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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-35)

आत्म पूजा उपनिषद--भाग-2

सत्रहवां -प्रवचन

सत्रहवाँ सूत्र

सर्व निरामय परिपूर्णोऽहमस्मीति मुमुक्षणां मोक्षैक सिर्द्धिभवति इत्युपनिषद्।
‘मैं ही वह परिपूर्ण शुद्ध ब्रह्म हूँ’-ऐसा जान लेना ही मोक्षोपलब्धि है।
अस्तित्व दो में बँटा है। अस्तित्व जैसा कि हम देखते हैं, द्वैत है। जैविकरूप से मनुष्य दो में विभाजित है : पुरुष तथा स्त्री। ओण्टोलोजिकली, शुद्ध स्वरूप के सिद्धान्त के आधार पर भी, अस्तित्व दो में बँटा है-मन तथा पदार्थ। चीनियों ने इसे यिन तथा यांग कहा है।
यह द्वैत अस्तित्व के हर क्षेत्र में प्रवेश कर गया है। हम कह सकते हैं कि सेक्स (यौन) अस्तित्व की हर परत में प्रवेश कर गया है। द्वैत सब जगह मौजूद है। यह द्वैत मन के भीतर भी घुस गया है। मन भी दो प्रकार के होते हैं-दो प्रकार की मनोवृत्तियाँ होती हैं : पुरुषगत तथा स्त्रीगत।
तुम दूसरे नाम भी दे सकते हो : पश्चिमी तथा पूर्वी। और भी ज्यादा विशेषरूप से कह सकते हो-ग्राक तथा हिन्दू। इससे भी अधिक वैचारिक तौर से कह सकते हैं कि यह विभाजन दार्शनिक तथा धार्मिक है।
पहले हम ग्रीक तथा हिन्दू मन पर विचार करें क्योंकि उपनिषद हिन्दू मन के शिखर हैं यानी पूर्वी मनोवृत्ति के, अथवा धार्मिक ढंग से अस्तित्व को देखने में उन्होंने ऊँचाइयाँ छुई हैं। यूनानी मन की तुलना में हिन्दू मन को समझना सरल होगा, और ये ही दो बुनियादी मन हैं।
जब मैं कहता हूँ ‘ग्रीक माइंड’-युनानी मन’, तो उससे मेरा क्या मतलब है? मन के द्वैत का यूनानी मन एक पहलू है। यूनानी मत सोचता है, विचार करता है। उसकी पहुँच बौद्धिक है, शाब्दिक है, तार्किक है। हिन्दू मन इसके ठीक उलटा है। वह सोचने में विश्वास नहीं करता। वह अनुभव में विश्वास करता है। वह तर्क में श्रद्धा नहीं करता। वह स्वरूप के भीतर छलांग लगाने में श्रद्धा करता है। ग्रीक मन बाहर खड़े होकर सोचता है-वह एक दर्शक की तरह, एक तमाशबीन की भाँति। ग्रीक माइंड उसमें डूबता नहीं। वह कहता है कि यदि तुम उसमें डूबे, तो फिर तुम वैज्ञानिक ढंग से विचार नहीं कर सकते, तब तुम्हारा अवलोक न्यायपूर्ण नहीं हो सकता, वह पक्षपात पूर्ण होगा। अतः जब कोई सोचता है, तो उसे दर्शक होना चाहिये।
हिन्दू मन कहता है कि अगर तुम बाहर खड़े हो, तो तुम सोच ही नहीं सकते। तब तुम जो भी सोचोगे, जो भी विचार करने का प्रयत्न करोगे वह सब परिधि के बारे में होगा, तब तुम केन्द्र के बारे में कुछ भी न जान सकोगे। तुम तो बाहर खड़े हो। भीतर प्रवेश करो। इतने भीतर प्रवेश करने की आवश्यकता है कि तुम केन्द्र के साथ एक हो जाओ, तभी तुम सही प्रकार से जान सकते हो, अन्यथा बाकी सब सिर्फ परिचय होगा, ज्ञान नहीं होगा।
ग्रीक मन विश्लेषण करता है, उसके लिये विश्लेषण ही साधन है किसी भी चीज के बारे में जानने का। हिन्दू मन संश्लेषण करता है, उसके लिये विश्लेषण विधि नहीं है। टकड़ों में नहीं बाँटना है वरन टुकड़ों में सर्व को ही ढूंढ़ना है। हिन्दू मन टुकड़ों में भी सर्व को खोज रहा है। ग्रीक मन, डेमोक्राइटस में, एटम पर, अणु पर पहुँच जाता है। क्योंकि अगर तुम टुकड़ों को बाँटते ही जाओ, तो आखिर में अणु ही एक वास्तविकता हो जाता है और विभाजित नहीं किया जा सकता। वह आखिरी कण है। हिन्दू मन ब्रह्म की खोज करता है-परम की। यदि तुम संश्लेषण करते ही जाओ तो अन्त में तुम सर्व को, निरपेक्ष को पहुँच जाते हो। यदि तुम बाँटते ही जाओ, तो वह जो आखिरी विभाजन है कण का, वह अणु है। यदि तुम जोड़ते ही चले जाओ, तो फिर वह ब्रह्म है, अन्तिम है, परम है।
यूनानी मन वैज्ञानिक मन में विकसित हो सकता है क्योंकि उसके लिये विश्लेषण सहायक है। हिन्दू मन कभी भी एक वैज्ञानिक मन में विकसित नहीं हो सका क्योंकि संश्लेषण कभी विज्ञान तक नहीं पहुँच सकता। यह धर्म की ओर यात्रा कर सकता है, लेकिन विज्ञान की ओर नहीं। पश्चिमी मन यूनानी बीज से विकसित हुआ है, इसलिए तर्क विचार, तार्किक विश्लेषण-ये सब पश्चिम के लिये आधारभूत हैं।
अनुभव, न कि विचार आधारभूत है-भारतीय मनीषा के लिये। इसलिए मैं कहना चाहूँगा कि हिन्दू मनीषा बुनियादी रूप से अदार्शनिक है-अदार्शनिक नहीं, बल्कि वस्तुतः दर्शनशास्त्र के विरुद्ध-ऐण्टा फिलोसोफिकल। उसका विश्वास विचार में नहीं है, उसका विश्वास अनुभव में है।
तुम प्रेम के बारे में चिन्तन कर सकते हो, तुम उस घटना का विश्लेषण कर सकते हो। तुम एक परिकल्पना भी निर्मित कर सकते हो-उसे समझाने के लिये। तुम एक सिस्टम भी बना सकते हो, उसके बारे में। यह सब करने के लिये तुम्हें स्वयं प्रेम में पड़ने की जरूरत नहीं है। तुम एक बाहरी आदमी रह सकते हो, तुम प्रेम का निरीक्षण कर सकते हो। और तब तुम एक प्रेम की प्रणाली निर्मित कर सकते हो, एक दर्शन। और यूनानियों का कहना है कि यदि तुम स्वयं प्रेम में डूबे, तो तुम्हारा दिमाग गड़बड़ा जायेगा, तुम ठीक से सोच नहीं सकोगे। तब तुम पक्षपात रहित न रह सकोगे। तब तुम्हारा व्यक्तित्व भी तुम्हारे सिद्धान्त में सम्मिलित हो जायेगा, और वह उसके लिये विनाशकारी होगा।
इसलिए तुम्हें ऐसे होना है जैसे तुम नहीं हो। तुम्हें उससे बिल्कुल बाहर ही रहना है। तुम्हें उसमें डूबना नहीं है। प्रेम के बारे में जानने के लिये जरूरी नहीं है कि प्रेम में हुआ जाये। तथ्यों का निरीक्षण करो, सारी रूपरेखा इकट्ठी करो, दूसरों पर प्रयोग करो। तुम्हें सदैव उससे बाहर ही रहना चाहिये, तभी तुम्हारा निरीक्षण तथ्यगत होगा। यदि तुम स्वयं प्रेम में हो तो तुम्हारा निरीक्षण तथ्यगत नहीं होगा। तब तो तुम भी शामिल हो गये, तुम उसके हिस्से हो गये, तुम पक्षपातपूर्ण हो गये।
लेकिन हिन्दू मनीषा कहती है कि जब तक तुम प्रेम में नहीं पड़ोगे, तब तक तुम प्रेम को जानोगे कैसे? तुम दूसरों को प्रेम करते हुए देख सकते हो, लेकिन तब तुम क्या देख रहे हो? केवल प्रेम में पड़े हुए दो आदमियों का व्यवहार। तुम प्रेम को नहीं देख रहे हो, तुम सिर्फ दो प्रेमियों का व्यवहार देख रहे हो। हो सकता है कि वे सिर्फ अभिनय कर रहे हों। तुम नहीं कह सकते कि वे वास्तव में प्रेम में डूबे हैं या सिर्फ अभिनय कर रहे हैं। हो सकता है कि वे अपना असली हृदय छिपा रहे हों। तुम सिर्फ उनके चेहरे देख सकते हो, तुम केवल उनके शब्दों को सुन सकते हो, तुम उनके कृत्यों का अवलोकन कर सकते हो लेकिन तुम उनके हृदय में कैसे प्रवेश कर सकते हो? और यदि तुम उनके हृदय में प्रवेश नहीं कर सकते, तो फिर तुम प्रेम को कैसे जान सकते हो?
कभी-कभी प्रेम बिल्कुल मौन हाता है और कभी-कभी प्रेम की अभिव्यक्ति बड़ी मुखर होती है। अतः तुम हजारों-हजारों प्रेमियों को देख सकते हो, लेकिन फिर भी तुम प्रेम की उस घटना में प्रवेश नहीं कर सकते जब तक तुम स्वयं ही प्रेम में नहीं गिरो।
अतः हिन्दू मनीषा कहती है कि अनुभूति ही एकमात्र मार्ग है, न कि चिन्तन। चिन्तन शब्दिक है, तुम अपनी कुर्सी में बैठे भी चिन्तन कर सकते हो। तुम्हें किसी भी घटनाचक्र में पड़ने की आवश्यकता नहीं। जब मैं कहता हूं कि चिन्तन शब्दिक है तो मेरा मतलब है कि तुम चाहो तो शब्दों से खेल सकते हो। और शब्दों की एक खूबी है कि वे और अधिक शब्दों को निर्मित कर सकते हैं। और शब्दों को एक ढाँचे में रखा जा सकता है, उनसे एक प्रणाली बनाई जा सकती है। जिस तरह कि तुम ताश के पत्तों का एक घर बना सकते हो, उसी तरह तुम शब्दों से एक प्रणाली, एक सिस्टम बना सकते हो। लेकिन तुम उसमें रह नहीं सकते, वह सिर्फ ताश के पत्तों का घर है। तुम अनुभव नहीं कर सकते, यह सिर्फ शब्दों की एक प्रणाली है-केवल शब्दों की प्रणाली।
जयां पाल सार्त्र ने अपनी आत्मकथा लिखी है, और उसने अपनी आत्मकथा को जो नाम दिया है वह बड़ा अर्थपूर्ण है, बड़ा महत्त्वपूर्ण है। उसने अपनी आत्मकथा को कहा है, ‘शब्द’-वर्डस। वह सिर्फ उसकी आत्मकथा ही नहीं है, बल्कि यह सारे पश्चिमी चिन्तन की आत्मकथा है-‘वर्डस’-‘शब्द’।
हिन्दू मनीषा मौन में विश्वास करती है, न कि शब्दों में। यदि हिन्दू मनीषा बात भी करती है तो वह बात भी मौन के बारे में ही करती है। यदि शब्दों का उपयोग भी किया जाता है, तो वह भी शब्दों के विरुद्ध ही किया जाता है। जब तुम शब्दों के द्वारा किसी प्रणाली संगत होनी चाहिये। जब तुम अपने शब्दों में संगत होते हो, तभी तुम अपनी प्रणाली में तार्किक हो सकते हो।
अतः बहुत-सी प्रणालियाँ बनाई जा सकती हैं, और प्रत्येक दार्शनिक अपनी अलग दर्शन-प्रणाली निर्मित करता है-वह अपने शब्दों का जगत बनाता है। और यदि तुम उसकी अवधारणाओं को मान लो, तो तुम उसका विरोध नहीं कर सकते क्योंकि वह सिर्फ एक खेल है-शब्दों का खेल। यदि तुम उसकी सीमाओं को स्वीकार कर लो, तो फिर तुम्हें उसकी पूरी प्रणाली ठीक प्रतीत होगी। उसकी प्रणाली के भीतर एक आंतरिक संगति है।
किन्तु जीवन की कोई प्रणाली नहीं है। इसलिए हिन्दू मनीषा का जोर शाब्दिक प्रणाली पर नहीं है, वरन वास्तविक अनुभव पर है, वास्तविक जानने पर है। इसलिए बुद्ध भी उसी अनुभव पर पहुँचते हैं, वे सब उसी अनुभव पर पहुँचते हैं। उनके शब्दों में अन्तर है, किन्तु उनका अनुव एक ही है।
अतः वे कहते हैं कि चाहे हम कुछ भी कहें और वह दूसरों के वक्तव्य से कितना ही विरोधात्मक हो, जब भी कोई उस अनुभव को प्राप्त होता है, तो वह समान होता है। अभिव्यक्ति भिन्न होती है, न कि अनुभूति। किन्तु यदि तुम्हारा कोई भी अनुभव नहीं है तो फिर कोई मिलन-बिन्दु नहीं हो सकता। मेरा और तुम्हारा अनुभव कहीं पर मिल सकता है क्योंकि अनुभव द्वैत है, किन्तु सत्य एक है।
इसलिए यदि में भी प्रेम का अनुभव करता हूँ और तुम भी प्रेम का अनुभव करते हो, तो मिलन होगा। कहीं-न-कहीं हम एक होंगे। किन्तु मैं बिना प्रेम को जाने प्रेम की चर्चा करूं, तब फिर मैं अपना निजी शब्दों का जाल खड़ा करता हूँ। यदि तुम बिना प्रेम को जाने प्रेम की बात करो तो तुम अपने शब्दों की प्रणाली बनाओगे। ये दो प्रणालियों कहीं भी मिलने वाली नहीं हैं क्योंकि शब्द सपने हैं, सत्य नहीं।
इसे स्मरण रखो : सत्य एक है, सपने एक नहीं हैं। प्रत्येक आदमी की सपने देखने की अपनी क्षमता होती है। सपने बड़े निजी होते हैं। तुम्हारे सपने तुम्हारे हैं, मेरे सपने मेरे हैं। क्या तुम यह कल्पना कर सकते हो कि मैं तुम्हारे सपने देखूँ और तुम मेरे सपने देखो? क्या तुम हम दोनों को सपने में मिलते हुए देख सकते हो? क्या दो आदमी एक ही सपना देख सकते हैं? यह असंभव है। हमारे अनुभव एक हो सकते हैं, लेकिन हम एक ही सपना नहीं देख सकते। और शब्द क्या हैं, शब्द सपने हैं।
इसलिए दर्शनशास्त्र एक दूसरे को काटते रहते हैं, अपने-अपने सिस्टम बनाते रहते हैं, और वे कभी किसी नतीजे पर नहीं पहुँचते। यूनानी मन ने भावात्मक शब्दों में बात सिखाने की चेष्टा की, और हिन्दू मनीषा ने स्पष्ट अनुभव की भाषा में बात की। दोनों के अपने-अपने फायदे और नुकसान हैं क्योंकि यदि तुम अनुभव पर जोर देते हो, तो विज्ञान नहीं हो सकता। यदि तुम तर्क, प्रणाली कारण आदि पर जोर देते हो, तो धर्म असंभव हो जाता है।
यूनानी मन विकसित होकर वैज्ञानिक जगत का दृष्टिकोण हो गया, और हिन्दू मन विकसित होकर धार्मिक हो, तो तुम एक कलाकार के अस्तित्व में झाँक रहे हो। यदि तुम एक दार्शनिक हो, तो तुम एक वैज्ञानिक के जगत में देख रहे हो। एक वैज्ञानिक एक अवलोकनकर्ता है, एक कलाकार एक आंतरिक द्रष्टा है। इसीलिए धर्म और कला एक-दूसरे के प्रति सहानुभूतिपूर्ण हैं, और विज्ञान तथा दर्शन एक दूसरे के प्रति सहानुभूति से भरे हैं। यदि विज्ञान का बहुत विकास हो जाये, तो दार्शनिकता धीरे-धीरे विज्ञान में परिणत हो जायेगी और खो जायेगी।
अब पश्चिम में दर्शन खो गया है, मर चुका है। अब वह केवल धन्धे के रूप में है। वे कहते हैं कि अब केवल प्रोफेसर ही फिलोसोफी की बात करते हैं दूसरे प्रोफेसरों से, अन्यथा फिलोसोफी का अन्त हो गया। वह अब एक मरी हुई चीज़ है-अतीत का हिस्सा है, इतिहास की बात हो गई, अवशेष रह गई। उसमें थोड़ी-सी दिलचस्पी बची है और वह भी केवल ऐतिहासिक रूप से, क्योंकि विज्ञान ने उसकी जगह ले ली है। विज्ञान उसकी संतान है। फिलोसोफी की हेरिटेज है-वंशावली है। विज्ञान उसकी उत्पत्ति है। अब विज्ञान पैदा हो गया और दर्शन का अन्त हो गया।
पश्चिम में धर्म की कोई जड़ें नहीं हैं। काव्य भी मर रहा है क्योंकि वह जिन्दा ही धर्म के साथ रह सकता है। ये जो दो प्रकार के मन हैं, ये दोबिल्कुल अलग ही आयामों में विकसित होते हैं।
जब मैं कहता हूँ कि धर्म काव्य को जन्म देता है, तो मेरा मतलब है कि वह तुम्हें सौन्दर्य का गुण प्रदान करता है। एक ऐसा गुण जिससे जीवन की मूल्यतायें जानी जाती हैं-तथ्य नहीं वरन मूल्य, वह नहीं जो कि हैं, बल्कि वह जो कि होने चाहिये, वह नहीं जो अभी तुम्हारे सामने हैं, बल्कि वह जो कि छुपा हुआ है। यदि तुम ऐसा अतार्किक ढंग, ऐसा सौन्दर्यपूर्ण रुख अपना सको, यदि तुम अपने इस तार्किक मन को फेंककर अस्तित्व में सीधी एक छलांग लगा सको, यदि तुम इस अस्तित्व के सागर के साथ एक हो सको, यदि तुम सागर-रूप हो सको, तभी तुम उसे जानने लगोगे जो कि दिव्य है, डिवाइन है।
विज्ञान तुम्हें तथ्य देता है-मुर्दा तथ्य। धर्म तुम्हें जीवन देता है। वह मुर्दा नहीं है, वह जीवित है। किन्तु वह कोई तथ्य नहीं है, वह एक रहस्य है। तथ्य सदैव मरे हुए होते हैं और जो भी जीवित होता है, वह सदा रहस्यपूर्ण होता है। तुम उसे जानते हो, और नहीं भी जानते हो। वस्तुतः तुम ऐसा अनुभव करते हो। इस अनुभव पर जोर, इस अनुभूति पर जोर, ऐसा जान लेने पर जोर, यही इस उपनिषद का अन्तिम सूत्र है।
यह उपनिषद कहता है, ‘मैं ही वह परिपूर्ण शुद्ध ब्रह्म हूँ, ऐसा जान लेना ही मोक्ष की उपलब्धि है।’ इसके पहले कि हम इस सूत्र में गहरे उतरें, एक बात और समझ लें। तुम्हारे पास तार्किक मन है, पश्चिमी ढंग है-सोचने का, यूनानी रुख है और तब खोज है सत्य की-खो है कि क्या सत्य है। तर्क सत्य की खोज करता है, कि सत्य क्या है।
हिन्दूओं ने सत्य की कभी इतनी चिन्ता नहीं की। कभी भी नहीं। मोक्ष के लिये आतुर रहे। उन्होंने बार-बारयही पूछा कि मोक्ष क्या है। मुक्ति क्या है? न कि सत्य क्या है। और वे कहते हैं कि यदि कोई सत्य की खोज भी कर रहा है, तो वह भी मुक्ति के लिये ही, तब वह भी साधन की तरह है। परन्तु खोज सत्य के लिये नहीं है।
हिन्दू कहते हैं कि जिससे मुक्ति हो, वही पाने योग्य है। यदि वह सत्य है, तोवह ठीक है। किन्तु बुनियादी रूप से खोज मोक्ष के लिये ही है। तुम इस तरह की खोज यूनानी दर्शन में नहीं पा सकते। उसमें किसी का रस नहीं है-न प्लेटो का और न ही अरस्तु का, कोई भी मोक्ष में उत्सुक नहीं है। उनका रस इस बात के जान लेने में है कि सत्य क्या है?
बुद्ध से पूछें, महावीर से पूछें, कृष्ण से पूछें, वस्तुतः वे सत्य में उत्सुक नहीं हैं, उनका संबंध मुक्ति से है-कि मनुष्य चेतना किस तरह पूर्ण मुक्ति को प्राप्त हो जाये। यह फर्क मन के आधारभूत भेद के कारण ह। यदि तुम निरीक्षक हो, तो बाहर के संसार में ज्यादा उत्सुक होओगे और स्वयं में कम, क्योंकि स्वयं के तुम अवलोकनकर्ता नहीं हो सकते। मैं वृक्षों को देख सकता हूँ, मैं इन पत्थरों को देख सकता हूँ, मैं दूसरे लोगों को देख सकता हूँ किन्तु मैं अपने को ही नहीं देख सकता क्योंकि मैं अपने से जुड़ा हूँ। एक अन्तराल, एक गैप नहीं है।
इसलिए पश्चिमी मन स्वयं से उत्सुक नहीं रहा। वह दूसरों में उत्सुक रहा, जब तुम दूसरों में उत्सुक होते हो तब विज्ञान विकसित होता है। यदि तुम वृक्षों में उत्सुक हो, तो तुम उनके बारे में एक विज्ञान निर्मित कर लोगे। यदि तुम्हारा रस पदार्थ में है, तो तुम भौतिक-विज्ञान को पैदा कर लोगे। यदि तुम्हारी उत्सुकता किसी और चीज में है, तो तुम्हारी उस खोज से एक नये विज्ञान का जन्म होगा। यदि तुम स्वयं में उत्सुक हो, तभी केवल धर्म का जन्म होता है। किन्तु स्वयं के साथ एक बुनियादी समस्या खड़ी होती है : कि तुम अपने से अलग देखने वाले नहीं हो सकते क्योंकि देने वाले भी तुम्हीं हो और जिसे देखा जाने वाला है, वह भी तुम्ही हो। इसलिए वह वैज्ञानिक तटस्थता, वह दूरी नहीं रखी जा सकती। वहाँ तुम अकेले हो। और जो भी तुम करते हो, वह विषयीगत है, तुम्हारे भीतर है, विषयगत नहीं है।
जब वह विषयगत नहीं है, तो ग्रीक माइंड एक यूनानी मन डरता है क्योंकि तब तुम रहस्य में यात्रा करते हो। कुछ विषयगत होना चाहिये ताकि जब मैं कुछ कहूँ तो दूसरे उसको देख सकें। बुद्ध अपने जानने को टेबुल पर एक वस्तु की तरह नहीं रख सकते। उसे चीरा-फाड़ा नहीं जा सकता। तुम स्वयं के साथ कुछ भी नहीं कर सकते। तुम्हें बुद्ध के कथन को एक श्रद्धा की भाँति लेना होगा। वे तुमसे कुछ कहते हैं, किन्तु अरस्तु कहेगा कि हो सकता है कि उन्हें कोई भ्रांति हो गई हो। इसका मापदण्ड क्या है? इस बात को कैसे जाना जाये कि उन्हें भ्रान्ति नहीं हुई है? शायद वे धोखा दे रहे हों। कैसे जानें कि वे धोखा नहीं दे रहे हैं? वे सपना देख रहे हों। कैसे जानें कि वे एक वास्तविकता को जान गये हैं, और सपना नहीं देख रहे हैं? वास्तविकता, विषयगत होनी चाहिये।
इसी कारण विज्ञान एक है और इतने सारे धर्म हैं। यदि कोई बात सच है तो विज्ञान में दो सिद्धान्त, दो थ्योरीज़ एक साथ नहीं हो सकतीं। आगे-पीछे एक सिद्धान्त को गिराना पड़ेगा। चूँकि जगत विषयगत है, तुम यह तय कर सकते हो कि कौन-सा सिद्धान्त सही है। दूसरे उस पर प्रयोग कर सकते हैं, और तुम अपने-अपने निष्कर्ष मिला सकते हो।
इतने धर्म हो सके क्योंकि उसका जगत विषयीगत है, एक आंतरिक जगत है। कोई विषयगत जाँच-पड़ताल संभव नहीं है। बुद्ध के सबूत स्वयं बुद्ध ही हैं। वे जो भी कह रहे हैं, उसके साक्षी वे स्वयं ही हैं। इसीलिए विज्ञान के जगत में संदेह उपयोगी है, धर्म के जगत में वही बाधा बन जाता है। धर्म श्रद्धा की बात है, क्योंकि कोई बाहरी सबूत संभव नहीं है।
बुद्ध कुछ कहते हैं, यदि तुम उसमें भरोसा करते हो, तो ठीक है, अन्यथा उनसे कोई संवाद नहीं हो सकता, कोई मिलन संभव नहीं हो सकता। केवल एक ही संभावना है वह यह है : यदि तुम बुद्ध का भरोसा करते हो, तो तुम उसी पथ पर चल सकते हो, तुम उसी अनुभव पर पहुँच सकते हो। लेकिन फिर वह वैयक्तिक तथा निजी हो जाता है, फिर तुम ही तुम्हारे गवाह रहते हो। तुम इतना भी नहीं कह सकते कि मैंने वही उपलब्ध कर लिया है जो कि बुद्ध ने पाया था, क्योंकि तुलना कैसे की जाये?
इसे इस भाँति सोचो : मैं किसी को प्रेम करता हूँ, तुम भी किसी को प्रेम करते हो। हम कह सकते हैं कि हम दोनों प्रेम करते हैं। लेकिन मुझे कैसे पता चले कि मेरे प्रेम का अनुभव तुम्हारे प्रेम के अनुभव के जैसा ही है? उनकी तुलना कैसे करें, उनको कैसे तोलें? यह कठिन है। प्रेम एक जटिल बात है। उससे भी ज्यादा सरल चीजें हैं, वे भी कठिन हैं। जैसे, मैं एक वृक्ष को देखता हूँ, और मैं उसे हरा कहता हूँ। तुम भी उसे हरा बतलाते हो, लेकिन मेरा हरा और तुम्हारा हरा एक जैसे नहीं हो सकते हैं
क्योंकि मेरी आँखें भिन्न हैं, रुख भिन्न है, मन का भाव भिन्न है।
जब एक चित्रकार एक वृक्ष को देखता है, तो वह वैसा ही हरा नहीं होता जैसा कि तुम देखते हो क्योंकि एक कलाकार की आँख तुमसे ज्यादा संवेदनशील है। जब तुम देखते हो, तो एक ही हरा-रंग होता है। लेकिन जब कोई कलाकार उस वृक्ष को देखता है, तो वह एक साथ कितनेही हरे रंग देखता है-हरे रंग की बहुत सी छायायें-शेड्स होते हैं। जब एक वानगॉग एक वृक्ष को देखता है तो वह वही वृक्ष नहीं होता जो कि तुम देखते हो। अब इस बात की तुलना कैसे करें कि मैं भी वही हरा रंग देख रहा हूँ जो कि आप देख रहे हैं? यह बहुत कठिन है। एक तरह से असंभव है। तो फिर बुद्ध के निवार्ण की, महावीर के मोक्ष की और कृष्ण के ब्रह्म की तुलना कैसे करें? उन्हें कैसे तौलें?
हम जितने गहरे जाते हैं, उतनी ही चीजें वैयक्तिक हो जाती हैं। जितने गहरे हम जाते हैं उतनी ही जाँच करने की संभावना कम होती है। और अन्त में कोई इतना ही कह सकता है कि मैं ही एकमात्र मेरे स्वयं का गवाह हूँ। यूनानी मन डरता है। यह खतरनाक जगह है। तब तुम धोखे में पड़ सकते हो, तब तुम धोखा देने वालों के शिकार हो सकते हो। इसीलिए वे विषय पर जोर देते चले जाते हैं। ‘सत्य क्या है’ यही उनकी खोज है। इसलिए विषयगतता पर ही पहुँचना अनिवार्य है।
हिन्दू मन कहता है कि हम सत्य में उत्सुक नहीं हैं। हम मनुष्य की मुक्ति में उत्सुक हैं। हमारी उत्सुकता तो उस आंतरिक मुक्ति में हैं जहाँ कि कोई बंधन नहीं होता, कोई सीमा नहीं होती, जहाँ कि चेतना असीम हो जाती है। जब तक मैं ही सर्व नहीं हो जाऊँ, मैं मुक्त नहीं हो सकता। जो भी मैं नहीं हूँ, वही मेरे लिये रुकावट हो जायेगी। इसलिए जब तक कि कोई ब्रह्म ही न हो जाये, तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता।
यह पूर्वीय खोज है। इसका भी चिंतन कि जा सकता है। तुम इसके बारे में विचार कर सकते हो, तुम इस पर विचार-दर्शन आदि की बातें कर सकते हो।
यह सूत्र कहता है, ‘मैं ही वह परिपूर्ण ब्रह्म हूँ’-‘ऐसा जानना’ न कि इस पर ‘विचार करना, चिंतन करना’। क्योंकि तुम चाहो, तो विचार कर सकते हो और तु बड़ी सुन्दरता से विचार कर सकते हो, और तुम अपने ही विचार के शिकार भी हो सकते हो। सोचने विचारने की बात नहीं है, बल्कि ऐसा :जानना’ ही मुक्ति की उपलब्धि है। विचार करने तथा जानने के अन्तर को ठीक से समझ लेना।
साधारणतः प्रत्येक चीज उलझी हुई है और हमारे मस्तिष्क साफ नहीं है। एक आदमी परमात्मा के बारे में सोचता है, इसलिए वह सोचता है कि वह धार्मिक है। वह धार्मिक नहीं है। तुम जन्मों तक सोचते रह सकते हो किन्तु तुम धार्मिक नहीं हो सकते, क्योंकि सोचना दिमाग का हिस्सा है, बौद्धिक है। वह शब्दों से होता है। जीवन अस्पर्शित रह जाता है। इसलिए तुम पश्चिम में आदमी को देखो, वह जीवन के ऊँचे मूल्यों के बारे में सोच सकता है, और फिर भी वह जीवन के निम्नतम स्तर पर रह सकता है। वह प्रेम के बारे में सोच सकता है, प्रेम के सिद्धान्त बना सकता है, और उसके जीवन में देखो तो प्रेम का कोई पता नहीं। शायद यही कारण हो सकता है, चूँकि उसके जीवन में कोई प्रेम नहीं, वह उसे सिद्धान्तों से तथा सोच-विचार से पूरा करता जाता है।
इसी कारण पूर्व का जोर है कि चाहे तुम कुछ भी सोचो, जब तक कि तुम उसे जिओ नहीं, वह बेकार है। अन्ततः जीवन अर्थपूर्ण है, और चिन्तन उसके लिये परिपूरक नहीं हो सकता। लेकिन तुम जाओ, चारों ओर धार्मिक लोगों कोबल्कि धार्मिक संतों को देखो। वे केवल सोच रहे हैं। चूँकि वे ब्रह्म के बारे में विचार करते रहते हैं, ब्रह्म की चर्चा करते रहते हैं, वे सोचते हैं कि वे धार्मिक लोग हैं
धर्म इतना सस्ता नहीं है। तुम चाहो तो चौबीस घंटे विचार कर सकते हो, उससे तुम धार्मिक नहीं हो जाओगे। जब मन थक जाये और जीवन उसकी जगह ले ले, जब तक कि वह विचार नहीं वरन तुम्हारा जीवन ही न हो जाये-तुम्हारी हृदय की धड़कन ही न बन जाये, जब तुम्हारा दिल भी उसके साथ धड़कने लगे, तभी वह जानना है। और ऐसा जान लेना ही मोक्ष की उपलब्धि है, मुक्ति है। जब तक कि यह अनुभव कर लेता है कि मैं ही वह परिपूर्ण ब्रह्म हूँ, (अनुभव शब्द को याद रखें), जबकि कोई परिपूर्ण ब्रह्म के साथ एक हो जाता है, तो यह केवल उसके मस्तिष्क में केवल धारणा ही नहीं होती। अब वह स्वयं वही है, तभी वह मुक्त है। तब मोक्ष की, मुक्ति की उपलब्धि होती है।
क्या करना चाहिये? कैसे उसे जियें? यह सारा उपनिषद इस अन्तिम लक्ष्य को कितने ही कोणों से पहुँचने के लिये एक प्रयास था। अब यह आखिरी सूत्र है।
यह आखिरी सूत्र कहता है कि तुम सारे उपनिषद को पढ़ गये किन्तु यदियह सिर्फ तुम्हारा विचार ही रहा, यदि तुम केवल इसके बारे में विचार ही करते रहे, तो चाहे यह कितना भी सुन्दर रहा हो, जब तक कि तुम इसे अनुभव न कर लो, जान ही न लो, तब तक यह असंगत है।
यदि तुम एक ही बात को बार-बार दोहराते हो, तो मन तुम्हें धोखा दे सकता है। तुम्हें ऐसा लगने लगता है कि तुमने उसे पा लिया। यदि तुम सुबह से शाम तक यही दोहराते रहो कि सब जगह ब्रह्म है, मैं ही ब्रह्म हूँ-अहं ब्रह्मास्मि, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ब्रह्म से एक हूँ। यदि तुम इसे दोहराते ही जाओ, तो इस दोहराने से एक प्रकार का आत्म-सम्मोहन पैदा हो जायेगा। तुम्हें ऐसा महसूस होने लगेगा-बल्कि तुम ऐसा सोचने लगोगे कि तुम्हें प्रतीत हो रहा है कि तुम ब्रह्म हो।
यह वंचना है, इससे कुछ भी न होगा। अतः क्या करें? सोचने से न होगा। तो फिर कैसे जिये? कहाँ से शुरू करें? कुछ बिन्दु : पहली बात यह स्मरण रखें कि यदि कोई बात तुम्हें तर्क से ठीक लगे, तो यह जरूरी नहीं है कि वह सही है। यदि मैं तम्हें तर्क से कोई बात कनविन्स कर दूँ, तो इसका यह मतलब नहीं है कि वह बात ठीक है। तर्क अंधेरे में टटोलना हे, जड़ों का पता नहीं है। तर्क तुम्हें जड़ों के स्थान पर परिपूरक दे देता है।
एक रात, ठीक आधी रात के समय दो आदमी मुल्ला नसरुद्दीन के घर सामने लड़ रहे थे। वे कुछ शोर-शराबा मचा रहे थे, और मुल्ला को नींद आनी कठिन हो गयी थी। रात सर्द थी। वह इंतजार करता रहा लेकिन सब बेकार गया। शोर चालू रहा, अतः मुल्ला अपने एक कम्बल समेत ही निकलकर बाहर गया। उसने उसे ठीक से अपने चारों ओर लपेटा और बाहर निकला और उसने उन्हें समझाने की कोशिश की। तब दोनों में से एक ने मुल्ला का कम्बल पकड़कर खींचा और वे दोनों भाग गये।
मुल्ला वापस लौट आया। उसकी बीवी ने पूछा कि मुल्ला, झगड़ा किस बात पर हो रहा था? किस बात पर इतनी लड़ाई हो रही थी? नसरुद्दीन ने कहा, ‘‘मुझे सोचना पड़ेगा, मुझे इस पर विचार करना पड़ेगा। यह मामला बड़ा जटिल है।’’ अतः जब वह सोचने लगा, तो उसकी बीवी ने फिर पूछा, ‘‘बताओ भी। तुम इतनी देर से सोच रहे हो। एक घंटा बीत गया, मुझे बताओ कि मामला क्या था, ताकि मैं सो जाऊँ?’’मुल्ला ने कहा, ‘‘ऐसा लगता है कि कम्बल के विषय में बात थी, क्योंकि जब उन्हें कम्बल मिल गया, तोझगड़ा बन्द हो गया। लगता है, मेरा कम्बल उनकी बहस का विषय था, क्योंकि जैसे ही उन्हें कम्बल मिला, उनकी लड़ाई खत्म हो गई और वे भाग गये।’’
सारा तर्क अंधेरे में काम कर रहा है। तुम्हें कुछ भी पता नहीं कि क्या हुआ, क्यों हुआ है। फिर भी हम सोचते रहते हैं और तब मन को एक बेचैनी लगती है जब तक कि वह कारण नहीं जान लेता है। अतः जब भी तुम्हें लगे कि कारण तुम्ळारे पास है मन शान्त हो जाता है। तब मुल्ला नसरुद्दीन को आराम से नींद आ गई।
सारा जीवन एक रहस्य है, सब कुछ अज्ञात है। किन्तु हम उसे ज्ञात बना लेते हैं। उस तरह वह ज्ञात तो नहीं बन जाता है किन्तु हम उस पर लेबल लगाते जाते हैं, और तब हम आराम से हो जाते हैं। तब हमने एक ज्ञात जगत बना लिया, तब हमने एक ज्ञात जगत का द्वीप निर्मित कर लिया, इस बड़े अज्ञात रहस्य के बीच यह लेबल लगा हुआ संसार हमें बड़ा आराम देता है, इसमें हमें सुरक्षा लगती है। चीजों को लेबल देने के अलावा ज्ञान है भी क्या?
तुम्हारा छोटा बच्चा पूछता है कि यह क्या है? तुम कहते हो कि यह एक कुत्ता है। अतः वह दोहराता है कि यह कुत्ता है। फिर यह लेबल, यह नाम उसके मन में जम जाता है। अब उसे लगने लगता है कि वह कुत्तों को जानता है। यह तो सिर्फ नाम है। जब कोई लेबल नहीं था तो बच्चा सोचता था कि वह कुछ अज्ञात चीज है। अब एक लेबल लगा दिया गया, ‘कुत्ता’। अतः बच्चा दोहराता चला जाता है, ‘कुत्ता, कुत्ता।’ अब जैसे ही वह इस प्रकार के जानवर को देखता है वैसे ही उसके मन में शब्द आ जाता है-कुत्ता। तब उसे लगता है कि वह जानता है।
क्या किया तुमने? तुमने सिर्फ एक अज्ञात वस्तु को नाम दे दिया। और यही हमारा सारा ज्ञान है। जो तथा कथित बौद्धिक ज्ञान है वह सिर्फ लेबलिंग है, नामकरण है। क्या जानते हो तुम? तुम किसी खास चीज को कहते हो प्रेम और फिर तुम सोचने लगते हो कि तुमने उसे जान लिया। हम सिर्फ लेबल लगाते जाते हैं। किसी भी चीज पर लेबल लगाओ, और तुम आराम से हो जाते हो। किन्तु थोड़ा गहरे जाओ, थोड़े गहरे प्रवेश करो, लेबल के पार और वहाँ अज्ञात खड़ा है। तुम अज्ञात से घिरे हो।
तुम किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी कहते हो, अपना पति कहते हो, अपना बेटा कहते हो। तुमने लेबल लगा दिया, अब कोई तकलीफ नहीं है। लेकिन फिर से तुम्हारी पत्नी का चेहरा देखो, लेबल को हटाओ, लेबल के पार प्रवेश करो, और वहाँ अज्ञात छुपा है। और अज्ञात हर क्षण प्रवेश करता रहता है, लेकिन तुम उसे हटाते जाते हो, धक्के देते रहते हो। तुम कहते हो कि लेबल के अनुसार व्यवहार करो।
और हर एक आदमी ही लेबल के अनुसार व्यवहार कर रहा है। हमारा सारा समाज एक लेबल का संसार है-हमारा परिवार, हमारा ज्ञान। इससे काम नहीं चलेगा। एक धार्मिक चित्त जानना चाहता है, अनुभव करना चाहता है। लेबल का कुछ उपयोग नहीं है। अतः अपने चारों ओर अज्ञात को अनुभव करो, लेबल को छोड़ो। यही अर्थ है अनसीखा करने का कि जो भी तुमने सीख लिया है, उसको भूल जाओ। तुम फिर से अपनी पत्नी की ओर देखो तो ऐसे देखना कि जैसे किसी अज्ञात की ओर देख रहे हो। लेबल को हटाकर देखना। तब तुम्हें बड़ा विचित्र अनुभव होगा।
एक वृक्ष की ओर देखो। जिसके पास से कि तुम रोजाना गुजरे हो। वहाँ एक क्षण के लिये रुको, वृक्ष की ओर देखो। वृक्ष का नाम भी भूल जाओ, उसे अलग रख दो। उसे सीधा ही देखो, और अचानक तुम्हें एक विचित्र अनुभव होगा। हम अज्ञात सागर के बीच रह रहे हैं। कुछ भी ज्ञान नहीं है, केवल लेबल लगे हैं। यदि तुम अज्ञात को अनुभव करने लगो, तभी केवल जानना, बोध सींव है। तुम ज्ञान को फेंको, केवल तभी जानना हो सकता है। तुम अपने-अपने ज्ञान को मत पकड़ो, क्योंकि उसे पकड़ने का अर्थ होता है, अपने मन को पकड़ना, दर्शनशास्त्र को पकड़ना। सब लेबलों को फेंको। सारे नामों, लेबलों को नष्ट कर दो।
मेरा मतलब यह नहीं है कि तुम अराजकता पैदा कर दो। मेरा यह अर्थ नहीं है कि तुम पागल हो जाओ। लेकिन इस बात को भली-भाँति जान लो कि यह जो नामों का संसार है, यह आदमी का बनाया गया एक झूठा संसार है, मन का निर्माण है। अतः उसका उपयोग करो। यह एक उपाय है, अतः अच्छा है कि उसका उपयोग करो। इसकी उपयोगिता है। लेकिन उसके ही द्वारा पकड़ मत लिये जाओ। उससे बाहर भी कभी-कभी निकलो। कभी-कभी अपने ज्ञान की सीमा के बाहर भी यात्रा करो। चीजों को मन के बिना अनुभव करो। क्या तुमने कभी किसी भी चीज को अपने मन के बिना अनुभव किया है, बिना मन के भीतर महसूस किया है? हमने कुछ भी ऐसा अनुभव नहीं किया है।
एक दिन किसी ने मुल्ला नसरुद्दीन को कुछ मांस दे दिया। मुल्ला के एक मित्र ने उसे थोड़ा मांस दिया और उसे पकाने के लिये एक किताब दे दी। मुल्ला तो बड़े मजे में घर आ रहा था। तभी एक चील ने मांस पर झपट्टा मारा और लेकर उड़ गई, किन्तु मुल्ला चील पर हँसा और बोला-कोई बात नहीं, ठीक है। अपे को बहुत बुद्धिमान समझने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तुम इस मांस का करोगी क्या? पकाने की किताब तो मेरे पास है। पकाने के शास्त्र की किताब ज्यादा महत्वपूर्ण है-बजाय मांस के। तब तुम मांस का क्या करोगी? ओ मूर्ख। पकाने की किताब तो अभी भी मेरे पास है।
हम सबके पास अपना पाक शास्त्र है, वही हमारा ज्ञान है। मन ही हमारा पाक-शास्त्र है, वह सदैव हमारे साथ है। और सारा जीवन हमसे छीन लिया गया है, केवल पाकशास्त्र ही बचा है।
तुम एक वृक्ष के पास जाते हो। तुम कहते हो ठीक है, यह एक आम का वृक्ष है। बस बात खत्म हो गई। आम का वृक्ष तुम्हारे लेबल लगाने के साथ ही समाप्त हुआ। अब तुम्हें उसकी चिन्ता करने की जरूरत नहीं। एक आम का वृक्ष एक विराट अस्तित्व है। उसका अपना जीवन है, उसकी अपनी प्रेम-लीला है, अपना काव्य है। उसके अपने अनुभव हैं। उसने बहुत-सी सुबह और बहुत-सी सुबह और बहुत-सी शामें देखी हैं। बहुत सी रातें जीयी हैं। उसके इर्द-गिर्द बहुत कुछ घटा है और उस पर अपने हस्ताक्षर छोड़े हैं। उसकी अपनी प्रज्ञा है। उसकी पृथ्वी में जड़ें गहरी गई हैं। उसने तुमसे ज्यादा पृथ्वी का अनुभव किया है।
और फिर सूरज उगता है... ! किन्तु तुम्हारे लिये उसका कुछ भी अर्थ नहीं क्योंकि वो भी एक लेबल लगी चीज है। लेकिन एक आम के वृक्ष के लिये यह सिर्फ सूरज का उगना ही नहीं है। उसमें भी कुछ उगता है। आम का वृक्ष जीवन्त हो जाता है। उसका खून तीव्र गति से दौड़ने लगता है।
हर पत्ता जिन्दा हो जाता है। वह प्रस्फुटित होने लगता है। हम भी हवाओं को जानते हैं, किन्तु हम अपने घरों में सुरक्षित रहते हैं। यह वृक्ष तो खुले में है। उसने हवाओं को दूसरे ही ढंग से जाना है। इसने उनकी आत्यंतिक संभावनाओं को छुआ है। किन्तु हमारे लिये यह सिर्फ एक आम का वृक्ष है। बस, इतने में यह समाप्त हो गया। हमने इस पर लेबल लगा दिया ताकि हम आगे बढ़ सकें।
उसके पास थोड़ी देर रुको। भूल जाओ कि यह आम का वृक्ष है क्योंकि ‘आम का वृक्ष’ तो खाली एक शब्द है। इससे कुछ भी अभिव्यक्त नहीं होता। भूलो शब्द को। भूलो, जो भी तुमने किताब में अब तक पढ़ लिया है। भूलो अपने पाकशास्त्र को। इस वृक्ष के साथ थोड़ी देर रहो, और यह तुम्हें किसी भी मंदिर से अधिक धार्मिक अनुभव प्रदान करेगा। क्योंकि मंदिर, कोई भी मंदिर अन्ततः आदमी का बनाया हुआ है। वह एक मुर्दा चीज है। इसे स्वयं अस्तित्व ने निर्मित किया है। अभी भी यह एक ऐसी चीज है जो कि अस्तित्व के साथ एक है। इसके द्वारा अस्तित्व हरा हुआ है, खिला है और फलों से लदा है।
इसके साथ रहो, इसके साथ जीयो। वह ध्यान होगा, वृक्ष भी नहीं होगा। सिर्फ अस्तित्व होगा। और जब यह होता है कि वृक्ष आम का वृक्ष भी नहीं होगा। सिर्फ अस्तित्व होगा। और जब यह होता है कि वृक्ष आम का वृक्ष नहीं होगा। सिर्फ अस्तित्व होगा। और जब यह होता है कि वृक्ष आम का वृक्ष नहीं रह जाता, यहाँ तक कि वृक्ष भी नहीं रहता, बल्कि सिर्फ एक ‘होना’ रह जाता है, एक अस्तित्व हो जाओगे। और केवल दो अस्तित्व ही मिल सकते हैं। और तब गहरे में मिलन होता है। तब तुम मुक्ति का अनुभव करते हो। अब तुम मार्ग जानते हो। अब तुम्हें गुप्त मार्ग का पता चल गया कि अस्तित्व से एक कैसे हुआ जाता है।
अतः इस सूत्र को पुनरुक्त करके कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’-कि ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’ इससे कुछ भी न होगा। इसे समझो कि यह शाब्दिक अर्थ है। इस अस्तित्व के भांति हो जाओ। अपनी संस्कृति, अपनी शिक्षा, अपने शास्त्र, अपना धार्मिक दर्शन लेकर इसके निकट न जाओ। इसके निकट तो एक नग्न बच्चे की भाँति जाओ, जिसे कुछ भी पता नहीं। तब यह तुम्हारे भीतर प्रवेश करता है, तब तुम इसमें प्रवेश करते हो। तभी मिलन होता है और वह मिलन ही समाधि है।
और एक बार सारा अस्तित्व तुम्हारी नसों के अनुभव में आ जाये, तब तुम इस सारे अस्तित्व पर फैल जाओ, तब यह सूत्र कहता है कि ‘यही मोक्ष की उपलब्धि है’। इसे जानना, इसके बारे में चिंतन मत करना।
अतः यह जानना ही एक गहरा मिलन है, एक कम्यूनियन है, एक होना है। क्या है कठिनाई? हम क्यों इस अस्तित्व से बाहर छूट जाते हैं? यह अहंकार क्यों दे रहे हैं? मेरा एक लक्ष्य है और वह है परमात्मा। प्रेम मेरे लिये नहीं है, यह सारा जगत मेरे लिये नहीं है।’’
रामानुज ने कहा, ‘‘तब यह असम्भव है, क्योंकि तुम अभी पिघलना ही नहीं जानते। और तुम्हारे लिये परमात्मा के पास पहुँचना बहुत कठिन होगा। यदि तुमने प्रेम जाना है, चाहे जरा-सा ही जाना हो, तो तुमने बाधा तोड़ दी, तो तुमने दीवार गिरा दी। तब तुमने पार देखा। वह चाहे एक झलक ही क्यों न हो, लेकिन तब उसमें कुछ जोड़ा जा सकता है और वह एक झलक भी दर्शन बन सकती है। किन्तु तुम कहते हो कि तुम प्रेम को जरा भी नहीं जानते। तुम उसका पूर्णतया निषेध करते हो। तब मुझे पता नहीं कि तुम्हारी सहायता कैसे करूँ कि तुम परमात्मा की ओर जा सको क्योंकि यह तो मामला ही प्रेम का है।’’
और सचमुच, यही होता है। यदि तुम एक व्यक्ति को प्रेम करो, तो उस प्रेम के क्षण में वह व्यक्ति तो खो जाता है और उसकी जगह परमात्मा आ जाता है। उसे नहीं जानना असंभव बात है। मैं अपनी भाषा में कहूँ-यदि तुमने प्रेम को जाना हो, तो परमात्मा को न जानना असंभव हो जाता है। क्योंकि प्रेम के क्षण में तुम मानव बिल्कुल नहीं रह जाते। तुम पिघल गये, और उस पिघलने में ही दूसरा भी मानव की भाँति खो गया। वह परमात्मा का ही बढ़ा हुआ हाथ हो गया। किन्तु यदि तुमने प्रेम को नहीं जाना, तो फिर दो व्यक्तियों की सर्द मुलाकात होती है : पिघलना नहीं होता, सिर्फ एक ठंडी मृत मुलाकात होती है, बजाय मिलन के एक सर्द तार्किक मुलाकात, द्वन्द्व। मिलन नहीं, बस आमना-सामना।
अतः प्रेम की भाषा सीखो और तर्क की भाषा को अनसीखा करो। तुम्हें कोई भी सिखा नहीं सकता क्योंकि प्रेम सिखाया ही नहीं जा सकता। यदि तुम अपने मन से ऊब गये हो, यदि वह काफी हो गया है, तो उसे फेंको, अपने को हलका करो और अचानक तुम जीवन में गति करने लगते हो। मन का होना भी जरूरी है और फिर उसे फेंक भी देना पड़ता है। यदि मन को फेंक दो, तभी केवल तुम जानोगे कि ‘मैं ही वह परिपूर्ण शुद्ध ब्रह्म हूँ’। क्योंकि मन ही है एकमात्र बाधा। मन के कारण ही तुम सीमित हो, सीमा में हो।
यह इस प्रकार से है : तुमने रंगीन चश्मा पहना है, तो यह सारा संसार नीला दिखलाई पड़ता है। यह नीला है नहीं, यह सिर्फ तुम्हारा चश्मा नीला है। तब मैं कहता हूँ, ‘यह संसार नीला नहीं है, अतः अपने चश्मे को फेंको और पुनः संसार को देखो। किन्तु तुम्हें तुम्हारी आँखों में और चश्मे में अन्तर मालूम नहीं पड़ता। तुम चश्मा पहने हुए ही पैदा हुये थे, इसलिए तुम्हें पता ही नहीं चलता कि कहाँ तुम्हारा चश्मा खत्म होता है और ‘मैं’ शुरू होता है।’
तुम सदा सोचते रहे कि तुम्हारे चश्मे ही तुम्हारी आँखें हैं। यही एकमात्र समस्या है कि तुम्हारे विचार ही तुम्हारी जिन्दगी हैं। यही समस्या है-तादात्म्य की समस्या। तुम्हारा विचार ही तुम्हारी जिन्दगी हैं। यही समस्या है। मन चश्मे की तरह है। इसी कारण एक हिन्दू, संसार की ओर एक दूसरी दृष्टि से देखता है और एक मुसलमान दूसरी दृष्टि से देखता है, और एक ईसाई और भी दूसरी तरह से देखता है क्योंकि उनके चश्मे भिन्न-भिन्न है। अपने चश्में फेंक दो, और तब पहली बार तुम्हें अपनी आँखें फिर से मिलेंगी। भारत में हमने इसे दर्शन कहा। यह आँखों को पुनः पा जाना है।
हमारे पास आँखें हैं, किन्तु ढकी हैं। हम उसी तरह से संसार में चल रहे हैं, जैसे तांगे के आगे लगे हुये घोड़े चलते हैं। उनकी आँखों के दोनों तरफ परदा लगा दिया जाता है। उन्हें सिर्फ सामने ही देखना चाहिये क्योंकि यदि घोड़े ने चारों ओर इधर-उधर देखना शुरू किया तो चालक के लिये कठिनाई खड़ी हो जायेगी। तब वह इधर-उधर कहीं भी दौड़ने लगेगा। इसलिए घोड़े को सिर्फ सामने ही देखने दिया जाता है ताकि उसका संसार सीधी रेखा में हो। इससे उसका संसार तीन आयामी नहीं रहता है, वह सब ओर नहीं देख सकता। सारा अस्तित्व खो जाता है सिवा बाजार के। और वह एक मृत बाजार है क्योंकि बाजार जिन्दा नहीं हो सकते। वह सिर्फ एक मुर्दा बाजार है, मुर्दा सड़क है।
घोड़े सिर्फ सड़क देख सकते हैं, यह उपयोगिता की बात है। आदमी ने भी अपने को ऐसे ही ढाल दिया है, उपयोगिता के मार्ग पर निर्मित कर लिया है। मन के साथ जीना एक उपयोगिता की बात है न कि जीवन के साथ जीना, क्योंकि जीवन बहु-आयामी है। कोई नहीं जानता कि वह तुम्हें कहाँ ले जायेगा। अतः एक पक्की सड़क बनाओ। अपनी आँखों को बन्द कर लो, पक्के चश्मे चढ़ा लो और फिर सड़क पर चलो। लेकिन तुम जा कहाँ रहे हो? यह सड़क सदैव मृत्यु की ओर ले जाती है, और तो यह कहीं भी नहीं जाती। यह मौत का रास्ता है। ऐसा कहा जाता है कि हर एक सड़क रोम जाती है, लेकिन यह सत्य तभी हो सकता है यदि रोम का अर्थ मृत्यु होता हो, वरना यह सत्य नहीं हो सकता।
हर एक सड़क मृत्यु को पहुँचाती है। यदि तुम्हें जीवन चाहिये, तो फिर जीवन के लिये कोई सड़क तय नहीं है। जीवन तो यहीं और अभी है, बहु-आयामी, चारों तरफ फैला। यदि तुम्हें जीवन में गति करना है, तो अपने चश्मे उतार फेंको, अपनी धारणाओं को छोड़ो। अपने विधि-विधानों, अपने विचारों, अपने मन को त्यागो। जीवन में जन्म लो अभी और यहीं, इस बहु-आयामी जीवन में, जो कि चारों ओर फैला है, तब तुम केन्द्र बनोगे और सारा जीवन तुम्हारा होगा, न कि एक खास सड़क। तब यह सारा जीवन तुम्हारा होगा। जो भी इसमें होगा, वह सब तुम्हारा ही होगा।
यही जानना है, बोध है : कि मैं ही वह परिपूर्ण शुद्ध ब्रह्म हूँ। तुम किसी और सड़क से उस ब्रह्म को नहीं पहुँच सकते। वह मार्ग, मार्ग-विहीन है। यदि तुम एक मार्ग का अनुगमन करो, तो तुम किसी चीज़ पर पहुँचोगे किन्तु वह सब कुछ नहीं होगा। कैसे एक मार्ग तुम्हें सर्व पर पहुँचा देगा? एक मार्ग तुम्हें किसी एक चीज़ पर पहुँचायेगा, किन्तु सर्व पर नहीं। यदि तुम्हें सब कुछ चाहिये, तो सारे मार्गों को छोड़ो, अपनी आँखें खोलो, और चारों ओर देखो। सर्व यहाँ उपस्थित है। इसे देखो और इसमें पिघलो क्योंकि पिघलना ही तुम्हें एकमात्र ज्ञान, बोध प्रदान करेगा। पिघलो उसमें, डूबो उसमें।
इस तरह यह आत्मपूजा उपनिषद समाप्त होता है। यह आखिरी सूत्र था, उपनिषद यहाँ पूरा होता है। यह बहुत छोटा उपनिषद था, सबसे छोटा संभवतया। तुम इसे एक पोस्टकार्ड पर भी छाप सकते हो, उसके एक ही तरफ। केवल सत्रह सूत्र, किन्तु सारा जीवन इन सत्रह सूत्रों में समा गया है। प्रत्येक सूत्र विस्फोट का काम कर सकता है। प्रत्येक सूत्र तुम्हारे जीवन को रूपान्तरित कर सकता है, लेकिन उसे तुम्हारे सहयोग की आवश्यकता है। सूत्र अपने आप कुछ भी नहीं कर सकता, उपनिषद भी स्वयं कुछ नहीं कर सकता। तुम कर सकते हो।
बुद्ध ने कहा है कि गुरु तुम्हें सिर्फ मार्ग बता सकता है, लेकिन चलना तो तुम्हें पड़ेगा। और सचमुच गुरु तुम्हें सिर्फ मार्ग बता सकता है यदि तुम उस पर चलने के लिये तैयार हो। अन्ततः, गुरु तभी गुरु है जब तुम शिष्य हो। यदि तुम सीखने को राजी हो, तभी कोई गुरु तुम्हें मार्ग बता सकता है। लेकिन वह तुम्हें जबरदस्ती नहीं कर सकता, वह तुम्हें आगे धक्का नहीं दे सकता। वह असम्भव है।
रिंझाई अपने गुरु के पास रहता था। गुरु को छोड़ना कठिन हो गया, किन्तु गुरु ने कहा, ‘‘अब तुम मुझे छोड़ने के लिये तैयार हो चुके हो। अब जाओ, कहीं भी जाओ और जो कुछ भी मैंने तुम्हें सिखाया है, लोगों को सिखाओ। अब अपने आप में ही गुरु रहो। अब जाओ।’’ किनतु रिंझाई को बड़ा दुःख हो रहा था। यह बहुत कठिन था, अतः वह टालता रहा। तब फिर शाम ढल गई और गुरु ने कहा, ‘‘अब जाओ। क्योंकि रात निकट ही है और रात बहुत अन्धकारपूर्ण होनेवाली है।’’ किन्तु फिर भी रिंझाई रुका रहा। आधी रात को गुरु ने कहा, ‘‘अब तुम यहाँ नहीं ठहर सकते। तुम जाओ।’’ किन्तु रिंझाई ने बहाना बनाते हुए कहा, ‘‘किनतु रात बहुत अन्धेरी है, मैं सबेरे चला जाऊगा।’’
गुरु ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें एक दिया दे देता हूँ। तुम यह दिया लो और जाओ। मेरा काम समाप्त हुआ। एक क्षण भी यहाँ बर्बाद मत करो। जाओ और लोगों को सिखाओ। जो भी तुमने सीखा है वह लोगों को भी सिखाओ और उन्हें मार्ग दिखलाओ।’’
अतः गुरु ने उसे एक छोटा-सा दिया दे दिया। रिंझाई ने वह दीया अपने हाथ में लिया। बहुत उदास मन से वह उस झोंपड़ी से बाहर सीढ़ियाँ उतरने लगा। आखिरी सीढ़ी पर गुरु हँसा और उसे दीया बुझा दिया। अचानक सब कुछ अंधकारपूर्ण हो गया और रिंझाई ने कहा, ‘‘यह आपने क्या किया? आपने मुझे दीया भी दिया और उसे बुझा भी दिया।’’ गुरु ने कहा, ‘‘यह दीया इस अँधेरे में तुम्हारी क्या सहायता कर सकता है? मेरा दिया इस अंधेरे में तुम्हारी क्या मदद कर सकता है? सिर्फ तुम्हारा अपना प्रकाश ही तुम्हारी मदद कर सकता है। अब इस अंधेरे में अपने ही प्रकाश से आगे बढ़ो, मेरा काम अब समाप्त हुआ।’’ फिर गुरु ने कहा, ‘‘और यह ठीक भी नहीं है कि तुम्हें प्रकाश दिया जाये। यह मित्रतापूर्ण न होगा। अब तुम अपने ही प्रकाश के साथ आगे जाओ। तुम्हारे पास काफी प्रकाश है।’’
उपनिषद तुम्हें प्रकाश दे सकते हैं। किन्तु वह प्रकाश वस्तुतः काम का नहीं होगा। जब तक कि तुम स्वयं अपना प्रकाश पैदा नहीं करते, जब तक कि अपने आंतरितक रूपान्तरण का कार्य शुरू नहीं करते, उपनिषद बेकार हैं। वे खतरनाक भी हो सकते हैं, नुकसान भी पहुँचा सकते हैं, क्योंकि तुम उन्हें याद कर सकते हो। तुम आसानी से तोते हो सकते हो। और तोते धार्मिक हो जाते हैं। तुम्हें जो भी कहा गया है, उसे जान सकते हो, तुम उसे दोहरा सकते हो। उससे कुछ भी न होगा। उसे भूल जाओ। मुझे दिया बुझा देने दो। जो भी हम यहाँ बात कर रहे थे। उसे भूल जाओ। उसे पकड़ो मत। नये सिरे से शुरू करो, तब तुम किसी दिन जो भी कहा गया है, उसे जानोगे।
जब तुम स्वयं बोध को उपलब्ध हो जाओ, तभी शास्त्र सहायता कर सकते हैं। तभी केवल तुम वह जानोगे जो कहा गया है, जो मतलब था, और जो अभिप्राय था। जब तुम सुनते हो, जब तुम बुद्धिगत समझते हो, तो कुछ भी नहीं समझा जाता। अतः यह तभी सहायक हो सकता है यदि यह प्यास बन जाये, एक गहरी जिज्ञासा, एक खोज बन जाये।
उपनिषद तो पूरा होता है, अब तुम जाओ आगे और यात्रा पर निकलो। अचानक किसी दिन, जो कहा गया है, तुम उसे जानोगे और उसे भी जो कि नहीं कहा गया है। एक दिन तुम जानोगे उसे जो कि अभिव्यक्त किया गया है, और उसे भी जो अभिव्यक्त नहीं किया गया क्योंकि उसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।
एक दिन बुद्ध एक जंगल से गुजर रहे थे अपने शिरूं के साथ। आनंद ने पूछा, ‘‘भगवान, क्या आपने वह सब कह दिया है जो कि आप जानते हैं? अतः बुद्ध जमीन पर पड़ी कुछ सूखी पत्तियाँ हाथ में लेते हैं और कहते हैं, ‘‘जो भी मैंने कहा है वह इन थोड़ी-सी पत्तियों के समान है, और जो भी मैंने नहीं कहा है और बिना कहा छोड़ दिया है वह जंगल की इन सारी पत्तियों के समान है। किन्तु यदि तुम अमल करो तो तुम इन पत्तियों से सारे जंगल को पहुँच जाओगे।’’
यह उपनिषद तो समाप्त होता है, लेकिन तुम अपनी यात्रा पर रवाना होओ-गहरे, भीतर की ओर। यह एक लम्बा और कठिन प्रयास है। स्वयं कोरूपान्तरित करना बड़े से बड़ा प्रयास है-सर्वाधिक उपलब्धि देने वाला। यह उपनिषद एक गहन और निकटतम उपदेश है। यह रासायनिक परिवर्तन करनेवाला है। यह तुम्हारे आंतरिक रूपान्तरण के लिये है। तुम्हारी निम्न धातु सोना हो सकती है। इसकी प्रक्रिया से गुजरकर तुम्हारी आत्यंतिक संभावना वास्तविक हो सकती है।
किन्तु कोई और तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। गुरु सिर्फ तुम्हें मार्ग बतलाता है। चलना तुम्हीं को पड़ता है। अतः सोचते ही मत बैठे रहो। कहीं से जीना प्रारंभ करो। एक छोटा-सा भी जीवन्त प्रयास बड़े-से-बड़े, दार्शनिक संग्रह से अच्छा है। धार्मिक बनो, दर्शनशास्त्र सब बेकार हैं।
आज इतना ही।  

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