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बुधवार, 15 अगस्त 2018

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन--परमात्मा सबरंग है

प्रश्न-सार

॰ क्या हम वासना करने और नहीं करने के लिए स्वतंत्र हैं?
॰ कबीर और धरमदास को लाल रंग पसंद था, मोहम्मद को हरा और नानक को नीला रंग पसंद था। कृपा कर इसका रहस्य समझाएं।
॰ कबीर और धरमदास जैसे परम भक्त भी रोने-धोने के गीत लिखें, यह समझ में नहीं आता।
॰ दस साल से शराब पीना, धूम्रपान, जुआ खेलना, आदि व्यसन जुड़े थे। संन्यास लेते ही सब तिरोहित हो गए। अब तो बिना पीए नशा चढ़ा रहता है।


पहला प्रश्नः क्या हम वासना करने और नहीं करने के लिए स्वतंत्र हैं?

॰ यह प्रश्न थोड़ा जटिल है और मनुष्य की जीवन-प्रक्रिया में उतरे बिना समझ में न आ सकेगा। जब तक मैं-भाव है तब तक कोई स्वतंत्रता नहीं है। तब तक, डोरा साहेब हाथ। जब तक अहंकार है तब तक कोई स्वतंत्रता नहीं है। और मजा यह है कि अहंकार ही स्वतंत्र होना चाहता है। और अहंकार स्वतंत्र नहीं हो सकता। अहंकार अज्ञान है, अज्ञान में कहां स्वतंत्रता! अहंकार निद्रा है, निद्रा में कहां स्वतंत्रता! अहंकार मूच्र्छा है, मूच्र्छा में कहां स्वतंत्रता!
लेकिन मनुष्य अहंकार से मुक्त हो सकता है। और अहंकार से मुक्त होते ही स्वतंत्रता उपलब्ध हो जाती है। स्वतंत्र तब कोई नहीं होता लेकिन स्वतंत्रता होती है। यह जटिलता है, यह पहेली है। जब तक स्वतंत्र होने के लिए कोई है तब तक स्वतंत्रता नहीं; और जब स्वतंत्र होने के लिए कोई भी न बचा तब स्वतंत्रता। उन्हीं को मिलती है स्वतंत्रता, जो स्वतंत्र होना ही नहीं चाहते; जो प्रभु के चरणों में अपने को सब भांति समर्पित कर देते हैं।
यह सवाल भी कि मैं स्वतंत्र रहूं, एक अर्थ में प्रभु से संघर्ष है। इसमें विरोध है। इसमें लड़ाई है। मैं स्वतंत्र रहूं इसका अर्थ यह हुआ कि परमात्मा का बस मुझ पर न हो, मेरा बस मुझ पर हो। मैं जो चाहूं वह हो। मैं जैसा चाहूं वैसा हो। उसकी मर्जी मेरी मर्जी नहीं। और तब तुम परतंत्र हो। क्योंकि उसकी मर्जी ही मर्जी है। तब तुम्हें जगह-जगह परतंत्रता का अनुभव होगा। जगह-जगह तुम दीवाल से टकराओगे। और ध्यान रखना, परमात्मा तुम्हारे लिए दीवाल नहीं बना था टकराने के लिए। उसने सब जगह द्वार बनाए हैं। खुला आकाश है उसका। लेकिन तुम्हारा अहंकार झंझट खड़ी कर देता है। तुम्हारा अहंकार दीवाल निर्मित कर देता है। तुम्हारा अहंकार तुम्हारी आंख पर पर्दा हो जाता है। और अहंकार स्वतंत्र होना चाहता है। और अहंकार ही है जो स्वतंत्र नहीं होने देता। इस जटिलता को समझोगे तो इस प्रश्न के सुलझाव का रास्ता बनेगा।
अहंकार तुम्हारी गुलामी है। मैं ही तुम्हारा बंधन है। और किसने तुम्हें बांधा है? जैसे ही यह मैं मिटा, फिर स्वतंत्रता ही स्वतंत्रता है। तुम नहीं हो और स्वतंत्रता है। उसी स्वतंत्रता का नाम परमात्मा है।
परमात्मा स्वतंत्र है। परमात्मा स्वतंत्रता है। उसके साथ एक होकर तुम भी स्वतंत्र हो, तुम भी स्वतंत्रता हो। उससे भिन्न रह कर, उसके विरोध में रह कर, उससे संघर्ष करते हुए तुम्हारी कोई स्वतंत्रता नहीं है। तब कभी-कभी ऐसा लगेगा कि तुम स्वतंत्र हो। वह भ्रांति है। वह भ्रांति इसलिए पैदा होती है कि कभी-कभी आकस्मिक रूप से तुम्हारी मर्जी उसकी मर्जी से मेल खा जाती है। तब तुम्हें लगता है, मैं स्वतंत्र हूं। लेकिन अधिक बार तुम्हें लगेगा कि मैं स्वतंत्र नहीं हूं क्योंकि तुम्हारी मर्जी उसकी मर्जी से मेल नहीं खाती। जब मेल खा जाती है तो तुम जीत जाते हो। तुम उसे अपनी जीत समझते हो। वह जीत परमात्मा की जीत है। लेकिन जब तुम्हारी मर्जी मेल नहीं खाती तब तुम्हें अपनी हार अनुभव होती है। वह हार तुम्हारी हार है। सब जीत परमात्मा की, सब हार तुम्हारी--ऐसा गणित है। जब भी हारो, समझना अपने कारण हारा हूं। और जब भी जीतो, समझना उसके कारण जीता हूं।
ऐसा समझो कि नदी जिस धारा में बह रही है, जिस दिशा में बह रही है, तुम भी उसके साथ हो लिए तो जीत ही जीत है। तुम सोचोगे कि आह, नदी मेरे साथ बह रही है। तुम नदी के साथ बह रहे हो। लेकिन तुम सोच सकते हो कि नदी मेरे साथ बह रही है। और तुमने अगर नदी के धारे के खिलाफ लड़ना शुरू किया, उलटी धार में बहना शुरू किया, ऊपर की तरफ जाना चाहा, तो हारोगे। और तब तुम्हें लगेगा, नदी मेरे खिलाफ है। नदी मुझे हराने की कोशिश कर रही है। नदी मेरी दुश्मन है।
हवा का जिस तरफ रुख होता है, सूखा पत्ता उसी तरफ उड़ चलता है। जीत ही जीत है। लाओत्सु ने कहा है, एक वृक्ष के नीचे बैठा एक सूखे पत्ते को गिरते देखता था। उसके गिरने में ही मुझे जीवन का राज मिल गया। जब हवा के झोंके ने पत्ते को गिराया तो पत्ते ने ‘नहीं’ नहीं कहा। पत्ता गिर गया। पत्ता राजी था। जरा नानुच न की, जरा इनकार न किया, जरा नकार न किया। इतना भी न कहा कि यह कैसा न्याय है? इतने समय तक मैं इस वृक्ष से जुड़ा रहा, तुम मेरी रसधार से मुझे तोड़े देते हो? मेरी जड़ों से मुझे अलग किए देते हो? मेरे जीवन को नष्ट किए देते हो? नहीं, इतनी शिकायत भी न थी। बड़ी प्रार्थनापूर्ण ढंग से पत्ता छूट गया।
हवा पूरब ले चली तो पत्ता पूरब चला। और हवा ने रुख बदल लिया बीच में और पश्चिम की तरफ चलने लगी तो पत्ता पश्चिम की तरफ चला। तब पत्ते ने यह नहीं कहा कि यह कैसा विरोधाभास है! कभी पूरब, कभी पश्चिम, कभी इधर, कभी उधर। संगति कहां है? इस व्यवहार में असंगति है। मैं असंगति से राजी नहीं हो सकता। पूरब चलना हो तो पूरब चलो, पश्चिम चलना हो तो पश्चिम चलो। लेकिन यह क्या, कभी पूरब कभी पश्चिम?
नहीं, पत्ते ने कुछ भी न कहा। हवा पूरब ले गई तो पूरब गया, हवा पश्चिम ले चली तो पश्चिम गया। पत्ता हवा के साथ एक हो गया। उसने दुई न रखी, भेद न रखा। हवा ने उठाया तो पत्ता आकाश में उठा। और हवा ने गिरा दिया तो पत्ता पृथ्वी पर विश्राम करने लगा। न तो आकाश में उठ कर उसने अहंकार किया कि देखो मुझे--मेरे पद को, मेरी प्रतिष्ठा को, मेरी ऊंचाई को, मेरी बुलंदी को। और जब नीचे गिरा दिया तब वह रोया भी नहीं; तब वह बिसूरा भी नहीं; तब क्षण भर को उसने हीनता और दीनता भी अंगीकार नहीं की। मस्त था हवाओं में, मस्त था जमीन पर।
लाओत्सु उठ आया वृक्ष के नीचे से और वही उसके जीवन में क्रांति का क्षण हो गया। उसके बाद वह पत्ता हो गया सूखा। फिर कोई हार नहीं रही। फिर कैसी हार?
जीसस को सूली लगी। सूली लगने के एक क्षण पहले जीसस के मुंह से एक जोर से आवाज निकल गई। कहा आकाश की तरफ देख कर कि हे प्रभु, यह तू मुझे क्या दिखा रहा है? शिकायत हो गई। इसका मतलब यह हुआ, जीसस कुछ और देखना चाहते थे और दिखाया कुछ और जा रहा है। जीसस पूरब जाना चाहते थे और हवाएं पश्चिम की तरफ जाने लगीं। जीसस सोचते थे, चमत्कार होगा। प्रभु उतरेगा और मुझे बचाएगा। कुछ इस तरह की बात रही होगी। लेकिन सूली लगी जा रही है, कोई हाथ आकाश से उतरे नहीं। उन हजार हाथों वाले ईश्वर का एक हाथ भी कहीं दिखाई नहीं पड़ता। आकाश में कोई ढंग भी नहीं मालूम पड़ते कि कुछ होने वाला है। सब चुपचाप घटा जा रहा है। यह मौत घटी जा रही है, यह सूली लगी जा रही है। परमात्मा का प्रसाद कहीं से आता नहीं मालूम पड़ता।
तुम भी चीखे होते। जीसस को क्षमा करना। उस चीख में जीसस की मनुष्यता अपने पूरे रूप में प्रकट हुई है। कौन होगा जो नहीं चीखता? जिसने सदा भरोसा किया परमात्मा पर और सोचा कि सब ठीक होगा। जो होगा ठीक ही होगा। आज आखिरी कसौटी पर खड़ा है और परमात्मा का कहीं कोई पता नहीं। कहीं पगध्वनि सुनाई नहीं पड़ती, वह आता कहीं दिखाई नहीं पड़ता। यह विषाद की घड़ी, यह अंधकार की घड़ी--उसने दीया भी नहीं जलाया है, उसकी तरफ से कोई एक संदेश भी नहीं उतरा। कोई इलहाम भी नहीं हुआ। उसने जीसस के हृदय में इतना भी न कहा, घबड़ा मत। जैसे परमात्मा है ही नहीं, और आकाश खाली है। जैसे अब तक की सारी प्रार्थनाएं व्यर्थ गयीं। जैसे अब तक की सारी पुकार का कोई प्रयोजन नहीं था।
स्वाभाविक जीसस चिल्ला उठे आकाश की तरफ देख कर--हे प्रभु, यह तू मुझे क्या दिखा रहा है? क्या तूने मुझे त्याग दिया? क्या तूने मुझे बिसार दिया? मुझे तेरा प्रसाद नहीं मिलेगा? यहां जीसस की मनुष्यता प्रकट हुई। लेकिन तत्क्षण जीसस को समझ में भी आ गई बात कि इसमें शिकायत हो गई है। प्रार्थना मेरी खंडित हो गई है। जहां शिकायत है वहां प्रार्थना की मृत्यु। प्रार्थना शिकायत जानती ही नहीं। प्रार्थना को शिकवा से पहचान ही नहीं है। प्रार्थना तो परम राजीपन है। जीवन हो तो जीवन और मृत्यु हो तो मृत्यु। और सिंहासन हो तो, और सूली हो तो। यह बात प्रार्थना जानती ही नहीं कि प्रभु, यह तू मुझे क्या दिखा रहा है?
जीसस को दिख गई बात। गहन प्रज्ञा-पुरुष थे। आंखें उनकी साफ थीं। एक धुएं की लकीर खिंची थी, एक छोटी सी बदली आ गई थी और सूरज क्षण भर छिप गया था। लेकिन बदली गुजर गई और सूरज फिर प्रकाशित हो उठा। और जीसस मुस्कुराए और उन्होंने आकाश की तरफ आंखें उठा कर कहाः ‘नहीं-नहीं, मेरी मत सुनना। जो तेरी मर्जी हो, पूरी हो। लेट दाय किंगडम कम, लेट दाय विल बी डन। तू उतर, तेरा राज्य उतरे। तेरी इच्छा पूरी हो।’
और इसी घड़ी को मैं मानता हूं कि जीसस क्राइस्ट बने। इस एक क्षण में मनुष्य विदा हो गया, ईश्वरत्व प्रकट हुआ। अब तक जीसस मनुष्य थे, महामानव थे। इस घड़ी में छलांग लग गई। बस इस एक क्षण में संक्रमण हुआ। इसी क्षण क्राइस्ट का जन्म हुआ। क्राइस्ट यानी बुद्ध, क्राइस्ट यानी कृष्ण।
यह जान कर तुम हैरान होगे कि क्राइस्ट शब्द कृष्ण शब्द का ही रूपांतरण है। कृष्ण से ही कृष्टो बना और कृष्टो से क्राइस्ट। बंगाली अभी भी इस तरह के नाम रखते हैं। जिनका नाम कृष्ण रखते हैं उनको कृष्टो कहते हैं। बंगाली में अब भी कृष्टो एक रूप है कृष्ण का।
यह परम घड़ी एक क्षण के अंतराल में घट गई। मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं, जब जीसस ने कहा, ‘हे प्रभु, यह तूने मुझे क्या दिखाया? क्या तूने मुझे त्याग दिया?’ तब जरूर उन्हें लगी होगी स्थिति साफ कि मैं परतंत्र हूं, विवश हूं। अभी ‘मैं’ बाकी था। थोड़ा सा बाकी था, जरा सा बाकी था। एक धूमिल सी रेखा बाकी थी। इस क्षण में जीसस ने अनुभव किया, मैं परतंत्र हूं, इसीलिए शिकायत। लेकिन जैसे ही कहा, ‘तेरी मर्जी पूरी हो,’ वह छोटी सी रेखा भी खो गई। आखिरी दाग मिट गया। और तब स्वतंत्रता है।
खयाल रखना, स्वतंत्र होने को कोई नहीं बचता तब स्वतंत्रता है। इसलिए बुद्ध का वचन बड़ा महत्वपूर्ण है। बुद्ध ने कहा है, मैं को मुक्त नहीं होना है, मैं से मुक्त होना है। मुक्ति में मैं नहीं बचेगा, तभी मुक्ति है। जब तक मैं है तब तक मुक्ति कहां? इसलिए बुद्ध ने परम अवस्था को अनत्ता कहा। अत्ता नहीं, आत्मा नहीं कहा, अनात्मा कहा। क्योंकि आत्मा में मैं-भाव है। मैं हूं, कुछ न कुछ किसी न किसी रूप में।
तुमने पूछा हैः ‘क्या हम वासना करने और नहीं करने के लिए स्वतंत्र हैं?’
तुम जब तक हो तब तक परतंत्र। तुम जब नहीं हो तब स्वतंत्र। तुम परतंत्रता हो। तुम्हारा अभाव स्वतंत्रता है। अभी तो तुम--जो होता है, होता है। तुम कर क्या पाते हो?
लोग इस तरह की बातें करते हैं कि ऐसा मत करो, वैसा करो। मगर यह होता कहां है? तुम सोचते हो, शराबी नहीं जानता है कि शराब बुरी है? तुमसे ज्यादा भली तरह जानता है। तुमने तो पी ही नहीं। तो तुम्हें बुराई का पता क्या? किताबों में पढ़ ली होगी। साधु-महात्माओं से सुन ली होगी, उन्होंने भी नहीं पी है। जिन्होंने पी ही नहीं है उन्हें बुराई का पता क्या? तुम्हारी बातचीत तो सिर्फ बातचीत है। शराबी अनुभव से जानता है कि बुरी है।
शराबी से भूल कर मत कहना कि शराब बुरी है, छोड़ दो। यह तो वह भी अपने से हजारों बार कह चुका है। छूटती नहीं है। बुरी है, जानता है, रोज-रोज जानता है। रोज-रोज यह पीड़ा मन में उठती है और रोज-रोज छोड़ना भी चाहता है। यह भी मत सोचना कि कोई शराबी छोड़ना नहीं चाहता है। सभी छोड़ना चाहते हैं। उस नरक से सभी मुक्त होना चाहते हैं। सबसे बड़ी पीड़ा तो यही है कि छोड़ने में मैं इतना असमर्थ हूं, यही परतंत्रता का भाव बड़ी पीड़ा देता है। लेकिन नहीं छूटती। जब तक तुम हो तब तक नहीं छूटती।
सिगरेट नहीं छूटती। छोटी-छोटी आदतें हैं वे नहीं छूटतीं। शराब तो बड़ी आदत है। और शरीर के रसायन में प्रविष्ट हो जाती है। इसलिए छोड़ना मुश्किल होने लगता है। लेकिन छोटी-छोटी आदतें हैं वे नहीं छूटतीं। क्रोध है, वह नहीं छूटता। लोभ है, वह नहीं छूटता।
तुम्हारा किसी से प्रेम हो गया। तुम कहते हो, मेरा प्रेम हो गया या मैंने प्रेम किया। मगर तुमने क्या किया? हो गया। एक आकस्मिक घटना है। डोरा साहेब हाथ! तुम तो कठपुतली हो। कोई छिपा हुआ हाथ तुम्हें नचा रहा है।
मैं कल एक गीत पढ़ रहा था--

