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शनिवार, 8 दिसंबर 2018

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-21)

इक्कीसवां-- प्रवचन

सतगुरु कृपा अगम भयो हो

सारसूत्र:

सब्द सनेह लगावल हो, पावल गुरु रीती।
पुलकि-पुलकि मन भावल हो, ढहली भ्रम-भीती।।
सतगुरु कृपा अगम भयो हो, हिरदय बिसराम।
अब हम सब बिसरावल हो, निस्चय मन राम।।
छूटल जग ब्योहरवा हो, छूटल सब ठांव।
फिरब चलब सब थाकल हो, एकौ नहिं गांव।।
यहि संसार बेइलवत हो, भूलो मत कोइ।
माया बास न लागे हो, फिर अंत न रोइ।।

चेतहु क्यों नहिं जागहु हो, सोवहु दिनराति।
अवसर बीति जब जइहै हो, पाछे पछिताति।।
दिन दुइ रंग कुसुम है हो, जनि भूलो कोइ।
पढ़ि-पढ़ि सबहिं ठगावल हो, आपनि गति खोइ।।
सुर नर नाग ग्रसित भो हो, सकि रह्यो न कोइ।
जानि बूझि सब हारल हो, बड़ कठिन है सोइ।।


निस्चै जो जिय आवै हो, हरिनाम बिचार।
तब माया मन मानै हो, न तो वार न पार।।
संतन कहल पुकारी हो, जिन सूनल बानी।
सो जन जम तें बाचल हो, मन सारंगपानी।।

अवरि उपाव न एको हो, बहु धावत कूर।
आपुहि मोहत समरथ हो, नियरे का दूर।।
प्रेम नेम जब आवे हो, सब करम बहाव।
तब मनुवां मन माने हो, छोड़ो सब चाव।।
यह प्रताप जब होवे हो, सोइ संत सुजान।
बिनु हरिकृपा न पावे हो, मत अवर न आन।।
कह गुलाल यह निर्गुन हो, संतन मत ज्ञान।
जा यहि पदहि बिचारे हो, सोइ है भगवान।।

प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।


अरमानों की एक निशा में
होती हैं कै घड़ियां,
आग दबा रक्खी है मैंने
जो छूटीं फुलझड़ियां,
मेरी सीमित भाग्यपरिधि को
और करो मत छोटी,
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

अधर-पुटों में बंद अभी तक
थी अधरों की वाणी,
‘हां-ना’ से मुखरित हो पाई
किसकी प्रणय-कहानी,
सिर्प भूमिका थी जो कुछ
संकोच-भरे पल बोले,

प्रिय, शेष बहुत है बात अभी मत जाओ;
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

शिथिल पड़ी है नभ की बाहों
में रजनी की काया,
चांद चांदनी की मदिरा में
है डूबा, भरमाया,
अलि अब तक भूले-भूले से
रस-भीनी गलियों में,
प्रिय, मौन खड़े जलजात अभी मत जाओ;
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

रात बुझाएगी सच-सपने
की अनबूझ पहेली,
किसी तरह दिन बहलाता है
सबके प्राण, सहेली,
तारों के झंपने तक अपने
मन को दृढ़ कर लूंगा,
प्रिय, दूर बहुत है प्रात अभी मत जाओ;
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।
प्रार्थनाएं तो हमारी सब की यही हैं कि जीवन का अंत न हो। वासनाएं हमारी सब की यही हैं कि यह जीवन सदा बना रहे। यद्यपि इस जीवन में कुछ पाया भी नहीं, फिर भी सदा बना रहे, ऐसी अभीप्सा है। शायद इसीलिए ऐसी अभीसा है कि अभी तो कुछ पाया नहीं, अभी तो सुबह भी नहीं मिली, अभी तो जीवन में आनंद की एक किरण भी नहीं मिली और सब समाप्त हुआ जाता है। लेकिन सब समाप्त होगा ही। हमारी प्रार्थनाएं अनसुनी रहेंगी, हमारी वासनाएं दुष्पूर। हमारी कामनाएं हमारे भीतर ही जलेंगी, हमें ही दग्ध करेंगी और राख हो जाएंगी। सब साथ यहां छूटेंगे। रोओ लाख, प्रिय को जाना ही होगा। तुमको भी जाना होगा। रात कितनी ही शेष हो, प्रात कितनी ही दूर हो, बात कितनी ही बाकी हो। यहां जीवन क्षणभंगुर है। अभी है, अभी नहीं है। जीवन में सिर्प एक बात निश्चित है, वह मृत्यु है। और तो सब अनिश्चित है। इसलिए जिसमें थोड़ा भी बोध है, जिसमें थोड़ी भी समझ है, वह मृत्यु के संबंध में कुछ निर्णय लेगा। उन्हीं निर्णयों का नाम धर्म है।
अगर मृत्यु न होती, धर्म न होता। धर्म जीवन के कारण नहीं है। अगर जीवन ही जीवन होता तो धर्म की बात ही न उठती। न मंदिर होते, न मस्जिद होती; न कुरान होते, न बाइबिल होती; न बुद्ध होते, न महावीर होते; न कबीर होते, न गुलाल होते। अगर जीवन ही जीवन होता, अगर सुख ही सुख होता, अगर फूल ही फूल होते, तो कौन सोचता, कौन विचारता? क्यों सोचता, क्यों विचारता? यह तो मृत्यु है जिसने प्रत्येक चीज पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। और कब आजाए, पता नहीं! एक पल का भी भरोसा नहीं है। इसलिए जो बुद्धिहीन हैं, वे ऐसे जीते हैं जैसे मौत कभी न आएगी। और जो बुद्धिमान हैं, वे ऐसे जीते हैं जैसे मौत आ ही गई, अगले पल द्वार पर दस्तक देगी।
मृत्यु होने वाली है अगले पल, फिर तुम कैसे जिओगे! तुम्हारे जीवन में क्रांति हो जाएगी।
एकनाथ के पास एक व्यक्ति आता था। सत्संग को। कई बार आया, कई बार गया। एकनाथ ने एक दिन उससे पूछा कि मुझे ऐसा लगता है तू कुछ पूछना चाहता है, पूछ नहीं पाता। कोई लाज, कोई लज्जा, कोई संकोच तुझे रोक लेता है। आज तू पूछ ही ले। आज और कोई है भी नहीं, सुबह-सुबह तू जल्दी ही आगया है।
उस व्यक्ति ने कहा, आपने पहचाना तो ठीक, पूछना तो मैं चाहता हूं। एक छोटी सी बात, और संकोचवश नहीं पूछता हूं। वह बात यह है कि आप भी मनुष्य जैसे मनुष्य हैं, हमारे ही जैसे हड्डी-मांस-मज्जा के बने हैं, आपके जीवन में कभी पद की, प्रतिष्ठा की कामना नहीं उठती? आपके जीवन में कभी लोभ की, क्रोध की अग्नि नहीं भड़कती? आपके जीवन में कभी काम की, माया की वासनाएं नहीं उठतीं? यही पूछना है। आप इतने पवित्र मालूम होते हो, इतने निर्दोष; जैसे सुबह-सुबह खिला हुआ फूल ताजा होता है, ऐसे आप ताजे लगते हो; जैसे सुबह-सुबह सूरज की किरणों में चमकती ओस, ऐसे आप निर्दोष लगते हो; इसलिए पूछते डरता हूं, मगर यह भी संकोच तोड़ना ही पड़ेगा, पूछना ही पड़ेगा, बिना पूछे मैं न रह सकूंगा, मेरी नींद हराम हो गई है। यह प्रश्न मेरे मन में गूंजता ही रहता है। यह भी शंका उठती है, संदेह उठता है कि हो सकता है यह सब निर्दोषता ऊपर-ऊपर हो और भीतर वही सब कूड़ा-करकट भरा हो जो मेरे भीतर भरा है।
एकनाथ ने उसकी बात सब सुनी और कहा कि प्रश्न तेरा सार्थक है। लेकिन इसके पहले कि मैं उत्तर दूं, एक और जरूरी बात बतानी है। कहीं ऐसा न हो कि उत्तर देने में वह जरूरी बात बताना भूल जाऊं। तू जब बात कर रहा था तो तेरे हाथ पर मेरी नजर गई, देखा तेरी उम्र की रेखा समाप्त हो गई है। सात दिन के भीतर तू मर जाएगा। अब तू पूछ।
वह आदमी उठ कर खड़ा हो गया। उसके पैर डगमगा गए। उसकी छाती धड़क गई। श्वासें रुक गई होंगी। एक क्षण को हृदय ने धड़कन बंद कर दी होगी। उसने कहा: मुझे कुछ पूछना नहीं, मुझे घर जाना है। एकनाथ ने कहा: अभी नहीं मरना है, सात दिन जिंदा रहना है, अभी बहुत देर है, सात दिन में घर पहुंच जाएगा, अपने प्रश्न को पूछा, उसका उत्तर तो ले जा!
उसने कहा, भाड़ में जाए प्रश्न और भाड़ में जाए उत्तर। मुझे न प्रश्न से मतलब है, न उत्तर से, तुम्हारी तुम जानो, मैं चला घर! जवान आदमी था। अभी जब मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहा था तो उसके पैरों में बल था, अब जब लौट रहा था तो दीवाल का सहारा लेकर उतरा। हाथ-पैर कंप रहे थे, आंखें धुंधली हो रही थीं। सात दिन! एकनाथ की बात पर संदेह भी नहीं किया जा सकता। यह आदमी कभी झूठ बोला नहीं। आज क्यों बोलेगा? बार-बार हाथ देखता था। भागा घर की तरफ। रास्ते में कौन मिला, किसने जयराम जी की, किसने नहीं की, कुछ समझ आया नहीं। धुआं-धुआं छाया था। सात दिन बाद मौत हो तो आही गई मौत। सात दिन में देर कितनी लगेगी! ये दिन आए और ये दिन गए!
घर पहुंच कर बिस्तर से लग गया। पत्नी-बच्चों ने पूछा: हुआ क्या? थोड़ी-बहुत देर छिपाया, फिर छिपा भी नहीं सका..ये बातें छिपाई जा सकतीं नहीं। बताना ही पड़ा। रोना-धोना शुरू हो गया। घर में चूल्हा न जला। सात दिन में उस आदमी की हालत ऐसी खराब हो गई कि हड्डी-हड्डी हो गया। आंखें धंस गयीं। और बार-बार एक ही बात पूछता था, कितना समय और बचा?
आखिरी दिन सूरज ढलने के समय एकनाथ द्वार पर आकर खड़े हुए। सारे परिवार के लोग उनके चरणों में गिर पड़े, रोने लगे। एकनाथ ने कहा: मत रोओ, जरा मुझे भीतर आने दो। वह आदमी तो जैसे एकनाथ को पहचाना ही नहीं। जिंदगी भर से सत्संग करता था, मगर इस मौत ने सब अस्त-व्यस्त कर दिया। एकनाथ ने कहा, पहचाने कि नहीं? मैं हूं एकनाथ।
उस आदमी ने आंखें खोलीं और कहा: हां, कुछ-कुछ याद आती है। आप कैसे आए, किसलिए आए? एकनाथ ने कहा: यह पूछने आया हूं, सात दिन में पाप का कोई विचार उठा? काम-क्रोध, लोभ-मोह, सात दिन में कोई लपटें उठीं?
उस आदमी ने कहा, आप भी क्या मजाक करते हैं! मौत सामने खड़ी हो तो जगह कहां कि काम उठे, लोभ उठे, क्रोध उठे, मोह उठे? जिनसे झगड़ा था उनसे माफी मांग ली। जिन पर मुकदमे चला रहा था, उनसे क्षमा मांग ली। अब क्या शत्रुता! जब मौत ही आ गई, तो किससे शत्रुभाव! सात दिन में ख्याल ही नहीं आया कि पैसा जोड़ना है। सात दिन में वासना तो जगी ही नहीं। काम तो तिरोहित हो गया। ऐसा अंधकार छाया था चारों तरफ, मौत ऐसी भयभीत कर रही थी कि आप भी क्या सवाल पूछते हैं! यह कोई सवाल है!
एकनाथ ने कहा: उठ, अभी तुझे मरना नहीं है। वह तो मैंने तेरे सवाल का जवाब दिया था। ऐसी ही मुझे मौत दिखाई देती है..निश्चित, सुनिश्चित। सात दिन बाद नहीं तो सत्तर वर्ष बाद सही। पर सात दिन में, सत्तर वर्ष में फर्क क्या है? सात दिन गुजर जाएंगे, सत्तर वर्ष भी गुजर जाते हैं। तेरी मौत अभी आई नहीं। यह मैंने तेरे प्रश्न का उत्तर दिया। अब तू उठ!
लेकिन उस दिन से उस आदमी के जीवन में क्रांति हो गई। मौत तो नहीं आई, लेकिन एक आर्थ में वह आदमी मर गया, और एक अर्थ में नया जन्म हो गया। इस नये जन्म का नाम ही धर्म है। इस नये जन्म को मैं संन्यास कहता हूं।
सब कुछ वही था, बाहर वही रहेगा..यही पौधे होंगे, यही लोग होंगे, यही बाजार होगा, यही दुकान होगी, यही मकान होंगे, लेकिन भीतर कुछ क्रांति हो जाएगी, रूपांतरण हो जाएगा। और उस क्रांति का मूल आधार मृत्यु है।
जो बुद्धिहीन हैं, वे मृत्यु को देखते नहीं। आंख मूंदे रखते हैं। पीठ किए रहते हैं। जीवन के सबसे बड़े सत्य के प्रति पीठ किए रहते हैं। सुनिश्चित जो है, उसको झुठलाए रहते हैं। अपने मन को समझाए रहते हैं कि हमेशा कोई और मरता है, मैं नहीं मरूंगा; मेरी कहां मौत, अभी कहां मौत! अभी तो बहुत समय पड़ा है। अभी तो मैं जवान हूं। अपने को भुलाए रखते हैं, मरते-मरते दम तक भी भुलाए रखते हैं। जो बिस्तर पर पड़े हैं अस्पतालों में, मरने की घड़ियां गिन रहे हैं, वे भी अभी इस आशा में हैं कि बच जाएंगे। अभी उनकी कामनाओं का अंत नहीं, वासनाओं का अंत नहीं। अभी भी हिसाब-किताब बिठा रहे हैं कि अगर बच गए तो क्या करेंगे।
एक राजनेता अस्पताल में लाया गया। डाक्टरों ने उसकी परीक्षा की..बड़ा राजनेता था, बड़े डाक्टरों ने परीक्षा की, ठीक से परीक्षा की, सब बहुत घबड़ाए भी थे..उन्होंने कहा कि बड़ी देर हो गई, आपको पागल कुत्ते ने काटा है। और अब इंजेक्शन असर भी करेगा कि नहीं, कहना मुश्किल है। राजनेता ने कहा, जल्दी से कागज लाओ, कलम लाओ। डाक्टर ने कागज-कलम दिए और राजनेता एकदम से लिखने लगा। पूछा डाक्टर ने कि क्या आप वसीयत लिख रहे हैं? इतने भी न घबड़ाइए, ऐसे कोई मौत नहीं आ जाने वाली है, अभी जीएंगे आप, और हम पूरी चेष्टा करेंगे कि बच सकें। इतनी जल्दी वसीयत लिखने की कोई जरूरत नहीं। राजनेता ने कहा: वसीयत कौन लिख रहा है, मैं तो उन लोगों के नाम लिख रहा हूं कि जब मैं पागल हो जाऊंगा तो किन-किन को काटना है।
मरते दम तक राजनीति तो छूटती नहीं। लिख रहा होगा अपने दुश्मनों के नाम कि नंबर एक कौन, नंबर दो कौन, नंबर तीन कौन? बड़ी फेहरिश्त बना रहा था, कि इन-इन को मजा चखा दूंगा, इन-इन को काट लूंगा। मरते दम तक भी आदमी यही सोचे रखता है कि अभी कहां! टाले रखता है।
तुम टालो मत! अगर जागना हो तो मौत को टालो मत! मौत को देखो! मौत को देखना ही जागरण की विधि है। और जिसने मौत को देख लिया, उसके जीवन में क्रांति हुए बिना नहीं रह सकती।
गुलाल कहते हैं..
सब्द सनेह लगावल हो, पावल गुरु रीती।
पुलकि-पुलिक मन भावल हो, ढहली भ्रम-भीती।।
‘शब्द’ संतों ने दो अर्थो में प्रयोग किया है। ‘शब्द’ का एक अर्थ तो है ओंकार ध्वनि। जब तुम परिपूर्ण शांत हो जाते हो, मौन हो जाते हो, जब सब वासनाएं, कामनाएं, इच्छाएं, आकांक्षाएं क्षीण हो जाती हैं, उस निःशब्द अवस्था में जो तुम्हारे भीतर नाद होता है, तुम्हारे भीतर जो आनंद संगीत फूट पड़ता है, तुम्हारे अंतर्तम में जो वीणा बज उठती है, उसको शब्द कहा है। यह शब्द जो हम बोलते हैं, इनको नहीं। उस अनाहत नाद को शब्द कहा है। क्योंकि वह परमात्मा की वाणी है हम जो बोलते है, वह तो हमारी बनावट है हमारे शब्द तो काम चलाउ है। इसीलिए दुनिया में तीन हजार भाषाएं हैं। नहीं तो एक ही भाषा होती। तब तुम गुलाब को गुलाब कहो कि ‘रोज’ कहो, क्या फर्क पड़ता है। दुनिया में तीन हजार भाषाएं हैं तो गुलाब के तीन हजार नाम होंगे। और गुलाब गुलाब है। नाम सब कृत्रिम हैं। भाषाएं सब कृत्रिम हैं। हमारे शब्द तो कामचलाऊ हैं। जिंदगी की जरूरत है। बिना शब्दों के कैसे काम चलेगा? तो हमने तय कर लिया, समझौते कर लिए।
हर भाषा एक समझौता है। कुछ लोग मिल कर तय कर लेते हैं कि इस चीज को हम गुलाब कहेंगे। तो उस चीज को गुलाब कहते हैं। इससे काम चल जाता है। कहा कि ‘गुलाब’ ले आओ, तो समझ में आ जाता है कि क्या लाना है। कहा कि गुलाब खिले हैं बगीचे में, तो समझ में आ जाता है कि किस तरफ इशारा किया जा रहा है। मगर गुलाब का क्या कोई नाम है? गुलाब का कोई विशेषण है? यह सब कृत्रिम है। यह मनुष्य की भाषाएं, इनके शब्द असली शब्द नहीं हैं। असली शब्द तो वह है जब मनुष्य की सारी भाषाएं छूट जाती हैं, जब तुम परम मौन में प्रविष्ट हो जाते हो, तब जो सुना जाता है; जो शब्द हम बोलते हैं, वह नहीं, जो शब्द हमारे अंतरतम में सुना जाता है, जो गूंज हमारे भीतर उठती है, जिसके हम वक्ता नहीं होते, वरन श्रोता होते हैं।
महावीर ने बड़ा प्यारा शब्द उपयोग किया है। महावीर ने कहा कि चार तीर्थ हैं जिनसे व्यक्ति इस पार से उस पार जाता है। पहला तीर्थ: श्रावक; दूसरा तीर्थः श्राविका। वह तो स्त्री-पुरुष की वजह से दो कहा, अन्यथा एक ही तीर्थ हुआ। श्रावक-श्राविका, एक तीर्थ; और साधु-साध्वी, दूसरा तीर्थ। साधु-साध्वियों ने यह समझाने की कोशिश की है सदियों में कि श्रावक-श्राविका नीचे हैं, साधु-साध्वी ऊपर हैं। यह बात बुनियादी रूप से गलत है। महावीर को समझो तो कुछ और ही राज खुलता है। श्रावक का अर्थ होता है: जिसने सुना। क्या सुना? अनाहत नाद। जिसने शब्द सुना। जिसने अपने भीतर वह गूंज सुनी। और उस गूंज को सुनकर मुक्त हो गया, उस पार हो गया; वही गूंज नाव बन गई, वही शब्द नाव बन गया।
जो सरल हैं, सीधे-सादे हैं, वे श्रावक रहकर ही उस पार पहुंच जाएंगे; सिर्प सुनकर ही वे पार हो जाएंगे। जिनके भीतर सहजता है और श्रद्धा है, उनके लिए सुनना ही काफी है। साधना उनको करनी पड़ेगी जिनके भीतर श्रद्धा नहीं है। साधना का मतलब है, मेहनत करनी पड़ेगी, श्रम करना पड़ेगा।
मेरे हिसाब से श्रावक का दर्जा ऊपर है साधक के दर्जे से। साधक का तो मतलब ही यह है कि सरलता से समझ में न आया, बहुत उलट-पुलट करनी पड़ी। सिर के बल खड़े हुए, आसन लगाए, तपश्चर्या की, व्रत किए, तब बामुश्किल सुन पाए। श्रावक का अर्थ है: सरलता से सुन लिया। जैसे किसी कक्षा में जो विद्यार्थी सहजता से शिक्षक को सुन कर समझ ले, उसको हम बुद्धिमान कहेंगे कि जो पहले शीर्षासन करे और आसन लगाए और डंड-बैठक मारे और फिर उसकी समझ में आए, उसको हम बुद्धिमान कहेंगे? जो सरलता से समझ ले। कहा और समझ ले।
महावीर ने कहा है, कुछ हैं जो सिर्प सुन कर मुक्त हो जाते हैं: और कुछ हैं जो सिर्प सुनकर नहीं समझ पाते। उनके भीतर धुंध गहरी है, अंधेरा भारी है। चट्टानों की तरह उनका अहंकार है। उनको तोड़ना पड़ेगा चट्टानों को। उनको मेहनत करनी पड़ेगी, श्रम करना होगा। और बहुत श्रम के बाद वे मुक्त हो पाएंगे। मगर श्रावक शब्द बड़ा प्यारा है। कोई नहीं पूछता, जैन-शास्त्रों पर कितनी टीकाएं लिखी जाती हैं, कोई नहीं पूछता कि श्रावक से प्रयोजन क्या है? श्रवण किसका? जो तुम्हारे भीतर बोल रहा है। तुम्हारे भीतर एक अंतर-ध्वनि है, एक अंतर-नाद है। वहीं से वेद उपजे, वहीं से उपनिषद, वहीं से बाइबिल, वहीं से कुरान। वहीं खड़े होकर महावीर बोले, बुद्ध बोले, कबीर बोले, नानक बोले। मगर जो सुना और जो बोला, उसमें भेद पड़ जाता है। क्योंकि सुनते जो हैं, तब तो परमात्मा बोल रहा है। फिर जब सुने हुए को तुमसे बोलते हैं, तो फिर तुम्हारी कृत्रिम भाषा का उपयोग करना पड़ता है। और कृत्रिम भाषा में आते-आते सत्य करीब-करीब असत्य हो जाता है।
सब्द सनेह लगावल हो, ...
तो ‘शब्द’ के दो अर्थ हो सकते हैं। दो अर्थ हैं। एक, वह जो भीतर सुना जाता है। उससे प्रीति लगाओ। उसे सुनो। उसे सुनने की विधि ध्यान है। ध्यान का अर्थ है: जो कृत्रिम है, उसे हटा दो, ताकि सहज स्वाभाविक का स्फुरण हो सके। जो-जो तुमने सीखा है, उसे भुला दो, ताकि जो अनसीखा है वह प्रकट हो सके; उसका विस्फोट हो सके। तुम भरे हो शोरगुल से। कितने शब्दों की भीड़ है तुम्हारे भीतर! कैसा-कैसा कूड़ा-कचरा तुम संग्रह किए जाते हो! इस आशा में कि जैसे हीरे इकट्ठे कर रहे हो। अगर किसी के घर में कूड़ा-कचरा फेंक दो तो नाराज होगा। लेकिन किसी की खोपड़ी में फेंको, बिल्कुल प्रसन्न हैं। इसको लोग कहते हैं: वार्तालाप कर रहे हैं, सत्संग हो रहा है। सत्संग भी तुम कहां कर रहे हो, किनसे कर रहे हो? जिन्हें खुद भी पता नहीं है, जिन्होंने खुद भी सुना नहीं। जो उतने ही शाब्दिक जाल में उलझे हैं जितने तुम उलझे हो।
तो एक तो ‘शब्द’ का अर्थ है: अंतर-नाद को सुनना। और दूसरा ‘शब्द’ का अर्थ है: जिसने उस अंतर्नाद को सुना है, उसके शब्द। उसके शब्दों के आस-पास लिपटा हुआ वह नाद भी थोड़ा-बहुत तुम तक पहुंच पाता है। थोड़ा-बहुत ही। जैसे कि कोई बगीचे से गुजरे और फूलों की गंध उसके कपड़ों में समा जाए। बगीचे से गुजर भी जाए तो भी फूलों की गंध उसके कपड़ों में समाई रहे। ऐसे ही जिसने अपने भीतर ‘शब्द’ को सुना है, वह जब बोलता है, तो उसके शब्दों में भी उस परम संगीत का कुछ न कुछ अटका आजाता है; कुछ न कुछ स्वाद, कुछ न कुछ सुगंध, कुछ न कुछ अस्पष्ट ध्वनि उसके शब्दों में आजाती है। सत्संग का इतना ही अर्थ है कि किन्हीं ऐसे व्यक्तियों के पास बैठना जिन्होंने अपने को जाना हो। वे अगर बोलेंगे, तो उनके बोलने में भी कुछ न कुछ तो खबर उस अज्ञात लोक की होगी। वे अगर चुप होंगे, तो उनकी चुप्पी में खबर होगी।
इसलिए ‘शब्द’ के दो अर्थ हो सकते हैं। मूल अर्थ तो अपने भीतर के नाद को सुनना है। और दूसरा प्रकारांत से गौण अर्थः जिन्होंने उस अंतर-नाद को सुन लिया है, उनकी वाणी को हृदयंगम करना।
पंडित-पुरोहितों को सुनने से धर्म की यात्रा नहीं होती। पंडित-पुरोहित तो तुमसे भी गए-बीते हैं। क्योंकि पंडित-पुरोहित तो तुमसे भी कम सरल हैं, ज्यादा जटिल हैं।
मैंने सुना है, चंदूलाल की पत्नी गांव के सबसे बड़े पंडित के पास गई, क्योंकि सात दिन पहले चंदूलाल बाजार गए थे आलू खरीदने और लौटे नहीं। प्रतीक्षा की भी हद होती है। अब कौन पता दे? लोगों ने कहा कि पंडित जी के पास जाओ, ज्योतिषी भी हैं वे, शास्त्रों के ज्ञाता भी हैं, जरूर कुछ न कुछ राज वहां से हाथ लगेगा।
पत्नी ने जाकर पंडित जी को कहा कि मेरे पतिदेव चंदूलाल सात दिन पहले आलू खरीदने गए थे, अब तक लौटे नहीं हैं; अब बताइए मैं अबला क्या करूं? पंडित जी ने बहुत सोचा, आंखें बंद कीं, कुछ मंतर-जंतर पढ़ा, फिर बोले कि बहिनजी, अब जो हुआ सो हुआ! सात दिन हो गए और आलू नहीं आए, तो अब एक ही रास्ता है, घर में जो भी हो, दाल इत्यादि, बना लो।
अब और क्या करो?
तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम जैसे ही लोग हैं। जरा भी भेद नहीं है। शायद तुमसे थोड़ा ज्यादा तर्क कर सकते होंगे; शायद शास्त्रों के उद्धरण दे सकते होंगे; मगर मौलिक रूप से उन्होंने जाना नहीं है। इसलिए उनके सारे उद्धरण और उनके सारे शास्त्रों का ज्ञान और उनके सारे तर्क बहुत काम आने वाले नहीं हैं। उनकी बहुत उपादेयता नहीं है।
शब्द तो उनके तुम्हें जगाएंगे जिन्होंने जाना हो। जो कह सकते हों कि साक्षात्कार किया है। जो कह सकते हों कि परमात्मा हमारा अनुभव है। विश्वास नहीं, हमारी प्रतीति है। धारणा नहीं, हमारी अनुभूति है। और बड़ी हैरानी की बात है, जब भी कोई तुमसे कहता है कि परमात्मा मेरी अनुभूति है, तुम उससे नाराज होते हो। जो कहते हैं परमात्मा में हमारा विश्वास है, उनसे तुम नाराज नहीं होते। जीसस को सूली दी। जीसस का कसूर एक ही था कि जीसस ने कहा कि मैंने परमात्मा को जाना है..आमने-सामने जाना है। और सैकड़ों थे पंडित-पुरोहित इजरायल में जो शास्त्रों का उल्लेख कर रहे थे, मगर उनको लोगों ने सूली नहीं दी।
जीसस अपने गांव में सदगुरु होने के बाद सिर्प एक ही बार गए। और गांव के लोगों ने उनसे कहा कि यह रही हमारी धर्म पुस्तक, इसमें से पढ़ कर किसी चीज का हमें अर्थ बताओ। तो जीसस ने जहां भी किताब खुल गई, खोल दी, उसमें से दो-चार पंक्तियां पढ़ीं और कहा कि जो भी इन पंक्तियों में कहा गया है वह सत्य है, क्योंकि मैं गवाह हूं, मैं साक्षी हूं, यही मेरा भी अनुभव है। कहते हैं, गांव के लोग इतने नाराज हो गए कि यह आदमी ऐसा दावा कर रहा है! हमारे ही बीच पैदा हुआ, यहीं हमने इसे अपने बाप की दुकान में लकड़ियां ढोते और फर्नीचर बनाते देखा..क्योंकि जीसस बढ़ई के बेटे थे..इसी गांव में हमने इसे सामान बेचते देखा, खरीदते देखा; यहीं यह बड़ा हुआ, इसी गांव की धूल में, और हमारे ही सामने आज कह रहा है कि मेरी साक्षी, यह मेरी गवाही कि ये शब्द सही हैं। गांव के लोग इतने नाराज हुए कि कहानी कहती है कि उन्होंने जीसस को खदेड़ा गांव के बाहर और ले गए एक पहाड़ की चोटी पर से पटकने के लिए कि इनको खतम ही कर दो!
और उसी शास्त्र पर रोज पंडित प्रवचन देते थे गांव में। लेकिन उनमें से किसी ने भी यह नहीं कहा था कि यह मेरा अनुभव है। वे सब यही कहते थे, शास्त्र कहता है तो ठीक कहता होगा। शास्त्र में है तो सत्य ही है। मगर मेरा अनुभव है, ऐसा जिसने भी कहा, जब भी कहा, तभी हमने उसको परेशान किया। क्या मामला है? उसका तो हमें सम्मान करना चाहिए। अगर परेशान भी करना हो तो उसको करना चाहिए जिसने अनुभव न किया हो और कहता है कि सत्य होना चाहिए। यह सत्य होना चाहिए, यह तुम कैसे कहोगे जब तक तुमने नहीं जाना?
लेकिन नहीं पंडित से हम राजी हैं। क्योंकि पंडित से हमारे अहंकार को कोई चोट नहीं पहुंचती। उसको भी पता नहीं, हमको भी पता नहीं दोनों अज्ञानी हैं, इसलिए तालमेल बैठ जाता है। लेकिन जब भी कोई कहता है मैं जानता हूं, तो हमारे अहंकार को चोट लगती है। हम उससे बदला लेने को आतुर हो जाते हैं कि इस आदमी की जुर्रत देखो, कि इस आदमी की हिम्मत देखो! हमने अब तक जाना नहीं और इसने जान लिया! हम यह न होने देंगे।
हमने महावीर के कानों में खीले ठोंक दिए और हमने बुद्ध पर पत्थर मारे और बुद्ध के ऊपर पागल हाथी छोड़ा, चट्टानें सरकाईं।
कहानी कहती है कि जब बुद्ध पर पागल हाथी छोड़ा गया, तो पक्की आशा थी कि वह मार डालेगा..उसने कई लोगों को मारा था। लेकिन पागल हाथी बुद्ध के सामने आकर ठहर गया, रुक गया। पागल हाथी ठिठक गया, किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। क्या हो गया पागल हाथी को? पागल हाथी जानता था दो ही तरह के लोग; जिनके पीछे भी दौड़ता था या तो वे भाले निकाल कर जूझ पड़ते थे और या खुद भाग खड़े होते थे। यह बुद्ध ने न तो भाला निकाला और न बुद्ध भागे। बैठे थे जैसी शांत मुद्रा में वैसे ही बैठे रहे। जैसे कमल का फूल खिला हो। हाथी की भी समझ में न आया इस आदमी के साथ क्या करना चाहिए! पागल हाथी में भी इतनी बुद्धि थी, मगर आदमियों में इतनी बुद्धि भी नहीं।
कहानी तो यह भी कहती है कि जब चट्टान बुद्ध के ऊपर सरकाई गई पहाड़ पर से, तो सब तरह से ज्यामिति का ख्याल रखा गया था, गणित का कि वह चट्टान ठीक बुद्ध के ऊपर गिरेगी और उनको खत्म कर देगी। लेकिन चट्टान भी कहते हैं कि बुद्ध के पास आते-आते संकोच से भर गई, थोड़ा सरक कर निकल गई, गणित का नियम तोड़ दिया।
चट्टानों में भी आदमी से ज्यादा बोध मालूम होता है।
ये कहानियां सच हों या न हों, क्योंकि मैं नहीं मानता कि पागल हाथी में इतना बोध होगा या चट्टान गणित का नियम तोड़ कर निकल जाएगी, मगर ये कहानियां सार्थक हैं। ये यह कहती हैं कि आदमी ने चट्टानों से भी बदतर व्यवहार किया; पागल हाथियों से भी ज्यादा पागलपन का व्यवहार किया। नहीं तो कैसे सुकरात को जहर दो, कैसे मंसूर को मारो, कैसे जीसस को सूली लगाओ? क्या कसूर था इनका? इन सबका कसूर एक ही था कि इन्होंने कहा कि हम गवाह हैं। इन्होंने कहा कि हम शास्त्र हैं। पंडित यह नहीं कहता। पंडित तुम्हारे शास्त्र के लिए तर्क देता है कि तुम्हारा शास्त्र ठीक होना चाहिए। और तर्क का कोई मूल्य है! पक्ष में भी दिए जा सकते हैं, विपक्ष में भी दिए जा सकते हैं। ख्याल रखना, तर्क तो वेश्या है। तर्क की कोई निष्ठा नहीं है।
एक बार मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्रों के बीच बड़ी लंबी हांक रहा था कि इस शहर का ऐसा कोई भी अस्पताल नहीं है जहां मैं कभी न गया होऊं। अरे, एक-एक अस्पताल छान डाला, कोई अस्पताल नहीं छोड़ा। जब चंदूलाल से न रहा गया, तो बोले कि मैं शर्त लगा सकता हूं कि इस शहर में एक अस्पताल है जहां तुम कभी नहीं गए हो। और यदि तुम सिद्ध कर दो कि तुम इस अस्पताल में जा चुके हो, तो ये रहे पचास रुपए।
मुल्ला ने पूछा: अच्छा बताओ मैं किस अस्पताल में नहीं गया? चंदूलाल बोले कि क्या इस शहर के जच्चा-बच्चा अस्पताल में कभी गए हो? नसरुद्दीन ने पचास रुपए उठाते हुए जेब में रखे और कहा कि अबे चंदूलाल, मैं तो वहां पैदा ही हुआ था।
तर्क तो कुछ भी दिया जा सकता है। तर्क का कोई भरोसा नहीं है। इसीलिए तो आस्तिक-नास्तिक सदियों से विवाद करते रहे हैं, कुछ भी तय नहीं कर पाए। न आस्तिक जीते, न नास्तिक जीते। तर्क किसी को जिता नहीं सकता। क्योंकि तर्क की कोई जीवन में जड़ें ही नहीं होतीं। बौद्धिक खेल है, शतरंज का खेल है।
खलील जिब्रान की बड़ी प्रसिद्ध कहानी है कि एक गांव में एक आस्तिक था और एक नास्तिक। दोनों महापंडित। दोनों तर्ककुशल। महाविवादी। गांव परेशान था। क्योंकि आस्तिक समझाता गांव वालों को कि आस्तिकता ठीक है और नास्तिक समझाता कि नास्तिकता ठीक है। आस्तिक समझाता कि ईश्वर है और लोगों की खोपड़ी खा जाता और नास्तिक आता पीछे से और खोपड़ी खाता, और कहता कि ईश्वर नहीं है। लोगों ने कहा, ईश्वर हो या न हो, हमें कुछ लेना-देना नहीं है, हम गरीबों के पीछे क्यों पड़े हो? तुम दोनों एक दिन विवाद कर लो और जो तय हो जाए! तुम्हारा झंझट खतम कर लो, ताकि हम शांति से जी सकें।
पूर्णिमा की एक रात सारा गांव इकट्ठा हुआ। आस्तिक, नास्तिक दोनों तैयार होकर विवाद में जूझ गए। भारी विवाद हुआ। लोग भी दंग रह गए। जब आस्तिक तर्क दे तो लोगों को ऐसा लगने लगे कि हां, ईश्वर है। और जब नास्तिक तर्क दे तो लोगों को लगने लगे कि नहीं, ईश्वर नहीं है। रात में कई दफा हवा बदली। रात में कई दफा मौसम बदला। कभी आस्तिकता की लहर चल गई, कभी नास्तिकता की लहर चल गई। और सुबह होते-होते एक बड़ा चमत्कार हुआ! और वह चमत्कार यह था कि आस्तिक को नास्तिक की बात जंच गई और नास्तिक को आस्तिक की जंच गई। गांव की मुसीबत वैसी की वैसी रही! गांव के लोगों ने सिर पीट लिया। उन्होंने कहा: कोई फायदा न हुआ, फिर वही उपद्रव! लेबिल बदल गया; नास्तिक आस्तिक हो गया, आस्तिक नास्तिक हो गया।
तर्क से कोई निष्पत्ति नहीं है। तार्किक सिर्प निष्पत्ति का भ्रम पैदा करता है। अनुभव में निष्पत्ति है। जिसने जाना हो, जिसने अनुभव किया हो, जिसने भीतर के संगीत को सुना हो, जिसकी हृदयतंत्री बज उठी हो, उसके शब्दों में कुछ गंध होती है। तर्क चाहे न हो, सुवास होती है। प्रमाण चाहे न हो, प्रतीति होती है। उसके शब्दों में कुछ एक अनूठापन ही होता है।
यह तुमने कभी ख्याल किया? कृष्ण ने गीता में अर्जुन से जो शब्द कहे थे, वही तो तुम भी गीता में पढ़ते हो, उन्हीं को तो पंडित दोहराए चले जाते हैं; सदियां हो गयीं, वे ही शब्द हैं; मगर जब कृष्ण ने कहे थे, तो उन शब्दों में कुछ था, और जब पंडित उन्हीं की व्याख्या करते हैं, तो उनमें कुछ भी नहीं होता। शब्द वही हैं। कृष्ण ने जब कहा था तो उनमें गंध थी, अनुभव की, और जब पंडित कहते हैं, तो थोथा शब्द होता है, कोरा शब्द होता है। चली हुई कारतूस जैसा। लगती कारतूस जैसी ही है, मगर चली हुई ..मुर्दा। जैसे लाश पड़ी हो। देखने में तो ऐसा लगता है कि ठीक जैसा आदमी जिंदा था वैसा ही। लाश पड़ी हो तो ऐसा लगता है जैसे जिंदा आदमी सोया हुआ है, लेकिन लाश सिर्प दिखाई पड़ती है जिंदा आदमी जैसी, जिंदा नहीं है। न तो अब सांस चलती है, न अब आंख खुलती है, न अब उठेगा, न अब बैठेगा, न अब बोलेगा।
शास्त्र करीब-करीब ऐसे ही हैं। मुर्दा सत्य हैं। जब बोले गए थे, जब किसी व्यक्ति के अंतर्तम से उठ रहे थे, तब उनमें प्राण था, तब उनकी श्वास चलती थी, हृदय धड़कता था, तब उनके भीतर एक आत्मा थी। जब कृष्ण ने अर्जुन से बोला होगा तब बात कुछ और ही रही होगी। फूल अभी पौधे पर लगा था, अभी उसमें रसधार बहती थी। फिर तुम फूल को तोड़ लो, किताब में दबा कर रख दो। हजार साल बाद खोलोगे तो मिलेगी फूल की लाश।
वही हुआ है। गीता में भी लाश है, कुरान में भी, बाइबिल में भी, धम्मपद में भी।
तुम इन लाशों को जिंदा कर सकते हो, अगर तुम भी अनुभव को उपलब्ध हो जाओ, तो तुम भी साक्षी बन सकते हो। तो जैसे जीसस ने कहा था कि मैं साक्षी हूं कि यह जो शास्त्र लिखा है, ठीक लिखा है, जिस दिन तुम भी कह सको यह कि मैं साक्षी हूं कि यह जो लिखा है लिखा है, उसके पहले तो विश्वास है। विश्वास तो थोथे हैं, ऊपर-ऊपर हैं। लाख करो विश्वास, कुछ सार नहीं होगा।
सभी तो विश्वास कर रहे हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन है, कोई बौद्ध है, कोई सिक्ख है, सभी तो विश्वासी हैं, लेकिन इनके श्वास से इस पृथ्वी पर कहां धर्म की सुरभि, कहां धर्म का सूर्य, कहां धर्म का प्रकाश? सब तरफ गहन अंधेरा है। और हरेक आदमी का प्रकाश पर विश्वास मगर प्रकाश पर विश्वास कितना ही हो तो भी प्रकाश के ऊपर विश्वास से दीए नहीं जलते। दीए जलाओ तो प्रकाश होगा। विश्वास काफी नहीं है, अनुभव चाहिए।
‘शब्द’ के दो अर्थ। एक तो तुम अपने भीतर जाओगे और सुनोगे। और दूसरा, उस शब्द को जब तुम किसी को कहोगे। जब तुम सुनोगे तब तो पूर्ण होगा। जब कहोगे तब अपूर्ण हो जाएगा। लेकिन फिर भी कुछ न कुछ खबर लाएगा। फिर तीसरी घटना है, उस शब्द को लिख लिया जाएगा। शास्त्र बनेंगे। सदियों तक उस पर व्याख्या होगी जिनको कुछ पता नहीं है वे व्याख्या करेंगे। झूठ पर झूठ की पर्ते बैठती जाएंगी।
गीता की एक हजार व्याख्याएं हैं। कृष्ण के एक हजार अर्थ तो नहीं हो सकते। कृष्ण कोई विक्षिप्त थे? जो कहा, उसका एक ही अर्थ है। एक हजार टीकाएं कैसे हो गयीं? और एक हजार टीकाएं तो मैं कह रहा हूं वे जो बहुत प्रसिद्ध हैं। अगर अप्रसिद्ध टीकाएं भी जोड़ी जाएं, तो कई हजार होंगी। और अप्रकाशित टीकाएं भी जोड़ ली जाएं तो लाखों में संख्या पहुंच जाएगी।
क्या हुआ?
लोगों ने अपने-अपने अर्थ निकाल लिए। जिसने जो अर्थ निकालना चाहा, निकाल लिया। तुम शब्द के साथ खिलवाड़ कर सकते हो। शब्द का ठीक-ठीक अर्थ तो सत्संग में ही खुलता है। अगर तुमने अपनी बुद्धि को शब्द पर लगाने की चेष्टा की, तो तुम जो भी अर्थ पाओगे वह तुम्हारी बुद्धि का होगा। तुम चूक जाओगे, वास्तविक अर्थ से चूक जाओगे।
इसलिए अगर कृष्ण को समझना हो, तो किसी जीवित कृष्ण के पास बैठना पड़ेगा। और कोई उपाय न कभी रहा है, और न कोई उपाय कभी हो सकता है। और मजा ऐसा है कि अगर तुम जीवित किसी सदगुरु के पास बैठ सको तो तुम कृष्ण को ही नहीं समझोगे, क्राइस्ट को भी समझ जाओगे। और महावीर को ही नहीं समझोगे, मोहम्मद को भी समझ जाओगे। क्योंकि बात तो एक ही है। कहने का ढंग अलग-अलग है। जो देखा है इन सबने, वह तो एक ही है; जो अनुभव किया है, वह तो एक ही है, जो बोला है, वह भिन्न-भिन्न है। समय-समय के अनुसार उसकी अभिव्यक्ति भिन्न है, भाषा भिन्न है।
सब्द सनेह लगावल हो, पावल गुरु रीती।
अगर शब्द से तुम्हारा स्नेह लग जाए तो तुम गुरु की रीति पा जाओ।
पुलकि-पुलकि मन भावल हो, ढहली भ्रम-भीती।।
गुरु की रीति से क्या अर्थ है? सत्संग से अर्थ है। सारे गुरुओं की एक ही रीति रही है कि गुरु और शिष्य के बीच हृदय का नाता हो जाए। बुद्धि का नहीं, विचार का नहीं, भाव-भाव में सेतु बन जाए, गुरु और शिष्य के बीच प्रीति बन जाए, प्रेम बन जाए, प्रेम सगाई हो जाए..सबसे ऊपर प्रेम सगाई..वह गुरु की रीति है। मगर यह होगा कैसे? यह एक ही तरह से हो सकता है कि किसी का शब्द सुन कर तुम्हारे भीतर की वीणा संकृत होने लगे। किसी के पास बैठ कर तुम्हारे भीतर जो सोया पड़ा है, वह जागने लगे। तुम्हारे भीतर जो बीज है, वह अंकुरित हो जाए। तुम्हारे भीतर कुछ होने लगे, जो कभी नहीं हुआ था। सन्नाटा आजाए, शून्य उतर आए। जीवन के रहस्य की तुम्हें झलक मिले। जीवन का काव्य, जीवन का सौंदर्य तुम्हें आंदोलित करे।
पुलकि पुलकि मन भावल हो, ...
तब तो नाच उठोगे। मन भावन से भर जाएगा। मन भावाविष्ट हो जाएगा।
..ढ़हली भ्रम भीती।।
और उसी क्षण लाख उपाय करने से जो भ्रमों की दीवाल खड़ी थी, नहीं गिरती थी, गिर जाएगी। तुम्हारे उपाय करने से भ्रम-भीति गिर नहीं सकती। गुरु-रीती से गिरती है। तुम्हारे उपाय करने से तो इसलिए नहीं गिर सकती कि तुम्हारे उपाय करने में ही यह बात तुमने स्वीकार कर ली कि भ्रम की भीति है, वस्तुतः है। जैसे समझो कि रात के अंधेरे में तुमने एक रस्सी पड़ी देखी और समझा कि सांप है; और किसी ने तुमसे कहा कि भइया, सांप नहीं है, रस्सी है, मैंने दिन के उजाले में देखी है। तो तुमने कहा, ठीक है, तो मैं जाता हूं..और चले तुम तलवार लेकर! तो वह तुमसे पूछेगा कि तलवार किसलिए ले जाते हो? तुम कहते हो, उस भ्रामक सांप का अंत करूंगा। मगर तुम्हारी तलवार बता रही है कि तुम अब भी सांप को सच्चा मानते हो। अगर भ्रम मानते होते, तो तलवार ले जाने की क्या जरूरत थी? या कि तुम लालटेन लेकर चले। तुम कहते हो, ताकि वह भ्रामक सांप मुझे काट न खाए। अगर वह भ्रामक है तो काटेगा कैसे? यह लालटेन किसलिए ले जाते हो? लालटेन सबूत है कि तुम अभी भी मानते हो कि सांप सच्चा है, हालांकि कहने लगे कि भ्रामक है।
कितने लोग नहीं इस दुनिया में कह रहे हैं, कम से कम इस देश में तो हर एक आदमी कह रहा है: संसार माया। और फिर यह भी पूछता है कि माया को छोड़ें कैसे? अब यह बड़े मजे की बात है। एक आदमी कहता है कि मेरी जेब में कुछ भी नहीं है, खाली, और फिर पूछता है, जेब खाली कैसे करूं? कहावत तुमने सुनी न, नंगा नहाए निचोड़े क्या? निचोड़ने को कुछ है ही नहीं। मगर फिर भी चिंता पकड़ती है कि निचोड़ूं कैसे? कहां निचोड़ू? कपड़े कहां सुखाऊं? हैं बिल्कुल दिगंबर मुनि, कुछ है नहीं, न निचोड़ना है, न कपड़े सुखाने हैं, मगर चिंताएं पकड़ी हुई हैं, इस डर से नहाते नहीं हैं।
दिगंबर मुनि नहाते भी नहीं..शायद इसी डर से न नहाते हों, कौन जाने! दिगंबर मुनियों को नहाने का नियम नहीं है। नहाएं वे जिनके पास कपड़े हैं। कपड़े ही नहीं हैं तो नहाना क्या! दिगंबर मुनि को तो और भी नहाना चाहिए। क्योंकि धूल-धवांस सब शरीर पर ही जमती होगी। कपड़े होते तो कपड़ों पर जमती, कपड़े धोबी के यहां चले जाते। जैन मुनि को तो कभी-कभी धोबी के यहां जाना चाहिए। मगर जैन मुनि नहाते नहीं।
गंदगी को भी अध्यात्म समझा जाता है।
जैन मुनि दतौन नहीं करते। क्योंकि यह सब साज-शंृगार...दतौन इत्यादि साज-शंृगार! जीवन की आवश्यकताएं, जरूरतें, स्नान भी साज-शंृगार है! इसलिए जैन मुनि स्नान नहीं करता, दतौन नहीं करता कि कहीं साज-शंृगार न हो जाए। अरे, जब तक इस घर में रहना है, कम से कम कुछ साफ-सफाई तो करो, साज-शंृगार का सवाल ही कहां है! दांत साफ करने में कोईशंृगार हो रहा है? और दांतों पर गंदगी की पर्त जमती जाएगी, उससे कुछ अध्यात्म हो जाएगा? शरीर से बदबू आने लगेगी, इससे कुछ अध्यात्म हो जाएगा? मगर नहीं, इसको अध्यात्म समझा जाता है।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक काउंट कैसरलिंग जब भारत से वापस लौटा तो उसने अपनी डायरी में लिखा कि भारत में जाकर मुझे यह समझ में आया कि बीमार होना, गंदा होना, अपने को सताना, सब तरह से उदास होना, यह आध्यात्मिक होने के लक्षण हैं।
मजाक में ही लिखा है उसने, व्यंग्य में ही लिखा है। और बात भी ठीक है! जिस घर में रह रहे हो, घर ही सही, मत उससे तादात्म्य करो, मगर नहाओ-धोओ, दतौन करो, घर की थोड़ी सफाई तो करो!
स्वच्छता में अध्यात्म हो सकता है, गंदगी में नहीं हो सकता। लेकिन गंदगी की हम पूजा करते हैं। और अगर कोई बिल्कुल ही गंदा हो तो उसको परमहंस कहते हैं। जैसे कि पास में ही पाखाना पड़ा हो और वहीं बैठ कर वह भोजन कर रहा हो तो हम कहते हैं, देखो परमहंस। जिस थाली में भोजन कर रहा हो, उसी में कुत्ते भी भोजन कर रहे हों तो हम कहते हैं कि देखो, यह परमहंस। हमने कैसी मूढ़तापूर्ण धारणाएं बना ली हैं! और तब इसका परिणाम क्या हुआ है? इसका परिणाम यह हुआ कि जिनको परमहंस होना है उनको ये काम करने पड़ते हैं। और ये काम सरल हैं, ऐसे कोई बहुत कठिन नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी से उसकी पड़ोसिन पूछ रही थी कि मुझे तो बड़ी दिक्कत होती है सुबह अपने पति को जगाने में, उठते ही नहीं। मगर तुम्हारे पति को तुम कैसे जगा देती हो, बिल्कुल सूरज ऊगने के पहले ही?
नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा: मेरी एक तरकीब है। मैं जाकर बिल्ली उनके ऊपर फेंक देती हूं। पड़ोसिन ने पूछा: लेकिन बिल्ली फेंकने से कैसे कोई उठ आएगा?
उसने कहा: उनको उठना ही पड़ता है, क्योंकि वे कुत्ते के साथ सोते हैं।
अब इनको परमहंस कहो!
अब कुत्ते के साथ सोओगे और बिल्ली फेंक दे कोई ऊपर, तो कुत्ते-बिल्ली में जो युद्ध छिड़ेगा..धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे! ..उसमें उठना ही पड़ेगा, करोगे क्या अब? भागना पड़ेगा बिस्तर छोड़कर। मगर ये परमहंस के लक्षण हैं।
कुत्तों के साथ सोने वाले बहुत लोग हैं पश्चिम में तो बहुत लोग हैं। आदमी आदमी के बीच तो नाते बिगड़ गए हैं, तो आदमी कुत्तों से दोस्ती करते हैं। कुत्तों से दोस्ती एक लिहाज से अच्छी है, कोई झगड़ा नहीं, झंझट नहीं! कम से कम कुत्ता घर जाओ तो यह तो नहीं पूछता कि कहां से आरहे, कि इत्ती देर कहां रहे, सच-सच बोलो! कुछ नहीं पूछता बेचारा! कुत्ता कहीं से भी आओ, पूंछ हिलाता है। स्वागत है!
मुल्ला नसरुद्दीन ले गया था अपने कुत्ते को डाक्टर के यहां। कहा, इसकी पूंछ काट दो। उस डाक्टर ने कहा: तुम पागल हो गए हो? सुंदर कुत्ता है, इसकी पूंछ क्यों काटते हो? काट दो पूंछ। मेरी सास आने वाली है। और मैं नहीं चाहता कि घर में किसी तरह का स्वागत का आयोजन हो। और यह मूरख पूंछ हिलाएगा।
सब्द सनेह लगावल हो, पावल गुरु रीती।
पुलकि-पुलकि मन भावल हो, ढहली भ्रम-भीती।।
यह जो भ्रमपूर्ण संसार है, इसको तुम चेष्टा से नहीं छोड़ सकते। क्योंकि चेष्टा में तुमने मान ही लिया कि यह सत्य है। यह तो सदगुरु के सत्संग में एक दिन दिखाई पड़ जाता है कि भ्रम है; बात खत्म हो गई! भीति ढह गई!
सतगुरु कृपा अगम भयो हो, हिरदय बिसराम।
यह तो उसकी कृपा से हो जाता है, यह तो उसकी अनुकंपा से हो जाता है।
बुद्ध ने कहा है कि जिसके भीतर भी ध्यान फलित होता है, उसके चारों तरफ अनुकंपा की वर्षा होती है। जिसके भीतर ध्यान का दीया जलता है, उसके चारों तरफ करुणा की किरणें फैलती हैं।
सतगुरु कृपा अगम भयो हो, ...
जो नहीं होना था, वह हो गया। जो नहीं होता था, वह हो गया। जिसकी कभी कल्पना न की थी, वह हो गया। अकल्पनीय हुआ है, अगम्य हुआ है। अपनी बुद्धि के बाहर है, वह हुआ है। अपूर्व घटना घटी है, हृदय में विश्राम आगया है। सब दौड़-धाप गई। सब आपाधापी मिटी।
अब हम सब बिसरावल हो, निस्चय मन राम।।
सब विस्मृत हो गया है! अब तो बस राम में ही ठहर गए हैं!
मन की दो स्थितियां हैं: काम और राम। काम का अर्थ है: भाग-दौड़। यह मिल जाए, वह मिल जाए। और मिल जाए। कितना ही मिले, ‘और’ समाप्त नहीं होता। काम का अर्थ है: विक्षिप्तता। और राम का अर्थ है: काम समाप्त हो गया। भ्रम-भीति ढह गई। कुछ पाने की दौड़ न रही। जो है, वही जरूरत से ज्यादा है। जो है, उसके लिए ही परमात्मा का धन्यवाद है, अनुग्रह है। तो विश्राम आता है।
संत का लक्षण गंदगी नहीं है। संत का लक्षण विश्राम है। उसकी विश्राम की स्थिति। कोई भाग-दौड़ नहीं। कहीं उसे आना नहीं, कहीं उसे जाना नहीं। कुछ उसे होना नहीं, कुछ उसे पाना नहीं..मोक्ष भी नहीं पाना..वह जैसा है, जहां है, परितृप्त है। जरा ध्यान करना इस बात का: जैसा है, जहां है, जो है, परिपूर्ण तृप्त है। वह जो तृप्ति है, वह जो विश्राम है, वही धीरे-धीरे शिष्य में भी प्रवेश करने लगता है। क्योंकि तुम जिसके साथ रहोगे, वैसे हो जाओगे।
छूटल जग ब्योहरवा हो, छूटल सब ठांव।
जगत के व्यवहार छूट गए..बिना छोड़े; यही गुरु-रीति। जगत के व्यवहार छूट गए बिना छोड़े। छोड़ना पड़े तो कुछ न कुछ अटका रह जाता है। तुम जिस चीज को छोड़ोगे, उससे बंधे रहोगे। किसी आदमी ने धन छोड़ दिया और भाग गया जंगल, वह धन ही धन की सोचेगा। क्योंकि जिसको छोड़ कर आया है, उसकी याद आएगी। छोड़ा ही क्यों? भयभीत था, डरता था। इसी से भागा। सिर्प डरने वाले लोग ही भागते हैं। भय से ही भगोड़ापन पैदा होता है।
और जिससे तुम भयभीत हो, उससे तुम मुक्त नहीं हो सकते।
जिसने स्त्री को छोड़ दिया, वह जहां भी रहेगा, स्त्री का विचार ही उसके दिमाग में घूमेगा। असल में और ज्यादा घूमेगा। स्त्री के साथ रहे, तो शायद स्त्री का इतना विचार न आए, सच तो यह है कि स्त्री के साथ रहने से स्त्री-त्याग का विचार आता है। कि हे प्रभु, बचाओ! स्त्री को विचार आते हैं कि कैसे छुटकारा हो! लेकिन स्त्री को छोड़ कर जंगल चले गए, तो बहुत याद आएगी। तब तुमको समझ में आएगा कि स्त्री क्या-क्या नहीं कर रही थी तुम्हारे लिए! घर में थे तो याद ही नहीं आता था। घर में तो यही दिखता था कि सिवाय उपद्रव के वह कुछ नहीं करती। यह तो पता चलेगा गुफा में बैठ कर कि वह क्या-क्या करती थी? अब जलाओ चूल्हा! और लकड़ी नहीं जलती, आंखों से आंसू बह रहे हैं। तब याद आएगी। तब लगेगा यह क्या झंझट कर ली! तब स्त्री के सदगुण दिखाई पड़ने शुरू होंगे कि बेचारी जैसी भी थी भली थी। कम से कम ये काम तो हमें नहीं करने पड़ते थे। अब अपनी गुफा साफ कर रहे हैं, रोज बुहारी मार रहे हैं; बर्तन मल रहे हैं; भजन-कीर्तन का समय ही कहां बचता है! पानी भर कर लाओ..दूर, गंगाजल! घर में थे, सब सुविधा थी। उतनी सुविधा में भी राम को स्मरण न कर सके, इस असुविधा में कर पाओगे! तुम क्या सोचते हो असुविधा में कोई परमात्मा को धन्यवाद दे सकता है? सुविधा में नहीं दे पाए, असुविधा में क्या खाक दोगे!
स्त्री को पता नहीं कि पति उसके लिए क्या कर रहा है! वह तो छोड़ दे तब पता चलता है। सुबह से सांझ तक मेहनत कर रहा था..उसके लिए ही, बच्चों के लिए, मगर कभी उसने उसे धन्यवाद नहीं दिया। जब देखो तब उसकी गर्दन के पीछे पड़ी थी।
स्त्री के पास रहोगे तो शायद स्त्री को छोड़ने का विचार बार-बार मन में आए। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिसके मन में यह विचार न आता हो। ऐसी स्त्री खोजनी मुश्किल है जो न सोचती हो कि कुंआरे ही रहते तो अच्छे थे! लेकिन दूर हट जाओगे तो याद आएगी। बहुत याद आएगी। तुम्हारे साधु-संन्यासी इसीलिए परेशान रहते हैं। और वे बेचारे जो अपने शास्त्रों में लिखते हैं स्त्री नरक का द्वार है, वे स्त्री के संबंध में कुछ नहीं लिख रहे हैं, वे अपनी मनोदशा बता रहे हैं। वे बता रहे हैं कि हमें राम-वाम का तो कुछ पता ही नहीं चलता, बस स्त्री ही स्त्री दिखाई पड़ती है; यही है नरक का द्वार! यह पीछा ही नहीं छोड़ रही है। किस स्त्री को पड़ी है? कौन उनके पीछे पड़ा है? उनकी ही भावना। क्योंकि कच्चा छोड़ भागे।
जीवन में दो तरह से क्रांति हो सकती है। एक तो कच्ची। तुम भाग जाओ छोड़ कर। अभी रस तो लगा था, मगर भाग गए। और एक पक्की क्रांति। रस ही चला गया! भ्रम है, यह दिखाई पड़ गया। उस दर्शन से जो क्रांति होती है, उसमें फिर जरा भी पीछे की तरफ लौटने का कोई कारण नहीं रह जाता। पीछे लौट कर कोई देखता ही नहीं।
छूटल जग ब्योहरवा हो, छूटल सब ठांव।
सब भाग-दौड़ छूट गई, जगत के सब व्यवहार छूट गए, जगत के सब झूठ छूट गए। यहां तो सब व्यवहार है। हम जो भी बातें कर रहे हैं एक-दूसरे से, सब व्यवहार है। पति पत्नी से कह रहा है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, तेरे बिना एक दिन न जी सकूंगा..भीतर कुछ और ही सोच रहा है। भीतर यह सोच रहा है कि किस तरह इस बाई से छुटकारा हो! कि हे प्रभु, कहां की झंझट में डाल दिया! किन जन्मों के कर्मफल भोग रहा हूं! ऊपर से कह रहा है तेरे बिना एक क्षण न जी सकूंगा और भीतर सोच रहा है कि तेरे साथ एक क्षण कैसे जियूं, यह मुश्किल हो रहा है।
एक बार मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने घरेलू बचत के लिए मुल्ला के सामने एक बिल्कुल नई योजना रखी। उसने मुल्ला से कहा कि यदि तुम्हें मेरा चुंबन लेना हो तो पहले इस डिब्बे में पांच रुपये डालो, फिर चुंबन लो। यदि तुम्हें मुझे आलिंगन में बांधना हो, तो पहले दस रुपये इस डिब्बे में डालो फिर मेरा आलिंगन करो। इस तरह अलग-अलग प्रेम के ढंगों के लिए कितने-कितने रुपये डिब्बे में डालने होंगे, यह तय हो गया जब एक महीना बीता और मुल्ला ने बचत का डिब्बा खोला तो वह तो आश्चर्यचकित रह गया! रुपये उसके अनुमान से बहुत ज्यादा थे। उसने पूछा कि बात क्या है, इतने रुपये कैसे?
पत्नी आंखें मटकाते हुए बोलीः अरे, सब तुम्हारी तरह कंजूस थोड़े ही हैं!
यहां बातें ऊपर कुछ-कुछ, भीतर कुछ-कुछ चल रहा है। यहां सब तरह के धोखे चल रहे हैं। तुम धोखे देते हो, तो तुम यह मत सोचना कि तुम्हीं धोखे दे रहे हो, दूसरे भी धोखे दे रहे हैं। इस जगत के सारे व्यवहार धोखे के हैं, एक-दूसरे के शोषण के हैं।
मुल्ला एक दिन घर आया। संदेह हुआ उसे, बिस्तर अस्त-व्यस्त मालूम हुआ, पत्नी भी कुछ भयभीत सी लगी। तभी उसके बच्चे ने आकर कहा कि पापा, आलमारी में एक आदमी छिपा है। सो उसने आलमारी खोली। आदमी था वहां। कहा: भाई, यहां क्या कर रहे? उसने कहा कि मैं बिजली सुधारने आया था। उसने कहा, अब सुधारो बिजली और जाओ! तभी उसने सोचा कि और दूसरी आलमारी है बगल में, उसको भी देख लें। उसको भी खोला, उसमें एक दूसरा आदमी छिपा था। भैया, तुम यहां क्या कर रहे? उसने कहा: मैं नल ठीक करने आया था। ठीक है, नल ठीक करो और जाओ! तभी बंद कमरे की हवा को थोड़ी सी स्वच्छता देने के लिए उसने खिड़की खोली, एक आदमी खिड़की पर बैठा हुआ था। भैया, तुम क्या कर रहे? उस आदमी ने कहा कि जब तुमने उन दोनों की मान ली, तो अब मेरी भी मान लो, मैं बस की राह देख रहा हूं। पांचवीं मंजिल पर, खिड़की पर बैठे हुए, बस की राह देख रहे हैं! लेकिन जब उन दो की तुमने मान ली, तो अब तुमसे क्या छिपाना..उस आदमी ने कहा।
बस मान कर चल रहा है सब हिसाब। तुम भी मान रहे हो, दूसरे भी मान रहे हैं। तुम भी जान रहे हो, दूसरे भी जान रहे हैं। खेल में खेल हैं। भ्रमों के भीतर भ्रम पल रहे हैं। धोखे के भीतर धोखे हैं। भीतर सब जानते हैं कि किस-किस तरह धोखे चल रहे हैं। क्योंकि मन धोखे ही कर सकता है। मन जानता ही नहीं श्रद्धा करना। मन जानता ही नहीं प्रीति करना। मन तो बेईमान है। मन तो कपटी है। मन तो चालबाज है। मन तो पाखंडी है। मन तो धोखे की व्यवस्था है। इसलिए मन से जो भी संबंध-नाते हैं, वे सब दिखावे के। ऊपर कुछ, भीतर कुछ।
छूटल जग ब्योहखा हो, छूटल सब ठांव।
गुलाल कहते हैं कि सब जगत का व्यवहार छूट गया..मन ही गया तो जगत का व्यवहार गया! और जहां-जहां सोचते थे अपना घर है, जहां-जहां सोचते थे अपना ठांव है, वे सब ठांव भी समाप्त हो गए। अब सब सराय हैं। रात भर ठहरो, सुबह उठो और चल पड़ो!
फिरब चलब सब थाकल हो, एकौ नहिं गांव।।
सब तरफ थक कर देख लिया, चल कर, फिर कर, एक भी अपना गांव नहीं यहां। यहां अपना गांव ही नहीं है। गांव तो कहीं पार है। गांव तो मन के कहीं अतीत है। न तो गांव हमारा शरीर में है, न गांव हमारा मन में है, गांव तो हमारा चैतन्य में है। वहीं विश्राम है। वहां जो पहुंचा, वही वस्तुतः जीआ, उसने ही वस्तुतः जाना।
यहि संसार बेइलवत हो, भूलो मत कोइ।
बेइलवत एक बेल है, लता, जो फैलती बहुत है, जिसमें फूल भी लगते हैं, लेकिन तुरंत मुर्झा जाते हैं।
यहि संसार बेइलवत हो, भूलो मत कोइ।
यह संसार उसी लता जैसा है। इसमें फूल तो लगते हैं, लेकिन तत्क्षण मुर्झा जाते हैं। लग भी नहीं पाते और मुर्झा जाते हैं। भूलो मत कोई!
माया बास न लागे हो, फिर अंत न रोइ।।
अगर इस संसार का भुलावा तुम्हें न पकड़े, अगर तुम जागे रहो, तो अंत समय रोना न पड़ेगा। अंत समय लोग रोते हैं मृत्यु के कारण नहीं, मृत्यु के लिए नहीं, वह जो जीवन व्यर्थ गया, उसके कारण रोते हैं। जिनका जीवन सार्थक रहा, वे तो हंसते हुए मृत्यु में प्रवेश करते हैं, वे तो नाचते हुए मृत्यु में प्रवेश करते हैं।
चेतहु क्यों नहिं जागहु हो, ...
चेतो! जागो!
...सोवहु दिनराति।
दिन-रात सोए हुए हो! आंखें खुली हैं तब भी सोए हुए हो, आंखें बंद हैं तब भी सोए हुए हो। नींद बड़ी गहरी है। किस चीज को नींद कह रहे हैं? यह जो तुम्हारी दशा है, यह नींद की दशा है। अभी तुम्हें यह भी पता नहीं मैं कौन हूं..और नींद इससे ज्यादा गहरी क्या होगी? तुम्हें यह भी पता नहीं कहां से आए, कहां जा रहे, क्या है जीवन का गंतव्य। लगे हैं आपाधापी में, दौड़धाप में, फुरसत कहां कि सोचें कि मैं कौन हूं। फुरसत कहां कि सोचें कि कहां से आना हुआ, कहां जा रहे हैं। अगर साधारणतः कोई आदमी चैराहे पर तुम्हें मिले और तुम उससे पूछो कि भाई, तुम कौन हो और वह कहे, मुझे मालूम नहीं, तो तुम समझोगे पागल है। तुम उससे पूछो, कहां से आरहे हो, वह कहे, मालूम नहीं। तुम पूछो, कहां जा रहे हो, वह कहे, मालूम नहीं। तो तुम उससे पूछोगे कि फिर जा ही क्यों रहे हो? इतनी आपा-धापी क्यों मचा रखी है? तो वह कहे और क्या करूं? अरे, कहीं तो जाऊं! और लोग बड़ी तेजी से जा रहे हैं। उनकी चाल देखो तो ऐसा लगता है गंतव्य का उन्हें पता है। धक्कम-धुक्की कर रहे हैं। उन्हें दिखाई कुछ भी नहीं पड़ रहा है।
एक आदमी एक बस में सवार हुआ। बस लबालब भरी है। कहीं कोई जगह नहीं है। वह एक कोने में खड़ा हो गया। एक स्त्री उसकी बगल में है, सीट पर बैठी हुई है। थोड़ी देर में उस आदमी ने अपनी एक आंख निकाली..नकली आंख..उसको ऐसा ऊपर फेंका, झेल कर व पिस लगा ली। स्त्री तो घबड़ा गई, कि यह आदमी क्या कर रहा है! वह टकटकी लगा कर उसको देखती रही कि यह, यह तो हरकती आदमी दिखता है, अजीब आदमी है, पागल है या क्या है! फिर दस-पंद्रह मिनट बाद उसने आंख निकाली और जब उसने फिर उसे फेंका ऊपर और हाथ में झेला और फिर लगा लिया अपनी आंख में तो उस स्त्री से न रहा गया, उसने चिल्ला कर कहा..चीख मार दी एकदम..कि क्या कर रहे हो यह? तो उसने कहा, क्या कर रहा हूं! अरे, आगे की तरफ देख रहा हूं आंख फेंक कर कि कोई जगह खाली तो नहीं है।
पत्थर की आंख से तुम आगे देख रहे हो कि कोई जगह तो खाली नहीं है! तुम जरा अपनी तरफ तो देखो, तुम्हें कुछ दिखाई पड़ रहा है आगे! आगे की तो छोड़ो, तुम्हें कहीं दिखाई भी पड़ रहा है! यहां भी, सामने भी! असली आंखें भी असली नहीं मालूम होतीं। पत्थर की आंखें तो पत्थर की हैं ही, असली भी हमने पत्थर की कर ली हैं। जब तक हमारी आंखें हृदय से न जुड़ें, उन्हें कुछ नहीं दिखाई पड़ता, अंधी ही रहती हैं। हृदय से जुड़ कर ही जागरण शुरू होता है।
चेतहु क्यों नहि जागहु हो, सोवहु दिनराति।
कब तक सोए रहोगे!
जो अतीत तम में जीता है, नव प्रभात वह क्या जाने!
नैना होते जो देखे ना, भोर-प्रात वह क्या जाने!!
कल कल में पल पल खोता है
आज जिसे कल सा होता है
कल की शान कहे न अघाए
आज इसी में खो रोता है
समझे आज, आज न जो भी, कल की बात वह क्या जाने!
जीवन है पल पल का नर्तन
बीज सदृश अंकुर परिवर्तन
आगत हेतु भेंट गत होता
क्षण क्षण बदल रहा है जीवन
इस क्षण को जो जान सके ना, शाश्वत को वह क्या जाने!
बहती नदिया सा जीवन है
नहीं जनम है नहीं मरन है
छूट रहे यदि कूल-किनारे
तो आगे मधु आलिंगन है
अभी यहीं जो है देखे ना, प्रभु मिलन वह क्या जाने!
जो अतीत तम में जीता है, नव प्रभात वह क्या जाने!!
अतीत हमें घेरे हुए है। स्मृतियां। और भविष्य हमें घेरे हुए है। कल्पनाएं। और इन दोनों के बीच हमारा वर्तमान दबा जा रहा है, मरा जा रहा है। और जाग सकते हैं तो वर्तमान में। अतीत तो जा चुका, उसमें अब जागोगे भी तो कैसे जागोगे! है ही नहीं। भविष्य अभी आया नहीं; उसमें कैसे जागोगे जो अभी आया ही नहीं है! जो है, यह क्षण, अभी और यहीं, इस क्षण में ही जागना हो सकता है। इसलिए चित्त को जो अतीत स्मृतियों से मुक्त कर ले और भविष्य की कल्पनाओं से, वह जाग जाता है।
ध्यान की सारी प्रक्रिया अतीत और भविष्य से मुक्त होने की विधि है। मगर हम जीते हैं ना-कुछ में, जो नहीं है। अतीत, उसमें हम खूब जीते हैं। लोग बैठे सोचते रहते हैं अतीत की। और भविष्य कल क्या होगा! और इन दोनों में उलझे रहते है, पास से बीता जा रहा है वर्तमान। वर्तमान ही सिर्फ परमात्मा का है..अतीत और भविष्य दोनों मन के हैं। वर्तमान ही आत्मा का है। परमात्मा एक ही समय को जानता है, वर्तमान, और तुम्हें वर्तमान का कोई पता ही नहीं है..तुम दो समय जानते हो अतीत और भविष्य। इसलिए तुम्हारा और परमात्मा का कहीं मिलन नहीं होता। इसलिए तुम लाख पूछो कि परमात्मा से कैसे मिलें, कहां मिलें, काशी जाएं कि काबा, कि कैलाश, कि गिरनार, जाओ जहां जाना हो, कहीं नहीं पहुंचोगे, तुम जहां हो वहीं रहोगे। हां, अगर वर्तमान में आजाओ, तो परमात्मा को तुम्हें खोजने जाने की जरूरत नहीं है, परमात्मा तुम्हें खोजता आजाएगा।
एक स्कूल में शिक्षक ने बच्चों से कहा था कि कोई सुंदर तस्वीर बनाओ। और सब ने तस्वीरें बनायीं। किसी ने घोड़ा बनाया, किसी ने कुछ बनाया, किसी ने कुछ, किसी ने हाथी, किसी ने ऊंट, एक बच्चे की तस्वीर बड़ी अदभुत थी, कोरा कागज। उससे पूछा शिक्षक ने कि तस्वीर कहां है? उसने कहा, यही तो है। मैदान में घास चरती एक गाय का चित्र मैंने बनाया है। शिक्षक ने कहा, घास कहां है? लड़के ने कहा, घास गाय चर गई; तो अब घास कहां! तो शिक्षक ने पूछा: भाई, फिर गाय कहां है? उसने कहा: अब गाय यहां क्या करे? घास चर गई और चली गई!
तुम्हारी जिंदगी भी ऐसी ही है। घास जो कभी थी, जो कब की तुम चर गए! गाय जो कभी थी और कब की चली गई। या घास जो कभी ऊगेगी, या गाय जो कभी आएगी। और अभी? अभी कोरा कैनवास है। मगर यह कोरा कैनवास ही अस्तित्व का वास्तविक स्वरूप है। अगर तुम वर्तान में उतर जाओ, तो वहां न कोई विचार है, न कोई वासना है। वहां सिर्प शांति, परम शांति है, शून्य है। उसी शून्य में पूर्ण का साक्षात्कार है। इसको ही जागना कहो, चेतना कहो, होश कहो, अप्रमाद कहो, ध्यान कहो, सुरति कहो, स्मरण कहो, जो तुम्हें कहना हो, मगर यही सारे संतों का सार है।
अवसर बीति जब जइहै हो, पाछे पछिताति।।
फिर पीछे मत पछताना। पीछे बहुत पछताना होगा।
दिन दुइ रंग कुसुम है हो, जनि भूलो कोइ।
यह दिन तो बीते जा रहे हैं। यह दिन जो है फूल जैसा है; सुबह खिलता है, सांझ मुरझा जाता है। यह दो रंग का है। दिन को प्रकाश, रात को अंधेरा, ये इसके दो रंग हैं। मगर यह फूल, अब गया तब गया।
पढ़ि-पढ़ि सबहिं ठगावल हो, आपनि गति खोइ।।
और पढ़-पढ़ कर लोग बड़े ठगा रहे हैं। लोग सोचते हैं कि पढ़ लेंगे शास्त्र तो मिल जाएगा सत्य। काश, इतना आसान होता। काश, इतना सस्ता होता। तो तो फिर धर्म भी हम वैसे ही पढ़ा देते हैं जैसे विश्वविद्यालयों में गणित और भूगोल पढ़ाते हैं। फिर कोई अड़चन न होती। मगर धर्म को पढ़ाया ही नहीं जा सकता।
पढ़ि-पढ़ि सबहिं ठगावल हो, ...
सब ठगे गए हैं पढ़-पढ़ कर।
... आपनि गति खोइ।।
अपनी गति खो रहे हैं। उलझे जा रहे हैं शब्दों के, सिद्धांतों के, शास्त्रों के चक्कर में। उनका बोझ बढ़ता जाता है। बहुत सी बातें जानते मालूम पड़ते हैं और जानते कुछ भी नहीं। अज्ञान छिप जाता है, मिटता नहीं। ज्ञान की बकवास आजाती है। तोतों की तरह लोग दोहराने लगते हैं। अब तोते को तुम जो सिखा दो वही दोहराने लगता है। ऐसे ही कोई तोता हिंदू हो जाता है, कोई तोता मुसलमान हो जाता है, कोई तोता ईसाई हो जाता है। अब तोते को बाइबिल सिखा दो तो ईसाई हो गए। और तोते को गायत्री सिखा दो तो हिंदू हो गए। और नमोंकार मंत्र सिखा दो तो जैन हो गए। और तोता तोता ही है। न जैन, न हिंदू, न मुसलमान। क्या तोते को लेना-देना है!
हमारी स्मृति भी बस तोते की तरह यंत्र है। ऐसे पढ़ने से कुछ भी न होगा। यह पढ़ने-लिखने की बात ही नहीं है। कबीर कहते हैं: पढ़ा-पढ़ी की है नहीं लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात।’ यह बात दर्शन की है, देखने की है, अनुभव की है।
सुर नर नाग ग्रसित भो हो, सकि रह्यो न कोइ।
आदमी तो आदमी, देवता भी उलझे हैं व्यर्थ की बकवासों में, व्यर्थ के विवादों में। जिनको अज्ञानी कहो वे भी उलझे हैं और जिनको तुम तथाकथित ज्ञानी समझते हो, वे भी उलझे हैं। बड़े विवाद चल रहे हैं। मुनि हैं, महात्मा हैं, योगी हैं, बड़े विवादों में लगे हुए हैं।
जानि बूझि सब हारल हो, ...
और यह सब जान-बूझ कर हो रहा है। क्योंकि सबको पता है कि सत्य अनुभव की बात है। और बड़ी कठिन बात हो जाती है जब कोई जान-बूझ कर ऐसा करता है। जैसे कोई जागा हुआ पड़ा हो और सोने का बहाना करे। उसको जगाना मुश्किल हो जाता है।
जानि बूझि सब हारल हो, बड़ कठिन है सोइ।।
बड़ी कठिनाई इससे पैदा हो गई है कि सबको पता है, फिर भी झुठला रहे हैं। जागे हुए पड़े हैं और सोने का बहाना कर रहे हैं। इनको उठाना मुश्किल है। अलार्म बजता रहेगा, ये नहीं उठेंगे। तुम पुकारते रहो, ये नहीं उठेंगे। तुम चिल्लाओ, तो भी नहीं उठेंगे। ये तो तय ही किए हुए हैं कि उठना नहीं है, क्योंकि ये जागे ही हुए हैं। सोया हुआ आदमी हो तो अलार्म बजेगा तो उठना ही पड़ेगा।
इस दुनिया में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि स्वरूपतः हम सभी को पता है कि सत्य क्या है, लेकिन जान-बूझ कर झुठला रहे हैं, जान-बूझ कर भ्रमों में पड़ रहे हैं। क्यों हम भ्रम में पड़ना चाहते हैं जान-बूझ कर? एक ही कारण है सिर्प, सिर्प एक कारण, और वह तुम्हारी समझ में आजाए तो क्रांति घट जाए। वह कारण यह है कि सत्य होगा तो ‘मैं’ नहीं बचेगा, अहंकार नहीं बचेगा। अहंकार बच सकता है असत्य के साथ, भ्रम के साथ। और तुम अपने को नहीं खोना चाहते। तुम चाहते हो, मैं रहूं, मैं सदा रहूं। इसलिए झूठों में अपने को घेरे हुए हो। झूठ से पोषण मिलता है ‘मैं’ को। सत्य तो मृत्यु है ‘मैं’ की। जिस दिन तुमने सत्य देखा, उसी दिन ‘मैं’ की मृत्यु हो गई। बचोगे तुम, लेकिन ‘मैं’ की तरह नहीं, चैतन्य की तरह। उस चैतन्य का कोई विशेषण नहीं होगा। वहां कुछ मेरा-तेरा नहीं होगा। और हमारा सारा खेल मेरे-तेरे का है। हम तो ऐसे उलझे हैं मेरे-तेरे के खेल में कि जिसका हिसाब नहीं!
दो आदमियों पर अदालत में मुकदमा था। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि भई, बताओ भी तो, झगड़ा किसलिए हुआ? मार-पीट किसलिए हुई? सिर कैसे खुल गए, लहू कैसे बह गया? और तुम दोनों पुराने दोस्त हो! तो वे दोनों एक-दूसरे से कहें कि भइया, तू बता दे! मजिस्टेट ने कहा, बताते क्यों नहीं, कोई भी शुरू करो!
उन्होंने कहा: अब बताएं क्या आपको, बताने को कुछ हो तो बताएं। जो सजा आपको देना हो दे दो, मगर हमारी बेइज्जती और न करवाओ। अदालत में भीड़ लगी थी, पूरा गांव इकट्ठा हुआ था। मगर मजिस्टेट ने कहा: सजा कैसे दे दें, पहले मुझे पता होना चाहिए झगड़ा किस कारण हुआ। बामुश्किल एक राजी हुआ, उसने कहा कि झगड़ा ऐसा हुआ कि हम दोनों नदी की रेत में बैठे हुए थे, गपशप कर रहे थे कि इसने कहा कि मैं एक भैंस खरीद रहा हूं। मैंने कहा कि भैया, तू देख, भैंस मत खरीद! क्योंकि में एक खेत खरीद रहा हूं। अपनी पुरानी दोस्ती है, किसी दिन तेरी भैंस हमारे खेत में घुस गई, झगड़ा हो जाएगा, नाहक झगड़ा हो जाएगा। और मैंने खेत खरीदना पक्का ही कर लिया है, बयाना भी दे दिया है। इसने कहा कि बयाना मैं भी दे चुका। भैंस तो खरीदी जाएगी! तो मैंने इससे कहा, फिर ख्याल रख, भूल कर भी तेरी भैंस मेरे खेत में नहीं घुसनी चाहिए। तो यह बोला कि भैंस तो भैंस, कोई दिन भर हम उसके पीछे थोड़े ही घूमते रहेंगे! और भी तो काम हैं दुनिया में। और भैंस हैं, कभी घुस भी जाए तो घुस सकती है। तो मैंने कहा: अगर भैंस खेत में घुसी तो ठीक नहीं होगा। तो यह बोला, क्या कर लेगा? मैंने कहा: घुसा कर दिखा भैंस! सो बात इतनी बढ़ गई कि मैंने वहां रेत पर अंगुली से खींच कर अपना खेत बना दिया कि यह रहा मेरा खेत, और इस दुष्ट ने अपनी अंगुली से भैंस घुसा दी। बस, मारा-पीटी हो गई। इसलिए हम संकोच भी कर रहे हैं कि अब कहना क्या! न खेत है, न भैंस है, मगर हमारे सिर खुल गए!
ऐसी ही हालत है। जिन खेलों में तुम उलझे हो, न खेत है, न भैंस है, मगर सिर खुले जा रहे हैं। लड़े-झगड़े जा रहे हो। कितना उपद्रव मचा हुआ है! सदियों से मचा हुआ है! बढ़ता ही जाता है। सघन होता जाता है। आदमी आदमी से लड़ रहा है, जातियां जातियों से लड़ रही हैं, राष्ट राष्टरें से लड़ रहे हैं। किसलिए? कोई एक बार सोचे तो! सारे झगड़े के पीछे अहंकार है..मेरा खेत! और तेरी क्या हैसियत कि भैंस घुसा दे! और उसने कहा कि मेरी भैंस! तू है कौन, तेरा खेत है क्या! अरे, भैंस घुसेगी, यह रही भैंस, यह घुस गई भैंस! वह दो ‘मैं’ में टक्कर हो गई। जहां ‘मैं’ है, वहां हिंसा है। और यह ‘मैं’ बिना हिंसा के नहीं जीता, बिना भ्रम के नहीं जीता। इसका भोजन ही माया है। इसलिए हम जानते हुए भी कि सब व्यर्थ है, सब असार है, ...क्या तुम्हें पता नहीं कि सब व्यर्थ है, सब असार है? क्या तुम्हें पता नहीं कि कल मर जाओगे तो सब पड़ा रह जाएगा? खेत भी और भैंस भी। सब पता है! ठीक कहते हैं गुलाल..
जानि बूझि सब हारल हो, बड़ कठिन है सोइ।।
निस्चै जो जिय आवै हो, हरिनाम बिचार।।
अगर इतना तुम्हें समझ में आजाए कि जान-बूझ कर भूल कर रहे हो, इतना निश्चय आजाए, तो फिर इस जगत में सिर्प एक चीज है पाने योग्य, वह: हरिनाम। विचारने योग्य एक, पाने योग्य एक, जीने योग्य एकः हरिनाम। मगर हरिनाम के लिए जो बलिदान चढ़ाना पड़ता है, वह है ‘मैं’ का, अहंकार का।
तब माया मन मानै हो, न तो वार न पार।।
जिस दिन अहंकार चढ़ जाएगा, उसी दिन पार मिल जाएगा। नहीं तो न वार है, न पार है। तब तो यह चलता ही रहता है जन्मों-जन्मों तक। यह अंधकार, यह सपना बढ़ता ही चला जाता है, खिंचता ही चला जाता है। और तब तक तुम्हारा मन मानेगा नहीं। जैसे ही अहंकार मिटा कि मन गया और परम विश्रांति आजाती है, सब मान जाता है, तृप्ति हो जाती है।
संतन कहल पुकारी हो, जिन सूनल बानी।
संत तो पुकार-पुकार कर कहते हैं, मगर तुम सुनो तब न! जिन्होंने सुन ली वाणी, उनके जीवन में क्रांति हो गई।
सो जन जम तें बाचल हो, मन सारंगपानी।।
जिन्होंने सुन ली उनकी बात, वे मृत्यु से बच गए, राम के हो गए। सारंगपानी यानी विष्णु। वे विष्णु के हो रहे। यह सब नाम परमात्मा के हैं। सभी नाम एक से।
अवरि उपाव न एकौ हो, बहु धावत कूर।
और कोई उपाय नहीं है, बहुत भागादौड़ मत करो!
अवरि उपाव न एकौ हो, बहु धावत कूर।
मूढ़ आदमी बहुत दौड़ता है, पहुंचता कहीं भी नहीं। पहुंचने का और कोई उपाय नहीं है, पहुंचने का एक ही उपाय है।
आपुहि मोहत समरथ हो, नियरे का दूर।।
न तो परमात्मा दूर है, न पास है। और बड़ा मजा यह है कि आपुहि मोहत समरथ हो, ...तुम समर्थ हो, फिर भी मोह में पड़े हो। तुम चाहो तो अभी निकल आओ, इसी क्षण निकल आओ, तत्क्षण निकल आओ। लेकिन लोग भी चालबाज हैं। खूब सिद्धांत उन्होंने गढ़े हुए हैं। वे कहते हैं, जन्म-जन्म के कर्म हैं, ऐसे कैसे निकल आएंगे? पहले पिछले जन्मों को काटेंगे, फिर निकलेंगे। ये सब बहाने हैं। ये तो ऐसे हैं कि सुबह उठते वक्त कोई आदमी कहे, अभी कैसे उठूं, रात भर के सपने हैं, पहले सपने काटूंगा, फिर उठूंगा। अरे, उठ गए कि सपने कट गए! सपने काट कर थोड़े ही कोई उठता है, उठने से सपने कट जाते हैं। और पिछले कर्मो को काट कर थोड़े ही कोई परमात्मा को पाता है। परमात्मा को पाने से सब पिछले कर्म कट जाते हैं।
प्रेम नेम जब आवे हो, जब करम बहाव।
जैसे ही प्रेम का नियम समझ में आ गया, सब कर्म बह जाते हैं। घबड़ाओ मत! तत्क्षण क्रांति हो सकती है।
तब मनुवां मन माने हो, छोड़ो सब चाव।।
उसी घड़ी मन मान जाता है। जैसे पक्षी सांझ होते अपने नीड़ में लौट आए, ऐसे तुम अपने घर लौट आए। सब चाव गए। सब व्यर्थ की चाहें गईं। कैसी-कैसी चाहें हैं! आदमी क्या-क्या नहीं चाहता है! और मजा यह है कि मिल जाए तो तृप्ति नहीं; न मिले तो तो अतृप्ति है ही, मिल भी जाए तो कोई तृप्ति नहीं। कितनी चीजें तुमने चाहीं और नहीं मिलीं, तुम उनके कारण दुखी हो। और कितनी ही चीजें तुमने चाहीं और तुम्हें मिल गयीं, मिल कर तुम सुखी कहां हुए? थोड़ा विचार करो, पुनर्विचार करो!
यह प्रताप जब होवे हो, सोइ संत सुजान।
जिस संत के पास यह प्रताप घटित हो जाए, कि यह दिखाई पड़ने लगे, यह निर्मल दृष्टि मिल जाए कि जागना है, कि चेतना है, और अभी जागरण हो सकता है, सिर्प एक शर्त पूरी करनी है, अहंकार को छोड़ देना है, जिसके पास यह प्रताप घटित हो जाए, वहीं समझना कि संत है कोई, वहीं समझना कि सिद्ध है कोई।
बिनु हरिकृपा न पावे हो, मत अवर न आन।।
कुछ और सहायता नहीं चाहिए, सिर्प हरिकृपा चाहिए। और वह तो मिल ही रही है, वह तो बरस ही रही है, झरत दसहुं दिस मोती। उसकी तो वर्षा हो ही रही है। सिर्प तुम्हारे अहंकार के कारण तुमने अपने घड़े को उल्टा रख लिया है, वर्षा हुई जा रही है, तुम्हारा घड़ा खाली का खाली है।
कह गुलाल यह निर्गुन हो, संतन मत ज्ञान।
यह सारे संतों के मतों का सार है कि वह निर्गुण है, उस परमात्मा में कोई गुण नहीं है। न कोई रंग है, न कोई रूप है। इसलिए तुम भी जब मन के सारे रंग-ढंग, रंग-रूप छोड़ कर अपने भीतर निर्गुण और निराकार हो जाओगे, तत्क्षण उससे मिलन हो जाएगा। तुम भी निर्गुण हो, वह भी निर्गुण है, दोनों का मिलन अभी हो जाए, मगर तुम सगुण बने हुए हो! तुम कहते हो, मेरा यह नाम, मेरा यह पता-ठिकाना; मैं स्त्री, मैं पुरुष; मैं गोरा, मैं काला; मैं अमीर, मैं गरीब; मैं साधु, मैं महात्मा..तुम न मालूम कितने गुण अपने चारों तरफ लादे हुए हो! और वह निर्गुण है। तुम्हारे गुणों के कारण ही मिलना नहीं हो पा रहा है। तुम भी जरा भीतर झांक कर देखो, तुम सिर्प साक्षी हो, तुम सब के देखने वाले हो। तुम देह नहीं हो। इसलिए तुम स्त्री नहीं हो सकते, पुरुष नहीं हो सकते। और तुम मन भी नहीं हो। इसलिए तुम हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं, कम्युनिस्ट नहीं, कैथोलिक नहीं; भारतीय नहीं, चीनी नहीं, जापानी नहीं। न तुम शरीर हो, न तुम मन हो, तुम भीतर बैठे साक्षी हो।
साक्षी निर्गुण भाव-दशा है। साक्षी तो ऐसे है जैसे दर्पण। बस, निर्मल दर्पण हो तुम। जैसे ही तुमने यह जाना, उसी क्षण मिलन हो जाएगा। उसी क्षण घड़ा सीधा हो गया..और वर्षा तो हो रही थी, मोती तो झर ही रहे थे, भर जाएगी झोली तुम्हारी! तब ठहर जाता है मन। तब सब चाहें अपने से गिर जाती हैं। चाहा भी नहीं था, वह भी मिल गया। चाहों के भी जो पार है, वह भी मिल गया। मालिक ही मिल गया, तो उसकी मालकियत को अब क्या चाहना!
कह गुलाल यह निर्गुन हो, संतन मत ज्ञान।
जो यहि पदहि बिचारे हो, सोइ है भगवान।।
और भगवान कोई व्यक्ति नहीं है कहीं दूर आकाश में बैठा हुआ। जिसने भी ऐसी निर्गुण दशा को अनुभव कर लिया, वही भगवान है। भगवान निर्गुण दशा के अनुभव का नाम है। तुम भी भगवान हो! सोए हो, यह दूसरी बात। आंख नहीं खोलते, यह दूसरी बात। हजार जालों में पड़े हो, यह दूसरी बात। मगर इससे तुम्हारी भगवत्ता में कोई भेद नहीं पड़ता। तुम्हारा स्वभाव तो भगवत्ता है। जब भी जागोगे, पाओगे भगवान भीतर था। भगवान तुमने एक क्षण को नहीं खोजा है, खो नहीं सकते, उसे खोया नहीं जा सकता, उसे पाने की भी कोई जरूरत नहीं..जिसे खोया ही नहीं, उसे पाएंगे क्यों? पाएंगे कैसे? ..वह तो मौजूद ही है, सिर्प तुमने पीठ कर ली है, तुम उसकी तरफ देख नहीं रहे हो। लौटो घर, अंतर्यात्रा पर आओ, झांको भीतर..कौन वहां बैठा है? और तुम उसे विराजमान पाओगे।
जिस दिन तुम जान लोगे तुम्हारे भीतर भगवान है, उस दिन तुम यह भी जान लोगे सब के भीतर भगवान है। तब सारा अस्तित्व भगवत्ता से पूर्ण हो जाता है। और वैसी अनुभूति ही निर्वाण है, वैसी अनुभूति ही मोक्ष है। झरत दसहुं दिस मोती!

आज इतना ही।

समाप्त 

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