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सोमवार, 3 दिसंबर 2018

संबोधि के क्षण-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

जन्मों-जन्मों का जीवन

प्रश्नः

बंदर से आदमी का शरीर आया हूं। कृपया इसे समझाए और इस पर प्रकाश डालें।
इसमें समझने की बात ही बहुत ज्यादा नहीं है। बंदर से आदमी की देह मिली है, यह भी आपको कैसे समझ में आता है? यह इसलिए समझ में आता है कि पीछे डार्विन ने बहुत मेहनत की, और यह समझाने की कोशिश की कि शरीर का जो विकास है, मनुष्य के पास जो शरीर है, वह शरीर बंदर के पास जो शरीर है, उसकी ही आगे की कड़ी है, यह शरीर उससे ही विकसित होकर आया हुआ है। यह तो आधी बात हुई। अगर मनुष्य केवल शरीर है, तब तो बात खत्म हो गई। मनुष्य अगर आत्मा भी है..जैसा कि है, तो कैसी विकास यात्रा से आ रही है? प्रकृति में बहुत बहुत तलों पर बहुत तरह का विकास चल रहा है। जैसे शरीर की कड़ी बंदर से जुड़ी हुई है वैसे ही अगर हम आदमी के पुनर्जन्मों में जाने की कोशिश करें..जैसे, आपके पुनर्जन्मों को जानने की, पिछले जन्मों को जानने की कोशिश की जाए तो यह बड़ा आश्चर्यजनक अनुभव है कि अगर दस पांच लोगों को उनके पिछले जन्मों की स्मृति में ले जाया जाए तो दस पांच जन्म तो उनके मनुष्यों के मिलेंगे, लेकिन मनुष्यों के अतिरिक्त अगर पीछे कहीं याददाश्त कोघुमाया जाए तो आखिरी कड़ी गाय की मिलेगी। यानी अगर आपको याद दिलाई जाए, हो सकता है आपके पिछले दस जन्म मनुष्य के ही रहे हों, लेकिन ग्यारहवां जन्म आपका गाय का मिल जाएगा।

अगर किसी भी मनुष्य के पिछले जन्मों की स्मृति को खोदा जाए तो मनुष्य होने के पहले उसका जो जन्म होगा वह गाय होगा। आत्मिक कड़ी, शरीर की कड़ी नहीं; शरीर की कड़ी तो बंदर से आई हुई है। लेकिन आदमी होने से पहले कोई आत्मा किस पशु-योनि से गुजरती है, अगर इसकी खोज-बीन की जाए तो आदमी होने के पहले मनुष्य की आत्मा गाय की योनि से गुजरती है, यह मेरा कहना है। चूंकि इस संबंध में कोई बहुत बड़ा काम नहीं हुआ, जैसा कि डार्विन के लिहाज से शरीर के संबंध में हुआ है, इस पर काफी काम करने की गुंजाइश है कि अगर हम दस-पच्चीस लोगों को पिछले जन्म में उतारने की कोशिश करें तो जहां से उन्होंने मनुष्य कड़ी शुरू की है, वह कड़ी गाय की कड़ी के बाद शुरू होती है। इसलिए गाय से एक आत्मिक निकटता है। यह जो मैने कहा, इससे गौमाता का मेरा अर्थ हो सकता है। बंदर से भी एक निकटता है, शारीरिक कड़ी से दृष्टि से। इसका मतलब यह हुआ कि आदमी के पैदा होने के पहले गाय की यात्रा से जो आत्मा विकसित हो रही थी, वह और बंदर की यात्रा से जो शरीर विकसित हो रहा था, वह मनुष्य होने के लिए इन दो चीजों का उपयोग किया गया है..बंदर वाले शरीर का और गाय वाली आत्मा का। समझने की बात नहीं है न यह; यह तो प्रयोग करने की बात है। यह तो अगर पिछले जन्मों की स्मृति को जगाने की कोशिश करें तो समझ में आने वाली बात है।

प्रश्नः आपने प्रयोग किए हैं?

हां, तभी तो कह रहा हूं, नहीं तो कैसे कहूंगा? इससे भी कुछ समझ में नहीं आएगा। वह तो तुम्हारा ही प्रयोग तुम्हें कराया जाए तो समझ में आता है। आत्मा के संबंध में जितनी बातें हैं, बिना प्रयोग के उनमें से कोई भी समझ में आनेवाली नहीं है। कहा जा सकता है कि यह है, ऐसा है, लेकिन उससे फर्क नहीं पड़ता है कहने से। वह तो किसी को भी उत्सुकता हो तो जैसे मैं ध्यान के शिविर ले रहा हूं, धीरे-धीरे उत्सुकता जगाता हूं कुछ लोगों में, कि जिन लोगों को पिछले जन्म की स्मृति की यात्रा पर जाना हो, उनका अलग शिविर लेने का इंतजाम हो। थोड़े से पच्छीस लोग इक्कीस दिन के लिए आकर मेरे पास रहें; उनको पिछले जन्म की यात्रा में उतारने की कोशिश की जाए। इक्कीस के साथ मेहनत की जाए तो उनमें से पांच सात लोग उतर जाएंगे। तभी समझ में आ सकता है कि हमारी पिछली कड़ी कहां से जुड़ी हुई है, नहीं तो वह समझ में नहीं आ सकती।
कठिनाई तो यह है कि कोई प्रयोग करने, गहरे प्रयोग करने की तैयारी नहीं है किसी की; क्योंकि गहरे प्रयोग खतरनाक भी हैं; क्योंकि आपको अगर पिछले जन्मों की स्मृति आ जाए तो आप फिर दुबारा वही आदमी नहीं हो सकेंगे जो स्मृति के पहले थे। कभी नहीं हो सकेंगे। फिर असंभव है यह बात। यानि आपकी पूरी, टोटल पर्सनैलिटी फौरन बदल जाएगी, क्योंकि अगर आप अपनी पत्नी को बहुत प्रेम कर रहे हैं तो आप पाएंगे कि ऐसी कोई पत्नियों को बहुत बार प्रेम किया है और कुछ अर्थ नहीं पाया। तो इसके बाद आप इस पत्नी को वही प्रेम नहीं कर सकते, जो इसके पहले कर रहे थे। असंभव हो जाएगा। वह बात ही खत्म हो गई। अपने बेटे के लिए आप मरे जा रहे हैं कि इसको यह बनाऊं, उसको यह बनाऊं। आपको अगर पांच जन्मों की स्मृति आ जाए कि आप ऐसे कई बेटों के साथ मेहनत कर चुके, वह सब बेमानी साबित हुई और आखिर में मर गए, तो इस बेटे के साथ जो आपका पागलपन है, वह एकदम क्षीण हो जाएगा।
बुद्ध और महावीर दोनों ने, अपने सभी साधकों को पिछले जन्मों में ले जाने का प्रयोग किया। अगर कोई बहुत गौर से समझे तो बुद्ध और महावीर का जो सब से बड़ा दान है, वह अहिंसा वगैरह नहीं है। अहिंसा तो बहुत दिन से चलती थी। इन दोनों का जो सब से बड़ा कीमती दान है, वह जाति स्मरण है। यह वह विधि है, जिसके द्वारा आदमी को उसका पिछला जन्म स्मरण दिलाया जा सके। जो लाखों लोग भिक्षु और संन्यासी हो गए, वे शिक्षा से नहीं हो गए। जैसे ही उनको पिछले जन्म का स्मरण आया कि सब बातें बेकार हो गई। उनको सिवाय संन्यास के कोई सार्थक बात न रही। लाहों आदमी एक साथ जो संन्यासी हुए, उसका यह कारण नहीं था कि महावीर ने समझा दिया कि संन्यास से मोक्ष मिल जाएगा उसका कुल कारण इतना था कि उनके अतीत की याद दिला देने से उनको यह लगा कि यह सब तो हम बहुत बार कर चुके, इसमें कोई सार नहीं है। यह चक्कर तो बहुत दफे घूम चुके, इसमें कोई भी अर्थ नहीं है। तब कुछ और करने की धारणा का कोई अर्थ ही नहीं है।
वह जो मै चाहता हूं, ये सारी बातें कहता भी हूं, इसी ख्याल से कहता हूं कि आपमें कोई जिज्ञासा जगे। लेकिन बौद्धिक जिज्ञासा से कुछ भी नहीं होगा। जिज्ञासा जगनी चाहिए कि कुछ लोग प्रयोग करने को राजी हों। जल्दी मैं चाहता हूं कि ध्यान के शिविर भी हों तो इसी तरह के सामान्य शिविर न हों। सभी लोग आ जाएं. ऐसा अब न हो। या फिर हम शिविरों को बांटें..सामान्य शिविर हो, कोई भी आ सके। फिर विशेष इक्कीस दिन के शिविर हों, जिसमें वही लोग आ सकें जिनकी गहरे जाने की हिंमत हो, जो पूरी शक्ति लगाने को तैयार हों। मैं तो मानता हूं कि इक्कीस दिन में गहरा प्रयोग करने से आप बिल्कुल दूसरे आदमी हो जाएं, आपकी सारी जिंदगी और हो जाए। जो आप सोचथे थे ये, वह चला जाए, जो आप जीते थे, वह चला जाए और दुबारा आप लौट कर कभी वही न हो जाएं। लेकिन बौद्धिक जिज्ञासा से तो कुछ हल होने वाला नहीं है बहुत। क्योंकि जो भी आप पूछेंगे, मैं कुछ और कहूंगा। उसपर और दूसरे प्रश्न खड़े हो जाते हैं और वह बात वहीं घुमकर रह जाती है। उसमें कोई लाभ नहीं।

प्रश्नः यह बात तो अतीत की हो गई?

जी, अतीत की हो गई, लेकिन आपको अगर यह ख्याल आ जाए कि आपने अतीत में क्या क्या किया, कितनी बार किया, तो आज जो आप कर रहे हैं, उसके करने में बुनियादी फर्क पड़ जाएगा। अगर यह पता चल जाए कि मैंने कई दफा धन कमाया कई दफा कमाया और कुछ भी नहीं पाया, तो आज धन कमाने के जो दौड़ है, वह एकदम क्षीण हो जाएगी। उसमें से बल निकल जाएगा। फर्क बुनियादी पड़ जाएगा एकदम। अगर आपको यह पता चल जाए कि यह शरीर बहुत दफे मिला और हर बार नष्ट हो गया, तो अब इस शरीर के आसपास जीने का कोई मतलब नहीं है। यह फिर नष्ट हो जाएगा। तो मेरे जीने का केंद्र शरीर नहीं होना चाहिए क्योंकि शरीर बहुत दफे मिलता है और मर जाता है और फर्क नहीं पड़ता। आपके जीने का केंद्र पहली दफा आत्मा हो जाएगा, शरीर नहीं रह जाएगा।
बात अतीत की है, लेकिन उसका स्मरण आपको यह साफ कर देगा कि जो आप कर रहे हैं, यह कोल्हू के बैल जैसे करना है, यानी बहुत दफे किया जा चुका है। सफल हो गए हैं, तो भी कुछ नहीं पाया, असफल हो गए हैं तो भी कुछ नहीं गंवाया। अगर यह बात दिख जाए तो सफलता का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। यानी हम फिर वही नहीं कर सकेंगे। किसी पिछले जन्म में मैंने करोड़ रुपये इकट्ठे कर लिए और फिर मर गया। इस जन्म में मैं फिर करोड़ रुपये इकट्ठे करने के लिए लगा हुआ हूं, तो मेरे सामने साफ हो जाएगा कि करोड़ फिर इकट्ठे कर लूंगा, फिर मर जाऊंगा। सोचने की बात है कि अब मुझे करोड़ इकट्ठे करने की दौड़ में जीवन गंवाना चाहिए या कुछ और कमाने का ख्याल करना चाहिए?
प्रकृति की यह तरकीब है कि आपके पिछले जन्म की स्मृतियां बिल्कुल दबा कर रख देती है। ठीक भी है, नहीं तो आप पागल हो जाएं। अगर अकारण आपको स्मृति रह जाए तो आप मुश्किल में पड़ जाएं। अभिप्राय यह कि जो हिम्मत करके कोशिश करता है, खोजने पर उसको ही पता चलता है, नहीं तो नहीं चलता है। सारी स्मृतियां..जितने जन्म हुए हैं और एक-एक आदमी के लाखों जन्म हुए हैं..कोई खो नहीं जाती हैं। वे सारी स्मृतियां आपके भीतर मौजूद हैं। गहरी पर्तों के नीचे उनको खोजना पड़ेगा। ऐसे तो सामान्यतया हम, आठ साल पहले क्या किया था, वह भी भूल गए हैं।
मैं एक लड़की पर बहुत दिनों तक प्रयोग करता था, उसके जाति-स्मरण के लिए। अगर मैं आपसे पूछूं कि उन्नीस सौ इक्कावन में एक जनवरी को आपने क्या किया, तो आप कुछ भी नहीं बता सकते। एक जनवरी हुई है, उन्नीस सौ इक्कावन भी हुआ है, वह आपको पता है। पिछले जन्म की बात नहीं है, इसी जन्म की बात है। लेकिन एक जनवरी उन्नीस सौ इक्कावन को आपने सुबह से शाम तक क्या किया, यह कुछ भी स्मरण नहीं है। एक जनवरी उन्नीस सौ इक्कावन हुई न हुई, बराबर हो गई। लेकिन अगर आपको सम्मोहित करके बेहोश किया जाए और याद दिलाई जाए तो एक जनवरी, उन्नीस सौ इक्कावन की आप इस तरह रिपोर्ट करते हैं, जैसे अभी आंख के सामने से गुजर रही हो। अभी रिपोर्ट कर देंगे आप पूरी तरह कि यह हुआ..सुबह उठा, यह हुआ; यह नाश्ता लिया था; यह पसंद नहीं आया था, नमक ज्यादा था दाल में। पूरे दिन की आप रिपोर्ट कर देंगे। पर अब मुश्किल मुझे यह हुई कि उसको टैली (मिलान) कैसे किया जाए कि यह हुआ भी कि यह सिर्फ सपना है। तो मैंने नोट करना शुरू किया। दिन भर सुबह से शाम तक उसको नोट करता रहा कि क्या हो रहा है..उसने किसको गाली दी, किससे झगड़ा किया, किस पर क्रोध किया। दिन भर की दस पंद्रह घटनाएं मैंने नोट कर लीं। तीन साल बाद उसको फिर बेहोश किया और उस दिन के लिए पूछा तो उसने बिल्कुल ऐसा रिपोर्ट कर दिया कि जिसका कोई हिसाब नहीं! जो बातें मैंने नोट की थीं, वे तो रिपोर्ट हुई हीं, जो मैं नहीं नोट कर पाया था, क्योंकि दिन में तो हजार घटनाएं घट रही हैं, वे सब भी रिपोर्ट कर दीं।
तो इस जन्म की भी बहुत कामचलाऊ स्मृति हमारे पास रह जाती है, बाकी तो नीचे दब जाती है। इसमें जो भी दुखद स्मृतियां हैं, वे एकदम से दबा दी जाती हैं, चित्त उनको दबा देता है। जो सुखद स्मृतियां हैं, उनको ऊपर रख लेता है। इसलिए हमें बीता हुआ समय अच्छा मालूम पड़ता है। आदमी कहता है, बचपन बहुत अच्छा था। उसका कोई और कारण नहीं है। बचपन की जितनी दुखद स्मृतियां थीं, उन्हें नीचे दबा देता है चित्त, और जो सुखद थीं थोड़ी सी, उनको ऊपर रख लेता है, उनको याद रख लेता है। एक बूढ़ा आदमी कहता है कि जवानी बहुत मझे की थी। बस जवानी में थोड़ा सा सुखद जो घटा होगा, उसे ऊपर रख लिया है, बाकी सब उसने दबा दिया है। अगर उसका पूरा चित्त खोला जा सके तो वह हैरान रह जाएगा कि जो सौ घटनाएं घटती हैं, उनमें निन्यानबे दुख की होती हैं और मुश्किल से एकाध में कभी हलके सुख की झलक होती है। मगर चित्त ऐसा धोखा कर सकता है। अगर दो-चार जन्म खोले जा सकें, तब तो पूरी जिंदगी बदल जाती है। क्योंकि फिर आप और ही ढंग से सोचेंगे, कुछ और ही केंद्र बनाएंगे। स्मृतियां अतीत की ही हैं, लेकिन वे फर्क लाती हैं, एकदम फर्क लाती हैं।

प्रश्नः सूक्ष्म शरीर प्राणी का और आदमी का एक समान होता है?

प्राणी यानी?

प्रश्नः जानवर।

एक सा नहीं होता है, अलग-अलग होता है।

प्रश्नः सूक्ष्म शरीर अगर चक्रों के अनुसार है तो क्या चक्र अगल-अलग हैं दोनों के?

नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सूक्ष्म शरीर जो है आपका, अगर मनुष्य हैं तो जैसा आपका शरीर है, ठीक इसी आकृति का, ठीक ऐसा ही, लेकिन अत्यंत एस्ट्रल एटम का बना हुआ, बहुत सूक्ष्म पदार्थों का बना हुआ शरीर होगा। उसके आर-पार जाने में कठिनाई नहीं है। अगर हम एक पत्थर फेंके तो उसके आर-पार जाने हो जाएगा। वह सूक्ष्म शरीर अगर दीवाल से निकलना चाहेगा तो निकल जाएगा, उसमें कोई बाधा नहीं है। लेकिन आकृति बिल्कुल यही होगी, जो आपकी है। धुंधली होगी, जैसे धुंधला फोटोग्राफ हो। अगर आपके सूक्ष्म शरीर का फोटोग्राफ होगा तो बिल्कुल इसमें मेल खाएगा, लेकिन ऐसा मेल खाएगा, जैसे कोई सैकड़ों वर्षों में पानी पड़ते-पड़ते एकदम धंुघला हो गया हो। गाय का होगा तो गाय जैसा होगा। लेकिन गाय जब मनुष्य के शरीर में प्रवेश करेगी तो सूक्ष्म शरीर चूंकि इतना वायवी है, वह किसी भी आकृति में फौरन ढल सकता है। वह कोई ठोस चीज नहीं है। जैसे हम पच्चीस ढंग के गिलास रखें और पानी को एक गिलास में डालें तो पानी उस आकृति का होगा, दूसरे गिलास में डालें तो दूसरी आकृति का होगा। क्योंकि पानी लिक्विड है, उसका कोई ठोस आकार नहीं है वह जिस गिलास में होता है, उसी आकार का होता है। तो वह जो सूक्ष्म शरीर है, वह जिस प्राणी-जीवन में प्रवेश करता है, उसी आकार का हो जाता है। उसके आकार में ठोस पन नहीं है। इसलिए अगर गाय का सूक्ष्म शरीर निकल कर मनुष्य में प्रवेश करेगा तो वह मनुष्य की आकृति ग्रहण कर लेगा।
सूक्ष्म शरीर की जो आकृति है, वह डिजायर (इच्छा) से पैदा होती है, वह वासना से पैदा होती है। जिस जीवन में प्रवेश की वासना पैदा हो जाएगी सूक्ष्म शरीर उसी का आकार ले लेगा। अगर हम अपने इस शरीर पर भी प्रयोग करेंगे तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे। यह शरीर भी बहुत-कुछ आकृतियां हमारी वासना से ही लेता है।
अभी तो वैज्ञानिक भी इस बात को समझने में असमर्थ हैं कि हम खाना खाते हैं तो उसी खाने से हड्डी बनती है, उसी खाने से खून बनता है, उसी खाने से हाथ की चमड़ी भी बनती है, उसी खाने से आंख के अंदर की चमड़ी भी बनती है, लेकिन आंख की चमड़ी देखती है और हाथ की चमड़ी नहीं देखती है। कान की हड्डी सुनती है और हाथ की हड्डी नहीं सुनती है। जो तत्व हम ले जाते हैं, वह एक ही है। इतना सारे का सारा जो निर्माण भीतर होता है, यह किस आधार पर हो रहा है?
उसे हमारे भीतर जो गहरी वासना है, वह आकृति देती है। उस वासना का सूक्ष्म रूप, अब वे कहते हैं कि जरूर किसी कोड-लैंग्वेज (गुप्त भाषा) में कहीं न कहीं लिखा होगा। जैसे एक बीज है, उस बीज को हम डाल देते हैं। खोल कर देखें तो हमें कुछ पता नहीं चलता है। उस बीज को हम मिट्टी में डालते हैं तो उसमें से फूल निकलता है। समझो, सूर्यमुखी का फूल निकलता है। तो सूर्यमुखी के फूल में जितनी पंखुड़ियां हैं, इसका कुछ न कुछ कोड लैंग्वेज में उस बीज में लिखा हुआ होना चाहिए। अन्यथा यह कैसे संभव है कि यह सूर्यमुखी का ही पौधा बनता है? यह दूसरा पौधा नहीं बन जाता। बीज में किसी न किसी तरह का, किसी न किसी सूक्ष्म तल पर जो होने वाला है, वह सब लिखा होना चाहिए। एक मां के पेट में एक अणु गया है, उस अणु में वह सब लिखा हुआ है जो आपमें संभव होगा। वह उस अणु में कहां लिखा हुआ है? अभी तक यह बात वैज्ञानिक की पकड के बाहर है। लेकिन अध्यात्मक, या योग का कहना है कि उसमें जो प्राण प्रविष्ट हुआ है, उस प्राण की जो वासना है, वह वासना ‘कोड’ है, उस कोड से सब विकसित होगा। वह जो सूक्ष्म शरीर है, जब तक एक ही तरह की जीवन-यात्रा करेगा। जैसे दस जन्म होंगे आदमी के तो वह आदमी का रहेगा, लेकिन हर जन्म में उसकी आकृति बदलती चली जाएगी और वह आकृति भी आपकी वासना से ही निर्धारित होगी।

प्रश्नः जरा स्पष्ट कीजिए।

चक्र न? हां, चक्र को असल में गौर से समझें तो सूक्ष्म शरीर और इस शरीर के बीच जो कांटेक्ट-फील्ड (संबद्ध क्षेत्र) हैं, उनका नाम चक्र है। यानि आपका यह शरीर और वह शरीर जहां-जहां छूता है, वे चक्र हैं। वे सब समान हैं। उसमें कोई फर्क नहीं पडता। सब में..जहां से गाय का शरीर छुएगा, वहां चक्र बन जाएगा। छूने के स्थल तय है। जैसे समझ लें कि सेक्स के सेन्टर पर एक चक्र होगा, चाहे वह किसी जाति का प्राणी हो..कुत्ता हो, बिल्ली हो, आदमी हो, औरत हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बहुत फोर्सफुल (शक्तिशाली)चक्र सेक्स के सेंटर पर होगा। वह चक्र सब शरीरों में होगा, उनकी आकृति चाहे कुछ भी हो। हां वह चक्र छोटा बड़ा हो सकता है, कमजोर और ताकतवर हो सकता है। सात चक्र होंगे। उसका मतलब केवल इतना है कि उनके बाकी चक्र निष्क्रिय पड़े हुए हैं। वे जब भी सक्रिय हो जाएंगे, उनकी उतनी इंद्रियां प्रकट होने लगेंगी। चक्र निष्क्रिय हो सकते हैं। हमारे भीतर भी सात चक्र होते हैं, लेकिन सातों सक्रिय नहीं होते। सातों सक्रिय हो जाएं तो समझो कि बहुत अदभूत घटना घट गई। हमारे भी सातों चक्र सक्रिय नहीं होते। आमतौर से सौ आदमियों की जांच पडताल करेंगे तो सेक्स का चक्र तो सब में मिलेगा, बाकी छह चक्रों में से कोई एकाध चक्र किसी में सक्रिय होगा, किसी में दो चक्र सक्रिय होंगे, नहीं तो नहीं होंगे।
प्रकृति ने जितने चक्र सक्रिय बनाए हैं, वे तो सक्रिय रहते हैं। लेकिन जितने साधना से सक्रिय होते हैं, वे नहीं होते। वे हैं तो हमारे भीतर, लेकिन वे निष्क्रिय पडे हुए हैं। जैसे बिजली का बटन तो है, बल्ब भी है, लेकिन अॅाफ है तो बल्ब बंद पड़ा हुआ है। वह अॅान हो जाए तो बल्ब जल जाए। चक्र पूरी तरह मौजूद है, लेकिन अॅान हालत में नहीं, अॅाफ हालत में है। तो हमारे जितने श्रेष्ठतर चक्र हैं, वह अॅाफ हालत में हैं। ध्यान और योग से उनको अॅान-हालत में लाने की यह चेष्टा की जाती है कि वे अॅान हो जाए, सक्रिय हो जाएं। जितने ऊपर के चक्र सक्रिय होने लगते हैं, उतने नीचे के चक्र अपने आप निष्क्रिय होने लगते हैं। क्योंकि, जो शक्ति है हमारे पास, वह वही है। वह धीरे-धीरे ऊपर के चक्रों में गतिमान हो जाती है, नीचे के चक्र शिथिल हो जाते हैं।
इसपर कभी पूरी बात करनी अच्छी होगी। मैं चाहता हूं कि लेक्चर्स की पूरी एक सिरीज इस पर हो सके तो अच्छा है। बहुत बात करने जैसी हैं, क्योंकि मामला इतना आसान नहीं है जितना आमतौर से समझा जाता है। कॅाफी जटिल है।

प्रश्नः पिछले जन्मों में जाने के लिए जो आपने बात की, उसकी क्या कोई आउटलाइन (रूप-रेखा) दे सकेंगे?

नहीं, वह तो आप आ जाएं तो करवा ही दूं। आउटलाइन जरा मुश्किल बात है। आउटलाइन से काम नहीं होगा। आउटलाइन दी भी नहीं जा सकती। वह तो आप एक स्टैप (पग) पूरा करें तो दूसरे की आउटलाइन दी जा सकती है, नहीं तो आप परेशानी में पड़ जाएंगे उससे कोई मतलब नहीं है और उससे कुछ कर भी लें तो उससे कुछ मतलब सिद्ध नहीं होगा। वह तो एक स्टैप पूरा हो जाए तो दूसरे स्टैप की बात करना सार्थक है।

प्रश्नः जो प्रेक्टिकल हैं, वे ख्याल में आते हैं जैसा प्रयोग वैज्ञानिक करते हैं, सब लोग घर में प्रयोग नहीं करते हैं। लेकिन जो ऐसा मालूम होता है कि हो सकता है?

दोनों में बुनियादी फर्क है। यह वैज्ञानिक प्रयोग नहीं है उन अर्थों का, क्योंकि विज्ञान और धर्म के प्रयोग में जो बुनियादी फर्क है, वह यह है कि विज्ञान का प्रयोग अॅाब्जेक्टिव है। बिजली का एक पंखा किसी ने बनाया तो जिसने बनाया है उसी को पंखा दिखता है ऐसा नहीं है; जिन्होंने नहीं बनाया है, वे सब देखने आकर खडे हो गए हैं तो उनको भी पंखा दिखता है। चलाएंगे तो चलता हुआ भी दिखता है। वे मानते हैं कि ठीक है, पंखा चलता है, हवा भी फेंकता है। विज्ञान जो प्रयोग कर रहा है वह अॅाब्जेक्ट के साथ कर रहा है। धर्म जो प्रयोग कर रहा है, वह सब्जेक्ट के साथ कर रहा है। मैंने जो अपने साथ प्रयोग किए हैं, वे आपको किसी हालत में नहीं दिख सकते। कोई कारण नहीं है दिखने का। सच तो यह है, मेरे शरीर से ज्यादा मेरे भीतर आपको कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है। कैसे दिखाई पड़ेगा? शरीर अॅाब्जेक्ट है। लेकिन मैं तो आपके लिए कभी अॅाब्जेक्ट नहीं हो सकता; न आप मेरे लिए अॅाब्जेक्ट हो सकते हैं। धर्म के सारे प्रयोग सजेक्ट से जुड़े हुए हैं..वह जो भीतर है, उससे।
कोई महावीर या कोई बुद्ध कितने ही प्रयोग कर लें, फिर भी बाहर अगर लाकर महावीर को बिठा दिया जाए सामान्य कपड़ों में, आपके बीच, तो आपको पता भी नहीं चलेगा यहां महावीर बैठे हुए हैं। क्योंकि जो घटना घटी है, वह इतनी आंतरिक है, इतनी भीतरी है कि सिर्फ महावीर के लिए ही साक्षात हो सकता है उसका। उसका साक्षात बाहर से नहीं हो सकता। बाहर से भी एक स्थिति में हो सकता है कि ठीक वैसी घटना आपके भीतर भी घटी हो। कोई भीतरी पहचान हो सकती है कि महावीर की आंख में आपको वह बात दिखाई पड़ने लगे जो आपको अपनी आंख में आपको अनुभव होती है। महावीर के चलने में आपको वह बात दिखाई पड़ने लगे जो आपके चलने में फर्क पड़ गया है। तब शायद आपको थोड़ा अंदाजा लगे कि इस आदमी के भीतर भी कुछ वैसी बात तो नहीं हो गई, जैसी मेरे भीतर हो गई है? नहीं तो अन्यथा बिल्कुल मुश्किल मुआमला है।
रूप-रेखा की जो बात है कि आउटलाइन भी दी जा सके, आउटलाइन देना भी बहुत मुश्किल है, क्योंकि मुआमला ही ऐसा है। समझ लीजिए कि पहली कक्षा में एक विधार्थी भर्ती हुआ है, और वह कहता है कि थोड़ी बहुत हमें मैट्रिक की आउटलाइन दे दी जाए तो पहली कक्षा में पढने में थोड़ी सुविधा हो। शिक्षक उससे कहेगा कि चूंकि तुम अभी पहली कक्षा से ही परिचित नहीं हो, मैट्रिक की आउटलाइन का कोई मुआमला ही नहीं उठता.. हम कैसे तुम्हें आउटलाइन देंगे? तुम कैसे जानोगे? क्या करोगे तुम उसे जान कर? तुम पहचान भी नहीं सकते हो उसको, क्योंकि जिस भाषा में आउटलाइन दी जाने वाली है, वह भाषा तुम जब इन कक्षाओं से गुजरोगे, तब तुम्हारे पास होगी। वह आउटलाइन भी जो दी जानेवाली है।
समझ लीजिए कि पांच साल, सात साल का एक बच्चा है। उसको अगर सेक्स के संबंध में समझाने बैठा जाए; तो बहुत कठिनाई हो जानेवाली है। क्योंकि, उस बच्चे के पास कोई भीतरी भूमिका नहीं है, जिससे वह सेक्स की भाषा समझ सके; क्योंकि उसके लिए कोई सवाल ही नहीं उठता है कि यह कैसे समझे। आप क्या कह रहे हैं, यह कैसे समझे? आप आउटलाइन भी उसको दे देंगे, तब भी उसको ऐसा लगेगा कि न मालूम किस लोक की बात की जा रही है जिससे मेरी कोई पहचान नहीं है। तो जितने गहरे सत्य हैं भीतर के, उनकी बिल्कुल प्राथमिक बात की जा सकती है..बिल्कुल प्रारंभ की, बिल्कुल शुरू की। एक-एक कदम उनमें गति हो तो आगे की, एक-एक कदम आगे की बात की जा सकती है। एक सीमा के बाद उसकी पूरी बात की जा सकती है, नहीं तो नहीं की जा सकती।
हमारी कठिनाई यह है कि हम में से प्रयोग करने के लिए बहुत कम लोग हिंमत जुटा पाते हैं। कुछ बातें ऐसी हैं, जो बिना प्रयोग के कभी अनुभव में आ ही नहीं सकतीं। छोटा मोटा प्रयोग भी करना हमें मुश्किल गुजरता है। ये सब प्रयोग, टोटल डिस्टर्बेंस (पूरी उथल-पुथल) पैदा करने वाले हैं। आपकी पूरी की पूरी जिंदगी अपरूटेड (उखड़) हो जाएगी और तरह की हो जाएगी, क्योंकि कुछ चीजें आपको पता ही नहीं, जो दिखाई पड़ें। कुछ चीजें, जो आपने कभी सोचा भी नहीं, जो दिखाई पड़ें। कुछ चीजें, जो आपने सोची भी नहीं है, सामने आ जाएगी। उनको एक एक कदम करना ही उचित है।

प्रश्नः मेरा सवाल यह है कि आपने कहा कि रोज सुबह और रात हम करीब करीब पंद्रह मिनट ध्यान करें, तो इससे आगे आप कुछ कहेंगे, ऐसा मेरा ख्याल था।

वह भी कोई करता पंद्रह मिनट बैठ कर। वह भी मैं कहता हूं तब एकाध-दो दिन कोई बैठ कर कर लेता है। अगर वह भी दो तीन महीने श्रमपूर्वक करे तो उसकी पूरी की पूरी जिज्ञासा बदल जाएगी। तब वह जो प्रश्न पूछेगा, वे दूसरे हो जाने वाले हैं। वह उसे कुछ चीजें दिखाई पड़नी शुरू होंगी, जिनके बावजूद वह कुछ ऐसा पूछना शुरू करेगा जो आप कभी पूछ ही नहीं सकते। यानी आदमी क्या पूछता है, यह देख कर मैं कह सकता हूं कि वह कहां है। आदमी पूछेगा वही न, जहां वह सोच रहा है, जहां सारा चित्त खड़ा हुआ है। कोई भी फिकर नहीं करता कि वह तीन-चार महीने भी ताकत लगा कर कर ले। उतना भी नहीं हो रहा है। वह भी थोड़ा सा हो तो आगे बात की जा सकती है, जरूर की जा सकती है।
अब मैं इधर चुनाव कर रहा हूं कि कुछ लोगों को केंप में बुलाना चाहूंगा जिसमें कुछ लोगों को ही निमंत्रण करूंगा कि वे आ जाएं। जिसको मैं बुलाऊंगा, वही सिर्फ आ जाएं। मेरी नझर में कुछ लोग आने शुरू हुए हैं जो थोड़ा काम कर रहे हैं। उन थोड़े लोगों के साथ आगे मेहनत की जानी जरूरी है।

प्रश्नः अस्पष्ट लगता है अभी।

हां, कारण हैं लगने के। बड़ा कारण तो यह है कि हजारों साल से ऐसा समझाया जा रहा है कि किसी की कृपा से हो जाएगा। कोई कर देगा तो हो जाएगा। कोई गुरु मिल जाएगा तो कर देगा। हजारों साल से यह समझाया जा रहा है कोई कर देगा तो हो जाएगा; आपको कुछ करना नहीं है। यह मन में बैठ गया है गहरे। दूसरी बात यह है कि कोई भी आदमी बहुत श्रम से गुजरना नहीं चाहता ऐसी चीजों के लिए, जो बहुत साफ साफ दिखाई न पड़ती हों। धन दिखाई पड़ता है तो आदमी श्रम कर लेता है। पद दिखाई पड़ता है तो आदमी श्रम कर लेता है। धर्म का मुआमला ऐसा है कि दिखाई बिल्कुल नहीं पड़ता। श्रम की बहुत मांग है इसमें कि इतना करो तो कुछ होगा। इतना श्रम करो तो दिखाई पड़ेगा। तो अदृश्य के लिए श्रम जिटाने की क्षमता थोड़े लोग ही कर सकते हैं। दृश्य के लिए श्रम जुटाना बहुत आसान बात है।
फिर हमारे चारों तरफ जो लोग कर रहे हैं, वही हम करते है, क्योंकि हम आमतौर से खुद कुछ भी नहीं करते। जो हमारे चारों तरफ हो रहा है, उसका हम अनुकरण करते हैं। जैसे कपड़े लोग पहनते हैं, हम पहन लेंगे। जो लोग पढ़ रहे हैं वह हम पढ़ेंगे। जिस पिक्चर को वे देख रहे हैं, हम देखेंगे। चारों तरफ से हमारे चित्त के जो तार हैं वे जिस तरफ खींचे जाते हैं, वहां खिंचते हैं। जैसे कि अगर हिंदुस्तान में आप पैदा हुए तो आप और तरह के काम करेंगे; अगर आप जापान में पैदा हुए तो आप और तरह के; और फ्रांस में पैदा हुए तो और तरह के।
बुद्ध और महावीर जैसे लोगों ने दस-दस हजार भिक्षु इकट्ठे किए. और करने का कारण यह नहीं था कि दस हजार इकट्ठा करने से कोई फायदा था। उपयोग सिर्फ इतना था कि आम आदमी दस हजार के बीच फौरन सक्रिय हो जाता है, जो अकेले में हो ही नहीं सकता। जब दस हजार भिक्षु साधना में लगे हों, जहां दस हजार भिक्षु सुबह से शाम तक आत्मिक अनुभवों की बात कर रहे हों, वहां आप अगर पहुंच गए तो बहुत असंभव है कि आप इस धारा में प्रविष्ट होने से बच जाएं। आप इसमें डूब जाने वाले हैं। बड़े आश्रमों का और बडे प्रतिष्ठानों का उपयोग सिर्फ इतना था कि वहां की पूरी की पूरी हवा जैसे संसार की पूरी की पूरी हवा सांसारिक है, और आप यहां वही करने लगते हैं जो दूसरे कर रहे हैं; ठीक इसी तरह यदि वहां पूरी हवा आध्यात्मिक हो तो आप वही करने लगेंगे जो वहां चारों तरफ हो रहा है। एक दफा थोड़ी सी गति हो जाए, तो इतना रस आने लगता है कि फिर कोई मतलब नहीं है कि कौन कर रहा है, कौन नहीं कर रहा है। आपका अपना आनंद ही आपको खींचने लगता है। लेकिन पहला स्टेप उठ जाए, उसकी जरूरत है।
इधर जितना लंबा फासला हुआ है, उतना आदमी को ऐसा लगने लगता है कि अध्यात्म पता नहीं, कहीं मुट्ठी में, पकड़ में तो आता नहीं कि क्या है। कौन झंझट में पड़े! एक-दो दिन में मुट्ठी में पकड़ में आ जाए, तो भी कोई झंझट में पड़ जाए। हमारे जन्मों-जन्मों की यात्रा प्रतिकुल है और उलटे संस्कार इकट्ठे हैं। उनको पार किए बिना कहीं गति हो नहीं सकती। इतना लंबा और कठिन दिखाई पड़ता है कि आदमी सोचता है..ठीक है, तो सुन लो, बात कर लो, पढ़ लो। इससे ज्यादा वह झंझट में पड़ने का नहीं।
एक बहुत अच्छे आदमी हैं। वह कई बार मेरे पास आते थे। अब वह बूढे हो गए हैं। वह कई बार गांधी के साथ रहे, विनोबा जी के साथ रहे, उनके खास साथियों में से हैं। अरविंद आश्रम रहे, रमण के यहां रहे। हिंदुस्तान में इधर पचास सालो में जो कुछ हुआ होगा, वह सब से परिचित है, सब जगह रहे हैं। मैंने कहा, बातचीत आप बहुत कर चूके, अब कुछ करिएगा, क्योंकि अब उम्र बहुत हो गई। तो उनसे मैंने कहा, इक्कीस दिन का प्रयोग मैं आपको बताता हूं, पहले आप यह करके आइए तो फिर मैं आगे बात करूं, नहीं तो बेकार है। आप कितने लोगों से बात कर चूके, अब आगे इसका कोई मतलब है नहीं। वह मेरा प्रयोग समझे और मुझसे बोले कि यह तो मैं करूंगा नहीं, क्योंकि इसमें तो मैं पागल हो जाऊंगा? मैंने उनसे कहा कि अब मरने के करीब हैं आप; वर्ष, दो वर्ष या कितने दिन जिंदा रहेंगे, यह नहीं कहा जा सकता। हिंमत कर लीजिए, पागल-वागल नहीं हो जाएंगे। वैसे पागल ही है आप। जो आदमी पचास साल से निरंतर अध्यात्म की बातें सुनता हुआ घूम रहा हो और एक प्रयोग न किया हो, वह आदमी पागल नहीं तो और क्या है? घूमें मत! फिर ऐसा है तो...तो कहने लगे, नहीं, यह मैं नहीं कर सकता आपका यह प्रयोग तो मैंने पूरा समझा, इसमें सात दिन के बाद ही में लौटने वाला नहीं हूं, मैं तो गया! उस दिन से वह फिर मुझसे जिज्ञासा करने भी नहीं आए, क्योंकि वह समझ गए कि मैं कहूंगा कि वह करिए, फिर आगे की बात होगी। नहीं तो बात नहीं होगी।
जिज्ञासा बौद्धिक हो गई, बिल्कुल इंटलेक्चुअल। एक आदमी आकर पूछ लेता है..ईश्वर है या नहीं? उससे उसे कोई मतलब नहीं है। हो तो ठीक है, न हो तो ठीक है। इससे कुछ भी मतलब नहीं है। पूछने में भी कोई सार नहीं है।
फ्रांस में एक फकीर था, गुरजिएफ। जो भी आदमी आएगा, जिज्ञासा करने के पहले उसे बड़े उपद्रवों में से गुजारेगा वह। जब वह उतनी हिम्मत दिखाने को राजी हो जाए तो जिज्ञासा कर सकता है, नहीं तो नहीं करने देगा वह। वह कहेगा फिजूल जिज्ञासा से तो कोई मतलब नहीं।
इधर मैं भी जो इतनी बात करता हूं, वह इसी ख्याल से करता चला जाता हूं कि इसमें से कुछ लोग ठीक जिज्ञासा पर आ जाएंगे। हजार आदमी पूछते हैं। कोई एक आदमी करने को राजी होगा। एक, दो-तीन वर्ष घूमता रहूंगा और फिर मेरी नजर में लोग आते जाते हैं। उन लोगों को बुला कर जो करना है कर लूंगा। फिर एक कोने में बैठ जाऊंगा। जिसको करना हो वह वहां आ जाए। फिर मुझे कोई भटकने की जरूरत नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है। ध्यान रहे कि करेंगे तो ही कुछ होगा। किसी के करने से कुछ होमे वाला नहीं है। अब न साहस है, न इच्छा है, कोई कामना भी नहीं है..ऐसा ख्याल बनता है कि सब-कुछ करते हुए कभी घड़ी आध घड़ी इस तरह की बातें भी कीं तो अच्छा है। इससे ज्यादा नहीं है कुछ।



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