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शनिवार, 25 अगस्त 2018

क्या सोवै तू बावरी-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(निजता की घोषणा)

प्रश्नः मेडिटेशन के लिए मन भी शांत होना चाहिए?
मन ही अगर शांत हो, तो फिर ध्यान की जरूरत ही नहीं।

प्रश्नः नहीं हो, तो?

पागल है तू। यह तो ऐसा हुआ कि बीमार डाक्टर के पास जाए और डाक्टर कहे, स्वस्थ हो तो हमारे पास आओ ध्यान से मन को शांत करवा देंगे। पहले से शांत होने की जरूरत नहीं है। क्या जरूरत है शांत होने की? वह कोई शर्त नहीं है शांत होना, वह परिणाम है उसका, कांसिक्वेंस है।

प्रश्नः मन का अशांत होना, उसका नेचर नहीं है?

नहीं, बिलकुल नहीं। मन को अशांत करने के लिए बड़ी मेहनत उठानी पड़ती है। जिंदगी भर मेहनत की, तो थोड़ा-बहुत कर पाते हैं। फिर भी पूरा नहीं कर पाते हैं, नहीं तो पागल हो जाएं।


प्रश्नः इकबाल थे, जो बहुत बड़े शायर थे। उन्होंने अपने बेटे के लिए दुआ लिखी है। उन्होंने लिखा है कि खुदा तुझे किसी तूफां से आशनाई कर दे, कि तेरे बहार के मौजूं में...तो तूफान से आशनाई?


ठीक लिखा है। लेकिन तूफान से आशनाई वही कर सकता है जो भीतर तूफान में न हो, नहीं तो आशनाई कर नहीं सकता तूफान से। आप अगर शांत हों, तो तूफान से भी प्रेम कर सकते हैं; और अगर आप ही अशांत हो गए, तो फिर तूफान से प्रेम चलाना बहुत खतरनाक है। सिर्फ शांत आदमी तूफानों से प्रेम कर सकता है। नहीं तो नहीं कर सकता। शांत आदमी तूफानों से बहुत प्रेम करता है। यानी शांत वह नहीं है जो तूफानों से भाग जाता है। तूफानों से सिर्फ वही भागता है जो भीतर तूफानों से भरा है, घबड़ा गया और भाग गया।
 तिब्बत का एक फकीर हुआ है, मिलारेपा। उसने एक छोटा सा गीत लिखा है। उस गीत में एक छोटा सा बगीचा है और उसमें घास के बहुत छोटे-छोटे पौधे हैं, और कुछ ऐसे घास के पौधे हैं, जो दीवाल की आड़ में छिपे हैं। न कभी सूरज की रोशनी वहां आती और न कभी हवाओं के झोंके वहां आते। वहां कोई तूफान आते नहीं कभी। उनमें से एक दबे हुए पौधे ने एक दिन प्रकृति से प्रार्थना की है कि यह मुझे पसंद नहीं है। मुझे तो गुलाब का फूल बना दे, चाहे एक दिन के लिए। तो उसके आस-पास के सारे पौधों ने कहाः पागल हो गए हो! देखते हो, गुलाब सुबह खिलता है, सांझ मुरझा जाता है। हम खिलते हैं, तो खिले ही रहते हैं, हम मुरझाते ही नहीं। वे तो घास-फूस के फूल हैं, मुरझानेे का कोई सवाल ही नहीं है। और देखा है, गुलाब के फूल की क्या हालत हुई? जरा तूफान आता है, तो जमीन पर गिर जाता है। रोता है, छाती पीटता है। हम पर कभी तूफान नहीं आता। और देखा है, जब सूरज तेजी से जलता है, तो गुलाब के फूल की कैसी हालत होती है? हमें सूरज छू भी नहीं सकता, हम सदा सुरक्षित हैं।
पर वह पौधा तो रात भर रोता रहा। प्रकृति से कहाः नहीं मुझे तो, चाहे एक दिन के लिए ही, गुलाब का फूल बना दो। और दूसरे दिन सुबह वह गुलाब का फूल हो गया। उसके सारे साथियों ने चिल्ला कर कहाः बिलकुल नासमझ हो, पागल हो! और वे सब सांझ झांक कर देखते रहे कि सुबह से मुसीबतें आनी शुरू हो गईं। अब गुलाब का फूल होना है, तो मुसीबतें आएंगी। वह गुलाब का फूल हुआ नहीं कि उस पर मुसीबतें आ गईं। सुबह से तूफान चलने लगे, आंधी चलने लगी, बादल गरजने लगे, बिजली चमकने लगी। वह गुलाब का फूल कभी जमीन छूता, कभी उठता और वे दबे हुए पौधे खूब मुस्कुराने लगे, खूब हंसने लगे। उन्होंने कहाः कितना समझाया, नासमझ नहीं माना। अब मरा जा रहा है।
सांझ होते-होते जोर का तूफान आया, वर्षा आई। वह गुलाब का फूल गिर पड़ा और पूरा पौधा गिर पड़ा, जड़ें उखड़ गईं। उसके फूल नीचे पड़े हैं। और वह पौधा मरा हुआ पड़ा है। आखिरी श्वासें गिन रहा था। अगल-बगल के पौधों ने झांक कर कहा कि देखा, क्या हालत हो गई!? उसने कहाः मरते वक्त मैं तुमसे यही कहने के लिए नीचे झुक आया हूं कि अपनी सारी जिंदगी बेकार है। यह एक दिन बहुत आनंद मिला। जब तूफानों में हम उठे, उसने कहा, तो हम तूफानों को जीत भी गए। तूफान ने हमें गिराया, लेकिन हम उठे भी तूफान में। और जब बादल गरजने लगे, और बिजली चमकने लगी, तब भी हम थे, उसमें उठे हुए थे। और आज हम जमीन पर भी गिर पड़े तो क्या, बड़ा काम कर लिया । इतना तूफान चला, इतने बादल गरजे, तब कहीं छोटे से गुलाब के पौधे को गिरा पाए।
तो यह जो आप कहते हैं न, आशनाई तो हो सकती है, मोहब्बत तो हो सकती है तूफान से लेकिन उसके लिए भीतर बड़ा शानदार कुछ है। मैं तूफान के खिलाफ नहीं हूं। उससे तो मोहब्बत होना ही चाहिए, नहीं तो आदमी आदमी ही नहीं है।

प्रश्नः जहां से तूफान उठता है, वह तो शांत होता ही है।

होना ही चाहिए, होना ही चाहिए। लेकिन हमारी तकलीफ यही है--बाहर तूफान हों, यह तो कुछ कठिनाई नहीं है लेकिन वह जिसको आप कुछ कह रहे हैं; वह जो हमारे भीतर एक सेंटर होना चाहिए, वह तूफान नहीं है। जैसे बैलगाड़ी का चाक चल रहा है। सारा चाक चलता है, लेकिन एक कील ठहरी हुई है। और वह कील ठहरी है, इसलिए चाक चलता है। और उस ठहरी हुई कील पर ही चलता है। यानी सारा चलना उसी ठहरे हुए के ऊपर हो रहा है। बिलकुल कंट्राडिक्ट्री हैं दोनों बातें। लेकिन अगर वह कील भी चल जाए, तो मामला मुश्किल हो जाए। हम चली हुई कील हैं। बाहर तो तूफान ठीक है; चलना ही चाहिए। अगर हम भी चल जाएं, तो फिर सब मुश्किल हो जाए।

प्रश्नः वह जो गर्दिश है, जो चक्कर है, जो वह है तो गर्दिश से फिर ठहरी हुई कील पर आना?

नहीं, नहीं, यह भी सवाल नहीं है। यह सवाल नहीं है कि आप गर्दिश से ठहरी हुई कील पर आ जाएं। इतना ही सवाल हो कि गर्दिश में, ठहरी हुई कील का आपको बोध हो जाए, पता चल जाए। बात खत्म हो गई। फिर गर्दिश नहीं है। तो जब हम अशांत हैं और परेशान हैं, तब भी हमारे भीतर कोई चीज शांत है ही। यह सवाल नहीं है कि आपको उसे शांत करना है, यह सवाल ही नहीं है।

प्रश्नः वही चीज बताती है कि आप अशांत हैं।

हां, उसी से खबर मिल रही है। उसका आपको पूरा पता नहीं चल रहा है कि वह क्या है। जहां से खबर मिल रही है, उसकी तरफ लौट जाने को ही मैं ध्यान कहता हूं। यानी ध्यान आपके भीतर कुछ शांति नहीं कर देगा, सिर्फ जो शांति का केंद्र है, उसको वह आपकी अवेयरनेस के कांटेक्ट में ला देगा। और एक दफा आपको पता चल जाए कि भीतर शांति है, और कितने ही तूफान आते हैं, तो भी वह है...बल्कि सब तूफान उसी के ऊपर घूमते हैं, नहीं तो घूम भी नहीं सकते। फिर बात खत्म हो गई; फिर तूफान का कोई भय न रहा; फिर कोई भागना न रहा। फिर ठीक तूफान के बीच भी तूफान के बाहर हो सकते हैं।
एक जर्मन विचारक था, हैरिगेल। वह जापान गया तीन साल के लिए। झेन फकीर के पास ध्यान सीखने गया। बहुत कोशिश की, लेकिन सीख नहीं पाया। और बहुत से फकीरों से मिला। फिर ऊब गया और सोचा कि लौट जाऊं। तो जिस दिन वह लौटने को था, उस दिन उसने जिस होटल में ठहरा था, उसके मैनेजर से कहा, मैं उदास लौटता हूं। तीन साल मेहनत की है और यह सोच कर आया था कि पूरब में मुझे मिल जाएगी वह बात। लेकिन वह है नहीं। मुझे वह आदमी न मिला जो कि शांत हो। तो उस होटल के मैनेजर ने कहाः आज और रुक जाएं। एक आदमी की मुझे खबर है, उससे बिना मिले मत जाएं, अन्यथा पूरब के संबंध में कुछ कहना मत। क्योंकि तुम जिनसे मिले हो, वे पूरब के लोग ही न थे। सिर्फ पूरब में पैदा हुए हैं। वे सब पश्चिम के लोग हैं। तुम उन्हीं से मिल रहे हो। तो मैं तुम्हें ले चलता हूं एक आदमी के पास।  तो उसने कहाः मेरा तो अब बिलकुल ही मन न रहा। मैं बहुत ऊब गया हूं। न मालूम किन-किन के पास गया! उसने कहाः फिकर मत करो, उसको ही यहां बुला लेते हैं। उसने उसको सांझ बुला लिया है। और दस पच्चीस मित्रों को भी बुुलाया हुआ है। पांच-सात मंजिल उसकी होटल के ऊपरी हिस्से पर बैठकर खाना खा रहे हैं वे, गपशप कर रहे हैं। हैरिगेल उस फकीर के पास बैठा हुआ है, एक बोकोजू नाम का फकीर था, उसके पास बैठा है। बात चल रही है और अचानक तूफान आ गया है और भूकंप आ गया है और सारे मकान कंपने लगे हैं, तो सारे लोग भागे। हैरिगेल भी भागा। भागते वक्त उसको खयाल आया कि वह फकीर भी भाग गया है कहीं? उसने पीछे लौट कर देखा। वह तो आंख बंद करके अपनी कुर्सी पर बैठा हुआ है, सिर्फ आंख बंद किए हुए। तो हैरिगेल को ऐसा लगा, अचानक उसको लगा कि इतने खतरे में--सात मंजिल का मकान है, लकड़ी का मकान है, कभी भी बैठ जाए, और यह आदमी आंख बंद किए बैठा है! तो हैरिगेल ने लिखा है कि मेरा मन हुआ कि रुक जाऊं, जो इसके साथ होगा, वह मेरे साथ होगा। वह रुक कर उसके पास बैठ गया है, लेकिन हाथ-पैर उसके कंप रहे हैं। कुछ सैकेंड में भूकंप तो चला गया। बोकोजू ने आंख खोली और जहां से बात टूट गई थी भूकंप के आने से, वहीं से बात शुरू कर दी, जैसे कि भूकंप हुआ ही न था। उस फकीर ने वहीं से बात शुरू कर दी। हैरिगेल ने कहाः मुझे याद भी नहीं है कि क्या बात चल रही है। तो उस बाबत में अब नहीं पूछना है। अब मुझे यह पूछना है कि इस भूकंप का क्या हुआ! आप भागे नहीं? उस फकीर ने बहुत अदभुत बात कही। उसने कहाः ‘भागा तो मैं भी। लेकिन तुम बाहर की तरफ भागे, मैं भीतर की तरफ। और तुम्हारे भागने को मैं गलत कहता हूं। तुम जहां भाग रहे थे और जहां से भाग रहे थे, वहां दोनों जगह भूकंप था। तुम जहां से भाग रहे थे और जहां भाग रहे हो, वहां भी भूकंप उतना ही था, जितना यहां था, और भागने का कोई मतलब ही न था। मैं उस जगह भागा, जहां भूकंप हो ही नहीं सकता है। मैं वहीं भाग गया था। भूकंप हट गया, मैं वापस आ गया।
तो ध्यान से मेरा मतलब यह नहीं है कि आप शांत हो जाएं, लेकिन हमारे भीतर उस जगह को खोज लेना है, जो शांत है ही।

प्रश्नः अक्ल मानती है लेकिन फिर भी पूरी जो देह है; पूरा जो शरीर है; पूरा जो सब कुछ है, यह नहीं मानता। टोटल, टोटेलिटी नहीं मान रही है?

असल में उलटी ही बात कह रहे हैं। अक्ल इनकार करती है, बाकी टोटेलिटी तो पूरा मान रही है। क्योंकि बाकी तो इनकार करने का उपाय नहीं है किसी को। शरीर तो इनकार करता ही नहीं। इनकार सिर्फ अक्ल करती है। और सब उपद्रव अक्ल का है। और आप बता रहे हैं, अक्ल कोई उपद्रव नहीं है, बाकी उपद्रव है । बाकी उपद्रव नहीं है। आप जो कह रहे हैं, अक्ल मानती है... अक्ल भर नहीं मानती। अक्ल भर नहीं मानती है। वह कह भी सकती है कि मानते हैं। उसके मानने में भी कहीं न मानना सदा मौजूद रहता है। और बाकी तो सब मानता है। एक दफा अक्ल भर गड़बड़ न करे, तो बाकी तो सब मानता है।
आपका शरीर तो ठीक वहीं जी रहा है, जहां जीना चाहिए। और आपके बावजूद जीना पड़ रहा है उसे...आपसे उलटा होकर भी जीना पड़ रहा है। आपकी अक्ल तो कुछ और ही बातें सुझाए चली जा रही है, बाकी आपका शरीर तो इनकार करता है। आपकी अक्ल कहती है, उपवास कर लो। शरीर तो भूखा है, तो वह भूख की खबर दिए जा रहा है। वह कह रहा है, भूख लगी है। आपकी अक्ल कहती है कि उपवास कर लो, धर्म का दिन आ गया । स्वर्ग जाना है; और यह करना है; पुण्य कमाना है, उपवास कर लो।
आपकी अक्ल उपवास करा रही है। आपका पेट तो भूख की खबर दिए जा रहा है। वह नहीं मान रहा है आपकी अक्ल की बात, आपके शास्त्र को। वह तो कह रहा है भूख लगी है। वह चैबीस घंटे चिल्लाता रहेगा कि भूख लगी है। लेकिन अब और क्या कर सकता है? चिल्लाता रहेगा। वह तो फिर भी, आपके बावजूद भी खबर दे रहा है कि भूख लगी हुई है।
शरीर तो आज भी ठीक वहां है, जहां होना चाहिए। सिर्फ हमारी अक्ल वहां नहीं है, जहां होनी चाहिए। और उसके कुछ कारण हैं। वह स्वाभाविक भी है कुछ। क्योंकि हमारे प्राणों पर बाहर की दुनिया इतनीहै--है भी, गलत भी नहीं है वहां चले जाना और हमारा मन वहां चला गया है। हम तो नहीं चले गए हैं, हम जा भी नहीं सकते। आप यहां सो जाएं आज रात। लेकिन सपने में आप कलकत्ते में हो सकते हैं। और सपने में आप यह भी परेशान हो सकते हैं कि कल सुबह तो बंबई में काम करना है, अब मैं कैसे वापस लौटूं! बड़ी मुश्किल में पड़ गया, मैं कलकत्ता आ गया और सुबह बंबई काम है। मैं कैसे लौटूंगा? आप पूछ भी सकते हैं कि कोई गुरु रास्ता बता दे, मेथड बता दे कि मैं घर कैसे वापस जाऊं। लेकिन जैसे ही सुबह आपकी आंख खुलती है, आप पाते हैं कि अजीब पागलपन है। मैं कलकत्ता कभी गया नहीं था। लेकिन फिर भी, मन से आप जा सकते हैं मन जा सकता है और करीब-करीब मन ऐसे ही चला गया है। बहुत से डे-ड्रीम्स में चला गया है, और ध्यान का मतलब यह नहीं है कि उसे कहीं लाना है, इतना ही है कि वह जो डे-ड्रीम्स में चला गया है, वह थोड़ा सा जाग कर देख लेगा। जहां चला गया है, वहां गया नहीं है, अभी भी नहीं गया है। वह वहीं है, जहां हो सकता है।
पीछे एक फकीर नसरुद्दीन बहुत अदभुत आदमी हुआ। दुनिया में बहुत थोड़े-से लोग इतने अदभुत हुए हैं। उसका कोई मुकाबला ही नहीं है। वह अपने गांव के बाहर बैठा हुआ है। बहुत प्यारा आदमी है। वह अपने गांव के बाहर बैठा हुआ है। एक घोड़ा रुका है आकर और एक अमीर उतरा है उस घोड़े से। वह उसके पास। और लाखों रुपये की थैली उसने नसरुद्दीन के सामने पटक दी है और उसने कहा कि मेरे पास सब है। वह थैली देखते हो? उसमें लाखों रुपये के हीरे-जवाहरात भरे हैं। सब मेरे पास है, शांति नहीं है मेरे पास, और मैं जगह-जगह खोज रहा हूं। एक-एक फकीर के द्वार खटखटा लिया हूं। सब कुछ देने को तैयार हूं। सुख नहीं मिला है मुझे, मुझे सुख चाहिए। दे सकते हो सुख? किसी ने मुझे कहा, नसरुद्दीन के पास जाओ, तो मैं तुम्हारे पास आया हूं।
नसरुद्दीन ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा, एक क्षण चुप रहा, और थैली लेकर भाग खड़ा हुआ। वह आदमी एकदम चैंका। उसने कहा, अरे, तुम यह क्या कर रहे हो? मैंने सुना था, तुम आत्मज्ञानी हो। लेकिन वह तो रुका नहीं, वह तो जा ही चुका है। घोड़े को छोड़कर अमीर उसके पीछे भागा और चिल्लाया कि हाय मैं लुट गया!  रात अंधेरा हुआ जा रहा है और गांव अनजान है। और वह चिल्ला रहा है कि चोर है यह, बेईमान है यह। फकीर नहीं है यह, साधु नहीं है यह।  और सारे गांव के लोगों को इकट्ठा कर रहा है और भाग रहा है। लेकिन नसरुद्दीन का गांव परिचित है, वह चक्कर दिए जा रहा है। सारा गांव--भीड़ लग गई। गांव भी भाग रहा है और वह आदमी भी चिल्ला रहा है, मैं तो लुट गया। छाती पीट रहा है कि मैं बिलकुल मर गया। मेरा सब कुछ उसमें चला गया। मैं सब कुछ उसमें लाया हुआ था, जो भी है मेरे पास। फिर भाग कर नसरुद्दीन उसी झाड़ के पास आ गया। थैली को वहीं पटक दिया, झाड़ के पीछे खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद भागता हुआ अमीर छाती पीटता हुआ, चिल्लाता हुआ आया। थैली देखकर उसने कहा, हे भगवान, धन्यवाद! इतना आनंदित मैं कभी भी न था। थैली को छाती से लगा लिया। नसरुद्दीन ने बाहर झांककर कहा, यह भी एक रास्ता है आनंद को पाने का ।
आदमी की चेतना को बाहर जाना अनिवार्य है, ताकि वह भीतर लौट कर आनंद का अनुभव कर सके। वह अनिवार्य है, उसकी प्रक्रिया। मेरी दृष्टि में हमारा बाहर जाना उतना ही अनिवार्य है जितना अंदर जाना। यह कोई बुरा नहीं है मेरे हिसाब से। हमारी मैच्योरिटी अनिवार्य कदम है, जहां से हम प्रौढ़ होते हैं। तो नसरुद्दीन ने कहा, अब बोल, कुछ सुख मिला? फर्क क्या पड़ा? तुम वहीं के वहीं हो। जो तेरे पास थैली थी, वह तेरे पास है। जिस झाड़ के नीचे हम सब बैठे थे, हम वहीं हैं। हम सब वहीं के वहीं हैं। कुछ हुआ नहीं है। लेकिन तुम सुखी हो।  उसने कहा, निश्चित सुखी हूं।  उसने कहा, अपने घर जाओ। जब फिर तुझे जरूरत हो, तब फिर आ जाना। तुम फिर लौट कर आ सकते हो कभी।

प्रश्नः बाबा मुक्तानंद के पास एक लड़का है, जो एक कंपनी में काम करता है, लेकिन उसकी कुंडलिनी जागी हुई है, वह बड़ा चालाक लड़का है। वह बड़ा भक्त है। वह लड़का फिर पहुंच गया आपके पास। मैंने उससे पूछा, कैसा रहा? उसने कहा, बड़ा आनंद आया। लेकिन वह जो बाबा का रास्ता है, बाबा मुक्तानंद जी का, वह अंदर जाता है। और आपका रास्ता बाहर जाता है!

नहीं, मेरा रास्ता न कभी बाहर जाता है, न अंदर जाता है। क्योंकि जो रास्ता भी बाहर भीतर का फासला करता है, वह आदमी को दो हिस्सों में तोड़ देता है। असल में अंदर और बाहर से बड़ा कोई भ्रम नहीं है। अस्तित्व इतना एक है, इतना एक है कि जो श्वास आपके भीतर गई है, वह नहीं है दूसरी, जो बाहर आई है उससे। और जब बाहर जा रही है, तो वह कोई दूसरी नहीं है, जो भीतर आई उससे। और यह सब बाहर और भीतर जाना एक ही चीज की लहरें हैं। इसको बाहर और भीतर हम दुश्मनी की तरह तोड़ देते हैं, तो हम बहुत उपद्र्रव खड़ा कर देते हैं। मेरा मानना ऐसा है कि बाहर जाना हमारे भीतर जाने का अनिवार्य अनुभव है, जिससे गुजरना ही होगा। और जितनी तीव्रता से गुजर सकें, उतना अच्छा है, इसलिए मैं मीडियाकर को बहुत खतरे में देखता हूं। जो बाहर भी ठीक से नहीं जा पाता, वह बाहर भी डरता है जाने में, वह भीतर भी जाने वाला नहीं है।
अभी एक सज्जन दोपहर में मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि आपकी बात सुन कर मुझे बड़ा खतरा लगता है। मेरा लड़का बिगड़ न जाए। एक दिन ले आया गलती से और वह कहता है रोज आने के लिए। मैं उसे मना भी नहीं कर सकता, क्योंकि मुझे भी आना है। मैं उससे कह भी नहीं सकता कि तुम मत जाओ और कहीं ऐसा न हो कि बहुत बड़ी बुराई में पड़ जाए। तो मैंने कहा, तुम सिर्फ एक ही बात की फिकर रखो कि वह किसी बड़ी चीज में पड़ जाए, चाहे बुराई ही सही। छोटी चीज में न पड़े, चाहे भलाई ही क्यों न हो।
छोटे में पड़ा हुआ आदमी कभी भी कहीं नहीं जा पाता। छोटी भलाई करने वाला कहीं भी नहीं जा पाता। छोटी बुराई करने वाला भी कहीं भी नहीं जा पाता। एक दफा बड़ी बुराई भी कोई कर ले, तो लौटने का वक्त भी आ जाता है। तो हम बुराई में भी पूरे नहीं जा पाते, तो लौटना कैसे हो? इधर मेरा मानना है कि किसी भी हालत में हमें वह चरम छूना ही पड़ेगा, जहां से लौटना होता है। चरम को छुए बिना नहीं लौटना होता है। और हम नहीं लौट पाते हैं, इसीलिए कि चरम छुआ नहीं है। और कोई गुरु रास्ते में मिल जाता है, वह कहता हैः लौट आओ, तो हम लौट भी आते हैं। और मन हमारा वहीं जाता रहता है, जहां अभी जाना है। तब एक कशमकश पैदा हो जाती है, और तब एक उपद्रव पैदा हो जाता है।
तो मेरा मानना है, हर आदमी जहां जा रहा है, उसे पूरी तरह चले ही जाना चाहिए। यह लौट आएगा। जो पूरा जाएगा, वह लौट सकता है। लौटना जो है, वह पूरा जाने का ही अगला कदम है, कहीं भी पूरा जाने का। लेकिन हम इतने भयभीत लोग हैं कि बुराई में पूरे नहीं जा सकते। हम भलाई में भी कभी पूरे जानेवाले नहीं हैं। हम मीडियाकर ही रहेंगे। छोटा बुरा भी करते रहेंगे, छोटा भला भी करते रहेंगे। इधर थोड़ा पाप भी करेंगे, इधर थोड़ा पुण्य का बैलेंस भी कर लेंगे। कहीं हम बहुत गहरे नहीं जा पाएंगे। और जरूरत यह है कि चेतना पूरे छोर तक चली जाए किसी भी चीज में। मुक्ति का इसके सिवाय और कोई अर्थ नहीं होता। आप जिस चीज में पूरे चले जाते हैं, उसी से मुक्त हो जाते हैं।

प्रश्नः बुराई क्या है?

हां, मैं सिर्फ इतना डिफाइन करता हूं, जिसमें आपको दिखाई तो पड़ता है कि सुख आया, लेकिन अंततः प्रतीत होने लगता है कि नहीं आया। बस, बुराई का इतना मतलब है। इतना ही मतलब है, जिसमें आपको कभी प्रतीत तो होता है कि सुख आएगा, लेकिन जब मिल जाती है चीज, आप पहुंच जाते हैं, तो अचानक आप पाते हैं--नहीं, कुछ सुख आया, बल्कि दुख आ गया । खरीदने गए थे सुख और खरीद लाए हैं दुख। जिस घटना में भी ऐसा लगता है, उसको मैं बुराई कहता हूं और मेरा कोई मतलब नहीं है। और भलाई मैं उसको कहता हूं, जिसमें चाहे जाते वक्त ऐसा ही लगा हो कि कुछ नहीं मिलेगा, लेकिन जब मिला है तो कुछ मिल गया। जैसे यह शशि कहती है, वह कहती है कि हमें कुछ भरोसा ही नहीं है। तो अंदर क्यों आएं? मैं कहता हूं, फिर आओ, क्योंकि हो सकता है आने पर पता लग जाए कि कुछ मिल गया।

प्रश्नः खलील जिब्रान ने कहा है कि बुरी चीज वह है, जो आदमी छिप कर करता है।

नहीं, मैं इसके लिए राजी नहीं हूं। मैं इसके लिए राजी न होऊंगा। क्योंकि कई बार पुण्य भी छिप कर करना पड़ता है। और सच तो यह है कि जो पुण्य खुल कर करता है, वह बेईमान है। पुण्य भी छिप कर करना पड़ता है। इसलिए जिब्रान से मैं राजी न होऊंगा कि गुनाह है वह, जो छिप कर करना पड़ता है। नहीं। लेकिन अगर अच्छी बात भी छिप कर करनी पड़े...और करनी पड़ती है, क्योंकि आज भी दुनिया और समाज इतना अच्छा नहीं है कि अच्छी बात भी खुल कर सकें। गुनाह वह नहीं है, जो छिप कर करना पड़े। छिप कर तो और भी बहुत सी चीजें करनी पड़ सकती हैं। फिर गुनाह अगर छिप कर करना पड़े, ऐसा मानें, तो अच्छी बात वह है, जो खुल कर करनी पड़ती है और खुल कर की जाती है। तब तो अभिनय अच्छी बात हो जाएगी, वह खुल कर की जाती है, और असली बात तो निरंतर छिप कर चल रही है।
ऐसी कुछ बातें हैं, जो छिप कर ही की जा सकती हैं। और उनका सारा रस और सारा अर्थ छिप कर करने में है। इसलिए पुण्य और पाप को छिप कर और खुलने से नहीं जोड़ा जा सकता है। मैं तो उसी को गुनाह कहूंगा, उसी को पाप कहूंगा, उसी को बुराई कहूंगा; जिसे आप सोचते थे कि आनंद पाने को किया, लेकिन पाया नहीं। पाप वह है, जो आनंद का धोखा देता है, लेकिन भीतर दुख को लाता है। असल में जिब्रान जैसे लोगों के साथ क्या कठिनाई है कि जिब्रान जैसे लोग सिर्फ कवि हैं, जो शब्दों के फूल तो गूंथ लेते हैं, लेकिन जिंदगी के बहुत गहरे अनुभव जिनके पास नहीं हैं। तो अगर आप उनके शब्दों के फूल देखेंगे, तो वे बड़े सुंदर मालूम पड़ेंगे। लेकिन जिब्रान मिल जाए, तो आप जरा मुश्किल में पड़ जाएंगे। जिंदगी का बहुत गहरा अनुभव नहीं है।
इधर मैं निरंतर सोचता हूं कि जैसे प्रेम है--आप खुल कर करें, तो गुनाह हो जाएगा, क्योंकि उसकी एक गहराई है और एक इंटिमेसी है जो कि खुलने में एकदम बेहूदी और भोंडी हो जाती है। वह बात चीप हो जाती है। वह हो नहीं सकती है कभी इतनी गहरी। तो प्रेम कभी खुल कर नहीं किया जा सकता है, लेकिन अगर उनके हिसाब से तौलें, तो प्रेम गुनाह हो जाएगा! मैं जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं कि ऐसा बहुत बार कहा गया है कि जो हमें छिप कर करना पड़ता है, वह गुनाह है। क्योंकि ऐसा समझा गया है कि जो हमें छिप कर करना पड़ता है, वह हम समझ रहे हैं कि यह गलत है और कर रहे हैं। नहीं, ऐसा जरूरी नहीं है। बल्कि, जिंदगी में जो भी महत्वपूर्ण है, वह सब छिप कर ही होता है।

प्रश्नः तो कई चीजें हम छिप कर करें, दूसरे को दुख दें तो वह गुनाह नहीं है? कई बातें छिप कर करें, और दूसरे को दुख हो?

तुम छिप कर करोगी, तो कैसे दुख होगा? उसमें कुछ बता कर करो, तो हो पाए कुछ। यानी उसका छिपाने न छिपाने से कोई संबंध नहीं है। गुनाह का कोई संबंध नहीं है छिपाने से। उसका इतना ही खयाल लेने की बात है कि कुछ चीजें हैं, जो हमें ऊपर से धोखा देती रहती हैं कि सुख लाएंगी, लेकिन पीछे से दुख निकल आता है। बहुत बार मैं हैरान होता हूं कि अगर हम एक आदमी की गर्दन पकड़ कर उसे ठीक से पूछें कि तुमने कभी सुख अनुभव किया है, तो शायद वह भी एक दफा सोच में पड़ जाएगा, कि अनुभव किया है कि नहीं किया है।

प्रश्नः क्या एक आदमी का सुख दूसरे आदमी का दुख हो सकता है?

अगर एक आदमी का सुख दूसरे का दुख होता है, तो इसका केवल इतना ही मतलब है कि दूसरा आदमी नासमझ है, और उसे भी सुख का कोई पता नहीं है। उसका सुख तभी दुख हो सकता है, जब किसी तरह दूसरे का सुख ईष्र्या बनता हो, नहीं तो नहीं हो सकता। और हम सबको दूसरे का सुख ईष्र्या बनता है। लेकिन इसमें दूसरे का सुख जिम्मेवार नहीं है, हमारी ईष्र्या ही जिम्मेवार है। यानी अगर मैं आपको सुखी देखता हूं और दुखी हो जाता हूं, और अक्सर होता है और यह बहुत आसान है। दूसरे के दुख में दुखी होना तो बहुत आसान है, दूसरे के सुख में सुखी होना बहुत कठिन है। क्योंकि दूसरे के दुख में दुखी होने में भी एक मजा है, एक बहुत गहरा रस है। आपके घर में दुख हो गया, कोई गुजर गया, और मैं आता हूं और मैं बड़ी सहानुभूति दिखाता हूं। अगर मेरी सहानुभूति में थोड़ी भी छानबीन करें, तो भीतर पाएंगे कि मैं बड़ा रस ले रहा हूं, आज आपको दुखी पाकर जरा मौका पाया। आज मैं रस ले रहा हूं और आज मैं सिर पर हाथ रखने का मजा ले रहा हूं, पैट्रनाइज भी कर रहा हूं कि अरे मत रोइए, सब ठीक हो जाएगा! एक मौका मिला है कि मैं आपको जरा दबा लूं और जरा रुला लूं और समझूं...
अगर हम देखेंगे लोगों की सहानुभूति में तो बहुत गहरे में रस पाएंगे। और अगर आप न रोएं... आप की पत्नी गुजर गई है; पिता गुजर गए हैं; कोई आया है और आप उससे कहें, नहीं-नहीं, कोई बात नहीं। सब मजा है। तो वह कुछ उदास लौटेगा। वह क्रोधित भी लौट सकता है कि यह आदमी कैसा है! क्योंकि उसे जो रस मिल सकता था, वह आपने उसे मौका नहीं दिया। वह डिसअपॉइंट हुआ है। तैयारी करके आया था कि आज एक मौका है, वह आपके अंतस को पकड़ लेता।
दूसरे के दुख में भी जो हम दुख प्रकट करते हैं, उसमें कहीं रस है। लेकिन दूसरे के सुख में हम कभी सुख नहीं प्रकट कर पाते।
मेरा मानना यह है कि जो दूसरे के सुख में सुख अनुभव कर पाए, वही केवल दूसरे के दुख में दुख अनुभव कर सकता है। फिर उसके सुख में कोेई रस न रह जाएगा। क्योंकि कसौटी वहां होगी कि वह आपके सुख में, आपका जो बड़ा मकान बन गया था, तब वह सच में खुश हुआ था? जब आप एक सुंदर पत्नी ले आए थे, तो सच में वह प्रसन्न हुआ था? नहीं। तब वह ईष्र्या से भर गया था; तब वह दुखी हो गया था; तब वह जल गया था; वह उससे कुछ चोट खा गया था। लेकिन उस दुख में आप जिम्मेवार नहीं हैं, उसमें आपका सुख जिम्मेवार नहीं है, उसमें सिर्फ देखने की दृष्टि गलत है। वह अपना दुख अपने हाथ से पैदा कर रहा है।
मेरा मानना यह है कि अगर हमारी दृष्टि ठीक हो, तो सबका सुख हमारे लिए सुख पैदा करेगा। और इसलिए मुझे एक बड़ी हैरानी का अनुभव होता है। अगर हमारी दृष्टि ठीक हो, तो हम सबके सुख में सुख पैदा करेंगे। तब इतना सुख हो जाएगा कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। अभी हमारी दृष्टि ऐसी गलत है कि हमें सबके सुख, दुख पैदा करते हैं। तो हम पर इतना दुख इकट्ठा हो जाता है जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। क्योंकि हर एक का मकान बड़ा हो रहा है। हर एक की पत्नी है, बच्चा है। कोई धन कमा रहा है, कोई यश कमा रहा है, कोई कुछ कर रहा है, और सबके सुख हमें दुखी किए जा रहे हैं।
इतने लोग हैं इस जगत में और सबका सुख हमें दुखी कर रहा है। हम तो मर गए, हमारी तो जान निकल गई। हां, कभी-कभी थोड़ी सी राहत मिलती है, जब कोई दुखी हो जाता है। इसलिए हम पूरी तलाश में हैं कि कोई दुखी हो जाए । तो वह मैं नहीं कहता हूं कि आपके सुख से किसी को दुख मिल सकता है। हां, दुख कोई ले सकता है आपके सुख से। ले रहे हैं, ले रहे हैं।

प्रश्नः लोग बीमार को देखने क्यों आते हैं? लोग इसीलिए आते हैं कि अपने आपको मुबारकबाद दें?

लेकिन इतना भी सुख देने में इनकार नहीं करना चाहिए। जहां तक आपकी बीमारी का सवाल है, मैं यह कह रहा हूं, यह तो बात गलत है कि कोई मेरी बीमारी से सुख लेता हो। लेकिन कोई ले लेता हो, तो मुझे इनकार क्या करना है? मेरी तरफ से इनकार की क्या बात है?
लोग सच में दुखी हैं और बीमार हैं। और उन्हें अपने स्वास्थ्य का पता ही तब चलता है, जब वह किसी को बीमार देखते हैं। और उनको अपने जिंदा होने का पता ही तब चलता है, जब किसी की लाश उनके सामने से गुजरती है, नहीं तो पता ही नहीं चलता कि हम जिंदा है। वह तो कोई मरता है, तब हमको खयाल आता है। और जब कोई बीमार होता है, तो हमको पता चलता है कि हमको कैंसर हो गया है। और जब कोई पिटता है और रास्ते पर चला जाता है तो...
क्योंकि तुलना के सिवाय हमारे जानने का कोई उपाय नहीं है। और जो आदमी तुलना से जानता है, वह कभी जानता ही नहीं। क्योंकि वह उपाय ही नहीं है। अगर मैं जिंदा हूं, तो मुझे सीधा जानना चाहिए कि मैं जिंदा हूं। अगर मैं किसी के मरने से जानूंगा कि मैं जिंदा हूं, तो मेरी जिंदगी से मतलब क्या है?
मैं कल ही कह रहा था कि एक फकीर के पास एक आदमी गया है और उससे उसने कहा है कि मैं बहुत अशांत हूं और आप बहुत शांत हैं। उस फकीर ने कहाः बड़ा अच्छा है। हम शांत हैं, तुम अशांत हो। अब और क्या आगे करना है? बात खत्म हो गई। हम जानते हैं यह बात ठीक है; अब और क्या करना है? उसने कहा, नहीं, अभी बात खत्म नहीं हुई। अभी बात शुरू हुई है। मुझे भी शांत होना है। फकीर ने कहाः मैं तो तुम्हारे पास कभी कहने नहीं आया कि मुझे अशांत होना है। मैं मैं हूं, तुम तुम हो। लेकिन हम दोनों को तौलने की क्या जरूरत है? उसने कहाः बिना तौले हुए कैसे रह सकते हैं? कोई रास्ता बताएं। मुझे भी शांत होना है। उस फकीर ने कहाः तू कभी शांत न हो सकेगा, क्योंकि जिसने तुलना की, वह अशांत हुआ। असल में तुलना से अशांति आती है, दुख आता है, पीड़ा आती है। यह जो कंपेरिजन है, वही सारी अशांति की जड़ है। लेकिन हम तो बिना कंपेरिजन के कुछ भी नहीं जान पाते हैं। उस आदमी ने कहाः नहीं-नहीं, मुझे कुछ रास्ता बताइए। तो वह बाहर आया। उसे हाथ पकड़ कर वह बाहर ले गया। एक चिनार का बड़ा दरख्त है जो चांद को छू रहा है। उसने कहा, देखते हो इस दरख्त को, यह बहुत लंबा है, बहुत बड़ा है न! है बहुत बड़ा। और पास में एक बहुत छोटा सा वृक्ष है, वह देखते हो न? और बीस साल से मैं पास रहता हूं और मैंने कभी इस छोटे वृक्ष को पूछते नहीं सुना इस बड़े से कि तुम बहुत बड़े हो, मुझे बड़े होने का रास्ता बताओ। बीस साल से मैं रहता हूं, मैंने कभी नहीं सुना कि बड़े से कहे कि तुम बहुत बड़े हो, मैं बहुत छोटा हूं। कोई रास्ता बताओ कि मैं बड़ा हो जाऊं। यह अपना, जैसा है वैसा है। वह जैसा है, वह वैसा है। असल में हमने कभी तुलना ही नहीं की है इसलिए बड़े और छोटे हमको दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। इस छोटे ने कभी नहीं जाना कि यह छोटा है क्योंकि यह छोटा जानने का उपाय नहीं है। जो है, वह है। और उस बड़े ने कभी नहीं जाना कि वह बड़ा है, इसलिए उसकी कोई तुलना नहीं है।
आदमी तुलना करके फंस गया है। और हमारा इतना, जिसको कहना चाहिए अनऑथेंटिक अप्रामाणिक अनुभव है यह...क्योंकि तुलना से हम कैसे जान सकते हैं? मैं जो हूं, हूं। अगर सारी दुनिया न हो, मैं अकेला छूट जाऊं, तो मुझे कुछ पता नहीं चलेगा, क्योंकि मुझे सब पता तुलना से चलेगा। मुझे यह भी पता नहीं चलेगा कि अब मैं जिंदा हूं कि मर गया, क्योंकि कोई लाश नहीं निकलेगी मेरे घर के सामने से। मुझे यह भी पता नहीं चलेगा कि मैं स्वस्थ हूं कि बीमार हूं, क्योंकि कोई आदमी बीमार नहीं होगा। और मुझे यह भी पता नहीं चलेगा कि मैं बुद्धिमान हूं कि बुद्धू हूं; ईमानदार हूं कि बेईमान हूं। मुझे कुछ पता न चलेगा कि मैं अच्छा आदमी हूं कि बुरा आदमी हूं; शैतान हूं कि संत हूं, मुझे कुछ पता नहीं चलेगा। क्योंकि मुझे सब पता तुलना से चला था। लेकिन मैं तो फिर भी रहूंगा। और अगर मेरा सब पता चलना बंद हो जाता, तो इसका मतलब यह है कि मैं जो हूं, उसका मुझे पता ही नहीं चला था। मैं सिर्फ तुलना से ही सीख रहा था। और सब तुलना से ही हिसाब लगा रहा था।
तुलना को छोड़कर देखना पड़ेगा और तभी हम जान सकते हैं सचमुच। और जैसे ही कोई व्यक्ति तुलना छोड़ कर देखता है, सुख और दुख नहीं है। क्योंकि वह वह है, आप आप हैं। और कोई झगड़ा नहीं है। भला है कि आप बुद्ध हैं, भला है कि आप कृष्ण हैं, भला है कि मैं एक साधारण आदमी हूं। झगड़ा क्या है? न आपके कृष्ण होने में कोई खूबी है, और न मेरे मेरे होने में कोई बुराई है। मैं मैं हूं, आप आप हैं। और जब तक हम इस तरह न देख पाएं जीवन को, तब तक हम कभी दुख के बाहर नहीं हो सकते, क्योंकि सबका सुख दुख दे जाएगा। और वह भी बड़ा दुखद है कि लोगों का दुख हमें सुख दे। वह और भी दुखद है।
जिब्रान की एक कहानी है कि एक शराबघर में रात बड़ी भीड़ है। कुछ मित्र आए हैं और बड़ा खाना-पीना कर रहे हैं और बड़ी शराब पी रहे हैं। और धुआंधार पैसे लुटा रहे हैं। आधी रात वे विदा हुए हैं। तो मैनेजर ने अपनी पत्नी से कहा है कि ऐसे दिलदार लोग अगर रोज आएं, तो किस्मत चमक जाए। उस जाते हुए आदमी से कहा कि भाई, कभी-कभी आया करो।  उसने कहाः मैं तो रोज आऊं। भगवान से दुआ करो कि मेरा धंधा रोज चलता रहे। उसने कहा कि हम दुआ करेंगे जरूर।  पूछाः तुम्हारा धंधा क्या है? उसने कहाः यह मत पूछो। तुम सिर्फ दुआ कर सकते हो। तुम सिर्फ दुआ करो कि हमारा धंधा ठीक चलता रहे। हम तो रोज आएं। इसी तरह पैसे फेंकें। पैसे आने चाहिएं न! तुम दुआ करो। फिर जाते-जाते दुकानदार नेे पूछा कि तुम इतना तो बताओ कि तुम्हारा धंधा क्या है? उसने कहा, मरघट पर लकड़ी बेचने का काम है। धंधा हमारा रोज चले, तो हम तो रोज आएं। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि दिन भर बैठे रहते हैं, धंधा ही नहीं। कोई मरता ही नहीं तुम्हारे गांव में, तो हम बड़ी मुश्किल में हो जाते हैं।
अब हमारे सारे धंधे इस पर निर्भर हैं। अब हमारा सब सोच-विचार इस पर निर्भर है। हमारी जिंदगी किसी की मौत पर निर्भर हो गई है। हमारा स्वास्थ्य किसी की बीमारी पर टिका हुआ है। हमारी अमीरी किसी की गरीबी पर खड़ी है। बहुत ही अजीब मामला हो गया है। और हमारा सौंदर्य किसी के कुरूप होने पर टिका है। तब हमारे सौंदर्य में भी कुरूपता आ जाएगी। बच नहीं सकती। तब जिसको हम सौंदर्य कहते हैं, वह भी एक अर्थ में अग्ली हो जाएगा। क्योंकि अग्ली के ऊपर ही वह टिका है, कंपेरिजन के ऊपर ही वह टिका है। यानी किसी को हम कुरूप होने के लिए तैयार कर पाए हैं, इसलिए हम सुंदर हो गए हैं। कुछ कठिन नहीं है कि मापदंड बदल जाए। क्योंकि जिसको हम कुरूप कहते हैं, सुंदर हो जाए। जिसको सुंदर कहते हैं, वह कुरूप हो जाए। इसमें कुछ मामला नहीं है। सब मापदंड है और थोपने की बात है। तो वह थोप दिया, तो एक आदमी कुरूप कह दिया है। और मजा यह है कि वह आदमी वह है और यह आदमी यह है। और सच बात यह है कि कोई सुंदर नहीं है और कोई कुरूप नहीं है। क्योंकि यह हो कैसे सकता है? किसी की आंख थोड़ी लंबी है, वह सुंदर है? और किसी की आंख थोड़ी छोटी है, वह कुरूप है? हमारेे रोज मापदंड बदलते रहते हैं।
हमने इस मुल्क में गोरेपन को कभी सुंदर नहीं माना है, इसलिए कृष्ण को काला रखा, सांवला रखा। राम को सांवला रखा। हमारे देश के सब श्रेष्ठतम व्यक्ति सांवले हैं। हमारी कल्पना में सांवलेपन में एक गहराई है। और सच बात यह है कि गोरा आदमी...गोरे रंग में डैप्थ तो कभी नहीं होती है। एक आक्रमण तो होता है, डैप्थ नहीं होती। पानी गहरा हो जाता है तो नीला हो जाता है। उथला होता है तो सफेद होता है। तो सांवला रंग जो है, उसमें एक गहराई है। उसमें कहीं भीतर और प्रवेश है। गोरी चमड़ी फ्लैट है, उसमें कहीं कोई भीतर जाने का उपाय नहीं है। बस, ऊपर-ऊपर घूम सकते हैं, अंदर नहीं जा सकते आप। इस मुल्क ने बहुत पहले ले लिया बोध कि सांवलेपन में कोई बात है, भीतर प्रवेश की थोड़ी बात है। लेकिन गोरेपन का अपना मतलब है, सांवलेपन का अपना मतलब है। हम क्या मापदंड बनाते हैं, उस पर निर्भर करेगा।
सोचें, हमारे खयाल भर की बात है, और मापदंड बदल जाते हैं तो सब बदल जाता है। और कैसे-कैसे कुरूप-कुरूप कामों को लोगों ने सुंदर समझा है, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। और अभी हम जिसको सौंदर्य समझ रहे हैं, आने वाले बच्चे इसको सुंदर कहेंगे, कहना मुश्किल है एकदम। और मापदंड हम तय करते हैं, और वक्त बदल जाए, तो कहना मुश्किल है।
लाओत्से ने कहा है कि हम उस आदमी को हारा हुआ कहते हैं, जो जमीन पर नीचे गिर जाता है और उसको जीता हुआ कहते हैं, जो छाती पर बैठ जाता है। लेकिन एक वक्त जरूर आएगा जब छाती पर बैठे हुए आदमी पर लोग हंसने लगेंगे कि कैसा नासमझ है! और गिरे हुए आदमी से लोग कहने लगेंगे कि कैसा अदभुत आदमी है। ज्यादा झंझट नहीं किया। इसमें कोई कठिनाई नहीं है, मापदंड बदल सकता है।
और लाओत्सु ने खुद कहा है अपने विदा होने से पहले अपने मित्रों से--जा रहा है--तो उसके मित्र उससे कहते हैं कि जाने के पहले हमें कुछ बता जाओ, कोई राज जिंदगी का। तो वह कहता है कि राज ही पूछते हो, तो एक तो बात यह है कि मैं कभी हारा नहीं। वे सारे मित्र खुश हो गए हैं। वे कहते हैं, तब तो इसका राज ठीक से बता दो। क्योंकि हारना हम भी नहीं चाहते हैं। तब वह कहता है कि तब तो न समझ पाओगे, क्योंकि राज ही यह है कि मैं कभी न हारा, क्योंकि मैं हारा ही हुआ था। मुझे कोई न हरा सका, क्योंकि हमने कभी जीतना ही न चाहा। और हमें जो हराने आया, तो हम जल्दी से लेट गए। हमने उसको अपने ऊपर बिठा लिया।
तो लाओत्सु कहता है कि न मुझे कभी कोई उतार सकता था, क्योंकि मैं कभी चढ़ा ही नहीं ऊपर। और जब मैं सभा में गया, तो वहां बैठा जहां लोगों ने जूते उतारे थे। कई लोग निकाले गए, भगाए गए, लेकिन हम वहीं बैठे रहे। हमने कई लोगों को सिंहासन पर आते-जाते देखा। जब वे गए थे, तब उनकी अकड़ भी देखी। उसी दरवाजे से जब वे लौटे, तो उनको उतरते भी देखा। और हम वहीं बैठते थे, जहां से कोई भगाता ही नहीं। हमें किसी ने नहीं भगाया, क्योंकि हम कभी भीतर घुसे ही नहीं। अब यह जो आदमी है लाओत्सु, इसको वह ताओ कहता है। वह कहता हैः यह है धर्म। मगर यह हमारे तौलने की बात है।
लाओत्सु यह कह रहा है कि घास का फूल अपनी हैसियत से वही है, जो गुलाब का फूल अपनी हैसियत से है। लाओत्सु का जो मतलब है, वह यह कह रहा है कि कौन कहता है कि घास का फूल गुलाब के फूल से कम सुंदर है? घास का फूल घास का फूल है। गुलाब का फूल गुलाब का फूल है। वह यह कह रहा है, लाओत्सु यह कह रहा है, कि कंपेरिजन जो है, वह आदमी का है, वह घास के फूल का और गुलाब के फूल का नहीं है। लाओत्से कह रहा है कि कंपेरिजन हमारा थोपा हुआ है। अगर जमीन पर आदमी न हो, तो घास के फूल होंगे और गुलाब के फूल होंगे। लेकिन घास का फूल दरिद्र्र, दीन और शूद्र न होगा। गुलाब का फूल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य न होगा। गुलाब का फूल गुलाब का फूल होगा। और घास का फूल घास का फूल होगा। न कभी विवाद छिड़ेगा और न कभी गुलाब का फूल अकड़ कर कहेगा कि मैं गुलाब का फूल हूं, तुम घास का फूल हो। न घास का फूल कभी दीन-हीन अनुभव करेगा कि कभी हमको भी मौका मिल जाए कि हम भी तुम्हारी पंक्ति में सम्मिलित हो जाएं, लाओत्सु का यह मतलब है। लाओत्सु का मतलब कुल इतना है कि चीजें, थिंग्ज आर इन देयर सचनेस। वे जैसी हैं, वैसी हैं। आदमी तुलना में चला गया और तकलीफ में होता गया।

प्रश्नः तुलना क्रांति नहीं है?

तुलना बिलकुल क्रांति नहीं है। तुलना से मुक्त हो जाना ही क्रांति है। तुलना तो बिलकुल ही क्रांति नहीं है।

प्रश्नः तो प्रेरणा हो सकती है?

असल में शब्द हम अच्छे लेते हैं, लेकिन मतलब वही होता है। दूसरे से लेंगे न प्रेरणा! तुलना शुरू हो जाएगी। प्रेरणा भी क्या है, तुलना भी क्या है। मैं जैसा हूं, वैसा हूं। और मेरे होने में एतराज क्या है! और जब तक दुनिया एतराज करती है, तब तक वह मुझे कभी चैन से न रहने देगी, क्योंकि वह मुझे न होने देगी। वह कहेगी, मैं भी देव बन जाऊं, कि विजय बन जाऊं, कि कल्याण जी बन जाऊं, या कोई और बन जाऊं। मुझे कोई और बनना चाहिए। और वह दुनिया देव को भी कहेगी कि तुम कोई और बनो।
वह जो कंपेरिजन करने वाला माइंड है, वह निरंतर बेचैनी में चला जा रहा है कि यह करना है, यह करना है। जो नहीं कंपेरिजन करने वाला है, वह भी बनेगा, लेकिन किसी से कंपेरिजन करके नहीं। वह बनेगा, अपनी हैसियत से। वह लाल गुलाब बनेगा। और मेरा कहना यह है कि गुलाब के लिए बनने की कोशिश यह होनी चाहिए कि वह पूरा गुलाब बन जाए, फ्लावरिंग पूरी हो जाए। और घास का फूल भी पूरा खिल जाए, फ्लावरिंग पूरी हो जाए। वह फ्लावरिंग पूरी हो जाए, तो घास का फूल भी उसी आनंद को अनुभव कर लेगा, जो गुलाब का फूल अनुभव करता है। क्योंकि आनंद का जो अनुभव है, वह फ्लावरिंग का है, वह खिल जाने का है। वह घास का खिला है कि गुलाब का खिला है, यह सवाल नहीं है। खिल गया है।
एक कवि खिल गया है पूरा; एक मूर्तिकार खिल गया है पूरा; और एक चमार भी पूरा खिल गया है अपने जूते बनाने में। फिर तो कोई फर्क नहीं रह गया। वह खिलने की बात है। यह नहीं है कि सिर्फ कवि ही खिल पाएगा, चमार नहीं खिल सकता है। अगर चमार नहीं खिल सकता है, तब तो तकलीफ हो ही जानेवाली है। फिर तो यह है कि चमार दुखी रहेगा। फिर तो उसके दुख का कोई उपाय न रहा। चमार भी खिल सकता है।
लिंकन के जीवन में एक घटना है। लिंकन का बाप चमार था। और लिंकन जब प्रेसिडेंट हुआ, तो बहुत लोगों को अखरा। एक चमार का लड़का और पे्रसिडेंट हो जाए, और ऐसे भी लोग थे जो जानते थे कि लिंकन का बाप उनके घर में जूते बनाने आया था, वे भी सीनेट में थे। तो लिंकन जब पहले दिन पहला भाषण देने खड़ा हुआ, तो एक आदमी ने मजाक भी किया और सारे हाल को आनंद भी दिया और उसने कहा, महाशय लिंकन यह मत भूल जाना कि आपके बाप एक चमार थे! और बैठ गया और शोरगुल मच गया और लोगों ने बड़ा रस लिया। क्योंकि सबका अपमान तो हो गया, क्योंकि लिंकन प्रेसिडेंट हो गया। चमार का बेटा बताकर उन्होंने काफी सुख ले लिया, तालियां पिट गईं। तो लिंकन ने बहुत अदभुत बात कही। लिंकन खड़ा हो गया। थोड़ी देर चुप रहा। उसकी आंखों से आंसू गिरे। उसने कहा, मेरे पिता की याद दिलाकर बड़ा अच्छा किया। हो सकता था कि राष्ट्रपति होने के शोरगुल में भूल ही जाता। और जहां तक मुझे याद है कि मेरे पिता जितने अच्छे चमार थे, उतना अच्छा प्रेसिडेंट मैं नहीं हो सकूंगा। मेरे पिता बड़े अदभुत चमार थे। वे पूरे चमार थे। मैं पूरा राष्टपति शायद ही हो पाऊं। मैं नहीं हो पाऊंगा। मेरी सामथ्र्य वह नहीं है। और जिन मित्र ने यह कहा है, मैं उनसे पूछना चाहूंगा, और मुझे भली-भांति याद है कि उनके घर में मेरे पिता जूते बनाते थे। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या मेरे पिता के बनाए जूतों में कोई भूल थी, जो उन्हें याद आई? उनके जूते कभी काटे? क्योंकि उनके जूते अगर काटे हों, तो मैं उनका बेटा हूं, मैं थोड़ा-बहुत सुधार कर सकता हूं।
वह जो आप कहते हैं...लाओत्सु का जो मतलब है कहने का, वह यह है कि कंपेरिजन की बात नहीं है; वह अपनी तरफ से लागू नहीं करेगा। और तभी दुनिया सुखी हो सकती है, जब हम सब तरह की फ्लॉवरिंग को स्वीकार कर लें। और एक खास तरह की फ्लावरिंग पर जोर न दें कि सबको गणित पढ़ कर गणितज्ञ होना है, तो मुश्किल हो जाने वाली है। कुछ लोग डूब जाएंगे, मर जाएंगे, परेशान हो जाएंगे। और एक बनेगा तो एक के साथ एक हजार टूटेंगे। एक हजार के टूटने की कीमत पर एक गणितज्ञ हो पाएगा। और एक हजार जिंदगी भर के लिए फ्रस्ट्रेट हो जाएंगे कि गणितज्ञ नहीं हो पाए। जैसे कि गणितज्ञ होना कोई जिंदगी की जरूरी बात है। अगर हमने गुलाब के फूल को आदर दे दिया, तो फिर और फूलों का क्या होगा? वे भी हैं।
और ध्यान रहे, अगर सब गुलाब के फूल जमीन पर हो जाएं, तो गुलाब का फूल भी बड़ा मोनोटोनस और घबड़ाने वाला होगा। हो सकता है, फिर एक दफा ऐसा भी हो जाए, कि घास का फूल भी आप घर में ले आएं और कहें कि अब बहुत हो गया, अब घास का फूल चाहिए। और कैक्टस इसी तरह घर में आया, नहीं तो आता नहीं। इसी तरह आया, नहीं तो कैक्टस कौन घर में लाता? पागल होता कोई जो घर में ले आता। वह गांव के बाहर था। सदा का शूद्र है कैक्टस। अभी-अभी द्विज हुआ है। अभी अभिजात्य हो गया है एकदम। अब तो जिसके घर में कैक्टस नहीं है, वह थोड़ा असंस्कृत है। नहीं तो अभी साल दो साल पहले, चार साल पहले कैक्टस रखने वाला गंवार था निपट, क्योंकि कैक्टस ही गंवार था। कैक्टस था गांव के बाहर, खेत में कहीं लगा था। कौन उसको घर में लाता था? और क्या हो गया है मामला? फूल से ऊब गए। अब कैक्टस! वापस कैक्टस आ गया। कांटा ले आए, हम फूल से ऊब गए। कांटे के भी अर्थ हैं, यदि फूल से ऊब जाएं आप। और सब उबा देता है। फूल भी उबा देते हैं, कांटे भी उबा देते हैं।
इसलिए जिंदगी बहुत बढ़िया है, उसमें फूल भी हैं, कांटे भी हैं। जब भी आप ऊबें, तो घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। बंटने का उपाय है। कंकड़ भी अपनी हैसियत से होना चाहिए और फूल की अपनी हैसियत है। और किसी को कुछ और होने की जरूरत क्या है? लेकिन हमारा कंसेप्ट बंधा हुआ हो, कोई अगर फूल में ही सौंदर्य देखता हो, तो मैं मानता हूं कि उसकी सौंदर्य-बुद्धि बहुत कमजोर है। कांटे का अपना सौंदर्य है; फूल जैसा नहीं है, कांटे जैसा है। ठीक भी है, कांटे जैसा ही होगा, क्योंकि कांटे में फूल जैसी अपेक्षा ही गलत है। और अगर हम कभी गौर से देख पाएं, तो कांटे की अपनी चमक है, अपनी रौनक है, अपनी ताजगी है, अपना पैनापन है। कहां वह पैनापन फूल में है, जो कांटे में है? और फूल को कितना ही कुछ कीजिए, चुभ तो सकते ही नहीं। कितना ही कुछ कीजिए, चुभ तो सकते ही नहीं। चुभन की भी अपनी अर्थवत्ता है। अभी महेश योगी मुझे कश्मीर में मिले...

प्रश्नः महेश योगी के बारे में मुझे बताइए जरा?

मैं उनके बारे में नहीं बताऊंगा।

प्रश्न: नहीं, नहीं, यह भी बताइए...

जो मैं कह रहा हूं वह यह कि, बाद में उन्होंने कहा--निगेटिव और पाजिटिव की बात चलती थी। तो उन्होंने कहा, फ्लॉवर जो है पाजिटिव है और कांटा जो है वह निगेटिव है। यह बिलकुल नासमझी की बात है। अब कांटा जितना पाजिटिव है, फ्लावर उतना है ही नहीं। कांटा बहुत एक्टिव है। बहुत अग्रेसिव है। फूल तो बिलकुल ही पैसिव है। और सुबह है, सांझ नहीं हो जाएगा। और कांटा सुबह भी है और सांझ भी रहेगा। और फूल के पास जाइए, तो आप फूल के साथ कुछ कर सकते हैं, फूल आपके साथ कुछ नहीं कर सकता है। और कांटे के पास जाइए, तो आप कुछ भी न करेंगे। इसलिए मेरी अपनी समझ यह है कि चीजें जो हैं, जैसी हैं, वैसी होंगी। न कांटे को फूल बनना चाहिए, न फूल को कांटा बनना चाहिए। अगर उन्होंने बनने की कोशिश की, तो बड़े पागल हो जाएंगे और दोनों को पागलखाने भेज देना पड़ेगा। और हमने कोशिश कर ली है और हम सब पागलखाने पहुंचे चले जाते हैं। हमने सब कोशिश कर ली है, सब कुछ होने की, कुछ-कुछ होने की कोशिश कर ली है।
एक-एक आदमी को हम कब स्वीकार कर पाएंगे? जिस दिन हम स्वीकार कर पाएंगे, उस दिन अच्छी दुनिया बनेगी। और उससे क्या अर्थ है मेरा? चोर को भी हम स्वीकार कर पाएंगे कि वह चोर है। यह जो स्वीकृति होगी कि वह ऐसा है-- इसमें न कोई निंदा है, न कोई विरोध है, न कोई खंडन है। और मैं मानता हूं कि अगर हम चोर को स्वीकार कर पाएं, तो शायद सौ में से निन्यानबे चोर एकदम चोर नहीं रह जाएंगे, क्योंकि निन्यानबे आदमी सिर्फ हमारे डिनाई करने पर चोर हैं, हमारे इनकार करने पर चोर हैं, हमारे विरोध में चोर हैं।
मेरे एक प्रोफेसर थे, उनका एक लड़का था। उस लड़के को क्लेप्टोमेनिया था,चोरी की आदत । और पैसे वाला लड़का था, जमींदार का लड़का था और पढ़ा-लिखा लड़का था। एम. एस सी. में पढ़ रहा था, फस्र्ट क्लास लड़का था। लेकिन चोरी! और ऐसी नहीं कि कुछ बड़ी चोरी करके ले आए! बटन ले जाएगा आपके, कुछ भी ले जाएगा, ले जाएगा। और आलमारी में सजाकर रख देगा ला-ला करके। जिसकी रूमाल ले जाएगा, तो उसमें एक चिट भी लगा देगा कि फलां-फलां आदमी को चकमा दिया। उसको थक गए समझा-बुझाकर, लेकिन जितना उसको समझाया-बुझाया, उतना उसका वह रोग बढ़ता चला गया। परेशान हो गए। उसका इलाज करवाया। उसको शॉक दिलवाई। यह किया, वह किया। कुछ हुआ नहीं। वह बढ़ता ही चला गया। चोरी उसकी जिंदगी हो गई। वह उसका मैडनेस जीवंत, लिविंग हो गया। उसमें उसको रस रह गया। फिर वह कुछ भी चुराने लगा। ऐसा कोई आर्थिक मूल्य का सवाल ही नहीं था। वह कुछ भी चुरा सकता है। चोरी अपने में रसपूर्ण होती है। उसके पिता मुझसे कहें कि मैं बहुत परेशान हो गया हूं। मैं बड़ी मुश्किल में हूं। एक ही लड़का है। यह समझ के बाहर मामला है। जो चाहे, हम देने को तैयार हैं, लेकिन लेने में उसका रस ही नहीं है। उसका रस चुराने में है। तो मैंने उनको कहा कि एक ही रास्ता है। आप उसको चोर होने की स्वीकृति दे दें। आप स्वीकार कर लें कि चोर है, उसमें हर्ज क्या है। आप प्रोफेसर हैं, वह चोर है। यह आपके जीने का ढंग है, आपको पढ़ाने में मजा आता है। और उसको चोरी करने में मजा आता है। और पक्का नहीं है कि आपको भी पढ़ाने में ही मजा आ रहा हो। हो सकता है, आपको किसी और बात में मजा आ रहा हो।
और मेरा अपना और सारे मनोवैज्ञानिकों का यह खयाल है कि सौ में से अस्सी परसेंट शिक्षक जो हैं वे सैडिस्ट होते हैं, इसलिए शिक्षक होते हैं। वे सताने का मजा लेना चाहते हैं। और इससे अच्छा मौका कहीं नहीं है, जितना स्कूल में है। तीस बच्चे मिल गए, तो दिन भर कुछ नहीं करते, डंडा बजा रहे हैं उनके सिर पर। सैडिस्ट है वह, जो सताने का मजा लेना चाहता है। उसको बड़ा रस है। सौ में से अस्सी परसेंट शिक्षक मनोवैज्ञानिक रूप से सताने में उत्सुक हैं। पढ़ाने में उत्सुक नहीं हैं। पढ़ाता सिर्फ इसलिए है कि पढ़ाने के माध्यम से सता सकता है। तो मैंने कहा कि कौन जाने, आप भी सैडिस्ट हों। आप भी हो सकता है कि पढ़ाने के माध्यम से कुछ और ही कर रहे हों। उन्होंने कहा, क्या कहते हैं आप? मैं और सैडिस्ट!
दूसरे दिन वह सुबह आए और कहने लगे कि हो सकता है। मैं रात भर सो नहीं सका और मैंने सोचा, और तब मुझे खयाल आया कि मुझे इतने अच्छे प्रोफेशन मिलते थे, मैं उनमें नहीं गया। और तब मुझे यह भी खयाल आया कि जरूर इसमें रस तो है। जिस दिन मैं किसी लड़के को डांट-डपट नहीं पाता, उस दिन मैं उदास लौटता हूं। और जिस दिन दस-पांच को पकड़ लेता हूं, डांट-डपट लेता हूं, बड़ा प्रफुल्लित होकर आता हूं। और उन्होंने यह भी कहा कि जब आपने कहा तो पहले दिन बहुत बेचैन हो गया। रातभर सोचा, तो खयाल में आया। जिस दिन मैं लड़कों को डांट-डपट लेेता हूं, उस दिन मैं घर में शांत रहता हूं। और जिस दिन लड़कों को नहीं डांट पाता, उस दिन पत्नी फंस जाती है, बेटा फंस जाता है। तो हो सकती है संभावना, उन्होंने कहा। तो फिर, मैंने कहा, आप भी हैं, वह भी है। उसको चोरी करने का सुख है, कौन जाने उसको सुख कोई और हो। चोरी करना आप स्वीकार कर लें। मैं उनके घर गया। मैंने उसको कहा कि हमने स्वीकार कर लिया है। तुम्हारे पिताजी और माताजी को बुलाकर हमने स्वीकार कर लिया है। अब तुम्हें जो चाहिए, वह तुम कर सकते हो। और इसमें न निंदा की बात है, न कंडेमनेशन की। दिस इज योर वे आफ लाइफ। इसमें कोई खराब बात नहीं। तुम्हें जो ठीक लगे, करो। तीसरे दिन उस लड़के ने मुझे आकर कहा कि आपने मेरी मुसीबत कर दी। मेरा सब रस ही चला गया। कोई मजा ही न रहा, कोई मतलब ही न रहा। क्योंकि चोरी करने में मुझे अब खयाल आता है कि मजा इसलिए आता है कि मैंने फलां को चकमा दिया, फलां को धोखा दिया । पिता जी आज कुछ भी पकड़ न पाए। आज दिन में पांच चोरियां कीं और पिताजी कुछ न कर पाए। बड़े अकलमंद बनते हैं, कुछ भी नहीं कर पाए। होंगे प्रोफेसर बड़े ऊंचे, मुझको नहीं पकड़ पाए। क्या खाक प्रोफेसर हैं! लेकिन अब तो सब मजा ही चला गया। अब तो ठीक है। मैं चुरा लेता हूं, रख देता हूं अलमारी में, लेकिन कुछ रस नहीं आता है। और वह लड़का कोई छह महीने की स्वीकृति में लौट आया वापस और चोरी विदा गई।
मेरी अपनी समझ यह है कि अगर स्वीकृति चोर की हो, तो सौ में से निन्यानबे चोर तो हमने पैदा किए हैं, वह वापस चला जाएगा। और वह, वह हो सकेगा जो हो सकता है। और हमारी वजह से वह चोर है, हम उसको धक्के दिए जा रहे हैं। लेकिन हम स्वीकार न कर पाएंगे। और हमारी अस्वीकृति गहरे में यह मतलब रखती है कि हमने अपने को स्वीकार नहीं किया है, तो हम दूसरे को क्या स्वीकार करेंगे? दुनिया हमें स्वीकार नहीं करने देती है। वह कहती है कि स्वीकार कर लोगे, तो मर जाओगे। फलां आदमी इतना आगे निकल गया, अगर तुम चुपचाप रह गए, तो गए।
इसलिए मेरी अपनी समझ यह है कि जो आदमी सब तरह से स्वीकार कर ले और कोई तुलना न करे, तो आउट आफ एनर्जी...शक्ति तब बहुत इकट्ठी हो सकती है। और तब एक तरह की गति आती है जो बहुत और तरह की गति है, अनमोटिवेटेड है। कोई आगे लक्ष्य नहीं है उसका। लेकिन पीछे एनर्जी ज्यादा है। एक झरना चला जा रहा है। आमतौर से हम समझते हैं कि यह सागर जा रहा है। कोई झरना सागर नहीं जा रहा है। झरना सिर्फ इसलिए जा रहा है कि उसके पास ताकत है, वह क्या करेगा? तो वह चला जा रहा है। कोई सागर लक्ष्य नहीं है। इनर कॉज है उसके भागने का। न कोई नदी बुला रही है उसको, न कोई सागर बुला रहा है। वह पहुंच जाएगा, वह बिलकुल दूसरी बात है। इससे कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन जब भीतर शक्ति का उभार आता है, ओवर-फ्लो कर रहा है, भागा चला जा रहा है।
मैं कह रहा हूं कि अगर कंपेरिजन छूट जाए, तो एक ओवर-फ्लोइंग होगी। एक-एक आदमी की अपनी होगी, अपने ढंग की होगी। क्योंकि कंपेरिजन नहीं है, इसलिए एक तरह की तृप्ति होगी। किसी से तुलना नहीं है, किसी से आगे नहीं है, किसी से पीछे नहीं है। किसी को हराना नहीं है, किसी को जीतना नहीं है। वह वह है, आप आप हैं।
इधर मैं इस पर बहुुत सोचता हूं, कि अगर दुनिया को कभी भी स्वस्थ करना है, पागलपन से हटाना है, तो हमें कंपेरिजन से मुक्त हो ही जाना चाहिए। होना ही पड़ेगा। नहीं तो कभी भी नहीं रुक सकता है, कंपेरिजन चलता ही रहेगा। और अभी हमें यही खयाल है कि कंपेरिजन की वजह से गति हो रही है। और अगर होगी तो फीवरिश होगी गति, बिलकुल बुखार से भरी होगी। वह ऐसे ही है, जैसे किसी आदमी की नाक पकड़ कर आगे खींच रहे हो और पीछे से कोई धक्के दे रहा है, तो गति हो रही है। लेकिन इसका कोई अर्थ नहीं है।

प्रश्नः क्या आपके जीवन में कोई ऐसा लेखक, कोई संत या महात्मा आया है, जिसने शुरू-शुरू में आपके जीवन में एक असर पैदा किया हो?

नहीं, ऐसा कोई आदमी नहीं है। कोई मुझे झिंझोड़ा नहीं। लेकिन कोई मुझे तृप्त नहीं कर पाया, इसलिए मैं झिंझड़ जरूर गया। कोई नहीं मुझे झिंझोड़ा। कोई झिंझोड़ता, तो शायद मैं उससे राजी हो पाता। वह नहीं हो पाया। और तब झिंझड़ जरूर गया, क्योंकि कोई तृप्ति न मिली, कोई राहत न मिली, कोई प्रेरणा न मिली।
और गहरे में मेरी समझ यह है कि उसका कारण यह है कि असल में प्रेरणा लेने को हम उत्सुक हों, तो ही मिल सकती है। और प्रेरणा लेने को अगर हम उत्सुक हों, तो हम सेकेंड हैंड होने को उत्सुक हैं। प्रेरणा लेने को आप उत्सुक हों, तो आप सेकेंड हैंड ही होंगे।
और मेरा निरंतर यह खयाल रहा है कि मैं क्या प्रेरणा लूं आपसे? कभी कुछ आना होगा, तो आएगा; नहीं आना होगा, तो मैं राजी हूं, नहीं आएगा। इतना पक्का है कि अगर मैं आपसे प्रेरणा ले लेता हूं, तो जो आने वाला होेगा उसका मुझे पता ही नहीं चलेगा कि मैं क्या हो सकता था। और मैं कुछ हो जाऊंगा, और जो होऊंगा तो वह सेकेंड हैंड होगा। वह कभी प्रथम कोटि का हो ही नहीं सकता है। वह कार्बन कापी ही होगी। और कार्बन कापी से आपको कभी भी अपनी आत्मा उपलब्ध नहीं होगी।

प्रश्नः एक इशारा तो मिलता है और तब उससे आगे का मार्ग प्रशस्त होने में सुविधा हो जाती है?

ऐसा नहीं है कि मुझे नहीं है; किसी को नहीं हो सकता है। किसी को हो ही नहीं सकता। अगर आप बुद्ध से जाकर पूछें कि हू इज रिसपांसिबल? सच बात यह है कि बुद्ध इसलिए पैदा हो सके हैं कि नोबडी कुड बी रिसपांसिबल फॉर हिम। एण्ड नोबडी कुड बी ए स्टाइल। इसीलिए बुद्ध बुद्ध हो सके हैं, अगर कोई स्टाइल प्वाइंट हो जाता, तो बुद्ध नहीं हो सकते थे। मैं यह कह रहा हूं कि जब भी हमारे भीतर व्यक्तित्व पैदा होता है, तो वह इसीलिए होता है कि आप कितने ही भटकते हों, लेकिन किसी द्वार पर कुछ भी नहीं होता है।
उमर का एक वाक्य है कि बहुत संतों के दरवाजे खटखटाए और बहुत आचार्यों के द्वार खटखटाए, बहुत संतों के सत्संग किए, लेकिन जिस दरवाजे से गया उसी से वापस लौटा और जैसे हाथ खाली थे, वैसे खाली रहे। और यह जो खाली रह जाना है, यही उमर का जन्म है। अगर कहीं हाथ भरे लौट आता, तो उमर खैयाम पैदा नहीं होता। अगर किसी संत के दरवाजे से संतुष्ट लौट जाता, तो फिर उमर खैयाम पैदा नहीं हो सकता था।
तो मेरा परिचय तो बहुत लोगों से है, लेकिन कभी भी कोई ऐसा नहीं लग पाया कि यह रहा रास्ता। और इससे मैं प्रसन्न हूं।
सच बात यह है कि न तो रास्ते मिलते हैं...और बहुत गहरे में देखें, तो रास्ते होते ही नहीं। आप ही होते हैं। और आप चलते हैं जितना, उतना रास्ता बन जाता है। और ऐसा नहीं कि आपके पीछे छूट जाता है। पीछे तो मिटता चला जाता है, पीछे कुछ बनता नहीं। आप जितनी देर चलते हैं, वही रास्ता है। न आगे कोई रास्ता होता है, न पीछे कुछ छूट जाता है।
वे जो पक्षी आकाश में उड़ते हैं, वैसा ही कुछ है मामला। एक पक्षी उड़ गया है, तो दूसरा कोई उसके पीछे रास्ता खोज लेगा, ऐसा नहीं है, क्योंकि कोई चरण-चिह्न नहीं छूट जाता है। वह तो हम आदमी के चरण-चिह्न को देख कर भूल में पड़ गए हैं। हमने गलत सिंबल पकड़ लिया है कि पीछे अगर आप चल गए हैं, तो पीछे एक रास्ता बन गया है, चरण-चिह्न बन गया है; मैं आ रहा हूं तो मुझे रास्ता मिल जाएगा।
जीवन के रास्ते पर कोई चरण-चिह्न नहीं छूूटते। कोेई रास्ता बनता ही नहीं है। आप चल रहे हैं, वही बस काफी है। जितना आप चलते हैं, उतना ही रास्ता है। न आगे कोई रास्ता होता है, न पीछे कोई रास्ता होता है। आप ही रास्ता होते हैं। इसलिए दो रास्ते तो नहीं मिलते कभी, दो व्यक्ति मिल सकते हैं। इन बातों का फर्क है बहुत। दो रास्ते नहीं मिलते। रास्ते होते ही नहीं। लेकिन दो व्यक्ति मिल सकते हैं।
नहीं; रास्ते का झगड़ा नहीं है। रास्ते का झगड़ा इसलिए नहीं है, क्योंकि व्यक्ति एक जीवित इकाई है और रास्ता एक मरी हुई लकीर है। इसमें बहुत फर्क है। व्यक्ति मर गया, तो वह रास्ता रह सकता है। और व्यक्ति जो है एक डाइनैमिक इकाई है। हो सकता है, अगले दिन मिल रहा था कृष्णमूर्ति से और कल न मिले। लेकिन दो रास्ते अगर मिल गए हैं, तो वे मिले ही रहेंगे, मिले ही रहेंगे। अब इस जगत में उनके अलग होने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए मैं कहता हूं, बहुत बार व्यक्ति मिलते हैं, फिर छिटक जाते हैं। बहुत जगह मिलते हैं, क्योंकि जिंदा चीज का भरोसा नहीं। मरी हुई चीज का पक्का भरोसा है। कल मैं इस कमरे में आऊंगा, तो दीवालें वही होंगी, लेकिन लोग वही नहीं होंगे और अगर लोग भी हुए तो, यही लोग नहीं होंगे और अगर यही हुए और उन्हीं नाम के हुए, तो भी चैबीस घंटे में बहुत धारा बह गई होगी। तो हम मिलते हैं बहुत बार। लेकिन मेरा जोर व्यक्ति पर है, डाइनैमिक यूनिटी पर है। व्यक्ति मिलते हैं, बहुत बार, बिछुड़ते हैं बहुत बार। मगर हमारा आग्रह क्या होता है? हमारा आग्रह होता है कि मिल गए, तो अब मिले रहना चाहिए और वही हो भी जाता है, क्योंकि वहीं हम मरने की शुरुआत कर देते हैं। कल मेरी पत्नी ने सांझ मुझे प्रेम दिया था। आज सांझ भी मैं घर लौट रहा हूं, फिर वह वहां मौजूद है, मुझे प्रेम देने को होनी चाहिए। और अगर यह अपेक्षा जोर की है और मजबूत है, तो मुझे एक मरी हुई पत्नी घर पर मिलेगी, जो प्रेम देगी। फिर व्यक्ति मिलेंगे, लेकिन अब यह झूठा मिलना होगा। वह पत्नी नहीं मिल सकेगी। एक अर्थ में वह मिल सकती थी। आपने उससे मिलने की जिद न की होती, तो मिल सकती थी। लेकिन आपने इंतजाम कर लिया है। कल आपको मैं रास्ते पर मिला और आपने मुझे नमस्कार कर लिया। बात खत्म हो गई, सुबह भी हो गई, खत्म भी हो गई। आज फिर आप रास्ते पर मिले हैं, मैं अपेक्षा कर रहा हूं कि आप नमस्कार करते हैं कि नहीं। अब मैं मरे को दोहराना चाहता हूं। और उस मरे को दोहराने में, मैं भी मरा हुआ हो जाऊंगा। अब हमें फिर रास्ते पर मिल लेना चाहिए--हाथ जोड़े ठीक, न जोड़े ठीक। फिर हम परिचित हो गए हैं, फिर किसी दिन हाथ जोड़ सकते हैं। फिर कभी मिलना हो सकता है, बहुत बार हो सकता है। बहुत लोगों से हो सकता है। लेकिन न तो मिलने की जिद होनी चाहिए, न तो मिलने को बचाए रखने का आग्रह होना चाहिए। तब लिविंग एक टच है, जो आएगा और चला जाएगा, और तब वह निरंतर ताजा होगा और नया होगा।
रास्ते और व्यक्ति का जो मैं फर्क करना चाहता हूं, वह कुछ कारण से करता हूं। रास्ता तो मरी हुई लकीर है। बुद्ध तो मर गए, लेकिन रास्ता है, अब उस पर चल रहे हैं लोग। कभी हो ही नहीं सकता है, उस रास्ते पर कभी नहीं हो सकता है। उस रास्ते पर भर असंभव है,और कहीं भी हो सकता है। और वह होता ही रहता है, उसमें कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन चूंकि हम रास्ते को पहचानते हैं, इसलिए और कोई पैदा होता है, तो हम पहचान नहीं पाते। सिर्फ जड़ और बंधी हुई लकीर को ही पहचान पाते हैं।
नहीं कुछ मिलता है, क्योंकि दो व्यक्ति कभी भी न तो एक जगह से यात्रा शुरू करते हैं, न एक जैसे होते हैं, न हो सकते हैं। जैसे, हमारे हाथ की लकीरें सबकी अलग-अलग हैं और दो हाथ की एक ही लकीर वाले आदमी न मिलेंगे, ऐसे ही हमारे व्यक्तित्व भी इतने ही अलग हैं और दो एक जैसे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति न मिलेंगे। लेकिन हम जब भी चाहें तो हम तालमेल बिठा सकते हैं। जल्दी करें, तो तालमेल बिठा सकते हैं। मैं कहता हूं कि न बिठालना चाहिए, न जल्दी करना चाहिए।
आज रात बिजली चमके आकाश में। लग सकता है कि कल जो चमक रही थी, वैसी चमक रही हो, लेकिन क्या वैसी चमक रही है? और क्या आपको पक्का है, कल कैसी चमकी थी? एक धुंधली स्मृति रह गई है, जिससे आप तुलना कर रहे हैं। आप जोर से पकड़ना चाहेंगे, फिसल जाएगी हाथ से। कैसी चमकी थी--उस धुंधले से आप तुलना कर रहे हैं। और हो सकता है, तुलना में आप तुलना बिठा लें। लेकिन यह बिजली कभी नहीं चमकी है। हां, चमक उसमें भी थी, चमक इसमें भी है। चमक की वजह से भ्रम पैदा हो रहा है। वह भी बिजली की थी, यह भी बिजली की है। वह भी चमकी थी, यह भी चमकी है। वह भी काले बादल में चमकी थी, यह भी किसी काले बादल में चमकी है और इसलिए हम तालमेल कर रहे हैं।
हम क्यों ऐसा करते हैं? इसके पीछे बहुत गहरे कारण हैं। क्यों हम ऐसा करना चाहते हैं? क्योंकि एक-एक व्यक्ति को व्यक्ति मानना बहुत खतरे में जीना है, इसलिए हम कैटेगरीज बनाते हैं। उसमें सुविधा है बहुत। आज मुझे मिले। अगर मैं सीधा आपके साथ जीना चाहूं, तो एक अपरिचित और स्ट्रेंजर के साथ जीना पड़ेगा। लेकिन मैंने कहा, यह मुसलमान है। अब मैं एक स्ट्रेंजर के साथ नहीं जी रहा। मुसलमान के बाबत एक मेरी धारणा है। मुसलमान के साथ मुझे जो व्यवहार करना है, वह मैं आपके साथ करूंगा। और मुसलमान से जो व्यवहार मुझे अपेक्षित है, वह मैं आपसे अपेक्षा रखूंगा। अब मैंने आपकी फिकर छोड़ दी। आपके इंडिविजुअल होने की अब मुझे चिंता न रही। मैंने एक कैटेगरी में आपको रख लिया। कल मैंने एक और कैटेगरी बना ली कि आप धंधा क्या करते हैं। आप शादीशुदा हैं कि गैर-शादीशुदा हैं। ऐसी मेन पच्चीस-तीस कैटेगरीज को मान कर और आपके इंडिविजुअल को किया खत्म और एक यूनिट बना लिया, जो कि एक फिक्स्ड यूनिट है। अब उसके साथ हम बिलकुल निश्चिंत हो सकते हैं। आप शादीशुदा हैं, तो ठीक है। अगर शादीशुदा नहीं हैं, तो थोड़ा सोचना पड़ेगा। आपका धंधा क्या है? सराफी का धंधा है, तो बहुत ठीक है। आपने कहा कि लकड़ियां बेचते हैं, फिर हमें सोचना पड़ेगा।
तो एक-एक आदमी को, जैसा कि हमने जमीन बांट ली अक्षांश और देशांश में, कि बंबई कहां है, तो इतने अक्षांश को और इतने देशांश को क्रास करके हमने इंतजाम कर लिया कि इतने पॉइंट पर बंबई मिल जाएगा। ऐसा हमने व्यक्तियों को बांट लिया है और कई तरह के अक्षांश और देशांश बना लिए हैं। जाति क्या है; धर्म क्या है; पिता क्या करते थे; आप क्या करते हो; कितने पढ़े हो, कितने नहीं पढ़े हो; धंधा कैसा है; सफल हो कि असफल हो--यह सब बना लिया। एक पांच मिनट में आदमी, जो कि इतनी बड़ी मिस्टरी है, जिसके साथ जिंदगी भर भी रहकर नहीं जाना जा सकता है कि वह कौन है, हमने पांच मिनट में जान लिया और निपटारा कर दिया! अब हमें व्यक्ति की तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं है। अपना जो ढांचा हमने पक्का पकड़ लिया, उससे काम कर लेंगे। हमने एक व्यक्ति को सरलता से निपटा दिया है और मुक्त हो गए उससे। और हमने यह सब तरफ किया हुआ है। और मेरा अपना मानना है... इसलिए हम कभी व्यक्ति से वह जो मैं कांटेक्ट कह रहा हूं, मिलन, वह भी नहीं हो पा रहा है। अब वह भी नहीं होने वाला है, तो फिर बात ही खत्म हो गई।
इधर मेरी निरंतर यह चेष्टा है कि एक व्यक्ति को जैसा वह है, जितना मैं जान सकूं ठीक है। घड़ी भर मिलूंगा, घड़ी भर ही जान सकूंगा। और पूरे को जान कैसे सकता हूं? पूरे को जानने का कोई उपाय भी नहीं है। घड़ी भर में जो झलक मुझे मिली, मिल गई और उसे मैं किसी खांचे में नहीं रखूंगा। क्योंकि कोई खांचा है नहीं, जिसमें मैं उसको रख रहूं, क्योंकि वह आदमी पहली दफे हुआ है। वह आदमी कभी था ही नहीं, फिर कभी होगा भी नहीं। और जिस दिन हम इस तरह व्यक्ति को मूल्य दे पाएंगे समान--तुलना, समानता-असमानता, रेखाएं काट कर आदमी को न बांटेंगे--उस दिन हमें व्यक्ति से जो रस मिल पाएगा, वह अब तक नहीं मिल पाया है। वह कैसे मिलेगा? तो इधर मैं कहता हूं, हम जांचें भी क्यों, हम पूछें भी क्यों? वह वह है, मैं मैं हूूं, आप आप हैं। इतना होना काफी है और हम सीधें क्यों न सामने आएं? हम एक व्यक्ति को और एक मुखौटा क्यों दें?
अभी मैं इधर पीछे लौटा तो मेरे साथ एक सज्जन थे। इधर उन्होंने देखा कि मुझे कई लोगों ने विदा दी, तो उन्होंने सोचा, जरूर कोई महात्मा होना चाहिए। मेरे साथ ही बगल के एक कंपार्टमेंट में थे। जब गाड़ी चली, तो वह आए और मेरे पैर छुए और कहाः महात्मा जी। मैंने कहाः अगर महात्मा जी के हिसाब से पैर छुए हों, तो वापस ले लें। उन्होंने कहाः क्यों? ऐसा क्यों कहते हैं? महात्मा नहीं हैं? तो मैंने उसके चेहरे को देखा। अब पैर छू लिया, वापस कैसे ले! उसने कहाः नहीं, आप मजाक करते हैं। अब वह सोच रहा है कि किस तरह साथ रह जाए। मैंने कहा, मैं बिलकुल ही मजाक नहीं करता। ये कपड़े ही मजाक में डाले हुए हैं। आपसे मजाक नहीं कर रहा, अपने से कर रहा हूं। आप वापस ले लें। उन्होंने कहाः अब वापस कैसे ले लूं? मैंने कहाः आपने भूल की। पहले पक्का कर लेना था कि महात्मा है या नहीं, फिर पैर छूना था। उस आदमी ने कहाः तो आप यहां किसलिए आए हुए हैं? मैंने कहाः बंबई में कुछ मित्र हैं, इसलिए आता हूं। तो कोई प्रवचन वगैरह? मैंने कहाः कुछ बातचीत चलती है। उन्होंने कहाः हिंदू धर्म पर? मैंने कहाः नहीं-नहीं। मैं हिंदू नहीं हूं। आप हिंदू नहीं हैं? अब बहुत मुश्किल में पड़ गया यह। हिंदू होता, तब भी चलता। नहीं था महात्मा, तब भी चल जाता। हिंदू नहीं हैं आप? आप कौन हैं? मैंने कहाः मुझे मेरा होने का हक नहीं है? क्या मैं मुसलमान हूं, ईसाई हूं, तभी हो सकता था? यानी मुझे न जीने देंगे ऐसे ही कि मैं कहूं कि मैं मैं हूं। उन्होंने कहाः फिर आप कोई धर्म, कोई ग्रंथ, कुछ तो मानते ही हैं? मैंने कहा, मैं कुछ नहीं मानता हूं। मैं उस आदमी की परेशानी देख कर इतना हैरान हुआ कि वह परेशान होता गया। फिर उसने कहा कि अच्छी बात है। तो सुबह सत्संग करूंगा।  मैंने कहाः नहीं, सत्संग अभी करिए। ऐसी क्या बात है? आप तो सत्संग ही करने आए हैं न? उन्होंने कहाः नहीं, सुबह आऊंगा। फिर मैंने दो दफा आदमी भेजे कि उस आदमी को लाओ। उनसे कहो कि जिनको आपने महात्मा नहीं समझा था, वह आपको बुला रहे हैं। वह आदमी नहीं आया, क्योंकि वह तो बहुत परेशान हो गया। यानी वह किससे संबंधित हो? मुझसे तो संबंधित नहीं होना चाहता क्योंकि मैं डेंजरस हो सकता हूं; बेईमान हो सकता हूं; धोखा दे सकता हूं; जेब काट लूं। कुछ भी हो सकता है। पक्का तो नहीं है न!
 अभी एक बहुत मजेदार घटना घटी। एक चालीस-एक साल की स्त्री है। एक कालेज में प्रोफेसर है। शादी नहीं की। मां-बाप ने बहुत समझाया, फिर भी नहीं की। वह अकड़ में हो गई। अब दिन बीत गए, तो अकड़ भी चली गई। इधर मेरा अनुभव है कि चालीस-पैंतालीस साल तक कोई आदमी चाहे तो अविवाहित बड़ी आसानी से रह सकता है। असली तकलीफ पैंतालीस साल के बाद शुरू होती है। आमतौर से जवानी में असली तकलीफ नहीं होती है। जवान आदमी बिलकुल अविवाहित रह सकता है। जवानी जब उतरने लगती है, तब तकलीफ शुरू होती है, क्योंकि वह जो ताकत अविवाहित रहने की है, वह भी तो चली जाती है। अब कोई साथी चाहिए और सब ढीला पड़ जाता है। और अविवाहित रह कर भी क्या पा लिया? वह भी पता चल जाता है कि कुछ भी न पा लिया। अब जिंदगी व्यर्थ ही चली जा रही है। पता नहीं, विवाहित होने में कुछ रहा होगा। कठिनाई इसके बाद होती है। जो भी अविवाहित रह जाए, चालीस के बाद उसको असली मुसीबतें आनी शुरू हो जाएंगी। लेकिन भूल जिसने कर ली है, उसको उतनी तकलीफ नहीं होती है, उसकी बजाय जिसने कि भूल नहीं की है। उसे नहीं करने का भी अनुभव नहीं है । वह कर लिया, तो वह पछता ही सकता है। और करने के लिए पछताना हमेशा आसान है। न करने के लिए पछताना बहुत ही कठिन है। तो उस स्त्री ने लिखा कि मैं बहुत मुश्किल में पड़ गई हूं और एक संन्यासी उसके घर में टिके थे, तो संन्यासी की सेवा करती थी वह, और उनको रोक लिया होगा। वह बहुत बढ़िया आदमी थे, मुझसे परिचित थे, और मेरी वजह से वह उससे परिचित हुए थे। उनको रोक लिया होगा और कहा कि और रुकिए और रुकिए। फिर उसका प्रेम बढ़ता चला गया। अब वह संन्यासी है, पर वह भी कम संन्यासी नहीं। और वह प्रेम बढ़ता चला गया।
उसने मुझे लिखा कि मुझे तो बहुत मुश्किल हो गई है। आप फौरन आ जाएं, नहीं तो मैं आत्महत्या कर लूंगी। मुझे तो समझ में नहीं पड़ रहा है कि क्या करूं?  तो मैं गया। उस स्त्री ने मुझे कहा कि मुझे तो उनकी आत्मा से प्रेम है। मैं तो इनके संत होने को प्रेम करती हूं। अगर मैं उनकी गोदी में सिर रख कर लेट जाती हूं, तो सिर्फ इसलिए कि यह महात्मा हैं। तो मैंने कहा कि अगर पक्का तुझे पता चल जाए कि यह महात्मा नहीं हैं, फिर तू उनकी गोदी में सिर रखेगी कि नहीं? उसने कहा, नहीं, वे तो महात्मा हैं ही! मैंने कहाः मैं तेरे से पहले उनको जानता हूं। अच्छी तरह जानता हूं। अगर मैं कहूं कि वह महात्मा नहीं हैं, लिख कर तुझे सर्टिफिकेट देता हूं कि वह महात्मा नहीं हैं, तो फिर उनकी गोदी में सिर रखेगी कि नहीं? उसने कहाः यह बात हो ही नहीं सकती। तो वह संन्यासी बैठा था, उसने कहा, हो भी सकती है, क्योंकि जब तुम मेरी गोदी में सिर रखती हो, सच में मैं महात्मा, उस वक्त कम से कम नहीं रहता। जब तुम नहीं रखती हो, तब ही महात्मा रहता हूं। और जब तू उठा लेती है, तब भी महात्मा रहता हूं। लेकिन जब तुम गोदी में सिर रखती हो, तब मैं महात्मा नहीं रहता। वह स्त्री कहने लगी, यह हो ही नहीं सकता! तो मैंने कहाः कहीं तू महात्मा सिद्ध करके गोदी में सिर रखने का उपाय तो नहीं सोचती है? तू अपना सिर रख, फिर महात्मा से क्या लेना-देना है? महात्मा की गोदी में कौन-सा सुख हो जाएगा? उसमें तकलीफ भी हो सकती है। उस स्त्री ने कहाः मैंने तो आपको हल करने को बुलाया था, आप और मुझे मुसीबत में डाले दे रहे हैं। मैं तो चाहती हूं कि आप मुझे किसी तरह समझा दें कि यह सच में महात्मा हैं!  मैंने कहाः मेरे समझाने से क्या फर्क पड़ेगा? मैं समझा दूं कि यह महात्मा हैं, और न हों। तो इससे तुझे सुविधा होगी और कुछ न होगा। लेकिन यह जो हैं, सो हैं। अब तो इनकी गोदी में सिर रखना हो, तो रख। यह महात्मा हैं या नहीं, इससे क्या संबंध है? वह व्यवस्था जुटा लेना चाहती है, पक्का कर लेना चाहती है।
हम व्यक्ति से मिलना ही नहीं चाहते हैं। इसलिए जिनके मिलने में जितना ही डर होता है, उतना इनडायरेक्ट रास्ते हम बनाते हैं। स्त्री से हम दूसरे पुरुषों को दूर रखना चाहते हैं, तो उसका नाम और पता हम गोल कर देते हैं। उसको कहते हैं, मिसेज मनोज! उसको हम पीछे खड़ा कर रहे हैं। नमस्ते, मिसेज मनोज से मिलिए!  मिसेज मनोज सदा पीछे हैं, उनसे सीधा मिलना नहीं हो सकता है। उसका हम व्यक्तित्व ही तोड़ देते हैं। उसको हम कहते ही नहीं कि तुम्हारा कोई व्य्क्तित्व है। तुम फलां आदमी की श्रीमती हो। तुम्हारा अपना कोई व्यक्तित्व नहीं। हम सब तरफ यह उपाय करते हैं। इस उपाय के पीछे कुल कारण है कि व्यक्ति बड़ा खतरनाक है। खतरनाक से मतलब कि जिंदा है ।
जिंदा सच में खतरनाक होते हैं, मुर्दा कम से कम कुछ नहीं करते। अगर कोई भी जिंदा आदमी न हो कमरे में, सब मुर्दा हों, आप शांति से सो जाते हैं। अगर एक जिंदा आदमी सोया हुआ है; आपकी रात की नींद वही नहीं होती है, जो आपकी एक मुर्दा कमरे में होती है। हां, मुर्दा आदमी की लाश के साथ सोना तुम्हें कठिन है, क्योंकि तुम्हें डर होता है कि पता नहीं पक्का, मुर्दा है या नहीं। मुर्दा आदमी के साथ जो सबसे बड़ा डर है, वह यही है कि पता नहीं यह पक्का मुर्दा है या नहीं। इसीलिए तो हम मुर्दे को लेकर एकदम मरघट दौड़ते हैं कि इसको जल्दी आग लगाओ, इसको जलाओ, क्योंकि मुर्दा आदमी पक्का नहीं है ।
वह जो आदमी कल तक जिंदा था, कैसे मान लें कि मर गया है? बड़ा मुश्किल है इसको मानना। इसलिए उसको पूरा मार डालेंगे। हम पक्का करेंगे। आग लगाएंगे; हाथ-पैर काटेंगे; कब्र में गड़ा देंगे। यानी हम उसके जिंदा होने का सारा उपाय तोड़ देंगे। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि लाश को आप क्या करें। लाश के साथ तो और बहुत कुछ भी हो सकता है। यह नहीं कह रहा हूं कि आप क्या करें लाश के साथ। लेकिन लाश के साथ हम अभी जो भी कर रहे हैं, वह उस मरे हुए आदमी के साथ कम कर रहे हैं, अपने साथ ज्यादा कर रहे हैं। हम उससे छूटना चाहते हैं बहुत जल्दी। जिसको हमने इतने प्रेम से रोका था और कहा था कि तुम्हारे बिना एक क्षण न रह सकेंगे ।
अगर मैं आपको एक रूमाल भेंट कर दूं, तो आप क्या करते हैं? इसको इतना सम्हालते हैं, अगर मैं कल मर जाऊं, तो मुझे नहीं संभाल सकते हैं, एक दिन । नहीं, यह सवाल नहीं है कि मैं मर गया हूं, मुझे कोई घर में कैसे रखे। सवाल यह है कि मरे के साथ जिंदा रहना बड़ा मुश्किल है। और इस मरे के साथ जो सबसे बड़ा डर यह है कि यह बिलकुल जिंदा जैसा है। आदमी जिंदा मर सकता है। तो दूसरी पॉसिबिलिटी सदा है। इसलिए हमने उसके उपाय किए हैं। इसीलिए तो हम रुपए भी रखते थे, पैसे भी रखते थे, रोटी भी रखते थे, कपड़ा भी रखते थे, इसी खयाल से कि शायद तुम जिंदा हो जाओ, तो तुम्हारे लिए इंतजाम कर दें। लेकिन उसमें यह नहीं है अपेक्षा कि तुम जिंदा हो जाओ, तो हमारे साथ फिर रहना हो सके। यहां तक कि जिंदा औरतें भी उसके साथ-साथ दफनाते रहे हैं कि शायद उसको जरूरत पड़ जाए, वह जिंदा हो जाए, तो क्या करेगा? तो वह हम सब करते रहे हैं।
मुर्दे के साथ हमने जो व्यवहार किया है, वह बहुत गहरे में हमारे दूसरे भयों पर आधारित है। नहीं तो कोई कठिनाई नहीं कि एक वक्त आ जाए कि जो मुझे प्रेम करता है, वह मेरी लाश को घर में सुरक्षित रखना चाहे।
बात यह है कि हम उससे जो छुटकारा चाहते हैं, उस छुटकारे में हमारे मनोवैज्ञानिक कारण हैं बहुत गहरे में। अगर समझो कि एक पति मर गया है और उसकी लाश को घर में सम्हाल कर रख दिया गया है। अब यह पत्नी दूसरा पति खोजने में बहुत कठिनाई पाएगी। और कल अगर किसी दूसरे आदमी से प्रेम इसी सोफे पर बैठ कर करेगी और वह लाश सामने देखती रहे, लाश एकदम जिंदा हो जाएगी और आंखें गड़ा कर गौर से देखने लगेगी। कठिनाइयां बहुत सी हैं। कठिनाई जिंदा आदमी की है, मरे का सवाल नहीं है। उसको तुम डिस्पोज करना चाहते हो। हम ऐसा कहेंगे तो बहुत अजीब लगता है ।
एक मेरे मित्र गुजर गए। रात को दो बजे गुजरे। तो पत्नी और वे दोनों गांव से कोई दस-पंद्रह मील दूर, एक छोटी सी पहाड़ी के पास रह रहे थे। तो मुझे फोन आया दो बजे रात को। उसकी पत्नी ने कहाः मैं एकदम घबड़ा गई हूं। आप इसी वक्त आ जाइए। वे चल बसे हैं। मैंने कहाः चल बसे हैं, तो मेरे आने से लौटने का कोई सवाल नहीं है। मैं सुबह आऊंगा। अब मेरी नींद क्यों खराब करती हो? सो जाओ चुपचाप। उसने कहाः कैसे मैं सो सकती हूं? उनकी लाश रखी हुई है। मैंने कहाः अब तो उनकी लाश सदा के लिए लाश हो गई। अब तुझे सोना ही पड़ेगा। वह लाश अब रखी रहेगी। कहीं होगी, होगी। इससे क्या फर्क पड़ता है। उसने कहाः नहीं। तो फिर मैं वहां आना चाहती हूं। एक मिनट भी टिक नहीं सकती। वह गाड़ी लेकर मेरे पास चली आई। वह इतनी घबड़ाई हुई थी, मरने से घबड़ाई हुई थी, वह तो ठीक ही था। लेकिन उस अकेली जगह में, उस पहाड़ी पर, लाश के साथ रात नहीं बिता सकी। और इसको कितनी बार कहा होगा इस आदमी को, कि तुम्हीं सब कुछ हो ।
यह जो हमने सारी व्यवस्था की है, वह आदमी के मन का भय है। बहुत से भय हैं, बहुत सी परेशानियां हैं। उन सबको ध्यान में रख कर व्यवस्था की है। उस आदमी को हम सारे झंझट से...हम आते हैं उसके घर...सारी दुनिया में इंतजाम था कि कोई मर जाए, तो उसके घर में सारे लोग जाएं। रोएं, और रुलाएं! और रुलाने का कारण था; अगर वह ठीक से रो ले दस-पंद्रह दिन, तो ऊब जाएगा, रोने से ऊब जाएगा। और पंद्रह दिन से वह झूठा रो रहा है और सोलहवें दिन वह चाहेगा कि लोग न आएं। उसका रोना निकाल दिया उन्होंने आकर घर।
वह जो इंतजाम है, वह इंतजाम यह है कि अगर कोई न आए और कोई न रुलाए, तो यह रोना जिंदगी भर चल सकता है। इसका विस्तार हो रहा है। वह इंटेंस करने की जरूरत है। उसके घर रोज सुबह से सांझ लोग आएंगे। इसको रुलाएंगे। बातें करेंगे। उनको भी सुख मिलेगा, इसको सुविधा बनेगी। इसके लिए व्यवस्था है कि उसके लिए राहत हो जाएगी। यह निकल जाएगा। पंद्र्रह दिन बाद इसका मन होने लगेगा कि अब कोई न आए, अब रोना बहुत हो चुका। अब यह ऊब गई है, बाहर हो गई है।
हमने जिंदा रहने के लिए बहुत इंतजाम किए हैं, बहुत अच्छी व्यवस्थाओं से ढांका है। वह मैं नहीं कह रहा था। जो मैं कह रहा था, यह कह रहा था कि मरी हुई चीज के साथ हमें रहने में सुविधा पड़ती है, क्योंकि मरी हुई चीज से किसी अनजानी चीज के घटने की कोई संभावना नहीं है। मरी हुई चीज स्ट्रेंजर नहीं है। हम पांच मिनट में एक कुर्सी से परिचित हो जाते हैं। पंद्र्रह मिनट में एक कार से परिचित हो जाते हैं। घंटे दो घंटे में एक मकान से परिचित हो जाते हैं, लेकिन एक आदमी से हम जन्म-जन्म भी साथ रहें, तो परिचित नहीं हो पाते हैं। अनप्रीडिक्टेबल हमेशा मौजूद रहता है, इसलिए अनप्रीडिक्टेबल को रोकने के लिए हम इंतजाम करते हैं।
अब एक लड़की मेरे पास आए और कहे कि मुझे आपसे प्रेम है, मैं आपके साथ रहना चाहती हूं। तो मैं कहूं, कि तू रह। तो कहे कि विवाह कर लें? विवाह का मतलब हैः अनप्रीडिक्टेबल को खत्म कर दें, प्रीडिक्टेबल हो जाएं। हम उसको मारने की कोशिश करेंगे, कि उसको इतना मार लें कि वह करीब-करीब जिंदा न रह जाए, भयभीत करने वाला न रह जाए, तो फिर हम उसके साथ रह सकते हैं।
और इसलिए जितना प्रतिभाशाली व्यक्ति होगा, उसके साथ रहना उतना मुश्किल हो जाएगा। उसका कारण यह है कि वह मरने को राजी न होगा। वह जिंदा रहने के लिए रेसिस्ट करेगा। वह कहेगा कि मैं जिंदा रहूंगा। इसलिए दुनिया में आज तक प्रतिभाशाली आदमियों के साथ वह निरंतर कठिन सिद्ध हुआ है। क्योंकि जिंदा आदमी हो, तो आप मार नहीं सकते। वह कठिन बात है।
यह जो मैं मरे हुए के साथ कह रहा था, वह लाश के लिए नहीं कह रहा था। इसलिए देखें, खयाल करें, आदमी कुत्तों के साथ जितना प्रेम के साथ रह लेगा, उतना आदमियों के साथ नहीं रह सकता, क्योंकि कुत्ते को बहुत जल्दी प्रीडिक्टेबल बनाया जा सकता है। एक महीने, दो महीने की ट्रेनिंग में कुत्ता प्रीडिक्टेबल हो जाता है। यानी उससे फिर अनजान की कोई अपेक्षा नहीं रहती।
इसलिए जहां-जहां मनुष्य और मनुष्य के संबंध में तनाव आ रहा है, वहां मनुष्य और जानवर के संबंध में बढ़ती हो रही है। सच में यूरोप में और अमरीका में कुत्ता निकट आता जा रहा है, आदमी से ज्यादा। ज्यादा मैनेजिएबल है। झंझट नहीं रहती। उसको कहो, चुप, तो वह चुप हो जाता है। कहो, पूंछ हिलाओ, तो पूंछ हिलाता है। वह बिलकुल प्रीडिक्टेबल है। उसको कहो, बाहर, तो वह बाहर हो जाता है। आदमी के साथ ऐसा नहीं करते। हालांकि करना हम आदमी के साथ भी यही चाहते हैं। स्त्री के साथ आदमी करना चाहता है, स्त्री आदमी के साथ करना चाहती है। मित्र मित्र के साथ करना चाहता है। गुरु शिष्य के साथ करना चाहता है। शिष्य भी गुरु के साथ यही करना चाहता है। प्रीडिक्टेबल, कि ऐसा करो इस वक्त। यह ठीक नहीं है। ऐसा होना चाहिए। वह हम सब कर रहे हैं।
हम मारने की कोशिश कर रहे हैं। और मजा यह है कि साथ सिर्फ जिंदा का हो सकता है, मरे का साथ नहीं हो सकता है। जो उसका गहरा कंट्राडिक्शन है, वह यह है कि मार कर हम साथ रहेंगेे। और साथ में मजा सिर्फ जिंदा के हो सकता है और मरने के साथ मजा नहीं हो सकता। एक कंट्राडिक्ट्री आकांक्षा है हमारी कि जीएं ऐसे कि मरे रहो, लेकिन जीओ पूरे। अब यह तो बड़ा मुश्किल मामला है ।
अब एक आदमी को मुझे प्रेम करना है, तो मुझे मान ही लेना चाहिए कि हो सकता है, कल यह न हो। कल यह प्रेम न रहे, यह मानने का मन नहीं होता है। तो मैं कहता हूं, आदमी का पूरा इंतजाम कर लो कि कल भी यह रहे। लेकिन उसमें वह आदमी चला जाता है, वह आदमी नहीं बचता। तब मैं दुखी हो जाता हूं कि प्रेम नहीं हो पा रहा है। सारी मनुष्य जाति ऐसी कठिनाई में है।

प्रश्नः इंडिविजुअल...

लफ्फाजी बहुत है,एकदम लफ्फाजी है। लेकिन आदमी लफ्फाजी का बड़ा शौकीन है। और बड़े-बड़े शब्द बनाने में बड़ा सुविधापूर्ण है, और बहुत कुशल है। उसकी सारी कुशलता शब्द गढ़ने की कुशलता है। यानी हिंदुस्तान में इतना बड़ा सिस्टम-मेकर ही पैदा नहीं हुआ शंकर के बाद। उधर शब्दों के सिवाय कुछ भी न मिलेगा और सिर्फ शब्द और बड़े शब्द। हम बड़े शब्दों से ही प्रभावित होते हैं। तो ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन है, हां वह निपट नाम-जप है। लेकिन नाम-जप कहिए, तो मामला खत्म हो गया। निपट नाम-जप है, कि बैठ कर राम-राम, राम-राम जपिए, जो कि करोड़ों साल से हम जानते हैं। और नाम-जप कहिए, तो बात खत्म हो गई और ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन कहिए, तो बात बहुत बढ़िया हो गई। बात ही कुछ और हो गई। कुछ मामला बहुत गहरा हो गया। सिर्फ लफ्फाजी है। और अरविंद की लफ्फाजी बहुत गहरी है।
असल में, अगर कोई एक्सपीरिएंस, कोई अनुभव शब्दों में प्रकट न होता हो, तो आप बहुत छोटे शब्द खोजेंगे, क्योंकि बड़े शब्दों में वह और भी प्रकट न हो पाएगा। जब भी कोई अनुभव गहरा होगा तो आपको और भी सरल शब्द खोजने पड़ेंगे। अगर अनुभव न हो, तो आप बड़े शब्दों में अनुभव की कमी को छिपाएंगे। बड़े शब्द सदा अनुभव की कमी को छिपाते हैं। और भाषा सदा प्रकट ही नहीं करती। अक्सर तो भाषा छिपाती है और छिपाने के काम में लाई जाती है। पंडित उसको काम में ला रहा है हजारों साल से। अरविंद का थोड़ा बहुत काम है, लेकिन बहुुत गहरा नहीं है। अरविंद, बहुत और ही तरह का टाइप है उनका।

प्रश्नः वह कहा है न--किससे बना हुआ काबा, कहां करूं सिजदे, जमीन को कोई...

बनाइए ही मत। कहीं काबा बनाया और कहीं सिजदा किया कि आप गए । करने का कोई सवाल ही नहीं है। आप जहां हैं, वहीं काबा है और वहीं सिजदा है और जो आप कर रहे हैं, सिजदा है।
बहुत बार मौके आते हैं जिंदगी में, जब हमें ऐसा लगता है कि कहीं झुक जाएं, कहीं डूब जाएं, कहीं शरण ले लें। लेकिन वह हमेशा धोेखे का सिद्ध होगा। और एक दोराहा चूक जाएगा फिर। और दोराहा कीमती जगह है, जहां से कुछ ट्रांसफार्मेशन होता है हमेशा। उसको आप इस तरह भटक कर खराब कर देंगे।
 न अरविंद में खोजें, न रमण में खोजें। जिंदगी में खोजना पड़ेगा।
और मैं मानता हूं कि अरविंद को वह नहीं मिला, क्योंकि उन्होंने जिंदगी में नहीं खोजा, शब्दों और शास्त्रों में खोजा। अरविंद एक स्कॉलर, एक बड़े पंडित थे। साधारण नहीं, असाधारण पंडित थे। बस, लेकिन पंडित थे। वह बात नहीं है, जो जानने से आती है। वह बात है, जो बहुत जाने हुए को जानने से आती है। दोनों में फर्क है।
एक तो डायरेक्ट ट्रांसफार्मेशन कि मैंने प्रेम किया और जाना। और एक है कि मैंने प्रेम के संबंध में सारे शास्त्र पढ़े और प्रेम को जाना। और हो सकता है कि जिसने प्रेम के संबंध में सब शास्त्र पढ़े, वह प्रेम करने वाले को हरा दे--जहां तक बातचीत का सवाल है, जहां तक शब्दों का सवाल है क्योंकि उसकी कुशलता और है। वह सारे सूत्र जानता है, वह सारे शास्त्र जानता है। और इतना समझा है प्रेम के संबंध में। जिसने प्रेम किया है, हो सकता है गुमसुम रह जाए। जिसने प्रेम किया है, उसे आप पकड़ कर ले आएं और कहें कि बोलो प्रेम पर, तो कहे, बोलूं क्या? कर सकता हूं। मैं करके बता सकता हूं, बाकी और क्या करूं! प्रेम,और क्या किया जा सकता है?
एक बाउल फकीर था। रवींद्रनाथ ने बड़ी श्रद्धा से स्मरण किया है इस बाउल फकीर का, जिससे वह मिले थे। फकीर हैं बाउल, गांव में, बंगाल में। और बड़े मजे के फकीर हैं। अपना तंबूरा लेकर गांव-गांव नाचते रहते हैं। नाच देखने, तंबूरा सुनने कुछ लोग आ जाते हैं। कुछ उन्हें कहना होता है, तो कहते हैं। लेकिन प्रेम की बात कहते हैं, कितना ही करो। वैष्णव फिलासफी भी कहती है, प्रेम ही प्रार्थना है।
एक वैष्णव पंडित उस बाउल के पास गया जो नाच रहा था और प्रेम का एक गीत गा रहा था। उसने कहाः रुको! दिन-रात प्रेम की बकवास करते हो। तुम्हें मालूम है, प्रेम के कितने प्रकार होते हैं? गांव की भीड़ इकट्ठी हो गई। और सब देखने लगे कि यह तो बाउल हार गया बेचारा। और बाउल चुपचाप खड़ा रह गया, उसने तो तंबूरा बजाना ही बंद कर दिया। उसने कहा, प्रेम और प्रकार? सुना ही नहीं आज तक। जाने ही नहीं आज तक कि प्रेम के और प्रकार हैं। प्रेम ही जाना, प्रकार नहीं जाना। तो उसने कहा, सुनो, हमारी किताब में लिखा है...तो उसने किताब निकाल ली और ग्रंथ में पांच प्रकार लिखे हैं प्रेम के, वह पढ़कर सुना दिया। और उस बाउल से पूछा कि कैसा लगा?
तो वह बाउल फिर तंबूरा लेकर नाचने लगा और उसने गीत गाया और गीत में उसने कहा कि ऐसा लगा जैसे एक बार एक माली को लगा था। कौन से माली को? एक माली, जिसके बगीचे में बहुत अच्छे फूल खिले थे और एक सराफ से, एक सोने के दुकानदार से उसकी दोस्ती थी। उसने कहा, कभी आओ, फूल बहुत खिले हैं। तो वह सुनार आया और साथ में सोना कसने की कसौटी ले आया। और फूलों को कसकर देखने लगा और फेंकने लगा एक-एक फूल को। और कहने लगा, सब बेकार हैं। कसौटी पर एक भी नहीं उतरे। तो जैसा उस माली को लगा था, वैसे ही तेरे प्रेम की व्याख्या पढ़कर हमको लगा। उसने कहा, जैसा उस माली को लगा था, वह फूल जो फिंकने लगे सोने की कसौटी पर कसे जाकर, गलत होकर, व्यर्थ होकर, झूठे होकर, ऐसा ही हमको लगा तुम्हारे शास्त्र को सुनकर।
एक तो प्रेम का अनुभव है सीधा और एक प्रेम के संबंध में कही गई बातों का संग्रह है। और अक्सर डर यह है कि जिसका प्रेम का अनुभव सीधा है, उसकी बात आपकी समझ में नहीं आती है। और उसकी बात समझ में आती है आपको, जिसको कि अनुभव न हो। लेकिन प्र्रेम के संबंध में जो भी है, लिखा हुआ, पढ़ा हुआ, वह जानता है। उसको प्रकट करने का उपाय जानता है।
अरविंद के पास वह बात नहीं है। उनकी प्रतिभा भटक गई; और भटक गई शब्द-जाल में और इसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। उससे तो रमण कीमती हैं। एकदम कीमती हैं बहुत। लेकिन आप जानें, वह क्या कहते हैं, क्या नहीं कहते हैं। लेकिन खोजने सदा जिंदगी में जाएं, व्यक्तियों के पास न जाएं। हां, जिंदगी में व्यक्ति भी मिलते हैं, तो दूसरी बात है; बाकी हम नहीं जाते व्यक्तियों के पास। जिंदगी में तो व्यक्ति मिलेंगे ही। अरविंद भी मिल सकते हैं किसी रास्ते पर और रमण भी मिल सकते हैं, लेकिन अरुणाचल न जाएं, पांडिचेरी न जाएं।
जिंदगी के रास्ते पर सब मिल जाते हैं। क्योंकि जब आप पांडिचेरी जाएं और अरुणाचल जाएं; किसी के पास जाते हैं, तब सारी जिंदगी की आप निंदा कर जाते हैं कि यहां नहीं है, इसलिए वहां जा रहे हैं। रवींद्रनाथ का एक गीत है। उन्होंने बुद्ध के खिलाफ यशोधरा से कहलवाया। जब बुद्ध वापस लौटे हैं बारह वर्षों के बाद, ज्ञानी होकर, तो यशोधरा उनसे कहती है कि मैं तुमसे एक ही बात जानना चाहती हूं कि जो तुम्हें वहां मिला, क्या वह यहां नहीं था? इतना ही भर मुझे कह दो कि जो तुम्हें वहां मिला, वह यहां नहीं था? और बुद्ध नहीं कह पाए कि जो वहां मिला, वह यहां नहीं था। वह यशोधरा कहती है, फिर क्यों हट कर गए उसके लिए, जो यहीं था।
नहीं, किसी व्यक्ति के पास नहीं कुछ मिलेगा। मिलता है हमारी ओपननेस से कि हम कितने खुले हैं। हर दोराहे पर ओपननेस का मौका आता है, लेकिन जल्दी ही हम फिर क्लोज कर लेते हैं। और क्लोज करने के लिए हम जल्दी उपाय खोजते हैं। चैराहा जब जिंदगी में आता है, फिर निर्णय लेने पड़ते हैं कि अब क्या करें? क्योंकि कल के सब निर्णय गलत हो गए, कल के सब कनक्लूजन खो गए। कल की यात्रा एकदम टूट गई, आगे कोई मंजिल नहीं है। अब हम फिर से कोशिश करते हैं कि जल्दी से फिर सब व्यवस्थित हो जाए। फिर कोई आदमी मिल जाए; कोई किताब मिल जाए; कोई मंत्र मिल जाए; फिर पकड़ जाए। अराजकता में जीना नहीं चाहते।
और मेरी अपनी समझ यह है कि जो अराजकता में जीएगा, वही परमात्मा तक पहुंच सकता है, अराजकता में। अगर दोराहा आ गया तो ठीक है। लेकिन दोराहे क्यों कह रहे हैं आप? अभी दोराहे आ जाएं, तो उसमें यह चुन लें, कि यह चुन लें, कि यह चुन लें। नहीं, सच तो यह है कि जिंदगी के हर महत्वपूर्ण क्षण पर राहें खो जाती हैं, दोराहे नहीं आते। एकदम से पाथलेस हो जाता है। कोई रास्ता ही नहीं रहता। जिंदगी के सभी महत्वपूर्ण मोमेंट्स में वक्त आता है, जब कोई रास्ता ही नहीं रह जाता है। पुराना रास्ता गिर जाता है, नया कोई रास्ता नहीं होता। कहीं जाने को नहीं दिखाई पड़ता। हम कहते हैं इसको दोराहा, चैराहा। इसको कहना नहीं चाहिए। चार राहें भी नहीं होतीं। असल में सब राहें ही गिर गई होती हैं, कोई राह ही नहीं होती है।
और अराजकता में हम जीना नहीं चाहते, इसलिए हम जल्दी पूछते हैं, कहां है रास्ता; कहां है गुरु? फिर वह रास्ता मिल जाए, हम फिर व्यवस्थित हो जाएं, फिर चल पड़ें। लेकिन क्या हर्ज है? बिना राह के क्यों न जीएं? और जिंदगी बिलकुल बिना राह के है। क्या हर्ज है, बिना मंजिल के क्यों न जीएं?
इधर मैं निरंतर इस पर सोचता हूं कि जो आदमी भी मंजिल बना कर जीता है, वह जीता ही नहीं, क्योंकि उसका असली जीवन तो मंजिल में होता है, जो अभी है नहीं। सिर्फ वही आदमी जीता है, जिसकी कोई मंजिल ही नहीं है; जो अभी जीता है। कहीं पहुंचना है जिसको, वह जी न पाएगा; वह भागता रहेगा। जिसको कहीं पहुंचना ही नहीं है, वह क्या करेगा, कहां जाएगा? वह जहां रहेगा, वहीं जीएगा। और जीने के सिवा कोई उपाय नहीं है उसके पास।
तो मैं तो नहीं कहता कि उद्देश्य बनाएं, लक्ष्य बनाएं, कि मंजिल बनाएं। ये सब गैर-आध्यात्मिक बातें हैं--मंजिल, लक्ष्य, उद्देश्य। इनका कोई मतलब नहीं है। इसे जीएं, जैसा है। और रोज ही तो हम वहां खड़े हैं, जहां कोई डिसीजन नहीं है, तो इनडिसीजन में जीएं। डिसीजन लें क्यों, निर्णय क्यों करें? और अरविंद ने क्या किया है आपका, उनके पीछे क्यों जाएं? उनका क्या कसूर है?

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