कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-34)

आत्म पूजा उपनिषद--भाग-2 

सोलहवां प्रवचन -दो ध्रुवों का मिलन

प्रश्न

  1. क्या विज्ञान और धर्म की ध्रुवतायें मिल सकती हैं?
  2. क्या पश्चिम प्रज्ञा को उपलब्ध होने के लिये तैयार है? और पूर्व किस तरह से ऐण्टी-फिलोसोफिक है, यानी तर्क-विरोधी है?

भगवन्। हम ऐसा समाज क्यों नहीं बना सके जो कि दोनों ध्रुवों को मिलाता हो-दार्शनिकता तथा काव्य को, और विज्ञान तथा धर्म को?
क्या इन ध्रुवताओं की समग्ररूप से मिलन की कोई संभावना है? इस मिलन के लिये कौन-सी भूमि अधिक उपजाऊ है-पूरब या पश्चिम?
क्या यह मिलन सिर्फ व्यक्तिगत ही संभव है, अथवा क्या यह साथ ही समाज में भी संभव है?
किस भांति ‘ध्यान’ इस मिलन के लिये उपयोगी हो सकता है?
वे कौन-कौन सी आवश्यक बातें हैं जो मनुष्य को विज्ञान तथा धर्म इन दोनों आयामों में विकसित होने में सहयोगी हो सकती हैं?

अब तक यह असंभव था कि ऐसा समाज निर्मित किया जा सके जो कि विज्ञान तथा धर्म, तर्क तथा काव्य की ध्रुवताओं का समन्वय कर सके। यह बात असंभव थी क्योंकि ऐसा समन्वय तभी संभव है, जब दोनों विकल्प अकेले-अकेले लेने पर असफल सिद्ध हों। अभी मानव चेतना के इतिहास में पहली बार हम ऐसी जगह पहुँचे हैं जहाँ कि दोनों विकल्प असफल हो गये हैं। अकेले-अकेले लेने पर असफल सिद्ध हों। अभी मानव चेतना के इतिहास में पहली बार हम ऐसी जगह पहुँचे हैं जहाँ कि दोनों विकल्प असफल हो गये हैं। अकेले-अकेले चुनने पर, अकेले-अकेले लिये जाने पर, प्रत्येक असफल सिद्ध हुआ है। इसलिए यह युग एक बहुत ही गहन महत्त्व का है क्योंकि अब मानव-मन पुराने द्वंद्व तथा पुरानी ध्रुवताओं के पार जा सकेगा।
पूर्व ने एक विकल्प के साथ प्रयास किया-उसने विज्ञान की कीमत पर धर्म को चुना। पश्चिम ने ठीक इसके विपरीत किया-उसने धर्म की कीमत पर विज्ञान को चुना। केवल कुछ लोगां को आंतरिक केन्द्र तक पहुँचाने में पूरब सफल हुआ। पश्चिम भी सफल हुआ एक भरा-पूरा समाज उपलब्ध करने में। आर्थिक रूप से तथा तकनीक में पूरब असफल हुआ। वह दरिद्र रहा। पश्चिम आध्यात्मिक अर्थों में असफल हुआ। वह आंतरिक रूप से खाली रहा। इसलिए एक समन्वय होना प्रारंभ हुआ।
पूर्व तथा पश्चिम में कुछ लोग इस बात को अनुभव भी करने लगे। वे भविष्य में झाँके और उन्हें युगद्रष्टा के नाम से पुकारा गया क्योंकि वे जान सकते हैं, वे भविष्य की गहराई में गहरे छानबीन कर सकते हैं। किन्तु युगद्रष्टाओं पर कभी विश्वास नहीं किया गया, जब तक कि वे जीवित थे। क्योंकि वे बहुत आगे चले जाते हैं। हम उनको नहीं समझ सकते और हम यह नहीं देख पाते कि उनकी अंतर्दृष्टि किस भाँति काम करती है। अतः उनका कभी विश्वास नहीं किया जाता, उनको कभी समझा नहीं जाता। केवल बहुत बाद में ही हम जान पाते हैं कि वे लोग सही थे।
कई बार ऐसा समन्वय प्रस्तुत किया गया। उदाहरण के लिये, कृष्ण ने इसे प्रस्तुत किया था। उनके द्वारा किया गया प्रयास एक ही बहुत ही गहरा समन्वय का प्रयास था। गीता को पढ़ा जाता है, उसकी पूजा की जाती है, किन्तु उनको किसी ने भी नहीं सुना। सचमुच, पैगम्बर अपने समय से पहले पैदा होते हैं। इसलिए जो लोग उन्हें समझ सकते हैं, वे उस समय नहीं होते और जो होते हैं, वे उन्हें समझ नहीं पाते। एक अन्तराल पड़ जाता है।
केवल कुछ ही व्यक्तिगत लोगों में यह समन्वय उपलब्ध किया जा सका है। केवल कुछ ही लोग ऐसे हुए हैं जो कि दोनों थे-धार्मिक और वैज्ञानिक, तर्कयुक्त तथा काव्यपूर्ण। किन्तु वह एक बहुत ही सूक्ष्म सन्तुलन है और अतीत में केवल बहुत प्रबुद्ध पुरुष ही, जीनियस ही उसे उपलब्ध कर सके। उदाहरण के लिये, माइकिल एन्जेलो या गेटे, अथवा हमारे समय में एल्बर्ट आइन्सटीन। वे व्यक्तिगत रूप से इस समन्वय को उपलब्ध कर सके। किन्तु, तब वे हमारे लिये बेबूझ हो गये क्योंकि वे दोनों ध्रुवों में इतनी आसानी से आ-जा सकते थे कि वे हमें बड़े असंगत प्रतीत हुए।
संगति तभी हो सकती है जब तुम एक ही छोर को पकड़े रहो। यदि कोई दोनों छोरों में गति करता रहता है, यदि कोई वैज्ञानिक एक कवि भी है तो फिर उसके दो व्यक्तित्व हैं। वह दोनों में घूमता रहता है। जब वह अपनी प्रयोगशाला में जाता है, तो वह कविता बिल्कुल भूल जाता है। वह अपना व्यक्तित्व एक कवि से एक वैज्ञानिक में बदल लेता है। वह बिल्कुल दूसरे ही ढंग से सोचने लगता है। जब वह अपनी प्रयोगशाला से बाहर आता है, तो वह फिर दूसरे ही रूप में बदल जाता है। यह दूसरा रूप गणित का नहीं है, प्रायोगिक नहीं है। यह किसी वैज्ञानिक प्रयोग के बजाय, स्वप्न जैसा ज्यादा है।
यह बात बहुत ही कठिन है। लेकिन कभी-कभी किन्हीं व्यक्तियों के साथ यह घटना घटती है। माइकिल एन्जेलो एक गणितज्ञ था और साथ ही एक महान कलाकार भी। गेटे एक कवि था और साथ ही एक गहरा तार्किक व चिंतनशीलव्यक्ति भी। आइन्सटीन वास्तव में तो एक गणितज्ञ था, एक भौतिकशास्त्री था, और फिर भी वह अपने चारों ओर घिरे हुए गहरे रहस्य के प्रति सजग था। किन्तु यह बात सिर्फ कुछ ही व्यक्तियों के लिये संभव हो सकी। इसे बहुत लोगों के लिये सींव होना चाहिये। अब समय परिपक्व हुआ है। और अब यह क्षण जल्दी ही आयेगा जब समाज को विपरीत की भाषा में सोचने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वरन्, उसे परिपूरक की भाषा में सोचना पड़ेगा।
वस्तुतः दो विपरीत, दो शत्रु नहीं हैं। वे एक-दूसरे को सहारा देने वाले है। दोनों में से कोई भी दूसरे के बिना नहीं हो सकता। नीचे गहरे में वे दोनों जुड़े हैं। हम उन्हें कह सकते हैं-निकट शत्रु। वे दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं। उनमें से कोई भी दूसरे के बिना नहीं हो सकता, और फिर भी वे विरोधी हैं, विपरीत हैं। ये विपरीत एक तनाव पैदा करते हैं, एक विशेष ऊर्जा, जो कि उनके होने के लिये सहायक है।
लेकिन यह बात अतीत में संभव नहीं थी। बहुतों ने सिर्फ एक ही विकल्प चुना क्योंकि एक के साथ प्रयत्न करना सरल है। तुम आसानी से धार्मिक हो सकते हो, तुम आसानी से वैज्ञानिक हो सकते हो। किन्तु दोनों होना, उसके लिये एक बहुत ही नाजुक सन्तुलन की जरूरत है। और तब तुम्हें बहुत ही विकसित मास्तिष्क वाला होना चाहिये जो कि एक-समूह में से दूसरे समूह में आसानी से आ-जा सके।