अब न इन ऊंचे मकानों में कदम रखूंगा
मैंने इक बार यह पहले भी कसम खाई थी
अपनी नादार मोहब्बत की शिकस्तों के तुफैल
जिंदगी पहले भी शर्माई थी, झुंझलाई थी
और ये अहद किया था कि ब-ई-हाले-तबाह
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊंगा
किसी चिलमन ने पुकारा भी तो बढ़ जाऊंगा
कोई दरवाजा खुला भी तो पलट आऊंगा
फिर तेरे कांपते ओंठों की फुसकार हंसी
जाल बुनने लगी, बनुती रही, बुनती ही रही
मैं खिंचा तुझसे मगर तू मेरी राहों के लिए
फूल चुनती रही, चुनती रही, चुनती ही रही
बर्फ बरसाई मेरे जहन्नो-तसुव्वर ने मगर
दिल में एक शोला-ए-बेनाम-सा लहरा ही गया
तेरी चुपचाप निगाहों को सुलगते पाकर
मेरी बेजार तबियत को भी प्यार आ ही गया
अपनी बदली हुई नजरों के तकाजे न छुपा
मैं इस अंदाज का मफहूम समझ सकता हूं
तेरी जरकार दरीचों की बुलंदो की कसम
अपने अकदाम का मकसूम समझ सकता हूं
अब न इन ऊंचे मकानों में कदम रखूंगा
मैंने एक बार यह पहले भी कसम खाई थी
इसी सरमया-ओ-इफलास के दोराहे पर
जिंदगी पहले भी शर्माई थी, झुंझलाई थी

लेकिन कसमें काम कहां आतीं? तुम्हारे निर्णय काम कहां आते? तुम्हारे निर्णय किसी कीमत के नहीं हैं। हां, कभी-कभी लगता है काम आ जाते हैं--अगर उसके, परम निर्णय से साथ बैठ जाता है। वह आकस्मिक बात है, वह संयोग की बात है। जिस तरफ परमात्मा जा रहा था उसी तरफ तुम भी कभी चल पड़ते हो तो जीत हो जाती है। और जब भी तुम उसके विपरीत चल पड़ते हो, हार हो जाती है।
हार यानी परमात्मा के विपरीत होना। जीत यानी उसके साथ होना। सब जीत उसके साथ है, सब हार अहंकार की है। इसलिए जीते जगत में वे, जिन्होंने अहंकार छोड़ा। हारे वे, जिन्होंने अहंकार को बुलंद किया, और बुलंद किया, और बड़ा किया, और बड़ा किया।
खुदी में जीए तो परतंत्रता, खुदा में जीए तो स्वतंत्रता।
जैसे तुम हो, वैसे तो जो हो रहा है वही हो सकता है। और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु तुम्हें यही सिखाते हैं। शराब पीते हो, शराब छोड़ो। झूठ बोलते हो, झूठ मत बोलो। लोभ करते हो, लोभ मत करो। वे तुम्हें यही भ्रम देते हैं कि तुम्हारे हाथ में है बात। बात ऐसी नहीं है। तुम तो सिर्फ एक चीज मिटा दो--अपने को मिटा दो, बाकी सब बदलाहट अपने से हो जाएगी। न तो तुम लोभ की फिकर करो और न तुम बेईमानी की फिकर करो और न तुम चोरी की फिकर करो, न तुम झूठ की फिकर करो। ये तुम्हारे अहंकार की छायाएं हैं। तुम अहंकार को मिटा दो, ये छायाएं अपने से मिट जाएंगी। लेकिन तुम छायाओं से लड़ते हो। मूल को सम्हाले रहते हो, पत्तों को काटते रहते हो। फिर नये पत्ते ऊग आते हैं।
एक लोमड़ी सुबह-सुबह अपने मांद से बाहर निकली। सूरज ऊगता था, और लोमड़ी की बड़ी छाया बनी। बड़ी छाया! सुबह-सुबह का सूरज, और लोमड़ी ने अपनी छाया की तरफ देखा और कहा कि आज तो नाश्ते में कम से कम एक ऊंट मिलना चाहिए। इतनी बड़ी छाया थी। फिर खोजती रही ऊंट को। मिल भी जाता तो क्या करती? लोमड़ी ऊंट को नाश्ता नहीं बना सकती। ऊंट मिला भी नहीं।
दोपहर हो गई, सूरज सिर पर आ गया। भूख भी बढ़ रही है। नाश्ता भी हाथ नहीं लगा है, भोजन तो अभी बहुत दूर। फिर से एक बार अपनी छाया को देखा। सूरज ऊपर है, छाया सिकुड़ कर बहुत छोटी हो गई। उसने छाया को देख कर कहा कि अब तो अगर एक चींटी भी मिल जाए तो काम चल जाएगा।
तुम्हारे अहंकार की कितनी बड़ी छाया होती है, इस पर निर्भर करता है तुम्हारा जीवन। कोई है जो कहता है, सारी दुनिया मिले तो तृप्ति होगी। उसका अहंकार बड़ी छाया बना रहा है। कोई कहता है, थोड़ा-बहुत भी मिल जाएगा तो भी चल जाए। उसका अहंकार थोड़ी छोटी छाया बना रहा है। मगर दोनों के अहंकार हैं--सुबह की छाया, दोपहर की छाया। छाया छाया है।
जिनको तुम सांसारिक कहते हो उनके अहंकार सुबह की छायाएं हैं, और जिनको तुमने महात्मा समझ रखा है उनके अहंकार दोपहर की छायाएं हैं। और कुछ फर्क नहीं है। जिसको मैं संत कहता हूं उसकी छाया ही खो गई। उसी को संत कहता हूं। अब वह जानता है कि मैं हूं ही नहीं। सुबह ऊंट की जरूरत थी, दोपहर चींटी से काम चल जाता। जब मैं हूं ही नहीं तो बिना नाश्ते के काम चल जाएगा। अब कुछ करने को नहीं बचा। अब कुछ खोजने को नहीं रहा।
और अधिक लोग छायाओं से लड़ कर ही टूट जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। तुम अपनी वासनाओं से मत लड़ो। फिर मैं तुम्हें क्या कह रहा हूं, तुम क्या करो? तुम एक ही काम करो, तुम अपनी वासनाओं के प्रति जागो, होश से भरो। जो जीसस ने किया आखिरी घड़ी में। देखी अपनी शिकायत, गौर से देखी और बात समझ में आ गई। इतनी बात समझ में आ गई कि मैंने अपने को परमात्मा से अलग मान लिया। मैंने अपनी अलग इच्छा रखी। बस, उसी क्षण सब बंधन टूट गए।
तुम अलग-थलग न जीओ। तुम उसके साथ जीयो। यही धर्म का मौलिक संदेश है--आधारभूत कीमिया, प्रक्रिया, जो व्यक्ति को रूपांतरित करती है। इसलिए मैं तुम्हारी दृष्टि वासना की तरफ नहीं ले जाना चाहता; होश की तरफ ले जाना चाहता हूं। इसका सवाल नहीं कि तुम शराब पीते हो, इसका सवाल नहीं कि तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़े हो, इसका सवाल नहीं कि तुम्हें धन का मोह है। असली सवाल इसका है कि तुम जरा जागने लगो।
तुम जो कर रहे हो वही जाग कर करने लगो। शराब पीते हो, वही जाग कर पीने लगो। स्त्री से प्रेम है, वही जाग कर करने लगो। धन से मोह है, वही जाग कर करने लगो। थोड़ा होश सम्हालो। उसी होश में तुम गलने लगोगे। जैसे सुबह के सूरज के निकलते ही ओस के कण उड़ जाते हैं, ऐसे ही होश का सूरज निकला कि तुम अचानक पाओगे, तुम्हारी मूच्र्छा, तुम्हारी मूच्र्छा में फैले हुए ओस के कण विदा होने लगते हैं। जैसे सुबह सूरज के ऊगने पर तारे विलीन हो जाते हैं, ऐसे ही होश के जागने पर सारी वासनाएं विलीन हो जाती हैं। रात के अंधेरे में खूब चमकती थीं, दिन के उजाले में खोजे से नहीं मिलतीं।
तुम उजाले को जगाओ। उस उजाले को जगाने की एक प्रक्रिया ध्यान है, एक प्रक्रिया भक्ति है। दो तरह से जग सकता है उजाला। या तो जागकर जीओ या समर्पित होकर जीओ। दोनों हालत में अहंकार मर जाता है। जागने वाला अपने भीतर खोज-खोज कर पाता है, कोई अहंकार है ही नहीं। और भक्त अपने को समर्पित करके पाता है, भगवान के चरणों में चढ़ा कर पाता है कि मैं नाहक ही परेशान हो रहा था। मैं ऐसी परेशानियों से परेशान हो रहा था जो कि थीं ही नहीं। मैंने झूठ सपने देख रखे थे। सपने भी बहुत डरा देते हैं।
रात सपना देखते हो, सांप दिखाई पड़ जाए सपने में, चीख निकल जाती है। आंख खुलती है तो पता चलता है, सपना था, तब बड़ी हैरानी होती है कि झूठे सपने से असली चीख कैसे निकल गई? चीख असली, सपना झूठा। सपने में देखते हो, एक पहाड़ तुम्हारी छाती पर गिरा जा रहा है। कंप जाते हो। छाती धड़क जाती है। आंख खुल जाती है, पाते हो न कोई पहाड़ है, न कुछ गिरने को है वहां। हो सकता है अपना ही हाथ छाती पर रखा हो, उसके वजन की वजह से पहाड़ का खयाल आया। लेकिन जब था सपना तब बिलकुल ऐसा ही लगा था कि गए, समाप्त हुए, अब बचना मुश्किल है। अभी भी छाती धड़क रही है। जाग गए हो, सपना सपना है यह भी पता चल गया, फिर भी छाती जोर से धड़क रही है। झूठे सपने ने सच्ची छाती धड़का दी।
झूठ भी परिणाम पैदा कर सकता है, जो सच हों। अहंकार सबसे बड़ा झूठ है लेकिन उसके परिणाम बड़े सच हैं। अहंकार नाम के झूठ का परिणाम संसार है। तुम संसार से लड़ रहे हो, वह ऐसे ही है जैसे कोई सपने के सांप से लड़ रहा हो। तुम संसार से लड़ रहे हो, वह ऐसे ही है जैसे कि कोई सपने में पहाड़ को धक्के मार रहा हो कि मेरे ऊपर न गिर जाए। तुम जागो। तुम जरा गौर से अपने जीवन को देखो, निरीक्षण करो।
यह एक मार्ग है--निरीक्षण का, ध्यान का, सम्यक स्मृति का, सुरति का।
एक दूसरा मार्ग है हृदय का, कि तुम झुक जाओ किसी चरण में। चरण तो बहाना है, झुकना असली बात है। किसके चरण में झुक गए, राम के कि कृष्ण के कि बुद्ध के, कुछ फर्क नहीं पड़ता। झुक गए! बस उसी झुकने में तुम पाओगे कि मैं गया। मैं अकड़ा रहे तो ही रहता है, खड़ा रहे तो ही रहता है। इसलिए पूरब के सारे धर्मों ने झुकने की प्रक्रियाएं खोजीं।
अभी एक युवक आकर संन्यस्त हुआ, तिब्बती लामाओं के साथ था। तो तिब्बती लामाओं में तो ध्यान की पहली प्रक्रिया यही है कि जितनी बार आश्रम में तुमसे बुजुर्ग संन्यासी मिलें उतनी ही बार साष्टांग जमीन पर लेट कर उनको नमस्कार करो। कभी-कभी यह हो जाता है कि नये साधु को हजार बार दिन में करना पड़ता है। मगर उस प्रक्रिया का बड़ा अपूर्व फल होता है। इतनी बार झुकते-झुकते-झुकते अकड़ टूट जाती है। इसी झुकते-झुकते-झुकते बरफ पिघल जाती है। अहंकार सख्त नहीं रह जाता।
या तो पिघलो या जागो। दोनों हालत में अहंकार को नहीं पाओगे। और जहां अहंकार नहीं है वहीं स्वतंत्रता है। फिर यह सवाल ही नहीं उठता--वासना, नहीं वासना। तुम ही नहीं हो इसलिए निर्णायक होने की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। तुम गए कि परमात्मा निर्णायक है। अभी तो तुम्हारा प्रेम, अभी तो तुम्हारे जीवन के संबंध मजबूरियां हैं।
दूर सुनसान-से साहिल के करीब
इक जवां पेड़ के पास
उम्र के दर्द लिए वक्त के मटियाले निशां
बूढ़ा-सा पाम का इक और भी है पेड़,
खड़ा है,
सैकड़ों सालों की तनहाई के बाद
झुकके कहता है जवां पेड़ से, ‘यार,
सर्द सन्नाटा है, तनहाई है
कुछ बात करो’
