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गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-01)

झरत दसहुं दिस मोती-गुलाल वाणी

(यह प्रवचन माला गुलाल के वचनों पर दिनांक 21-01-1980 से 10-02-1980 पूना आश्रम, में 21 प्रवचनों पर बोले ओशो के अमृत प्रवचनों का संकलन है)

पहला प्रवचन

राम मोर पुंजिया मोर धना

सारसूत्र: 

राम मोर पुंजिया मोर धना, निसबासर लागल रहु रे मना।।
आठ पहर तहं सुरति निहारी, जस बालक पालै महतारी।।
धन सुत लछमी रह्यो लोभाय, गर्भमूल सब चल्यो गंवाय।।
बहुत जतन भेष रच्यो बनाय, बिन हरिभजन इंदोरन पाय।।
हिंदू तुरुक सब गयल बहाय, चैरासी में रहि लपटाय।।
कहै गुलाल सतगुरु बलिहारी, जाति-पांति अब छुटल हमारी।।


नगर हम खोजिलै चोर अबाटी।
निसबासर चहुं ओर धाइलै, लुटत-फिरत सब घाटी।।
काजी मुलना पीर औलिया, सुर नर मुनि सब जाती।
जोगी जती तपी संन्यासी, धरि मार्यो बहु भांती।।
दुनिया नेम-धर्म करि भूल्यो, गर्व-माया-मद-माती।
देवहर पूजत समय सिरानो, कोउ संग न जाती।।
मानुष जन्म पायकै खोइले, भ्रमत फिरै चैरासी।
दास गुलाल चोर धरि मरिलौं, जांव न मथुरा-कासी।।

झरत दसहुं दिस मोती!

आंखें हों तो परमात्मा प्रति क्षण बरस रहा है। आंखें न हों तो पढ़ो कितने ही शास्त्र, जाओ काबा, जाओ काशी, जाओ कैलाश, सब व्यर्थ है। आंख है, तो अभी परमात्मा है..यहीं! हवा की तरंग-तरंग में, पक्षियों की आवाजों में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के पत्तों में!
परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। हो भी नहीं सकता। परमात्मा एक अनुभव है। जिसे हो, उसे हो। किसी दूसरे को समझाना चाहे तो भी समझा न सके। शब्दों में आता नहीं, तर्को में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, गाओ कितने ही गीत, छूट-छूट जाता है। फेंको कितने ही जाल, जाल वापस लौट आते हैं। उस पर कोई पकड़ नहीं बैठती। ऐसे सब जगह वही मौजूद है। जाल फेंकने वाले में, जाल में..सब में वही मौजूद है। मगर उसकी यह मौजूदगी इतनी घनी है और इतनी सनातन है, इस मौजूदगी से तुम कभी अलग हुए नहीं, इसलिए इसकी प्रतीति नहीं होती।
जैसे तुम्हारे शरीर में खून दौड़ रहा है, पता ही नहीं चलता! तीन सौ वर्ष पहले तक चिकित्सकों को यह पता ही नहीं था कि खून शरीर में परिभ्रमण करता है। यही ख्याल था कि भरा हुआ है; जैसे कि गगरी में पानी भरा हो। यह तो तीन सौ वर्षो में पता चला कि खून गतिमान है।
हजारों वर्ष तक यह धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है। जो लोग घोषणा करते हैं कि वेदों में सारा विज्ञान है, उनको ख्याल रखना चाहिएः वेदों में पृथ्वी को कहा है..‘अचला’, जो चलती नहीं, हिलती नहीं, डुलती नहीं। क्या खाक विज्ञान रहा होगा! अभी पृथ्वी के अचला होने की धारणा है। अभी यह भी पता नहीं चला है कि पृथ्वी चलती है, प्रतिपल चलती है। दोहरी गति है उसकी। अपनी कील पर घूमती है..पहली गति; और दूसरा..सूर्य के चारों तरफ परिभ्रमण करती है। मगर हम पृथ्वी पर हैं, इसलिए पृथ्वी की गति का पता कैसे चले? हम उसके अंग हैं। हम भी उसके साथ घूम रहे हैं। और भी शेष सब उसके साथ घूम रहा है। तो पता नहीं चलेगा।
जैसे समझो यहां बैठे-बैठे अचानक कोई चमत्कार हो जाए और हम सब छह इंच के हो जाएं, और हमारे साथ वृक्ष भी उसी अनुपात में छोटे हो जाएं, मकान भी उसी अनुपात में छोटा हो जाए, तो किसी को पता ही नहीं चलेगा कि हम छोटे हो गए हैं। क्योंकि पुराना अनुपात कायम रहेगा। तुम्हारे सिर से छप्पर की दूरी उतनी ही रहेगी जितनी पहले थी। तुम्हारा बेटा तुमसे उतना ही छोटा रहेगा जितना पहले था। वृक्ष तुमसे उतने ही ऊंचे रहेंगे जितने पहले थे। अगर सारी चीजें एक साथ छोटी हो जाएं, समान अनुपात में, तो किसी को कभी कानों-कान पता नहीं चलेगा। तुम जिस फुट और इंच से नापते हो, वह भी छोटा जो जाएगा न! वह भी बताएगा कि तुम छः फीट के ही हो, जैसे पहले थे, वैसे ही अब भी हो।
कहते हैं मछली को सागर का पता नहीं चलता। चले भी कैसे? सागर में ही पैदा हुई, सागर में ही बड़ी हुई, सागर में ही एक दिन विसर्जित हो जाएगी। लेकिन मछली को सागर का कभी-कभी पता चल सकता है। कोई मछुआ खींच ले उसे, डाल दे तट पर, तप्त रेत पर, तड़फे, तब उसे बोध आए, तब उसे समझ आए। सागर से टूट कर पता चले कि मैं सागर में थी और अब सागर में नहीं हूं। जब तक सागर में थी तब तक पता नहीं चला कि मैं सागर में हूं।
मन के इस नियम को ठीक से समझ लेना। हमें उसका ही पता चलता है जिससे हम छूट जाते हैं; जिससे हम टूट जाते हैं; जिससे हम भिन्न हो जाते हैं। उसका हमें पता ही नहीं चलता जिसके साथ हम जुड़े ही रहते हैं, जुड़े ही रहते हैं। कहते हैं, मरते वक्त लोगों को पता चलता है कि हम जीवित थे। और यह बात ठीक ही है। क्योंकि जीवन जब था तो तुम सागर में थे। मृत्यु के वक्त मौत का मछुआ तुम्हें खींच लेता है, डाल देता है तट पर तड़फने को, तब पता चलता है कि अरे, हाय कितना चूक गए! कैसा अदभुत जीवन था! अब सब यादें आती हैं।
कहते हैं कि मरते क्षण में सारे जीवन की कहानी आंखों के सामने से दोहरा जाती है। दोहरती है। इसलिए दोहरती है कि अब तड़प-तड़प कर याद आती है उन सब क्षणों की जो यूं ही गंवा दिए; उन सब दिनों की, जो काटे नहीं कटते थे। अब तुम मांगो कि एक क्षण और मिल जाए, नहीं मिलेगा। और पहले शतरंज बिछाए बैठे थे, ताश के पत्ते खेल रहे थे! और कोई पूछता क्या कर रहे हो, तो कहते थे कि समय काट रहा हूं। पागलो, समय तुम्हें काट रहा है कि तुम समय को काट रहे हो? मगर तब यह बात ठीक ही थी, क्योंकि पता नहीं था मृत्यु का, तो जीवन का अनुभव नहीं होता था।
जब तक तुम बीमार न पड़ो तब तक तुम्हें स्वास्थ्य की प्रतीति नहीं होती। और जब तक तुम्हारे सिर में दर्द न हो, तब तक तुम्हें सिर का बोध ही नहीं होता। पैर में कांटा गड़े, चुभे, तो पता चलता है कि पैर है। मछली खींची जा सकती है सागर से, तो पता चल सकता है। लेकिन परमात्मा के सागर के बाहर तो हम हो ही नहीं सकते। उसका कोई तट ही नहीं, कोई किनारा नहीं! उसके बाहर कुछ नहीं। जीएंगे तो उसमें, मरेंगे तो उसमें। जागेंगे तो उसमें, सोएंगे तो उसमें। वही है बाहर, वही है भीतर।
इसलिए चारों तरफ मोती बरस रहे हैं, मगर हमें पता नहीं चल रहा। मोती ही मोती बरस रहे हैं! गुलाल ठीक कहते हैं: ‘झरत दसहुं दिस मोती!’ दसों दिशाओं से झर रहे हैं। अनंत झर रहे हैं। प्रत्येक क्षण बहुमूल्य है और अमृत बरस रहा है। भर लो अपने घट! मगर तुम्हें पता ही नहीं कि अमृत बरस रहा है। तुम तो कंकड़-पत्थर बीन रहे हो। तुम्हें मोतियों का पता कैसे चले, तुम्हारी आंखें तो कंकड़ों-पत्थर पर अटकी हैं। कंकड़ों-पत्थरों से तुम थोड़े छूटो; आंखों को थोड़ा संवारो, निखारो, कानों को थोड़ा शांत करो; मन को थोड़ा निर्विचार करो; तो शायद वह संगीत सुनाई पड़े जो परमात्मा का संगीत है। जिसे संतों ने अनाहत नाद कहा है। तो शायद तुम्हें वह प्रकाश दिखाई पड़े जो अंधेरे में भी छिपा है, जो अंधेरे में भी मौजूद है, क्योंकि अंधेरा भी उसका ही एक रूप है। तो तुम्हें देह में भी उसकी प्रतीति होने लगे जो अदेही है लेकिन देह में ठहरा हुआ है। तब तुम्हें चारों ओर उसकी आभा का मंडल अनुभव हो। तभी तुम इन सूत्रों को समझ पाओगे। तभी तुम्हारे भी प्राण कह सकेंगे: ‘झरत दसहुं दिस मोती‘! और तब कितना आह्लाद, कितना हर्षोन्माद! तब आनंद में रोता है भक्त। तब आनंद में हंसता है, नाचता है। तब आनंद का कोई पारावार नहीं है। और उस पारावार से मुक्त जो आनंद है, उसी का नाम परमात्मा है।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। पुनः-पुनः स्मरण रखना! परमात्मा केवल आनंद की अनुभूति का नाम है। अमृत का साक्षात्कार है। चैतन्य की प्रतीति है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा केवल शक्ति है, ऊर्जा है। और ऊर्जा का ही तो सारा खेल है। कहीं वही शक्ति हरी होकर वृक्ष हो गई है, लाल होकर फूल हो गई है, कहीं वही शक्ति सूरज बनी है, कहीं वही शक्ति तारे; वही शक्ति तुम्हारे भीतर सुन रही है अभी, वही शक्ति मेरे भीतर बोल रही है अभी। नहीं उससे कुछ भिन्न है! हम सब उसमें एक हैं, अभिन्न हैं।
