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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-33)

आत्म-पूजा उपनिषद्--भाग-2

पंद्रहवाँ प्रवचन--विसर्जन : आकार-मुक्ति का उपाय

प्रश्न: 

पहले मूर्ति बनाकर उसे विसर्जित करने का क्या अर्थ है?
एक साधक अपने असंतोष के साथ कैसे तालमेल बिठाये?
भगवन्! कल रात्रि आपने एक हिन्दू-प्रथा के बारे में बताया जिसमें कि पहले एक मिट्टी की प्रतिमा बनाई जाती है और उसे फिर नदी या समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है। यह बात बाहर भौतिक तल पर होती है।
इस बाह्य क्रिया-काण्ड का मनोवैज्ञानिक तथा आंतरिक अर्थ क्या है? वह क्या है जिसे कि भीतर निर्मित करना ही चाहिये? और उसे कब विसर्जित करना चाहिये?
दूसरे, कृपया यह भी बतलायें कि क्या यह विसर्जन एक क्रमिक प्रक्रिया है अथवा कि एक अचानक होने वाली घटना। और क्या यह एक सजगता की क्रिया है अथवा मात्र छोड़ना है-लेट-गो?
जीवन सीखना भी है और अनसीखा करना भी है। किसी को भी बहुत-सी चीजें सीखनी पड़ती है और फिर उसे उन्हें अनसीखा भी करना पड़ता है और दोनों ही आवश्यक है। यदि तुम सीखो नहीं, तो तुम अनभिज्ञ रह जाओगे यदि तुम सीख लो और फिर उससे चिपक जाओ, तो तुम पंडित तो हो जाओगे लेकिन तुम अज्ञानी ही रह जाओगे। यदि जो भी तुमने सीख लिया है और यदि तुम उसे अनसीखा भी कर सको, तो तुम ज्ञानी हो पाते हो।

ज्ञान का गुण बचपने जैसा होता है। लेकिन वह सिर्फ बालवत होता है, ठीक बच्चों जैसा ही नहीं होता। बच्चा अज्ञानी है, और ज्ञानी जानता है। बच्चे को अभी जानना है और ज्ञानी उसके भी पार चला गया है। बच्चे को अभी कुछ भी पता नहीं है, और ज्ञानी के पास भी कोई ज्ञान नहीं है। किन्तु बच्चे में वह अभी नकारात्मक है, जबकि ज्ञानी में वह ज्ञान का अभाव विधायक है। वह पार चला गया है। वह अतिक्रमण कर गया है। अतः आध्यात्मिक विस्फोट के मूल सिद्धान्तों में से यह एक है कि जो कुछ भी सीख लिया गया उसे अनसीखा करना, अनसीखा करते ही चले जाना और यह बात आध्यात्मिक विकास के सभी तलों से संबंधि है।
हमने कल रात एक बड़े विचित्र हिन्दू क्रियाकाण्ड पर बात की। हिन्दू देवताओं की प्रतिमाएँ बनाते हैं : किसी खास क्रिया-कर्म के लिये, किसी खास पूजा के लिये तथा किन्हीं खास दिनों के लिये। तब फिर उसे मिट्टी की प्रतिमा की पूजा करते हैं और जब समय पूरा हो जाता है, जब क्रिया-कर्म पूरा हो जाता है वे उसे समुद्र में अथवा नदी में विसर्जित कर देते हैं। वही प्रतिमा जो कि निर्मित की थी, उसको विसर्जित कर देते हैं।
मैंने कहा कि पत्थर की प्रतिमाओं का आगमन जैनों तथा बौद्धों के साथ हुआ। हिन्दुओं ने कभी भी पत्थ्ज्ञर की प्रतिमाओं में विश्वास नहीं किया क्योंकि एक पत्थर स्थायित्व का एक झूठा आभास दे सकता है जबकि पूरा जीवन ही अस्थायी है। अतः आदमी के बनाये हुये देवता भी स्थायी नहीं हो सकते। जो भी आदमी बना सकता है वह अस्थायी ही रहेगा। वह आदमी के जैसा ही होगा। लेकिन हम कुछ चीजें इस तरह बना सकते हैं जो कि हमें ही स्थायी दिखाई पड़े अथवा झूठे ही स्थायित्व का ख्याल दें। एक झूठा स्थायित्व संभव है। धातु की प्रतिमाओं के साथ, पत्थर, सीमेंट, कंक्रीट की प्रतिमाओं के साथ एक झूठे स्थायित्व का ख्याल निर्मित करना संभव है।
हिन्दुओं ने सदा से मिट्टी की प्रतिभाओं में विश्वास किया। उन्होंने उन्हें बनाया और फिर उनको मिटाया, इस बात को जानते हुये कि वे किसी खास कारण से किसी उपाय की भाँति बनाई गई थीं। जब उनका काम समाप्त हो गया तब उन्होंने उन्हें मिटा दिया। क्यों? क्योंकि यदि वे उनको मिटा नहीं देते हैं, तो उनके प्रति एक गहरी पकड़ की संभावना है और वह पकड़ ही एक बाधा बन जायेगी। अन्ततः आदमी को पूरी तरह सब पकड़ छोड़ने के अन्तिम बिन्दु को पहुँचना है। तभी कोई मुक्त होता है। यही अर्थ है मोक्ष का-मुक्ति का : कि कोई पकड़ नहीं, परमात्मा की भी नहीं। अतः अन्ततः प्रतिमाओं को ही नहीं गिरा देना है, बल्कि देवताओं को भी। सब प्रकार के सभी विषयों को गिरा देना है ताकि अन्त में सिर्फ निजता ही बस जाये, केवल चैतन्य ही बच जाये-बिना चैतन्य के किसी भी विषय के।
इसे इस भाँति देखो : जब कभी भी हम किसी वस्तु के प्रति सजग होते हैं जब हम अस्तित्व को दो में विभाजित कर देते हैं-विषय तथा विषयी। यदि मैं तुम्हें देखता हूँ तो मैंने अस्तित्व को दो में बांट दिया-देखनेवाला तथा दिखाई-देनेवाला। यदि मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ फिर मैंने अस्तित्व को दो में बांट दिया-प्रेमी तथा प्रेमिका। कोई भी बोध की प्रतीति एक विभाजन है, वह द्वैत को जन्म देता है। फिर जब तुम मूचि्र्छत हो जाते हो, तो कोई द्वैत नहीं बचता।
यदि तुम गहरे सोये हो, तो अस्तित्व एक है, कोई द्वैत नहीं है। किन्तु तब तुम होश में नहीं हो। जब तुम बेहोश होते हो, तो अस्तित्व एक हो जाता है किन्तु तुम्हें उसका पता नहीं रहता। जब तुम होश में होते हो, तो तुम होश की क्रिया के कारण ही बंट जाते हो और तुम्हें अस्तित्व का पता नहीं रहता। तुम उसे जानते हो जो कि तुम्हारी सजगता के द्वारा निर्मित किया गया है। और जब तुम तीसरे बिन्दु को पहुँचते हो, तुम होश में तो होते हो और विभाजन को नहीं जानते, पूरी तरह जागे हुये बिना किसी विषय के तब तुम उस आत्यन्तिक के जगत को पहुँचे।
एक आदमी जो कि सोया है वह बिल्कुल ज्ञानी की भाँति है, एक ज्ञानी एक सोये हुये आदमी की तरह से है, सिर्फ उसमें एक अंतर है कि वह आदमी जो कि सोया है नहीं जानता कि वह कहाँ है, वह क्या है? और एक ज्ञानी को पता है। लेकिन फिर भी वह सोए हुये आदमी जैसा है क्योंकि कोई विभाजन नहीं है। वह जानता है, फिर भी अस्तित्व में कोई विभाजन नहीं है। किसी को भी पहले अचतेन से चेतन और फिर अतिचेतन में जाना होता है। यही अर्थ है अज्ञान का सीखने का और फिर अनसीखा करने का।
हम इसे कई तरह से बाँट सकते हैं : पहला, जैसे कि एक नास्तिक होता है। वह कहता है कि परमात्मा नहीं है, बाकी सब कुछ है। यह पहली स्थिति है। दूसरी स्थिति है आस्तिक की जो कि कहता है कि परमात्मा है। और तीसरी स्थिति पुनः कि परमात्मा नहीं है। तीसरी ही अन्तिम उद्देश्य है जब कि आस्तिक फिर से नास्तिक हो जाता है।
जब वह कह रहा था कि परमात्मा है, तो वह यह भी कह रहा था कि परमात्मा नहीं है क्योंकि यह कहना भी कि परमात्मा है, द्वैत को निर्मित करता है। कौन है कहने वाला? कौन किस की घोषणा करे? बुद्धएक नास्तिक है। वे कहते हैं कि ईश्वर नहीं है। यह आत्यंतिक लक्ष्य है। वे बिल्कुल नास्तिक जैसे ही हैं, लेकिन वास्तव में नास्तिक नहीं हैं। उनके मुकाबले या उनसे बड़ा आस्तिक संभव नहीं है। किन्तु तब द्वैत नहीं हो सकता, अतः वे नहीं कह सकते कि ईश्वर है। कौन कह सकता है कि ईश्वर है? अब केवल एक ही बचा है, अतः कुछ भी कहना उस एक के प्रति हिंसा होंगी। इसलिए बुद्ध मौन रह जाते हैं, और यदि तुम ज्यादा ही जोर दो, तो वे कह देते हैं कि ईश्वर नहीं है।
वे सिर्फ इतना ही कह रहे है कि- ‘अब मैं अकेला हूँ। मेरे अलावा अब कोई और नहीं है। अब मेरा अस्तित्व ही एकमात्र अस्तित्व ही एकमात्र अस्तित्व है, सारा अस्तित्व ही अब मेरा अस्तित्व है।’ किसी भी प्रकार का कथन अब द्वैत को पैदा करेगा।
अतः एक नास्तिक को पहले आस्तिक होना सीखना पड़ेगा और फिर से अनसीखा करना पड़ेगा। यदि तुम अपनी आस्तिकता को ही पकड़े रहे तो तुम लक्ष्य को नहीं पहुँचे। तो फिर तुम अभी सेतु पर ही खड़े हो, और तुम झूठ-मूठ ही सेतु को मंजिल समझ लिये हो। इसलिए भीतर से केवल प्रतिमाओं को ही विसर्जित नहीं कर देना, बल्कि जिसकी तुम प्रतिमाएँ गिरा देनी हैं, और अन्ततः फिर ईश्वर को भी विसर्जित कर देना है। तभी केवल तुम स्वयं ईश्वर बन सकोगे।
तभी कोई भक्त स्वयं ही भगवान बन पाता है। तब प्रेमी स्वयं ही प्रेमिका हो जाता है। तब साधक ही साध्य हो जाता है। तभी तुम सचमुच में पहुँचे हो क्योंकि अब कोई खोज नहीं है, अब कोई आगे की पूछताछ नहीं है। इसलिए भीतर हमें बहुत-सी प्रतिमाएँ बनानी पड़ती हैं-वैचारिक प्रतिमाएँ और फिर उन्हें विसर्जित भी कर देना पड़ता है।
मुझे एक झेन फकीर रिंझाई की स्मृति आती है। कोई उसके पास खोज कर रहा था, उसके पास ध्यान करता था-उसका शिष्य ही था। रिंझाई ने कहा, जब तक तुम पूरी तरह शून्य नहीं हो जाओगे, तब तक कुछ भी उपलब्ध नहीं होगा। उसका शिष्य बुद्ध का बड़ा प्रेमी था, बुद्ध का अनुयायी था, अतः वह सब कुछ छोड़ने को राजी था, किन्तु बुद्ध को छोड़ने को राजी नहीं था। उसने रिंझाई से कहा, ‘‘मैं सब कुछ छोड़ सकता हूँ, सारा संसार भी छोड़ सकता हूँ, स्वयं को भी छोड़ सकता हूँ। परन्तु बुद्ध को कैसे छोडूँ? यह असम्भव है।’’
रिंझाई ने कहा कि बुद्ध भी बुद्ध इसीलिए हो सके क्योंकि उनके भीतर भी कोई बुद्ध नहीं था, क्योंकि भीतर कोई किसी बुद्ध को पकड़ नहीं थी। इसीलिए गौतम सिद्धार्थ बुद्ध हो सके। तुम वह कभी भी नहीं हो सकोगे। अपने बुद्ध को हटाओ। शिष्य भीतर गया अपने। यह बहुत कठिन बात थी, बड़ी मुश्किल, बड़ी कष्टप्रद। आखिर उसे सफलता मिली, और एक दिन वह दौड़ता हुआ आया। वह बड़ा प्रसन्न था, बड़ा आनंदित था-अपनी उपलब्धि पर। उसने कहा कि अब मैंने शून्य को पा लिया।
इस बात को सुनकर रिंझाई उदास हो गया और बोला, अब अपने इस शून्य को भी फेंक दो। यहाँ इस शून्य से भरकर भीतर मत आना क्योंकि यह शून्य भी एक प्रतिमा हो सकती है।
वह है। जब भी तुम शब्द का उपयोग करते हो, तो वह प्रतिमा बन जाती है। जबकि मैं कहता हूँ ‘शून्य’-एक प्रकार की प्रतिमा तुम्हारे मन में निर्मित हो जाती है। मैं कहता हूं रिक्तता शब्द से रिक्तता निर्मित नहीं हो सकती। ‘रिक्तता’ शब्द भी एक समानान्तर प्रतिमा की रिक्तता तुम्हारे मन में पैदा कर देता है।
इसलिए रिंझाई ने कहा, ‘‘अब तुम जाओ और अपने इस शून्य को भी फेंको। मेरे निकट इस शून्य की बकवास लेकर मत आना।’’ शिष्य के तो कुछ समझ में न आया। उसने कहा कि आप ही तो मुझे समझाते रहे हैं कि शून्य उपलब्ध करना होता है, और अब जब मैंने उसे उपलब्ध कर लिया है, तो आप उनसे प्रसन्न नहीं दिखलाई पड़ते? रिंझाई ने कहा, ‘‘तुमने मेरी बात ही नहीं समझी, क्योंकि जब कोईशून्यता को उपलब्ध हो जाता है, तो वह यह नहीं कह सकता कि यह मेरी उपलब्धि है। वह यह नहीं कह सकता कि शून्यता अब मैंने उपलब्ध कर ली। वह तो स्वयं-ही-शून्य हो जाता है। दूसरों को इस बात का पता चलता है, लेकिन वह स्वयं नहीं कह सकता। दूसरे को यह बात अनुभव में भी आयेगी लेकिन वह अब ऐसा नहीं कह सकता। क्योंकि जिस क्षण भी तुम उसे कहते हो, वह एक विचार बन जाता है, एक शब्द हो जाता है, एक प्रतिमा निर्मित हो जाती है।
भीतर से भी सब तरह की प्रतिमाओं को गिरा देना है। लेकिन तुम उन्हें कैसे गिराओगे यदि तुमने उन्हें निर्मित नहीं की है। जो तुम्हारे पास ही नहीं है, उसे तुम फेंकोगे भी कैसे? अतः इस बात को भी स्मरण रखो क्योंकि ये दो भ्रान्तियाँ हैं। साधक की राह में ये दो बड़ी बाधाएँ हैं : एक, कि तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, इसलिए तुम सोचते हो कि मैंने छोड़ दिया, त्याग कर दिया। तुम उसका त्याग कैसे कर सकते हो जो कि तुम्हारे पास है ही नहीं।
उदाहरण के लिये तुम कह सकते हो कि मैंने बुद्ध को छोड़ा, लेकिन तुमने बुद्ध को पाया ही नहीं है, तो तुम उसे छोड़ भी कैसे सकते हो? तुम कह सकते हो कि मैंने शून्य का त्याग किया लेकिन तुम उसे छोड़ भी कैसे सकते हो जब तक कि उसे पा न लो। यदि तुम्हारे भीतर कोई प्रतिमाएँ ही नहीं हैं और तुम सोचो कि मैं तो उस अल्टिमेट, उस अन्तिम के साथ एक हो गया हूँ, तो तुम अभी अज्ञान की पहली अवस्था में हो। तुम अभी बच्चे हो, न कि बच्चे की भाँति। तुम अभी अज्ञानी हो, तुम अभी ज्ञानी नहीं।
पहले निर्मित करो, तभी तुम उसे छोड़ भी सकते हो। लेकिन तब कोई पूछ सकता है कि फिर बनायें ही क्यों? जब किसी चीज को छोड़ देना है तो पहले उसको निर्मित ही क्यों करें? उसे निर्मित करने का प्रयास ही तुम्हें समृद्ध करता है। और फिर दूसरा कृत्य उसको विसर्जित करने का तुम्हें पहले से ज्यादा समृद्ध कर देता है।
इसे इस भाँति देखें : बुद्ध एक भिखारी हो गये, अतः कोई भी सड़क का भिखारी यह सोच सकता है कि मैं भी बुद्ध जैसा ही हूँ क्योंकि वे भी तो एक भिखारी ही थे। और वे थे। और एक बुद्ध तुम्हारे घर के द्वार पर खड़े हों और एक दूसरा भिखारी खड़ा हो, तो उनमें क्या अंतर है? दोनों ही भिखारी हैं। परन्तु बड़ा सूक्ष्म भेद है। बुद्ध अपने प्रयास से भिखारी हुए हैं। वह बड़ी से बड़ी उपलब्धि है जो कि संभव हो सकती है, जब कोई अपने ही प्रयास से भिखारी हो जाता है।
दूसरा भी भिखारी है, लेकिन उसके लिये उसने कोई प्रयास नहीं किया है। वह अपने प्रयत्नों के बावजूद भिखारी है। जब तुम अपनी मर्जी से, अपने ही प्रयत्नों से भिखारी हो जाते हो, तो तुम सम्राट हो जाते हो। बुद्ध भिखारी हो गये-धन की अर्थहीनता को जानकर। दूसरा भी भिखारी है लेकिन वह धन की अर्थहीनता को नहीं जानता। इसलिए दूसरा सोच सकता है कि वह एक भिखारी है, किन्तु बुद्ध कभी नहींसोच सकते कि वे एक भिखारी हैं। दूसरा इस बात को छिपायेगा कि वह भिखारी है और बुद्ध घोषणा करेंगे कि मैं सिर्फ एक भिखारी हूँ।
ये जीवन के विरोधाभास हैं, जीवन की विपरीततायें हैं। वह जो वस्तुतः भिखारी है, वह सदा छिपायेगा कि वह एक भिखारी है। वह एक मुखौटा लगायेगा कि वह भिखारी नहीं है। जब वह भीख भी मांग रहा है तो वह कोई भिखारी नहीं है, कि परिस्थिति ने ऐसा कुछ कर दिया है, कि एक विशेष परिस्थिति ने ऐसी घटना ला दी वरना वह कोई भिखारी नहीं है। भिखारी भिखारी है, अपने सारे प्रयत्नों के बावजूद इसीलिए वह इतना दुःखी है। यदि कोई सम्राट भी हो, तो उसकी सारी सम्पति के बावजूद दुःखी और अतृप्त होगा।
बुद्ध अपने को ‘भिक्षु’ कहते हैं-एक भिखारी। इसमें वे तथ्य को जरा भी नहीं छिपाते, वे इसकी घोषणा करते हैं। क्यों? क्योंकि वे अपने भिखारीपन से जरा भी नहीं डरते। केवल एक सम्राट ही यह घोषणा कर सकता है कि वह भिखारी है। बुद्ध अपने भीख के पात्र को हाथ में लिये भी एक सम्राट हैं, वो एक राजाओं के राजा हैं। सम्राट भी उनके समक्ष भिखारी है। उनके पास सब कुछ था और उन्होंने उस सब को छोड़ दिया। जब तक तुम्हारे पास हो ही नहीं, तुम छोड़ोगे भी कैसे? अतः इसे याद रखें : उन चीजों को मत छोड़ते जाना जो कि तुम्हारे पास हैं ही नहीं।
हममें से बहुत से ऐसा सोचते हैं कि हमने बहुत-सी चीजें़ छोड़ दी हैं। तब तुम अपने को धोखा दे रहे हो, और यह धोखा बड़ा महंगा है अन्तर्यात्रा में। उदाहरण के लिये कृष्णमूर्ति सदा कहते हैं कि मूर्तियों को त्याग दो, विचारों को, विश्वासों को छोड़ दो। तब बहुत से लोग जो कि उन्हें सुन रहे होते हैं, वे सोचते हैं कि यह ठीक है। क्योंकि हमारे पहले से ही कोई विश्वास आदि नहीं है, अतः हम पहले से ही उस अवस्था को उपलब्ध हैं जिसकी कि कृष्णमूर्ति बात कर रहे हैं। वे उस अवस्था में हैं नहीं। वे अपने को ही धोखा दे रहे हैं।
पहले तुम्हारे कुछ विश्वास होने चाहिये, तभी तुम उनको छोड़ भी सकते हो। यदि तुम्हारे कोई विश्वास आदि नहीं हैं, तो तुम उनको कैसे छोड़ोगे। यदि एक बच्चा मुझे सुनता है और मैं कहता हूँ कि ज्ञानी बच्चों जैसे होते हैं, वे अनसीखा करते हैं, तो वह बच्चा कह सकता है, तो फिर ठीक है, मैं पहले से ही ज्ञानी हूँ। मैं सीखूँगा ही नहीं। जब बाद में अनसीखा करना ही पड़े तो फिर इस सीखने के कष्ट को क्यों उठाना? मैं पहले से ही ज्ञानी हूँ।
जीसस ने कहा है कि तुम मेरे प्रभु के राज्य में तभी प्रवेश कर सकते हो जब तुम बच्चों जैसे हो जाओ। किन्तु ‘बच्चे जैसे’ का अर्थ है-वह दूसरा बचपन, न कि पहला बचपन-दूसरा बचपन जो कि सीखने, जानने, अनुभव करने तथा उस सबको छोड़ने के बाद आता है।
तुम्हें अभी इस दूसरे बचपन का स्वाद नहीं आ सकता। ‘यह पहले वाले बचपन से बिल्कुल भिन्न है। किसी चीज का होना और फिर उसे छोड़ देना एक नया ही अनुभव है। इसलिए मैं सदा कहता हूँ कि एक गरीब आदमी इसलिये गरीब नहीं है क्योंकि अभी उसके पास धन नहीं है, बल्कि इसलिये गरीब है कि अभी वह कुछ भी नहीं छोड़ सकता। यही वास्तविक गरीबी है। वह कुछ भी नहीं त्याग सकता, वह किसी भी चीज़ के लिए ‘ना’ नहीं कह सकता। वही उसकी असली गरीबी है। जब तुम कहते हो ‘ना’ नहीं कह सकता। वह कैसे कह सकता है ‘ना’? उसका सारा अस्तित्व कह रहा है, हाँ, मुझे दे दें। उसका सारा होना ही एक भूख है। वह एक भूखी आत्मा है। वह कुछ भी नहीं छोड़ सकता, वह कुछ भी नहीं फेंक सकता, वह कुछ त्याग नहीं सकता। यही असली दरिद्रता है। आंतरिक रूप से, आध्यात्मिक रूप से यही रुग्णता है।
इसीलिए, एक गरीब देश में धर्म विकसित नहीं हो सकता। वह असंभव है। एक गरीब देश सिर्फ अपने कोदेखा दे सकता है कि वह एक धार्मिक देश है। एक गरीब देश में धर्म असंभव है। मैं यह नहीं कह रहा कि कोई गरीब व्यक्तिगत रूप से धार्मिक नहीं हो सकता। व्यक्तिगत रूप से वह संभव है। लेकिन समाज के रूप में, कोई भी दरिद्र समाज धार्मिक नहीं हो सकता क्योंकि कोई भी गरीब समाज छोड़ने, त्यागने की बात भी नहीं सोच सकता। जब कोई समाज समृद्ध होता है, तभी त्याग की बात भी महत्वपूर्ण होती है। इसलिए त्याग अन्तिम विलासिता है, जो कि संभव हो सकती है। अन्तिम विलासिता। जब तुम त्याग कर सकते हो, तो वह विलासिता का आखिरी शिखर है।
एक बुद्ध छोड़ सकते हैं, वे एक राजकुमार हैं। एक महावीर त्याग कर सकते हैं, वे एक राजकुमार हैं। जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के लड़के हैं, वे त्याग कर सकते हैं। कृष्ण और राम त्याग की भाषा में सोच सकते हैं, वे सम्राट हैं। लेकिन यदि एक गरीब आदमी ऐसा सोचने लगे कि यदि बुद्ध सड़कों पर भीख मांग सकते हैं तो मैं तो पहले से ही बुद्ध हूँ क्योंकि मैं तो पहले से ही भख मांग रहा हूँ, तब वह सारी बात को ही गलत समझा है।
और वही बात ज्ञान के लिये लागू होती है। तुम ज्ञान भी छोड़ सकते हो, लेकिन पहले सीखो। कितनी ही बार मैं ज्ञान की मूढ़ता पर बात करता हूँ। तब जो कुछ नहीं जानते वे सोचते हैं कि कितनी अच्छी बात है कि हम कुछ भी नहीं जानते। जब मैं ज्ञान की मूढ़ता पर बात करता हूँ तो मेरा मतलब अज्ञान से नहीं है, मैं मेरा मतलब ज्ञान का अतिक्रमण करने से है। ज्ञान मूढ़ता हो जाता है, जब वह तुम्हारे पास होता है। जब वह तुम्हारे पास नहीं होता, तो तुम उससे ऊपर नहीं होते। तुम ज्ञान से नीचे होते हो। इसलिए जब मैं कहता हूँ कि ज्ञान मूढ़ता है, तो मैं उसकी तुलना प्रज्ञा से कर रहा हूँ, न कि अज्ञान से। अन्यथा तुम ऐसा भी समझ सकते हो कि तुम्हारा अज्ञान ही आनन्द है।
किसी भी चीज़ को छोड़ने के पहले, पूरी तरह देख लो कि वह तुम्हारे पास है भी? तभी केवल तुम उसे छोड़ सकते हो। और जब तुम कुछ छोड़ सकते हो, तभी तुम उस छोड़ने से कुछ प्राप्त करते हो। और जो भी उससे पाया जाता है वह उससे बड़ा है जो कि छोड़ा गया है।
वह उससे श्रेष्ठतर है। इसीलिए निम्न को छोड़ दिया गया है। वरना उसे छोड़ना असंभव होता है। अब तुम ज्ञान को छोड़ सकते हो क्योंकि अब तुम्हें ऐसा लगता है कि प्रज्ञा उससे बड़ी बात है, उससे श्रेष्ठ है। और केवल श्रेष्ठ ही नहीं बल्कि तुम्हें ऐसा भी प्रतीत होता है कि ज्ञान उस श्रेष्ठ के लिये बाधा है। तुम ज्ञान पाने के लिये अज्ञान का कैसे त्याग कर सकते हो क्योंकि ज्ञान अज्ञान से ऊपर है। यदि अज्ञानी ही बने रहने के लिये, ज्ञान नहीं पाते, तो तुम सारी बात ही चूक गये।
यह सूत्र कहता है कि विसर्जित करो, लेकिन पहले निर्मित करो। पहले परमात्मा को बनाओं पहले उसकी प्रतिमा सर्जित करो। ईश्वर की प्रतिमा बनाने या ईश्वर का सर्जन करने से क्या मतलब? यह एक बहुत अर्थपूर्ण प्रयास है और यह तुम्हें रूपान्तरित करता है, यह तुम्हें बदलता है। यह इतना सरल नहीं जैसा कि हम सोचते हैं। उदाहरण के लिये जब तुम गणेश की एक मिट्टी की प्रतिमा बनाते हो, तो तुम जानते हो कि यह मिट्टी है। तुमने ही उसे आकार दे दिया है, बस इतनी ही बात है। फिर तुम उसकी पूजा करते हो-एक मिट्टी की प्रतिमा की जो कि तुमने ही बनाई है। फिर उसके आगे समर्पण करना, फिर उसके चरणों को स्पर्श करना जो कि तुमने ही बनाई है-यह एक बड़ा रूपान्तरण है।
यह एक कठिनतम बात है। यह सरल बात नहीं है, क्योंकि जिसे तुमने ही बनाया, उसकी पूजा कैसे कर सकते हो? जबकि तुम जानते हो कि यह सिर्फ मिट्टी है, कुछ और नहीं, तो तुम उसकी पूजा कैसे कर सकते हो? इसकी पूजा करने की प्रक्रिया ही तुम्हें रूपान्तरित कर देगी। और यदि तुम किसी ऐसी चीज की पूजा कर सको जो कि तुमने ही निर्मित की हो, तभी केवल तुम उसको जान सकते हो, उसकी पूजा को जान सकते हो जिसने कि तुम्हें बनाया है।
यह कठिन है, यह बहुत ही दुस्सह है। लेकिन यह वहीं से प्रारंभ होता है। तुम अपनी बनाई प्रतिमा के प्रति नम्र हो जाते हो। तुमने ही बनाई, घर में बनाई गयी, ईश्वर की प्रतिमा के आगे तुम समर्पण कर देते हो। यह तुम्हें एक गहरी नम्रता, एक गहनतम विनम्रता प्रदान करता है। और तब वह प्रतिमा खाली प्रतिमा ही नहीं रह जाती। वह रूपान्तरित हो गई होती है। तुमने अपना सारा हृदय उसमें उड़ेल दिया होता है।
सचमुच उस क्रान्ति को देखो जो कि इससे घटती है। तुम्हीं इस प्रतिमा के सर्जक हो और फिर तुम इस प्रतिमा की पूजा करते हो जैसे कि वह तुम्हारी सर्जक है। सारी बात ही बदल गई। तुम निर्मित होने वाली प्रतिमा हो गये और वह प्रतिमा तुम्हारी निर्मात्री हो गई। यह चेतना का समग्र रूपान्तरण है। अतः यह एक बहुत बड़ी बदलाहट है। यदि ऐसा हो जाये, तब उसे छोड़ दो। तभी तुम जान सकते हो कि विसर्जन क्या होता है। यदि यह घट जाये तभी यह विसर्जन है, अन्यथा वह सिर्फ एक मिट्टी की प्रतिमा थी। बिना रूपान्तरित हुए, बिना किसी रासायनिक परिवर्तन के तुमने उसकी पूजा की। वह एक मिट्टी की प्रतिमा थी, तुमने सिर्फ पूजा करने का अभिनय किया। तुम पहले से ही जानते थे कि यह सब कोरा औपचारिक कृत्य है।
विवेकानंद अमेरिका के एक शहर में बोल रहे थे। वे बाइबिल के किसी सिद्धान्त पर बोल रहे थे और वे कह रहे थे कि जीसस ने कहा कि श्रद्धा पर्वत को भी हटा सकती है। एक बूढ़ी और जो कि पहली ही पंक्ति में बैठी थी, बड़ी आनंदित हुई क्योंकि उसके घर के पास एक जो मिट्टी का टीला था उससे वह बड़ी परेशान थी। अतः उसने सोचा कि यदि श्रद्धा से पहाड़ भी हट सकते हैं, तो एक छोटा-सा पहाड़ी टीला क्यों नहीं हट जायेगा?
अतः वह भागी घर की ओर। उसने अन्तिम बार अपने घर की खिड़की से उस पहाड़ी टीले की ओर देखा क्योंकि अब वह मिट जाने वाला था। फिर उसने खिड़की बन्द कर दी और तीन बार कहा, ‘हे परमात्मा, मैं तुममें विश्वास करती हूँ। इस मिट्टी के टीले को यहाँ से हटा दो।’ और तीन बार ऐसा कहने के बाद उसने खिड़की खोली और देखा कि वह पहाड़ी-टीला तो वहीं-का-वहीं था। अतः उसने कहा कि मैं तो पहले ही जानती थी कि इससे कुछ नहीं होने का। मैं पहले ही जानती थी कि वह सब बकवास है।
यदि तुम पहले से ही जानते हो कि यह सारी बकवास है, तब फिर श्रद्धा कुछ भी नहीं कर सकती। तब सभी कुछ पर्वत है क्योंकि श्रद्धा का अर्थ होता है कि तुम जानते हो कि पर्वत हट जाने वाला है। अतः सचमुच श्रद्धा पर्वतों को भी हटा सकती है यदि वह पहले तुम्हारे हृदय को हिला दे। अन्यथा यह असंभव है। तुम एक मिट्टी की मूरत है जो कि तुम बाजार से खरीद लाये हो। अतः यह एक खाली औपचारिकता है जो कि करनी पड़ती है। और फिर तुम जाते हो और उसको विसर्जित कर देते हो।
नहीं, जब वस्तुतः ही मिट्टी की मूरत परमात्मा का रूप हो जाती है, तभी तुम्हारा समग्र मन उसको पकड़ने लगता है। तब तुम सारे संसार को छोड़ सकते हो, लेकिन अब तुम इस प्रतिमा को नहीं छोड़ सकते। तब फिर आत्मघात करना भी सरल है बजाय इस मूर्ति को विसर्जित करने के। तब वह तुम्हारा प्राण है। वह तुम्हारा स्वरूप है। तभी हिन्दू कर्मकांड कहता है कि जाओ और अब इसे विसर्जित कर दो।
जबकि प्रतिमा दिव्य का स्वरूप हो जाती है तब वास्तविक पूजा घटित हो जाती है। तब उसको विसर्जित कर देना, बड़े-से-बड़ा आध्यात्मिक कृत्य है क्योंकि तुम आखिरी बाधा से अपनी पकड़ छुड़ा रहे हो। और जब कोई अपी इस पकड़ को दिव्य से भी छुड़ा लेता है, तब फिर कुछ भी उसको पकड़ नहीं सकता, कुछ भी नहीं।
लेकिन यह मुश्किल है। विसर्जन आसान है क्योंकि सारी बात सिर्फ एक औपचारिकता है। रामकृष्ण से अपनी काली की प्रतिमा को विसर्जित करने के लिये कहा। उनके लिये रूपान्तरण घटित हुआ था। जब उन्हें दक्षिणेश्वर का पुजारी बनाया गया था, तो उन्हें सिर्फ सोलह रुपये दिये जाते थे। अतः वे एक गरीब पुजारी थे-सर्वाधिक गरीब, क्योंकि दक्षिणेश्वर का मंदिरएक शूद्र रानी के द्वारा बनाया गया था। वहाँ पर कोई भी ऊँची जाति को ब्राह्मण पुजारी बनने के लिये तैयार नहीं था। कोई भी शूद्र रानी के द्वारा बनाये गए मंदिर में पुजारी का काम करने के लिये राजी नहीं था।
रामकृष्ण ने उसे स्वीकार कर लिया। बहुतों ने उनसे पूछा कि तुम क्यों कर रहे हो ऐसा? क्योंकि वे एक ऊँची जाति के ब्राह्मण थे। यहाँ तक कि उनके परिवार के लोग भी इसके विरुद्ध थे। किन्तु रामकृष्ण ने कहा कि मैं उस प्रतिमा के प्रेम में पड़ गया हूँ, इसलिए यह कोई नौकरी का सवाल नहीं है। नौकरी तो सिर्फ एक बहाना है ताकि मैं वहाँ रोजाना प्रवेश कर सकूँ। मैं उसके प्रेम में पड़ गया हूँ।
किन्तु जब कोई पुजारी किसी प्रतिमा के प्रेम में पड़ जाता है, तो उससे बहुत-सी समस्यायें पैदा होती हैं। एक पुजारी को चाहिये कि वह औपचारिक ही रहे। वह वहाँ कोई वास्तविक पूजा करने के लिये नहीं है। वह वहाँ ऊपरी दिखावे के लिये होता है। जब भी तुम किसी चीज़ के प्रेम में पड़ जाते हो तो उसमें कठिनाइयाँ पैदा होना अनिवार्य हो जाता है। प्रेम है ही ऐसी एक मुसीबत।
सात दिन में ही कमेटी के लोगों ने उन्हें बुला भेजा। प्रबंधक कमेटी के सदस्यों ने उनसे कहा कि, ‘‘हम तुम्हें निकाल देंगे। यह तुम क्या करते हो? कितनी ही बार हमसे शिकायत की गई है कि तुम मंदिर में बहुत-सी गड़बड़ी करते हो-कहा गया है कि काली के चरणों में पुष्प चढ़ाने के पहले ही तुम उन्हें सूंघ लेते हो। पहले से ही, इसके पहले कि तुम फूल चढ़ाओ काली के चरणों में, तुम उन्हें सूंघ लेते हो। और भोजन। भाग लगाने के प्रसाद को तुम भोग लगाने के पहले ही खा लेते हो। भोग लगाने के पहले ही। यह बात एक धार्मिक आदमी के लिये संभव नहीं। तुम यह क्या करते हो? क्यातुम पागल हो? भोग के बाद ही प्रसाद ग्रहण किया जा सकता है। यदि तुम पहले ही फूलों को सूंघ लो, तो वे अशुद्ध हो गये।’’
रामकृष्ण ने जवाब दिया कि, ‘‘मैं अपनी नौकरी छोड़ता हूं क्योंकि मेरे लिये यह असंभव है कि मैं फूलों को न सूंघूं। यह असंभव है।’’
‘‘क्यों असंभव है?’’ कमेटी के सदस्यों ने पूछा। रामकृष्ण ने जवाब दिया, ‘‘मैं जानता हूं कि जब भी मेरी मां मेरे लिये कुछ भोजन बनाती है तो पहले वह उसे चख लेती है और उसके बाद वह मुझे देती है। इसलिये मैं भी काली माँ को बिना चखे भोजन नहीं दे सकता। क्या पता, खाने योग्य भी हो या नहीं और यदि प्रेम चीजों को अशुद्ध कर देता है, तो मैं यह नौकरी छोड़ता हूं।’’
इस रामकृष्ण जैसे आदमी के लिये विसर्जन करना बहुत ही कठिन होगा यदि इस काली की प्रतिमा को विसर्जित करना पड़े, तो यह उनके लिये आत्मघाती होगा। वे उसके धक्के से ही मर सकते हैं। अतः इस बात को याद रखो-यदि तुमने सचमुच ही पूजा की है, तो यह विसर्जन अर्थपूर्ण है। और तब ईश्वर को विसर्जित करना एक बहुत बड़ी छलांग होगी। तब तुम आकार की दुनिया से निराकार के जगत में पहुँच गये क्योंकि एक प्रतिमा एक आकार है-सुन्दर, पवित्र लेकिन फिर भी एक आकार। जब तक कि तुम आकार के पार नहीं जाओ और निराकार में विस्फोटित न होओ, तब तक यात्रा पूरी नहीं हुई। अतः आंतरिक रूप से यही अर्थ है विसर्जन का।
भगवान, पूर्ण संतोष या पूर्ण तृप्ति निर्वासना क्षण-क्षण जीने, तथा चेतना के पूर्णरूप से विकसित होने के परिणामस्वरूप है। यह एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति की चेतनादशा है।
लेकिन एक अध्यात्म का खोजी, जो कि अभी बीज ही है, दिव्य की प्रसुप्त संभावना ही है, इस सारी आध्यात्मिक पीड़ा, प्यास तथा बेचैनी से गुजरता है जिसे कि आत्मा की काली रात भी कहा गया है। अतः एक साधक के लिये जरूरी है कि वह सतत एक आंतरिक अतृप्ति में होगा जब तक कि वह बुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाये।

अतः कृपया बतायें कि एक साधक इस पूर्ण सन्तोष, पूर्ण तृप्ति के सिद्धान्त को, अपनी आंतरिक अतृप्ति के साथ किस तरह तालमेल बिठाये?
वस्तुतः ही हमारे मन वर्तुल में घूमते हैं। और वही-वही बात बार-बार कितने ही रूपों में प्रकट होती रहती है, कभी किन शब्दों में, कभी किस भाषा में, किन्तु तर्क वही होता है। उदाहरण के लिये, यह दूसरा प्रश्न।
मन की तीन अवस्थायें हैं। एक, कि जिसमें कोई असन्तोष, अतृप्ति नहीं होती। एक पशु बिना किसी अतृप्ति के होता है, एक बच्चा भी बिना किसी अतृप्ति के होता है। लेकिन यह तृप्ति नहीं है। यह सिर्फ अतृप्ति के बिना होना है। यह निषेधात्मक स्थिति है।
सुकरात ने कहा है कि यदि एक सूअर की भाँति तृप्त होना संभव भी हो, तो भी मैं उसे चुनने वाला नहीं। मैं एक अतृप्त सुकरात होना ज्यादा पसन्द करूँगा, बजाय एक तृप्त सुअर के। सूअर बड़े तृप्त होते है, तो इसका यह अर्थ नहीं हैं कि वह ज्ञानी है। वह सिर्फ एक सूअर हो सकता है। एक बिना अतृप्ति के जीवन होने का यह अर्थ नहीं है कि वह कोई आध्यात्मिक जीवन है। यह भी हो सकता है कि वह आदमी मूर्ख हो क्योंकि असन्तोष, अतृप्ति को अनुभव करने के लिये आदमी के पास बुद्धि चाहिये।
एक गाय की आँखों में देखो : कोई अतृप्ति का भाव नहीं है, लेकिन साथ ही कोई बुद्धि भी नहीं है। मूर्खों की आँखों में देखो, वे बिल्कुल गाय की तरह हैं। कोई अतृप्ति नहीं है। क्यों? क्योंकि अतृप्ति बुद्धि का हिस्सा है। जब तुम सोचते हो तो तुम चिन्तित भी होओगे। जब तुम सोचते हो तो तुम जरूर भविष्य के बारे में सोचोगे। जब तुम सोचते हो, तो बहुत से विकल्प सामने आयेंगे। उनमें से चुनाव करना पड़ता है, और चुनाव के साथ ही चिन्ता आती है, चुनाव के साथ ही पश्चात्ताप आता है, चुनाव के साथ भय आता है। जितने अधिक तुम बुद्धिमा होओगे, उतने ही अधिक तुम अतृप्त होओगे।
लेकिन यह सूत्र कहता है-पूर्ण सन्तोष, पूर्ण तृप्ति वह तीसरी अवस्था है। पहली है, बिना अतृप्ति के होना। दूसरी है, अतृप्ति का होना। तीसरी, फिर से बिना अतृप्ति के हो जाना है। लेकिन तीसरी का अर्थ होता है, सन्तोष, तृप्ति। यह विधायक है। यदि तुम बुद्धिमान हो, तो तुम उसके पार चले जाओगे। तुम उसका अतिक्रमण कर जाओगे। क्योंकि अन्ततः तुम्हारी बुद्धि तुम्हें रास्ता दिखला देगी, वह तुम्हें तथ्य पर लाकर खड़ा कर देगी। तुम अपनी बुद्धि के द्वारा तथ्य पर पहुँच जाओगे कि अतृप्ति व्यर्थ है, बेकार है। ऐसा नहीं है कि तुम असन्तुष्ट न हो सकोगे। तुम चाहो तो हो सकोगे। लेकिन यह अतृप्त होने की घटना ही व्यर्थ हो जाती है, और गिर जाती है। अतः समग्र तृप्ति का अर्थ इस तीसरी अवस्था से है।
इसे उदाहरण से समझो : बुद्ध एक तृप्त व्यक्ति नहीं हैं। एक तृप्त आदमी अपना महल छोड़कर नहीं जायेगा, वह अपनी पत्नी को छोड़कर नहीं चला जाएगा, वह कुछ भी नहीं छोड़ेगा। बुद्ध के पास जो भी था, वह सब उन्होंने छोड़ दिया। बाहरी वस्तुए ही नहीं, भीतरी भी छोड़ दी। वे छः वर्ष तक लगातार एक गुरु से दूसरे गुरु के पास भटकते रहे। एक गुरु के पास जाते और फिर वहाँ से आगे चल देते। हर गुरु के पास भटकते रहे। एक गुरु के पास वे जाते और फिर वहाँ से आगे चल देते। हर गुरु के पास जो भी कुछ सीखने को होता, उसे सीखकर, वे और की मांग करते।
और तब गुरु कहता है, ‘कृपया मुझे माफ करो। मैं तुम्हें और कुछ नहीं सिखा सकता। मेरे पास सिखाने को जो कुछ भी था, तुम वह सब पा चुके।’
लेकिन बुद्ध कहते, ‘मेरी अभी संतुष्टि नहीं हुई। मेरी आग अभी भी धधक रही है, मेरी बेचैनी ज्यों-की-त्यों है, मेरी अभीप्सा अभी शांत नहीं हुई। आपने जो कुछ कहा, उसका मैंने पूरा का पूरा पालन किया है, लेकिन कुछ भी तो हुआ नहीं। तो मुझे बताइए, यदि और कुछ सीखने को बाकी रह गया हो तो?’
तब वह गुरु कहता है, ‘अब तुम आगे बढ़ो, किसी और के पास जाओ। और यदि इससे अधिक तुम कुछ पा सको तो कृपया मुझे भी बताना न भूलना।’
तो छः वर्ष तक लगातार वे एक गुरु से दूसरे गुरु के पास भटकते रहे। उन्होंने कोई कसर न छोड़ी। जाने-अनजाने सभी गुरुओं के पास वे गए, और फिर ‘गुरुविहीन’ हो गए। बहुत समय तक गुरुओं से सीखा और फिर गुरुविहीन हो गए। फिर उन्होंने कहा, ‘अब मैं उस बिंदु पर पहुँच गया हूँ जहाँ वह सब सीख लिया गया है जो कि दूसरों से सीखा जा सकता है, लेकिन अतृप्ति अभी तक बनी है। तो अब मैं खुद ही अपना गुरु बनूँगा, और कोई भी उपाय नहीं है।’
तुम अपने खुद के गुरु तभी बन सकते हो जब तुम बहुत-बहुत गुरुओं से मिल चुके, उनका अनुसरण कर चुक। केवल मिलने भर से काम न चलेगा। जब तुमने उन गुरुओं का अनुसरण किया और फिर भी अतृप्ति बनी रही, केवल तभी। वरना कृष्णमूर्ति को सुनकर तुम सोचते हो, ‘ठीक! किसी गुरु की जरूरत नहीं है। मैं गुरु हूँ ही। तुम धोखा दे रहे हो। एक क्षण आता है जब कोई गुरु मदद नहीं कर सकता, लेकिन वह गुरुओं की एक लंबी कतार के बाद आता है-और वह भी केवल उनको मिलने या सुनने से नहीं, उनका अनुसरण करने के बाद आता है।
तब बुद्ध ने कहा, ‘‘अब कोई मेरी मदद नहीं कर सकता। मैं असहाय हूँ, सो मैं खुद ही प्रयास करूँगा।’’ और उन्होंने प्रयास किया, और लंबा प्रयास था वह। वह अज्ञात में किया गया प्रयास था, इसलिए वहाँ सब कुछ अनजाना था, न कोई मार्गदर्शक था, न कोई गुरु था। जो भी उनके मस्तिष्क में आता, वे प्रयत्न करते। उन्होंने लम्बे उपवास किये। वे सिर्फ हड्डियाँ का एक ढाँचा रह गये। वे मौत की कगार पर खड़े थे जब उनको लगा कि यह मैं क्या कर रहा हूँ। मैं सिर्फ अपने को ही मार रहा हूँ।
निरंजना नदी में स्नान करने के बाद वे किनारे की तरफ लौट रहे थे। लेकिन वे इतने कमजोर हो गये थे, और धारा इतनी तेज़ थी कि वे धारा में बह गये। उस धारा में बह गये। उस धारा में बहकर, एक वृक्ष की जड़ को पकड़कर उन्होंने सोचा कि मैं इतना कमजोर हो गया हूं और इतना असहाय हो गया हूँ अपने को भूखा मार मार कर। और जब मैं इतनी छोटी-सी नदी भी पार नहीं कर सकता, तो फिर अस्तित्व की इतनी विराट सरिता को कैसे पार कर पाऊँगा। एक दिन वे उस बिन्दु पर पहुँच गये जहाँ कि गुरु की जरूरत नहीं होती। फिर वे उस जगह पहुँचे जहाँ कोई प्रयास भी सहायक नहीं होता। उन्होंने सोचा कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता।
उसी रात्रि उन्हें निर्वाण उपलब्ध हो गया। शाम को वे एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने को लेट गये। अब कुछ भी करने के लिये शेष नहीं था। कुछ भी तो नहीं। दूसरों के दिमाग व्यर्थ हो चुके थे, अब उनका स्वयं मस्तिष्क भी व्यर्थ सिद्ध हो चुका था। अब क्या करें? अब कहाँ जायें? सब गति रुक गई। अब कुछ भी करने के लिये नहीं बचा था, अतः वे उस वृक्ष के नीचे पूर्ण विश्राम में लेट गये।
पहली बार इतने, इतने वर्षों के बाद वे सोये। क्योंकि यदि कोई भी इच्छा बाकी है तो नींद संभव नहीं है। तुम सपने देख सकते हो, लेकिन तुम सो नहीं सकते। अतः हम सिर्फ सपने देख रहे है, सो नहीं रहे हैं। नींद तो एक गहरी प्रक्रिया है। या तो पशु सोते हैं या फिर ज्ञानी। आदमी के लिये वह नहीं है आदमी सिर्फ सपने देखता है।
बुद्ध पहली बार सोये, क्योंकि अब कुछ भी करने के लिये नहीं था। कोई भविष्य नहीं था, कोई वासना, कोई लक्ष्य, कोई किसी प्रकार की संभावना नहीं थी।
उस शाम सब कुछ गिर गया। केवल शुद्ध चेतना मात्र बची बालवत। बचकानी नहीं, बच्चे जैसी। सरल, किन्तु लम्बे प्रशिक्षण तथा श्रम के बाद उपलब्ध की गई चेतना।
वह आराम से सो गये। उन्होंने कहा कि उस रात की नींद एक चमत्कार थी। वे वृक्षों से, नदी से, रात्रि से एक हो गये थे, क्योंकि जब कोई सपना नहीं बचा हो, तो फिर कोई विभाजन भी नहीं बचता। फिर तुम्हारे और वृक्ष के बीच में कौन-सा विभाजन है जबकि तुम कोई सपना नहीं देख रहे हो? तब कोई परिधि नहीं है, कोई सीमा नहीं है। सबेरे पाँच बजे आखिरी तारा डूब रहा था, और उन्होंने अपनी आँखें खोलीं। वे आँखें अवश्य ही कमल की भाँति होंगी।
जब तुम सबेरे अपनी आँखें खोलते हो, तो वे बोझिल होती हैं। रात के सपनों से बोझिल। वे थक गई होती हैं। क्या तुम्हें पता है कि आँखों को रात नींद में ज्यादा काम करना पड़ता है जितना कि उन्हें दिन में भी नहीं करना पड़ता। जब तुम एक फिल्म देख रहे होते हो, तो तुम्हारी आँखें फिल्म के साथ लगातार गति कर रही होती हैं। इसीलिए तीन घंटे फिल्म देखने के बाद तुम्हारी आँखें बुरी तरह से थक जाती हैं। तुम पलक भी नहींझपकते, तुम झपकना भी भूल जाते हो। तुम बहुत उत्तेजित हो जाते हो और तुम्हें बहुत तेजी से गति करना पड़ता है। और यदि कुछ भी चूकना नहीं चाहते हो, तो तुम पलक भी नहींझपक सकते। इसलिए तुम फिल्म देखते समय पलक भी नहींझपक सकते। तुम्हारी आँखें पागल की तरह दौड़ती रहती हैं। यही बात रात को और भी अधिक गहरे तल पर घटित होती है। सारी रात तुम सपने देखते हो। तुम्हारी आँखें दौड़ती रहती हैं।
अभी मनोवैज्ञानिक आँखों की गति का बाहर से भाषान्तर कर सकते हैं। वे उसे ‘रेपिड आई मूवमेन्ट’-(त्म्ड) कहते हैं-आँखों की तेज गति। वे तुम्हारी आँखों की गति को अनुभव कर सकते हैं और बता सकते हैं कि तुम किस प्रकार का सपना देख रहे हो। यदि वह सेक्स-संबंधी सपना है तो आँखें बहुत तेजी से गति करती हैं जितनी कि दूसरे प्रकार के सपने में नहीं करतीं। इसलिए अब सपने भी निजी बात नहीं रहे। तुम्हारी पत्नी तुम्हारी आँखों पर उँगलियाँ रख सकती हैं और अनुभव कर सकती हैं कि तुम किस तरह का सपना देख रहे हो। क्या सपने में तुम किसी स्त्री को देख रहे हो? तुम्हारी आँखें तेज-तीव्र गति दर्शाती हैं।
बुद्ध सोये। किन्तु हम तो सपने देखते हैं। सबेरे हमारी आँखें थकी हुई होती हैं। इसीलिए तो मैंने कहा, कमलवत। एक कमल अपने को कभी भी खोलता नहीं। वह बस खुल जाता है। सूर्य उगा है और कमल खिल जाता है। इसीलिए हम बुद्ध की आँखों को कमल की तरह कहते हैं। आँखें खुल गई क्योंकि रात्रि जा चुकी थी, वे फिर नये होकर, शक्ति से भरकर भीतर के स्रोत से बाहर आ रहे थे, बिना स्वप्नों के पहली बार।
यदि तुम्हारी नींद बिना सपने के हो, तो वह ध्यान हो जाती है। वह बिल्कुल समाधि की तरह होती है। अतः वे गहरी समाधि से बाहर आ रहे थे, एक गहरे भीतरी आनंद में डूबकर आ रहे थे। उन्होंने आखिरी तारे को डूबते हुए देखा। और उस आखिरी तारे के डूबने के साथ-साथ इस जगत का और सब भी विलीन हो गया। वे बुद्धत्व को उपलब्ध हो गये। फिर बाद में, उनसे पूछा गया कि आपने किस प्रयास से उपलब्ध किया? उन्होंने कहा कि किसी भी प्रयास से नहीं। लेकिन तब गलतफहमी हो जाने की बहुत संभावना है। उन्होंने इस स्थिति को अप्रयास से उपलब्ध किया। यह बिल्कुल सच है। उन्होंने इस अप्रयास की स्थिति को किस तरह पाया? लम्बे प्रयास से। इसे कभी नहीं भूलना चाहिये।
उन्होंने कहा कि मैंने उस ‘अन्तिम’ को तब पाया जबकि उस अन्तिम को पाने की इच्छा भी शेष नहीं थी। लेकिन उन्होंने इस ‘अनिच्छा’ को कैसे पाया? लम्बी असन्तोष की प्रक्रिया के बाद? कितने ही जीवनों की अतृप्ति के बाद। बुद्ध ने कहा, ‘मैंने कितने ही जन्म श्रम किया, संघर्ष किया, किन्तु उस संघर्ष से कुछ भी हाथ नहीं आया’। लेकिन यह भी कोई छोटी बात नहीं है। यह अनुभूति कि ‘श्रम से कुछ भी नहीं पाया जाता’, यह भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि अब ही बिना श्रम के कुछ पाना संभव होता है। अब ही केवल सन्तोष से, तृप्ति से कुछ पाना संभव हो सकता है।
अतः पहली स्थिति बिना असन्तोष की है : वह पशु की स्थिति है। उसमें व्यक्ति उन सब समस्याओं के प्रति मूचि्र्छत रहता है जो कि जीवन पैदा करता है, कि जीवन भी है और उसकी समस्याएँ भी हैं-उनके प्रति आनन्दपूर्ण रूप से बेहोश होता है-किन्तु यह एक बहुत गहरी मूर्च्छा है। उसके बाद दूसरी अवस्था आती है : असन्तोष फूट पड़ता है। जो कुछ भी मूचि्र्छत अवस्था में आनंदपूर्ण था, वह सब खो जाता है। हर चीज एक समस्या तथा एक पहेली बन जाती है, और हर बात एक संघर्ष का रूप ले लेती है। एक द्वंद्व निर्मित हो जाता है। और हर चीज को श्रम से पाना पड़ता है-लम्बे श्रम से। और फिर भी कुछ पक्का नहीं होता कि तुम उसे पा ही लोगे। तब चिन्ताओं का एक संसार तुम्हें घेर लेता है। तुम चिन्ता में जीते हो, तुम एक संताप हो जाते हो।
किर्कगार्ड ने कहा है कि आदमी एक चिन्ता है। वह है। पशु किसी चिन्ता में नहीं है किन्तु आदमी एक चिन्ता है। एक बुद्ध की अथवा लाओत्से जैसा ज्ञानी फिर से अचिन्ता में हैं। ये दो-अचिंताएँ-बुद्ध की तथा पशु की, ये दोबिल्कुल अलग बातें हैं। इनके गुण-धर्म भिन्न हैं। किसी को भी पहले चिन्ता से गुजर कर ही पुनः अ-चिन्ता की स्थिति को पहुँचना पड़ता है।
अतः असन्तोष को मना नहीं किया गया है, अतृप्ति की निन्दा नहीं की गई है। लेकिन असन्तोष आत्यंतिक स्थिति भी नहीं है। असन्तोष लक्ष्य नहीं है।
अतः इस सूत्र का अर्थ है असन्तोष के पार जाना। उसको पकड़ मत लेना। वह तो सिर्फ रास्ता है, उस पर से होकर गुजरना होता है। लेकिन गुजर जाना चाहिये, किसी को वहाँ रुकना नहीं चाहिये। इसे सदैव याद रखो। क्योंकि तुम्हारे मन में बहुत से सवाल उठेंगे।
तुम सोचते हो कि ये सवाल अलग हैं। च्वांगत्सु ने कहीं पर कहा है कि भिन्न-भिन्न प्रश्न पूछना बहुत ही कठिन है। हम उसी-उसी प्रश्न को बार-बार पूछते रहते हैं, बिना यह जाने कि यह सवाल वही है। वही सवाल फिर रूप ले लेता है। केवल रूप दूसरा होता है, शब्द दूसरे होते हैं। लेकिन ऐसा क्यों होता है? यह इसलिये होता है क्योंकि प्रश्न पूछनेवाला वही-का-वही बना रहता है। यदि तुम एक प्रश्न का जवाब दे दो, तो वह दूसरा प्रश्न खड़ा करेगा, लेकिन सवाल वही होगा, क्योंकि सवाल पूछनेवाला वही का वही है। वह उसी बात को दूसरे कोण से पूछेगा। कोण में जरा-सा परिवर्तन, और वह सोचेगा कि अब यह दूसरा प्रश्न है।
यह नया प्रश्न नहीं है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है। वह मन जो कि पूछता है, वह महत्वपूर्ण है। तो क्यों पूछता है?
मैंने एक आदमी के बारे मेंसुना है, जिसने कि अपनी पसंद की लड़की से शादी की थी। उसे उससे बड़ा प्रेम था और फिर छःमाह में ही प्रेम विदा हो गया और जीवन एक नर्क बन गया। अतः उसने सोचा कि मैंने एक गलत स्त्री से विवाह कर लिया। हर आदमी यह सोचेगा। इसी भाँति मन काम करता है। उसने यह नहीं सोचा कि मैं एक गलत चुनाव करने वाला हूँ-कि मैंने ही इस स्त्री को चुना है, किसी और ने नहीं। यह कोई नियोजित विवाह नहीं था। जब विवाह नियोजित किया जाता है, तब तुम्हें यह सांत्वना होती है कि तुम चुनाव करने वाले नहीं थे। तुम्हारे पिताजी ने यह गलती की अथवा तुम्हारी माँ ने अथवा किसी और ने-किसी ज्योतिषी ने। लेकिन जब तुम्हीं चुनाव करने वाले होते हो, तभी असली कठिनाई खड़ी होती है।
अमेरिका इस कठिनाई का सामना कर रहा है। कोई दोषी नहीं है। तुमने ही चुना है। तब मन एक तरकीब करने लगता है। वह कहता है कि वह स्त्री गलत थी। उसने धोखा दिया। वह उसका असली चेहरा नहीं था। उसका असली चेहरा तो अब प्रकट हुआ है।
अतः इस आदमी ने तलाक दे दिया। उसने फिर विवाह किया, और तीन महीने में ही वही बात फिर उपस्थित हो गई। स्त्री दूसरी थी, किन्तु गहरे में तो वह वही थी क्योंकि चुनाव करने वाला वही था। उसने आठ शादियाँ की और आठ बार लगातार तलाक दिया, तब जाकर उसे यह बात ख्याल में आने लगी कि हर बार वही स्त्री आ जाती है। वही कि वही स्त्री। क्यों? क्योंकि चुननेवाला तो वही-का-वही है। तुम भिन्न कैसे चुन सकते हो। पसन्द तो वही की वही है।
तुम उसी जाल में फिर से पड़ जाते हो। क्योंकि यदि तुम्हें एक प्रकार की आँखें पसन्द हैं तो वैसी ही आँखें तुम फिर चुन लोगे। और उस प्रकार की आँखें एक खास प्रकार के व्यक्ति की होती है। और यदि तुम्हें कोई खास ढंग पसन्द है, तो वह ढंग किसी खास प्रकार के व्यक्ति का ही होता है। जैसे कि एक खास प्रकार की हँसी होती है, वैसी हँसी हर कोई नहीं हँस सकता। वैसे होंठ, वैसा ढंग वैसी आँखें, वैसी हँसी एक खास प्रकार के मन की होती है। तुम फिर वही आदमी चुन लोगे।
अतः तुम सिर्फ नाम पलटते रहते हो, और फिर-फिर वही का वही व्यक्ति तुम्हारे पास आ जाता है क्योंकि तुम वही के वही हो। इसलिए जब तक तुम अपने को ही तलाक नहीं दो, तब तक कोई तलाक संभव नहीं है। और कोई भी व्यक्ति स्वयं को तलाक देने को राजी नहं है। जब कोई अपने को ही तलाक देने की सोचता है, तभी अध्यात्म की शुरुआत होती है। अतः प्रश्न वही का वही है।
मन की तीन स्थितियाँ सदैव स्मरण रखनी हैं। पहली और अन्तिम एक-सी प्रतीत होती हैं। यदि तुम पहली और दूसरी के बारे में सोचते रहे हो, तो फिर दूसरी चुनने योग्य है। तब पहली को छोड़ो। बचपन को छोड़ो, अज्ञान को त्यागो। अज्ञानपूर्ण सन्तोष की मूर्च्छा को हटाओ। असन्तोष ही चुनो। प्रौढ़ बनो, संघर्ष को चुनो।
लेकिन जब मैं कहता हूँ, ‘चुनो’, तो यह एक सापेक्ष कथन है पहली स्थिति के विरुद्ध। जब मैं कहा हूँ कि दूसरी को छोड़ो, तो मेरा मतलब तीसरी के लिये है। इसलिए मैं कहता हूँ कि सीढ़ी को ऊपर चढ़ने के काम में लो, और सीढ़ी को छोड़ते जाओ। लेकिन हमारा तथाकथित मन कहता है कि यदि सीढ़ी को छोड़ना ही है तो फिर तकीफ ही क्यों उठायें। ऊपर चढ़ो ही मत, उस पर चढ़ो ही मत जहाँ हो वहीं रहो। यात्रा ही क्यों करनी? जब छोड़ना ही है तो पकड़ना ही क्यों? लेकिन यदि उसी मन को धकेला जाये, जबरदस्ती की जाये, तो वह जायेगा। तब मैं कहूँगा कि अब सीढ़ी को छोड़ दो। लेकिन मन कहेगा, क्यों?
ऊँची स्थिति को पहुँचने के लिये तुम्हें रास्तों से गुजरना पड़ता है और उन्हें छोड़ना भी पड़ता है। सीढ़ी का उपयोग करो और फिर उसे छोड़ दो। और हर सीढ़ी, सीढ़ी तभी बनती है जब तुम पहले उससे कदम उठाते हो और फिर पीछे छोड़ देते हो। यदि किसी सीढ़ी को तुम पकड़ लो, तो फिर वह सीढ़ी नहीं है। वह तो पत्थर हो गया-रास्ते का रोड़ा हो गया। इसलिए यह तुम पर निर्भर है। तुम रास्तों, रोड़ों को सीढ़ियाँ बना सकते हो और तुम चाहो तो सीढ़ियों को रोड़े बना सकते हो। यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम किस तरह व्यवहार करते हो।
इसे स्मरण रखो : जो कुछ भी उपयोग में लो, उसे छोड़ना भी पड़ेगा। जो भी उपयोग में लिया जाता है, वह एक उपाय मात्र है, उसे छोड़ना ही पड़ेगा। किन्तु उपयोग करने की प्रक्रिया में ही उससे लगाव पैदा हो जाता है। यह ऐसे ही होता है जैसे कि तुम बीमार हो और तुम कोई दवा लो। बीमारी चली जाये, लेकिन दवा एक समस्या खड़ी कर दे। तब दवा को छोड़ना मुश्किल है। अतः दवा और भी ज्यादा बीमारी साबित हो सकती है, और भी बड़ी बीमारी बन सकती है क्योंकि आदमी उसका आदी हो जाता है। और तब कोई सोचने लगता है कि इस दवा ने मुझे बीमारी के पार जाने में मदद की, अतः यह तो मित्र है। जरूरत के समय जो काम आये वही दोस्त है, अतः इस दोस्त को कैसे छोड़ा जा सकता है।
अब तुम अपने एक मित्र को शत्रु में बदल रहे हो। अब यह दवा एक रोग हो जायेगी। तुम्हें दूसरी दवा की आवश्यकता पड़ेगी-दवा के विरुद्ध दवा की, एंटीडोज़ की। लेकिन तब यह दुष्टचक्र है।
तुम दूसरी चीजों से राग में पड़ते जाते हो। मन वर्तुल में काम करता है और उसी-उसी जगह घूमता चला जाता है। उसे याद रखें। यदि तुम्हारे पैर में कांटा लग गया है तो उसे ूसरे कांटे से निकाला जा सकता है। लेकिन उस दूसरे कांटे को घाव में नहीं रख लेना है कि यह मित्र है, क्योंकि इसने सहायता पहुँचाई।
लेकिन हम यह करते चले जाते हैं। हम दूसरे कांटे को पकड़ लेते हैं बिना यह जाने कि दूसरा कांटा भी उतना ही कंटीला है जितना कि पहला था। वह उससे भी ज्यादा मजबूत होसकता है। इसी कारण वह पहले कांटे को बाहर निकाल सका। अतः वह उससे भी ज्यादा घातक सिद्ध हो सकता है। एक को दूसरे के स्थान पर मत रखो। जब एक बात पूरी हो जाये, तो उसे पूरी हो जाने दो। जंजीर निर्मित मत करो।
यह कठिन है। यह बड़ा मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं है। सजगता से यह सरल हो जाता है। मन पर बहुत विश्वास मत करो। लेकिन स्मरण रहे कि पहले तुम्हें मन ही होना है। पहले मन को निर्मित करो, लेकिन उसमें बहुत विश्वास मत करो। तर्कपूर्ण होओ, लेकिन खुले रहो। जीवन को तर्क की आवश्यकता है, लेकिन जीवन खाली तर्क नहीं है। वह उसके भी पार जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक घर में काम करता था। एक धनवान व्यक्ति के घर में काम करता था। लेकिन नसरुद्दीन एक मुश्किल आदमी था-बहुत तर्कयुक्त। और तर्कयुक्त लोग बड़े कठिन लोग होते हैं। मालिक ने एक दिन कहा कि-‘‘नसरुद्दीन, यह तो बहुत ज्यादा हो गया। मुझे नहीं लगता कि तीन अण्डों े लिये तीन बार बाजार जाने की आवश्यकता है। तुम बड़े गणितज्ञ, बड़े तर्कनिष्ठहो और मैं तुम्हें नहीं समझा सकता। लेकिन फिर भी तीन अण्डों के लिये तीन बार बाजार जाने की जरूरत नहीं है। तुम तीनों को एक साथ भी ला सकते हो। एक बार जाना काफी है।’’
नसरुद्दीन ने अपने को सुधारने का आश्वासन दिया। जब मालिक बीमार पड़ा तो उसने नसरुद्दीन को कहा कि-‘‘जाओ और डॉक्टर को बुला लाओ।’’ नसरुद्दीन गया और एक बड़ी भीड़ को बुला लाया। मालिक ने पूछा कि डॉक्टर कहाँ है? नसरुद्दीन ने जवाब दिया कि मैं डॉक्टर को बुला लाया हूँ और बाकी और लोगों को भी बुला लाया हूँ। मालिक ने पूछा कि ये दूसरे लोग कौन हैं? अतः नसरुद्दीन ने कहा कि यह एलोपेथ है, अंग्रेजी दवाओं का डॉक्टर है। यदि यह असफल हो जाये, तो दूसरे अन्य चिकित्सकों को भी बुला लाया हूँ। और यदि ये सारे लोग भी असफल हो जायें, तो ये आखिरी चार आदमी हैं। और यह आदमी हैं-अन्तिम संस्कार करनेवाले जो कि तुम्हें घर से बाहर ले जायेंगे। ऐसा मन तर्कयुक्त है, कानूनगत है, लेकिन फिर भी मूर्ख है।
मुल्ला नसरुद्दीन अकेला आदमी था अपने गाँव में जो कि पढ़-लिख सकता था। एक दिन एक गाँव का आदमी आया और उसने मुल्ला से एक खत लिखने को कहा। अतः उसने एक पत्र लिख दिया और जब पत्र पूरा हो गया, तो उस आदमी ने मुल्ला से कहा कि अब इसे पढ़कर सुना दो ताकि मुझे पता हो जाये कि कुछ भी नहीं छूट गया है। यह बड़ी कठिन बात थी क्योंकि मुल्ला खुद अपना लिखा नहीं पढ़ सकता था, और उसे पढ़ सकना एक बहुत बड़ी बात थी। अतः मुल्ला ने कहा कि अब तुम एक समस्या खड़ी कर रहे हो।
खैर, उसने कोशिश की, उसने उन टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों की ओर देखा और वह सिर्फ इतना ही पढ़ पाया, मेरे प्यारे भाई। फिर वह बोला कि अब सब गड़बड़ हो गया है। अतः उस आदमी ने कहा, यह तो बड़ी भयानक बात है नसरुद्दीन, क्योंकि जब तुम्हीं इसे नहीं पढ़ सकते तो दूसरा इसे कैसे पढ़ पायेगा? नसरुद्दीन ने कहा, यह हमारा काम नहीं है। हमारा काम है लिखना। अब यह उनका काम है कि इसे पढें़। इसके अलावा यह पत्र मुझे नहीं लिखा गया है, फिर मैं कैसे पढ़ सका हूँ? यह कानून के खिलाफ है।
तर्क, कानून-उनकी अपनी मूर्खताएँ हैं। वे अज्ञान से अच्छी हैं, लेकिन श्रेष्ठतर की तुलना में-वे मूर्खताएँ हैं। जब मूर्खताएँ प्रकट हों तो वे खतरनाक नहीं होतीं। जब वे प्रकट नहीं होतीं तब वे खतरनाक होती हैं।
इसे स्मरण रखें। मन तुम्हें अपने पार जाने में मदद नहीं करता। वह तुम्हें अज्ञान के पार जाने में मदद करता है। वह स्वयं अपने पार जाने में सहायता नहीं देता। और जब तक उसके भी पार नहीं जाओ, तब तक कोई प्रज्ञा नहीं है।

आज इतना ही।  

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