह बाहर नहीं है, वह ऊपर नहीं, कल्पना की उड़ानों से नहीं मिलेगा। और न ही तुम्हारी तथाकथित स्तुतियों और मनुहार से मिलेगा। परमात्मा की प्रशंसा करने से परमात्मा नहीं मिलेगा। जरा सोचो तो कि तुम प्रशंसा करके क्या उसको समझा पाओगे? प्रशंसा तुम उनकी करते हो जिन्हें अहंकार मैं रस है। वे प्रसन्न हो जाते हैं। किसी राजनेता की तुम प्रशंसा करो, वह खुश हो जाता है। तो लाइसेंस इत्यादि दिलवा देगा। लड़के को नौकरी लगवा देगा। वह खुश हो जाता है, क्योंकि चाहता है कि कोई मेरे अहंकार को बढ़ाए, चार फूल लगा दे, मेरे अहंकार में चार-चांद लगा दे।
लेकिन परमात्मा के तो सारे चांद लगे ही हुए हैं, तुम क्या लगाओगे? सारे चांद उसके हैं, सारे तारे उसके हैं। सारे फूल उसके लिए चढ़े ही हैं और सारे गीत उसी की प्रार्थना में उठ रहे हैं। सागर में उठती हुई लहरें उसी के चरणों में समर्पित हैं। आकाश में घूमते तारे उसी का परिभ्रमण कर रहे हैं, उसी की परिक्रमा लगा रहे है। हिमालय के उत्तुंग शिखर उसकी ही स्तुति में खड़े हैं, उसी का ध्यान कर रहे हैं। नदियों का कलकल नाद आराधना नहीं तो और क्या है? यह सारा अस्तित्व स्तुतिमग्न है। यह सारा अस्तित्व ध्यान में लीन है। छोटे से घास के तिनके से लेकर महासूर्यों तक उसकी ही तो पूजा चल रही है, अहर्निश। तुम इसमें क्या जोड़ोगे विशेष? तुम क्या विशेष इसमें जोड़ सकोगे? तुम्हारे शब्द तुतलाते से ही होंगे। बड़े-बड़े ज्ञानियों के भी शब्द तुतलाहट से ज्यादा नहीं हैं। हम क्या कहेंगे? हम कैसे उसका मनुहार करें, कैसे हम उसे राजी करें? हमारा सब कहा छोटा पड़ेगा। हमारा सब कहा व्यर्थ होगा।
चुप हो जाओ! कहना छोड़ो, कल्पना में उड़ना छोड़ो। ऊपर मत खोजो उसे, बाहर मत खोजो उसे। इससे तो उसे कुछ लाभ नहीं होगा। वह कोई सम्राट तो नहीं है कि स्तुतियों से प्रसन्न हो! और न ही तुम्हारे इनकार से अप्रसन्न होता है। वह कोई व्यक्ति तो नहीं है कि तुम उसे चोट कर सको। या, उसके पैर दबा सको और उसे प्रसन्न कर सको।
जितना मुट्ठी को कसता हूं
दूर चला जाता हूं
समझो इससे! कि अब मुट्ठी नहीं कसनी है। उसे पाने का ढंग मुट्ठी खोलना है। उसे खोजने का ढंग खोजना नहीं है, सारी खोज छोड़ देना है। आंख बंद कर के भीतर बैठे रहना है। दौड़ कर नहीं पाया जाता है वह, बैठ कर पाया जाता है। संसार में सब चीजें दौड़ कर पाई जाती हैं, परमात्मा दौड़ छोड़ कर पाया जाता है। संसार में सब चीजें विचार करके पाई जाती हैं, परमात्मा निर्विचार से पाया जाता है।
संसार को पाने का ढंग और उसको पाने का ढंग बिल्कुल विपरीत है। अगर तुम इन्हीं ढंगों का उपयोग करते गए तो एक न एक दिन नास्तिक हो जाओगे। इसी तरह दुनिया में लोग नास्तिक हैं। और अगर नास्तिक न हुए तो और भी बड़ा खतरा है, झूठे आस्तिक हो जाओगे। मान ही लोगे कि चलो छोड़ो, होगा। अपनी तो सामर्थ्य नहीं है, अपने को तो मिलता नहीं है, लेकिन जो कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे--होगा ही। मान लो, झंझट मिटाओ।
अधिकतर लोग परमात्मा को माने बैठे हैं, क्योंकि झंझट में नहीं पड़ना चाहते हैं। कौन झंझट करे? और कौन इस व्यर्थ के विवाद में उलझे? यह अंतहीन विवाद है, कौन पार पाया है, चलो मान ही लो। टालने के लिए लोग मान लेते हैं। अकसर सज्जनतावश लोग मान लेते हैं कि हां-हां, ईश्वर है; जरूर है। इसका मतलब है कि बस, अब बातचीत बंद करो। अब ईश्वर के संबंध में और क्या कहने की जरूरत है, जब हम मान ही लिए तो अब तो कुछ विवाद करना नहीं है। है भाई, है--वह यह कह रहे हैं। जरूर है। अब कुछ और बात करो! अब कुछ काम की बात करो!
अच्छे, सुसंस्कृत लोग ईश्वर की चर्चा नहीं करते। मान ही लेते हैं। रविवार को हो भी आते हैं चर्च में, कभी जरूरत पड़ती है सत्यनारायण की कथा भी करवा लेते हैं--खुद नहीं सुनते, मोहल्ले वालों को लाउडस्पीकर लगवा कर सुनवा देते है--कभी यज्ञ-हवन भी करवा देते हैं, कि झंझट खत्म करो! हो तो ठीक है, न हो तो ठीक है, न हो तो क्या बिगड़ गया? हो तो कहने को रह जाएगा, कभी आमना-सामना हो जाएगा तो कह देंगेः हवन करवाया था।
ऐसे एक सज्जन मरे। मानते तो नहीं थे कि परमात्मा है, लेकिन होशियार थे, चालबाज थे। तो एक बार हवन करवा लिया था। जब देखा, स्वर्ग में और परमात्मा से साक्षात्कार हुआ तो बहुत घबड़ाए। सोचने लगे कि दो-चार दफे और करवा लिया होता तो अच्छा था। सत्यनारायण की कथा भी करवा ली होती तो अच्छा था। यह तो बड़ी झंझट हो गई। कभी चोटी भी नहीं रखी, जनेऊ भी नहीं पहना, अब झंझट में पड़े! अब यह मुसीबत आई! जिंदगी यूं ही गंवा दी! लेकिन फिर भी इतना भरोसा था कि एक दफा करवाया है कम से कम, उसका तो कुछ फल मिलने ही वाला है। परमात्मा ने आंख उठाई और पूछा कि कहो, कैसे आए? कभी कोई धर्म किया? डरते-डरते कहाः हां किया तो; ज्यादा तो नहीं कर पाया, क्षमा करना आप, एक दफा हवन करवाया था। कितना खर्च हुआ था? तीन रुपए खर्च हुए थे। सस्ता हवन! ऐसे ही मोहल्ले-पड़ोस के सस्ते पंडित-पुरोहित ने करवा दिया होगा! ज्यादा तो भरोसा था भी नहीं, इससे ज्यादा खर्च कर भी नहीं सकते थे। कामचलाऊ हवन।
ईश्वर थोड़ा चिंतित हो गया, आंख बंद करके सोचने लगा कि क्या करें? अपने सहयोगी से पूछा कि भाई, क्या करें, इन सज्जन का क्या करें? सहयोगी ने कहा कि तीन रुपये इनको वापस दें और नरक भेजें! और क्या करेंगे? इनको तीन रुपए लौटा दें, ब्याज चाहिए हो तो ब्याज दे दें, और नरक भेजें।
आदमी या तो नास्तिक हो जाता है, जोकि ज्यादा ईमानदारी की बात है। और मैं पसंद करूंगा कि अगर परमात्मा न मिलता हो तो बेहतर है नास्तिक होना। कम से कम ईमान तो होगा, सच्चाई तो होगी, कि मुझे नहीं मिला, मैं कैसे मानूं? और जिसको इतनी ईमानदारी हो कि मुझे नहीं मिला, कैसे मानूं, उसकी खोज बंद नहीं होगी। वह खोजता ही रहेगा, इधर से, उधर से, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, उसकी खोज जारी रहेगी।
दुनिया में सबसे बड़ा खतरा होता है झूठे आस्तिक को। वह मान ही लेता है, इसलिए खोज तो बिल्कुल ही बंद हो गई, अब तो कोई उपाय ही न रहा, वह कहता हैः परमात्मा है ही, खोजना क्या है? मंदिर हो आते, यज्ञ कर लेते, हवन कर लेते, रामायण पढ़ लेते, और क्या चाहिए?
दुनिया में सबसे बड़ा दुर्भाग्य झूठा आस्तिक है। झूठे आस्तिक से सच्चा नास्तिक बेहतर है। कम-से-कम सच्चा तो है। और सच्ची नास्तिकता एक दिन सच्ची आस्तिकता में ले जाती है। क्योंकि मनुष्य का स्वभाव ऐसा है कि ‘नहीं’ पर नहीं टिक सकता।
इसको तुम समझ लेना।
मनुष्य ‘नहीं’ में नहीं जी सकता। ‘नहीं’ में अड़चन बनी रहती है। ‘हां’ में ही जीवन खिलता है। ‘नहीं’ में सिकुड़ जाता है। जो आदमी ‘नहीं’ पर जीना चाहेगा, वह पाएगा हर जगह पत्थर अड़ गया, द्वार अवरुद्ध हो गया। हां से फैलाव है, ‘हां’ में फैलाव है। ‘नहीं’ में सिकुड़ जाता है आदमी। तुम जरा कहो, जब भी तुम ‘नहीं’ कहते हो, ख्याल करना तुम्हारे भीतर चेतना सिकुड़ जाती है। एक भिखमंगे ने तुमसे दो रोटी मांगी और तुमने कहा, ‘नहीं,’ तुम जरा ख्याल करना, तुम एकदम छोटे हो गए। तुम्हें भी लगता है कि तुम छोटे हो गए। इसलिए भिखमंगे भी होशियारी करते हैं। चार आदमियों के सामने मांगते हैं। क्योंकि चार आदमियों के सामने तुम्हें भी जरा लज्जा आएगी, इतना छोटे न हो सकोगे। अकेले में हो जाओ भला।
बीच बाजार में पकड़ लेते हैं भिखमंगे; कहते हैंः दो रोटी मिल जाएं; दाता! पहले से ही ‘दाता’ कह देते हैं। यह तुम्हारा अहंकार फुला रहे हैं। वह कह रहे हैं, देखो, कह दिया दाता, दो रोटी! बड़ा बना दिया, अब सिकुड़ मत जाना। और चार आदमियों की भीड़ है, बाजार चल रहा है, दुकानें खुली हैं, अब तुम सोचते हो दो रोटी के पीछे ‘दाता’ होना छोड़ना, और दो रोटी के पीछे छोटा होना बीच बाजार में, लोग क्या कहेंगे? तुम भिखमंगे को थोड़े ही दो रोटी देते हो, तुम दो रोटी दे देते हो ताकि छोटे होने का यह जो उपद्रव खड़ा कर दिया है इसने, इससे बच जाएं। तुम सिर्फ छुटकारा चाहते हो भिखमंगे से कि ले भाई, विदा हो। छोड़ मुझे, मेरा पिंड छोड़! भिखमंगा भी अकेले में तुमसे नहीं मिलता, रास्ते पर अकेले मिल जाओ तो वह निकल जाता है चुपचाप। वह जानता है कि अकेले में हो सकता है कि रोटी तो न मिले और गर्दन दबा दे यह आदमी। अकेले में कौन जाने और जो अपनी थाली में दो-चार पैसे पड़े हैं, छीन ले! अकेले का क्या भरोसा? उपदेश देने लगे कि मस्त-तड़ंग जमाने भर के और भीख मांगने चले हो, शरम नहीं आती? कुछ ज्ञान की बातें बताए!
तुम जब ‘नहीं’ कहते हो, सिकुड़ जाते हो; जब भी तुम ‘हां’ कहते हो, फैल जाते हो। तुम जिंदगी में .जरा इसको परखो। यह जीवन की रासायनिक प्रक्रिया है। आस्तिकता सबसे बड़ा फैलाव है। क्योंकि परमात्मा को ‘हां’ कहने का अर्थ अस्तित्व को ‘हां’ कहना है। हमने बिना किसी शर्त के अस्तित्व को स्वीकृति दे दी। हम इसके साथ हो लिए। यही आस्तिकता का अर्थ है। हमने अपने द्वार खोल दिए निःसंकोच।
मुट्ठी खोलो, मुट्ठी बांधने से नहीं मिलेगा। मुट्ठी खोलो और भीतर चलो मुट्ठी खोलने का अर्थ है, विश्राम। मुट्ठी खोलने का अर्थ है, स्वभाव। ख्याल किया तुमने, मुट्ठी को अगर तुम सदा बांध कर रखना चाहो, कितनी देर तक बांध कर रख सकते हो? लेकिन खुली तुम रखना चाहो तो जिंदगी भर रख सकते हो। क्योंकि मुट्ठी जब खुली होती है, स्वाभाविक होती है, जब बंद होती है, अस्वाभाविक होती है। बंद मुट्ठी में शक्ति खर्च हो रही है, खुली मुट्ठी में शक्ति खर्च नहीं होती। इसलिए मुट्ठी बांधनी पड़ती है, खोलनी नहीं पड़ती। तुम मुट्ठी बांध लो, बांधे रहो, तो तुम्हें ताकत लगानी पड़ रही है। तुम्हारी शक्ति व्यय हो रही है। मुट्ठी खोलले में क्या करना पड़ता है? सिर्फ इतना करना होता है कि मुट्ठी बांधना बंद करना होता है, बस! नहीं बांधते, मुट्ठी खुल जाती है। मुट्ठी का खुलना स्वाभाविक है।
स्वाभाविक हो जाओ, सरल हो जाओ, और भीतर खोजो। ऊपर नहीं उड़ना है, न मनुहार करनी है किसी की, क्योंकि परमात्मा तुमसे भिन्न नहीं है। किसकी मनुहार करते हो? यह ऐसा ही है जैसे दर्पण के सामने खड़े होकर कोई अपनी ही तस्वीर के पैरों में झुकता हो। परमात्मा तुमसे भिन्न नहीं है, तुम किसकी प्रशंसा कर रहे हो? परमात्मा तुम्हारा चैतन्य है। यह परमात्मा के चरणों में सिर झुकाया, यह अपने ही चरणों में सिर झुकाया, ऐसा है। इसका कोई मूल्य नहीं है।
रुको, ठहरो, बैठो, थोड़ा विश्राम का क्षण, विराम आने दो जीवन की आपा-धापी में; आंख बंद करो, भीतर डूबते जाओ, भीतर शांत होते जाओ, और एक दिन वह अपूर्व प्रकाश होता है। निश्चित परमात्मा जाना जाता है, जाना जा सकता है। लेकिन सम्यक दिशा। अंतर्यात्रा है परमात्मा।
परमात्मा न मिले तो भी हम अपने लिए तर्क खोज-खोज कर समझा लेते हैं कि इसलिए न मिला होगा। कोई मान लेता है, ईश्वर नहीं है, इसलिए नहीं मिला। कोई मान लेता है कि हमारे पाप बहुत हैं, इसलिए ईश्वर नहीं मिला। कोई मान लेता है, कर्मों का जाल, इसलिए ईश्वर नहीं मिला। कोई मान लेता है, हमारे भाग्य में नहीं है, विधि में नहीं है, इसलिए ईश्वर नहीं मिला। ये सब हमारे उपाय हैं अपने को समझा लेने के।
मैंने सुना है, शहर में जन्मे और शहर में ही पले हुए एक हास्य कवि गांव गए। वह अपने मेजबान की बेटी को दूध दुहते देख रहे थे कि उन्हें एक लंबा-चौड़ा सांड सिर झुकाए उन्हीं की ओर सरपट भाग कर आता हुआ दिखाई दिया। लपक कर वे घर में घुस गए। वहां से उन्होंने खिड़की में से झांक कर देखा कि मेजबान की लड़की निश्चिंत बैठी दूध दुहती रही और सांड गाय के पास तक आया, फिर एकाएक चौंक कर वापस मुड़ा और सीधे वापस भाग गया। जब सांड आंखों से पूरी तरह ओझल हो चुका, तब हास्य कवि जो बाहर निकले और दरयाफ्त करने लगे कि वह सांड गाय के नजदीक तक आकर चौंका क्यों और वापस क्यों भागा? कृषक-कन्या ने उत्तर दियाः यह गाय उसकी सास जो है!
मूढ़तापूर्ण प्रश्न पूछोगे, मूढ़तापूर्ण उत्तर या तो कोई दूसरा तुम्हें दे देगा, अगर कोई दूसरा न देगा तो तुम खुद ही अपने निर्मित कर लोगे।
ईश्वर क्यों नहीं मिलता? या तो कोई दूसरा तुम्हें उत्तर देनेवाला मिल जाएगा--उत्तर देने वालों की कमी नहीं है। एक खोजो हजार मिलते हैं। उत्तर देने वाले तैयार ही बैठे हैं कि आओ, पूछो! उत्तर देने वाले कोशिश में ही लगे हैं कि पूछते क्यों नहीं? उत्तर देने वाले गर्दन पकड़ने को तैयार बैठे हैं कि कोई पूछ ले और वह उसकी गर्दन पकड़ लें। उत्तर तैयार किए बैठे हैं। तोतों की तरह रटे बैठे हैं। नहीं पूछ रहे हो, इससे उनका चित्त बड़ा बेचैन हो रहा है। तो या तो कोई तुम्हें दूसरा उत्तर दे देगा कि पिछले जन्मों के पापों के कारण, कि भाग्य के कारण, कि कर्म के कारण, कि इस कारण, कि उस कारण। अगर नास्तिक से मिल गए तो वह कहेगा, है ही नहीं मिले कैसे? होता तो कभी का मिल जाता। किसी को कभी नहीं मिला है। और बहुत संभावना है कि इन में से कोई न कोई उत्तर तुम्हारे मन के अनुकूल जो आ जाए, उससे तुम राजी हो जाओगे और खोज समाप्त हो जाएगी।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं, ये सब उत्तर गलत हैं। ये सब उत्तर गलत हैं। न तो पाप तुम्हें रोक रहे हैं। क्योंकि तुमने जो पाप किए, वे सब सपने में किए, वे क्या खाक रोकेंगे! जैसे रात नींद में किसी ने चोरी की सपने में। सुबह जब आंख खुलती है, तो क्या तुम सोचते हो कोई पाप किया? कि रात नींद में किसी की हत्या कर दी। सुबह जब आंख खुलती है तो
क्या तुम सोचते हो कि अब क्या करें, कैसे पश्चात्ताप करें? तुमने जो भी किया है अब तक, नींद में किया है, मूर्च्छा में किया है। तुम्हारा किया हुआ कुछ भी पाप नहीं है। ये पाप इत्यादि सिर्फ बहाना है अपने को समझाने का कि क्या करें, इतना पुण्य हमारा नहीं कि परमात्मा मिले! मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हें परमात्मा इसी क्षण मिल सकता है, एक ही चीज करने जैसी जरूरी है। जिस दिशा में परमात्मा है, उस दिशा में खोजो। कोई चीज और अड़चन नहीं है। आंख बंद करो और भीतर झांको, अपने स्वभाव में झांको। स्वभाव परमात्मा है। और जब तुम उसे भीतर देख लोगे, तो वह तुम्हें सब तरफ बाहर भी दिखाई पड़ेगा। जिसने अपने को पहचाना, उसने सबको पहचाना।
आखिरी प्रश्नः आप राजनेताओं का सदा मजाक क्यों उड़ाते हैं? और यह भी जानना चाहता हूं कि राजनेता चूड़ीदार पाजामा ही क्यों पहनते हैं?
यह जरा कठिन सवाल है।
राजनेताओं का मैं मजाक नहीं उड़ाता, ‘राजनेता’ एक तरह की गाली है। किसी को भूल कर ‘राजनेता’ मत कहना।
मैंने सुना है, मार्क ट्वेन ने लिखा है, सत्रह फरवरी को जार्ज ए रोड्रिक ने न्यूयार्क में धारासभा के भवन के सामने डा. आर विल्सन से झगड़ा शुरू कर दिया। बहुत देर तक तो विल्सन गालियां सुनते रहे और अपना गुस्सा रोके रहे। रोड्रिक ने उन्हें चोर कहा, झूठ बोला कहा, ठग कहा, उसे भी विल्सन ने शांति से सुन लिया। रोड्रिक ने एक के बाद एक कलुषित विशेषण विल्सन पर लादता चला गया। और अंत में उसने उन्हें उल्लू के पट्ठे, हरामखोर, और-और शब्द कहे, लेकिन विल्सन फिर भी शांति से सुनता रहा। फिर तो ऐसी गालियां दीं जो न लिखी जा सकती हैं, न कही जा सकती हैं। मगर विल्सन भी अदभुत था, बिल्कुल बुद्ध की तरह खड़ा रहा और सुनता रहा! और तब अंत में उसने कहाः नेताजी के बच्चे! अरे, संसद के सदस्य! ऐसा सुनना था कि विल्सन उछल कर खड़ा हो गया और रोड्रिक से बोला कि यह अपमान मैं किसी भी तरह सहन नहीं करूंगा, और गोली मारकर उसे ठंडा कर दिया। अदालत ने डाक्टर विल्सन को यह कह कर बरी कर दिया कि उसके उत्तेजित हो जाने का कारण उचित था।
मुझे पता नहीं है यह कहानी कहां तक सच है। मगर सच होनी चाहिए।
‘नेताजी’ एक तरह की गाली है। राजनीति में उत्सुक ही लोग छुद्र वृत्ति के होते हैं। सबसे ओछे लोग राजनीति में उत्सुक होते हैं। समाज का निम्नतम तल राजनीति में उत्सुक होता है। जो कुछ और नहीं हो सकते, वे राजनेता हो जाते हैं। जो संगीतज्ञ हो सकता है, वह राजनेता होना चाहेगा! वीणा छोड़कर! जो चित्रकार हो सकता है, वह राजनीतिज्ञ होना चाहेगा! तूलिका छोड़ कर! जिसके कंठों से गीत उठ सकते हैं, जिसके गीत लोगों को मस्त कर सकते हैं, वह राजनेता होना चाहेगा। जो कुछ भी हो सकता है, वह राजनेता नहीं होना चाहेगा। जिसके जीवन में सृजन की क्षमता है, वह राजनेता नहीं होना चाहेगा। राजनेता होते ही वे लोग हैं जो कुछ और नहीं हो सकते। न जिनसे गीत बन सकते, न चित्र, न मूर्तियां; जिनसे कोई सृजन नहीं हो सकते, सृजन की क्षमता से बिल्कुल शून्य लोग राजनेता हो जाते हैं। और फिर स्वभावतः वे जो करते हैं, वह सभी के सामने प्रकट है।
मैंने सुना, एक राजनीतिक पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक हो रही थी कि एक सदस्य की जेब कट गई। कार्यकारिणी की बैठक में! वे तुरंत ही कुर्सी पर खड़े भी हो गए और चिल्ला कर बोलेः प्रिय सज्जनो, किसी ने मेरी जेब से छह सौ रुपये निकाल लिए हैं। जो व्यक्ति मुझे इसका पता लगा कर देगा, उसे मैं पचास रुपए दूंगा। एक कोने से आवाज आई, मैं पचहत्तर दूंगा। दूसरे कोने से आवाज आई, मैं सौ दूंगा। जैसे कि कोई नीलामी हो रही हो!
रेलगाड़ी में सफर करते हुए एक नेताजी ने अपने पास बैठे मुसाफिर से कहाः आप मेहरबानी कर के मुझे अपनी ऐनक थोड़ी देर के लिए देंगे? उसने ऐनक उतार कर दे दी। ऐनक लेकर नेताजी बोले, चूंकि आप ऐनक के बगैर पढ़ नहीं सकते, इसलिए अब अपना अखबार भी मेरी तरफ कर दीजिए।
इन नेताओं के संबंध में मजाक करने की काई जरूरत ही नहीं है।
नेता
इस हाथ लेता
उस हाथ भी लेता
नेता की मुस्कान
चौबीस घंटे--
ज्यों खुली कोई दुकान
नेता का लिबास
आम आदमियों को
कर देता खास
नेता के नारे
घोड़ों को--
ज्यों कोचवान पुचकारे
नेता का वादा
हर बार--
पिटा हुआ प्यादा
और तुमने जो सवाल पूछा है, वह और भी कठिन है कि राजनेता चूड़ीदार पाजामा ही क्यों पहनते हैं? चूड़ीदार पाजामा की एक खूबी है! कि अगर तुम किसी का उतारना चाहो तो जल्दी उतार नहीं सकते। और राजनेता एक दूसरे का पाजामा उतारने की कोशिश करते रहते हैं। कौन किसका नाफा पहले खोल दे! तो चूड़ीदार पाजामे का बड़ा मूल्य है। उसमें बड़ी सुरक्षा है। पहन तो खुद लो, उतार कोई नहीं सकता। बड़ी खींचतान हो, तब कहीं उतर पाता है। राजनेता बड़े सोच-समझ कर चूड़ीदार पाजामा चुने हैं।
अभी तुम देख रहे हो, दिल्ली में एक-दूसरे का नाफा खोलने में लगे हैं। सब एक-दूसरे के नाफे को पकड़े हैं। कौन किसका पहले खोल लेगा, कौन अपना बचा लेगा!
राजनीति गंदे से गंदा खेल है।
कभी-कभी जो मैं राजनीति की मजाक उड़ाता हूं, वह सिर्फ इसलिए कि तुम सावधान रहो। सब के मन में राजनीति छिपी है। उसे दग्ध कर देना है, उसे जला देना है। महत्त्वाकांक्षा का, राजनीति का जरा सा बीज तुम्हारे भीतर रह जाए तो वही तुम्हें भटकाएगा।
राजनीति से जो मुक्त है, वही निर्मल है। और जो निर्मल है, वही परमात्मा का पात्र है।
आज इतना ही।
thank you guruji
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