गुलाल के संबंध में बहुत ज्यादा पता नहीं है। जरूरत भी नहीं है। वचन ही काफी हैं। वे ही प्रमाण हैं। कहां जन्में, किस घर में बड़े हुए..लेना-देना क्या है? सब घर घर ही हैं। किस गर्भ से पैदा हुए, किस परिवार में पैदा हुए, मां-पिता का क्या नाम था..क्या करोगे जानकर भी? जाना भी तो क्या अर्थ है? नाम-पते इस दुनिया में चलते हैं। झूठी दुनिया में झूठे नाम-पते चलते हैं। उस दुनिया में तो कोई न नाम है, न कुछ पता है; न कोई जाति है; न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है।
इसीलिए संतों के संबंध में व्यर्थ की बातों को हमने संग्रहीत नहीं किया है। इसीलिए संतों के संबंध में हमारी जानकारी न के बराबर है। और यह बड़ी सूचक बात है। सिकंदर के संबंध में बहुत कुछ पता है, और चंगीज खान के संबंध में भी, और नादिरशाह, और एडोल्फ हिटलर, और माओत्से-तुंग, इन सबके संबंध में बहुत कुछ पता है, बहुत कुछ पता रहेगा। इन्हीं से इतिहास बनता है।
गुलाल का नाम तो तुम इतिहास में खोजने जाओगे तो मिलेगा ही नहीं। किसी पाद-टिप्पणी में भी नहीं मिलेगा। जैसे हुए, न हुए! और उसका कारण है। जब अहंकार न रह जाए, तो हुए न हुए बराबर ही है। गुलाल कभी हुए ही नहीं, ऐसा समझो। अगर गुलाल कुछ थे भी तो बस बांस की पोंगरी थे। परमात्मा ने उसमें से कुछ गीत गाए, वे गीत हमारे पास हैं। बस वे गीत काफी हैं। उन गीतों से खबर मिलती है कि बांसुरी भी रही होगी। अब बांसुरी किस बांस से बनी थी, किस रंग का बांस था, किसी ढंग का था, कहां बांस पैदा हुआ था..इस तरह की निष्प्रयोजन बातों में जाने की कोई जरूरत नहीं है।
ऐसी बातों में जाने वाले लोग भी हैं। वे विश्वविद्यालयों में शोध-कार्य करते रहते हैं। वे इन्हीं व्यर्थ की बातों में लगे रहते हैं..कौन कहां जन्मा, किस तिथि में जन्मा, किस घर में जन्मा? वे व्यर्थ की बातों में इतना उपद्रव मचाए रखते हैं और इतना विवाद चलाते हैं व्यर्थ की बातों का कि जिसका हिसाब नहीं। विश्वविद्यालयों में थप्पियां लगती जाती हैं उनके शोध-कार्यो की। उनके शोध-कार्य को कोई दूसरा पढ़ता भी नहीं, दूसरे शोध-कार्य करने वाले ही पढ़ते हैं, बस। और वे विवाद में व्यस्त हैं। और उन्हें किसी को पता नहीं और किसी को प्रयोजन नहीं कि बांसुरी से जो गीत बहे, उन गीतों को हम समझें, बांसुरी का क्या लेना-देना? बांसुरी कहां आती है? बांसुरी की खूबी यही है कि वह खाली है, रिक्त है, शून्य है। गीत को रोकती नहीं, बस यही उसकी खूबी है। गीत को बह जाने देती है, यही उसका गौरव है।
और गुलाल ने प्यारे गीत गाए! साफ है कि पढ़े-लिखे आदमी नहीं थे; शब्द ही कहते हैं। बेपढ़े-लिखे थे। और अक्सर ऐसा हुआ है, परमात्मा बेपढे-लिखों से ज्यादा आसानी से बोल सका है। क्योंकि पढ़े-लिखे बहुत अड़चन डालते हैं। पढ़े-लिखे अपने को पूरा-पूरा नहीं दे पाते। पढ़े-लिखे तो वह बोले तो उसमें भी बीच में सुधार कर देंगे। कहेंगे: ऐसा नहीं, ऐसा बोलो। यह वेद के अनुकूल है। यह उपनिषद के प्रतिकूल हो गया। यह कुरान से मेल खाता है, यह मेल नहीं खाता है। यह मैं नहीं बोलूंगा। मैं तो वही बोलूंगा जो कुरान में लिखा है। मैं मुसलमान हूं।
पढ़े-लिखे के आग्रह होते हैं, पक्षपात होते हैं, धारणाएं होती हैं। पढ़े-लिखे का अर्थ यह होता है कि बांसुरी खाली नहीं है, उसमें शास्त्र भरे हुए हैं। और शास्त्रों को पार करके आना बड़ा मुश्किल है! लोहे की दीवालें भी इतनी बड़ी दीवालें नहीं, जितनी शास्त्रों की दीवालें बड़ी दीवालें हैं। ऐसे तो कागजी हैं, मगर यह मन कागजी दीवालों में बहुत उलझ जाता है। यह मन कागजी दीवालों को बहुत मानता है।
अक्सर ऐसा हुआ है कि गैर पढ़े-लिखों से परमात्मा ने सरलता से अपनी बात कह दी। क्योंकि गैर पढ़ा-लिखा आदमी बाधा भी क्या डाले!
मूसा के जीवन में उल्लेख है। मूसा एक जंगल से गुजर रहे हैं और उन्होंने एक गड़रिए को प्रार्थना करते देखा। खड़े होकर उसकी प्रार्थना सुनने लगे। प्रार्थना क्या सुनी, आगबबूला हो गए! वह प्रार्थना क्या कर रहा था...! ऐसी प्रार्थना मूसा ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। ऐसी प्रार्थना से तो बेहतर प्रार्थना कोई न करे। इससे तो नास्तिक बेहतर। क्योंकि वह प्रार्थना में बड़ी अजीब बातें कह रहा था। वह कह रहा था: हे प्रभु! अरे, मुझे बुला ले! मैं तुझे रोज स्नान करवा दूंगा। अपनी भेड़ों को देखते हो कैसा स्नान करवाता हूं! रगड़-रगड़ साफ कर देता हूं! ऐसा रगड़-रगड़ कर तुझको साफ करूंगा। धूल जमने ही नहीं दूंगा। और भोजन इत्यादि बनाने में भी मैं कुशल हूं, तो भोजन भी बना दिया करूंगा। और पैर दाबना भी मुझे आता है, मालिश करनी भी मुझे आती है, तो रोज मालिश भी कर दूंगा; थक जाता होगा तू इतने संसार को चलाते-चलाते! कौन तेरी फिकर करता होगा! तू सबका रखवाला, तेरा कोई रख वाला नहीं, मैं तेरा रख वाला! अब तुझसे क्या छिपाना, सब बात साफ कह देता हूं। जुआं पड़ जाएं, निकाल दूंगा! भेड़ों के निकालते-निकालते ऐसा कुशल हो गया हूं।
जब मूसा ने सुना कि यह जुएं निकालने की बात कर रहा है..ईश्वर से! ..फिर बरदाश्त से बाहर हो गया। कहा: रुक नालायक! तू ईश्वर के जुआं निकालेगा? ईश्वर को जुआं होते हैं? तू ईश्वर को रगड़-रगड़ कर साफ करेगा? उसका कोई रखवाला नहीं, तू उसका रखवाला है! होश की बातें कर! यह कोई प्रार्थना है?
बेचारा गड़रिया तो एकदम पैर पकड़ लिया मूसा के, उसने कहा: मुझे कुछ आता नहीं, मैं तो गरीब आदमी हूं, बेपढ़ा-लिखा हूं, बस भेड़ों से ही बात करना जानता हूं, यही मेरा सत्संग समझो, तो मेरी भाषा बस मेरे और मेरी भेडों के बीच की भाषा है। अब मैं उससे कहना भी चाहता हूं अच्छी-अच्छी बातें, मगर मुझे आती नहीं। अच्छी-अच्छी बातें लाऊं कहां से? तुम मुझे समझा दो, मैं वही कहूंगा। मैं तो यही सोचकर कह रहा था कि अच्छी-अच्छी बातें...यही मेरे मन में अच्छी-अच्छी बातें हैं। मैं गरीब आदमी, बेपढ़ा-लिखा आदमी, मुझे माफ करो, नाराज न होओ! अब तुम आ ही गए हो तो मुझे समझा दो कि प्रार्थना कैसे करनी है?
तो मूसा ने उसे जो प्रार्थना करनी चाहिए, यहूदियों की जो प्रार्थना है, वह समझाई। वह बड़ी लंबी थी। उसने कहा कि यह मैं भूल जाऊंगा। इतनी लंबी प्रार्थना मुझसे न हो सकेगी। और इसमें आगे के शब्द पीछे हो जाएंगे, पीछे के शब्द आगे हो जाएंगे, तो फिर पाप होगा। मेरी तो जो प्रार्थना है वह मेरी ही बनाई हुई है, जब दिल हो, जैसा चाहूं वैसा कर लेता हूं। कभी यह कहा, कभी वह कहा। कोई रोज-रोज वही कहने की भी जरूरत नहीं है।
मूसा ने दुबारा समझाई, तिबारा समझाई। मूसा बहुत प्रसन्न उसको समझा कर चल पड़े कि एक भटके हुए आदमी को रास्ते पर लगाया। जैसे ही उसको छोड़कर वे जंगल में गए, आकाश से आवाज आई कि मूसा, मैंने तुझे पृथ्वी पर भेजा कि तू लोगों को मुझसे जोड़ना, तूने तो तोड़ना शुरू कर दिया! वह आदमी मुझसे जुड़ा था, तू उसे तोड़ आया। अब वह तेरी प्रार्थना कर रहा है, लेकिन उस प्रार्थना में कोई प्राण ही नहीं हैं। अब उधार है प्रार्थना, अब बासी है। अब वह कह तो रहा है, लेकिन उसके हृदय की धड़कन नहीं है उसमें! तू वापिस जा, उससे क्षमा मांग! वह पहले जो कहता था, उसमें हृदय था, उसमें प्रेम था, उसमें भाव था, उसमें प्रामाणिकता थी। तूने बड़ी गलती की है। तूने एक भक्त के हृदय को दुखाया है। तू जा वापिस!
मूसा तो बहुत हैरान हुए। लेकिन गए वापिस, क्षमा मांगी। पैर पड़े और कहा: तू अपनी प्रार्थना जारी रख, परमात्मा मुझ पर नाराज है। मुझे क्या पता कि उसको तेरी बातें सोहती हैं, कि तेरी बातें उसे जमती हैं! तू तो अपनी प्रार्थना जारी रख! मेरी बड़ी भूल हो गई जो मैंने तुझे बाधा डाली।
गैर पढ़ा-लिखा आदमी, जिसे कुछ पता नहीं है शास्त्रों का, अक्सर परमात्मा के निकट आसानी से पहुंच जाता है। ज्ञान बाधा बना जाता है; अज्ञान उतनी बड़ी बाधा नहीं है। क्योंकि अज्ञान में एक विनम्रता होती है और ज्ञान में एक अहंकार होता है, दंभ होता है।
गुलाल गैर पढ़े-लिखे आदमी हैं। उनके शब्दों से ही साफ हो जाएगा। इसके पहले कि हम उनके शब्दों में उतरें, उनके सीधे-सादे शब्दों में डुबकी मारें, उनके सीधे-सादे शब्दों का स्वाद लें, एक घटना जो अभूतपूर्व है, जो मनुष्यजाति के पूरे इतिहास में कभी नहीं घटी..गुलाल और गुलाल के गुरु के बीच घटी..उस घटना को पहले समझ लेना जरूरी है, क्योंकि उस घटना के बाद ही ये सारे सूत्र सरल हो सकेंगे। और घटना अभूतपूर्व है। न पहले कोई वैसा उल्लेख है, न बाद में वैसा कोई उल्लेख है। फिर दुबारा कभी घटेगी, इसकी आशा भी नहीं। और बड़ी अलौकिक है!
गुलाल शिष्य थे बुल्लाशाह के। यह तो कोई बात खास नहीं; बुल्लाशाह के बहुत शिष्य थे। और हजारों सद्गुरु हुए हैं और उनके लाखों शिष्य हुए हैं, इसमें कुछ अभूतपूर्व नहीं। अभूतपूर्व ऐसा है कि गुलाल एक छोटे-मोटे जमींदार थे और उनका एक चरवाहा था..बुलाकीराम। लेकिन बुलाकीराम बड़ा मस्त आदमी था, उसकी चाल ही कुछ और थी! उसकी आंखों में खुमार था। उसके उठने-बैठने में एक मस्ती थी। कहीं रखता था पैर, कहीं पड़ते थे। और सदा मगन रहता था। कुछ था नहीं उसके पास मगन होने को..चरवाहा था, बस दो जून रोटी मिल जाती थी, उतना ही काफी था। सुबह से निकल जाता खेत में काम करने, जो भी काम हो, रात थका-मांदा लौटता; लेकिन कभी किसी ने उसे अपने आनंद को खोते नहीं देखा। एक आनंद की आभा उसे घेरे रहती थी। उसके बाबत खबरें आती थीं..गुलाल के पास, मालिक के पास..कि यह चरवाहा कुछ ज्यादा काम करता नहीं, क्योंकि हमने इसे खेत में नाचते देखा, काम यह क्या खाक करेगा! तुम भेजते हो गाएं चराने, गाएं एक तरफ चरती रहती हैं, यह झाड़ पर बैठ कर बांसुरी बजाता है। हां, बांसुरी गजब की बजाता है, यह सच है, मगर बांसुरी बजाने से और गाय चराने से क्या लेना-देना है? तुम तो भेजते हो कि खेत पर यह काम करे और हमने इसे खेत में काम करते तो कभी नहीं देखा, झाड़ के नीचे आंख बंद करके बैठे जरूर देखा है। यह भी सच है कि जब यह झाड़ के नीचे आंख बंद करके बैठता है तो इसके पास से गुजर जाने में ंभी सुख की लहर छू जाती है; मगर उससे खेत पर काम करने का क्या संबंध है!
बहुत शिकायतें आने लगीं। और गुलाल मालिक थे। मालिक का दंभ और अहंकार। तो कभी उन्होंने बुलाकीराम को गौर से तो देखा नहीं। फुर्सत भी न थी; और भी नौकर होंगे, और भी चाकर होंगे। और नौकर-चाकरों को कोई गौर से देखता है! नौकर-चाकरों को कोई आदमी भी मानता है! तुम अपने कमरे में बैठे हो, अखबार पढ़ रहे हो, नौकर आकर गुजर जाता है, तुम ध्यान भी देते हो? नौकर से तुमने कभी नमस्कार भी की है? नौकर की गिनती तुम आदमी में थोड़े ही करते हो। नौकर से तुमने कहा है आओ बैठो, कि दो क्षण बात करें? यह तो तुम्हारे अहंकार के बिल्कुल विपरीत होगा।
खबरें आती थीं, मगर गुलाल ने कभी ध्यान दिया नहीं था। उस दिन खबर आई सुबह ही सुबह कि तुमने भेजा है नौकर को कि खेत में बुआई शुरू करे, समय बीता जाता है बुआई का, मगर बैल हल को लिए एक तरफ खड़े हैं और बुलाकीराम झाड़ के नीचे आंख बंद किए डोल रहा है।
एक सीमा होती है! मालिक सुनते-सुनते थक गया था। कहा: मैं आज जाता हूं और देखता हूं। जाकर देखा तो बात सच थी। बैल हल को लिए खड़े थे एक किनारे..कोई हांकने वाला ही नहीं था..और बुलाकीराम वृक्ष के नीचे आंख बंद किए डोल रहे थे। मालिक को क्रोध आया। देखा..यह हरामखोर, काहिल, आलसी...! लोग ठीक कहते हैं। उसके पीछे पहुंचे और जाकर जोर से एक लात उसे मार दी। बुलाकीराम लात खाकर गिर पड़ा। आंखें खोलीं। प्रेम के और आनंद के अश्रु बह रहे थे। बोला अपने मालिक से: मेरे मालिक! किन शब्दों में धन्यवाद दूं? कैसे आभार करूं? क्योंकि जब आपने लात मारी तब मैं ध्यान कर रहा था। जरा-सी बाधा रह गई थी मेरे ध्यान में। आपकी लात ने वह बाधा मिटा दी। जरा-सी बाधा, जिससे मैं नहीं छूट पा रहा था। जब भी ध्यान में मैं मस्त हो जाता हूं तो यही बाधा मुझे घेर लेती है, यही मेरी आखिरी अड़चन थी। गजब कर दिया मालिक आपने भी! मेरी बाधा यह है कि जब भी मैं मस्त हो जाता हूं ध्यान में, तो गरीब आदमी हूं, साधु-संतों को भोजन करवाने के लिए निमंत्रण करना चाहता हूं, लेकिन है ही नहीं भोजन जो करवाऊं, तो बस ध्यान में जब मस्त होता हूं तो मानसी-भंडारा करता हूं। मन ही मन मैं सारे साधु-संतों को बुला लाता हूं कि आ जाओ, सब आ जाओ, दूर-दूर देश से आ जाओ! और पंक्तियों पर पंक्तियां साधुओं की बैठी थीं और क्या-क्या भोजन बनाए थे, मालिक! परोस रहा था और मस्त हो रहा था! इतने साधु-संत आए थे! एक से एक महिमा वाले! और तभी आपने मार दी लात। बस दही परोसने को रह गया था; आपकी लात लगी, हाथ से हांडी छूट गई; हांडी फूट गई, दही बिखर गया। मगर गजब कर दिया मालिक, मैंने कभी सोचा भी न था कि आपको ऐसी कला आती है! हांडी क्या फूटी, मानसी-भंडारा विलुप्त हो गया, साधु-संत नदारद हो गए..कल्पना ही थी सब, कल्पना का ही जाल था..और अचानक मैं उस जाल से जग गया, बस साक्षी मात्र रह गया।
आंख से आंसू बह रहे हैं आनंद के और प्रेम के, शरीर रोमांचित है हर्षोन्माद से..एक प्रकाश झर रहा है। बुलाकीराम की यह दशा पहली बार गुलाल ने देखी। बुलाकीराम ही नहीं जागा साक्षी में, अपनी आंधी में गुलाल को भी उड़ा ले गया। आंख से जैसे एक पर्दा उठ गया। पहली दफा देखा कि यह कोई चरवाहा नहीं; मैं कहां-कहां, किन-किन दरवाजों पर सद्गुरुओं को खोजता फिरा और सद्गुरु मेरे घर मौजूद था! मेरी गायों को चरा रहा था, मेरे खेतों को सम्हाल रहा था! गिर पड़े पैरों में। बुलाकीराम, बुलाकीराम न रहे..बुल्लाशाह हो गए। पहली दफा गुलाल ने उन्हें संबोधित किया: ‘बुल्ला साहिब! ‘ ‘मेरे मालिक, मेरे प्रभु!’ साहब का अर्थः प्रभु। कहां थे नौकर, कहां हो गए शाह! शाहों के शाह!
कहते हैं बहुत फकीर हुए हैं, लेकिन बुल्लाशाह का कोई मुकाबला नहीं। और यह घटना बड़ी अनूठी है। अनूठी इसलिए है कि युगपत घटी। सदगुरु और शिष्य का जन्म एक साथ हुआ। सदगुरु का जन्म भी उसी वक्त हुआ, उसी सुबह; क्योंकि वह जो आखिरी अड़चन थी, वह मिटी। इसलिए भी अद्भभुत है कि वह आखिरी अड़चन शिष्य के द्वारा मिटी। हालांकि गुलाल ने कुछ जान कर नहीं मिटाई थी, आकस्मिक था, मगर निमित्त तो बने! शिष्य ने सदगुरु की आखिरी अड़चन मिटाई। इधर गुरु का जन्म हुआ, इधर गुरु का आविर्भाव हुआ, उधर शिष्य के जीवन में क्रांति हो गई। बुल्लाशाह को कंधे पर लेकर लौटे गुलाल। वह जो लात मारी थी न, जीवन भर पश्चात्ताप किया, जीवन भर पैर दबाते रहे।
बुल्लाशाह कहते: मेरे पैर दुखते नहीं, क्यों दबाते हो? वे कहते: वह जो लात मारी थी...! तीस-चालीस साल बुल्लाशाह जिंदा रहे, गुलाल पैर दबाते रहे। एक क्षण को साथ नहीं छोड़ा। आखिरी क्षण में भी बुल्लाशाह के मरते वक्त गुलाल पैर दबा रहे थे। बुल्लाशाह ने कहा: अब तो बंद कर रे, पागल! पर गुलाल ने कहा कि कैसे बंद करूं? वह जो लात मारी थी!
गुरु को लात मारी! बुल्लाशाह लाख समझाते कि तेरी लात से ही तो मैं जागा, मैं अनुगृहीत हूं, तू नाहक पश्चात्ताप मत कर। लेकिन गुलान कहते: वह आपकी तरफ होगी बात। मेरी तरफ तो पश्चात्ताप जारी रहेगा।
लेकिन एक साथ ऐसी घटना पहले कभी नहीं घटी थी कि सद्गुरु हुआ और शिष्य जन्मा..एक साथ, युगपत! एक क्षण में यह घटना घटी। यह आग दोनों तरफ एक साथ लगी और दोनों को जोड़ गई।
इस घटना से तुम्हें समझ में आएगा झेन फकीरों का व्यवहार। यह तो अचानक हुआ! गुलाल ने जानकर लात मारी नहीं थी कि ध्यान में सहयोग देना है। लेकिन झेन फकीर जानकर यह करते हैं। शिष्य ध्यान में बैठा है और हो सकता है झेन गुरु उसके सिर पर चोट मार दे। कभी-कभी बड़े अद्भभुत परिणाम हो जाते हैं। क्योंकि कभी-कभी जरा सा झटका और तुम अपने कल्पना-जाल से छिटक जाते हो..एक क्षण को छिटक जाते हो, जरा सी दूरी पैदा हो जाती है तुम्हारे मन में और तुम में..बस उतनी ही दूरी और कपाट खुल जाते हैं! झरोखा खुल जाता है। फिर बंद नहीं होता। एक दफा खुल गया, फिर बंद नहीं होता। लेकिन हर किसी को मारने से यह नहीं हो जाएगा। यह तो उन्हीं के काम आ सकता है, जो बिल्कुल किनारे पर खड़े हों। बुलाकीराम बिल्कुल किनारे पर था, सरहद पर खड़ा था। जरा-सा धक्का और सरहद पार कर गया।
तो सद्गुरु तभी शिष्य को मारेगा, जब देखेगा सरहद पर खड़ा है; सरहद पर अटका है, सीमा नहीं छोड़ पा रहा है। पुरानी आदत, पुराना परिचय सीमा से बाहर नहीं जाने दे रहा है।
हम सबने लक्ष्मण-रेखाएं खींच रखी हैं अपने आस-पास; हम उनके बाहर नहीं जाते हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है..ये सब लक्ष्मण-रेखाएं हैं। कोई ब्राह्मण है, कोई क्षत्रिय है, कोई शूद्र है..ये सब लक्ष्मण-रेखाएं हैं। ये सारी लक्ष्मण-रेखाएं तोड़ देनी होंगी। इन सबके बाहर जाना होगा। और सबसे बड़ी लक्ष्मण-रेखा है भीतर तुम्हारे; वह विचारों का जाल है, जो तुम्हें हमेशा घेरे रहता है। विचारों की वह जो प्रक्रिया सतत् चलती रहती है, उससे छूटना जरूरी है।
भारत के संतों में झेन फकीरों का अदभुत व्यवहार समझाने वाली और कोई घटना नहीं है, सिवाय गुलाल और बुल्लाशाह के बीच जो घटना घटी, उसके। और यह तो आकस्मिक घटी। लेकिन झेन सदगुरु देखता रहता है शिष्य को, जांचता रहता है शिष्य को..कब क्या जरूरत हो? कब चोट की जरूरत है, तो चोट करेगा। और चोट कभी-कभी काम कर जाती है। अगर ठीक समय पर पड़े, तो अचूक काम कर जाती है।
यह तो आकस्मिक संयोग था। बुल्लाशाह उस मस्ती में था, बस किनारे पर रहा होगा, पड़ी लात, फूट गई मटकी, खो गया मानसी-भंडारा, साधु-संत नदारद हो गए..वे थे नहीं कहीं वैसे भी; कल्पना ही थी, मन की ही कल्पना थी..और एक क्षण को अ-मनी दशा हो गई। बस उस अ-मनी दशा में ही परमात्मा का साक्षात्कार है।
जब तक मन है तब तक परमात्मा नहीं; जब मन नहीं है तब परमात्मा ही है, और कुछ नहीं..सिर्प परमात्मा ही है!
राम मोर पुंजिया मोर धना, निसबासर लागल रहु रे मना।।
गुलाल कहते हैं कि मैंने तो एक ही पूंजी देखी दुनिया में..और वह राम। एक ही धन देखा दुनिया में और वह राम क्यों? क्योंकि धनियों को निर्धन देखा। सच तो यह है कि धनी से ज्यादा निर्धनता का बोध किसी को भी नहीं होता। गरीब को गरीबी इतनी नहीं सालती, इतनी नहीं अखरती, जितनी अमीर को अखरती है। गरीब के पास तुलना का उपाय नहीं होता। उसने अमीरी जानी नहीं; बाहर की भी अमीरी नहीं जानी तो बाहर का तो कोई मापदंड उसके पास नहीं है, भीतर की भी नहीं जानी। गरीबी ही जीवन है। वह गरीबी से अयस्त हो गया है। उसके पास गरीबी के विपरीत कोई अनुभव नहीं है, जिसकी पृष्ठभूमि में वह समझ पाए कि मैं कितना गरीब हूं। अमीर के पास बाहर धन इकट्ठा होता जाता है; जैसे-जैसे बाहर धन के ढेर लगते हैं, वैसे-वैसे भीतर गरीबी के ग167े साफ दिखाई पड़ने लगते हैं। जहां पहाड़ खड़े होते हैं, वहां खाइयां हो जाती हैं। बाहर पहाड़ खड़े होने लगते हैं धन के और भीतर निर्धनता की खाई साफ होने लगती है। जितना बाहर धन हो उतना ही भीतर अखरता है निर्धन होना। और बाहर का धन भीतर तो ले जाया नहीं जा सकता। उसे भीतर ले जाने का कोई उपाय नहीं है। कोई मार्ग ही नहीं है! जो बाहर है वह बाहर और जो भीतर है वह भीतर। तुम हीरे-जवाहरातों को भीतर न ले जा सकोगे। भीतर तो केवल चैतन्य के हीरे-जवाहरात जा सकते हैं। झरत दसहुं दिस मोती! जब तुम्हें भीतर मोतियों की वर्षा होने लगे, तभी तुम भीतर से धनी हो सकोगे; नहीं तो बहुत अखरेगी भीतर की अवस्था।
इसलिए एक बहुत अनूठी घटना घटती है: जितना ही कोई व्यक्ति समृद्ध होता चला जाता है, उतनी ही उसके भीतर इस बात की स्पष्ट प्रतीति होने लगती है कि बाहर तो धन है, अब भीतर धन कैसे हो?
जैनों के चैबीस तीर्थंकर ही राजपुत्र हैं। हिंदुओं के सब अवतार राजपुत्र हैं। बुद्ध राजपुत्र हैं। क्यों? यह देश धार्मिक था, जब यह अमीर था। यह देश जब से गरीब हुआ तब से धार्मिक भी नहीं रहा। हां, लकीरें रह गई हैं, हम पीटे जा रहे हैं! परंपरा है, उसको दोहराए जा रहे हैं! शब्द हमारे पास हैं, उनकी पुनरुक्ति किए जा रहे हैं। मगर अर्थहीन हो गया है सब। जिस दिन से यह देश गरीब होना शुरू हुआ, उसी दिन से यह देश अधार्मिक होना भी शुरू हो गया।
धार्मिक देश ही वस्तुतः जीवन के सत्यों की खोज कर सकता है। और धार्मिक देश होने के लिए जरूरी है कि एक समृद्धि हो। एक प्रतीति होने लगे साफ बाहर और भीतर में कि बाहर सब है और भीतर कुछ भी नहीं। आज पश्चिम में धर्म की बहुत जोर से आकांक्षा है; बड़ी खोज है। और उसका कारण है..विज्ञान के द्वारा दी गई समृद्धि। बाहर समृद्धि हो गई, अब भीतर का खालीपन अखर रहा है, पीड़ा पकड़ रही है। लोग खोज पर निकले हैं।
मेरे पास लोग आते हैं सारी दुनिया से और उनमें से न मालूम कितने लोग मुझसे आ कर कहते हैं, अक्सर, कि क्या बात है, भारतीय लोगों में कोई रस नहीं मालूम होता ध्यान में? क्या बात है? उनके भीतर कोई अभीप्सा नहीं मालूम होती! कोई उत्कृष्ट आकांक्षा नहीं मालूम होती!
मेरे पास आए विदेशी संन्यासी निरंतर मुझसे कहते हैं कि जिन घरों में वे ठहरते हैं..अगर किसी भारतीय घर में ठहरते हैं या भारतीय घर में किराए से रहते हैं, तो उस घर के लोगों की एक ही इच्छा होती है कि हमारे लड़के को अमरीका भेजना है, यूनिवर्सिटी में भरती करवा देना, स्कालरशिप दिलवा देना, फोर्ड फाउंडेशन से कुछ पैसा मिल जाए, राकफेलर फाउंडेशन में कोई पहचान तो नहीें है? अमरीका से आया हुआ युवक भारत ध्यान सीखने आया है, लेकिन जो भी भारतीय उससे मिलते हैं उनकी सारी उत्सुकता यह होती है कि वे अमरीका कैसे पहुंच जाएं; आक्सपर्ड, कैंब्रिज में कैसे भरती हो जाएं, उनके लड़के इंजीनियर, वैज्ञानिक और डाक्टर कैसे हो जाएं? उन्हें यह ख्याल में नहीं आता कि डाक्टर, वैज्ञानिक और इंजीनियर ध्यान सीखने भारत आ रहे हैं, वे अपने बच्चों को इंजीनियरिंग सीखने बाहर भेज रहे हैं! ध्यान सीखने में उनका कोई रस नहीं है। उनका बेटा ध्यान सीखने आने लगे तो उन्हें बेचैनी होती है कि यह क्या कर रहे हो? यह कैसा अभारतीय काम कर रहे हो! यह शोभा देता है? अरे, पढ़ो-लिखो! पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे साहब! पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब! यहां इच्छा है नवाब बनाने की।
मेरे संन्यासी मुझसे कहते हैं कि भारतीयों की उत्सुकता इतनी ही होती है: तुम्हारा रेडियो हमें बेच दो; तुम्हारी घड़ी हमें दे दो। वे यह पूछते ही नहीं कि तुम यहां क्यों आए हो!! तुम्हारे ध्यान में हमें साझीदार बनाओ, इसमें उनका रस ही नहीं है। अगर उनको वे निमंत्रित भी करते हैं कि चलो, कभी आओ, तो वे कहते हैं कि हमें फुर्सत कहां, समय कहां! और हजार काम हैं। और हमें मालूम ही है कि ध्यान क्या है! और हम तो गीता पढ़ते हैं, और गीता में सब है। और हमने तो घर में ही हनुमान जी को बिठाल रखा है। और हनुमान-चालीसा में सभी कुछ आ गया! अब और अलग से क्या ध्यान सीखना? हनुमान-चालीसा से घड़ी नहीं निकलती..यह एक तकलीफ है। रेडियो नहीं निकलता, टेपरिकार्डर नहीं निकलता..यह एक तकलीफ है। तो वह तुम दे दो! बाकी तो हनुमान-चालीसा से हम सब निकाल लेंगे। भीतरी जो है, वह हम निकाल लेंगे। बाहर की अटकन है; वह कोई दूसरा पूरी कर दे।
विदेशी मित्रों को यह निरंतर अनुभव होता है कि उनकी चीजें चुरा लेते हैं भारतीय। जब भी भारतीय शिविर यहां होता है...एक महीने भारतीयों के लिए शिविर होता है, एक महीने गैर-भारतीयों के लिए शिविर होता है...तो गैर-भारतीयों के शिविर में चोरी नहीं होती; और भारतीयों के शिविर में चोरी होती है। जैसे कि ध्यान करने लोग नहीं आते। और यह अच्छा मौका है: विदेशी तो आंख पर पट्टी बांध कर ध्यान करने लगते हैं, भारतीय तब तक उनकी चीजें चुराकर नदारद हो जाते हैं! इससे ज्यादा शुभ अवसर और कहां मिलेगा? और चोरी भी क्या..जूते तक चोरी चले जाते हैं!
विदेशी मित्र मुझसे कहते हैं कि यह बड़ी हैरानी की बात है। हम तो सोचते थे भारतीय बड़े धार्मिक लोग हैं। ये जूते भी नहीं छोड़ते!
लेकिन इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं है। इसके पीछे पूरी व्यवस्था समझने जैसी है। जब भी कोई देश गरीब हो जाता है, तो उसकी उत्सुकता बाहर के धन में हो जाती है। और जब कोई देश अमीर हो जाता है, तो उसकी उत्सुकता भीतर के धन में हो जाती है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कोई गरीब आदमी धार्मिक नहीं हो सकता। लेकिन यह मैं जरूर कह रहा हूं: कोई गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता! गरीब व्यक्ति तो धार्मिक हो सकता है, क्योंकि व्यक्ति की इतनी बुद्धिमत्ता हो सकती है कि वह गरीब रहते भी धन की व्यर्थता को समझ ले। इतनी प्रगाढ़ उसकी तेजस्विता हो सकती है, इतनी मेधा हो सकती है। नहीं तो कबीर, दादू, नानक, फरीद, बुल्ला..ये कैसे धार्मिक होते? गरीब आदमी तो धार्मिक हो सकता है लेकिन गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता। अमीर व्यक्ति तो अधार्मिक हो सकता है, क्योंकि हो बिल्कुल जड़बुद्धि, लेकिन अमीर समाज बहुत दिन तक अधार्मिक नहीं रह सकता, उसे धार्मिक होना ही पड़ेगा। अन्ततोगत्वा उसे खोजना ही पड़ेगा कि असली धन कहां है। नकली धन तो हमारे पास है, पहचान लिया, इससे कुछ सार नहीं पाया।
गुलाल कहते हैं: ‘राम मोर पुंजिया!’...राम मेरी पूंजी हैं। ...‘राम मोर धना‘! श्ठऔर राम मेरा धन हैं। ...‘निसबासर लागल रहु रे मना।’ कहते हैं: अब तो बस एक ही आकांक्षा है कि यह मेरा मन दिन-रात उसी परम धन में लगा रहे।
आठ पहर तहं सुरति निहारी, ...
अब एक क्षण को भी उस झरोखे को बंद नहीं करना चाहता। अब एक क्षण को भी नहीं चाहता कि उससे टूट जाऊं, कि उसकी तरफ पीठ हो जाए। वही आनंद है। वही मेरा उत्सव है। वही मेरा जीवन है। वही मेरा सर्वस्व है।
आठ पहर तहं सुरति निहारी...
मैं तो उसकी तरफ ही देखते रहना चाहता हूं। आठों पहर आंखें टकटकी लगा कर उसी को देखती रहें। उसके सौंदर्य से क्षण भर वंचित नहीं होना चाहता।
...जस बालक पालै महतारी।
सीधे-सादे आदमी हैं। सीधे-सादे उनके प्रतीक हैं। सीधे-सादे उदाहरण हैं। मगर अर्थपूर्ण। ताजगी से भरे। ‘...जस बालक पालै महतारी। ‘ मां बच्चे को पालती है। ऐसे ही साधक को ध्यान पालना पड़ता है..मां की तरह। मां हजार काम करती रहे, ध्यान उसका बच्चे पर लगा रहता है। वह चैके में काम करती हो, बच्चा बाहर आंगन में खेलता हो, लेकिन जरा-सी आवाज और वह भागकर आंगन में आ जाएगी। हजार काम में उलझी हो, लेकिन बच्चे का स्मरण नहीं भूलता। रात आकाश में बादल गरजते रहें, बिजली कड़कती रहे, उसकी नींद नहीं टूटती; लेकिन बच्चा जरा कुनमुनाए और उसकी नींद टूट जाती है। जैसे मां अपने बच्चे की चिंता करती है..प्रतिपल, उठते-बैठते, सोते-जागते, सदा उसे स्मरण बना रहता है..कहीं बच्चा गिर न जाए, कहीं भटक न जाए, कहीं चोट न खा जाए, कहीं कुछ भूल-चूक न हो जाए, वैसे ही व्यक्ति को अपनी सुरति, अपना ध्यान सम्हालना होता है। चैबीस घंटे। जागते तो जागते, सोते-सोते भी!
आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि भगवान! बहुत प्रश्न मेरे मन में उठते हैं, मैं उनको चुपचाप अपने मन में ही रखे रहता हूं। आज नहीं कल, किसी को उत्तर देते समय उनके उत्तर मुझे मिल जाते हैं। लेकिन एक ऐसा प्रश्न भी है जो दूसरा कभी पूछेगा ही नहीं। वह मुझे आपसे पूछना पड़ेगा।
बुद्ध ने कहा: वह कौन सा प्रश्न है जो दूसरा कभी नहीं पूछेगा? आनंद ने कहा: नहीं, कभी नहीं पूछेगा, यह पक्का है। क्योंकि दूसरे को पता ही नहीं, सिवाय मेरे। मैं आपके कमरे में सोता हूं, सिर्प मैं अकेला व्यक्ति हूं जो आपको सोते हुए देखता हूं। और तो कोई देखता ही नहीं, इसलिए दूसरा कोई यह प्रश्न उठाएगा ही नहीं। मैंने रात में कई बार बीच रात में उठ कर देखा है, मगर आपको पाता हूं कि जैसा आप सोते हैं, ठीक वैसे ही पूरी रात सोए रहते हैं। जिस पैर पर जो पैर रखा था, वह वैसा ही रहता है। जिस हाथ पर जो हाथ रखा था, वह वैसा ही रहता है। करवट भी नहीं बदलते। हद कर दी आपने भी। सोते हैं कि नहीं सोते? क्योंकि इतना. . .जरा हलन-चलन न हो, तभी संभव है जबकि जागे हुए बिल्कुल सम्हले हुए पड़े रहो! आप सोते हो कि नहीं?
बुद्ध ने कहा: शरीर सोता है, मैं नहीं सोता। मैं तो जागा रहता हूं। मुझे तो विश्राम की कोई जरूरत नहीं। चैतन्य को विश्राम की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि चैतन्य तो सदा विश्राम में है ही। शरीर थकता है; शरीर मिट्टी है, जल्दी थक जाता है। शरीर का बोझ है, जल्दी थक जाता है। जितना ज्यादा बोझ हो शरीर का, उतने जल्दी थक जाएगा। इसलिए मोटा आदमी जल्दी थक जाएगा, दुबला आदमी जरा देर से थकेगा। जितना बूढ़ा हो शरीर उतनी जल्दी थक जाएगा, जितना जवान हो उतना कम थकेगा। छोटे बच्चे का तो और भी कम थकेगा।
अमरीका के एक विश्वविद्यालय में उन्होंने प्रयोग किया। एक छोटे बच्चे के पीछे एक बड़े पहलवान को लगा दिया। पहलवान को कहा कि जो यह बच्चा करे वही तुझे करना है। जैसे बच्चा उचके तो तू उचक। बच्चा कूदे तो तू कूद। बच्चा भागे तो तू भाग। बच्चा जमीन पर लोटे तो तू लोट। जो बच्चा करे, वही तुझे करना है। और जो भी तुझे पैसे मांगने हों वह हम देने को तैयार हैं। उसने सोचा: यह कोई बड़ा काम? फिर भी उसने काफी मांगा। उसने कहा: एक हजार डालर लूंगा। दस हजार रुपए होते हैं। एक दिन के! वैज्ञानिक राजी था देने को। उसने कहा: ठीक है। आधे दिन में पहलवान चारों खाने चित्त हो गया। और उसने कहा: मुझे नहीं चाहिए वे रुपए, मैं अपने घर चला! भाड़ में जाएं वे रुपए, यह बच्चा मेरी जान ले लेगा! बच्चे ने इसको खेल समझा, उसने कहा, यह खूब मजा है! जैसा मैं करता हूं वैसा ही यह करता है! तो मुंह बिचकाए, कूदे, भागे, फांदे, लोटे। दोपहर होते उसने पहलवान को पस्त कर दिया। और जब पहलवान जाने लगा, बच्चे ने कहा: अरे, चले क्या? बस खत्म? इतने जल्दी खत्म! अभी तो बहुत दिन पड़ा है!
तुम अगर एक बच्चे की नकल करो, तब तुमको पता चलेगा कि वह कितने काम में लगा हुआ है! बैठ ही नहीं सकता एक सेकेंड। अभी जवान या बच्चा ऊर्जा से भरा है; बूढ़ा होगा, ऊर्जा क्षीण हो जाएगी। उठना-बैठना कष्टपूर्ण होने लगेगा। श्वास लेना कष्टपूर्ण होने लगेगा। जीना दूभर होने लगेगा। वृद्ध होते-होते व्यक्ति सोचने लगता है कि अब प्रभु, उठा लो! अब बहुत हो गया! अब और नहीं चला जाता। अब तो होना भी भारी पड़ रहा है।
लेकिन चैतन्य का तो न कोई जन्म होता, न कोई बचपन, न कोई जवानी, न कोई बुढ़ापा।
तो बुद्ध ने कहा: भीतर मैं जागा रहता हूं। शरीर पड़ा रहता है। शरीर विश्राम करता है, मैं जागा रहता हूं। और क्या बार-बार करवट बदलनी! एक बार ठीक से करवट सो गए, फिर सोए रहे। फिर शरीर को छोड़ दिया वैसी ही अवस्था में।
जागते ही साधक ध्यान नहीं करता, सोते-सोते भी ध्यान में ही होता है।
कृष्ण ने कहा है न, कि जो सबके लिए रात है, वह भी योगी के लिए रात नहीं। ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। ‘ वह जो साधक है, वह तब भी जागा रहता है जब सारे लोग सो जाते हैं। इसका यह मतलब मत समझ लेना कि साधक खड़ा रहता है; कि रात-भर खड़े हैं! ऐसे साधक मत हो जाना। नहीं तो तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे शिकायत लेकर यहां आएंगे कि ये भूत-प्रेत की तरह खड़े रहते हैं घर में, तो किसी और को भी सोने में डर लगता है। लेकिन कुछ मूढ़ों ने यही समझ लिया है।
मैं एक गांव में गया तो वहां लोगों ने कहा: आपको जान कर खुशी होगी कि हमारे गांव में खड़ेश्री बाबा हैं। खड़ेश्री बाबा! यह भी कोई नाम है! नाम तो, उन्होंने कहा, हमको पता नहीं, लेकिन चूंकि वे आज तेरह साल से खड़े हुए हैं, इसलिए उनका नाम खड़ेश्री बाबा है।
उस रास्ते से मैं गुजरा तो उनको देखा मैंने। उनकी हालत दयायोग्य थी। अब जो आदमी तेरह साल से खड़ा है, उसकी हालत तुम समझ सकते हो! पैर उसके हाथी-पांव जैसे हो गए। क्योंकि सारा खून पैरों में उतर गया। शरीर तो सूख गया और पैर भारी हो गए हैं; सूज गए हैं; सूजे हुए हैं। और तेरह साल तक चैबीस घंटे खड़े रहोगे तो ऐसे ही नहीं खड़े रह सकते। तो बैसाखियां लगाई हुई हैं, छत से जंजीरें लटकाई हुई हैं, जंजीरों से उन्होंने अपने हाथ बांध रखे हैं, क्योंकि कहीं गिर जाएं तो तेरह साल की साधना न टूट जाए। यह मुक्ति हुई! जंजीरें हाथों से बंधी हैं, पैर सड़े जा रहे हैं, शरीर सूख गया है। आंखों में कोई प्रतिभा नहीं, कोई मेधा नहीं, ध्यान की कोई ज्योति नहीं। तेरह साल से नहाए-धोए नहीं हैं, सो भयंकर दुर्गंध उठ रही है। पाखाना-पेशाब भी दूसरों को करवाना पड़ती है और फेंकनी पड़ती है। खाना भी दूसरे खिलाते हैं, क्योंकि वे तो जंजीर छोड़ नहीं सकते..अरे, किसी कमजोरी के क्षण में बैठ ही जाएं! बैठना है नहीं।
मैंने पूछा: ऐसा यह कर क्यों रहे हैं, इनको यह पागलपन क्यों सवार है? तो उन्होंने कहा: ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। ‘ जब सब सो जाते हैं, तब भी संयमी जागता है। यह संयमी हैं! यह संयम न हुआ, यह विक्षिप्तता है। यह पागलपन है। इनको चिकित्सा की जरूरत है। इनको पागलखाने में रखे जाने की जरूरत है। मगर उनकी पूजा हो रही है; रुपए चढ़ाए जा रहे हैं।
हां, और तो वे खड़े रहते हैं, लेकिन ध्यान इस पर लगा रहता है..कितने चढ़े? खड़े ही खड़े गिनती करते रहते हैं मन ही मन में। मानसी-भंडारा! इशारा करते रहते हैं बगल के आदमी को..जो उनके पैसे इकट्ठा करता है..उठा, सम्हाल! रात हिसाब-किताब पूछ लेते हैं कि कितना आया, बैंक में जमा करो! हजारों रुपए बैंक में जमा हो गए हैं। भीतर के धन का तो कुछ लेना-देना नहीं है; खड़े हैं चैबीस घंटे; मगर भीतर के जागरण से तो कोई संबंध नहीं है..अटके हैं बाहर।
मैं कुछ बाहर के धन का विरोधी नहीं हूं। मगर यह कोई ढंग हुआ! अरे, बाहर का धन ही कमाना हो तो बहुत-से रास्ते हैं। यह खड़े होने का ढोंग क्यों? यह शरीर को इतना सताना क्यों? यह इतनी दुष्टता, इतनी हिंसा क्यों?
और मैंने उनसे पूछा कि इतना तो सोचते कभी कि कृष्ण ने गीता में यह कहा, कृष्ण ने खुद यह किया? ऐसा तो कोई उल्लेख मिलता नहीं कि खड़ेश्री बाबा हो गए हों कृष्ण। अर्जुन ने गीता सुनी, वह नहीं समझा, तुम समझ पाए! उसने भी नहीं किया यह। शंकराचार्य ने गीता पर टीका लिखी, मगर उनकी भी अक्ल में यह बात न आई जो खड़ेश्री बाबा के समझ में आई है! गीता पर एक हजार टीकाएं हैं, उन एक हजार टीका लिखने वालों में से एक ने भी यह न किया। एकाध को तो अक्ल आती। वह इन सज्जन को आई है!
रात जागे रहने का यह अर्थ नहीं है कि तुम खड़े हो कोने में जागे हुए। रात जागे होने का अर्थ है: शरीर तो विश्राम करे, लेकिन भीतर बोध न चूक जाए, भीतर बोध की सतत् धारा बनी रहे। भीतर कोई एक हिस्सा तुम्हारा साक्षी बना रहे, जानता ही रहे। पहले जागते में जागो, फिर धीरे-धीरे निद्रा में भी जागरण का प्रवेश हो जाता है।
आठ पहर तहं सुरति निहारी, जस बालक पालै महतारी।।
धन सुत लछमी रह्यो लोभाय, गर्भमूल सब चल्यो गंवाय।।
बड़ा प्यारा वचन है! गुलाल कहते हैं कि तू धन में उलझा है, बच्चों में उलझा है, लक्ष्मी में उलझा है, लोभ में पड़ा है। ...इस देश को हम धार्मिक देश कहते हैं। लेकिन यह अकेला देश है दुनिया में जहां लक्ष्मी की पूजा होती है। दीवाली इस देश का सबसे बड़ा त्यौहार। और दीवाली का केंद्र क्या है? ..लक्ष्मीपूजन! और लक्ष्मी की पूजा लोग नगद रुपए रखकर करते हैं। रुपयों की पूजा और धार्मिक देश! पुण्य-भूमि! और सब साधु-संत यहीं हुए!
मैं एक घर में ठहरा था, दीवाली आ गई। तो उन्होंने कहा कि लक्ष्मी-पूजन हो रही है, आप भी आएंगे? मैंने कहा कि चलो, तमाशा देखेंगे। खनाखन रुपयों की पूजा चल रही है! अब रुपए तो बचे नहीं हैं, तो लोग पुराने रुपये बचा कर रखे हुए हैं..सिर्प पूजा के लिए। अब नोटों को कैसे खनाखन करो? और नोटों की पूजा जरा जंचती नहीं कि कागजों की पूजा! पुरानी आदत पड़ गई है..चांदी के सिक्के, सोने के सिक्के हों तो पूजा का मजा है!
मैंने उनसे कहा कि तुम्हीं तो कहते हो मुझसे कि यह देश बड़ा पुण्यवान है, धार्मिक है..और यह क्या कर रहे हो? रुपयों की पूजा करते शर्म नहीं आती, धिक्कार पैदा नहीं होता? उन्होंने कहा: हां, धार्मिक देश तो है; पुण्य की भूमि है यह; सारे अवतार यहां हुए, सारे तीर्थंकर यहां हुए, बुद्ध यहां हुए..और क्या चाहिए? इससे सिद्ध होता है कि यह देश धार्मिक भूमि है। मैंने कहा: इससे सिर्प इतना ही सिद्ध होता है कि यह देश अधार्मिक है। उन्होंने कहा: आपका मतलब? मैंने कहा: यूं समझो कि तुम्हारे मौहल्ले में किसी घर में, सब डाक्टर उसी के घर में आएं, सब हकीम..नीम हकीम..वैद्य, प्राकृतिक चिकित्सक उसी घर में आएं, तो क्या तुम कहोगे कि इस घर के लोग बहुत स्वस्थ हैं? उन्होंने कहा: नहीं, यह तो हम नहीं कहेंगे। उस घर के लोग बहुत ही बीमार होने चाहिएं, तभी सब हकीम, नीम हकीम सब आ रहे हैं!
मैंने कहा: तुम्हारे यहां ही सारे आए तीर्थंकर और सारे अवतार, इससे कुछ अक्ल आती है? परमात्मा को तुमने ऐसा परेशान किया है कि उसको भेजना पड़ता है कि भैया, जाओ! फिर एक बार जाओ! और-और जाओ! और तुम ऐसे बहरे हो कि तुम सुनते ही नहीं। इसलिए बार-बार आना पड़ता है। नहीं तो क्या जरूरत है? तुम्हारा ही उद्धार करने की जरूरत है, बस, दुनिया में और किसी का उद्धार नहीं करना परमात्मा को? कोई तुम्हारे पीछे पड़ा है, कि तुम्हारा उद्धार करके ही रहेगा! और उद्धार तुम्हारा हुआ नहीं। क्या खाक उद्धार हुआ! सब आ भी गए, चले भी गए..और तुम वैसे के वैसे! तुम कह सकते हो कि सबको हराया; कि सबको रास्ते पर लगा दिया! आए भी और गए भी, हमारा कोई बाल भी बांका नहीं कर सका! अरे, कोई कर ले हमारा बाल बांका! अवतार नहीं कर सके, तीर्थंकर नहीं कर सके, बुद्ध नहीं कर सके। कोई क्या करेगा? इसको तुम सोचते हो धार्मिक होना!
धार्मिक होने का अर्थ होता है: जो व्यर्थ है, उसमें अपने जीवन को न गंवाना।
गर्भमूल सब चल्यो गंवाय।
गुलाल कहते हैं कि जन्म से तुम इतनी बड़ी संपदा लेकर आते हो, उस सबको गंवा कर चले जाते हो। गंवा देते हो व्यर्थ की चीजों में। हीरे दे देते हो, कंकड़ खरीद लेते हो। चैतन्य बेच देते हो, मिट्टी-पत्थर इकट्ठा कर लेते हो। फिर मौत आती है, सब पड़ा रह जाता है। तब पता चलता है कि अरे, जो कमाना था वह कमाया नहीं। जो कमाने योग्य नहीं था, उसमें सब समय गंवाया।
बहुत जतन भेष रच्चो बनाय...
और कितना तुम भेष बनाते हो! कैसे-कैसे रंग लोगों ने बनाए हुए हैं! बहुरुपिए हैं लोग। कैसे-कैसे चेहरे, कैसे-कैसे मुखौटे! कुछ हैं भीतर, कुछ दिखलाते बाहर। मुंह में राम बगल में छुरी।
बहुत जतन भेष रच्यो बनाय, बिन हरिभजन इंदोरन पाय।।
‘इंदोरन‘ एक सुंदर फल होता है..जो देखने में सुंदर, लेकिन खाने में कड़वा और जहर जैसा। ऐसी ही इस संसार की भाग-दौड़ है। देखने में बड़ी सुंदर, खाने में बिल्कुल जहर जैसी। ऐसे ही इस संसार के धोखे हैं, प्रवंचनाएं हैं। लुभातीं बहुत, पास जाकर कुछ हाथ आता नहीं। इंद्रधनुष जैसी है: दूर से कितना प्यारा लगता है, पास जाओ तो कुछ हाथ न लगे। मृग-मरीचिकाएं हैं।
हिंदू तुरुक सब गयल बहाय, ष्ठ
और सब इसी में बह रहे हैं..चाहे हिंदू हों और चाहे मुसलमान हों।

श्ठचैरासी में रहि लपटाय।।
सभी लपटे हैं इसी उपद्रव में..कैसे और! हाय-हाय मची है। कैसे और, कैसे और थोड़ा इकट्ठा कर लें! मरते दम तक हाय-हाय मची है।
मैंने सुना कि मुल्ला नसरुद्दीन जब मरने के करीब हुआ तो उसके चारों बेटे इकट्ठे हुए। परिवार के और भी लोग इकट्ठे हुए। पहले बेटे ने कहा कि अब पिताजी जा रहे हैं, इस अवसर को हमें ठीक से मनाना चाहिए। उनको विदा ढंग से देनी चाहिए। मैं जाता हूं और एक इम्पाला गाड़ी किराए पर ले आता हूं। उसमें ही रख कर उनकी अर्थी को मरघट ले चलेंगे। दूसरे बेटे ने कहा कि जब वे मर ही रहे हैं और मर ही गए, तो अब क्या इम्पाला और क्या एंबेसेडर! एंबेसेडर चल जाएगी। नाहक इम्पाला में पैसा खराब करना। और आदमी तो मर ही गया! ...अभी मरे नहीं है। अभी नसरुद्दीन पड़े सुन रहे हैं। ...तीसरे ने कहा: एंबेसेडर की क्या जरूरत है? अरे, बड़े-बड़े भी अर्थी पर चढ़ कर जाते हैं। नाहक का दिखावा करने से क्या फायदा? बेकार का खर्चा हो जाएगा। हमारा तो ख्याल है अर्थी पर ही ले चलना चाहिए। चैथे ने कहा कि आजकल बांस, लकड़ी, हर चीज महंगी है। अभी तो हम हट्टे-कट्टे हैं; अरे, बांधो पोटली में और ले चलेंगे उठा कर! अब मर ही गया आदमी तो मिट्टी तो मिट्टी है, अब उसमें क्या रखा है! तभी नसरुद्दीन एकदम उठ कर बैठ गया हाथ टेक कर और कहने लगा: मेरे जूते लाओ। कहा: जूते क्या करोगे? तो उसने कहा कि अरे बेटा, अभी तो इतनी मुझमें जान है कि मैं खुद ही चल सकता हूं। तो मैं खुद ही चला चलता हूं। वहीं मर जाऊंगा कब्र पर ही। तुमको इतनी झंझट न करनी पड़े।
मरते दम तक पकड़ एक ही है। अगर ले जा सको तुम धन मरने के बाद अपने साथ तो तुम कुछ छोड़ न जाओगे पीछे। सब बांधोगे गठरी और अपने साथ लेकर चल पड़ोगे। ले जा नहीं सकते, इसलिए मजबूरी में खाली हाथ जाना पड़ता है। दुःखी जाते हो!
मेरा अपना अनुभव यह है कि लोग मरते वक्त मृत्यु के कारण नहीं परेशान होते..जितने परेशान होते हैं कि सब कमाया-धमाया पड़ा रह जाएगा।
पश्चिम का बहुत बड़ा विचारक लेखक सामरसेट माम अपने भतीजे के साथ एक बगीचे में टहल रहा था। खुद के बगीचे में। उसने बहुत शानदार बगीचा बनाया, बड़ा भवन बनाया। उसका फर्नीचर बड़ा कीमती, उसकी हर चीज कीमती। उस पर धन बहुत था; कमाया बहुत। उसका भतीजा तारीफ कर रहा था कि आपका भवन सुंदर, आपका बगीचा सुंदर, आपका फर्नीचर अद्भभुत। लेकिन सामरसेट माम बहुत उदास हो गया। उसने कहा कि तू मत कह ये बातें, मत कह! इससे मेरे दिल को बहुत चोट पहुंचती है! उसने कहा: आपको चोट पहुंचती है! आपको तो खुश होना चाहिए। उसने कहा: क्या खाक खुश होना चाहिए! मैं मर जाऊंगा और यह सब यहीं पड़ा रह जाएगा। इससे मुझे सोच कर भी दुःख होता है; यह बात ही मत उठा। मैं मर जाऊंगा और यह सब यहीं पड़ा रह जाएगा, इसमें से मैं कुछ भी न ले जा सकूंगा, यह सोच कर मुझे दुःख होता है। जिंदगी भर मेहनत की और यहीं पड़ी रह जाएगी। और कोई ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे मजा करेंगे। इससे दिल को दुःख होता है कि पता नहीं कौन ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे मजा करें?
तुमने बनाया मकान और रह रहे ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे। तुम्हारी आत्मा यहीं घूमती रहेगी भूत-प्रेत होकर। ऐरों-गैरों को सताएगी। तुम जा न सकोगे कहीं और। मरघट के बाद भी तुम यहीं चक्कर मारोगे। वह लोग ठीक ही कहते हैं कि मर जाने के बाद भी लोग सांप होकर अपने गड़ाए धन पर बैठ जाते हैं। उसका मतलब इतना ही है। कोई सच में ही सांप हो जाने की जरूरत नहीं है..कुछ बिच्छू हो जाते हैं, कुछ कुछ हो जाते हैं।
सांप ने ही कोई ठेका थोड़े ही लिया है! मगर प्रयोजन इतना है कि वे यहीं कब्जा जमाकर बैठे रहते हैं।
एक आदमी मर रहा था। उसने अपने तीन मित्रों को बुलाया और उनको कहा कि देखो, सुना है मैंने कि मरने के बाद कोई आदमी कुछ ले जा नहीं सकता, लेकिन मैं इस नियम को तोड़ना चाहता हूं। मैं लेकर जाऊंगा। तुम तीनों मेरे जिगरी दोस्त; तुम मुझ पर इत्ती कृपा करना। मेरे पास साठ लाख रुपए हैं। बीस-बीस लाख तुम तीनों को बांट देता हूं..तुम पर मुझे भरोसा है; जीवन भर का हमारा साथ है।
पहला मित्र बंगाली था, उसने कहा कि ठीक। क्या करना है इन बीस लाख का? उसने कहा: करना कुछ नहीं। जब मुझे दफनाया जाए, मेरी लाश जब कब्र में रखी जाए, तो तुम बीस लाख रुपए चुपचाप कब्र में सरका देना। किसी को पता न चले बस, इतना ही होशियारी करना, किसी को पता न चले, नहीं तो लोग उखाड़ कर ले जाएंगे। मैं साथ ही ले जाना चाहता हूं।
बंगाली बाबू ने कहा कि ठीक।
दूसरे सज्जन पंजाबी थे। उन्होंने कहा कि कोई फिकर नहीं; बिल्कुल फिकर मत करो, किसी को कानों-कान पता नहीं चलने दूंगा। गड़ा दूंगा बीस लाख रुपये।
तीसरे सज्जन मारवाड़ी थे। उन्होंने कहा: तुम फिकर करना ही मत! मैं अकेला ही कर सकता था यह साठ लाख गड़ाने का काम, लेकिन तुम तीन में बांटते हो, कोई बात नहीं; तो भी कर दूंगा।
मित्र मर गए। सब काम भी समाप्त हो गया। अंतिम संस्कार हो गया। तीनों मिले। पंजाबी ने कहा कि भाई क्या हुआ, रुपयों का क्या हुआ? मैंने तो बिल्कुल गड़ा दिए। बंगाली ने कहा कि क्या तुम सोचते हो तुमने ही गड़ाए? अरे, गड़ाए मैंने भी! आखिर जीवन भर का साथ था!
मगर दोनों को शक था मारवाड़ी पर। दोनों ने पूछा: अपनी तो कहो, तुमने क्या किया?
उसने कहा: तुम क्या समझते हो मुझे? तुमने जो गड़ाए थे चालीस लाख, वे मैंने निकाल लिए। साठ लाख का चैक रख दिया। अरे, कहां ढोता फिरेगा साठ लाख, इतना वजन! सीधा चैक..पर्सनल चैक, कि ले जा बेटा!
मरते दम तक आदमी इस कोशिश में रहता है कि ले जाऊं। कहां ले जाओगे? कैसे ले जाओगे? और जो ले जाने योग्य है, वह तुम कमाते नहीं; वह तो तुम गंवाते हो। एक ही चीज ले जाई जा सकती है, वह ध्यान है। ध्यान ही इसलिए धन है।
कहै गुलाल सतगुरु बलिहारी, जाति-पांति अब छुटल हमारी।।
कहते हैं, सदगुरु बुल्लाशाह की कृपा कि हमारी जाति-पांति भी छूट गई। यह हमारी बाहर की पकड़ भी छूट गई। यह धन-पद की दौड़ भी छूट गई। यह चैरासी का चक्कर निपटा। सदगुरु ने हमें असली धन से जोड़ दिया।
नगर हम खोजिलै चोर अबाटी।
और कौन है जो तुम्हारे जीवन-धन को चुराए ले जा रहा है? तुम सारे नगर में खोजते फिरते हो कि कहां है वह चोर, कहां है वह बेईमान, जो मेरी जिंदगी को नष्ट कर रहा है? ख्याल रखना, यह हम सबकी धारणा है कि कोई हमारी जिंदगी को नष्ट कर रहा है। हम हमेशा दायित्व किसी और पर देते हैं। पति सोचता है, इस पत्नी की वजह से मेरी जिंदगी बरबाद हो गई, नरक कर डाला दुष्ट ने! और पत्नी भी यही सोचती है कि इस कलमुंहे से कहां से मिलना हो गया! किस दुर्भाग्य की घड़ी में! सारी जिंदगी मिट्टी में मिला दी। नहीं तो आज कहीं राजरानी होती! इधर घर में मिट्टी के भांडे भी नहीं हैं।
प्रत्येक व्यक्ति दूसरे पर दोष दे रहा है। यह हमारी अपने अहंकार को बचाने की प्रक्रिया है..दोष दूसरे पर दे दो! और दोष दूसरे का नहीं है। गुलाल ठीक कहते हैं: नगर हम खोजिलै चोर अबाटी। हमने सारा नगर खोज डाला कि है कौन जो हमें लूट रहा है? हम बर्बाद क्यों हो रहे हैं? हमारी जिंदगी का धन कौन खींच ले जाता है? कौन चूस लेता है हमारे जीवन को? कौन बना देता है नर्क को? सारा नगर हमने खोज डाला।
निसबासर चहुं ओर धाइलै, लुटत-फिरत सब घाटी।।
सब जगह हमने घूम कर देखा..जहां गए, वहीं लुटे। मामला क्या है! जैसे इस जिंदगी में लुटने के सिवाय कोई और उपाय नहीं है! और हम बहुत बचने की कोशिश किए हैं..यहां भागे, वहां भागे? तुम कितना इंतजाम नहीं करते कि सब बच जाए, जिंदगी बच जाए; कुछ अर्थ जिंदगी में हो; कुछ गरिमा हो जिंदगी में; कुछ रस हो जिंदगी में; कुछ सुख हो..कितनी कोशिश नहीं करते! मगर सब लुट जाता है।
काजी मुलना पीर औलिया, ...सबसे पूछा, ...सुर नर मुनि सब जाती। सबके पास गए, लेकिन पाया कि सबकी हालत वही है। सभी लुटे हैं। यहां कोई बिना लुटा नहीं बचा है। जोगी जती तपी संन्यासी, ...जोगियों से पूछा, जातियों से पूछा, तपस्वियों से पूछा, संन्यासियों से पूछा, ...धरि मारयो बहु भांती। वे सब कहते हैं: पता नहीं, मगर बर्बाद हो गए, लुट गए!
दुनिया नेम-धर्म करि भूल्यो, गर्व-माया-मद-माती।
और कुछ ऐसे हैं, जो इसको भुलाने के लिए कि हम लुटे नहीं हैं, औपचारिक धर्म को निर्मित कर लिए हैं। मंदिर में पूजा कर आते हैं, दो फूल चढ़ा आते हैं; मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ आते हैं; कुरान पढ़ लेते हैं, बाइबिल पढ़ लेते हैं, गीता पढ़ लेते हैं, कभी सत्यनारायण की कथा करवा लेते हैं..और सोचते हैं कि इस भांति असली धन को बचा रहे हैं।
दुनिया नेम-धर्म करि भूल्यो, गर्व-माया-मद-माती।
और इतना ही नहीं, फिर इस नियम-धर्म को करने के कारण अहंकार खड़ा होता है कि मैं धार्मिक, मैं सात्विक, मैं साधु, मैं पवित्र!
देवहर पूजत समय सिरानो, ष्ठ
श्और मंदिरों में जाते-जाते समय गंवाया।
श्ठकोउ संग न जाती।।
न मंदिर साथ जाने वाले हैं, न मंदिर की मूर्तियां साथ जाने वाली हैं। न गीता साथ जाएगी, न कुरान, न वेद। ये सब यहीं पड़े रह जाएंगे। सब बाहर हैं। जब तक तुम्हारे भीतर का वेद न जगे, जब तक तुम्हारे भीतर उपनिषद न जन्में, जब तक तुम्हारे भीतर कुरान की गुनगुनाहट पैदा न हो, तब तक कुछ काम नहीं आएगा, सब पड़ा रह जाएगा। जब तक तुम ही मंदिर न बन जाओ, कोई मंदिर तुम्हें बचा नहीं सकता! और जब तक तुम्हारा धर्म केवल एक औपचारिकता मात्र है, एक सामाजिक व्यवहार, करना चाहिए इसलिए करते हो..लगा लिया तिलक, पहन लिया जनेऊ; क्योंकि लोग कहते हैं ऐसा करना चाहिए तो कर रहे हो। भीड़-भाड़ के हिस्से होने के लिए यह उचित भी है; नहीं तो भीड़ नाराज हो जाती है! और भीड़ में रहना है, भीड़ में जीना है, तो भीड़ जैसे रहो। भेड़ होकर रहो तो भीड़ में रह सकते हो।
मानुष जन्म पायकै खोइले, भ्रमत फिरै चैरासी।
और मनुष्य जैसा अद्भभुत जीवन पाया, फिर भी खो रहे हो। फिर भटकोगे चैरासी कोटियों में। एक बार यह द्वार चूका तो फिर पता नहीं कब मिले!
दास गुलाल चोर धरि मरिलौ, ष्ठ
गुलाल कहते हैं: मैं तुम्हें पता दे देता हूं चोर का, पकड़ धर मारो!
दास गुलाल चोर धरि मरिलौ, जाव न मथुरा कासी।।
न तो मथुरा जाने की जरूरत, न काशी जाने की जरूरत, चोर तुम्हारे भीतर है। चोर तुम्हारा मन है। मन तुम्हें बर्बाद किए है। मन तुम्हारा नर्क निर्मित कर रहा है। कोई दूसरा तुम्हें नहीं लूट रहा है; तुम्हारा मन ही तुम्हें लुटवा रहा है। मन ही तुम्हें धन के पीछे दौड़ा रहा है, पद के पीछे दौड़ा रहा है। फिर पद के और धन के कष्ट हैं। कोई ऐसा ही तो मुप132त मिलता नहीं। पद पर जाना चाहोगे तो संघर्ष है। न मालूम कितने लोगों के साथ द्वंद्व करना होगा, बड़ी खींचातानी होगी, बहुत कुटोगे-पिटोगे। बहुत कम संभावना है पहुंच पाओ और पहुंच भी जाओ तो भी कुटाई-पिटाई जारी रहेगी। किसी कुर्सी पर भी बैठ गए तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि दूसरों को भी उसी कुर्सी पर बैठना है। एक ही कुर्सी पर सबको बैठना है! सत्तर करोड़ आदमी हैं इस देश में, सभी को प्रधानमंत्री होना है, सभी को राष्टपति होना है। अब सत्तर करोड़ कैसे प्रधानमंत्री हों? मेरा वश चले तो मैं तो घोषणा कर दूं कि सब प्रधानमंत्री। झंझट ही क्या है? अपने नाम के पीछे सब प्रधानमंत्री लिखो, आगे राष्टपति लिखो, दोनों काम पूरे एक साथ हो जाएं। क्या इसमें उपद्रव मचाना! इतना शोरगुल क्या! सबको सरकारी सर्टिफिकेट दिलवा दूं कि बस, तुम राष्टपति।
मैं एक गांव में गया। गांव के लोगों ने मुझे कहा कि एक जगतगुरु भी गांव में ठहरे हुए हैं, वे आपसे मिलना चाहते हैं। मैंने कहा: जगतगुरु और मुझसे क्यों मिलना चाहेंगे? और मैंने कहा: कितने जगतगुरु हैं? बड़ा मुश्किल, जगत एक और कितने जगतगुरु! खैर, मिलना चाहते हैं तो ले आओ। वह आए। मैंने उनसे पूछा: आपके कितने शिष्य हैं? जगतगुरु होने के लिए कम से कम कुछ तो शिष्य हों! और जगत के किस-किस देश में आपके शिष्य हैं? उन्होंने कहा कि शिष्य तो मेरा एक ही है; वह उनके साथ ही था..वही आदमी जो मुझसे कह गया था कि जगतगुरु आपसे मिलना चाहते हैं। यही मेरा शिष्य है! वे थोड़े हतप्रभ भी लगे। मैंने कहा: हतप्रभ होने की कोई जरूरत नहीं। इसका नाम रख लो जगत, मामला खत्म! इसके तुम गुरु..‘जगतगुरु।’ सरल तरकीब निकालो, इत्ते परेशान होने की क्या बात है! फिर कोई तुम पर कोई कानूनी अड़चन नहीं डाल सकता। सुप्रीम कोर्ट को भी निर्णय देना पड़ेगा कि तुम जगतगुरु हो! क्योंकि यह तुम्हारा शिष्य, इसका नाम जगत।
दौड़ है पद की, धन की..सबकी है। तो फिर खींचातानी है बहुत, ऐंचातानी है बहुत। और मिल कर भी कुछ मिलता नहीं। मजा तो यह है इस दुनिया में कि चढ़ते रहो सीढ़ियों पर सीढ़ियां, नसेनियों पर नसेनियां और ऊपर पहुंच कर कुछ भी नहीं है। वहां जाकर बुद्धू बन जाते हो। मगर फिर कुछ कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि जब अपनी कट गई, अब किससे कहना! चढ़ते रहो सीढ़ी, जब बिल्कुल ऊपरी पायदान पर पहुंचोगे तब पाओगे कि आगे कुछ है ही नहीं, बस यही पायदान था, खत्म! यह सीढ़ी कहीं जाती नहीं। दिल्ली कहीं जाती है? मगर फिर जो नीचे चले आ रहे हैं चढ़ते हुए, अगर उनसे कहो कि भैया, यहां कुछ भी नहीं है, तो वे कहेंगे कि तुम बुद्धू हो, फिर इत्ते दिन क्यों चढ़ाई किए, इतनी क्यों मुसीबतें उठायीं? तो वहां ऊपर देख कर भी कि यहां कुछ भी नहीं है, आदमी अकड़ कर कहता है कि अहाह! कैसा आनंद आ रहा है!
मैंने सुना है, एक आदमी की पत्नी उस पर इतनी नाराज हो गई कि उसने उठाया चाकू और उसकी नाक काट दी। आदमी भी बड़ा होशियार था। गांव के लोग उसे नेता मानते थे..नेता जी ही था वह! उसने कहा: अब क्या करना, अब नाक तो कट ही गई! वह दूसरे गांव चला गया। और एकदम मस्त रहने लगा! रहेगा तो कैसे मस्त, मगर दिखलाने लगा। कोई भी आए, एकदम डोलने लगे; जैसे बुल्लाशाह ही हों ये! लोग पूछें कि भाई बात क्या है, आप इतने मस्त क्यों हैं? तो वह कहता कि मस्ती का कारण है..नाक का कट जाना। नाम कटने से मस्ती का क्या संबंध? कहा: यह नाक की वजह से ही आड़ थी परमात्मा और मेरे बीच में। नाक क्या कटी कि आड़ हट गई, एकदम दरवाजा खुल गया! अब तो बस मजा ही मजा है..झरत दसहुं दिस मोती! अब तो क्या कहना, आनंद ही आनंद की वर्षा हो रही है!
फिर आदमी होशियार था, तो वह कहता: नाक का अर्थ तो तुम समझते हो, नाक यानि अहंकार का प्रतीक। लोग कहते: यह बात तो ठीक है! लोग कहते हैं: भई, फलाने की नाक कट गई। नाक चाहे न भी कटी हो, मगर अगर इज्जत गिर गई तो कहते हैं: नाक कट गई। लोग कहते हैं कि अरे, अपनी नाक सम्हाल कर चलो; कि कुछ अपनी नाक का भी ख्याल रखो! अहंकार का प्रतीक तो है नाक। और अहंकार बाधा है, यह तो सभी शास्त्र कहते हैं। यह आदमी भी गजब का रास्ता निकाला! सभी शास्त्र कहते हैं: अहंकार बाधा है; और नाक अहंकार का प्रतीक है, इसने नाक काट दी, अहंकार खत्म हो गया। बात बिल्कुल जंचती है, गणित बिल्कुल साफ है।
धीरे-धीरे कुछ और नालायक मिल गए। जरा हिम्मतवर। उन्होंने कहा: अच्छा भैया, तो हमारी भी काट दो। तो वह तो लाया ही था छुरी अपने साथ, वह लोगों की नाक काटने लगा। उनको ले जाता जंगल में और वहां नाक काट देता। नाक कटा कर वह आदमी देखता कहीं कोई परमात्मा वगैरह नहीं दिखता, न कोई मोती झर रहे न कुछ। कहता: भैया, कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा! वह कहता कि दिखाई क्या हमको पड़ रहा है? मगर जैसी हमारी कटी और हमने फिर भी अपने को बचाया, ऐसी अब तुम्हारी कट गई। अब अगर तुमने गांव में जाकर यह कहा कि नाक तो कट गई, कुछ दिखाई नहीं पड़ता, लोग कहेंगे: बुद्धू हो! अब सार क्या? बुद्धू बनने से सार क्या, हम तुम को बुद्धू बनाए देते हैं! अब तो तुम एकदम नाचे हुए जाओ..एकदम खंजड़ी पीटते हुए, एकदम मस्ती में मस्त!
आदमी भी सोचता कि अब सार तो कुछ है नहीं कहने में। धीरे-धीरे गांव में कई नककटे हो गए। उनकी जमात हो गई। और जहां मिल जाते, उनकी मस्ती देखने लायक होती। बात, कहते हैं, राजा तक पहुंची। राजा भी खोजी था। उसने कहा कि हम भी जिंदगी भर हो गई, खोज नहीं हुई; अगर नाक कटने से मिलता हो तो है भी क्या शरीर में रखा, आज नहीं कल मर ही जाएंगे, कटवा ही दो नाक!
वजीर ने कहा: तुम जरा ठहरो, इतनी जल्दी मत करो। पहले मुझे पता लगा लेने दो। वजीर होशियार आदमी था। उस आदमी को ले गया अलग जंगल में और उसकी अच्छी पिटाई की और कहा: तू सच-सच बता! उसने कहा: अब आप ज्यादा पिटाई कर रहे हैं, तो मैं सच-सच बताए देता हूं। मेरी पत्नी ने मेरी नाक काटी। और फिर अपनी बचाने के लिए कौन इंतजाम नहीं करता! अरे, कट गई तो कट गई मगर मुझे तो उपाय करना ही पड़ता है, सो मैं अपनी बचा रहा हूं। और इन लोगों ने भी मुझसे कटवा ली है, अब ये अपनी बचा रहे हैं। और इत्ता मैं पक्का कहता हूं कि तुझको कि राजा की भी कट जाए तो वह भी बचाएगा। यह देर कटने तक की है, कटने के बाद तो एकदम निर्वाण का अनुभव होना निश्चित ही है!
तुम्हारा जो धर्म है, वह भी थोथा है। तुम्हारा जीवन भी थोथा है। जिन्होंने धन पा लिया, उनसे पूछो कि क्या मिला? और जिन्होंने पद पा लिया, उनसे पूछो कि क्या मिला? वे सब कहेंगे: बहुत मिला, बड़ा आनंद आया! मगर मिला कुछ भी नहीं। कभी किसी को नहीं मिला। मिल सकता नहीं। बाहर पाने को कुछ है नहीं। जो पाने योग्य है, भीतर है। असली धन भीतर, असली पद भीतर।
राम मोर पुंजिया मोर धना, निसबासर लागल रहु रे मना।।
बस, वहां लग जाओ। चैबीस घंटे सतत भीतर उतरते रहो, डूबते रहो। जिस दिन तुम अपने केंद्र पर खड़े हो जाओगे, जिस दिन अपने चैतन्य के केंद्र पर खड़े हो जाओगे..उसी दिन तुम जान लोगे। फिर न कोई मंदिर, न कोई मस्जिद; न काबा, न काशी, न कोई औपचारिक बातें। न हिंदू होना, न मुसलमान होना; न ब्राह्मण, न शूद्र। फिर तुम उस केंद्र पर खड़े होकर भगवान के हिस्से हो, भगवत्ता के हिस्से हो।
जैसा बुल्लेशाह को हुआ और बुल्लेशाह के साथ बैठ-बैठ कर गुलाल को हुआ, वैसा तुम्हारे जीवन में भी हो सकता है..होना चाहिए!
मानुष जन्म पायकै खोइले, भ्रमत फिरै चैरासी।
मत खो देना इस परम जीवन-अवसर को, नहीं तो फिर भटकोगे न मालूम कितन जन्मों तक!
जीवन का एक ही अर्थ है, जीवन की एक ही खोज है, एक ही लक्ष्य है कि हम जान लें कि मैं कौन हूं। जिसने जान लिया मैं कौन हूं, उसने जान लिया कि परमात्मा क्या है। क्योंकि मैं और परमात्मा दो नहीं हैं। अहम् ब्रह्मास्मि! तत्वमसि!

आज इतना ही।

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