तुम्हारा प्रेम क्या, तुम्हारा संबंध क्या? यही--कि तनहाई है, सर्द सन्नाटा है, कुछ बात करो। प्रेम के नाम पर तुम अपने अकेलेपन को मिटाने की कोशिश कर रहे हो। किसी तरह किसी चीज में व्यस्त हो जाओ। लोभ के नाम पर भी तुम यही कर रहे हो। बाजार में खो जाओ, भीड़ में डूब जाओ, अपना अकेलापन मिट जाए। और शराब के नाम पर भी तुम यही कर रहे हो। और राजनीति के नाम पर भी तुम यही कर रहे हो। तुम जो भी कर रहे हो उसमें सारी चेष्टा एक ही है--‘यार, सर्द सन्नाटा है, तनहाई है, कुछ बात करो।’ कुछ उलझाओ मुझे। मुझे व्यस्त करो। अपने साथ रहता हूं तो उदास होने लगता हूं। किसी का संग-साथ कर लूं। कोई मित्र मिल जाए। पत्नी, पति, बच्चे, परिवार--तुम चिंताएं तलाश कर रहे हो।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, हम चिंताओं से मुक्त कैसे हों? और मैं उनसे कहता हूं कि तुम तलाश कर रहे हो, मुक्त होने की बात पूछते हो। सच तो यह है यह प्रश्न तुम्हारा एक नई चिंता की तलाश है--हम चिंताओं से कैसे मुक्त हों? संसार की चिंताएं काफी नहीं पड़ रही हैं, अब तुम परमात्मा की और मोक्ष की चिंता भी उधार लेना चाहते हो। वह भी कहीं से मिल जाए। बाजार काफी नहीं है, तुम इसमें मंदिर भी बीच में लाना चाहते हो। अखबार काफी नहीं हैं, तुम शास्त्र भी और पकड़ना चाहते हो। धन ही काफी नहीं है, अब तुम ध्यान की भी चिंता करना चाहते हो। इस फर्क को समझना।
दो तरह के लोग ध्यान करने आते हैंः एक तो वे, जो और नई चिंताएं बढ़ाना चाहते हैं; और एक वे जो अपनी चिंताओं को समझ गए और उनकी जड़ काटना चाहते हैं। इनमें बड़ा फर्क है। इनमें बुनियादी फर्क है। जो अपनी चिंताओं को समझ गया वह एक बात तो समझ जाता है कि मैं अब तक चिंताएं तलाश करता था। नहीं मिलती थीं तो बेचैन होता था।
तुम जरा सोचो, चैबीस घंटे के लिए सब सन्नाटा हो जाए तुम्हारे मस्तिष्क में। तुम जी पाओगे? चैबीस घंटे की तो बात दूर, यहां मेरे रोज अनुभव में यह घटना आती है। लोग ध्यान करते हैं, और मांगते हैं कि शांति चाहिए, जब घटती है तो कंप जाते हैं। घबड़ा कर आ जाते हैं कि बहुत भय लग रहा है। जब पहली दफा चित्त में सारे विचार की प्रक्रिया रुक जाती है तो ऐसा लगता है जैसे मौत हो गई। क्योंकि वह सदा का शोरगुल एकदम बंद हो गया। हुआ क्या? और बड़ी बेचैनी होती है। ऐसी बेचैनी जो तुमने कभी नहीं जानी थी। हालांकि तुम सदा बेचैन रहे मगर वे बेचैनियां कुछ भी न थीं, बचकानी थीं। अब पहली दफा तुम्हें एक असली बेचैनी का अनुभव होता है। सब तरफ सन्नाटा है, तुम चाहते भी हो कोई विचार चले।
‘यार, सर्द सन्नाटा है, तनहाई है,
कुछ बात करो’
अपने मन से कहते हो, कुछ बोलो। ऐसे चुप मत हो जाओ बिलकुल।
लोग मेरे पास घबड़ा कर आ जाते हैं, वे कहते हैं, ध्यान तो लग रहा है लेकिन अब बड़ी घबड़ाहट हो रही है। अब ऐसा लग रहा है कि किसी शून्य में प्रवेश कर रहे हैं कि किसी अतल खाई में गिर रहे हैं। कि किसी ऐसी गुफा में प्रवेश कर रहे हैं जिसका दूसरा अंत मिलेगा कि नहीं मिलेगा? किसी बोगदे में प्रवेश कर रहे हैं, लौट पाएंगे कि नहीं? किसी सागर में नाव छोड़ रहे हैं, दूसरा किनारा मिलेगा या नहीं? आए थे यही कहते कि इस किनारे से कैसे छुटकारा हो? और जब जंजीर टूटती है इस किनारे से तो घबड़ाहट होती है कि दूसरा किनारा है भी, मिलेगा भी? बाजार भी गया, दुकान भी गई, व्यवसाय भी गया, संबंध भी गए। यह परमात्मा मिलेगा भी? भय पकड़ता है। फिर से इसी किनारे से जंजीर को जोड़ लें ऐसी आकांक्षा पकड़ती है।
मनस्विद कहते हैं, इतने प्रौढ़ लोग बहुत कम हैं पृथ्वी पर, जो बिना विचार के थोड़ी देर भी जी लें। हालांकि लोग कहते हैं कि ये विचार बंद हो जाते तो अच्छा होता, लेकिन इनका कहना वैसे ही है जैसे लोग अक्सर कहते हैं, कि अब तो थक गए जिंदगी से, मर जाते तो अच्छा होता। मगर कोई मरना नहीं चाहता।
बौद्ध कथा है। एक बूढ़ा आदमी लकड़हारा लौटता है जंगल से। सत्तर साल का हो गया। थक गया लकड़ी काटते-काटते, रोटी कमाते-कमाते। अब तो बुढ़ापा भी आ गया है, लकड़ी काटी भी नहीं जाती। वजन ढोया भी नहीं जाता। कई बार कहता था अपने मित्रों से कि अब तो प्रभु उठा ले। उस दिन बुखार भी था, थका-मांदा भी था, भूखा भी था। लकड़ियां काट कर जंगल से लौटता था, बड़ी उदासी थी, बड़ी खिन्नता थी। कोई कारण भी नहीं दिखाई पड़ता था जीने का। यही लकड़ियां काटना, यही बेचना। किसी तरह दो रोटी कमानी। सार क्या है? सोचता होगा।
उस विषाद के क्षण में गठरी पटक दी नीचे और आकाश की तरफ हाथ जोड़ कर घुटने के बल टेक कर जमीन पर कहा कि हे मृत्यु, तू सभी को आती है, एक मुझ पर नाराज क्यों है? तू मुझे क्यों नहीं आती? मुझे उठा ले। जवानों को तूने उठा लिया, बच्चों को तूने उठाया, और मुझ बूढ़े को छोड़े चली जाती है। मुझे भूल ही गई है क्या? उसकी आंख से आंसू बह रहे हैं। संयोग की बात! कहानी पुरानी है, अब तो ऐसा संयोग होता नहीं। मौत वहां से गुजरती थी; दया आ गई। मौत आकर सामने खड़ी हो गई। उस बूढ़े ने मौत देखी, छाती धक से हो गई। भूल गया सब विषाद।
मौत ने कहा कि बोलो, किसलिए बुलाया? उसने कहा, कुछ नहीं, गठरी गिर गई, कोई उठाने वाला यहां मिलता नहीं इसलिए पुकारा था। गठरी उठवा दो, बड़ी कृपा। गठरी उठवा कर सिर पर रख ली और चल पड़ा। भूल गया। कई बार कहा था उसने।
बूढ़े अक्सर कहने लगते हैं कि अब तो मौत उठा ले। मगर यह मत सोचना कि वे सच में ही यह कह रहे हैं कि मौत उठा ले। मौत उठाने आएगी तो वे भी कहेंगे, जरा तबीयत खराब रहती है, कोई दवाई वगैरह नहीं है? कोई औषधि इत्यादि। तू तो मौत है, तुझे तो हर तरह की औषधि पता होगी। तेरे से ज्यादा कौन जानता है जीवन और मृत्यु के संबंध में? कुछ सूत्र मुझे दे दे।
ऐसे ही लोग कभी-कभी चित्त से परेशान होकर कहने लगते हैं कि यह तो अब किसी तरह विचार से छुटकारा हो जाता तो अच्छा होता। और इसी तरह लोग अहंकार से परेशान होकर कहने लगते हैं कि इस अहंकार से मुक्ति हो जाती तो अच्छी होती। मगर ये सब झूठी बातें हैं। जब होती है मुक्ति तो घबड़ा जाते हैं; तब कंपते हैं।
गुरु का बड़ा काम तुम्हें ध्यान की प्रक्रिया का प्रारंभ करवा देना नहीं है, गुरु का बड़ा काम तब आता है जब ध्यान होना शुरू होता है और तुम भागना शुरू करते हो। और तुम डरते हो, और तुम कंपते हो। और तुम कहते हो नहीं, मुझे जाना नहीं है। उस वक्त गुरु की असली जरूरत होती है कि तुम्हारी फिकर न करे और दे दे धक्का। तुम चिल्लाते ही रहो, वह दे दे धक्का। उस समय ही गुरु की असली जरूरत होती है। ध्यान की प्रक्रियाएं तो शास्त्र से भी मिल सकती हैं। लिखी हैं, विधियां हैं लेकिन शास्त्र तुम्हें धक्का नहीं दे सकता, जब घड़ी आएगी संकट की। और बड़ी संकट की घड़ी यह है, जब परमात्मा सामने खड़ा होता है, तब तुम्हारी महामृत्यु घटती है।
प्रेम के नाम पर तुम केवल अपने एकांत से बचना चाहते हो। वासना के नाम पर भी तुम अपने अकेलेपन को भरना चाहते हो। तुम्हारी सारी वासनाएं एक निष्कर्ष में निचोड़ी जा सकती हैं कि तुम अपने साथ रहने को राजी नहीं हो अभी। तुम अपने साथ घबड़ाते हो। तुम्हें कुछ न कुछ आड़ चाहिए--कभी लोभ, कभी मोह, कभी प्रेम, कभी क्रोध, कभी ईष्र्या, कभी कुछ, कभी कुछ। तुम्हें कुछ न कुछ चाहिए ताकि तुम संलग्न रहो। तुम्हें कोई रोग चाहिए ताकि तुम उलझे रहो।
छोटे बच्चों को हम खिलौना पकड़ा देते हैं न, ताकि वह शोरगुल न करे, उलझा रहे। ऐसे ही तुमने अपने कई तरह के खिलौने पैदा कर लिए हैं। उन्हीं का नाम वासना है। उनको छोड़ने से भी कुछ न होगा। अगर तुम उनको जबरदस्ती छोड़ कर चले जाओगे, बिना होश आए, तो तुम मंदिरों में बैठ कर नये खिलौने गढ़ लोगे। कोई माला जपता रहेगा बैठा-बैठा, वह भी खिलौना है। पहले यह रुपये गिनता था।
अब तुम जरा सोचो। रुपये गिनने में, माला जपने में कोई फर्क नहीं है। पहले यह गिड्डी रुपये की गिनता रहता था, अब यह माला गिनता है, राम-राम, राम-राम, राम-राम। क्या फर्क है? गिनती जारी है। पहले यह धन का हिसाब देखता था रोज शाम को, कितना कमा लिया, अब यह पुण्य का हिसाब देखता है, कितना कमा लिया। कमाई जारी है। दुकान चल रही है। बाजार से छुटकारा नहीं हुआ है। पहले बाजार छोटा था, अब जरा बाजार और बड़ा हो गया, उसमें स्वर्ग भी सम्मिलित हो गया। नक्शा और बड़ा हो गया। कुछ भेद नहीं पड़ा है। यह वही का वही आदमी है। यह मंदिर में बैठ कर भी, आश्रम में बैठ कर भी करेगा क्या? नई-नई तरकीबें खोज लेगा अपने को उलझाए रखने की।
इसलिए मैं तुमसे नहीं कहता कि बाजार से भागो। क्या फायदा है भागने से? अगर तुम अभी उलझाने की तरकीबें खोजे बिना नहीं रह सकते तो जहां रहोगे वहीं तरकीबें खोज लोगे। मैं तुमसे कहता हूं, जागो। तुम देखना शुरू करो।
वासना बुरी नहीं है, असली बुराई इसमें है कि तुम क्यों अपने को उलझाना चाहते हो? एकांत से डर लगता है। क्यों? इसलिए एकांत से डर लगता है कि एकांत में अहंकार की मृत्यु हो जाती है। अगर तुम बिलकुल अकेले रह जाओ तो तुम चकित होकर पाओगे कि तुम बचे ही नहीं। मैं के बचने के लिए तू का संबंध चाहिए। जब तक तू हो तब तक मैं बचता है। जहां तू गया वहां मैं गया। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए अकेले में घबड़ाहट होती है। एकांत अहंकार की मृत्यु है और अहंकार की मृत्यु में ही परम स्वातंत्र्य है।

