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गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

मोक्ष पुरस्कार है संसार को ठीक-ठीक जी लेने का

प्रश्न-सार

01-ओशो,
परमात्मा क्या है, कौन है, कहां है?
02-ओशो,
यह कैसी दुर्दशा है कि भारत में जहां दूध-दही की नदियां बहती थीं, वहां अब शुद्ध दूध भी क्यों उपलब्ध नहीं होता?

पहला प्रश्नः ओशो, परमात्मा क्या है, कौन है, कहां है?

विमला! परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं। इसलिए न तो कहा जा सकता है कि कौन है और न कहा जा सकता है कि कहां है। परमात्मा तो एक अनुभव है। जैसे प्रेम एक अनुभव है। कोई पूछे: प्रेम कौन है, प्रेम कहां है? तो प्रश्न निरर्थक होगा। उसका कोई सार्थक उत्तर नहीं हो सकता। लेकिन परमात्मा के संबंध में हम सदियों से ऐसे प्रश्न पूछते रहे हैं। क्योंकि पंडित-पुरोहित यही समझाते रहे हैं कि परमात्मा व्यक्ति है।

परमात्मा है इस पूरे विराट अस्तित्व का नाम। तो या तो यहां है, या कहीं भी नहीं है। देख सको तो अभी है, न देख सको तो कभी नहीं है। प्रेम उसके लिए है, जो प्रेम अनुभव कर सके। लेकिन जिसके हृदय में प्रेम का झरना न फूटता हो, वह पूछे: प्रेम क्या है? तो कैसे उसे उत्तर दें? और क्या कोई भी उत्तर उसे तृप्त कर पाएगा? जिसे प्यास न लगी हो, जिसने कभी जल का एक घूंट न पिआ हो, जिसने कभी जाना न हो प्यास की तृप्ति का आनंद, वह पूछे प्यास क्या है, प्यास की तृप्ति का आनंद क्या है..कैसे उसे उत्तर दो?

सदगुरु नहीं बता सकते कि परमात्मा कहां है, कौन है; लेकिन प्यास को प्रज्वलित कर सकते हैं। तुम्हारे भीतर एक अभीप्सा जगा सकते हैं। एक खोज शुरू हो सकती है। और वह खोज धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर ही पड़े बीज में अंकुरण ले आती है। परमात्मा तुम्हारे भीतर है, तुम्हारे प्रेम की क्षमता का नाम है, तुम्हारे प्रेम की परिपूर्णता की धारणा है। जब तुम्हारा प्रेम बेशर्त हो, जब तुम्हारा प्रेम ऐसा हो कि तुम्हें मिटा जाए, तुम्हारा प्रेम जब इतना विराट हो कि जैसे बूंद खो जाए सागर में ऐसे तुम अपने प्रेम में खो जाओ, तो जो तुम जानोगे, उस अनुभव का नाम परमात्मा है। न उसे शब्दों में बांधा जा सकता, न सिद्धांतों में, न शास्त्रों में। सब उपाय उसे बांधने के व्यर्थ हो जाते हैं।
वह अभिव्यक्त होता ही नहीं। हां, अनुभव होता है।
सभी चीजें जो अनुभव होती हैं, जरूरी नहीं कि अभिव्यक्त भी हो सकें। तुम्हारे जीवन में ऐसे बहुत अनुभव हैं, जो अभिव्यक्त नहीं हो सकते। अभिव्यक्त करोगे, मुश्किल में पड़ोगे। तुम जानते हो समय क्या है। लेकिन कोई अगर ठीक-ठीक पकड़ ले तुम्हें और पूछे कि आज जान कर ही रहूंगा कि समय क्या है, तब तुम थोड़ा चैंकोगे, उत्तर तुम न दे पाओगे। और ऐसा नहीं कि तुम नहीं जानते कि समय क्या है। तुम जानते हो, भलीभांति जानते हो। लेकिन जो जानते हो, उसे जना देना जरूरी नहीं है।
तुमने गुलाब के फूलों में सौंदर्य देखा; सुबह के ऊगते सूरज में सौंदर्य देखा; रात आकाश तारों से भरा हो, तुमने सौंदर्य देखा; तुम जानते हो सौंदर्य क्या है। लेकिन परिभाषा कर सकोगे? ठीक-ठीक गणित की तरह, जैसे दो और दो चार होते हैं, ऐसी परिभाषा कर सकोगे? नहीं कर पाओगे। अब तक नहीं कोई कर पाया। सौंदर्य पर कितने शास्त्र लिखे गए हैं, लेकिन एक भी शास्त्र सफल नहीं हुआ। सौंदर्य को कोई बता नहीं पाया। सौंदर्य को जाना है लोगों ने, तुम भी जान सकते हो। लेकिन सौंदर्य को जानने के लिए एक संवेदनशीलता चाहिए, प्रमाण नहीं। हृदय में अनुभव का झरोखा चाहिए। तुम नाच सको सूरज को ऊगता देखकर, तुम फूल को खिलते हुए देख कर आश्चर्य-विमुग्ध हो सको, तुम तारों से भरी रात से आंदोलित हो सको, तुम्हारे भीतर गीत के झरने फूटने लगें, तो तुम जान पाओगे सौंदर्य क्या है। और परमात्मा तो परम सौंदर्य है। तुमने प्रेम किया है..न किया हो परम प्रेम, लेकिन ऐसा कोई मनुष्य है जिसने प्रेम न किया हो? पत्नी को किया हो, बेटे को किया हो, मां को किया हो, मित्र को किया हो; किसी न किसी को तुमने चाहा है, इतना चाहा है कि अपना जीवन भी दे सको, लेकिन बता सकोगे प्रेम क्या है? !
ये छोटे-मोटे प्रेम भी अभिव्यक्त नहीं होते और परमात्मा तो प्रेम की पराकाष्ठा है।
विमला! जानना ही चाहती हो कि परमात्मा क्या है, तो झुकने की कला सीखो, समर्पित होने का राज समझो। अकड़े खड़े हैं हम, अपने अहंकार में जकड़े खड़े हैं हम..और जानना चाहते हैं परमात्मा क्या है! परमात्मा को भी मुट्ठी में रखना चहाते हैं। जैसे धन रख लिया है तिजोड़ी में बंद करके, ऐसा ही परमात्मा मिल जाए तो तुम उसे भी तिजोड़ी में बंद करके रख लो। ताकि तुम दावा कर सको कि परमात्मा मेरे पास है और तुम्हारे पास नहीं; ताकि मुहल्ले-पड़ोस के लोगों को तुम बता सको कि तुम क्या हो, अरे, दो कौड़ी के हो! परमात्मा कहां है तुम्हारे पास! परमात्मा हमारी तिजोड़ी में बंद है। तुम परमात्मा पर भी कब्जा करना चाहते हो; तुम परमात्मा को भी अपना परिग्रह बनाना चाहते हो; अपनी सम्पदा। और यह ढंग नहीं है परमात्मा को जानने का। परमात्मा को जानने का एक ही ढंग है: झुको, मिटो, मरो!
गोरख ने ठीक कहा है:
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।
तिस मरनी मरौ, जिस मरनी गोरख मरि दीठा।।
गोरख ने कहा है कि मैंने एक ऐसी मीठी मृत्यु पाई है। वही मैं तुमसे कहता हूं कि तुम भी मरो, वैसी ही मीठी मृत्यु मरो। मीठी और मृत्यु! अहंकार मरे, तो इससे मधुर कोई अनुभव नहीं है। अहंकार मरे तो अमृत का स्वाद मिले। और गोरख कहता है: ऐसी मरने की एक कला है कि मैं मरा तो मैंने देखा। ...जिस मरनी मरि गोरख दीठा। एक ऐसी भी मृत्यु है जो महाजीवन से जोड़ देती है; और एक ऐसा भी जीवन है जो हम केवल क्षुद्र में गंवाते हैं।
होशियार, प्रज्ञावान तो मृत्यु को भी परमात्मा का द्वार बना लेते हैं। और नासमझ, मूढ़ जीवन को भी परमात्मा के लिए दीवाल बना लेते हैं। झुको ताकि उसका हाथ तुम्हारे सिर पर पड़ सके। उसके पैरों पर सिर रखो। मत पूछो कि उसके पैर कहां हैं! तुम जहां सिर रख दोगे, वहीं उसके पैर हैं। वृक्ष के सामने झुक जाओगे तो वहीं उसके पैर हैं। पत्थर के सामने झुक जाओगे तो तुमने पत्थर को रूपांतरित कर दिया। पाषाण भी परमात्मा हो जाता है तुम्हारे झुकने से। क्योंकि तुम्हारे झुकने से तुम्हारे भीतर कोई संवेदनशीलता का द्वार खुलता है, तुम्हें दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। अहंकार का पर्दा है आंख पर..और तो कोई पर्दा नहीं है।
झुका हर माथ है तब तक!
तुम्हारा साया है जब तक!!
सिद्धि हो तुम शक्ति भी हो,
त्याग भी आसक्ति भी हो;
तुम्हीं आराधना-पूजा,
भावना हो भक्ति भी हो;
वंदना हो वंद्य भी हो;
गीत हो तुम गद्य भी हो;
अभय हूं शीश पर मेरे,
तुम्हारा हाथ है जब तक!
ज्ञान हो तुम ज्ञेय भी हो,
प्राण हो तुम प्रेय भी हो;
सिद्धि हो तुम साधना भी,
ज्ञान हो तुम ज्ञेय भी हो;
राग हो तुम रागिनी भी,
दिवस हो तुम यामिनी भी;
क्यों डरूं मैं घन तिमिर से,
कृपा का प्रात है जब तक!
ध्यान हो ध्यातव्य भी हो,
कर्म हो कर्तव्य भी हो;
तुम्हीं में सब समाहित है,
चरण हो गंतव्य भी हो;
दान हो तुम याचना भी,
तृप्ति हो तुम कामना भी;
अमर बन कर रहूंगा मैं,
तुम्हारा गात है जब तक!
झुका हर माथ है तब तक!
तुम्हारा साया है जब तक!!
 झुकना सीखो! और मत पूछो किसके सामने झुकना है। वे तो सब बहाने हैं। मंदिर में झुको कि मस्जिद में, काबा में झुको कि काशी में, सब बहाने हैं। राज समझ लो तो काशी और काबा जाने की जरूरत नहीं। अपने कमरे में ही झुक जाओ।
पतंजलि ने अदभुत सूत्र दिया है। योग-सूत्रों में इससे ज्यादा बहुमूल्य और कोई सूत्र नहीं है। पतंजलि ने बड़े साहस की बात कही है। सत्य को पाने की विधियों की चर्चा में एक विधि कही है: परमात्मा। परमात्मा और विधि! हम तो आमतौर से सोचते हैं कि परमात्मा तो सारी विधियों का लक्ष्य है; लेकिन पतंजलि कहते हैं कि परमात्मा केवल एक आलंबन है, एक निमित्त मात्र, जिससे कि तुम मिट सको। बहाना है एक। जैसे खूंटी पर कोट टांग देते हैं। खूंटी न हो तो खीली पर टांग देते हैं। खीली न हो तो द्वार-दरवाजे पर टांग देते हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है! कोट कहीं भी टंग जाता है। ऐसे ही समर्पण कहीं भी टंग जाता है। समर्पण असली है, कहां तुमने टांगा, यह असली सवाल नहीं है।
समर्पण की कला सीखो, विमला! अहंकार को थोड़ा विसर्जित करो! मत पूछो परमात्मा कहां है, कौन है? उसका कोई पता है, कोई ठिकाना है! कोई चिट्ठी-पत्री लिखनी है उसको!
एक आदमी ने परमात्मा को पत्र लिखा। पत्नी बीमार थी और सब उपाय कर चुका, कोई उपाय काम न आए। जब कोई उपाय काम न आए तब आदमी परमात्मा का ध्यान करता है। सोचा परमात्मा को ही पत्र लिख दूं। सीधा-सादा आदमी था, लिखा कि पचास रुपये जल्दी भेज दो। मिले परमात्मा को, केयर अॅाफ पोस्टमास्टर जनरल। और क्या करें? पोस्टमास्टर जनरल को चिट्ठी मिलीः मिले परमात्मा को: चिट्ठी पढ़ी, उसे भी दया आ गई कि आदमी निश्चित बहुत दुख में होगा। बहुत पीड़ा से लिखी थी कि पत्नी के लिए दवा चाहिए और पचास रुपये अब भेज ही दो! अब बिना पचास रुपये के काम नहीं चलेगा। पोस्टमास्टर ने और मित्रों को आफिस में बताई चिट्ठी, सबने मिल कर चालीस रुपये इकट्ठे किए और कहा कि चलो जितने हुए उतने भेज दो। चालीस रुपये मनीआर्डर से उस आदमी के नाम भेज दिए लौटती डाक से उसकी चिट्ठी आई कि हे प्रभु, ...वही ‘परमात्मा को मिले, केयर अॅाफ पोस्टमास्टर जनरल’, ...कि आपने रुपये भेजे सो तो ठीक, मगर दोबारा कभी भी भेजें तो सीधे-सीधे भेजना, मार्पत मत भेजना। क्योंकि इस पोस्टमास्टर जनरल ने दस रुपये अपना कमीशन काट लिया।
तुम्हें कोई चिट्ठी लिखनी है परमात्मा को! लेकिन लोगों की धारणा यही रही है परमात्मा के बाबत। जैसे वह कोई व्यक्ति है दूर आकाश में बैठा हुआ, जिसको पुकारना है, जिससे प्रार्थना करनी है, जिससे निवेदन करना है। वह दूर आकाश में बैठा हुआ कोई भी नहीं है। हवा के कण-कण में जो है, सूरज की किरण-किरण में जो है, वृक्षों के पत्तों-पत्तों में जो है, तुममें जो है, मुझमें जो है बाहर जो है, भीतर जो है, जो है, उसका दूसरा नाम परमात्मा है। अब कोई पूछे कि जो है, वह कहां है, तो प्रश्न फिजूल लगेगा। कोई पूछे, जो है, वह कौन है, तो प्रश्न फिजूल लगेगा। परमात्मा शब्द के साथ जोड़ने से प्रश्न सार्थक मालूम पड़ता है, क्योंकि परमात्मा से हमारा अर्थ ही व्यक्ति का हो गया है। और जो है, उसे पाने के लिए कहीं भी जाने की जरूरत नहीं है। यहीं खोलो अपने हृदय के द्वार! और कल पर भी मत टालो, आज ही खोलो, अभी खोलो! लेकिन लोग परमात्मा के संबंध में जिज्ञासा करते हैं, अभीप्सा नहीं।
जिज्ञासा-अभीप्सा का भेद स्मरण रखना।
जिज्ञासा तो एक तरह की बुद्धि की खुजलाहट है। जैसे कि सिर में खुजलाहट चले। अगर तुम न खुजाओ, तो कितनी देर चलेगी! अगर तुम एक दिन जिद ही कर लो कि आज खुजाएंगे नहीं, तो कुछ सेकेंड, कि कुछ मिनट, फिर खुजलाहट अपने-आप विदा हो जाएगी। कोई सदा जिंदगी भर थोड़े-ही चलती रहेगी। जिज्ञासा खुजलाहट है; क्षणभंगुर है, उठी और गई जब तक तुम पूछते हो तब तक ही समाप्त हो जाती है। जिज्ञासा बचकानी है। कुतूहल! परमात्मा क्या है, कौन है? अभीप्सा चाहिए! अभीप्सा यानी प्यास। और ऐसी प्यास कि प्राण संकट में हों, जैसे कोई आदमी रेगिस्तान में भटक जाए और पानी न मिले दिनों तक, तो क्या वह पूछेगा पानी क्या है? क्या वह पूछेगा कि पानी का वैज्ञानिक सूत्र क्या है? अगर तुम समझाओगे भी उसको कि घबड़ा मत, पानी में क्या रखा है, एच टू ओ, उद्भजन और अक्षजन दो गैस के मिलने से पानी बनता है, तो वह कहेगा कि महाराज, मुझे क्षमा करें, मुझे न आक्सीजन से कोई प्रयोजन है, न उद्भजन से कुछ प्रयोजन है, पानी! मुझे यास लगी है। जैसे मरुस्थल में प्यास लगे! रोआं-रोआं प्यास से भरा हो! वह कुछ मिनट-दो मिनट में भूल थोड़े ही जाएगा; घड़ी-दो घड़ी में भूल थोड़े ही जाएगा। जितना समय बीतेगा उतनी प्यास गहरी होने लगेगी, उतने प्राणों को छेदने लगेगी।
अभीप्सा चाहिए, विमला, जिज्ञासा नहीं।
अभीप्सा हो तो परमात्मा को पाने से ज्यादा सरल और कुछ भी नहीं। और जिज्ञासा हो तो परमात्मा को पाने से ज्यादा कठिन और कुछ भी नहीं।
जिज्ञासा बचकानी है। पूछ लिया! अच्छे-अच्छे प्रश्न लोग पूछने के आदी हो जाते हैं। ऐसा लगता है, अच्छे प्रश्न पूछे तो सिद्ध होता है हम अच्छे आदमी हैं। देखो, कैसा गजब का प्रश्न पूछा! परमात्मा कहां है, कौन है, क्या है? दार्शनिक प्रश्न पूछा, तात्विक प्रश्न पूछा! लेकिन यह तुम्हारी प्यास है, अभीप्सा है? अगर मैं कहूं कि परमात्मा से मिला देता हूं, मिटने की तैयारी है, तो तुम कहोगी कि जरा पति से पूछना पड़े। क्योंकि शास्त्र तो कहते हैं कि पति ही परमात्मा है। तो तुम कहोगी कि अभी तो छोटे बाल-बच्चे हैं, अभी इनकी देखभाल करनी है, फिर कभी आऊंगी। मिटने की तैयारी नहीं है।
परमात्मा मिल सकता हो तो क्या भेंट चढ़ाने की तैयारी है?
लोग सड़े नारियल चढ़ाते हैं। दूसरों के बगीचों से फूल चुरा लेते हैं और चढ़ाते हैं। लोगों ने बड़ी तरकीबें निकाल ली हैं। खोटे सिक्के चढ़ा आते हैं! आदमी को धोखा देते हों तो देते हों...मैं एक मंदिर के पास रहता था कुछ दिन तक, रायपुर में, तो मैंने उस पुजारी से पूछा कि पैसों में कभी, जो चढ़ोतरी में आते हैं, खोटे भी आते हैं? उसने कहा, खोटे के अतिरिक्त और आता ही क्या है! जो पैसे कहीं नहीं चलते, घिस गए, पिस गए, जिनको कोई लेने को तैयार नहीं, उनको लोग चढ़ा आते हैं। कम से कम एक फायदा है कि भगवान यह तो नहीं कह सकता कि नहीं लूंगा, कि यह खोटा है! और नारियल की दुकानें मंदिरों के सामने ही होती है। वे ही नारियल वर्षो से चढ़ रहे हैं..तुम चढ़ा आते हो दिन में, रात पुजारी फिर दुकानदार को दे जाता है, फिर सुबह बिकने लगते हैं! किसी को फिक्र ही नहीं कि नारियल के भीतर अब कुछ नहीं बचा है; सब सड़ गया है!
लेकिन परमात्मा को धोखा देना आसान मालूम पड़ता है। कोई रुकावट तो डालता नहीं, कोई बाधा तो है नहीं..और ये सड़े नारियल सस्ते मिलते हैं। लोग कह आते हैं कि मेरे लड़के को नौकरी लगा दोगे तो नारियल चढ़ाऊंगा; कि मेरी पत्नी की बीमारी ठीक हो जाएगी तो इतने का प्रसाद बांट दूंगा। परमात्मा को भी रिश्वत देने की तुम्हारी धारणा है। इससे कभी-कभी मुझे लगता है, इस देश से रिश्वत मिट नहीं सकेगी; क्योंकि रिश्वत धार्मिक है। और यह देश है धर्म-प्राण! जब हम परमात्मा तक को नहीं छोड़ते, तो ये छोटे-मोटे पुलिस वाले, तहसीलदार, डिप्टी कलेक्टर, डिप्टी मिनिस्टर, मिनिस्टर, चीफ मिनिस्टर, इनको छोड़ें! और जब परमात्मा तक लेने को तैयार है, सड़े नारियल तक ले लेता है, तो इन बिचारों की क्या बिसात! अरे, बड़े-बड़े बहे जा रहे हैं! तो तुम जानते हो कि इनको भी दिया जा सकता है। और देने में तुम्हें कोई अड़चन नहीं मालूम होती।
दुनिया में शायद भारत अकेला देश है जहां रिश्वत देने वाले को कोई अपराध-भाव अनुभव नहीं होता। न लेने वाले को कोई अपराध-भाव अनुभव होता है। अपराध-भाव अनुभव होता ही नहीं।
मेरे एक मित्र बचपन से ही इंग्लैंड में रहे, वहीं बड़े हुए, फिर भारत आए तो उनके चाचा ने उनसे पूछा...पिता जी तो उनके इंग्लैंड में रहते थे, चाचा उनके यहां रहते थे...चाचा जी ने उनसे पूछा कि क्या नौकरी करते, बेटा? कितनी तनख्वाह मिलती, बेटा? ऊपर से क्या मिलता है? सरलता से! यहां तो सभी से पूछा जाता है कि भई, ऊपर क्या? ऊपर की बात ऊपर की बात है। इसमें बुराई कहां है? उनको तो भारत के धार्मिक रंगों-ढंगों का कुछ ख्याल न था, गुस्से में आ गए, चांटा मार दिया अपने चाचा को। और मुझसे आकर बोले कि बड़ी झंझट हो गई, कलह मची हुई है घर में, चाचा कहते हैं एक मिनट नहीं रुकने दूंगा, निकलो यहां से!
बात क्या हुई, मैंने पूछा। उन्होंने कहा कि बात यह हुई, वे मुझसे पूछते हैं कि ऊपर क्या मिलता है? मुझे इतना नीचा समझा है कि तनख्वाह के ऊपर भी और कुछ लूं! यह मेरा अपमान है। मैंने कहा कि तुम भारत में बड़े नहीं हुए, इसलिए तुम्हें भारतीय शिष्टाचार और सयता का कुछ पता नहीं है। यह तो बिल्कुल स्वाभाविक प्रश्न है। कोई न पूछे तो समझो कि अशिष्ट है। तुमने चांटा मार कर बहुत बुरा किया। उन्होंने कहा कि मुझसे नहीं रहा गया, क्योंकि यह बात ही इतनी मुझे खटकी कि यह क्या बात है..ऊपर से कितना मिलता है! क्या ऊपर से मैं कुछ ले सकता हूं?
दुनिया में किसी से भी इस तरह पूछोगे तो भद्दा माना जाएगा। सच तो यह है कि दुनिया में लोग एक-दूसरे की तनख्वाह भी नहीं पूछते कि तुम्हें कितना मिलता है; ऊपर की तो बात छोड़ दो। तनख्वाह भी नहीं पूछते, क्योंकि हो सकता है तनख्वाह तुम्हारी कम हो और तुम्हें कहने में संकोच लगे। तो तुम्हें संकोच में डालना अभद्र है। तनख्वाह तुम्हारी इतनी न हो कि बताने में तुम्हें गौरव मालूम पड़े; तो कहीं तुम्हें झूठ बोलने पर मजबूर न होना पड़े।
लेकिन इस देश में तो कोई दिक्कत ही नहीं है। यहां तनख्वाह तो हम पूछते ही हैं..बढ़ा-चढ़ा कर लोग उसको भी बताते हैं..और ऊपर मिलता हो या न मिलता हो, नहीं मिलता हो ऊपर तो भी बताते हैं। यहां झूठ बोलना भी हमारी प्रकृति में सम्मिलित हो गया है। क्योंकि हम बड़े-बड़े झूठ बोल चुके हैं, छोटे-छोटे झूठों में क्या रखा है! पहला तो बड़ा हमने यह बोल लिया है..ईश्वर से कोई पहचान नहीं, ईश्वर को अनुभव करने की कोई संवेदनशीलता नहीं और ईश्वर को मान लिया है। ..अब विमला है, इसने जरूर मान लिया होगा कि ईश्वर है, तब तो पूछती है कि ईश्वर कहां, कौन, क्या? ईश्वर को भी हम मान लेते हैं बिना जाने, बिना पहचाने, बिना अनुभव किए। इससे बड़ा और झूठ क्या होगा! स्वर्ग-नरक को मान लेते हैं, पाप-पुण्य को मान लेते हैं, मानने को हम बिल्कुल तत्पर हैं। और ध्यान रखना, जो लोग भी मानने को इतने तत्पर हैं, वे खोजने को कभी तत्पर नहीं होते। असल में खोजने से बचने का उपाय मानना है। मानने का अर्थ यह है कि भइया, माने लेते हैं, अब सिर न खाओ! अब खोज की क्या जरूरत! हम बड़े-बड़े झूठ मान लिए हैं तो छोटे-मोटे झूठों में क्या दिक्कत!
मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी के सौंदर्य की प्रशंसा कर रहा था, कि स्वर्ग की परी है, स्वर्ग की परी! स्वर्ग से उतरी है! क्या नाक-नक्शे! परमात्मा ने अपने हाथों से गढ़ी है। और तो किसी ने देखी नहीं थी उसकी पत्नी सिर्प चंदूलाल ने देखी थी। चंदूलाल कुड़बुड़ा रहा था भीतर ही भीतर। फिर मुल्ला ने कहा कि चंदूलाल, बोलते क्यों नहीं कुछ, कहते क्यों नहीं कि जो मैं कह रहा हूं वह सच है। तुमने तो मेरी पत्नी देखी। नहीं स्वर्ग से उतरी? नहीं चेहरा-मोहरा परमात्मा ने बनाया?
अब चंदूलाल दुबले-पतले आदमी हैं, कौन झंझट ले! यह मुल्ला उपद्रवी है, एकांत में पाकर फिर दचकेगा, पटकेगा। सो चंदूलाल ने कहा कि भइया, बिल्कुल ठीक कह रहे हो, स्वर्ग से ही उतरी है और परमात्मा ने ही नाक-नक्श बनाया है; सिर्फ जरा भूल हो गई, जब स्वर्ग से गिरी तो चेहरे के बल गिरी। सो और तो सब ठीक है, चेहरा बिल्कुल नष्ट हो गया।
लोग आदी हो गए हैं। और एक झूठ को मान लो तो फिर पच्चीस झूठ उसमें से निकलने शुरू होते हैं। विमला, तुझसे कहा किसने कि परमात्मा है? मानने की जरूरत क्या? हां, जरूर जानना है: क्या है? मत कहो परमात्मा, सिर्प क्या? और तब सम्यक यात्रा शुरू होगी। क्या है? क्योंकि इस परिवर्तनशील जगत् में कुछ तो होगा जो अपरिवर्तित है। नहीं तो यह परिवर्तन भी सम्हलेगा किस पर? गाड़ी का चाक चलता है तो एक कील पर चलता है जो ठहरी रहती है। अगर कील भी चले तो चाक न चले, तो गाड़ी भी गिर जाए। कील तो ठहरी रहती है, चाक चलता है। ठहरी हुई कील के आधार पर ही चलता हुआ चाक है। इतना परिभ्रमण चल रहा है, चांद-तारे चल रहे हैं, इतना परिवर्तन चल रहा है, मौसम के बाद मौसम, फूलों के बाद फूल, इस अनंत यात्रापथ को कोई तो कील सम्हालती होगी! वह क्या है जो सबको सम्हाले है? वह क्या है जो सबका आधार है? परमात्मा को बीच में मत लाओ अभी, क्योंकि वह शब्द बीच में ले आने से सुलझाना कठिन हो जाएगा। उस शब्द के पीछे बहुत उपद्रव हो चुका है। उस शब्द से कुछ हल नहीं हुआ। लोगों की गर्दनें कटी हैं, खून-खराबा हुआ है।
परमात्मा के नाम को लेकर जितने उपद्रव इस पृथ्वी पर हुए, किसी और नाम को लेकर नहीं हुए। परमात्मा का नाम तो लहू के धब्बों में दब गया है। सारा इतिहास परमात्मा के नाम के कारण अमानवीय हो गया है, पाशविक हो गया है। हिंदू मुसलमानों को मार रहे हैं, मुसलमान हिंदुओं को मार रहे हैं, ईसाई मुसलमानों को मार रहे हैं, मुसलमान ईसाईयों को मार रहे हैं, ईसाई यहूदियों को मार रहे हैं..मारकाट चल रही है और परमात्मा के नाम पर!
पूछो: क्या है? और तब यात्रा शुरू हो सकती है, सम्यक। क्योंकि पहला कदम सम्यक हुआ। और अगर तुम पूछो: क्या है, तो यह बोलता हुआ कौआ, ये चिड़ियों की आवाजें, यह दूर से आता हुआ टेन का शोरगुल, यह सन्नाटा, यह सब उस ‘क्या’ में सम्मिलित है। तब उस ‘क्या’ में समग्रता सम्मिलित है। तब हम पूछ रहे हैं: यह अस्तित्व क्या है? इस अस्तित्व की समग्रता क्या है? और इसे पूछने के लिए एक तैयारी से गुजरना होगा। उस तैयारी को मैं ध्यान कहता हूं।
ध्यान का अर्थ होता है: हमने अब तक जो जाना, जो माना, जो समझा, जो बूझा, उस सबको हटा कर एक तरफ रख दो, ताकि चैतन्य का दर्पण उसे प्रतिफलित कर सके जो है। शांत हो जाओ, वहां से उत्तर मिलेगा। मैं उत्तर नहीं दे सकता। न गुलाल उत्तर दे सकते हैं। न कबीर, न फरीद। कोई उत्तर नहीं दे सकता। ये बातें प्रश्न-उत्तर की नहीं हैं। ये बातें बहुत गहरी हैं। प्रश्न-उत्तर तो लहरों की तरह हैं, सागर की सतह पर होते हैं। ये बातें तो सागर की गहराई की हैं। हां, ध्यान में तुम्हें उत्तर मिलेगा। और मजा यह है, बड़ा रहस्यपूर्ण, बड़ा पहेली जैसा कि जब तुम्हारे सारे प्रश्न गिर जाएंगे तब उत्तर मिलेगा। क्योंकि जब तक मन प्रश्न उठा रहा है तब तक ऊहापोह चल रहा है, द्वंद्व मचा हुआ है, धुआं उठ रहा है। तुम्हारे चित्त में प्रतिपल धुआं उठ रहा है। तुम तो गीली लकड़ी हो। आग तो लगती नहीं, जल कर राख भी नहीं होते, धुआं ही धुआं हो।
दो मित्र हनीमून के लिए पहाड़ों पर गए थे। सुबह सुहागरात के बाद दोनों होटल के बगीचे में मिले। पहले मित्र ने पूछा: सब ठीक-ठाक है? पत्नी कहां है? क्या कर रही है? तो दूसरे ने कहा: काश, मुझे पहले से पता होता तो कभी मैं इस झंझट में न पड़ता। बस, बैठी-बैठी धुआं उड़ा रही है। ...धूम्रपान की आदत रही होगी...रात भी धुआं उड़ाते-उड़ाते ही सोई और सुबह उठते ही बस धुआं उड़ाने लगी।
दूसरे ने कहा: भई, गरम तो पत्नी मेरी भी बहुत है, मगर धुआं नहीं उड़ा रही।
तुम्हारा मन गरम भी है बहुत और धुआं भी बहुत उड़ा रहा है। उत्तप्त हो तुम। वासनाएं तुम्हें उत्तप्त रखती हैं। कल्पनाएं, स्मृतियां, इच्छाएं, तृष्णाएं धुएं की लपटों की तरह तुम्हें घेरे हुए हैं। तुम्हारे दर्पण पर चारों तरफ धुआं ही धुआं है। तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। हाथ को हाथ नहीं सूझेगा। इसलिए ऐसे सवाल उठते हैं। अगर तुम सच में ही विमला, उत्तर चाहती हो, तो कुछ करने की तैयारी दिखानी होगी। उत्तर सस्ता नहीं मिल सकता कि तुमने पूछा और मैंने दे दिया। काश, परमात्मा इतना सस्ता होता! तो एक बुद्धपुरुष उत्तर दे जाता, मामला खत्म कर जाता। परमात्मा के लिए कुछ चुकाना पड़ता है। और सबसे बड़ी चुकाने की बात है, तुम्हें अपने मन का यह धुआं हटाना पड़ता है। यह मन का सारा ऊहापोह तुम्हें उस के चरणों में चढ़ा देना होता है। अज्ञात चरण, उस पर तुम्हें समर्पित कर देना होता है अपने मन का सारा उपद्रव। और जब चित्त निर्मल होता है...तुम्हारा नाम तो प्यारा है, विमला! जब चित्त विमल होता है, जब चित्त पर कोई मल नहीं रह जाता। हम नाम तो बड़े प्यारे-प्यारे रखते हैं, मगर नामों के अर्थ की भी फिक्र नहीं करते। नाम जो दे देते हैं वे भी अर्थ नहीं समझाते कि क्या नाम दे दिया है। अब इतना प्यारा नाम है! सारा योग इसमें आ जाए! विमल हो जाओ तो कुछ और करने को बचता है? ...और एक बार चढ़ाने की कला आ जाए..पहले कचरा-कूड़ा ही चढ़ाओ...और कुछ परमात्मा मांगता भी नहीं...और झलक मिलनी शुरू हो जाएगी। चारों तरफ तुम जगत को उसी से व्याप्त पाओगी।
भगवान नहीं है, भगवत्ता है। व्यक्ति नहीं है, शक्ति है। और एक बार चढ़ाने की कला आ जाए तो फिर प्राण और-और तड़फेंगे कि कितना चढ़ाऊं? सब चढ़ा दूं! क्योंकि जितना चढ़ाओ, उतना ही स्पष्ट होने लगता है।
जीवन भर का सुबरन,
देकर भी करता मन;
दे दूं कुछ और अभी!
तन अंगीकार करो,
मन धन स्वीकार करो;
लोभ-मोह-भ्रम लेकर..
प्राण निर्विकार करो;
प्रतिपल, प्रतियाम दूं,
सबेरे दूं शाम दूं;
जप-तप-पूजा-प्रश्मन,
देकर भी करता मन;
दे दूं कुछ और अभी
भक्ति-भाव अर्जन लो,
शक्ति-साध-सर्जन लो;
अर्पित है अंतरतम,
अहं का विसर्जन लो;
जन्म लो, मरण ले लो,
स्वप्न-जागरण ले लो;
चिर संचित श्रम-साधन,
देकर भी करता मन;
दे दूं कुछ और अभी!
यह नाम तुम्हारा हो,
धन-धाम तुम्हारा हो;
मात्र कर्म मेरे हों,
परिणाम तुम्हारा हो;
अंगुलियां सुमिरनी हों,
सांसें अनुसरणी हों;
शाश्वत स्वर आत्म-सुमन,
देकर भी करता मन;
दे दूं कुछ और अभी!
देने की कला आ जाए, तो परमात्मा अभी प्रकट हो जाए, यहीं प्रगट हो जाए।
नहीं, मैं उत्तर न दे सकूंगा। लेकिन संकेत दे सकता हूं। सद्गुरू संकेत ही देते हैं, उत्तर नहीं। उत्तर तो पंडित-पुरोहित देते हैं! बुद्ध ने कहा है: मैं तो वैद्य हूं, मैं औषधि देता हूं, उत्तर नहीं। मैं भी कहता हूं मैं वैद्य हूं; औषधि देता हूं, उत्तर नहीं। उत्तर से क्या होगा? उत्तर में से पच्चीस नये प्रश्न उठ आएंगे। जिस मन ने यह प्रश्न उठाया है, वही प्रश्न उठाने वाला मन उत्तर में से नये प्रश्न उठा देगा। प्रश्नों का कोई अंत ही नहीं है। जैसे वृक्षों पर पत्ते लगते हैं ऐसे मन में प्रश्न लगते हैं। प्रश्नों से मुक्त होना है, प्रश्नों के उत्तर नहीं पाना है। और जिस दिन निष्प्रश्न हो जाता है चित्त, उसी क्षण उत्तरों का उत्तर बरस उठता है, नहला जाता है, नया कर जाता है, पुनरुज्जीवन दे जाता है।

दूसरा प्रश्नः ओशो, यह कैसे दुर्दशा है कि भारत में जहां दूध-दही की नदियां बहती थीं, वहां अब शुद्ध दूध भी क्यों उपलब्ध नहीं होता?

स्वदेश! तुम सोचते हो कभी सच में दूध-दही की नदियां बहती थीं? दूध-दही की नदियां बहतीं तो बड़ी मुश्किल हो जाती। कुछ मछलियों का भी ख्याल करो! नहाते कहां? वस्त्र इत्यादि धोते कहां? कुछ गाय-भैंसों का भी ख्याल करो! इनका क्या करते? नदियां तो पानी की ही शोभा देती हैं, दूध-दही की नदियों की जरूरत नहीं है। ये तो प्रतीक हैं; ये तो केवल कहने के ढंग हैं। कहने की बात है। इतनी सी बात कि कभी देश समृद्ध था।
लेकिन कुछ बड़ा समृद्ध था, ऐसा भी नहीं।
राम के जमाने में..जिसको महात्मा गांधी रामराज्य कहते थे। मैं नहीं कह सकता हूं। राम का राज्य भी रामराज्य नहीं था। क्योंकि आदमी बाजारों में बिकते थे; गुलाम होते थे। दूध-दही की नदियां बहती थीं, आदमी बाजारों में बिकते थे साग-सब्जी की तरह! स्त्रियां बाजारों में बिकती थीं और दूध-दही की नदियां बहती थीं! और साधारणजन ही खरीदते हों, ऐसा भी नहीं है। शास्त्र कहते हैं: ऋषि-मुनि भी खरीदते थे। खाक ऋषि-मुनि रहे होंगे! आदमी को खरीदने में भी संकोच न खाया! और हम चलाए जाते हैं, चिल्लाए चले जाते हैं कि बड़े त्यागी, बड़े व्रती! नीलामी होती थी आदमियों की, दाम लगते थे। राजा-महाराजा, धनी लोग आते थे बाजारों में खरीदने, दाम लगाने, वह तो ठीक, ऋषि-मुनि भी आते थे!
संस्कृत में पत्नी और वधू पर्यायवाची नहीं हैं। पत्नी तो कहते हैं विवाहिता स्त्री को और वधू को कहते हैं जिसको तुम बाजार से खरीद लाए। वह नम्बर दो की पत्नी है। बाजार से खरीदी हुई। अब तो वह अर्थ खो गया, क्योंकि अब बाजार में आदमी नहीं बिकते। गरीब तो लोग रहे ही होंगे, नहीं तो कौन बाजारों में बिकने को राजी होता, तुम जरा सोचो! भूखे मरते हुए लोग तो रहे ही होंगे, नहीं तो कौन अपने बच्चों को बेचता है, तुम जरा सोचो! लेकिन हमें एक अहंकार है हमें ही नहीं सारी दुनिया में सभी देशों के लोगों को ये पागलपन होता है..कि उनका अतीत बड़ा सुंदर था, बड़ा गौरवपूर्ण था। इससे दिल को ढाढ़स बंधता है, हिम्मत मिलती है; इससे अहंकार को खड़ा करने के लिए बल मिलता है। अतीत तो हमारे हाथ में है, जैसा चाहो वैसा रचो, इतिहास तुम्हारे हाथ में है, जैसा चाहो वैसा बनाओ।
मैं नहीं मानता कि कभी भी दूध-दही की नदियां बहती थीं। हां, लोग इतनी परेशानी में नहीं थे। उसका कारण कोई रामराज्य नहीं था, उसका कारण संख्या थी। संख्या बहुत कम थी। बुद्ध के जमाने में पूरे देश की संख्या दो करोड़ थी। आज सत्तर करोड़ है। जमीन उतनी की उतनी..और कहें ठीक से तो उतनी की उतनी भी नहीं है अब, क्योंकि जमीन से हम इतना ले चुके हैं, जमीन को हम इतना चूस चुके हैं कि दिखायी पड़ती है उतनी ही है, मगर उसके सारे तत्त्व खो गए हैं..लौटाया हमने कुछ भी नहीं है। हम लेते ही चले गए। आखिर जमीन को भी वापिस चाहिए। तुम जब फसल काट लेते हो तो तुमने जमीन के बहुत से तत्व फसल में निकाल लिए। और फिर हमारे देश में हम आदमियों को गड़ाते भी नहीं। कम से कम आदमी गड़ाओ तो जो कुछ खाया-पीआ हो, हड्डी-मांस-मज्जा बना हो, वापस मिट्टी में जाए! उसको जला देते हैं। तो जो भी उसने खाया-पीआ, उसको राख कर दिया। इस तरह हम इन ढाई हजार सालों में पृथ्वी को जलाते रहे हैं..आखिर हो तो तुम मिट्टी से बने, और मिट्टी के जो-जो तत्त्व थे, उर्वरा तत्त्व थे, उन सबको हमने नष्ट कर दिया..अब गरीबी न हो तो क्या हो; भुखमरी न हो तो क्या हो!
गरीबी उन दिनों भी थी। लेकिन देश के पास इतनी जमीन थी कि आदमी अपने खाने-पीने लायक कमा लेता था। मगर तुम यह मत सोचना कि गरीब और अमीर के बीच फासला नहीं था। बहुत बड़ा फासला था। शायद आज से भी ज्यादा बड़ा फासला था। आज गरीब से गरीब आदमी भी जो कपड़े पहने हुए है, वे रामचंद्र जी को उपलब्ध नहीं थे। तुम क्या सोचते हो टेरीकाट और टेरीलिन रामचंद्र जी को उपलब्ध थे? तुम उन कल्पनाओं में मत उड़ो कि रामचंद्र जी हवाई जहाज में उड़ा करते थे! साइकिल भी नहीं थी!! हवाई जहाज में उड़ते और हाथ में धनुषबाण लेकर चलते! जरा कुछ तो सोचो, इनमें कोई तुक है! जरा हवाई जहाज में जाओ धनुषबाण लेकर! भीड़ इकट्ठी हो जाएगी, तमाशा देखने लगेंगे लोग कि भइया, तुम्हें क्या हो गया? छब्बीस जनवरी पर जा रहे हो क्या, दिल्ली? आदिवासी हो? क्या बात है? आदिवासी भी सिर्प छब्बीस जनवरी के लिए रखते हैं तैयार अपना सामान, बाकी समय भूल जाते हैं। छब्बीस जनवरी को घिस-घिसा कर, ठीक-ठाक करके पहुंच जाते हैं।
हवाई जहाज वगैरह का सवाल नहीं था। हमारी कल्पनाएं हैं। सारी दुनिया में ये कल्पनाएं हैं। और कल्पनाओं के पीछे कारण हैं। आदमी सदा से आकाश में उड़ना चाहता रहा है..जब से उसने पक्षियों को उड़ते देखा है, तबसे उसके मन में भी उड़ने की आकांक्षा रही है, उसी अकांक्षा को अभिव्यक्ति मिली है।
एक गांव में रामलीला हुई। लंका जीत ली राम ने, पुष्पक विमान की राह देख रहे हैं। पुष्पक विमान उतरा तो सही, मगर इसके पहले कि वे दोनों बैठ पाते, लक्ष्मण जी और रामचंद्र जी..और सीता मैया..कि जिस घिर्री में पुष्पक विमान चलाया जा रहा था, ऊपर छिपे आदमी ने घिर्री खींच दी, पुष्पक विमान उठ गया। चढ़ ही नहीं पाए। तो लक्ष्मणजी ने पूछा, बड़े भइया, अगर आपके पास टाइम-टेबल हो तो जरा देख कर बताओ कि दूसरा जहाज कब छूटेगा?
कहां का टाइम-टेबल! कहां का दूसरा जहाज! रामचंद्र जी ने गुस्से से देखा लक्ष्मण जी की तरफ, कि चुप रह!
कल्पनाओं के जाल में मत उलझो। टाइम-टेबल भी नहीं था, हवाई जहाज की तो तुम छोड़ दो!
तुम पूछते हो: ‘यह कैसी दुर्दशा है कि भारत में जहां दूध-दही की नदियां बहती थीं, वहां अब शुद्ध दूध भी क्यों उपलब्ध नहीं होता? ’
स्वदेश, अशुद्ध भी उपलब्ध होता है, यह चमत्कार है! सत्तर करोड़ की संख्या..और तुम्हारी गऊमाताएं! जिनको न भोजन है, न घास-पात है, न चिकित्सा की सुविधा है। ...सारी दुनिया में सबसे ज्यादा गऊमाताएं हमारे देश में हैं, और सबसे कम दूध। हमारे यहां श्रेष्ठतम गाय पांच सौ लीटर दूध देती है। श्रेष्ठतम! जापान में श्रेष्ठतम गाय तीन हजार लिटर दूध देती है। और इजरायल ने तो सबको मात कर दिया! इजरायल में श्रेष्ठतम गाय साढ़े तीन हजार लीटर दूध देती है। पूछो अपने शंकराचार्यो से कि मामला क्या है? हम गऊमाता की इतनी पूजा करते हैं और गऊमाता हम पर नाराज क्यों है? और ये दुष्ट, म्लेच्छ, इन पर गऊमाता बड़ी प्रसन्न हैं! ...तुम बस पूजा ही करते रहे! पूजा से कहीं कुछ होता है! पूजा से कुछ नहीं होता। जीवन को विज्ञान चाहिए। और भारत ने पांच हजार सालों में कोई विज्ञान पैदा नहीं किया। यह हमारी दुर्दशा का कारण है। तुम शायद सोचते होओगे कि हमारी दुर्दशा का कारण है कि लोग अब पूजा-पाठ ठीक से नहीं करते, हनुमान-चालीसा ठीक से नहीं पढ़ते, कि हनुमानजी नाराज हो गए हैं, कि काली माई प्रसन्न नहीं हैं, कि गणेश जी गुस्से में बैठे हुए हैं, इसलिए दुर्दशा हो रही है। इसलिए दुर्दशा नहीं हो रही। जीवन की बाह्यसमृद्धि के लिए विज्ञान चाहिए, भीतरी समृद्धि के लिए धर्म चाहिए।
पश्चिम भीतर से दरिद्र है..धर्म उसके पास नहीं है। और पूरब बाहर से दरिद्र है..विज्ञान उसके पास नहीं है। और अब तक हम एक ऐसा समन्वय पैदा नहीं कर पाए कि विज्ञान और धर्म साथ-साथ विकसित हो सकें। वही मेरी दृष्टि है। वैसा मैं चाहता हूं।
मैं अपने संन्यासी को चाहता हूं कि वह बाहर और भीतर की दोनों समृद्धियों को साथ-साथ संभाले।
लेकिन अब तक तुम्हें उलटी बातें सिखाई गयी हैं। तुम्हें सिखाया गया है कि बाहर की दरिद्रता में कुछ अध्यात्म है। अगर तुम बाहर से दरिद्र नहीं हो तो तुम आध्यात्मिक नहीं हो। इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातें सिखाई जाएंगी, तो परिणाम भी आनेवाला है फिर; तो दरिद्रता में लोग गौरव ले रहे हैं। दुर्दशा कैसी, यह तो अध्यात्म है! पहले लोग संसार को त्यागते थे, अब त्यागने की जरूरत नहीं, त्यागने को कुछ बचा ही नहीं, अब सभी त्यागी हैं। इस देश में तो त्यागी और महात्यागी। है ही नहीं कुछ त्यागने को अब! लेकिन यह पांच हजार साल के गलत शिक्षण का, गलत संस्कारों का परिणाम है।
बाहर की समृद्धि को अस्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य देह भी है और आत्मा भी। और परमात्मा संसार भी है, मोक्ष भी। जिस दिन हम ऐसा देखेंगे, जिस दिन हम इन दोनों को एक साथ समझेंगे..ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं..उस दिन विज्ञान और धर्म के बीच तालमेल हो जाएगा। धर्म को दावे नहीं करना चाहिए वैज्ञानिक सत्यों के, जोकि धर्म करता रहा..गलत दावे, झूठे दावे। वर्षा न हो तो यज्ञ करो! कोई लेना-देना नहीं यज्ञ से वर्षा का। कितने तो यज्ञ कर चुके तुम, क्या परिणाम है? लेकिन मूढ़ता ऐसी है कि करोड़ों रुपये हम जला देंगे। और फिर कोई नहीं पूछता कि वर्षा हुई या नहीं? विश्वशांति के लिए भी हम यहां यज्ञ करते हैं! और कोई नहीं पूछता कि विश्वशांति होती क्यों नहीं? इतने तो यज्ञ हो चुके, अब कब तक करते रहोगे?
इसका कोई संबंध नहीं है।
लेकिन मूढ़तापूर्ण बातों के लिए भी हम बड़े अजीब तर्क खोज लेते हैं! लोग तर्क खोजते हैं कि यज्ञ से जो धुआं उठता है, शुद्ध घी, गेहूं, चावल इत्यादि को जलाने से जो शुद्ध धुआं उठता है, उससे ऐसी तरंगें पैदा होती हैं कि जिनसे सारे विश्व में शांति हो जाए! एकाध घर में तो करवा के बता दो! एकाध घर में जला कर यज्ञ पति-पत्नी में तो तुम शांति करवा दो! और जहां यज्ञ होता है, यज्ञ होने के बाद पंडित-पुरोहितों में झगड़ा होता है कि कौन ने ज्यादा ले लिया, कौन ने कम ले लिया..वहीं शांति नहीं हो पाती! मार-पीट की नौबत आ जाती है। कभी-कभी पुलिस को बुलाना पड़ता है। सारे विश्व में शांति करने चले हो!
अगर पानी नहीं गिरता है तो उसके गिराने के वैज्ञानिक उपाय हैं। बादलों को दिशा दी जा सकती है; जहां जरूरत हो, वहां बादल भेजे जा सकते हैं, और जहां जरूरत न हो, वहां से हटाए जा सकते हैं। उनको दिशा दी जा सकती है। मगर दिशा देने की फुरसत किसको? हम तो अपने वेदों में राज खोज रहे हैं कि वहां कोई रहस्य मिल जाएगा। दुर्दशा का कारण यह है कि जहां धर्म की कोई गति नहीं है, कोई जरूरत नहीं है, वहां हम धर्म का उपद्रव खड़ा करते हैं।
पश्चिम में भी दुर्दशा है, क्योंकि विज्ञान वहां धर्म के जगत में अड़ंगेबाजी खड़ी करता है। विज्ञान कहता है: कोई ईश्वर नहीं है, क्योंकि वैज्ञानिक प्रयोगशाला में ईश्वर को नहीं पकड़ा जा सकता। कोई प्रेम नहीं है, क्योंकि विज्ञान की प्रयोगशाला में प्रेम सिद्ध नहीं होता। और कोई सौंदर्य नहीं है। विज्ञान की प्रयोगशाला में कैसे सौंदर्य सिद्ध होगा? और कैसे प्रेम सिद्ध होगा, कैसे परमात्मा सिद्ध होगा? प्रार्थना को कैसे नापोगे विज्ञान के द्वारा? नहीं नाप में आती है बात, तो इनकार कर दो। पश्चिम इनकार कर देता है धर्म को..भीतर दरिद्र रह जाता है। और पूरब ने इनकार कर दिया विज्ञान को..बाहर दरिद्र हो गया।
दोनों दरिद्रता में जी रहे हैं, जब कि दोनों मिल कर समृद्ध हो सकते हैं। एक ऐसी दुनिया बनानी है जहां पूरब और पश्चिम मिलें; जहां पूरब पूरब न रह जाए, पश्चिम पश्चिम न हों ये फासले गिरें। एक ऐसी दुनिया बनानी है जहां धर्म और विज्ञान साथ-साथ हाथ में हाथ लेकर नाचें, उत्सव में सम्मिलित हों। कोई विपरीत होने की जरूरत नहीं। लेकिन दोनों को समझदारी बरतनी पड़ेगी। विज्ञान को ऐसे वक्तव्य देने बंद करने पड़ेंगे जो धर्म के जगत में हस्तक्षेप करते हैं, और धर्म को ऐसे वक्तव्य देने बंद करने पड़ेंगे जो अवैज्ञानिक हैं। अगर इतना हम कर सकें, तो यह दुर्दशा, यह दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल सकता है।
अब तुम कह रहे हो कि दूध तक शुद्ध नहीं मिलता। तुम सोचते हो पानी शुद्ध मिला है? पानी भी अशुद्ध है। दूध से भी ज्यादा अशुद्ध। दूध में लोग पानी ही मिला रहे हों तो भी ठीक, मगर पानी भी अशुद्ध है।
मैं जिस युनिवर्सिटी में विद्यार्थी था, वहां जो ग्वाला हमारे छात्रावास में दूध लाता था, उसको लोग ‘संत जी’ कहते थे। बड़ा धार्मिक आदमी था! राम-नाम की चदरिया ओढ़े रहता था! हमेशा हाथ में माला लिए रहता था! कुछ भी काम करता रहे लेकिन उसके ओंठ कंपते रहते..राम-राम, राम-राम! सो लोग संत जी कहें न तो क्या कहें? जब मैं पहली दफा पहुंचा, उसका मैंने दूध देखा, तो उसमें तो पानी ही पानी था। एक दिन वह आया, मैंने उससे कहा: तू भीतर आ! दरवाजा मैंने बंद किया। ...उन दिनों मेरा शरीर दुबला-पतला नहीं था। एक सौ नब्बे पौंड वजन था मेरा! ...मैंने संत जी की गर्दन पकड़ी, उन्होंने कहा: आप क्या करते हैं? मैंने कहा, आज तुम सच-सच बोल दो! मैंने सुना तुम लोगों के सामने कसमें भी खाते हो। तुम अपने लड़के की कसम खाकर कहते हो कि मैं कभी दूध में पानी नहीं मिलाता। मगर तुम्हारा दूध बिल्कुल पानी है। तुम सच बोलो आज अन्यथा मैं तुम्हें बाहर नहीं जाने दूंगा। तो बोला, जब आप मानते ही नहीं, और जब आप इतने नाराज हैं, तो अब आपसे क्या छिपाना! मगर जो मैं कहता हूं वह सच है। मैं लड़के की कसम इसीलिए तो खाता हूं..एक ही तो मेरा लड़का है, आप क्या सोचते हैं कसम मैं ऐसे खा सकता हूं अगर बात सच न हो! मैं कभी दूध में पानी नहीं मिलाता, हमेशा पानी में दूध मिलाता हूं।
देखते हो, उसने कानूनी व्यवस्था निकाली परमात्मा तक को धोखा देने की? कसम खाने में डर नहीं है उसको।
वे जमाने गए जब लोग दूध में पानी मिलाया करते थे, अब तो पानी में दूध मिला रहे हैं। और पानी भी कहां-कहां का! पानी भी कैसा-कैसा! मगर फिर भी तुम्हें भरोसा रहता है कि दूध पी रहे हो, तो हृष्ट-पुष्ट हो रहे हो..तुम्हें कम-से-कम भरोसा रहता है। भरोसे से जो भी लाभ थोड़ा-बहुत होता होगा। आत्म-सम्मोहन से जो लाभ होता होगा होता होगा। दूध वगैरह से अब कुछ लाभ हो सकता नहीं तुम्हें।
मेडिकल कालेज में बाल-स्वास्थ्य विभाग के प्रोफेसर ने परीक्षा में प्रश्न पूछा: छोटे बच्चों के लिए गाय का दूध ज्यादा गुणकारी है या मां का दूध?
विद्यार्थी ने जवाब दिया: सर, शिशुओं के लिए मां का दूध अधिक फायदेमंद है।
प्रोफेसर ने पूछा: उससे कौन-कौन से लाभ है।
उत्तर मिला: सर, पहला लाभ तो यह है कि मां के दूध में पोषक तत्वों की मात्रा ज्यादा होती है; दूसरा यह कि मां का दूध शारीरिक तापक्रम पर रहता है; और तीसरा लाभ यह है कि मां का दूध शिशु के लिए सुपाच्य होता है।
प्रोफेसर बोला: दो लाभ और बताओ।
परीक्षार्थी को कुछ याद नहीं आ रहा था, वह सिर खुजलाने लगा।
प्रोफेसर ने कहा: तुम दो महत्वपूर्ण फायदे गिनाना भूल गए हो।
विद्यार्थी होशियार था। जब उसे अपना किताबी ज्ञान स्मरण नहीं आया, तो अंततः उसने स्वयं के कामनसेंस से सोच-विचार कर उत्तर दिया: सर, गाय के दूध की तुलना में मां के दूध में दो खूबियां और हैं। पहली तो यह कि उसे बिल्ली नहीं पी सकती। और दूसरी यह है कि ग्वाला उसमें पानी नहीं मिला सकता।
स्वदेश, लेकिन मां का दूध कब तक पिओगे? और अगर शुद्ध ही होने का बहुत आग्रह ही है, तो शुद्ध पानी पिओ, दूध की तो आशा छोड़ दो। तुम्हारे शंकराचार्यो के रहते इस देश में शुद्ध दूध नहीं संभव हो सकता। गऊमाता को बचाना है, तुम्हें थोड़े ही बचाना है! तुम मरो तो मरो। तुम जाओ भाड़ में! गऊमाता बचनी चाहिए। धीरे-धीरे एक दिन तुम पाओगे: गऊमाताएं बच गईं, आदमी नदारद! खड़े हैं शंकराचार्य महाराज और गऊमाताएं!
सारी दुनिया में एक व्यवस्था है। उस व्यवस्था में गाय के प्रति कोई व्यर्थ का आदर नहीं है, लेकिन गाय के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि है। किसी को चिंता नहीं है कि गाय को भोजन मिले, ठीक वैज्ञानिक विधि से रहने की व्यवस्था मिले, पोषक तत्त्व मिलें, तो गाय से दूध इतना हो सकता है..और हमारे पास गाएं सर्वाधिक हैं..कि दूध में पानी मिलाने की कोई जरूरत न रह जाए। लेकिन चिंता हमें वह नहीं है, हमारी चिंता तो बड़ी अजीब है: गऊमाता बचनी चाहिए! हड्डी-हड्डी हो रही है गऊमाता, मगर बचनी चाहिए! इन हड्डी-हड्डी गऊमाताओं को लेकर तुम कैसे दूध ला सकोगे? और तुम्हारी भूमि की सारी उर्वरा-शक्ति खो गई है। और तुम्हारे मस्तिष्क की भी सारी उर्वरा शक्ति खो गई है। तुम्हारा मस्तिष्क भी बिल्कुल जड़ हो गया है।
अब इस मस्तिष्क की जड़ता में तुम्हारे पास दो ही उपाय बचे हैं। एक तो पुराणपंथी का उपाय है, कि कल्पनाजगत में खोया रहे अतीत के, कि वाह वे दिन, जब दूध-दही की नदियां बहती थीं! इसका मजा लो। आंख बंद करके और इसी कल्पना में खोए रहो और मजा लो। यह शेखचिल्लीपन है। इसका कोई भी मूल्य नहीं है। लेकिन इससे एक धोखा बना रहता है। और दूसरा रास्ता है, जिसको तुम क्रांतिकारी कहते हो, कम्यूनिस्ट कहते हो, उसका; वह भविष्य की कल्पना में खोया हुआ है। वह कहता है: आएगा स्वर्णयुग। होने दो क्रांति, क्रांति के बाद स्वर्णयुग आएगा।
तुम्हारा स्वर्णयुग या तो जा चुका है या आने वाला है। आज? आज तो किसी तरह गुजार लो। और गुजारने में ये दोनों बातें अफीम का काम करती हैं। माक्र्स ने कहा: धर्म अफीम का नशा है जनता के लिए। ठीक कहा। लेकिन माक्र्स को यह कल्पना भी नहीं थी कि कम्यूनिज्म भी एक दिन अफीम का नशा हो जाएगा। जैसा कि धर्म अफीम का नशा है, वैसा ही कम्यूनिज्म भी अफीम का नशा हो जाएगा जनता के लिए। वह नशा अतीत में ले जाता है, यह भविष्य में ले जाता है। न अतीत का कोई अस्तित्व है, न भविष्य का कोई अस्तित्व है। अस्तित्व है आज का, आज के यथार्थ का। लेकिन आज के यथार्थ का सामना करने के लिए प्रतिभा चाहिए!
और फिर हम आदी हो जाते हैं। हम दीनता के आदी हो गए हैं, हम दुर्दशा के आदी हो गए हैं, अगर कोई हमारी दीनता और दुर्दशा को तोड़ना भी चाहे तो हम तोड़ने न देंगे..यह भी तुम ख्याल रखना। क्योंकि तुम्हारी सारी आदतें हीन और दुर्बल होने की हो गई हैं; और उन आदतों को तुम बड़ा गौरव देते हो, तुम उनको बड़ा सम्मान देते हो। अगर कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़-छाड़ कर नंगा खड़ा हो जाता है सड़क पर, भिक्षापात्र लेकर, तुम कहते हो: महात्यागी! कब तुम यह सम्मान बंद करोगे? तुम अपने मुनियों को कब हाथ जोड़ कर नमस्कार करोगे कि बस, बहुत हो चुका, अब काम-धाम में लगो; अब यह पूजा और आगे नहीं चलेगी। ये निकम्मे साधु-संतों की जमातें तुम कब तक झेलोगे? मगर, कोई आशा नहीं दिखाई पड़ती कि तुम्हारे चित्त में कुछ भी विचार की किरण जग रही हो।
सृजनहीन, असृजनात्मक साधु-संतों के गिरोह तुम्हारी छाती पर बैठे हुए हैं। और तुम मजे से उनकी पूजा कर रहे हो और गुणगान कर रहे हो। तुम्हें यह ख्याल भी नहीं आता कि धर्म को सृजनात्मक होना चाहिए। इस पृथ्वी को थोड़ा सुंदर करो! जैसा आए थे और इसे पाया था, उससे कुछ थोड़ा सुंदर छोड़ जाओ! यह धार्मिक आदमी का लक्षण होना चाहिए। यहां दो फूल और खिला जाए, यहां दो गीत और गा जाए, एक बांसुरी की टेर और सुना जाए! धार्मिक व्यक्ति नापा जाना चाहिए उसकी सृजनात्मकता से। तुम अजीब नाप बना रखे हो! अजीब तुम्हारा मापदंड है! नकारात्मक तुम्हारा मापदंड है। छोड़-छाड़ कर भाग गया जो, भगोड़ों को तुम कहते हो: महापुरुष!
जब तक तुम भगोड़ों को महापुरुष कहोगे तब तक यह जीवन समृद्ध नहीं हो सकता। तब तक भीतर तो तुम भी इच्छा यही रखते हो कि कब मौका मिले, हम भी भाग जाएं। मजबूरी है कि पत्नी है, बच्चे हैं, उलझ गए चक्कर में, नहीं तो दिल तो यही है कि बैठते कहीं धूनी रमा कर! और करते क्या धूनी रमा कर? करना क्या है धूनी रमा कर? चिलम भरवाते, दम लगाते और गांजे के नशे में समझते कि परमात्मा का अनुभव हो रहा है, समाधि के द्वार खुल रहे हैं। भभूत रमा कर बैठ जाते और दिल खुश होता, क्योंकि हजारों लोग पैर छूते, नमस्कार करते।
बंद करो यह पूजा! सृजनात्मक को पूजा दो तो यह दुर्दशा मिटे। जो इस जगत को कुछ दान देता हो, इस जगत को कुछ जोड़ जाता हो..तोड़ नहीं जाता हो..उसको सम्मान दो। लेकिन दीनता-दरिद्रता आध्यात्मिक है! दीनता-दरिद्रता में अध्यात्म जैसा कुछ भी नहीं। अध्यात्म तो एक कला है, जीवन को सुरभि में जीने की। अध्यात्म तो एक कला है, जीवन को उत्सव बनाने की, समारोह बनाने की; जीवन को नृत्य और गीत और संगीत बनाने की। मगर आदतें पुरानी पड़ जाएं तो बड़ी मुश्किल है।
चंदूलाल को सरकारी काम से पंद्रह दिन के लिए बंबई जाना पड़ा। सरकारी भत्ते पर ही उन्हें एक आलीशान होटल में रहने मिला। पांच-छह दिन में ही वे बहुत परेशान हो उठे। एक दिन झल्ला कर वेटर से गुस्से में बोले, सुनो मिस्टर, मेरे लिए जल्दी से दो जली हुई रोटियां, एक प्लेट कंकड़ों से भरी दाल, एक प्लेट अधकच्चे चावल और बुरी तरह जली हुई मिर्चदार सब्जी लेकर आओ।
वेटर ने बाइज्जत सिर झुका कर पूछा: साहब, कुछ और?
चंदूलाल बोले: हां, सब चीजें लाने के बाद तुम मेरे सामने की कुर्सी पर बैठ कर घर-गृहस्थी का रोना रोओ, मेरा सिर चाटो, मुझे सताओ, क्योंकि मुझे घर की याद सता रही है!
आदत हो गई है। रोज जब तक पत्नी सामने बैठ कर और खोपड़ी न खाए तब तक भोजन करने में मजा नहीं आता। दुर्दशा की तुम्हारी आदत हो गई है। और इस आदत को तोड़ना है। क्योंकि यह लंबी आदत है, कठिन है। मैं कोशिश कर रहा हूं आदत को तोड़ने की तो मुझे गालियां पड़ रही हैं..जितनी पड़ सकती हैं।
गरीबी पाप है। जघन्य पाप है। गरीब होना केवल एक बात का सबूत है कि तुम में प्रतिभा नहीं है। और गरीबी तोड़ने का हर उपाय किया जाना चाहिए। लेकिन तुम अगर समझते हो कि गरीबी में कोई गौरव है, तो तुम कैसे तोड़ोगे? तुम तो चिपकाओगे उसे छाती से। तुम तो कहोगे कि मेरी गरीबी न छीन लेना, नहीं तो मेरा सारा अध्यात्म गया। मुझे समृद्ध मत कर देना; मैं नहीं चाहता समृद्धि।
एक जैन मुनि को मुझे मिलाया गया। उन्होंने अपना एक गीत सुनाया, जिस गीत में उन्होंने कहा था कि मुझे सम्राटों के सिंहासनों से कुछ प्रयोजन नहीं, मैं लात मारता हूं सिंहासनों पर। मैं तो अपनी धूल में ही मस्त हूं, मुझे महल नहीं चाहिए। मेरे लिए तो धूल ही काफी है। और भी दस-पच्चीस लोग इकट्ठे थे, उनके साथ आए थे, वे सिर हिला कर कहने लगे: वाह-वाह! मैंने कहा: बंद करो वाह-वाह! एक तो वह आदमी गलत-सलत बक रहा है और तुम वाह-वाह कर रहे हो! तुम अगर अपनी धूल में मस्त हो, तो गीत लिखने की क्या जरूरत है? कोई सम्राट तो गीत नहीं लिखता कि मैं अपने राज-सिंहासन पर ही मस्त हूं, मुझे तुम्हारी धूल से कोई लेना-देना नहीं। कभी किसी सम्राट ने लिखा ऐसा गीत, कि मैं तो अपने स्वर्ण-सिंहासन पर ही ठीक हूं, तुम करो मजा अपनी धूल में, मुझे कोई ईष्र्या नहीं है? कोई सम्राट ऐसा क्यों नहीं लिखता? यह तुम्हीं को क्यों सूझती है? जरूर ईष्र्या है। ईष्र्या भी है, निंदा भी है। और ईष्र्या और निंदा भीतर गहरे प्रलोभन, लोभ, वासना के सबूत हैं।
और मैंने कहा: मैं कुछ बुरा नहीं मानता। क्यों तुम्हें स्वर्ण-सिंहासन से ऐतराज है? उनको कुछ मेरा पता नहीं था, मेरे सोचने-समझने का ढंग पता नहीं था। उन्होंने कहा: स्वर्ण-सिंहासन में है ही क्या? अरे, स्वर्ण भी मिट्टी है! मैंने कहा जब मिट्टी ही है, तो तुम्हारी धूल में कौन सी खूबी है? अगर स्वर्ण-सिंहासन भी मिट्टी है, तो वह भी मिट्टी पर बैठा है बेचारा, बैठा रहने दो। तुम भी मिट्टी में पड़े, तुम भी पड़े रहो। तुम इसमें गौरव क्यों ले रहे हो?
वे अगलें-बगलें देखने लगे।
मैंने कहा: अगलें-बगलें देखने से नहीं चलेगा। अगर दोनों मिट्टी हैं, तो भेद क्या है? फिर तुम महात्मा किस बात के हो? जरूर तुम्हें सोने में मिट्टी दिखाई नहीं पड़ती। कहते हो, मगर तुम्हें सोने में सोना दिखाई पड़ रहा है और मिट्टी में मिट्टी दिखाई पड़ रही है। और यह सब बकवास कर रहे हो तुम और तुम अपनी मिट्टी में मस्त नहीं हो। दिखला रहे हो। तुम्हारी सूरत पर मस्ती की कोई छाप नहीं है। तुम्हारी आंखों में कोई मस्ती का खुमार नहीं है। लेकिन तुम अपने दंभ को परिपोषित कर रहे हो।
दरिद्रता में हो भी कैसे सकती है मस्ती! कम से कम पेट तो भरा हो! ‘भूखे भजन न होय गोपाला’, भूखे पेट से गालियां ही निकल सकती हैं, गीत नहीं। और बहुत भूखा हो तो गालियां तक नहीं निकल सकतीं। आखिर गालियां निकलने के लिए भी तो कुछ थोड़ी ताकत चाहिए। नंगे, भूखे, लेकिन हमने एक तरकीब खोज ली; हम नंगे पन को न मिटा सके, भिखमंगेपन को न मिटा सके, तो हमने एक आध्यात्मिक तरकीब खोज ली; हमने एक बड़ा दार्शनिक रास्ता खोज लिया; हमने इसको मढ़ दिया एक तर्क में; हमने एक सुंदर तर्कजाल खड़ा कर लिया..यह तर्कजाल वही है, जो तुमने उस कहावत में सुना कि अंगूर खट्टे हैं। जो नहीं मिल सकता, बेहतर है कह दो खट्टा है। जो नहीं पा सकते हम, कह दो हमने त्याग दिया है। जो हमारे हाथ के बाहर है, पहुंच के बाहर है, कह दो हम चाहते ही कब हैं? हमने पहुंच तक अपना हाथ ले जाने की आकांक्षा ही कब की है? सिकुड़ जाओ, संकुचित हो जाओ।
यह दुर्दशा है कि हम सिकुड़ गए हैं, संकुचित हो गए हैं।
फैलना सीखो! फिर से अभियान लो फैलने का और कहो पूरे मन से बाहर की भी समृद्धि उतनी ही मूल्यवान है जितनी भीतर की समृद्धि। और दोनों में कोई विरोध नहीं है। सच तो यह है कि दोनों में एक संग-साथ है। दोनों साथ-साथ ही जी सकते हैं। दोनों का विकास साथ-साथ ही हो सकता है। गरीब आदमी को फुरसत कहां कि संवेदना को बढ़ाए! कठोर हो जाता है। पथरीला हो जाता है। गरीब आदमी को अवसर कहां कि काव्य को समझे, संगीत को समझे, वीणा के तार छेड़े! रात थका-मांदा लौटता है, सुबह सूरज ऊगने के पहले फिर वापिस काम पर चला जाता है..काम ही खा जाता है उसे! कुछ अवसर चाहिए, अवकाश चाहिए; कुछ विश्रांति के क्षण चाहिए, गीत सुने, संगीत सुने। कुछ अवसर चाहिए कि जीवन की विराट समस्याओं पर विचार कर सके; कि जीवन क्या है, इसकी शोध में लग सके।
दुर्दशा है इस कारण कि हमने अपने हाथ से एक मूढ़तापूर्ण जीवनदृष्टि को अंगीकार कर लिया है। और आज कोई उसे मूढ़तापूर्ण कहे, तो हमें गुस्सा आता है। क्योंकि वह हमारे पांच हजार साल की धारणाओं को चोट पहुंचा रहा है। हमारे चित्त को बड़ा क्रोध लगता है। हमें लगता है कि हमारे अहंकार को भारी चोट पहुंचाई जा रही है। और एक अर्थ में ठीक ही है, चोट पहुंचाई जा रही है। चोट पहुंचानी जरूरी है। कोई तुम्हें झकझोरे न तो तुम जागोगे भी नहीं।
धर्म ज्योति ने पूछा है, कि आप सुबह-शाम एक तूफान की तरह आते हैं और झकझोर कर चले जाते हैं। वह तो ठीक है कि मैं तूफान की तरह आता हूं, झकझोर कर चला जाता हूं, मगर तुम्हारी हालत यह है कि मैं झकझोरता हूं, मैं गया और तुमने वापस जो धूल-धवांस गिर गई, उसको फिर अपने सिर पर फेंका। हाथी नहा लेता है न नदी में और फिर बाहर आकर सूंड से धूल को अपने ऊपर फेंक लेता है। तो मैं तुम्हें झकझोर जाता हूं, मैं गया और तुम फिर सम्हल जाते हो; तुम फिर अपने पुराने कपड़े पहन लेते, अपनी टोपी सम्हाल लेते, चारों तरफ देखते हो कोई देख तो नहीं रहा है और चल पड़े फिर पुरानी चाल! फिर वही चाल, फिर वही आदत, फिर वही देखने के ढंग।
मेरा तो काम स्वाभाविक वही है जो तूफान का है। सदियों से वही काम रहा है बुद्धों का कि वे तुम्हें झकझोरें, क्योंकि तुम सो-सो जाते हो; तुम्हें जगाएं, क्योंकि तुम बार-बार सपनों में खो जाते हो।
जाग सको तो यह देश दुनिया के समृद्धतम देशों में एक हो सकता है। कोई कारण नहीं है कि हम असमृद्ध हों, कि हम गरीब हों। हम गरीब हैं अपने कारण से। हमने गरीबी को ओढ़ रखा है। और हम आलसी हो गए। हम भयंकर आलसी हो गए।
दो आदमी एक झाड़ के नीचे सोए हुए थे..रहे होंगे शुद्ध भारतीय, आर्यसमाजी। जामुन का झाड़, एक जामुन गिरी। दोनों पड़े आवाज सुनते रहे। आखिर एक ने कहा कि भई, यह कैसी दोस्ती? अरे, दोस्त वह जो वक्त पर काम आए। जामुन गिरी और तुझसे इतना भी नहीं हो सकता कि उठा कर मेरे मुंह में डाल दे! उसने कहा, अब तुम्हें याद आई कि दोस्ती क्या! और जब वह कुत्ता अभी-अभी मेरे कान में ‘जीवनजल’ छिड़क रहा था, तब तुमने भगाया भी नहीं।
एक आदमी ने ये बातें सुनीं। उसने कहा, हद हो गई! बड़े पहुंचे हुए महात्मा मालूम होते हैं। उसने दो जामुन उठा कर दोनों के मुंह में डाल दीं। महात्माओं की सेवा तो करनी ही चाहिए! जाने को ही था कि उन्होंने कहा, ठहर भाई, गुठली कौन निकालेगा? तू कहां चला? जरा, गुठली तो निकालता जा!
एक गहन काहिलपन, एक सुस्ती, एक निराशा हमारी आत्मा पर एक अंधेरी रात की तरह बैठ गई है। तुम्हें झकझोरा जाना जरूरी है। तूफान न आए तो तुम उठने वाले नहीं। आंधी न आए तो तुम उठने वाले नहीं।
और धीरे-धीरे तुमने मान लिया है कि जीवन बस, ऐसा ही होता है। दुख आते हैं तो तुम कहते हो, क्या करें, जीवन तो दुख है ही। तुम बड़े अच्छे-अच्छे शास्त्र उद्धरण करने में बड़े कुशल हो गए हो, कि बुद्ध ने कहा नहीं कि जीवन दुख है! जन्म दुख, जवानी दुख, जरा दुख, सारा जीवन दुख है। तो दुख तो आएगा ही। जीवन में पीड़ा होती है तो तुम कहते हो, क्या करें, जन्मों-जन्मों के कर्मो का फल भोग रहे हैं। तुम्हें खूब सिद्धांत आ गए हैं! सारी दुनिया के पापी जैसे यहीं पैदा हो रहे हैं! और किसी ने जन्मों-जन्मों में दुष्कर्म नहीं किए, तुम्हीं ने किए हैं! परमात्मा तुमसे कुछ नाराज है! और तुम्हीं पुराने भक्त। सदियों से तुम्हीं गुहार मचा रहे हो। तुमने जितना शोरगुल मचाया है, किसी और ने मचाया है परमात्मा के नाम पर? परमात्मा तुमसे कुछ नाराज है कि तुमको ये सब दुख दे रहा है? तो लोग बड़े होशियार हैं। वे कहते हैं, परीक्षा ले रहा है। परीक्षा से उतरोगे तभी भवसागर पार होएगा।
हम खोजे चले जाते हैं तर्को पर तर्क। एक तर्क का जवाब मिल जाए तो हम दूसरा खोज लेते हैं।
रात दो बजे मुल्ला को जगा कर
घबराई हुई बीबी बोली, सकपका कर..
‘सुनते हो, खटर-पटर की आवाज आ रही है
लगता है घर में घुसे हैं चोर,
पड़े क्या हो जी
उठो,
मचा दो शोर!’
नसरुद्दीन बोला..
‘गुलजान, सोने दो मुझे, मत करो बोर
कुछ भी नहीं है, तू व्यर्थ ही घबरा रही है
शायद चैके में बिल्ली कुछ खा रही है
चोर हल्ला नहीं करते, चुपचाप आते हैं
समझी कुछ, ऐ बुद्धिमान!
वे बर्तनों की उठापटक नहीं मचाते हैं
जो होगा देखेंगे, सुबह होने दो
बोर मत करो गुलजान, मुझे सोने दो!’
तर्क में हार कर बीबी मौन हो गई बेचारी
मन में तो मगर शक था,
सो न सकी डर की मारी
तीन बजे फिर नसरुद्दीन को जगा कर बोली,
‘डाालग, आए एम सारी!
चोर कभी नहीं करते शोर
तुम्हारी यह बात मुझे समझ आ रही है
इसलिए कहती हूं..उठो, जरा देखो तो सही
जरूर कुछ गड़बड़ है मेरी जान
घंटा भर से अपने घर में, है बिल्कुल सुनसान
बात क्या है? कोई आवाज नहीं आ रही है!’
इधर से नहीं तो इधर से। एक तर्क तोड़ो तो दूसरा खड़ा कर लेते हैं।
तर्कजाल बंद करो! बहुत हो चुके तर्क और बहुत हो चुके सिद्धांत। बहुत शास्त्र हम रच चुके, अब हम जीवन को रचें। अब हम एक नया संन्यास दुनिया को दें, एक नया धर्म। जीवन को देखने की एक नयी विधि, एक नई विधा। जीवन को सर्वांगीणरूप से स्वीकार करने की कला।
भीतर और बाहर दोनों में परमात्मा है। भीतर-बाहर, सब उसका राज्य है। शरीर भी उसका है, आत्मा भी उसकी है। शरीर के विपरीत आत्मा को खड़ा मत करो..वह द्वंद्व महंगा पड़ा है। संसार भी उसका है, मोक्ष भी उसका है। संसार को त्याग करने से मोक्ष नहीं मिलता, संसार को ठीक-ठीक जीने से मोक्ष मिलता है। घोषणा करो, उदघोषणा करो अब इस बात की कि संसार को ठीक-ठीक जी लेने का पुरस्कार है मोक्ष। संसार को छोड़ देने का नाम मोक्ष नहीं है। तो दुर्दशा मिटे, तो यह दीनता मिटे, यह दरिद्रता मिटे! हम फिर आदमियों की तरह जी सकें..गौरव में, गरिमा में। हमारे जीवन में भी थोड़ी आभा हो। हमारे जीवन में भी कहने योग्य कुछ गरिमा हो, कुछ अर्थ हो।
अभी तो सब व्यर्थ है! बोझ ढो रहे हैं! जी नहीं रहे, बोझ ढो रहे हैं। कोल्हू के बैल हैं। खींचे जाते हैं। वही राह है, वर्तुलाकार घूमे चले जाते हैं। न कोई मंजिल आती, न कोई मंजिल का सुराग मिलता।
कब तक और इस तरह करना है?
जागो! सारी पृथ्वी एक नये जागरण से भर रही है। उसमें भी तुम पिछड़ मत जाना। उसमें तुम सहभागी हो सकते हो। यह जो सूरज ऊग रहा है नया पृथ्वी पर, जिसमें पूरब और पश्चिम मिटेंगे, जिसमें देशों की सीमाएं लीन हो जाएंगी, जिसमें धर्म और विज्ञान के विरोध समाप्त हो जाएंगे, कहीं ऐसा न हो कि तुम इस दौड़ में भी पीछे रह जाओ। जो हुआ हुआ। जो पीछे बीता बीता। बीति ताहि बिसार दे! अब तो कुछ नये ढंग से हम जीवन को पुनः निर्मित करें।
मैं जो यहां प्रयास कर रहा हूं, वह इस अर्थ में अनूठा है। इसलिए भारतीय मन को बहुत दुविधा में डालता है, भारतीय मन को बहुत चिंतित करता है। उसको लगता ही नहीं कि जो भी कह रहा हूं, कर रहा हूं, वह धार्मिक है। उसे तो घबड़ाहट होती है। क्योंकि धार्मिक होने का अर्थ है: छोड़ो-छाड़ो, भागो जंगल की तरफ! और मैं कहता हूं: बीच बाजार में बैठ कर परमात्मा को पाया जा सकता है। और अगर वहां नहीं पाया जा सकता तो और कहीं भी नहीं पाया जा सकता है।

आज इतना ही।

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