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शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

उड़ियो पंख पसार-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(विद्रोह और ध्यान)

दिनांक 18-05-1980 ओशो आश्रम पूना।
01-आपने कहा कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम धार्मिक नहीं थे क्योंकि उनके जीवन में कहीं विद्रोह की चिनगारी दिखाई नहीं पड़ती। फिर क्या कारण है कि उनका नाम हजारों वर्शो से जीवित है और भगवान का पर्याय बना हुआ है?
02-मैं जब घर से चला था तो बहुत अच्छे-अच्छे विचार थे-वेदान्त और निर्वाण की बातें थीं; मगर यहां आकर मन में सारे दिन लड़कियों के विचार ही चलते रहते हैं। बहुत कोषिष करता हूं, हटते ही नहीं। यहां तक कि ध्यान में भी ये विचार चलते रहते हैं। मैं षादीषुदा हूं और अपनी पत्नी के बिना कभी किसी स्त्री के पास नहीं गया। भगवान, क्या करूं, कोई रास्ता बताएं!

03-मैंने 11/5/1980 को संन्यास लिया। मैं इसको आपकी ही कृपा समझता हूं क्योंकि कई साल लग गए। उस दिन ही चरण-स्पर्ष का भी षुभ दिन आ गया। मैंने भी आपके चरण छुए और आपने भी मुझे स्पर्ष किया। मैं तो भर गया, मैं तो मस्त हो गया। फिर ऊर्जा-दर्षन का कार्यक्रम षुरू हुआ। मैंने भी उसमें भाग लिया। लेकिन इसमें एक क्षण ऐसा आया कि मुझे लगा कि कहीं मैं सम्मोहित तो नहीं हो रहा हूं। फिर मैं अपने-आप रूक गया। फिर थोड़ी देर बाद दूसरा क्षण आया जब मुझे लगा, अरे यह तो ऊर्जा-दर्षन है! फिर तो मैं ऐसा डूबा कि डूब ही गया और बाहर मस्त होकर निकला। भगवान, मैंने तो अपनी नैया तेरे हाथ में लगा दी, अब जो चाहो सो करो। फिर ऐसा क्यों हुआ? जो हुआ उसके लिए मुझे बहुत पीड़ा है। माफ करना। मुझे लगता है कि इसके पहले दो-तीन दिन तक कोई ध्यान भी नहीं जमा। कृपा करो!

04-मैं नौ साल से प्रेमिका ढूंढ रहा हूं कि कोई ऐसी प्रेमिका मिले जो संसार और ध्यान एक बना दे। नहीं मिली। आषीर्वाद दें कि मैं सही प्रेमिका मिलने तक रूकूं और जबरदस्ती न करूं!


पहला प्रश्नः ओशो, आपने कहा कि मर्यादा पुरूशोत्तम राम धार्मिक नहीं थे क्योंकि उनके जीवन में कहीं विद्रोह की चिनगारी दिखाई नहीं पड़ती। फिर क्या कारण है कि उनका नाम हजारों वर्शो से जीवित है और भगवान का पर्याय बना हुआ है?

आनंद मैत्रेय! इसीलिए! राम का व्यक्तित्व पंडितों के लिए, पुजारियों के लिए, व्यवसायिओं के लिए बहुत अनुकूल आया। विद्रोह तो था नहीं। विद्रोह का खतरा नहीं था।
राम का जीवन आज्ञाकारिकता का जीवन है। और यही न्यस्त स्वार्थ चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति आज्ञाकारी हो। आज्ञाकारी हो तो बगावत मर जाती है। आज्ञाकारी हो तो अंधा होकर चलता रहता है-जहां चलाओ, जैसा चलाओ, जो करवाना हो करवाओ। न उसके पास अपनी कोई विवेके की क्षमता होती है, न सोच-विचार की कोई पात्रता होती है, न बल होता है ‘नही’ कह देने का।
आज्ञाकारी व्यक्ति अत्यन्त निर्बल होता है। उसके भीतर की आत्मा ही जैसे मार डाली गयी हो। और यही सारे स्वार्थ चाहते हैं। राज्य भी यही चाहता है, चर्च भी यही चाहता है, मंदिर भी यही चाहता हैं! जिनके हाथ में धन है, पद है, प्रतिश्ठा है, वे भी यही चाहते हैं कि लोंगो को आज्ञाकारिकता का जहर इस तरह पिलाया जाए कि उनके जीवन में कभी विद्रोह की कोई संभावना ही न रहे। वे ‘नही’ कहना भी चाहें तो कह न सकें। जब भी उनसे निकले ‘हां’ निकले।
राम का व्यक्तित्व बहुत अनुकूल पड़ा। ऐसा अनुकूल व्यक्तित्व क्राइस्ट कर नहीं है, कृश्ण का नहीं, बुद्ध का नहीं है, और लाओत्सु का नहीं है। कृश्ण, क्राइस्ट, बुद्ध, लाआत्सु, इनको तो मर जाने के बाद पंडित-पुरोहितों को बहुत लीपा-पोती करनी पड़ी है-अपने सांचे के अनुकूल बनाने के लिए। फिर भी वे बना नहीं पाए। बगावत की चिनगारी राख में दबा भी दो तो भी प्रज्ज्वलित होती है। लाख राख जम जाए, जरा-सा हवा को झोंका और चिनगारी फिर दमकने लगती है।
जीसस पर कितनी पर्ते चढ़ायी गयीं! लेकिन कितनी ही पर्ते चढ़ाओ, जिस आदमी को सूली लगी वह आदमी आज्ञाकारी तो नहीं हो सकता। नहीं तो सूली कैसे लगती? जिस आदमी कोे सूली लगी, उस आदमी के जीवन में कुछ तो था, जो स्थापित स्वार्थो के विपरीत खड़ा हो गया था। और जरूर ऐसी प्रज्ज्वलित उस व्यक्ति के पास विद्रोह की आत्मा होगी कि सारे स्वार्थो को मिल कर उसे समाप्त कर देना पड़ा। मार तो डाला उसे, फिर दो हजार साल में निरन्तर इस तरह की व्याख्यांए थोपी गयीं कि जिनसे लगे कि जीसस भी आज्ञाकारी हैं। लेकिन कितनी व्याख्या करों, कहीं न कहीं से बात उभर कर दिखाई पड़ती है। छोटी-छोटी घटनांओ में। ईसाई पादरी उन घटनाओं का उल्लेख नहीं करते, उनको टाल जाते हैं। मगर वे घटनाएं बाइबिल में हैं, उनको इनकारा भी नहीं जा सकता। उनको सब तरह से सुधारने की, तरमीन करने की, उनके ऊपर नये-नये अर्थ जमाने की चेश्टा की गयी है। लेकिन फिर भी जीसस की आग ऐसी है कि बुझायी नहीं जा सकती, उभर कर निकल आती है।
तुम बाइबिल पढ़ो, तो तुम चकित हो जाओेगे। जीसस की मां जीसस को मिलने आयी हैं। जीसस भीड़ से घिरे खड़े हैं। और कोई जीसस से कहता है कि तुम्हारी मां मिलने आयी है। तो जीसस कहते हैं: ‘मेरे तो वे ही संबंधी हैं, जिन्होंने मेरी आत्मा से संबंध जोड़ा है। और न मेरी कोई मां है और न मेरा कोई पिता है।’
इसे कितना ही लीपो-पीतो, इसे कैसे छिपाओगे?
राम का जीवन बिलकुल उल्टा है। बूढ़े पिता ने, सठिया गये पिता ने एक व्यर्थ की बात कही है। वह भी अपनी सबसे कम उम्र की पत्नी के आग्रह में कही है, कि चैदह वर्श बनवास दे दो राम को। इसमें कोई तुक नहीं है बात मे। यह सीधी अन्यायपूर्ण है। पिता राजी हो गये। दषरथ ने अपने को दो कौड़ी का सिद्ध कर दिया। अपनी पत्नी के विपरीत भी कुछ कहने को सामथ्र्य नहीं है। गलत बात के खिलाफ भी खड़े होने का सामथ्र्य नहीं है। ऐसे गुलाम हो गए हैं। लेकिन राम ने इसे स्वीकार कर लिया। पंडितों को खूब जंची बात। माता-पिताओं को खूब जंची बात। पुरोहितों को खूब जंची बात। जिनके हाथ में भी सत्ता है उनको खूब जंची बात, कि आज्ञाकारिकता ऐसी होनी चाहिए।
इसलिए राम कि सदियों तक चर्चा चलती रही। इसलिए राम को घोंट-घोंट कर लोंगों के गले में पिलाया गया है। कृश्ण को तो लोग छांटते हैं। पूरे कुश्ण को कोई स्वीकार करने को राजी नहीं है। लेकिन राम के बिना छांटे गटक जाते हैं। राम में कुछ छोड़ने जैसी बात नहीं है। कृश्ण में तो हजार कारण मिलते हैं, जिनको कि स्वीकार करने के लिए बड़ी छाती चाहिए।
सूरदास कृश्ण के बचपन के गीत गाते हैं, जैसे कृश्ण कभी जवान हुए ही नहीं! छोटा बच्चा मटकी फोड़ दे, चल जाएगा। छोटा बच्चा स्त्रियों के कपड़े लेकर झाड़ पर चढ़ जाए, तो भी चल जाएगा। क्षम्य हो जाएगा। बच्चा ही है आखिर। लेकिन जवान कृश्ण अगर यह करते हों तो, तो सूरदास को भी अड़चन होती है। उनकी भक्ति भी डांवाडोल होने लगती है, कि ऐसे आदमी को कैसे स्वीकारें। तो सूरदास ने बचपन के तो गीत गाए कृश्ण के, लेकिन जवानी को बिलकुल काट कर अलग कर दिया।
अधिकतर लोग कृश्ण की बात करते हैं सिर्फ गीता के आधार पर। लेकिन महाभारत ही कृश्ण का एकमात्र जीवन-स्त्रोत नहीं है। श्रीमद्भागवत- और तब बड़ी अड़चन षुरू होती है। क्योंकि कृश्ण के जीवन में ऐसा बहुत कुछ है, बहुत ज्यादा है जिसको पचाना मुष्किल पड़ जाएगा। पांच हजार साल बीत गये, अब भी आदमी इतना प्रौढ़ नही हो पाया की पचा ले। तो फिर व्याख्यांए करनी पड़ती हमें। सोलह हजार पत्नियां थी कृश्ण की, उनमें सब पत्नियां नहीं थीं उनकी। दूसरों की पत्नियां भी आए थे। इसको कैसे पचाओगे? इसको किस आधार पर पचाओगे? तुम्हारी नीति सब जर्जरित हो जाएगी।
इसलिए कृश्ण को तो कोई कहे मर्यादा पुरूशोत्तम! इससे ज्यादा अमर्याद व्यक्तित्व नहीं है। इससे ज्यादा स्वछंद व्यक्तित्व नहीं है। तो फिर कुश्ण को समझाने के लिए कुछ उपाय करने पड़ेंगे। तो लोग समझाते हैं कि सोलह हजार नारियां नहीं थीं, ये सोलह हजार नाड़ियां हैं! क्या-क्या तरकीबें लोग निकालते हैं! क्या-क्या होषियारियां लोग निकालते हैं! सत्य को भी झुठलाने के लिए कैसे-कैसे आयोजन किए जाते हैं!
