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गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-09)

प्रवचन-नौवां

17 दिसंबर 1985, कुल्लू-मनाली

इस खेल में गुरु ही जीतता है

प्यारे भगवान, रजनीश टाइम्स परिवार तथा रजनीशधाम नव संन्यास कम्यून के प्रत्येक सदस्य की ओर से बधाई। भारत तथा विदेश में बहुत से संन्यासी ऐसे हैं जिन्होंने आपको कभी नहीं देखा परंतु आपके प्रति उनका प्रेम एवं आपकी दृष्टि के प्रति उनकी प्रतिबद्धता प्रेरणा दायक है। यह कैसे घटित होता है, इतना प्रेम, इतनी श्रद्धा? 
वस्तुतः यह आसान है अगर तुमने मुझे न देखा हो और फिर भी प्रेम घटित हुआ हो। यह प्रतिबद्धता कहीं ज्यादा शुद्ध, ज्यादा बेशर्त, ज्यादा अवैयक्तिक होगी। मुझे देखना, मेरे साथ होना और फिर भी मुझसे प्रेम करना कठिन बात है।  कारण यह है कि हमारे मन का इस ढंग से पालन-पोष्ण हुआ है कि हम हमेशा आकांक्षाओं से भरे हैं। अगर मैं तुम्हारी आकांक्षाओं की पूर्ति करता हूं। तुम्हारी श्रद्धा डावांडोल होने लगती है। और जहां तक मेरा संबंध है, मैं तुम्हारी आकांक्षाओं के पूरा नहीं कर सकता। यदि मैं तुम्हारी आकांक्षाओं को पूरा करता चलूं, तब मैं तुम्हारे विकास में मदद करने वाला न रहा। कोई द्वार नहीं खुलता। मैं यहां तुम्हारे मन को सहारा देने के लिए नहीं हूं। इसे आत्यंतिक ऊंचाई तक ले चलने के लिए मैं यहां हूं। लेकिन तुम्हारी आकांक्षाएं ही समस्या है।

सोए-सोए ही तुम जीवन भर छोटी-छोटी बातों में आशा किए जाते हो। और जब भी कोई बात तुम्हारी धारणा के विरुद्ध होती है, तो तुम कभी भी यह नहीं सोचते हो कि तुम्हारी धारणा गलत हो सकती है। तब निश्चित ही यह व्यक्ति जिम्मेवार है। ऐसा एक जैन परिवार में हुआ जहां मैं ठहरा करता था। शाम करीब छह बजे होंगे। जिस महिला के घर में मैं ठहरा हुआ था उसके पिता, जो कि काफी वृद्ध थे, मुझसे मिलने आए। जैन परिवारों में छह बजे शाम, रात्रि भोजन के लिए करीब-करीब अंतिम समय है। सूर्यास्त के पश्चात तुम भोजन नहीं कर सकते।  मैं स्नान करने जा रहा था और उसके बाद भोजन करना था, चूंकि वे वृद्ध व्यक्ति काफी दूर से आए हुए थे और लगभग 95 वर्ष की उम्र रही होगी उनकी, सो मैंने कहा ठहरा, कोई जल्दी नहीं है, मैं थोड़ी देर से स्नान कर लूंगा और फिर भोजन कर लूंगा, इसमें कोई समस्या नहीं है। पहले मुझे उनसे बात कर लेने दो, क्यों आए हैं वे।
95 वर्ष के बूढ़े आदमी और पिछले तीस वर्षों से वे एक जैन आश्रम में रहा करते थे, संसार का त्याग कर चुके थे, एक संत के रूप में वे जाने जाते थे, मुझसे मिलने आना जैन समुदाय में आश्चर्यजनक बात थी! अतः बहुत से जैनी उनका अनुसरण करते हुए आए थे। सर्वप्रथम उन्होंने मेरे पांव छुए। मैंने कहा, यह ठीक नहीं है, क्योंकि आप 95 वर्ष के हैं! मेरे दादा जी की आयु भी 95 वर्ष नहीं थी।  उन्होंने कहा, मैं बहुत दिनों से आपके चरण स्पर्श करना चाहता था। मैं भयभीत था कि मृत्यु सभी कुछ नष्ट कर सकती है और कहीं मैं उनके चरण-स्पर्श से वंचित न रह जाऊं। मैंने आपकी केवल एक पुस्तक पाथ टू सेल्फ रिअलाइजेशन पढ़ी है। इसने मेरे पूरे जीवन को बदल डाला और तभी से आप मेरे गुरु रहे हैं। अगर मेरे वश में होता...एक सृष्टि कल्प में जैनों के चैबीस तीर्थंकर होते हैं, चैबीस पैगंबर होते हैं। इसका अर्थ है कि करोड़ों वर्षों में यह सृष्टि विलीन होगी और तब फिर एक नई सृष्टि का आरंभ होगा और फिर चैबीस तीर्थंकर होंगे।  उन्होंने मुझसे कहा, चैबीस तीर्थंकर पहले ही हो चुके हैं, लेकिन यदि यह मेरे वश में होता तो मैं आपको पच्चीसवां तीर्थंकर घोषित कर देता। कारण यह है कि आपने मेरे साथ इतना कुछ किया है जो वे चैबीसों नहीं कर पाए। वह मेरी प्रशंसा कर रहे थे कि तभी एक नौकर आया और वह कहने लगा, आपके नहाने की व्यवस्था हो गई है और भोजन ठंडा हो जाएगा। यह सुनकर उन वृद्ध व्यक्ति को धक्का लगा। वह कहने लगे, क्या? आप शाम को नहाते हैं? जैन तीर्थंकर तो बिल्कुल नहीं नहाते, क्योंकि वह तो शरीर को सजाना हुआ, इसको गंध रहित करना हुआ।
यह तुमसे जो निम्नतर है उसकी सेवा करना है; जो उच्चतर है उसके लिए इसकी बलि चढ़ाई जा सकती है। इसलिए जैन तीर्थंकर नहाते नहीं। और मैंने कहा, हां, मैं दो बार नहाता हूं, एक सुबह, एक बार शाम। उन्होंने कहा, सूरज डूब चुका और आपने अभी तक खाना नहीं खाया? पहली तो बात, जैन तीर्थंकर दिन भर में सिर्फ एक बार भोजन करता है इसलिए रात्रि भोजन का प्रश्न ही नहीं उठता। अगर आप दो बार भोजन करते भी हैं तो आपको इतनी समझ तो होनी चाहिए कि यह कम से कम सूर्यास्त के पूर्व हो जाए।  वे सारी प्रशंसा भूल गए। अब मैं तीर्थंकर न रहा। वर्षों तक मैं सिर्फ एक अपेक्षा बना रहा जिसका मैंने कोई वादा नहीं किया था। वह उनका ही मन था परंतु उन्होंने कह, मैं बिल्कुल गलत था। इतने वर्षों से मैं आपकी प्रशंसा करता रहा हूं, आपकी पुस्तकें पढ़ी हैं, लेकिन आप सही आदमी नहीं हैं। जिसका अनुगमन किया जाए। मैंने उनसे कहा, कि आप एक छोटी सी बात समझो। मैंने कभी भी आपको मेरा अनुसरण करने को नहीं कहा। मैंने कभी भी मेरी पुस्तक पढ़ने को नहीं कहा, मैंने कभी कहा नहीं कि आप मुझे अपना तीर्थंकर मानो। मुझ से कोई अपेक्षा रखने को मैंने कभी कहा नहीं। यह आसान था क्योंकि आपने मुझे देखा नहीं था, आपने मुझे जाना नहीं था।
पुस्तक मृत है। और आप जो पुस्तक पढ़ रहे हो, वह मेरी पहली पुस्तक है, मैं बहुत आगे निकल गया हूं। अगर आपने मेरी दूसरी, तीसरी, चैथी पुस्तक भी पढ़ी होती तो उन्होंने आपकी सारी प्रशंसा को नष्ट कर दिया होता। लेकिन वे इतने क्रोध में थे कि जाते समय जब मैंने कहा, कि फिर मेरे स्पर्श नहीं करेंगे? क्योंकि आप काफी वृद्ध हैं, फिर दुबारा हम मिलें कि न मिलें, उन्होंने कहा कि मैंने एक बार गलती की है, दोबारा ऐसा नहीं कर सकता।  इसलिए जो लोग पुस्तकों, टेप, वीडियो, फिल्मों के माध्यम से मेरे पास आए हैं उनको कोई समस्या नहीं है। उनके लिए उनका पुराना मन साथ लिए चलना आसान है। मैं उनके पुराने मन को बाधा नहीं पहुंचाता। वे मेरी पुस्तकों की अपनी अपेक्षाओं के अनुसार व्याख्या कर सकते हैं। असली कठिनाई तो मेरे साथ होना है। प्रतिदिन तुम मुझे ऐसी बातें कहते हुए पाओगे जो असंत हैं। तुम मुझे ऐसे कार्य करते देखोगे जो मुझे नहीं करने चाहिए थे, इस तरह से व्यवहार करते हुए जो कि मसीहा पा पैगंबर या एक अवतार के योग्य नहीं हैं। अतः असली समस्या तो उन लोगों को है जो मेरे साथ रह रहे हैं, क्योंकि उनको धीरे-धीरे, छोटे-छोटे अंशों में स्वयं ही अपने मन को, संस्कारों को गिराना होगा। उन्हें प्रतिक्षण मेरे और उनके बीच चुनाव करना होगा। या तो मैं रहूंगा या वे रहेंगे। दोनों एक साथ बिल्कुल नहीं रह सकते। अन्यथा वे निरंतर दिक्कत में, चिंता में पड़ेंगे। इसलिए या तो उन्हें स्वयं को बचाने के लिए मुझे छोड़ना पड़ेगा या यदि वे साहसी हैं तो उन्हें एक प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ेगा जो करीब-करीब मृत्यु के समान है, और वे पुनर्जीवित होंगे। जो लोग मेरे पास नहीं आए हैं, एक मनोहारी जगत की यात्रा कर रहे हैं- काल्पनिक। उनकी श्रद्धा, उनका प्रेम, उनकी स्वयं के मन की प्रति प्रतिबुद्ध है।
मैं उनके मन की एक कल्पना मात्र हूं। एक बाट् वास्तविकता नहीं, एक ऐसी वास्तविकता नहीं जिसके द्वारा उन्हें स्वयं को ही तोड़ना पड़ेगा।  जिस तरह सागर सतत स्वयं को किनारे के पत्थरों से तोड़ता रहता है...और यही एकमात्र परीक्षा होगी। लेकिन सामान्यतया हम यह सोचते हैं कि यह बहुत ही अनोखी बात है कि जिन लोगों ने केवल टेप पर मेरी आवाज सुनी है, मुझे वीडियो पर देखा है, मेरे प्रेम में पड़ गए हैं। यह बहुत से कारणों में से एक कारण है कि क्यों लोग मृत संतों को प्रेम करते हैं। वे जीसस क्राइस्ट के लिए मरने को क्यों तैयार हैं। वे यह भी नहीं जानते कि वह कभी हुए भी थे या नहीं। ऐसे भी लोग हैं जो यह सोचते हैं कि जीसस क्राइस्ट कभी नहीं हुई कि यह एक यहूदी नाटक था जो हर वर्ष खेला जाता था। ठीक भारत की तरह जैसे हम यहां प्रति वर्ष रामलीला खेलते हैं। कोई नहीं जानता कि क्या राम सच में हुए थे? जो कुछ हमें पता है वह है एक नाटक, जो पिछले पांच हजार सालों से हम खेलते चले आ रहे हैं। पांच हजार वर्षों तक लगातार एक नाटक खेलते-खेलते हमने राम को एक तरह की वास्तविकता प्रदान कर दी है। और राम के प्रति श्रद्धा दिखाना, उनके प्रति समर्पित होना आसान है क्योंकि राम तुम्हारे ही मन की एक कल्पना हैं। तुम उन्हें एक रूप दे सकते हो। तुम उन्हें जैसा चाहो वैसा बना सकते हो। तुम अपनी विचार प्रक्रिया के अनुसार व्याख्या कर सकते हो और वे इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं।  यह एक ज्ञात तथ्य है कि तुम दुनिया में जितने भी धर्म देखते हो वे उनके संस्थापकों की मृत्यु के बाद निर्मित हुए। अजीब बात है! फिर तुम उन्हें संस्थापक क्यों कहते हो?
उन्होंने इसे कभी बनाया नहीं। उनका पीछा किया गया, उन्हें सताया गया। तुम जो कुछ दुष्ट कृत्य कर सकते थे तुमने वे सब किए और जब वे मर गए तो एक महान धर्म उठ खड़ा हुआ- महान प्रशंसा, क्योंकि अब तुम व्यवस्था कर सकते थे। यह सब तुम्हारी कल्पना का खेल मात्र है। एक समसामयिक व्यक्ति को स्वीकार करना इतने प्रेम के साथ कि तुम्हारी उसके प्रति प्रतिबद्धता समग्र हो, यह एक अतिमानवीय कृत्य है, लेकिन यह रूपांतरित करता है। बुद्ध, महावीर, जीसस क्राइस्ट इनकी महानता को स्वीकार किसी को रूपांतरित नहीं करता। विश्व की आधी जनसंख्या ईसाई है। लेकिन हमें ऐसा कुछ दिखता नहीं है जिससे ऐसा लगे कि जीसस आधी मानवता में जीवित है। लाखों चर्च, लाखों पादरी, लेकिन तुम एक पादरी में वह शान, चमक, वह अधिकार नहीं देखते जो स्वयं के अनुभव से आती है। जो कुछ वे कर सकते हैं वह मात्र काल्पनिक समर्पण भर है। मनुष्य के बनाए हुए परमात्मा हैं, लेकिन जब कोई जीवित हो तो उसे परमात्मा कहना बहुत ही कठिन है। क्योंकि वह परमात्मा संबंधी तुम्हारी धारणाओं को निरंतर तोड़ता जाएगा। उदाहरण के लिए, जन यह सोचते हैं कि महावीर को कभी पसीना नहीं आया लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता। और मैं यह भी जानता हूं कि महावीर भी ऐसा नहीं कर सकते थे, क्योंकि पसीना निकलना एक स्वाभाविक प्राकृतिक है।
बिना पसीने के व्यक्ति जीवित नहीं रहेगा। पसीना तुम को एक सुस्थिर आंतरिक तापमान पर रखता है। जब बहुत गरमी होती है तो तुम्हें पसीना आता है। तुम्हारे पूरे शरीर में जो ग्रंथियां हैं वे पानी से भरी हुई हैं। जब भी किन्हीं परिस्थितियों में बहुत गर्मी हो तो ये पानी छोड़ने लगती हैं। वे सूरज को धोखा देती हैं। पानी के निकलते ही सूरज पाने को वाष्पीभूत करने लगता है। सूरज तुम्हारे अंदर प्रवेश नहीं कर सकता। पसीना सूरज को रोकता है और उसे पूरी तरह से धोखा देता है। सूरज वाष्पीकरण में व्यस्त हो जाता है और तुम्हारे भीत तापक्रम एकदम स्थायी बना रहता है। अगर ठंड है तो तुम्हारा पसीना नहीं निकलता है। अगर ठंडक है तो तुम कांपते हो। कंप-कंपी तुम को गरम कर देती है।  यह ठंडक के विरुद्ध एक प्रक्रिया है। कंपकंपी तुम्हें उसी तापक्रम पर रखती है। अतः सर्दी हो या गर्मी तुम्हारा शरीर एक निश्चित तापक्रम को बनाए रखने मग सक्षम है क्योंकि इसका जीवन अति सीमित है, मात्र 12 डिग्री तापक्रम- 9’ से 110 डिग्री। 9’ डिग्री से कम और कि यह तापक्रम बना रहे।  लेकिन अगर तुम एक कहानी लिख रहे हो या कुछ कल्पना कर रहे हो तो तुम उसमें कुछ भी जोड़ सकते हो- महावीर को पसीना नहीं आता। लेकिन जैनियों के लिए यही मापदंड है।  जब तक वे नहीं पाते कि कोई कड़ी धूप में नग्न खड़ा है और फिर भी पसीना नहीं आता, तब तक वे उसे सचमुच पहुंचा हुआ नहीं स्वीकार करते। अतीत में से परमात्मा का निर्माण कर लेना अति सरल है। एक समय था जब महावीर समसामयिक व्यक्ति थे। उनके समकालीन लोग उन्हें परमात्मा नहीं मानते थे। बुद्ध एवं महावीर दोनों ही समकालीन थे। औरों की क्या कहें, स्वयं उनमें से किसी ने भी दूसरे को परमात्मा नहीं माना। उनकी अपनी अपनी परिभाषएं थीं, और कोई भी जीवित व्यक्ति तुम्हारी परिभाषा में सीमित नहीं रह सकता।  यह आसान है उनके लिए, जो दूर हैं।
वे मेरे मैं करीब-करीब समसामयिक नहीं हूं। वे मुझमें जो भी गुण चाहते हैं, रच सकते हैं। वे मेरे चारों ओर कोई भी धारणाओं का इंद्रजात रच सकते हैं। मेरे बारे में सपने सजाने के लिए वे स्वतंत्र हैं। उनका समर्पण और प्रेम और उनकी प्रतिबद्धता एक स्वप्न है। और वे बहुत अच्छा, बहुत संतोष, बहुत खुशी अनुभव करेंगे कि उन्हें एक ऐसी व्यक्ति मिल गया है जो कि पूर्णरूपेण उनकी धारणा के अनुकूल पड़ता है कि व्यक्ति के कैसा होना चाहिए। उन्होंने पाया नहीं, उन्होंने रचा है, उन्होंने आविष्कार किया है।  परंतु मेरे निकट होने के लिए तुम्हें अपनी अपेक्षाओं को छोड़ना होगा, जो कि प्रत्येक व्यक्ति में बहुत सूक्ष्म रूप से मौजूद हैं। और विशेषकर मेरे साथ, क्योंकि मैं कटिबद्ध हूं कि मैं किसी की अपेक्षाओं को पूरा नहीं करूंगा। क्योंकि इसका अर्थ है कि मैं उसके विरुद्ध हूं। मैं उसके विषाक्त मन को बढ़ावा दे रहा हूं। मुझे तो उसे झकझोरना है चाहे वह मेरा दुश्मन ही क्यों न हो जाए। लेकिन मुझे झकझोरना है। और मुझे एक ढंग से जीना है, एक ढंग से बोलना है, ऐसी बातें कहनी हैं जिन्हें उसे अपने पूरे मन के खिलाफ भी समझना है, स्वीकार करना है। एक सदगुरु के साथ होने का अर्थ है संघ्र्ष- तुम्हारे मन और गुरु के बीच एक संघ्र्ष। और अगर गुरु सचमुच ही गुरु है तो वह तुम्हारे मस्तिष्क को जीतने नहीं देगा। या तो गुरु जीतता है या फिर तुम्हें छोड़कर चले जाना होता है। लेकिन इस खेल में तुम्हें जीतने नहीं दिया जा सकता है। यह एक विचित्र खेल है जिसमें हमेशा गुरु ही जीतता है। और फिर सतत हारते रहने के लिए साहस की जरूरत है। और फिर भी उसी व्यक्ति के प्रेम में होना जो कि तुम्हें पराजित रहा है, फिर भी उसी व्यक्ति के प्रति प्रतिबद्ध रहना जो कि तुम्हें मिटा रहा है। साधारणतः लोग इसे समझ नहीं पाते लेकिन यही यथार्थ है।
भगवान, बहुत से मंद बुद्धि के लोग काफी शोरगुल मचाते हैं। प्रेमपूर्ण, शांत, कोमल एवं ध्यानपूर्ण संन्यासियों को ब्रेन वाश कहकर गलत व्याख्या करते हैं। इस तरह की घटनाओं के संबंध में आपका क्या कहना है? 
उन मंद बुद्धि लोगों से कहो कि वस्तुतः यह ब्रेन-वाश ही नहीं बल्कि माइन्ड-वाश है, इसकी जड़ें कहीं अधिक गहरी हैं। ब्रेन-वाश का अर्थ है कि पत्तों को काटना, जो फिर से आ जाएंगे। वस्तुतः तम एक पत्ता काटोगे, तीन आ जाएंगे उसके स्थान पर। वृक्ष इतनी जल्दी हारने वाला नहीं। उन्हें कहो, कि यह माइंड-वाश है। और तुम सही रास्ते पर हो, तुम जो भी कह रहे हो वह सही है। लेकिन वह पूर्ण सत्य नहीं है, सिर्फ एक अंश है। पूर्ण सत्य यह है कि हमने मन को पूर्णतः गिरा देने का निर्णय किया है क्योंकि मन ने सिवाय पीड़ा, संताप, कष्ट, दुःस्वप्न के कुछ भी नहीं दिया है। तुम चाहो तो अपना मन बचाए रखो। तुम देख सकते हो कि हमारे लोग सरल हैं, निर्दोष हैं, आनंद में रहते हैं, वे प्रेमपूर्ण हैं। यदि ब्रेन-वाश इतना कुछ दे सकता है तो यह उचित ही है। इसमें गलत क्या है?
और उनसे यह भी कहो कि हमारे गुरु ब्रेन-वाश पर ही नहीं रुकते। क्योंकि यह मात्र ऊपरी है। वह मन (माइंड) को ही पूर्णरूपेण मिटा देना चाहते हैं और हमें अ-मनी (नो-माइंड) बनाना चाहते हैं जिसे कि वे ध्यान कहते हैं। लेकिन तुम्हारी समस्या क्या है? तुम अपने दुख में खुश रहो। तुम अपनी पीड़ा, संताप इत्यादि में जो कि तुम अपने को तथा औरों को दे रहे हो। - खुश रहो। क्यों तुम कुछ लोगों को, जो दुखी नहीं होना चाहते, छोड़ नहीं सकते, जो कि जीवन में आनंद से रहना चाहते हैं?  दरअसल हमें मंद बुद्धि के लोगों का उनकी ही भूमि पर सामना करना सीखना चाहिए। वे कहते हैं कि यह ब्रेन-वाश है। उनसे कहो कि हां, यह है। तुम किसलिए इंतजार कर रहे हो कि तुम्हारा ब्रेन-वाश न हो? यह पूरा ड्राइक्लीन है। तुम्हारे पास बचाने योग्य है भी क्या? किस बात से तुम भयभीत हो?  वे जो कुछ कहते हैं उन्हें उन्हीं के शब्दों पर लो। यदि वे कहते हैं कि यह सम्मोहन है, स्वीकार करो कि हां यह सम्मोहन ही है, लेकिन इसमें बुरा क्या है? तुम खुश नहीं हो, तुम अपने जीवन में आनंदित नहीं हो, तुम पीड़ा से भरे हो। तुम मृत्यु के बाद के स्वर्ग की प्रतीक्षा कर रहे हो। हमने इसे यहीं पर पा लिया है। आर अगर इसे तुम सम्मोहन कहकर पुकारना चाहते हो तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन यह पाने जैसा है।
आओ और अनुभव करो! हो सकता है तुम्हें भी स्वाद अच्छा लग जो। हमने तो दोनों को आजमाया है। तुम्हारा जीवन भी हमने जीया है और पाया कि यह नर्क है। और हमारा जीवन भी हमने जीया है जिसको कि तुम सम्होहन कहते हो, हम सम्होहन को चुनते हैं नर्क के विरुद्ध।  वे लोग तुम्हारी ओर सिर्फ शब्दों को फेंकते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा करे वे घटना की निंदा कर सकते हैं। वे मूढ़ हैं। उनके शब्दों को लेकर लड़ने से कि यह ब्रेन-वाश नहीं है, सम्मोहन नहीं है, तुम उन मूढ़ों के जाल में आ जाते हो। अच्छा है उन्हें झटका देना, यह कह कर कि ऐसा ही है। लेकिन स्पष्ट कर दो कि हम दोनों से ही परिचित हैं। हम तुम्हारे जीवन को भी जानते हैं, हमने उसे जीया है और हम इस जीवन के भी जानते हैं। हम जी रहे हैं। तुम दोनों को नहीं जानते हो।
इसलिए तुम हमारे जीवन के बारे में कुछ नहीं कह सकते। थोड़ा साहस जुटाओ, हमारे जीवन का भी अनुभव लो, तब जाकर तुम तुलना कर सकते हो। और अगर तुम पाते हो कि ब्रेन-वाश संन्यासी का जीवन, सम्मोहित संन्यासी का जीवन पुराने नर्क से श्रेष्ठ नहीं है तो तुम अपने नर्क में हमेशा वापस जा सकते हो। हम तुम्हारी सहायता करेंगे। हम तुम्हें आश्रम के बाहर फेंक देंगे।  मैंने पाया है कि उनके लेबल को स्वीकार कर लेना ज्यादा ठीक है बजाय लेबल के बारे में अनावश्यक विवाद करने के। लेबल से फर्क नहीं पड़ता बल्कि एक मुदा बना लो कि हमें इसका अनुभव है और तुम बिना अनुभव के बोल रहे हो। तुलना के लिए तुम्हारे पास कोई उपाय नहीं है, हमारे पास है। और फिर भी हम तुम्हारे नर्क में नहीं आ रहे हैं।
 भगवान श्री, ऐसा मालूम पड़ता है कि अमरीकन अधिकारी तथा शासन, और विश्व भर के सभी शासन, हम संन्यासियों की एकता और साहस को देखकर इतने ज्यादा आश्चर्य चकित हुए हैं, जितने कि हम लोग उनके आपके प्रति किए नए नृशंस दुव्र्यवहार से भी नहीं हुए हैं।  भगवान, क्या आप ऐसा सोचते हैं कि हमारी कोई भूल हो रही है, या फिर इस तरह की असाधारण परिस्थिति से हम क्या सीख सकते हैं? 
नहीं, तुम्हारी कोई भूल नहीं हुई हैं। तुम्हारे लिए यह घटना इतनी नयी थी, कि तुम समझ ही नहीं सकते कि क्या हो रहा। तुम असमंजस में पड़ गए। लेकिन तुमने अपनी ताकत अच्छी तरह से दिखा दी। और तुमने अमेरिकन सरकार को इस बात का एहसास दिलाया कि स्वयं की लोकतांत्रिक प्रतिमा पर धब्बा लगाए बिना वे मेरे साथ कुछ नहीं कर सकते। इसमें बहुत खतरा था।  एक कारागृह का शेरिफ- पहले कारागृह का, जिसमें मैं था- मेरा मित्र बन गया था; उसने मुझे बताया, मुझे यह सब आपसे नहीं कहना चाहिए लेकिन दुनिया भर से हजारों तार, हजारों फोन, हजारों फूल हजारों विरोध-पत्र...शासन हिल गया है।
उन्होंने यह नहीं सोचा था कि सिर्फ एक आदमी को छूना ओ से खेलने जैसा है। तो मैं आपसे एक बात कह सकता हूं, कि वे आपका बाल भी बांका नहीं कर सकते। वे आपके शरीर को हाथ भी नहीं लगा सकते। बल्कि हमें तो ऐसे आदेश हैं कि आपको पूरी सुरक्षा देनी है, और आपको कुछ भी नहीं होना चाहिए; नहीं तो हम संसार को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहेंगे।  और यह बड़ी अजीब बात थी कि उन्हें मेरे लिए सुरक्षा की वही व्यवस्था करनी पड़ी, जो वे अमेरिका के राष्ट्रपति के लिए करते थे। मेरे पीछे पांच कारें होती थीं, पांच मोटर साइकिलें, रास्तों पर यातायात बंद की जाती। उन्हें डर था कि जब तक मैं उनके संरक्षण में था तब तक यदि मुझे कुछ हो जाता, तो उसके लिए वे जिम्मेदार ठहराए जाते।  इस आदमी ने मुझसे कहा, यह मेरी जिंदगी में पहली बार हो रहा है कि हमें इसकी चिंता नहीं है कि आप भाग जाएंगे, हमें इसकी चिंता है कि कोई आपको नुकसान न पहुंचाए। अन्यथा उसका दोष हमारे सिर पर आएगा।  पहले ही दिन किसी ने उसे फोन किया।
अभी मुझे वहां पहुंचे बस दो-तीन घंटे ही हुए होंगे, वह आदमी शायद आस्ट्रेलिया से बोल रहा था- कि आप चिंतित होंगे; क्योंकि इतने ज्यादा टेलीफोन आ रहे हैं, तार आ रहे हैं।  उसने उस आदमी से कहा, नहीं, हम इसके आदी है; क्योंकि यह विशिष्ट लोगों का कारागृह है। और यहां पर महत्वपूर्ण व्यक्ति आते रहे हैं- मंत्री मंडल के सदस्य, सर्वोच्च राजनीतिक वर्तुल के लोग। तो इसमें कोई बड़ी समस्या नहीं है।  लेकिन तीन दिन के बाद आंखों में आंसू भरकर उसने मुझसे क्षमा मांगी। उसने कहा, यह मेरे हृदय पर बोझ बना रहेगा, जो मैंने उस व्यक्ति से कहा। मैं उसका नंबर नहीं जानता, अन्यथा मैं उससे माफी मांगता। तब आपको आए दो-तीन घंटे ही हुए थे, इसलिए मुझे आपके बारे में कुछ पता नहीं था। लेकिन अब, तीन दिन के बाद, मैं सुनिश्चित रूप से कह सकता हूं कि हमारे कारागृह में ऐसा व्यक्ति कभी नहीं आया। पूरा कारागृह आपके पक्ष में है; इसके पांच सौ कैदी आपके पक्ष में हैं; इसका सम्पूर्ण चिकित्सा विभाग आपके पक्ष में है, मैं आपके पक्ष में हूं। और पूरे विश्व का ध्यान इस बात पर है कि आपको कुछ हो गया, तो वह अमेरिका की प्रतिमा के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध होगा।  तो मैं आपसे यह कहने आया हूं कि मुझे क्षमा करें, कि मैंने उस आदमी से कहा कि हमारे यहां बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति आ चुके हैं; लेकिन वह वक्तव्य गलत था। हमारे यहां ऐसा व्यक्ति कभी नहीं आया, जिसके बारे में पूरा जगत चिंतित हो। हमारे यहां मंत्री मंडल की कोटि के लोग आए हैं, लेकिन आखिर...अधिक से अधिक उनका महत्व राष्ट्रीय तल पर था; लेकिन कोई भी अंतरराष्ट्रीय रूप से महत्वपूर्ण नहीं था, और न किसी को इतना प्रेम मिला।
दूसरे दिन उसने मुझसे पूछा, हम इन फूलों का क्या करें? इतने फूल आ रहे हैं कि इस विशाल कारागृह में भी उनके लिए जगह नहीं है।  तो मैंने उससे कहा, इन फूलों को मेरी ओर से सभी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भेज दो।  उसने वही किया। और उसका प्रत्युत्तर असीम था। जब वे मुझे उस कारागृह से हवाई अड्डे पर ले जाने लगे, तो पूरे रास्ते पर दोनों ओर खड़े होकर विद्यार्थी फूल बरसा रहे थे।  वस्तुतः वे लोग पछता रहे होंगे कि उन्होंने बड़ी मूढ़तापूर्ण भू की। उन्होंने हमारे शंातिपूर्ण आंदोलन को एक विश्व-विख्यात घटना बिना दिया। सब सारे संसार में, सभी भाषा आए में, यह एक घरेलू नाम हो गया है।  कारागृह में बिताए गए मेरे बारह दिन इस आंदोलन के लिए बहुत सहयोगी रहे हैं। वे कुछ भी कर नहीं सके क्योंकि उनके हाथों में कुछ था ही नहीं। वे सिर्फ बेवकूफ बने। और उन्होंने पाया क्या?  हमने उनके मरुस्थल को मरूद्यान में बदल दिया था, अब फिर से वह मरुस्थल बन जाएगा- यह उनका लाभ हुआ। लेकिन हमने बहुत कुछ पाया है। ये चार साल अब नए कम्यून की आधार शिला बनेंगे, जो कि स्वभावतः अधिक श्रेष्ठतर, अधिक बेहतर होगा। तब हम इतने कुशल नहीं थे; और उससे हमें बहुत सी नयी कल्पनाएं मिली हैं।  उदाहरण के लिए, अब मैं किसी भी दशा में, किसी शासन के अंतर्गत कम्यून नहीं बनाऊंगा। मैं एक नितांत स्वतंत्र द्वीप की खोज कर रहा हूं, जहां तुम्हें किसी वीसा की जरूरत नहीं है, कोई तुम्हें यह न बताए कि तुम कितने दिन रह पाओगे।  और हम वहां पर कोई शासन निर्मित नहीं करेंगे; हम उसको राष्ट्र नहीं बनाएंगे क्योंकि मैं शासनों और राष्ट्रों के खिलाफ हूं। और अब हमें उस कम्यून में कुछ और भी सिद्ध करना हैः लोग बिना राष्ट्र के रह सकते हैं, लोग फौजों के बिना रह सकते हैं और उन्हें कारागृहों, पुलिस तथा न्यायाधीशों की कोई जरूरत नहीं है।  तो यह अत्यधिक सहयोगी रहा है। और विश्व में फैल हुए संन्यासियों के पूरे समूह को इस घटना ने नव-जीवन दिया है। वे सोचने लगे हैं कि वे कुछ अर्थपूर्ण काम कर रहे हैं, जो कि दुनिया की महानतम सत्ता को विचलित कर सकता है।
अमेरिका अकारण विचलित नहीं हुआ था। वह इसलिए विचलित हुआ था क्योंकि हम कुछ ऐसा निर्माण कर रहे थे, जो हर सरकार को और हर राजनीतिक को विचलित कर देगा।  तो अब मेरे लिए संन्यास, सिर्फ तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी शंाति, तुम्हारा मौन तुम्हारा जीवन ही नहीं है। अब, बड़े विचित्र ढंग से, हम संपूर्ण विश्व की नियति के साथ जुड़ गए हैं। उन्होंने ही हमें बाध्य किया है। हम चुपचाप अपनी राह पर चले जा रहे थे, हम उन्हें कोई तकलीफ नहीं दे रहे थे; उन्होंने ही हमें उकसाया है। तो अब हमें यह सिद्ध करना है कि वे सही थे!  अब यह किसी व्यक्तिगत जीवन की वैयक्तिक क्रंाति न रही। हम ऐसा क्षेत्र निर्मित करेंगे, जो पूरे विश्व के लिए आदर्श बन जाएगा। अगर यह पांच हजार या दस हजार, या उससे अधिक व्यक्तियों के साथ घट सकता है, तो यह हर कहीं संभव क्यों नहीं हो सकता? हम पहली बार, उन समस्याओं में प्रवेश कर रहे हैं, जिन्हें दुनिया के नेता हजारों सालों में सुलझा नहीं सके। और हमने पांच सालों के भीतर उन्हें सुलझा दिया है। और हम में आत्म-उत्साह बहुत है।  निश्चित ही, मैं कैद में था इसलिए संन्यासी बहुत दुखी हुए। और वे असहाय अनुभव कर रहे थे क्योंकि वे कुछ कर नहीं सकते थे। लेकिन उन्हें इस भंाति नहीं सोचना चाहिए। जो भी आवश्यक था वह सब उन्होंने किया। जरूरत थी सिर्फ विश्व जनमत की, और उन्होंने विश्व जनमत बदल दिया है।
अब हमारे प्रति लोगों की इतनी सहानुभूति है, जितनी पहले कभी नहीं थी। अब बहुत बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग हममें उत्सुक हुआ है, जो पहले कभी नहीं था। विश्व का पूरा प्रसार माध्यम.....दो महीने लगातार हम चर्चित रहे; और फिर भी हर देश से मांग है कि वे आना चाहते हैं, और इस संबंध में कुछ अधिक जानकारी चाहते हैं।  जो घटनाएं घटी हैं; उनके संदर्भ में देखा जाए तो हमारी प्रचंड विजय हुई है। अगर वे घरों और रास्तों को नष्ट करते हैं तो कौन इसकी परवाह करता है? हम कोई घर नहीं हैं, रास्ते नहीं हैं। और अगर हम वह कम्यून निर्मित कर सकते हैं, तो हम कहीं भी और कई कम्यून निर्मित कर सकते हैं।  और अब की बार, पूरे विश्व का ध्यान उस पर केंद्रित होगा। यह सिर्फ उन लोगों के लिए नहीं होगा, जो साधारण जगत से आगे होना चाहते हैं, जो संन्यासी हैं। अब हम इस बात की पूरी फिकर लेंगे कि पूरे विश्व उस पर लगा रहे, और पूरा विश्व उससे कुछ सीख ले। उन्होंने हमें उकसाया है, अब हमें चुनौती को स्वीकार करना है। और मुझे चुनौतियां बहुत अच्छी लगती हैं। और मुझे परिवर्तन भी अच्छे लगते हैं। तो चिंता करने की कोई बात नहीं है।  अब हम इतनी अच्छी स्थिति में हैं, जितने पहले कभी नहीं थे। सबसे मुश्किल स्थितियां, तुम्हारे भीतर जो श्रेष्ठतम है उसे प्रकट करती हैं।
जब स्थिति मुश्किल न हो, तो आदमी की मनोवृत्ति शिथिल होने की ओर, सुस्त होने की ओर झुकती है। यदि घर में आग लगी हो, तो तत्क्षण तुम देखोगे कि हर व्यक्ति की पूरी ऊर्जा जग जाती है फिर कोई इसकी फिकर नहीं करेगा कि बर्फ की वर्षा हो रही है, या ठंड है या क्या है!  अमेरिका ने हमारे ऊपर आक्रमण करके अपनी ही मौत को निमंत्रण दिया है। उसमें कुछ देर जरूर लगेगी, लेकिन मैं इस घटना को इसी तरह देखता हूं।
भगवान, एक बार आपने कहा था कि दो सौ ज्ञानोपलब्ध व्यक्ति ऐसी ऊर्जा निर्मित करेंगे, जो उन शक्तियों को नष्ट कर देगी, जो तीसरा विश्व युद्ध शुरू कर सकती हैं। इन दो सौ व्यक्तियों को ढूंढ़ने में आप कहां तक सफल हुए हैं? 
मैं काफी हद तक सफल हुआ हूं। लेकिन इस बीच कई चीजें बदल गई हैं।  एक बात सुनिश्चित है, कि हम दो सौ ज्ञानोपलब्ध व्यक्ति निर्मित करने में और तीसरे विश्व युद्ध से बचने में सफल हो जाएंगे। लेकिन सवाल यह है, जो इस बीच पैदा हुआ है, कि- और यहां पर मेरी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती- क्या हम तीसरे विश्व-युद्ध से बचना चाहेंगे? क्या उससे इसलिए बचना चाहिए, ताकि ये मूढ़ इसी तरह जीए चले जाएं? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि ये बेवकूफ आपस में लड़ें? एक-दूसरे को मार डालें और दुनिया में बहुत थोड़े से लोग बचें, जो फिर अ ब स से शुरुआत करें?  इस संबंध में किसी ने सोचा नहीं है, लेकिन मुझे लगता है कि यह अस्तित्वगत जरूरत है। मनुष्य इतने कुरूप, अमानवीय और जहरीले मार्गों पर पहुंच गई है, कि अच्छा होगा कि उसे खत्म ही हो जाने दें। रोनाल्ड रीगन की रक्षा करने में क्या सार है? मुझे इसमें कोई मतलब नहीं दिखाई देता।  यह अत्यंत महत्वपूर्ण बात है कि फिर से नयी शुरुआत क्यों न की जाए? पुरानी और सड़ी-गली चीजों का बोझ इतना ज्यादा हुआ है कि उसकी रक्षा करते जाना, करते जाना- इससे उस सड़े-गले कचरे की भी रक्षा हो जाती है, उन हालातों की भी रक्षा हो जाती है।
अच्छा होगा कि इस्लाम नष्ट हो जाए, हिंदू धर्म नष्ट हो जाए, ईसाइयत नष्ट हो जाए, पोप चले जाएं, वेटिकन विदा हो जाए।  निश्चय ही, कुछ लोग रहेंगे। ये लोग आदिवासी होंगे, जिनका कोई धर्म नहीं होगा, कोई राजनीति नहीं होगी, जो शिक्षित नहीं होंगे और जो यथासंभव स्वाभाविक जीवन जी रहे होंगे। यह कहीं बेहतर होगा। एक बार ये सोवियत युनियन और अमेरिका मिट जाएं तो नए मनुष्य की शुरुआत करने में सुविधा होगी। क्योंकि उसका कोई अतीत नहीं होगा। सारा अतीत खो गया। नए लोग...बचे हुए थोड़े से लोगों के पास सिर्फ भविष्य होगा और जो कुछ भी अतीत में हुआ है उसका अनुभव होगा- उसे दोहराने के लिए नहीं, जीवन की नयी राहों की खोज करने के लिए।  तो मैं किसी ऐसे द्वीप की खोज में हूं, जो इतनी दूर हो कि वह उस युद्ध से अछूता रहेगा जो अमेरिका और रूस के बीच होगा। उन्हें उसे भुगतने दो, उनकी यही पात्रता है।
और हम उस द्वीप पर एक समाज निर्मित कर सकते हैं। अगर इस विश्व का विनाश हो जाता है, तो जिन लोगों को हमने बचाया है उन्हें बिल्कुल ही नई शुरुआत करने के लिए, पूरे जगत में भेज सकते हैं। शायद अस्तित्व इस मनुष्य से, और वह जो बन गया है उससे थक चुका है।  तो वे दो सौ लोग निकट हैं, लेकिन शायद में थोड़ी रुकावट...मैं उन्हें थोड़ा रुकने के लिए कह सकता हूं। पहले तीसरा विश्व युद्ध होने दो, उसके बाद तुम ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हो। और फिर पूरे जगत में लोगों की खोज में घूमते फिरो; क्योंकि तब पासपोर्ट की जरूरत नहीं होगी और पहली बार पूरा विश्व सब के लिए उपलब्ध होगा।  यह ख्याल खतरनाक मालूम होता है लेकिन मैं खतरनाक ख्याल पसंद करता हूं।
भगवान, भारतीय पत्रकार आपकी सिर्फ भारत की आलोचना ही लिपिबद्ध और प्रकाशित क्यों करते हैं? मुझे याद नहीं आता कि सच्चे भारत के विषय में आपके सुंदर प्रवचन मैंने कहीं पढ़े हों। 
कारण सरल है। क्योंकि स्वतंत्र भारतीय पत्रकारिता जैसी कोई चीज ही नहीं है। या तो दूरदर्शन, आकाशवाणी जैसे प्रसार माध्यम पर शासन का नियंत्रण होता है...और खास कर भारत जैसे देश में, जहां अधिकांश लोग पढ़ नहीं सकते, लेकिन वे देख सकते हैं, सुन सकते हैं। तो सरकार सचमुच ही बड़ी चालाकी कर रही है। उसने दूरदर्शन और आकाशवाणी को अपने नियंत्रण में रखा है, ताकि वे अस्सी प्रतिशत भारत से संपर्क बना सकें और उनके दिमाग में अपनी धारणाएं भर दें।  अब समाचारपत्र बचे हैं। वे स्वतंत्र दिखाई पड़ते हैं, लेकिन हैं नहीं। सरकार ने अप्रत्यक्ष रूप से उनकी स्वतंत्रता के पंख काट दिए हैं। अगर कोई समाचारपत्र उसको दिए गए आदेशों के खिलाफ कुछ करता है, तो उसका न्यूज पिं्रट का नियतांश (कोटा) कम कर दिया जाता है।
न्यूज पिं्रट का कागज बाजार मग उपलब्ध नहीं है, वह शासन के हाथों में ही होता है। अब यह बड़ी सूक्ष्म चाल हैः हम जो चाहते हैं वही लिखो, अन्यथा तुम्हें लिखने के लिए कोई कागज नहीं दिया जाएगा।  भारतीय समाचारपत्र अधिकतर शासन के विज्ञानों पर निर्भर करते हैं। जैसे ही वे इस तरह की बात लिखने लगते हैं, शासन नहीं चाहता, तो उन्हें विज्ञापन मिलने बंद हो जाते हैं। ये समाचारपत्र अपने आप मर जाते हैं, उन्हें किसी को मारने की जरूरत नहीं पड़ती। सब समाचारपत्रों के मालिक कुछ अति धनवान लोग हैं- कोई चार या पांच परिवार।  ये चार या पांच परिवार मूलतः शासन के पक्ष में होते हैं क्योंकि उन्हें लाइसेंस की जरूरत होती है, शासन से हर तरह के सहारे की जरूरत होती है। और उनके बीच यह सौदा होता है कि वे समाचारपत्र सरकारी नीति का समर्थन करें। तो वस्तुतः इस संपूर्ण चित्र को देखते हुए भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता है ही नहीं। वे वही लिखते हैं, जो उनके मालिक उनसे लिखवाना चाहते हैं।  अब जहां तक मेरा संबंध है, उन्हें वही बातें लिखनी पड़ती है, जिससे भारतीय लोगों के मन में मेरे प्रति विरोध पैदा हो। मेरे लिए जीवन दोनों है- दिन भी है और रात भी, जीवन भी और मृत्यु भी; और मैं उस पर सभी दृष्टिकोण से बोला हूं, जितने कि संभव हैं। लेकिन जिस समाचारपत्र का मालिक हिंदू हो, वह ऐसी बातें प्रकाशित नहीं करेगा, जिससे जनता के मन में मेरे प्रति सहानुभूति पैदा हो। मैं इतना बोला हूं, जितना कोई हिंदू नहीं बोला होगा।
यदि वे चुनना चाहें, तो वे पूरे भारत को मेरे पक्ष में रूपांतरित कर सकते हैं। लेकिन उन्हें इसी बात का डर है। इसलिए वे वही हिस्से चुनते हैं, जहां मैंने आलोचना की है।  और मैं कोई राजनीतिक नहीं हूं। जीवन भर, राजनीतिक मुझे सलाह देते रहे हैंः आप इस देश में एक महान घटना बन सकते हैं। लाखों लोग आपके साथ खड़े हो सकते हैं; आपको थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए, बस। आप हिंदू धर्म पर इतने सुंदर ढंग से बोलते हैं, फिर कभी-कभी आप उसकी आलोचना क्यों करने लगते हैं? आप जैन धर्म पर इतने सुंदर प्रवचन देते हैं, फिर किसी भी छोटी सी बात पर उसकी आलोचना कर देते हैं?  आप बौद्ध धर्म पर इतना बोले हैं, जितना कोई नहीं बोला है; और फिर भी कोई बौद्ध आपसे सहानुभूति नहीं रखता, क्योंकि आप उसकी आलोचना करते रहते हैं। आप नब्बे प्रतिशत, गौतम बुद्ध की और उनके धर्म की सुंदरता प्रकट करके दिखाते हैं, लेकिन शेष दस प्रतिशत से यदि आप बच सकें तो...।  मैंने कहा, वह असंभव है, वह लोगों को धोखा देना होगा। मैं जानता हूं कि वह इस प्रतिशत अंश वहां पर है; मैं यदि उसके संबंध में कुछ नहीं कहता हूं, तो वह लोगों के साथ धोखा होगा। और उसका मेरे हृदय पर भारी बोझ रहेगा कि मैंने पूरी तरह से सब कुछ उदघटित नहीं किया; कि मैं लोगों की तरफ देखता रहा, और वे जो सुनना चाहते थे वही उनसे बोलता रहा, बजाय इसके कि मैं जो बोलना चाहता हूं वही बात करूं।
तो मैंने उनसे कहा, मैंने तय किया है कि मैं अकेला ही रहूंगा। मुझे तुम्हारे लाखों लोग नहीं चाहिए मेरे साथ; लेकिन मैं पूरी बात ही कहूंगा। मैं सौंदर्य को प्रकट करूंगा लेकिन साथ वहां जो छिपी हुई कुरूपता है, उसकी अपेक्षा नहीं करूंगा। क्योंकि सौंदर्य कुछ ऐसा है, जिसे सिर्फ थोड़े से, विरले, बुद्धिमान लोग समझ सकते हैं। तो बुद्ध ने भी उस संबंध में कहा है, लेकिन वह लोगों के सिर ऊपर से निकल गया है। लेकिन कुरूपता, जो कि सिर्फ दस प्रतिशत है, उसने लोगों के जीवन को प्रभावित किया है।  उस नब्बे प्रतिशत ने लोगों के जीवन को जरा भी प्रभावित नहीं किया है, लेकिन उस दस प्रतिशत ने प्रभावित किया है। अब तुम मुझसे कह रहे हो कि उस दस प्रतिशत के संबंध में भी मत बोलिए, जिसके कारण इस देश में इतना दुख, इतनी गरीबी, और सब तरह की मूढ़ताएं जारी हैं। मैं तुम्हारी सलाह नहीं मान सकता।  उदाहरण के लिए, यह अच्छा है कि बुद्ध अहिंसा पर बोले, लेकिन फिर इस देश की दो हजार सालों की गुलामी के लिए कौन जिम्मेवार है?
उनकी अहिंसा की शिक्षा अधूरी है। लोगों ने उसको स्वीकार किया कि वह बहुत अच्छी है; लेकिन इस शिक्षा ने लोगों को बहादुर नहीं बनाया, कायर बनाया। वे लोगों को न मारने की बात कर रहे थे, लेकिन मूलभूत रूप से उनके मन में यह ख्याल था कि हम न मारे जाएं। तो अगर तुम किसी को नहीं मारते, तो तुम भी बच जाते हो।  यह जरूरी नहीं है। बुद्ध ने उनसे कभी नहीं कहा था, कि तुम्हारे दूसरों को न मारने का यह मतलब है, कि वे तुम्हें नहीं मारेंगे। और न ही महावीर ने उनसे कहा था। फिर जब लोग तुम्हारे देश पर आक्रमण करना चाहते हैं, तुम्हारी संपदा लूट लेते हैं, पत्नियों को भगाकर ले जाते हैं, बच्चों को मारते हैं, औरतों पर बलात्कार करते हैं, तुम्हारे घर और शहर जला डालते हैं, तब तुम क्या करोगे? तब अहिंसा क्या करेगी?  मेरी दृष्टि में, वस्तुतः अहिंसक व्यक्ति वह है, जो किसी की हत्या नहीं करता, किसी को दुख नहीं देता; क्योंकि वह हत्या करने के और चोट पहुंचाने के खिलाफ होता है, लेकिन यदि कोई उसे चोट पहुंचाने लगता है, उसे मारने लगता है, तब वह भी मारने के खिलाफ होता है। वह उसे होने नहीं देगा।  वह किसी प्रकार ही हिंसा का सूत्र-पात्र नहीं करेगा, लेकिन अगर उसे खिलाफ कोई हिंसा की पहल करें, तो वह जी जान से लड़ने को तैयार हो जाएगा। तभी अहिंसक लोग स्वतंत्र रह सकते हैं; नहीं तो वे गुलाम हो जाएंगे, गरीब हो जाएंगे, और निरंतर लूटे जाएंगे।  दो हजार सालों, तक कितने लोगों ने भारत को लूटा! उसके लिए कौन जिम्मेवार है? बुद्ध और महावीर, दोनों इसके लिए जिम्मेवार हैं।
अब ऐसा कहने का मतलब है...तत्क्षण जैन समाचार पत्र इस बात को पकड़ लेंगे, बौद्ध समाचारपत्र उसको उठा लेंगे; और जैनों और बौद्धों को मेरे खिलाफ भड़का देंगे। लेकिन मैं अपने को पूरा सत्य कहने से रोक नहीं सकता।  तो इसमें थोड़ा समय लगेगा।  वस्तुतः जिस भंाति हमारा आंदोलन फैला है, वह असाधारण है। जीसस के तो केवल बारह ही शिष्य थे...और केवल पंद्रह सालों में हमारा आंदोलन दुनिया पर छा गया है। बस, दस साल और- और फिर कोई समस्या नहीं रहेगी। ये सब मूढ़ जो खिलाफ पैदा कर रहे हैं, ये तुम्हारे पीछे दौड़ेंगे।  और जब मैं कैद में था तब ऐसा हुआ। अमेरिका का पूरा प्रसार माध्यम तत्क्षण सहानुभूतिपूर्ण हो गया; क्योंकि वे देख सके कि तुम एक निर्दोष व्यक्ति को सता रहे हो, जिसने किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया, जिसने कोई अपराध नहीं किया। उसका एकमात्र अपराध यह है कि उसने एक सुंदर कम्यून निर्मित किया है- एक प्यारी जगह। जो भी उसे देखने आता था, वही कामना करने लगता था, कभी न कभी मैं यहां रहना चाहूंगा।
यही मेरा एकमात्र अपराध था। पूरी दुनिया में हमारे जो संन्यासी हैं, उनमें बहुत बुद्धिमान लोग हैं। इसलिए ये सब साधारण बुद्धि के लोग, और ये पत्रकार- इनकी हमें कोई परवाह नहीं है। और ये लोग गुलाम हैं। तुम देखोगे जैसे-जैसे पश्चिम प्रेम और प्रसार माध्यम मेरे प्रति सहानुभूतिपूर्ण होता जा रहा है, ये मूढ़ उनके पीछे चल पड़ेंगे। उनकी वही मनोवृत्ति है- गुलामों की।  रवींद्रनाथ टेगोर को जब नोबेल पुरस्कार दिया गया तब ऐसा हुआ था; उसने उसके बाद ही भारत को पता चला कि उनके देश में एक महान कवि है। और उन्हें डाक्टरेट की उपाधि देने के लिए विश्वविद्यालय उन्हें निमंत्रित करने लगे। उनमें सबसे पहला था, कलकत्ता विश्वविद्यालय। और वे जीवन भर कलकत्ता में रहे थे; और उनकी सर्वश्रेष्ठ कृतियां बंगाल भाषा में थी। उन्हें एक छोटी सी किताब पर नोबेल पुरस्कार मिला था, जो उन्होंने स्वयं अनुवादित की थी। उनका अधिकांश साहित्य उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, जिसका अभी तक कोई अनुवाद नहीं हुआ है।
लेकिन कलकत्ता विश्वविद्यालय ने कभी उन्हें डाक्टरेट देने की फिकर नहीं की। और अब, चूंकि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था, सब भारतीय विश्वविद्यालय...लेकिन रवींद्रनाथ ऐसे आदमी थे, जिनसे मैं प्रेम करता हूं। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय को इंकार कर दिया। उन्होंने कहा, आप नोबेल पुरस्कार को डाक्टरेट दे रहे हो, मुझे नहीं। मैंने अपनी पूरी जिंदगी यहां बितायी है; आपने कभी मुझे विश्वविद्यालय में आने के लिए भी नहीं कहा- कि आप आएं और लोगों को अपनी कविता सुनाएं। अब मैं आपकी डाक्टरेट क्यों स्वीकार करूं? वह मेरा अपमान है।  लेकिन यह देश ऐसा ही है। दो हजार सालों तक गुलाम रहने के बाद...तुम उन्हें दोषी भी नहीं ठहरा सकते। वे सिर्फ पश्चिम की तरफ देखते रहते हैं- वहां जो भी घटता है, वे तत्क्षण उसका अनुसरण करने लगते हैं।  और पश्चिम्..उनका प्रेस, उनका प्रसार माध्यम बहुत मैत्रीपूर्ण और प्रेमपूर्ण हो रहा है। तो ये लोग, जल्दी ही पीछे आनेवाले हैं। चिंता की कोई बात नहीं।  और वे क्या नुकसान पहुंचा सकते हैं? मेरे अनुभव में, मुझे कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता- फिर वह मेरे पक्ष में लिखे, या विपक्ष में। बस, उसे लिखते रहना चाहिए। दोनों हालत में मैं उसका उपयोग कर लूंगा। तुम पूरे विश्व को दोस्त नहीं बना सकते; और वह नीरस भी लगेगा।
दुश्मन कुछ मिर्च-मसाला डालते हैं! 
17 दिसंबर 1985, कुल्लू-मनाली 

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