कुल पेज दृश्य

सोमवार, 3 दिसंबर 2018

संबोधि के क्षण-(प्रवचन-05)

पांचवां -प्रवचन

क्षण-क्षण जीना

प्रश्नः कल बात हुई थी लक्ष्यहीनता पर। वह ठीक है कि बच्चे के लिए लक्ष्यहीनता एक आनंद का रास्ता है, तो क्या यह समाज के लिए घातक नहीं होगा? यह दिशाहीनता नहीं होगी उसकी? जिसको आजकल कहते हैं कि प्रोग्रेस है, आगे बढ़ना है। प्लानिंग का जमाना है, तो यही प्लानिंग किसे, क्यों? टारगेट बना लो फाइव इयर्स का, सेवेन इयर्स का, क्या वह सब गलत है लक्ष्यहीनता होना?

व्यक्ति को तो ऐसे ही जीना चाहिए कि जैसे कल है ही नहीं। जो क्षण मिला है वह वही काफी है, तो ही व्यक्ति अधिकतम जी पाएगा। क्योंकि प्रतिक्षण का भोग कर लेगा। रहा समाज, तो सच बात तो यह है कि समाज केवल व्यवस्था है, उसके पास कोई आत्मा नहीं है। और व्यवस्थाएं तो कभी भी वर्तमान में नहीं जी सकती। असल में व्यवस्थाएं जीती ही नहीं, व्यवस्थाओं के पास कोई जीवन ही नहीं है। जीवन तो है व्यक्ति के पास। व्यवस्था के पास
कोई जीवन नहीं होता। तो व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि व्यक्ति अधिकतम जी सके। व्यवस्था का अपना कोई जीवन ही नहीं है। जब हम कहते हैं कि समाज का जीवन, तो हम ऐसे शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, जिनका कोई भी अर्थ नहीं है। लेकिन बहुत बार शब्दों से भूल पैदा होती है। एक छोटी सी घटना से मैं समझाऊं कि शब्दों से बड़ी अदभुत भूल पैदा होती है।


अलाइस इन वंडरलेंड में एक छोटी सी कहानी है। अलाइस पहुंची परियों के देश में। परियों की रानी से मिलने गई। तो रानी ने उससे पूछा, डीड यू मीट समबडी कमिंग टुवडर््स मी? कोई मिला रास्ते में मेरी तरफ आता हुआ? उसने कहा: नोबडी मैडम, कोई भी नहीं। लेकिन रानी ने समझा कि नोबडी नाम का कोई आदमी आता है। उसके ही पीछे रानी का हरकारा है, डाकिया है, वह आया मैसेंजर, उसने उससे भी पूछा कि डीड यू मीट समबडी कमिंग टुवर्ड्स मी? उसने कहा: नोबडी मैडम, तब तो और पक्का हो गया क्योंकि दो आदमियों ने कहा कि नोबडी आ रहा है। तो उस रानी ने उस मैसेंजर से कहा कि इट्स नेवर बी वॅाक स्लोवर दैन यू, नोबडी वॅाक स्लोवर दैन यू। वह जो नोबडी है, वह तुमसे बहुत धीमा चलता है। ऐसा रानी ने कहा, लेकिन हरकारे ने समझा कि रानी कहती है तुमसे धीमा कोई भी नहीं चलता। मैसेंजर की तो जिंदगी ही तेज चलने पर है। उसने कहा आप क्या कहती हैं? नोबडी वाक्स फास्टर देन मी। आप बात क्या कर रही हैं? मुझसे तेज कोई नहीं चलता। रानी ने इफ नोबडी वॅाक फास्टर देन यू, देन ही मस्ट रीच्ड बीफोर। तब वह घबड़ाई, उसने कहा कि नोबडी को अब तक आ जाना चाहिए, अगर वह तुमसे तेज चलता है। वह मैसेंजर घबड़ाया तो उसने कहा कि नोबडी इ.ज, नोबडी मैडम, तो रानी ने कहा, अॅाफकोर्स, नोबडी मस्ट बी नोबडी। यह ठीक है बात कि नोबडी इ.ज नोबडी, लेकिन आना तो चाहिए। और ऐसे वह कहानी चलती है। और वह जो नोबडी है समझाना मुश्किल होता चला जाता है। कि वह कोई भी नहीं है।
 समाज जो है वह नोबडी है। समाज जैसी कोई चीज है नहीं। लेकिन रोज-रोज बात करके ऐसा लगता है कि समाज कोई है। जीवन है उसका। आदमी है, हाथ में है उसके, समाज को बचाओ, समाज की रक्षा करो, समाज ऐसा न हो जाए समाज वैसा न हो जाए। फिर भी हम भूल जाते हैं कि समाज का मतलब क्या है? समाज का मतलब है हमारे बीच के अंतर्संबंधों का जोड़। हम दस लोग यहां बैठे हैं, एक समाज बैठा है। लेकिन समाज कहां बैठा है? एक-एक आदमी बैठा है। लेकिन दस आदमी बैठे हैं पास-पास तो एक तरह का संबंध बना है उनमें। उस संबंध का नाम समाज है। समाज का मतलब है रिलेशनशिप। तो व्यक्ति जैसे होते हैं, समाज वैसा हो जाता है। समाज का अपना कोई है नहीं हिसाब। अगर व्यक्ति सब काले रंग के कपड़े पहन लें तो समाज काले रंग के कपड़े पहन लेता है। और व्यक्ति अगर सभी आनंदित हैं, तो समाज आनंदित हो जाता है। और व्यक्ति अगर क्षण में जीएंगे तो समाज ऐसा हो जाएगा कि वह क्षण में जीने की सुविधा बने, तो वह बन जाएगा। लेकिन समाज में ऐसी र्कोई चीज नहीं होती है कि उसका कोई लक्ष्य, ऐसा कुछ, कोई मतलब नहीं रहता। व्यक्ति है, वास्तविक। और मजा ये है कि समाज वास्तविक हो गया है और व्यक्ति नकार हो गया है, यानी व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं। हम कभी पूछते ही नहीं कि व्यक्ति? सारी बात समाज के आस-पास होती है, राष्ट्र के आस-पास होती हैं, संप्रदाय के आस-पास होती हैं। जो कि बिल्कुल झूठ है, सब झूठ है। न संप्रदाय कहीं है, न कोई धर्म कहीं है, न कोई राष्ट्र कहीं है? लेकिन बातचीत इनके आस-पास चलती है। और सारी दुनिया इनके आस-पास घूमती है। और मजा यह है कि झूठ के आस-पास जो बिल्कुल फाल्सूड है, फाल्सूड इनकार्मिक कहना चाहिए जहां कुछ है ही नहीं। उसके आधार पर सारा जीवन बंधा है। सारी हमारी फिलासफी बंधी है। और जो है वस्तुतः जिसका अस्तित्व है व्यक्ति का, उसको निषेध कर दिया गया और उसको हम भूल ही गये।
मैं मानता हूं कि एक ऐसी दुनिया होनी चाहिए। एक ऐसा समाज, जहां समाज जैसी चीज का मूल्य ही न रह जाए, मूल्य तो हो व्यक्ति का। और व्यक्ति ही मूल्यवान है। और व्यक्ति जैसा जिएगा वैसे अंतर्संबंध बनेंगे, वैसा समाज होगा।

प्रश्नः अंतर्संबंध के लिए लक्ष्य जरूरी है?

नहीं, कोई भी लक्ष्य जरूरी नहीं है।

प्रश्नः जैसे व्यक्ति कोई सपोज कीजिए प्राइम मिनिस्टर बन गया, या प्रेसीडेंट बन गया, तो यह लक्ष्य होना ही पड़ेगा?

अभी हमारी क्या कठिनाई है कि चूंकि वह एक लक्ष्य वाले लोगों का प्राइम मिनिस्टर बनता है, इसलिए बिना लक्ष्य के तो आप उसे निकाल बाहर कर दें। क्योंकि हम सब लक्ष्य वाले लोग हैं, हमारा सब थिंकिंग जो है, वह भविष्य केंद्रित है कि कल ऐसा करना, परसों ऐसा करना, परसों ऐसा होना, तो जो प्रधानमंत्री बनता है, वह कहता है कि परसों हम ऐसा करेंगे, परसों हम ऐसा करवा के बता देंगे, तब हम उसको बनाते हैं।
एक प्रधानमंत्री अगर कहे कि मैं तो अभी जीता हूं, कल की क्या बात है? अभी जीएंगे कल की कल सम्हाल लेगा। हम कहेंगे आप नीचे उतरो। लेकिन अगर दृष्टि बदले और ऐसे व्यक्ति पैदा हो जाएं जो कहते हैं आज सब कुछ है, तो हम आज जीएंगे। आज से कल भी निकलेगा तो कल रुक थोड़ी जाएगा। और वह जो आज भी हम योजना बनाते हैं, वह निकलती तो आज से ही हैं लेकिन हमारी नजर न आगे अटकी रहती है। तब भी निकलेगा, तब भी निकलेगा।
मैं पिछली बार एक कहानी कह रहा था। एक माली एक बगिया में काम कर रहा है। सम्राट निकला है गांव का, घोड़ा रोक कर देखने लगा। माली बूढ़ा है सत्तर साल का होगा। सम्राट की उम्र पचास साल होगी। उसने उतरके माली से कहा कि बूढ़े! तुम कुछ नासमझ मालूम पड़ते हो, तुम जो अंगूर लगा रहे हो, उसमें फल तीस साल में आते हैं। तुम सत्तर साल के हो गये हो, फल कब आएंगे? मर जाओगे, यह फल तुम नहीं देख पाओगे। तो उस माली ने कहा कि हम तो लगाने का मजा ले रहे हैं। और जितनी देर बाद फल आयेंगे, लगाने में उतना ही मजा आयेगा। लगाने में। यानी हम जो लगा रहे हैं उसकी यात्रा बड़ी लंबी है। बाकी फल पर नजर नहीं है। लगाने पर न.जर है। उस माली ने कहा कि बहुत से ऐसे फल हमने खाएं हैं, जो हमारे बापदादाओं ने लगाए थे। कोई लगाता है, कोई खाता है। उन्होंने भी लगाने का मजा लिया था, नहीं तो पागल थे। हम भी लगाने का मजा ले रहे हैं। तो उस पर सम्राट ने कहा कि तुम हिम्मत के आदमी हो, सत्तर साल की उम्र में ऐसी हिम्मत जरा मुश्किल होती है। अगर फल आ जाएं तुम्हारी जिंदगी में तो पहला फल मेरे पास ले आना, अगर मैं बच जाऊं। तीस साल वह माली जी गया। असल में ऐसे लोग एक अर्थ में मरते ही नहीं। ऐसे लोगों को मारना बहुत मुश्किल है। ऐसे लोग जीते हैं। फल आ गए हैं तो पहले गुच्छे लेकर वह सम्राट के दरबार को चला गया। राजा तो भूल ही गया। पहचान में भी नहीं आया, कहा कौन हो, कैसे आए हो, क्या बात है? उसने कहा कि ऐसे-ऐसे बात थी, मैं वह माली हूं, जो लगा रहा था, वे फल आ गये हैं, सोचा था सिर्फ लगाने का मजा लेंगे लेकिन फल आने का मजा भी आ गया। ये लगाने से आ गया नहीं तो इसका कोई ख्याल नहीं था। इसका ख्याल होता तो मैं लगाता ही नहीं, क्योंकि मैं तो मरने ही वाला था। मेरा तो कोई पक्का ही नहीं था। फल आ गए हैं तो मैं आपको भेंट कर जाता हूं, लौटने लगा, तो राजा ने उसको जितने वह फल लाया था उतने ही हीरे-जवाहरात भर कर टोकरी में दे दिए। और कहा कि तुम जैसे आदमी दुनिया में हैं, बड़ी खुशी की बात है। वह गया था अंगूर लेकर, लौटा हीरे-जवाहरात लेकर। सारे गांव में खबर फैल गई। अंगूर तो साधारण थे। बाजार में बिकते थे। इतने से अंगूरों के लिए इतने हीरे जवाहरात मिल गए हैं। तो सारे गांव में दौड़ लग गई। सारे गांव के लोगों को जहां से जिसको मिला वह टोकरी में उठा कर महल में पहुंच गया। और सबने राजा से जाके कहा कि भरो टोकरी में हीरे-जवाहरात, क्योंकि हम भी वही अंगूर लाएं हैं, बल्कि उससे भी बेहतर। राजा ने कहा तुम समझे ही नहीं, तुम नाहक मेहनत कर रहे हो। उस आदमी को हमने अंगूरों का थोड़ी फल दिया है? बिना फल के भी कोई आदमी रहता है, उसका ईनाम दिया है। फल की आकांक्षा के बिना कोई आदमी है, उसका ईनाम दिया है। और तुम फल लेने आए हो, तुमको खाली हाथ लौट जाना पड़ेगा। तुम खाली हाथ ही लौटोगे।
मेरा कहना यह है कि व्यक्ति की व्यवस्था, व्यक्ति का जीवन केंद्र होना चाहिए। उसका आनंद अर्थ रखना चाहिए। फिर आनंदित व्यक्तियों में भी एक व्यवस्था होगी, एक मेल होगा, एक संबंध होगा। लेकिन वह बड़ी और बात है। और हमें ख्याल में इसलिए नहीं आती, क्योंकि हम एक ही तरह की व्यवस्था के आदीे हो गए हैं। और उस व्यवस्था में हम इतने जड़ हो गए हैं, कि हम तो रह ही नहीं गए, व्यवस्था ही रह गई है। व्यवस्था ज्यादा वजनी हो गई है। यानी मैं और तुम महत्वपूर्ण नहीं हैं। हमारे बीच के संबंध महत्वपूर्ण है। बाप अपने बेटे से कह रहा है कि मैं तेरा पिता हूं, इसलिए पैर छू। अब कहीं इसलिए होता है। देयरफोर, कोई गणित है कि मैं तुम्हारा पिता हूं इसलिए? छुएगा लड़का पैर। क्योंकि अब यह एक व्यवस्था है। अब इसमें व्यक्ति खो गया, अब पैर छूना एक मैकेनिकल एक्ट है। क्योंकि वे पिता हैं और मैं लड़का हूं इसलिए ठीक है पैर छूना एक व्यवस्था है तो पैर छू दिए। प्रेम भी गया, आदर भी गया, सब खो गया। क्योंकि प्रेम और आदर व्यक्ति से आते हैं, व्यवस्था से नहीं आते। व्यवस्था तो बिल्कुल मशीन की तरह है, उससे अॅाफिस चलते हैं, फैक्ट्री चलती है, जिंदगी नहीं चलती। वह तो जितनी यांत्रिक चीज होगी, व्यवस्था उतनी ढंग से चला लेगी। जिंदा। और इसलिए जितना जिंदा आदमी होगा उतनी उसके साथ व्यवस्था नहीं होगी। वह अनप्रेक्टिकल होगा। आप उसके बाबत घोषणा नहीं कर सकते। कि यह ऐसे करेगा। क्योंकि कोई व्यवस्था नहीं है, पक्का नहीं है कि अंकुर निकलेगा तो दाएं जाएगा या बाएं जाएगा, कि कहां जाएगा या क्या होगा? निकलेगा और जाएगा कहीं? वह उसकी भीतरी चिंताओं पर निर्भर होगा। मेरा जोर है व्यक्ति पर। और अब तक जोर था समाज पर। और इसलिए समाज के जोर ने व्यक्ति की हत्या कर दी। व्यक्ति पर जोर होगा तो निश्चित ही समाज मरेगा, जिस समाज को हम जानते हैं, वह तो मरेगा। वह मरना ही चाहिए। उस समाज का कोई मतलब ही नहीं है। लेकिन एक नया समाज पैदा होगा। लेकिन वह समाज बहुत डाइनैमिक होगा। वह व्यवस्था चूंकि व्यक्ति को ही केंद्र मान कर चलेगी, एक बड़ी डाइनैमिक होगी उससे, जो चीजें बदलती होेंगी, वह रोज बदल जाएंगी। और जहां चीजें रोज बदलती हों, वहां जिदगी है, और जहां चीजेें ठहर जाती हों, वहां मौत है।

प्रश्नः क्या यह लक्ष्य नहीं हो गया?

न, बिल्कुल नहीं। अगर इसको लक्ष्य बनाया, अगर इसको लक्ष्य बनाया और इस लक्ष्य के लिए कोशिश में लग गए, तो लक्ष्य की हत्या अपने हाथ से कर दी। यानी कि यह मेरा कहना, यह समझ से निकलेगा। लक्ष्य नहीं है हमारा, यह लक्ष्य पूरा हो सकता है, लेकिन यह लक्ष्य नहीं है हमारा। हमें तो जो समझपूर्वक उचित मालूम हो रहा है, वह हम समझ रहे हैं। हम उसकी चेतना पैदा कर रहे हैं। यह उसकी बाई-प्रॅाडक्ट होगी। यह आएगा उसके पीछे।
एक आदमी गेहूं बो रहा है। कोई गेहूं बोता है तो भूसा उसके साथ आ जाता है। वह उसका लक्ष्य नहीं है। लेकिन कोई आदमी सोचे, कि हमको भूसा लाना है, तो भूसा बो दे, तो घर का भूसा भी चला जाए, और कुछ पैदा नहीं होता। तो वह बाई-प्रॅाडक्ट है। वह गेहूं के साथ आता ही है। लक्ष्य जो है, अगर हम जीना सीख जाएं तो वह आता ही है, जिंदगी के साथ उसको अलग से सोचने की जरूरत ही नहीं है। जीएगा तो आने वाला है आता ही रहेगा, रोज-रोज आएगा। जरा भी नहीं, कोई जरूरत ही नहीं, हां, हम हमेशा हैं। और हम जितने ज्यादा कांशियस हैं लक्ष्य के प्रति, उतने ही अनकांशियस हो गए हैं अपने प्रति। क्योंकि लक्ष्य बहुत दूर है, और हम यहां पास हैं।
एक आदमी सड़क पर चल रहा है। वह दस मील दूर एक लक्ष्य को देख रहा है। एक्सीडेंट होने वाला है। वह यहां है और दस मील दूर पर आंखें हैं। चलना यहां हैं, डुलना यहां है, हिलना यहां है, बचना यहां है, और दस मील दूर पे लक्ष्य है। तो गया वह। होना यहां चाहिए। और चलने से दस मील कब पूरे हो जाएंगे, यह पता भी नहीं चलेगा। जब पूरे हो ही जाने वाले हैं तो, लेकिन हमें जीना है एक-एक कदम पर और एक-एक कदम पर जीते जाना है। और वह दस मील कब पूरे हो जाएंगे पता भी नहीं चलेगा और लक्ष्य भी आ जायेगा। लेकिन लक्ष्य सेंटर्ड नहीं होना चाहिए। रोज-रोज हमें जीना चाहिए, उस जीने से सहज कुछ निकलता ही रहेगा। निकल आएगा। लेकिन हम क्या करते हैं कि जीने को हम रोज-रोज नहीं भोग कर, कोश पूर्ण करके रखते हैं कि तब जीएंगे, जब वह लक्ष्य मिल जाएगा। उस लक्ष्य का कोई पक्का ही नहीं। और इतना जीना तो कम से कम नष्ट हो ही जाएगा, वह लक्ष्य मिलते-मिलते। और यह जो माइंड है, इसकी आदत हो जाएगी लक्ष्य में ध्यान रखने की। जब वह लक्ष्य मिल जाएगा तो फौरन इसकी नजर आगे चली जाने वाली है। इसने अगर तय किया कि दस लाख रुपये मिल जाएं फिर विश्राम करूं। दस लाख रुपये मिलते-मिलते इसकी नजर बीस लाख पर चली जाने वाली है। और उसको पता ही नहीं चलेगा कि कब चली गई। हां उसका लक्ष्य ज्यादा महत्वपूर्ण था। बिना लक्ष्य के वह जी नहीं सकता। लक्ष्य के आदी हो जाते हैं, हां, आदी हो जाता है। यानी हम फिर एक तरह की झूठी जिंदगी जीने लगते हैं। जो लक्ष्य के पूरे होने की आशा में चलती है। फिर हम जीते नहीं अभी। जीने का मतलब यह है कि जहां हम हैं, वहां हमें पूरा होना चाहिए। एक छोटे से छोटे काम में भी। यानी मैं कोई जीवन की ऐसी कोई बड़ी-बड़ी बात नहीं कर रहा, कि मोक्ष पाओ, ईश्वर पाओ वे सब लक्ष्य हैं। और सब गड़बड़ बातें हैं। मेरा उन सबसे मतलब नहीं है। जियो अभी, हां, अगर किसी को प्रेम किया है, तो पूरे डूब जाओ उस प्रेम में इसी वक्त, इस मौके को क्यों खो देते हो?
एपीकुरस था यूनान में। वह थोड़े से अदभुत लोगों में से एक हुआ। यूनान का सम्राट उससे मिलने गया। उसकी खबर सुनी कि नास्तिक है, और कहता है कि खाओ-पीयो मौज करो। लेकिन ये भी खबरें आई कि वहां लोग बड़े शांत हैं, बड़े आनंदित हैं। उसने बगीचा बनाया हुआ है, उसी में सब रहते हैं। वह सम्राट देखने गया। वह तो दंग रह गया। वे तो सारे लोग दोपहर से बगीचे में काम कर रहे थे, फिर सब झाड़ों के नीचे सो गए। वह देखता रहा, फिर नींद के बाद उठे और फिर काम में लग गए हैं। फिर सांझ को सब नदी तट पर नहाए-धोए, वह सब देखता रहा। वह बड़ा हैरान हुआ। लोग बगीचे में गड्ढे खोद रहे थे, तब वह ऐसे अनंदित थे कि जैसे कोई खजाना गड़ा हो। ऐसा नहीं था मामला कि सिर्फ गड्ढा खोद रहे हैं। ऐसे गड्ढा खोद रहे हैं जैसे कोई खजाना खोद रहा हो। इतने आनंदित थे खोदने में। पसीना बहा जाता था। फिर वह बिल्कुल थक गए। फिर वह वृक्षों के नीचे ऐसे सो गए कि जैसे किसी महल में सो रहे हों। फिर वे उठे तो जब वे स्नान करने गए थे। फिर सांझ को आकर सबने खाना बनाया। फिर खाना बना कर खाना खाया था, फिर उस खाना खाने के बाद उसने देखा कि वह हैरान रह गया, उसने इतना रसविमुग्ध किसी को भोजन करते कभी देखा ही नहीं था। वे ऐसे खाना खा रहे थे कि बिल्कुल डूब ही गए थे। खाना खाना ही सब कुछ था। फिर रात देर तक चांदनी में वे नाचते रहे। फिर वृक्षों के नीचे सो गए।
एपीकुरस से उसने कहा कि क्या यही तुम्हारा खाओ-पीओ मौज करो? उसने कहा: यही। मैं, बहुत खुश हुआ, इतने खुश लोग मैंने कभी नहीं देखे। क्योंकि कल था ही नहीं, कल दुखी करता है। कल चिंतित करता है। कल तनाव देता है। टेंशन लाता है। इतने खुश लोग, मैंने कभी देखे नहीं, फूलों की तरह बच्चों की तरह, क्या राज है इनका? तो एपीकुरस ने कहा कि कोई बड़ा राज नहीं। हम जीते हैं, और आप जीने की योजना करते हैं। सम्राट ने कहा कि मैं बहुत ही खुश हो गया हूं। और कुछ भेंट भेजना चाहता हूं। क्या भेंट भेज दूं? एपीकुरस ने अपने मित्रों से कहा: क्या चाहोगे? सम्राट कहता है कुछ भेंट भेज दें, कुछ, क्या भेंट भेजूं? तो वह सब सोच-विचार में पड़ गये। सम्राट ने कहा कि इतने सोच-विचार की क्या बात है? एपीकुरस ने कहा, सर! बात यह है कि कल का हमें कोई पता ही नहीं, आप ही विचार कर लीजिए। आप कहते हैं भेजेंगे भेंट। हम बड़ी मुश्किल में पड़ गये। कल के लिए बड़ी चिंता हो गई कि क्या, जो आपकी मर्जी हो। फिर भी उसने कहा कि नहीं, तुम्हीं कुछ बताओ, तो एक आदमी ने कहा कि फिर आप थोड़ा सा मक्खन भेज देना। मक्खन, क्यों? उसने कहा कि बहुत दिन से बिना मक्खन की रोटी खाने का मजा लेते हैं। अब मक्खन की रोटी खाने का मजा लेंगे।
सम्राट ने लिखवाया है अपने दस्तावेज में कि मैंने ऐसे लोग नहीं देखे जिनसे मैंने कहा कि जो तुम कहो मैं भिजवा दूंगा। वे बोले, थोड़ा सा मक्खन। और जब मैं मक्खन लेकर दूसरे दिन गया, तो मैंने उनको देखा कि वे मक्खन को रोटियों पर लगा कर ऐसे नाचने लगे और भगवान को धन्यवाद देने लगे कि मुझे अगर पूरी पृथ्वी का पूरा राज्य मिल जाता तो भी मैं नहीं नाच सकता था। व्यक्ति ऐसे जीए कि बस यह जो जीने का क्षण जा रहा है पास से, यह हो सकता है कि अगला क्षण न भी हो। एक दिन तो ऐसा आएगा ही कि अगला क्षण नहीं होगा। एक क्षण पर तो यात्रा टूट ही जाएगी। वह इसी क्षण पर भी टूट सकती है। तो पोस्टपोंड करना तो बड़ा सुसाइडल है। हम कहें कि कल प्रेम कर लेंगे कल का कोई पक्का नहीं है। कल का कोई पक्का ही नहीं है। कल का क्या भरोसा? हो सकता है आप न हों, हो सकता है प्रेम करने वाला न हो। प्रेम लेने वाला न हो। हो सकता है दोनों हों लेकिन प्रेम विदा हो गया हो। कल का तो कोई पक्का नहीं है। कोई भरोसा नहीं है। भरोसा तो हो सकता है इसी क्षण का जो मेरे हाथ में है और अभी जा रहा है। बस इसका, इससे ज्यादा का कोई भरोसा नहीं हो सकता। और इसको ही दांव पर लगा देते हैं उस क्षण के लिए, जो कभी आएगा, तो हम गणित ही गलत किए दे रहे हैं।

प्रश्नः यह कहने में जरा आसान महसूस होता है। बड़ा आसान महसूस होता है, कहने में। सब शास्त्र और वेद सब ऐसा ही है, बट इट इ.ज वेरी डिफिकल्ट?

जरूर कठिन है, कठिन है क्योंकि उसे हमने कठिन बनाया हुआ है। सरल हो जाता है हम सरल बना लें तो।

प्रश्नः सरल कैसे हो जाए कि हमको कितनी आदत पड़ी है? कितनी ज्यादा?

असल में, असल में कोई आदत कभी किसी को रोकती नहीं, नासमझी रोकती है। आदत रोकती ही नहीं। आपको कितनी ही आदत पड़ी हो कि दो और दो पांच होते हैं। और एक दिन आपको समझ में आ जाए कि दो और दो चार होते हैं। और आप यह नहीं कहेंगे कि मुझे हजार साल की आदत है, दो और दो पांच की। एकदम विदा हुआ है। समझ न आए तो आदत रोकती है। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न, यानी बहुत गहरे में प्रश्न अंडरस्टेंडिंग का है, आदत का नहीं है। तो अंडरस्टेंडिंग अगर आ जाए तो अब भी सरल हो जाए। और नहीं आएगी अंडरस्टेंडिंग अगर आप कोशिश में लग गए कि हमें इसे सरल करना है, यह फिर यूचर शुरू हो गया। आप मेरी बात समझ लें। अगर आप मेरी बात सुन रहे हैं और उस वक्त आपने सोचा कि हां, यह तो बड़ी करने जैसी चीज है। इसे हम कैसे करें? तो आप गए यूचर में आपने फिर यह नियमन छोड़ दिया। आपने योजना बना ली। और योजना कठिन हो जाएगी। नहीं, मैं यह कह रहा हूं कि मेरी बात समझ में पड़ती है तो समझ लें, बात खत्म हो गई। सभी समय में उतनी बात है इससे ज्यादा तो कुछ है ही नहीं। और यह समझ को अगर आप बिना किसी फ्यूचर में बांधे, उतर जाने दें भीतर, तो आप सीढ़ियों को उतरते पाएंगे कि ऐसे आप कभी सीढ़ियों से उतरे ही नहीं, जैसे आज आप उतर रहे हैं। यह आपकी कोशिश का हिस्सा नहीं होगा। और आप रात जाकर आज ऐसे सोएंगे जैसे आप कभी सोए नहीं थे लेकिन यह आपकी कोशिश का हिस्सा नहीं होगा। यह आपकी अंडरस्टेंडिंग आई बाई-प्र्रॅाडक्ट होगी। और हो क्या जाता है कठिन क्यों है? कठिन इसलिए है कि जब मैं कह रहा हूं तब आपको वह सुखद लगने लगा। यह बिल्कुल सुखद बात है, यह अगर ऐसा हो जाए, बस आप चूक गए। चूक इसलिए गए कि आपने सुखद लगा आपने लगा कि कैसे हो जाए? आप तरकीब सोचने लगे कि कैसे करेंगे? तब तक हो पाएगा और कठिन मालूम होने लगा। क्योंकि आप करने के ख्याल में चले गए। असल में आप अगर करने के ख्याल में गए तो इस जगत में सभी कुछ कठिन है। और अगर आप समझने में उतर गए, तो इस जगत में कुछ भी कठिन नहीं है। इसलिए सवाल समझ का है, और समझ चूक जाती है फौरन।
मेरे पास लोग आते हैं। कहते हैं कि आपने जो कहा था, वह हम बड़ी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन आप कोशिश कर रहे है तो मुझे समझे ही नहीं। ये ही तो मैं कह रहा कि कोशिश करने में तो क्योंकि कोशिश हमेशा फ्यूचर सेंटर्ड है। कोशिश कभी पे्रजेंट में हो ही नहीं सकती। ख्याल ले रहे हैं आप। और अगर यह ख्याल में आ जाए तो कठिनाई जो है हमारी, वह कठिनाई है, क्योंकि निरंतर हम उस ढंग से जीए हैं। और वही जीना हमने पकड़ रखा है जोर से। लेकिन वह कठिनाई ऐसी ही है, जैसे कि एक घर में अंधेरा भरा हो बहुत सालों का। और फिर कोई कहे कि तुम दीया जलाओ। सब मिट जाएगा। और वह आदमी कहे कि हम समझ गए लेकिन अंधेरा कई सालों का है, और एक दिन दिया जलाने से क्या होगा? ठीक है, वह ठीक कहता है। वह गणित बिल्कुल ठीक है उसका। वह कहता है कि पचास साल से अंधेरा भरा हुआ है, हजार साल से अंधेरा है उस कमरे में। लेकिन एक दिन के दीये जलाने से हो क्या सकता है? बड़ा कठिन है। हजार साल का अंधेरा है, तो हजार साल दिया जलाएं कम से कम, मेहनत करें तो होगा। नहीं लेकिन उसे पता नहीं दीया जलाने का। कि दीया जलाने पर वह हजार साल वाला अंधेरा ये नहीं कह सकता कि मैं हजार साल का हूं, कि एक दिन का हूं, कि कितने दिन का हूं। दीया जलाया वह गया। तो हमारी जो नासमझी है, वह कितनी ही अनंत जन्मों की हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बार समझ, फील हो जाए, एक क्षण हमें दिख जाए, और वह नहीं दिख पाता है इसलिए कि जब हम समझने की कोशिश में लगे हैं, तब भी हम यूचर में चले गए हैं फौरन। उसकी फिकर ही छोड़ दें कि वह होगा कि नहीं होगा, सवाल ही नहीं है इसका। इसको इस तरह सोचें हीं मत कि यह होगा कि नहीं होगा। क्योंकि यह सोचना ही गलत है। अगर समझ में आ गया तो यह हो ही जाता है। और समझ में नहीं आया तो ये होता ही नहीं है।

प्रश्नः अगर यह समझ ही साधना पर हमें लेकर जाता है। और आप यूं ही कहते हैं, कि मैं कौन हूं, ऐसा अभ्यास करो, इसके लिए बुद्ध ने कितने वर्ष एकाग्रता की होगी। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिलता है, जो सब सुनते-सुनते उपलब्ध हुए। आपकी बात या किसी भी महाऋषि की बात, परम ज्ञान किया, इतने वर्ष क्यों लगते हैं? ऐसा हम समझते हैं कि आपको भी वर्ष लगे होंगे। उस पुरुषार्थ के लिए, उस स्थिति तक पहुंचने के लिए, महावीर को भी लगा होगा?

वर्ष लगे होंगे। वह अतीत की बात हो गई। वर्ष लगेंगे नहीं। मैंने एक स्त्री से पूछा कि जब तू संन्यास में मां हुई तो तुझे कैसा लगा? उसने कहा घर जाकर देखेंगे। घर उतर कर मैंने पूछा कि कैसा लगा? डरते हुए उसने कहा कैसा लगा, बिल्कुल ठीक लगा। माला मैं वहीं छोड़ आई हूं। जो माला हाथ में रखती थी, वह मैदान में ही छोड़ आई। क्योंकि चालीस साल का मेरा अनुभव भी कहता है कि कुछ भी नहीं हुआ। चालीस साल तो हो गए हैं। अब उसने यह नहीं सोचा कि कैसे माला छोडूं, पूछती तो घबड़ा जाती, मुश्किल हो जाता मामला। इतने दिन की माला कैसे छोडूं? और चालीस साल से करती हूं, तो कैसे जाए? आसान नहीं है छोड़ना। नहीं समझ आई और छूट गई। असल में हम समझ की फिकर करें। बस और कुछ फिकर ही मत करें। यानी हम इसको इस अर्थ में सोचें ही नहीं कि क्या हानि, क्या लाभ, कब, कैसे? सोचें ही नहीं, ये सोचा कि आप समझ से चूके। ऐसा समझ लें कि जैसे किसी और के लिए समझ रहे हैं। आपको इससे कुछ लेना-देना नहीं है। ऐसा मैंने कई दफा देखा है कि मुझसे कोई बात करने आता है, तो जो मुझसे बात करता है सीधा, मैं पाता हूं कि वह कम समझ पाता है, जो किनारे बैठा है एक आदमी जो मुझसे बात नहीं कर रहा, वह ज्यादा समझ जाता है। और उसका कारण मैंने अनुभव किया है कि क्योंकि वह समझने की कोशिश में लगा हुआ है बेचारा, वह चूक जाता है, वह कोशिश भारी पड़ जाती है। वह सिर्फ बैठा है, बगल में एक आदमी बैठा है।
बंबई में एक मित्र थे। वे कोई दो-तीन कैंप में आ होंगे और ध्यान उन्हें नहीं हुआ। उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे तो होता ही नहीं कुछ। मैंने कहा: तुम करने की ज्यादा कोशिश करते हो, नहीं होता। यह तो बड़ा मुश्किल मामला है। जब करने से नहीं हो रहा है, तो न करने से कैसे होगा? गणित तो ठीक ही है हमारा। जब इतनी मेहनत करने से नहीं हो रहा है तो न करने से कैसे होगा? तो मैंने उनसे कहा कि तुम आज घर जाके सोने की कोशिश करो। और नींद आ जाए तो मुझे बताना सुबह आकर। रात भर उन्होंने सोने की कोशिश की, उसके पहले सो जाते थे, कोशिश नहीं की थी कभी। उस रात नींद नहीं आई। तो उन्होंने मुझसे आके कहा कि ये तो बड़ा मुश्किल हो गया। रात खराब हो गई मेरी इस कोशिश में। तो मैंने कहा कि क्या अब तुम यह कह सकते हो कि कोशिश नहीं करूंगा तो नींद कैसे आएगी? जब रात भर कोशिश की तो नहीं आई। अब तो नहीं कह सकता हूं क्योंकि रोज सोता ही था। अब तो मैं झंझट में पड़ गया। कोशिश की सोने की तो कोशिश तो टेंशन हो गया। बाधा हो गई। तो वह नींद नहीं आई। तो मैंने कहा कि फिर एक दफा कभी आ जाओ, क्योंकि मैं यह नहीं कहता हूं कि कैंप में आने से ध्यान हो जाएगा, यह मैं नहीं कहता। हो सकता है, ये थोड़ी है मामला की हो जाएगा। यह कोई ट्रेनिंग थोड़े ही है कि लेफ्ट-राइट है कि हो जाएगा। और कई लोग इस ख्याल से पहंुच जाते हैं कि हो जाएगा, वह बेचारे खाली हाथ लौट जाते हैं। जो इस ख्याल से जाता है कि देखें क्या हो सकता है, हो जाता है।
एक जैन साधु-साध्वियों का सम्मेलन था। तब मुझे उन्होंने बुलाया था कि मैं उनको ध्यान के लिए कुछ कहूं। तो वह मित्र भी पहुंच गया वहां। वे भी जैन हैं। उन्होंने सोचा कि देखूं साधु-साध्वी कैसे ध्यान करते हैं? वे मेरे पास बैठे। और ध्यान करने नहीं बैठे थे। तीन-चार जो साधु-साध्वी जो थे, वह ध्यान करने बैठे थे। वह तो सिर्फ देखने, मुझसे पहले कहा उन्होंने कि मैं तो सिर्फ देखने आया हूं। मैं सिर्फ देखूंगा, कोई एतराज तो नहीं है। मैं ध्यान नहीं करूंगा, मैं सिर्फ बैठ कर देखना चाहता हूं क्या हो रहा है। मैंने कहा बहुत अच्छा है, बैठो। मैंने ध्यान की बात करनी शुरू की, साधु-साध्वियों ने ध्यान शुरू किया और मैंने देखा कि वह आदमी मेरे बगल में गिर गया। गिर ही गया। सब साधु-साध्वी ध्यान से उठ आए। और वह आदमी उठा ही नहीं। और वहां भीड़ लग गई। कि क्या हो गया? हिला रहे हैं, डुला रहे हैं, वह कहीं और ही खो गया है। बड़ी मुश्किल से उठा। मेरे पैर पकड़ लिए कहने लगे कि ये क्या हो गया? क्योंकि मैं तो सिर्फ देखने बैठा था। यह हो कैसे गया? मैंने कहा: यह वही नींद वाली कहावत है। अभी तक तुम ध्यान करने बैठते थे, वहीे बाधा हो जाती थी। आज तुम सिर्फ देखने बैठे थे, दूसरों का देख रहे थे, तुम्हे कोई मतलब ही न था। समझ गया, उतना भी दबाव नहीं था कि मैं समझूं, उतना भी टेंशन नहीं चाहिए। तो अंडरस्टेंडिंग, तो समझ खिलती है। और उसके खिलने से सब होता रहता है। और उसके होने का हमें कुछ करना नहीं पड़ता। इसलिए और फिकर ही छोड़ दें कुछ। समझें, कुछ मुझसे समझें, ऐसा नहीं, समझें। हां, रास्ते पर चलते, और मकान में बैठे, और खाना खाते, और मित्र के पास, और दुश्मन के पास, अपरिचित के पास, समझें, किससे यह भी नहीं। क्या यह भी नहीं। क्या समझें यह भी नहीं। किससे समझे यह भी नहीं। कहां समझें यह भी नहीं। बस समझते रहें, समझ को जगा हुआ रखें। उससे जो फल होते हैं वे अपने आप होते हैं। और इसलिए यह सोचो ही मत कि यह कठिन है कि सरल। क्योंकि कठिन और सरल दोनों ही, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि वह करने की भाषा से निकलते हैं। कि हम करेंगे तो सरल हैं कि कठिन है। कोई कहे सरल है कि कठिन, दोनों बातें गलत हैं, क्योंकि करना है नहीं। और तब किसी तरह का बंधन न लें। अगर ऐसा समझ लें कि आप अगर पृथ्वी पर अकेले आदमी होते, कोई न होता, न पीछे कोई इतिहास, न पीछे कोई पुराण, न पीछे कोई किताब, न पीछे कोई गुरु, पीछे कोई था ही नहीं।
राबिंसन क्रोसो की तरह आप पृथ्वी पर फेंक दिए गए थे अकेले, बिल्कुल अकेले, तो आप कैसे जीते, जीते न? मर तो नहीं जाते? कि गीता नहीं है, तो मर जाएं, अब क्या करें? गीता नहीं है तो मर जाएंगे। रामायण नहीं है, तो मर जाएंगे। गुरु नहीं है, तो मर जाएंगे। जीते तो? कैसे जीते? बस सहज जीते। फिर कल भी ना होता, मोक्ष भी न होता, भगवान भी न होता, पुण्य-पाप भी ना होते, बस जीते, भूख लगती, फल तोड़ते, नींद आती, सोते, धूप पड़ती, छाया में चले जाते, छाया ठंड देने लगती, धूप में आ जाते। जीते। पीछे कुछ न होता, आगे कुछ न होता तो आप जीते। ऐसा ही समझें, और सच बात तो यह है कि आप ही अकेले ही हैं। कोई राबिंसन और क्रोसो तो हैं ही। भीड़-भाड़ से क्या होता है? उससे क्या फर्क पड़ता है कि कितने रोबिंसन क्रोसो हैं। आदमी अकेला तो है ही। तो फ्रेशली जीएं, बासा न जीएं। और हम सबको बासा जीने के लिए इस तरह सिखाया जा रहा है। कोई किताब पढ़ो उसमें लिखा है कि जीवन का रस्ता क्या है? जीने की राह यह रही, बस हमको बासा किया जा रहा है, एकदम। बासा किया जा रहा है। गुरु पकड़े हुए हैं, ग्रंथों में बताते हैं कि ऐसा करो। हमको बासा किया जा रहा है। मां-बाप पैदा होते से बासा कर रहे हैं। शिक्षक बासा कर रहा है। सब मिल कर इस कोशिश में लगे हैं कि तुममें ताजगी रह ना जाए किसी तरह से। ताजा आदमी खतरनाक है, क्योंकि वह जीएगा। और जीने, कोई भरोसा नहीं है कि वह कैसा जीए। इसलिए सब तरफ से इंतजाम करके उसे मार डालना है। ताकि वह वैसा जीए, जैसा हम चाहते हैं, जीना चाहिए। तो इसको समझ में आ जाए कि आदमी छूट जाए, छोड़ना भी नहीं पड़ता, भागना भी नहीं पड़ता छोड़ना। भागना किससे, छूटना किससे। छूट गया। यानी यह ख्याल में आ गया कि इस तरह की साजिश चारों तरफ कसी जा रही है। मैं उसमें कस गया हूं। और कस गया हूं तो मैं राजी हूं इसलिए। इसमें क्षण भर की भी देर नहीं है। लेकिन जब ये होगा तो आपकी जिंदगी में ऐसे फूल खिलेंगे, ऐसी सुगंध आएगी कि लोग इकट्ठे हो जाएंगे। और वे पूछने लगेंगे यह कैसे हुआ? हो सकता है कि आप भी इस भूल में पड़ जाएं कि मैं यह-यह कर रहा था इसलिए हुआ। आप भी, दूसरे तो भूल में पड़ेंगे ही कि यह आदमी प्रतिक्रमण कर रहा था। परिश्रम कर रहा था। उपवास कर रहा था। नमाज पढ़ रहा था। उसमें हो गया है इसको। और जो असली कारण है समझ, वह ख्याल में नहीं आयेगा और ये नकली कारण है इसे कैसे कपड़े पहनूं।
मैं ब्यावर में था। तो वहां का बहुत बड़ा नेता मुझे मिलने आया। मुझसे कहा एकांत में मिलूंगा। दरवाजा बन्द कर लिया। मैंने कहा कहिए, उसने कहा कि मुझे दो-तीन बातें पूछनी हैं। एक तो मुझे ये पूछना है कि आप जिस तरह के कपड़े पहने हैं, इस तरह के कपड़े अगर मैं पहनूं तो कुछ लाभ होगा? हंसी आती है हमें, लेकिन हमारे सब साधु-संन्यासी येह ही कर रहे हैं। और हम उधर पैर छू रहे हैं, उधर जाकर हम खड़े होकर हंसते नहीं। लेकिन कर क्या रहे हैं? वे सोच रहे हैं कि फलां आदमी, विवेकानंद ऐसा कपड़ा पहने हुए खड़ा था, तो पचास विवेकानंद खड़े हैं। वही पगड़ी बांधे हुए, वही साफा लपेटे हुए उस ख्याल में कि शायद गेरुए कपड़ों से कुछ हो जाए। क्योंकि गेरुए कपडे वाले आदमी से हो गया फिर। यह जो हमारा सोचने का ढंग है, और ये चाहे कपड़े का हो या चाहे किसी और का।
अब महावीर को जिस दिन ज्ञान हुआ उस दिन वह ऐसी स्थिति में बैठे थे, जिसमें आमतौर पर आदमी कभी बैठते ही नहीं। वे बैठे थे ऐसे जैसे कोई गाय को दोह रहा हो। गोदोहासन में बैठे हुए थे। जब गाय को दोहते वक्त बैठते हैं। ऐसे बैठे हुए थे। उस वक्त उनको ज्ञान हुआ। तो ख्याल चल पड़ा कि परम ज्ञान जो है, वह दोहासन से होता है। अब उकडूं बैठ कर, ऐसा होने से परम ज्ञान प्रकट हो रहा है। अब हो सकता है महावीर लेटे होते, खड़े होते, चल रहे होते, इससे क्या लेना-देना। इससे कुछ नहीं है, समझ किस क्षण प्रकट हो सकती है कैसी स्थिति में, न शरीर से कोई वास्ता है न कपड़ों से, न आप क्या खा रहे थे, क्या पी रहे थे, से कोई बहुत गहरा वास्ता नहीं है। मगर हमें यह दिखाई पड़ता है। जब हो जाता है एक आदमी का उसकी हम सब जांच-पड़ताल करके व्यवस्था बना लेते हैं। और सोचते हैं इस व्यवस्था को हम भी ढाल लें, तो हमको भी हो जाएगा। उसको हुआ था समझ से और हम व्यवस्था ढाल देते हैं। और समझ व्यवस्था कभी नहीं आने देती। इससे खो जाते हैं कहीं ओर। इसलिए सिर्फ समझें। अंडरस्टेंडिंग के अतिरिक्त और कुछ मूल्यवान नहीं है इस जगत में। सत्य भी मूल्यवान नहीं है, समझ मूल्यवान है। और परमात्मा भी मूल्यवान नहीं है, समझ मूल्यवान है। क्योंकि जहां समझ है वहां सत्य भी है, वहां परमात्मा भी है। वह सब पीछे चले आते हैं। असल में, जिंदगी में जो आ जाए मुझे स्वीकृत है, जो आए। लेकिन कुछ आ जाए, इसका कोई सवाल ही नहीं। कुछ भी आ जाए, इसका कोई सवाल नहीं है। सत्ता कि, संन्यास कि मोक्ष आए, आ जाए, इससे कोई लेना-देना नहीं है, और जो भी आ जाए, जब आ ही जाएगा तो करोगे क्या?

प्रश्नः कुछ चीजें आती नहीं है, थोड़ा सा हाथ बढ़ाना होता है?

नहीं, उतना भी हाथ मैं नहीं बढ़ाता। उतना भी हाथ मैं नहीं बढ़ाता। जो चीज हाथ बढ़ाने से आती है, उसमें मेरी उत्सुकता नहीं है। असल में प्रारब्ध और डेस्टिनी और भाग्य, बड़े और अर्थ की बातें हैं। जैसा हम उनको सोचते हैं, वैसी नहीं हैं। जैसा हम उनको सोचते हैं, वैसी नहीं हैं। हम ऐसा सोचते हैं कि जो लिखा है, वह होगा। जो होने वाला है, वह होगा। जो बंधा है, वह होगा। हम ऐसा सोचते हैं। फिर हमारी दृष्टि जो है समझ ही नहीं पाई कि जिन लोगों ने कभी भाग्य की बात की होगी, वे बड़े अदभुत लोग थे। जिन्होंने जाना होगा, समझा होगा। उनका मतलब यह नहीं है कि जो होगा, वह तय है। उनका यह मतलब ही नहीं है। यानी फ्यूचर से उनका यह मतलब ही नहीं, जो मैं कह रहा हूं। हमारे भाग्य का मतलब सदा फ्यूचर से है। यानी कि हम यह निश्चित कर लेना चाहते हैं कि क्या होगा? जो होगा वह ठीक है। जिन लोगों ने भाग्य को पहली दफा सूत्र दिया, उनका प्रयोजन ही कोई दूसरा था। उनका प्रयोजन था कि जो हो गया, वह हो गया। हमें उसमें कुछ अनकिया नहीं होता है, इसलिए फिजूल की बकवास में मत पड़ो, जो हो गया, वह हो गया। उनका जो मतलब है, वह अतीत से है कि जो हो गया वह हो गया। हां, वह गया, एक आदमी मर गया, मर गया। अब इस पर तुम एक क्षण भी मत सोचो। अब रुको ही मत। हां, एक हाथ टूट गया तो टूट गया। अब तो इस पर सोचो ही मत। यह होना था, हो गया। इसका मतलब केवल इतना है कि यह जो जिसने भी जिनको समझ पड़ी थी बात, उन्होंने भाग्य की जो बात कही थी वह आपको अतीत से मुक्त करने की थी। अतीत से मुक्त करने के लिए। क्योंकि अगर जो होना था वही हुआ तो उस बात को सोचने की जरूरत क्या है। सोचते हम इसीलिए हैं कि अगर ऐसा न होता और ऐसा हो जाता तो। अगर ऐसा होता कि मैं दो मिनट देर भर से निकलता तो एक्सिडेंट बच जाता। मगर तुम निकल चुके, अब निकलते इसका कोई मतलब ही नहीं है। जिन्होंने भाग्य की बात की थी, उनका प्रयोजन इतना था कि अतीत से तुम मुक्त हो सको। और हम उस बात का जो अर्थ निकाल लिए हैं, वह यह है कि न तो हम अतीत से मुक्त होते हैं बल्कि हम भविष्य से भी बंध गए हैं। यानी हमने उसको बंधन बनाया हुआ है। तो मैं तो बिल्कुल भाग्य का विरोधी हूं। क्योंकि वह उसूल गलत रास्ते चला गया। और अक्सर ऐसा होता है कि कभी किन्हीं क्षणों में, किन्हीं घड़ियों में मनुष्य के इतिहास में कोई चीज कारगर होती है और आदमी उसको सुनने का आदी हो जाता है और उसके दूसरे अर्थ निकाल लेता है। तब उसे हत्या कर देनी चाहिए। उस सिद्धांत को फिर तोड़ना चाहिए। उधर मैं न मालूम कितने पुराने सिद्धांतों के खिलाफ बोलता हूं, मुझे बहुत दर्द होता है, क्योंकि मैं जानता हूं कि उन सिद्धांतों में कुछ है। और ऐसा अदभुत, है जिसका कोई हिसाब नहीं। लेकिन अब उनका, उनका सारा एसोसिएशन बदल गया है। उनका सारा दूसरा ही मतलब हो गया है। और इसलिए अब उनको बिल्कुल जड़ से तोड़ देना जरूरी है। ताकि फिर अब हम फिर दूसरी तरफ से वही शुरू कर सकें, जो उनमें था। तो इसलिये मुझे समझना ही मुश्किल हो जाता है और एक झंझट खड़ा हाता है।
सब पुराने सिद्धांतों पर किसी न किसी दिन चोट करनी पड़ती है, क्योंकि आदमी उनको अपनी मशीन की दुनिया में फिर ढाल लेता है। और ऐसे मतलब निकाल लेता है, जो मतलब उनमें कभी थे ही नहीं। और वे इतने पुराने हो जाते हैं जैसे भाग्य वह हमेशा हमें नियति बन गया है, डेस्टिनी। डेस्टिनी होती फ्यूचर में। दिस इ.ज नॅाट ए फ्यूचर। भाग्य को हमने बना लिया भविष्य का निर्धारण कि भविष्य का निर्धारण कैसे करें? और जिन्होंने बात की है, उन्होंने बात की है अतीत से मुक्त करने की। जो हो गया, वह हो गया। इतना ही भाग्य का मतलब है। जो अभी नहीं हुआ है, वह नहीं हुआ है। और इतना ही मतलब है सिर्फ और इसलिए जो हो गया है उससे हम छुटकारा पा जाते हैं क्योंकि अब उसमें कुछ करने जैसा नहीं बचा। सोचने जैसा भी नहीं बचा। सोचने का भी उपाय नहीं है उसमें। अगर इतना समझ में आ जाए तो मैं भाग्य के बिल्कुल पक्ष में हूं। उतना समझ में न आए तो मैं एकदम दुश्मन हूं। मैं फिर उसे बिल्कुल बरदाश्त नहीं करता कि भाग्य की कोई बात भी उठाये।
रोज ऐसा होता है कि हम, आदमी का मन जो है, वह इतना चालाक, इतना कनिंग है कि हिसाब नहीं है उसका, कनिंगनेस का उसकी। हमें पता नहीं कि वह जल्दी से चीजों को कैसे बदल देता है? और किस तरह फिक्स्ड कर देता है? और क्या मलतब निकाल लेता है? यह हमें पता ही नहीं। और जो मतलब वह निकाल लेता है, वह चूंकि बहुत से मनुष्यों का माइंड भी वैसे ही निकालेगा, इसलिए वे मतलब थिर हो जाते हैं। और जो मतलब था, वह खो जाता है। यानी वह मतलब तो एकाध-दो ही लोग निकाल सकते हैं। जो है, और जो नहीं है, वे हम सब निकाल सकते हैं। तो हम सब लोग उस पर राजी हो जाते हैं। हम सब निकाल सकते हैं, वह मतलब। कुछ भी पता नहीं है हमें जो हमारी सुविधापूर्ण होता है, हम उसमें से मतलब निकाल लेते हैं।

(प्रश्न ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

ख्याल दूसरी बात है, ख्याल बिल्कुल दूसरी बात है। यह भी हमें समझना चाहिए। जैसे कि आपको कल प्लेन में जाना है, तो आज आपको टिकट लेनी पड़ेगी। टिकट लेनी पड़ेगी, पता लगाना पड़ेगा कि प्लेन कब जाता है? यह सब आपको करना पड़ेगा। लेकिन यह करते क्षण में भी आप प्रेजेंट सेंटर्ड हैं या फ्यूचर सेंटर्ड, यह सवाल है। वह तो करना ही पड़ेगा, यह तो मुझे भी करना पड़ेगा।

(प्रश्न ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

न, न, न, आप मेरी बात नहीं समझे, जब मैं ये विचार कर रहा हूं कि कल सुबह जाऊं या न जाऊं। तो ये विचार तो मैं अभी कर रहा हूं। इस विचार करने में क्या मैं पूरा डूबा हूं? अगर डूबा हूं तो मैं पे्रजेंट में हूं। आप मेरा मतलब नहीं समझे। यह विचार तो अभी हो रहा है न, यह तो कल नहीं हो रहा है, कल का विचार है, हो तो अभी रहा है। इसमें मैं अगर पूरा लीन हो गया हूं, तो मैं वर्तमान में हूं। और अगर कल जाऊं के न जाऊं, इसमें कल मेरा सेंटर बन गया है। कल, और आज खो गया है बिल्कुल यह मोमेंट भी खो गया है। और वर्तमान मेरा भूल ही गया है, और अब मैं कल में खड़ा हो गया हूं जाकर। और कल मेरे चित्त में केंद्र बन गया है। तो मैं फ्यूचर सेंटर्ड हो गया।
वह तो महावीर को भी रात पड़ गई है तो गांव में ठहरना है, कि नहीं सोचना पड़ेगा। किसी को भी, लेकिन यह सोचना भी फ्यूचर सेंटर्ड है। या यह भी आपके वर्तमान की ही घटना है, और उसमें आप पूरे डूब गए हैं। ऐसे समझें, आप खाना खा रहे हैं, और खाना खाते वक्त अगर आप सोच रहे हैं कि कल मुझे प्लेन से जाना है, तो क्या आपको खाना उस वक्त याद रहा है कि मशीन बन गए आप? क्या खाना खाया ये भी याद नहीं रहा। तो फिर आप यूचर में चले गए।
मैं अगर खाना खा रहा हूं तो खाना ही खा रहा हूं। और अगर सोच रहा हूं तो सोच लूं, खाना बंद कर दूं। मेरी बात नहीं समझे। सोचूंगा तो सोचूंगा खाना बंद कर दूंगा। मगर उस वक्त भी मैं पे्रजेंट में ही हूं। फ्यूचर में नहीं। तो वह जो हमारी लांगिंग है, फ्यूचर की, वह जानी चाहिए। वह जो हमारा पागलपन है भविष्य का, वह जाना चाहिए। और इसलिए भूल हो जाती है बहुत। अब जैसे कि मैंने कहा है आपसे कि कल का भी आज आपको अभी सोचना पड़ेगा। लेकिन यह आपकी कोई साइकोलाजिकल नीड नहीं है। यह सिर्फ व्यवस्था का हिस्सा है कि कल जाना है आपने तय किया, सोच लिया, बात खत्म हो गई।
यह आपकी साइकोलॅाजिकल नीड नहीं है। जैसे नीड कब होगी यह कि एक आदमी बैठा हुआ है मित्र आपका और उससे आप मिलना नहीं चाहते और बात नहीं करना चाहते। आप उससे भागना चाहते हैं। और आप सोच रहे हैं कि कल हवाई जहाज से जाऊं कि ट्रेन से जाऊं। कैसे जाऊं? कैसे न जाऊं? और आप सिर्फ इस बात से भागना चाहते हैं कि पत्नी बगल में बैठी है, उसे आप भूलना चाहते हैं। और आप उसमें जा रहे हैं। तो आप फ्यूचर में एस्केप कर रहे हैं। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न, तब आप वर्तमान की किसी स्थिति से भाग रहे हैं। और कल में खो रहे हैं ताकि अभी जो है वह पता न चले। तब फिर आप फ्यूचर में चले गए हैं। नहीं तो कोई मतलब नहीं।

प्रश्नः आपको प्लेन में आठ घंटा लगता है, इसका मतलब है उस प्लेन में आप प्रजेंट हैं। यू विल बी प्रेजेंट सेंटर्ड?

हां, बिल्कुल ही, बिल्कुल ही, आठ घंटे का सवाल ही नहीं है। आठ घंटे तो हमको दिखाई पड़ते हैं, होता तो मोमेंट ही मोमेंट है। एक ही मोमेंट होता है। दूसरा तो होता ही नहीं है इकट्ठा कभी। एक ही काफी होता है, एक से गुजर गए तो दूसरा आता है। आप जिस ढंग से एक से गुजरे, उसी ढंग से दूसरे से गुजर गये। कोई जरूरत ही नहीं है, कोई जरूरत नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

बिल्कुल बता सकते हैं। और डेस्टिनी बिल्कुल फिक्स्ड नहीं है। और बता सकते हैं। हां, यह ही तो फिर कैसे हो सकता है। बिल्कुल हो सकता है, इसलिए हो सकता है। असल में हम जो व्यक्ति है, साधारणतः जैसे यंत्रवत, जीने वाले, तो कल तक आप जीएं हैं मशीन की तरह। एक सचेतन जीवन आपका नहीं है। यंत्र की भांति आप जीए। उस यंत्र की भांति जीने से आपकी एक व्यवस्था बन गई, है। और उस व्यवस्था के कारण आप एक ढंग से कल भी जीएंगे, यह बिल्कुल कहा जा सकता है। क्योंकि आप चेतन तो जीते ही नहीं। प्रिडिक्टेबल आप इसलिए हैं कि आप मशीन की तरह जी रहे हैं। अॅाटोमेटिक की तरह जी रहे हैं। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न जैसा कि मैं कह सकता हूं कि विजय कल सुबह उठ कर सिगरेट पीएंगे। यह इसलिए नहीं कि कल सिगरेट पीना कोई बंधा है, बल्कि विजय को मैं जानता हूं कि रोज सुबह सिगरेट पीते हैं। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न। अगर ये रोज सुबह सिगरेट पीते हैं। और ये सचेतन रूप से नहीं जीते हैं। यंत्र की तरह जीते हैं तो कल सुबह ये उठेंगे और सिगरेट उठाएंगे और जलाएंगे और पीएंगे। यह इसलिए नहीं कि यह कल सिगरेट पीएंगे कि ऐसी कोई डेस्टिनी है, जो तय है कि कल सिगरेट पीनी ही पड़ेगी। नहीं, लेकिन ये जिस ढंग से जीए हैं, उसका अॅाटोमैटिक रिजल्ट है। तो हम अनेक जन्मों में जीए हैं। और अनेक जन्मों में जीकर हमने एक व्यवस्था बना ली है। हम उस व्यवस्था के कारण प्रिडिक्टिबल हो गए हैं। वह व्यवस्था बहुत रूपों में प्रकट होती है। हाथ की रेखाओं में भी प्रकट होती है। माथे पर भी प्रकट होती है, पैर की रेखाओं में भी प्रकट होती है। और हजार रास्ते हैं उसके प्रकट होने के। वे हजार तरह से प्रकट होती हैं। वह किस क्षण में आप पैदा हुए, इस दुनिया में उसमें भी प्रकट होती है आपकी व्यवस्था। आपकी जो व्यवस्था है, अनंत-अनंत जन्मों की, उसने आपको बिल्कुल मशीन बना दिया है। और चीजें अॅाटोमैटिक घूमने लगी। अब आप करने वाले हैं ही नहीं उनके। इसलिए आप प्रिडिक्ट किए जा सकते हैं। लेकिन जिस दिन आप जाग गए, उस दिन के बाद आप प्रिडिक्ट नहीं किए जा सकते।
एक घटना सुनाता हूं। उससे तुम्हें बात समझ में आएगी।
बुद्ध भिखारी हो गए। और यह ख्याल में है, बुद्ध भिखारी हो गए न, और भीख मांगने लगे गांव-गांव। एक नदी के किनारे से निकले, तो रेत पर उनके पैरों के चिह्न बन गए, और पैरों में वे चिह्न हैं जो कि चक्रवर्ती के होते हैं। काशी से एक पंडित लौट रहा है ज्योतिष सीख कर उसने पैर देखे उसने कहा कि मर गए, भरी दुपहरी, उजड़ गांव, गंदी नदी, चक्रवर्ती नंगे पांव? पोथी लाया था सब शास्त्र कि बारह साल अध्ययन करके, कहा कि इसे नदी में डुबा दूं। झंझट में न पडूं तो गड़बड़ हो जाएगी। कि चक्रवर्ती नंगे पाव भरी दुपहरी में गंदी नदी की रेत पर। या तो पोथी गलत हो गई चिह्न पक्का साफ है। इससे पहले कि किताबें डुबाऊं सोचा कि जरा इस आदमी को खोज लूं और मिल जाए जरा देख लूं कि यह आदमी कौन है? वह गया, कदमों के पीछे, एक वृक्ष की छाया में बुद्ध विश्राम करते हैं। वहां गया, देखा आदमी तो चक्रवर्ती होने जैसा लगता है, और है भिखारी। भिक्षा पात्र रखे हैं, कुछ पास में नहीं है नंगे पैर। और देख कर तो चेहरे से लगता है कि चक्रवर्ती होना चाहिए था। कहां भूल हो गई? कहां गड़बड़ हो गई? और चिह्न बिल्कुल स्पष्ट हैं। शक-सुबह का उपाय नहीं। वह बुद्ध को जाकर पूछा कि मैं ज्योतिषी हूं। बारह बरस अघ्ययन करके लौटता हूं। पहले ही दिन दिक्कत में पड़ गया हूं, अभी मैंने किसी का हाथ भी नहीं देखा। और ये पैर का चिह्न दिख गया, मैं मुश्किल में पड़ गया हूं। क्या तुम चक्रवर्ती हो? तो यहां क्या कर रहे हो? भीख मांग रहे हो। तो अपने शास्त्र को डुबा दूं, और नमस्कार कर लूं, बारह साल खोए समझूं। बुद्ध ने कहा: नहीं, इतनी जल्दी नतीजा मत निकालो, चक्रवर्ती होने को ही पैदा हुआ था। यानी व्यवस्था ऐसी थी पीछे कि चक्रवर्ती होता। लेकिन व्यवस्था तोड़ दी। स्वतंत्र हो गया हूं। अब चिह्न काम नहीं करेंगे। तो कभी करोड़, दो करोड़ आदमी में कभी जब एक आदमी मुक्त होता है, तो मुक्त का मतलब ही यह है कि अब उसका भविष्य नहीं बताया जा सकता। मुक्त का मतलब ही यही है कि अब अतीत के आधार पर उसका कोई भविष्य नहीं, क्योंकि अब अतीत से वह मुक्त हो गया है। हम चूंकि अतीत से बंधे हैं। इसलिए हमारा बिल्कुल प्रिडिक्ट किया जा सकता है। और कुछ चीजों में उसका भी प्रिडिक्ट किया जा सकता है। इन चीजों से वह मुक्त नहीं हुआ। जैसे बुद्ध की उम्र बताई जा सकती है, चाहे वह बुद्ध हो जाएं, कोई ओर हों। क्योंकि शरीर से बुद्धत्व का कोई लेना-देना नहीं है। यह बताया जा सकता है कि यह व्यक्ति इतने दिन में चल बसेगा। बुद्ध के शरीर की बीमारियां बताई जा सकती हैं। क्योंकि शरीर से उनके बुद्धत्व का कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन बुद्ध एक अर्थ में अब हवा की भांति हो गए, क्योंकि बुद्ध का एक नाम है, जो बड़ा अदभुत है। हम कहते भी हैं लेकिन ख्याल में कभी लेते नहीं। बुद्ध का एक नाम है, तथागत। तथागत का मतलब होता है: जस्ट कम, जस्ट गॅान। ऐसे आए और ऐसे गए, जैसे हवा आती है और जाती है। जिसके बाबत कोई भरोसा नहीं है कि कब आ जाए, कब चली जाए। कोई पक्का नहीं कि हवा पश्चिम जाए, पूरब जाए, कि आए, कि या न आए। या आ जाए, या चली जाए। ऐसा जो आदमी हो गया है, जिसके बाबत हवा की बात करते हैं।
मुक्ति पर तो ज्योतिष अर्थहीन हो जाता है। लेकिन मुक्ति तक की घटना के बाबत भी कुछ सूचनाएं दे सकता है। मुक्ति तक की यानी मुक्त होने तक के बाबत भी कुछ सूचनाएं दे सकता है। बुद्ध जिस दिन पैदा हुए थे, ज्योतिषी ने कहा कि या तो सन्यासी हो जाएगा और या चक्रवर्ती। तो पिता ने कहा कि ‘या’ क्योें लगाते हो। ऐसा कैसा ज्योतिष जो ‘या’ लगाए। या तो ये चक्रवर्ती हो जाए या संन्यासी। पिता ने कहा कि या क्यों लगाते हो? ऐसा कैसा ज्योतिष, जो ‘या’ लगाए। उसने कहा कि ये लड़का जरा साधारण नहीं है। इसके साथ ‘या’ लगाना पड़ेगा सदा। यह सीधा नहीं है। यह इधर-उधर हो सकता है। हमारे साथ या नहीं लगता। इसका कारण यह नहीं है कि सब बंधा है, उसका कारण है कि हम सब बंधें है। तो या लगाने की कोई जरूरत नहीं है। चीजें बताई जा सकती हैं। इसलिए निन्यानबें मौकों पर सही हो सकती है बात, और फिर मैं कहता हूं कि आदमी बंधा हुआ नहीं है। इसलिए मैंने कहा कि दोनों बातें मैं कहता हूं। ज्योतिष अर्थपूर्ण है और आदमी बंधा हुआ नहीं है। लेकिन जैसा आदमी है, वह बंधा हुआ है। चाहे तो अनबंधा हो सकता है। मुश्किल से कभी कोई हो पाता है। करते ही नहीं हम कुछ। हम कुछ करते ही नहीं। यह हम सोचते ही नहीं। समझते ही नहीं या होना भी नहीं चाहते। जब हम बातों में कुछ पूछोगे तुम मुझसे न, तो हमारी सारी भाषा चूंकि लक्ष्य से निर्मित होती है, इसलिए कठिनाई है।

प्रश्नः लेकिन यह ज्योतिष ने ही तो हम लोगों को बांध कर रखा है कि हम सोचें?

कोई किसी को बांध कर नहीं रखा है। आप अगर, अगर आप, यानी ज्योतिष आपको बांध कर नहीं रखता है।

प्रश्नः हर व्यक्ति के जीवन में अलग-अलग घटनाएं होती हैं, लेकिन यदि कोई दूर से देख कर कोई ऐसी बात बताता है जिसका उस बात से कोई संबंध नहीं है, और वह बात हमारी गोपनीय बात हो, सिर्फ वह मुझे ही मालूम है कि जो मैंने किसी को बताई भी नहीं और कोई बता देता है, तो क्या यह ज्योतिष नहीं है?

यह तो बिल्कुल ही ज्योतिष नहीं है। यह तो दूसरी बात है। इससे तो ज्योतिष का संबंध ही नहीं है। यह तो टेलीपैथी है। यह बिल्कुल मामला दूसरा है। हां, इससे ज्योतिष का संबंध ही नहीं है। इसको समझ लेना ठीक से, कि ज्योतिष बहुत और बात है। यह बात तो जो ज्योतिष नहीं जानता है बिल्कुल वह भी बता सकता है। उसका कारण है।
मैं एक, जहां पूना में मैं रुकता हूं, जिसके घर पहली दफा, उसके घर रुका। तो घर की गृहिणी जो है उसने रात मुझे आकर कहा कि मैं आपके ही कमरे में यहीं बिस्तर डाल कर सो जाऊं। वह बिस्तर लेकर बगल में डाल कर सो गई, लेट कर उसने पूछा कि मैंने कभी आपसे कुछ नहीं पूछा..और सच में उसने मुझसे कभी भी कुछ नहीं पूछा..एक बात मुझे पूछनी है, आप हंसेंगे, क्योंकि बात ऐसी है कि क्या पूछना उसका। फिर भी तुम पूछ लो। आपकी मां का नाम क्या है? तो मैंने कहा: यह भी कोई पूछने की बात थी। तू आंख बंद कर ले, जो पहला नाम तुझे आ जाए तू बोल दे, वही मेरी मां का नाम होगा। तो वह इतनी सरल है कि उसने यह नहीं पूछा कि क्यों? कैसे? अगर पूछती तो फिर मैं कहता कि ठहर मैं बताए देता हूं। क्योंकि फिर मामला नहीं होने वाला था। उसने आंख बंद कर ली और एक सेकेंड बाद उसने कहा: सरस्वती। मैंने कहा: हां, वह नाम है। तो उसने कहा कि लेकिन यह कैसे हुआ? मैंने कहा: अगर यह तूने पहले पूछा होता तो यह नहीं होने वाला था। हुआ कैसे? लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। तू बगल में लेटी है, मैं अपनी मां का नाम जानता हूं। तू शांत लेटी है, ट्रांसफर हो जाएगा फौरन। पूरा सत्य मेरे में है। रात है, शांत है, और क्यों और क्या नहीं पूछ रही। क्योंकि क्यों और क्या पूछने वाला शांत नहीं होता। तूने मेरी मान ली और चुप हो गई। और मैं जानता हूं कि मेरी मां का नाम क्या है। और मैं तेरे पास हूं। वह नाम ट्रांसफर हो गया वह उस शांति ने पकड़ लिया। जब कोई तुमसे कहे कि तुम्हारी उम्र, फलां दिन, फलां तारीख, को तू पैदा हुई, इससे ज्योतिष का वास्ता नहीं, ज्योतिष में जोड़ा जा सकता है इसको। इसका वास्ता बिल्कुल दूसरा है, तुझे तो पता है न, बस तेरा पता ट्रांसफर होता है, और कुछ भी नहीं होता। तुझेे जो पता है अगर कोई व्यक्ति दूसरा रिसेप्टिव हो सकता है, और एक सेकेंड को भी पूरी तरह चुप होकर तेरी तरफ, तुझे जो पता है वह तेरी तरफ ट्रांसफर हो सकती है। वह टेलीपैथी है।

प्रश्नः लेकिन जो भविष्य की बात बताए, आगामी बात, पांच साल बाद और वह बात सच हो गई है, हम उसे क्या कहेंगे?

न, न, न, हो सकती है, बिल्कुल हो सकती है। असल में इसमें बहुत सी सांइसेज हैं। यानी हमारी तो क्या कठिनाई है कि एक शब्द होता है हमारे ख्याल में, तो बहुत साइंसेज हैं। इसमें टेलीपैथी है, जो ज्योतिष में जुड़ जाती है। और जुड़ जाए तो ज्योतिषी अदभुत हो जाता है, साधारण नहीं रहता।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां, यह बिल्कुल कहा जा सकता है, इसके बहुत से कारण है। वही तो मैं तुमको कह रहा था। वही तो मैं कह रहा था। यानी तू अगर दस साल पहले एक जगह थी, तो तू कोई कोरी स्लेट तो नहीं है न। सब तेरा लिखा हुआ है। तू इतने दिन तक जो भी रही, इतने जन्मों में जो भी रही। और वे जो रेखाएं हैं। वह जो तेरे भीतर इतने दिन में बनी हैं, जो तुझे चलाएंगी, आगे बढ़ाएंगी। वे रेखाएं अगर कोई भी देख सके, जहां वह खड़ी हैं। समझ लें लेकिन पांचवे मील के पत्थर पर खड़ी हैं रेखाएं और एक व्यक्ति अगर देख सके, झांक सके कि तू कहां खड़ी है, तेरा पूरा अतीत उसके सामने झलक जाए। तेरे मन में वह उतर जाए। तो पांचवे मील के पत्थर पर एक आदमी खड़ा है, जवान है ताकतवर है, पैर चलने वाले हैं, पैरों में ताकत है, चलने की आकांक्षा है। यह कहा जा सकता है उससे कि थोड़ी देर में तू छठवें मील पर पहुंच जाएगा। और सौ में निन्यानबे मौके पर यह सही होगा। सिर्फ एक मौके पर चूक हो जाएगी। एक मौके पर चूक हो जाएगी।
मैं, एक ज्योतिषी मेरे पास आया था। एक ज्योतिषी मेरे पास आए, बड़े ज्योतिषी हैं। और कई आ जाते हैं इस तरह के मित्र मुझे कि आपका हाथ देखना है, यह करना है, वह करना है। बड़े मजे की घटना है, जो मित्र उन्हें लेकर आए थे, वे सौ रुपये में एक प्रश्न का उत्तर ज्योतिषी देंगे। सौ रुपये में वह एक प्रश्न का उत्तर देंगे। मेरे मित्र ने कहा कि आप शंका न करें, रुपये मैं दे दूंगा। मैंने कहा, नहीं, तुम्हें रुपये नहीं देने हैं, जब हाथ मेरा देखेंगे तो रुपये मैं ही दे दूंगा। तो ज्योतिषी से मैंने कहा कि रुपये मैं दे दूंगा, आप हाथ देखिए। मित्र को मैंने कहा कि तुम जाओ। तुम्हें यहां होने की कोई जरूरत नहीं है। मित्र अपनी गाड़ी से वापस चले गये। ज्योतिषी ने हाथ वगैरह देखा, कुछ सोचा-समझा तो कई बातें बताईं। उनका कोई छह सौ रुपया हुआ। उन्होंने कहा, वह छह सौ रुपया? मैंने कहा मैं नहीं दूंगा। और अगर इतना पता नहीं लगा सके पहले से कि ये आदमी रूपये नहीं देगा। तो फिर...

प्रश्नः आपने ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन किया है?

नहीं-नहीं, जरा भी नहीं।

प्रश्नः तो मैं जरा आपका जो हाथ है, उसे देख कर जो आप इस समय हैं, उसका पूरा विवरण लिखा जा सकता है। और मैं इस समय आज की तारीख आप नोट कर लीजिए, और एक वर्ष का मैं आपको वर्षफल लिख कर दे दूंगा। बाकी जो ये सब गवाह यहां हैं, आप यह देखेंगे कि एक के बाद एक जो घटनाएं लिखी हमने, आपका ये जो सामाजिक जीवन है उसके बारे में और कहां जाना है, वह हम कह सकते हैं। यह....का जो अंश है, ...आप इंट्रोवर्ड है, बहुत शायर हैं, बहुत कम बात की हैं, ...के करीब आकर जो बात...। आपने एक बड़े पते की बात बताई, कि जिसका...ने उल्लेख किया है, ...जब सही माईने में इंसान मुक्त हो जाता है, तब जो पास्ट, है उसका असर फिर नहीं पड़ता। वह तो मुक्त ही रहता है, फिर भी जो घटना चक्रों से चलना पड़ता है, तो ज्योतिषशास्त्र उन्हीं घटना चक्रों से है, यदि अभी आने वाला वर्ष, जनता के मन में आपके बारे में प्रतिक्रिया क्या रहेगी? आपकी लोकप्रियता कितनी रहेगी, कितनी लोग मानेंगे, आपका परिगमन होगा या नहीं। कुछ शिष्य आपको तकलीफ देंगे या तो आपको आनंद देंगे, जो अगर हो तो शिष्य मैं नहीं जानता हूं, तो बहुत सी बातें ज्योतिषशास्त्र बता सकता है।

आप ठीक कहते हैं। इसको मैं मना नहीं कर रहा। इसको मैं मना नहीं कर रहा। यह मैं कह ही नहीं रहा कि वह एक अलग विद्या नहीं है। या विज्ञान नहीं है, जो मैं जोर दे रहा हूं, वह इस बात पे दे रहा हूं, कि उसका विज्ञान होना या विद्या होना, आपकी यांत्रिकता पर निर्भर है। जो मैं जोर दे रहा हूं, इससे मुझे कोई मतलब ही नहीं है। आपने अभी जो कहा न मुझे, जो आपने मुझे कहा न, अब मैं कहता हूं, आप साल भर का प्रिडिक्ट करिए, वह बिल्कुल गलत होगा। इस कारण से कहता हूं।
न-न, इसलिए कहता हूं, इसलिए कहता हूं, जैसा कि आपने यह कहा न कि इंट्रोवर्ट रहे होंगे। यह मुझे आज कोई भी देखेगा तो यह कहेगा। लेकिन आपको मैं अपने गांव ले चलूंगा, मैं आपको अपने गांव ले चलूंगा, और आपसे कहूंगा कि सारे गांव में आप पता लगाइए कि बाइस साल तक इंट्रोवर्ट की कल्पना भी मुझमें कोई नहीं कर सकता था। कल्पना भी! आज अगर आप मुझे देखते हैं, तो आप ख्याल कर सकते हैं कि यह आदमी इंट्रोवर्ट रहा होगा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

मैं आपकी बात ठीक समझता हूं, मेरे हाथ में वैसा है, आप जो कह रहे हैं ठीक कहते हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

और जो सामुद्रिक शास्त्र जानता है, अभी जो आपकी अंगुलियां हैं, अंगूठा है, और जो हथेली आपकी है, ऊपर-नीचे बत्तीस साल के बाद, अभी मैंने आपका हाथ देखा नहीं, ...पच्चीस साल के बाद यानी सही मायनों में आप इस लौकिक दृष्टि के प्रकाश में आ गए। वैसे चैबीस-पच्चीस साल से भी...
 बिल्कुल ठीक रह रहे हैं आप। यह तो मैं कह ही नहीं रहा। यह मैं कह ही नहीं रहा कि ज्योतिष या सामुद्रिक कोई विद्या नहीं है, बल्कि जो मैं कह रहा हूं वह तो ज्योतिषी जो नहीं कह सकते उससे ज्यादा गहरे आधार दे रहा हूं उसको। बिल्कुल ही विद्या है। और भविष्य बहुत अर्थों में प्रिडिक्टिबल है। लेकिन प्रिडिक्टिबिलिटि जो है वह मनुष्य की मूच्र्छा पर निर्भर है। मूच्र्छा पर, यानी वह चूंकि वह मूच्र्छित जी रहा है, इसलिए निर्भर है। हां, लेकिन अगर एक अपवाद हो गया ना, तो प्रत्येक अपवाद हो सकता है, इसकी संभावना हो गई। जो जोर दे रहा है वह यह है कि बंधे रहने का कोई कारण नहीं है। बंधे हुए आप हैं और बंधे हुए आप रहेंगे। लेकिन बंधे रहने का कोई भी कारण नहीं है। यानी ऐसी कोई भी सत्ता नहीं है जो आपके कल के एक भी क्षण को बांधे। अगर आप ही बंधे नहीं रहना चाहते। आप अगर बंधे रहना चाहते हैं, तो दुनिया की कोई सत्ता आपको मुक्त नहीं कर सकती। आप बंधे रहें और आमतौर से बंधे हैं। इसलिए...

प्रश्नः एक भाई साहब पूछ रहे थे कि यू आर प्रेजेंट सेंटर्ड अॅार फ्यूचर सेंटर्ड? क्या विचार स्मृति और कल्पना से निर्मित नहीं होता? और जब स्मृति और कल्पना के आधार पर विचार निर्माण हुआ, तो आप वर्तमान में थे?

बिल्कुल बढ़िया ख्याल दिया है आपने। इसमें दो-तीन बातें हैं।
विचार बहुत तरह के हैं। बहुत से विचार सौ में से अस्सी प्रतिशत विचार आपकी अतीत स्मृति से जन्मते हैं, उससे बंधे होते हैं। उससे ही पैदा होते हैं। लेकिन इस कारण वे अतीत के नहीं होते। एक वृक्ष आपने लगाया है, जो पत्ता आज सुबह वृक्ष पर आया है, वह अतीत जो वृक्ष लगा था तीस साल से उससे ही आया है। उसमें ही कहीं छिपा था, उससे ही निकला है। जो सूरज सदा से था, उससे ही किरणें ली हैं उसने। जो हवा सदा थी, उससे ही आक्सीजन ली है। लेकिन फिर भी वह पत्ता नया है, जो कल नहीं था। पत्ता नहीं था, कल। क्लोरोफिल था वृक्ष में, सूरज की किरणों में डी विटामिन था। हवा में आक्सीजन थी। पत्ता कल नहीं था। यह सब मिल कर आज जो पत्ता आया है, यह पत्ता बिल्कुल नया है बिल्कुल और आज ही आया है। यह पत्ता इन अर्थों में पुराना है कि जो भी इसमें है वह था, लेकिन ये पत्ता नया है इस अर्थ में कि यह पत्ता जो भी है यह बिल्कुल आज ही हुआ है, आज ही प्रकट हुआ है। एक तो विचार अस्सी प्रतिशत विचार तो ऐसे हैं, जो आपकी पिछली स्मृति, पिछले अनुभव, पिछले आधार से आते हैं। लेकिन जरूरी नहीं अतीत के हों। आमतौर से अतीत के होते हैं। क्योंकि आप इतना भी श्रम नहीं उठाते, नया पत्ता भी बनाए। इतना भी श्रम नहीं उठाते, तो वे वही होते हैं जो कल थे, वही आज हैं। मैं इसलिए कह रहा हूं कि विचार की जो आपकी संपदा है भीतर स्मृति की, उस संपदा में से ही वह प्रकट होता है। लेकिन वह कल प्रकट नहीं हुआ था। और उसके प्रकट होने में आप ही जिम्मेदार नहीं है, आज जो स्थिति खड़ी हो गई है, वह भी जिम्मेदार है।
एक आदमी ने आकर आपको गाली दे दी है, जो आप गाली का उत्तर दे रहे हैं वह कहीं न कहीं आपकी अतीत स्मृति से ही आता है। लेकिन वह नहीं था उसी अर्थों में, जैसे कल कोई पत्ता नहीं था, लेकिन इस आदमी की गाली ने आज उसे जन्म दिया है। जैसे आज के सूरज ने एक नये पत्ते को जन्म दिया है।
अस्सी प्रतिशत विचार ऐसे हैं जो अतीत की स्मृति से ही आते हैं, लेकिन फिर भी अतीत के नहीं हैं। मैं पूरी बात कर लूं, न उसको कर लेंगे चर्चा। दस प्रतिशत विचार ऐसे हैं जो आपके हैं ही नहीं, आपके आस-पास के लोगों से आते हैं। चाहे आपके जाने, चाहे आपके अनजाने। जो आपके हैं ही नहीं। आपकी अतीत की संपदा में जो जुड़ जाते हैं आकर बाहर से। आज आपने मुझे सुना इसका भी फर्क पड़ता है।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें