कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 16 अगस्त 2018

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन--बिन दरसन भई बावरी

सारसूत्र:

बिन दरसन भई बावरी, गुरु द्धौ दीदार।।
ठाढ़ि जोहों तोरी बाट मैं, साहैब चलि आवो।
इतनी दया हम पर करौ, निज छवि दरसावो।।
कोठरी रतन जड़ाव की, हीरा लागे किवार।
ताला कुंजी प्रेम की, गुरु खोलि दिखावो।।
बंदा भूला बंदगी, तुम बकसनहार।
धरमदास अरजी सुनो, कर द्यो भवपार।।

मैं तो तोरे भजन-भरोसे अविनासी।।
तीरथ बरत कछू नहिं करहूं, वेद पढ़ौं नहिं कासी।
जंत्र मंत्र टोटका नहिं जानौ, निसदिन फिरत उदासी।।
यहि घटि भीतर बधिक बसत है, दिए लोभ की टाटी।
धरमदास बिनवै कर जोरी सतगुरु चरनन दासी।।


अब मोहिं दरसन देहुं कबीर।।
तुम्हरे दरस से पाप कटत हैं, निरमल होत सरीर।
अमृत भोजन हंसा पावै, सब्द-धुनन की खीर।।
जहं देखो जहं पाट पटंबर, ओढ़न अंबर चीर।
धरमदास की अरज गोसाईं, हंस लगावो तीर।।

बिन दरसन भई बावरी, गुरु द्धौ दीदार।।

आज के सूत्र अपूर्व हैं। समझ से समझने के काम के नहीं हैं, नासमझी से समझने के काम के हैं। जो नासमझ हैं वे ही समझ सकेंगे। जो समझदार हैं वे चूक जाएंगे। समझ से क्षुद्र बातें समझी जाती हैं। नासमझ से विराट समझा जाता है।
ज्ञान से बाहर की यात्रा होती है, अज्ञान से भीतर की। ज्ञान से पर जाना जाता है। स्व के मार्ग में ज्ञान बाधा हो जाता है। वहां तो चाहिए निर्दोष चित्त, छोटे बच्चों जैसा भाव।
धन्यभागी है वह, जिसे वैसा भाव मिले। न मिले तो उस भाव की तलाश करनी चाहिए। ये सूत्र भावुक हृदय के लिए अपूर्व इशारे हैं। इनमें पूरी मंजिल पूरी हो जाती है।
बिन दरसन भई बावरी,...
मैं तुझे देखे बिना पागल हुआ जाता हूं।
आश्चर्य है कि मनुष्य परमात्मा को बिना देखे जी कैसे लेता है? एक क्षण भी जीने योग्य नहीं है। जिसने उसे नहीं जाना वह क्यों जी रहा है, यह विचारणीय है, आश्चर्य की बात है। और जिस दिन तुम जानोगे उसे, उस दिन तुम्हें भरोसा न आएगा कि इस जानने के पहले तुम जी कैसे लिए! किस सहारे जी लिए? किस आधार पर जी लिए? किस हेतु से जी लिए?
लेकिन जब तक उसका दर्शन नहीं मिला है तब तक हमें याद ही नहीं है, स्मरण ही नहीं है कि हम क्या हो सकते हैं! बीज जब तक टूटा नहीं तब तक उसे पता भी कैसे हो कि कौन सी अनंत संभावनाएं उसके भीतर छिपी हैं। पक्षी जब तक उड़ा नहीं, उसे कैसे पता हो आकाश का आनंद, मुक्ति का आनंद, स्वातंत्र्य का आनंद? जब तक प्रेम न चखा हो तब तक प्रेम के स्वाद का पता भी कैसे लगे!
हां, एक बार झलक मिल जाए फिर पागलपन पैदा होता है। एक बार झलक मिल जाए तो फिर प्यास जगती है। और ऐसी जगती है कि फिर बुझाए नहीं बुझती।
सदगुरु के संग-साथ, सदगुरु के पास, सदगुरु के निकट रहते-रहते कभी सदगुरु के भीतर जो घटा है, एक पलक को सही, बिजली की तरह शिष्य के सामने भी कौंध जाता है। यही सत्संग का राज है।
सत्संग संक्रामक है। बीमारियां ही नहीं लगतीं एक-दूसरे से, स्वास्थ्य भी लगता है। और संसार ही एक-दूसरे से नहीं लग जाता, सत्य भी लगता है। तुम जरा अपनी जीवन-प्रक्रिया को देखो। कोई धन कमाने निकला था, किसी को धन कमाते देख कर तुम धन कमाने में लग गए हो। कोई पद के लिए आतुर था, उसकी आतुरता तुम्हें भी पकड़ गई है, तुम भी पद के पीछे चल पड़े हो।
तुम सीखते कहां हो? सीखते किससे हो? जो भी तुम जानते हो जीवन के संबंध में वह आस-पास से आता है; किसी से आता है।
सत्संग का अर्थ हैः किसी ऐसे व्यक्ति के पास होना जिसकी आंखों में परमात्मा भर गया है। उसके पास रहना काफी है। कुछ और करने की जरूरत नहीं है। उसके पास उठना, बैठना। यह अवसर जितना मिले उतना अच्छा है। क्योंकि कब किस क्षण में तुम्हारा हृदय ग्राहक होगा, किस क्षण में जो गुरु में घटा है वह तुममें छलांग लगा जाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। कभी तुम खुले होते हो, कभी तुम बंद होते हो। कभी तुम लेने को तैयार होते हो, कभी तुम लेने को तैयार नहीं भी होते हो। कभी तुम्हारे मन में हजार-हजार विचारों की तरंगें होती हैं। तब तुम गुरु के पास होकर भी दूर हो। लेकिन कभी ऐसे क्षण भी आ जाते हैं जब विचार की तरंगें नहीं होतीं या बहुत कम होती हैं; न के बराबर होती हैं। उसी क्षण, वह जो गुरु के भीतर उमगा है, उसकी कुछ बूंदें, तुम्हारे कंठ में भी उतर जाती हैं। उसी क्षण जो रोशनी गुरु के भीतर जगी है, वह तुम्हारे अंधेरे को भी पार कर जाती है, बिजली की तरह कौंध जाती है।
बस, उसके बाद फिर दर्शन की इच्छा जगती है। उसके पहले तो दर्शन सब बातचीत है। जिसे तुमने देखा ही नहीं है, जिसका तुम्हें कोई अनुभव नहीं है उसके लिए तुम प्यासे भी कैसे हो सकते हो? तब तक तुम्हारी सब पूजा और प्रार्थना झूठी है। तब तक तुम जिन मंदिरों में जाते हो, मस्जिदों में जाते हो, गुरुद्वारों में, वह जाना औपचारिक है। एक संस्कार है सामाजिक, तुम उसे पूरा कर देते हो।
मंदिर-मस्जिदों से नहीं होगा, जीवित मंदिर खोजो। पत्थर की दीवालों से नहीं होगा, कहीं जहां परमात्मा अभी भी धड़क रहा हो, किन्हीं आंखों में झांको, जिन आंखों में परमात्मा झांका हो। किन्हीं आंखों में झांको, जो आंखें परमात्मा में झांक चुकी हों। किसी ऐसे के संग-साथ हो लो, सौभाग्य के किसी क्षण में उसका मतवालापन तुम्हें भी पकड़ लेगा। सौभाग्य के किसी क्षण में एक झंझावात की तरह तुम्हारे चारों तरफ ऊर्जा का प्रवाह होगा। तुम एक अंधड़ में फंस जाओगे। एक अंधड़ जो तुम्हें अनंत की यात्रा पर ले जा सकता है।
तब दर्शन की इच्छा जगती है। गुरु की आंख में झांक कर परमात्मा में झांकने की अभीप्सा पैदा होती है। फिर चैन नहीं। फिर बावरापन है।
बिन दरसन भई बावरी,...
इसका अर्थ समझ लेना। इसका अर्थ यह है कि प्राथमिक घटना घट चुकी है। एक बार झलक मिल चुकी है। अब दर्शन की इच्छा है। थोड़ा सा स्वाद लग गया है। ओंठों ने थोड़ा सा रस पी लिया है, अब और पीने की इच्छा है। अब बिना पीए नहीं रहा जाता।
मेरा जौके-दीद आजमाके तो देखें
जरा रुख से पर्दा उठाके तो देखें
तब भक्त कहता है, जरा मेरी प्यास को आजमाओ। जरा मेरी अभीप्सा को परखो। यह जो मेरे प्राणों में जल रही है उत्कंठा, जरा इसकी तरफ देखो।
मेरा जौके-दीद आजमाके तो देखें
जरा रुख से पर्दा उठाके तो देखें
परमात्मा को चुनौती देना शुरू करता है भक्त। फुसलाता है, मनाता है, झगड़ता है, पुकारता है। कभी नाराज होकर चुप हो जाता है, नहीं पुकारता। कभी रोता है, कभी पीठ फेर लेता है। ये सारी भक्ति की भाव-भंगिमाएं हैं। जैसे प्रेमी झगड़ते हैं, भक्त भगवान से झगड़ता है।
मैं न कहता था, उठाओ तुम न आरिस से नकाब
देख लो वे सुबह के फीके उजाले पड़ गए
मैं न कहता था, उठाओ तुम न आरिस से नकाब
देख लो वे सुबह के फीके उजाले पड़ गए
कई तरह से फुसलाता है, चुनौती देता है कि तुम्हारी झलक अगर मिल जाए तो चांद-तारे फीके पड़ जाएं। तुम्हारी झलक अगर मिल जाए तो सूरज अंधेरा हो जाए। तुम जरा पर्दा उठाओ।
मुझको यह आरजू कि उठाएं नकाब खुद
उनको यह इंतजार, तकाजा करे कोई
ऐसा दोनों के बीच, सीमा और असीम के बीच, क्षुद्र और विराट के बीच, बूंद और सागर के बीच बहुत गुफ्तगू चलती है, बहुत वार्ता होती है, बहुत चर्चा होती है।
भक्त रोता है। और करे भी क्या? आंसू ही प्रार्थना बन सकते हैं। और भक्त के पास है भी क्या?
आज उस बज्म में तूफान उठा कर उठे
यां तलक रोए कि उनको भी रुला कर उठे
और जब तक भक्त को अनुभव नहीं होने लगता कि मेरे आंसुओं के उत्तर आने लगे; कि इधर मैं रो रहा हूं, इधर अस्तित्व रोने लगा, तब तक भक्त चैन नहीं लेता।
बिन दरसन भई बावरी,...
ऐसे पागल तुम हो जाओ तो परमात्मा मिलता है। यह कीमत चुकानी ही पड़ती है। मुफ्त यहां कुछ भी नहीं है। अक्सर लोग संसार की क्षुद्र चीजों के लिए बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हैं और परमात्मा के लिए कोई कीमत चुकाने को तैयार नहीं हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, परमात्मा कहां है? हम देखना चाहते हैं। मैं उनसे पूछता हूं, चुकाने की क्या तैयारी है? चुकाने के संबंध में वे कहते हैं, हमने सोचा ही नहीं; हमने विचार ही नहीं किया। हम तो परमात्मा को देखना चाहते हैं, है भी?