अपने मन की ओर देखो। जब तुम अपने घर से दफ्तर चले जाते हो तब भी तुम्हारा मन घर पर ही होता है। जब तुम अपने दफ्तर से घर चले जाते हो, तब ऐसा नहीं होता कि तुम्हारे दफ्तर छोड़ देने से तुम्हारा मन भी दफ्तर छोड़ देता है। वह दफ्तर में लगा रहता है। शारीरिक गति सरल है, मानसिक गति मुश्किल है। और घर तथा दफ्तर में ऐसी कोई विपरीतता भी नहीं है। किन्तु जब कोई गणित की भाषा में सोचता है, तब वह जीवन के प्रति देखने का एक बिल्कुल अलग ढंग है। जब कोई काव्यात्मक ढंग से सोचने लगता है, तो वह बिल्कुल अलग ढंग है। जब कोई काव्यात्मक ढंग से सोचने लगता है, तो वह बिल्कुल अलग बात है। यह ऐसा ही है जैसे तुम एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर चले गये, और दूसरे की कोई आवाज वहाँ नही आ सकती। इसलिए एक बहुत ही गहन संयम तथा समन्वय की आवश्यकता है, वरना मन सदा एक ही ढाँचे में चलता है। और एक ही ढाँचे में चलना आसान है। इसीलिए समाजो के लिये चुनाव करना आसान है।
पूर्व ने एक विकल्प के साथ प्रयोग किया और पश्चिम ने दूसरे विकल्प के साथ। दोनों ही असफल हो गये। मानव का सारा इतिहास दो असफलताओं का इतिहास है-पूर्वी तथा पश्चिमी। अब इन दोनों असफलताओं का अध्ययन किया जा सकता है। अब हम इतिहास की भूलों के प्रति सजग हो सकते हैं और अनुभव के द्वारा प्राप्त बिन्दुओं की गलतियों के प्रति जाग सकते हैं। अब तुम्हें यह प्रतीत हो सकता है कि एक नया जगत एक नये ही दृष्टिकोण के साथ सींव है-एक समन्वय का दृष्टिकोण।
स्पष्ट है कि संसार पूर्वी या पश्चिमी नहीं हो सकता। इसलिए यह बात मत पूछो कि कौन-सी भूमि ज्यादा उपजाऊ है क्योंकि अब सारा जगत ही क संसार हो जायेगा। वास्तव में, यदि अभी भी तुम इस भाषा में सोचते हो कि कौन-सी भूमि ज्यादा उपजाऊ है तो तुम अभी भी पुराने ढंग से सोचने की कोशिश कर रहे हो। यदि पूर्व और पश्चिम होने की सारी बकवास को छोड़ दिया जाये। अब सिर्फ एक मनुष्यता पैदा होनी है। वह न तो पूर्वी है और न पश्चिमी। वह सिर्फ मानव है और पृथ्वी का यह ग्रह एक छोटा-सा गाँव है।
एक अखंड पृथ्वी का निर्माण सींव है, किन्तु यह पृथ्वी अब तक एक नहीं रही है। अब पहली बार सीमायें टूट रही हैं। इन पुरानी सीमाओं को तोड़ते रहना पड़ेगा। अचेतन रूप से यह काम काफी लम्बा समय लेगा। चेतन रूप से इसे आसानी से किया जा सकता है और बिना किसी तकलीफ तथा कष्ट के। अब आदमी को किसी खास भूमि का-किसी एक संस्कृति, किसी एक सभ्यता, किसी एक मर्म का-होने की आवश्यकता नहीं है। अब पहली बार मनुष्य को सारी पृथ्वी का होना चाहिये।
पूर्वी और पश्चिमी, इस तरह से सोचने का सारा आधार अतीत का है। भविष्य के लिये ऐसा सोचना मूर्खता ही नहीं है बल्कि गहन रूप से हानिप्रद भी है। लकिन इसे संभव कैसे बनाया जाये? इसे तीन प्रकार से संभव बनाया जा सकता है। एक, मन का प्रशिक्षण किसी एक दिशा में नहीं होना चाहिये। मन को एक साथ दोनों दृष्टिकोणों से प्रशिक्षित किया जाना चाहिये। एक बच्चे को सिर्फ तर्क, संशय तथा विज्ञान में ही प्रशिक्षित नहीं किया जाना चाहिये। एक बच्चे को सिर्फ तर्क, संशय तथा विज्ञान में ही प्रशिक्षित नहीं किया जाना चाहिये। धार्मिक संवेदना के लिये भी उसे तैयार किया जाना चाहिये। और ये दोनों प्रशिक्षण साथ-साथ दिये जाने चाहिये।
उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति दूसरी भाषा बोलने वाले समूह में विवाह करता है-जैसे कि एक जर्मन एक भारतीय से शादी करता है, तो बच्चे प्रारंभ से ही द्वि-भाषी हो जायेंगे। यदि तुम एक ही भाषा वाले ग्रुप में से विवाह करते हो, तो तुम एक ही भाषा सीखते हो, तुम्हारी मातृ-भाषा के रूप में। तब बाद में तुम दूसरी भाषा सीख सकते हो लेकिन दूसरी भाषा दूसरी भाषा ही होगी। वह पहलीपर थोपी जायेगी, और पहली भाषा उसे हमेशा रंग देती रहेगी। भीतर गहरे अचतेन में वह जो बुनियादी भाषा है वह रहेगी और केवल चेतन में ही दूसरी भाषा होगी।
मेरा एक मित्र बीस वर्षों तक जर्मनी में था। यह इतना लम्बा समय था कि वह कई बार काफी समय के लिये मूचि्र्छत हो जाता (बीमारी कुछ ऐसी थी कि वह कई बार काफी समय के लिये र्मूच्छत हो जाता था) तो वह मराठी बोलता था। तब वह जर्मन बिल्कुल नहीं समझ पाता था।
गहरा अचेतन पहली भाषा ही जानता है, दूसरी तो आरोपित है। लेकिन एक द्वि-भाषीय बच्चे के लिये जो कि दो भाषाओं के बीच पैदा हुआ है, दोनों मातृ-भाषायें हैं। उसके लिये दोनों भाषाओं में बोलने-चालने में कोई कठिनाई नहीं होगी। सचमुच उसे एक भाषा से दूसरी भाषा में जाने में कोई मुश्किल नहीं होगी। सत्य की ओर जाने के लिये विज्ञान एक भाषा है और धर्म दूसरी भाषा है। विज्ञान एक तटस्थ भाषा और धर्म एक घनिष्टता की भाषा है। उन दोनां को ही एक साथ सिखाया जाना चाहिये। वे दोनों एक ही हो जानी चाहिये। बच्चे को पता भी नहीं चलना चाहिये कि उन दोनों में चुनाव करना है। मन को सन्देह के लिये प्रशिक्षित करना चाहिये और मन को श्रद्धा के लिये भी प्रशिक्षण देना चाहिये-जीवन के प्रति श्रद्धा के लिये।
हमारे लिये वे दोनों विपरीत हैं क्योंकि हमें उस तरह कभी भी प्रशिक्षित नहीं किया गया। वही एक मात्र बात है। हमारे लिये श्रद्धा और सन्देह दो विरोधी बातें हैं। हम कहते हैं कि मुझे श्रद्धा है तो फिर मैं सन्देह कैसे करूँ? और यदि मैं सन्देहशील व्यक्ति हूँ, यदि मैं सन्देह कर सकता हूँ तो फिर मैं विश्वास कैसे कर सकता हूँ? वस्तुतः यह विभाजन ही मूर्खतापूर्ण है क्योंकि उनके आयाम ही अलग हैं। श्रद्धा है धर्म के लिये, श्रद्धा है सत्य में गहरे उतरने के लिये, श्रद्धा है प्रेम के लिये, श्रद्धा है जीवन के लिये। यह दूसरा ही मार्ग है। सन्देह की आवश्यकता नहीं है। सन्ेदह है वैज्ञानिक खोज के लिये। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिये, तथ्य के लिये-मृत तथ्यों के लिये, निरीक्षण करने के लिये।
बाहरी संसार के लिये सन्देह एक बुनियादी साधन है। आंतरिक जगत के लिये, श्रद्धा आधारभूत साधन है। और इन दोनों में द्वन्द्व में है क्योंकि हमें एक ही बात के लिये प्रशिक्षण दिया गया है, और हम एक से दूसरे में नहीं जा सकते। यह जो एक से दूसरे में जाने में हमें कठिनाई होती है, यह हमारे सारे गलत प्रशिक्षण के कारण है। वरना, जब तुम एक गणित की समस्या को हल कर रहे हो, तब गणित का प्रयोग करो। लेकिन जब तुम एक फूल की ओर देख रहे हो, तब तुम्हारे गणित को जरूरत नहीं है- पूर्णिमा की रात के लिये गणित की आवश्यकता नहीं है। भूली गणित को। अपने स्वरूप का तब दूसरा ही द्वार खोलो।
जीसस ने कहा है कि मेरे पिता के घर में बहुत से कक्ष हैं, बहुत से आयाम हैं। तुम भी एक द्वार वाले घर नहीं हो। तुम्हें जरूरत भी नहीं है ऐसा होने की। यदि तुम ऐसे हो, तो उसका इतना ही अर्थ होता है कि सिर्फ एक ही दरवाजा खोला गया है। दूसरे दरवाजे भी हैं। और यदि उन्हें खोला जाये, तो तुम उनके कारण अधिक समृद्ध हो जाओगे। यदि तुम दूसरे द्वारों का भी उपयोग कर सको, तब तुम्हारा व्यक्तित्व रुका हुआ नहीं होगा, बल्कि एक सरिता की तरह होगा। तब तुम मरे हुए कम होओगे, और जीवन्त ज्यादा होओगे।
गति ही जीवन है। और जितनी सूक्ष्म गति होती है, उतना ही तुम्हारा जीवन समृद्ध होता जाता है। अतः सन्देह का साधन की तरह उपयोग करो, श्रद्धा का भी साधन की तरह उपयोग करो।
यह कैसे संभव हो सकता है? दूसरी बातः यह तभी संभव है जब कि तुमने अपना तादात्म्य-सम्बंध न श्रद्धा से जोड़ा हो, न सन्देह से। यदि तुम सन्देह से एक हो गये हो, तो तुम फिर गति नहीं कर सकते। तब तुम्हारा मन ही सन्देह है, अतः तुम कैसे श्रद्धा में जा सकते हो? यदि तुम श्रद्धा के साथ तादात्म्य बनाये हो तो तुम सन्देह में नहीं जा सकते।
अतः दरवाजों से तादात्म्य मत बनाओ। तुम भिन्न हो, द्वार तुमसे अलग हैं। जब तुम और द्वार अलग-अलग हो तो फिर कोई कठिनाई नहीं है। अतः ऐसा मत सोचो कि सन्देह ही तुम्हारा स्वरूप है अथवा श्रद्धा ही तुम्हारा स्वरूप है। श्रद्धा भी एक द्वार है, सन्देह भी एक द्वार है। तुम दोनों से आ-जा सकते हो। एक से दूसरे में जा सकते हो। यदि तुम तादात्म्य जोड़े हो, तो फिर कोई चुनाव नहीं है।
लेकिन हम सब तादात्म्य बनाये हैं, हम कहते चले जाते हैं, मैं विश्वास नहीं कर सकता, मैं श्रद्धा नहीं कर सकता, क्योंकि मैं सन्देहवान व्यक्ति हूँ। अथवा कोई कहता है, मैं सन्देह नहीं कर सकता क्योंकि मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूँ। यह बात बतलाती है कि तुम्हारी चेतना स्थिर हो गई है-पत्थर की तरह। वह सरिता की तरह नहीं है, बहती हुई, गतिमान। बहो, गतिमान होओ। अतः दूसरी बात : मन को प्रशिक्षित करना है कि वह साधनों से तादात्म्य न करे। तभी तुम उनका उपयोग कर सकते हो। तुम एक तलवार का उपयोग कर सकते हो। लेकिन यदि तुम उससे इतने एक हो गये हो कि तुम्हारा हाथ ही तलवार हो गया है, तब तुम एक गुलाब के फूल को हाथ में कैसे लोगे? तब तुम कहोगे कि यह असम्भव है? कैसे मैं एक गुलाब के फूल को हाथ में ले सकता हूँ? मेरा हाथ तो तलवार है।
और तलवार और फूल में कोई संबंध नहीं है। तुम तलवार को भी ले सकते हो और फूल कोभी। यदि तुम्हारा हाथ तादात्म्य से मुक्त है तभी यह संभव हो सकता है। अतः दूसरी बात कि तादात्म्य न जोड़ो। भविष्य में हमें शिक्षा की ऐसी प्रणाली बनानी पड़ेगी जिसमें जो साधनों से अ-तादात्म्य सिखाती हो। तब बात सरल हो जायेगी, बहुत सरल, होगी।
तीसरी बात, इसे स्मरण रखो : जगत का अस्तित्व है विपरीत ध्रुवताओं की तरह। अतः यदि तुम एक को चुनो तो जगत दरिद्र हो जायेगा। यदि तुम कहते हो कि मैं यह करूँगा और वह नहीं करूँगा, तुम आधे जगत के ही हो सकोगे। तुम आधे ही जीवित रहोगे। याद रहे, अस्तित्व विपरीत पर खड़ा है, अतः यदि तुम्हें इस सारे अस्तित्व से एक होना है, तो गतिमान होने की सामर्थ्य जुटाओ।
हम सोचते हैं कि कोई आदमी बड़ा प्रेमी है, अतः हमें आश्चर्य होता है कि वह घृणा कैसे कर सकता है? कोई आदमी बड़ा घृणापूर्ण है, अतः वह प्रेम कैसे कर सकता है? किन्तु यदि तुम्हारा प्रेम ऐसा है कि तुम घृणा नहीं कर सकते हो तो फिर तुम्हारा प्रेम कुछ भी नहीं है। उसमें कोई उष्मा, कोई जीवन नहीं होगा। तुम्हारा प्रेम नपुंसक होगा। यदि तुम घृणा नहीं कर सकते तो फिर तुम्हारा प्रेम कुछ भी नहीं है। उसमें कोई उष्मा, कोई जीवन नहीं होगा। तुम्हारा प्रेम नपुंसक होगा। यदि तुम घृणा नहीं कर सकते तो फिर तुम्हारा प्रेम जीवन्त नहीं हो सकता। और यही बात दूसरे छोर की भी है। यदि तुम सिर्फ घृणा ही कर सकते हो और प्रेम नहीं कर सकते, तो तुम्हारी घृणा भी थोथी होगी।
वह जो विपरीत है, वह जीवन प्रदान करता है। यदि तुम घृणा भी कर सकते हो, तो तुम्हारा प्रेम समृद्ध होगा। घृणा करने की जरूरत नहीं हैं, किन्तु तुम घृणा कर सकते हो, यदि वैसी तुम्हारी सामर्थ्य है, यदि तुम घृणा भी कर सकने में समर्थ हो, तो तुम्हारे प्रेम में एक अलग ही प्रकार की गुणवत्ता होगी-एक गहरी गुणवत्ता होगी।
प्रत्येक चीज़ जो कि विपरीत दिखाई पड़ती है, वह मूल में जुड़ी हुई है, और वह विपरीत ही शक्ति देता है। किन्तु हमें एक ही जगह स्थिर होने का प्रशिक्षण दिया गया है। हमें प्रक्रियाओं की तरह प्रशिक्षित नहीं किया गया है, किन्तु पूरी हो चुकी घटनाओं की तरह, खत्म हो गई चीजों की तरह प्रशिक्षित किया गया है। इसलिए हम कहते हैं कि कोई आदमी ऐसा है जो कि दयालु है, कोई आदमी क्रोध करने वाला है। परनतु यदि जो व्यक्ति सिर्फ दयालु ही हो और यह यदि क्रोध नहीं कर सकता हो, तो उसकी दयालुता उथली होगी। उसकी दयालुता सिर्फ ऊपर का आवरण होगी। यदि वह क्रोध भी कर सके, तभी उसकी दयालुता में भी गइराई होगी।
क्रोध करने की जरूरत नहीं है, उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु सामर्थ्य तो होनी चाहिये। यह जो सामर्थ्य है जो विरोधी ध्रुवों को भी मिला लेती है, इसके लिये एक अलग ही प्रशिक्षण की आवश्यकता है। एक दूसरे ही प्रकार का मन संसार में लाया जाना चाहिये।
इसे स्मरण रखें : जो भी ज्ञानी हुए, जो भी अहिंसा को लाये, वे सभी क्षत्रिय थे। वे सब के सब योद्धा-जाति के थे। महावीर, बुद्ध, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, वे सब के सब क्षत्रिय थे। वे सब लड़ने वाली जाति के थे।
यह बात बड़ी अजीब लगती है। अच्छा होता यदि ब्राह्मणों ने अहिंसा की शिक्षा दी होती। परन्तु किसी भी ब्राह्मण ने अहिंसा का पाठ नहीं पढ़ाया। आज तक किसी ब्राह्मण ने अहिंसा की शिक्षा नहीं दी। केवल क्षत्रियों ने उसकी शिक्षा दी। क्यों? और क्यों महावीर और बुद्ध के पास अहिंसा की इतनी गहराई है? क्योंकि वे गहरी हिंसा के लिये समर्थ थे। वे उसमें जा सकते थे। वे वस्तुतः हिंसक वर्ग से संबंधित थे, एक हिंसक चित से जुड़े थे। वे उसी में पैदा हुये थे, और तब वे दूसरे ध्रुव को चले गये। उनमें गहराई थी।
यह बात बड़ी विचित्र है। यदि तुम जाओ और महावीर तथा बुद्ध का विपरीत खोजो तो तुम परशुराम को पाओगे-एक ब्राह्मण, जिसने कि लाखों क्षत्रियों का संहार किया। ऐसा कहा जाता है कि वे कितनी ही बार पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली करने के लिये निकले थे। यह एक बहुत ही हिंसक चित्त था, किन्तु यह एक बहुत अहिंसक जाति से आया था। वे ब्राह्मण थे।
क्यों? किसी भी क्षत्रिय की तुलना परशुराम से नहीं की जा सकती। वे बेजोड़ हैं। जगत ने उन जैसा फिर पैदा ही नहीं किया। महावीर और बुद्ध क्षत्रिय थे। यह बात बहुत अर्थपूर्ण है, बहुत काम की है। भिन्न होने की क्षमता एक प्रकार की शक्ति देती है।
दूसरा उदाहरण : तुमने कितने ही महान पुरुषों की कितनी घटनाओं के बारे में सुना होगा कि कभी-कभी वे कितनी मूर्खता की बात करते हैं। कोई भी मूर्ख ऐसी बात नहीं करेगा। हम हँसते हैं, हम कहते हैं कि वे भुलक्कड़ किस्म के लोग हैं।
इमैनुअल काण्ट के बारे में कहा जाता है कि एक रात जब वह घूमकर घर लौटा, अपने छाते के साथ, तो वह भूल गया कि कौन-कौन था। उसने अपना छाता बिस्तर पर लिटाया, उसे कम्बल से ढका और फिर वह स्वयं कोने में खड़ा हो गया यह सोचकर कि वह स्वयं अपना छाता है। और यह बात उसे तब पता चली जबकि सवेरे नौकर ने दरवाजा खटखटाया। तब उसे गलती का पता चला। सारी रात वह खड़ा रहा। वह सो रहा था, वह खड़ा नहीं था। जब नौकर ने दरवाजा खटखटाया, तो उसने बिस्तर की तरफ देखा और सोचने लगा कि मैं दरवाजा खोलने क्यों नहीं जा रहा हूं? और तब अचानक उसे पता चला कि उससे गलती हो गयी है।
हम इमैनुअल पर हँस सकते है। हम जानते हैं कि ऐसे महान पुरुष कभी-कभी बड़े भुलक्कड़ होते हैं। किन्तु क्यों? तुम ऐसी मूर्खता की बात नहीं कर सकते क्योंकि तुम दूसरे छोर पर नहीं जा सकते। इमैनुअल काण्ट ही ऐसी गलती कर सकता है। वह बुद्धि का एक छोर स्पर्श करता है, इसलिए फिर दूसरा छोर भी सींव हो जाता है। अतः कभी भी मूर्ख लोगों के बारे में नहीं सुना गया कि उन्होंने ऐसी मूर्खता की बात की जैसी कि इन तथाकथित ज्ञानियों ने बुद्धिशाली लोगों ने की है।
कभी-कभी इसके उलटा भी होता है। एक महामूर्ख आदमी भी कभी-कभी ऐसी सलाह दे सकता है कि कोई महाविद्वान आदमी भी नहीं दे सकता। और ऐसा सदा से इतिहास में होता आया है, और इसीलिए प्रत्येक सम्राट के दरबार में बहुत-से विद्वान लोग होते थे, किन्तु एक मूर्ख को दरबार में रखा जाता था दरबारी विदूषक।
और ऐसा कई बार होता था कि जब विद्वान लोग कोई सलाह देने में असमर्थ होते, तो वह दरबारी मूर्ख सलाह देता था। क्यों? क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि विद्वजन इतने विद्वान हो जाते हैं कि वे अव्यवावहारिक हो जाते हैं। उनकी बुद्धिमानी ही बाधा बन जाती है। और वह दरबारी मूर्ख निडर होता है। वह मूर्ख होने से नहीं डरता, इसलिए वह कुछ भी कह सकता है। और बहुत बार तुम यदि निडर हो, तभी तुम्हारी सलाह कुछ काम की होती है।
क्यों? क्योंकि यदि तुम बेवकूफ नहीं हो, तो तुम जीवन का आनंद नहीं ले सकते। तुम तब एक उदास, गंभीर और मुर्दा आदमी हो जाते हो। जो भी जीवन में सुन्दर हैं उसका आनन्द तभी लिया जा सकता है जब तुम बेवकूफी का खेल खेलने को राजी हो, मूर्ख बनने को तैयार हो। वरना यह असंभव है। अतः जितने ज्यादा तुम बुद्धिमान होओगे, उतने ही तुम मूर्ख होओगे जहाँ तक जीवन का सवाल है। हम धर्म और विज्ञान के बीच समन्वय की बात सोच सकते हैं लेकिन हम एक विद्वान तथा मूर्ख के बीच समन्वय की कल्पना भी नहीं कर सकते क्योंकि इसमें समस्या और भी गहरे चली जाती है।
और जब तक वैज्ञानिक चित्त और धार्मिक मन के बीच समन्वय की बात सोचते हैं, तो यह कोई हमारी समस्या नहीं है। यह हमसे बहुत दूर है। इस बात से हमारा कुछ लेना-देना नहीं हैं। किन्तु जब मैं कहता हूँ कि बुद्धिमानी और मूढ़ता में एक बहुत गहरे समन्वय की आवश्यकता है तो फिर इस बात से तुम्हारी सीधा संबंध है। तब तुम कुछ बेचैन होने लगते हो। तब मन कहेगा कि बुद्धिमानी को चुना, े मूढ़ता को मत चुना। किन्तु मूढ़ता की इतनी निंदा करने की क्या जरूरत है? और बच्चे इतने सुन्दर हैं क्योंक वे मर्ख हैं। और पशु इतने भोले-भाले हैं क्योंकि वे मूर्ख हैं।
और पंडितों की ओर देखो : वे इतने बुद्धिमान हैं, इतने गंभीर हैं, इतने उदास हैं कि सचमुच के रुग्ण हैं, पैथोलोजिकल हैं। यह जो गहरा समन्वय है सब विरोधों के बीच, यह एक प्रशिक्षण बन सकता है, और भविष्य के मन के लिये यही प्रशिक्षण होनेवाला है। यदि धार्मिक आदमी हँस नहीं सके और नाच नहीं सके, तो वह समग्र नहीं है। और जो समग्र नहीं है वह पवित्र भी नहीं हो सकता। समग्रता ही पवित्रता है।
इस रूप से झेन बौद्धों ने एक गहरे समन्वय को उपलब्ध किया है। झेन फकीर तथा ज्ञानी बड़े मजे से मूर्खता की बात कर सकते हैं। और वही उनकी प्रज्ञा का द्योतक है, यदि तुम कभी-कभी मूर्खता की बात नहीं कर सको, तो इससे तुम अभी भी ज्ञानी नहीं हो। एक ज्ञानी एक से दूसरे में आ-जा सकता है। मैं मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में इतनी बात करता हूँ क्योंकि वह दोनों है, एक गहरा समन्वय है। वह मूर्खता की बात कर सकता है, और फिर भी ऐसा बुद्धिमान आदमी खोजना मुश्किल है।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन के गाँव के लोगों ने उसे भाषण देने के लिये बुलाया। कोई त्यौहार का दिन था और वे चाहते थे कि कोई आदमी धार्मिक प्रवचन दे। अतः नसरुद्दीन ने कहा अच्छी बात है, मैं आता हूँ। अतः वे उसे लेने आये। वह अपने गधे पर उलटा बैठा हुआ अपने घर से बाहर आ रहा था। उसका चेहरा गधे के पीछे की ओर था और उसकी पीठ गधे के मुँह की तरफ थी।
वह सारे के सारे लोग जो कि उसे लेने आये थे वह उसके पीछे-पीछे चलने लगे, किन्तु वे लोग बहुत बेचैन हो गये क्योंकि गाँव के लोग घूर-घूर कर देख रहे थे। उन्होंने सोचा कि यह मुल्ला तो बेवकूफ है, और जो लोग उसके पीछे चल रहे हैं और जो उसकी बात सुनने वाले लोग हैं वे और भी ज्यादा मूर्ख हैं। गधे पर इस तरह बैठना कभी देखा-सुना है किसी ने? लेकिन फिर भी उसके पीछे चलने वाले लोग डटे रहे। उन्होंने मुल्ला से कहा, अच्छा हो कि आप अपनी स्थिति बदल लें। सारा गाँव हँस रहा था।
मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी गंभीतरता से कहा, यदि आप मेरी बात सुनने को राज हैं, यदि आप मेरी बात समझने को तैयार है, तो सबसे पहला सिद्धान्त याद रखें कि आप दूसरों की बात पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, और इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं कि हम क्या कर रहे हैं। जो कुछ भी हम कर रहे हैं, उसकी ओर अधिक ध्यान दें। और अब मैं तुम्हें समझाता हूँ। मुल्ला ने कहा कि ‘मैं तुम्हें बात बतलाता हूँ। यदि मैं साधारण ढंग से बैठता, तो मेरी पीठ तुम्हारी तरफ होती और इससे तुम्हारा अपमान होता। और यदि मैं तुम्हें अपने आगे-आगे चलने देता तो वह मेरा अपमान होता। अतः यही एकमात्र मानवीय ढंग हो सकता है। यही एक मात्र तरीका है जो कि अपनाया जा सकता है जिससे कि किसी का भी अपमान न हो।’
मुल्ला मूर्ख मालूम पड़ता है किन्तु वह बुद्धिमान है। किन्तु उसकी विद्वता को पाना जरा कठिन है क्योंकि वह मूर्खतापूर्ण कार्यों से ढकी है। केवल एक बुद्धिमान आदमी ही उसके भीतर प्रवेश कर सकता है।
जब तुम किसी का सम्मान करते हो, तो तब तुम क्या करते हो? जब तुम अपनी उम्र के कारण सम्मान की अपेक्षा करते हो, तो तुम क्या करते हो? जब तुम आदर देते हो, तो तुम इस भाँति नहीं बैठना चाहते कि तुम जिस व्यक्ति को आदर दे रहे हो, उसकी तरफ पीठ करके बैठो। फिर मुल्ला पर हँसने की क्या जरूरत है? वह भी उसी तरह व्यवहार कर रहा है जिस तरह मनुष्य का मन व्यवहार करता है। केवल इतनी ही तो बात है कि वह तर्क के आखिरी किनारे तक चला जाता है और कहता है-यही एकमात्र तरीका संभव है जो कि अपनाया जा सकता है।
वास्तव में, वह तुम्हारे तथाकथित आदर-सम्मान आदि पर हँस रहा है। यदि तुम भी उस पर हँस सकते हो तो सारी मनुष्यता की मूर्खता पर हँसो। यदि तुम एक कुर्सी पर बैठे हो और तुम्हारे पिता उस कमरे में आ जाते हैं, तो तुम क्या करोगे? यदि तुम खड़े नहीं होओ तो वे समझेंगे कि उनका अपमान कर रहे हो। लेकिन यह भी कैसी मूर्खता की बात है। खड़े होते हो या कि बैठे रहते हो इस बात से क्या अन्तर पड़ता है? अतः असली बात यह नहीं है कि तुम खड़े हो या कि बैठे हो। असली बात यह है कि हर आदमी अहंकारी है और हर आदमी ऐसा कुछ हावभाव चाहता है जिससे कि उसका अहंकार भरता रहे।
एक महान शिक्षक हुआ, ए.एस. नील। एक दिन वह अपनी कक्षा में पढ़ा रहा था और विद्यार्थी जैसा उनकी मौज में आये-बैइे थे। एक भारतीय शिक्षक उनकी कक्षा देखने गये और वह तो देखकर हैरान रह गये। उनकी समझ में ही न आया कि यह किस प्रकार की क्लास थी। एक विद्यार्थी सिगरेट पी रहा था, एक फर्श पर लेटा हुआ था आँखें बन्द करके और कक्षा चल रही थी और ए.एस. नील पढ़ा रहा था। अतः उस भारतीय शिक्षक ने कहा, यह तो अनुशासनहीनता है। आप क्या कर रहे हैं रुकें, पहले इन्हें ठीक से बैठ जाने दें, शिक्षक को आदर मिलना चाहिये।
नील ने कहा, आपको पता नहीं कि यहाँ पर क्या हो रहा है। ये लोग मुझे इतना प्रेम करते हैं कि ये लोग मेरे साथ आराम से बैठ सकते हैं। और यही आदर प्रेम के विरुद्ध जाता हो, तो प्रेम ही चुनना ठीक होगा। प्रेम से ज्यादा मेरे लिए आदरपूर्ण क्या होगा? इन्हें ऐसा लग रहा है कि वे लोग घर पर ही हैं, और फिर मैं यहाँ इन्हें पढ़ाने के लिये हूँ, न कि ठीक ढंग से बैठाने के लिये। यदि एक लड़के को ऐसा लगता है कि वह फर्श पर लेटकर, आँखें बन्द कर, ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकता है, तो ठीक है। यदि मैं उन्हें जबरदस्ती ठीक ढंग से बैठाऊँ और उसी कारण वे समझ नहीं सकें तो मैं अपना शिक्षक का कर्तव्य पूरा नहीं कर रहा हूँ।
अतः नील मुल्ला नसरुद्दीन की घटना को समझ सकता है। जीवन बहुआयामी है और एक बहुत विरोधाभासी घटना है। तुम्हें दोनों ध्रुवों में आ-जा सकने में समर्थ होना चाहिये और फिर भी उनके पार रहना चाहिये। और जब तुम दोनों के पार हो, तभी तुम दोनों में आ-जा सकते हो।
गुरजिएफ के लिये ऐसा कहा जाता है, उसके बहुत से शिष्यों ने कहा है कि अचानक, किसी भी क्षण वह बड़ी मूर्खता की बात करता। वह ऐसी स्थिति पैदा कर देता कि उसके शिष्य बड़ी मुश्किल में पड़ जाते। क्यों? वह महानतम बुद्धिमान लोगों में से एक था। क्यों? क्योंकि बुद्धिमानी की बात करते रहना अहंकार का ही हिस्सा है।
एक दिन एक अखबार का संवाददाता उससे वार्तालाप करने आया। वह वहां बैठा था। कुछ शिष्य भी बैठे थे और वह उनके प्रश्नों का जवाब दे रहा था। संवाददाता वहाँ आया, और चूंकि वह एक बहुत बड़े अखबार का प्रेस रिपोर्टर था, वह अहंकार से भरा था, अपने को बहुत महत्वपूर्ण समझता था। गुरजिएफ ने उसे अपने पास ही एक तरफ बैठा लिया। और फिर अचानक दूसरी तरफ बैठी एक महिला से कहा, आज क्या दिन है? उस महिला ने जवाब दिया, आज शनिवार है। गुरजिएफ ने कहा, यह कैसे संभव हो सकता है? कल तो शुक्रवार था, फिर आज शनिवार कैसे हो सकता है? और कल तुमने कहा था कि कल शुक्रवार था।
संवाददाता खड़ा हो गया और उसने कहा कि बस ठीक है, मैं जाता हूँ। जब वह संवाददाता चला गया तो गुरजिएफ हँसने लगा। लेकिन सारे शिष्यों को बड़ी बेचैनी हो गयी, क्योंकि उन्होंने ही तो इस भेंटवार्ता का प्रबंध किया था और वह संवाददाता जाकर खबर छपवाएगा कि वह एक मूर्ख शिक्षक के शिष्य हैं और वे एक बेवकूफ की बातों पर चल रहे हैं।
लेकिन एक गुरजिएफ ही ऐसा कर सकता है। उसने ऐसा करके क्या किया? उसने अपने शिष्यों को बता दिया कि चाहे तुम्हें इस बात का पता हो, चाहे नहीं हो, लेकिन तुम गुरजिएफ के द्वारा भी अपने अहंकार को ही मजबूत कर रहे हो। लेकिन शिष्यों ने जोर दिया, कि वह समझेगा कि आप मूर्ख हैं। अतः गुरजिएफ ने कहा, समझने दो उसे। इससे क्या होता है? दूसरे क्या सोचते हैं, यह बात असंगत है।
सचमुच ही एक विनम्र आदमी है, क्योंकि यदि तुम इस बात की परवाह करो कि दूसरे तुम्हारे बारे में क्या सोचे हैं, तो तुम झूठे मुखौटे लगाओगे। तुम सुन्दर, बुद्धिमान दिखलाई पड़ने की कोशिश करोगे क्योंकि तुम्हारा इस बात से कहाँ संबंध है कि तुम क्या हो। तुम्हें इस बात की ज्यादा चिन्ता है कि दूसरे क्या सोचते हैं। और यही अहंकार की मूर्खता है।
इसलिए हमें हमारे मन को इस तरह से प्रशिक्षित करना चाहिये कि वह द्वैत के पार जाने में समर्थ हो और कहीं भी जा सके, आनंद ले सके, प्रफुल्लित हो और गंभीर भी, और कोई भी काम कर सके। ऐसी तरलता अब संभव है। ऐसा पहले संभव नहीं था।
और चूँकि अब दोनों विकल्प असफल हो गये हैं, तीसरी संभावना खुलती है। ध्यान बहुत सहायता कर सकता है। वस्तुतः ध्यान ही एक ऐसी बात है जो कि सहायता कर सकती है। यदि ध्यान तुम्हें एकांगी बनाये तो फिर वह ध्यान नीं है। यदि ध्यान तुम्हें ज्यादा सन्तुलित जीवन प्रदान करे, एक ज्यादा सन्तुलित चेतना दे तो ही वह वास्तविक है। अतः यदि ध्यान तुम्हें जीवन से हट जाने के लिये कहे तो फिर वह ध्यान नहीं है।
यदि ध्यान तुम्हें इस संसार में रहते हुये संसार से बाहर रहने में मदद करे, यदि ध्यान तुम्हें संसार में रहने में सहायक हो और संसार को तुम्हारे भीतर नहीं रहने दे, तो ही तुमने समन्वय उपलब्ध किया। जनक एक समन्वय है; कृष्ण एक समन्वय हैं। जीवन को उसके विरोधों में नहीं लिया गया। किसी एक ध्रुव में आसक्त न होकर दोनों ध्रुवों के बीच जीना संभव हो सकता है।
भगवन्! कल रात्रि आपने कहा कि पश्चिम ने तर्क, बुद्धि तथा दर्शनशास्त्र को विकसित किया और पूर्व ने कला, रहस्य तथा धर्म को?
एक बार आपने कहा था कि मनुष्य का मन तीन चरणों में विकसित होता है : अज्ञान, ज्ञान तथा ज्ञान का अतिक्रमण यानी प्रज्ञा?
तब क्या यह सही नहीं है कि पश्चिम अज्ञान से ज्ञान में प्रगति कर चुका है, और अब वह तीसरे क्षेत्र में यानी प्रज्ञान में प्रवेश कर सकता है?
दूसरी बात, क्या यह भी सच नहीं है कि पूर्व ने ही छः दर्शन-शास्त्रों को जन्म दिया है? फिर आप किन अर्थों में पूर्व को दर्शन-विरोधी कहते हैं?
तीन स्थितियाँ हैं : अज्ञान, ज्ञान और ज्ञान का अतिक्रमण, यानी ज्ञानातीत स्थितप्रज्ञ। ये तीन स्थितियाँ सभी आयामों में आधारभूत हैं-चाहे विज्ञान, चाहे धर्म। एक धार्मिक आदमी अज्ञानी है। वह पहली स्थिति में है। उसे शरीर से ऊपर कुछ भी पता नहीं, संसार से ऊपर कुछ भी पता नहीं है। यह एक बच्चे की तरह जीता है।
तब फिर दूसरी स्थिति है-ज्ञान की। वह सोचने लगता है, वह ज्ञान इकट्ठा करता है, सूचनायें इकट्ठी करता है वह तथाकथित ज्ञानी हो जाता है। किन्तु यह ज्ञान उधार है, यह उसका अपना नहीं है। उसने उसे जाना नहीं है।
फिर वह उसे भी फेंक देता है। जो कुछ भी उधार था, वह फेंक दिया जाता है। अब वह अपने भीतर छलांग लगाता है, अपने स्वरूप के अन्तिम स्रोत पर पहुँच जाता है। तब वह प्रज्ञावान बनता है। वह अज्ञान, ज्ञान, फिर से अज्ञान इनसे गुजरकर प्रज्ञावान बनता है।
यही बात विज्ञान के साथ भी है। पहली स्थिति है अज्ञान की। फिर कोई वैज्ञानिक बनता है। यह जानना बाहर के जगत का है। यह जानना भी उधार है। यह ज्ञान भी तकनीकी है। यदि कोई इसे जानने में अटका रह जाये तो वह दूसरी स्थिति में बना रहता है। परन्तु यदि वह वैज्ञानिक ज्ञान को फेंक दे और अस्तित्व में ही छलांग लगा जाये, अज्ञात अस्तित्व में कूद जाये, तो वह प्रज्ञावान बनता है। अतः कोई भी आयाम क्यों न हो, ये तीन स्थितियाँ संगत होंगी।
जो भी तुम दूसरे के मार्फत जानते हो, दूसरों से जानते हो, परंपरा से, शास्त्रों से, किसी और से, जो कुछ भी तत्काल नीं है-बिना किसी माध्यम के नहीं है, जो भी सीधा नहीं जाना गया है-सब ज्ञान है। जो भी तुमने सीधे जाना है, तत्क्षण जाना है वह प्रज्ञा है। अतएव चाहे धर्म हो, और चाहे विज्ञान हो इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। जो भी सीखा गया उसे अनसीखा करना ही पड़ता है, तभी छलांग लगती है। चाहे कोई कहीं भी क्यों न खड़ा हो, छलांग लगा सकता है और कहीं से भी।
चाहे वह कला ही हो, कला के ज्ञान से भी छलांग लगानी ही पड़ेगी। केवल तभी प्रज्ञा के फूल खिलते हैं। झेन में, ध्यान के लिये कई चीजों के द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है-कला, धनुर्विद्या, फूलों को सजाना आदि। बुनियादी सिद्धान्त यही होता है।
बोकुजू अपने गुरु के पास सीख रहा था। वह एक बहुत बड़ा चित्रकार बन गया था-महानतम चित्रकारबन गया था-महानतम चित्रकार जैसा कि कभी जाना गया हो। और तब एक दिन, उसके गुरु ने कहा कि अब पेंटिग करना बन्द करो। जब वह उसके शिखर पर था, चरम सीमा पर था, जब उसका नाम दूर-दूर तक पहुँच रहा था, जब सम्राट भी उसमें रस लेने लगे थे, जब सब लोग उसकी चित्रकला का गुणगान कर रहे थे, इस गुरु ने कहा, अब तुम यह चित्रकला बन्द करो। बारह साल तक चित्रकला को भूल ही जाओ। फेंक दो इसे।
कितना कठिन था यह। वह अपने शिखर पर था। बोकुजू ने अपने गुरु के कथनानुसार ही किया। वह अपने गुरु के बाग में एक साधारण-सा माली हो गया। बारह साल तक कोई चित्रकारी नहीं हुई कोई चित्रकला की बात भी न हुई। और एक दिन गुरु ने कहा, अब तुम पुनः चित्र बना सकते हो। बोकुजू ने कहा, ‘अब मैं जानता हूँ। उस समय मैंने आप पर विश्वास किया। अब मैं जानता हूँ कि अब मैं जो भी बनाऊँगा वह मेरा होगा।’
यह हुआ सीखना और अनसीखा करना। उसने कहा अब मैं एक बच्चे की तरह चित्रकारी कर सकता हूँ, जो चित्रकला के बारे में कुछ भी जानता न हो मैं सब कुछ भूल गया हूँ, अब मैं एक बच्चे की भाँति चित्रकारी कर सकता हूँ। और तब ऐसा कहा जाता है कि बोकुलू बच्चे की भाँति चित्रकारी कर सकता हूँ। और तब ऐसा कहा जाता है कि बोकुजू बच्चे की भाँति चित्र बनाता था। अब ये चित्र दूसरे ही जगत के थे। वे इस जगत के थे ही नहीं। उन्हें चित्रित भी नहीं किया गया था। वह ऐसा ही था जैसे की एक बच्चा खेल रहा हो चित्र बनाते हुए। तब उसके गुरु ने कहा, अब तुम प्रज्ञावान हुए। अब कोई प्रयास नहीं है, कोई प्रशिक्षण, कोई कला, कोई ज्ञान नहीं है। अब तुम निर्दोष हुए हो। अब तुम पुराने ढंग से चित्र नहीं बना सकते।
पहले सीखना पड़ता है और फिर उसे अनसीखा करना पड़ता है। जब कला विस्मृत हो जाती है, तभी कलाकार का जन्म होता है। यदि तुम जानते हो कि तुम उसमें समग्रता से नहीं हो सकते, तो तुम्हारा ज्ञान तुम्हें बाधा देता रहेगा।
मैं तुम्हें एक दूसरी कहानी सुनाता हूँ। थाई लैण्ड में एक मंदिर बनाया जा रहा था। और उसके द्वार को चित्रत करने के लिये महानतम चित्रकार बुलाया गया था। सम्राट ने कहा था कि ‘यह द्वार, यह मंदिर सारी दुनिया में अपूर्व होना चाहिये। इसकी कोई तुलना नहीं होनी चाहिये, अतः खूब श्रमपूर्वक काम करो।’ यह चित्रकार एक साधु था। उसने कड़ी मेहनत की। यह उसकी आदत थी कि जब भी वह कुछ बनाता था, तो वह अपने साथ रहनेवाले परम शिष्य से पूछता था कि क्या यह ठीक है? तुम क्या कहते हो?
यदि शिष्य ने कहा कि ठीक है तो ही वह आगे जाता था, वरना वह उसे फेंक देता था। उसने कई सौ चित्र रंग कर तैयार किये और फिर वह शिष्य की तरफ देखता और शिष्य अपनी गरदन हिला देता था कि ‘नहीं’ तो वह उन्हें फेंक देता था। तीन महीने बीत गये और सम्राट बार-बार पूछता कि कब... ? किन्तु शिक्षक कहता है कि मुझे पता नहीं। जब तक मेरा शिष्य ‘हां’ नहीं कह देता है।
एक दिन जब वह चित्र बना रहा था तो स्याही खतम हो गई। वह बीच में ही था, अतः उसने शिष्य से और स्याही बनाने के लिये कहा। शिष्य स्याही बनाने के लिये बाहर चला गया। तब बिना स्याही के ही, सिर्फ पेन्सिल से उसने एक चित्र बनाया। जब शिष्य आया तो उसने कहा, क्या? आपने तो काम पूरा कर दिया। यही तो वह चीज है। परन्तु आपने किया कैसे? आपने तीन महीने इतना परिश्रम किया।
शिक्षक हँसने लगा और बोला, तुम उपस्थित रहते थ, इसलिए मैं स्वयं के प्रति सजग हो जाता था। वही एकमात्र भूल सका, इसीलिए यह चीज बनी है। जब तुम यहाँ रहते थे तो मैं अपने को भूल ही नहीं पाता था। तब यहाँ एक निर्णायक सदैव मौजूद रहता था और मैं हर क्षण डरा रहता था कि तुम ‘हां’ कहोगे कि ‘ना’। और वह प्रयास ही बाधा थी। तुम यहाँ मौजूद नहीं थे, अतः मैं विश्राम में था-और चीज बन गई।
कोई भी चीज तभी बनती है जब तुम इतने विश्राम में होते हो, कि तुम होते ही नहीं। परनतु एक तथाकथित ज्ञानी कभी विश्राम में नहीं होता। ज्ञान ही बोझ है, तनाव है। अतः चाहे कोई भी आयाम हो-कला, धर्म, दर्शन शास्त्र चाहे कुछ भी, ये ही तीन स्थितियाँ हैं-अज्ञान, ज्ञान का सीखना, और फिर उस ज्ञान को अनसीखा करना। तब तुम प्रज्ञा को उपलब्ध होते हो।
और दूसरी बात, यह भी पूछा गया है कि क्या ऐसा नहीं है कि पूर्व ने छः दर्शन-शास्त्रों को जन्म दिया है, तब आप किस भाँति पूर्व को दर्शन-विरोधी कहते हैं? बहुत से कारण हैं : पहला, भारतीय दर्शन प्रणालियाँ पश्चिम के अर्थों में दर्शन नहीं हैं। पश्चिमी दर्शन उन्हें ‘धार्मिक प्रणालियाँ’ कहता है। वह उन्हें कहता है, धार्मिक प्रणालियाँ रिलीजियस फिलोसोफिस। वे अरस्तु, प्लेटो, काण्ट, अथवा हीगल के अर्थों में दर्शनशास्त्र नहीं है। उनका अन्तिम प्रमाण है स्वानुभव।
पश्चिमी दर्शन में अन्तिम प्रमाण है तर्क न कि अनुभूति। यदि मैं कोई चीज तर्क से सिद्ध कर दूँ, तो बस ठीक है। परन्तु भारतीय मनीषा बिल्कुल भिन्न है। भारतीय मनीषा कहती है कि यदि तु एक बात को तर्क से सिद्ध कर दो, तो भी जरूरी नहीं है कि वह सत्य हो ही। और ऐसा भी हो सकता है कि किसी चीज़ को तर्क से सिद्ध नहीं भी कर सकूँ, तो भी वह सत्य हो।
उदाहरण के लिये, तुम कहते हो कि तुम प्रेम में हो। अब सिद्ध करो कि तुम प्रेम में हो। क्या है सबूत? कैसे करोगे इसे सिद्ध? इसे सिद्ध तो नहीं किया जा सकता। और यदि इसे सिद्ध करने गये, तो तुम स्वयं शक में पड़ जाओगे कि वाकई तुम प्रेम में हो या नहीं? क्योंकि बहुत से सवाल उठाये जा सकते हैं जिनका कोई जवाब नहीं होगा। और फिर भी तुम जानते हो कि तुम प्रेम मं हो।
अदालत में मुल्ला नसरुद्दीन के विरुद्ध एक मुकद्दमा था। उसके पास से कोई चीज़ बरामद हुई थी जो कि उसके पड़ोसी के यहाँ से चुराई गयी थी। इसलिए उस पर शक था। परन्तु उसके वकील ने बहस की। कोई सबूत नहीं था। उसे घर के भीतर जाते भी नहीं देखा गया था, और न ही किसी ने उसे घर से बाहर आते देखा था बस उसके पास वह चीज मिली थी। वकील ने जिरह इतनी सुन्दरता से की कि मुल्ला मुकद्दमा जीत गया।
जब वह लोग कोई से बाहर आ रहे थे, तो वकील ने मुल्ला से पूछा, ‘अब मुझे तो बताओ कि क्या सचमुच ही इस मामले में तुम्हारा कुछ हाथ था?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘पहले तो मैं भी समझता था कि मेरा इसमें हाथ है, परन्तु आपने इतने तार्किक ढंग से जिरह की कि अब तो ुझे भी सन्देह होने लगा है। आपने तो मुझे भी ठीक से समझा दिया।’
भारतीय दर्शन के लिये तार्किक विश्वास कोई कसौटी नहीं है, यही अंतर है। अनुभव ही अंतिम प्रमाण है। भारतीय धार्मिक दर्शनशास्त्र तर्कसंगत बात करता है। महावीर, बुद्ध, कपिल, वे सब तर्कसंगत बात करते हैं, प्रत्येक भारतीय-पद्धति तर्क-संगत है, किन्तु वे तर्क पर निर्भर नहीं हैं। वे दो बातें कहती हैं। पहली, हमारी अभिव्यक्ति तर्कसंगत है ताकि तुम समझ सको। परन्तु जो भी हम प्रस्तावित कर रहे हैं वह तर्क से नहीं निकला है। वह हमें अनुभव से मिला है।
उदाहरणार्थ, मैं कुछ अनुभव करता हूँ। फिर मैं उसे तुम्हें सुनाता है और तुम उसके बारे में बहस करने लग जाते हो, अतः मैं भी उसके बारे में बहस करता हूं। परन्तु वह अनुभव बहस से नहीं आया है। बल्कि सारी बहस उस अनुभव से आयी है, यही अन्तर है। पश्चिम में, वे कहते हैं कि यदि तर्क ठीक है और उसे तोड़ा नहीं जा सकता, तो फिर निष्पत्ति ठीक है। भारत में, वे कहते हैं कि चाहे उसे तोड़ा जा सके या नहीं, यदि उसे अनुभव किया गया है, तो ही वह सही है। इसलिए उसकी सत्यता अनुभव पर आधारित है, न कि विवाद पर।
अतः मैं भी अनुभव की हिन्दू पद्धति को दर्शनशास्त्र कहना पसन्द नहीं करता। वे दर्शनशास्त्र नहीं हैं। और मैं उन्हें दर्शन-विरोधी क्यों कहता हूँ? क्योंकि वे दार्शनिक रुख के खिलाफ हैं। वे कहते हैं कि सत्य को तार्किक अन्वेषण से नहीं पाया जा सकता। वे कहते हैं कि सत्य को वाद-विवाद तर्क आदि सब सिर्फ अभिव्यक्ति के ढंग हैं-उससे ज्यादा कुछ भी नहीं। बुनियादी रूप से, सत्य तो सिर्फ अनुभव ही रहता है, इसलिए वे एटी फिलोसोफिक है, दर्शन-विरोधी है।
बुद्ध से कोई सवाल पूछो और उन्हें ऐसा प्रतीत हो कि तुम सिर्फ पूछने के खातिर ही पूछ रहे हो, तो वे जवाब देने वाले नहीं हैं। वे उत्तर न देंगे। वे उत्तर तभी देंगे जबकि उन्हें लगे कि पूछने वाला वस्तुतः ही जिज्ञासु है, कि वह एक प्रामाणिक खोजी है, मतलब यह अनुभव में उतरने के लिये तैयार है, अन्यथा बुद्ध को कोई रस नहीं हैं।
पश्चिमी दर्शन कहता है, विशेषतः यूनानी दर्शन, का प्रारंभ होता है विस्मय से। ऐसा भारत में कभी भी नहीं कहा गया। हिन्दू पद्धतियाँ यह कहती है कि चिन्तन शुरू होता है दुःख में न कि विस्मय में। अतः इस गहन बुनियादी अन्तर को नोट कर लो। पश्चिम कहता है कि दर्शन का प्रारंभ होता है कुतूहल से।
एक बच्चा पूछता है कि यह सारा संसार कहाँ से आया? एक दार्शनिक भी यही बात पूछ रहा है। यदि तुम एक बुद्ध से यह बात पूछो कि यह संसार कहाँ से आया, तो वे कहेंगे कि यह बहुत बचकानी बात है, तुम्हारा इस बात से लेना-देना क्या है? और चाहे जो भी कारण हो, यह बात ही असंगत है। वे कहते हैं, यदि तुम बीमार हो, तो दया के लिये पूछो। बुद्ध कहते हैं कि हम सब दुःखी हैं, जीवन दुःख है, अतः प्रश्न यह है कि कैसे उस दुःख के पार जाया जाये?
यही अन्तर है। सत्य की पूछताछ गलती के खिलाफ है, मुक्ति की खोज दुःख के विरुद्ध है। भारतीय मन मनोवैज्ञानिक अधिक है, चिन्तनशील कम है- वह मनुष्य के वास्तविक रूपान्तरण से अधिक संबंधित है, और व्यर्थ की उत्सुकता में उसका बहुत कम रस है। और वह दर्शन-विरोधी है।
किन्तु हमने नौ पद्धतियाँ निर्मित की हैं-छः हिन्दू पद्धतियाँ है और तीन अ-हिन्दू पद्धतियाँ हैं। ये नौ पद्धतियाँ कोई दार्शनिक पद्धतियाँ नहीं हैं, किन्तु आंतरिक अनुभवों के दार्शनिक कथन है इसलिए उन्हें पद्धतियाँ कहते हैं।
वस्तुतः पद्धति ठीक शब्द नहीं हैं। संस्कृत में उन्हें संप्रदाय कहते हैं-न कि पद्धतियाँ हैं। या प्रणालियाँ। एक संप्रदाय अथवा स्कूल एक दूसरी ही बात है, और एक पद्धति, एक दूसरी बात है। एक सिस्टम का अर्थ होता है कि वह दार्शनिक है, और एक स्कूल का अर्थ होता है एक प्रशिक्षण का स्थान। एक स्कूल का अर्थ होता है कि तुम्हें किसी विशेष अनुभव के लिये प्रशिक्षित किया जा रहा है। ये सारे नौ दर्शन एक प्रकार से प्रशिक्षण हैं-मोक्ष के अन्तिम लक्ष्य की ओर जाने के लिये प्रशिक्षण। इसीलिए मैं उन्हें ऐटी-फिलोसोफिकल, दर्शन-विरोधी कहता हूँ।
और चूँकि हम उसके बारे में दर्शन-शास्त्र की तरह सोचते हैं, हम बहुत कुछ चूक रहे हैं। यह पश्चिमी मन की सिर्फ नकल है। जिस तरह से वे दर्शन-शास्त्र पढ़ाते हैं और पढ़ते हैं पश्चिम में, उस तरह पूर्व में कभी भी पढ़ते-पढ़ाते नहीं थे, किन्तु आजकल हमारे विश्वविद्यालय भी पश्चिम की ही नकल हैं।
नालंदा एक बिल्कुल ही भिन्न चीज थी। तक्षशिला एक अलग ही बात थी। वे पूर्वीय विश्वविद्यालय थे-जो कि बिल्कुल ही भिन्न थे-मौलिक रूप से भिन्न। नालंदा में सिर्फ बौद्ध दर्शन पढ़ाया जाता था। और वहाँ क्या था प्रशिक्षण? वहाँ प्रशिक्षण सिर्फ मौखिक, सिर्फ शास्त्र-संबंधी, सिर्फ मात्र जानना ही नहीं था कि बौद्ध दर्शन क्या है। वहाँ प्रशिक्षण बौद्ध योग का था। शिष्य पहले मौखिक शिक्षा का पालन करता था और तब साथ-साथ ध्यान में गहरे, और गहरे, और गहरे जाता था। जब तक ध्यान और मौखिक शिक्षा साथ-साथ न चले, तब तक सब व्यर्थ है।
एक कहानी सुनाई जाती है जबकि हुएनसांग नालंदा आया था। वह मुख्य द्वार से प्रवेश कर रहा था। उस समय नालंदा भारत का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था। वहाँ पर अलग-अलग देशों के दस हजार विद्यार्थी अध्ययन करते थे। कहते हैं कि जीसस भी वहाँ के एक विद्यार्थीरह चुके थे।
जब हुएनसांग मुख्य द्वार पर गया तो उसे एक भिक्षु मिला, संन्यासी मिला। वह उससे विश्वविद्यालय के बारे में प्रश्न पूछने लगा कि वहाँ क्या शिक्षा दी जाती है, और क्या प्रशिक्षण-आदि? वह आदमी उसके सवालों के जवाब देता रहा। हुएनसांग उस आदमी से बहुत प्रभावित हुआ, और वह उस समय का चीन का सबसे महान विद्वान था कि उसने सोचा कि शायद वह वहाँ उपकुलपति हो। किन्तु वह सिर्फ एक द्वारपाल था। वह अपने संस्मरणों में लिखता है कि वह सिर्फ एक द्वारपाल था, परन्तु वह दर्शनशास्त्र के बारे में सब कुछ जानता था।
अतः हुएनसांग उस विश्वविद्यालय में तीन वर्ष रहा। जब वह वापस लौट रहा था, तो वह फिर उसी द्वार से गुजारा और उसने उस आदमी से पूछा, ‘तुम अभी भी द्वारपाल ही क्यों बने हुए हो? तुम इतना सब कुछ जानते हो?’ उस आदमी ने कहा ‘क्योंकि मैं सिर्फ जानता हूँ। मैं अनुभव करने में असफल रहा हूँ। मैं सिर्फ जानता हूँ इसलिए मैं विफल हूँ। मैं भी उतना ही जानता हूँ जितना कि उपकुलपति जानता है। जहाँ तक ज्ञान का सवाल है उसमें कोई अंतर नहीं है। परन्तु मैं विफल हूँ क्योंकि मैं अनुभव में नहीं बढ़ सका, इसीलिए मैं सिर्फ द्वारपाल ही हूँ।’
इसलिए शास्त्र के ज्ञानी सिर्फ द्वारपाल ही है। भारतीय रुख अनुभव की ओर है। कभी कोई कबीर भी शिखर छू लेते हैं बिना किसी ज्ञान के-बिना किसी तथाकथित ज्ञान के। अनुभव असली चीज है, इसीलिए पूर्व दर्शन-विरोधी है।
आज इतना ही।  

1 टिप्पणी: