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रविवार, 2 दिसंबर 2018

सहज मिले अविनाशी-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

विचारना नहीं--देखना


सुनाइए, सुनाइए।

ये बहुत लोकप्रिय हैं ये।

हां, बहुत लोकप्रिय हैं। मैंने सुना है इसके बाबत। बहुत सुना है। बहुत सुना है।

न जाने क्यों मैंने इसको लिख दिया था और किस प्रेरणा से, लेकिन अब मुझे, मैं पढ़ता हूं तो मुझे भी इसका अर्थ दूसरा मालूम होता है कि इसका यह भी अर्थ है। जब मैंने लिखा था तो मैं नहीं जानता था। और इससे मुझे यह आभास होता है कि शायद जीवन में कोई प्रेरणाएं आती हैं, हम केवल अगर अपने आपको शून्य रखें। वैल्यूएं हमें हों तो अपने आप आ जाती हैं।
हम जब तक अपनी दीवाल बनाए रहते हैं उस वक्त तक शायद बाह्य शक्ति हमारे पास नहीं आती है। शायद उस समय किसी कारण से, जान कर के नहीं, क्योंकि छत्तीस वर्ष पहले मेरी उम्र पच्चीस बरस की थी, पच्चीस बरस की उम्र में आदमी को बड़ा ईगो और अहं, सब कुछ होता है, यौवन का आरंभ होता है। मगर जीवन की ऐसी परिस्थितियां थीं जिनके कारण वह मेरा ईगो चकनाचूर हो गया और मेरा हृदय खुल गया। उस खुले में शायद कहीं कोई प्रभाव जो शायद चल रहे थे, वे इसमें आ गए और यह मैं लिख गया था। और जान-बूझ कर नहीं लिखा था। अब जब पढ़ता हूं तो मुझे भी इसका अर्थ सोचना पड़ता है।



इसकी पहली ही रुबाई है--


मृदु भानों के अंगूरों की आज बना लाया आला
प्रियतम अपने ही हाथों से आज पिलाऊंगा प्याला।

पहले भोग लगा लूं तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।

प्रियतम तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला
अपने को मुझमें भर कर तू बनता है पीने वाला।

मैं तुझको छक-छलका करता...
मैं तुझको छक-छलका करता, मस्त मुझे भी तू होता
एक-दूसरे को हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला
किस पथ से जाऊं असमंजस में है वह भोला-भाला।

अलग-अलग पथ बतलाते सब...
अलग-अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूं,
राह पकड़ तू एक, चलाचल, पा जाएगा मधुशाला।

यह तो हमारा खेल है, हम तो बच्चे हैं, हमारा नाम भी बच्चन है। और मैं ऐसे ही शब्दों, सपनों से खेलता रहता हूं, सबसे खेलता रहता हूं। अब शायद आप मूर्तिकला से खेलते हैं।

हां, खेल ही खेल है बस।

मैंने एक मंदिर भी बना रखा है अपने घर पर। अब आपसे कैसे कहें...

नहीं, चलूंगा अगले...

न-न, आप मत कहिए, मैं आऊंगा न, बिल्कुल आऊंगा।

... कि आप हमारे घर पर आएं। हम तो... तो वहां हमने एक मंदिर भी बना रखा है, तो लोग मुझसे पूछते हैं, तुम... हमने कहा कि यह मेरा खेल है, शायद मुझे श्रद्धा-वृद्धा तो इतनी नहीं है, पर अच्छा लगता है, हनुमानजी का एक मंदिर है, शिवजी का मंदिर है। और पत्थरों से मैं कुछ पत्थर उठा लाता हूं और उससे कुछ मूर्तियां बनाता हूं, मेरा खेल ही है।

हां, अगर खेल ही है तब तो बहुत अच्छा है। गंभीर हुआ कि बीमारी बन जाएगा। और इस देश में कोई आदमी खेलने वाला नहीं, सब गंभीर हैं, इसलिए सारा देश उदास और परेशान हो गया है। और मेरी तो मान्यता ही यही है कि धार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं जो नॉन-सिरीयस है, जो गंभीर नहीं है, जो खेल सकता है।
एक झेन फकीर हुआ जापान में, नानइन नाम का। मरने का वक्त आया उसका, बहुत मित्र इकट्ठे हो गए हैं, सब रो रहे हैं। वह पूछने लगा, रोना बंद करो, एक बात मुझे पूछनी है, तुमने किसी आदमी को खड़े-खड़े मरते सुना है? क्योंकि मैं ऐसे मरना चाहता हूं जैसे कोई भी न मरा हो। तो किसी ने कहा कि हमने सुना है कि कभी एक फकीर खड़े-खड़े मरा था। उसने कहाः यह मुश्किल हो गई, यह बात खत्म। तुमने कभी किसी को चलते-चलते मरते सुना है? तो किसी ने कहाः हां, यह भी सुना है, एक फकीर चलते-चलते भी मरा था। उसने कहाः यह भी मामला खत्म। अच्छा मैं शीर्षासन लगा लेता हूं, तुमने किभी शीर्षासन लिए हुए किसी को मरते सुना? उन्होंने कहाः न तो यह हमने सुना, न हम सोच सकते हैं कि कोई शीर्षासन लगाकर मरे। तो उसने कहाः फिर यही ठीक रहेगा, अपने ढंग से मरना चाहिए। वह शीर्षासन लगा कर खड़ा हो गया और मर गया। उस शीर्षासन लगाई हुई लाश को अब क्या करें? हिम्मत भी नहीं पड़ती कि उसे उठाएं, नीचे गिराएं, क्योंकि गिरी हुई लाश को उठाने की हमारी आदत रही है, अब यह तो बिल्कुल नया मामला था। तो उस फकीर की बहन पास में रहती थी, लोगों ने खबर की जाकर, वह आई और उसने कहाः तुम्हें मजाक नहीं छूटता, मरते में भी मजाक करते हो! चलो नीचे उतरो! तो वह फकीर एकदम हंसा और गिर पड़ा, और उसने कहाः अभी तक मैं मरा नहीं था, लेकिन अब मरा जाता हूं।
इस आदमी को मैं कहूंगा यह धार्मिक आदमी है, इसके लिए मौत भी खेल है। वह भी हंस के ली जा सकती है। और जैसे ही कोई आदमी गंभीर होता है, गंभीर होना पैथालॉजिकल है, उसका कोई संबंध जीवन की सच्चाइयों से नहीं है। भीतर के किसी मानसिक रोग से है। वहां भीतर आदमी सूखता है तो यहां बाहर गंभीर होने लगता है। और हम हर चीज को रेशनेलाइज कर लेते हैं, हम गंभीरता को भी रेशनेलाइज कर लेते हैं। भीतर सूख जाते हैं रस, बाहर सब रूखा-रूखा हो जाता है, वह आदमी गंभीर होकर बैठ जाता है। वह फिर गंभीरता को भी एक तत्व बना लेता है। और वह अपनी इस गंभीरता को थोपने के लिए पचास दर्शन और पचास व्यवस्थाएं भी खड़ा कर लेता है। लेकिन मेरी समझ में यह है कि जिंदगी का सब कुछ खेल हो जाए। तो ऐसे आदमी को मैं संन्यासी कहता हूं जिसके लिए कुछ भी अब गंभीर नहीं है।

प्रश्नः तब तो आज मुझे महात्मा मिल गया, वास्तव में मैं तो खेल ही अपनी जिंदगी समझ रहा था, मैं तो समझता था कि मैं खेल ही कर रहा हूं।

बिल्कुल ही वैसा समझना अर्थपूर्ण है, बहुत अर्थपूर्ण है। क्योंकि परमात्मा अगर कहीं भी हो, तो सिवाय खेल के उसके लिए और कुछ भी नहीं हो सकता। कम से कम इतना तो तय है कि वह गंभीर नहीं हो सकता।

प्रश्नः अभी खाने को बैठे थे, किसी का नाम आया कि साबू जैन, हमने कहा, आप जानते हैं, आपने कहा, आपका कोई काम है? मैंने कहा, काम मुझे किसी से भी नहीं, मुझे परमात्मा से भी कोई काम नहीं है, काम नहीं है।