मगर मूल्य क्या चुकाओगे? परम प्यारे को खोजने चले हो, जो भी तुम्हारे पास है, सब दे देना होगा। सर्वहारा हो जाओगे तो ही उसे पाओगे। ऐसी घड़ी जरूर आती है जब तुम्हारा रुदन तुम्हारे रोएं-रोएं से होता है तो उस तरफ भी आंसू टपकते हैं। वृक्ष रोते हैं और चांद-तारे रोते हैं। इस जगत में तुम्हारे भीतर उठे प्रश्नों के उत्तर छिपे हैं। यह जगत प्रतीक्षा कर रहा है कि तुम पुकारो तो उत्तर आए। यह जगत तुम्हारे प्रति उपेक्षा से भरा हुआ नहीं है।
यही परमात्मा मानने का अर्थ है। परमात्मा मानने का यह अर्थ नहीं होता कि ऊपर कोई एक वृद्ध पुरुष बैठा है, जो सारे जगत को चला रहा है। वे तो बच्चों की कहानियां हैं। आस्तिक भी उनमें उलझे हैं, नास्तिक भी उनमें उलझे हैं। बच्चों की कहानियां हैं।
परमात्मा के मानने का सार-अर्थ क्या होता है? इतना ही अर्थ होता है कि यह अस्तित्व हमारे प्रति उपेक्षा से भरा हुआ नहीं है। यह अस्तित्व हममें रस रखता है; इतना ही अर्थ है। यह अस्तित्व हममें उत्सुक है। यह हमारे विकास में उत्सुक है। यह हमारे चरम उत्कर्ष में उत्सुक है। यह हमें जीवन की परम आनंद की यात्रा पर ले जाना चाहता है।
हमारे प्रति जगत तटस्थ नहीं है--परमात्मा के मानने का इतना ही अर्थ है। अगर हम रोएंगे तो कोई हाथ इस अस्तित्व से उठेगा हमारे आंसुओं को पोंछने को। मगर रोना आना चाहिए। झूठे आंसुओं से काम नहीं होगा। थोथे आंसुओं से काम नहीं होगा। नकली अभिनय के आंसू काम नहीं करेंगे।
आज उस बज्म में तूफान उठा कर उठे
यां तलक रोए कि उनको भी रुला कर उठे
तब प्रार्थना पूरी होती है। तब तुमने कीमत चुकाई।
कितने शबे-फिराक बहे अश्क ऐ चमन
रोया हूं किस कदर यह सितारों से पूछिए
चांद-तारे हिसाब रखते हैं। यह अस्तित्व तुम्हारे आंसुओं का हिसाब रखता है। तुम्हारे व्रत-उपवासों का नहीं, लेकिन तुम्हारे आंसुओं का जरूर हिसाब रखता है। तुम्हारे पूजा-पाठों का नहीं, काशी और काबा की यात्रा का नहीं, लेकिन तुम्हारे आंसुओं का जरूर हिसाब रखता है। क्योंकि आंसू आत्मिक हैं। वही तुम्हारे जीवन का पुण्य है।
सम्यक रूप से जिसे रोना आ गया उससे परमात्मा ज्यादा देर छिपा नहीं रह सकता। उसे पर्दा उठाना ही पड़ेगा।
बाजी बदी थी उसने मेरे चश्मे-सर के साथ
आखिर को हार-हार कर बरसात रह गई।
इन दो छोटी आंखों से आकाश हराया जा सकता है। इन दो छोटी आंखों के आंसू आकाश से होने वाली वर्षा को फीका कर सकते हैं।
तुम्हारे इस हृदय में ऐसा सूरज छिपा है कि सारे सूरज फीके हो जाएं। और तुम्हारे इस हृदय में प्रेम की एक ऐसी संभावना छिपी है कि परमात्मा अपने आप खिंचा चला आए। लेकिन तुम अपनी संभावनाओं को जगाओ, उकसाओ।
तुम पत्थर की तरह पड़े हो। इस पत्थर से परमात्मा का मिलना नहीं हो सकता। तुम अति कठोर हो गए हो। तुम्हारे हृदय ने न मालूम कब से धड़कना बंद कर दिया है। तुम्हें रोमांच नहीं होता। तुम्हारे जीवन में कोई रहस्य नहीं है। तुम्हारा दर्पण इतनी धूल से जम गया है कि अब इसमें कोई प्रतिबिंब नहीं बनता। यह धूल झाड़ो। आंसू ही इस धूल को बहा ले जा सकेंगे।
और देखना, सस्ता मामला नहीं है। बाजी! दांव! खतरा है। क्योंकि जिस दिन तुम उसे देखोगे, उसके देखने में ही तुम मिट जाओगे और मर जाओगे। तुम, तुम रहकर उसे न देख पाओगे। इसीलिए पागल ही उसे देख सकते हैं। क्योंकि अपने को मिटाने की हिम्मत समझदारों में नहीं होती, हिसाब-किताब लगानेवाले दुकानदारों में नहीं होती।
पहले सौ बार इधर-उधर देखा है
जब तुझे डरके एक नजर देखा है
उसके पास जाने वाले को हजार तरह के भय पकड़ते हैं। सबसे बड़ा भय तो यही पकड़ता है कि मैं मिटा, मैं मिटा। बड़ा भय तो यह पकड़ता है। जैसे कोई दीया, मिट्टी का दीया, छोटी सी रोशनी वाला दीया सूरज से मिलने जाए तो सूरज के सामने एकदम फीका हो जाएगा, ना-कुछ हो जाएगा। है भी या नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
नहीं कि दीया मिट जाता है। दीया है अब भी, उतनी ही रोशनी है, मगर अब इस सूरज के सामने इस रोशनी का क्या मूल्य है? इस रोशनी का क्या अर्थ?
परमात्मा के सामने हम ऐसे ही फीके हो जाते हैं। तो जो जरा भी अहंकार से भरा है वह उससे बचता है। वह भागता है। वह दूर रहता है। वह पीठ किए रहता है। अहंकारी ही नास्तिक हो जाता है।
लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुममें से जो आस्तिक हैं वे आस्तिक हैं। आस्तिक तो मुश्किल से कभी कोई होता है। दुनिया में नास्तिक हैं और झूठे आस्तिक हैं। आस्तिक तो कोई मुश्किल से कभी होता है।
नास्तिक वह है, जिसने पीठ कर ली है। कम से कम ईमानदार है। कहता है, ईश्वर है ही नहीं। आस्तिक वह है, जो उतनी ही पीठ किए हुए है--झूठा आस्तिक, जो तुम्हें दुनिया में मिलेगा, चारों तरफ है। हर बाजार में, हर दुकान में, हर मकान में, हर मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे में। यह जो झूठा आस्तिक है, इसने भी पीठ की है ईश्वर की तरफ। लेकिन यह और भी ज्यादा चालबाज है, यह नास्तिक से ज्यादा चालबाज है। इसने एक झूठा ईश्वर बना लिया है, उसके सामने मुंह किए हुए है। असली की तरफ पीठ किए हुए है, झूठ के सामने मुंह किए हुए है।
तुमने मंदिर-मस्जिदों में जो मूर्तियां बना ली हैं वे तुम्हारे हाथ के खिलौने हैं। छोटे बच्चे अपने गुड्डा-गुड्डियों का विवाह करते हैं और तुम राम-सीता का विवाह करके बारात निकालते हो। क्या फर्क है? तुम्हारे जीवन में प्रौढ़ता कभी आएगी या नहीं आएगी? मंदिरों में तुम जिन मूर्तियों को पूज रहे हो वे तुम्हारे हाथ की बनाई हुई मूर्तियां हैं। उसको खोजो जिसने तुम्हें बनाया है। तुम उसकी पूजा कर रहे हो जिसे तुमने बना लिया है। तुम्हारा बनाया हुआ झूठ होगा, कृत्रिम होगा।
उन मूर्तियों को मूर्तिकला कहो तो मैं राजी; धर्म मत कहो। वे मूर्तियां प्यारी हो सकती हैं, सुंदर हो सकती हैं, मगर उनका संबंध सौंदर्यशास्त्र से है, धर्म से नहीं। धार्मिक होने के लिए तो नग्न होकर उसके सामने होना पड़ेगा, जो है।
बड़ी हिम्मत चाहिए। बड़ा पागलपन चाहिए। सब तरह से मिटने की शक्ति चाहिए, साहस चाहिए। और बहुत बार ऐसा लगेगा कि लौट जाएं।
पहले सौ बार इधर-उधर देखा है
जब तुझे डरके एक नजर देखा है
मगर वह एक नजर बस काम कर जाती है। उस एक नजर में ही एक संसार का अंत हो जाता है और दूसरे जगत का प्रारंभ हो जाता है। उस एक नजर में ही यह मिट जाता है, वह प्रकट हो जाता है। उस एक नजर में ही तुम अचानक पाते हो, इस किनारे पर न रहे, उस किनारे पर हो गए।
मगर बहुत बार पीड़ा भी होती है। बहुत बार आदमी कंपता भी है, डरता है। रोज मेरे पास, जो लोग ध्यान में गहरे उतरते हैं, वे रोज आकर यही कहते हैं। जब किसी के जीवन में घटना करीब आने लगती है, वह कंपने लगता है। वह आकर कहने लगता है कि अब मुझे बचाओ। अब तो मुझे लगता है, या तो मैं पागल हो जाऊंगा या मर जाऊंगा। कुछ हो रहा है, जो मेरे बस के बाहर है।
परमात्मा जब होता है तो तुम्हारे बस के बाहर होता है। तुम्हारे बस के भीतर कैसे हो सकता है? तुम उस पर मुट्ठी नहीं बांध सकते। वह तो आता है बाढ़ की तरह। विराट की तो बाढ़ ही होगी। रिमझिम वर्षा नहीं होती, मूसलाधार होती। आता है उमड़ते सागर की तरह। ले जाएगा तुम्हें और तुम्हारा सब।
कई बार तुम्हें लगेगा कि ऐसा क्यों? परमात्मा को तो हमने सोचा था, एक सांत्वना की तरह आएगा। परमात्मा आता है संक्रांति की तरह; सांत्वना की तरह नहीं। हमने तो सोचा था, परमात्मा आएगा तो जीवन की जो चीजें हमें नहीं मिल रही हैं, मिल जाएंगी। लेकिन परमात्मा जब आता है तो तुम्हारे पास जो है उसे भी ले लेता है क्योंकि तुम्हें पता ही नहीं है अभी कि तुम कूड़ा-करकट इकट्ठा कर रहे हो। उस बाढ़ में तुम भी जाओगे, तुम्हारा कुड़ा-करकट भी चला जाएगा।
यही है आजमाना तो सताना किसको कहते हैं?
अदू के हो लिए जब तो मेरा इम्तहां क्यों हो?