दूसरा प्रश्नः कल आपने कबीर और धरमदास के संदर्भ में लाल रंग की महिमा बताई लेकिन मोहम्मद को हरा रंग पसंद आया और नानक को नीला; यद्यपि वे दोनों भक्त ही थे। कृपा कर समझाएं।

॰ एक-एक व्यक्ति अनूठा है। उसकी अपनी पसंद है, अपनी रुझान है। उसका जीवन को देखने का अपना झरोखा है। यह सारा जगत परमात्मा से भरा है। ये सब रंग उसके हैं। परमात्मा सब रंग है। लेकिन प्रत्येक की अपनी सूझ है। अपने प्रतीक खोजने पड़ते हैं।
कबीर और धरमदास ने लाल की बड़ी प्रशंसा की।
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल
तो मैंने कल तुम्हें लाल रंग का अर्थ कहा कि लाल है जीवन का प्रतीक; कि लाल है उत्सव का प्रतीक; कि लाल है फूलों और वसंत का रंग। इसलिए गैरिक रंग का एक नाम वासंती रंग भी है। लाल है जीवन के खिलाव का प्रतीक, सूरज का प्रतीक, प्रकाश का प्रतीक, क्रांति का प्रतीक, अग्नि का प्रतीक। यह सब मैंने तुमसे कल कहा। स्वभावतः यह प्रश्न मन में उठा होगा, फिर मोहम्मद ने लाल क्यों न चुना? हरा कुछ कम नहीं। हरे के अपने अर्थ हैं।
समझने की कोशिश करो। हरा भी जीवन का प्रतीक है। जब तक जीवित होता है वृक्ष, हरा होता है। जब मर जाता है तब हरा नहीं रह जाता। वह जो हरी धार वृक्ष में बहती है वह जीवन की धार है। लेकिन फिर भी दोनों प्रतीकों में भेद है। फूल तो अंत में आता है। हरा रंग पहले आता है, लाल रंग बाद में आता है। लाल रंग निष्पत्ति है, लाल रंग मंजिल है। हरा रंग यात्रा है।
और मोहम्मद का जोर यात्रा पर ज्यादा है। और एक अर्थ में बड़ा महत्वपूर्ण है। क्योंकि अगर यात्रा ठीक है तो लाल रंग तो आ ही जाएगा। अगर वृक्ष ठीक-ठीक हरा है और उसमें रसधार बहती है तो फूल तो आएंगे ही आएंगे; उनकी तुम चिंता न करो। उनके लिए तुम्हें विचार करने की जरूरत नहीं है। साधन सम्यक है तो साध्य तो आएगा ही। असली विचार साधन का है। अगर साधन सम्यक नहीं है तो तुम लाख फूलों का विचार करते रहो, फूल नहीं आएंगे, नहीं आएंगे।
माली फूलों का हिसाब थोड़े ही करता है, वृक्ष के हरेपन को ध्यान में रखता है। देता पानी, देता खाद, वृक्ष जीवंत रहे तो जीवन को अंतिम ऊंचाई पर वे शिखर फूल के अपने आप प्रकट होते हैं। वृक्ष में से फूल खींच-खींच कर थोड़े ही निकालने होते हैं! वे तो अपने से आते हैं। वे सहज अभिव्यक्तियां हैं। अगर कोई भी चीज ठीक रास्ते पर चलती रहे, चलती रहे तो मंजिल मिल ही जाती है। इसलिए मंजिल विचारणीय नहीं है, तीर्थ विचारणीय नहीं है, तीर्थयात्रा विचारणीय है।
लाल रंग है साध्य, हरा है साधन। मोहम्मद ने हरे को चुना, क्योंकि वह साधन है। और सारे धर्म साधन ही हैं। साध्य तो भीतर घटने वाली अनुभूति है। वह सहस्रदल कमल भीतर खिलेगा। वह फूल कभी खिलेगा, वह लाल सुर्खी कभी भीतर फैलेगी। लेकिन उसकी कल्पना में पड़ने से कुछ सार नहीं। तुम वृक्ष को हरा करो।
इसी को दूसरे अर्थों में तुम समझो। मोहम्मद ने पूर्णिमा का चांद नहीं चुना, दूज का चांद चुना प्रतीक की तरह। क्यों? क्योंकि दूज का चांद यात्रा पर है, पथिक है, चल पड़ा है। पहुंच ही जाएगा, पूर्णिमा तो होने ही वाली है।
बौद्धों ने पूर्णिमा को चुना है, मोहम्मद ने दूज के चांद को।
एक ऐतिहासिक घटना है कि ईरान के बादशाह ने अपने एक वजीर को भारत भेजा मुगल बादशाह से मिलने। जैसा दरबारों में होता है, उस वजीर के कई विरोधी भी थे, कई प्रतियोगी भी थे, कई दुश्मन भी थे, कई उसकी जड़ें काटने को तत्पर भी थे। वे कोशिश में लगे थे कि कुछ न कुछ भूल-चूक मिल जाए। जब वजीर हिंदुस्तान आया और उसने हिंदुस्तान के बादशाह को संबोधन किया दरबार में तो उसने कहा कि आप पूर्णिमा के चांद हैं। ईरान के बादशाह दूज के चांद हैं।
विरोधियों को खबर लगी। उन्होंने जाकर ईरान के बादशाह के कान भरे कि यह तो हद्द हो गई, यह तो अपमान हो गया। अपना आदमी और हिंदुस्तान के बादशाह को पूर्णिमा का चांद कहे और आपको दूज का चांद बतलाए! यह तो बात बुरी हो गई। बादशाह भी नाराज था।
जब यह वजीर वापस लौटा, इसको नगर के द्वार पर ही गिरफ्तार कर लिया गया, हाथ में जंजीरें डाल दी गईं। इसे दरबार में बुलाया गया और कहा कि तुम इसका उत्तर दो अन्यथा फांसी की सजा। यह हंसा। यह आदमी बड़ा बुद्धिमान रहा होगा। इसने कहा, निश्चित मैंने भारत के बादशाह को कहा कि आप पूर्णिमा के चांद हैं और आपको मैंने दूज का चांद कहा। क्योंकि पूर्णिमा के चांद के आगे अब कुछ नहीं है मौत के सिवाय। पूर्णिमा का चांद तो पहुंच गया आखिरी जगह। जहां पूर्ण हुआ वहां मौत हुई। आप विकासमान हैं। अभी आपको बहुत कुछ होना है। आप ऊगते सूरज हैं, वह डूबता सूरज है। आप इससे परेशान क्यों हो गए?
दूज का चांद विकासमान है, वैसे ही हरा रंग विकासमान है। लाल रंग पूर्णाहुति, हरा रंग विकास। इसलिए मोहम्मद ने जीवन के लिए हरा रंग चुना। वह संभावना का प्रतीक है, यात्रा का, साधन का, मार्ग का।
मोहम्मद का जोर विकास पर है, क्रांति पर नहीं। एवोल्यूशन पर, रेवोल्यूशन पर नहीं। मोहम्मद मानते हैं कि सब चीजें अपने समय में विकसित होती हैं। क्रांति की कोई जरूरत नहीं है। क्रांति झपट्टा है, जल्दबाजी है। विकास धैर्य है, धीरज है। तब तुम समझोगे कि हरा रंग विकास का प्रतीक है, लाल रंग क्रांति का।
हरा रंग शांति का प्रतीक है। तुमने हरे रंग को देखा गौर से? इसलिए तो जंगल में जाकर शांति मालूम पड़ती है, हरे पहाड़ पर बैठ कर चित्त शांत हो जाता है। हरे रंग को देखते-देखते तुम्हारी आंखें भी हरी हो जाती हैं, शांत हो जाती हैं। हरे रंग का जो परिणाम है वह शांति है। इस्लाम शब्द का ही अर्थ होता है शांति। शांति पर बड़ा जोर है। वही ध्यान की भंगिमा है।
मोहम्मद को तलवार उठानी पड़ी लेकिन बड़ी विवशता से। उठाना नहीं चाहते थे, बड़ी मजबूरी में। विरोधियों ने उठवा दी। कोई और उपाय न था इसलिए उठानी पड़ी। लेकिन तलवार पर भी जो संदेश लिखा था वह यही थाः ‘मेरा संदेश शांति है।’ तलवार पर खोद रखा था। यह अजीब तलवार हुई क्योंकि तलवार पर शांति का संदेश खोदा हुआ है। यह इस बात की खबर है कि मोहम्मद का बस चलता तो तलवार उठाते ही नहीं। किसी को कंकड़ भी न मारते।
लेकिन मजबूरी थी। चारों तरफ बड़ा जंगली वातावरण था। मोहम्मद को काम करने की सुविधा ही न थी। तो शांति के लिए लड़ना पड़ा। विरोधाभासी लगती है बात। और उसी में इस्लाम भ्रष्ट भी हुआ। मोहम्मद तो मजबूरी में लड़े लेकिन उनके पीछे आने वालों ने लड़ने में मजा लेना शुरू कर दिया। वे मजबूरी तो भूल गए मोहम्मद की। वह तलवार पर लिखा संदेश तो कभी का धूमिल होकर मिट गया। तलवार हाथ में रह गई। तलवार खतरनाक चीज है। ठीक हाथ में हो तो काम की होती है, गलत हाथ में हो तो बड़ी महंगी पड़ जाती है। छोटे बच्चे के हाथ में जैसे तलवार दे दो, वैसी खतरनाक चीज है।
और दुनिया में गलत आदमी हैं, गलत आदमियों की भीड़ है। इनके हाथ में तो फूल तक खतरनाक हो जाता है, तलवार की तो कहना ही क्या? इनके हाथ में तो फूल भी हो तो उसका उपयोग भी पत्थर की तरह करेंगे किसी का सिर तोड़ देने के लिए। इनके हाथ में तलवार हो तब तो कहना ही क्या! इनको बड़ी सुविधा हो गई।
तो इस्लाम--शांति का धर्म, अशांति का कारण बन गया। मगर मोहम्मद का चुनाव तो उचित ही था। उस चुनाव में कोई भूल-चूक नहीं खोजी जा सकती। हरे रंग को उन्होंने शांति के रंग की तरह चुना।
नानक ने नीला रंग चुना है। नीला रंग विराट का रंग है--विराट आकाश का, असीम का, अनंत का। नानक का मन असीम के साथ तल्लीन है, जो दिखाई नहीं पड़ता और है; जो पकड़ में नहीं आता और है। जिस पर सीमा नहीं खींची जा सकती और जो सबको घेरे हुए है, उस आकाश की तरह है परमात्मा।
तुमने देखा, आकाश का रंग नीला है। यह तुम जान कर हैरान होओगे कि वैज्ञानिक कहते हैं आकाश में कोई रंग नहीं है। है भी नहीं। फिर नीला क्यों दिखाई पड़ता है? वे कहते हैं आकाश के विस्तार के कारण नीले की भ्रांति पैदा होती है। जहां गहराई होती है वहां नीला रंग पैदा हो जाता है--होता नहीं तो भी। जब पानी की धार छिछली होती है, सफेद मालूम होती है। जब पानी की धार गहरी हो जाती है तो नीली हो जाती है। एक कप में भरो नीली नदी के पानी को और तुम पाओगे वह सफेद है। लेकिन नदी में नीला मालूम पड़ रहा है। क्यों? गहराई के कारण। गहराई का आयाम नीले रंग की भ्रांति पैदा कर देता है।
आकाश में कोई रंग नहीं है सिर्फ, लेकिन गहराई बड़ी है। किस नदी में इतनी गहराई होगी? फिर सागर में इतनी गहराई होगी? प्रशांत महासागर सब से गहरा है लेकिन उसकी गहराई भी पांच मील है। पांच मील बड़ी गहराई है मगर आकाश के मुकाबले क्या गहराई है? यह तो अंतहीन है। इसकी गिनती मीलों में होती ही नहीं। इसकी गिनती तो प्रकाश-वर्ष में करनी पड़ती है।
प्रकाश-वर्ष सबसे छोटी इकाई है आकाश के संबंध में। प्रकाश-वर्ष का अर्थ समझ लेना। एक सेकेंड में प्रकाश चलता है एक लाख छियासी हजार मील। एक सेकेंड मेंः एक लाख छियासी हजार मील। साठ सेकेंडः एक मिनट में साठ गुना। फिर साठ मिनटः एक घंटे में और साठ गुने से साठ गुना। फिर एक वर्ष में प्रकाश जितना चलता है, तीन सौ पैंसठ दिन में, वह सबसे छोटी इकाई है आकाश को नापने की। उस इकाई से भी नापा नहीं जाता। एक सीमा तक हम जाते हैं। हमारी सीमा आ जाती है, आकाश की सीमा नहीं आती। हमारे यंत्र चुक जाते हैं, आकाश नहीं चुकता।
नानक ने नीले को चुना विराट की तरह। आकाश नानक के लिए परमात्मा का प्रतीक है। ऐसा ही वह अगम, अगोचर, अलख। ऐसा ही वह ओंकार। निर्गुण का रंग है नीला इसलिए हमने कृष्ण को, राम को नीला बनाया है।
अब कोई नीले आदमी होते नहीं, नीली जाति होती नहीं। सफेद हैं लोग, काले हैं लोग, पीले लोग हैं। नीले लोग होते ही नहीं दुनिया में। हां, कभी-कभी कुछ बच्चे पैदा होते हैं जिनके खून में खराबी होती है, जो बच नहीं सकते। वे नीले होते हैं। वे बच ही नहीं सकते। उनके खून में खराबी होती है। उनमें प्रतिरोधक शक्ति नहीं होती। उनका खून लाल नहीं होता, नीला होता है। लेकिन कृष्ण और राम को इस देश ने नीला रंगा। कृष्ण का तो नाम ही श्याम पड़ गया है। इतना नीला रंगा कि नीला नाम ही हो गया उनका--श्याम। श्याम यानी नीला। गहराई का प्रतीक, निर्गुण का प्रतीक, निराकार का प्रतीक, विस्तार और असीमता का प्रतीक।
अलग-अलग धर्म अलग-अलग रंगों को चुने। सभी रंग उसके हैं।
जैनों ने सफेद को चुना है क्योंकि शुभ्र रंग त्याग का प्रतीक है। वैज्ञानिक भी उनसे राजी हैं। अगर तुम वैज्ञानिक से पूछो रंगों का विश्लेषण तो वह तुमसे कहेगा, अगर तुम लाल फूल देखते हो तो उसका मतलब यह होता है कि उस फूल ने लाल रंग की किरणें छोड़ दीं। जब किरण फूल पर गिरती है प्रकाश की तो उसमें सात रंग होते हैं। पूरा इंद्रधनुष होता है। अब यह बहुत मजे की बात है, तुम्हें फूल उस रंग का दिखाई पड़ता है जिस रंग की किरण वह नहीं पीता। छह रंग पी जाता है, वे तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते। वह तो पी गया, उसने आत्मसात कर लिया। जो छोड़ देता है एक रंग, वह तुम्हें दिखाई पड़ता है। फूल लाल, क्योंकि उसने लाल रंग की किरण नहीं पी। अब यह बड़े मजे की बात हो गई। जो फूल लाल नहीं है वह लाल दिखाई पड़ता है। और जो फूल पीला, उसने पीले रंग की किरण छोड़ दी। और जो फूल नीला, उसने नीले रंग की किरण छोड़ दी। बाकी छह को पी गया। जिनको पी गया वे तो उसमें डूब गए, एक हो गए, आत्मसात हो गए। जो छूट गया वह रंग तुम्हारी आंख पर पड़ता है--छूटा हुआ रंग। वही तुम्हें दिखाई पड़ता है।
काले रंग का अर्थ होता है, सब पी गया, कुछ नहीं छोड़ा। इसलिए काला रंग लोभ का प्रतीक है। सब पी गया, कुछ नहीं छोड़ा। काला कोई रंग नहीं है। काला रंगों का अभाव है। और सफेद का अर्थ है सब रंग छोड़ दिए। सातों रंग छोड़ दिए, कुछ नहीं पीया। सातों रंग छोड़ दिए तो सातों रंग के मिलन से सफेद रंग मालूम होता है। सफेद रंग सातों रंगों का मिलन है। और काला रंग सातों रंगों का अभाव है। और बाकी रंग सब बीच में हैं।
जैनों ने सफेद को चुना, क्योंकि त्याग उनका सूत्र है--सब छोड़ देने का। सबसे मुक्ति हो जाए। ऐसी निर्मलता हो कि कोई भी चीज पास न रह जाए। ऐसा अपरिग्रह भाव हो। कोई भी परिग्रह नहीं। मेरा कुछ भी न बचे। जहां मेरा कुछ नहीं बचता वहां मैं समाप्त हो जाता है। इसलिए शुद्ध निर्मल चित्तदशा में अहंकार नहीं होता। हो ही नहीं सकता। वह भी बड़ा प्यारा प्रतीक है।
बौद्धों ने पीला रंग चुना, क्योंकि पीला रंग मृत्यु का प्रतीक है। और बुद्ध कहते ही हैं जीवन तो दुख है। जन्म दुख, जवानी दुख, बुढ़ापा दुख। यहां दुख ही दुख है। इस जीवन से छुटकारा चाहिए इसलिए पीला रंग प्रतीक हो गया। पीला रंग जीवन के छुटकारे का प्रतीक है। जब पत्ता पीला हो जाता है तो गिर जाता है। पीला रंग मृत्यु का रंग है। जीवन से छुटकारा। जीवन के उपद्रव से छुटकारा। जीवन के चाक से छलांग लगा ली, कूद गए। निर्वाण का रंग है पीला।
और मृत्यु का अर्थ होता है निर-अहंकारिता। फिर निर-अहंकारिता। मर गए! कुछ नहीं बचा, मैं भी नहीं बचा, शून्य बचा। तो पीला रंग शून्य का प्रतीक हो गया।
ये अलग-अलग धर्मों की अपनी-अपनी साधना-पद्धतियां, अपने योग, अपने ध्यान, अपने-अपने यात्रा-पथ, अपना-अपना लक्ष्य--उनके प्रतीक हैं। लेकिन एक खयाल रखना, परमात्मा सब रंग है। परमात्मा पूरा इंद्रधनुष है। हां, तुम्हें कोई एक प्रक्रिया पकड़ कर उसकी तरफ चलना होगा। तुम्हें कोई एक किरण पकड़ कर उसकी तरफ चलना होगा। उस किरण को तुम जोर से आग्रहपूर्वक सम्हालते हो। मगर यह मत समझना कि बाकी रंग उसके नहीं हैं, सब रंग उसके हैं।

तीसरा प्रश्नः समझ में नहीं आता कि कबीर और धरमदास जैसे परम भक्तों को भी विरह सताए और वे साधारण प्रेमीजनों जैसे रोने-धोने के गीत लिखें। कृपा करके समझाइए।

॰ रोने-धोने शब्द में तुम्हारा भाव जाहिर हो गया कि तुम्हारे मन में प्रेम के मार्ग का स्वीकार नहीं है। रोने-धोने में निंदा आ गई। रोने-धोने में आलोचना आ गई। रोने-धोने में तुमने बता दिया कि यह बात तुम्हें जंचती नहीं।
क्यों नहीं जंचती? कारण भी तुमने बता दिया कि साधारण प्रेमीजनों जैसे।
प्रेम कभी भी साधारण नहीं। प्रेम जहां है वहीं असाधारण है। प्रेम इस जगत में असाधारण तत्व है। जब दो साधारण जनों के बीच में भी घटित होता है, तब भी असाधारण तत्व है। हीरा कीचड़ में भी पड़ा हो तो भी हीरा है। कीचड़ के कारण हीरे का गुणधर्म कम नहीं हो जाता। वासना भरे हुए दो अंधे अहंकारियों के बीच भी जब प्रेम पड़ता है तो हीरा ही होता है। कीचड़ में सना होता है, मगर कीचड़ से हीरे का क्या बिगड़ता है! पानी में एक डुबकी लगा ली कि सब कीचड़ बह जाएगी। कीचड़ हीरे का स्वभाव नहीं बनती; ऊपर-ऊपर होती है, परिधि पर होती है। हीरे के केंद्र तक व्याप्त नहीं हो सकती।
और इसलिए तुम देखोगे, जब दो साधारण-जनों में भी प्रेम घटता है तो उन दोनों साधारण-जनों की आंखों में भी असाधारण चमक आ जाती है।
तुमने प्रेमी को चलते देखा? उसकी चाल बदल जाती है। कल तुमने देखा था घसिटता सा जाता था। चला जाता था दफ्तर किसी तरह--रोता-धोता! अब नहीं रोता-धोता। अब जाता है, रोता-धोता ऐसा नहीं कह सकोगे, अब गाता-नाचता। उसकी आंख में एक नई रौनक मालूम पड़ती है। उसके चेहरे पर नया रंग मालूम पड़ता है। उसके प्राणों में एक नई ऊर्जा मालूम पड़ती है। उसके पैरों में नाच, उसके हृदय में एक नई गुनगुनाहट।
और ध्यान रखना, प्रेमी जब रोता भी है तो भी वह रोना-धोना नहीं है। उसके रोने में भी आनंद ही है। उसके अश्रु भी आनंद-अश्रु हैं। उसके आंसू बड़े बहुमूल्य हैं। तुम रोना-धोना कह कर उन आंसुओं को खराब मत कर दो। उसके आंसुओं से ज्यादा मूल्यवान इस पृथ्वी पर और क्या है?
रही यह बात कि साधारण-जन भी तो ऐसे ही प्रेम में रोते हैं। विरह में रोते हैं, परेशान होते हैं। यह भी वैसे ही लगता है। कुछ-कुछ तो लगता ही है वैसा। सेली की बात, सेज की बात, पिया की बात मिलन की बात, महल की बात, आलिंगन की बात--ये सब बातें तो साधारण प्रेमी की ही हैं। साधारण प्रेमी जैसी ही लगती हैं। और परमात्मा नहीं मिलता तो आंसू, विरह, विरह के गीत! समझने की कोशिश करो।
इस जगत में जब भी परमात्मा घटेगा, उसे प्रकट करने का उपाय कहीं न कहीं, किसी न किसी साधारण जीवन की पद्धति से ही खोजना होगा। और तो कोई पद्धति नहीं।
बुद्ध बोले। बुद्ध ने जो भाषा उपयोग की वह वही तो है जो बाजार में चलती है। तुम यह तो नहीं कहते कि यह भाषा बाजार में चलने वाली, साधारणजनों की भाषा। इसमें बुद्ध परम सत्य को कैसे कह रहे हैं? यह कैसे कहा जा सकता है? यह वही तो भाषा है जिसमें दो आदमी लड़ते हैं, जिसमें दो आदमी प्रेम करते हैं। उसी भाषा में तो उपनिषद रचे जाते हैं। उसी भाषा में तो गुरुग्रंथ रचा जाता है। उसी भाषा में तो बाइबिल रची जाती हैं। यह भाषा तो वही है। ये शब्द तो वही हैं।
यह मेरा हाथ ईश्वर को समझाते समय जो भाव-भंगिमाएं लेता है, ये भाव-भंगिमाएं वे ही हैं, जो मैं तुमसे बात करते समय लूंगा। यही हाथ होगा, यही जबान होगी, यही आंखें होंगी। अगर कोई चुप भी बैठ जाए तो वह भी चुप्पी...साधारण-जन भी तो चुप बैठते हैं, वैसी ही चुप्पी होगी। और फिर भी वैसी नहीं होगी। भाषा वही होगी फिर भी उसमें कुछ गरिमा और होगी। शब्द वही होंगे, अर्थ नये होंगे। बुद्ध का अर्थ उसमें समाविष्ट होगा।
यह बात सच है कि जब आंख से आंसू बहेंगे तो वैसे ही आंसू होंगे जैसे साधारणजनों की आंखों से बहते हैं। लेकिन जब धनी धरमदास की आंखों से बहेंगे, ये आंखें और! आंसू तो वही। चखोगे तो वही खारा स्वाद होगा। और आंसू अगर इकट्ठे करके ले गए वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में जांच करवाने तो साधारण आदमी की आंख से गिरे आंसुओं में और इन आंसुओं में कोई फर्क नहीं पाया जाएगा।
क्या तुम सोचते हो तुम्हारे खून में और बुद्ध के खून में कोई फर्क होगा; कि तुम्हारी हड्डी में और बुद्ध की हड्डी में कोई फर्क होगा? तुम्हारी देह जिन तत्वों से बनी है उन्हीं तत्वों से बुद्ध की देह बनी है। फिर भी तो बुद्ध तुम जैसे नहीं हैं, कुछ और घटा है। मकान होगा एक जैसा, भीतर का मेहमान तो बिलकुल बदल गया है।
आंसू तो धमरदास के भी तुम्हारे जैसे हैं। लेकिन क्या तुम यह कहोगे कि वे तुम्हारे जैसे ही हैं? उन आंसुओं की अभिव्यंजना अलग है। उन आंसुओं में आकाश उतरा है। उन आंसुओं में परमात्मा के पैरों की पदचाप है।
और प्रकट तो साधारण से ही करना होगा, और तो कोई उपाय ही नहीं है। भाषा बोलो तो साधारण होगी, न बोलो तो साधारण आदमी की चुप्पी होगी। नाचो तो यही तो पैर नाचेंगे न! वेश्या के पैरों में और मीरा के पैरों में कुछ भेद तो नहीं है। पैरों में तो भेद नहीं है। पैरों के परीक्षण से तो कोई भी तय नहीं कर सकेगा कि ये मीरा के पैर हैं या वेश्या के पैर हैं। लेकिन जब मीरा नाचती है और वेश्या नाचती है, क्या तुम दोनों के नाच में फर्क नहीं कर पाओगे? अगर न कर पाओ तो तुम अंधे हो। तो तुम्हें कुछ दिखाई नहीं पड़ा। तो तुम्हारा जीवन एक अंधेर नगरी है, जिसमें टके सेर खाजा, टके सेर भाजी। सब एक सा बिक रहा है। तुम्हें कुछ हिसाब नहीं है।
मीरा का पैर, उसमें बहता लहू, हड्डी-मांस-मज्जा वैसे ही है जैसे वेश्या का। लेकिन जो नाच है वह अलग है। उस नाच को कैसे पकड़ें? उस नाच को पकड़ने का कोई भौतिक उपाय नहीं है। उसको तो सूक्ष्म सहानुभूति से भरी आंखें समझ पाएंगी। उसे तो अत्यंत हार्दिकता से कोई देखेगा तो ही पकड़ पाएगा। वह बात बड़ी बारीक है और नाजुक भी।
जिस पैर से तुम वेश्यालय जाते हो उसी पैरों से तो मंदिर जाओगे न! दूसरे पैर कहां से लाओगे? दूसरे पैर हैं ही नहीं। लेकिन क्या कोई यह कहेगा कि ये वही पैर लिए मंदिर आ रहे हो जिन पैरों से तुम वेश्यालय जाते थे। इनको तो छोड़ कर बाहर आओ। ये पैर कैसे मंदिर ला सकते हैं? ये तो वेश्यालय ले जाते थे। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं, ये पैर दोनों काम करते हैं। ये वेश्यालय भी ले जाते हैं, मंदिर भी ले आते हैं।
यह जब जबान दोनों काम करती है। यह वासना की भाषा भी बोलती है, करुणा की भाषा भी बोलती है। ये आंसू दोनों काम करते हैं। ये साधारण मोह के भी होते हैं और ये उस परमप्रीति के भी। इस देह में दोनों बातें घटती हैं। इस देह में संसार भी घटता है, इस देह में निर्वाण भी घटता है।
यह जगत एक तरफ नरक को छू रहा है, एक तरफ स्वर्ग को। इस जगत की सीढ़ी का एक सिरा नरक में लगा है, एक सिरा स्वर्ग में। यही सीढ़ी नरक ले जाती है, यही सीढ़ी स्वर्ग ले जाती है। तुम्हारे घर में तुम रोज तो करते हो। उसी सीढ़ी से ऊपर जाते हो, उसी सीढ़ी से नीचे आते। ऊपर जाते वक्त यह नहीं कहते कि यह सीढ़ी कैसे ऊपर ले जाएगी, यही तो मुझे नीचे लाई थी? जो सीढ़ी नीचे लाती है वही ऊपर ले जाती है, सिर्फ दिशा बदल जाती है। बस दिशा बदल जाती है। धरमदास के आंसुओं की दिशा अलग है।
पूछा तूमनेः ‘समझ में नहीं आता।’
समझ में आएगा नहीं। यह बात शायद समझ की नहीं है। यह बात प्रेम की है। समझ छोड़ोगे तो समझ में आएगी। समझ से थोड़े ऊपर उठोगे तो समझ में आएगी। यह बात तर्क की नहीं है। इसीलिए तो तर्क के लिए ईश्वर है ही नहीं। जो तर्क को पकड़ कर चलता है वह ईश्वर को कभी अनुभव नहीं कर पाएगा। उसने पहले से ही तर्क को पकड़ने में ही निर्णय ले लिया।
ऐसा ही समझो कि एक आदमी आंखों पर बहुत भरोसा करता है। और भरोसे का कारण भी है, क्योंकि आंखों से इतनी चीजें जानने को मिलती हैं। कितनी चीजें जानने को मिलती हैं! जीवन के जितने अनुभव हैं, वैज्ञानिक कहते हैं उसमें अस्सी प्रतिशत आंख से होते हैं। इसीलिए तो अंधे पर बड़ी दया आती है। इतनी दया गूंगे पर भी नहीं आती। इतनी दया बहरे पर भी नहीं आती, इतनी दया लंगड़े पर भी नहीं आती, जितनी अंधे पर आती है। क्योंकि अस्सी प्रतिशत जीवन से वंचित रह गया बेचारा। अंधे को देख कर अचानक तुम्हारा हृदय कोमल हो जाता है। इसलिए भिखारी अक्सर अंधे होने का ढोंग ज्यादा करते हैं, बजाय कोई और ढोंग करने के। क्योंकि ज्यादा संभावना है तुम्हारा कठोर हृदय थोड़ा पिघले।
मैंने सुना है, एक पुल के पास एक आदमी भीख मांगता था। एक आदमी ने उसे अठन्नी भेंट दी। आदमी कुछ मस्ती में था, लाटरी मिल गई होगी या कुछ हुआ होगा। उस आदमी ने अठन्नी हाथ में पकड़ ली, उलट-पुलट कर देखी। देने वाले ने पूछाः क्या देख रहे हो? क्योंकि तुम तो अंधे हो। उसने कहा कि क्षमा करिए, वह जो आदमी यहां सदा बैठता है, और अंधे का काम करता है वह आज सिनेमा गया है। मैं तो असल में लंगड़ा हूं। मेरे मित्र की जगह बैठा हूं।
भिखमंगे अंधे का स्वांग रच लेते हैं। सरलता से हृदय प्रभावित होता है। अंधे आदमी को देख कर किसी का भी मन हो जाता है कि इसका हाथ पकड़ लो, इसकी लाठी हाथ में ले लो, रास्ता पार करवा दो।
एक युवक मुझसे मिलने श्रीनगर से आया, अंधा युवक। मैंने उससे पूछाः तू...आने में तुझे बड़ी तकलीफ हुई होगी। श्रीनगर से इतने दूर आना, इतनी गाड़ियां बदलनी। और तू अंधा है। उसने कहा, इस अंधेपन के कारण मुझे बड़ी सुविधा है। मुझे अड़चन आती ही नहीं। कोई न कोई मुझे उतार देता है गाड़ी से, कोई न कोई मुझे चढ़ा देता है गाड़ी में। अब आप यह देखिए कि वह रिक्शेवाला बाहर खड़ा है, वह मुझे मुफ्त ले आया है स्टेशन से और प्रतीक्षा कर रहा है कि आपसे मिल लूं तो मुझे धर्मशाला तक पहुंचा दे।
अंधे पर एक दया आती है। कारण है। क्योंकि अस्सी प्रतिशत जीवन वंचित हो जाता है।
तो आंख से हम जीवन के अधिक अनुभव लेते हैं। इससे तुम यह नतीजा मत ले लेना कि सभी अनुभव आंख से लिए जा सकते हैं। फिर तुम संगीत सुनने आंख से मत चले जाना, नहीं तो मुश्किल में पड़ जाओगे। अगर तुमने यह जिद्द की कि मैं तो आंख से ही सुनूंगा तभी मानूंगा कि संगीत होता है, तो फिर संगीत नहीं है। तुम्हारे इसी निर्णय में कि मैं आंख से सुनूंगा तो ही मानूंगा कि संगीत होता है, संगीत को समाप्त कर दिया। संगीत अब है ही नहीं। तुम्हारे लिए जगत ध्वनि-शून्य हो गया। क्योंकि संगीत को सुनने का केंद्र कान है, आंख नहीं। न कान से कोई देख सकता है, न आंख से कोई सुन सकता है।
मस्तिष्क बाहर के जगत को जानने का यंत्र है। तर्क--बाह्य को समझने की प्रक्रिया है। प्रेम--आंतरिक को समझने की प्रक्रिया है। जिसने यह तय कर लिया कि हम तो तर्क से ही चलेंगे क्योंकि तर्क ने बहुत कुछ दिया--और मैं भी कहता हूं बहुत कुछ दिया। सारे विज्ञान का विकास तर्क का विकास है। आदमी को आज जो चीजें उपलब्ध हैं वे सब विज्ञान से उपलब्ध हैं, सब तर्क से उपलब्ध हैं। इसलिए आदमी कहता है कि मैं तो ईश्वर को भी मानूंगा तो तर्क से मानूंगा। मगर फिर भूल हो रही है। ईश्वर तर्क के द्वार से उपलब्ध नहीं होता। जैसे ध्वनि कान से, ऐसे हृदय से ईश्वर; भाव से।
तुम कहते होः ‘समझ में नहीं आता।’
समझ में आएगा ही नहीं। समझ को अलग रख दो तो समझ में आएगा। एक और समझ है, जो हृदय की है। उस समझ का तुम्हारी तथाकथित बुद्धि की समझ से कोई संबंध नहीं, वह एक और ही समझ है।
‘समझ में नहीं आता कि कबीर और धरमदास जैसे परम भक्तों को भी...।’
अब तुम कहते जरूर हो, ‘परम भक्त’, लेकिन तुम्हें भक्ति का कुछ पता नहीं है। परम भक्त ही तो परम ढंग से रोएगा। छोटे-मोटे भक्त छोटे-मोटे ढंग से रोएंगे। छोटे-छोटे आंसू निकलेंगे, ऐसी कंजूसी से किसी तरह गिराएंगे। परम भक्त के आंसुओं की बाढ़ आ जाएगी। उसके आंसुओं में उसकी आत्मा होगी। उसके आंसुओं में उसका निवेदन है, उसका अनुभव है। वह कहता है, परमात्मा को इसके सिवाय और कहने का कोई ढंग ही नहीं है।