सुना है, काम तो जिससे हमारा होता है उससे हमारा कोई संबंध ही नहीं बनता। बिल्कुल आप ठीक कहते हैं। काम से कभी संबंध बनता ही नहीं। काम दो व्यक्तियों को तोड़ने वाली चीज है, जोड़ने वाली नहीं। जहां कोई काम नहीं वहीं हम जुड़ते हैं, वहीं हम जुड़ते हैं।
मैं जब पढ़ता था, तो मेरे एक प्रोफेसर थे, उनकी काम पर बड़ी नजर थी। उनके घर भी जाएं तो वे पहले ही पूछते थे, कैसे आए? पहली दफा आए थे, तो मैं रास्ते से निकला था, उनके घर गया, गया तो उन्होंने कहाः कैसे आए? तो मैंने कहाः मैं वापस लौटा जाता हूं, क्योंकि कैसे का कोई उत्तर नहीं, मैं किसी काम से आया नहीं। और आप सोचते हों कि बिना काम आना ठीक नहीं है, तो बात खत्म हो गई, आगे कभी आऊंगा नहीं। लेकिन इतना मैं कहे जाता हूं कि जो काम से आते हैं वे आपके पास नहीं आते, वे अपने काम से आते हैं। आप गौण होते हैं, काम ही सब कुछ होता है। आप केवल साधन होते हैं, काम ही सब कुछ होता है। जिस आदमी से हमारा काम का संबंध है, हमने उसको अभी आदमी भी स्वीकार नहीं किया है। इंस्ट्रूमेंट माना हुआ है। जिससे हमारा काम का संबंध नहीं है उससे ही हमारा प्रेम का संबंध शुरू हो जाता है। और प्रेम अकेली एक चीज है जो इस दुनिया में काम नहीं है। बाकी फिर सभी काम है, सभी काम है।
मगर हमारा सबका सोचना ऐसा हो गया है हर चीज को हम, हर चीज को लक्ष्य और उद्देश्य और प्रयोजन उसमें बांध कर देखते हैं। अर्थहीन जैसे कुछ भी नहीं है। कविता भी हम लिखते हैं तो अर्थ खोजते हैं। मैं मानता हूं सब गड़बड़ कर डाला। काव्य का अर्थ से क्या संबंध होगा? मौज से संबंध हो सकता है, अर्थ से कोई संबंध नहीं हो सकता है। अर्थ फिर सब बैठाए हुए हैं पीछे से, फिर हम बैठा लेते हैं, क्योंकि बिना अर्थ के हम कुछ झेल ही नहीं सकते। हमारा मन ऐसा छोटा है, जब तक अर्थ न बैठा लें तब तक वह प्रवेश नहीं पाएगा। लेकिन ऐसे सब चारों तरफ देखें, तो अर्थहीन है--फूल वृक्ष पर खिले हैं, अर्थहीन हैं; आकाश में बादल उड़ गए हैं, अर्थहीन हैं; सिर्फ आदमी को छोड़ कर अर्थ की बीमारी है ही नहीं कहीं, किसी को अर्थ से कोई मतलब नहीं है।
एक रूसी लोक-कथा मैं पढ़ रहा था। एक कवि एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ है और वह एक कविता पढ़ता है। कोई नहीं है वहां, एकांत है, एक लंबा वृक्ष है, उस पर एक कौवा बैठा हुआ है, वह कवि एक कविता पढ़ता है। उस कविता का कोई भाव है कि मैंने सारी दुनिया का सब कुछ जीत लिया। कुछ जीतने को न बचा। सबका मैं मालिक और सम्राट हो गया हूं। फिर वह चारों तरफ देखता है, पुरानी आदत की वजह से कि सुनने वाले कुछ कहें। बाकी वहां कोई सुनने वाला नहीं है। वह कौवा जोर से हंसता है और कहता है, सो वॉट? जीत भी लिया, तो हुआ क्या? उसने उसे ऊपर देखा और उसने कहा कि नासमझ कौवे, मालूम होता है तू कुछ समझता नहीं। उस कौवे ने कहा कि समझदारी आदमी अपने पास ही रखे, वही अच्छा है, हम नासमझ बहुत भले हैं।
मैं तुझे दूसरी कविता सुनाता हूं, उसने कहा। उसने कहाः तुम सुनाओगे दूसरी, लेकिन वह होगी यही, क्योंकि तुम्हीं ने बनाई होगी, खैर! तुम सुना दो। फिर वह सुनाता है, लेकिन उसमें भी वही बात है, वह बात घूम-फिर कर आ गई कि मैं सब पदों को पार करता चला गया हूं, परम पद पा लिया, परमात्मा को पा लिया है। बाकी है वह भाषा वही, सबको जीतने वाली। वह कौवा फिर कहता है, सो वॉट? तो कवि उससे पूछता है, तू क्या सोचता है फिर? तो वह कहता है, पाने की भाषा में जब तक कोई सोचता है, कुछ पा ही नहीं सकता। अर्थ की, प्रयोजन की, उद्देश्य की भाषा में जब तक कोई सोचता है, तब तक चूक-चूक जाता है, जीवन से ही चूक जाता है। जीवन है, तो अर्थहीन है। जीवन है, तो प्रयोजनहीन है। और चाहे उसे लीला कहें, खेल कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता फिर, क्योंकि खेल और लीला का मतलब इतना ही है कि अर्थ नहीं है, प्रयोजन नहीं। वह खेलने में ही बात खत्म हो गई है, आगे कुछ भी नहीं है।
यह जैसा आप कहते हैं कि छत्तीस साल पहले लिखी, अब अर्थ? आप बदलते जाएंगे, तो अर्थ बदलते चले जाएंगे। वहां कुछ अर्थ है नहीं, अर्थ आप डालते हैं। छत्तीस साल पहले एक डाला होगा, अब दूसरा डालते हैं। और ऐसा दिन भी आ सकता है, और उस दिन मैं कहूंगा कि कविता परम अर्थ को उपलब्ध हुई जिस दिन आपको उसमें कोई भी अर्थ न रह जाए।
चीन में एक धनुर्धर हुआ। उसकी बड़ी ख्याति है। और सम्राट ने उसको कहाः तू घोषणा कर दे कोई तेरा प्रतियोगी हो तो प्रतियोगिता कर ले, नहीं तो हम तुझे कह दें कि तू राष्ट्र का सबसे बड़ा धनुर्धर है और तुझे जो स्वर्ण पुरस्कार है वह दे दें। उसने कहाः मैं सोच लूं। घर लौट कर आया, कोई नहीं था, बूढ़ा नौकर था, उससे कहा, ऐसा सम्राट कहते हैं घोषणा कर दूं? बूढ़े नौकर ने कहाः ऐसी भूल मत करना। क्योंकि एक आदमी को मैं जानता हूं जंगल में, कि उसके चरणों में बैठ कर वर्षों तुझे सीखना पड़ेगा। हालांकि वह प्रतियोगिता करने न आएगा, क्योंकि प्रतियोगिता करने सिर्फ छोटे लोग ही आते हैं। शायद उसे खयाल भी नहीं होगा। शायद उसने कभी इसे प्रयोजन की भाषा में सोचा भी नहीं है, खेल ही है उसके लिए। पर तू सीख ले उससे, फिर घोषणा करना।
तो वह धनुर्धर जंगल गया। बामुश्किल खोज पाया उस आदमी को। और सच में पता चला कि उसके पास तो वर्षों चरणों में बैठ कर सीखने की बात है। क ख ग भी मैं जानता नहीं अभी धर्नुविद्या का। तीन वर्ष तक उससे सीखा उसने, सब सिखा दिया। फिर वह विदा होने का दिन आ गया, फिर उसके मन में खयाल आया कि अब मैं घोषणा कर दूंगा, लेकिन मैं तो भीतर जानूंगा ही कि मैं नंबर दो हूं; क्योंकि एक आदमी है जिससे मैंने सीखा है, वह नंबर एक है। जब तक यह जिंदा है तब तक नंबर एक होने का उपाय नहीं है। ऐसा क्यों न करूं इसे मार ही जाऊं। शिष्य अक्सर गुरु को मारने वाले सिद्ध होते हैं। तो वह गुरु गया है नदी तट पर स्नान करने, लौटता है वहां से लकड़ियां काट कर कंधे पर, और एक झाड़ की आड़ में से तीर मारता है उसे। वह तो अचूक तीर है, उसी गुरु से सीखा है, और वह निहत्था है। वह लकड़ियों को बांधे हुए चला आ रहा है, सिर झुकाए, उसे कुछ पता भी नहीं है। जैसे ही तीर करीब आता है, उसने एक लकड़ी खींची, एक छोटा सा टुकड़ा और तीर में मारा। वह तीर वापस हो गया। और जाकर उसकी छाती में चुभ गया। गुरु भागा हुआ आया, छाती से तीर निकाला और कहा कि यह आखिरी तरकीब थी जो मैंने रोक ली थी, क्योंकि मैं जानता था कि शिष्य हमेशा खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। मगर अब यह तुझे यह भी बता दी। तू मुझे मरा हुआ मान ले। तू नंबर एक हो गया, मैं पहले से ही मरा हुआ हूं। असल में तो मर न जाता तो यह सब सीखना मुश्किल था। जो सीखा है वह मर कर ही सीखा है। अब मैं हूं ही नहीं। लेकिन एक बात तुझसे कह दूं घोषणा करने से पहले कि मेरा गुरु अभी जिंदा है। ऊपर पहाड़ पर। और उसके चरणों में तो मैं अभी पचास वर्ष बैठूं तो भी सीखने को बहुत है, मैं कुछ हूं ही नहीं, मैं उसका एक साधारण सा शिष्य हूं, उसके और बड़े शिष्य होंगे। नब्बे साल का बूढ़ा है। कितने लोगों ने उससे सीखा होगा। तू उसके दर्शन कम से कम कर आ, फिर तू सोचना। यह तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया कि तीन साल में बामुश्किल इससे सीखा था और सोचा था सब पा लिया।
हमेशा ऐसा होता है कि जब हम पाते हैं, सब पा लिया, तभी एक नया द्वार खुल जाता है और पता चलता है वह कुछ भी न था, अभी आगे और पाने को सदा शेष है। वह गया, पहाड़ पर उसने खोज-बीन की, बड़ी मुश्किल है, बड़ा ऊंचा पहाड़ है, वहां कोई आदमी भी रास्ते पर नहीं हैं। आखिर में एक पहाड़ी चट्टान पर एक बूढ़ा आदमी खड़ा है, जिसकी कमर बिल्कुल जमीन से झुकी हुई है। उसने उससे पूछा कि यहां कोई दिखाई नहीं पड़ता, कहीं आप ही तो वह नब्बे वर्ष के धनुर्धर नहीं हैं? उसने कहाः धनुर्धर? क्या मतलब है तुम्हारा? उसने कहाः नहीं-नहीं, फिर आप नहीं होंगे, कोई और होगा। लेकिन उसने कहाः मेरे सिवाय यहां कोई रहता ही नहीं है। किसने बताया तुम्हें? शायद मैं ही हो सकता हूं। असल में तीस-चालीस साल हो गए धनुष छोड़े, तो खयाल में नहीं आता, बूढ़ा आदमी हूं, तुम याद दिलाते हो तो याद आता है। कभी धनुर्धर था। तुम भी धनुर्धर हो? उसने कहाः मैं भी धनुर्धर हूं। तो उसने कहाः फिर यह धनुषबाण क्यों रखे हुए हो कंधे पर? जब कोई धनुर्धर हो जाता है इनको फेंक देता है। ये तो सीखने के साधन हैं। धनुर्धर जब तक नहीं हुआ है कोई तब वह क ख ग सीखने... तुम कैसे धनुर्धर हो? फेंक दो इनको।
क्योंकि उसने कहाः जब संगीतज्ञ पूर्ण हो जाता है तो वीणा तोड़ देता है; क्योंकि तब वीणा बाधा बनने लगती है संगीत में। है तो डिस्टर्बेंस ही। छोड़ दो इसको। फेंक दो। उसने कहाः इसको फेंक कर तो मैं कुछ भी नहीं रह जाऊंगा। तो उसने कहाः तुम धनुष चलाने में कुशल शिल्पी मालूम होते हो, धनुर्धर नहीं। आओ मेरे पीछे। वह जो चट्टान है, हजार फीट गहरी होगी। और सीधा पहाड़ का टुकड़ा आगे निकला हुआ है, वह बूढ़ा उस पर बढ़ता चला जा रहा है, जरा सा टुकड़ा आगे निकला हुआ है और नीचे हजार फीट गड्ढा है। और उसकी कमर झुकी है, वह किनारे पर खड़ा हो गया है, जहां पर जाकर उसका आधा पंजा बाहर निकल गया खाई में। और इसको कहता है, बेटा पास आ। वह कहता है, मैं उधर नहीं आ सकता हूं, वहां तो जरा चूके कि गए। उसने कहाः चूकने का तुझे खयाल है न अभी, चूकने का जिसे खयाल है वह धनुर्धर कैसे होगा? वह चूक ही जाएगा। आ, पास आ इधर। उसने कहाः मेरे हाथ-पैर कंपते हैं--वह चार फीट पहले रुक गया--मेरे हाथ-पैर कंपते हैं। उसने कहाः जिसके भीतर अभी कंपन है, उसका निशाना कैसे लगेगा? जो भीतर कंप रहा है, उसका निशाना भी कंप ही जाने वाला है। क्योंकि निशाना तो वहीं से निकलता है जहां तू है। तो अभी तूने कुछ भी नहीं सीखा। फेंक दे यह धनुषबाण सब नीचे।
और उसने कहाः फिर क्या होगा धनुषबाण फेंक दूंगा तो?
ऊपर से पक्षियों की एक कतार निकली, उस बूढ़े ने ऐसा देखा है और हाथ का इशारा किया है और वे सारे पक्षी नीचे गिर पड़े हैं। उसने कहाः मैं नहीं समझा, यह क्या हुआ? ये कैसे गिरे? उसने कहाः एक क्षण है जब मन बिल्कुल अकंप होता है, तब इच्छामात्र तीर बन जाती है। यह खयाल कि गिर जाओ, अकंप चित्त में, चारों तरफ तीर छोड़ देता है।
उस धनुर्धर ने धनुषबाण फेंक दिए, उस बूढ़े के पैर छुए हैं और कहा कि यह मेरी सामर्थ्य के बाहर है। वह मैं भूल जाता हूं वह प्रतियोगिता, वह सब दौड़, लेकिन इतनी आज्ञा दें कि लोगों से जाकर कह दूं कि किसी ने मुझे कहा है कि जब संगीतज्ञ पूरा हो जाता है तो वीणा तोड़ देता है और जब धनुर्धर पूरा हो जाता है तो धनुष छूट जाता है--यही भूल जाता है धनुर्धर कि मैं धनुर्धर हूं।
तो एक जगह है जहां खेलते-खेलते, जहां खेलते-खेलते हम पहुंचते हैं। जहां अंततः शायद फिर यह कहने का भी कारण नहीं रह जाता कि खेल है, क्योंकि खेल भी कहां है काम के विरोध में। जहां यह भी खयाल नहीं रह जाता कि खेलने वाला हूं, क्योंकि वह बोध भी है काम के विरोध में। और ऐसी ही स्थिति को मैं समाधि कहता हूं। ऐसा पहुंचते-पहुंचते-पहुंचते एक जगह आती है, वह कहीं से भी पहुंच जाए, वह काव्य से पहुंचे, लकड़ियां काट कर पहुंचे, वे तीर चला कर पहुंचे, कुश्ती लड़ कर पहुंचे, वह कुछ न करके पहुंचे, वह कहीं से भी पहुंच सकता है।
इधर इस देश में एक कठिनाई हुई है, बच्चन जी, कि धर्म का जो, जिसको मल्टी-डायमेंशनल जिसको कहें, उसे खत्म करके एक-आयामी, वन डायमेंशनल बना दिया है।
ऐसा भी है कि कोई भी रास्ता न पकड़े, तो भी पहुंच जाएगा। क्योंकि बहुत गहरे में बात यही है कि हम वहीं खड़े हैं जहां हमें पहुंचना है। रास्ते वगैरह सब बहाने हैं, जिनसे हम वहीं लौट कर आ जाएंगे, जहां हम खड़े ही थे। और चाहते तो यह भी हो सकता था कि कहीं न जाते, कोई रास्ता न पकड़ते, लेकिन शायद जरूरी है, थोड़ी भाग-दौड़ जरूरी है। भाग-दौड़ से इतना हो जाता हैः यहां नहीं है, यहां नहीं है, यहां नहीं है; दौड़-दा.ैड कर हम वहीं खड़े हो जाते हैं जहां थे। और जब सब जगह देख लेते हैं और पाते हैं नहीं है, तो फिर एक दफा खयाल आता है वहां भी देख लें जहां हम हैं, शायद वहां हो।
बुद्ध को निर्वाण हुआ, तो उनसे पूछा कि क्या मिल गया है आपको? बुद्ध के वचन बहुत अदभुत हैं, बुद्ध ने कहाः मिला कुछ नहीं, जो मिला ही हुआ है उसे ही जान लिया। मिला कुछ भी नहीं। और अब हंसने की बात है, क्योंकि जो मिला ही हुआ था उसी को कितने दिनों तक खोजता रहा। खोजना ही बाधा बन गया था। खोजता था यही रुकावट थी। और लाओत्सु का तो बहुत अदभुत वाक्य हैः सीक एण्ड यू लूज, डू नॉट सीक एण्ड फाइंड। ठीक ही है बात तो, क्योंकि सब सीकिंग बाहर ले जाएगी। सब खोज बाहर ले जाएगी। सब खोज वहां ले जाएगी जहां हम नहीं हैं। शायद खोज का छोड़ना वहां ले आएगा जहां हम हैं। वे जो कहते हैं, एक रास्ता, शायद वह एक रास्ता भी आखिर में ऊबा कर हमें वहीं ले आता है जहां हम हैं। आखिर में सब रास्ते व्यर्थ हो जाते हैं। राही ही सार्थक रह जाता है, रास्ता बिल्कुल बेकार हो जाता है। लेकिन इधर बहुत नुकसान हो गया है।
इधर हिंदुस्तान तो ऐसा गंभीर हो गया है, बच्चन जी, इसकी गंभीरता कैसे तोड़ी जाए, यह इस समय मेरी नजर में सबसे बड़ा सवाल है, इस मुल्क के सामने इसकी गंभीरता कैसे तोड़ी जाए? बच्चा भी पैदा होता है, हम उसको बूढ़ा कर देते हैं, फौरन बूढ़ा कर देते हैं। बूढ़े को बच्चा होना चाहिए, कहते यह हैं, बच्चे को बूढ़ा बना देते हैं, करते यह हैं। एकदम गंभीरता थोप देते हैं, सब तरफ से गंभीरता थोप देते हैं। और यह सारी गंभीरता जीवन के एक भय से पैदा हुई है। जीवन से एक डर है, भोग से एक डर है, स्वाद से डर है, वस्त्र से डर है, प्रेम से डर है, राग से डर है, सबसे डर है। यहां भी नहीं जाना, वहां भी नहीं जाना, कहीं भी नहीं जाना, तो सब तरफ से बंद आदमी खड़ा हो गया है एकदम से। यह भी नहीं करना, यह भी नहीं करना, यह भी नहीं करना, बस वह एक डोंट में घिर गया है। तो वह बिल्कुल सिकुड़ गया है। और उस सिकुड़न का यह मतलब हुआ है कि सिर्फ बीमार लोग उसमें सफल हो सकते हैं। और स्वस्थ आदमी सफल नहीं होता। जवान आदमी जो चलता है वह सफल नहीं हो सकता, क्योंकि वह हो नहीं सकता ऐसा। जब मौत करीब आने लगती है, सब रस-स्रोत सूख जाते हैं, तो एक आदमी सफल हो जाता है। यह हमने कुछ धर्म ऐसा कर दिया है कि बीमार, बूढ़े, अपाहिज किसी न किसी अर्थ में इंपोटेंट, किसी न किसी अर्थ में नपुंसक, जहां इनकी पूरी आत्मा कुछ भी नहीं है, ऐसे लोग ही सफल हो पा रहे हैं। और वे सबकी निंदा करते हैं कि तुम सब अधार्मिक हो।
शांति बाबू ने मुझे सुबह कहा कि बच्चन जी को मैंने कहा कि आपको कब से वैराग्य हो गया है? तो उन्होंने कहाः मैं एक रागी से मिलने आता हूं। मैंने कहा, ठीक कहा।
धार्मिक जो कहता है, सौ में निन्यानबे मौकों पर मानता है कि मैं सही हूं, एक ही मौका--। वह सर्वज्ञ होता है, वह सब जानता है। ठीक जानता है। वैज्ञानिक सौ में एक ही मौका मानता है कि ठीक हो सकता है, निन्यानबे मौकों पर तो गलत ही होगा। ऐसा मान कर चलते हैं कि निन्यानबे मौकों पर तो गलत होना है। और कहां-कहां गलत हूं, यह खोज लेना है, ताकि यह सब इलिमिनेट होता चला जाए, यह छोड़ता चला जाऊं, तब वही शेष रह जाए जो सही है।
आइंस्टीन से किसी ने कहा कि आप एक विचारक, एक दार्शनिक और अपने में क्या फर्क मानते हैं? तो उसने कहाः मैं एक ही फर्क समझ पाया, वह यह कि आप एक दार्शनिक से, पंडित से पूछें, तो ऐसा कोई प्रश्न नहीं जिसका वह उत्तर न दे। ऐसा प्रश्न ही नहीं है। वैज्ञानिक से आप पूछें, तो हजार प्रश्न ऐसे हैं जिनका हमारे पास कोई उत्तर नहीं है। और एक प्रश्न जिसका उत्तर है, वह भी हैजिटेटिंग है, कि हम इतना ही कह सकते हैं कि अभी तक ऐसा है, कल सब बदल सकता है।
तो मेरी दृष्टि में तो जो आज वैज्ञानिक मन पैदा हो रहा है, यह पहली दफा हंबल है। पहली बार ह्यूमिलिटी है इसमें। और जिनको हम धार्मिक लोग अब तक कहते रहे हैं, उनमें ह्यूमिलिटी तो नाम को भी नहीं है। वे चिल्लाते बहुत हैं, विनम्रता, विनम्रता। और कई दफा ऐसा होता है कि अहंकारी चिल्लाता है, विनम्रता, विनम्रता। पहली दफा वैज्ञानिक में विनम्रता का भाव है, पहली दफा वह आग्रह छोड़ रहा है कि मैं ठीक हूं। और ऐसा खोल रहा है अपने को कि जो ठीक होगा, वह मैं खोज लूं। और मेरे गलत होने की ही संभावना ज्यादा है। क्योंकि अनंत संभावनाएं हैं। और मैं ठीक संभावनाओं को कैसे चोट कर दूंगा एकदम से, यह बहुत, बहुत मुश्किल है। हजार दफा चोट करता रहूंगा, करता रहूंगा, तब कहीं ठीक संभावना पर हाथ पड़ सकता है। वह संभावना ही होगी। और वह भी हो सकता है कि कल उससे बेहतर संभावना पर हाथ पड़े और वह सब गलत हो जाए। तो वैज्ञानिक की तैयारी है गलत होने की, इसलिए वह विकास कर रहा है। और धार्मिक की तैयारी गलत होने की है ही नहीं, इसलिए विकास नहीं कर रहा है, बिल्कुल ठहर कर जड़ हो गया है।

प्रश्नः और दार्शनिक का मतलब?

हमारे मुल्क में तो जिसको...

प्रश्नः सारी दुनिया के जो विचारक...

हमारे मुल्क में दार्शनिक का अर्थ बिल्कुल ही और है। पश्चिम में बिल्कुल और है। जिसको हम दार्शनिक कहते हैं, वैसे आदमी को पश्चिम में वे मिस्टिक कहते हैं। जिसको हम पंडित कहते हैं, विचारक कहते हैं, उसको वे दार्शनिक कहते हैं। फर्क है। इससे गलत कोई बात ही नहीं है।

प्रश्नः ... जो है न, फिलासफी के तो, मिस्टिसिज्म भी तो उसी के अंतर्गत...

नहीं, बिल्कुल ही नहीं, नहीं।

प्रश्नः तो आज-कल जितने फिलासफर हैं, जहां-जहां हमारी फिलासफी है, कोई आप किताब पढ़ते हैं हिस्ट्री या फिलासफी या मिस्टिसिज्म भी उसमें...

लेकिन मिस्टिसिज्म बिल्कुल फिलासफी नहीं है। यही तो आग्रह है मिस्टिसिज्म का।

प्रश्नः कुछ प्रसिद्ध दार्शनिकों को कहना यह है कि बर्नार्ड शॉ... मिस्टिसिज्म जो है असली दर्शन यह है?

इसको समझना चाहिए थोड़ा। असल में दर्शन का मतलब ही हैः देखना। दर्शन का जोर इस बात पर है कि हम उस स्टेट ऑफ माइंड में पहुंच जाएं जहां दिखाई पड़े। जोर है स्टेट ऑफ माइंड का। जोर है इस बात का कि एक हमारी चित्त की दशा है जहां कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, सब अंधेरा-अंधेरा है। एक ऐसी चित्त की दशा है, जोर है चित्त को बदलो, जिसको फिलासफी कहते हैं, उसका इससे कोई संबंध नहीं है चित्त को बदलने से; उसका जोर है इस बात पर कि जो चित्त तुम्हारे पास है उससे सोचो। उसी चित्त से सोचना है, वही चित्त है, और कोई चित्त है नहीं पास में, उस चित्त से सोचो। गलत सोच सकते हो तो वह गलत होगा, ठीक सोच लोगे तो वह ठीक हो जाएगा।
तो फिलासफी का सूत्र है, लॉजिक; उसका आधार है, तर्क। सोचो और तर्क करो, सोचो और तर्क करो, गलत को हटाओ और ठीक को तर्क करके खोजते चले जाओ, चले जाओ, फिर जो तर्क में ठीक बैठ जाए, वह ठीक है। स्टेट ऑफ माइंड बदलने का कोई सवाल नहीं है।

प्रश्नः लॉजिक है न, लॉजिक... यह एक दूसरी चीज है...

नहीं, बिल्कुल दूसरी चीज नहीं है। इसको थोड़ा समझ लें। वह जो किताबों में लिखा है, वही आप कह रहे हैं। किताबों में वही लिखा हुआ है, दूसरी चीज वह नहीं है। फिलासफी के चलने का जो वाहन है, विचारक का चलने का जो वाहन है, वह तर्क है, और दार्शनिक का चलने का जो वाहन है, वह योग है। वाहन की बात मैं कर रहा हूं।

प्रश्नः पाश्चात्य दर्शन में तो योग नाम की ऐसी कोई चीज...

नहीं, इसलिए तो वे कहते हैं कि आपके यहां, आपके यहां फिलासफी है ही नहीं। पाश्चात्य दर्शन में योग नाम की कोई चीज नहीं है, क्योंकि पाश्चात्य दर्शन में मिस्टिक्स की बिल्कुल अलग परंपरा है। जैसे इकहार्ट है।

प्रश्नः साक्रेटीज जो डेफिनेशन करता है फिलासफर की कि फिलॉ बुद्धि का नाम है, उससे जो प्यार करे वह फिलासफर है।

हां, हां, तो साक्रेटीज जो है वह बिल्कुल तर्कनिष्ठ दार्शनिक है, वह मिस्टिक नहीं है।

प्रश्नः बुद्धि के लिए फिर वे कहते हैं या... वगैरह सब कहते हैं कि हमारी बुद्धि तो उसके... जैसे मिसाल होती है न, यह बिरोजे की लकड़ी कि वह धुआं भी छोड़ती है और प्रकाश कम देती है। इसलिए मिस्टिसिज्म कि सिवाय और कोई उपाय ही नहीं कि हम ऐसी चीज को खोज सकें।

कुछ ऐसे दार्शनिक हैं जो यह कहेंगे कि कोई मिस्टिसिज्म के उपाय नहीं हैं। लेकिन वह मिस्टिक नहीं है। यह सिर्फ उनकी तर्क से खोजी गई बात है कि तर्क एक जगह असफल हो जाता है। मिस्टिक वह नहीं है। संटायना या कोई भी मिस्टिक नहीं है यह। मिटिस्क का तो मतलब यह है, अगर बहुत ठीक से समझें तो मिस्टिक से ज्यादा इललॉजिकल कोई भी नहीं होता। मिस्टिक का मतलब यह है कि वह कहता है कि तुम्हारी तर्क की व्यवस्था ही भ्रांत है। यह तर्क भ्रांत है ऐसा नहीं; वह तर्क ठीक है ऐसा नहीं; तर्क की व्यवस्था ही भ्रांत है। तुम कहते होः अ अ है ब ब है। मिस्टिक कहता हैः अ ब भी हो सकता है, ब अ भी हो सकता है; और यह भी हो सकता है कि अ अ न हो ब ब न हो। जैसे अरस्तू है, वह कहेगा, ए इ.ज ए एण्ड, ए कैन नॉट बी बी। तर्क की व्यवस्था तो यह है कि अ अ है, अ ब नहीं हो सकता, मिस्टिक का कहना यह है कि जिंदगी इतनी रहस्यपूर्ण है कि यहां अ अ भी है, इसी वक्त ब भी है, अ हो भी सकता है, अ नहीं भी हो सकता, अ ही दोनों हो सकता है। मिस्टिक का कहना यह है कि जहां तोड़ते हैं हम दो में, तर्क सदा दो में तोड़ता है, तर्क चीजों को तोड़ता है दो में, बुद्धि दो में तोड़ती है। बुद्धि बिना तोड़े चर्चा ही नहीं कर सकती, तोड़े बिना विश्लेषण ही नहीं है। तोड़ेंगे तो विश्लेषण है, बुद्धि तोड़ती है, सबको तोड़ती है। कहती है, प्रकाश अलग है, अंधेरा अलग है; ... पूरी बात समझ लें, नहीं तो फिर मुश्किल होता चला जाएगा।
बुद्धि कहती है कि प्रकाश अलग है, अंधेरा अलग है। बुद्धि कहती है, जीवन अलग है, मृत्यु अलग है; बुद्धि कहती है, स्त्री अलग है, पुरुष अलग है। बुद्धि कहती है, यह अलग है, वह अलग है; बुद्धि कहती है, संसार अलग है, परमात्मा अलग है। बुद्धि तोड़े बिना सोच नहीं सकती, अलग किए बिना सोच नहीं सकती, बुद्धि का प्रिज्म जो है चीजों को तोड़ता है। मिस्टिक कहता यह है... मेरी पूरी बात सुन लें, नहीं तो दूसरी बातें शुरू हो जाएंगी। मिस्टिक का कहना यह है, जिसको मैं दार्शनिक कहता हूं...

प्रश्नः मिस्टिक कौन?

मैं मिस्टिक को दार्शनिक कहता हूं। मैं मिस्टिक को दार्शनिक कहता हूं।

प्रश्नः मिस्टिक को आप दार्शनिक कहते हैं।

मैं मिस्टिक को दार्शनिक कहता हूं। वह तो तर्कशास्त्री है, लेकिन वह हिस्सा है फिलासफी का।

प्रश्नः वह साइंटिस्ट है या फिलासफर है?

न फिलासफर है, साइंटिस्ट-वाइंटिस्ट कुछ नहीं है।

प्रश्नः हां, फिलासफर है न, दार्शनिक है वह।

हां, हां, दर्शन का जोर इस बात पर है कि जो हमें विरोध दिखाई पड़ रहा है वह झूठ है। सब विरोधी एक ही चीज के दो छोर हैं। सब विरोध एक ही चीज के दो छोर हैं। प्रकाश अंधेरा ही है, अंधेरा प्रकाश ही है। उसके ही दो छोर हैं। मृत्यु जीवन ही है, जीवन मृत्यु ही है। वे उसके ही दो छोर हैं, दो अलग घटनाएं नहीं, दो अलग चीजें नहीं।
एक मिस्टिक हुआ, बोकोजू, एक मिस्टिक हुआ। उससे किसी ने आकर पूछा, क्या है आपकी साधना? हम क्या साधना करें? तो उसने कहाः साधना करूं, तो दो हो जाएंगे; करने वाला और की जाने वाली। तुम गलत आदमी के पास आ गए, साधना मैं करता नहीं। जो हो रहा है, वही साधना है। भूख लगती है, खाना खा लेता हूं; नींद आती है, सो जाता हूं; सर्दी लगती है धूप में आ जाता हूं, धूप लगती है छाया में चला जाता हूं। तो उस आदमी ने कहाः लेकिन यह तो हम भी करते हैं। उस बोकोजू ने कहाः तुम करते होंगे, यहां हो रहा है। करने में तो दो हो गए फौरन, करने वाला और किया गया। बोकोजू ने कहाः यहां तो हैपनिंग हो रही है, कर नहीं रहा हूं। करने वाला कहां है, हो रहा है, ऐसा होता है, इट हैपंस। सर्दी लगती है और धूप में जाना हो जाता है। धूप लगती है और छाया में आ जाना होता है। उस आदमी ने कहाः बड़ा मुश्किल है, मैं कुछ देर आपके पास रुकूं, कुछ दिनों, समझूं। उसने कहाः समझोगे तो मुश्किल हो जाएगी। उस बोकोजू ने कहा, समझोगे तो मुश्किल हो जाएगी, समझा कि चूके, समझना मत, होने देना।
बुद्धि हर वक्त स्टेंड लेती है, वह कहता है अच्छा हम समझते हैं, और तोड़ देती है तत्काल। किसको समझना है? उसको समझना है। क्या समझना है? दो हिस्से तत्काल तोड़ देती है। सब फिलासफी तोड़ती चली जाती है। विचार तोड़ता चला जाता है, और खंड, और खंड, और खंड करता चला जाता है। दार्शनिक है, वह कह रहा है अखंड है। वह कह रहा है कि वह जो दिखाई पड़ रहा है और यह जो देख रहा है, ये दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। और इसके लिए वह कहता है, कोई तर्क नहीं दिया जा सकता, कोई उपाय नहीं तर्क देने का। तर्क दिया कि टूटा। तर्क दिया कि टूटा। तो फिलासफी तोड़ती है, एनालिसिस उसका मार्ग है। और इसलिए तर्क उसका वाहन है। फिर तर्क अलग एक विज्ञान बन जाता है। वाहन है वह विचार का, वह इंस्ट्रूमेंट, साधन है, उसी के द्वारा वह चलता है। और मिस्टिसिज्म जो है, दर्शन जो है, वह नहीं चलता।
एक बुद्ध के जीवन में घटना है, जहां से मैं समझता हूं हिंदुस्तान के तार्किकों ने और विचारकों ने उस घटना को नोट ही नहीं किया। एक भिक्षु है बुद्ध का, महाकाश्यप। वर्षों से वह भिक्षु हुआ है, लेकिन उसने बुद्ध से कुछ पूछा नहीं। लोग हैरान हैं, क्योंकि बुद्ध के पास आते हो तो पूछो। महाकाश्यप से लोग कहते हैं, पूछते क्यों नहीं? वह हंसता है, चुप रह जाता है। बुद्ध से लोग पूछते हैं, महाकाश्यप पूछता क्यों नहीं? बुद्ध हंसते हैं, चुप रह जाते हैं। बहुत कोई पीछे पड़ा है, तो महाकाश्यप ने कहाः कौन पूछे और किससे पूछे? और पूछा कि फिर उत्तर नहीं मिलने वाला है। बुद्ध के लोग बहुत पीछे पड़े हैं, तो बुद्ध ने कहा, कौन पूछे, किससे पूछे? और पूछा कि फिर उत्तर दिया नहीं जा सकता है। फिर ऐसे वर्ष बीते। और एक दिन सुबह बुद्ध बोलने आए हैं, कोई दस हजार भिक्षु बैठे हैं, बुद्ध के हाथ में एक छोटा सा कमल का फूल है। कभी कोई चीज किसी ने उनको लाते नहीं देखा, शायद रास्ते में किसी ने भेंट किया है, वह ले आए। फिर वे बैठ गए। और पक्षी अपने गीत गा रहे हैं। और बुद्ध फूल लिए फूल की तरफ बैठे हैं और देख रहे हैं। और लोग आतुर हैं कि बोलो। क्योंकि बुद्धि सिर्फ सुना हुआ समझती है, और सुन कर कहीं कुछ समझा गया है? लोग चिंतित हैं कि बोलते क्यों नहीं? वे तो इतनी दूर से सुनने आए हैं बुद्ध को, घड़ी बीती, आधा घड़ी बीत गई है, बुद्ध हैं कि बैठे हैं, बेचैनी शुरू हो गई है। और उन दस हजार लोगों में परेशानी हो गई, क्योंकि बोलते नहीं, क्या हो रहा है, क्या हो क्या गया है बुद्ध को? आज हो क्या गया है? फूल को देखे चले जाते हैं। और महाकाश्यप खिलखिला कर हंसने लगा। वह जो कभी बोला नहीं था, बुद्ध ने उसे पास बुलाया और फूल उसे दे दिया और कहा कि जो मैं बोल सकता था तुमसे बोल दिया और जो मैं नहीं बोल सकता वह महाकाश्यप को देता हूं। जो तुमसे मैंने कहा वह सब विचार है, जो इसे मैं दे रहा हूं वह धर्म है।

प्रश्नः मतलब त्रिपिटक तो...

अभी मतलब मत निकालें जल्दी से।

प्रश्नः त्रिपिटक तो सारे का सारा व्यर्थ है।

बिल्कुल ही व्यर्थ है।

प्रश्नः तो अब...

जल्दी न करें, आपके दिमाग में तकलीफ है, नहीं तो मुश्किल हो जाएगी।
यह जो घटना घटी, यह बुद्ध ने कहा कि जो मैं कह सकता था, तुमसे कह दिया, जो मैं नहीं कह सकता था, महाकाश्यप से कह देता हूं, दे दिया है। तुमसे जो कहा, वह विचार है, इसे जो कहा वह धर्म है। और ध्यान रहे, विचार से कोई कभी कहीं पहुंचता नहीं है। तो किसी ने पूछा कि फिर हमें विचार क्यों दिया, हमें क्यों परेशान कर रहे हो? बुद्ध ने कहाः तुम विचार ही लेने आए हो। जो तुम लेने आए हो, वही दिया जा सकता है। क्योंकि वह अगर दिया जाए, जो तुम लेने नहीं आए, तो तुम तक पहुंचेगा नहीं। उन्होंने कहा कि फिर हमें परेशानी में क्यों डाला हुआ है? फिर हम इस विचार के चक्कर में पड़ेंगे? तो बुद्ध ने कहाः शायद चक्कर से परेशान होकर तुम उस जगह आ जाओ, जहां विचार की मांग बंद हो जाए।
तो मेरा मानना है कि फिलासफी का एक उपयोग है, वह आपको थका दे और उस जगह ले आए जहां विचार व्यर्थ होने लगें, व्यर्थ होने लगें, वहां छोड़ दें, जहां आप यह कहने की हिम्मत जुटा लें कि विचार से कुछ भी न होगा, बुद्धि से कुछ भी न होगा। और यह बात सिर्फ सार्थक है, और इसके बाद जो दुनिया शुरू होती है, वह दर्शन की है, वह मिस्टिसिज्म की है। जहां फिलासफी समाप्त होती है, वहां दर्शन शुरू होता है। और इसलिए बड़ी भूल हो गई, राधाकृष्णन और दास गुप्ता इन सबने ऐसा नुकसान पहुंचाया है, इंडियन फिलासफी, इंडियन फिलासफी नाम देकर जिसका कोई हिसाब नहीं।
अभी एक आदमी ने, और कभी यह हैरानी होती है कि हम कितने जड़बुद्धि हैं कि दर्शन के लिए शब्द भी पश्चिम से दिया गया है। अभी एक आदमी ने हरमन हेस ने शब्द गढ़ा हैः फिलासुआ, फिलोसिया, वह सिया, टू सि से बनाया। उसने कहा कि फिलासफी तो विचार का प्रेम है। फिलोसिया, देखने का तो उसने एक शब्द गढ़ा, यानी हम ऐसे दरिद्र हैं कि दर्शन के लिए हम शब्द नहीं गढ़ सके, वह हेस ने गढ़ा है। लेकिन उसका भी कोई चलन नहीं पकड़ता, कोई चलन नहीं पकड़ता।
तो टू सी से सिया बनाया है, फिलासिया। और देखना और विचारना में बुनियादी फर्क है। इतना बुनियादी फर्क है जिसका कोई हिसाब ही नहीं। न केवल फर्क है, बल्कि विचारना देखने में बाधा है।

प्रश्नः तर्क से दिखता तो है नहीं?

तर्क से कु छ भी नहीं दिखता।

प्रश्नः तो मिस्टिसिज्म से दिखेगा?

मिस्टिसिज्म से दिखेगा।

प्रश्नः तो मिस्टिसिज्म ही दर्शन है?

हां, वही मैं कह रहा हूं।

प्रश्नः और एपिक्स और तर्क फिर क्या किस चीज के साधन होंगे, यह भी फिलासफी के अंतर्गत... ?

हां, हां, ये सब उसके अंतर्गत हैं। असल में फिलासफी बहुत सी चीजों पर सोचती है। विचार बहुत सी चीजों पर होता है। वह नीति पर हो सकता है, वह सौंदर्य शास्त्र पर हो सकता है, वह तर्क पर हो सकता है।

प्रश्नः मरते वक्त--ड़ायलॉग साक्रेटीज का वह भी व्यर्थ, सारे का सारा व्यर्थ? अगर बहुत गौर से देखें, बहुत गौर से देखें... और मरते वक्त भी कहता है, जब उसको जहर पिलाने के लिए... तो कहता, साक्रेटीज कहता कि देखो, तुम इसको लेना, तुम देखो कि मैं मर जाऊंगा, यह होगा। तुम और बात भी पूछ लो, तुमको कोई संदेह न रह जाए। और बुद्ध मैं बन जाऊं, परिनिर्वाण के आसन पर पड़ा होकर। शिष्यो, अब भिझुओं और प्रश्न करो और मैं सुलझा दूं, पीछे संदेह न रह जाए, तो फिर से सब चीजें तो... अस्सी साल बुद्ध का भ्रमण कर-कर लोगों को उपदेश देना और ये...

अगर गौर से समझें, हां, यही तो, यही तो तर्क तोड़ लेता है, यही तो मैं कह रहा हूं। यही तो तर्क तोड़ लेता है। जब समझने चलेंगे ठीक से उस तोड़ने में, उस बोलने में, उस समझाने में, उस प्रश्न के पूछने के आग्रह में, बहुत गहरे में वही बात है, वही बात है कि कब तुम विचार से मुक्त हो? कब तुम प्रश्न से मुक्त हो? कब तुम सुनने से मुक्त हो? लेकिन बहुत बार कीचड़ से कीचड़ भी धुलती है। बहुत बार जहर से जहर भी मरता है। और जिनका मन तर्क से भरा है, वे अतर्क को तो सुन भी नहीं पाते, समझ भी नहीं पाते। तर्क से ही तर्क कटता है। और हम उस दिशा की खोज में हैं, लेकिन हम कोई नया तर्क स्थापित नहीं करना चाहते हैं। तर्क से तर्क टूट जाए और हम वैक्यूम छोड़ दें वहां कि जहां अब तर्क के आगे गति हो।
एक पैर में कांटा लग गया है, दूसरा कांटा ले आए हैं कांटा निकालने को। आप कहेंगे, बड़े पागल हैं, एक कांटा पहले से लगा है और दूसरा कांटा भी ला रहे हैं? एक कांटे से तो हम परेशान हैं। उस कांटे से हम पहले कांटे को निकाल लिए हैं, अब आप कहते हैं कि दूसरा कांटा बड़ा मंगलदायी है, बड़ा कल्याणदायी है। अब इस कांटे को हम उस घाव में रख लें, क्योंकि इसने बड़ी कृपा की है। हम कहेंगे, फिर आप पागल हैं, फिर निकालना बेकार हो गया। कांटें, दोनों ही कांटें हैं, एक से कांटें हैं। और एक निकल गया अब दूसरे को भी उसी के साथ फेंक देना है।

प्रश्नः एक का हम इच्छा से उपयोग कर रहे हैं, फर्क करके और इन बातों को सोचिए। एक चीज अनिच्छा से जहां आप नहीं चाहते थे वहां घुस गई है और दूसरी चीज को आप अपनी इच्छा से और अपनी शक्ति से उसको निकालने के लिए उसका उपयोग कर रहे हैं, तो दोनों एक हैं क्या वे?

जहां हम, जहां हम कहते हैं, अनिच्छा से घुस गई है, वहां भी कारण कुल इतना है, एक फूल लगा था, आप फूल को तोड़ने चले गए थे, इच्छा से, लेकिन फूल में कांटें थे, चुभ गए। आपकी इच्छा से ही चुभे हैं। आपको ज्ञात नहीं था। हां, आपकी इच्छा फूल की थी, आपकी इच्छा फूल की थी, फूल के साथ कांटे हैं, तो चुभ गए हैं। हम तो सब इच्छा, दुख की कोई करता ही नहीं, सुख की इच्छा करता है, और दुख साथ खड़ा है, वह चुभ जाता है। फिर उसे निकालने की कोशिश करनी पड़ती है। यह जो बुद्ध का दौड़ना, साक्रेटीज का मरते वक्त तक समझाना, अगर इतना समझेंगे आप कि साक्रेटीज जो समझा रहा है, वही समझा रहा है, तो बेकार हो गया बेचारा। बिल्कुल बेकार हो गया। साक्रेटीज पूरे वक्त कोशिश कर रहा है कि तुम्हारी समझ का जो तल है, वह तल छेद-भेद कर दे वह, और साक्रेटीज ने सच में कभी भी कुछ उत्तर नहीं दिया है, वह प्रश्न ही प्रश्न करता चला गया है।
आप एक प्रश्न उठाए हैं, उसने दस प्रश्न उठा दिए हैं और आपको छेद डाला है। बुद्ध को भी अगर हम गौर से देखें, तो बुद्ध उत्तर नहीं दे रहे हैं, उत्तर से बचने की कोशिश है। और अगर उत्तर भी देते हैं, एक घटना से मैं समझाऊं। एक दिन सुबह बुद्ध एक गांव में आ गए। आनंद साथ है उनके। और राह के किनारे ही एक आदमी आकर उन्हें मिला है और कहा है कि मैं नास्तिक हूं, ईश्वर नहीं मानता। आप क्या कहते हैं? बुद्ध ने कहाः ईश्वर नहीं मानते! ईश्वर है, ईश्वर ही है और कुछ भी नहीं है। वह नास्तिक आया था कि मेरी स्वीकृति बन जाएगी, बुद्ध भी हां कह देंगे, सुना था कि बुद्ध भी ईश्वर नहीं मानते हैं। बुद्ध आगे बढ़ गए और वह आदमी विचार में मग्न वहीं झाड़ के नीचे खड़ा रह गया कि क्या हुआ? आनंद बड़ा बेचैन हो गया है। बुद्ध ने तो कई बार कहा कि ईश्वर नहीं है। दोपहर को एक और आदमी आया मिलने और उसने पूछा कि मैं एक आस्तिक हूं, ईश्वर को मानता हूं, आप क्या कहते हैं? बुद्ध ने कहाः ईश्वर! ईश्वर है ही नहीं, किसने कहा तुमसे? ईश्वर है ही नहीं। खोजो, खोजो कहीं भी नहीं है, सब जगह खोज कर कहता हूं, पाया ही नहीं उसको, सरासर झूठ है। वह आदमी आया था बुद्ध के पास एक ज्ञानी, एक महात्मा मान कर कि स्वीकृति दे देगा कि ईश्वर है, तो हम भी राहत पा लेंगे। आनंद और मुश्किल में पड़ गया। सोचा, रात जब फुरसत मिलेगी पूछूंगा।
सांझ एक आदमी और आया और उसने कहाः न मैं आस्तिक हूं, न नास्तिक, मुझे कुछ पता ही नहीं चलता है कि है या नहीं, मेरा कोई विश्वास ही नहीं है, अविश्वास भी नहीं है, मैं चौरस्ते पर खड़ा हूं, मैं क्या मानू, क्या न मानूं? बुद्ध ने कहा कि तू मान ही मत, और न मान। तू जहां खड़ा है वहीं चुपचाप खड़ा रह, और पूछ भी मत।
रात आनंद ने जैसे ही लोग विदा हुए पैर पकड़ लिए, कहा कि मुझे मुश्किल में डाल दिया। ये तीन उत्तर एक ही दिन में? एक ही आदमी ने? उनको तो कठिनाई न हुई होगी, उन्होंने एक-एक सुने, मैं मर गया। मैं दिन भर से पेरशान हूं कि मतलब क्या है? बुद्ध ने कहाः तुझे मैंने कोई भी उत्तर न दिया था। तूने सुना क्यों? जिसे दिया था उसकी बात थी। उसने कहाः क्या मैं बहरा हूं? मुझे सुनाई पड़ गया है। और न भी सुनता तो क्या फर्क पड़ जाता, आपके तीन उत्तर हैं। इनमें संगति कहां है? बुद्ध ने कहाः उत्तर सब व्यर्थ हैं। संगति इसमें है कि मैं तीनों को परेशान कर आया हूं। और तीनों को हिला आया हूं। संगति इसमें है कि मैंने, तीनों जहां खड़े थे, वहां से धक्का दे दिया है। और मैं इतना ही कर रहा हूं, धक्का देता चला जा रहा हूं, धक्का देता चला जा रहा हूं। एक जगह आएगी कि अंतिम धक्का उन्हें विचार और तर्क और पूछने और सोचने के बाहर ले जाएगा।
एक अभिजात गुरजिएफ हुआ। सुबह उसकी बात होती भी। कैनेथ वाकर एक बड़ा सर्जन हुआ लंदन का। कैनेथ वाकर ने एक किताब लिखी गुरजिएफ पर। डेडिकेशन जो किया है उसे। पूछा किसी ने उसको कि कैनेथ वाकर ने किताब लिखी, देखी? लिखा है कि मेरी नींद गड़बड़ कर देने वाले गुरजिएफ। गुरजिएफ खूब हंसा, उसने कहाः ठीक लिखा है, सिवाय इसके आज तक समझदारों ने क्या किया है। और नींद आप सुखद सो रहे हैं या दुखद, यह सवाल नहीं है; सपना आप बहुत अच्छा देख रहे हैं स्वर्णिम या रद्दी, यह सवाल नहीं है; स्वर्ग का देख रहे हैं या नरक का, यह सवाल नहीं है। सवाल तोड़ देने का है।
मेरी अपनी समझ है कि सुकरात या बुद्ध जैसे लोग तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इनकी समझ गहरी है इस बात की कि कैसे तोड़ा जा सकता है? वे कहीं भी आपको टिकने नहीं देते, आप टिकने को होते हो और वे धक्का मार देते हैं। नया प्रश्न दे देते हैं, उखाड़ देते हैं। और धक्का दिए चले जाते हैं, एक घड़ी आती है कि आपको दिखाई पड़ने लगता है कि मन सोच-विचार में कोई शरण पा ही नहीं सकता है। तो अविचार में गति होने की शुरुआत होती है।

प्रश्नः... यह जो है सब-कुछ जितना वाड्मय है और फिलासफी कहती है या आचार शास्त्र कहते हैं, एथिक्स कहते हैं या लॉजिक कहती है, मगर साइंस को छोड़ कर साइंटिस्ट आदमी को आप कहते हैं न व तो प्रतीक्षा थी एक जगह कहते हैं, संभव है... दूसरे... बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद, आपने त्रिपिटक पढ़ा होगा तो वे कहते हैं कि ये तत्व मुझे ही मिला और किसी को मिला नहीं और मैं किसी को नहीं बताऊं।

यह बड़ा ठीक कहते हैं, यह मान नहीं है। यह मान नहीं है। बिल्कुल ऐसा है लेकिन यह मान नहीं है और बड़ा ठीक कहते हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

यह बात बि.ढ़या उठा दी है। बुद्ध ने यह कहा है कि जो मुझे मिला मुझे ही मिला है और किसी को नहीं मिला है। यह बड़ी अदभुत बात है। बड़ी अदभुत बात है।

प्रश्नः और इंद्र का सिंहासन हिल जाता है... हाथ जोड़ कर खड़ा होता है... तुम्हारा ऐसा भगवान ने ऐसा तत्व प्राप्त किया है इस पर तो उपदेश दीजिए तब वे चलते हैं बनास की तरह धर्म चक्कर चलाते हैं जो हमारे रास्ते के... जिसका प्रतीक बना कर हम ये...
यह बड़ी वितर्क है, न वे चलाते हैं, न पता कम होता है।

यह बुद्ध का कहना बड़ा अदभुत है। और इसमें जरा भी मान और अहंकार नहीं है। असल बात यह है कि वह तत्व ऐसा है, जब भी किसी को मिलता है तो उसे ऐसा ही लगता है कि मुझे ही मिला है। यह उसके मिलने के साथ हुई अनुभूति है। जब भी वह किसी को मिलता है तो वह हर बार ओरिजिनल है, क्योंकि उधार वह मिलता नहीं।
बच्चन जी को मिल जाए, तो वे मुझे दे सकते नहीं। तो मुझे किसी से कभी मिलता नहीं। जब मिलता है मुझ ही को मिलता है। और स्वभावतः वह किसी को किसी दूसरे से हस्तांतरित नहीं हुआ है। तो जिसको भी मिलता है उसका पहला इंपेक्ट, उसका पहला जो संपर्क उसकी छाती पर पड़ता है, वह यही है कि मुझे मिला है, पहली बार मिला है, बिल्कुल नया मिला है। यह जो भाव उसके मन में उठता है, यह उस अनुभूति की जो सतत मौलिकता है, परमात्मा कहें, मोक्ष कहें, आत्मा कहें, उसकी जो सतत ताजगी है, वह कभी बासी नहीं पड़ती, उसका जो पहला आघात है, वह यही है कि मुझे ही मिला है। ये उस आघात में निकले हुए शब्द हैं, अविनम्र नहीं हैं। और जब भी किसी दूसरे को मिलेगा, तब भी वह यही कहेगा।
एक बौद्ध भिक्षु ने, बोधिधर्म ने, कोई बुद्ध के हजार साल बाद हुआ है, उसने फिर यह कहा है कि मुझे ही मिला है, मैं ही जाना हूं। किसी को नहीं मिला। तो किसी ने पूछा कि बुद्ध को? किसी ने पूछा कि बुद्ध को? किसी को नहीं मिला। क्योंकि बुद्ध वगैरह कोई हुए ही नहीं, मैं ही हूं। उसने जो बात कही है, उसने कहा कि मैं ही हूं। इस अनुभव में बुद्ध वगैरह हुए ही नहीं, सब कहानियां हैं। जब मैंने जाना है तो मैं ही हूं।
वह जो इंपेक्ट है उस अनुभव का, वह जो आघात है, वह आघात कुछ गुण रखता है। पहला गुणः वह निरंतर मौलिक है। यानी इस वजह से वह अमौलिक नहीं होता कि कुछ और लोगों ने कहा है कि हमको मिला है।
बच्चन जी ने प्रेम किया है, इन्होंने प्रेम किया है, आपने प्रेम किया है, लेकिन जब मैं प्रेम करूंगा, तो मैं ही कर रहा हूं इस पृथ्वी पर पहली दफा, क्योंकि आपके प्रेम से मेरे प्रेम की कोई ट्रेडीशन नहीं है, कोई संबंध नहीं है। आपने किया हो, किया होगा, मुझे मतलब भी नहीं, सवाल भी नहीं है। और आपका प्रेम कोई रास्ता भी नहीं है कि मैं जानूं, मेरे ऊपर जो प्रेम उतरेगा तो मुझे ही मिला है। वह मैंने ही जाना है। वह सभी प्रेमियों का अनुभव यही होगा। लेकिन प्रेम की सीमाएं हैं और उस परमात्मा की तो कोई भी सीमा नहीं। और उसकी जो घटना घटेगी, वह ऐसी ही घटेगी कि वह आदमी चिल्ला कर कहेगा, बस मुझे मिला है, बस मुझे मिला है। लेकिन इस चिल्लाने में वह असल में इनकार नहीं कर रहा कि किसी को नहीं मिला, वह सिर्फ यही कह रहा है कि अनुभूति बिल्कुल ताजी और नई है। बासी जरा भी नहीं है।
उसका ही एक शिष्य जो रोज बुद्ध की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ता है, वह कहता है, फिर किसी ने पूछा, यह हाथ किसलिए जोड़ते हो? जब बुद्ध हुए ही नहीं, तो हाथ किस लिए जोड़ते हो? बोधिधर्म बहुत अदभुत था, उसने कहा कि बुद्ध तो नहीं हुए, अब मैं तुमसे कहता हूं कि हाथ जोड़ने वाला भी मैं ही हूं। पर हमारे सामने तो सवाल खड़ा ही रह जाता है। और हम तो देख रहे हैं कि मूर्ति रखे हो हाथ जोड़ रहे हो। इस तल पर भी खेल।
एक दूसरा फकीर था, तनका। मैं उसकी कहानी कह कर बहुत झगड़े में पड़ा। वह एक मंदिर में ठहरा हुआ है, रात सर्द है, लकड़ी की मूर्तियां हैं, बुद्ध की एक मूर्ति उठा कर आग जला ली है, ताप रहा है। पुजारी उठे हैं, घबड़ा गए हैं कि यह क्या कर रहे हो? पागल हो गए हो? भगवान को जला डाला? उसने कहाः भगवान? बड़ी भूल हो गई। पहले क्यों न कहा? लकड़ी उठा कर उस राख को कुरेदा है। उसने कहाः क्या करते हो अब? क्या खोजते हो? उसने कहाः भगवान की अस्थियां खोजता हूं। तो वे सब हंसने लगे, उन्होंने कहा, तुम निपट पागल हो, लकड़ी की मूर्ति में कहां अस्थियां? उसने कहाः रात बहुत सर्द है, भीतर बैठा भगवान बहुत तकलीफ पाता, दो मूर्तियां और बची हैं, वे और उठा लाओ। और यही आदमी सुबह, यही आदमी सुबह मंदिर से निकाल दिया गया धक्के मार कर। और बाहर जो मील का पत्थर लगा है, उस पर दो फूल चढ़ा कर हाथ जोड़े बैठा है। यही आदमी। तो पुजारियों ने घेर लिया और कहाः पागल हो गए हो? रात भगवान की मूर्ति जला दी और अब पत्थर के सामने हाथ जोड़ कर बैठे हो। तो वह कहने लगाः रात कहना चाहता था कि इस खयाल में मत रहना कि मूर्ति ही पत्थर है, और अब यह कहना चाहता हूं कि इस खयाल में मत रहना कि ऐसी कोई भी जगह है जहां भगवान नहीं है? रात यह कहना चाहता था कि इसी खयाल में मत रहना कि मूर्ति में ही भगवान है, और अब यह कहना चाहता हूं कि ऐसी कोई जगह नहीं जहां भगवान न हो, इस खयाल में मत रहना। तो मिस्टिक का जो वि.जन है दर्शन का, वह एक अर्थ में पैराडाक्सिकल है, विरोधों को, सबको समाहित किए हुए है। अगर मूर्ति को जला देता है, तो उधर पत्थर को नमस्कार कर लेता है। और यह एक ही आदमी है। और इसका वि.जन यह कह रहा है कि दोनों बातें सच हैं। एक ही साथ सच हैं। और जीवन के सारे विरोध जहां सहयोगी और मित्र हो गए हैं, साथ खड़े हो गए हैं, वहां तो दर्शन है, और जहां हमने सब चीजें तोड़ कर खंड-खंड बांट दी हैं, विश्लेषण कर लिया है, वहां फिलासफी है। और फिलासफी दर्शन नहीं है। बिल्कुल दर्शन नहीं है।

प्रश्नः सुकरात का एक शिष्य जो था कहीं वह उसके पास से भागा... क्यों भागे? उसने कहा, अगर मैं भागता नहीं तो सुकरात की बात जिंदगी भर...

यह बात बिल्कुल ठीक है। भागना चाहिए। वक्त है, जब आता है, भागना चाहिए। गुरु से न भागे तो मरे, फंसे, फिर बहुत दिक्कत...
बच्चन जी बीच से भागने का विचार करते हैं।
तुम्हारी बात कर लें, हूं, बोलो, कुछ भी बोलो, जो तुम्हें पूछना है पूछो। डाक्टर तुम शुरू कर दो भई। क्या मामला है, वह शुरू करो।

प्रश्नः मामला तो आचार्य जी यह है कि कुछ छात्र-छात्राएं हैं, जो गांधी स्वाध्याय मंदिर के सदस्य हैं और आज हम लोग शांति-दिवस मना रहे हैं... इस दिन हिरोशिमा पर पहली बार एटम बम गिरा था और उस दिन जो विध्वंस हुआ। उसके उपलक्ष में... आयोजन जगह-जगह... । इसी संबंध में हम आपके पास आए हैं। तो आप जैसा उचित समझें, अगर आप चाहें प्रश्न उत्तर के रूप में विद्यार्थियों से...

अच्छा यही होगा। पूछो।
करेंगे न, करेंगे। बिल्कुल कुछ भी पूछ सकते हो। हां, कुछ भी पूछ सकते हो। बिल्कुल ही, हिरोशिमा से ही बात शुरू करो।

प्रश्नः सबसे बड़ा तो आचार्य जी हम लोगों के सामने जो एक सीधा-सीधा प्रश्न आता है, वह यह है कि जो विद्यार्थी या नवयुवक या प्राध्यापक हैं, वे लोग अपनी जगह पर रहते हुए क्या कुछ कर सकते हैं अपने लिए और समाज के लिए, जिससे शांति व्यवस्था बनाए रखने में सहायता हो? या जो अशांति है उसे दूर करने में सहायता हो? कौनसी ऐसी मोटी-मोटी चीजें हैं जो हम लोग अपना सकते हैं?

पहली बात तो यह है कि अब तक जो संस्कृति हमने विकसित की है, वह अशांत होने को मजबूर है अनिवार्यतः। जो सभ्यता, समाज जो हमने बनाया है, वह रुग्ण है, न्यरोटिक है। तो इस सभ्यता और इस संस्कृति के रहते हुए शांति के लिए कुछ भी नहीं कर सकते हैं। एक ही काम कर सकते हैं कि इस संस्कृति और सभ्यता की जड़ें काटें। पहला काम। इसको समझा दूं मैं कि मेरा क्या मतलब है। इधर पांच-छह हजार वर्षों में सारी दुनिया में हमने जो ढांचा चुना है आदमी के लिए, वह ढांचा ऐसा है कि हर आदमी को जाने-अनजाने भीतर से विक्षिप्त कर जाता है। उसे पागल कर जाता है। यानी पागल ऐसे नहीं है कि कुछ लोग पागल हैं और बाकी लोग ठीक हैं। मामला ऐसा है, सब लोग पागल हैं, कमोबेशी है, थोड़ा मात्रा का फर्क है। और कोई भी आदमी किसी भी क्षण पागल हो सकता है। कगार पर हर आदमी खड़ा हुआ है। और अगर एक-एक व्यक्ति पागल न हो, तो समूह तो पागल दस-प्रंद्रह वर्षों में होते ही रहते हैं, उनका नाम युद्ध है। युद्ध का और कोई मतलब नहीं है। वह सामूहिक पागलपन है, कलेक्टिव मैडनेस है, जो फूट पड़ती है। और हर पंद्रह साल में इतना पागलपन इकट्ठा हो जाता है भीतर इधर कि उसको कहीं फूटने की जरूरत पड़ जाती है। बहाना कोई भी हो, खूंटी कोई भी हो, जिस पर हम टांग देते हैं। फिर शांति की बातें करने और विचार करने वाले लोग इस बुनियादी बात पर नहीं सोचते कि यह अशांति बार-बार इस संस्कृति में पैदा क्यों होती है? यह आदमी ने जो बनाया इसमें कुछ बुनियादी भूल तो नहीं है? वह इस संस्कृति को तो ठीक ही मान कर चलते हैं, सोचते ऐसा हैं कि कुछ आदमी गड़बड़ है। तो वह अशांति पैदा करवा जाता है। तो इस आदमी को सुधारने के लिए क्या करें? वे जोर देते हैं कि आदमी को सुधारने के लिए क्या करें? लड़कों को स्कूल में प्रार्थना करवाएं, पूजा करवाएं, पाठ करवाएं, गीता पढ़वाएं, कुरान पढ़वाएं, नीति की शिक्षा सिखाएं, गुरुओं और पिता का आदर सिखाएं, अनुशासन सिखाएं तो सब ठीक हो जाएगा। और मजा यह है कि ये सारी चीजें हजारों वर्ष से सिखाई जा रही हैं और कभी कुछ ठीक नहीं हुआ है। बल्कि और गहरी बात यह है कि इनका सिखाना भी उपद्रव का एक कारण है।
संस्कृति जो हमने चुनी है अब तक उसमें कहीं कुछ बुनियादी बातें हैं जो अशांति पैदा करवाती हैं। अब जैसे, विस्तार तो बहुत होगा, लेकिन थोड़े में हम समझें कि कुछ मुद्दे हम समझ लें। जैसे आज तक की पूरी संस्कृति सप्रेशन की है, दमन की है। अगर एक अच्छी दुनिया बनानी है तो बच्चों को दमन मत सिखाना। नहीं तो युद्ध जारी रहेंगे, लड़ाई जारी रहेगी, संघर्ष जारी रहेगा। वह जितना भीतर दमन होता है उतना आदमी क्रोध से भर जाता है। जितना भीतर दमन होता है उतना आदमी दुख, पीड़ा और बेचैनी से भर जाता है, उतनी ही चिंता से भर जाता है। जितना दमन होता है उतना विस्फोट की तलाश शुरू हो जाती है। फिर वह पत्नी से लड़ता है, बच्चों से लड़ता है, दुकानदारी में लड़ता है, दफ्तर में लड़ता है, सब तरफ लड़ाई शुरू हो जाती है। हर आदमी लड़ता रहता है। और इस लड़ने के द्वारा निकास होता है उसका। इस लड़ने के द्वारा निकास होता है।
जुंग ने एक उल्लेख किया है। एक आदमी है बच्चन जी, उसका दिमाग खराब हो गया, वह जिस दफ्तर में काम करता है उस दफ्तर के मालिक से उसके मन में निरंतर-निरंतर परेशानी होती चली गई। मालिक उससे अपशब्द बोलता है, कभी गलत बोलता है, नहीं तो उसका गेस्चर गलत होता है। और वह दबा जाता है क्योंकि वह मन में सोचता है कि कुछ बोला कि नौकरी गई। ऊपर मुस्कुराता रहता है और भीतर मन होता है कि निकालूं जूता और लगा दूं। ऊपर मुस्कुरा रहा है, भीतर जूता उठा रहा है। यह हालत यहां तक बढ़ गई कि आखिर में उसे शक होने लगा कि मैं किसी दिन जूता निकाल कर मार दूंगा। कोई दिन चूक जाएगा और नहीं सामर्थ्य रही, तो उसने, घर जूते छोड़ कर आने लगा। और जब जूते छोड़ कर घर आया है, तो दफ्तर के लोगों ने, क्योंकि यहां तो कोई जूते छोड़ कर आए चल जाए, जूते क्यों नहीं पहने हुए हो, तो वह तो सेंसेटिव हो गया जूते के मामले को लेकर, वह कह रहा है तुम्हें क्या मतलब? किसी को क्या मतलब है? हम पहने या न पहने, हमारी मर्जी है। तो लोगों को और शक होता है, इसका दिमाग तो खराब नहीं हो गया? यह जूते भी नहीं पहने हुए और इतने जोर से बोलता है। और जो भी देखता है वह उसके जूते पर नजर डालता है। तो वह इतना कांशस हो गया, किसी ने जूता देखा कि वह झगड़े को खड़ा हो जाता है। घर के लोगों ने कहा कि यह तो मामला बहुत बढ़ गया। फिर उसको यह भी डर हो गया कि अगर जूता न मिले, तो उसको दूसरी चीजों का खयाल आने लगा कि उठा कर रूल ही मार दो, किताब ही फेंक दो। तब उसने घर कहा कि मुश्किल हो गई, मैं बड़ी तकलीफ में पड़ गया हूं, मैं क्या करूं?
उसको मनोवैज्ञानिक के पास ले गए। उस मनोवैज्ञानिक ने कहाः तुम कुछ मत करो, तुम अपने मालिक की एक फोटो घर ले आओ और धार्मिक रूप से सुबह पांच जूते, शाम पांच जूते मारो। बिल्कुल रिलिजियसली। इस निष्ठायुक्त कार्य में जरा भी भूल-चूक नहीं होनी चाहिए। सुबह दफ्तर जाओ, पहले पांच जूते मारो, फिर दफ्तर जाओ। यह बात सुनते ही उसे बड़ी हंसी आई, उसने कहाः क्या पागलपन की बातें कर रहे हैं? लेकिन बड़ा हलका मालूम पड़ा वह एकदम से। आधा तनाव जैसे उतर गया। हालांकि उसने कहा कि जंचता नहीं कुछ, लेकिन फिर भी आप कहते हैं, तो मैं करूंगा। लेकिन वह खुश नजर मालूम हुआ।
फिर उसने फोटो लाकर रख लिए, सुबह उसने पांच जूते मारे, और पांच जूते मारते से ही उसके भीतर से बादल फट गया। वह दफ्तर गया है, आज उसकी बात ही और है। आज दफ्तर में जाकर उसे मालिक पर दया आई, पहली दफा। क्योंकि पांच जूते, बेचारे को पता भी नहीं है। पांच जूते खा गया और बैठा है शान से, लेकिन पांच जूते खा गया। आज बड़े हलके मन से उसने उसको देखा, और जब हलके मन से देखा उसने उसे तो उसकी बातें उसे इतनी बुरी नहीं लगीं जैसा कल तक लगी थीं। पंद्रह दिन यह चलता रहा। और वह हलका हो गया, और भीतर का दमन चला गया। उसी दमन के पर्दे से वह मालिक उसे बहुत भयंकर दिखाई पड़ता था। वह अब बिल्कुल एक सामान्य आदमी दिखाई पड़ने लगा था। और अत्यंत दया का भाव, उसके प्रति सहानुभूति भी है। अब वह कुछ कहता है, तो और जल्दी काम कर देता है। उसके पास जाता है, मालिक भी खुश है उसके इस व्यवहार से। और पंद्रह दिन बाद मालिक उससे पूछता है, तुमने क्या इलाज किया है? तुम बिल्कुल ठीक हो गए हो। उसने कहाः यह आप मत पूछिए, नहीं तो सब गड़बड़ हो सकती है। मैं ठीक भी हो गया हूं, इलाज भी हो गया है।
यह मेरा खयाल है कि हमने आदमी को बहुत मुद्दे की चीजों पर सब तरफ से दमन करवाया है। सब तरफ से, कहीं से कोई निकास नहीं। कहीं से कोई निकास नहीं है। और हर बुरी चीज का दमन करवाया है। क्योंकि बुरी चीज से हम डरे हुए हैं, अच्छी चीज का दमन का सवाल नहीं। अगर अच्छी चीज का दमन हो, तो इतना खतरा भी नहीं है, क्योंकि जब निकलेगी तो अच्छी होगी। और बुरी चीज का दमन है--क्रोध का दमन है, घृणा का दमन है, सेक्स का दमन है। सबका दमन है। सबको बिल्कुल दबा कर हमने रख दिया है। वह आदमी के भीतर आग की तरह जल रहा है। बहाना चाहिए, हिंदू-मुस्लिम का दंगा हुआ और सेक्स के फूटने की क्या जरूरत है दंगे में? औरतों को नंगा करने का कहां सवाल उठता है हिंदू-मुस्लिम का दंगा हो तो? लेकिन जो हमने दबाया हुआ है वह रास्ता खोज रहा है पूरे वक्त।
तो अशांति जो है उसका रास्ता खोजने का, जैसे कि केतली में भाप भर दी है और सब तरफ से ढक्कन लगा दिए हैं, मुंह बंद कर दिया है, अब आप पूछने आते हैं कि इस केतली को शांत करने का क्या उपाय है? नीचे आग जलाए चले जा रहे हैं, इधर केतली के सब मुंह बंद कर दिए हैं, पूछते हैं, केतली को शांत करना है, केतली शांत कैसे होगी? अब विस्फोट आगे नहीं होना चाहिए, हिरोशिमा में हो गया, बहुत हो गया। अब नहीं हम बरदाश्त करेंगे। बहुत मुश्किल हो जाएगा। लेकिन जो हिरोशिमा में हुआ वह दिल्ली में होगा। होगा इसलिए कि हिरोशिमा के पहले जो दुनिया में आदमी के मन में हो रहा था वह वैसा का वैसा होता चला जा रहा है। उसकी का.जेलिटी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। हिरोशिमा से कोई समझ नहीं आई। शांति दिवस मनाने से क्या होगा? शांति दिवस पहले भी लोग मनाते रहे थे। शांति दिवस से क्या संबंध है? हिरोशिमा जिन कारणों से हो गया वे कारण आदमी के भीतर वहीं के वहीं रखे हैं। शांति दिवस मनाओ, मना लो, उससे कोई अंतर नहीं होता है।
मेरा कहना है कि आने वाली पीढ़ी को, बच्चों को दमित, सप्रेस माइंड से मुक्त करने की कोशिश करें। जीवन का सहज स्वीकार सिखाएं। और ध्यान रहे, जो आदमी जीवन को जितनी सहजता से स्वीकार करता है उतना ही कम वायलेंट हो जाता है। और जो आदमी जीवन को जितनी सख्ती से इनकार करता है उतना ही वायलेंट हो जाता है। वायलेंस जो है वह पैदा होती है अस्वीकार से, इनकार से। ‘नो’ हर जगह खड़ा कर दें तो वायलेंस पैदा होती है। इस सारी दुनिया में जो वायलेंस दिखाई पड़ रही है वह सब तरफ आदमी के दिमाग पर ‘नो’ लिख देने से पैदा हो गई है। तो आदमी के दिमाग से ‘नो’ अलग करें और ‘यस’ लिखें।
‘हां’ का एक भाव जीवन की सब चीजों के प्रति, जिनको हम बुरा कहते रहे उनके प्रति भी, क्योंकि उनको भी हम जितना स्वीकार करेंगे, समझेंगे, पहचानेंगे, उतना उनको भी गतिमान और दिशा और मार्ग देने की संभावना बढ़ती है। मेरे देखे सारे युद्ध मूलतः मनोवैज्ञानिक हैं। कोई युद्ध राजनैतिक नहीं है। क्योंकि राजनीति ही खुद राजनैतिक नहीं है, वह भी बुनियाद में मनोविज्ञान है। वह भी बहुत भीतर से साइकोलॉजिकल है। सारा मामला और जितना राजनैतिक दौड़ रहा है, दौड़ रहा है; दिखाई पड़ता है कि दौड़ रहा है, उसे राष्ट्रपति होना है, उसे यह होना है, वह किसी न किसी तरह इनफिरिअरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित है, कहीं न कहीं कोई हीन भाव उसको सता रहा है। वह उसको कंपनसेट कर रहा है। हीन भाव को मिटाना है। और हीन भाव कैसे बताए वह कि मैं हीन नहीं हूं? वह किसी बड़ी कुर्सी पर खड़ा हो जाएगा, वह बड़े पद पर खड़ा हो जाएगा और चिल्ला कर दुनिया को दिखा देगा, देख लो गलती में थे तुम, हालांकि किसी को फिकर नहीं थी उसके हीन भाव की, उसको ही फिकर थी, लेकिन अपने को भी समझा लेगा कि मैं भी गलती में था, बात गलत थी। आखिर में आदमी इस कीमत का हूं, यह देखो, यह खड़ा हो गया।
राजनीति भी मूलतः मनोवैज्ञानिक है। युद्ध भी मनोवैज्ञानिक हैं। हमारी अशांति मनोवैज्ञानिक है। और हमारी शांति की जो खोज है, वह इस सारी अशांति से पैदा होती है। शांति इसलिए खोज नहीं बननी चाहिए। अशांति क्यों हैं उसके कारण समझ लें, और उन कारणों को अलग करना। अशांति न हो तो आप शांत होंगे। शांति जो है वह नैसर्गिक अवस्था है। शांति पानी नहीं है, शांति नैसर्गिक अवस्था है। अशांति पाई जाती है, अशांति अनैसर्गिक अवस्था है। अशांति हम अर्जित करते हैं, तो अशांति के कारण हमें तोड़ देने चाहिए।
अब कोई साल भर हुआ, डेढ़ साल हुआ, एक मित्र मेरे पास आए और मुझसे बोले कि मुझे शांति चाहिए। ऋषिकेश हो आया, अरविंद आश्रम गया, रमन आश्रम गया, कहीं शांति नहीं मिली। सब धोखा है। किसी ने मुझे आपका नाम लिया, यहां मैं आया हूं। मैंने कहाः आप अभी पहले ही चले जाएं, नहीं तो मैं भी धोखा सिद्ध होने वाला हूं। उन्होंने कहाः क्यों? मैंने कहाः आप अशांति सीखने किसके पास गए थे? अरविंद आश्रम गए थे, रमन आश्रम गए थे, कहां गए थे? अशांति सीखने कहीं भी नहीं गए थे। तो यह और अशांति बढ़ाएगी। एक अशांत आदमी माला जप रहा है, यह माला जपना और न्यूरोटिक करेगा उसे, क्योंकि वह है तो अशांत, अशांत कुछ भी करे, तो अशांति मिटेगी नहीं बढ़ेगी।
सवाल शांति को पाने का नहीं है, सवाल अशांति को देखने का है कि मैं कैसे अशांति पैदा करता हूं? हिरोशिमा कैसे पैदा हो जाता है? हिंदुस्तान-पाकिस्तान कैसे पैदा हो जाते हैं? महाराष्ट्र में असुर कैसे पैदा हो जाते हैं? ब्राह्मण-शूद्र कैसे पैदा हो जाते हैं? गरीब-अमीर कैसे पैदा हो जाता है? उसे भीतर देखना है हमें। और वह देखने के लिए मेरी जो समझ है, दमन एक बुनियादी कारण रहा आदमी को अशांत करने का, एक। दूसरी बात, अब तक हमने आदमी को सुख की जगह दुख को वरन करने की शिक्षा दी है। सब आदमियों को हम यह सिखाते हैं कि दुख को वरन करना बड़ी कीमती बात है। अगर मैं नंगा खड़ा हो जाऊं तो ज्यादा कीमती आदमी हूं। एक दफा खाना खाऊं और ज्यादा कीमती आदमी हूं। कांटों पर लेट जाऊं और ज्यादा कीमती आदमी हूं। दुख को वरन करना, स्वेच्छा से स्वीकार करना बड़ी ऊंची बात है। लेकिन ध्यान रहे, जो आदमी भी दुख को वरन करने की आदत बनाएगा, वह जाने-अनजाने दूसरे के दुख के प्रति पहले से इनसेंसिटिव हो जाएगा। इसलिए हिंदुस्तान के संन्यासी और साधु हिंदुस्तान के दुख और दारिद्रय और दीनता के प्रति बिल्कुल ही बेपरवाह रहे। उसका कारण है कि वे तो दुखों को ही वरन किए हुए बैठे हैं, तो आप गरीब हो तो कोई बड़ी बात है, आपसे ज्यादा गरीब तो वे अपने हाथ से हैं। अगर आपको खटिया मिलती है सोने को तो मजे से सोओ, हम तो कांटों पर सो रहे हैं। हम तो कांटा बिछाए हुए है, तुम हो क्या? तुम्हारी गरीबी तो बड़ी अमीरी है, तुम तो बड़े सुख भोग रहे हो, तुम झोपड़े में हो। और हर्जा क्या है? और हम तो झाड़ के नीचे पड़े हुए हैं।
हिंदुस्तान के महात्माओं और साधु-संन्यासियों में एक इनसेंसिटिव और डल माइंड पैदा हुआ है। उसका कारण यह था कि दुख का वरन। और सारी दुनिया में वह खयाल रहा कि दुख को वरन करो। जब दुख को आप वरन करते हैं, तो पहला परिणाम तो यह होता है कि दुख के प्रति संवेदना आपकी कम हो जाती है, और यह बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि जो आदमी दुख के प्रति संवेदना जिसकी कम हो गई है, वह युद्ध के प्रति संवेदना कम हो जाएगी, उसकी हिंसा के प्रति, जो हो रहा है हो रहा है। दूसरी बात है, जो आदमी दुख को स्वीकार कर लेता है और दुख को आदर देता है, ग्लोरीफाई करता है, वह आदमी जाने-अनजाने दूसरे को दुख देने के उपाय खोजेगा। वह सैडिस्ट हो ही जाएगा।
एक बड़े मजे की बात है कि अगर मैं दुख वरन करूं और दुखी हो जाऊं, तो मैं चाहूंगा कि मैं तुमको भी दुखी करूं। दुखी आदमी दूसरे को दुखी ही कर सकता है। जो उसके पास है वही वह दूसरे को दे सकता है।
अगर एक अच्छी दुनिया बनानी है, तो आदमी को सुख के रस की तरफ दीक्षित करो। दुख वरन करने की तरफ नहीं, दुख विसर्जन की तरफ। सुख वरन की तरफ। और उसे इतना सुखी होने की क्षमताएं और व्यवस्थाएं और आयाम दो कि वह दूसरे के दुख के प्रति भी अति संवेदनशील हो जाए। और दूसरे को दुख देना उसे मुश्किल हो जाए। वह जितना सुखी होता चला जाएगा उतना दूसरे को दुख देना मुश्किल होता चला जाएगा।
लेकिन अब तक हमारा मामला उलटा रहा है। तो यह जो दुनिया इतने दुख में घिर जाती है, उसका कारण है कि हम सब दुखी हैं, दुख को वरन किए हैं, छाती से लगाए हैं, ग्लोरिफाई कर रहे हैं। और उसके कारण हम दूसरे आदमी को दुखी करने का इंतजाम कर रहे हैं भीतर, यह इंतजाम महंगा पड़ रहा है। मैं मानता हूं कि अच्छी दुनिया बनानी हो, तो एक सुखवादी मूल आधार चाहिए। एक हेडनेस्ट मूल आधार चाहिए।
अगर हमने चार्वाक की सुनी होती और दुनिया ने अगर एपीकुरस की सुनी होती, तो दुनिया आज की दुनिया से हजार गुना बेहतर होती। एपीकुरस के साथ ऐसा अन्याय हुआ और चार्वाक के साथ तो बहुत ही हद हुआ है। मगर दोनों के साथ हुआ है।
एपीकुरस जिस बगीचे में रहता था, तीन सौ मित्र थे उसके उस बगीचे में, वह जो एपीकुरस का गार्डन था। और वह कहता थाः सुख ही लक्ष्य है। और निश्चित ही जो सुख को लक्ष्य मानता है, वह अपने आस-पास सुख फैलाना चाहेगा, क्योंकि सुख की परिस्थितियों में और सुखी लोगों के बीच में ही सुख का फूल आपके लिए भी खिल सकता है। नहीं तो असंभव है। उस एपीकुरस के बगीचे को देखने एक सम्राट गया। क्या कर रहे हैं, बस, ईट, ड्रिंक एण्ड डीनर ही वहां हो रहा है। ये गालियां हैं एपीकुरस और चार्वाक के लिए। ये उनकी सच्चाइयां नहीं हैं। राजा देखने गया, वे सारे लोग दिन भर बगीचे में काम कर रहे थे, वे हर वक्त हंस रहे थे, वे हर वक्त खुशी थे, वे सांझ थक गए हैं, फिर वे गीत गाए हैं, नाचे हैं। राजा बड़ा खुश हुआ, उनकी जिंदगी एक तरह की आस्तिकी थी। लेकिन सरलता बिल्कुल और बात है और दुख को थोपना और बात है। दुख को थोपने वाला आदमी बहुत कांप्लेक्स होता है, जटिल हेता है, सरल कभी नहीं होता, हो ही नहीं सकता सरल। क्योंकि वह इतना ढोंग उसको खड़ा करना पड़ता है, इतना जबरदस्ती कि वह जटिल हो ही जाता है। बड़ी जिंदगी सरल थी, राजा देख कर बहुत खुश हुआ कि उसने कहाः मैं कुछ भेंट भेजना चाहता हूं। क्या भेंट भेजूं? मैं बहुत खुश हुआ हूं तुम्हारे बगीचे में आकर। इतने सुखी लोग मैंने कहीं नहीं देखे। तो उसने कहा कि कोई सुख को स्वीकार ही नहीं करना चाहता, जब तक यह गहराइयों में तो सुखी कैसे होंगे? हमने यह मान लिया है कि सुख ही लक्ष्य है। तो हम सारे दुख को, जिससे भी दुख होता है, हम उसे व्यर्थ मानते हैं, छोड़ते हैं, त्यागते हैं। दुख का वरन हम नहीं करते।
लेकिन हम क्या भेंट भेजे, राजा ने पूछा? उसने कहा कि अगर भेंट ही आप भेजते हैं, तो थोड़ा सा मक्खन भेज देना, बहुत दिन हो गए रोटी बिना मक्खन की चल रही है। राजा तो बहुत हैरान हुआ कि एपीकुरस मक्खन मांग रहा है सिर्फ। किसी संन्यासी ने इतनी सस्ती भीख नहीं मांगी कभी भी। और एपीकुरस संन्यासी नहीं है। राजा ने मक्खन भेज दिया। और वह साथ देखने आया कि क्या करते हैं? तो रूखी रोटियों पर उन्होंने मक्खन लगाया और पहले वे नाचे, और उन्होंने सारे जगत को धन्यवाद दिया कि आज मक्खन मिला है, आज हम नाचेंगे, आज हम खुश होंगे, आज हमारे धन्यभाग हुए हैं। राजा तो हैरान हो गया। ये ईट, ड्रिंक एण्ड डीनर वाले लोग थे।
सारी दुनिया की संस्कृति ने सुख को स्वीकार नहीं किया है। सुख को स्वीकार करो सरलता से। दमन को अलग करो। और एक-एक व्यक्ति अधिकतम रूप से कैसे सुखी हो सकता है, ऐसी नैतिक व्यवस्था खोजो? हमारी पूरी नैतिक व्यवस्था व्यक्ति के सुख को ध्यान में रख कर नहीं है। कुछ हमने एब्सल्यूट सिद्धांत बना रखे हैं, जिनका किसी आदमी से कोई संबंध नहीं है। जैसे, हम कहते हैं कि एक पत्नी को एक ही पति के साथ जिंदगी भर जीना चाहिए। यह बड़ी ऊंची नैतिकता है। कोई पति किसी पत्नी के साथ जीए, तो बड़ा अच्छा है, कोई मना नहीं करता, लेकिन जीना चाहिए, तो हम हजारों-लाखों लोगों को इतने दुख में डाल देंगे कि जिसका कोई हिसाब नहीं। और उस दुख का बदला वे कितने रूपों में लेंगे, यह कहना मुश्किल है। यह करीब-करीब जबरदस्ती है। एक व्यक्ति को स्त्री के साथ आनंदपूर्ण लगता है, स्त्री को व्यक्ति के साथ आनंदपूर्ण लगता है, वे चार वर्ष, वर्ष, दो वर्ष, चार दिन, घड़ी दो घड़ी साथ रहें, कुछ साथ रहें। जिस दिन उन्हें लगा है कि बात दुख की शुरू हो गई है, उसी दिन चुपचाप विदा हो गए हैं, दुख को बढ़ाया नहीं है, गहरा नहीं किया है। क्योंकि दोनों की भीतरी मान्यता यह है कि सुख के लिए हम साथी थे। सुख विदा होने लगा है, कलह शुरू हो गई, उपद्रव शुरू हो गए हैं, हम चुपचाप अलग हो जाएं। हम प्रेम से अलग हो जाएं, ताकि सुख की स्मृति तो कम से कम शेष रह जाए।
लेकिन शिक्षा और नीति समझा रही है कि बस एक पत्नी, एक पति। कुछ लोग होंगे, टाइप हैं दिमाग के, कुछ लोग होंगे जो एक पत्नी में ही सुख पा सकेंगे; बराबर पाएं, लेकिन उन कुछ लोगों की वजह से सारी मनुष्यता पीड़ित और परेशान हो! और जब एक आदमी स्त्री के सुख से वंचित हो जाए और कलह हो जाए, घर नरक बन जाए, और पत्नी परेशान हो जाए और पीड़ित हो जाए और नरक बन जाए, अलग होने का उपाय न हो, या उपाय ऐसा हो कि अलग होना भी भारी दुख हो जाए। इतना सरल न हो कि कहीं कुछ टूटे न और चीजें अलग हो जाएं। मुकदमें चलाने पड़ें; तीन साल मुकदमा चले, गंदे आरोप लगाने पड़ें, फिर उन्हें अलग होना पड़े। तो रहना दुख हो जाए, अलग होना भारी दुख हो जाए, और उनके चित्त ऐसे टूट जाएं कि फिर किसी से जुड़ना भी मुश्किल हो जाए। और भयभीत हो जाएं।
एक उदाहरण दे रहा हूं सिर्फ। मेरा कहना है कि आदमी के सुख को ध्यान में रख कर बनाई गई बातें नहीं हैं। हमने फिकर ही नहीं की है कि अधिकतम लोग कैसे सुखी हो सकें, अधिकतम लोग। तो सारी नैतिकता ऐसी निर्मित करने की जरूरत है, आने वाले बच्चों को समझाने की जरूरत है कि तुम सुख को ध्यान में रख कर चीजों को निर्माण करना। और उसको ध्यान में रख कर सोचना और आगे बढ़ना। अगर यह सब हो सके, अनसप्रेस्ड माइंड हो, जीवन स्वीकार का भाव हो, सुख की सतत खोज हो। और मजा यह है कि मेरा मानना यह है कि जो सुख की खोज करता है वह आज नहीं कल परमात्मा की खोज करेगा। करेगा ही। और जो दुख को वरन करके थोपता है उसका तो परमात्मा से संबंध ही नहीं होने वाला है। क्योंकि उसने एक ऐसी दुख की परत खड़ी कर ली है चारों तरफ। परमात्मा मूलतः अंतिम सुख की खोज है। जहां सारे सुख धीरे-धीरे फीके पड़ जाते हैं, जहां सारे सुख धीरे-धीरे व्यर्थ होते चले जाते हैं और तब एक परम सुख की आकांक्षा भीतर से पकड़ लेती है और खोज शुरू हो जाती है।
तो मैं मानता हूं कि सुखवाद से ज्यादा धार्मिक और कोई विचारधारा नहीं हो सकती। और नैतिकता ऐसी होनी चाहिए जो सुख को ध्यान में रखे। हमारी पूरी नैतिकता सुख को ध्यान में कहीं भी नहीं रखे हुए है। कहीं भी नहीं। सब अजीब-अजीब बातें हैं और व्यर्थ की बातें हैं, जिनका कोई मनुष्य के सुख से संबंध नहीं है। लेकिन जिनका शास्त्र से संबंध है, या कुछ लोग जमीन पर होते रहे हैं, कुछ लोग होते हैं, जिनको मैं कहता हूं ऑथेरिटेरियन माइंड। कुछ लोग होते हैं जिनको की सत्ता का बड़ा आग्रह होता है। ये सत्ताधिकारी बहुत रूप लेते हैं, या तो ये राजनीतिज्ञ होकर छाती पर बैठ जाते हैं या ये नीतिविद होकर नैतिकता निर्माण करते हैं कि ऐसा करो, ऐसा करो, ऐसे जीयो, ऐसे जीओ, यह गलत है, यह सही है।
सत्ताधिकारी को तो हम बहुत जल्दी बदल देते हैं, लेकिन जो नीतिविद होकर बैठ जाते हैं, कुछ ऑथेरिटेरियन माइंड, तब वे हजारों साल तक नुकसान पहुंचाते हैं। चाहे मनु हो, चाहे इजीकिल हो, चाहे कोई हो। सारी दुनिया में ऑथेरिटेरियन माइंड ने हमको ग्रिप किया हुआ है। और ठोक कर रख गए हैं कि यह ठीक है, यह गलत। और साफ-साफ कर गए हैं कि ठीक और गलत। जब कि जिंदगी की बात ऐसी है कि जिंदगी में क्या ठीक है और क्या गलत है, यह हर बार निर्णय करना पड़ता है, हर मोमेंट पर निर्णय करना पड़ता है। ऐसा कुछ फिक्स्ड मामला ही नहीं है कि यह ठीक है और यह गलत है। हर क्षण, तो व्यक्ति के विवेक को विकसित करो कि वह निर्णय कर सके कि क्या ठीक है और क्या गलत है। निश्चित धारणाएं मत दो कि यह ठीक है और यह गलत है। मेरा मतलब समझ रहे हैं? दोनों अलग बातें हो गईं। यह मत बताओ कि इसी दरवाजे से निकलना ठीक है, चाहे कोई भी हालत हो, चाहे वह दरवाजे के पास खड़ा हो, तो भी इतना चल कर आओ, इससे निकलो, अगर उससे निकल गए तो पाप। उसको इतना विवेक दो कि वह दीवाल से न निकले और दरवाजे से निकले, बस, इससे ज्यादा कोई चिंता की जरूरत नहीं है।
तो पुरानी नीति मनुष्य पर विश्वास नहीं करती है। और मैं मानता हूं जो नीति मनुष्य पर विश्वास ही नहीं करती वह मनुष्य को ऊंचा नहीं उठा सकती। पुरानी नीति मनुष्य पर थोपती है जबरदस्ती कि यह करो। तुम पर कोई विश्वास नहीं है कि तुम सोच लोगे, समझ लोगे, हम सोच लेते हैं, हम तय करते हैं, बस ऐसा तुम करो। और इस तरह के ऑथेरिटेरियन माइंड--चाहे वे हिटलर के हों, चाहे वे मनु के हों, कोई फर्क नहीं पड़ता। अलग दिशाएं चुनते हैं ये लोग, लेकिन ये एक टाइप के लोग हैं। ये थोप गए हैं। हजारों साल में उसी तरह के दिमागों ने उन्हें फिर पुनरुक्ति दे दी है। हजारों साल की परंपरा छाती पर बैठ गई है। और वह छाती पर बैठी परंपरा किसी आदमी के विवेक को नहीं जगने देती है।
जिस आदमी ने हिरोशिमा में बम गिराया, उस आदमी ने जाकर बम गिरा दिया, एक लाख बीस हजार आदमी खत्म हो गए। दूसरे दिन सुबह पत्रकारों ने उससे पूछा कि तुम्हें कैसा लगा? उसने कहाः कैसा लगने की बात है, आई डिड माई ड्यूटी। तुम सोए ठीक से? उसने कहाः मैं बिल्कुल आराम से गहरी नींद सोया। क्योंकि अपना काम पूरा कर दिया। जो आर्डर हुआ था वह पूरा कर दिया और आराम से सो गया। क्योंकि हम सैनिक हैं, हमारा काम आज्ञापालन करना है।
इस आदमी के मन में एक लाख बीस हजार आदमी इसके बम गिराने से खत्म होंगे, यह सवाल ही नहीं उठता। राइट और रांग क्या है, इसको सिखाया गया है। जब कहा जाए, गिराओ, तो गिराओ; जब कहा जाए मत गिराओ, तो मत गिराओ। ये ऊपर से थोप दिया गया है इसके दिमाग पर, इसके भीतर कोई विवेक नहीं, नहीं तो शायद यह कह देता कि नहीं, क्षमा करें, मैं मर जाऊं यह ठीक है, लेकिन एक लाख बीस हजार आदमी को मैं मारने का क्यों कारण बनूं?
मांटगोमरी ने एक रिपोर्ट दी है कोरिया के बाबत, कि कोरिया में अमरीकी लड़के जिनको सेना में लड़ाया जा रहा था, उनमें से चालीस प्रतिशत लड़कों ने बंदूकें उपयोग नहीं कीं।

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