जीवन गीत-ओशो
प्रवचन-पांचवां
एकांत का मूल्य
तीन दिनों के शिविर की अंतिम चर्चा है, कुछ थोड़ी सी ऐसी जरूरी बातें जो तुम्हारे लिए
उपयोगी हो सकें उन पर भी बात करूंगा।
एक तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण उन सभी लोगों के लिए जिनके मन में परमात्मा कोजानने की कोई भी प्यास जगी हो- या परमात्मा की प्यास उसे न कहें, जिनके हृदय में शांत होने की आकांक्षा पैदा हुई हो- या शांति की आकांक्षा भी उसे न कहें, जिनके हृदय में आनंद को उपलब्ध करने की अभीप्सा पैदा हुई हो उन सभी के लिए कुछ बहुत आधारभूत बातें जरूरी हैं। यदि उन बातों पर ध्यान न हो तो इस दिशा में- आनंद की, शांति की या परमात्मा की दिशा में- कोई भी प्रयत्न सफल नहीं हो सकता है।
पहली बात : जिस पर से कि ध्यान करीब-करीब सारी मनुष्य-जाति का उचट गयाहै, वह है एकांत का मूल्य। धीरे- धीरे मनुष्य भीड़ में, समूह में खोता गया है और अकेले होने की भी कोई स्थिति है यह उसे भूल गई है। सुबह से हम उठते हैं और जो दुनिया शुरूहोती है जो काम शुरू होता है, वह हमें भीड़ में ले जाता है। दिन भर की मेहनत के बाद अगर कभी थोड़ी देर बैठने का समय मिलता है तो अखबार पढ़ते हैं रेडियो सुनते हैं, और उस कारण भी एकांत संभव नहीं हो पाता। अगर वक्त मिलता है मित्रों से मिलते हैं, होटल, सिनेमा या क्लब वहां भी हम अकेले नहीं होते। जब थक जाते हैं तो रात सो जातेहै फिर सुबह से वही दुनिया शुरू हो जाती है।
अकेला होना करीब-करीब हमें विस्मरण हो गया है। लेकिन यह खयाल में रहे, दुनिया में जो भी श्रेष्ठतम वस्तुओं का जन्म हुआ है, वे सब एकांत में पैदा हुई हैं, भीड़ में नहीं। और यह भी स्मरण रहे कि दुनिया में मनुष्य-जाति के इतिहास में जिन लोगों ने भी सत्य को सौंदर्य को शिवत्व को जाना है उन सबने एकांत में जाना है भीड़ में नहीं। औरयह भी खयाल में रहे भीड़ ने अब तक कोई महान कार्य नहीं किया है। जो भी महान कार्य हैं वे व्यक्तियों ने किए हैं। और वे सारे महान कार्य एकांत में पैदा हुए हैं। यह जान कर तुम्हें आश्चर्य होगा कि भीड़ ने दुष्कर्म तो किए हैं बुरे काम तो किए हैं- हत्याएं तो की हैं युद्धतो किए हैं खून किए हैं आग लगाई है- लेकिन भीड़ ने किसी सुंदर कृति को किसी बहुमूल्य चित्र को किसी मूर्ति को किसी विज्ञान के आविष्कार को किसी कविता कोकिसी महाकाव्य को किसी जीवन के सिद्धांत को जन्म नहीं दिया है। जो भी महत्वपूर्ण पैदा हुआ है वह व्यक्ति से पैदा हुआ है भीड़ से नहीं। और व्यक्ति से भी तभी पैदा हुआ है जब वह एकांत में गया है अकेले में गया है भीड़ से थोड़ा अपने को उसने मुक्त किया है और दूर हुआ है।
लेकिन हम सब तो भीड़ की तरफ भागते रहते हैं। अगर घड़ी भर अकेले बैठने को मिल जाए तो हम घबड़ा जाएंगे, बेचैन हो जाएंगे। चाहेंगे कि मित्रों के पास जाएं अखबार पढ़ें, रेडियो सुनें, या किसी भांति उस अकेलेपन को खत्म करें उस अकेलेपन को नष्ट करें।
यह खतरनाक बात है। अगर तुम्हारे जीवन में एकांत की घड़ियां नहीं हैं तुम्हारे जीवन में कोई महत्वपूर्ण बात कभी भी पैदा नहीं हो सकेगी। अकेले होना सीखना चाहिए।ऐसा नहीं कह रहा हूं कि चौबीस घंटे तुम अकेले रहो। जीवन का काम है उसमें भीड़ है, उसमें दूसरे लोग हैं लेकिन कुछ घड़ियां तो खोज लेनी चाहिए जब तुम बिलकुल अकेली हो, जब कि कोई तुम्हारे साथ नहीं है। न केवल कोई साथ नहीं है बल्कि भीतर भी किसी की स्मृति न हो सबको विदा कर दो और बिलकुल अकेली हो जाओ। उस अकेलेपन में तुम्हें कुछ चीजों का साक्षात होगा। उस अकेलेपन में तुम्हारे भीतर तुम क्या हो, उसकी अनुभूति, उसका अहसास उसकी प्रतीति होनी शुरू होगी उसका स्पर्श होना शुरू होगा।
और उस एकांत में ही उस चिंतन को जन्म मिलेगा जो तुम्हारे जीवन को ऊंचा ले जा सकता है। और उस एकांत में ही तुम्हारे भीतर उस आत्मा का जागरण होगा जो तुम्हें प्रेरणा दे सकती है गति दे सकती है और शक्ति दे सकती है।
इसलिए एकांत के कुछ क्षण खोजते रहना चाहिए। लोग हैं अगर वे शहरों से कभी ऊब कर छुट्टी के दिनों में बाहर जाते हैं ' तो वहां भी मित्रों को लेकर पहुंच जाते हैं। वहां भी भीड़- भाड़ है वहां भी सब वही लोग हैं वही बातें हैं।
कभी न कभी महीने में कुछ क्षण कुछ दिन कुछ घड़ियां एकदम अकेले में बितानी जरूरी हैं। उस अकेले में सिर्फ अपने साथ- खयाल मत ले जाओ मित्रों केपरिवार के, दुश्मनों के उन सबको भी विदा कर दो - बिलकुल अकेले चले जाओ। कोईएक घंटा तो चौबीस घंटे में बिलकुल अकेला बिताना चाहिए। क्या होगा अकेले में बितानेसे? अकेले में अगर तुमने सबको विदा कर दिया मन से भी बाहर से भी और तुमबिलकुल अकेली हो गईं तो क्या होगा?
अकेले होने में ही तुम्हें विचार होगा जीवन के बाबत कि मैं अपने जीवन को व्यर्थ तो नहीं खो रही हूं? मैं जो कर रही हूं वह व्यर्थ तो नहीं है? जो मेरे जीवन में हो रहा हैउसका कोई मूल्य है? कोई अर्थ है या नहीं? उस अकेले में ही यह चिंतन पैदा होगा किमेरा जीवन जिस गति से जा रहा है वह उचित है क्या? मेरे जीवन में कोई विकास हो रहा है इसका विश्लेषण हो सकेगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि कल मैंने जो किया था वही आज किया है, वही कल भी होगा और इसी भांति एक गोल घेरे में घूमते-घूमते मैं समाप्तहो जाऊं? इस सबका चिंतन पैदा होगा। अपने भीतर की बुराइयां देखने की भी संभावनापैदा होगी। और अगर बुराइयां दिखाई पड़ने लगें तो उनसे छूटना कठिन नहीं होता है वह सुबह तुम से कहा। बुराइयों अगर कुछ मैंने तो अपनी का भी दर्शन होगा। तुम्हारे जीवन में श्रेष्ठ है, तो उसे कैसे विकसित करें उसे और कैसे बड़ा करें, इसके भी खयाल पैदा होंगे, इसकी भी प्रेरणा मिलेगी। वह तुम्हारा आत्म-निरीक्षण का क्षण हो जाएगा।
थोड़ी देर एकांत अत्यंत अनिवार्य है। बिलकुल अकेले हो जाओ। अगर बाहर नहीं जा सकते हो, कोई कमरे में अपने को बंद कर लो और एक घंटा, आधा घंटा बिलकुल एकांत में चुपचाप बैठ कर बिताओ। वह तुम्हारे जीवन के संबंध में बहुत महत्वपूर्ण घड़ी सिद्ध होगी। आखिर में तुम्हें ज्ञात होगा कि तुमने काम में जो समय बिताया वह तो व्यर्थ गया और तुमने एकांत में जो समय बिताया उसने तुम्हारे प्राणों को बनाने में, तुम्हारे जीवन को निर्माण करने में बहुत बड़ी सहायता दी है।
लेकिन मनुष्य-जाति एकांत को भूलती जाती है। और एकांत को भूलने के कारण ही वह प्रकृति को भी भूलती चली जाती है। यह जो चारों तरफ हमारे प्रकृति का सौंदर्य हैउससे भी हमारे संबंध क्षीण हो गए।
अभी लंदन में उन्होंने छोटे-छोटे बच्चों से एक सर्वे किया और छोटे-छोटे बच्चों से पूछा, तो लंदन की महानगरी में दस लाख बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने खेत नहीं देखा है, और पंद्रह लाख बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने गाय नहीं देखी है। लंदन जैसी जगह में पंद्रह लाख छोटे बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने गाय नहीं देखी है, दस लाख बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने खेत नहीं देखा है।इनकी जिंदगी में तो बड़ी कमी रह जाएगी इनकी जिंदगी तो बहुत अधूरी रह जाएगी।
मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है। मनुष्य प्रकृति का एक हिस्सा है, उसका एक अंग है।अगर हम उसे बिलकुल तोड़ कर अलग रख लें तो उसके जीवन में बहुत सी बातें नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगी।
तुम कहोगी हम तो पौधों को देखते हैं चांद को देखते हैं सूरज को देखते हैं, झील को देखते हैं।
इतना ही देखना काफी नहीं है; देखने का भी मार्ग है। कभी किसी वृक्ष के पास तुमने घड़ी दो घड़ी एकांत में बैठ कर बिताई हैं? कभी उस वृक्ष को प्रेम किया है? कभी उस वृक्ष को प्रेम से सहलाया है? कभी उसके निकट बैठ कर उससे टिक कर प्रेम की कोईघड़ी अनुभव की है? अगर नहीं तो तुम वृक्ष से परिचित नहीं हो पाओगी। कभी किसी झील की रेत पर चुपचाप घड़ी भर उसी भांति विश्राम किया है जैसे कोई अपनी मां की गोदमें सिर रख कर विश्राम करता है? अगर नहीं किया, तो तुम उस झील से, उस रेत से परिचित नहीं हो पाओगी। भागे हुए झील के पास जाना और सोचना कि हमने झील को देख लिया और वापस लौट आने से झील नहीं देखी जाती है।
इतनी जल्दी इतनी शीघ्रता में भागते हुए लोग प्रकृति के दृश्यों को देखते फिरते हैं।अमरीका जैसे मुल्कों में तो वे कारों से भी नहीं उतरते कारों में बैठे-बैठे ही वे सारी प्रकृतिका दर्शन कर लेते हैं। ऐसे प्रकृति से संबंध नहीं हो सकता। प्रकृति को जानने के लिए जरूरी है अत्यंत आत्मीयता से उसके निकट जाना। अत्यंत आत्मीयता और प्रेम से प्रकृति के निकट होना।
कभी तुमने किसी पशु को प्रेम किया है? और अगर हम पशु को पौधों को चारों तरफ फैली हुई प्रकृति को प्रेम न कर सकें और हमारे उससे कोई संबंध न हों तो हमारे भीतर बहुत सी कमियां रह जाएंगी बहुत से अभाव रह जाएंगे। हमारे जीवन में सौंदर्य के फूल खिलने संभव नहीं हो सकेंगे।
तो मैं दूसरी बात यह कहना चाहता हूं - पहली बात तो यह कि तुम एकांत में कुछ न कुछ समय बिताना शुरू करो।
दूसरी बात : कुछ न कुछ समय प्रकृति के निकट भी बिताना बहुत जरूरी है। जैसेअब तुम यहां आई हो तो तुम्हें खयाल होगा- कोई बंबई से आया होगा कोई नासिक से,कोई पूना से बड़े-बड़े शहरों से- तो तुम्हें खयाल होगा कि यहां इस दूर प्रकृति के रम्यस्थान में हम बहुत प्रकृति के करीब हैं। लेकिन इतना होना काफी नहीं है। यहां आ जानाकाफी नहीं है। यहां के पौधों से यहां के चांद से यहां की जमीन से, यहां की झील से, इन सबसे तुम्हारा अत्यंत प्रेमपूर्ण घनिष्ठ संबंध पैदा होना चाहिए। अगर वह पैदा न हो, तो तुम्हारा कोई संबंध इनसे नहीं हो सकेगा।
एक मित्र मेरे आए हुए थे उन्होंने बहुत दुनिया की यात्रा की है। तो अपने छोटे सेगांव में उनको मैं नदी पर ले गया पहाड़ियां दिखाने। नाव में बिठा कर उनको मैंने यात्रा कराई। लेकिन वे मुझे बताते रहे स्विटजरलैंड की झीलों के संबंध में कश्मीर की झीलों केसंबंध में। दो घंटे तक हम वहां थे। जिस झील पर हम मौजूद थे उसके बाबत न तो उन्होंने कोई बात की न उस झील के बाबत उनके मन में कोई खयाल उठा और न उस झील को उन्होंने देखा। क्योंकि उनके मन में तो स्विटजरलैंड की झीलें घूमती रहीं और कश्मीर की झीलें घूमती रहीं। जब दो घंटे के बाद हम विदा होने लगे तो उन्होंने मुझसे कहा कि यह जगह बड़ी अच्छी थी जहां आप मुझे लाए।
मैंने उनसे कहा यह झूठी बात आप न कहें। क्योंकि आप उस जगह पर- मैं आया तो था आपको लेकर, लेकिन आप वहां पहुंच नहीं सके। आपका मन वहां एक क्षण कोभी उस झील के साथ आत्मीय नहीं हो सका। आप तो दूसरी बातें करते रहे- स्विटजरलैंड की, कश्मीर की। अगर इस झील के साथ आपका प्रेम पैदा होता तो कश्मीर भी भूलजाता, स्विटजरलैंड भी भूल जाता एक घंटे भर को आप मौन हो जाते और इस झील के साथ जीते। लेकिन आप तो इस झील के साथ जीए नहीं। और मैंने उनसे कहा मैं यह भी समझ गया कि जब आप स्विटजरलैंड में रहे होंगे तो वहां की झीलों के साथ भी आप जीए नहीं होंगे, वहां भी आप सोचते रहे होंगे दूसरी बातें।
अगर तुम्हें प्रकृति के पास जाना है तो सारी बातों को छोड़ दो और उतनी देर केलिए उस प्रकृति के साथ एक हो जाओ। अगर एक फूल को प्रेम करना है तो और सब खयाल छोड़ दो एक फूल के पास दस-पांच मिनट बैठो सब भूल जाओ अकेले फूलको रह जाने दो। अगर तुम्हारे मन से सारे खयाल चले जाएं और बाहर सिर्फ फूल रहजाए, तो थोड़ी देर में तुम पाओगी कि फूल ही जैसी कोई सुंदर चीज तुम्हारे भीतर भी मौजूद हो गई है। अगर तुम्हारे मन से सारे विचार चले जाएं और तुम झील के किनारे एक घड़ी भर बैठी रह जाओ तो थोड़ी देर बाद तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे भीतर भी झील जैसी किसी शांत चीज ने जन्म ले लिया है। अगर तुम घड़ी भर को मौन जमीन पर लेट जाओ और चांद को देखती रहो और कोई खयाल तुम्हारे मन में न आए, कोई विचार तुम्हारे मन में न आए, थोड़ी देर में चांद ही जैसी सुंदर चीज का तुम्हारे हृदय में भी कोई अंक न हो जाएगा। हम जो देखते हैं वैसे ही हो जाते हैं। हम जो सुनते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। अगर हम पूरे प्राणों से किसी चीज के साथ आत्मीय हो जाएं तो हमारे भीतर भी वैसी ही घटनाघटनी शुरू हो जाती है।
एडोल्फ हिटलर का तुमने नाम सुना होगा। हिटलर जब हुकूमत में आया तो उसने क्या किया? उसने सारे अस्पतालों में, सारे स्कूलों में खेल-खिलौने बदलवा दिए। छोटासा बच्चा पैदा होगा तो उसके झूले के ऊपर वह घुनघुना नहीं लटकाता था या गुड्डी नहीं लटकाता था; उसके झूले के ऊपर तोप लटकाता था या बंदूक लटकाता था। सारे मुल्क में आज्ञा कर दी गई : बच्चों से गुड्डें और गुडिया छीन ली जाएं। छोटे-छोटे बच्चों को खिलौने की जगह तोप दी जाए, बंदूक दी जाए। छोटा सा बच्चा, पहले दिन का बच्चा पैदा हो, झूले में लिटाया जाए तो उसके झूले के ऊपर छोटी सी तोप झूलती रहे।
तुम कहोगे यह क्या पागलपन था? लेकिन इसमें अर्थ था। अगर छोटा सा बच्चा बचपन से ही तोप को देखे बंदूक को देखे तो उसकी छाप उसके मन पर पड़नी शुरू होती है। उसके मन में उसके गहरे स्थान बन जाते हैं। वह उस प्रवृत्ति में लीन हो जाता है।
अगर छोटा सा यह बच्चा चांद को देखे फूल को देखे तो उसके मन में दूसरी छाप बनती है। उसके जीवन में दूसरे प्रभाव बनते हैं। उसके जीवन के संस्कार भिन्न होतेहैं। उसका जीवन दूसरा हो जाएगा। तो बहुत छोटेपन में पड़े हुए प्रभाव भी जीवन भर साथ देते हैं।
नेपोलियन का तुमने नाम सुना होगा। वह जब छह महीने का था, एक झूले में लेटाहुआ था एक जंगली बिलाव आया एक जंगली बिल्ली आई, उसकी छाती पर पंजा रखकर खड़ी हो गई। वह छह महीने का था डर गया। बात तो खत्म हो गई, नौकरानी नेआकर भगा दिया कोई चोट नहीं पहुंची कोई घाव नहीं लग गया। छह महीने का बच्चाथा कोई बड़ी बात भी नहीं थी। लेकिन तुम हैरान हो जाओगी, नेपोलियन जिंदगी भर बिल्ली से डरता रहा। जीवन भर! इतना बहादुर आदमी था कि अगर शेर उसके सामने आजाए तो वह उससे छाती से छाती लगा कर लड़ सकता था। इतना बहादुर आदमी था किन तोप उसे दहला सकती थी, न मृत्यु उसे डरा सकती थी। उससे बहादुर आदमी जमीन परकम हुए हैं। लेकिन बिल्ली देख कर उसके प्राण कप जाते थे। और जिस युद्ध में वह हारा, जिस लड़ाई में पहली दफा वह हारा, उसमें भी एक अजीब घटना घटी थी। नेल्सन, जिससे वह हारा वह पचास-साठ बिल्लियां अपनी फौज के सामने बांध कर ले गया था।उसको यह पता चल गया था कि वह बिल्ली से घबड़ा जाता है। और जब नेपोलियन ने बिल्लियां देखीं फौज के सामने उसने अपने मित्रों से कहा कि आज जीतना बहुत मुश्किल है। मेरे तो प्राण छूट गए मेरे तो हाथ-पैर कैपने लगे।
नेल्सन ने यह पता लगा लिया कि वह बिल्ली से डरता है बिल्लियां बांध कर लेगया। और यह संभावना है कि बिल्लियों की वजह से वह हारा! छोटे से बचपन में बिल्ली के साथ घबड़ाहट का जो एक प्रभाव पड़ा वह जीवन भर उसको प्रभावित किया।
तो हमारे जीवन में चौबीस घंटे प्रभाव पड़ रहे हैं। हम चाहें या न चाहें हमारा जीवन प्रभावित हो रहा है। अगर गलत प्रभाव हमारे जीवन में पड़ते जाएं तो बहुत स्वाभाविक है कि हमारा जीवन नष्ट हो जाए। यह हमारे हाथ में है कि हम सुंदर और शुभ प्रभाव अपने प्राणों के भीतर ले जाएं।
सबसे ज्यादा सौंदर्य के प्रभाव प्रकृति के निकट उपलब्ध होते हैं। और मुफ्त उपलब्ध होते हैं उसके लिए कुछ खर्च नहीं करना होता। चांद सबके ऊपर रोज उगता है, लेकिन बहुत कम समझदार हैं जो उस चांद के सौंदर्य को अपने भीतर ले जाते हों। लाखों लोग हैं कौन आकाश को देखता है? लाखों लोग हैं कौन आंख ऊपर उठाता है और तारों से भरे आकाश को देखता है? लाखों लोग रोज रुपया खर्च करके नाटक देख सकते हैं, सिनेमा देख सकते हैं लेकिन प्रकृति का अदभुत विस्तीर्ण आकाश ऊपर है उसे देखने को कोई भी राजी नहीं है।
चारों तरफ बहुत सौंदर्य है। अगर आंख थोड़ी खुली हो हृदय थोड़ा सजग हो बुद्धि थोड़ी सी तेज हो तो जीवन में अदभुत प्रभाव अपने भीतर इकट्ठे किए जा सकते हैं।और तुम क्या इकट्ठा करोगी यह तुम्हारे हाथ में है। यहां कांटे भी हैं और फूल भी हैं। क्या तुम इकट्ठा करोगी यह तुम्हारे हाथ में है। और अगर तुम कांटे इकट्ठे करोगी तो इस बात को खयाल में मत रहना कि तुम्हारी आत्मा फूल जैसी सुंदर और आनंद को उपलब्ध हो जाए।कांटे तुम इकट्ठा करोगी तो कांटे जैसी ही आत्मा निर्मित होगी।
तो चारों तरफ से हम क्या इकट्ठा कर रहे हैं अपने भीतर इसकी सदा स्मृति होनी चाहिए, इसका बोध होना चाहिए।
और मैंने कहा प्रकृति के निकट ही जीवन का जो श्रेष्ठतम है उसके प्रभाव हमारे पास आने शुरू होते हैं। इसलिए प्रकृति के निकट जाओ।
मनुष्य से अपनी निकटता थोड़ी कम करो और प्रकृति से अपनी निकटता थोड़ी बढ़ाओ। क्योंकि मनुष्य के पास रह कर बहुत कम संभव है कि तुम्हारे जीवन में कुछ श्रेष्ठमिल जाए। लेकिन प्रकृति के निकट तुम्हारे जीवन में बहुत श्रेष्ठ का जन्म हो सकता है।
मनुष्य के निकट बहुत संभावना है कि तुम गलत ही सीखो। भीड़ में तुम गलत ही सीखो। और अगर तुममें थोड़ी समझ होगी तो तुमने हमेशा पाया होगा कि जब भी तुम भीड़ से वापस लौटोगी तो तुम कुछ खोकर वापस लौटोगी। और जब भी तुम एकांत में प्रकृति के निकट रह कर कुछ देर बाद लौटोगी तुम कुछ पाकर लौटोगी। मनुष्य के पासखोया जा सकता है प्रकृति के पास पाया जा सकता है। क्योंकि प्रकृति मनुष्य से बहुत बड़ी है। प्रकृति परमात्मा का बहुत प्रखर रूप है। प्रकृति परमात्मा का बहुत दृश्य रूप है।मंदिर में जाने की उतनी आवश्यकता नहीं है परमात्मा की खोज के लिए क्योंकि मंदिर मनुष्य का बनाया हुआ है। इसलिए मंदिर में मनुष्य के झगड़े लगे हुए हैं। अगर हिंदूके मंदिर में जाओ मुसलमान के मंदिर में जाओ उन दोनों में झगड़ा है। मस्जिद के लोगमंदिर को जला देते हैं मंदिर को मानने वाले मस्जिद को तोड़ देते हैं। यह सब पागलपन वहां है, क्योंकि वे मनुष्य के बनाए हुए हैं। लेकिन चांद न तो हिंदू है और न मुसलमान है।झील की शांति न तो ईसाई है और न पारसी है। और एक वृक्ष में खिले हुए फूल न तो जैनहैं और न हिंदू हैं। वहां परमात्मा है। वहां मनुष्य की कोई कृति नहीं है। मनुष्य की कृति सेऔर मनुष्य से थोड़ा दूर हटना बहुत जरूरी है।
यह मैं नहीं कहता हूं कि कोई बिलकुल दूर हट जाए, मैं यह कहता हूं कि चौबीस घंटे के क्षणों में जब भी क्षण मिले और तुम्हें मौका मिले तो प्रकृति को अपने भीतर आने दो और तुम प्रकृति में डूबो। तो तुम्हारे जीवन में बहुत गहरी शांति की, बहुत गहरी आनंद की संभावनाएं स्पष्ट हो सकेंगी।
ये दो बातें मैंने कहीं- एकांत खोजो और प्रकृति का सान्निध्य, प्रकृति का सत्संग खोजो। इन दो बातों को अगर स्मरण रखा, तो फिर मैंने तुम्हें जो ध्यान के लिए कहा है और कुछ सरलता और दूसरी बातों के संबंध में तुम्हें कहा है, उनका भी सहारा लिया, तो कुछ हो सकता है। कुछ निश्चित हो सकता है। ये दो जो सूत्र हैं थोड़ा मनुष्य से दूर हटने के लिए हैं।
और अपने भीतर जाने के लिए क्या हो? हम एकांत में भी चले गए और हम प्रकृति के करीब भी गए तो क्या होगा? क्या इतना ही काफी है? या कि हमें अपने भीतर जाने के लिए कुछ और बातें भी चाहिए?
भीतर जाने के लिए एक ही सूत्र है। वह थोड़ा कठिन है, इसलिए मैं उसे रोके रहा।अंतिम समय मैंने सोचा, तुमसे अंतिम चर्चा में उसे कहूंगा। वह थोड़ा सा कठिन है, लेकिन इतना कठिन नहीं कि कोई भी न कर सके। इतना कठिन भी नहीं कि बच्चे उसे नकर सकें। लेकिन समझ अगर ठीक से हो जाए तो वह भी किया जा सकता है। स्वयं के भीतर जाने के लिए एक तरह का साक्षीभाव एक तरह का तटस्थ भाव पैदा करना जरूरी होता है। उसे मैं समझाऊंगा, तुम्हें समझ में आ जाएगा।
साक्षीभाव का क्या अर्थ होता है?
जीवन में दो तरह के काम होते हैं। अगर तुम किसी खेल को देखने जाओ, कुछ लोग खेल रहे हों, तो जो लोग खेल रहे हैं वे तो खेल के भीतर सम्मिलित हैं, लेकिन जोलोग देख रहे हैं वे केवल साक्षी हैं। वे केवल देखने वाले हैं, दर्शक हैं। खेलने वाले और देखने वाले में फर्क है। खेलने वाला तल्लीन हो रहा है, खेलने वाले को अगर हार जाए गातो दुख होगा, अगर जीत जाएगा तो खुशी होगी। लेकिन देखने वाले को इससे बहुत प्रयोजन नहीं है। कौन हारता है, कौन जीतता है इससे उसे बहुत प्रयोजन नहीं है। उसे देखने का ही मजा है। वह चुपचाप देख रहा है।
जीवन में हम चौबीस घंटे खिलाड़ी होते हैं खेलते रहते हैं। और दर्शक हम कभी भी नहीं होते। जीवन में चौबीस घंटे हममें एक ही भाव काम करता है खेलने वाले का भाव। चौबीस घंटे खेलते रहते हैं। सुख-दुख उठाते हैं, हारते हैं जीतते हैं, सफल होते हैं असफल होते हैं।
ध्यान रहे सिर्फ खिलाड़ी होना काफी नहीं है; दिन के कुछ समय में हमें दर्शक भीहो जाना चाहिए। अपना भी दर्शक हो जाना चाहिए। एक आधा घंटे के लिए, पंद्रह मिनटके लिए खिलाड़ी मत रह जाओ दर्शक हो जाओ- खुद के दर्शक! खुद को भी ऐसे देखने लगो जैसे हम किसी दूसरे को देख रहे हों। उससे बहुत अदभुत क्रांति होगी। कभी शायद तुमने प्रयोग न किया हो खुद के दर्शक होने का, लेकिन इसे करो यह प्रयोग अदभुत फललाता। खुद यह हम
है के दर्शक होने का मतलब है : जैसे दूसरे को देखते हैं उस भांतिथोड़ी देर को अपने को देखो। दूर हो जाओ सारा लगाव छोड़ दो खयाल भूल जाए कियह मैं हूं और इस भांति देखने लगो जैसे हम कोई फिल्म देख रहे हों।
जैसे समझो तुम कोई फिल्म देखने जाओ तो वहां भी दर्शक नहीं रह जाती हो,वहां भी तुममें तल्लीनता आ जाती है वहां भी तुम एक हो जाती हो। अगर फिल्म में किसी पात्र को दुख आ रहा है कोई पीड़ा आ रही है तुम्हारे भी आंसू बहने लगते हैं। उसका मतलब क्या हुआ? उसका मतलब यह हुआ कि तुम दर्शक नहीं रहीं तुम भी उस फिल्म का हिस्सा हो गईं और रोना-गाना तुमने शुरू कर दिया। मतलब हम तो नाटक में भी दर्शक नहीं रह जाते हैं।
बंगाल में एक बहुत बड़े आदमी हुए ईश्वरचंद्रविद्यासागर। तुमने नाम भी सुना होगा। वे एक नाटक देखने गए। उस नाटक में एक पात्र है जो एक स्त्री को बहुत बुरी तरह परेशान कर रहा है, उसके पीछे लगा हुआ है उसे हैरान कर रहा है उसे दुख दे रहा है।आखिर में विद्यासागर सामने बैठे-बैठे देख रहे थे उनको इतना गुस्सा आ गया कि वे यह भूल गए कि यह नाटक है, उन्होंने निकाला जूता और उस पात्र को उठा कर मार दिया। जूता निकाल कर उसको मार दिया बहुत जोर से। वे यह भूल गए कि वे नाटक देख रहे हैं। उनको धीरे- धीरे यही खयाल हो गया कि यह आदमी शैतान है बदमाश है और स्त्री को परेशान कर रहा है। लेकिन वह अभिनेता जो था उसने उस जूते को हाथ में लिया सिर से लगायाऔर कहा कि मेरे जीवन में इससे बड़ा पुरस्कार मुझे कभी भी नहीं मिला। विद्यासागर जैसे आदमी को भी मेरा नाटक इतना सच मालूम पड़ा कि वे जूता मार सके इससे बड़ा पुरस्कारऔर क्या हो सकता है? मेरा अभिनय सफल हो गया। विद्यासागर तो बहुत संकोच में हुए बड़े दुखी हुए। लेकिन बाद में उन्होंने कहा कि मैं भूल ही गया था कि वह नाटक था।
तो नाटक में भी हम भूल जाते हैं कि वह नाटक है। विद्यासागर जैसे समझदार आदमी भी भूल जाते हैं। इससे ठीक उलटा करने की जरूरत है। जैसे नाटक में भूल जातेहैं कि नाटक है और जीवन लगने लगता है ऐसा ही कभी दिन में कभी दो दिन में घड़ी आधा घड़ी को जीवन को भी ऐसे देखना चाहिए जैसे वह नाटक है। ठीक उलटा। अभी तोहम नाटक को भी जीवन मान कर उपद्रव में पड़ जाते हैं कभी ऐसा मौका निकालना चाहिए- दिन में रात में सोते वक्त - थोड़ी देर के लिए बैठ कर जीवन को भी ऐसे देखना चाहिए जैसे वह नाटक है और मैं केवल देखने वाला हूं।
उसके बहुत अदभुत परिणाम होंगे। उसके बड़े अदभुत परिणाम होंगे। जब कोई व्यक्ति अपने को दूर से खड़े होकर देखता है तो उसके जीवन में बहुत समझ बहुत अंडरस्टैंडिंग आनी शुरू होती है। तुम्हारा किसी ने अपमान किया। अगर तुम इसे नाटककी तरह देख सको तो तुम्हें हंसी आएगी क्रोध नहीं आएगा दुख नहीं आएगा। किसी ने तुम्हें गालियां दीं। अगर तुम तटस्थ खड़े होकर देख सको, दूर खड़े होकर देख सको तो तुम्हें ऐसा लगेगा कि कोई किसी को गाली दे रहा है और मैं केवल देख रहा हूं। तब तुम्हारे मन में पीड़ा के तीर नहीं चुभेंगे घाव नहीं लगेंगे। और अगर पूरे जीवन में कोई धीरे- धीरे साक्षी हो जाए और अपने जीवन की लीला को नाटक की तरह देखने लगे उसके जीवन सेदुख और चिंताएं विलीन हो जाएंगी।
बुद्ध एक गांव के पास से एक बार निकले। कुछ लोग आए और उन्होंने उन्हें बहुतगालियां दीं बहुत अपशब्द कहे बहुत अपमान किया। जब वे गालियां दे चुके तो बुद्ध नेकहा : अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है।
वे तो सारे लोग हैरान हुए और उन्होंने कहा : हमने कोई बातें तो नहीं कीं, हम तो सीधी-सीधी गालियां दिए हैं। उसमें भी कोई छिपावट न थी बात बिलकुल सीधी थी, हमने सीधी-सीधी गालियां दी हैं। फिर भी आप कोई दुखी नहीं मालूम होते। और क्याहमारी गालियों का कोई उत्तर नहीं देंगे? हमने यह जो इतना अपमान किया है इसके बदले में कुछ कहेंगे नहीं?
बुद्ध ने कहा : अगर तुम दस साल पहले आए होते तो मैं भी तुम्हें गालियों के उत्तरगालियों से देता। अगर तुम दस साल पहले आए होते तो तुम्हारे अपमान ने मुझे दुख पहुंचाया होता। लेकिन इधर दस साल से तो मैं, जो भी होता है, उसको देखने वाला रहगया हूं। और अब मैं तुम्हारे साथ वही करूंगा जो मैंने पिछले गांव में भी किया।
उन्होंने पूछा : क्या किया?
बुद्ध ने कहा : पिछले गांव में कुछ लोग आए थे फूल-फल लेकर, मिठाइयां लकर मुझे भेंट करने। मैंने उनसे कहा मेरा पेट भरा हुआ है इसलिए तुम क्षमा करो। वे उन थालियों को वापस ले गए। मिठाइयां फल वे वापस ले गए। अब तुम गालियां लेकर आए हो। और मैं तुमसे कहता हूं कि मैं लेने में असमर्थ हूं। अब तुम क्या करोगे? इन गालियों को सिवाय वापस ले जाने के कोई उपाय नहीं। और उन्होंने तो फल और मे वे अपने बच्चों को बांट दिए होंगे। तुम इन गालियों को किन को बांटोगे क्योंकि मैं लेने सेइनकार करता हूं। बुद्ध ने कहा, मैं लेने से इनकार करता हूं। तुम गालियां दे सकते हो, लेकिन अगर में न लूंगा तो फिर क्या होगा? और मैं इसलिए लेने से इनकार करता हूं किजब से मैं जाग गया और दर्शक हो गया तब से जो जरूरी होता है उपयोगी होता है, वही
लेता हूं जो उपयोगी नहीं है वह नहीं लेता। तो मुझे क्षमा करो बुद्ध ने कहा, कि मैंने तुम्हें पीड़ा दी कि तुम्हें गाली देने का श्रम करना पड़ा। और अब एक पीड़ा और दे रहा हूं कि गालियों को वापस ले जाने का श्रम भी करना पड़ेगा।
जो व्यक्ति जीवन में थोड़ा दर्शक हो जाता तटस्थ जरा दूर खड़े होकर अपने को देखने लगता है उसके जीवन में व्यर्थ छूटने लगता है। अपने आप छूटने लगता है उसे छोड़ना नहीं पड़ता।
तो खुद के दर्शक बनना सीखना चाहिए। जैसे-जैसे तुम खुद के दर्शक बनोगी, वैसे-वैसे तुम्हारे भीतर गति होगी तुम्हारे भीतर गहराई बढ़ेगी तुम्हारे भीतर नई-नई गहराइयां खुलेंगी। और तुम्हारे जीवन में जो क्षुद्र बहुत प्रभावित करता है छोटी-छोटी बातेंछू जाती हैं छोटी-छोटी बातें प्राणों को छेद देती हैं छोटी-छोटी बातें दुख लाती हैं, चिंतालाती हैं वे तुम्हें दुख देने में असमर्थ हो जाएंगी।
और अगर जीवन के दुख हमें न छुए अगर जीवन की पीड़ाएं हमारे भीतर न जाएं, अगर चिंताएं हमारे हृदय में घर न बनाए तो क्या होगा? तो अदभुत होगा! तब तुम्हारे भीतर एक मुक्ति फलित होगी एक फ्रीडम होगी। चारों तरफ से तुम्हारा जीवन धीरे- धीरे मुक्त होता जाएगा शांत होता जाएगा आनंदित होता जाएगा प्रेम से भरता जाएगा करुणा से भरता जाएगा मौन से भरता जाएगा। और इन्हीं सारी भूमिकाओं के बीच ध्यान भीसफल हो सकता है। इन्हीं सारी भूमिकाओं के बीच ही परमात्मा का कोई अनुभव उपलब्ध हो सकता है।
कोई ऐसी आसान बात नहीं है परमात्मा को पा लेना कि कोई बैठ गया और राम-राम जपने लगा और उसे परमात्मा मिल जाए। ये सब बच्चों जैसी बातें हैं। या कोई आदमी माला फेर ले और परमात्मा मिल जाए। परमात्मा को पाने के लिए पूरा जीवन बदलना जरूरी है पूरे जीवन की भूमिका बदलनी जरूरी है। जीवन में सरलता हो, जीवनमें साक्षी भाव हो जीवन में एकांत हो जीवन में मौन हो निर्विचार ध्यान हो, जब यह सारी भूमिका जीवन की बदलती है तो ही कोई परमात्मा को उपलब्ध होता है। ऐसे कोई माला फेरने से या कोई राम-राम जपने से या गीता की पोथी को रोज सिर टेकने से या किसी मूर्तिके सामने चंदन लगा कर बैठ कर कोई भजन करने से कोई परमात्मा को उपलब्ध नहींहोता। ये सब तो बहुत बच्चों जैसी बातें हैं। इनके भुलावे में जो पड़ जाता है उसका जीवन
नष्ट हो जाता है। परमात्मा को पाने के लिए तो पूरे जीवन को बदलना होगा। परमात्मा कोपाने के लिए तो पूरे जीवन की धारा को बिलकुल नया करना होगा। परमात्मा को पाने केलिए तो जीवन को एक दर्पण की भांति स्वच्छ और पवित्र बनाना होगा।
मैं पहले दिन आया था तो तुमसे कहा था कि तुम्हें एक दर्पण भेंट करना चाहता हूं।वह इसी सब बातों का दर्पण था। अगर तुम इन सारी बातों का उपयोग करो तो निश्चित तुम्हारा मन एक मिरर की तरह एक दर्पण की तरह पवित्र हो सकता है। और उस दर्पण में जिसके दर्शन होंगे वही परमात्मा है वही प्रभु है। और उसे जो पा लेता है वही धन्य होजाता है। और उसे जो नहीं पाता वह कुछ भी पा ले तो भी उसके पाए हुए का कोई भी मूल्य नहीं है। अगर जीवन के इन प्रारंभिक दिनों में तुम्हें यह बोध आ जाए तो तुम्हारा जीवन धन्य हो सकता है।
मेरी इन सारी बातों को तीन दिन तुमने बहुत प्रेम शांति से सुना है। समझने की कोशिश भी की होगी। उन पर और विचार करना। जो मैंने कहा है उसको थोड़ा प्रयोग करके देखना। हो सकता है कोई बात तुम्हारे काम की हो जाए कोई बात तुम्हारे जीवन में आधार बन जाए, कोई बात हो सकता है तुम्हारे जीवन को बदलने का बिंदु हो जाए और तुम्हारे जीवन में कुछ हो सके। परमात्मा तुम्हें सबको जीवन में धीरे- धीरे अपने निकटबुलाए, अपने प्रकाश से भर दे, अपने प्रेम से भर दे, इसकी अंत में कामना करता हूं।
अब हम आज के अंतिम ध्यान के लिए बैठेंगे।...
प्रवचन-पांचवां
एकांत का मूल्य
तीन दिनों के शिविर की अंतिम चर्चा है, कुछ थोड़ी सी ऐसी जरूरी बातें जो तुम्हारे लिए
उपयोगी हो सकें उन पर भी बात करूंगा।
एक तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण उन सभी लोगों के लिए जिनके मन में परमात्मा कोजानने की कोई भी प्यास जगी हो- या परमात्मा की प्यास उसे न कहें, जिनके हृदय में शांत होने की आकांक्षा पैदा हुई हो- या शांति की आकांक्षा भी उसे न कहें, जिनके हृदय में आनंद को उपलब्ध करने की अभीप्सा पैदा हुई हो उन सभी के लिए कुछ बहुत आधारभूत बातें जरूरी हैं। यदि उन बातों पर ध्यान न हो तो इस दिशा में- आनंद की, शांति की या परमात्मा की दिशा में- कोई भी प्रयत्न सफल नहीं हो सकता है।
पहली बात : जिस पर से कि ध्यान करीब-करीब सारी मनुष्य-जाति का उचट गयाहै, वह है एकांत का मूल्य। धीरे- धीरे मनुष्य भीड़ में, समूह में खोता गया है और अकेले होने की भी कोई स्थिति है यह उसे भूल गई है। सुबह से हम उठते हैं और जो दुनिया शुरूहोती है जो काम शुरू होता है, वह हमें भीड़ में ले जाता है। दिन भर की मेहनत के बाद अगर कभी थोड़ी देर बैठने का समय मिलता है तो अखबार पढ़ते हैं रेडियो सुनते हैं, और उस कारण भी एकांत संभव नहीं हो पाता। अगर वक्त मिलता है मित्रों से मिलते हैं, होटल, सिनेमा या क्लब वहां भी हम अकेले नहीं होते। जब थक जाते हैं तो रात सो जातेहै फिर सुबह से वही दुनिया शुरू हो जाती है।
अकेला होना करीब-करीब हमें विस्मरण हो गया है। लेकिन यह खयाल में रहे, दुनिया में जो भी श्रेष्ठतम वस्तुओं का जन्म हुआ है, वे सब एकांत में पैदा हुई हैं, भीड़ में नहीं। और यह भी स्मरण रहे कि दुनिया में मनुष्य-जाति के इतिहास में जिन लोगों ने भी सत्य को सौंदर्य को शिवत्व को जाना है उन सबने एकांत में जाना है भीड़ में नहीं। औरयह भी खयाल में रहे भीड़ ने अब तक कोई महान कार्य नहीं किया है। जो भी महान कार्य हैं वे व्यक्तियों ने किए हैं। और वे सारे महान कार्य एकांत में पैदा हुए हैं। यह जान कर तुम्हें आश्चर्य होगा कि भीड़ ने दुष्कर्म तो किए हैं बुरे काम तो किए हैं- हत्याएं तो की हैं युद्धतो किए हैं खून किए हैं आग लगाई है- लेकिन भीड़ ने किसी सुंदर कृति को किसी बहुमूल्य चित्र को किसी मूर्ति को किसी विज्ञान के आविष्कार को किसी कविता कोकिसी महाकाव्य को किसी जीवन के सिद्धांत को जन्म नहीं दिया है। जो भी महत्वपूर्ण पैदा हुआ है वह व्यक्ति से पैदा हुआ है भीड़ से नहीं। और व्यक्ति से भी तभी पैदा हुआ है जब वह एकांत में गया है अकेले में गया है भीड़ से थोड़ा अपने को उसने मुक्त किया है और दूर हुआ है।
लेकिन हम सब तो भीड़ की तरफ भागते रहते हैं। अगर घड़ी भर अकेले बैठने को मिल जाए तो हम घबड़ा जाएंगे, बेचैन हो जाएंगे। चाहेंगे कि मित्रों के पास जाएं अखबार पढ़ें, रेडियो सुनें, या किसी भांति उस अकेलेपन को खत्म करें उस अकेलेपन को नष्ट करें।
यह खतरनाक बात है। अगर तुम्हारे जीवन में एकांत की घड़ियां नहीं हैं तुम्हारे जीवन में कोई महत्वपूर्ण बात कभी भी पैदा नहीं हो सकेगी। अकेले होना सीखना चाहिए।ऐसा नहीं कह रहा हूं कि चौबीस घंटे तुम अकेले रहो। जीवन का काम है उसमें भीड़ है, उसमें दूसरे लोग हैं लेकिन कुछ घड़ियां तो खोज लेनी चाहिए जब तुम बिलकुल अकेली हो, जब कि कोई तुम्हारे साथ नहीं है। न केवल कोई साथ नहीं है बल्कि भीतर भी किसी की स्मृति न हो सबको विदा कर दो और बिलकुल अकेली हो जाओ। उस अकेलेपन में तुम्हें कुछ चीजों का साक्षात होगा। उस अकेलेपन में तुम्हारे भीतर तुम क्या हो, उसकी अनुभूति, उसका अहसास उसकी प्रतीति होनी शुरू होगी उसका स्पर्श होना शुरू होगा।
और उस एकांत में ही उस चिंतन को जन्म मिलेगा जो तुम्हारे जीवन को ऊंचा ले जा सकता है। और उस एकांत में ही तुम्हारे भीतर उस आत्मा का जागरण होगा जो तुम्हें प्रेरणा दे सकती है गति दे सकती है और शक्ति दे सकती है।
इसलिए एकांत के कुछ क्षण खोजते रहना चाहिए। लोग हैं अगर वे शहरों से कभी ऊब कर छुट्टी के दिनों में बाहर जाते हैं ' तो वहां भी मित्रों को लेकर पहुंच जाते हैं। वहां भी भीड़- भाड़ है वहां भी सब वही लोग हैं वही बातें हैं।
कभी न कभी महीने में कुछ क्षण कुछ दिन कुछ घड़ियां एकदम अकेले में बितानी जरूरी हैं। उस अकेले में सिर्फ अपने साथ- खयाल मत ले जाओ मित्रों केपरिवार के, दुश्मनों के उन सबको भी विदा कर दो - बिलकुल अकेले चले जाओ। कोईएक घंटा तो चौबीस घंटे में बिलकुल अकेला बिताना चाहिए। क्या होगा अकेले में बितानेसे? अकेले में अगर तुमने सबको विदा कर दिया मन से भी बाहर से भी और तुमबिलकुल अकेली हो गईं तो क्या होगा?
अकेले होने में ही तुम्हें विचार होगा जीवन के बाबत कि मैं अपने जीवन को व्यर्थ तो नहीं खो रही हूं? मैं जो कर रही हूं वह व्यर्थ तो नहीं है? जो मेरे जीवन में हो रहा हैउसका कोई मूल्य है? कोई अर्थ है या नहीं? उस अकेले में ही यह चिंतन पैदा होगा किमेरा जीवन जिस गति से जा रहा है वह उचित है क्या? मेरे जीवन में कोई विकास हो रहा है इसका विश्लेषण हो सकेगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि कल मैंने जो किया था वही आज किया है, वही कल भी होगा और इसी भांति एक गोल घेरे में घूमते-घूमते मैं समाप्तहो जाऊं? इस सबका चिंतन पैदा होगा। अपने भीतर की बुराइयां देखने की भी संभावनापैदा होगी। और अगर बुराइयां दिखाई पड़ने लगें तो उनसे छूटना कठिन नहीं होता है वह सुबह तुम से कहा। बुराइयों अगर कुछ मैंने तो अपनी का भी दर्शन होगा। तुम्हारे जीवन में श्रेष्ठ है, तो उसे कैसे विकसित करें उसे और कैसे बड़ा करें, इसके भी खयाल पैदा होंगे, इसकी भी प्रेरणा मिलेगी। वह तुम्हारा आत्म-निरीक्षण का क्षण हो जाएगा।
थोड़ी देर एकांत अत्यंत अनिवार्य है। बिलकुल अकेले हो जाओ। अगर बाहर नहीं जा सकते हो, कोई कमरे में अपने को बंद कर लो और एक घंटा, आधा घंटा बिलकुल एकांत में चुपचाप बैठ कर बिताओ। वह तुम्हारे जीवन के संबंध में बहुत महत्वपूर्ण घड़ी सिद्ध होगी। आखिर में तुम्हें ज्ञात होगा कि तुमने काम में जो समय बिताया वह तो व्यर्थ गया और तुमने एकांत में जो समय बिताया उसने तुम्हारे प्राणों को बनाने में, तुम्हारे जीवन को निर्माण करने में बहुत बड़ी सहायता दी है।
लेकिन मनुष्य-जाति एकांत को भूलती जाती है। और एकांत को भूलने के कारण ही वह प्रकृति को भी भूलती चली जाती है। यह जो चारों तरफ हमारे प्रकृति का सौंदर्य हैउससे भी हमारे संबंध क्षीण हो गए।
अभी लंदन में उन्होंने छोटे-छोटे बच्चों से एक सर्वे किया और छोटे-छोटे बच्चों से पूछा, तो लंदन की महानगरी में दस लाख बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने खेत नहीं देखा है, और पंद्रह लाख बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने गाय नहीं देखी है। लंदन जैसी जगह में पंद्रह लाख छोटे बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने गाय नहीं देखी है, दस लाख बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने खेत नहीं देखा है।इनकी जिंदगी में तो बड़ी कमी रह जाएगी इनकी जिंदगी तो बहुत अधूरी रह जाएगी।
मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है। मनुष्य प्रकृति का एक हिस्सा है, उसका एक अंग है।अगर हम उसे बिलकुल तोड़ कर अलग रख लें तो उसके जीवन में बहुत सी बातें नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगी।
तुम कहोगी हम तो पौधों को देखते हैं चांद को देखते हैं सूरज को देखते हैं, झील को देखते हैं।
इतना ही देखना काफी नहीं है; देखने का भी मार्ग है। कभी किसी वृक्ष के पास तुमने घड़ी दो घड़ी एकांत में बैठ कर बिताई हैं? कभी उस वृक्ष को प्रेम किया है? कभी उस वृक्ष को प्रेम से सहलाया है? कभी उसके निकट बैठ कर उससे टिक कर प्रेम की कोईघड़ी अनुभव की है? अगर नहीं तो तुम वृक्ष से परिचित नहीं हो पाओगी। कभी किसी झील की रेत पर चुपचाप घड़ी भर उसी भांति विश्राम किया है जैसे कोई अपनी मां की गोदमें सिर रख कर विश्राम करता है? अगर नहीं किया, तो तुम उस झील से, उस रेत से परिचित नहीं हो पाओगी। भागे हुए झील के पास जाना और सोचना कि हमने झील को देख लिया और वापस लौट आने से झील नहीं देखी जाती है।
इतनी जल्दी इतनी शीघ्रता में भागते हुए लोग प्रकृति के दृश्यों को देखते फिरते हैं।अमरीका जैसे मुल्कों में तो वे कारों से भी नहीं उतरते कारों में बैठे-बैठे ही वे सारी प्रकृतिका दर्शन कर लेते हैं। ऐसे प्रकृति से संबंध नहीं हो सकता। प्रकृति को जानने के लिए जरूरी है अत्यंत आत्मीयता से उसके निकट जाना। अत्यंत आत्मीयता और प्रेम से प्रकृति के निकट होना।
कभी तुमने किसी पशु को प्रेम किया है? और अगर हम पशु को पौधों को चारों तरफ फैली हुई प्रकृति को प्रेम न कर सकें और हमारे उससे कोई संबंध न हों तो हमारे भीतर बहुत सी कमियां रह जाएंगी बहुत से अभाव रह जाएंगे। हमारे जीवन में सौंदर्य के फूल खिलने संभव नहीं हो सकेंगे।
तो मैं दूसरी बात यह कहना चाहता हूं - पहली बात तो यह कि तुम एकांत में कुछ न कुछ समय बिताना शुरू करो।
दूसरी बात : कुछ न कुछ समय प्रकृति के निकट भी बिताना बहुत जरूरी है। जैसेअब तुम यहां आई हो तो तुम्हें खयाल होगा- कोई बंबई से आया होगा कोई नासिक से,कोई पूना से बड़े-बड़े शहरों से- तो तुम्हें खयाल होगा कि यहां इस दूर प्रकृति के रम्यस्थान में हम बहुत प्रकृति के करीब हैं। लेकिन इतना होना काफी नहीं है। यहां आ जानाकाफी नहीं है। यहां के पौधों से यहां के चांद से यहां की जमीन से, यहां की झील से, इन सबसे तुम्हारा अत्यंत प्रेमपूर्ण घनिष्ठ संबंध पैदा होना चाहिए। अगर वह पैदा न हो, तो तुम्हारा कोई संबंध इनसे नहीं हो सकेगा।
एक मित्र मेरे आए हुए थे उन्होंने बहुत दुनिया की यात्रा की है। तो अपने छोटे सेगांव में उनको मैं नदी पर ले गया पहाड़ियां दिखाने। नाव में बिठा कर उनको मैंने यात्रा कराई। लेकिन वे मुझे बताते रहे स्विटजरलैंड की झीलों के संबंध में कश्मीर की झीलों केसंबंध में। दो घंटे तक हम वहां थे। जिस झील पर हम मौजूद थे उसके बाबत न तो उन्होंने कोई बात की न उस झील के बाबत उनके मन में कोई खयाल उठा और न उस झील को उन्होंने देखा। क्योंकि उनके मन में तो स्विटजरलैंड की झीलें घूमती रहीं और कश्मीर की झीलें घूमती रहीं। जब दो घंटे के बाद हम विदा होने लगे तो उन्होंने मुझसे कहा कि यह जगह बड़ी अच्छी थी जहां आप मुझे लाए।
मैंने उनसे कहा यह झूठी बात आप न कहें। क्योंकि आप उस जगह पर- मैं आया तो था आपको लेकर, लेकिन आप वहां पहुंच नहीं सके। आपका मन वहां एक क्षण कोभी उस झील के साथ आत्मीय नहीं हो सका। आप तो दूसरी बातें करते रहे- स्विटजरलैंड की, कश्मीर की। अगर इस झील के साथ आपका प्रेम पैदा होता तो कश्मीर भी भूलजाता, स्विटजरलैंड भी भूल जाता एक घंटे भर को आप मौन हो जाते और इस झील के साथ जीते। लेकिन आप तो इस झील के साथ जीए नहीं। और मैंने उनसे कहा मैं यह भी समझ गया कि जब आप स्विटजरलैंड में रहे होंगे तो वहां की झीलों के साथ भी आप जीए नहीं होंगे, वहां भी आप सोचते रहे होंगे दूसरी बातें।
अगर तुम्हें प्रकृति के पास जाना है तो सारी बातों को छोड़ दो और उतनी देर केलिए उस प्रकृति के साथ एक हो जाओ। अगर एक फूल को प्रेम करना है तो और सब खयाल छोड़ दो एक फूल के पास दस-पांच मिनट बैठो सब भूल जाओ अकेले फूलको रह जाने दो। अगर तुम्हारे मन से सारे खयाल चले जाएं और बाहर सिर्फ फूल रहजाए, तो थोड़ी देर में तुम पाओगी कि फूल ही जैसी कोई सुंदर चीज तुम्हारे भीतर भी मौजूद हो गई है। अगर तुम्हारे मन से सारे विचार चले जाएं और तुम झील के किनारे एक घड़ी भर बैठी रह जाओ तो थोड़ी देर बाद तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे भीतर भी झील जैसी किसी शांत चीज ने जन्म ले लिया है। अगर तुम घड़ी भर को मौन जमीन पर लेट जाओ और चांद को देखती रहो और कोई खयाल तुम्हारे मन में न आए, कोई विचार तुम्हारे मन में न आए, थोड़ी देर में चांद ही जैसी सुंदर चीज का तुम्हारे हृदय में भी कोई अंक न हो जाएगा। हम जो देखते हैं वैसे ही हो जाते हैं। हम जो सुनते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। अगर हम पूरे प्राणों से किसी चीज के साथ आत्मीय हो जाएं तो हमारे भीतर भी वैसी ही घटनाघटनी शुरू हो जाती है।
एडोल्फ हिटलर का तुमने नाम सुना होगा। हिटलर जब हुकूमत में आया तो उसने क्या किया? उसने सारे अस्पतालों में, सारे स्कूलों में खेल-खिलौने बदलवा दिए। छोटासा बच्चा पैदा होगा तो उसके झूले के ऊपर वह घुनघुना नहीं लटकाता था या गुड्डी नहीं लटकाता था; उसके झूले के ऊपर तोप लटकाता था या बंदूक लटकाता था। सारे मुल्क में आज्ञा कर दी गई : बच्चों से गुड्डें और गुडिया छीन ली जाएं। छोटे-छोटे बच्चों को खिलौने की जगह तोप दी जाए, बंदूक दी जाए। छोटा सा बच्चा, पहले दिन का बच्चा पैदा हो, झूले में लिटाया जाए तो उसके झूले के ऊपर छोटी सी तोप झूलती रहे।
तुम कहोगे यह क्या पागलपन था? लेकिन इसमें अर्थ था। अगर छोटा सा बच्चा बचपन से ही तोप को देखे बंदूक को देखे तो उसकी छाप उसके मन पर पड़नी शुरू होती है। उसके मन में उसके गहरे स्थान बन जाते हैं। वह उस प्रवृत्ति में लीन हो जाता है।
अगर छोटा सा यह बच्चा चांद को देखे फूल को देखे तो उसके मन में दूसरी छाप बनती है। उसके जीवन में दूसरे प्रभाव बनते हैं। उसके जीवन के संस्कार भिन्न होतेहैं। उसका जीवन दूसरा हो जाएगा। तो बहुत छोटेपन में पड़े हुए प्रभाव भी जीवन भर साथ देते हैं।
नेपोलियन का तुमने नाम सुना होगा। वह जब छह महीने का था, एक झूले में लेटाहुआ था एक जंगली बिलाव आया एक जंगली बिल्ली आई, उसकी छाती पर पंजा रखकर खड़ी हो गई। वह छह महीने का था डर गया। बात तो खत्म हो गई, नौकरानी नेआकर भगा दिया कोई चोट नहीं पहुंची कोई घाव नहीं लग गया। छह महीने का बच्चाथा कोई बड़ी बात भी नहीं थी। लेकिन तुम हैरान हो जाओगी, नेपोलियन जिंदगी भर बिल्ली से डरता रहा। जीवन भर! इतना बहादुर आदमी था कि अगर शेर उसके सामने आजाए तो वह उससे छाती से छाती लगा कर लड़ सकता था। इतना बहादुर आदमी था किन तोप उसे दहला सकती थी, न मृत्यु उसे डरा सकती थी। उससे बहादुर आदमी जमीन परकम हुए हैं। लेकिन बिल्ली देख कर उसके प्राण कप जाते थे। और जिस युद्ध में वह हारा, जिस लड़ाई में पहली दफा वह हारा, उसमें भी एक अजीब घटना घटी थी। नेल्सन, जिससे वह हारा वह पचास-साठ बिल्लियां अपनी फौज के सामने बांध कर ले गया था।उसको यह पता चल गया था कि वह बिल्ली से घबड़ा जाता है। और जब नेपोलियन ने बिल्लियां देखीं फौज के सामने उसने अपने मित्रों से कहा कि आज जीतना बहुत मुश्किल है। मेरे तो प्राण छूट गए मेरे तो हाथ-पैर कैपने लगे।
नेल्सन ने यह पता लगा लिया कि वह बिल्ली से डरता है बिल्लियां बांध कर लेगया। और यह संभावना है कि बिल्लियों की वजह से वह हारा! छोटे से बचपन में बिल्ली के साथ घबड़ाहट का जो एक प्रभाव पड़ा वह जीवन भर उसको प्रभावित किया।
तो हमारे जीवन में चौबीस घंटे प्रभाव पड़ रहे हैं। हम चाहें या न चाहें हमारा जीवन प्रभावित हो रहा है। अगर गलत प्रभाव हमारे जीवन में पड़ते जाएं तो बहुत स्वाभाविक है कि हमारा जीवन नष्ट हो जाए। यह हमारे हाथ में है कि हम सुंदर और शुभ प्रभाव अपने प्राणों के भीतर ले जाएं।
सबसे ज्यादा सौंदर्य के प्रभाव प्रकृति के निकट उपलब्ध होते हैं। और मुफ्त उपलब्ध होते हैं उसके लिए कुछ खर्च नहीं करना होता। चांद सबके ऊपर रोज उगता है, लेकिन बहुत कम समझदार हैं जो उस चांद के सौंदर्य को अपने भीतर ले जाते हों। लाखों लोग हैं कौन आकाश को देखता है? लाखों लोग हैं कौन आंख ऊपर उठाता है और तारों से भरे आकाश को देखता है? लाखों लोग रोज रुपया खर्च करके नाटक देख सकते हैं, सिनेमा देख सकते हैं लेकिन प्रकृति का अदभुत विस्तीर्ण आकाश ऊपर है उसे देखने को कोई भी राजी नहीं है।
चारों तरफ बहुत सौंदर्य है। अगर आंख थोड़ी खुली हो हृदय थोड़ा सजग हो बुद्धि थोड़ी सी तेज हो तो जीवन में अदभुत प्रभाव अपने भीतर इकट्ठे किए जा सकते हैं।और तुम क्या इकट्ठा करोगी यह तुम्हारे हाथ में है। यहां कांटे भी हैं और फूल भी हैं। क्या तुम इकट्ठा करोगी यह तुम्हारे हाथ में है। और अगर तुम कांटे इकट्ठे करोगी तो इस बात को खयाल में मत रहना कि तुम्हारी आत्मा फूल जैसी सुंदर और आनंद को उपलब्ध हो जाए।कांटे तुम इकट्ठा करोगी तो कांटे जैसी ही आत्मा निर्मित होगी।
तो चारों तरफ से हम क्या इकट्ठा कर रहे हैं अपने भीतर इसकी सदा स्मृति होनी चाहिए, इसका बोध होना चाहिए।
और मैंने कहा प्रकृति के निकट ही जीवन का जो श्रेष्ठतम है उसके प्रभाव हमारे पास आने शुरू होते हैं। इसलिए प्रकृति के निकट जाओ।
मनुष्य से अपनी निकटता थोड़ी कम करो और प्रकृति से अपनी निकटता थोड़ी बढ़ाओ। क्योंकि मनुष्य के पास रह कर बहुत कम संभव है कि तुम्हारे जीवन में कुछ श्रेष्ठमिल जाए। लेकिन प्रकृति के निकट तुम्हारे जीवन में बहुत श्रेष्ठ का जन्म हो सकता है।
मनुष्य के निकट बहुत संभावना है कि तुम गलत ही सीखो। भीड़ में तुम गलत ही सीखो। और अगर तुममें थोड़ी समझ होगी तो तुमने हमेशा पाया होगा कि जब भी तुम भीड़ से वापस लौटोगी तो तुम कुछ खोकर वापस लौटोगी। और जब भी तुम एकांत में प्रकृति के निकट रह कर कुछ देर बाद लौटोगी तुम कुछ पाकर लौटोगी। मनुष्य के पासखोया जा सकता है प्रकृति के पास पाया जा सकता है। क्योंकि प्रकृति मनुष्य से बहुत बड़ी है। प्रकृति परमात्मा का बहुत प्रखर रूप है। प्रकृति परमात्मा का बहुत दृश्य रूप है।मंदिर में जाने की उतनी आवश्यकता नहीं है परमात्मा की खोज के लिए क्योंकि मंदिर मनुष्य का बनाया हुआ है। इसलिए मंदिर में मनुष्य के झगड़े लगे हुए हैं। अगर हिंदूके मंदिर में जाओ मुसलमान के मंदिर में जाओ उन दोनों में झगड़ा है। मस्जिद के लोगमंदिर को जला देते हैं मंदिर को मानने वाले मस्जिद को तोड़ देते हैं। यह सब पागलपन वहां है, क्योंकि वे मनुष्य के बनाए हुए हैं। लेकिन चांद न तो हिंदू है और न मुसलमान है।झील की शांति न तो ईसाई है और न पारसी है। और एक वृक्ष में खिले हुए फूल न तो जैनहैं और न हिंदू हैं। वहां परमात्मा है। वहां मनुष्य की कोई कृति नहीं है। मनुष्य की कृति सेऔर मनुष्य से थोड़ा दूर हटना बहुत जरूरी है।
यह मैं नहीं कहता हूं कि कोई बिलकुल दूर हट जाए, मैं यह कहता हूं कि चौबीस घंटे के क्षणों में जब भी क्षण मिले और तुम्हें मौका मिले तो प्रकृति को अपने भीतर आने दो और तुम प्रकृति में डूबो। तो तुम्हारे जीवन में बहुत गहरी शांति की, बहुत गहरी आनंद की संभावनाएं स्पष्ट हो सकेंगी।
ये दो बातें मैंने कहीं- एकांत खोजो और प्रकृति का सान्निध्य, प्रकृति का सत्संग खोजो। इन दो बातों को अगर स्मरण रखा, तो फिर मैंने तुम्हें जो ध्यान के लिए कहा है और कुछ सरलता और दूसरी बातों के संबंध में तुम्हें कहा है, उनका भी सहारा लिया, तो कुछ हो सकता है। कुछ निश्चित हो सकता है। ये दो जो सूत्र हैं थोड़ा मनुष्य से दूर हटने के लिए हैं।
और अपने भीतर जाने के लिए क्या हो? हम एकांत में भी चले गए और हम प्रकृति के करीब भी गए तो क्या होगा? क्या इतना ही काफी है? या कि हमें अपने भीतर जाने के लिए कुछ और बातें भी चाहिए?
भीतर जाने के लिए एक ही सूत्र है। वह थोड़ा कठिन है, इसलिए मैं उसे रोके रहा।अंतिम समय मैंने सोचा, तुमसे अंतिम चर्चा में उसे कहूंगा। वह थोड़ा सा कठिन है, लेकिन इतना कठिन नहीं कि कोई भी न कर सके। इतना कठिन भी नहीं कि बच्चे उसे नकर सकें। लेकिन समझ अगर ठीक से हो जाए तो वह भी किया जा सकता है। स्वयं के भीतर जाने के लिए एक तरह का साक्षीभाव एक तरह का तटस्थ भाव पैदा करना जरूरी होता है। उसे मैं समझाऊंगा, तुम्हें समझ में आ जाएगा।
साक्षीभाव का क्या अर्थ होता है?
जीवन में दो तरह के काम होते हैं। अगर तुम किसी खेल को देखने जाओ, कुछ लोग खेल रहे हों, तो जो लोग खेल रहे हैं वे तो खेल के भीतर सम्मिलित हैं, लेकिन जोलोग देख रहे हैं वे केवल साक्षी हैं। वे केवल देखने वाले हैं, दर्शक हैं। खेलने वाले और देखने वाले में फर्क है। खेलने वाला तल्लीन हो रहा है, खेलने वाले को अगर हार जाए गातो दुख होगा, अगर जीत जाएगा तो खुशी होगी। लेकिन देखने वाले को इससे बहुत प्रयोजन नहीं है। कौन हारता है, कौन जीतता है इससे उसे बहुत प्रयोजन नहीं है। उसे देखने का ही मजा है। वह चुपचाप देख रहा है।
जीवन में हम चौबीस घंटे खिलाड़ी होते हैं खेलते रहते हैं। और दर्शक हम कभी भी नहीं होते। जीवन में चौबीस घंटे हममें एक ही भाव काम करता है खेलने वाले का भाव। चौबीस घंटे खेलते रहते हैं। सुख-दुख उठाते हैं, हारते हैं जीतते हैं, सफल होते हैं असफल होते हैं।
ध्यान रहे सिर्फ खिलाड़ी होना काफी नहीं है; दिन के कुछ समय में हमें दर्शक भीहो जाना चाहिए। अपना भी दर्शक हो जाना चाहिए। एक आधा घंटे के लिए, पंद्रह मिनटके लिए खिलाड़ी मत रह जाओ दर्शक हो जाओ- खुद के दर्शक! खुद को भी ऐसे देखने लगो जैसे हम किसी दूसरे को देख रहे हों। उससे बहुत अदभुत क्रांति होगी। कभी शायद तुमने प्रयोग न किया हो खुद के दर्शक होने का, लेकिन इसे करो यह प्रयोग अदभुत फललाता। खुद यह हम
है के दर्शक होने का मतलब है : जैसे दूसरे को देखते हैं उस भांतिथोड़ी देर को अपने को देखो। दूर हो जाओ सारा लगाव छोड़ दो खयाल भूल जाए कियह मैं हूं और इस भांति देखने लगो जैसे हम कोई फिल्म देख रहे हों।
जैसे समझो तुम कोई फिल्म देखने जाओ तो वहां भी दर्शक नहीं रह जाती हो,वहां भी तुममें तल्लीनता आ जाती है वहां भी तुम एक हो जाती हो। अगर फिल्म में किसी पात्र को दुख आ रहा है कोई पीड़ा आ रही है तुम्हारे भी आंसू बहने लगते हैं। उसका मतलब क्या हुआ? उसका मतलब यह हुआ कि तुम दर्शक नहीं रहीं तुम भी उस फिल्म का हिस्सा हो गईं और रोना-गाना तुमने शुरू कर दिया। मतलब हम तो नाटक में भी दर्शक नहीं रह जाते हैं।
बंगाल में एक बहुत बड़े आदमी हुए ईश्वरचंद्रविद्यासागर। तुमने नाम भी सुना होगा। वे एक नाटक देखने गए। उस नाटक में एक पात्र है जो एक स्त्री को बहुत बुरी तरह परेशान कर रहा है, उसके पीछे लगा हुआ है उसे हैरान कर रहा है उसे दुख दे रहा है।आखिर में विद्यासागर सामने बैठे-बैठे देख रहे थे उनको इतना गुस्सा आ गया कि वे यह भूल गए कि यह नाटक है, उन्होंने निकाला जूता और उस पात्र को उठा कर मार दिया। जूता निकाल कर उसको मार दिया बहुत जोर से। वे यह भूल गए कि वे नाटक देख रहे हैं। उनको धीरे- धीरे यही खयाल हो गया कि यह आदमी शैतान है बदमाश है और स्त्री को परेशान कर रहा है। लेकिन वह अभिनेता जो था उसने उस जूते को हाथ में लिया सिर से लगायाऔर कहा कि मेरे जीवन में इससे बड़ा पुरस्कार मुझे कभी भी नहीं मिला। विद्यासागर जैसे आदमी को भी मेरा नाटक इतना सच मालूम पड़ा कि वे जूता मार सके इससे बड़ा पुरस्कारऔर क्या हो सकता है? मेरा अभिनय सफल हो गया। विद्यासागर तो बहुत संकोच में हुए बड़े दुखी हुए। लेकिन बाद में उन्होंने कहा कि मैं भूल ही गया था कि वह नाटक था।
तो नाटक में भी हम भूल जाते हैं कि वह नाटक है। विद्यासागर जैसे समझदार आदमी भी भूल जाते हैं। इससे ठीक उलटा करने की जरूरत है। जैसे नाटक में भूल जातेहैं कि नाटक है और जीवन लगने लगता है ऐसा ही कभी दिन में कभी दो दिन में घड़ी आधा घड़ी को जीवन को भी ऐसे देखना चाहिए जैसे वह नाटक है। ठीक उलटा। अभी तोहम नाटक को भी जीवन मान कर उपद्रव में पड़ जाते हैं कभी ऐसा मौका निकालना चाहिए- दिन में रात में सोते वक्त - थोड़ी देर के लिए बैठ कर जीवन को भी ऐसे देखना चाहिए जैसे वह नाटक है और मैं केवल देखने वाला हूं।
उसके बहुत अदभुत परिणाम होंगे। उसके बड़े अदभुत परिणाम होंगे। जब कोई व्यक्ति अपने को दूर से खड़े होकर देखता है तो उसके जीवन में बहुत समझ बहुत अंडरस्टैंडिंग आनी शुरू होती है। तुम्हारा किसी ने अपमान किया। अगर तुम इसे नाटककी तरह देख सको तो तुम्हें हंसी आएगी क्रोध नहीं आएगा दुख नहीं आएगा। किसी ने तुम्हें गालियां दीं। अगर तुम तटस्थ खड़े होकर देख सको, दूर खड़े होकर देख सको तो तुम्हें ऐसा लगेगा कि कोई किसी को गाली दे रहा है और मैं केवल देख रहा हूं। तब तुम्हारे मन में पीड़ा के तीर नहीं चुभेंगे घाव नहीं लगेंगे। और अगर पूरे जीवन में कोई धीरे- धीरे साक्षी हो जाए और अपने जीवन की लीला को नाटक की तरह देखने लगे उसके जीवन सेदुख और चिंताएं विलीन हो जाएंगी।
बुद्ध एक गांव के पास से एक बार निकले। कुछ लोग आए और उन्होंने उन्हें बहुतगालियां दीं बहुत अपशब्द कहे बहुत अपमान किया। जब वे गालियां दे चुके तो बुद्ध नेकहा : अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है।
वे तो सारे लोग हैरान हुए और उन्होंने कहा : हमने कोई बातें तो नहीं कीं, हम तो सीधी-सीधी गालियां दिए हैं। उसमें भी कोई छिपावट न थी बात बिलकुल सीधी थी, हमने सीधी-सीधी गालियां दी हैं। फिर भी आप कोई दुखी नहीं मालूम होते। और क्याहमारी गालियों का कोई उत्तर नहीं देंगे? हमने यह जो इतना अपमान किया है इसके बदले में कुछ कहेंगे नहीं?
बुद्ध ने कहा : अगर तुम दस साल पहले आए होते तो मैं भी तुम्हें गालियों के उत्तरगालियों से देता। अगर तुम दस साल पहले आए होते तो तुम्हारे अपमान ने मुझे दुख पहुंचाया होता। लेकिन इधर दस साल से तो मैं, जो भी होता है, उसको देखने वाला रहगया हूं। और अब मैं तुम्हारे साथ वही करूंगा जो मैंने पिछले गांव में भी किया।
उन्होंने पूछा : क्या किया?
बुद्ध ने कहा : पिछले गांव में कुछ लोग आए थे फूल-फल लेकर, मिठाइयां लकर मुझे भेंट करने। मैंने उनसे कहा मेरा पेट भरा हुआ है इसलिए तुम क्षमा करो। वे उन थालियों को वापस ले गए। मिठाइयां फल वे वापस ले गए। अब तुम गालियां लेकर आए हो। और मैं तुमसे कहता हूं कि मैं लेने में असमर्थ हूं। अब तुम क्या करोगे? इन गालियों को सिवाय वापस ले जाने के कोई उपाय नहीं। और उन्होंने तो फल और मे वे अपने बच्चों को बांट दिए होंगे। तुम इन गालियों को किन को बांटोगे क्योंकि मैं लेने सेइनकार करता हूं। बुद्ध ने कहा, मैं लेने से इनकार करता हूं। तुम गालियां दे सकते हो, लेकिन अगर में न लूंगा तो फिर क्या होगा? और मैं इसलिए लेने से इनकार करता हूं किजब से मैं जाग गया और दर्शक हो गया तब से जो जरूरी होता है उपयोगी होता है, वही
लेता हूं जो उपयोगी नहीं है वह नहीं लेता। तो मुझे क्षमा करो बुद्ध ने कहा, कि मैंने तुम्हें पीड़ा दी कि तुम्हें गाली देने का श्रम करना पड़ा। और अब एक पीड़ा और दे रहा हूं कि गालियों को वापस ले जाने का श्रम भी करना पड़ेगा।
जो व्यक्ति जीवन में थोड़ा दर्शक हो जाता तटस्थ जरा दूर खड़े होकर अपने को देखने लगता है उसके जीवन में व्यर्थ छूटने लगता है। अपने आप छूटने लगता है उसे छोड़ना नहीं पड़ता।
तो खुद के दर्शक बनना सीखना चाहिए। जैसे-जैसे तुम खुद के दर्शक बनोगी, वैसे-वैसे तुम्हारे भीतर गति होगी तुम्हारे भीतर गहराई बढ़ेगी तुम्हारे भीतर नई-नई गहराइयां खुलेंगी। और तुम्हारे जीवन में जो क्षुद्र बहुत प्रभावित करता है छोटी-छोटी बातेंछू जाती हैं छोटी-छोटी बातें प्राणों को छेद देती हैं छोटी-छोटी बातें दुख लाती हैं, चिंतालाती हैं वे तुम्हें दुख देने में असमर्थ हो जाएंगी।
और अगर जीवन के दुख हमें न छुए अगर जीवन की पीड़ाएं हमारे भीतर न जाएं, अगर चिंताएं हमारे हृदय में घर न बनाए तो क्या होगा? तो अदभुत होगा! तब तुम्हारे भीतर एक मुक्ति फलित होगी एक फ्रीडम होगी। चारों तरफ से तुम्हारा जीवन धीरे- धीरे मुक्त होता जाएगा शांत होता जाएगा आनंदित होता जाएगा प्रेम से भरता जाएगा करुणा से भरता जाएगा मौन से भरता जाएगा। और इन्हीं सारी भूमिकाओं के बीच ध्यान भीसफल हो सकता है। इन्हीं सारी भूमिकाओं के बीच ही परमात्मा का कोई अनुभव उपलब्ध हो सकता है।
कोई ऐसी आसान बात नहीं है परमात्मा को पा लेना कि कोई बैठ गया और राम-राम जपने लगा और उसे परमात्मा मिल जाए। ये सब बच्चों जैसी बातें हैं। या कोई आदमी माला फेर ले और परमात्मा मिल जाए। परमात्मा को पाने के लिए पूरा जीवन बदलना जरूरी है पूरे जीवन की भूमिका बदलनी जरूरी है। जीवन में सरलता हो, जीवनमें साक्षी भाव हो जीवन में एकांत हो जीवन में मौन हो निर्विचार ध्यान हो, जब यह सारी भूमिका जीवन की बदलती है तो ही कोई परमात्मा को उपलब्ध होता है। ऐसे कोई माला फेरने से या कोई राम-राम जपने से या गीता की पोथी को रोज सिर टेकने से या किसी मूर्तिके सामने चंदन लगा कर बैठ कर कोई भजन करने से कोई परमात्मा को उपलब्ध नहींहोता। ये सब तो बहुत बच्चों जैसी बातें हैं। इनके भुलावे में जो पड़ जाता है उसका जीवन
नष्ट हो जाता है। परमात्मा को पाने के लिए तो पूरे जीवन को बदलना होगा। परमात्मा कोपाने के लिए तो पूरे जीवन की धारा को बिलकुल नया करना होगा। परमात्मा को पाने केलिए तो जीवन को एक दर्पण की भांति स्वच्छ और पवित्र बनाना होगा।
मैं पहले दिन आया था तो तुमसे कहा था कि तुम्हें एक दर्पण भेंट करना चाहता हूं।वह इसी सब बातों का दर्पण था। अगर तुम इन सारी बातों का उपयोग करो तो निश्चित तुम्हारा मन एक मिरर की तरह एक दर्पण की तरह पवित्र हो सकता है। और उस दर्पण में जिसके दर्शन होंगे वही परमात्मा है वही प्रभु है। और उसे जो पा लेता है वही धन्य होजाता है। और उसे जो नहीं पाता वह कुछ भी पा ले तो भी उसके पाए हुए का कोई भी मूल्य नहीं है। अगर जीवन के इन प्रारंभिक दिनों में तुम्हें यह बोध आ जाए तो तुम्हारा जीवन धन्य हो सकता है।
मेरी इन सारी बातों को तीन दिन तुमने बहुत प्रेम शांति से सुना है। समझने की कोशिश भी की होगी। उन पर और विचार करना। जो मैंने कहा है उसको थोड़ा प्रयोग करके देखना। हो सकता है कोई बात तुम्हारे काम की हो जाए कोई बात तुम्हारे जीवन में आधार बन जाए, कोई बात हो सकता है तुम्हारे जीवन को बदलने का बिंदु हो जाए और तुम्हारे जीवन में कुछ हो सके। परमात्मा तुम्हें सबको जीवन में धीरे- धीरे अपने निकटबुलाए, अपने प्रकाश से भर दे, अपने प्रेम से भर दे, इसकी अंत में कामना करता हूं।
अब हम आज के अंतिम ध्यान के लिए बैठेंगे।...
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