कृश्ण में एक खूबी है। कुछ है जो अलौकिक है। लेकिन जब भी कुछ अलौकिक होगा तो वह नीति के बहुत पार होता है। नीति तो बड़ी साधारण बात है, लोक-व्यवहार है, व्यवस्था को अंग है। इसलिए जो व्यवस्था के पोशक हैं, वे राम के पक्षपाती रहेंगे। कृश्ण की पूजा भी कर लेंगे, तो भी उन्हें न मालूम क्या-क्या व्याखंाए खोजनी पड़ेंगी।
महात्मा गांधी कहते थे कि गीता मेरी मां है। लेकिन उनको भी अड़चन थी। कृश्ण के साथ किसको अड़चन नहीं होगी! अड़चन यह थी कि अंहिसा का क्या होगा? सच पूछो तो अर्जुन गांधीवादी मालूम पड़ता था, क्योंकि वह कहता है: ‘यद्ध छोड़ कर मैं जाना चाहता हूं। यु.द्ध में क्या सार है? क्या फायदा मारने से? हत्याओं से क्या मिल जाएगा? और अपनों को मार कर मैं जीत भी गया तो उस जीत का क्या मूल्य है? इतने खून, इतने अस्थि-पंजरों के ढेर पर मेरा सिंहासन भी बन गया, तो पष्चत्ताप की ग्लानि में जलूंगा? नहीं, यह मुझे नहीं करना है। मैं यह सब छोड़ कर चला जाना चाहता हूं। मुझे नहीं चाहिए यह राज्य।’
और कृश्ण समझाते हैं कि तू जूझ, तू युद्ध कर। क्षत्रिय का यही कर्तव्य हैं। यही क्षत्रिय का धर्म है कि वह जूझे, कि वह लड़े। गांधी को बड़ी मुष्किल है। तो उन्होंने षुरू में ही व्याख्या कर ली कि यह कोई असली युद्ध नहीं है; यह तो अच्छाई और बुराई के बीच युद्ध की परिकल्पना है। यह तो षुभ और अषुभ के बीच युद्ध का प्रतीक मात्र है। कौरव अषुभ के प्रतीक हैं, पांडव षुभ के प्रतीक हैं। यह लड़ाई भीतरी है, अंतरात्मा में चल रही हैं। यह लड़ाई बाहर नहीं हो रही है।
बस इतनी-सी व्याख्या कर ली, फिर सारी गीता को स्वीकार करनें में कोई अड़चन न रही।
बुद्ध के साथ यही हुआ। बुद्ध को पूरा अंगीकार करना बहुत कठिन है। कृश्ण को भी अंगीकार किया जा सकता है, कुछ हेर-फेर किए जा सकते हैं। लेकिन बुद्ध ने तो सीधा-सीधा विरोध किया वेद का। यह बर्दाष्त के बाहर था कि जो व्यक्ति वेद का विरोध करे, जो कहे कि वेद कचरा हैं, इसको कैसे भगवान स्वीकार करें? लेकिन यह आदमी तो किमती था ही, इसमें कोई षक-षुबा नहीं था। जो इसके पास आए, इससे प्रभावित हुए। तो फिर कुछ रास्ता खोजना पड़ेगा। यह एक द्वंद्व खड़ा होगया कि कैसे हम बुद्ध को पचांए। तो एक कहानी गढ़ी पुराणों ने कि भगवान ने स्वर्ग और नर्क बनाए हैं। और हजारों साल बीत गये, नर्क कोई गया ही नहीं, क्योंकि लोग पाप ही नहीं करते थे। तो षैतान ने जाकर भगवान को कहा कि नर्क बनाया किस लिए है? मैं नाहक बैठा हूं। मेरे सारे कारिन्दे खाली बैठे हैं। दफ्तर खोल कर बैठा हूं, कोई ग्राहक तो आता ही नहीं। तो यह दुकान किसलिए? या तो ग्राहक भेजें, हम बैठे-बैठे थक गये। हम अभ्यास सताने का कर-करके थक गये। किसको सतांए? और या फिर यह बंद ही कर दें काम। हमको छुटकारा दें। किसी और काम में लगा दें।
तो भगवान को षैतान पर दया आयी। उन्होंने कहा: ‘तू घबड़ा मत। तूने याद दिलायी सो ठिक किया। जल्दी ही मैं बुद्ध के नाम से अवतार लूंगा और लोंगो को भ्रश्ट करूंगा। और फिर इतने लोग नर्क आएंगे कि तुझे कोई चिन्ता न रह जाएगी।’ ऐसे भगवान ने बुद्ध का अवतार लिया और फिर लोंगो को भ्रश्ट किया। तब से नर्क में ऐसी भीड़-भाड़ है कि जाओगे तो एकदम जगह मिलने वाली नहीं है। कई दिन तो कतार में ही खड़ा रहना पड़ेगा।
देखते हो होषियारी पंडित की! उसने दोहरे काम कर लिए। उसने बुद्ध को भगवान भी मान लिया कि हैं तो भगवान के ही अवतार, लेकिन आए हैं जिस कारण से वह खतरनाक काम हैं। इसलिए सावधान भी रहना। इनकी बात में मत पड़ना, नहीं तो नर्क जाओगे।
राम में कोई अड़चन नहीं है। राम बिलकुल जैसे चाहिए पंडित के लिए, पुरोहित के लिए, न्यस्त स्वार्थो के लिए, ठीक वैसे ही हैं। इसलिए राम को अंगीकार कर लिया है। इसलिए रामायण घर-घर में पहुंच गयी है। इसलिए मस्तिश्क-मस्तिश्क में हमने उसे गुंजा दिया। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के ह्दय में हमने उसे बिठा दिया। इसलिए रामलीला चलने लगी; चल रही है सदियों से। हम बच्चों को दूध के साथ राम की कथा घोंट घोंट कर पिला देते हैं। यह उपाय है कि तुम कभी बगावत न करना, आज्ञाकारी रहना, अनुषासनबद्ध रहना, कभी स्वच्छंद न होना। हमेषा जो तुमसे बड़े हैं, वे सही हों कि गलत हों यह सवाल नहीं उठता; वे बड़े हैं, इसलिए आदर योग्य हैं। वे जो कहें वही मानना। यह तुम्हारा काम ही नही है सोचना कि क्या सही है और क्या गलत है।
मां-बाप को भी यह बात रूचती है, क्योंकि कौन मां-बाप नहीं चाहता कि बेटे आज्ञाकारी हों! बेटा बिलकुल गोबर-गणेष हो तो भी चलेगा, मगर आज्ञाकारी होना चाहिए। और बेटा कितना ही प्रतिभाषाली हो, अगर आज्ञाकारी न हो तो मां-बाप को अड़चन होने लगती है।
और जितनी प्रतिभा होगी उतनी ही आज्ञाकारीता मुष्किल होगी। यह ख्याल रखना। ये दोनों बातें साथ-साथ नहीं होती। प्रतिभा होगी तो स्वभावतःव्यक्ति सोचेगा। राजी होगा उन बातों में जिन बातों में राजी होना चाहिए। राजी होगा अपने बोध से, अपनी अंतःप्रज्ञा से, राजी होगा अपने कारण; इसलिए नहीं कि पिता कहते हैं कि मां कहती है। और इनकार करेगा तो अपने कारण। इनकार और स्वीकार उसके भीतर से आएंगे।
मां-बाप को भी जीम यह बात कि राम की बात पीटो। राम की बात समझाओ। राम को जितना ऊंचा उठा सको उठाओ। इससे बच्चों को भी नियोजित रखने में सुविधा होगी। धनपतियों को भी समझ में आयी। राज्यधिकारियों को भी समझ में आयी। राजाओं को भी समझ में आयी। राजनीतिज्ञों को भी समझ मे आयी। पंडित-पुरोहित, सबको बात जंची। जिनके हाथ में सत्ता हैं उन सबको बात जंची! कि राम की अगर हम प्रतिश्ठा कर रखें तो बगावत कट जाएगी।
भारत अकेला देष है, जहां कोई क्रांति नहीं हुई। और अगर भारत में कभी क्रांति के नाम से कुछ होता है तो ऐसा कचरा होता है कि उसको क्रांति कहने में भी षर्म आती है। अभी-अभी तुमने देखा, कुछ दिन पहले जयप्रकाष नारायण ने क्रांति कर दी थी। और देष भर के जितने मुर्दे थे और जितने गधे थे, उन सबके हाथ में सत्ता पहुच गयी थी। यह क्रांति थी! यह प्रतिक्रांति है। इसको दूसरी क्रांति कहा जाता था। वह तीन ही साल में टांय-टांय फिस हो गयी। यह महाक्रांति इतने जल्दी खत्म हो गयी! आज उसका कुछ पता ही नहीं कि वह क्रांति कहां गयी। खूब क्रांतियां हम करते हैं! चली-चलायी कारतूसे हैं। इनका कोई मूल्य नहीं।
भारत में क्रांति न होने का बड़े से बड़ा कारण एक है कि हमने जो मूल्य भारत को दिए हैं, वे क्रांति-विरोधी मूल्य हैं।
मेरी दृश्टी मे धर्म सबसे बड़ी क्रांति है, महत्तम क्रांति है। क्योंकि उसी क्रांति के द्वारा तो मूच्र्छा से जागते हो, निद्रा से उठते हो। तुम्हारे भीतर जो सोयी हुई आत्मा है, वह पहली दफा करवट लेती है और आंख खोलती है। तुम पहली दफा परमात्मा का स्मरण करते हो और पहली बार तुम्हें पता चलता है कि यह तो समाज की व्यवस्था है, यह तो कामचलाऊ हैं। एक और बड़ी व्यवस्था है अस्तित्व की, उस अस्तित्व की व्यवस्था के साथ अपना संबंध जोड़ना है। समाज की व्यवस्थाएं तो बदलती रहती हैं। कल जो सही था, आज गलत हो गया है। आज जो सही है, कल गलत हो जाएगा।
राम ने एक षुद्र के कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया था-इसलिए कि षुद्र को वेद-वचन नहीं सुनने चाहिए। राम को तुम धार्मिक व्यक्ति कहोगे? तो फिर जो लोग षूद्रों को जला रहे हैं, ये सब धार्मिक हैं। ये कुछ बुरा नहीं कर रहे हैं। ये तो बेचारे राम के ही पीछे चल रहे हैं। ये तो ठीक ही कर रहे हैं। ये षुद्रों को रास्ते पर लगा रहे हैं। ये षुद्र ज्यादा बगावती हुए जा रहे हैं! षुद्र सिर उठा रहे हैं। एक षूद्र ने सिर्फ सुन लिया वेद-वचन, पाप हो गया, महापाप हो गया! और राम जैसे व्यक्ति को उसके कानों में सीसा पिघलवा कर भर देना पड़ा। फिर भी हम राम को धार्मिक कहे चले जाएंगे। मगर उस दिन यह बात चलती थी। उस दिन यह बात ठीक थी। उस दिन कोई अड़चन न थी। षूद्र की गिनती आदमी में थी ही नहीं। षूद्र तो पषुओं जैसा था। उनका हक क्या था? स्त्री का कोई हक नहीं था।
इसलिए वाल्मीकि रामायण में जब राम जीत जाते हैं, लंका-विजय हो जाती है और सीता को ले कर लौटते हैं, तो जो पहला मिलन होता है सीता से, उसमें राम कहते हैं कि ‘ऐ स्त्री, तू ध्यान रखना कि मैंने तेरे कारण युद्ध नहीं किया है। यह युद्ध तो कुलमर्यादा के लिए किया है। यह तो वंष-मर्यादा के लिए किया है। तू इस भ्रांति में मत पड़ जाना कि तेरे लिए युद्ध किया है।’ कुल-मर्यादा! यह अहंकार! यह कुल-मर्यादा क्या है? यह अहंकार का ही दूसरा नाम है।
सीता का कोई आदर नहीं है, कोई सम्मान नहीं है। सीता के लिए युद्ध ही नहीं किया गिया। और तभी तो बड़ी आसानी से सीता को फिर ऐसे निकाल कर फेंक दिया, जैसे कोई दूध में पड़ी मक्खी को निकाल कर फेंक देता है। सीता का कोई मूल्य नहीं है, कोई प्रतिश्ठा नहीं है, कोई सम्मान नहीं है।
इन राम को मैं धार्मिक स्वीकार नहीं करता हूं-नहीं कर सकता हूं! यह उस दिन की सामाजिक व्यवस्था से तो इनका तालमेल बैठता था। जो प्रचलित मूल्य थे, ये उनके अनुकूल पड़ते थे, बिलकुल अनुकूल पड़ते थे। लेकिन जीवन के सत्य से इस बात का कोई तालमेल नहीं है। स्त्री के प्रति सम्मान न हो, ऐसी अपमान की धारणा, इतना अभद्र वचन! कुछ कहने की जरूरत भी न थी। कोई सीता पूछ भी नहीं रही थी कि तुमने किस लिए युद्ध किया। मगर कह देना जरूरी था, ताकि सीता को जाहिर हो जाए, यह भ्रंाति कहीं मन में न रह जाए कि ‘राम जैसे व्यक्ति स्त्रियों के लिए नहीं लड़ते। स्त्रियों में रखा ही क्या है! अरे हड्डी-मांस-मज्जा!.....जैसे पुरूशों में कुछ सोना भरा है!