और भक्त बहुत बार सोचता है कि अगर यह आजमाना है, परीक्षा हो रही है तो फिर सताना किसको कहते हैं?
अदू के हो लिए जब तो मेरा इम्तहां क्यों हो?
और भक्त कहता है, जब मैं तुम्हारा हो गया तो मेरा इम्तहान क्यों होता है? लेकिन उसके होते-होते-होते बहुत समय लगता है।
हम इंच-इंच छोड़ते हैं। हममें से बहुत कम इतने साहसी होते हैं जो इकट्ठा छोड़ देते हैं, छलांग लगा जाते हैं। हम फुट कर-फुट कर छोड़ते हैं। जरा-जरा एक-एक इंच सरकते हैं, बामुश्किल सरकते हैं। इसलिए इतनी लंबी परीक्षा मालूम होती है।
मगर धनी धरमदास निश्चित पागल रहे होंगे। पागलों का ही यह काम है। उन्हीं का यह धन्यभाग है। सब दांव पर लगा दिया था। कुछ भी बचाया नहीं था। जब तक तुमने कुछ बचाया, उतनी ही दीवाल रहेगी। जब तक तुमने कहा कि इतना तो बचा लूं, कभी समय पर, असमय में काम पड़ेगा; उतनी दीवाल रहेगी। जितना बचाया, वही तुम्हारे और परमात्मा के बीच दीवाल रहेगी।
बिन दरसन भई बावरी, गुरु द्धौ दीदार।।
धरमदास कहते हैं, अब और क्या चाहिए? पागल हो गया हूं। सब गंवा बैठा हूं। अब तो दर्शन दो!
जो सब गंवा देता है, सब लगा देता है और झलक नहीं पाता उसकी तकलीफ समझो। तुम तो बिना कुछ लगाए उसकी आकांक्षा करते हो। सब कुछ लगाने वाले को भी एकदम से नहीं मिल जाता। सब कुछ लगाने वाले को भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वे ही प्रतीक्षा के क्षण श्रद्धा के क्षण हैं। तब श्रद्धा बड़ी डगमगाती है। मन हजार तरह की शंकाएं उठाने लगता है कि इधर सब दांव पर लगा दिया है, यहां कुछ मिला भी नहीं। न घर के रहे, न घाट के। संसार भी गया, निर्वाण का कुछ पता नहीं चल रहा है। तो लोग ठीक ही कहते थे कि तुम पागल हो गए हो।
बिन दरसन भई बावरी, गुरु द्धौ दीदार।।
जो सब लगा चुका है उसकी हालत वैसी है--
उसी के दिल से पूछो लज्जतें नाकामयाबी की
सफीना जिसका पानी में रहा टकरा कर साहिल से
आते-आते-आते और किनारे से टकरा गए। और सफीना फिर दूर हट गया किनारे से टकरा कर। सब जो गंवा चुका है, उसे लगता था आया किनारा, आया किनारा। वह आखिरी परीक्षा की घड़ी है, जब किनारे से सफीना टकरा कर फिर दूर हट जाता है। सब दांव पर लगाया हुआ व्यक्ति भी एक चीज अभी बचा रखा है। तुम चैंकोगे। जब मैं कह रहा हूं, सब दांव पर लगा दिया तो क्या बचाया? अगर सब दांव पर लगा दिया यह बात सच है तो फिर कुछ नहीं बचाया। लेकिन फिर भी कुछ बचाया है। कुछ घटनाएं समझोगे, खयाल में आएगा।
रिंझाई अपने गुरु के पास था। उसने सब दांव पर लगा दिया था, सब छोड़ दिया था। ऊपर-ऊपर का ही नहीं, भीतर का भी सब छोड़ दिया था। विचारों का भी त्याग कर दिया था। कोई छह वर्ष की लंबी ध्यान की प्रक्रिया के बाद वह घड़ी आ गई, जब उसे भीतर शून्य का अनुभव हुआ। कुछ नहीं बचा। सन्नाटा छा गया।
वह भागा गुरु के चरणों में गया, उनके चरणों पर गिर पड़ा। और उसने कहा कि मैं शून्य हो गया हूं। गुरु ने कहा, इसको भी छोड़ दे।
मतलब समझे? वह कह रहा है, मैं शून्य हो गया हूं, सब मैंने छोड़ दिया। गुरु कहता है, इसको भी छोड़ दे। बस यह एक चीज और बच गई--यह सब छोड़ने का भाव। एक बहुत धीमी, फीकी, छिपी, सूक्ष्म अहंकार की स्थिति बची रह गई कि मैंने सब छोड़ दिया। यह मैं--यह भी जाना चाहिए। सब तो छूटे ही, सब छूटा है ऐसा भाव भी जाना चाहिए। सब छोड़ने के बाद यह भाव पकड़ लेता है। यह आखिरी जकड़ है संसार की।
और जब कोई किनारे से टकरा कर फिर धार में उलझ जाता है, उसकी पीड़ा समझो। जिसे एकाध झलक मिल गई है परमात्मा की और फिर दूरी बढ़ने लगती है, उसकी तकलीफ समझो।
हर शम्त तीरगी है जहाने-हयात में
जैसे गुजर कर आए हैं एक रोशनी से हम
कभी-कभी देखा? बहुत गहरी रोशनी के बाद इतना अंधेरा हो जाता है। रास्ते पर तुम चल रहे हो, कोई तेज कार अपना पूरा प्रकाश तुम्हारी आंखों में फेंकती हुई गुजर जाती है। ऐसे अंधेरा था लेकिन फिर भी तुम चल रहे थे और कुछ-कुछ दिखाई पड़ता था। लेकिन यह कार जो आंखों में तेज रोशनी डाल कर गुजर गई है, यह भयंकर अंधेरे में छोड़ जाती है।
भक्त ही जानता है असली अंधेरे को। तुम तो अंधेरे में चलने के आदी हो तो अंधेरे में तुम्हें थोड़ी-थोड़ी रोशनी है। जब परमात्मा की झलक मिलती है, भक्त एकदम से जैसे अंधा हो जाता है। फिर यहां कुछ भी नहीं सूझता। फिर यहां एक पल ठहरने का कोई अर्थ नहीं मालूम होता। एक सांस लेने का कोई प्रयोजन नहीं मालूम होता।
पर्दे से एक झलक जो वो दिखला कर रह गए
मुश्ताके-दीद और भी ललचा कर रह गए
तब आंखें और अभीप्सा से भर जाती हैं।--मुश्ताके-दीद और भी ललचा कर रह गए।
बिन दरसन भई बावरी, गुरु द्धौ दीदार।।
ठाढ़ि जोहों तोरी बांट मैं, साहैब चलि आवो।
इस छोटे से वचन में प्रार्थना का सारा शास्त्र है।
ठाढ़ि जोहों तोरि बांट मैं, साहैब चलि आवो।
इस एक वचन को तुमने समझ लिया तो भक्ति के संबंध में समझने को कुछ बचता नहीं। समझो।
ठाढ़ि--पहली तो बात यह है कि भक्त खड़ा हो जाना चाहिए। दौड़ बंद हो जानी चाहिए। दौड़ का अर्थ होता है यह मिल जाए, वह मिल जाए, यह कर लूं, वह कर लूं। आपा-धापी! संसार उन लोगों से भरा है जो दौड़ रहे हैं। भागे जा रहे हैं। जो कभी खड़े ही नहीं होते। रात सोते भी हैं तो भी दौड़ जारी रहती है। शरीर गिर जाता है थक कर लेकिन मन दौड़ता रहता है।
जब तक वासना है तब तक दौड़ है। और ध्यान रखना, तुम तो मंदिर में प्रार्थना करते हो तब भी दौड़ जारी रहती है। तुम्हारी प्रार्थना भी वासना का ही एक ढंग है। उसमें भी तुम कुछ मांगते हो--कि नई दुकान खोली है, सफलता मिले; कि बेटे का विवाह करना है, लड़की मिले; कि बेटा पढ़-लिखकर विश्वविद्यालय से आ गया है, नौकरी मिले। कहीं छिपी हुई--चाहे कहो और चाहे न कहो, छिपी हुई वासना होती है। वही वासना तुम्हारी प्रार्थना की हत्या कर देती है। प्रार्थना का गर्भपात हो गया। प्रार्थना जन्मी ही नहीं। वासना ने गर्दन दबा दी।
वासना यानी दौड़। वासनाग्रस्त चित्त दौड़ता है, प्रार्थना से भरा चित्त ठहरता है। इस संसार में कुछ पाना हो तो दौड़ना जरूरी है और परमात्मा को पाना हो तो ठहरना जरूरी है। इस सूत्र को खयाल में ले लेना। दौड़ने से वस्तुएं मिलती हैं, ठहरने से वस्तुओं का मालिक मिलता है। दौड़ना संसार की विधि है, ठहरना धर्म की। दौड़े तो संसार में बहुत कुछ पाओगे लेकिन परमात्मा को चूक जाओगे। और सारा जगत मिल जाए, परमात्मा न मिले तो क्या मिला? परमात्मा मिल जाए तो सब मिल गया; सब ना भी मिले तो भी मिल गया। इसलिए हमने भिखारियों को सम्राट कहा है और सम्राटों को भिखारी जाना है।
ठाढ़ि--तो पहला सूत्र हुआ प्रार्थना काः ठहर जाओ। कुछ न मांगो। कोई विचार नहीं, कोई वासना नहीं।
जोहों तोरी बांट मैं--मांग में आक्रमण है। प्रार्थना में आक्रमण नहीं है, केवल जोहना है--बांट जोहना। जैसे कोई अपने प्यारे की राह देखता है द्वार खोलकर। सिर्फ राह, प्रतीक्षा।
प्रतीक्षा प्रार्थना का दूसरा तत्व है। पहला तत्वः ठहर जाओ; स्थिरता। जिसको कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ कहा है--जिसकी प्रज्ञा ठहर गई है, अडिग हो गई है। निष्कंप हो गया जो। जैसे किसी गृह में, जहां हवा के झोंके न आते हों, दीया जलता है निष्कंप। उसकी लौ कंपती नहीं। ऐसी जिसकी प्राण-ऊर्जा ठहर गई।
ठाढ़ि जोहों तोरी बांट मैं...
भेद समझना। मांग नहीं है कोई, सिर्फ प्रतीक्षा है। आओ तो धन्यभाग। न आओ तो कोई शिकायत नहीं। आओ तो स्वागत, न आओ तो प्रतीक्षा जारी रहेगी। अनंत प्रतीक्षा का धैर्य चाहिए तो इस क्षण भी घटना घट जाती है। जिसके पास धैर्य है उसके पास परमात्मा को खींच लेने का चुंबक है।
ठाढ़ि जोहों तोरी बांट मैं, साहैब चलि आवो।
और भक्त कहता है, मैं तो तुझे खोजने कहां आऊं? तेरा तो कुछ पता-ठिकाना नहीं। और तू तो विराट है। यूं तो कहो तो सब जगह है और खोजने जाओ तो कहीं मिलता नहीं है। मैं तुझे खोजने कहां आऊं? तेरा पता-ठिकाना भी मालूम नहीं, तेरा नाम-धाम भी मालूम नहीं। तुझे पहले कभी देखा भी नहीं। मिल भी जाएगा तो मैं पहचानूंगा कैसे? प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी कि हां, यही तू है? तो मैं तो अवश हूं। तू ही आए तो बात बने।
और ध्यान रखना, भक्तों की यही उदघोषणा है कि जब तुम तैयार होते हो, वह आता है। मनुष्य को परमात्मा के पास नहीं जाना पड़ता, परमात्मा ही मनुष्य के पास आता है। फूल थोड़े ही जाता है सूरज के पास, सूरज आता है। सूरज की किरण आती है अनंत की यात्रा करके, फूल को खोल जाती है। अगर फूल को जाना पड़े सूरज की यात्रा पर तो असंभव है मामला। यह हो नहीं पाएगा। कब पहुंचेगा? कैसे पहुंचेगा? और फूल अगर सूरज की यात्रा पर जाएगा तो जड़ों से टूट जाएगा, पृथ्वी से उखड़ जाएगा। पहुंचते-पहुंचते मर जाएगा।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, परमात्मा को खोजने जाने में भी अहंकार है। तुम सिर्फ उसे पुकारो कि वह आए। तुम जहां हो वहीं ठहर जाओ। ठहरने का मतलब यह है कि वह आए तो तुम घर में मिल जाओ। अक्सर यह होता है कि परमात्मा आया है लेकिन तुम घर पर नहीं थे।
इसे समझना। तुम जहां होते हो वहां तुम होते कहां हो? मंदिर में बैठे माला फेर रहे हो लेकिन वहां तुम कहां हो? मन तुम्हारा दुकान पर है, खाते-बही कर रहा है, दुकानदारी चला रहा है। तुम दुकान पर भी होते हो, ऐसा भी नहीं है; नहीं तो परमात्मा वहीं आ जाए। परमात्मा तुम्हारी दुकान से थोड़े ही डरता है। जब तुम दुकान पर हो, हो सकता है घर होओ। पत्नी से झगड़ा हो रहा है। जब तुम पत्नी के पास होते हो, वहां भी आ सकता है। परमात्मा को तुम्हारी पत्नी से कोई अड़चन नहीं है। वह कोई भगोड़ा संन्यासी नहीं है। लेकिन जब तुम पत्नी से बात कर रहे हो तब वहां कहां हो? तुम किसी सिनेमा में बैठे हो।
तुम जहां हो वहां नहीं हो, यह मजा है। और परमात्मा तुम्हें वहीं खोज सकता है जहां तुम हो। ठहरने का अर्थ है, तुम जहां हो वहीं हो गए। भोजन कर रहे हो तो वहीं तुम्हारी पूरी चेतना उपस्थित है। दुकान पर बैठे हो तो पूरी चेतना उपस्थित है। मंदिर गए हो तो पूरी चेतना उपस्थित है।
और जिसकी पूरी चेतना कहीं भी उपस्थित हो सकती है। उसे मंदिर जाने की जरूरत नहीं रह जाती। वह जहां है वहीं मंदिर है। उसके पैर जहां पड़ते हैं वहीं तीर्थ बन जाते हैं। वह जहां बैठ गया पालथी मार कर वहीं मंदिर खड़ा हो गया। उसकी मौजूदगी मंदिर है।
ठाढ़ि जोहों तेरी बांट मैं, साहैब चलि आवो।
तुम आओ, मैं राह देखूं।
और आखिरी बात इस सूत्र की है, जब भी भक्तों ने कोई गहरी बात कही है तो सदा अपने लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग किया है--बिन दरसन भई बावरी। मैं पागल हो गई हूं। धनी धरमदास कह रहे हैं, मीरा नहीं कह रही। मीरा कहे तो चलेगा कि मैं पागल हो गई हूं। धनी धरमदास कह रहे हैं, बिन दरसन भई बावरी। मैं पागल हो गई हूं।
ठाढ़ि जोहों तोरी बांट मैं...मैं तेरी राह देख रही हूं।
साहैब चलि आवो है...मेरे मालिक, तुम आ जाओ।
भक्त की भावदशा स्त्रैण है। जैसे स्त्री प्रतीक्षा करती है पुरुष की। पुरुष खोजता है। स्त्री पहल नहीं करती प्रेम में, पुरुष पहल करता है। स्त्री को लाख किसी से प्रेम हो जाए तो भी यह उसकी गरिमा और गौरव के खिलाफ है कि वह उसका पीछा करे। वह राह देखती है। वह उस शुभ मुहूर्त की राह देखती है जब पुरुष निवेदन करेगा। वह स्त्रैण लज्जा का हिस्सा है। वह स्त्रैण संकोच का हिस्सा है। और वह संकोच सुंदर है।
स्त्री अनाक्रामक है, पुरुष आक्रामक है। पुरुष खोज पर जाता है। स्त्री राह देखती है। स्त्री ग्राहक है। स्त्री गर्भ है, स्वीकार करती है। और जो भी स्त्री में पड़ जाता है वही जीवंत हो उठता है।
भक्त कहते हैं, परमात्मा को इस तरह पुकारो जैसे कोई स्त्री अपने गर्भ को भरने के लिए आतुर होती है। परमात्मा तुम्हारा गर्भ बन जाए, तुम्हें गर्भित कर दे। तुम जगह खाली करो अपने भीतर। तुम उसे निमंत्रण दो कि मेरे भीतर उतरो, मेरे मेहमान बनो। तुम मेजबान बनो, उसे मेहमान बनने दो।
ठाढ़ि जोहों तोरी बांट मैं, साहैब चलि आवो।
दीया खामोश है
लेकिन किसी का दिल तो जलता है!
ऐसा मत समझना कि यह खाली बैठे रहना सिर्फ खाली बैठे रहना है।
दीया खामोश है
लेकिन किसी का दिल तो जलता है!
चले आओ जहां तक रोशनी मालूम होती है।
बड़े चुपके-चुपके पुकार है। शब्द में भी बांधी नहीं जाती, सिर्फ हृदय में उठती एक गूंज है। स्थूल नहीं है, सूक्ष्म है।
इतनी दया हम पर करौ, निज छवि दरसावो।।
कोठरी रतन जड़ाव की, हीरा लागे किवार।
ताला कुंजी प्रेम की, गुरु खोलि दिखावो।।
यह वचन तो ऐसा अदभुत है कि मैं ऐसे वचन के करीब सिवाय धनी धरमदास के और किन्हीं के वचनों में नहीं आया। तुम चकित होओगे। तुम इसे ऐसे ही पढ़ जाओगे तो पता भी नहीं चलेगा।
ताला कुंजी प्रेम की, गुरु खोलि दिखावो।।
धरमदास कहते हैं, ताला भी प्रेम का है और कुंजी भी प्रेम की है। तुम्हारी जिंदगी उलझ गई है प्रेम के कारण ही और प्रेम के कारण ही सुलझ सकती है। ये बड़े अदभुत शब्द हैं। प्रेम ने ही उलझाया है, प्रेम ही सुलझाएगा। गलत से प्रेम हो जाए, उलझन हो जाती है। ठीक से प्रेम हो जाए, सुलझन हो जाती है।
वह जो धन के प्रेम में पड़ा है उसकी मुसीबत क्या है? प्रेम ही मुसीबत है, धन थोड़े ही! धन क्या मुसीबत करेगा? धन तो मुर्दा है। धन क्या मुसीबत कर सकता है? धन को तुम छोड़ना चाहो तो धन तुम्हारा पीछा नहीं करेगा। धन तुमसे कहेगा नहीं कि कहां जाते हो? मुझे छोड़ कर कहां जाते हो? अदालत में कोई मुकदमा नहीं चलाएगा। धन ने तुम्हें नहीं पकड़ा है, इसलिए सवाल धन का नहीं है।
तुम अगर सांसारिक प्रेम में पड़े हो तो संसार को गालियां मत दो। उलझन तुम्हारे प्रेम की है। अब लोग हैं, संसार से लड़ रहे हैं। वे कहते हैं, हम संसार छोड़कर जाएंगे। संसार छोड़ कर चले जाओगे, क्या फर्क पड़ता है? जहां जाओगे वहीं तुम्हारा प्रेम फिर निर्मित हो जाएगा।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जिन्होंने घर छोड़ दिया, पत्नी-बच्चे छोड़ दिए, भाग गए जंगलों में वहां बैठ गए। वहां शिष्यों से उनका उसी तरह प्रेम हो गया जैसे अपने बेटे-बेटियों से था। अब अगर शिष्य मर जाए तो वे वैसे ही रोएंगे जैसे बेटे के मरने से रोते थे। क्या फर्क पड़ा? अगर आज शिष्य धोखा दे जाए तो वे उसी तरह दुखी होते हैं जैसे बेटा धोखा दे जाता तो दुखी होते, और कहते, दगाबाज निकल गया। मकान से प्रेम था, अब मकान तो नहीं है, तो आश्रम से प्रेम हो जाएगा। फर्क क्या पड़ता है?
मेरे एक मित्र हैं, मकान बनाने का उन्हें बड़ा शौक। अपना तो बनाते ही, कई मकान उन्होंने बनाए। और सुंदर मकान बनाए। उनको एक ही शौक, एक ही हाॅबी--मकान बनाना। मित्रों के भी मकान बनाए। कोई भी बुला लेता उन्हें तो उनका यह आनंद था कि वे मकान बनवाने में सहायता दें। माॅडेल बनाएं, चित्र बनाएं, खड़े होकर मकान खड़ा करवाएं।
फिर वे संन्यस्त हो गए। कोई दस वर्ष बाद मैं उस जगह के करीब से गुजरता था, जहां वे संन्यासी होकर रहने लगे थे। मैंने अपने डरइवर को कहा कि एक दस मील का चक्कर तो लगाना पड़ेगा लेकिन मैं देखना चाहता हूं कि उनकी हालत क्या है। जरूर वे मकान बनवा रहे होंगे। उसने कहा, आपका क्या मतलब? वे संन्यासी हो गए हैं। मैंने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है? वे मकान तो बना ही रहे होंगे।
हम जब पहुंचे तो भरी दोपहरी में वे छाता लिए मकान बनवा रहे थे। मैंने उनसे पूछाः तुम काहे के लिए परेशान हुए हो? मैं यह जानता ही था कि तुम यही काम कर रहे होओगे। उन्होंने कहाः यह मकान थोड़े ही है, आश्रम बनवा रहा हूं।
इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम मकान बनवा रहे हो कि आश्रम बनवा रहे हो। वह जो बनाने का मोह है, वह वैसा का वैसा है। ऐसे कोई भाग नहीं सकता; उलझन प्रेम है।
इस जगत में प्रेम ही नरक है, प्रेम ही स्वर्ग है। प्रेम ही दुख है, प्रेम ही सुख है। प्रेम ही पतन है और प्रेम ही उत्थान है। ये सारी बातें इस छोटे से वचन में धनी धरमदास ने कह दी हैं--ताला कुंजी प्रेम की।
ताला भी प्रेम का है, जिससे फंस गए हैं; जिससे दरवाजे बंद हो गए हैं; जिससे निकलने के लिए द्वार नहीं मिलता; जिसके कारण कारागृह में पड़ गए हैं; जिसके कारण हाथ में जंजीरें हैं, पैर में बेड़ियां हैं, वह भी प्रेम है। और कुंजी भी प्रेम की है, जिससे यह सब खुलेगा। प्रेम से उलझे हो तो प्रेम से ही खुलेगा।
इसलिए भक्ति का शास्त्र प्रेम का शास्त्र है। यह कहता है, कैसे प्रेम को ताला बनने से बचाओ और कैसे प्रेम की कुंजी बनाओ। कैसे प्रेम से कुंजी ढाली जा सकती है? ढाली जा सकती है। ठीक दिशा में प्रेम उन्मुख हो जाए, अपने से ऊपर की तरफ बहने लगे, अपने से श्रेष्ठ की तरफ बहने लगे। गुरु की तरफ बहे तो श्रद्धा, और परमात्मा की तरफ बहे तो भक्ति। वह आखिरी है।
शिखर की तरफ आंखें उठ जाएं। अभी तुम्हारी आंखें खाइयों में उलझी हैं, गड्ढों में उलझी हैं। रामकृष्ण कहते थे कि चील आकाश में भी उड़े तो कुछ फर्क नहीं पड़ता। उसकी नजर तो नीचे लगी रहती है कूड़े-कचरे के ढेर पर, जहां कोई मांस का टुकड़ा पड़ा हो कि मरा हुआ चूहा पड़ा हो। चील आकाश में उड़ती है तो भी नजर कूड़े के ढेर पर लगी रहती है, जहां एक मरा चूहा पड़ा है।
तुम मंदिर में भी जाकर बैठ जाते हो, तुम्हारी नजर कहां होती है? कूड़े के ढेर पर, जहां कोई मरा चूहा पड़ा है। तुम बैठ जाते गीता पढ़ने कि कुरान पढ़ने, तुम्हारी नजर कहां होती है? उस नजर का खयाल करो। नजर आकाश की तरफ उठनी चाहिए। कितने कम लोग हैं, जो आकाश की तरफ आंख उठा कर देखते हैं। उनकी नजर जमीन में गड़ी है। उनकी गर्दन जकड़ गई है। वे ऊपर की तरफ देख ही नहीं सकते। बस वे नजर गड़ा कर देखते चले जाते हैं। अगर किसी रात अचानक तारे विदा हो जाएं आकाश से, तुम्हें पता ही नहीं चलेगा, जब तक कोई तुम्हें बताए न। जब तक तुम सुबह अखबार में न पढ़ो कि तारे खतम हो गए, अब नहीं होते, तब तुम्हें पता चलेगा। नहीं तो तुम नजर गड़ाए जमीन में चले जा रहे हो। तुमने ऊपर की तरफ देखना बंद कर दिया है।
अपने से ऊपर की तरफ देखने में प्रेम कुंजी बन जाता है। अपने से नीचे की तरफ देखने में प्रेम ताला बन जाता है। इस जगत का सारा उपद्रव प्रेम के कारण है। और यहां जो सुलझ कर चले गए हैं उन्होंने भी प्रेम की नौका बनाई है और उसी से सुलझ कर गए हैं।
यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए कि यह इस संबंध में सूचन है कि समस्या में समाधान छिपा है। प्रश्न में उत्तर छिपा है। रोग का ठीक-ठीक अर्थ समझ में आ जाए तो निदान मिल जाता है।
इसलिए भक्ति को मैं कहता हूं, सहजयोग। अब कोई बैठा है पालथी मार कर और प्राणायाम कर रहा है और शीर्षासन कर रहा है, उससे यह पूछो कि शीर्षासन न करने की वजह से दुनिया में तुम उलझे हो, जो शीर्षासन करने से सुलझ जाएगा? प्राणायाम करने से तुम सुलझ जाओगे? क्या प्राणायाम न करने के कारण तुम उलझे हो? कारण तो देखो। तुम्हारे उलझने का कारण क्या है? जो कारण है उसको सुलझाना पड़ेगा।
प्रेम के कारण उलझे हो। सिर के बल खड़े होने से कुछ भी न होगा। पैर के बल तुम खड़े थे, सिर के बल खड़े हो जाओगे। तुम तुम ही रहोगे। सिर के बल खड़े होने से क्या फर्क होनेवाला है? व्यर्थ की कवायतें और व्यर्थ के अयासों में मत पड़ो।
इसलिए भक्तों ने कहा है, न उन्हें जप में उत्सुकता है, न तप में उत्सुकता है, न तंत्र में, न मंत्र में, न योग में। उनकी उत्सुकता इन सारी बातों में नहीं है, उनकी उत्सुकता तो केंद्रीय एक तत्व में है--कि यह प्रेम का तत्व ठीक दिशा पर अग्रसर कैसे हो जाए। यह प्रेम की ऊर्जा संसार से मुक्त होकर आकाश की तरफ कैसे उड़ने लगे। यह पृथ्वी से मुक्त हो जाए और आकाश में पंख खोल दे।
कोठरी रतन जड़ाव की, हीरा लागे किवार।
और धनी धरमदास कहते हैं कि जीवन तो तूने बड़ा प्यारा दिया है।
कोठरी रतन जड़ाव की, हीरा लागे किवार।
बड़ा प्यारा जीवन दिया है।
ताला कुंजी प्रेम की, गुरु खोलि दिखावो।।
लेकिन हमने ताला बना लिया है, अब तुम किसी तरह बताओ कि हम कैसे कुंजी बना लें।
और अत्यंत होश की जरूरत है, अत्यंत जागरूकता की जरूरत है, तभी प्रेम की कुंजी बन सकती है। अनजाने, मूच्र्छित, बेहोशी में तो प्रेम का ताला ही बनता है। उसी में तुम और उलझते चले जाते हो। ऐसे ही जैसे मकड़ी जाला बुनती है, अपने ही भीतर से बुनती है और कभी-कभी खुद फंस जाती है। प्रेम का जाला तुम ही बुनते हो, उसी में तुम उलझ जाते हो। जीवन उसी में समाप्त हो जाता है।
जुस्तजू जिसकी हरम में और बुतखाने में है
नूर उस जलवे का मेरे दिल के काशाने में है
वही छिपा है, जो मंदिरों में और मस्जिदों में जिसकी पूजा की जा रही है--तुम्हारे भीतर।
नूर उस जलवे का मेरे दिल के काशाने में है
वही दीया तुम्हारे भीतर जल रहा है लेकिन उस दीये के आस-पास...तुमने प्रेम के साथ जो दुव्र्यवहार किया है, प्रेम के साथ जो तुमने बलात्कार किया है, प्रेम को समझे नहीं और प्रेम के साथ तुमने जो नासमझी की है, उसके कारण सारा अंधकार हो गया है। उस अंधकार की दीवाल को पार करने का मुझे रास्ता बताओ।
बंदा भूला बंदगी...
धनी धरमदास कहते हैं कि मैं तो हजार भूलों से भरा हूं। मैं तुम्हारी सेवा भूल गया हूं। बंदा भूला बंदगी--मैं तुम्हारी प्रार्थना भूल गया हूं।
लेकिन तुम तो करुणावान हो--तुम बकसनहार। तुम तो क्षमा कर सकते हो। मेरी भूलें कितनी ही बड़ी हों, तुम्हारी करुणा तो मेरी भूलों से बड़ी है।
यह भक्त का भरोसा है। इसी भरोसे के सहारे कोई इस यात्रा पर निकल सकता है। जिसे यह भरोसा नहीं है वह यात्रा पर नहीं जा सकता। मेरे पाप बड़े हैं लेकिन तुम्हारी करुणा और बड़ी है। मैं कितने ही बड़े पाप करूं, कितने बड़े कर सकूंगा! मैं ही छोटा हूं।
तुम जरा सोचो। तुम पाप भी क्या कर सकोगे? तुम्हारी सीमा है पाप की भी। परमात्मा की करुणा की कोई सीमा नहीं है। उसकी असीम करुणा के सामने तुम्हारे छोटे-छोटे दो-दो कौड़ी के पाप! इनका क्या मूल्य है?
बट्र्रेंड रसल ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि मैं विचार करता हूं कि मैंने जिंदगी में कितने पाप किए हैं। जो मैंने किए, अगर मैं कठोर से कठोर अदालत के सामने उनको बयान कर दूं तो मुझे ज्यादा से ज्यादा चार या पांच साल की सजा हो सकती है। और जो मैंने नहीं किए, सोचे, अगर वे भी बयान कर दूं और उनके लिए भी दंड मिलता हो, तो समझो पांच साल की और सजा हो सकती है। दस साल की सजा हो सके, इतने मेरे पापों की कुल संपदा है। क्या इस क्षुद्र पाप की ढेरी के लिए मुझे अनंतकाल तक नरक में सड़ना पड़ेगा?
ईसाई यही कहते हैं कि अनंतकाल तक नरक में सड़ना पड़ेगा। यह बात जरूर ईसाइयों ने जोड़ी होगी। यह बात जीसस की तरफ से नहीं आई हो सकती। क्योंकि जीसस तो कहते हैं, वह प्रेम है, करुणा है। परमात्मा यानी प्रेम। तो प्रेम इतना भी नहीं कर सकेगा? यह तो हद्द हो गई। यह तो अन्याय हो गया। कितने ही तुमने पाप किए हों, इनके लिए अनंत काल तक के लिए नरक में सड़ना तो निश्चित गुनाह है। इनके लिए जरूरत से ज्यादा दंड हो गया।
तुम्हारे पाप सीमित हैं, तुम्हारा दंड भी सीमित होना चाहिए। तुम्हारे पाप तो सीमित हैं और दंड असीम, अनंत काल के लिए! हिटलर को भी तुम अनंत काल के लिए नरक में डालो तो अन्याय होगा।
यह करुणावान, प्रेम से भरे परमात्मा के हृदय में यह बात कैसे उठ सकती है? भक्त का भरोसा यह है...इस फर्क को खयाल में लो। योगी का, त्यागी का, विरागी का भरोसा यह होता है कि मैंने पाप किए हैं, मैं पुण्य करके चुकतारा कर दूंगा। जितने मैंने पाप किए हैं उतने पुण्य कर दूंगा। संतुलन ला दूंगा। तराजू बराबर कर दूंगा।
लेकिन इसमें अहंकार की घोषणा है। इसमें परमात्मा का सहारा नहीं मांगा गया है। त्यागी परमात्मा का सहारा नहीं मांगता। परमात्मा का सहारा मांगने में उसे दीनता मालूम होती है। वह कहता है, मैं ही कर लूंगा। मैंने किए थे पाप, मैं पुण्य करके सब निपटारा कर दूंगा। बुरा किया था, भला करूंगा।
भक्त का भरोसा यह है कि मेरे किए तो जो भी होगा, बुरा ही होगा। मैं ही बुरा हूं। मेरा किया हुआ मेरी बुराई से ही निकलेगा। मैं पुण्य भी करूंगा तो पाप हो जाएगा। मैं अच्छा करने जाऊंगा तो बुरा हो जाएगा। मेरी सामथ्र्य...यह ‘मैं’ हर चीज को जहर से भर देता है। यह अहंकार हर चीज पर जहर फेंक देता है। यह पुण्य को भी जहरीला कर देता है। मेरे किए क्या होगा?
तो भक्त कहता है, लेकिन मुझे तुम्हारी महाकरुणा का भरोसा है।
बंदा भूला बंदगी, तुम बकसनहार।
मेरी आह का तुम असर देख लेना।
वो आएंगे, थामे जिगर देख लेना।
भक्त कहता है, फिकर न करो, मैं रोऊंगा। बंदगी तो मैं भूल ही गया। प्रार्थना मुझे आती नहीं लेकिन मेरी आह का तुम असर देख लेना। आह तो निकल सकती है। मेरे हृदय से जो आह उठेगी वही मेरी प्रार्थना है।
मेरी आह का तुम असर देख लेना
वो आएंगे, थामे जिगर देख लेना
रोऊंगा, पुकारूंगा। उनकी करुणा का भरोसा है।
बंदा भूला बंदगी, तुम बकसनहार।
धरमदास अरजी सुनो, कर द्यो भवपार।।
अब मुझे उस तरफ ले चलो। अब मुझे पार करो। तुम करो, कर्ता तुम हो। तुमने भेजा यहां, तुम ही मुझे ले चलो। ऐसा समग्र समर्पण है भक्ति।
मैं तो तोरे भजन-भरोसे अविनासी।
यह भरोसा है। यह श्रद्धा है। इसमें कृत्य से कुछ भी नहीं जोड़ा जा रहा है।
और तुम यह मत समझना कि भक्त पुण्य नहीं करता है। इस भ्रांति में मत पड़ जाना मैं यह नहीं कह रहा हूं कि भक्त पुण्य नहीं करता। भक्त ही पुण्य करता है लेकिन कर्ता का भाव नहीं होता।
और तुम्हारा त्यागी क्या खाक पुण्य करेगा! कर्ता का भाव तो सारे पुण्य को मिटा देता है, पुण्य को पाप बना देता है। भक्त ही करता है लेकिन करने पर उसका भरोसा नहीं है। वह यह नहीं कहता कि मेरे किए से मेरी मुक्ति होगी। मेरे किए से ही तो मैं बंधा हूं।
मैं तो तोरे भजन-भरोसे अविनासी।।
मेरा तो एक ही भरोसा है कि तेरा भजन करूंगा। तेरा गीत गाऊंगा, तेरा गुण गाऊंगा।
और क्या चीज कुर्बां करूं आप पर?
दिल जिगर आपका, जिंदगी आपकी
सब आपका है--दिल जिगर आपका, जिंदगी आपकी। यह बात भी मैं सोचूं कि कुछ तुझ पर कुर्बान करूं, यह बात भी अहंकार की है। त्वदीयं वस्तु गोविंद तुयमेव समर्पयेत्। लेकिन यह बात ही फिजूल है, तेरी चीज तुझी को भेंट करूं। तेरा दिया हुआ तुझे भेंट करूं। इसमें भी भूल हुई जा रही है। मैं तो तेरी भेंट हूं ही।
और क्या चीज कुर्बां करूं आप पर?
दिल जिगर आपका, जिंदगी आपकी
मैं तो तोरे भजन-भरोसे अविनासी।
तीरथ बरत कछू नहिं करहूं, वेद पढ़ौं नहिं कासी।
काशी नहीं जाऊंगा वेद पढ़ने, और न तीर्थ करूंगा, और न व्रत करूंगा।
और इसका मतलब यह नहीं है कि भक्त काशी नहीं जाता। इसको तुम समझना, नहीं तो भूल होगी। भक्त काशी मजे से चला जाता है लेकिन यह सोच कर नहीं जाता कि काशी जाने से कुछ हो जाएगा। कबीर जिंदगी भर काशी रहे। यह वचन भी पक्का समझो कि काशी में बैठ कर लिखा गया है। क्योंकि धनी धरमदास कबीर के चरणों में रहे और कबीर जिंदगी भर काशी रहे। यह वचन काशी में ही लिखा गया है।
लेकिन तुम्हें पता है, तुम्हें कहानी पता है? कबीर जब मरने को हुए और मरण-शय्या पर पड़े थे तब अचानक आंख खोली, अपने भक्तों से कहा, मुझे काशी से बाहर ले चलो। उन्होंने कहा, आप कहते क्या हैं? लोग मरने काशी आते हैं--काशी-करवट! जिंदगी भर काशी रहे, अब कहां जाते हो? कबीर ने कहा, मगहर ले चलो।
मगहर एक छोटा गांव काशी के पास। कहावत है कि मगहर में जो मरता है वह मरकर गधा होता है। इसलिए कबीर ने कहा, मगहर ले चलो। क्योंकि मगहर में जो मरता है वह गधा होता है। और काशी में जो मरता है वह तो सीधा बैकुंठ जाता है। तुम मुझे मगहर ले चलो। अगर काशी में मर कर बैकुंठ गए तो इसमें उसकी क्या कृपा? खूब मजे की बात कही; इसमें उसकी क्या कृपा? काशी में मरे इसलिए बैकुंठ गए। जाना ही...वह तो कानूनी बात हो गई। कुत्ता भी मरे, गधा भी मरे, वह भी जाता है। तुम मुझे मगहर ले चलो।
नहीं माने, जिद्दी आदमी थे कबीर। भक्त तो बहुत संकोच करने लगे। मगर उन्होंने नहीं माना। उठ कर ही खड़े हो गए चलने को तो फिर ले जाना पड़ा। मरे मगहर में जाकर। क्योंकि उन्होंने कहा कि मगहर में मरूं और बैकुंठ जाऊं तो उसकी कृपा।
ऐसा नहीं है कि भक्त काशी नहीं जाता; मगर काशी पर भरोसा नहीं है कि काशी के कारण स्वर्ग जाऊंगा। और ऐसा भी नहीं है कि भक्त व्रत नहीं करता, लेकिन व्रत पर उसका भरोसा नहीं है। अगर वह उपवास भी करता है तो उसके कारण दूसरे होते हैं। कभी शरीर की शुद्धि के लिए करता है, कभी रोग के उपचार के लिए करता है, कभी प्रार्थना को पवित्र बनाने के लिए करता है। कभी भूल ही जाता है भजन में और उपवास हो जाता है। याद ही नहीं आती भोजन की। वही असली उपवास है।
उपवास शब्द का भी यही अर्थ है। उपवास शब्द का अर्थ अनशन नहीं है। इसलिए हमारे पास दो शब्द हैं। अनशन का मतलब होता है, जिसने चेष्टा करके भोजन नहीं किया; जिसने रोका। भूख तो लगी थी और भोजन नहीं किया--यह अनशन। इसलिए जो राजनीतिज्ञ लोग उपवास करते हैं उसको उपवास कभी नहीं कहना चाहिए; वह अनशन है। उपवास जैसे पवित्र शब्द का उपयोग राजनीतिज्ञों के द्वारा भूख-हड़ताल करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। फिर चाहे मोरारजी देसाई करते हों, या कोई और करता हो। अनशन है वह। वह जबरदस्ती है।
उपवास शब्द में ही जरा गौर करो। अनशन का अर्थ है, आज नहीं खाऊंगा, यह निर्णय। उपवास का अर्थ हैः उसके पास। उप्रवासः परमात्मा के पास होना। उसके पास ऐसे मगन हो गए कि भोजन की याद न आई। भोजन का समय चूक गया, भोजन का वक्त निकल गया। उसकी मगनता में ऐसे डूबे कि शरीर का स्मरण न रहा, तब उपवास। चेष्टा से नहीं, सहज फलित हो जाए।
तुम्हारा प्रेमी तुम्हारे घर आ गया, तुमने खयाल किया? अक्सर ऐसा हो जाता है। प्रेमी घर आ जाए, भूख ही नहीं लगती। कौन फिकर करता है भोजन की! प्रेम इतना पेट भर देता है कि भोजन की कौन फिकर करता है! भूल गए। तो उपवास। अगर प्रेमी घर आ जाए और भोजन का स्मरण न आए, इसको मैं उपवास कहूंगा।
तो परमात्मा का जब स्मरण गहन होता है, उसका वाद्य भीतर बजता है तब कभी-कभी भक्त को उपवास हो जाता है। लेकिन वह इसकी घोषणा नहीं करता और इसको अपने पुण्यों में नहीं गिनता। काशी हो आता है, काशी सुंदर। काबा हो आता है, काबा सुंदर। लेकिन यह उसका भरोसा नहीं है। भरोसा तो उसका एक है--मैं तो तोरे भजन-भरोसे अविनासी। और उसका दूसरा भरोसा नहीं है। इस भरोसे को वह और दूसरे सहारे नहीं देता। यह एक नाव काफी है, और छोटी-छोटी नाव और पच्चीस तरह के उपाय नहीं करता। वह तो वही लोग करते हैं जिन्हें उसका भरोसा नहीं है। वे कहते हैं, यह भी कर लो, वह भी कर लो।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन मरने के करीब था। उसने आंख खोली, हाथ जोड़े और कहा, हे अल्लाह! कृपा कर। आकाश की तरफ देखा। फिर जमीन की तरफ देखा, और कहा, हे शैतान! कृपा कर। उसकी पत्नी ने कहा, तुम होश में हो कि पागल हो गए? सन्निपात है? मरते समय शैतान की याद कर रहे हो? उसने कहा, पागल, अब आखिरी घड़ी में कौन काम पड़े, किसको पता! दोनों का नाम ले लेना ठीक है। जो भी काम पड़ जाएगा! तो कहने को तो रहेगा, तेरा नाम लिया था। अब मरते वक्त मैं यह झंझट नहीं लेना चाहता कि एक का नाम लूं और हो सकता है दूसरे के हाथ पड़ूं। दोनों का स्मरण कर लेता हूं।
यह राजनीतिज्ञ का दृष्टिकोण है। यह कूटनीति का दृष्टिकोण है। वह कहता है, यह भी कर लो, यह भी कर लो, यह भी कर लो। इसमें भरोसा नहीं है। भक्त का एक भरोसा है--
मैं तो भजन-भरोसे अविनासी।।
तीरथ बरत कछू नहिं करहूं, वेद पढ़ौं नहिं कासी।
वेद ही तो पढ़ रहे थे काशी में। कबीर के पास कर क्या रहे थे? कबीर यानी वेद। वेद कोई किताब थोड़े ही है! लेकिन धनी धरमदास यह कह रहे हैं कि किताब नहीं पढूंगा। सदगुरु मिल गया हो तो कौन किताब की फिकर करता है! वेद जीवंत मिल गया हो तो मुर्दा वेदों की कौन चिंता करता है! गुरु मिल जाए तो गुरुग्रंथ की कौन फिकर करता है! गुरु न मिले तो गुरुग्रंथ की फिकर की जाती है।
सिक्खों में जिस दिन गुरुओं का होना बंद हो गया उस दिन गुरुग्रंथ हाथ में रह गया। जब तक गुरु होते रहे तब तक गुरुग्रंथ का क्या मूल्य था! किताब का मूल्य तो तभी है जब तुम्हें कोई जीवंत अनुभव देने वाला न मिल सके। मगर जीवंत का नाम ही तो वेद है। गुरु ही तो असली गुरुग्रंथ है।
तीरथ बरत कछू नहिं करहूं, वेद पढ़ौं नहिं कासी।
जंत्र-मंत्र टोटका नहिं जानौ, निसदिन फिरत उदासी।।
धनी धरमदास कहते हैं, न पढूंगा वेद, न करूंगा तीर्थ-व्रत, न जंत्र-मंत्र टोटका। क्योंकि ये सब छोटी और ओछी बातें हैं। एक भरोसा तेरे भजन का--एक ओंकार सतनाम! बस एक पर्याप्त है, दो की कोई जरूरत नहीं है। दो का मतलब ही होता है कि तुम द्वंद्व में पड़े हो। तुम्हारे भीतर शक शुबहा है। तुम संदिग्ध हो। तुम सोच रहे हो, इससे न हो तो उससे हो जाए। होशियार आदमी सब तरह के इंतजाम कर लेता है।
मैं एक घर में मेहमान था। चार बजे रात ट्रेन पकड़नी थी। घर के मालिक ने अपने डरइवर को कहा कि ठीक तीन बजे तू कार पोर्च में लाकर खड़ी कर देना। वह मैंने सुना, ठीक। फिर मैंने देखा कि वे एक रिक्शेवाले को कह रहे हैं कि तू भी आ जाना तीन बजे। तब जरा मैं हैरान हुआ कि जब कार आ जाएगी तो रिक्शावाला...? और फिर मैंने उनको सुना कि वे अपने नौकर से कह रहे हैं कि तू भी मौजूद रहना, अगर जरूरत पड़े तो सामान सिर पर रख कर ले चलना। स्टेशन पास ही थी, दूर नहीं थी।
मैंने उन्हें पूछा कि मामला क्या है? उन्होंने कहाः भरोसा किसी का नहीं है। यह ड्राइवर को मैं जानता हूं, यह पीकर पड़ जाता है। फिर तीन बजे कि छह बजे, कुछ इसे पता नहीं। फिर इसको हिलाओ, जगाओ, यह गालियां बकता है। यह सुन रहा है अभी, मगर तीन बजे इसका पता नहीं चलने वाला है।
फिर यह रिक्शेवाला, यह नंबर दो है। यह इससे बेहतर है मगर इसका भी कुछ पक्का नहीं है। कभी आ जाता है, कभी नहीं भी आता। यह तीसरा मेरा नौकर है, इसको आप देख ही रहे हैं। जितनी देर आप यहां रहे हैं, यह कभी समय पर इसका कोई पता चलता ही नहीं।
तो फिर मैंने कहाः फायदा क्या? उन्होंने कहाः फायदा-वायदा कुछ नहीं है लेकिन आदमी सब इंतजाम कर लेता है। आखिर में मैं तो हूं ही। आपको सुबह ले चलूंगा। और यही हुआ। आखिर में वही लेकर मुझे स्टेशन पहुंचे। वे तीन में से कोई नहीं आया।
मैंने उनसे कहा कि देखें, इनके वर्तन में आपका भी हाथ है। जब डरइवर सुनता है कि रिक्शेवाले को भी आप कह रहे हैं कि तू भी आ जाना तो वह सोचता है, ठीक है, कोई न कोई तो आ ही जाएगा। और जब आपका नौकर सुनता है कि रिक्शावाला भी आने वाला है, ड्राइवर भी आने वाला है, वह सोचता है, क्या मतलब! कौन तीन बजे रात सर्दी में उठे! कोई न कोई तो आ ही जाएगा। यह आप ही उस उपद्रव के पीछे कारण हैं। न आपका उन पर भरोसा है, न उनका आप पर भरोसा है। भरोसे की यहां कोई बात ही नहीं है।
धनी धरमदास ठीक कहते हैंः
मैं तो तोरे भजन-भरोसे अविनासी।।
अब और इससे बड़ा क्या है जिसको मैं पकड़ूं? आखिरी बात पकड़ ली, इसके आगे अब और क्या है?
जंत्र मंत्र टोटका नहिं जानौ, निसदिन फिरत उदासी।।
यह उदासी शब्द भी समझने जैसा है। इसका ठीक वही अर्थ होता है, जो उपवास का होता है। उपवास का अर्थ होता है, उसके पास होना। उदास का अर्थ होता हैः उद्भ आसीन--उसके पास बैठना। इसका मतलब होता है, सत्संग। मगर इस शब्द का अर्थ बदल गया है। लंबी यात्रा करते-करते इस शब्द का अर्थ बड़ा अजीब हो गया है। लेकिन उसके पीछे भी कारण है। अब तो उदासी का अर्थ होता है, जो बिलकुल उदास है, हताश है। मगर इसके पीछे कारण है। इस अर्थ के पीछे भी कारण है।
जो लोग परमात्मा में डूबे वे संसार के प्रति उदास हो गए। जिन्होंने उसका साथ पा लिया उनका साथ संसार से अपने आप ढीला हो गया। जिन्होंने परम धन पा लिया, संसार के धन पर उनकी मुट्ठी खुल गई। जिन्होंने उस अविनाशी को देख लिया, फिर यहां देखने योग्य कुछ न रहा।
तो लोगों ने देखा कि वे उदास हो गए हैं लेकिन असली बात यह थी कि वे उदास नहीं हो गए थे, उन्हें परम धन मिल गया था। वे परम भोग को उपलब्ध हो गए थे। अब जिसको हीरे मिल जाएं वह कंकड़-पत्थरों में रस क्यों रखे? किसलिए रखे? तो कंकड़-पत्थर में उदास हो गया। तुमको लगता है कि कंकड़-पत्थरों में उदास हो गया क्योंकि कंकड़-पत्थर तुम्हें हीरे मालूम होते हैं। तुम उनको छाती से लगा रहे हो, वह उन्हें छोड़ कर जा रहा है।
बुद्ध राजमहल छोड़ देते हैं। उनका सारथी उनसे कहता है, आप यह क्या कर रहे हैं? सारी दुनिया के लोग राजमहल में किस तरह पहुंच जाएं इस कोशिश में लगे हैं। आप राजमहल छोड़ रहे हैं? आप उदास क्यों हो गए हैं? अभी आपके जीवन में ऐसी कौन सी दुर्घटना घट गई है? ऐसा कौन सा दुख?
बुद्ध कहते हैं, मैं उदास नहीं हो गया हूं, सत्य की खोज में निकला हूं।
इस भेद को समझना। उदास शब्द का मौलिक अर्थ थाः उद्भ आसीन--उदासीन। जो ‘उसके’ पास बैठने लगा। जो किसी सत्संग में डूबने लगा। बाजार की तरफ उसकी पीठ फिर गई। दोनों तरफ एक साथ मुंह नहीं हो सकता। संसार की तरफ मुंह होता है, परमात्मा की तरफ पीठ होती है। परमात्मा की तरफ मुंह होता है, संसार की तरफ पीठ हो जाती है। बस इतना ही काफी है। भागने-वागने की कुछ जरूरत नहीं है, सिर्फ पीठ हो जाती है।
फिर उदास प्रेमी भी होते हैं। जिनके जीवन में प्रेम है उन्हें उनकी प्रेयसी मिल जाए, उनका प्रेमी मिल जाए, तो प्रफुल्लित होते हैं। और उनका प्रेमी और उनकी प्रेयसी उन्हें न मिले तो उदास होते हैं।
उदास वही हो सकता है जिसने उत्सव जाना हो।
धरमदास कहते हैं कि मैंने तेरी झलक पा ली। एक झलक मुझे तेरी मिल गई है। गुरु के द्वारा मिली है अभी। गुरु के माध्यम से मिली है अभी। अभी सीधी नहीं मिली। सीधी की मांग मैं कर रहा हूं। सीधी के लिए मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं--
ठाढ़ि जोहों तोरी बांट मैं, साहैब चली आवो।
बिन दरसन भई बावरी...
जंत्र-मंत्र टोटका नहीं जानौं, निसदिन फिरत उदासी।।
और जब से वह एक झलक गुरु में देख ली है तब से अब चैन नहीं है; तब से बेचैनी है, तब से घूम रही हूं--निसदिन फिरत उदासी। फिर स्त्रैण शब्दों का प्रयोग शुरू किया उन्होंने।
न बुतखाने को जाते हैं, न काबे में भटकते हैं
जहां तुम पांव रखते हो वहां हम सर पटकते हैं
यही है जिंदगी अपनी यही है बंदगी अपनी
कि उनका नाम आया और गर्दन झुक गई अपनी
यहि घटि भीतर बधिक बसत है, दिए लोभ की टाटी।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरनन दासी।।
यहि घटि भीतर बधिक बसत है--फिर वही कह रहे हैं वे। फिर दोहरा रहे हैं उसी सत्य को--ताला कुंजी प्रेम की। प्रेम ही ताला बन गया, प्रेम ही कुंजी बनेगी। इसी घट में परमात्मा बसता है और इसी घट में परमात्मा की हत्या करने वाला बसा हुआ है। हम दोनों हैं--शैतान भी और भगवान भी। हम दोनों हैं--अंधेरा और रोशनी भी।
महावीर ने कहा है, तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र नहीं और तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु भी नहीं। दोनों बसे हैं एक साथ। असल में दो बसे हैं यह कहना ठीक नहीं, जब तुम्हारे भीतर जीवन-ऊर्जा ठीक दिशा में नहीं बहती तो वही बधिक; और जब तुम्हारी जीवन ऊर्जा ठीक दिशा में बहने लगती है तो वही परम प्यारा। भेद नहीं है, ऊर्जा वही है। जहर ही अमृत हो जाता है; पीने का ढंग आना चाहिए। अमृत ही जहर हो जाता है पीने का ढंग न आता हो तो।
यहि घटि भीतर बधिक बसत है, दिए लोभ की टाटी।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरनन दासी।।
अब मोहि दरसन देहुं कबीर।।
कबीर शब्द दो अर्थ रखता है। एक तो कबीर धरमदास के गुरु हैं। और कबीर सूफियों के परमात्मा के सौ नामों में एक नाम है। या कबीर! ओ महान! ओ विराट! कबीर का अर्थ होता है, विराट।
कबीर के मरने पर झगड़ा मच गया था कि वे हिंदू थे कि मुसलमान। कौन उनको जलाए? कौन उनको गड़ाए? शिष्यों को इसमें बड़ी उत्सुकता होती है--जलाने-गड़ाने में। मानने और चलने में किसी की कोई उत्सुकता नहीं है कि कौन उनके पीछे चले। कौन गड़ाए, कौन जलाए! बड़ी जल्दी, बड़ा रस! छुटकारा पाने के उपाय!
फिर बड़ी झंझटें मचीं क्योंकि तय होना चाहिए कि वे हिंदू थे कि मुसलमान। यह कुछ तय नहीं था। किसी संत के बाबत तय हो ही नहीं सकता कि वह हिंदू है कि मुसलमान। कबीर ने तो खूब उलझन में डाल दिया था। यह कबीर शब्द अड़चन डालता था क्योंकि कबीर शब्द अरबी का है। हिंदुओं को यह बड़ी अड़चन की बात थी। उन्होंने बड़ी कहानियां गढ़ीं।
हिंदुओं से ज्यादा सुंदर कहानियां गढ़ने वाले लोग दुनिया में दूसरे हैं ही नहीं। हिंदू शब्दों के मालिक, कथाओं के बड़े कुशल आविष्कारक। उन्होंने एक कहानी गढ़ ली कि कबीर करवीर शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है। करवीरः हाथ से बना हुआ। कर यानी हाथ।
उन्होंने यह कहानी गढ़ी कि गुरु रामानंद सुबह निकले हैं स्नान करने को और एक विधवा ने उनके पैर छुए और उन्होंने अपनी मस्ती में आशीर्वाद दे दिया--सौभाग्यवती हो, गर्भवती हो। वह विधवा तो ठिठक कर खड़ी हो गई। उसने कहा, आप यह क्या कहते हैं? मैं विधवा हूं, अब सौभाग्यवती नहीं हो सकती। और जब सौभाग्यवती ही नहीं हो सकती तो गर्भवती तो कैसे हो सकूंगी?
रामानंद निश्चित मुश्किल में पड़ गए होंगे लेकिन अब वरदान दे दिया है तो वरदान तो पूरा करना ही पड़ेगा। ऐसी कहानी हिंदुओं ने गढ़ ली! तो वह जो हाथ उठाकर वरदान दिया था, उसी हाथ के वरदान के कारण यह चमत्कार घटा। वह स्त्री गर्भवती हुई और कबीर पैदा हुए। उस हाथ के आशीर्वाद के कारण पैदा हुए इसलिए उनका नाम करवीर।
मगर यह कहानी बिलकुल झूठी है। इसमें कुछ अर्थ नहीं है। कबीर का नाम तो अरबी से ही आता है। और बड़ा प्यारा नाम है, उसको खराब करते करवीर बना कर। ओ विराट! और कबीर थे विराट। उन्होंने विराट को जाना था जिसने विराट जाना वह विराट हो गया। जिसने प्रभु जाना वह प्रभु हो गया। जो तुम जानोगे वही तुम हो जाते हो। जानत तुम्हें तुमहि हुई जाई।
धरमदास कहते हैं, अब मोहि दरसन देहुं कबीर।।
तो वे कहते हैं, कबीर, मेरे गुरु में तो तुमको देख लिया। उस झरोखे से तो तुमको देख लिया। अब तुम मुझे सीधा दर्शन दो, ओ विराट! अब तुम मेरी आंखों में सीधे उतरो। बिन दरसन भई बावरी!
सौ सौ उम्मीदें बंधती हैं एक-एक निगाह पर
मुझको न ऐसे प्यार से देखा करे कोई
अभी तो कबीर के द्वारा तुमने देखा है, मगर सौ-सौ उम्मीदें बंधती हैं एक-एक निगाह पर। कबीर से झांका है तुमने। कितनी उम्मीदें मेरे भीतर बन गईं, कितनी आशाओं के फूल खिल गए हैं।
अब तुम सीधे मुझे दर्शन दो। अब माध्यम नहीं। कबीर ने झलक दिखा दी, अभीप्सा जगा दी, अब मैं स्वयं तुम्हारे सरोवर से पीना चाहता हूं।
तुम्हरे दरस से पाप कटत हैं, निरमल होत सरीर।
भक्त का यह अनुभव है। भक्त का भरोसा हैः मैं तो तोरे भजन-भरोसे अविनासी। और भक्त का यह अनुभव है, उस भरोसे से यह अनुभव निष्पन्न होता हैः तुम्हरे दरस से पाप कटत हैं...मेरे काटने से नहीं कटते, तुम्हरे दरस से पाप कटत हैं...। तुम क्या दिखाई पड़ जाते हो कि अचानक पुण्य ही पुण्य के कमल खिल जाते हैं। तुम क्या दिखाई पड़ जाते हो कि पाप का अंधेरा एकदम विलीन हो जाता है।
तुम्हरे दरस से पाप कटत हैं, निरमल होत सरीर।
आत्मा की तो बात ही छोड़ दो, शरीर तक निर्मल हो जाता है। तुम्हारी एक झलक, और सब शुद्ध हो जाता है, सब पवित्र हो जाता है।
अब मोहि दरसन देहुं कबीर।।
अब वैसा दर्शन हो जाने दो। अभी किरण-किरण उतरी है, अब पूरे-पूरे सूरज का साक्षात्कार हो जाने दो। अब मुझे अपने में समा लो और मुझमें समा जाओ।
शिकवा करूं तो कैसे, आहें भरूं तो कैसे
अपना बनाके कोई आंखें चुरा रहा है
तुमने अपना भी बना लिया, तुमने कबीर के माध्यम से अपनी छाया भी मुझ पर डाल दी, मुझे लुभा भी लिया, और अब तुम आंखें चुरा रहे हो।
अपना बनाके कोई आंखें चुरा रहा है
शिकवा करूं तो कैसे, आहें भरूं तो कैसे
अमृत भोजन हंसा पावै, सब्द-धुनन की खीर।।
बहुमूल्य वचन है। हीरों में तौलो, ऐसा वचन है।
अमृत भोजन हंसा पावै, सब्द धुनन की खीर।।
तुम जिस क्षण मुझमें झांकते हो, जिस क्षण तुम्हारा परस हो जाता है...परमात्मा को पारस कहा है--जिसके परस से लोहा सोना हो जाए। जिस क्षण तुम्हारा पारस-परस मिलता है--अमृत भोजन हंसा पावै; उस क्षण यह मेरे भीतर छिपा हुआ हंस अमृत का भोजन करता है। उस क्षण मुझे मेरा असली भोजन मिलता है। उस क्षण मेरी भूख मिटती है। उस क्षण तृप्ति बरसती है।
सब्द-धुनन की खीर--और शब्द की ध्वनि पैदा होती है, ओंकार का नाद पैदा होता है। उस जैसी मीठी कोई चीज जगत में नहीं है। वही असली खीर है।
जिसको नानक ने, कबीर ने, दादू ने नाम कहा है--नानक नाम जहाज। वह जो नाम की नौका है। वह नाम क्या है? उसे वेदों ने ओंकार कहा हैः प्रणव। तुम्हारे भीतर एक नाद है। तुम्हारे भीतर प्रतिपल एक वीणा बज रही है लेकिन तुम इतने शोरगुल से भरे हो कि वह वीणा तुम्हें सुनाई नहीं पड़ती। नक्कारखाने में तूती की आवाज! बाजार में बैठ कर कोई धीमे से वीणा बजा रहा है, और बाजार का उपद्रव, बाजार का शोरगुल! कौन सुने? कहां सुनाई पड़े?
उससे भी बड़ा शोरगुल तुम्हारे भीतर मचा है। और वह धीमा-धीमा जो शब्द तुम्हारे भीतर गूंज रहा है, जो कि तुम्हारा प्राणों का प्राण है, जिसके बिना तुम नहीं हो सकते, जो कि तुम हो--सबद, या ओंकार, या नाम।
धरमदास कहते हैं,...सब्द-धुनन की खीर। उसी शब्द की ध्वनि से सबसे मीठी चीज मैंने अनुभव की है। उसका स्वाद अमृत का स्वाद है--अमृत भोजन हंसा पावै।
जहं देखो जहं पाट पटंबर...
तुम्हारी जब झलक मेरी आंख में पड़ती है तो सारा जगत तुम्हारा पीतांबर बन जाता है।
जहं देखो जहं पाट पटंबर, ओढ़न अम्बर चीर।
और सारा आकाश तुम्हारा ही वस्त्र मालूम होता है। तुमने ही ओढ़ा हुआ है। ये सारे रंग तुम्हारे हैं। ये सारे फूल तुम्हारे हैं। ये सारे चांद-तारे तुम्हारे हैं। यह सारा आकाश तुम्हारा वस्त्र है।
जहं देखो जहं पाट पटंबर, ओढ़न अम्बर चीर।
धरमदास की अरज गोसाईं, हंस लगावो तीर।।
अब ऐसे थोड़े-थोड़े नहीं चलेगा कि कभी-कभी झलक दो, भोजन दो, थोड़ी-थोड़ी झलक दो और तड़फाओ। अब तो बिलकुल पार लगाओ। अब मुझे ऐसा डुबाओ कि मुझे मेरा पता न मिले। हर बार जब उसका दरस होता है तो ऐसा ही लगता है, पहली बार हुआ।
जैसे मेरी निगाह ने देखा न हो तुझे
महसूस यह हुआ मुझे हर बार देख कर
जब भी तुझे देखा, यही महसूस हुआ कि ऐसा तो कभी न हुआ था, पहली बार हुआ है। फिर निश्चित ही बावलापन बढ़ता है। प्यास सघन होती है। रोआं-रोआं जलता है। हृदय की धड़कन-धड़कन एक ही आकांक्षा और एक ही पुकार से भर जाती है कि अब डुबा लो, अब मिटा लो, अब मुझे अपने में समा लो या मुझमें समा जाओ। बूंद जब तक सागर में गिर कर सागर न हो जाए तब तक यह बावलापन रहता है।
बिन दरसन भई बावरी, गुरु द्धौ दीदार।।
अब और देर न करो।
ठाढ़ि जोहों तोरी बाट मैं, साहेब चलि आवो।
इतनी दया हम पर करौ, निज छवि दरसावो।।
कोठरी रतन जड़ाव की, हीरा लागे किवार।
ताला कुंजी प्रेम की, गुरु खोलि दिखावो।।
बंदा भूला बंदगी, तुम बकसनहार।
धरमदास अरजी सुनो, कर द्यो भवपार।।
मैं तो तोरे भजन-भरोसे अविनासी।।
तीरथ बरत कछू नहिं करहुं, वेद पढ़ौं नहिं कासी।
जंत्र-मंत्र टोटका नहिं जानौ, निसदिन फिरत उदासी।।
यहि घटि भीतर बधिक बसत है, दिए लोभ की टाटी।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरनन दासी।।
अब मोहि दरसन देहुं कबीर।।
तुम्हरे दरस से पाप कटत हैं, निरमल होत सरीर।
अमृत भोजन हंसा पावै, सब्द-धुनन की खीर।।
जहं देखो जहं पाट पटंबर, ओढ़न अम्बर चीर।
धरमदास की अरज गोसाईं, हंस लगावो तीर।।

आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें