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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

अकथ कहानी प्रेम की-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(इसी क्षण उत्सव हैैै)

ओशो, भक्तराज फरीद के कुछ पद हैं..

सारसूत्र:

सरवर पंखी हेकड़ो, फाहीवाल पचास।
इहु तन लहरी गडु थिआ, सचे तेरी आस।।
कवणु सु अखरु कवणु गुणु, कवणु सु मड़ीआ मंतु।
कवणु सु वेसो हउ करि, जितु वसी आवै कंतु।।
निवणु सु अखरु खवणु गुणु, जिहवा मणीआ मंतु।
एत्रै भैणे वेस करि, ता वसि आवी कंतु।।
मति होंदी होइ इआणा, तान होंदे होइ निताणा।
अणहोंदे आपु वंडाए, कोइ ऐसा भगतु सदाए।।
इक फिक्का ना गालाई, सभना मैं सचा धणी।
हिआउ न कैही ठाहि, माणिक सभ अमोलवै।।
सभना मन माणिक, ठाहणु मूलि म चांगवा।
जे तउ पिरी आसिक, हिआउ न ठाहे कहीदा।।

ओशो, कृपापूर्वक हमें इनका मर्म समझा दें।



सैमुआल बैकेट, पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक और नाटककार, पेरिस की एक गली से गुजर रहा था। सांझ हो गई थी। एक भिखारी जैसा दिखने वाला आदमी उसके पास आया..ऐसे हाव-भाव से जैसे भीख मांगना चाहता हो। लेकिन इसके पहले कि बैकेट उसे कोई उत्तर दे, उसने जेब से छुरा निकाला और बैकेट की छाती में भोंक दिया। बैकेट बेहोश होकर गिर गया और वह आदमी पकड़ लिया गया। पंद्रह दिन बाद बैकेट जब अस्पताल से बाहर निकला, चोट घातक थी। लेकिन पंद्रह दिन अस्पताल में वह यही सोचता रहा कि इस आदमी ने चोट की क्यों? न कोई दुश्मनी; दुश्मनी तो दूर, कोई जान-पहचान भी नहीं। इस आदमी को इसके पहले कभी देखा ही न था। एक ही जिज्ञासा उसके मन में चलती रही, अस्पताल से छूटूं तो सीधा जेलखाने जाऊं। कोई शिकायत नहीं थी मन में; सिर्फ यह जानने की जिज्ञासा थी कि हमला इसने किया क्यों? अकारण मालूम होता है। आदमी पागल है? पागल भी नहीं दिखाई पड़ता था।
अस्पताल से मुक्त होते ही वह जेलखाने गया। आज्ञा लेकर आधिकारियों से वह उस कैदी के पास पहुंचा और कहा कि मुझे कोई शिकायत नहीं है। न तुम्हारे अपराध की निंदा करने आया हूं। न तुमसे यह कहने आया हूं कि तुम ऐसा न करते। ये सब सवाल नहीं है। एक ही मेरे मन में सवाल है कि तुमने मुझे छुरा मारा क्यों? कारण क्या है?
उस आदमी ने बैकेट की तरफ गौर से देखा और कहाः कारण तो मुझे भी पता नहीं। तुम ही परेशान हो, ऐसा मत सोचो; मैं भी पंद्रह दिन से यही सोच रहा हूं कि मैंने छुरा मारा क्यों? न कोई जान, न कोई पहचान, न कोई दुश्मनी। तुमने हां-ना भी न कहा था। मैं भी अपने से यही पूछ रहा हूं। तुम तो मेरे पास पूछने आ गए, मैं किसके पास पूछने जाऊं कि मैंने छुरा मारा क्यों?
बैकेट का सारा जीवन बदल गया उस घटना से।
आदमी मूच्र्छित है।
क्यों का कोई उत्तर तुम्हारे पास भी नहीं है। किसी के प्रेम में पड़ गए..क्यों? किसी को देखते ही दुश्मनी हो जाती है, देखते ही विकर्षण होता है..क्यों? किसी को देखते ही श्रद्धा आ जाती है। कोई कारण नहीं है। एक अचेतन, एक मूच्र्छित दशा है; जैसे कोई स्वप्न में चलता हो, या नशे में चलता हो।
घटनाएं घटती चली जाती हैं, तुम उनके मालिक नहीं हो। घटनाएं घटती हैं, तुम उनके कर्ता नहीं हो। तुममें घटनाएं घटती हैं, लेकिन तुम्हारा नियंत्रण नहीं है। तुम्हारे भीतर इतनी होश की किरण भी नहीं है कि तुम कह सको, मैंने ऐसा क्यों किया।
बैकेट विद्यार्थी था दर्शनशास्त्र का, लेकिन उस घटना के बाद दर्शन से उसकी आस्था उठ गई। क्योंकि दर्शन की तो सारी खोज यही हैः क्यों, ऐसा क्यों है? उस दिन के बाद उसने जो कविताएं लिखीं, नाटक लिखे, वे बड़े असंगत हैं, एब्सर्ड। उनमें झेन फकीरों की झलक है, लेकिन कोई तुक नहीं है।
घटनाएं घटती हैं, लेकिन कोई कारण नहीं है।
उसकी बड़ी प्रसिद्ध किताब हैः वेटिंग फॉर गोडोट, गोडोट की प्रतीक्षा। पूरी किताब पढ़ जाने के बाद भी यह पता नहीं चलता कि गोडोट है कौन, जिसकी प्रतीक्षा हो रही है।
दो व्यक्ति हैं। बस वे बैठे हैं। और ऐसा उनका ख्याल है, गोडोट आने वाला है। ऐसी उनकी धारणा है कि उसने आश्वासन दिया है कि मैं आऊंगा। और वे एक-दूसरे से बात करते हैं कि अभी तक गोडोट आया नहीं। वह दूसरा भी इधर-उधर देखता है। वह कहता है, पता नहीं क्यों देर हो गई है! और इस तरह बात चलती है। पूरा नाटक, बस ये दो आदमी बैठे हैं एक कबाड़खाने के पास, और इनकी बात चलती है। बड़े ऊब जाते हैं, थक जाते हैं। एक उनमें से कभी-कभी क्रोधित हो जाता है। वह कहता हैः अब मैं जाता हूं, बहुत हो गई। कब तक प्रतीक्षा करेंगे?
वह दूसरा भी कहता हैः चलो चलें। लेकिन जाते-करते कहीं नहीं, बैठे वहीं हैं। जाएं भी कहां? जाने को है भी कहां? करें भी क्या, अगर प्रतीक्षा न करें!
तो फिर प्रतीक्षा करते हैं। फिर दूसरा दृश्य आता है नाटक का। फिर वे बैठे हैं। फिर वे प्रतीक्षा कर रहे हैं कि आज तो आना ही चाहिए, आज तो बिल्कुल पक्का है। फिर समय निकल जाता है। फिर वह नहीं आता। बस उसी की बात चलती है। ऐसे-ऐसे प्रतीक्षा ही होते-होते नाटक पूरा हो जाता है।
जब इस वेटिंग फॉर गोडोट की फिल्म बनी तो जो डायरेक्टर था, उसने बैकेट को पूछ कि आखिर यह तो बताओ, यह गोडोट है कौन? उसने कहा कि अगर मुझे ही पता होता तो मैंने नाटक में ही बता दिया होता। यह तो मुझे भी पता नहीं।
पर यह गोडोट शब्द अच्छा है; यह गॉड से मिलता-जुलता है। इसमें कुछ गॉड की भनक है, ईश्वर की।
तुम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? प्रतीक्षा तुम भी कर रहे हो और तुम्हें ऐसा लग रहा हैः कोई आने वाला है, कुछ होने वाला है, कुछ होकर रहेगा। लेकिन किसकी? नहीं होता, तुम भी नाराज हो जाते हो। कहने लगते होः सब बेकार है, छोड़ो-छाड़ो! पर जाओ कहां? छोड़-छाड़ कर भी कहां जाओगे, जहां जाओगे, वहां भी यही होगा। वहां भी प्रतीक्षा करनी होगी। प्रतीक्षा किसकी हो रही है, इसका भी कुछ ठीक-ठाक पता नहीं है। लेकिन बिना प्रतीक्षा किए भी कैसे रहोगे? उसके सहारे समय गुजर जाता है। गोडोट सही, अ ब स कोई भी सही। मोक्ष, निर्वाण, ईश्वर कोई भी सही। लेकिन यह दशा है।
यह बैकेट का नाटक, वेटिंग फॉर गोडोट, पूरी मनुष्यता की कथा है। आदमी की यह स्थिति है।
एक प्रतीक्षा है, पता नहीं किसकी। होना हो गया है; क्यों हो गए हैं..इसका कोई पता नहीं। कृत्य भी घट रहे हैं, लेकिन क्यों तुम कर रहे हो..इसका कोई जवाब न दे सकोगे। तुम्हारे होने का भी तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं हैः तुम क्यों हो? तुम अपने कंधे बिचकाओगे। तुम कहोगे, पता ही होता...।
इस अंधेरी दशा में, दो संभावनाएं हैं। एक संभावना तो यह है कि तुम कोई कल्पित अर्थ अपने जीवन को दे दो। तुम किसी गोडोट की प्रतीक्षा करने लगो, जिसका तुम्हें न पता है, न जिससे तुम्हारा कभी मिलना हुआ है, न तुम ठीक से जानते हो कि वह कौन है। कोई ऐसे अर्थ की तुम अपने जीवन में कल्पना कर लो, उस अर्थ के सहारे जीना हो जाएगा। जीना तो क्या होगा, आराम से मरना हो जाएगा। ऐसे धीरे-धीरे मर जाओगे। कभी पता न चलेगा कि भीतर खालीपन था। वे अर्थ जो तुमने कल्पित कर लिए थे, उनके सपने तुम्हें घेरे रहेंगे। और इसी तरह के अर्थ के सपने तुमने अपने आस-पास खड़े कर लिए हैं।
बाप मेरे पास आता है, वह कहता है, बेटे के लिए जी रहा हूं। इसका बाप इसके लिए जी रहा था। इसका बेटा अपने बेटे के लिए जीएगा। कौन किसके लिए जी रहा है?