और यही राम जंगल में स्वर्ण-मृग को देख कर उसके पीछे भाग चले थे। तुमने भी स्वर्ण-मृग देखा होता तो तुम भी दस दफा सोचते कि स्वर्ण के कहीं मृग होते हैं! बुद्धू से बुद्धू आदमी भी एक दफा ठिठकता कि यह मैं क्या कर रहा हूं, कही सोने के मृग होते हैं! लेकिन चल पड़े। सोने के मृग के पीछे चलपड़े! भूल गये कि सारा जगत मृग-मरीचिका है! मृग तक ने धोखा दे दिया। जगत को मृग-मरीचिका मानना हो दूर।
लक्ष्मण ने एक स्त्री की नाक काट ली, कोई ऐतराज नहीं। अभद्र व्यवहार था। एकदम अभद्र व्यवहार था। लेकिन कोई विरोध नहीं। ये जिन ऋशि-मुनियों ने राम को खबर दी कि हमें बहुत सताया जा रहा है, ये राक्षस हमें सता रहे हैं, ये हमें परेषान करते हैं, ये हमारे यज्ञ-हवन में बाधा डालते हैं-ये ऋशि-मुनि कोई और नहीं थे, ये सिर्फ एजेन्ट थे। जैसे ईसाई मिषनरी होते हैं, वे सी.आई.ए. के एजेन्ट होते हैं। बस ईसाई मिषनरी यानी ऋशि-मुनि। ईसाइयों के पहले ऋशि-मुनि चले आते हैं। पहले वे जाल फैला देते हैं। पहले बाइबिल आती है, फिर पीछे से बन्दूक आती है। ये सब राजनैतिक जालसाजियां थीं।
राम के व्यक्तित्व में मुझे कोई न तो बुद्ध की प्रखरता दिखाई पड़ती है, न कृश्ण का अद्भूत समग्र रूप दिखाई पड़ता है, न जीसस की क्रांति दिखाई पड़ती है, न लाओत्सु के वचन-एक-एक वचन कि एक-एक हीरा-ऐसे कोई वचन दिखाई पड़ते हैं।
मगर आनंद मैत्रेय, तुम ठीक कहते हो कि क्यों हजारों वर्शों से राम का नाम जीवित है? जीवित रहेगा। जब तक न्यस्त स्वार्थ जीवित रहेंगे, जब तक बेईमान षोशण जारी रखना चाहते हैं, तब तक वे राम को जीवित रखेंगे। उनकी आड़ में षोशण बड़ी आसानी से चल रहा है, बड़ी सुविधा से चल रहा है। राम-कथा चल रही है और पीछे कुछ और ही कथा चल रही है।
मैं जब यह कहता हूं तो कठिनाई होनी स्वाभाविक है। क्योंकि तुम्हारी इतनी प्राचीन मान्यता को चोट लगे तो तुम तिलमिला जाओ, इसमें कुछ आष्चर्य नहीं। लेकिन मेरी भी मजबूरी है, मैं वही कह सकता हूं, जो मुझे दिखाई पड़ता है, जैसा मुझे दिखाई पड़ता है। उसमें मैं रंचमात्र फर्क नहीं कर सकता। तुम्हें अच्छा लगे तो, तुम्हें बुरा लगे तो-वह तुम्हारी मौज। लेकिन राम में मुझे कुछ धर्म जैसी बात दिखाई नहीं पड़ती। अच्छे आदमी थे, भले आदमी थे। आज्ञाकारी थे। अपने समय की मान्यताएं और मूल्यों के अनुकूल थे। जिसको सज्जन कहें, सच्चरित्र कहें। मगर संत नहीं।
ये तीन षब्द ठीक से समझ लेना। एक तो दुर्जन होता है, जो समाज के मूल्यों के विपरीत चलता है। एक सज्जन होता है, जो समाज के मूल्यों के अनुकूल चलता है। और एक संत होता है, जो न तो प्रतिकूल चलता है न अनुकूल चलता है; जो अपनी अन्तःप्रेरणा से जीता है। फिर कभी प्रतिकूल पड़ जाती है उसकी अन्तःप्रेरणा, कभी अनुकूल पड़ जाती है। वह गौण बात है। प्रतिकूल पड़े तो ठीक, अनुकूल पड़े तो ठीक।
लेकिन राम तो बिलकुल लकीर के फकीर हैं। वे तो लीक-लीक चलते हैं। वे तो एक-एक कदम सम्हाल कर चलते हैं। वे तो फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं। एक धुब्बड़ ने कह दिया.....अब धोबियों की भी बात का कोई मतलब होता है..... कि बस सीता को निकाल फेंका! जैसे बहाना ही खोज रहे हों! जैसे रास्ते में ही बैठे हों! ऐसा लगता है जैसे धुब्बड़ से खुद ही कहलवा दिया हो। एक आदमी अगर कह दे तो इतनी घबड़ाहट क्या? अग्नि-परीक्षा भी ले ली थी सीता की। अग्नि-परीक्षा भी बेकार हो गयी फिर!
और कभी तुमने सोचा कि सीता की अग्नि-परीक्षा ली, खुद भी तो अग्नि-परीक्षा देनी चाहिए थी। यह कैसा न्याय हुआ? सीता समझो कि इतने दिन रावण के वहां रही, पता नहीं क्या हुआ उसके चरित्र का। लेकिन राम भी तो इतने दिन सीता के बिना रहे थे, पता नहीं क्या हुआ इनके चरित्र का! ऐसे इतिहासज्ञ हैं, जिनकी मान्यता है कि राम का षबरी से प्रेम था। इसमें कुछ सचाई मालूम पड़ती है, क्योंकि सिर्फ प्रेमी ही एक-दूसरे के जूठे बेर खा सकते हैं, दूसरा तो कभी नहीं खा सकता। और मुझे षक है कि राम सीता के जूठे बेर खाते। एक धुब्बड़ के कहने पर जिसको भेज दिया जंगल, गर्भवती स्त्री, उसके जूठे बेर ये खाते, यह षक की बात है।
लेकिन रामलीला में तुमने देखा होगा कि षबरी को बूढ़ी बताया जाता है। लेकिन जिन्होंने षोध की है इस पर काफी, उनका कहना है कि षबरी युवा थी और सुन्दर थी। और जंगल का सौन्दर्य था। अल्हड़ सौंदर्य था। तो राम को अगर सीता की परीक्षा लेनी थी तो इतना तो न्यायुक्त होना ही चाहिए कि खुद भी गुजर गये होते आग से, डर क्या था? दोंनो साथ-साथ गुजर गये होते हाथ मे हाथ लेकर। यह ज्यादा उचित मालूम होता। लेकिन राम तो नहीं गुजरे अग्नि-परीक्षा से। पुरूश पुरूश है! कहते हैं न मर्द बच्चा मर्द बच्चा!पुरूश को कोई परीक्षा देनी पड़ती है! कोई सवाल नहीं! वह तो कुछ गड़बड़ भी करे तो चलेगा। वह तो गड़बड़ नहीं करेगा, यह हो कैसे हो सकता है?
मगर स्त्री को पवित्र होना चाहिए। क्यों? ये दोहरे मापदण्ड क्यों? धार्मिक व्यक्ति के दोहर मापदण्ड नहीं होते। उसका मापदण्ड एक ही होगा। जो दूसरे के लिए होगा, वही अपने लिए होगा। जो अपने लिए होगा, वही दूसरे के लिए होगा। उसके लिए स्त्री-पुरूश का कोई फासला नहीं होगा।
लेकिन स्त्री की कोई कीमत ही नहीं थी। स्त्री को तो कहते ही रहे-स्त्री सम्पदा। उसका कोई मूल्य नहीं हैं। जैसे कुर्सी है, फर्नीचर है, पलंग हैं, बिस्तर हैं-ऐसी ही स्त्री-पैर की जूती! तो उसकी जांच कर लेनी जरूरी है कि इस जूती को किसी और ने तो नहीं पहना! अपने पैर की थोड़े ही जांच करवानी पड़ेगी कि हम तो कोई दूसरी जूती नहीं पहने रहे!
अग्नि-परीक्षा लेने के बाद भी, फिर जरासा आदमी ने एक संदेह उठा दिया और सीता को छोड़ दिया। जैसे बहाना चाहिए था। अगर ऐसा ही था कि एक आदमी की बात भी इतनी चोट करती थी, जैसा लोग कहते हैं कि एक आदमी की भी निंदा राम सह नहीं सके, ऐसा उनका उज्ज्वल व्यक्तित्व था, तो खुद भी सीता के साथ चले जाते। यूं भी चैदह साल रह गये थे बाप के कहने से और थोड़े बहुत वर्श रह लेते जंगल में। लेकिन खुद भी चले जाते। तो मेरे मन में कीमत होती। तो मैं कहता, यह बात समझ में आती है। लेकिन खुद तो राजा बने बैठे रहे, सीता को निकाल बाहर कर दिया।राज्य की ज्यादा कीमत है! पद की ज्यादा कीमत है! एक जीवन्त स्त्री का कोई मूल्य नहीं है!
और उससे भी झूठ बोला। उसे भी बताया नहीं कहां भेजा जा रहा है। उसे भी धोखा दिया। और फिर मर्यादा-पुरूशोत्तम हैं! अपनी ही पत्नी को धोखा दिया। कम से कम कहना तो था। कम से कम साफ तो कर देनी थी बात। और मुझे लगता है कि सीता इतनी बलवती स्त्री थी, निष्चित ही मेरे मन में राम से कहीं सीता का मूल्य ज्यादा है-कि अगर सीता को कहा होता तो सीता ने कहा होता कि ठीक है, मैं स्वंय जाती हूं। यह धोखा देने की कोई जरूरत न थी, कोई आवष्यकता न थी।
रवीन्द्रनाथ ने बुद्ध के संबंध मे एक कविता लिखी है। जब बुद्ध लौटे बारह वर्शो के बाद राजमहल बुद्ध होकर, तो यषोधरा ने उनसे एक ही प्रष्न पूछा-उनकी पत्नी ने- कि मुझे सिर्फ एक बात आप बता दें, जो मेरे मन को काटती रहीः आप अगर मुझसे कह कर गये होते तो क्या आप सोचते हैं, मैं आपको रोकती? इतना भर मुझे कह दें! क्या मेरे क्षत्रिय होने पर आपको इतना भी भरोसा न था? क्या मैं क्षत्राणी नहीं हूं? क्या क्षत्रानियों ने अपने पतियों को तिलक करके युद्ध के मैदान पर नहीं भेज दिया है? फिर आप तो सत्य की खोज में जा रहे थे। मैं आपके चरण पखारती, आपके चरणों पर फूल चढ़ती, आपको विदा देती। इतना सौभाग्य मुझे दिया दे होता। क्या आपको षक था कि मैं रोती, चिल्लाती, चीखती, रोकती आपको? इतना भर मुझे कह दें। अगर मुझे कोई चीज कचोटती रही है बारह वर्शो में तो सिर्फ एक कि मुझे कहा क्यों नहीं! क्या मुझ पर इतना भी भरोसा नहीं था?
और रवीन्द्रनाथ ने ठीक किया है कि बुद्ध सिर झुकाए खड़े रहे गये हैं। कविता में बुद्ध से उत्तर नहीं बना देते। क्या उत्तर देंगे? बात तो गलत थी ही। बुद्ध गये थे द्वार तक, देखा था आंख भर कर पत्नी को, बेटे को और फिर चुपचाप लौट आए थे; आवाज भी न हो, कहीं पत्नी रोके न!
पुरूशों को स्त्रियों पर कभी भरोसा ही नहीं रहा। स्त्रियों को उन्होंने कभी आत्मवान नहीं माना। स्त्रियों की गिनती उन्होंने हमेषा नम्बर दो की मनुश्य-जाति में गणना की हैं। दोयम। आदमी प्रथम हैं, पुरूश प्रथम है। स्त्री तो ठीक है, नाममात्र को।
राम ठीक जमे स्वार्थी लोगों को। इसलिए उनके मंदिर बने, पूजा चली, रामलीलाएं चलीं। और कोई कारण नहीं है। और राम के इस समादर ने ही भारत से का्रंति को विलुप्त कर दिया। फिर जो भी हमारे ऊपर सत्ताधिकारी रहा, हम उसी के लिए जी-हजूरी करते रहे। दो हजार साल तक हम गुलाम रहे बड़ी मौज से, क्योंकि जो सत्ता में हो हम तो उसके ही जी-हुजूर! छोटा-सा देष इंग्लैंड़ हम पर कब्जा किए बैठा रहा, हम से कुछ करते न बना। करने का सवाल ही न था। हम तो आज्ञाकारी!तो हमने चुपचाप आज्ञा मान ली। और राजा तो भगवान का प्रतिनिधी होता है। वह तो पृथ्वी पर भगवान का प्रतीक है। इसलिए जो भी राजा है, हम उसके ही सामने झुकने को, नाक रगड़ने को तैयार हैं।
गुलाम होना हमारी प्रवृत्ती हो गयी। हमारी गुलामी की प्रवृत्ती में, हमारी दासता की प्रवृत्ती में, हमारी राम के प्रति जो धारणा है, उसने बहुत हाथ बंटाया है।
इसलिए मैं राम को कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं मानता। सज्जन मानता हूं, संत नहीं मानता। सज्जन होना हो तो राम के पीछे चलना। संत होना हो तो फिर जरा और ज्योतिर्मय व्यक्ति को पकड़ना होगा। फिर किसी बुद्ध को, किसी जीसस को, किसी लाओत्सु को, किसी ऐसे व्यक्ति को जिसके भीतर आग जलती हो, जिसके भीतर क्रांति, जिसके भीतर अकेले जाने का साहस हो। सारे मूल्यों के विपरीत भी अगर उसकी आत्मा कहे तो जाए। चाहे कोई भी कुर्बानी देनी पड़े, चाहे दुनिया कुछ भी कहे, फांसी पर लटका दे, तो भी कोई फिक्र नहीं। वह फांसी चुनना पसन्द करेगा, मगर झुकेगा नहीं। टूट जाना पसन्दकरेगा, मगर झुकेगा नहीं। समझौता उसकी वृत्ति नहीं होगी। संघर्श उसका जीवन होगा। साहस उसका गुण होगा।

दूसरा प्रश्नः ओशो, मैं जब घर से चला था तो बहुत अच्छे-अच्छे विचार थे--वेदांत और निर्वाण की बातें थीं; मगर यहां आकर मन में सारे दिन लड़कियों के विचार ही चलते रहते हैं। बहुत कोषिष करता हूं, हटते ही नहीं। यहां तक की ध्यान में भी विचार चलते रहते हैं। मैं शादीशुदा हूं और अपनी पत्नी के बिना कभी किसी स्त्री के पास नहीं गया। भगवान, क्या करूं, कोई रास्ता बताएं!

ईश्वरानंद! तुम शुद्ध भारतीय हो! यही तो भारतीय संस्कृति का लक्षण है। यह तो आधारषिला है भारतीय संस्कृति की। बातें ब्रम्ह की, निर्वाण की। बातें वेदान्त की। और भीतर? भीतर सब तरह के सांप-बिच्छू। भीतर सब तरह का उपद्रव। उसी उपद्रव को दबाने के लिए तो वेदान्त और निर्वाण और ब्रम्ह, इनकी चर्चा। इस चर्चा में तुम अपने को उलझाए रखते हो, ताकि भीतर की सचाइयां दिखाई न पड़ें।
लेकिन यहां यह चर्चा काम नहीं आएगी। यह चर्चा तोड़ देना ही यहां के अनिवार्य प्रयोंगे में से एक है। यहां तो मैं चाहता हूं कि तुम जीवन के असली प्रष्नों से परिचित होओ, तुम्हारी असली समस्यांए प्रगट होनी चाहिए।
तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोग, जरा उनको गौर से तो देखो! बातें धर्म की, मगर उनके जीवन में ठीक उससे उल्टा पाओगे। जाएंगे मंदिर में भगवान की पूजा को, और अगर कोई स्त्री मिल गयी तो धक्का मारे बिना नहीं रहेंगे। हालांकि धक्का भी धार्मिक ढ़ंग से मारेंगे। ऐसा मारेंगे कि किसी को यह भी षक न हो कि धक्का मारा है। राम राम राम राम करते हुए धक्का मारेंगे। माला फेरते रहेंगे और धक्का मारेंगे। पूजा का थाल घुमाते रहेंगे, लेकिन नजर भगवान पर नहीं होगी, नजर चारों तरफ घूमती रहेगी।
जिस मंदिर में जितनी ज्यादा स्त्रियां जाएंगी, उस मंदिर में उतने ज्यादा पुरूश जाएंगे। जिस मंदिर में स्त्रियां न जाएं, उस मंदिर में पुरूश जाना बंद हो जाते हैं। या तो पुरूश जाते हैं अपनी पत्नी के पीछे कि कोई और धक्का न मार दे, या जाते हैं दूसरी पत्नियों के पीछे कि अपन धक्का मार लें। बाकी और किसी काम से मंदिर जाते हैं, दिखाई नहीं पड़ता। और चंदन-मंदन लगाए हुए हैं। जनेऊ वगैरह पहने हुए हैं। राम-नाम की चदरिया ओढ़ी हुई है। ऐसा भक्ति-भाव दिखलाते हैं कि कोई सोच भी नहीं सकता कि ये और कुछ उपद्रव करेंगे!
ठीक ही हुआ ईष्वरानंद, जो यहां आकर तुम्हें अपनी असलियत दिखाई पड़ी यहां असलियत दिखाई पड़ेगी ही, क्योंकि यह कोई मुर्दा आश्रम नहीं है। और किसी आश्रम में गये होते, जहां मरे-मराए लोग बैठे हुए हैं, तो उन्हें देख कर तुम्हें और भी ज्यादा ब्रम्हचर्या आती। उन्हें देख कर और घबड़ाहट लगती कि अब मौत करीब ही है समझो, कि यही दषा अपनी हो जाने वाली है अब। उदासीनता पैदा होती है।
यह तो एक जीवंत स्थल है। यह कोई मंदिर नहीं है, मधुषाला है। युवा हैं। सुन्दर युवतिंया हैं, सुन्दर युवक हैं। अगर यहां ध्यान कर सके तो ही समझना कि ध्यान किया। उधर ऋशिकेष वगैरह में जाकर षिवानंद के आश्रम में बैठ कर ध्यान करने में कोई अड़चन नहीं। करोगे क्या और?...कि पहाड़ देखो, कि गंगा मैया देखो, कि ध्यान करो! यहां तुम्हें अड़चन हो रही होगी। मैं समझा। तुम्हारा वेदान्त एकदम बह गया। निर्वाण वगैरह की चर्चा खो गयी। मन ने कहा होगा: ‘अरे भई ठहरो, वेदान्त और निर्वाण सब पीछे देख लेंगे। चार दिन की जिन्दगी है।’ और वेदान्त की बात तो तभी करना चाहिए, जब दांत गिर जाएं। इसलिए तो उसको ‘वेदान्त’ कहते हैं। और निर्वाण का तो मतलब यह होता है: मिटना। जब मरने ही: लगो, तब सोच लेना निर्वाण की बात। अभी तो जीना है। अभी तो चार दिन गुलछर्रे कर लो!
यहां तो बड़ी मुष्किल हो जाएगी। यहंा तुम ध्यान करने बैठोगे, आंख बंद करोगे, आंख खुल-खुल जाएगी। तुम लाख उपाय करो आंख बंद करने के.....। तुम अपने घर में बैठोगे, तुम कहते हो कि मैं षादीषुदा हूं और अपनी पत्नी के बिना कभी किसी स्त्री के पास नहीं गया।’...घर में बैठोगे, पत्नी को देख कर वैसे ही आखं बंद होती है। आदमी को एकदम विपस्सना सूझती है। पत्नी को देखा कि एकदम ऊंची बातें उठती हैं, ऊंचे विचार आते हैं-त्याग, तपष्चर्या! जरूर आती होगी।
उसी भ्रांति में तुम यहां आ गये। पत्नी को साथ ले आना था कि वह बगल में ही बैठी रहती तो तुम्हें आंखे न खोलने देती। डर के मारे न खोल सकते थे आंखे। ऐसी डराए रखती हैं पत्नीयां भी!
चंदूलाल के बेटे ने उनको पत्र लिखा यूनिवर्सिटी से कि मैं एक लड़की के प्रेम में पड़ गया हूं। बड़ी सुंदर है। फोटो भेज रहा हूं। विवाह का तय कर लिया है। आपके आषीर्वाद की अपेक्षा है।
चंदूलाल की पत्नी बहुत खुष हो गयी। उसने कहा कि लिखो इसी वक्त बेटे को पत्र! सुंदर चित्र है और पैसे वाले कि लड़की है। जाहिर नाम है। कुलीन परिवार है। ऐसा मौका कब मिलेगा? चूकना ही नहीं चाहिए। तो चंदूलाल ने पत्र लिखा कि बेटा भगवान की तुम कृपा है। षीघ्रता करो! यह अवसर हाथ से न जाने दो। विवाह तो जीवन को सबसे मधुर संबंध है! यही तो जीवन का आनंद है!
ऐसी-ऐसी अच्छी-अच्छी बातें लिखी जैसी लिखनी चाहिए। और जब चिट्ठी पूरी हो गयी हो जल्दी से पुनष्च करके लिखा कि ‘अरे मूरख, तेरी मां अभी-अभी बाहर गयी है। मुझे देख, मेरी गति देख! और भूल कर इस झझंट में न पड़ना। और ज्यादा मैं लिख नहीं सकता, वह वापिस आ रही है। सो मैं चिट्ठी बंद कर रहा हूं। थोड़ा लिखा ज्यादा समझना। उल्लू के पट्टे, तुझे इसलिए भेजा है विष्वविद्यालय में? बच सके तो बच जा!’
पत्नी के सामने लिखना पड़ा......आषीर्वाद ही आषीर्वाद बरसाए। लेकिन पुनष्च में असली बात लिख दी। यही चंदूलाल का बेटा, छोटा जब था तो एक दिन पूछ रहा था चंदूलाल से कि पापा, दूल्हों को घोड़ों पर क्यों बिठाते हैं, गधों पर क्यों नहीं बिठाते? चंदूलाल ने कहा कि बेटा, ताकि वधू को जानने में अड़चन न हो कि कौन दूल्हा है। दो गधे देख कर उसको मुष्किल पड़ेगी कि किसको वरमाला पहनांऊ। सो घोड़े पर बिठाते हैं बेटा, ताकि साफ दिखाई पड़ता रहे कि गधा कौन है और घोड़ा कौन है।
ईष्वरानंद, अगली बार आओ तो पत्नी को साथ ले आना। वह पास ही बैठी रहेगी। खुद तो विपस्सना करेगी नहीं, मगर तुमको करवाएगी।
पत्नियों में एक गुण होता है, पतियों को धार्मिक बना देती हैं, एकदम सच्चरित्र बना देती हैं। बनना ही पड़ता है मजबूरी में। अगर पत्नियां न हों तो संसार एकदम भ्रश्ट हो जाए। सभी पुरूश चाहते हैं अविवाहित रहें।
जाॅर्ज बर्नार्ड षाॅ कहा करता था कि दुनिया में आनंद ही आनंद हो जाए, अगर सभी पुरूश अविवाहीत रहें औरसभी स्त्रियां विवाहित। मगर यह हो कैसे? ये दोनों बातें एक साथ बन सकती नहीं।
 और यहां तुम्हारा जन्म भर का बंधा हुआ बांध टूट जाएगा। तुम ध्यान करने बैठे हो और कोई सुन्दर युवती नाचती हुई निकल जाएगी, कोई हाथ में हाथ लिए निकल जाएगा। कई दफा तुम्हें षक हो जाएगा कि तुम कहीं स्वर्ग तो नहीं पहुंच गए, अप्सराएं वगैरह तो नहीं आ गयीं! आंख मल कर तुम वापिस देखोगे कि मामला क्या है, जिन्दा हूं? मेनकाएं, उर्वषियां!
