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गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-07)

प्रवचन-सातवां

14 दिसंबर 1985, अपराह्म, कुल्लू-मनाली 

मेरी निंदाः मेरी प्रशंसा

भगवान, लंबे अनुभव से यही दिखाई देता है कि ऋषियों का तथा बुद्धपुरुषों का संदेश हमेशा गलत समझा जाता है या उपेक्षित रह जाता है। क्या इसका यह अर्थ है कि अपनी भूलों के कारण मनुष्यता अनंत काल तक दुख झेले, यही उसकी नियति है?

 मैं निराशावादी नहीं हूं। मैं आशा के विपरीत आशा करता हूं। और यह प्रश्न भी कुछ उसी प्रकार का है।  प्रज्ञापुरुष के, बुद्धपुरुष के रास्ते में अपरिसीम कठिनाइयां होती हैं।  पहलीः उसकी अनुभव मन की निर्विचार स्थिति में घटता है। तो जब वह उसे लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करता है, तो मजबूरन उसे शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। सौ बुद्धपुरुषों में से निन्यानबे चुप रहे हैं; क्योंकि जैसे ही तुम निःशब्द अनुभव को शब्दों में ढालते हो, तो उसकी आत्मा खो जाती है। फर्क यह है कि तुम एक सुंदर पक्षी को खुले आकाश में उड़ते हुए देखते हो; वह इतना सुंदर दृश्य होता है- उसकी स्वतंत्रता वह खुला आकाश, वह अनंतता! और फिर तुम उस पक्षी को पकड़कर सोने के पिंजरे में रखते हो, जो कि बेशकीमती होता है। एक तरह से वह वही पक्षी है, लेकिन फिर भी वही नहीं है। उसका आकाश कहां गया? उसके पंख कहां है? उसकी स्वतंत्रता कहां गई?

सब खो गया। उसकी अनंतता खो गई। अब वह मृतवत हो गया।  ठीक यही घटना बुद्धपुरुष के साथ घटती है। चेतना के उत्तुंग शिखर पर उसे कुछ अनुभव हुआ है, जहां कोई शब्द, कोई विचार प्रवेश नहीं कर सकता। हिमालय के उन स्वर्णिम शिखरों से, उस अनुभव को उन अंधेरी घटियों में उतारना पड़ता है, जहां रोशनी की किरण भी कभी उतरी नहीं।  तो जैसे ही वह बोलता है, उसी समय कोई सारभूत तत्व उसमें से खो जाता है। पहला पतन शुरू हुआ। पहली गलतफहमी का प्रारंभ हुआ। और इसकी शुरुआत स्वयं बुद्ध पुरुष से होती है। इसका दोष साधारण आदमी के सिर पर रखने जरूरत नहीं है।  वह शब्द जब साधारण लोगों तक पहुंचता है, जो अनेक प्रकार के संस्कारों से भरे हैं, वे उसे उस ढंग से नहीं समझ सकते, जो बुद्धपुरुष का आशय होता है। लेकिन उनकी कोई गलती नहीं है, इसके लिए उन्हें सजा देना ठीक नहीं है। वे दया के पात्र हैं। उन्होंने उस तरह का कुछ जाना ही नहीं है।  यह ऐसे ही है, जैसे तुम एक छोटे बच्चे से सेक्स के आरगा म के संबंध में बात करो। तुम बात कर सकते हो, लेकिन वह बच्चा कुछ नहीं समझेगा कि तुम क्या कह रहे हो। उसकी दृष्टि में तुम सिर्फ बकवास कर रहे हो। और अगर वह बच्चा तुम्हें तुम्हारी पत्नी से प्रेम करते हुए देखे, तो वह समझेगा कि तुम उसकी मां को मार रहे हो। उससे ज्यादा वह नहीं समझ सकता।
तुम अपने जीवन का सबसे सुंदर अनुभव ले रहे हो, और तुम्हारा बच्चा सोच रहा है, तुम उसकी मां की हत्या कर रहे हो। उसकी मनोदशा के अनुसार, अधिक से अधिक वह केवल सोच यह सकता है कि तुम लड़ रहे हो।  जब जाग्रत व्यक्ति के शब्द मूर्च्छित व्यक्ति तक पहुंचते हैं, तो ठीक वही स्थिति होती है- उसका पूरा रंग ही बदल जाता है क्योंकि मूर्च्छित व्यक्ति अपनी धारणाओं के परदे की ओट से उसे सुनता है। और इस तरह का अनुभव उसे कभी हुआ नहीं है। इसलिए गलतफहमी पैदा होती है।  लेकिन उस गलतफहमी के बावजूद, उसमें कुछ सुगंध होती है, कुछ सौंदर्य होता है, कोई गरिमा होती है, जिससे साधारणजन उसके भक्त हो जाते हैं, उसको समर्पित हो जाते हैं।  लेकिन उनकी भक्ति का, उनके समर्पण का शोषण होने ही वाला है- उस बुद्धपुरुष द्वारा नहीं, बल्कि एक नये किस्म के व्यक्ति द्वाराः पुरोहित और उसकी पूरी जमात- पंडिताई करने वाले। वे मध्यस्थ हो जाते हैं। वे विद्वान हैं, शब्दों के जानकार हैं। वे बुद्धपुरुष के वचनों की उन लोगों के लिए व्याख्या करने का दिखावा करते हैं, जो समझ नहीं सकते। और वे सबसे बड़ी बाधा बनते हैं।  आज तक यह हकीकत रही है। और मैं नहीं सोचता कि इसमें कुछ बदलाहट होगी। यह हालत तब तक बनी रहेगी जब तक कि हम बुद्धत्व को एक व्यापक अनुभव नहीं बनाते- इसमें कुछ विशिष्टता नहीं है कि केवल कुछ लोग ही गौरीशंकर पर पहुंचे, और बाकी सब लोग सिर्फ विश्वास करें कि गौरीशंकर है, क्योंकि एडमंड हिलेरी ऐसा कहता है।
जब तक हम उसे इतना व्यापक नहीं बनाते कि कोई भी पुरोहित तुम्हारे साथ छल न कर सके।  और यह मेरा एक मूलभूत काम हैः ध्यान को इतना सरल बनाना है कि जिसको भी मौन होने में उत्सुकता है, जिसको भी सहज, विश्रामपूर्ण, शांत होना है, जिसको भी स्वप्नविहीन निद्रा का अनुभव लेना है...मैं ईश्वर के संबंध में बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि तब फिर बड़ी विशिष्ट बात हो जाती है। मैं स्वर्ग की चर्चा नहीं कर रहा हूं, क्योंकि तब फिर वह एक विशिष्ट खोज बन जाती है। मैंने पुनर्जन्म के विषय में कुछ नहीं कह रहा हूं। मैं उन बातों का फिक्र कर रहा हूं, जिनमें कोई उत्सुकता न हो ऐसा आदमी खोजना कठिन है- मौन, शंाति, प्रेम, करुणा, आनंद।  और मैं ध्यान को इन बातों से जोड़ने की कोशिश कर रहा हूं, ईश्वर से नहीं- जिसे किसी ने देखा नहीं है; या स्वर्ग से, जो कि मृत्यु के उस पर है; पुनर्जन्म के साथ, जो कि सिर्फ एक परिकल्पना हो सकती है; और उस सब तरह के शब्दों के जाल से, जो धर्मों ने पैदा किए हैं।  मैं वैज्ञानिक ढंग से सोचता हूं।
मेरा दृष्टिकोण यह है कि चाहे तुम हिंदू हो या मुसलमान, या ईसाई या कम्युनिस्ट, आस्तिक या नास्तिक उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं नहीं देखता कि नास्तिक को शांत या मौन होने में कोई रस नहीं है। हो सकता है वह ईश्वर में उत्सुक न हो, लेकिन वह चित्त की उस स्वस्थता में निश्चित रूप से उत्सुक होगा, जो उसके अंतरतम केंद्र से पैदा होती है। और ध्यान उस अंतर तक केंद्र तक पहुंचने की एक विधि है।  और मैंने दुखा है कि ध्यान की एक सौ बारह विधियां हैं। और उनमें सब विधियां आ जाती हैं, उनमें और कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। वह विज्ञान परिपूर्ण है। लेकिन उन एक सौ बारह विधियों को जोड़नेवाला एक आंतरिक धागा है। जैसे फूलमाला में फूलमाला में सब फूलों को जोड़नेवाला एक भीतरी धागा होता है। तुम्हें माला दिखायी पड़ती है, फूल दिखायी पड़ते हैं लेकिन वह धागा नहीं दिखायी पड़ता, जो वस्तुतः उन फूलों को बांधे रखता है और माला का आकार देता है।  इन विधियों के बीच एक ध्यान का अंतःसूत्र है, और वह बिल्कुल सरल है। अति साधारण आदमी भी कर सकेगा। एक बच्चा, जो भाषा समझ सकता है, वह उसे कर सकेगा। जो आदमी मरण-शैया पर पड़ा हो, अपनी आखिरी सांसें गिन रहा हो, वह भी उसे कर सकता है और स्वयं को रूपांतरित कर सकता है।  तो मेरे देखे, एक मात्र सरलतम उपाय जो संभव है, वह यह कि ध्यान को सरल बना दें, उसे उन बातों से जोड़ दें जिनकी सामान्य जन आकांक्षा करते हैं। उसे नाहक जटित मत बनाओ; धार्मिक, दार्शनिक पुट मत दो,। उसे एक विशुद्ध वैज्ञानिक विधि रहने दो।  यह ऐसे ही है जैसे, तुम नहीं जानते हो कि विद्युत कैसे काम करती है, लेकिन तुम्हें बटन की जानकारी है। तुम्हें विद्युत की आंतरिक कार्य-प्रणाली पता नहीं है। उसके लिए तुम्हें अध्ययन करना पड़ेगा।
इसे समझने के लिए तुम्हें विश्वविद्यालय जाना पड़ेगा। और ऐसा कहा जाता है कि अलबर्ट आइन्स्टीन जैसे व्यक्ति ने भी कहा है कि मैं भी ठीक-ठीक नहीं जानता कि विद्युत किस तरह काम करती है; और मैं यह भी नहीं जानता कि विद्युत क्या चीज है। लेकिन हम उसका प्रयोग करना जानते हैं।  निश्चय ही, ध्यान विद्युत से कहीं अधिक सूक्ष्म है। मनुष्य को सिर्फ इतना ही सीखना है कि उसका प्रयोग कैसे किया जाए। और मेरे पूरे जीवन में मैंने एक भी ऐसा आदमी नहीं देखा, जो इन बातों में उत्सुक न हो, जिनके संबंध में मैंने तुम्हें बताया। उसे ध्यान शब्द से भय होगा लेकिन वह मौन से नहीं डरता। उसे शंाति से कोई भय नहीं है, प्रेम से कोई भय नहीं है। उसे आनंद से कोई भय नहीं है। और उसे स्वयं को जानने से भी कोई डर नहीं।  एक बार तुम ये मानवीय आकांक्षाएं ध्यान के विज्ञान से जोड़ दो तो आशा की जा सकती है कि मनुष्यता की, हमेशा अज्ञान में रहने की नियति बदल जाए। और संभावना है कि बुद्धपुरुष के वक्तव्य समझें जा सकें। लेकिन वे तभी समझे जा सकते हैं जब तुम्हारे भीतर कोई ऐसा अनुभव हो, जो उनसे सेतु बना सके।  बुद्ध असफल हुए, महावीर असफल हुए। कारण सीधा-साफ था- उनके पास अनुभव था; तो जहां तक उनका खुद का संबंध है, वे सफल थे।
लेकिन उस अनुभव को लोगों तक पहुंचाने में वे असफल रहे। क्योंकि उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि साधारण आदमी को अस्तित्व का रहस्य जानने में कोई रस नहीं है। वह अपने ही जीवन के बोझ के नीचे दबा जा रहा है। उसके पास इस जीवन का रहस्य खोजने के लिए समय कहां? और यदि उसने जीवन का रहस्य खोज भी लिया, तो उसका करेगा क्या? तुम उसे खा नहीं सकते, उससे घर बना नहीं सकते।  वे लोग अपनी ऊंचाइयों से बोल रहे थे। उन्होंने इस बात की फिकर नहीं की कि जो लोग अंधेरी घटियों में रहते हैं, उनकी भाषा अलग होती है। कहावत है कि जिसको प्यासा हो वह कुएं के पास जाता है, कुआं प्यासे के पास नहीं आता। एक खास अर्थ में वह सही है, लेकिन जहां तक अध्यात्म का संबंध है, मैं आग्रह पूर्वक यह कहना चाहूंगा कि प्यासा कुएं के पास नहीं जा सकता। एक तो उसे पता ही नहीं होता कि वह प्यासा है। उसे यह भी पता नहीं होता कि यह कैसी प्यासा है, क्योंकि उसने पानी तो कभी चखा नहीं है। उसे यह भी पता नहीं है कि कुएं होते हैं, जहां उसकी प्यास बुझ सकती है।
तो इस प्राचीन कहावत के विपरीत मैं तुमसे कहता हूं कि कुएं को ही प्यासे के पास जाना पड़ता है; इससे अन्यथा हो नहीं सकता। और कुएं को प्यासे के पास जाने का रास्ता यह हैः साधारण आदमी के संस्कारों को समझे, उसकी आकांक्षाओं को समझे; और किसी तरह उसकी आकांक्षाओं को ऐसी चीज से जोड़े जो उसे उसके अंधकार से बाहर निकाले। यह कठिन काम है; शायद सर्वाधिक कठिन, लेकिन इसमें चुनौती भी है।  मैं अपनी पूरी जिंदगी साधारण आदमी से बातें करता आया हूं, और मैं जानता हूं कि उनके साथ किसी तरह का संवाद स्थापित करना कितना मुश्किल होता है। लेकिन मैं बहुत विनम्रता पूर्वक कहना चाहूंगा कि मैं हजारों हृदयों तक पहुंचने में सफल रहा हूं। और यदि यह मेरे लिए संभव हो सका, सबके लिए संभव हो सकेगा।  यह मेरा मूलभूत कथन हैः जो एक मनुष्य के लिए संभव हो सकता है वह सभी मनुष्यों के लिए संभव हो सकता है। तुम्हारे तथाकथित प्राचीन धर्म-संस्थापकों ने एक बुनियादी भूल की है, और वह है- उन सबका दावा है कि वे विशिष्ट हैं।  जीसस कुंआरी माता से, मैरी से पैदा होते हैं। तुम कुंआरी माता से पैदा नहीं होते। और यदि तुम पैदा होओगे, तो तुम जार्ज बास्टर्ड कहलाओगे, जीसस क्राइस्ट नहीं। उनके अनुयायियों के सैकड़ों कहानियां पैदा की हैं, जो कि सब मिथ्या हैं- वे पानी के ऊपर चले, कि उन्होंने लोगों के सिर पर हाथ रखकर उनकी बीमारियां दूर कीं। यही नहीं, उन्होंने मुर्दे को भी जिला दिया।  यदि से सब कहानियां सच हैं, तो एक छोटी सी बात सोचना...यदि ये सब कहानियां सच हैं, तो जीसस के समसामयिक लोगों के ध्यान में ये बातें कभी नहीं आयीं। एक भी यहूदी किताब में इसका उल्लेख नहीं है...और इतने चमत्कार से भरे हुए कृत्य। उल्टे उसका पुरस्कार यह है कि वे जीसस का सूली पर चढ़ाते हैं। मैं नहीं सोचता कि जो आदमी मुर्दों को जिंदा करता है, उसे किसी सदी में, किसी देश में सूली पर टांगा जा सकता है।
सच तो यह है कि ये सब किस्से मन गढ़त हैं। लेकिन अनुयायियों को इस तरह की कहानियां पैदा करनी ही पड़ती हैं ताकि वे जीसस के और तुम्हारे बीच जितना फासला पैदा कर सकें उतना करें।  राम और अन्य अवतार इस पृथ्वी पर ईश्वर के अवतार हैं। तुम ईश्वर के अवतार नहीं हो, कृष्ण हैं। स्वभावतः यदि कृष्ण परम बुद्धत्व की दशा का उपलब्ध होते हैं, तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं है। वे तो ईश्वर के पूर्णावतार हैं ही। तुम एक क्षुद्र जीव हो।  मनुष्य के लिए जो अंग्रेजी शब्द है, उसका अर्थ है, कीचड़। ट्ूमन शब्द ट्ूमन से आता है; ट्ूमन यानी मिट्टी। मनुष्य के लिए जो अरेबिक शब्द हैः आदमी, उसका भी अर्थ होता है, मिट्टी। तुम सिर्फ कीचड़ हो। तुम्हारे और पैगंबरों और धर्म-संस्थापकों के बीच उलंश्य खाई है।  बुद्ध जब पैदा हुए तब उनकी मां खड़ी थी। अब एक भी स्त्री ने बच्चे को खड़े-खड़े जन्म नहीं दिया है। लेकिन वह इतना कठिन नहीं है। हो सकता है वह कोई कसरती महिला रही हो। बुद्ध खड़े-खड़े पैदा हैं इतना ही, वे सात कदम चलते हैं- यह और भी हैरान कर देनेवाली बात है। यह पहला कृत्य है, जो वे पृथ्वी पर आने के बाद करते हैं। और सात कदम चलने के बाद, वे मेरे जगत के प्रति घोषणा करते हैं कि मैं उनमें सबसे महान बुद्धपुरुष हूं, जो भी आज तक इस पृथ्वी पर हुई; या कि भविष्य में कभी इस पृथ्वी पर होंगे।  अब, यह सब बकवास...! वह बच्चा सात मिनिट का भी नहीं है। वह चल रहा है, बोल रहा है, घोषणा कर रहा है!  सभी धर्मों की कुल आकांक्षा और पूरा ख्याल यह रहा है कि उनके संस्थापकों को मनुष्यता से दूर किया जाए ताकि उनके प्रति आदर पैदा हो, उनकी पूजा हो भक्ति हो।
लेकिन यह सब आदर, पूजा और भक्ति आध्यात्मिक गुलामी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यदि ये सब लोग इस बात पर जोर देते कि वे उतने ही मानवीय हैं जितने कि तुम हो; और उन्होंने जो भी पाया है वह तुम्हारी भी क्षमता है; और तुम्हारे और उनके बीच कोई सेतु नहीं है क्योंकि कोई खाई की नहीं है। फर्क नहीं है जो कुली और फूल के बीच होता है।  वह फर्क क्या है? वस्तुतः कली ज्यादा अच्छी स्थिति में हैं। फूल तो सांझ होते-होते मुरझा जाएगा। कली के आगे उसका पूरा जीवन है। कली का भविष्य है। फूल खिल गया है; उसका सिर्फ अतीत है। उसने अपनी सुगंध बिखेरे दी है। अब उसकी पंखुड़ियां गिर जाएंगी और फूल खो जाएगा। कली तो अभी जीवन है। उसका खजाना अभी लुटने को है।  यह फर्क वैसा ही है जैसे उगते सूरज में और डूबते सूरज में होता है। बुद्ध डूबते सूरज हैं- सुंदर, महिमा मंडित, रंगों से भरपूर...लेकिन ध्यान रहे, वह डूबता सूरज है। वे अपनी परम क्षमता को उपलब्ध हुए हैं। तुम उगते सूरज हो, जिसकी पूरी क्षमता अभी प्रकट होने को है, और यात्रा के लिए पूरा आकाश पड़ा है। अभी तुम्हें पूरे रंग बिखेरे ने हैं, सब अनुभवों से गुजरना है।  अगर ये सारे धार्मिक लोग एक मुद्दे पर जोर देते कि बुनियादी रूप से उनमें और तुममें कोई भेद नहीं है, तो मनुष्यता बिल्कुल ही अलग स्थिति में होती- अत्तुंग चेतना, सजगता होश और असीम आत्म-सम्मान। उन्होंने तुम्हें आत्म-सम्मान से वंचित कर दिया।
उन्होंने मनुष्यता को नष्ट कर दिया। उन्होंने तुम्हें सिर्फ जंतु, कीचड़ मिट्टी बने रहने पर मजबूर किया है।  मेरा प्रयास बिल्कुल भिन्न है। इसलिए पूरी दुनिया में मेरी, हर किसी के द्वारा निंदा होती है। उसे मैं अपनी प्रशंसा समझाता हूं क्योंकि देर-अबेर, ऐसे लोग होंगे, जो पहचाना पाएंगे कि मैं क्यों कर रहा हूं। इसमें समय लगता है।  शायद मैं जब स्वीकृत होऊंगा तब मैं यहां नहीं रहूंगा। लेकिन मैं जानता हूं कि यह होने वाला है क्योंकि मैं जो कह रहा हूं, वह परम सत्य हैः गौतम बुद्ध में और तुममें कोई फर्क नहीं है। फर्क इतना ही है कि तुम सोए हुए हो और वे जागे हुए हैं। यह किस तरह का फर्क हुआ? सोया हुआ आदमी किसी भी क्षण जाग सकता है। उसमें जागने की क्षमता है, अन्यथा वह सो नहीं सकता। मरा हुआ आदमी सो नहीं सकता क्योंकि वह जाग नहीं सकता। सोना और जागना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए मैं बा-बार जोर देकर कहता हूं कि मैं विशिष्ट नहीं हूं मैं कोई ईश्वर का अवतार नहीं हूं, मैं मसीहा नहीं हूं, मैं कोई पैगंबर नहीं हूं।  मैं सिर्फ एक साधारण आदमी हूं- तुम्हारी ही तरह। फर्क सिर्फ इतना ही है- और वह कोई ज्यादा नहीं है कि मैंने अपनी आंखें खोल ली हैं और तुम उन्हें बंद किए हो। और मैं हर तरह से तुम्हें हिलाने की कोशिश कर रहा हूं; तुम्हें यहां से और वहां से चोट करने की कोशिश कर रहा हूं- इस आशा में कि तुम अपनी आंखें खोलो।  और एक बार तुम आंखें खोलोगे, तो देखोगे कि फर्क कभी था ही नहीं। इसकी पूरी आशा है कि एक प्रबुद्ध मनुष्यता का जन्म हो।
लेकिन यह काम इस ढंग से होना चाहिए जैसा मैं कह रहा हूं; वैसा नहीं जैसा मुसलमान, हिंदू, बौद्ध, जैन, ईसाई या यहूदी करते आ रहे हैं। उस मार्ग पर तो मनुष्यता का अंधेरे में रहना तय है।  जरा जीसस के पूरे जीवन को देखो। बड़ी छोटी सी जिंदगी है। तैंतीस साल की उम्र में उनकी सूली हुई। और उनका शिक्षक का जीवन तो सिर्फ तीन साल का है। जब वे तीस साल के थे तब उन्होंने सिखाना शुरू किया। उन तीन सालों में वे लगातार एक ही बात सिखा रहे हैं कि वे ईश्वर के एकमात्र प्रजात पुत्र की तरह, एक विशिष्ट संदेश-वाहक की तरह स्वीकृत हों। वे पैगंबर हैं। वे जो कह रहे हैं, वह वे नहीं कह रहे हैं, वे प्रभु के वचन हैं। तीन साल तक, निरंतर उनका प्रयास यही है कि किसी भंाति सिद्ध कर दें कि वे विशिष्ट हैं। लगता है, उन्हें महत्वोन्माद हुआ है।  इस से कहीं अधिक सुंदर बातों की शिक्षा दी जा सकती है। और इस तरह तो वह किसी के काम नहीं आएगी। वह तो उनके खुद के काम नहीं आयी। वह उन्हें सूली तक ले गई।  लेकिन इन लोगों को गलत समझा जाना अनिवार्य था क्योंकि उन लोगों ने अपने और मनुष्यता के बीच अंतर पैदा किया- बहुत बड़ा अंतर। वह एक तरह का आध्यात्मिक अहंकार मालूम पड़ता है। उस अंतर को खत्म कर दो। तुम्हारे बुद्धों, तुम्हारे महावीरों, तुम्हारे पैगंबरों और मसीहों को भीड़ के साथ एक हो जाने दो। साधारण मनुष्यता के अंश हो जाओ।  और साधारण होने में असीम सौंदर्य है। वह इतनी विश्रामपूर्ण अवस्था है! क्योंकि विशिष्ट होने में बहुत तनाव होता है, एक सतत तनाव कि तुम अपना जो स्तर दुनिया को दिखाते हो, वह तुम्हें कायम रखना पड़ता है।  अब जैसे महावीर नग्न रहे। अब यह मूढ़ता है। पूरे साल...गर्मी होती और वे नग्न रहते, सर्दी होती और वे नग्न रहते-सिर्फ यह सिद्ध करने के लिए वे विशिष्ट हैं और तो कृष्ण, न तो राम, न बुद्ध, न और कोई ऊंचाई तक पहुंचा है, जहां वे पहुंचे हैं। वे अभी भी कपड़ों पर निर्भर हैं और महावीर ने आत्यंतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली।  वे अपने दांत साफ नहीं करेंगे, क्योंकि यह अपने शरीर को सुंदर बनाने का प्रयास है। वे स्नान नहीं करेंगे क्योंकि उसका मतलब हुआ, तुम अभी भी भौतिक बातों में उलझे हो। उनसे बदबू आती थी। बिहार जैसे प्रदेश में, जो कि धूल से भरा है...और उन्हें पसीना आता, और धूल...!
और न स्नान, न मुंह साफ करना...!  लेकिन वे कुछ सिद्ध कर रहे हैं। वे भयंकर तनाव में जीए होंगे। इतना ही नहीं, तुम्हें भी उनकी बदबू आती थी और उन्हें खुद भी अपनी बदबू आती होगी। जो भी व्यक्ति विशिष्ट होना चाहता है, उसे कुछ तनाव सम्हालने पड़ते हैं। सिर्फ साधारण आदमी विश्राम में जी सकता है क्योंकि उसे डरने का कोई कारण ही नहीं है।  ये सब लोग, जो तुम्हारे धर्म-संस्थापक हैं, वे प्रामाणिक रूप से आध्यात्मिक नहीं हैं। यह एक नए किस्म की राजनीति है। यह एक नए प्रकार की ताकत है। उन्होंने इस बात को खोज लिया है कि सिंहासन पर बैठे बिना, जनता की कोई जिम्मेदारी लिए बिना उस पर राज कैसे किया जा सकता है।  और छोटी-छोटी बातें...मैं एक गांव से गुजर रहा था, तो वहां लोगों ने मुझसे कहा कि आप हमारे गांव के एक आदमी से जरूर मिलें, जो प्रति दिन हजारों लोगों को आकर्ष्ति करता है। क्योंकि दस साल से वह खड़ा है। मैंने कहा, लेकिन सिर्फ खड़े रहने सके कोई आध्यात्मिक गुणवत्ता को कैसे पा सकता है? वह पागल होगा। तुम उसे किसी पागलखाने में भेज दो। और हजारों लोगों को आकर उसकी पूजा करने की जरूरत क्या है?
जो कुछ भी हो, चूंकि मैं उस रास्ते से गुजर रहा था, मैं रुका और उस आदमी को देखने गया। और मेरी आंखों में आंसू आ गए। उस आदमी के पैर ऐसे हो गए थे, जैसे हाथी-पांव की बीमारी में हो जाते हैं। उसमें तुम्हारे पैर मोटे हो जाते हैं और पूरा शरीर सिकुड़ जाता है। वह बैठना चाहता तो भी बैठ नहीं सकता। और बारह साल तक उसने जो उपाय खोजा था...क्योंकि बारह साल तक खड़े रहना आसान नहीं है। वह एक लकड़ी के डंडे से झूल रहा था ताकि उसे नींद भी आ जाए तो भी वह गिर न पड़े। और उसके आसपास लोग निरंतर मंत्र जाप कर रहे थे, उसे सहारा दे रहे थे ताकि वह गिरे न।  मैंने उस आदमी के चेहरे को देखो- बुद्धि का कोई लक्षण नहीं। मैंने उसकी आंखें देखीं- बिल्कुल सूनी, मुर्दा, मानो पत्थर की बनी हों। उसने क्या पाया? उसने अपरिसीम ताकत पायी। हजारों अनुयायी हर रोज अपने पैसे उसके चरणों में चढ़ा रहे हैं। सुबह से रात को देर तक लोगों का तांता बंधा रहता था।  यह एक खास तरह की राजनीति है। और इस राजनीति ने ही खाई पैदा की है। मैं इस खाई को नष्ट करना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम बुद्ध के हाथ में हाथ डालकर चलो। और फिर कोई कारण नहीं है...क्योंकि कभी-कभी शब्दों के द्वारा जो नहीं कहा जा सकता, वह केवल हाथ को हाथ में लेने से कहा जा सकता है। कभी-कभी कोई भी भाषा जिसे कह नहीं पाती, वह सिर्फ तुम्हारे पास चुपचाप बैठने से या एकाध आलिंगन से अभिव्यक्त किया जा सकता है। भाष, अभिव्यक्ति का एकमात्र माध्यम नहीं है।
उदाहरण के लिए, मैं अमेरिकन कैद में था, और हर जेलर मुझसे प्रेम करने लगता था। पहला जेलर तो मेरे प्रेम में इतना पागल हो गया कि उसने कारागृह के अंदर पत्रकार परिषद आयोजित करने की इजाजत दे दी- जो कि कभी नहीं हुआ था। उसने जोखिम ली। उसने कहा, चिंता की कोई बात नहीं है, मैं एक-दो साल अवकाश लेनेवाला हूं। ज्यादा से ज्यादा, वे मुझे अभी निकाल सकते हैं। लेकिन मैं एक मिसाल बनानेवाला हूं।  उसने कारागृह में विशाल पत्रकार परिषद आयोजित की। वह मुझे वहां ले गया। मैंने उससे कहा कि अब तुम्हें एक बात और करनी होगी, तुम्हें यह हथकड़ियां होंगी। क्योंकि हथकड़ियों के साथ मैं नहीं बोल सकता। क्योंकि मेरा आधा भाषण तो मेरे हाथ की मुद्राओं से होता है। मैं शब्द नहीं खोज पाऊंगा।  और वह समझ गया। उसने कहा, यह सच है; जब हम आपको सुनते हैं, तो हम आपके हाथों को भी सुनते हैं। वे भी कुछ कहते हैं। वे भी कुछ इंगित करते हैं। वे भी किसी बात पर जोर देते हैं। तो भाषा जो नहीं कह पाती, वह अधूरापन वे पूरा करते हैं। जो हाथों से भी नहीं कहा जा सकता वह आंखों से कहा जा सकता है।  लेकिन यह फासला बनाए रखना विशुद्ध अहंकार है। मैं जानता हूं कि यह काम अति कठिन है लेकिन इसमें एक बहुत बड़ी चुनौती भी है। और मेरे संन्यासियों को यह काम करना होगा। कभी एक क्षण के लिए भी अपने को विशिष्ट या असाधारण मत समझना।
साधारण जन और हम अलग नहीं हैं। वे सोच सकते हैं कि वे अलग हैं लेकिन हम कैसे सोच सकते हैं कि हम अलग हैं? वे हमारे बीच एक फासला बनाए रखने की बात सोच सकते हैं लेकिन हम कैसे सोच सकते हैं? हम उनके हृदय के निकट आना चाहते हैं। अतीत में जो हुआ है उसे भुलाना है। और अतीत ही सब कुछ नहीं है। अभी हमारे आगे अनंतता उपलब्ध है। तो जो भी संभव है उसे संभव बनाया जा सकता है।  भगवान, क्या आप उन निष्कपट व्यक्तियों के लिए कुछ कहना चाहेंगे, जिन्होंने सिर्फ अखबारों में आपके संबंध में पढ़ा है, और आपको सीधे पढ़कर समझने की कोशिश नहीं की कि आपने वास्तव में क्या कहा है। उनके लिए आपका मूलभूत संदेश क्या है?  सभी लोगों के लिए मेरा मूलभूत संदेश यह है कि यदि तुम सत्य के खोजी हो, तो मूल-स्रोत के पास जाओ। केवल प्रसार माध्यम पर निर्भर रहना ठीक नहीं है।  समाचार-माध्यम की अपनी सीमाएं हैं।  पहलीः वे मेरा पूरा संदेश नहीं दे सकते। उसके लिए उनके पास जगह नहीं है।  दूसरीः यदि वे मेरा पूरा संदेश छापेंगे तो उसके लिए उन्हें पाठक नहीं मिलेंगे। पूरे समाचार-माध्यम का ध्यान पाठकों पर लगा रहता है- तुम्हारी जरूरत क्या है, तुम क्या चाहते हो।  यह बात बड़ी विचित्र है, लेकिन हम इस संबंध में सोचते ही नहीं हैं कि तुम्हारे नेता अपने अनुयायियों के अनुयायी होते हैं। वे हमेशा देखते रहते हैं कि अनुयायी क्या पसंद करते हैं, वही कहना है। तुम्हें जो करना है करो, लेकिन वही, जो तुम्हारा अनुयायी सुनना चाहता है।  और वही हाल अखबारों का है; दूरदर्शन और आकाशवाणी का है- वही कहो, जिसकी लोग मांग करते हैं। और लोग गलत चीजों की मांग करते हैं- सेक्स, अश्लीलता। वे हिंसा की मांग करते हैं। वे सब तरह की सनसनीखेज वार्ताएं चाहते हैं।
जीवन के श्रेष्ठतर मूल्यों मग उनका कोई रस नहीं है। इसका कारण यह है कि सदियों-सदियों तक तुम्हारे धार्मिक लोगों ने उनकी निम्न वृत्तियां इस बुरी तरह से दबायी हैं कि अब उन निम्नतर वृत्तियों के पास भारी ताकत इकट्ठी हो गई है, और वे वृत्तियां किसी न किसी प्रकार की तृप्ति मांगती हैं।  तुमसे से कहा गया है कि हत्या करना गलत है। इसलिए स्वभावतः तुम हत्या नहीं कर सकते। लेकिन किसी फिल्म में हत्या का दृश्य देखते-देखते तुम अपने भीतर होती हुई बदलाहट को अनुभव कर सकते हो। तुम कुर्सी से पीठ टिकाकर आराम से बैठे होते हो, लेकिन जैसे ही हत्या का दृश्य आता है। तुम सजग होते हो। तुम कुर्सी की पीठ छोड़ देते हो, अकड़ कर बैठ जाते हो, हत्या के पास आना चाहते हो तुम छोटी सी बात को भी चूकना नहीं चाहते। तुम्हारा उस दृश्य के साथ तादात्म्य हो जाता है।  तुम्हारे धार्मिक लोगों ने तुम्हारे साथ यह किया है। तुम्हारी फिल्मों में हिंसा, हत्या, बलात्कार, आत्महत्या इनकी भरमार होती है। ये तुम्हारी ही मांगे हैं। और जो लोग इन फिल्मों अखबारों, पत्रिकाओं का निर्माण कर रहे हैं, वे सिर्फ व्यावसायिक हैं।  किसी समय मैं खुद एक पत्रकार रहा हूं। लेकिन कुछ हफ्तों से ज्यादा मैं वहां टिक न सका। मालिक ने बुलाया और कहा कि तुम्हें सतयुग में पैदा होना चाहिए था। मैंने पूछा, क्या हुआ? वे बोले, तुम तो मेरे अखबार का सत्यानाश कर दोगे। तुम्हारे कारण पहले ही मेरे पाठकों की संख्या आधी हो गई है। मैंने कहा, यह सवाल नहीं है कि आपका अखबार बंद होता है या नहीं; लेकिन लोगों तक सही बातें पहुंचनी चाहिए। वे बोल, लेकिन उन्हें सही बातें नहीं चाहिए। और मैं यहां कोई धर्म-कार्य करने नहीं बैठा हूं। मैं व्यावसायिक हूं। और मेरी मुसीबत यह है कि मैंने तुम्हारे साथ एक साल का अनुबंध किया है। और एक साल में तो तुम मेरा दिवाला निकाल दोगे।  क्योंकि मैंने सब राजनीतिकों को अंतिम पृष्ठ पर डाल दिया। मैंने उनके भाष्णों को संक्षिप्त लेखों का रूप दे दिया ताकि वे पूरे पहले पृष्ठ पर न फैल जाएं।
मैंने उनके चित्र हटा दिए। हर रोज उनके चित्र अखबार में छापने की कोई जरूरत नहीं है, जिससे कि लोगों के मन पर उनकी तस्वीरें अंकित हो जाएं। क्योंकि दुनिया मग इतने अच्छे-अच्छे लोग हैं, और लोगों को उनके बारे में कुछ भी पता नहीं है। मैं चाहूंगा कि रविशंकर का बड़ा चित्र प्रथम पृष्ठ पर छापा जाए, जिसमें वह सितार बजाने में लीन हो। लोगों को जानकारी हो मैं चाहूंगा कि कोई शिल्पकार, कोई कवि...। प्रथम पृष्ठ सर्जकों के लिए हो।  और मैंने आत्महत्या, हत्या और हिंसा की सभी खबरों को बिल्कुल ही हटा दिया। क्योंकि मैंने कहा कि उससे किसी का लाभ नहीं होता बल्कि उससे ऐसा वातावरण बनता है कि जीवन में हिंसा अनिवार्य है। वह चारों और हो रही है, हर अखबार उसकी चर्चा कर रहा है। हर कहीं बलात्कार हो रहा है, तो फिर तुम क्यों पीछे रहते हो? तुम्हारे भी मन में कोई न कोई औरत होती है, जिसके साथ तुम बलात्कार करना चाहते हो। जब हर कोई यह कर रहा है, तो मैं भी साथ क्यों न हो लूं?  मैंने उनसे एक कहानी कही। दो आदमी बाजार जा रहे थे। उनमें से एक कहता है, हिंदू और मुसलमान के बीच दंगा हो गया है, हिंदू मस्जिदों को नष्ट कर रहे हैं। इसलिए अच्छे हिंदुओं की तरह हमें वहां जाकर उनकी मदद करनी चाहिए। दूसरे आदमी ने कहा, ऐसा करना उचित नहीं होगा। मस्जिद ने हमारा क्या बिगाड़ा है? और जो मुसलमान वहां जाते हैं वे भी प्रार्थना करने ही तो जाते हैं। वही एकमात्र जगह है, जहां वे प्रार्थनापूर्ण होते हैं। और तुम उसको नष्ट कर रहे हो? यह तर्क-संगत नहीं है।  दूसरे दिन, जो आदमी कह रहा था कि हम जाकर मस्जिद को नष्ट कर दें, वह बड़ा आश्चर्य चकित हुआ। पहला आदमी उसका नष्ट कर रहा था! उसने पूछा, क्या हुआ? वह बोला, मैंने जब देखा कि सभी लोग ऐसा कर रहे हैं, तो मैंने सोचा यही उचित होगा।
जब तुम हर रोज, हर कोने से ही बात सुनते हो- रेडियो वही कह रहा है, टेलीविजन वही कह रहा है, अखबार वही कह रहे हैं, फिल्में वही कह रही हैं। तुम एक अति सूक्ष्म मनस-वातावरण से घिर जाते हो, जिसमें तुम डूबनेवाले हो।  मैंने अपने मालिक से कहा कि मैं ये बातें प्रकाशित करता हूं क्योंकि संसार में अच्छी घटनाएं भी घटती हैं। ऐसा नहीं कि कोई बलात्कार कर रहा है, हर कोई आत्महत्या कर रहा है। ऐसे लोग भी हैं, जो अच्छे काम कर रहे हैं, जीवन को सुंदर बना रहे हैं, लोगों की सहायता कर रहे हैं। और मैं उन लोगों को और उनके काम को खोजने की कोशिश कर रहा हूं।  उसी दिन मैंने बाबा आमटे पर एक लेख प्रकाशित किया था। इस आदमी के विषय में बहुत कम लोग जानते हैं कि उसने कोढ़ियों के लिए अपना जीवन समर्पित किया। उन्होंने महाराष्ट्र में कोढ़ियों के लिए एक बहुत सुंदर स्थान निर्मित किया है, जहां हजारों कोढ़ी रहते हैं। और उसने इस बात को गलत सिद्ध किया है कि सिर्फ कोढ़ियों के बीच रहने से तुम्हें कोढ़ हो सकता है। वे स्वयं उनके बीच रहे, उनकी पत्नी उनके बीच रहती है, उनके बच्चे उनके साथ रहते हैं। और वे सब उनकी सेवा करते हैं। और उन्होंने उन सभी कोढ़ियों को फिर से आदमी बनाया है; क्योंकि वे सब कुछ न कुछ निर्मित करते हैं। अगर उनके हाथ काम नहीं कर सकते, तो उनके पैर कुछ कर सकते हैं। और अगर उनके पैर कुछ नहीं कर सकते, तो उनके हाथ कुछ काम करते हैं। एक भी कोढ़ी बेकार नहीं बैठा है। और उन्होंने उनको उनकी गरिमा वापस लौटा दी।
नहीं तो उन्हें उनके शहरों से बाहर निकाल दिया गया था, उन्हें शहर में प्रवेश करने की इजाजत नहीं थी। कोई उनसे बात करने को भी तैयार नहीं था। कोई उन्हें काम देने को तैयार नहीं था।  अब इस आदमी की चर्चा होनी चाहिए। तो कई लोग बाबा आमटे बन सकते हैं। ऐसे कई कोढ़ी हो सकते हैं, जो पड़े-पड़े पीड़ा झेल रहे हैं, वे उस सुंदर जगह जा सकते हैं। वे उसे आनंदवन कहते हैं। और वह सचमुच एक सुंदर वन है। और देखने जैसा है कि जो लोग सदियों-सदियों से तिरस्कृत जीवन जी रहे थे, वे किस तरह पुनः अपनी खोयी हुई गरिमा और आत्म-सम्मान प्राप्त करते हैं। अब वे अपना भोजन खुद कमा लेते हैं, अपने कपड़े खुद कमा लेते हैं। और वे किसी पर निर्भर नहीं हैं।  तुम्हें जानकर आश्चर्य हो कि बाबा आमटे की बस्ती कई धर्मार्थ संस्थाओं को पैसे देती है। और जब मैं उस बस्ती में जाता था, तो वहां के लोग इतने खुश होते थे कि हम असहाय लोगों की कुछ मदद कर सकते हैं क्योंकि हम भी किसी दिन ऐसे ही असहाय थे।  तो आपके पाठकों की संख्या कम होने दें। मैं जानता हूं कि बाबा आमटे के कारण आपकी बिक्री नहीं होगी, लेकिन चिंता की कोई बात नहीं; मैं आप पर बोझ नहीं बनूंगा। मैं आपकी संस्था चैपट करने के लिए यहां बना रह सकता हूं, लेकिन मैं आप पर बोझ नहीं बनूंगा। मैं आपको समझ सकता हूं। तो मैं इस काम से इस्तीफा देता हूं, आप अपनी बिक्री बढ़ा लें।  उनकी अपनी सीमाएं हैं। तो जिन लोगों को उत्सुकता है...समाचार-माध्यम ज्यादा से ज्यादा इतना कर सकते हैं कि लोगों में कुतूहल और उत्सुकता पैदा कर सकते हैं। वहां से तुम्हें गहरे स्रोत तक जाना होगा- मेरी किताबों तक, मेरी टेपों तक, मेरे वीडियो तक। अगर तुम सोचते हो कि सिर्फ समाचार पत्रों की जानकारी काफी है, तो तुम गलतफहमी में रहोगे।
तो आसपास के लोगों को मेरा यह संदेश है कि समाचार पत्रों से तथा अन्य समाचार माध्यमों से सूत्र ले लो। अब लगभग पूरी दुनिया में, हर समाचार पत्र मेरी चर्चा कर रहा है- हर रेडियो, हर टेलीविजन।  कुछ लोग हैं, जिनके पास मेरा सही प्रतिनिधित्व करने की बुद्धिमानी और साहस है; फिर भले ही उनको अपनी नौकरी से हाथ क्यों न धोने पड़े। कुछ ऐसे हैं, जिनके पास बुद्धि तो है लेकिन साहस नहीं है, वे अपनी नौकरी का खतरा मोल नहीं ले सकते। लेकिन वे कम से कम तथ्य को तो पेश करें, उन्हें बातों को विकृत करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अधिकांश तो ऐसे होंगे कि हर बात को विकृत कर देंगे ताकि वह सनसनीखेज खबर बन जाए उसके लिए वे चीजों को संदर्भ के बाहर लेकर प्रस्तुत करेंगे।  लेकिन उसमें कोई अड़चन नहीं है। लोगों को चाहिए कि उनकी सीमाएं जान लें। और वे एक सूत्र को समझ लें कि अगर पूरे विश्व का माध्यम इस व्यक्ति में उत्सुक हैं...वे लोग मुझे विख्यात बनाएं शस कुख्यात, वे मेरी निंदा करे या प्रशंसा, इसका कोई सवाल नहीं है। सवाल यह है कि पूरे विश्व का समाचार-माध्यम इस व्यक्ति में उत्सुक है। तो प्रत्यक्ष रूप से इसके बारे में जानकारी हासिल कर लें। तुम्हारा कोई नुकसान नहीं होगा।  भगवान, समाचार-पत्र स्थानीय लोगों को गलत समाचार दे रहे हैं कि आपके संन्यासियों की मौजूदगी देवताओं की इस घटी को प्रदूष्ति कर देगी।
भगवान, क्या हम हिमाचल प्रदेश के लोग, आपके काम से सहयोगी हो सकते है? किस तरह? हमारा मार्ग-दर्शन करने की कृपा करें।  पहली बात, इसे देवताओं की घटी कहने की जरूरत क्या है? शह देश के दरिद्रतम इलाकों में से एक हैं। वस्तुतः लोगों को आश्चर्य होता है कि तुम इसे देवताओं की घटी क्यों कहते हो। कभी रही होगी, कभी फिर हो सकेगी।  और जो जनता से कह रहे हैं कि मेरे लोग इसे प्रदूष्ति करेंगे...उनसे पूछो कि उनका मतलब क्या है? क्योंकि मेरे लोग अत्यंत साफ-सुथरे लोग हैं। मेरे लोग कोई नशीली दवाएं नहीं लेते। मेरे लोग शाकाहारी है। मेरे लोग ध्यानपूर्ण हैं, प्रेमपूर्ण हैं, आनंद में मस्त रहते हैं, नाचते गाते हैं। वे ही इसको वस्तुतः देवताओं की घटी बना सकते हैं।  मैं इस चुनौती को स्वीकार कर सकता हूं। क्योंकि मेरे दो कम्यूनों का अनुभव...एक, मैंने पूना में बनाया था, वहां दस हजार संन्यासी रह रहे थे। और कम्यून के आसपास के लोगों की मुश्किल थीः ईष्र्या। क्योंकि ये लोग सचमुच देवताओं की तरह जी रहे थे। मैं गरीबी में विश्वास नहीं करता। मैं उसके बिल्कुल खिलाफ हूं। वह बड़ी आसानी से नष्ट हो सकती है। वह तो न्यस्त स्वार्थ उसकी रक्षा किए चले जाते हैं- राजनीतिक तथा धर्म धर्मगुरु।  दस हजार लोग आत्म-निर्भर होकर जी रहे थे; ध्यान करते, नाचते प्रेम करते, आनंद-मग्न होते। और यही बात स्थानीय लोगों में ईष्र्या पैदा कर रही थी कि इन लोगों को क्या हो रहा है?
ऐसा हमें क्यों नहीं हो रहा है? उनके विरोध का यही कारण था।  अमेरिका में भी वही हुआ। मैंने सोचा था, भारत गरीब देश है, मेरा कम्यून समृद्ध है। समृद्धि बड़ी सरल बात हैं। जरा-सी समझ, और गरीबी दूर हो जाती है, लेकिन शायद यह सिर्फ द्वीप है, और चारों ओर गरीबी का सागर है; और स्वभावतः, इससे ईष्र्या पैदा होती है कि ऐसा आनंदमय जीवन नहीं जी सकते हैं। वह क्रोध बन जाता है, वह हिंसा बन जाती है।  मैंने सोचा था, शायद अमेरिका इस तरह की प्रतिक्रिया नहीं करेगा। लेकिन हैरान की बात है, आदमी का मन एक जैसा है। वह भारतीय में या अमेरिकन में कोई भेद नहीं करता। अमेरिका में, चार वर्षों में हमने मरुस्थल को मरूद्यान में बदल दिया। हमने स्वप्न को साकार कर दिया। शायद यह एकमात्र मौका था, जब संसार में कम्यूनि म का प्रयोग हुआ- उन चार वर्षों में। क्योंकि हमने कम्यून के भीतर पैसे का प्रचलन छोड़ दिया था। कम्यून के भीतर पैसे का प्रयोग नहीं हो सकता था।  तो तुम्हारे पास लाखों डालर हो सकते हैं और मेरे पास एक भी डालर न हो, लेकिन इससे तुम अमीर नहीं होते और मैं गरीब नहीं होता। कम्यून के भीतर पैसे का उपयोग नहीं हो सकता। तुम कम्यून को दान दे सकते थे लेकिन तुम कम्यून के भीतर कुछ खरीद नहीं सकते थे। तुम्हारी जो भी जरूरत है, वह कम्यून पूरी करेगा।
चार वर्षों में एक भी जुर्म नहीं हुआ- न बलात्कार, न हत्या, न आत्महत्या, न कोई हिंसा।  और अमेरिकन राजनीतिक डरने लगे क्योंकि समाचार माध्यम के लोग यह देखने आने लगे कि हमने क्या किया। वह मरुस्थल वहां पर पचास वर्षों से पड़ा था; उसे कोई खरीदने को तैयार नहीं था। मरुस्थल लेकर तुम क्या करोगे? और वह कोई जमीन का छोटा सा टुकड़ा नहीं था। उसका क्षेत्र था, चैरासी हजार एकड़। हमने वह जमीन खरीद ली।  ओरेगान के राजनीतिक हंसे थे। पड़ोसी हंसे थे कि हम मूर्ख लोग हैं। हमें कुछ पता नहीं है। हम जमीन का करेंगे क्या? उसमें कुछ पैदा नहीं हो सकता। लेकिन हमने वहां तालाब बना लिए, बरसात का पानी इकट्ठा करके बड़े-बड़े बांध बनाए, पांच हजार-संन्यासियों के लिए मकान बनाए। और सब कुछ हमने अपने हाथों से किया। एक भी अमेरिकन से हमने कोई सहायता नहीं ली। कम्यून के बाहर के एक भी व्यक्ति से नहीं पूछा। हमने खुद अपने रास्ते बनाए। और हमने उस घटी को सुंदर मरूद्यान बना दिया।  जिन लोगों ने इस घटी को पहले देखा था, और अब देखने आए उन्हें तो विश्वास न हुआ। और हमारे लोग सुबह ध्यान करते, फिर मेरे प्रवचन सुनते, फिर काम करने जाते उसके बाद एक साथ खाना खाते। क्योंकि पांच हजार लोगों के लिए हमारी एक ही रसोई थी। और उत्सवों के दिनों में तो बीस हजार लोगों का खाना एक ही जगह बनता था। और बीस हजार लोगों के साथ खाना खाने में इतना आनंद आता था। और कोई गिटार बजा रहा है, और कोई नाच रहा है। और यह कोई साधारण बात नहीं थी कि तुम खाना खा रहे हो और लोग तुम्हारे आसपास नाच रहे हैं, कोई संगीत छेड़ रहा है। और लोग इतने प्रसन्न हैं।  शाम को जब काम खत्म हो जाता था तब भी उनके पास गाने के लिए, नाचने के लिए पर्याप्त ऊर्जा होती थी।
उनके गाने के और नाचने के स्थान थे। उसके बारे में एक अफवाह फैल गई थी थक ये लोग सम्मोहित हैं, अन्यथा लोग निरंतर इतने प्रसन्न कैसे रह सकते हैं? एकाध-बार तुम मुस्करा दो, तो क्षमा की जा सकती है; लेकिन तुम दिन भर मुस्कुराते ही रहो तो तुम्हें माफ नहीं किया जा सकता। कुछ गड़बड़ है। चैबीस घंटे स्वस्थ बने रहना स्वीकृत नहीं है। उदासी स्वीकृत है, लंबे चेहरे स्वीकृत हैं। अस्तित्व से नाराज लोग, शिकायत से भरे लोग, चीड़ चिड़े- ये सब स्वीकृत हैं लेकिन नृत्य करते हुए लोग स्वीकृत नहीं हैं। इन लोगों के साथ कुछ गड़बड़ है। क्योंकि वे लोग अल्पमत में हैं, तुम्हारा बहुमत है। दुख में जीनेवाला बहुमत आनंद में जीनेवाले अल्पमत को नष्ट कर देता है।  इन अनुभवों के कारण, अब मैं इस बात पर पूरा ध्यान दूंगा कि जहां भी मैं कम्यून बनाऊंगा। वहां के स्थानीय लोगों को उसमें शामिल करूंगा। अब कम्यून एक पृथक जगह नहीं होगी। यह मुश्किल तो होगा ये स्थानीय लोग अपने सारे संस्कार साथ लाएंगे। उनके संस्कारों से उन्हें मुक्त करना होगा; लेकिन यही एकमात्र रास्ता दिखाई देता है। नहीं तो, आज नहीं कल, यह फासला इतना बड़ा हो जाएगा कि वे क्रोध से भर जाएंगे कि उनके ही प्रदेश में तुम इतने प्रसन्न हो और वे नहीं हैं! मैं चाहूंगा कि स्थानीय लोग सम्मिलित हो जाएं।  लेकिन समस्या यह है कि जिन लोगों के पास कुछ भी नहीं है, वे भी कम्यून में सहभागी होना नहीं चाहते। क्योंकि कम्यून का मतलब है, तुम्हारी मनोवृत्ति में आमूल रूपांतरण।  उदाहरण के लिए, तुम्हारा एक परिवार है।
कम्यून परिवार नहीं है; अन्यथा पांच हजार लोगों के लिए हम ढाई हजार चैंके बनाते हैं ढाई हजार औरतें अपनी जिंदगी चैके में बरबाद कर रही हैं। यह मानवीय ऊर्जा का निरा अपव्यय है। सिर्फ एक चैका काफी होता, जिसे पंद्रह लोग चलाते। इसकी कोई जरूरत न होती।  स्थानीय लोगों के साथ यह समस्या है। वे परिवार को पकड़े रहते हैं। कम्यून का अर्थ हैः ढीला करना- तुम परिवार की पकड़ को ढीला करते हो। बच्चों की देखभाल कम्यून ही करता था। उनके अपने निवास स्थान होते थे। और यह बड़ा अच्छा अनुभव था क्योंकि मैंने ऐसी व्यवस्था की थी कि बड़े बच्चे छोटे बच्चों की देखभाल करेंगे। उनके ऊपर एक अधीक्षक होगा, लेकिन जिम्मेदारी बच्चों की होनी चाहिए। वे सिर्फ गैर-जिम्मेदार न बने रहे कि उनकी कोई देखभाल कर रहा है, इतना ही। उनको छोटे बच्चों की देखभाल करनी है। और बड़े बच्चे उनकी देखभाल करेंगे।  और यह प्रयोग सफल हुआ। मैंने नहीं सोचा था कि बच्चों के साथ यह प्रयोग सफल होगा। छोटे बच्चों की देखभाल करने में उन्हें बहुत ही मजा आया। खिलौनों के साथ खेलना और गुड्डे-गुड्डियों की शादी करना, यह सब करने की बजाय उन्होंने अपनी ऊर्जा बच्चों की देखभाल करने में लगाना शुरू कर दिया। और चूंकि वे बच्चों की देखभाल कर रहे थे, वे जिम्मेदार और प्रौढ़ हो गए, छोटे बच्चों के प्रति रक्षात्मक हो गए। और उनके बीच होनेवाले स्वाभाविक लड़ाई-झगड़े खत्म हो गए।
उन्हें उनके माता-पिता के पास मिलने जाने की इजाजत थी। माता-पिता के बच्चों से मिलने दिया जाता। लेकिन बच्चों का पूरा दायित्व कम्यून का था। बच्चों का दायित्व उनके माता-पिता पर नहीं था।  माता-पिता यह तय नहीं करेंगे कि बच्चा इंजीनियर बनेगा। कम्यून का मनोवैज्ञानिक विभाग यह तय करेगा कि बच्चे के भीतर क्या संभावनाएं हैं और उसे क्या सिखाना है। शायद बच्चे की संभावना बहुत बड़ा नर्तक बनने की हो, और तुम उसे इंजीनियर बनने के लिए भेज रहे हो। वह जिंदगी भर दुखी रहेगा क्योंकि स्वाभाविक रूप से जो बनना था, वह तो वह बन नहीं पाएगा, और...वह जो बना है उससे सिर्फ दुख ही पैदा होगा।  अब मैं कहीं भी, कोई कम्यून शुरू करूंगा, तो उसमें स्थानीय लोगों को सम्मिलित करने वाला हूं। जिनको भी भीतर आना हो उन्हें अपनी पकड़ छोड़ने का, अपनी पुरानी आदतें और धारणाएं छोड़ने का साहस करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, दो सौ भिखारी कम्यून में शामिल हुए। लोग सोचते हैं, अमेरिका समृद्ध देश है, और वहां तीन करोड़ भिखारी हैं। और यह बिल्कुल थोथा प्रचार है। और ये भिखारी रास्तों पर भूखे मर रहे हैं। उनके पास न रहने को घर न पहनने को पकड़े हैं न खाने को भोजन है।  दो सौ भिखारी आए। हमने उनको स्वीकार किया। हमने अपनी शर्तें उनके सामने स्पष्ट रूप से रख दीं। क्योंकि तुम अपराधों में ही पले हो। वे सब जेल में जा चुके थे। उन सब ने सब तरह के उपद्रव किए थे। वे सब नशीली दवाएं और शराब लेते थे। उनसे यह साफ कह दिया गया था कि शराब की कोई जरूरत नहीं होगी, नशीली दवाओं की कोई जरूरत नहीं होगी। हमारे पास एक बेहतर दवा है।
तुम हमें थोड़ा समय दो। अगर तुम तीन हफ्ते के लिए थोड़े नियंत्रण रख सको...ध्यान का असर होगा और तुम्हें नशीली दवाओं की कोई जरूरत नहीं होगी।  और वे लोग चार साल रहे। और वे प्रामाणिक रूप से व्यसनी अपराधी थे, लेकिन उन्होंने एक भी अपराध नहीं किया। उल्टे वे इतने प्रसन्न थे कि पहली बार किसी समूह ने, किसी समाज ने उन्हें मनुष्य की तरह स्वीकार किया। नहीं तो उनके साथ सिर्फ कुत्तों जैसा व्यवहार किया गया था। किसी ने उनकी इस तरह फिकर नहीं की वे मनुष्य हैं। सच तो यह है कि वे सिर्फ कारागृह में जाने के लिए ही अपराध करते थे; क्योंकि कम से कम वहां रहने की जगह तो मिल जाएगी। कम से कम तुम्हें कपड़े, भोजन, सिगरेट और दवाएं तो देते हैं। और फिर काम कुछ नहीं। तो सड़कों पर भूखे क्यों करना? कोई छोटा सा गुनाह कर लो और कारागृह में जाओ।  जब मैं कारागृह में था तो मैंने लोगों से पूछा, तुम कितनी दफा यहां आ चुके हो? वे बोले, गिनता कौन है? क्योंकि हर बार, जब हम छूट जाते हैं तो एक हफ्ते के भीतर हम फिर लौट आते हैं। क्योंकि हम बाहर करेंगे क्या? हमारा कोई घर नहीं है, कोई देख भाल करने वाला नहीं है। कोई ऐसा नहीं है, जो हमारा इंतजार कर रहा हो। और यहां हमसे आदमी जैसा व्यवहार किया जाता है। यहां कम से कम हमारी जरूरतें तो पूरी होती हैं। एक डाक्टर आकर हमारी जांच करता है, हमें दवाइयां दी जाती है, हमारे लिए टी. वी. उपलब्ध है। हमें ताश खेलने की भी इजाजत है सिगरेट मुफ्त में मिलती है, और तुम चाहते जितनी पी सकते हो। कपड़े मिलते हैं।
आदमी को और क्या चाहिए? और चार-पांच सौ कैदियों का एक प्यारा सा समूह, जिसमें सभी पुराने साथी हैं, जो किसी न किसी कारागृह में मिलते रहते हैं।  लेकिन इस बार में जो कम्यून शुरू करना चाहूंगा उसका बिल्कुल नया ढांचा होगा। उसमें मैं स्थानीय लोगों को निमंत्रित करूंगा ताकि अन्य स्थानीय लोगों को उसमें एक संबंध-सूत्र दिखाई पड़े और कम्यून एक अलग द्वीप न बन जाए।  और मुझे यह जगह बहुत पसंद है। और मैं इसे वास्तव में देवताओं की घटी बनाना चाहूंगा। और तुम्हारे स्थानीय लोगों का मुझे पूरा समर्थन है। तुम्हारी पंचायत के प्रधान मुझे निमंत्रण देने आए थे कि मैं यहीं पर रहूं। यहां का वकीलों का संगठन यह कहने आया था कि मैं यहां हूं। और भी कई संगठनों ने मुझे निमंत्रित किया है कि मैं यही रहूं। लेकिन उनके निमंत्रणों का कोई अधिक मूल्य नहीं है।  केंद्र-शासन नहीं चाहता कि मैं यहां रहूं। तब फिर मैं कुछ नहीं कर सकता। क्योंकि सब कुछ केंद्र-शासन पर निर्भर करता है। और उन पर अमेरिका का दबाव है।  अमेरिका में मेरा...अमेरिका में अंतरराष्ट्रीय व्यक्तिगत सुरक्षा संस्थाएं होती हैं। इनमें से एक सर्वश्रेष्ठ व्यक्तिगत सुरक्षा संस्था मेरे लिए काम करती थी। वह मुझे उन सब रहस्यों की सूचनाएं देती थी, जो शासन में मेरे पक्ष में या विपक्ष में चलते रहते थे।
अब अमेरिका से मुझे यह सूचना प्राप्त हुई है कि भारत का द्वार अब आपके लिए बद हो चुका है। क्योंकि भारतीय राजनीतिकों पर अमेरिकन राजनीतिकों का अत्यधिक दबाव है। और अगर आप हम पर भरोसा नहीं करते, तो उनकी गोपनीय फाइलों की जांच करवा सकते हैं। आरै एक मित्र ने? जिनकी वहां तक पहुंच है, फाइल देखी और पाया कि वे लोग सही कहते हैं।  अमेरिकन शासन उनसे यह कह रहा है कि मेरे ऊपर कोई सीधा हमला न किया जाए, क्योंकि उसका आयोजन करना जरा मुश्किल मामला है। उन्होंने मुझ पर सीधा हमला करके देख लिया; और उन्हें यह दिखाई पड़ा कि किस तरह वे विश्व समाचार माध्यम का लक्ष्य बन गए। और उनकी बड़ी बेइ जती हुई।  तो उनका सुझाव यह है कि मेरे ऊपर सीधा हमला न करें, लेकिन विदेशियों को यहां न रहने दें, ताकि मैं काम न कर सकूं। क्योंकि मैंने अपने चार-पांच हजार लोगों को हर तरह का काम करने के लिए प्रशिक्षित किया है। यदि मुझे यहां कम्यून निर्मित करना हो तो मुझे उनकी जरूरत होगी। क्योंकि वे बिना किसी वेतन के काम करेंगे और बारह से चैदह घंटे काम करेंगे। उनके लिए यह प्रेमपूर्ण कृत्य होगा।  और वे अब अपने-अपने क्षेत्रों के प्रतिभाशाली लोग हैं- इंजीनियर, डाक्टर, अध्यापक, मनोवैज्ञानिक। हमारा अपना अस्पताल था। हमारा अपना विश्वविद्यालय था। हमारा अपना मनोवैज्ञानिक चिकित्सा विभाग था। हमें जो भी चाहिए था वह सब हमारे पास था। हमारे अपने कृषि विशेषज्ञ थे, जो आधुनिक नवीनतम तकनीक का उपयोग करना जानते थे। हमारे अपने वैज्ञानिक थे। हम कुछ भी निर्माण करना चाहते तो वे करने को तैयार थे।  उदाहरण के लिए, जाड़े के लिए हमें तंबू चाहिए थे क्योंकि जाड़े के दिनों के लिए तंबू कभी थे ही नहीं। उन्होंने उस तरह के तंबू बना लिए।
लेकिन अमेरिकन शासन ने उन्हें पुरस्कार देने की बजाए हम पर जुर्माना लगाया। और वह भी छोटा-मोटा नहीं, डेढ़ करोड़ रुपया! इसलिए क्योंकि वे तंबू हमने बिना इजाजत के बनाए थे। अब तंबुओं के लिए इजाजत की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन उन्होंने किसी तरह आयोजित किया, कानून के बीच से रास्ता निकाला। और उन्होंने कहा, ये तंबू नहीं हैं क्योंकि ये जाड़े मग उपयोग करने के काम के हैं। ये स्थायी निर्माण हैं।  मैंने शासन से, अटर्नी जनरल से कहा, इससे पहले कि आप अपना जुर्माना तय करें, एक बार यहां आ जाएं, नहीं तो आप बेवकूफ सिद्ध होंगे। जरा बाहर देख लें कि वे तंबू हैं, स्थायी निर्माण नहीं हैं। लेकिन मेरी बात अनसुनी करके उन्होंने जुर्माना लागू किया। यद्यपि हमारे वैज्ञानिकों ने उन्हें इस तरह बनाया हैं कि उन्हें गरम रखा जा सकता है, उनमें अलग बाथरूम है, उन्हें वातानुकूलित किया जा सकता है लेकिन वे स्थायी भवन नहीं हैं।  मैंने अपने लोगों से कहा, तुम तो बस अदालत में जाओ, बहस की कोई जरूरत नहीं है। तुम तो सिर्फ एक तंबू ले जाओ, उसे खोल दो और तंबू को अदालत में रख दो। क्योंकि तंबू को लगाने में सिर्फ दस मिनिट लगते हैं। मजिस्ट्रेट से कह दो कि वह आकर देख ले। और दस मिनिटों में उसे खोल देना, फिर थैले में रख देना, और फिर उससे पूछना कि स्थापी भवन इस तरह दस मिनिटों में खोलकर, फिर दस मिनिटों में तह करके वापस रखा जा सकता है?  मजिस्ट्रेट सिर्फ हंसा। उसने कहा, इसमें कोई मुकदमा ही नहीं है। यह तो तंबू है। और मैंने ओरेगान के उस अटर्नी जनरल से सार्वजनिक रूप से कहा कि अब तुम समुद्र में डूबकर मर जाओ। हकीकत क्या है इसे देखे बिना इतना बड़ा जुर्माना लागू करना...सिर्फ मूढ़ व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है।
तो अब भारतीय शासन पर अमेरिकन शासन का दबाव यह है कि मुझ पर सीधा हमला न किया जाए, लेकिन मेरे प्रशिक्षित लोगों को मेरे साथ न रहने दिया जाए। और इस भंाति मेरा पूरा काम नष्ट हो जाए।  सवाल यह है कि तुम्हारा प्रादेशिक शासन, विशेष्तः तुम्हारे मुख्यमंत्री- जैसा कि मैं उन्हें समझता हूं, साहसी और बुद्धिमान व्यक्ति हैं। यदि उनमें हिम्मत है तो उन्हें केंद्र-शासन की फिक्र नहीं करनी चाहिए। क्योंकि यह देश की सुरक्षा के खिलाफ नहीं है इसमें केंद्र-शासन का कोई संबंध ही नहीं है। उन्हें केंद्र-शासन के हरी झंडी दिखाने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। ऐसा उन्होंने कहा है।  और मेरे पास उनका संदेश आया है कि मैं राह देख रहा हूं कि वे मुझे हरी झंडी दिखावे। वह कभी नहीं होगा। क्योंकि वे लोग वाशिंगटन की हरी झंडी की राह देख रहे हैं। और वह तो आने से रही! और मैं ज्यादा देर तक इंतजार नहीं कर सकता। मेरे लोग दुनिया में खोज रहे हैं। और हमने अच्छी-अच्छी जगहें खोज ली हैं।  वस्तुतः दक्षिण अमेरिका के दो देशों ने कम्यूनि बनाने के लिए मुझे निमंत्रित किया है। तो मैंने वहां की परिस्थिति का अवलोकन करने के लिए अपने लोगों को वहां भेजा है- और यह जानने के लिए कि उनकी शर्तें क्या हैं। क्योंकि किन्हीं शर्तों से बंधकर मैं काम नहीं करूंगा।  और हम खोज रहे हैं...कई द्वीप हैं, स्वतंत्र द्वीप; लगता है वही सबसे बुढ़िया बात रहेगी, जहां राजनीतिक या और कोई भी हमें नहीं सताएगा।  लेकिन मुझे यह जगह बड़ी प्यारी लगती है। और सचमुच मैं इसे देवताओं की घटी बनाना चाहता हूं। यह स्थानीय लोगों पर निर्भर करता है कि वे मुख्यमंत्री पर दबाव डालें मैं उनका अतिथि हूं।
उन्हें यहां आना चाहिए, वे मेरे आतिथेय हैं। उन्हें यहां आना चाहिए, वे मेरे आतिथेय हैं। और अगर दक्षिण अमेरिका के शासन पूरे कम्यून के साथ मुझे निमंत्रित कर सकते हैं, मुझे मुफ्त में जमीन दे सकते हैं, हर तरह का सहयोग दे सकते हैं, तो अपने देश से मुझे इससे बेहतर व्यवहार की अपेक्षा रखनी चाहिए।  तो अब सवाल स्थानीय निवासियों का है। वे अपनी सम्मति प्रकट करें, जिसकी वे प्रतीक्षा कर रहे हैं। मुख्यमंत्री के लिए एक हरी झंडियों का मोर्चा ही निकालें। क्योंकि यह सुरक्षा का सवाल नहीं है, रक्षा का कोई सवाल नहीं है। केंद्र-शासन का इससे कोई संबंध नहीं है। यह मुख्यमंत्री को स्वयं तय करना होगा। और अगर वे इसे तय नहीं कर सकते तो उन्हें यह ख्याल छोड़ देना चाहिए कि उनमें हिम्मत है। और उन्हें इसे याद रखना चाहिए कि इस तरह के लोगों की राजनीतिक उम्र बहुत कम होती है। उन्हें अपनी सामथ्र्य दिखानी चाहिए। जब उनकी जनता मेरे साथ है तो उनको डरने की क्या जरूरत है? लेकिन केंद्र-शासन अपने ढंग से काम कर रहा है।  मैं कैद में था। यह स्वाभाविक था कि भारतीय शासन अमेरिकन शासन से पूछता कि गिरफ्तारी के वारंट के बिना वे मुझे गिरफ्तार किए हैं। बारह भरी हुई बंदूकें मेरी छाती पर तानकर उन्होंने मुझे गिरफ्तार किया। मैंने उनसे पूछा गिरफ्तारी का वारंट कहां है?
उनके पास कोई वारंट नहीं था। मैंने उनसे कहा, तुम सिर्फ जबानी तौर पर मुझे बताओ कि मेरा जुर्म क्या है। उन्होंने कहा, वह हमें पता नहीं है।  मैंने कहा, तुम्हें पता नहीं है तो मुझे मेरे अटर्नी से संपर्क बनाने दो। वे उसकी भी इजाजत नहीं देंगे। और आधी रात गए, निर्जन हवाई अड्डे पर...और कोई रास्ता ही नहीं था। उन्होंने मेरे अटर्नी को एक फोन भी नहीं करने दिया, जो हर व्यक्ति का कानूनी अधिकार होता है। और खास कर ऐसी स्थिति में- जब तुम कोई गिरफ्तारी का वारंट नहीं दिखा रहे हो और मुझे जंजीरों में जकड़ रहे हो- हाथों में हथकड़ियां, पैरों में बेड़ियां, कमर में जंजीर...और तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, कोई कारण नहीं, और तुम लोकतंत्र की बातचीत करते हो, और स्वतंत्रता की, और अन्य सब बकवास...!  तीन दिन तक यह मुकदमा अदालत में पड़ा रहा, नार्थ केरोलिना में। वे मेरे खिलाफ एक भी इलजाम सिद्ध न कर सके। उन्होंने उन छह लोगों को छोड़ दिया, जो मेरे साथ हवाई जहाज में थे। स्वयं अमेरिकन अटर्नी जनरल ने अपने अंतिम वाक्य में कहा कि हम कुछ भी सिद्ध न कर सके; और न ही वे कुछ सिद्ध कर सके।  इस मुद्दे को सुनकर मुझे हंसी आयी। क्योंकि निर्दोषता को कुछ भी सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं होती। तुमने मुझे गिरफ्तार किया है, तुम्हें सिद्ध करना होगा कि किस गुनाह पर, किस जुर्म पर तुमने मुझे कैद कर रखा है। मेरे अटर्नियों को कुछ भी सिद्ध करने की जरूरत नहीं है। उन्हें सिर्फ तुम्हें असिद्ध करना है। और उन्होंने तुम्हें सिद्ध कर दिखाया है।
और सरल बात है कि मेरे साथ के छह लोगों को तुमने छोड़ दिया है, और तुम मुझे क्यों नहीं छोड़ रहे हो? और तुम कह रहे हो कि तुम कुछ भी सिद्ध नहीं कर सके?  फिर भी उन्होंने कहा, हम आपको छोड़ नहीं सकते। मुझे जमानत पर न छोड़ने का कारण यह नहीं था कि मैंने कोई गुनाह किया था, जिसकी जमानत नहीं दी जा सकती; इसलिए कि मैं खतरनाक आदमी हूं।  मैंने कहा, अजीब बात है। मेरे कारण किसी को खतरा नहीं हुआ है। मैंने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है। मैंने किसी की हत्या नहीं की है। मैं शाकाहारी हूं। खतरनाक से क्या मतलब है तुम्हारा? उनका मतलब था, मैं खतरनाक आदमी हूं और मेरे पास अपरिसीम संपदा है। तो तुम मेरे लिए एक करोड़ डालर की भी जमानत मांगो तो भी मुझे कोई चिंता नहीं होगी और मैं यह देश छोड़ सकूंगा। और मेरे हजारों ऐसे मित्र हैं, प्रेमी हैं, जो मुझे पूजते हैं। वे लोग मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं। इसीलिए तुम इजाजत नहीं दे सकते।  मैंने अपने अटर्नियों से कहा, इससे तो यही सिद्ध होता है कि एक अकेले आदमी के सामने, संसार की सबसे बड़ी ताकत कितनी नपुंसक है। वे मुझे इस देश से बाहर जाने से रोक भी नहीं सकते। लेकिन उनका तर्क सिर्फ सतही था। राजनीतिकों का यही ढंग होता है।  मजिस्ट्रेट एक स्त्री थी और उसकी जज के पद पर तरक्की होनेवाली थी। और उन लोगों ने उसे धमकी दी। मेरे अपने जेलर ने मुझसे कहा कि उसे धमकी दी गई है कि अगर वह मुझे जमानत दी।
मेरे अपने जेलर ने मुझसे कहा कि उसे धमकी दी गई है कि अगर वह मुझे जमानत पर रिहा करती है, तो फिर फेडरल जज होने की बात सदा के लिए भूल जाए। तो मुझे रिहा न करने का यह कारण था।  और वे मुझे नहीं छोड़ना चाहते थे इसका यह भी कारण था कि केरोलिन से ओरेगान की दूरी तय करने में हवाई जहाज से सिर्फ आठ घंटे लगते थे। मुझे ओरेगान पहुंचने में बारह दिन लगे। वे मुझे एक जेल से दूसरे जेल ले जाते रहे, जिससे कि मुझे अधिक से अधिक सताया जा सके। और जब मैं उनके साथ दो-तीन दिन रहता तो उनसे मेरी दोस्ती हो जाती। और वे समझ जाते कि इसके पीछे कोई राजनीतिक चाल है।  और अंततः एक जेल में उन्होंने मुझे बाध्य किया...खुद अमेरिकन मार्शल ने, जो कानून को लोग करने का सर्वोच्च अधिकारी है। उसने मुझसे कहा कि मेरा नाम डेविड वाशिंग्टन होना चाहिए। और मुझे उसके नीचे हस्ताक्षर करने होंगे। और मुझे डेविड वाशिंगटन के नाम से पुकारा जाएगा, मेरे अपने नाम से नहीं। मैंने उससे पूछ, यह किस तरह का कानून आरोपण है? तुम्हारे कोट पर लिखा हुआ है, न्याय विभाग। कम से कम इस क्षण तो यह कोट उतार दो। यह कैसा न्याय है? और इसका मकसद क्या है? क्या तुम सोचते हो, मैं नासमझ हूं? क्या मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझ सकता कि तुम मुझे कैदखाने में रखना चाहते हो और किसी को पता न चले कि मैं यहां हूं, ताकि तुम जो चाहो मेरे साथ कर सको? तुम मुझे मार सकते हो और उसकी कोई भी निशानी नहीं रहेगी क्योंकि मैंने कैदखाने में प्रवेश किया ही नहीं।
मेरे कैदखाने में मारे जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।  लेकिन मैंने उसे कहा, तुम देख लेना, कल सुबह सभी दूरदर्शन केंद्र, आकाशवाणी अखबार यह समाचार प्रसारित करेंगे कि अमेरिकन मार्शल के दबाव के नीचे मैंने अपना नाम बदल कर डेविड वाशिंगटन लिखा। अभी भी वक्त है, तुम अपना मंतव्य बदल सकते हो; नहीं तो कल सुबह... उसने पूछा, यह आप किस तरह आयोजित करेंगे? मैंने कहा, मैंने आयोजित कर लिया है। हवाई अड्डे से यहां आते समय मेरे साथ एक स्त्री थी, जिसकी रिहाई होनेवाली थी। मैंने उससे कहा, तुम यहां सिर्फ बैठो और पूरे वार्तालाप को सुनो। और पूरा समाचार-माध्यम बाहर खड़ा प्रतीक्षा कर रहा है। वे मुझे तो वहां से प्रवेश नहीं करने देंगे, मुझे पीछे से ले जाएंगे। लेकिन तुम जब बाहर निकलोगी, तो जो भी तुमने सुना है और जो भी तुम्हें बताने जैसा लगे, वह प्रेस वालों को बता देना।  और उस स्त्री ने अपना काम बड़ी खूबी से किया। वह दूर, एक कोने में बैठी अपनी रिहाई का इंतजार कर रही थी, और अगल दिन पूरे विश्व में यह समाचार फैल गया कि उन्होंने झूठे नाम से मेरे दस्तखत करवाए। और तुरंत, बड़ी सुबह वे उस कैदखाने से मुझे ले गए। क्योंकि वहां रखना मुश्किल हो गया। पूरे समाचार-माध्यम ने कैदखाने को घेर लिया। हजारों कैमरे, पत्रकार डेविड वोशिंगटन के बारे में पूछ रहे हैं।  तो वे डर गए कि या तो उन्हें डेविड वाशिंगटन को दिखाना होगा, जो कि उनके पास नहीं है...और मैंने अपने ही नाम से हिंदी में दस्तखत किए थे। उसने उसे देखा और पूछा, यह क्या है? मैंने कहा, डेविड वाशिंगटन ही होगा। तो समाचार-माध्यम पूछ रहा था कि हमें डेविड वाशिंगटन का फार्म देखना है, क्योंकि भगवान के हस्ताक्षर विश्वविख्यात हैं।
हम हस्ताक्षर दिखाओ। तो इससे पहले कि और कोई पूछताछ हो, वे उसी वक्त मुझे दूसरे कैदखाने ले गए।  ये राजनीतिक, यह नौकरशाही मनुष्यता के लिए काम नहीं कर रही है। वे सिर्फ सत्ता-लोलुप लोग हैं।  तो अगर हिमाचल प्रदेश के लोग चाहते हैं कि मैं यहां रहूं, मेरी यहां रहने की पूरी तैयारी है। लेकिन मैं अकेला हिमाचल के लिए कुछ नहीं कर सकता। हिमाचल का पूरा नक्शा बदलना हो तो उन्हें पांच हजार लोगों के लिए इजाजत देनी होगी। और पांच साल के भीतर तुम देखोगे कि हिमाचल पूरे विश्व के पर्यटकों का सब से बड़ा आकर्षण बन गया है।  तो सवाल मेरा नहीं है, सवाल तुम्हारे प्रादेशिक शासन का और उसके हिम्मत का है। और उनसे कह देना कि तुममें पौरुष हो, तो मैं यह चुनौती स्वीकार करने को तैयार हूं। लेकिन फिर तुम्हें मेरा समर्थन करना होगा। यदि नहीं कर सकते, तो साफ-साफ कह दो कि यह हमारे बस की बात नहीं। तो मैं अपना वक्त यहां जाया नहीं करूंगा। मुझे और भी जगह जाना है और बात पक्की करनी है।  और कुछ?  सिर्फ एक प्रश्न।  भगवान, मनुष्यता के पूरे इतिहास में किसी के इतने आलोचक नहीं रहे हैं, जितने कि आपके; ऐसा क्यों है?  क्योंकि मुझे इस संसार से इतने अधिक सत्य कहने हैं, जितने कि आज तक किसी ने नहीं कह हैं। सुकरात के भी आलोचक रहे हैं लेकिन उसका सत्य सरल था, और एक-आयामी था। मेरा सत्य बहु-आयामी है, और वह उन सारे संस्कारों पर प्रहार करता है जिनसे हर व्यक्ति का अत्याधिक लगाव हो गया है। यद्यपि वे ही तुम्हारे दुख का कारण हैं। वे कैंसर की भंाति हैं, जिनका आपरेशन होना जरूरी है। आपरेशन बड़ा कष्टप्रद होने वाला है लेकिन वह तुम्हें मौत से बचाएगा।  बुद्ध, महावीर, लाओत्सु, कबीर, नानक- इन सबसे सत्य को वाणी दी है। लेकिन वे सत्य तुम्हारे समग्र संस्कारों के खिलाफ नहीं थे। वे लोग सिर्फ तुम्हारी आध्यात्मिकता के संबंध में बोल रहे थे। यदि मैं भी सिर्फ तुम्हारी अध्यात्मिकता के संबंध में बोलता, तो आलोचना का कोई सवाल ही नहीं था, सिर्फ प्रशंसा ही प्रशंसा होती। लेकिन उससे किसी का लाभ नहीं होता।  मैं सिर्फ उन फूलों की बात नहीं कर रहा हूं जो सुंदर है, मैं उन जड़ों की भी बात कर रहा हूं जो कि कुरूप हैं। और जब तक कि तुम जड़ों को नहीं समझते, तुम फूलों को नहीं समझ पाओगे।  मैं संपूर्ण के संबंध मग बोल रहा हूं।
संपूर्ण मनुष्य की चर्चा कभी किसी ने नहीं की। उन्होंने तुम्हारे शरीर के संबंधों में कभी बात नहीं की। उन्होंने तुम्हारे मन के संबंध में कभी बात नहीं की। उन्होंने तुम्हारे मनोविज्ञान के संबंध में, तुम्हारे जीव-विज्ञान के संबंध में बात नहीं की। वे सिर्फ परमात्मा के भक्ति करने की, वेदों में श्रद्धा रखने की बात कर रहे थे, इसलिए उससे किसी को चोट नहीं लगती थी। वस्तुतः वे तुम्हारे संस्कारों का समर्थन कर रहे थे।  मैं वैसा नहीं कर सकता। क्योंकि मेरे देखे, वेदों का अधिकांश अंश कचरा है। वह साहित्य भी नहीं है। मैं नहीं कह सकता कि वे ईश्वर के वचन हैं। मैंने नहीं कह सकता कि मनु बुद्ध हैं क्योंकि मनु ने इस देश को पांच हजार साल तक सताया है, और वह अब भी सताए चला जा रहा है। मैं चाहूंगा मनु-स्मृति को आग लगा दी जाए, और उसकी इस भंाति नष्ट कर दिया जाए कि उसका कोई नामो-निशान बाकी न रहे। इससे पीड़ा होती है।  तुम्हारे विवाह पर कोई नहीं बोला। उन सबने उसका समर्थन किया। मैं उसके खिलाफ हूं क्योंकि मैं देखता हूं, विवाह ने मनुष्य के साथ क्या किया है। उसने अत्याधिक दुखी बना दिया है। वह एक कृत्रिम संस्था है, प्राकृतिक नहीं है। यह अच्छा है कि जिस व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो, उसके पास तब तक रहो जब तक प्रेम है। हो सकता है, तुम उस व्यक्ति से जीवन भर प्रेम करो। लेकिन यह भी संभव है कि आज तुम प्रेम से ओतप्रोत हो, कल वह बात न हरे।
तब तुम फंस गए तब तुम कल क्या करोगे? तुम दिखावा करोगे कि तुम अपनी पत्नी से सब भी प्रेम करते हो। तुम अब भी अपनी पत्नी के साथ संभोग करोगे, जिससे कि तुम्हें बिल्कुल प्रेम नहीं है। यह कुरूप है, अमानवीय है।  वे लोग मनुष्य की वास्तविक समस्याओं के संबंध में कभी नहीं बोले। उन्होंने इसकी चर्चा कभी नहीं की कि तुम्हें कितने बच्चे पैदा करने चाहिए। उन्होंने और भी हजारों बातों की कभी फिकिर नहीं की- तुम्हें शिक्षा दी जानी चाहिए। उनकी पूरी धारणा यह थी कि किसी खास पुरोहितों के वर्ग के गुलाम बने रहो- हिंदू, मुसलमान, जैन, बौद्ध। और कभी किसी बात पर संदेह मत करना।  मैं आग्रहपूर्वक कहता हूं कि उनकी मूलभूत शिक्षा यह थीः किसी बात पर संदेह मत करना। और हजारों सालों तक तुमने ऐसी बातों पर भी कभी संदेह नहीं किया, जो कि सचमुच कुरूप हैं।  उदाहरण के लिए, कृष्ण ने सोलह हजार स्त्रियों से विवाह किया। और वे कुंआरी लड़कियां नहीं थी, किसी की पत्नियां थीं। उनके बच्चे थे, उनके पति थे। और वे सिर्फ इसलिए उन्हें भगाकर आए क्योंकि वे ताकतवर थे। इस आदमी ने सोलह हजार परिवारों को नष्ट किया और तुम कभी उन पर संदेह नहीं करते।  मोहम्मद की नौ पत्नियां थीं। अब यह बात कुरूप है। क्योंकि पुरुषों और स्त्रियों की संख्या बराबर है।
यदि एक पुरुष की नौ पत्नियां हुई, तो उन आठ पुरुषों का क्या होगा, जो बिना पत्नी के रह जाएंगे? वे समलिंगी हो जाएंगे, वे विकृत हो जाएंगे, वे वेश्याओं के पास जाएंगे। और मोहम्मद ने मुसलमानों को चार पत्नियां रखने की इजाजत दे दी थी। अब यह बिल्कुल बेवफूकी है। उनका यह अनुपात नहीं है। स्त्रियां पुरुषों से चार गुना ज्यादा नहीं है। भारत के स्वतंत्र होने के कुछ ही समय पहले तक हैदराबाद के निजाम की पांच सौ पत्नियां थीं- इस सदी में! और कोई संदेह नहीं करता। स्वभावतः। स्वभावतः उनकी आलोचना नहीं हुई; क्योंकि तुम कभी संदेह नहीं करते।  मेरी पूरी शिक्षा यह हैः हर बात पर संदेह करो- तब तक, जब तक कि तुम ऐसी चीज न पा लो, जो संदेहातीत है, जो सत्य की तरह स्वीकृत हो सके, जिस पर संदेह न उठाया जा सके; अगर तुम संदेह करना चाहो, तो भी संदेह करने का कोई उपाय नहीं है। स्वभावतः मैं हजारों आलोचनाओं का शिकार हो जाता हूं।  लेकिन ये आलोचनाएं नपुंसक हैं। किसी भी धर्म के एक भी प्रमुख ने...मैंने सभी को चुनौती दी है- सब शंकराचार्य, पोप, इमाम, अयातुल्ला खोमैनी...सार्वजनिक रूप से विचार-विनियम के लिए। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह चर्चा मेरे शिष्यों के बीच ही हो। मैं स्वयं वेटिकन आने को तैयार हूं। ईसाइयों के बीच मैं सवाल उठाना चाहता हूं; क्योंकि मुझे भरोसा है कि मेरे सवाल इतने सुस्पष्ट हैं कि ईसाई भी उसको इंकार नहीं कर सकेंगे। लेकिन एक में भी इतनी हिम्मत नहीं है।  वे लोग मेरी आलोचना करते रहते हैं, लेकिन कोई भी मेरा सामना करने को तैयार नहीं है। यह उनकी आलोचना की नपुंसकता सिद्ध करती है। और मैं उपलब्ध हूं। और मैंने पोप से प्रकट रूप से कहा है कि अगर आप मुझे राजी कर सकें तो मैं कैथोलिक बनने को तैयार हूं; लेकिन अगर मैंने आपको राजी कर लिया तो आपको संन्यास लेना पड़ेगा। इस शर्त के साथ मैं किसी भी विवाद में प्रवेश कर सकता हूं।  लेकिन इन लोगों को मैं जानता हूं। उनके पास अपना कुछ भी नहीं है। सब उधार ज्ञान, जिसकी बड़ी सरलता से आलोचना हो सकती है।
तो यह सच है कि मनुष्य के पूरे इतिहास में इतनी आलोचना किसी की नहीं हुई है जितनी कि मेरी हो रही है। मैं इसे अपनी प्रशंसा समझता हूं। इसका मतलब है कि आज तक इतने ज्यादा सत्य किसी ने नहीं कहे हैं; और इतने पैने, मनुष्य के अज्ञान को इस तरह तहस-नहस करने वाले, जितने कि मैंने कह हैं! और मैं जिंदगी भर यह करनेवाला हूं- अंतिम सांस तक।  लेकिन बुद्धिमान लोग भी हैं। संसार में मेरे दस लाख संन्यासी हैं, और पचास लाख लोग ऐसे हैं, जो मुझे प्रेम करते हैं। और ऐसे बहुत से लोग हो सकते हैं, जो सहानुभूतिपूर्ण हों, और यह कहने से भी डरते हों कि वे सहानुभूति रखते हैं।  तो ऐसा नहीं है कि मेरे सिर्फ दुश्मन ही हैं। संतुलन पैदा करने का प्रकृति का अपना नियम होता है। अगर मेरे इतने ज्यादा दुश्मन हैं तो मेरे इतने ही दोस्त भी होंगे। वे ज्ञात हैं या अज्ञात हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और मैं विश्व को दो हिस्सों में बांट सकता हूं- मेरे दुश्मन और मेरे दोस्त, तो मुझे अत्यंत प्रसन्नता होगी। मेरा काम पूरा हुआ। क्योंकि आधी मनुष्यता को रूपांतरित करना- यह भी पहले कभी नहीं हुआ था।
14 दिसंबर 1985, अपराह्म, कुल्लू-मनाली 

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