पत्नी से पूछो, वह पति के लिए जी रही है। पति से पूछो, वह कहता है कि परेशान हो रहे हैं, मेहनत कर रहे हैं, श्रम कर रहे हैं..पत्नी के लिए जीना है! छोटे बच्चे हैं, उनका विवाह करना है, शादी करनी है, पढ़ाना-लिखाना है। वे क्या करेंगे? वे भी यही करेंगे। उनके छोटे बच्चे होंगे, उनको पढ़ाएंगे-लिखाएंगे, उनकी शादी-विवाह करेंगे।
अगर तुम आदमी की जिंदगी को गौर से देखो तो तुम जो भी कारण से जी रहे हो, तुम पाओगे वह कल्पित है। लेकिन बिना कल्पना के जीना भी तो बहुत कठिन है।
नीत्शे ने कहा हैः उस आदमी को मैं आदमी कहूंगा जो बिना कल्पना के जीने को समर्थ हो; जो जीवन की सच्चाई के साथ जीने को समर्थ हो..सच्चाई कोई भी हो; किसी कल्पना के ताने-बाने न बुने।
पर ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है।
फ्रायड ने एक किताब लिखी है धर्म के ऊपरः दि फ्यूचर ऑफ एनइल्यूजन, एक भ्रम का भविष्य। उसमें उसने सिद्ध करने की कोशिश की है, धर्म बिल्कुल मनुष्य की भ्रमणा है, मन का ही खेल है।
किसी ने फ्रायड को पूछा कि अगर ऐसा है तो एक न एक दिन मनुष्य भ्रम से मुक्त हो जाएगा और धर्म से मुक्त हो जाएगा? फ्रायड ने कहा कि वह मैं नहीं कह सकता; क्योंकि मनुष्य कभी भ्रम के बिना जीने को राजी होगा, यह बात संदिग्ध है। मनुष्य बिना भ्रम के जी कैसे सकेगा? साधारण उपाय एक ही है कि तुम कोई भ्रम खड़ा कर लो, कोई इंद्रधनुष खींच लो आकाश में..जो कभी मिलता भी नहीं, लेकिन जिसके मिलने की आशा बनी रहती है। ऐसे तुम खिंचते चले जाते हो। ऐसे मौत करीब आ जाती है, एक दिन तुम डूब जाते हो।
करोड़ में एक को छोड़ कर अधिक लोग ऐसे ही जीते हैं। उनका संसार भी सपना है, उनका धर्म भी सपना है। उनके सिद्धांत भी सपने हैं, उनके शास्त्र भी सपने हैं। उनकी गृहस्थी भी सपना है। उनका संन्यास भी सपना है। सपने का कोई भी संबंध नहीं है वस्तु से। सपने का संबंध चित्त दशा से है। मूच्र्छित आदमी बिना सपने के जीएगा कैसे?
सपने का कारण विज्ञान से पूछेंः आदमी रात सपने क्यों देखता है? तो वे कहते हैं, इसलिए देखता है कि अगर सपने न देखे तो नींद टूट जाए। तुम उलटा सोचते होओगे, तुम सोचते होओगे रात भर सपने चलते रहे, इसलिए ठीक से सो न पाए। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर सपना न चले तो तुम बिल्कुल न सो पाओगे। सपना तुम्हारी नींद को बचाता है।
तुमको रात की नींद में भूख लगी। अगर सपना न हो तो नींद टूट जाएगी। भूख नींद तोड़ देगी। तुम सपना देखते हो कि पहुंच गए अपने फ्रिज के पास, सामान निकाल लिया..सपने में। तृप्ति भर भोजन कर लिया..सपने में! लेकिन इस सपने ने नींद को नहीं टूटने दिया..नींद की भूख को झूठे भोजन में छिपा दिया।
अलार्म की घंटी बजी, नींद टूट जाएगी; लेकिन सपने में तुम सुनते हो, मंदिर की घंटी बज रही है। एक सपना आ गयाः मंदिर की घंटी बज रही है।
अब नींद के टूटने की कोई जरूरत नहीं। तुमने अलार्म को भी अपने सपने में समाविष्ट कर लिया। अब तुम मजे से करवट लेकर सो जाओगे।
वैज्ञानिक कहते हैंः सपना नींद को बचाता है।
सपने तो उन्हीं के समाप्त होते हैं जिनकी नींद ही समाप्त हो जाती है।
कृष्ण ने गीता में कहा हैः या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागृति संयमी। जो सबकी रात है, योगी-संयमी तब भी जागता है।
स्वप्न तो किसी बुद्धपुरुष के ही समाप्त होते हैं; क्योंकि उसकी नींद ही समाप्त हो गई; अब बचाने को ही कुछ न रहा, सपने की कोई जरूरत न रही। जैसे रात में सपना है वैसे दिन में अर्थ, प्रयोजन, सार्थकता, दायित्व..ऐसे सपने हैं दिन के। दिन के सपने हैं, रात के सपने हैं..वे तुम्हारी नींद को बचाते हैं।
एक और ढंग भी है जीने का..वह है सारे सपनों को, नींद को तोड़ कर जीना। झूठे अर्थ नहीं, अपने मनोकल्पित अर्थ नहीं। जगह खाली है माना, लेकिन गोडोट की प्रतीक्षा नहीं; क्योंकि जिसको हम जानते ही नहीं उसकी प्रतीक्षा क्या करनी? उसकी प्रतीक्षा में माना कि समय भरा हुआ निकल जाएगा, लेकिन हाथ क्या आएगा? उसकी प्रतीक्षा में माना कि ज्यादा बेचैनी न लगेगी, कुछ करने को लगता रहेगा, खाली न मालूम पड़ोगे, भरे रहोगे; लेकिन उस भरावट का भी क्या मूल्य है, जो कभी घटने वाली नहीं?
जागे हुए पुरुष का एक और जीवन है। उस जीवन का संबंध कोई अर्थ निर्मित करने से नहीं है, वरन जागने से है। जागते ही उस अर्थ की प्रतीति होनी शुरू होती है जो अस्तित्व में छिपा है। फिर तुम गोडोट की प्रतीक्षा नहीं करते। फिर किसी की प्रतीक्षा नहीं करते। फिर तो अस्तित्व में जो छिपा है उसका नर्तन शुरू हो जाता है। उसे तुम आंख भर देखते हो। कहना ठीक नहीं कि देखते हो; उसे तुम अनुभव करते हो, क्योंकि तुम भी वही हो।
तुम वही अर्थ हो जो छिपा है वृक्षों में। तुम वही अर्थ हो जो छिपा है पहाड़ों में, पर्वतों में। तुम वही अर्थ हो जो बहता है झरनों में, गाता है पक्षियों में। तुम वही अर्थ हो जिसका नाम परमात्मा है।
वह अर्थ तुमसे दूर नहीं है। तुम उसकी कल्पना नहीं करते, तुम उसका सपना नहीं देखते, तुम उसका प्रक्षेपण नहीं करते..तुम तो मौन और शून्य और शांत हो जाते हो! उस शांति में, जो है, वह प्रकट होता है। तुम तो अपने भीतर बिल्कुल खाली हो जाते हो। तुम तो कहते होः न कुछ करने को है, न कुछ जानने को है, न कुछ खोजने को है। तो तुम चुप हो जाते हो, मौन हो जाते हो। उसी मौन में अचानक एक गूंज उठती है। यह गूंज तुम्हारे मन की नहीं है। एक गीत पैदा होता है। यह गीत तुम्हारा आयोजित नहीं है। तुम पाते हो कि तुम स्वयं इस गीत की एक लहर हो, तुम इस गीत की ही एक कड़ी हो। गीत तुमसे पहले भी चलता था, गीत तुम्हारे बाद भी चलता रहेगा। तुम बस बीच की एकशृंखला हो, एक कड़ी हो।
जिस दिन ऐसी प्रतीति होती है, उस दिन है मोक्ष। फरीद के शब्दों में कहें, उस दिन है प्यारे से मिलन। उसके पूर्व अंधेरे में टटोलना है।
और ये दो दिशाएं हैं। अंधेरे में टटोलते-टटोलते तुम घबड़ा जाओ, तो मन की कल्पनाएं कर लो, उन मन की कल्पनाओं में ही डूबे रहो..यह सांसारिक व्यक्ति की अवस्था है।
किसे मैं गृहस्थ कहता हूं? ..वह जो सपनों में खोया है। तुम्हारे घर के कारण मैं तुम्हें गृहस्थ नहीं कहता; न तुम्हारी पत्नी, न तुम्हारे बच्चों के कारण तुम्हें गृहस्थ कहता हूं। तुम गृहस्थ हो अगर तुमने सपनों के घर बनाए। तुम्हें मैं संन्यस्त कहूंगा अगर तुमने सपनों के घर छोड़ दिए।
अगर तुम यथार्थ में जीना शुरू हो गए तो तुम्हारे जीवन में संन्यास का प्रादुर्भाव हुआ। तब किसी की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। जो घटना है वह अभी घट रहा है। कल की फिर कोई जरूरत नहीं है। जो हो रहा है वह अभी हो रहा है। इसी क्षण जीवन की महाघटना मौजूद है। इसी क्षण अस्तित्व अपने शिखर पर है।
अस्तित्व सदा ही शिखर पर है। उससे नीचे अस्तित्व होना जानता नहीं। इसी क्षण नाच चल रहा है। इसी क्षण उत्सव है; कल नहीं, आने वाले क्षण में नहीं।
तो, इसको तुम कसौटी समझना। अगर तुम आने वाले क्षण के लिए जी रहे हो कि कल कुछ होगा, तो वेटिंग फॉर गोडोट, तो तुम गोडोट की प्रतीक्षा कर रहे हो, जिसका तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। अगर तुम अभी जी रहे हो, इस क्षण जो हो रहा है उसमें जी रहे हो, तो तुमने सारी प्रतीक्षा छोड़ दी, तुम जीवन को उपलब्ध हो गए।
इस जीवन को ही परमात्मा कहा है। वह एक शब्द है परमात्मा, इस जीवन की तरफ इशारा है। वह शब्द तुम्हें ठीक न लगे..क्योंकि इस सदी में उस शब्द की सार्थकता धीरे-धीरे खो गई है..तो तुम दूसरा शब्द चुन लेना। कहना अस्तित्व; कहना जीवन, महाजीवन; या जो तुम्हें रुचिकर लगे। किसी शब्द पर मेरा कोई आग्रह नहीं है, क्योंकि शब्द तो इशारे हैं। किस शब्द से तुम परमात्मा को पुकारोगे, इससे क्या फर्क पड़ता है? तुम कोई भी शब्द दे देना।
लेकिन परमात्मा अभी और यहीं है। और संसार कल, और कहीं और है। संसार यानी भविष्य। परमात्मा यानी वर्तमान।
और तुम दो ढंग से जी सकते होः भविष्य के सहारे या वर्तमान में। वर्तमान में जो जीता है वह संन्यस्त है। वही है भक्त। वही है धार्मिक। भविष्य में जो जीता है वह संसारी है। वही है अज्ञानी। वही है भटका..स्वप्न में, तंद्रा में, निद्रा में, बेहोशी में।
फरीद के इन आखिरी वचनों को ध्यान से समझने की कोशिश करो।
सरवर पंखी हेकड़ो, फाहीवाल पचास।
..कि सरोवर में पक्षी तो एक है और फंसाने के जाल पचास।
सरवर पंखी हेकड़ो, ...
अकेला है पक्षी और जाल हैं पचास फंसाने के। बचना मुश्किल मालूम होता है। बचना करीब-करीब असंभव मालूम होता है।
थोड़ा सोचो। कितने जाल हैं! धन का जाल है। पद का जाल है। यश का जाल है। कितने जाल हैं..वासनाओं के, आसक्तियों के, लोभ के, क्रोध के, मोह के! कितने जाल हैं..शरीर के, मन के! चारों तरफ फंसाने के उपाय हैं। और पक्षी है अकेला, और जाल है पचास। एक से बचो, दूसरे में उलझना हो जाता है। इधर बच नहीं पाते खाई से कि कुएं में गिरना हो जाता है। इसलिए जो बहुत सजग है वही बच पाएगा। बच वही पाएगा जो एक जाल से नहीं बच रहा, बल्कि जो जाल के रहस्य को समझ गया, उससे बच रहा है। एक जाल से बचने में कोई कठिनाई नहीं है, तुम बच सकते हो।
समझो, तुम्हारे जीवन में कामवासना है। बड़ा जाल है। बड़े से बड़ा जाल है। उद्दाम उसका वेग है। स्वाभाविक है, क्योंकि कामवासना से ही मनुष्य पैदा होता है। शरीर का कण-कण कामवासना से ही निर्मित होता है। मां के पेट में जो तुम्हारा पहला अणु था, वह तुम्हारे पिता और तुम्हारी मां की वासना के दो अणुओं का मेल था। फिर उसी का विस्तार होकर तुम्हारा पूरा शरीर बना, तुम्हारा मन बना, तुम बने। तुम्हारे रोएं-रोएं में वासना है। स्वाभाविक है। उसका वेग इतना है, तुम लाख कसमें खाओ, व्रत नियम संयम बनाओ, टूट-टूट जाते हैं। पछताओ कितने ही, फिर-फिर उलझ जाते हो। लेकिन अगर तुम जबरदस्ती करो तो बच सकते हो।
फिर बहुत से संन्यासी, साधु, भिक्षु जबरदस्ती अपने को रोक लेते हैं। तुम चाहो तो रोक सकते हो जबरदस्ती; क्योंकि कामवासना कुछ ऐसी वासना नहीं है कि उससे जीवन संकट में पड़ जाए। अगर तुम भूख को जबरदस्ती रोको तो ज्यादा से ज्यादा तीन महीने जिंदा रह सकोगे। अगर प्यास को जबरदस्ती रोको तो दो-चार दिन भी जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। अगर श्वास को जबरदस्ती रोको तो घड़ी भर भी जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन कामवासना को तुम जबरदस्ती रोको तो पूरी जिंदगी तुम मजे से जी लोगे। कोई अंतर नहीं आएगा। तुम मर न जाओगे।
इसलिए कामवासना को रोकने की चेष्टा लोगों को बहुत आकर्षित करती है। भूख को रोको तो अड़चन है, मौत खड़ी है। प्यास को रोको तो अड़चन है, मौत खड़ी है। श्वास को रोको तो अभी मरे, कल की बात ही नहीं है। कामवासना को रोना आसान मालूम पड़ता है। रोके रहो, तुम नहीं मर जाओगे; क्योंकि कामवासना का तुम्हारे जीवन से कोई सीधा संबंध नहीं है। कामवासना से तुम्हारे बच्चों के जीवन का संबंध है; तुम्हारे जीवन का संबंध नहीं। तुम्हारा जीवन तो तुम्हारे मां-पिता की वासना से शुरू हो गया। अब कोई अड़चन नहीं है, अब तो तुम यात्रा पूरी करोगे।
तो कामवासना को लोग रोक लेते हैं। कामवासना के रुकते ही दूसरा जाल शुरू हो जाता है। जिन-जिन ने कामवासना को रोका, तुम उन्हें पाओगे उनके जीवन में क्रोध अतिशय हो जाएगा। इधर रोका काम, उधर क्रोध का जाल उलझा। इसलिए साधु-संन्यासियों को तुम क्रोधी ज्यादा पाओगे। तुम्हें ऋषि-मुनियों की कथाएं मिल जाएंगी जो अभिशाप देने को तैयार ही बैठे हैं; जरा सी भूल-चूक हो जाए और अभिशाप दे दें, और यह जन्म ही न बिगाड़ें, अगले जन्म भी बिगाड़ दें।
तुमने कभी सोचा कि ऋषि मुनियों के साथ ऐसी कथाएं क्यों जुड़ी हैं? ऋषि-मुनियों के जीवन में तो अभिशाप होना ही नहीं चाहिए। उसकी वाणी पर अभिशाप का स्वर आना ही नहीं चाहिए। उसके जीवन से तो सदा ही आशीर्वाद के फूल गिरने चाहिए। अभिशाप के कांटे! ...
लेकिन जिन्होंने कहानियां लिखी हैं उन्होंने कल्पना नहीं लिखी, सच्चाई लिखी है। जिनको तुम ऋषि-मुनि कहते हो, उनमें से सौ में निन्यानबे ने कामवासना को जबरदस्ती रोक लिया है। स्वभावतः क्रोध बढ़ जाएगा; क्योंकि जो वेग काम से निकलते थे, अब वे कहां से निकलेंगे? तुमने एक द्वार बंद कर दिया वेग के निष्कासन का, वे कहीं और दूसरी जगह से द्वार खोज लेंगे। झरने को तुमने रोक दिया, झरना कहीं और से फूट कर निकलेगा। तुमने बीमारी एक तरफ से रोकी, बीमारी दूसरी तरफ से पकड़ लेगी।
अगर तुम क्रोध को भी रोक दो, क्रोध भी रोका जा सकता है। थोड़े ही श्रम की जरूरत है तो क्रोध भी रुक जाएगा। तो तुम पाओगे, कहीं और से निकलना शुरू हो गया। जो लोग क्रोध को रोक देंगे उनके जीवन में लोभ बढ़ जाएगा, भयंकर लोभ बढ़ जाएगा। लोभ को रोको, कुछ और बढ़ जाएगा।
जाल हैं पचास, जान है एक! एक जाल से बचे नहीं कि दूसरे में उलझ जाओगे। और कई बार तो तुम समझोगे कि एक जाल से बचने का उपाय ही यही है कि दूसरे जाल में उलझ जाओ, तो पहले जाल से बच जाओगे। खाली तो तुम भी न रह सकोगे।
तो जिस व्यक्ति को जीवन में क्रांति ही लानी हो, सच में ही क्रांति लानी हो, वह एक जाल से दूसरे जाल में नहीं उलझता; वह रुक कर सोचता है कि सभी जालों का मूल आधार क्या है। मूल आधार से बचने की फिकर करना। पत्ते-पत्ते मत जाना, जड़ काटना।
महावीर से कोई पूछता हैः साधु कौन? तो महावीर कहते हैंः असुत्ता..जो सोया हुआ नहीं, जागा हुआ है। पूछता है कोईः असाधु कौन? तो महावीर कहते हैंः सुत्ता..जो सोया हुआ है। महावीर ने न क्रोध की बात कही, न काम की बात कही, न लोभ की; जड़ की बात कही..सोना और जागना; होश और बेहोशी..चैतन्य और अचेतना। यह जड़ है।
तो माना कि जाल पचास हैं, लेकिन हर जाल का बुनियादी सूत्र एक है।
सरवर पंखी हेकड़ो, फाहीवाल पचास।
फंसाने को पचास जाल लगे हैं और सरोवर में पक्षी अकेला है। एक जाल से बचने की कोशिश करके तुम दूसरे में फंस जाओगे।
एक मित्र हैं मेरे। हिंदू थे, ईसाई हो गए। मैंने उनसे पूछा कि क्या कारण? उन्होंने कहाः देख लिया हिंदू धर्म का असार रूप। कुछ नहीं सब धोखाधड़ी है!
मैंने कहाः यही आंख खुली अगर रखी तो ईसाइयत भी धोखाधड़ी दिखाई पड़ेगी। तुम एक जाल से बच गए, यह ठीक..लेकिन दूसरे में फंस गए।
उन्होंने कहा कि नहीं, यह कभी नहीं होगा। मैं बहुत सोच-समझ कर गया हूं।
वर्ष भर बाद मुझे मिलने आए, कहने लगेः ठीक ही कहा था। यह तो वही का वही जाल है। नाम भर अलग है। मंदिर नहीं है, चर्च है। शंकराचार्य नहीं है तो पोप है। धोखाधड़ी वही है। माल भीतर वही है, सिर्फ डब्बे के ऊपर रंग-रोगन का फर्क है, लेबल अलग-अलग हैं। मैं तो फंस गया। अब आप ही मुझे बताएं कि मैं किस धर्म में सम्मिलित हो जाऊं?
मैंने कहाः मैं तुम्हें किसी और जाल में फंसने की सहायता न करूंगा। तुम जागते क्यों नहीं? अब तुम्हें मुसलमान होना है कि तुम्हें जैन होना है कि बौद्ध होना है..क्या होना है?
उन्होंने कहाः जो भी आप कहें।
मैंने कहाः मैं कुछ भी न कहूंगा। मैं तुमसे पूछता हूंः तुम यह क्यों नहीं देखते कि सभी संप्रदाय जाल हैं? तुम ऐसा क्यों नहीं देखते कि धर्म का संगठन से कोई संबंध नहीं है?
धर्म निजी है और वैयक्तिक है। धर्म का भीड़ से क्या लेना-देना है? भीड़ कभी समाधिस्थ हुई है, कि भीड़ कभी स्वर्ग गई है, कि भीड़ ने कभी मोक्ष के द्वार पर दस्तक दी है? जब भी कोई गया, अकेला गया है। यह आकांक्षा कि मैं किसी भीड़ का हिस्सा हो जाऊं, किसी समूह-संगठन का अंग बन जाऊं..यह आकांक्षा मूच्र्छित है। जागा हुआ व्यक्ति अकेला है, सोए हुए व्यक्तियों की भीड़ है। सोया हुआ आदमी सहारे मांगता है, अकेला नहीं हो सकता। अकेले होने से डर लगता है। जागा हुआ आदमी पाता है कि अकेला होना स्वभाव है। अकेले होने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।
इसलिए तो महावीर जैसे जागे व्यक्ति ने कहा..मोक्ष को जो नाम दिया, स्वर्ग को, परम अवस्था को जो शब्द दिया वह कैवल्य है, कि वहां पहुंचते-पहुंचते व्यक्ति बिल्कुल अकेला हो जाता है, केवल मात्र, अस्तित्व मात्र बचता है। वहां दो नहीं रह जाते। इसलिए शंकर ने अद्वैत शब्द का उपयोग किया, वहां एक ही बचता है।
कबीर ने कहाः प्रेम गली अति सांकरी, तामे दो न समाए। वहां दो नहीं समाते। जहां दो नहीं समाते वहां बस बीस करोड़ हिंदुओं की भीड़ कहां समाएगी, वहां साठ करोड़ मुसलमान कहां समाएंगे, वहां सौ करोड़ ईसाई कहां समाएंगे? वहां तो एक-एक ही गुजरता है और यात्रा करता है। वह गली बड़ी संकरी है।
मैंने उनसे कहा कि अब और झंझट में न पड़ो। जिंदगी ऐसे ही आधी गंवा दी, अब तो जागो! अब और नये जाल की कोशिश कर रहे हो!
पर ऐसा ही होता है। तुम एक जगह से छूट नहीं पाते कि छूटने की कोशिश में ही तुम दूसरे जाल का सहारा पकड़ने लगते हो। इसके पहले कि तुम छूटो, तुम नये जाल में उलझ गए होते हो। होश ही बचाएगा। जाल बदलने से कुछ न होगा।
सरवर पंखी हेकड़ो, फाहीवाल पचास।
सरोवर में तो पक्षी तो अकेला है और फंसाने के जाल पचास हैं।
‘यह शरीर लहरों में डूब रहा है। ऐ सच्चे मालिक, मुझे अब एक तेरी ही आशा है।’
इहु तन लहरी गडु थिआ, सचे तेरी आस।
फरीद कहते हैंः यह शरीर डूब रहा है।
यह थोड़ा सोचने जैसा है। फरीद यह नहीं कहते कि यह आत्मा डूब रही है। फरीद कहते हैंः यह शरीर डूब रहा है। ये जाल पचास हैं, पक्षी अकेला है। यह शरीर डूबा जा रहा है।
क्या तुम भी यह कह सकोगे, यह शरीर डूब रहा है? अगर तुम अपनी तरफ देखोगे तो तुम पाओगे कि हम तो पूरे ही डूब रहे हैं। शरीर ही नहीं डूब रहा, आत्मा भी डूब रही है। शरीर ही नहीं डूब रहा है, चैतन्य भी डूब रहा है। अगर चैतन्य भी डूब रहा है, तब फिर बचने का उपाय बहुत मुश्किल है; क्योंकि प्रार्थना भी कौन करेगा, पुकारेगा भी कौन? उस परमात्मा की तरफ हाथ भी कौन उठाएगा?
यह शरीर लहरों में डूब रहा है। फरीद इसे देख रहे हैं कि यह शरीर लहरों में डूब रहा है। यह देखना ही होश है। इसी होश से प्रार्थना के द्वार खुलते हैं।
तुम बेहोश प्रार्थना न कर सकोगे। यद्यपि तुमने बेहोशी में कई बार प्रार्थनाएं की हैं, पर उन प्रार्थनाओं पर बेहोशी का धुआं था। और वे प्रार्थनाएं तुम्हारे कंठों में ही दबी रह गईं, आकाश तक पहुंची नहीं हैं।
तुम्हारी प्रार्थनाएं ऐसी हैं जैसे तुमने कभी दुखस्वप्न देखा हो, नाइटमेयर कि रात तुमने अनुभव किया कि कोई तुम्हारी छाती पर चढ़ा बैठा है। तुम लाख उपाय करते हो, तुम हिल-डुल नहीं पा रहे हो। तुम हाथ उठाना चाहते हो, हाथ नहीं उठता, लकवा लग गया है। सपनों में ही! तुम चिल्लाना चाहते हो, लेकिन कंठ अवरुद्ध है, आवाज नहीं निकलती।
तुम्हारी प्रार्थनाएं बेहोशी में ऐसी ही हैं। तुमने की भी तो भी आवाज निकली नहीं। तुमने हाथ जोड़े तो भी सिर न झुका। शरीर झुका, पर तुम बिन झुके रह गए। मंदिर तक तुम पहुंचे, लेकिन वे मंदिर तुम्हारे ही बनाए हुए मंदिर थे, परमात्मा के मंदिर की तुम्हें कोई झलक न मिली।
शरीर डूबता हो और तुम देखने वाले साक्षी हो, तो ही, तो ही तुम कह सकोगे कि ऐ सच्चे मालिक, मुझे अब एक तेरी ही आशा है।
यह थोड़ा गौर से समझ लेने की बात है। सिर्फ होश से ही प्रार्थना वास्तविक हो सकती है। और मजा यह है कि अगर होश आ जाए तो प्रार्थना न की तो भी सुन ली जाएगी। और अगर होश न हो तो तुमने प्रार्थना जन्मों-जन्मों तक दोहराई तो भी न सुनी जाएगी। होश सुना जाता है, प्रार्थना नहीं सुनी जाती। प्रार्थना में कुछ भी नहीं है। तुम्हारे हृदय में, जहां से प्रार्थना आती है, जागरण हो, जागरण की सुगंध हो, जागरण की धूप जलती हो, तो ही उस धूप पर यात्रा करती है प्रार्थना। और तब तो एक ही प्रार्थना रह जाती है, और कुछ तो कहने को रह नहीं जाता..ऐ सच्चे मालिक, मुझे अब एक तेरी ही आशा है! अपने से तो बहुत करके देख लिया। हर बार पाया कि जो भी मैं करता हूं, वह एक जाल से तो बचा देता है, लेकिन दूसरे जाल में उलझा देता है। काम से बचा तो क्रोध में उलझ गया। संसार से बचा तो संन्यास में उलझ गया। घर से छोड़ कर भागा तो मंदिर में फंस गया। बाजार से छोड़ कर जंगल गया, जंगल में ही आसक्ति हो गई। धन छोड़ा, लंगोटी पकड़ ली। पकड़ न छूटी। ऐसे भागता रहा, बचता रहा; लेकिन हर बार आखिर में पाया कि कोई झंझट खड़ी हो गई। क्योंकि मेरे भीतर से तो मूच्र्छा टूटी नहीं, तो मैंने जो भी किया, वहीं संसार खड़ा हो गया।
संसार मूच्र्छा से पैदा होता है, वह मूच्र्छा की संतति है। तुम मूच्र्छित हो, तुम जो भी करोगे वह संसार होगा। तुम होश से भर जाओ, तुम जो भी करोगे, वह धर्म होगा। धर्म करने से कोई होश से नहीं भरता, होश से भरने से धर्म करता है। संसार छोड़ने से कोई जागता नहीं; जागने से संसार छूटता है।
इहु तन लहरी गडु थिआ, सचे तेरी आस।
अब एक तेरी ही आशा है, अपने पर आशा छोड़ते हैं। अपने को बचा-बचा कर देख लिया, बचा न पाए, अब तू ही बचा!
यह बड़ा गहरा अनुभव है जीवन का; जिसे उपलब्ध हो जाता है वह प्रौढ़ हो गया। जब तक ऐसा अनुभव न उपलब्ध हो तब तक तुम समझना, अभी बालपन चल रहा है, प्रौढ़ता न आई। बालपन का मतलब ही यही है कि तुम सोचते हो, अपने किए हो जाएगा। समस्या बड़ी है, तुम बहुत छोटे हो। समस्या विराट है; तुम्हारे हाथों की इतनी पहुंच नहीं। आंखें बड़ी छोटी हैं, देखने को विराट है। हाथ बड़े छोटे हैं, पकड़ने को आकाश है। नहीं, यह पकड़ नहीं हो पाएगी।
तुमने अपनी तरफ से कोशिश की तो वह सारी कोशिश तुम्हारी अहमता, अस्मिता और अहंकार ही होगी। तुमने तप भी किया तो भी अहंकार ही होगा। तुमने पूजा की तो भी अहंकार होगा। तुम मंदिर गए तो भी इसलिए जाओगे कि उससे अहंकार की तृप्ति होती है..लोग कहते हैंः बड़े धार्मिक हो।
तुमने कभी ख्याल किया, अपने ही ऊपर कभी ख्याल किया कि आदमी कैसे खेल खेलता है? तुम मंदिर में खड़े हो, कोई देखने वाला नहीं तो प्रार्थना में कुछ मजा नहीं आता। भीड़ इकट्ठी है, लोग देख रहे हैंः तुम्हारे स्वर एकदम तेज हो जाते हैं, आरती में गति आ जाती है; पैर थिरकने लगते हैंः तुम परमात्मा के लिए नाच रहे हो या इन दर्शकों के लिए नाच रहे हो। जब कोई देखने वाला नहीं होता, तुम संक्षिप्त प्रार्थना करके रास्ते पर निकल जाते हो। तुम जल्दी-जल्दी करकुरा कर लेते हो। जब देखने वाले होते हैं तो प्रार्थना बड़ी लंबी हो जाती है। और ऐसा समझो कि सम्राट भी आया हो देखने तब तो तुम्हारी प्रार्थना में ऐसी लवलीनता लगेगी, आंख से आंसू झरेंगे। तुम्हें देख कर ऐसा लगेगा, तुम बिल्कुल समाधिस्थ हो गए।
लेकिन वह सब झूठ है। प्रार्थना का तुम्हें कोई रस नहीं, रस कोई और है..रिस्पेक्टबिलिटी, आदर-सम्मान..लोग धार्मिक समझते हैं।
मैंने सुना है, एक बिल्कुल बहरा और अंधा आदमी रोज चर्च जाता था..एक बच्चे का सहारा लेकर। किसी ने उससे एक दिन पूछा कि तू किसलिए आता है? न तो तुझे कुछ दिखाई पड़ता, न तो तुझे कुछ सुनाई पड़ता। चर्च में पादरी क्या समझाता है, वह तुझे सुनाई नहीं पड़ता। कौन सी प्रार्थनाएं होती हैं, गीत गाए जाते हैं, वे तुझे सुनाई नहीं पड़ते। तू क्यों रोज इतना परेशान होता है?
उसने कहाः यह सवाल नहीं है। यह सवाल नहीं है सुनने और देखने का। क्या तुम सोचते हो, जिनको दिखाई पड़ता है, वे देखने आते हैं; और जिनको सुनाई पड़ता है वे सुनने आते हैं? कोई इसलिए नहीं आता, देखने और सुनने। लोग दिखाने आते हैं कि देखो मैं चर्च में आया हूं, मैं धार्मिक हूं! मैं भी दिखाने ही आता हूं। देखना किसको है? आंख का क्या प्रयोजन है? सुनना किसको है? सुन ही लिया होता हो फिर आने कि जरूरत क्या रहती? नहीं, मैं तो यह दिखाना चाहता हूं कि ताकि लोग जान लें कि मैं भी धार्मिक हूं, और ताकि परमात्मा भी देख ले कि हर रविवार को मौजूद रहा हूं; कभी एक रविवार चूका नहीं, यद्यपि अंधा था, बहरा था। आना मुश्किल था, कठिनाई थी; लेकिन बराबर आया हूं।
यह तो एक दावेदारी है।
तुम पुण्य के लिए मंदिर जाते हो। मंदिर जाने में तुम्हें आनंद नहीं है। तो तुम एक से बचोगे...घर से बचोगे, मंदिर में फंसोगे। क्योंकि तुम्हारे होने का ढंग ही ऐसा है कि तुम फंस ही सकते हो, मुक्त नहीं हो सकते हो। मूच्र्छा में कभी कोई मुक्त नहीं होता।
यह शरीर लहरों में डूब रहा है।
यह शरीर को अपने से अलग करके देखना होश की तरफ पहला कदम, यह शरीर मैं नहीं हूं, ऐसी प्रतीति गहन होने लगे। चलते समय देखना कि शरीर चल रहा है, मैं नहीं। भूख के समय देखना, शरीर को भूख लगी है, मुझे नहीं। प्यास कंठ को तड़फाए, तब जानना कि शरीर को बड़ी जरूरत है जल की, मुझे नहीं। नींद आने लगे, कहना, शरीर विश्राम चाहता है। शरीर सोए, शरीर चले, शरीर भूखा हो, तृप्त हो..तुम जरा दूर-दूर रहना; तुम जरा फासला साधना। तुम बहुत नजदीक मत रहना। जितने तुम नजदीक रहोगे शरीर के, उतना ही तुम शरीर के साथ डूबोगे। जितना यह अलगाव और फासला बढ़ने लगे, उतना ही भीतर साक्षी चैतन्य का जन्म होगा, उतना ही तुम्हारा होश बढ़ेगा। तब शरीर बीमार पड़ेगा और तुम जानोगे कि शरीर बीमार पड़ा है, मैं जानने वाला हूं। तभी यह संभव है कि फरीद की तरह तुम भी कह सकोः इहु तन लहरी गडु थिआ, यह शरीर तो डूब रहा है लहरों में, लेकिन मैं देख रहा हूं। और यह जो मैं देख रहा हूं, यह जो मैं साक्षी हूं..यही साक्षी तो प्रार्थना है।
ऐ सच्चे मालिक, मुझे अब एक तेरी ही आशा है। अपनी तरफ से सब किया, डूबने के अतिरिक्त कुछ भी न पाया। बहुत नदियों में डूबे, बहुत घाटों पर उतरे; लेकिन हर जगह डूबना ही हुआ। आखिर में हाथ कुछ न लगा, सिर्फ मौत लगी। आखिर में सिवाय दुख के और कुछ भी न पाया। अशांति, बेचैनी, विषाद! अपनी तरफ से करके चुक चुके, अब कुछ और करने को नहीं रहा। ऐ सच्चे मालिक, मुझे अब तेरी ही आशा है।
जो फरीद का वचन है, वह अनुवाद से भी सुंदर हैः सचे तेरी आस! वह इतना ही कह रहा है, तू सच है। सचे तेरी आस! और अब सच्चे की ही आस है। अपने तईं रह कर देख लिया, वह झूठे के साथ आशा थी। मैं ही झूठा था, तो उसके साथ जितनी आशाएं बांधीं, वे सब डूबीं। मैं ही झूठा था, तो उस नाव में जितनी यात्राएं कीं, वे सब व्यर्थ गईं। वह कागज की नाव थी। वह हमेशा मझधार तक पहुंचते-पहुंचते डूब गई, गल गई। सच तेरी आस! अब तो मैं तेरी तरफ देखता हूं। तू सच्चा है, मैं झूठा हूं।
यह भक्त का भाव है। मैं सच्चा हूं, तू झूठा है..यह सांसारिक का भाव है। बस इतना सा ही फर्क है, पर कितना बड़ा फर्क है! लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैंः ईश्वर कहां है? दिखाई नहीं पड़ता।
जो लोग ईश्वर पर भी संदेह करते हैं, वे कभी अपने पर संदेह नहीं करते कि मैं कहां हूं, मैं दिखाई पड़ता हूं? नहीं, उस पर कभी संदेह नहीं आता, वह सच्चा है। परमात्मा झूठा है। जब तीर बदल जाता है..सच्चाई परमात्मा की तरफ हो जाती है और झूठ अपनी तरफ हो जाता है..तब भक्त का जन्म होता है। तब भक्त कहता हैः तू तो सब तरफ दिखाई पड़ता है, मैं कहीं दिखाई नहीं पड़ता। सचे तेरी आस! झूठ था मैं, इसलिए जालों में उलझा। मैं खुद ही झूठ था। जालों ने उलझाया, यह कहना ठीक नहीं, मैं झूठ था, इसलिए उलझा।
मैं एक गांव में गया। एक संन्यासी मेरे पहुंचने के पहले उस गांव में थे। बड़ी चर्चा थी। उस संन्यासी ने एक आदमी को धोखा दे दिया। धोखा यह दिया कि उस संन्यासी ने कहा कि मैं सोने को दुगना कर देता हूं, सौ रुपये के नोट को दोहरा कर देता हूं, दो नोट कर देता हूं एक की जगह। उसने करके भी दिखाया। कोई चालबाजी की होगी। सौ रुपये का नोट उसने दो करके दिखा दिया, भरोसा आ गया। तो सारे घर का जो कुछ भी था..सोना, चांदी, सब इकट्ठा कर दिया। उसको डबल करना है, दोहरा करना है। उसने कहाः सब रख दो, दोहरा हो जाएगा। उसने एक मटकी में सब रखवा लिया। काफी आधी रात तक उसने मंत्र-तंत्र किए और फिर कहा कि अब इस मटकी को लेकर मरघट चलना पड़ेगा। साथ चलो, कोई भय की बात नहीं है। थोड़ी घबड़ाहट तो हुई, लेकिन लोभी आदमी! सोचा दुगुना हो जाएगा। कोई दस-बारह हजार रुपये का सोना था, तो मरघट जाने को भी तैयार हो गया। फिर उसने रास्ते में मरघट के भय बतलाए कि घबड़ाना मत, अगर कोई गर्दन पकड़ ले; घबड़ाना मत, अगर कोई अस्थिपंजर एकदम खड़ा हो जाए, क्योंकि भूत-प्रेत आएंगे। वह फंस ही गया। मरघट के बाहर-बाहर पहुंच कर उसने कहाः ऐसा करो महाराज, आप ही अंदर चले जाओ, मुझे तो बहुत डर लग रहा है।
और उसने कहा कि अगर डर लगा तो डबल तो होगा ही नहीं सोना, सोना मिट्टी हो जाएगा। और उसे यह भी गृहस्थ ने कहा कि भई वापस ही लौट चलो, जितना है उतना ही रहने दो। उसने कहा कि बीच में तो कभी हो ही नहीं सकता वापस। तो वह मरघट के बाहर रह गया, और वह मरघट के भीतर गया तो लौटा ही नहीं, वह लेकर मटकी उनकी नदारद हो गया। उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट की। सारे गांव में संन्यासी की निंदा थी। वे मेरे पास भी आए। दूसरे ही दिन मैं उस गांव पहुंचा। रोने लगे। कहने लगे कि ऐसा-ऐसा हो रहा है। संन्यास के नाम पर ऐसा धोखा चल रहा है। धर्म के नाम पर ऐसी बेईमानी चल रही है। ऐसे चालबाज और गुंडे और बदमाश धर्म की आड़ में छिपे हैं।
मैंने उनसे कहाः उस संन्यासी की बात बाद में करेंगे, क्योंकि वह तो यहां मौजूद नहीं। तुम कोई भले आदमी नहीं हो। तुम फंसे हो अपनी चालबाजी से। तुम दोहरा करना चाहते थे सोना! तुम सोचते हो, तुम सज्जन आदमी हो? तुम उस संन्यासी की शरारत से नहीं फंसे हो, तुम अपनी बेईमानी से फंसे हो। अगर तुम ईमानदार आदमी होते तो तुम कहतेः मुझे करना भी नहीं है; सौ के दो नोट मुझे बनाने नहीं हैं, क्योंकि यह तो गैर-कानूनी है। संन्यासी तो जब पकड़ा जाएगा, पकड़ा जाएगा, मुझे आश्चर्य है कि सरकार तुम्हें कैसे छोड़े हुए है! तुम इसी वक्त पकड़े जाने चाहिए, तुम तो कम से कम उपलब्ध हो। तुमने सौ रुपये के डबल बनाना चाहे, तुम बारह हजार का सोना चैबीस हजार का करना चाहते थेः तुम हो बेईमान! तुम फंसे अपनी बेईमानी से।
अरब में एक कहावत है कि सच्चे आदमी को धोखा देना मुश्किल है। मैं भी इसमें भरोसा करता हूं। तुम सच्चे आदमी को धोखा कैसे दोगे? क्योंकि धोखा देने के लिए तुम जो उपाय करते हो, वे सिर्फ झूठे आदमी पर काम आते हैं। ईमानदार आदमी के साथ बेईमानी करनी असंभव है। और तुम कर भी लोगे बेईमानी तो तुम को ही लगेगा कि तुमने की है; ईमानदार आदमी को पता भी न चलेगा। ईमानदारी की महिमा ऐसी है कि उसको बेईमानी छूती ही नहीं; ऐसे है जैसे सूरज को कभी अंधेरा नहीं छूता। कोई उपाय नहीं है। कितना ही अंधेरा हो, सूरज को कभी नहीं छूता। सूरज को तो छोड़ दो, छोटे से मिट्टी के दीये को भी नहीं छू पाता। जरा सी लौ जलती है, उसको भी नहीं छू पाता।
आदमी फंसता है अपने भीतर के झूठ के कारण।
फरीद यह कह रहे हैं कि वे पचास जाल हैं, माने; लेकिन असली जाल तो यह है कि मैं जो झूठा था उसको मैं सच्चा समझता था। अब वह झूठ गया। फंस-फंस कर मैंने देख लिया कि कोई और न फंसाता था, मैं ही फंसता था। सचे तेरी आस! अब तुझ पर ही सब छोड़ता हूं। अब तेरी ही एक आशा है।
और एक बड़े मजे की बात, तुमने शायद ध्यान दिया हो कि दुनिया में बीमारियां तो हजारों तरह की होती हैं, लेकिन स्वास्थ्य एक तरह का होता है। बीमारियों के हजार ढंग हैं, करोड़ ढंग हैं। बीमारियों की कोई संख्या है..असंख्य हैं। लेकिन स्वास्थ्य? स्वास्थ्य बस एक ही ढंग का होता है..हिंदू का हो, मुसलमान का हो, ईसाई का हो, काले का हो, गोरा हो, स्त्री हो, पुरुष हो। स्वास्थ्य का स्वाद एक है।
झूठ अनेक होते हैं, सत्य एक है।
सचे तेरी आस।
जब तक तुम झूठ में फंसते हो, तुम भी भीतर अनेक को पकड़े हो, एक को नहीं पकड़ा है तुमने। इसलिए अनेक तुम्हें फंसा लेते हैं। भीतर की माया ही बाहर की माया से मिल जाती है, तुम फंस जाते हो। भीतर एक झूठ बाहर के झूठ से उलझ जाता है, तुम फंस जाते हो। भीतर का झूठ न रह जाए, बस बात समाप्त हो गई।
एक झेन फकीर रात सोने के ही करीब था कि चोर उसके घर में आ गया। गांव से दूर था घर। फकीर को बड़ी बेचैनी हुई की बेचारा चोर! इतनी रात अमावस की, अंधेरी रात में, इतने दूर चल कर आया और झोपड़े में कुछ है ही नहीं। सिर्फ एक कंबल है जो वह खुद ही ओढ़े है। तो वह चुपचाप कंबल को एक कोने में रख कर सरक गया अंधेरे में कि यह कुछ तो ले जाए; अन्यथा इतनी दूर आया और खाली हाथ जाए! ऐसा हमारा सौभाग्य कहां कि यहां चोर आएं। चोर तो धनियों के घर जाते हैं। पहली दफे तो यह भाग्य आया कि चोर ने हमें यह सम्मान दिया, और इसको भी हम अधूरा हाथ, खाली हाथ भेज दें! तो सरका कर अपने कंबल को एक कोने में हट गया। चोर कुछ डरा कि मामला क्या है! वह अंधेरे में खड़ा देख रहा है। और जब यह कंबल को छोड़ कर हट गया तो उसे और भी भय लगा कि यह फंसाने की तरकीब तो नहीं है, क्या मामला है? घर में कुछ है भी नहीं, आदमी भी अजीब है! कुछ भी नहीं है घर मेंः बस यह कंबल ही एकमात्र दिखता है, खुद नंगा मालूम होता है। तो वह निकल कर भागना चाहा। और उसने सोचा कि इसका कंबल भी किस मतलब का होगा; हजार छेद होंगे, सड़ा-गला होगा! जिसके पास कुछ भी नहीं उसके कंबल का भी क्या भरोसा!
भागने को था कि उस फकीर ने आ कर दरवाजे पर रोक लिया और कहा कि ऐसी ज्यादती मत करो, वह कंबल ले जाओ; नहीं तो मन में सदा के लिए पीड़ा रह जाएगी कि तुम आए भी, खाली हाथ गए। कौन आता है अंधेरी रात में? और हम फकीरों के घर तो कभी कोई आता ही नहीं। तुमने तो हमें धनी होने का सम्मान दिया। अब तुम ऐसा न करो, जल्दी न करो; ले जाओ कंबल, अन्यथा हमें बड़ी पीड़ा रह जाएगी। और दुबारा आओ तो जरा खबर कर देना, हम इंतजाम पहले से कर देंगे, कुछ मिलेगा जरूर। पता ही न हो तो हम भी क्या कर सकते हैं? ऐसे अतिथि की तरह मत आना, एक चिट्ठी डाल देना।
वह आदमी तो घबड़ा गया था। घबड़ाहट में उसे कुछ सूझा नहीं, उसने सोचा, लो कंबल और निकल जाओ; यह आदमी तो कुछ आदमी जैसा नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि या तो पागल है या फिर किसी और लोक का है। जब वह कंबल लेकर भागने लगा तो उस फकीर ने कहा कि देख भाई, दरवाजा अटका दे; और ध्यान रख, कभी भी किसी के घर जाए, दरवाजा जब खोलते हो तो अटका कर जाना चाहिए।
वह चोर भी सोचा कि कहां के आदमी से पाला पड़ गया। और जब वह दरवाजा अटकाने लगा तो उस फकीर ने कहा कि देख धन्यवाद दे दे, पीछे काम पड़ेगा। हमने तुझे कंबल दिया, नाहक चोर क्यों बन रहा है? धन्यवाद दे दे, बात खत्म हो गई।
तो उसने धन्यवाद दिया और भागा। वह पकड़ा गया बाद में। और चोरियां पकड़ीं, यह कंबल भी पकड़ा गया। मजिस्ट्रेट ने इस फकीर को बुलाया; क्योंकि अगर यह फकीर कह दे कि हां, यह चोरी करने घर में आया था तो बस काफी है। इसके वचन को तो भरोसा था मुल्क में। फिर कोई और खोज-बीन की जरूरत नहीं, यह निष्णात चोर है। लेकिन उस फकीर ने कहा कि नहीं, इसने चोरी नहीं की, मैंने भेंट दिया था; और इसने भेंट के बाद धन्यवाद भी दिया था, इसलिए बात खत्म हो गई थी।
फकीर तो अदालत से बाहर निकल आया, चोर भी छोड़ दिया गया। वह आकर फकीर के पैर पकड़ लिया, उसने कहा कि मुझे भी साथ ले चलो। अब जब तक तुम जैसा न हो जाऊं तब तक चैन न मिलेगी। तुम भी आदमी गजब के हो। तुमने मेरी इतनी फिकर की उस रात, कंबल भी दिया और भविष्य की भी चिंता ली कि धन्यवाद भी मुझसे दिलवा लिया कि मैं चोर न रह जाऊं।
उस फकीर ने कहाः जब से हम साधु हुए, तब से कोई हमारे लिे चोर न रहा। इसे थोड़ा सोचो। जब तुम साधु हो जाओगे तो तुम्हारे लिए कोई चोर न रह जाएगा। और जब तक तुम्हारे लिए कोई चोर है, तब तक जानना कि भीतर कोई चोर मौजूद है। चोर से ही चोर की पहचान होती है। साधु से साधु की पहचान होती है। तुम साधु हो तो तुम चोर में भी साधु को देख लोगे। तुम चोर हो तो तुम साधु में भी चोर को देख लोगे।
आदमी फंसता है, जाल के कारण नहीं; भीतर के मोह, भीतर की माया, भीतर के असत्य, भीतर की मूच्र्छा के कारण।
ऐ सच्चे मालिक, मुझे अब एक तेरी ही आशा है! वह झूठ का मैंने सहारा छोड़ दिया; अब उस कागज की नाव पर यात्रा नहीं करता। ..सचे तेरी आस!
कवणु सु अखरु कनणु गुणु, कवणु सु मड़ीआ मंतु।
कवणु सु वेसो हउ करी, जितु वसी आवै कंतु।।
वह कौन सा शब्द है फरीद, वह कौन सा गुण है फरीद, वह कौन सा अनमोल मंत्र है, कौन सा वेश मैं धारण करूं मेरे मालिक जिससे कि मैं तुझे अपने बस में कर लूं?
कौन से कपड़े पहनूं, कौन सा गुण धारण करूं, कौन सा मंत्र पढूं कि मैं अपने स्वामी को बस में कर लूं..
अब और सबको बस में करके देख लिया, भिखारी से भिखारी और भिखारी से भिखारी होता गया। साम्राज्य जीत कर देख लिए, संपत्ति हाथ न लगी। अब तो तुझ मालिक को ही, तुझ मालिक को ही पाना है, और कुछ पाने जैसा न रहा।
जीसस का एक बड़ा प्रसिद्ध वचन है। एक आदमी निकोडेमस जीसस के पास आया और उसने कहा कि मुझे आशीर्वाद दो कि मेरे धन में बढ़ती हो, मेरी समृद्धि बढ़े, मेरे सौभाग्य में हजार गुनी गति हो।
जीसस ने कहाः सीक यी फस्र्ट दि किंगडम ऑफ गॉड, दैन ऑल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू। तू सिर्फ परमात्मा को खोज, परमात्मा के राज्य को खोज; शेष सब अपने आप पीछे चला आएगा।
और इससे उलटी बात भी ध्यान रखना, जिसने शेष को खोजा, उसने कभी कुछ न पाया; शेष तो खोया ही, परमात्मा भी खोया। जिसने परमात्मा को खोजा उसने परमात्मा को तो पाया ही, शेष सब भी पा लिया; क्योंकि उसके बाहर और क्या है?
फरीद कहता हैः कौन सा शब्द है, जो तेरे कानों को मीठा हो, मैं वही गाऊं वही गुनगुनाऊं? कौन सा गुण है जो मैं ओढ़ लूं, और तेरे प्रेम की नजर मेरी तरफ हो जाए? कौन सा अनमोल मंत्र है जो कुंजी बन जाए और तेरे हृदय के द्वार मेरे लिए खुल जाएं? कौन सा वेश धारण करूं? कौन सा वेश तुझे प्रिय है? मैं वही वेश धारण करने को राजी हूं। लेकिन अब बस तुझे ही बस में करने का ख्याल है। और सब दौड़ दौड़ कर देख ली, व्यर्थ पाई।
कवणु सु अखरु कवणु गुणु, ....
निवणु सु अखरु खवणु गुणु, जिहवा मणीआ मंतु।
‘दीनता वह शब्द है, धीरज वह गुण है, शील वह मंत्र है। तू इसी तीन के वेश को धारण कर बहन, तेरा स्वामी तेरे बस में हो जाएगा।’
एत्रै भैणे वेस करि, ता वसि आवी कंतु।
ये तीन शब्द गौर से समझें।
दीनता वह शब्द है।
जीसस ने कहा हैः ब्लैसिड आर दि मीक। धन्य हैं वे जो दीन हैं।
लाओत्सु के सारे वचन दीनता की महिमा को गाते हैं। धन्य हैं वह जो सबके पीछे है, क्योंकि वही आगे हो जाएगा। धन्य है वह जिसके पास कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि सभी कुछ उसका है।
दीनता वह शब्द है।
दीनता का क्या अर्थ है?
दीनता का अर्थ है कि मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं जिसके कारण मैं अकड़ सकूं। न बुद्धि है, न ज्ञान है, न त्याग है, न तपश्चर्या है..मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं जिसके कारण मैं अकड़ सकूं।
अकड़ अहंकार है। और अहंकार के लिए सहारे चाहिए। धन हो तो अकड़ हो सकती है। पद हो तो अकड़ हो सकती है। ज्ञान हो तो अकड़ हो सकती है। त्याग हो तो अकड़ हो सकती है। ऐसा कुछ भी नहीं मेरे पास जिससे मैं अकड़ सकूं। मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे मैं कह सकूं कि मैं हूं। मैं बिल्कुल रिक्त हूं।
ध्यान रखना आदमी का मन इतना चालाक है कि वह दीनता के कारण भी अकड़ सकता है। वह यह कह सकता हैः मैं बिल्कुल दीन हूं देखो; मैं तुमसे ज्यादा दीन हूं, मुझसे ज्यादा दीन और कोई भी नहीं! तो फिर दीनता ही धन हो गई।
मैंने सुना है, चार ईसाई फकीर एक चैराहे पर मिले। उन चारों के चार बड़े आश्रम थे जंगल में। चारों लौटते थे शहर से उपदेश करके, राह में मिलना हो गया। विश्राम करते थे वृक्ष के नीचे बैठ कर। पहले ईसाई फकीर ने कहा कि तुम्हें पता होना चाहिए कि हमारी जो मोनेेस्ट्री है, हमारा जो आश्रम है, उसने आज तक जितने बड़े दार्शनिक दुनिया को दिए; उतने तुम्हारे किसी आश्रम ने नहीं दिए।
दूसरे ने कहाः यह बात बिल्कुल ठीक है, जितने बड़े दार्शनिक तुम्हारे आश्रम से पैदा हुए, किसी आश्रम से पैदा नहीं हुए। लेकिन जितने बड़े त्यागी हमने पैदा किए हैं हमारे आश्रम से, उतने बड़े त्यागी तुम्हारे आश्रम या किसी भी आश्रम से कभी पैदा नहीं हुए।
तीसरे ने कहाः यह बात भी सच है; लेकिन पांडित्य में तो तुम हमारा कोई मुकाबला न कर सकोगे। जैसे शास्त्र के जानकार और जैसी बाल की खाल निकालने वाले कुशल चिंतक हमने पैदा किए हैं, किसी ने पैदा नहीं किए।
तीनों ने चैथे की तरफ देखा, जो चुपचाप बैठा था। उसे चुप देख कर उन्होंने कहाः तुम कुछ बोलते नहीं?
उसने कहा कि जहां तक हमारे आश्रम का संबंध है, जैसे दीन, ना-कुछ, विनम्र व्यक्ति हमने पैदा किए हैं, उसका कोई मुकाबला नहीं। वी आर दि टॉप इन ह्यूमिलिटी।
टॉप इन ह्यूमिलिटी! शिखर पर हैं विनम्रता के! मगर विनम्रता का कोई शिखर होता है? शिखर ही के कारण तो विनम्रता नहीं होती। जहां विनम्रता है वहां विनम्रता का भाव भी नहीं हो सकता। विनम्रता का भाव भी हो तो विनम्रता नष्ट हो गई। विनम्रता बड़ी नाजुक बात है। विनम्रता का भाव भी नष्ट कर देता है उसे। उससे ज्यादा बारीक और कोमल कोई तंतु नहीं है।
दीनता का अर्थ हैः मैं कुछ भी नहीं हूं। जैसे ही यह घड़ी घटती है कि मैं कुछ भी नहीं हूं, वही परमात्मा सब कुछ हो जाता है। जब तक मैं कुछ हूं तब तक परमात्मा सब कुछ नहीं हो सकता। जितना मैं हूं उतना परमात्मा से कटा रहेगा। जिस दिन मैं शून्य हूं उस दिन परमात्मा पूर्ण है। जब तक मैं पूर्ण हूं तब तक परमात्मा शून्य है।
वह कौन सा शब्द है?
दीनता वह शब्द है।
वह कौन सा गुण है?
धीरज वह गुण है।
धीरज को भी समझें। धैर्य का अर्थ होता हैः मिलना निश्चित है; मिलना इतना निश्चित है कि जल्दी क्या है? जल्दी तो इसलिए होती है कि मिलना अनिश्चित है। तुम्हें पक्का भरोसा नहीं कि मिलना होगा, इसलिए तुम जल्दी में होते हो। जब मिलना बिल्कुल ही निश्चित हो, जब उसमें रत्ती भर संदेह न हो तो फिर जल्दी क्या? जब मिले, तब मिले। जब मिले तभी जल्दी है।
धीरज का अर्थ हैः चाहता तो हूं इसी क्षण तू मिल जाए; लेकिन अगर अनंतकाल में भी मिला तो भी शिकायत नहीं है। अनंतकाल भी तेरी प्रतीक्षा में मधुर हो जाएगा। तेरी प्रतीक्षा का ही काल होगा, बेचैनी का नहीं होगा। तेरी राह पर आंखें बिछा कर बैठे रहेंगे। वे क्षण भी सुख के ही क्षण होंगे। तू आने वाला है!
और अगर धीरज परिपूर्ण हो तो मिलन इसी क्षण हो जाता है। यह बड़ी विरोधाभासी बात है। इसे ऐसा समझने की कोशिश करेंः जितनी तुमने जल्दी की उतनी देर हो जाएगी। क्योंकि तुम्हारी जल्दी बेचैनी और अशांति की खबर है। और जितनी तुमने जल्दी न की उतनी जल्दी हो जाएगी; क्योंकि तुम्हारा जल्दी न करना तुम्हारे शांत, प्रफुल्लित होने का लक्षण है। अगर तुम्हारा धैर्य अनंत है तो इसी क्षण परमात्मा मिल जाएगा। अगर तुम्हारे धैर्य में थोड़ी कमी है..उतनी ही देर लगेगी। जितनी धैर्य में कमी है उतनी ही देर लगती है।
मैं एक बहुत पुरानी कहानी तुमसे कहूं जो मैं निरंतर कहता रहता हूं। नारद जाते हैं स्वर्ग की तरफ। एक बूढ़ा फकीर, बड़ा पुराना तपस्वी, वृक्ष के नीचे अपनी तपश्चर्या कर रहा है। नारद उसके पास से गुजरते हैं अपनी वीणा बजाते, तो वह कहता हैः कहां जाते हैं? परमात्मा की तरफ जाते हैं? अगर जाते हों, तो पूछ लेना कि मेरे संबंध में अब और कितनी देर है? तीन जन्म हो गए मुझे तपश्चर्या करते। किसी चीज की सीमा होती है, हद होती है। अब यह बात बेहद हुई जा रही है। धैर्य का गुण ठीक है, लेकिन कब तक? जरा पूछ लेनाः और कितनी देर है?
नारद ने कहाः जरूर पूछ लूंगा। हंसी तो नारद को बहुत आई कि यह बात भी कोई प्रार्थना से भरे चित्त की बात है! प्रार्थना से भरे चित्त की कभी कोई धैर्य की सीमा आती है? यह भी कोई प्रेमी का लक्षण है? लेकिन अब ठीक है, पूछ लेंगे।
एक दूसरे वृक्ष के नीचे एक युवक संन्यासी नाच रहा था, अपना एकतारा लिए, उससे उन्होंने मजाक में ही पूछा कि भई, तुझे तो नहीं पूछना कि कितनी देर है? तेरी भी पूछ लेंगे इन्हीं के साथ।
लेकिन उसने जवाब न दिया, वह नाचता ही रहा। थोड़ा नारद को भी हैरानी हुई। कहाः सुनते नहीं, बहरे हो? जा रहा हूं परमात्मा की तरफ, तुम्हारी भी पूछ लूंगा।
लेकिन उस युवक ने फिर भी कोई ध्यान न दिया, वह नाचता ही रहा।
कुछ दिन बाद नारद वापस लौटे। उस बूढ़े आदमी से कहा...वह बैठा था तैयार; माला का मनका भी हाथ में घूमता रुक गया था। उसने पूछाः पूछा? क्या बोले?
नारद ने कहा कि क्षमा करें, उन्होंने कहा, तीन जन्म और लग जाएंगे। उसने माला वहीं फेंकी। लात मार कर मूर्ति हटा दी। पूजा के फूल बिखरा दिए और कहाः बस हो गया बहुत! यह तो अंधेर है। तीन जन्म से धक्के खा रहे हैं। और तीन जन्म! नहीं, अब नहीं सहा जाता।
नारद उस युवक फकीर के पास गए जो अभी भी नाच रहा था तंबूरा लिए। कहा कि भाई, डर लगता है तुझसे कहें कि न कहें क्योंकि तीन जन्म की बात से ही बूढ़ा संन्यासी इतना नाराज हो गया कि डर था कहीं हमला न कर दे हम पर, जैसे हमारा कोई कसूर हो! लेकिन जब पूछ ही लिया है तो कह देना उचित है। तुम्हारे संबंध में भी पूछा था। नाराज मत होना। परमात्मा ने कहा कि जितने उस वृक्ष में पत्ते हैं जहां वह नाच रहा है युवक संन्यासी, उतने जन्म लगेंगे।
वह संन्यासी और जोर से नाचने लगा। उसने कहाः तब तो पा ही लिया! इतने से पत्ते! संसार में कितने पत्ते हैं! सिर्फ इतने ही पत्ते जितने इस वृक्ष में हैं! जीत लिया, मामला हल हो गया! धन्यवाद!
और कहते हैं, यह कहते ही वह संन्यासी मुक्त हो गया। क्योंकि जिसकी इतनी प्रतीक्षा हो; जो कह सके इतने से पत्ते इस वृक्ष में। पृथ्वी तो पत्तों से भरी है अनंत, इतने में ही पा लूंगा, तो तो यह किनारा पास ही है। मिल ही गया, अब इसमें कुछ देर क्या रही!
जो इस भाव से भरा हो उसे क्षण भर की देर न लगेगी।
इसलिए फरीद कहते हैंः धीरज वह गुण है। दीनता वह शब्द है। धीरज वह गुण है। शील वह अनमोल मंत्र है।
प्रतीक्षा करो अनंत की, लेकिन तैयारी ऐसे रखो जैसे वह अभी आया, अभी आया। शील का यही अर्थ है। जैसे मेहमान घर में आता है तो तुम ताजे तकिए लगाते हो, बिस्तर बनाते हो, घर की सफाई करते हो। तुमको अगर पता हो, आएगा कभी तो कोई आज तो सफाई न करोगे। जब आएगा तब देखेंगे। लेकिन जैसे आता हो अभी, तो तुम घर साफ कर लिए हो। बंदनवार बांध दिए हैं। घी का दीया जला दिया है। वह चाहे अनंतकाल में आए, लेकिन तुम्हारे लिए तो अभी आ रहा है। अनंतकाल यानी अभी।
यह तो धीरज का लक्षण हुआ; लेकिन सिर्फ धीरज रख कर बैठे रहने से कुछ भी न होगा, क्योंकि धीरज भी आलस्य हो सकता है। तुम आलस्य को धीरज का नाम दे सकते हो कि हम धैर्य वाले हैं, जब जाएगा तब ठीक। लेकिन यह उदासी न हो।
शील का अर्थ हैः तैयारी। शील का अर्थ हैः अपने हृदय के मंदिर को पवित्र करना। शील का अर्थ हैः अपने पात्र को योग्य बनाना। शील का अर्थ हैः अमृत की वर्षा होगी तो स्वर्ण का पात्र तो तैयार कर लूं; परमात्मा घर आएगा, तो मैं उसके योग्य तो हो जाऊं। धीरज करूंगा, धीरज रखूंगा, जब आएगा तब ठीक है; लेकिन मेरी तरफ से तैयारी अभी है। तेरी तरफ से तू अनंतकाल में आना, कोई शिकायत नहीं है, लेकिन मेरी तरफ से मैं अभी तैयार हूं। दीन हूं, कुछ भी नहीं है मेरे पास। दावा कुछ भी नहीं कर सकता कि तू अभी आ। दावा तो उसके पास होता है जिसके पास कुछ बल हो, कोई बल मेरे पास नहीं है। प्रतीक्षा अनंत तक करूंगा दीन हूं, राह तेरी जोहूंगा। जब भी आएगा तभी धन्यभाग मेरे। तभी अनुग्रह मानूंगा, अहोभाव से नाचूंगा। लेकिन तैयार अपने को रखा है जैसे तू अभी आता हो।
पुरानी लाओत्सु की कहावत हैः जीओ ऐसे जैसे यह आखिरी दिन हो, और जीओ ऐसे भी जैसे सदा रहना हो। बड़ा कठिन है! जीओ ऐसे जैसे यह आखिरी दिन हो। कल पर मत टालो। जो भी करना है आज कर लो अभी कर लो। यही क्षण एकमात्र क्षण है। हाथ में बस यही है। कल की सोचकर मत टालो। जीओ ऐसे जैसे आज आखिरी दिन हो; यह सूरज ढलेगा और तुम भी ढलोगे।
और लाओत्सु उसी के साथ यह भी कहता हैः जीओ ऐसे भी जैसे सदा यहां रहना हो। तो जल्दी भी मत करो। करने में तो अभी कर लो, लेकिन प्रतीक्षा अनंत की रखो। बीज तो अभी बो दो, लेकिन फल जब आएंगे तभी ठीक है। कोई जल्दी नहीं है; जैसे अनंत तक यहां रहना हो; जैसे कभी यहां से जाना न हो।
परमात्मा के मिलन के लिए भी तैयारी तो ऐसी करो जैसे अब आया; अब आया; द्वार पर दस्तक पड़ती ही है; उसके चरण-चिह्न सुनाई पड़ने लगे चरण की आवाज आने लगी, पद-चिह्न पड़ने लगे द्वार पर; पग-ध्वनि आ गई; अभी आ ही रहा है..तैयार तो ऐसे रहो। और प्रतीक्षा इतनी रखो कि अनंतकाल में भी आएगा तो भी तुम्हारे भीतर शिकायत न होगी।
‘दीनता वह शब्द है, धीरज वह गुण है, शील वह मंत्र है..इन तीन के ही वेश को धारण कर बहन।’
फरीद अपने से ही कह रहा है, क्योंकि अब वह स्त्री हो गया है। अब वह पुरुष नहीं है। अब वह परमात्मा पर आक्रमण नहीं कर रहा है। अब तो स्त्री की तरह अपने हृदय के द्वार को खोल कर प्रतीक्षा कर रहा है।
इन तीन के वेश को धारण कर बहन, तेरा स्वामी तेरे बस में हो जाएगा।
मति होंदी होइ इआणा, तान होंदे होइ निताणा।
प्रभु के ऐसे विरले ही भक्त हैं जो बुद्धिमान होते हुए भी सरल हैं।
अणहोंदे आपु वंडाए, कोई ऐसा भगतु सदाए।
जो बलवान होते हुए भी निर्बल हैं और जो अकिंचन होते हुए भी अपना सर्वस्व दे डालते हैं।
एक भी अप्रिय बात मुंह से न निकाल, क्योंकि सच्चा मालिक हर प्राणी के भीतर है। किसी के दिल को तू मत दुखा, क्योंकि हर दिल एक अनमोल रत्न है।
इक फिक्का ना गालाई, सभना मैं सचा धणी।
हिआउ न कैही ठाहि, माणिक सभ अमोलवै।।
हर दिल एक रत्न है; उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं है। अगर तू प्रीतम का आशिक है तो किसी के भी दिल को मत दुखा।
सभना मन माणिक, ठाहणु मूलि म चांगवा।
जे तउ पिरी आसिक, हिआउ न ठाहे कहीदा।।
एक-एक शब्द को गौर से समझें।
प्रभु के ऐसे विरले ही भक्त हैं जो बुद्धिमान होते हुए भी सरल हैं। बुद्धू होकर सरल होना आसान है। इसलिए सरल व्यक्ति बुद्धू जैसा मालूम होता है। और बुद्धू से भी सरल होने का धोखा होता है। लेकिन होना ऐसा चाहिए कि बुद्धिमान होते हुए कोई सरल हो।
बुद्धि बड़ी चालाक है। इसलिए बुद्धि जैसे ही शिक्षित होती है, दीक्षित होती है, चालाकी प्रविष्ट हो जाती है। इसलिए शिक्षा जितनी दुनिया में बढ़ती है, लोग उतने चालाक, बेईमान, धोखेबाज होते चले जाते हैं। अशिक्षित आदमी सरल होता है, क्योंकि बुद्धू होता है। शिक्षित आदमी जटिल हो जाता है, क्योंकि बुद्धू नहीं रह जाता, उसकी सरलता खो जाती है।
लेकिन फरीद ठीक कह रहा है। वह कह रहा है, सरलता अगर बुद्धू होकर हो तो वह भी क्या सरलता? और अगर बुद्धिमान होकर चालाक हो गए तो वह कैसी बुद्धिमानी? बुद्धिमान होकर कोई सरल हो..कभी कोई बुद्ध पुरुष ऐसा ही होता हैः बुद्धिमान होकर सरल! बुद्धिमत्ता अप्रतिम होती है, आखिरी होती है; लेकिन चालाकी नहीं होती। सरलता ऐसी होती है छोटे बच्चे जैसी, बुद्धिमानी ऐसी होती है बूढ़े जैसी। प्रौढ़ता वृद्ध की, सरलता बच्चे की।
प्रभु के ऐसे विरले ही भक्त हैं जो बुद्धिमान होते हुए सरल हैं। और यही साधना है। साधना है बुद्धि को, चैतन्य को, होश को; लेकिन सरलता नहीं खो देनी है, सरलता को भी साथ में बचाते चलना है। अन्यथा मंहगा सौदा हो जाएगा। बुद्धिमान तो हो जाओगे, सरलता खो गई..तो पंडित ही रह जाओगे, प्रज्ञावान न हो पाओगे। अगर बुद्धिमत्ता के साथ सरलता भी बच गई तो प्रज्ञा का आविर्भाव होता है।
जो बलवान होते हुए निर्बल हैं...।
निर्बल होकर निर्बल होने में तो कोई खास बात नहीं है, लेकिन जो बलवान होते हुए भी निर्बल हैं, उनकी निर्बलता की एक खूबी है, एक महिमा है।
अगर तुम कायर हो, इसलिए निर्बल हो; अगर भयभीत हो, इसलिए भगवान के सामने झुके हो; अगर तुम्हारा भगवान तुम्हारे भय से पैदा हुआ है तो दो कौड़ी का है।
नहीं, भगवान तुम्हारे अभय से पैदा होना चाहिए। डर के मत झुकना, प्रेम से झुकना। निर्बल होकर मत झुकना; क्योंकि निर्बलता में तो कोई भी झुक जाता है। और जब निर्बलता में तुम झुकते हो तो झुकने में आनंद नहीं होता, झुकने में एक पीड़ा होती है कि निर्बल हूं, इसलिए झुक रहा हूं।
नहीं, बलवान होते हुए भी निर्बल होना।
बलवान होते हुए निर्बल होने का अर्थ हैः बलवान होने की अकड़ मत लेना। तो निर्बलता तुम्हारा भाव रहेगी, बलवान तुम्हारी स्थिति होगी।
‘और जो अकिंचन होते हुए भी अपना सर्वस्व दे डालते हैं...।’
यह बड़ी कठिन बात है। यह तीसरी बात सबसे ज्यादा कठिन है, अकिंचन होते हुए अपना सर्वस्व दे डालते हैं।
जिनके पास कुछ है, वे तो कुछ दे सकते हैंः धन है, धन दे सकते हैं। लेकिन जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे क्या देंगे अकिंचन, दीन..वे तो सिर्फ अपने को ही दे सकते हैं, और तो कुछ देने को बचा नहीं। मेरा तो कुछ है ही नहीं, बस मैं ही हूं!
अकिंचन होते हुए जो अपना सर्वस्व दे डालते हैं..जो जानते हैं कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, फिर भी अपने को पूरा दे डालते हैं!
परमात्मा के मार्ग पर तुम्हारे धन से कुछ भी नहीं होगा। दान धन का न चलेगा। दान तो स्वयं का चलेगा। अपने को ही दे डालना पड़ेगा।
और जिसके जीवन में ये तीन बातें घट जाती हैं..बुद्धिमान होते सरल; सबल होते निर्बल; अकिंचन होते हुए सर्वस्व का दानी..उसके मुंह से फिर किसी के प्रति अप्रिय बात नहीं निकलती।
एक भी अप्रिय बात मुंह से न निकले, क्योंकि सच्चा मालिक हर प्राणी के अंदर है..तब तो फिर उसे सब जगह उसी की झलक दिखाई पड़ने लगती है।
एक ही ज्योति जल रही है सभी दीयों में। और एक ही प्राण प्रज्वलित है सभी घटों में।
किसी के दिल को तू मत दुखा, क्योंकि हर दिल एक अनमोल रत्न है। और हर दिल एक रत्न है, उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं। अगर तू प्रीतम का आशिक है तो किसी के भी दिल को मत दुखा, किसी के दिल को मत सता।
भक्ति फरीद की बढ़ते-बढ़ते महावीर की अहिंसा हो जाती है। भक्ति बढ़ते-बढ़ते बुद्ध की करुणा हो जाती है। शुरू हुआ प्रेम परमात्मा से, अंत होता है प्रेम समस्त से, सर्व से। शुरू तो हुई थी गंगोत्री, बड़ी क्षीण धार थी; जब सागर में गिरती है तो गंगा बहुत बड़ी हो जाती है।
शुरू तो होता है ऐसे ही जैसे आशिक का माशूक से, माशूक का आशिक से; लेकिन जैसे-जैसे प्रेम की धारा गहरी होती है, सभी में वही परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है।
और एक ऐसी घड़ी आती है कि उसके सिवाय कोई भी दिखाई नहीं पड़ता। सभी घर उसके मंदिर हो जाते हैं। और हर आंख में वही झांकता है। और हर प्राण में वही धड़कता है। और जिस दिन भक्ति इस ऊंचाई पर पहुंचती है, उस दिन भक्त भगवान हो गया। उस दिन भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं।
ऐसी यह प्रेम की कथा है! अकथ कहानी प्रेम की!

आज इतना ही।

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