मगर यह अच्छा हुआ। इससे तुम्हें अपनी सचाई का पता चला। जो तुम्हारे भीतर दबा पड़ा है, वही सत्य है। जो ऊपर-ऊपर है, वह झूठ है। वह तो सत्य को छिपाने का आयोजन है। वह तो मलहम-पट्टी है। वह तो घाव को फूल से ढांक लिया है। इसे स्वीकार करो अपने सत्य को। इसे तुम इनकार मत करना। इनकार जिन्दगी भर लिया है, इसीलिए यह अभी तक तुम्हारे पीछे पड़ा है। स्वीकार करो। इसमें कुछ बुरा नहीं है।
यही बड़ी हैरानी की बात है। एक सुन्दर गुलाब के फूल को देखकर तुम्हें कोई ग्लानि नहीं होती और कोई अपराध-भाव पैदा नहीं होता। सुबह सूरज ऊगता है, सुन्दर प्रभात, तुम्हें कोई अड़चन नहीं होती। पक्षी गीत गाते हैं, तुम्हें कोई एतराज नहीं होता। एक सुन्दर स्त्री को देखकर तुम्हें क्यों एतराज होता है? और तुम्हारे भीतर अगर सौन्दर्य की प्रषंसा उठती है तो इसमें बुराई कहां है, पाप कहां है? गुलाब का फूल जिसने बनाया, उसी ने यह सुन्दर स्त्री भी बनायी, उसी ने ये सुन्दर पुरूश बनाये। जिसने सुबह सूरज उगायी, जो सांझ को सूर्यास्त देगा, जो रात आकाष को तारों से भर देता है, उसी की तूलिका के ये सारे खेल हैं।
मैं तुमसे यह नहीं कहूंगा कि सुन्दर स्त्री को देखकर आखं बंद कर लो। मैं तुमसे कहूंगा: सुन्दर स्त्री में भी परमात्मा की ही तुलिका को देखना षुरू करो। सुन्दर स्त्री में भी उसकी ही कलाकृति है। सुन्दर स्त्री के कंठ में भी वही गा रहा है, जो पक्षियों के कंठ से गा रहा है। वह जो कोयल की कूक है, वही सुन्दर स्त्री का सौंदर्य है। क्यों यह भेद करते हो? लेकिन तुम्हें सदियों से यह सिखाया गया है कि यह पाप है।
‘यह पाप है’-यह धारणा गलत है। कुछ भी पाप नहीं है। स्वभाविक है। अस्वभाविक होगा कि एक सुन्दर स्त्री निकल जाए और तुम्हारे मन में कोई खयाल ही न उठे। तुम पत्थर हो कि आदमी हो? भाव तो उठना चाहिए। काव्य जगना चाहिए। तुम्हारी हृद्य-तंत्री की वीणा बज जानी चाहिए। कोई तार छिड़ जाने चाहिए। मगर जो फर्क होगा धार्मिक-अधार्मिक में, वह यही होगा कि हर सौदर्य धार्मिक व्यक्ति को ईष्वर का स्मरण दिलाएगा और अधार्मिक को ईष्वर का विस्मरण करा देगा।
अब तुम अधार्मिक व्यक्ति हो। नाम तुम्हारा ईष्वरानंद है, मगर अधार्मिक व्यक्ति हो। सुन्दर स्त्रियों को देख कर तुम कहते हो: ‘अच्छे-अच्छे विचार थे, वेदान्त और निर्वाण की बातें थीं, सब खो गयीं।’ सुन्दर स्त्री को देख कर तुम्हें परमात्मा के प्रति अनुग्रह का भाव पैदा होना चाहिए। उसने यह इतना सुन्दर जगत रचा, उसकी बड़ी कृपा है, उसकी बड़ी अनुकम्पा है! तुम्हें आंखें दीं देखने को, कि रंग देखो, सौन्दर्य देखो! तुम्हें कान दिए सुनने को, कि ध्वनि सुनो, संगीत सुनो! तुम्हें हाथ दिए, कि तुम स्पर्ष कर सको। तुम क्यों इतने घबड़ाए हुए हो? परमात्मा नहीं डरा तुम्हें यह सब देने से, तुम परमात्मा से भी ज्यादा अपने को ऊपर उठाने की कोषिष में लगे हो! परमात्मा जिससे नहीं डरा, तुम्हारे महात्मा उससे तुम्हें डरवा रहे हैं! तुम्हारे महात्मा सब परमात्मा के खिलाप हैं।
मैं परमात्मा के खिलाफ नहीं हूं, तुम्हारे महात्माओं के खिलाफ हूं। क्या अड़चन है? सुन्दर स्त्री आए तो उसे ध्यानपूर्वक देखो न? उस वक्त आंख बंद करने की क्या जरूरत? जबरदस्ती आंख बंद करोगे, मींच भी लोगे आंख तो भी क्या होगा? भीतर तो वही सुदंर स्त्री गूंजती रहेगी-और भी ज्यादा सुदंर हो जाएगी, और भी ज्यादा तुम रूग्ण हो जाओगे। और वही झूठी आंख बंद है तुम्हारी। उसका कोई मूल्य नहीं हैं।
लेकिन हम इस तरह की कहानियां सुनते हैं कि सूरदास ने अपनी आंख फोड़ लीं सुंदर स्त्री को देख कर। यह भी कोई बात हुई! अगर सूरदास ने यह किया हो तो मैं सूरदास को कभी क्षमा नहीं कर सकूंगा। सुंदर स्त्री को देख कर आंखें फोड़ लीं! लेकिन आंखें फोड़ लेने से क्या हो जाएगा? क्या तुम सोचते हो अंधे आदमी ब्रम्हचर्य को उपलब्ध हो जाते हैं? तो तो धन्य हैं जो अंधे पैदा हुए! फिर अंधों पर दया न करो, फिर तो दया खुद पर करो। परमात्मा की बड़ी कृपा है कि उसने अंधे पैदा किए, क्योंकि वे ब्रम्हचर्य को पहले ही उपलब्ध हैं। अंधा आदमी ब्रम्हचारी नहीं हो जाता और जिस आदमी ने आंखें फोड़ ली हैं, यह सिर्फ इस बात की खबर दे रहा है कि इसके भीतर बड़ी प्रज्वलित वासना होगी। और यह घबड़ाया हुआ है, डरा हुआ है, भयभीत है। और वासना भीतर है, आंखें फोड़ने से क्या होगा? आंख बिलकुल बंद कर लो, पट्टी बांध लो, तो भी क्या होगा? भीतर सपने उठते रहेंगे। और भीतर वासना और भी विकृत हो कर प्रगाढ़ हो जाएगी, क्योंकि उसके निकास का भी कोई उपाय न रह जाएगा।
मैं तुम्हारी वासना के दमन के पक्ष में नहीं हूं। मैं तुम्हारी वासना के रूपांतरण के पक्ष में हूं। मैं चाहता हूं तुम्हारा सहज जीवन, सामान्य जीवन, स्वभाविक जीवन स्वीकृत हो। कहीं कुछ निशेध न हो। और इसी सहज जीवन में धीरे-धीरे प्रार्थना प्रविश्ट हो, परमात्मा का अनुग्रह प्रविश्ट हो, ध्यान प्रविश्ट हो।
क्या अड़चन है? आंख बंद करके ही ध्यान किया जाता हैः
कया?..एक सुन्दर स्त्री को देखकर भी ध्यान हो सकता है। उसे देखते-देखते भी ध्यान हो सकता है। उसे देखते-देखते तुम ध्यानमग्न हो सकते हो। सुन्दर स्त्री प्रतिमा का काम कर सकती है। ऐसा ही सुन्दर पुरूश प्रतिमा का काम कर सकता है।
मैं जीवन के रूपांतरण का पक्षपाती हूं। लेकिन तुम अब तक दमन करते रहे होओगे। इसलिए तुम्हें यहां अड़चन आ रही है। जो भी दमन करते हुए यहां आ जाते हैं उनको अड़चन आती है। और फिर उनकी अड़चन का बदला वे मुझसे लेते हैं। फिर वे समझते हैं कि मैं यहां लोंगो को बिगाड़ रहा हूं। क्योंकि उनको लगता है उनको मैंने बिगाड़ दिया। अब जैसे तुम्हारा वेदान्त खिसक गया, निर्वाण खिसक गया, तुम गुस्से में जा सकते हो कि यह आदमी किस तरह का! यह आश्रम कैसा? मेरा वेदान्त, मेरा निर्वाण सब खिसक गया! तुम गुस्सा मुझ पर निकालोगे। तुम गालियां मुझे दोगे। तुम जाकर लोंगो को कहोगे कि वह जगह ठीक नहीं है।
सचाई यह है कि तुमने जिन्दगी भर गलत किया, उसका तुम्हें साक्षात्कार हो गया। धन्यवाद मानो, आभार मानो। अभी भी समय है। अभी भी रूपांतरण हो सकता है।
लेकिन कोई तुम्हें चैकाने वाला नहीं है। जिनके पास तुम जाते हो, तुम्हारे साधु-संत, वे तुमसे गये-बीते हैं। उन्होंने तुम से ज्यादा दमन किया है।
मुल्ला नसरूद्दीन अपनी पत्नी के साथ एक बगीचे में बैठा हुआ था। सांझ हो गयी, सूरज ढल गया, तारे निकलने लगे। पास की ही एक झाड़ी के पीछे एक युवक और एक युवती बड़ा प्रेमालाप कर रहे हैं। खूब छन रही हैं बातें, गहरी बातें छन रही हैं! दोनों चुपचाप बैठे सुन रहे हैं। आखिर युवक ने कहा कि मैं तुम्हारे बिना न रह सकूंगा, मैं मर जाऊंगा। तुम्हीं मेर जीवन हो, तुम्हीं मरे प्राण हो! तुम्हीं मेरा काव्य हो, तुम्हीं मेरी आत्मा हो! तुम मुझे मिली तो सब मिल गया और तुम मुझे नही मिल सकीं तो सब खो जाएगा। मैं विवाह का निवेदन करता हूं, मुझे अंगीकार करो। मैं नाकुछ हूं, अपात्र हूं; मगर मेरे प्रेम को देखो, मेरी आत्मा को पहचानो!
मुल्ला की पत्नी ने मुल्ला को हुद्दा मारा और कहा कि जरा खांसो-खखारो, सचेत कर दो। यह लड़का फंसा जा रहा है।
मुल्ला ने कहा: ‘भाड़ में जाए लड़का! मुझे किसने चेताया था? मैं क्यों किसी को चेतांऊ? जब मैं यही नालायकी की बातें तुझसे कर रहा था तो किसी हरामजादे ने न खासां न खखारा। हम भी क्यों खांसे-खखांरे? अरे अपनी भोगेगा, खुद भोगेगा। भोगने दो। जो जैसी करेगा वैसी भरेगा। जो जैसा बीज बोएगा वैसी फसल काटेगा। अब बो रहा है बेटा फसल, हम भी चुपचाप सुन रहे हैं कि अच्छा, काटोगे फसल।’
तुम जिनके पास जाते हो, उनको किसी ने नहीं चैंकाया, वे तुमको क्यों चैकाएं? वे सड़ रहे हैं, वे गल रहे हैं। वे तुम्हें देख कर प्रसन्न हो जाते है कि तुम भी सड़ो बेटा, तुम भी गलो बेटा। हे ईष्वरानंद, तुम भी जाओ नरक में, जहां हम पड़े हैं! तुम यहां-वहां क्यों जा रहे हो? वे भी तुमको पाठ सिखाएंगे कि जब भी कभी ऐसे विचार उठें, फौरन दबा दो, वहीं के वहीं दबा दो। षुरू में ही दबा देना चाहिए। जरा-सा भी विचार उठे, फौरन राम राम का जाप करने लगो, माना फेरने लगो। जोर-जोर से मंत्र पढ़ने लगो गायत्री, नमोकार। ऐसी धुन मचा दो भीतर कि जो बात उठ रही थी वह दबी की दबी रह जाए। और एकदम भीतर अच्छी-अच्छी बातें गुंजा दो। एकदम जूझ पड़ो। देर मत करना, क्योंकि जरा भी देर की तो कहीं बुरा विचार हावी न हो जाए। एकदम टूट पड़ो उस पर-वाह गुरूजी की फतह, वाह गुरूजी का खालसा! एकदम टूट पड़ो। उसको वहीं धर दबोचो। सत सिरी आकाल! छोड़ना ही मत उसको, क्योंकि जरा भी मौका दिया तो वह पकड़ न ले! और पकड़ ले तो फिर छोड़ेगा नहीं। इसलिए षुरू में ही निपट लेना ठीक है।
तुम जिनके पास जाओगे वे तुम्हें यही समझाएंगे। मैं तुमसे कहूंगा कि नहीं, जो भी विचार भीतर उठा रहे हैं.....तुम्हारा वेदान्त झूठा था, तुम्हारा निर्वाण झूठा था.....जो तुम्हारे भीतर विचार उठ रहे हैं, यही सच्चे हैं। इन्हें उठने दो। इनका निरीक्षण करो। ईष्वरानंद, बैठ कर साक्षी-भाव से इनको देखो। निंदा बंद करो। निंदा करोगे तो साक्षी नहीं हो सकोगे। निंदा में कैसे साक्षी बनोगे? जिसकी पहले से ही बुराई कर ली, जिसका पहले से ही हमने निर्णय कर लिया कि गलत है, उसके हम कैसे साक्षी बनेंगे? साक्षी होने के लिए जरूरी है। निश्पक्ष भाव से देखो कि ये विचार उठे रहे हैं, ठीक है। परमात्मा ने दिए हैं तो जरूर कोई प्रयोजन होगा।
और प्रयोजन है, और महत् प्रयोजन है! प्रयोजन यही है कि तुम इन विचारों को देखो, जागो, द्रश्टा बनो। दमन नहीं करना है, द्रश्टा बनना है। और जैसे-जैसे तुम्हारे भीतर साक्षी-भाव सघन होगा, तुम चमत्कृत हो जाओगे। इधर साक्षी घना होता है, उधर ये विचार विसर्जित होने लगते हैं-बिना दबाए। और जब बिना दबाए कोई चीज बदलती है तो मजा और, सौन्दर्य और, प्रसाद और, सुरभि और, सुगंध और! सिर्फ देखते-देखते तुम धीरे-धीरे पाओगे मन षंात हो गया, सब विचार गये-धन के, काम के, लोभ के, क्रोध के, सब गये। तुम जाग गये। ये नींद में ही चलते हैं। और ये जब चले जाते हैं सब, तब तुम समझोगे इनका प्रयोजन। इनका प्रयोजन यही था कि ये तुम्हें जगा दें। इनके बिना तुम कभी जागते हीं नहीं।
यह ऐसा ही समझो कि तुम्हें पांच बजे सुबह उठना है, गाड़ी पकड़नी है, अलार्म भर देते हो। हांलाकि तुमने ही अलार्म भरा, लेकिन पांच बजे अलार्म बजता है तो बुरा लगता है, अच्छा नहीं लगता। मैं ऐसे लोंगो को जानता हूं, जिन्होंने घड़ियां तोड़ दी हैं और जल्दी से अलार्म बंद करके करवट लेकर फिर सो जाते हैं। फिर आठ बजे पछताएंगे उठ कर कि गाड़ी चूक गयी। मगर उस वक्त गुस्सा आ जाता है कि यह दुश्ट अलार्म! अब जैसे अलार्म का कोई कसूर हो! तुम्हीं भरकर सोए। लेकिन तुम्हे गुस्सा आ जाता है।
ये सारे विचार जो तुम्हारे भीतर चल रहे हैं ईष्वरानंद, अलार्म की तरह हैं। इनके कारण ही तुम जागोगे, नहीं तो तुम्हारे जागने का कोई उपाय नहीं है। इनकी पीड़ा ही तुम्हे जगाएगी। इनका दंष ही तुम्हे जगाएगा। इनके कारण ही तुम साक्षी बनोगे, नहीं तो क्यों साक्षी बनते, क्यों द्रश्टा बनते?
समस्या ही न होती तो समाधान की कोई जरूरत न थी, समाधि की कोई जरूरत न थी। ये समस्याएं परमात्मा ने दी हैं, ये चुनौतियां हैं। इनको साहस से स्वीकार करो। भागो मत। भगोड़ापन ठीक नहीं। दबाओ मत, छिपाओ मत। आमने-सामने आने दो। और अगर तुम यहां आ गए हो हिम्मत करके, तो यह स्थल एकमात्र स्थल है जहां कुछ भी दबाने को कोई कारण नहीं है। मैं तुम्हे अंगीकार करता हूं तुम जैसे हो। तुम्हारा सत्कार करता हूं, तुम्हारा स्वागत करता हूं, तुम्हारा सम्मान करता हूं-तुम जैसे हो। बेषर्त। मैं कोई षर्त नहीं लगाता कि तुम ऐसे होओगे तो तुम्हारा सम्मान। तुम जैसे हो वैसे में तुम्हारा सम्मान....। तुम भी अपना सम्मान सीखो। परमात्मा ने तुम्हें ऐसा बनाया है तो जरूर कुछ राज होगा। आज पता न होगा तो कल पता चलेगा।
अपने भीतर की इन सारी प्रक्रियाओं को षंात हो कर देखते रहो। कभी-कभी भूल जाओगे साक्षी-भाव, कभी-कभी डूब जाओगे किसी विचार के साथ, लीन हो जाओगे। कभी-कभी तादात्म्य हो जाएगा। जब स्मरण आ जाए, फिर खड़े होकर देखने लगना। जब खो जाए, खो जाने देना। पछताना मत। अपराध-भाव से मत भरना।
अपराध-भाव दुनिया में बड़ी अधार्मिक बात है, क्योंकि जिस व्यक्ति के भीतर अपराध-भाव हो जाता है, उस व्यक्ति के भीतर आत्मग्लानि के कारण आत्मअपमान षुरू हो जाता है। वह अपने को दीन-हीन समझने लगता है। वह क्या खाक समझेगा-अहं ब्रम्हास्मि! वह कैसे समझेगा वेदान्त? वह कैसे समझेगा निर्वाण? वह कैस समझेगा कि मेरे भीतर बुद्ध विराजमान हैं, कि मेरे भीतर बुद्धत्व की क्षमता है। नहीं, यह असंभव है उसके लिए।
पहला काम है:पुरोहितों ने तुम्हें जो अपराध-भाव दे दिया है, उसे छोड़ दो। कुछ बुरा नहीं है। सब सुंदर है। जैसा है, सर्वांग सुंदर है। इस स्वीकृत को ही मैं आस्तिकता कहता हूं।
मैनें सुना है, एक गांव में एक गधा था, वह बड़ा आस्तिक था। गधे अक्सर आस्तिक होते हैं। उसकी खूबी यह थी कि उसका मालिक उसको लेकर घूमता था। और तुम उससे कुछ भी पूछो-ईष्वर है? वह सिर हिलाकर कहता कि हां। आत्मा है? वह सिर हिलाकर कहता कि हां। परलोक है-हां। पुनर्जन्म होता है-हां। लोग उसको पैसा देते मालिक को कि भई वाह! आदमीयों तक को पता नहीं इतना ज्ञान, ऐसा वेदान्त-और यह गधे को इतना वेदान्त आता है! और उसने उसको कुल इतना सिखा रखा था कि सिर हिलाना। उसको कुछ भी पूछो... वही पूछता था और गधे को पता था कि वह कुछ भी पूछे। वह पूछता ऐसी बात था जिसमें हां कहने से आस्तिकता पता चले।
एक भीड़ लगी थी। लोग वेदान्त की यह चर्चा सुन रहे थे। गधा गजब कर रहा था, पैसे पर पैसे पड़ रहे थे। लोग कह रहे थे: ‘गधा नहीं है, कोई योग-भ्रश्ट महात्मा है। कोई महायोगी रहा पिछले जन्म में।’
नसरूद्दीन भी खड़ा था। नसरूद्दीन ने कहा कि एक काम मैं भी करके देखना चाहता हूं। मैं इसके कान में कुछ कहना चाहता हूं, फिर यह हां भरे तब मैं देखूं!
 उसके मालिक ने कहा: ‘अच्छा!’ क्योंकि मालिक को तो पता ही था, कुछ भी कहो वह हां भरेगा। उसको क्या पता कि नसरूद्दीन क्या कहेगा। नसरूद्दीन ने उसके कान में कुछ कहा, गधा एकदम इनकार करने लगा कि नहीं, बिलकुल नहीं! सारी भीड़ चैकीं। मालिक भी चैकां। मालिक ने पूछा: ‘भाई बताओ तुमने क्या पूछा?’
उसने कहा: ‘मैंने पूछा कि विवाह करोगे?...नहीं करेंगे!’
इतनी अकल गधे में भी है! हालांकि आस्तिक था, फिर भी इतनी अकल थी। एक आस्तिकता होती है गधेपन की कि तुम से बस हां कहने की आदत पड़वा ली है। और एक आस्तिकता आती है खोज से, आविश्कार से। एक आस्तिकता सीखी हुई होती है, कि बस सिर हिलाना सिखा दिया। वह तो कोई गधा भी कर सकता है। और एक आस्तिकता होती है आत्म-अनुभव से!
मैं अनुभव पर जोर देता हूं, आस्था पर नहीं। मैं नहीं कहता कि मैं जो कहता हूं उस पर भरोसा करो। मैं कहता हूं: मैं जो कहता हूं उस पर प्रयोग करो। प्रयोग अगर तुम्हें अनुभव करा दे, तो ही मानना। अपने अनुभव को मानना, मेरी बात को नहीं। मेरी बात का क्या मूल्य है? पता नहीं मैं धोखा दे रहा होऊ। पता नहीं मैं झूठ बोल रहा होऊं। पता नहीं मेरे आपने कोई प्रयोजन हों। मुझ पर भरोसा करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं कहूं भी क्यों कि मुझ पर भरोसा करो? क्योंकि मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह अनुभव-सिद्ध है, इसलिए मैं तुमसे कहता हूं अनुभव तुम भी कर सकते हो। और जब मैं कर सका तो तुम कर सकते हो। मैं तुम जैसा ही व्यक्ति हूं। तुम मुझ जैसे ही व्यक्ति हो।
ईष्वरानंद, जो तकलीफें तुम्हें हैं वही मुझे थीं। जो आनंद मेरा है वही तुम्हारा हो सकता है। जरा भी भेद नहीं है। हम सब समान क्षमताएं लेकर पैदा होते हैं। परमात्मा बहुत प्राचीन समय से साम्यवादी है, सदा से साम्यवादी है। वह सबको समान गुण-धर्म देता है। कुछ हैं जो उनका अनुभव कर लेते हैं; कुछ हैं जो उनको छूते ही नहीं, उनको पड़ा रहने देते हैं, वे सड़ जाते हैं पड़े-पड़े, उन पर जंग लग जाती है।
तुम आस्था मत करो। वेदान्त आएगा-अनुभव से। निर्वाण भी आएगा-अनुभव से। मगर पहले तो इस दल-दल से गुजरना होगा। कमल खिलेंगे, मगर पहले इस कीचड़ से गुजरना होगा। तुम कीचड़ से बचना चाहो और कमल पाना चाहो, यह नहीं हो सकता। कीचड़ से गुजर कर मूूल्य चुकाना पड़ता है तो कमल खिलते हैं। कीचड़ में ही कमल खिलते हैं।
तुम पूछते हो: ‘कोई रास्ता बताएं।’
साक्षी एकमात्र रास्ता है।

तीसरा प्रश्नः ओशो, मैंने 11/5/1980 को संन्यास लिया। मैं इसको आपकी ही कृपा समझता हूं क्योंकि कई साल लग गए। उस दिन ही चरण-स्पर्ष का भी षुभ दिन आ गया। मैंने भी आपके चरण छुए और आपने भी मुझे स्पर्ष किया। मैं तो भर गया, मैं तो मस्त हो गया।
फिर ऊर्जा-दर्षन का कार्यक्रम षुरू हुआ। मैंने भी उसमें भाग लिया। लेकिन इसमें एक क्षण ऐसा आया कि मुझे लगा कि कहीं मैं सम्मोहित तो नहीं हो रहा हूं। फिर मैं अपने-आप रूक गया। फिर थोड़ी देर बाद दूसरा क्षण आया जब मुझे लगा, अरे यह तो ऊर्जा-दर्षन है! फिर तो मैं ऐसा डूबा कि डूब ही गया और बाहर मस्त होकर निकला।
ओशो, मैंने तो अपनी नैया तेरे हाथ में लगा दी, अब जो चाहो सो करो। फिर ऐसा क्यों हुआ? जो हुआ उसके लिए मुझे बहुत पीड़ा है। माफ करना। मुझे लगता है कि इसके पहले दो-तीन दिन तक कोई ध्यान भी नहीं जमा। कृपा करो!

प्रशांत योगी! जो हुआ, वह कुछ गलत नहीं हुआ। यही तो विचारषील व्यक्ति का लक्षण है। मैं तुम्हें अंधा होने को थोडे. ही कह रहा हूं। मैं तुम्हें विवेकवान होने को कह रहा हूं। मैं तुमसे विष्वास करने को नहीं कहता। मैं तो कहता हूं: जी भर कर संदेह करो! अगर मेरी बात में कुछ सचाई है तो तुम्हारे सारे संदेहों को तोड़ कर भी मेरी बात तुम्हारे ह्द्य तक पहुंचेगी, पहुंच कर रहेगी।
इसलिए यह भूल कर मत सोचना कि तुमने कोई गलती की। मत कहो यह कि आप मुझे माफ करना। तुमसे कुछ भूल ही नहीं हुई, माफ क्यों करूं? आषीश देता हूं। तुम से जो हुआ ठीक हुआ। विवेक का लक्षण यह है कि हर किसी बात को मान नहीं लेगा।
और ध्यान रखना, प्रषान्त, जो बात हम बिना किसी विचार के मान लेते हैं, उसका कोई मूल्य नहीं है। वह निवीर्य होती है, नपुंसक होती है। जिस बात को हम संदेह कर-करके मानते हैं, मानना पड़ता है संदेह करने बावजूद भी, उस बात में बल होता है। उसमें प्राण होते हैं। उसमें ऊर्जा होती है।
ठीक हुआ। एक क्षण को तुम्हें लगा कि कहीं यह सम्मोहन तो नहीं है! विचारषील व्यक्ति हो, लगना चाहिए। और दूसरे ही क्षण तुम्हें खयाल आ गया कि इसमें सम्मोहन का तो कोई सवाल ही नहीं है। कोई किसी को सम्मोहित नहीं कर रहा है। लोग अपनी मस्ती में डोल रहे हैं। अगर तुम्हें पहली बात समझ में न आती, अगर तुम्हारे मन में यह पहला संदेह न उठा होता, तो षायद जो दूसरी घटना घटी मस्ती की वह नहीं घटती, वह चूक जाती।
यह मैं निरंतर अनुभव करता हूं। यहां भारतीय मित्र हैं, गैर-भारतीय मित्र हैं। भारतीय मित्रों की आस्था औपचारिक है। वह तो जन्म के साथ सीख ली है उन्होंने। मेरे पास आते हैं तो चाहे उनकी श्रद्धा हो या न हो, वे झुकेंगे, पैर छुएंगे। पैर छूना ऐसे ही है जैसे कि नमस्कार करना, या जैसे फोन पर लोग कहते हैं-हलो। कोई उसका मतलब नहीं है। कुछ प्रयोजन नहीं है। आदत बन गयी है
मैं छोटा था, मेरे पिता मुझे जहां ले जाते, कोई भी बड़ा बुजुर्ग होता, वे मुझसे कहते: ‘पैर छुओ।’
मैं उनसे कहता: ‘आप कहते हैं तो मैं छू लेता हूं। वैसे तबियत मेरी होती है कि इनको एक लगा दूं। इस आदमी को मैं भलीभांति जानता हूं। आप कह रहे हो तो ठीक है। यह निपट बेईमान है।’
वे कहते: ‘चुप रहो! यह बात सबके सामने कहने की नहीं है। घर चल कर कह देना।’
तो मैंने कहा कि मुझसे आप मत कहना इस तरह कि पैर छुओ इसके-उसके, हर किसी के पैर छुओ! क्यों छुऊं पैर? मुझे आदमी लगे पैर छूने योग्य तो जरूर छुऊं मगर मैं इसको जानता हूं भली भांति, इसके पैर मैं नही छुऊंगा। आप कहते हो तो छू लुंगा, मगर ध्यान रखना कि सिर्फ आपके कहने के कारण छू रहा हूं। मैं नहीं छू रहा हूं। मेरा इसमें कुछ लेना-देना नहीं।
वे मुझे मंदिर ले जाते कि झुको, नमस्कार करो! मैं कहता: ‘सिर्फ किताब रखी है’.....क्योंकि जिस परिवार में मैं पैदा हुआ वहां मंदिर में मूर्ति नहीं होती, सिर्फ ग्रंथ होता है। मैं कहता: ‘इस किताब को काहे के लिए नमस्कार करें! कागज ही हैं, थोड़ी स्याही है, थोड़ा कागज है, जिल्द बंधी है, ठीक है। सो अपने घर काफी किताबें हैं, झुकना ही हो तो वहीं झुक लेंगे। इतने दूर मंदिर आने की क्या जरूरत?’
मगर वे मुझसे कहते कि बड़े होकर समझोगे। मैंने कहा: ‘थोड़ा-बहुत अभी समझूं, थोड़ा ही सही, तो फिर थोड़ा-थोड़ा करके बड़ा होकर समझूंगा। लेकिन अभी अगर बिलकुल ही नहीं समझू ंतो कब षुरू होगी समझ?’
वे एक बार मुझे एक जैन मुनि के पास ले गये, तो वे तो झुके ही; मैं खड़ा रहा। जैन मुनि ने भी मुझे बहुत क्रोध से देखा और मेरे पिताजी ने कहा झूको, नमस्कार करो।
मैंने कहा कि मैं झुक लेता, लेकिन इस आदमी ने जिस ढंग से देखा है, अब आप भी कहो, सारी दुनिया कहे, मेरे झुकने की तो बात अलग, अगर यह आदमी मेरे पैर छूए तो मैं नहीं छूने दूगां। इससे मेरी मूलाकात हो गयी! जब आप इसके पैर छू रहे थे, जिस ढंग से इसने मुझे देखा है, इसकी आंखों का ढंग वही जो लुच्चों का होता है!
‘लुच्चा’ षब्द का मतलब समझते हो? लुच्चा षब्द उसी से बनता है, उसी धातु से, जिससे आलोचक बनता है-लोचन से। जो घूर-घूर कर देखे, उसको लुच्चा कहते हैं।
मैनें कहा: ‘आप नाराज नहीं होना। और ये मुनि महाराज से कह दो कि नाराज न हों।’ लुच्चे का मतलब होता है, जो घूर-घूर कर देखे। इसलिए तो लुच्चा कहते हैं। जब कोई आदमी किसी स्त्री को घूर-घूर कर देखता है तो कहते हैं- यह लुच्चा! लुच्चे का मतलब-आलोचक। लोचन गढ़ा कर देख रहा है-लुच्चा।
मैनें कहा: ‘यह बिलकुल आदमी लुच्चा है! और चष्मा भी लगाए हुए है- दोहरे लोचन और इस ढंग से इसने देखा है।’
फिर वे मुझे कभी किसी जैन मुनि के पास नहीं ले गये। उन्होंने कहा: ‘तुम ले जाने योग्य हो ही नहीं कहीं, क्योंकि मेरी तक फजीहत हो जाती है।’
वे जल्दी से मुझे लेकर वहां से भागे कि चलो घर। बस यह आखिरी है, अब तुमको कहीं नहीं ले जाना।
मेरे पास लोंगो को लोग ले आते हैं। स्त्रियां आ जाती हैं। उनके बच्चों को पैर छूना नहीं हैं, वे उनकी गर्दन पकड़ कर दबाती हैं। मैं कहता हूं: ‘कर क्या रही हो?’.....‘कि छुओ-छुओ, पैर छुओ!’ वह बच्चा अकड़ रहा है और मां उसकी दबा रही है। अब इस तरह दबाते-दबाते एक दिन बेचारा छूने लगेगा, अभ्यास हो जाएगा। इसका कोई मूल्य नहीं है।
भारतीय लोग आते हैं, वे पैर छू लेते हैं; वह औपचारिक है। पष्चिम से लोग आते हैं, वहां पैर छूने कर आदत नहीं है, न पैर छूने का कोई रिवाज है। उन्हें पैर छूना बड़ा कठिन पड़ता है, बहुत कठिन पड़ता है, बहुत मुष्किल पड़ता है। लेकिन जब पष्चिम का कोई व्यक्ति पैर छुता है तो उसका भाव देखने योग्य होता है। क्योंकि वह छूता ही तब है जब उसके प्राणों में छूने की बात उठती है; जब उसके प्राण राजी हो जाते है; किसी औपचारिकता से नहीं। एक अन्तर्तम अभीप्सा से। एक आनंद से। एक अहोभाव से।
प्रषान्त, सोच-विचारषील युवक हो तुम। यह स्वभाविक था कि तुम्हारे मन में एक क्षण को लगा कि कहीं मैं सम्मोहित तो नहीं हो रहा हूं। न तो इसमें तुम्हें अपराध-भाव अनुभव करने की जरूरत है।
मेरे पास अपराध-भाव कभी अनुभव करना ही नहीं, किसी कारण मत करना। संदेह उठे, कोई चिन्ता नहीं। मैं संदेह कर-करके सत्य को पाया हूं। इसलिए मैं तुम्हारे संदेह को कभी बुरा नहीं कह सकता। मैंने विष्वास करके सत्य को नहीं पाया है। मैनें आस्था करके सत्य को नहीं पाया है। मैंने सब भांति संदेह करके, आत्यन्तिक रूप से संदेह करके सत्य को पाया है। इसलिए तुम्हारे सब संदेह मुझे स्वीकार हैं, अंगीकार हैं।
माफी मत मांगना। अच्छा हुआ। और फिर उसके बाद तुम्हें खुद ही बोध आया, इसलिए एक मस्ती छा गयी। तुम अगर भारतीय ढंग से डोलते रहते....भारतीय नकलपट्टी सीख गये हैं। अगर चार आदमी डोल रहे हैं तो वे भी डोलने लगते हैं। मैं देखता हूं रोज एक भारतीय एक काम करेगा तो दूसरा भी वही करता है। एक भारतीय अगर आएगा और दस रूपए का नोट निकाल कर पैर पर चढ़ा देगा तो दूसरा जो उसके पीछे आ रहा है दर्षन करने, वह भी जल्दी से रूपए निकालने लगेगा। क्योंकि षायद यह नियम है, किया जाना चाहिए। जो किया जाना चाहिए वह करना ही होगा।
तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्मा यह इंतजार कर रखते हैं, दो-चार एजेन्ट छोड़ रखतें हैं। वह निकाल कर सौ रूपए का नोट चढ़ा दिया। दो-चार एजेन्ट भीड़-भाड़ में नोट चढ़ाते रहते हैं और बाकी लोग उनकी नकल करते हैं। क्योंकि जब इतने नोट चढ़ाए जा रहे हैं तो चढ़ाना ही चाहिए; नहीं तो आस्था में षक होगा, आस्तिकता में षक होगा।
मेरे पास आस्तिक होने में और नास्तिक होने में विरोध नहीं है। इस बात को गांठ बांध लो। नास्तिक होना आस्तिक होने की सीढ़ी है। आस्तिक में मंदिर की सीढ़ियों का नाम नास्तिकता हैं। जो नास्तिकता की सीढ़ियों से आस्तिकता के मंदिर तक पहुंचता है, उसकी आस्तिकता की प्रखरता और, उसकी आस्तिकता की ज्योतिर्मयता और। उसकी आस्तिकता में एक चैतन्य होता है, एक चिन्मयता होती है।
अच्छा हुआ प्रषान्त योगी, न तो क्षमा मांगो, न कहीं मन में यह भाव लेना कि यह क्या हुआ। मैनें सब समर्पण कर दिया था, फिर यह संदेह क्यों उठा?
तुम कितना ही समर्पण करो, संदेह जाते-जाते ही जाएगा। तुम समर्पण ही क्यों करते हो? इसलिए करते हो न कि संदेह चला जाए। संदेह है, इसलिए तो समर्पण की जरूरत है। तुम्हारे समर्पण करने से ही नहीं चला जाएगा। समर्पण तो सिर्फ तुम्हारी तरफ से सूचना है कि मैं अब संदेह छोड़ने की तैयारी कर रहा हूं। मगर छूटते-छूटते छूटेगा, बात बनते-बनते बनेगी। मगर ठीक राह पर चल पड़े हो। इस मस्ती को बढ़ाओ।
अपराध-भाव को मत लेना, नही ंतो खंडित हो जाएगी।
आनंद मेरा सूत्र है, अपराध नहीं। ऐसे ही चलते रहे तो एक दिन मिट जाओगे, समर्पण पूरा हो जाएगा। षुरू में तो सिर्फ समर्पण का भाव होता है, फिर धीरे-धीरे पूर्णता आती है। धीरे-धीरे अहंकार जाएगा, मन जाएगा।
प्रषान्त योगी, गोरख के प्रसिद्ध षब्द हैं, याद रखना-
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी मर गोरख दीठा।
मरो-गोरख कहते हैं! किस मरण की बात रहे हैं? अहंकार मरे। संदेह मरे। मगर पहले जीएगा, तो ही मरेगा न। जीया ही न हो कभी, तो मरेगा क्या खाक!
पहले संदेह सीखना पड़ता है। पहले संदेह को धार रखनी पड़ती है। जैसे तलवार पर कोई धार रखे। पहले अहंकार को बलिश्ठ करना होता है। पुश्ट करना होता है। और कभी एक दिन समझ में आती है यह बात कि अब घड़ी आ गयी कि इसे छोड़ दें; अब घड़ी आ गयी कि यह बोझ हो गया, अब घड़ी आ गयी कि यह तो मेरे प्राणों को ही धार काटने लगी, यह तलवार मुझे ही काटने लगी। उस घड़ी में सब गिर जाता है। तुम्हें छोड़ना भी नहीं पड़ता, छूट जाता है।
मन की मृत्यू ध्यान है। मन की मृत्यू संन्यास है।
आज तो तुमने जो संन्यास लिया है प्रषांत योगी, वह तो केवल संकल्प है यात्रा का। अभी तो नाव छोड़ी इस किनारे से। अभी तो मझधार तय करनी होगी। दूर है किनारा, जो अभी दिखाई भी नहीं पड़ता। अभी तुम उस किनारे पर नहीं पहुंच गये। अभी तो इस किनारे से ही लगे हो। अभी रस्सियां खोल रहे हो, एक-एक करके खोलनी पड़ेंगी। फिर पतवार उठानी पड़ेगी। फिर तुफानों और झंझावातों का सामना करना पड़ेगा। मगर जिसने हिम्मत की, उसने जरूर पाया है।
इस जगत में अन्याय नहीं है। परमात्मा, जो जितना श्रम करता है, उसको उसकी पात्रता के अनुसार निष्चित ही देता है। जीसस ने कहा है: ‘मांगो और मिलेगा! द्वार खटखटाओ और द्वार खुलेंगे!’

आखिरी प्रश्न: ओशो, मैं नौ साल से प्रेमिका ढ़ूंढ रहा हूं कि कोई ऐसी प्रेमिका मिले, जो संसार और ध्यान एक बना दे। नहीं मिली। आषीर्वाद दें कि मैं सही प्रेमिका मिलने तक रूकूं और जबरदस्ती न करूं!

प्रेम चैतन्य! बड़े कठिन कार्य मे लगे हो। परमात्मा जल्दी मिल जाएगा, पे्रमिका मिलनी बहुत कठिन है। और जब तक नहीं मिली है तभी तक सौभाग्य समझो। जब मिल जाएगी तो फिर कहोगे कि भगवान, आषीर्वाद दो कि अब कैसे छूटूं!
एक पागलखाने में एक मनोवैज्ञानिक पागलों को देखने गया था। पागलखाने के प्रधान ने एक कटघरे के सामने खड़े हो कर उसे बताया कि इस पागल को देख रहे हैं! वह पागल अंदर एक तस्वीर लिए हुए था, छाती से लगा रहा था। आंसू झर-झर गिर रहे थे। वर्शा की झड़ी लगी थी। रो रहा था, पुकार रहा था, कि हे प्रिय तुम कहां हो? कब मिलोगी? बहुत देर हो गयी? कब तक पुकारूं, कब तक खोजूं?
पागलखाने के प्रधान ने बताया कि यह आदमी न खाता न पीता, सूख कर हड्डी हो गया है; बस यह फोटो लिए है। मनोवैज्ञानिक ने पूछा: ‘यह फोटो किसकी है?’
उसने कहा: ‘यह इसकी प्रेमिका की फोटो है और वह इसे मिली नहीं। उसी दुख में यह पागल हो गया।’ फिर दूसरे कटघरे के सामने रूके। वहां एक आदमी अपने बाल लोंच रहा था और दीवाल से सिर मार रहा था। उसने पूछा: ‘इसे क्या हो गया?’
प्रधान ने कहा कि यह वही जो प्रेमिका उसको जो नहीं मिली, इसको मिल गयी। वही स्त्री! इसका विवाह हो गया उससे। तब से यह पागल हो गया है। इसकी हालत और बदतर है।
तुम कह रहे हो: ‘मैं नौ साल से प्रेमिका ढ़ूंढ रहा हूं। कोई ऐसी प्रेमिका मिले जो संसार और ध्यान एक बना दे!’
ऐसा कभी हुआ है पहले? या ऐसा कभी होगा? असंभव को संभव करने चले हो? ऐसा होता ही नहीं?
एक व्यक्ति खोज रहा था कि परिपूर्ण कोई स्त्री मिले, पूर्ण स्त्री कोई मिले। जीवन भर खोजा। जब मर रहा था तो किसी ने पूछा कि मिली वह स्त्री कि नहीं जिसकी तुमने जिंदगी भर खोज की? उसने कहा: ‘मिली क्यों नहीं, दो-तीन बार ऐसे मौके आए।’
तो उस व्यक्ति ने पूछा: ‘फिर तुम अविवाहित के अविवाहित क्यों रहे?’
उसने कहा कि मैं क्या करूं, वह पूर्ण पुरूश खोज रही थी!
तुम तो खोज रहे हो ऐसी प्रेमिका, लेकिन वह भी प्रेमी खोज रही होगी पूर्ण। वह तुमसे राजी होगी? असंभव! तुम पूर्ण ही होओ तो प्रेमिका क्यों खोजो! और वही पूर्ण हो तो तुमको किसलिए खोजे? पूर्ण का अर्थ ही यह होता है कि अब कोई खोज न रही, अब कुछ पाने को न रहा।
सौभाग्यषाली हो कि नहीं मिली। नही ंतो अक्सर मिल जाती है।
मुल्ला नसरूद्दीन अपने षिकार के अनुभव बता रहा था खूब बढ़ा-चढ़ा कर। बातों ही बातों में उसने यह भी कहा कि मैं अलग-अलग जानवरों को बुलाने के लिए विभिन्न प्रकार की आवाजें निकालना जानता हूं। इससे षिकार करना आसान हो जाता है। जैसे हिरण को बुलाना हो तो एक विषेश प्रकार की आवाज करने से, आसपास जो भी हिरण हो वह भागा चला आता है।
एक मित्र ने पूछा: ‘अच्छा यदि किसी षेरनी को बुलाना हो तो कैसी आवाज करोगे?’
मुल्ला ने झट चिंघाटते हुए एक खास किस्म की आवाज निकाली, फौरन बैठकखाने का दरवाजा खुला और मुल्ला की बीवी गुलजान ने बाहर आकर कहा: ‘कहिए, क्या बात है? आज आप बहुत षोरगुल कर रहे हैं, बर्दाष्त के बाहर हुई जा रही है बात! अब यदि जरा-सा भी हल्ला-गुल्ला किया तो कहे देती हूं, कच्चा निगल जाऊंगी!’
तुम कह रहे हो प्रेम चैतन्य कि नौ साल से खोज रहा हूं। काफी तपष्चर्या कर ली। नौ साल में तो नौ ही लोक पार कर जाते। नौ साल में तो नौं ही चक्र खुल जाते। नौ साल में तो सहस्त्रदल-कमल खुल जाता। और तुम प्रेमिका की तलाष कर रहे हो! और ऐसी प्रेमिका, जो संसार और ध्यान एक बना दे! मटियामेट कर देगी।
बड़ी कृपा है भगवान की तुम पर कि तुम तो खोज हे रहो, मगर नहीं मिल रही। पिछले जन्मों का पुण्य-कर्म होगा।
अब तुम कह रहे हो कि आषीर्वाद दें कि मैं ऐसी प्रेमिका पा संकू और जब तक ऐसी प्रेमिका न मिले तब तक जबरदस्ती न करूं!
तुम क्या जबरदस्ती खाक करोगे! कोई प्रेमिका जबरदस्ती न कर बैठे, वही डर है। अक्सर लोग सोचते हैं कि वे जबरदस्ती कर रहे हैं; वे गलती में होते हैं। वे भ्रांति में होते हैं।
मुल्ला नसरूदृदीन और उसकी पत्नी सुबह ही सुबह नाष्ते पर बात कर रहे थे, झगड़ा हो गया बातचीत में। पति-पत्नी में और होता है क्या है सिवाय झगड़े के! मुल्ला ने पत्नी ने कहा: ‘एक बात ख्याल रखो, हमेषा तुम ही मेरे पीछे पड़े थे, मैं तुम्हारे पीछे नहीं पड़ी थी।’
नसरूद्दीन ने कहा: ‘वह बात सच है, क्योंकि चूहादानी किसी चूहे के पीछे नहीं दौड़ती। चूहा खुद ही मूरख फंस जाता है।’
तुम क्या जबरदस्ती करोगे? तुम्हें जबरदस्ती करने की जरूरत नहीं आएगी। वह तो किसी स्त्री की नजर तुम पर पड़ गयी.....तुम कैसे बच रहे हो नौ साल से, यह भी हैरान की बात है। कुछ गुण होगें तुममें। कुछ सद्गुण होंगे कि स्त्रियां तुमसे बच कर निकल जाती हैं। नही ंतो तुम कभी के किसी के चक्कर में आ जाते, कोई न कोई तुम्हारी गर्दन पकड़ लेती। अब इतने दिन बच गये हो, धन्यवाद दो परमात्मा को!
और अब ध्यान की फिक्र करो, अब क्या प्रेमिका की फिक्र कर रहे हो! इतने दिन में तो क्या से क्या नहीं हो जाता! क्या छोटी-मोटी बातें खोजनीं! और ध्यान के बाद अगर प्रेमिका मिल भी जाए तो खतरा नहीं है। ध्यान के पहले प्रेमिका मिल जाए तो बहुत खतरा हैं, क्योंकि ध्यान से पहले प्रेमिका मिल जाए तो फिर ध्यान न लगने देगी, खयाल रखना। तुम ध्यान करने बैठोगे तो वह हिलाएगी। अखबार नहीं पढ़ने देती, ध्यान क्या करने देगी! ऐसी चीजों में पड़ने ही नहीं देती।
लोग घर से भागे रहते हैं, यहां-वहां भटकते-फिरते हैं। देर-देर तक दफ्तर में बैठे रहते हैं। नहीं काम होता तो भी फाइलें उलटते रहते हैं। न मालूम क्या-क्या बहाने खोजते रहते हैं। किसी तरह घर से बच जाएं!
तुम्हें ध्यान न करने देगी प्रेमिका। प्रेमिका तो किसी भी चीज से स्पर्धा ले लेती है। तुम अगर वीणा बजाओगे, वीणा तोड़ देगी। क्योंकि उससे प्रतियोगिता हो जाती है उसकी कि मेरे रहते और तुम्हारी यह कुवत कि तुम वीणा बजा रहे हो! मेरे रहते और तुम विपस्सना में बैठे हुए हो आंख बंद किए! मेरे रहते और तुम अखबार पढ़ रहे हो! में अभी जिन्दा हूं, मर नहीं गयी! ध्यान मेरी तरफ दो, और कहीं ध्यान न ले जाना।
तुम प्रेम चैतन्य, पहले ध्यान कर लो, फिर अगर कोई प्रेमिका मिल जाएगी तो ठीक होगा। पर ध्यान पहले सम्हाल लो, फिर प्रेमिका कुछ बिगाड़ न सकेगी। और ध्यान के बादे प्रेमिका मिलेगी भी तो ध्यानी को मिलेगी। और जो प्रेमिका किसी ध्यानी को पसंद करेगी, उससे षायद तालमेल भी बैठ जाए।
मेरे हिसाब में तो प्रत्येक व्यक्ति को पहला काम ध्यान, फिर षेश अन्य बातें। जिसका ध्यान सध गया उसके जीवन में षेश सब अपने-आप सध जाता है।

आज इतना ही।


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