तुमने नहीं किया अनुभव कभी-कभी? जब कोई भी चीज सीमा के बाहर हो जाती है तो आंसुओं के सिवाय कहने का कोई उपाय नहीं होता। तुम बड़े आनंदित हुए हो, आंसू आ जाते हैं। तुम बड़े दुखी हुए हो, आंसू आ जाते हैं। बड़े दुख में भी आंसू आते हैं, बड़े सुख में भी आंसू आते हैं। क्यों? जब भी कोई चीज इतनी बड़ी हो जाती है कि सम्हाले नहीं सम्हलती भीतर, आंसुओं से बहती है।
आंसू सदा ही दुख के नहीं होते। और अगर तुमने दुख के ही आंसू जाने हैं तो तुमने अभी असली आंसू नहीं जाने। आंसुओं का बिलकुल निचला हिस्सा जाना है। अभी तुमने ऊपर के आंसू नहीं जाने। अभी तुमने निम्नतम आंसू जाने हैं। अभी तुमने श्रेष्ठतम आंसू नहीं जाने। अभी तुम आंसुओं की एक और यात्रा है उससे अपरिचित हो। आनंद के भी आंसू हैं, अहोभाव के भी आंसू हैं।
फिर आदमी कहे कैसे? परमात्मा से इतना प्रसाद मिला है उसे कहें कैसे? शब्द सब छोटे हैं, वाणी कहने में असमर्थ, लेकिन आंखें कह सकती हैं।
तो आंसू परम अभिव्यक्ति भी हैं और आंसू पवित्रता भी हैं।
ये जो तुम्हारी बाहर की आंखें हैं और ये जो बाहर के आंसू हैं, ये भीतर की आंख और भीतर के आंसुओं के प्रतीक हैं। जैसे तुमने सुना है कि एक भीतर की भी आंख होती है, ऐसे ही भीतर के भी आंसू होते हैं। शायद किसी ने तुमसे यह न कहा हो, लेकिन भीतर की आंख होगी तो भीतर के आंसू भी होंगे। यह जिन आंसुओं की चर्चा है धरमदास के वचनों में, ये भीतर के आंसू हैं। जरूरी नहीं है कि धरमदास की ऊपर की आंखें आंसुओं से भरी रही हों। यह एक आंतरिक अनुभव है।
और आंसू अगर तुम चक्षु-विशेषज्ञ से पूछो, आंख के डाक्टर से पूछो कि आंसू का क्या प्रयोजन है? इसकी क्या अर्थवत्ता है मनुष्य के शरीर में? तो वह कहेगा कि आंसुओं का प्रयोजन है आंखों को स्वच्छ रखना; धूल न जमने देना। आंसुओं के धोते--आंसुओं के द्वारा आंखें धुलती रहती हैं, ताजी रहती हैं। आंसू आर्द्रता है आंखों की इसलिए जो आदमी रोना भूल जाता है उसकी आंखें कठोर हो जाती हैं।
पुरुषों की आंखें अक्सर कठोर हो जाती हैं, पथरीली हो जाती हैं क्योंकि सारी दुनिया में यह मूढ़ता सिखाई जाती है कि पुरुष को रोना नहीं चाहिए। पुरुष कैसे रो सकता है? यह तो स्त्रैण बात है। प्रकृति भेद नहीं करती। पुरुष की आंख में भी आंसू की ग्रंथि उतनी ही बड़ी है जितनी स्त्री की आंख में है। इसलिए प्रकृति ने तो कोई भेद नहीं किया। नहीं तो प्रकृति देती ही नहीं। जैसे पुरुष को स्तन नहीं दिए क्योंकि उसे दूध पिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी बच्चे को। उसको गर्भ ही नहीं मिला। वैसे ही आंख में ग्रंथि भी न होती आंसू की, अगर प्रकृति ने भेद किया होता स्त्री-पुरुष की आंखों में। लेकिन जितनी बड़ी ग्रंथि स्त्री की आंखों में है उतनी ही पुरुष की आंखों में। पर स्त्री की आंखों में तुम्हें एक ताजगी, एक चमक, एक आर्द्रता मिलेगी, एक भाव मिलेगा। पुरुष की आंखें पथरीली हो जाती हैं; कठोर हो जाती हैं। आंखों को धुलने का मौका नहीं रह जाता।
कभी-कभी रोओ। कभी-कभी रोना बड़ा आनंदपूर्ण है। उसको रोना-धोना कहना ही मत, उसको कहो रोना-गाना। कभी-कभी रोओ, गाओ। और कभी ऐसे मौके आते हैं जब पिघलो! नहीं तो तुम पत्थर हो जाओगे।
और जो बाहर की आंख के संबंध में सच है वह भीतर की आंख के संबंध में और भी ज्यादा सच है। वह जो तीसरी आंख है, वह जब तक तुम भीतर न रोओगे, जब तक तुम्हारा हृदय रुदन से न भरेगा तब तक स्वच्छ न होगी।
याद में उस बुत के रोईं इस कदर आंखें मेरी
पुतलियां दोनों नहा-धोकर बरहमन हो गईं
रोओगे तो ब्राह्मण हो जाओगे।
तेरे हमनाम को जब कोई पुकारे है कहीं
जी धड़क जाता है मेरा, कहीं तू ही न हो!
भक्त प्रतिपल तैयार है। हर घड़ी राह देखता है। हर चीज उसे अपने प्यारे की याद दिलाती है। हर चीज, हर इशारा उसे प्यारे की तरफ ले जाता है।
तुमने कभी प्रेम किया? तुमने अगर कभी प्रेम किया तो हर चीज तुम्हें अपनी प्रेयसी की याद दिलाती है, अपने प्रेमी की याद दिलाती है। कोई दूसरी स्त्री निकल जाती है, हवा में लहरता उसका आंचल--और तुम्हें अपनी प्रेयसी की याद आ गई। कोई पड़ोस में स्त्री बोलती है, उसकी कंठ की आवाज--तुम्हें अपनी प्रेयसी की याद आ गई। अगर तुमने प्रेम किया किसी स्त्री को तो हर स्त्री किसी अर्थ में तुम्हें अपनी प्रेयसी की याद दिलाती है। उसके चलने का ढंग, उसके बोलने का ढंग--कोई न कोई चीज। असल में तुम तत्पर हो। हर बहाने से तुम अपने प्रेमी की याद कर लेते हो।
जिसने परमात्मा को प्रेम किया उसे हर चीज--वृक्षों के पत्ते और फूल और आकाश के तारे और नदियों से बहती हुई धार और पहाड़ों से उतरते हुए झरने--सब किसी न किसी अर्थ में उसे अपने परमात्मा की ही भाव-भंगिमाएं, उसी का आंचल मालूम होते हैं।
तेरे हमनाम को जब कोई पुकारे है कहीं
जी धड़क जाता है मेरा, कहीं तू ही न हो!
फिर भक्त की मजबूरियां भी हैं, वे भी समझो। भक्त ने देख लिया उस विराट को और फिर भी बंधा है इस सीमित में। अनुभव कर लिया उस अनंत का, फिर भी अभी जंजीरें पड़ी हैं देह की। अभी जीवन में रुका है।
जिंदगी रोग हो और मौत भी आए न करीब
किसी मजबूर को इतना न सताया जाए
तो रोता है। रोना उसकी प्रार्थना भी है। रो-रो कर वह यह कहता है, यह मामला क्या है? अब तो मुझे बुला लो, अब तो मुझे छुड़ा लो।
जिंदगी रोग हो और मौत भी आए न करीब
किसी मजबूर को इतना न सताया जाए
और मैं मजबूर हूं, मेरे किए कुछ हो नहीं सकता। होगा तो तेरे किए होगा। तू करेगा तो होगा।
किसी मजबूर को इतना न सताया जाए
फिर भक्त खुमार में रहने लगता है, एक नशे में रहने लगता है। क्योंकि सब तरफ से उसे परमात्मा घेरे हुए मालूम पड़ता है। हवाएं उसकी, रोशनियां उसकी, आस-पास हर तरह के स्त्री-पुरुषों में उसकी झलक, पशु-पक्षियों में उसकी झलक। एक खुमार में रहने लगता है, एक नशे में रहने लगता है। उस नशे में रोता है। उस नशे में डोलता है। उस नशे में गाता है।
लग्जीदा मुझमें है मय दोशीजा का खुमार
कुछ होश में जरूर हूं, फिर भी नशे में हूं
तुम भक्त को उसकी ही भाषा में समझो। तुम्हें भक्त को समझना है तो उसकी शैली, उसका ढंग, उसका रंग सहानुभूति से पकड़ो। तर्क और संदेह, और विचार और विचार के रास्ते अलग हैं। भाव के जगत में उनकी कोई गति नहीं है।
परमात्मा दिखाई पड़ जाता है तो भक्त को लगता है, बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि अब तक क्यों नहीं दिखा? और कितना मैंने गंवाया! और कल भी दिख सकता था और परसों भी दिख सकता था। क्योंकि जब दिखता है तो पता चलता है वह तो सदा से था, मैं ही शायद आंख बंद किए बैठा था।
अभी जिंदा हूं लेकिन सोचता रहता हूं खल्वत में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं
कौन सी चीज मुझे जिलाए रखी परमात्मा के बिना? उस प्रेमी के बिना कौन से कारण से मैं जी रहा था? जीने योग्य कुछ भी नहीं था फिर भी जी रहा था। अतीत के लिए भी रोता है भक्त। वे जन्म-जन्म, वे चैरासी कोटियों की यात्राएं--किसलिए? ‘कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं।’ कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता, सब अकारण मालूम पड़ता है। जो अब तक किया-धरा, वह सब व्यर्थ मालूम पड़ता है। और अब जो करने योग्य है वह बस के बाहर। वह तो जब वह चाहे, उसकी मर्जी से होगा। ‘किसी मजबूर को इतना न सताया जाए!’
और जैसे-जैसे भक्त करीब पहुंचने लगता है परमात्मा के, वैसे-वैसे मिटने लगता है। उसके मिटने से भी उसके आंसू बहते हैं। वे उसके पिघलने की भी खबर लाते हैं। वे खबर लाते हैं कि भक्त अब धीरे-धीरे खो रहा है। आंखें कठोर हों, आंसुओं से अपरिचय हो तो तुम कभी अहंकार से मुक्त न हो सकोगे।
मौजे-गिरदाब से बचाए सफीने लेकिन
जाने क्यों डूब गए आते ही साहिल की तरफ
बच गए तूफानों से, आंधियों से, अंधड़ों से। ‘मौजे-गिरदाब से बचाए सफीने लेकिन।’ नावें बच कर आ गईं तूफान से। संसार बड़ा तूफान है। और क्या तूफान होगा?
मौजे-गिरदाब से बचाए सफीने लेकिन
जाने क्यों डूब गए आते ही साहिल की तरफ
और जैसे ही किनारा आता है, नावें डूब जाती हैं। परमात्मा ऐसा किनारा है जो मझधार जैसा है। जिसमें डूब जाना होता है। उसमें जो डूबते हैं वे ही उसे पाते हैं। और आंसुओं में डूबना न आए तो डूबना आता ही नहीं। आंसुओं में डूबने वाला ही जानता है कि डूबना क्या है। इसलिए मेरी मानो, भक्तों के रोने को रोना-धोना मत कहो।
पूछा तुमनेः ‘समझ में नहीं आता कि कबीर और धरमदास जैसे परम भक्तों को भी विरह सताए।’
और किसको सताएगा? उन्हीं को सता सकता है। जिन्होंने चखा है थोड़ा रामरस, उन्हीं को सता सकता है। जिन्हें स्वाद लगा थोड़ा, उन्हीं को सता सकता है।
‘वे साधारण प्रेमी-जनों जैसे रोने-धोने के गीत लिखें, यह समझ में नहीं आता।’
इससे सिर्फ एक ही बात जाहिर होती है कि साधारण-जनों के प्रेम में भी कुछ असाधारण है। और असाधारण प्रेमियों के प्रेम में भी कुछ साधारण है। दोनों जुड़े हैं। इसलिए तो मैं कहता हूं संभोग से समाधि तक की यात्रा संयुक्त यात्रा है। संसार से लेकर निर्वाण तक की यात्रा का मार्ग एक ही है, संयुक्त है, जुड़ा है। इस छोर पर संभोग, उस छोर पर समाधि। इस छोर पर संसार, उस छोर पर निर्वाण। इस छोर पर काम, उस छोर पर राम। काम ही राम हो जाता है।
संसार को और परमात्मा को हमने निरंतर विपरीत देखने की जो आदत बना ली है उससे अड़चन होती है। हमने यह धारणा बिठा ली है। तथाकथित साधु-संत यही समझाते फिर रहे हैं सदियों से कि परमात्मा और संसार में विरोध है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं, उसका यह संसार है, उसमें और उसके संसार में विरोध कैसे हो सकता है? थोड़ा सोचो तो!
एक संगीतज्ञ में और उसके संगीत में विरोध हो सकता है? एक चित्रकार में और उसके चित्र में विरोध हो सकता है? एक मूर्तिकार में और उसकी मूर्ति में विरोध हो सकता है? एक नर्तक में और उसके नृत्य में विरोध हो सकता है? एक गायक और उसके गीत में विरोध हो सकता है? अगर गायक और गीत में विरोध हो तो गायक गाए क्यों? और नर्तक और नृत्य में विरोध हो तो नर्तक नाचे क्यों?
नहीं, संसार में और परमात्मा में कोई विरोध नहीं। यह उसकी ही भाव-भंगिमा है। और जिस दिन यह तुम्हें समझ में आएगा तब तुम्हें यह दिखाई पड़ेगा, यहां साधारण कुछ भी नहीं है। साधारण-जन भी असाधारण को छिपाए बैठे हैं। यहां कंकड़-पत्थर हैं ही नहीं, सब हीरे हैं। हीरे भी भूल गए हैं कि हीरे हैं--यह मजबूरी है। लेकिन हैं तो हीरे ही।
मेरे पास कभी-कभी कोई आ जाता है। और वह मुझसे कहता है कि आप साधारण-जनों को संन्यास दे देते हैं? मैं उनसे पूछता हूं असाधारण जन कहां से लाओगे? कौन हैं असाधारण जन? शायद पूछने वाला सोचता है कि वह असाधारण है। वह मान कर चलता है कि मैं असाधारण हूं। ये साधारण-जन--इनको आप संन्यास दे देते हैं? मैं उनसे कहता हूं कि तुम एकाध तो ऐसा आदमी लाओ जो कहता हो कि मैं साधारण हूं--ईमान से कहता हो। ऊपर-ऊपर कहे उसकी फिकर मत करना। ईमान से कहता हो कि मैं साधारण हूं। किसी को यह बात जंचती नहीं कि वह साधारण है। और जंचती नहीं ठीक ही है क्योंकि कोई साधारण है ही नहीं। यहां सभी असाधारण हैं। जब परमात्मा सबमें छाया हो तो कोई साधारण कैसे हो सकता है?
यह अस्तित्व असाधारण है। इसकी घोषणा करो। और जीवन की छोटी-छोटी चीज में उस पर परम प्यारे को खोजना शुरू करो, तुम पाओगे। निश्चित पाओगे। अगर धूल के कण-कण में वही है तो आंसुओं की बूंद-बूंद में भी वही होगा।
उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, ऐसी प्रतीति भक्ति है।

आखिरी प्रश्नः भगवान, संन्यास लेने के पहले रोज शराब पीया करता था। यह तो दस साल की आदत थी। उसके साथ-साथ जुआ, धूम्रपान तथा अन्य व्यसन भी जुड़े थे। लेकिन जैसे ही संन्यास लिया, सब अचानक छूट गया। और ध्यान में उतरने के बाद एक ऐसा निर्मल नशा चढ़ा, जो उतरता नहीं। यह सब आपकी करुणा है, अनुकंपा है लेकिन फिर भी पूछना चाहता हूं, यह सब कैसे हुआ?

॰ जब होता है तब सभी को ऐसा लगता है, यह कैसे हुआ? क्योंकि यह तुम्हारे किए नहीं होता। और मैं तुम्हारे करने पर भरोसा भी नहीं करता। संन्यास का अर्थ इतना ही होता है कि मैं तो कर चुका सब, कुछ न हुआ, अब परमात्मा कुछ करे। संन्यास का अर्थ होता है, मैं समर्पित करता हूं। संन्यास का अर्थ होता है, मैं हार गया अपने से। अब तुम लो। और जहां ले जाना चाहो ले चलो। तुम जहां रखोगे, जैसा रखोगे, वैसा रहूंगा। तुम जो खिलाओगे, पिलाओगे, खाऊंगा, पीऊंगा। तुम्हारा इशारा मेरी नियति होगी। संन्यास का यही अर्थ होता है।
इस घटना के बाद चीजें अपने आप घटनी शुरू होती हैं।
यही हुआ। तुम दस साल से शराब पीते थे और दस साल से ही छोड़ने की कोशिश भी कर रहे होओगे और नहीं छूटती थी। छोड़ने की कोशिश में भी अहंकार है। समर्पित हुए। देख लिया सब करके, अपने किए कुछ नहीं होता। और एक व्यसन आता है तो दस उसके साथ आते हैं, कोई व्यसन अकेला नहीं होता। कोई बीमारी अकेली नहीं होती। अब जो शराब पी रहा है वह धूम्रपान क्यों न करे? वह सोचता है जब शराब ही पी रहा हूं, नरक तो जाना ही है, अब सिगरेट पीने से और क्या फर्क पड़ेगा? और जुआ भी खेल ही लूं। अब जब पाप ही कर रहा हूं तो इसमें भी क्या कंजूसी? फिर एक व्यसन दूसरे व्यसन से जुड़ा है।
बीमारियां साथ आती हैं, दुर्गुण साथ आते हैं। सदगुण भी साथ आते हैं। एक सदगुण आ जाए तो धीरे-धीरे अपने पीछे अपने संगी-साथियों को ले आता है। तुम सत्य बोलना शुरू कर दो--एक छोटा सा सदगुण, और तुम पाओगे न मालूम कितनी चीजें उसके साथ आ गईं। और न मालूम कितनी चीजें उसके कारण विदा हो गईं। तुम कोई एक चीज शुरू कर दो, और तुम हैरान हो जाओगे।
जर्मनी के एक बहुत बड़े विचारक काउंट कैसरलिंग को चीन के उनके एक मित्र ने एक लकड़ी की पेटी भेजी; एक बड़ी बहुमूल्य मंजूषा। प्राचीन, कोई दो हजार साल पुरानी। उस पेटी का बड़ा इतिहास। वह बड़े-बड़े लोगों के हाथ में रही, सम्राटों के हाथ में रही, बड़े कवियों, बड़े मूर्तिकारों के हाथ में रही। उसका इतिहास भी बड़ा पुराना और बड़ा प्राचीन। सारा इतिहास भी उन्होंने साथ भेजा। और उस पेटी की एक शर्त थी बनाने वाले की--पहले बनाने वाले की शर्त थी--कि पेटी को सदा पूरब की तरफ मुंह करके रखा जाए। और अब तक दो हजार साल तक उसका पालन किया गया है।
पेटी इतनी प्यारी कि जिसके हाथ पड़ी उसी ने शर्त का पालन किया। काउंट कैसरलिंग को उनके मित्र ने लिखा कि यह पहली दफा पश्चिम आ रही है पेटी। यह शर्त पालन की जानी चाहिए। इसका मुंह पूरब की तरफ रहे।
काउंट कैसरलिंग ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। इसमें कुछ अड़चन न थी। मैंने अपने कमरे में बीच टेबल पर उसको सजाया। अदभुत चीज थी। मेरे घर में इतना मूल्यवान कुछ भी नहीं था। उसका मुंह मैंने पूरब की तरफ किया क्योंकि जब शर्त थी तो शर्त पूरी होनी थी। और इतने प्रेम से किसी ने आग्रह किया था। और दो हजार साल तक किसी ने शर्त तोड़ी नहीं थी।
लेकिन तब अड़चन हो गई। पूरा कमरा उस पेटी की वजह से गड़बड़ मालूम होने लगा। तो पूरे कमरे का फर्नीचर फिर से जमवाना पड़ा, बदलवाना पड़ा। वह पेटी से मेल खाना चाहिए न! नहीं तो वह पेटी बिलकुल बेबूझ मालूम पड़े बीच में रखी। उससे कोई तुक नहीं, बेसुरी मालूम पड़े। और इतनी बहुमूल्य कि कमरे को बदलने जैसा लगा। लेकिन जब कमरे को बदल डाला पूरा, द्वार-दरवाजे तक बदल डाले उस पेटी के साथ तालमेल खाने के लिए, एक स्वर बनाने के लिए। तब हैरानी अनुभव हुई कि वह कमरा पूरे घर में तालमेल खो गया।
कैसरलिंग भी एक जिद्दी आदमी था। उसने पूरा मकान बदल डाला। तब पाया उसने कि वह मकान बगीचे के साथ बेमेल हो गया।
एक चीज आती, उसके साथ दूसरी चीजें आनी शुरू होती हैं। और उस पेटी ने पूरा का पूरा भवन बदल दिया, बगीचा बदल दिया। सारा रूपांतरण हो गया।
संन्यास एक प्रारंभ है। तुम्हारा यह भाव कि मैं समर्पित हो जाऊं। तुम अपने से हार गए, थक गए, अब तुम कहते हो राम के हाथ में छोड़ दूं। हारे को हरिनाम। उस छोड़ने में ही तुम्हारे जीवन में पहली किरण उतरी तुम्हारे पार से। अब यह किरण बदलाहटें शुरू करेगी।
शायद तुम शराब इसीलिए पीते थे...मेरा अनुभव यही है, मेरा अवलोकन यही है कि लोग शराब इसीलिए पीते हैं कि वे परमात्मा को खोज रहे हैं। शराब के पीने में और परमात्मा के खोजने में कुछ समानता है। शराब पीकर तुम अपने को भूल जाते हो--थोड़ी देर को सही, मगर अपने को भूल जाते हो। उसी से राहत मिलती है। आत्म-विस्मरण! परमात्मा को पीकर तुम सदा के लिए अपने को भूल जाते हो। शराब छोटी शराब है, परमात्मा विराट शराब है। शराब का पीया फिर जागेगा और अहंकार को फिर अपनी जगह पाएगा; शायद और भी विकृत पाएगा। चिंताएं सब अपनी जगह पाएगा, शायद और भी बुरी हो गई होंगी, और भी उलझ गई होंगी क्योंकि समय बीत गया।
लेकिन शराबी भी खोज रहा है किसी न किसी अर्थ में--आत्म-विस्मरण, अनत्ता। शराबी भी चाह रहा है, किसी तरह झंझट छूट जाए चिंताओं से। झंझट छूट जाए इस मैं से। उपाय गलत कर रहा है लेकिन आकांक्षा सही है। गलत दिशा में जा रहा है लेकिन खोज जो रहा है वह तो सही है।
शायद संन्यास के साथ ही तुम्हारी दिशा बदल गई। संन्यास यानी दिशा का रूपांतरण। शराब छूट गई होगी। चमत्कार न मानो। परमात्मा के लिए कुछ भी चमत्कार नहीं है। तुम छोड़ो भर, और चमत्कार पर चमत्कार होने शुरू हो जाते हैं। तुम उस पर भरोसा भर करो, तुम कहो भर कि तू मुझे अपने हाथ में ले ले और जैसा चाहे, जैसा ढालना चाहे, ढाल दे। मैं अड़चन न दूंगा, मैं बाधा न दूंगा। और तुम हैरान हो जाओगे, जो तुम्हारे किए-किए नहीं हुआ वह तुम्हारे बिना किए होना शुरू हो जाता है। और शराब गई तो उसके साथ धूम्रपान गया होगा, जुआ गया होगा। वे उसके साथ आए थे। उनका सत्संग था, उनकी मंडली थी। जब मंडली के मालिक ही चले गए, जब गुरु ही चले गए तो शिष्य भी चले गए।
और तुमने लिखा है कि ‘ध्यान में उतरने के बाद एक ऐसा निर्मल नशा चढ़ा है जो उतरता ही नहीं।’
इसी की तुम्हें शराब में तलाश थी। वह उतर-उतर जाता था, अब तुम्हें ठीक शराब मिल गई। मैं तो शराब ही बेचता हूं।
धीरे-धीरे इस राज का रहस्य भी तुम्हें समझ में आ जाएगा। रहस्य इतना ही है कि तुमने उसे मौका दिया। तुमने परमात्मा को मौका दिया। उसके हाथ में असंभव संभव है। छोड़ना भर सीखो।
रामकृष्ण कहते थे, तुम नाहक पतवारें चला रहे हो। पाल क्यों नहीं खोलते? रखो पतवारें, पाल खोल दो। उसकी हवाएं उस तरफ ले जाने के लिए तैयार हैं। बस यही बात है।
लोग पतवारें चला रहे हैं और जूझ रहे हैं नदी की धार से। और उसकी हवाएं ले जाने को तैयार हैं। तुम पाल खोलो, हवाएं पाल में भर जाएंगी और नाव चल पड़ेगी। और तुम चकित होकर सोचोगे यह क्या हुआ! मैं तो पतवारें चला-चला कर हारा जा रहा था और नाव चलती नहीं थी। भुजाएं मेरी थक गई थीं। और अब नाव ऐसी भागी जा रही है। कौन इसे ले जा रहा है? उसकी हवाएं इसे ले जा रही हैं। हवाएं अदृश्य हैं, ऐसी ही उसकी अनुकंपा भी अदृश्य है।
संन्यास ने तुम्हारे जीवन के पाल खोल दिए। अब उसकी हवाएं ले जाएंगी, वहीं जहां तुम सदा जाना चाहते थे लेकिन तुम्हारे कारण नहीं जा पाते थे। संन्यास ने तुम्हारे अहंकार को विसर्जित किया है। और थोड़ा बहुत बचा हो, उसे भी जाने दो। अहंकार जाए यही सौभाग्य।

आज इतना ही।


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