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गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-11)

फिर पत्तों की पाजेब बजी -प्रश्नोंत्तर 

प्रवचन-ग्याहरवां 

धर्म नितांत वैयक्तिक है

 भगवान, गौतम बुद्ध के साथ धर्म ने एक बहुत बड़ी छलांग, ‘क्वांटम लीप’ ली; परमात्मा निरर्थक हो गया, ध्यान सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया। अब बुद्ध के पश्चात, पच्चीस सदियों के बाद, धर्म पुनः एक बार आपकी उपस्थिति में वैसी ही छलांग ले रहा है, और धार्मिकता बन रहा है।   इस घटना को समझाने की अनुकंपा करें।
धर्म की छलांग, यह ‘क्वांटम लीप’ गौतम बुद्ध से भी पच्चीस सदियों पहले एक बार लगी थी, और उसका श्रेय आदिनाथ को मिलता है। उन्होंने पहली बार अनीश्वरवादी धर्म की देशना दी। यह एक बहुत बड़ी क्रंाति थी क्योंकि पूरे जगत में इसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी कि ईश्वर के बिना भी धर्म हो सकता है। ईश्वर सभी धर्मों का आवश्यक अंग, एक केंद्रीय तत्व रहा है- ईसाइयत, यहूदी धर्म, इस्लाम सभी का।  लेकिन ईश्वर को धर्म का केंद्र बनाने से मनुष्य सिर्फ एक परिधि हो जाता है। ईश्वर को यदि इस सृष्टि का स्रष्टा माना जाए तो मनुष्य सिर्फ एक कठपुतली हो जाता है। इसलिए हिबू्र भाषा में, जो कि यहूदी धर्म की भाषा है, मनुष्य को आदम कहा जाता है। अदम यानी कीचड़। इस्लाम धर्म की जो अरेबिक भाषा है, उसमें मनुष्य को आदमी कहा जाता है, जो कि आदम शब्द से बना है। उसका अर्थ फिर कीचड़ होता है। अंगरेजी में जो कि ईसाई धर्म की भाषा बनी, जो शब्द है ‘ह्यूमन’ वह ह्यूमस से आता है; और ह्यूमस यानी मिट्टी।  स्वभावतः परमात्मा अगर स्रष्टा है, तो उसे कुछ तो बनाना चाहिए। जैसे मूर्ति बनाते हैं वैसे उसे मनुष्य को बनाना चाहिए।

तो पहले वह मिट्टी से आदमी बनाता है और फिर उसमें प्राण फूंक देता है। लेकिन अगर यह ऐसा है तो मनुष्य अपनी गरिमा खो देता है।  और अगर ईश्वर मनुष्य का और इस सृष्टि का स्रष्टा है, तो यह पूरी धारणा ही बेतुकी है। क्योंकि मनुष्य को इस सृष्टि को बनाने से पहले, अनंत काल तक वह क्या करता रहा? ईसाइयत के अनुसार उसने जीसस क्राइस्ट के चार हजार चार वर्ष पूर्व सृष्टि की रचना की। तो अनंत काल से वह क्या कर रहा था? इसलिए यह बड़ी बेतुकी बात जान पड़ती है।  इसका कोई कारण हो नहीं सकता। क्योंकि अगर इसका कोई कारण हो, जिसके लिए ईश्वर को सृष्टि का निर्माण करना पड़े, तो इसका मतलब है, ईश्वर से भी अधिक शक्तिशाली कोई शक्ति है। ऐसे कारण हैं, जो उसे सृजन करने के लिए बाध्य करते हैं। या ऐसा भी हो सकता है कि अचानक उसमें वासना जगी हो। दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो यह तर्क बहुत मजबूत नहीं है। क्योंकि अनंत काल तक वह वासना रहित था- और वासना रहित होना इतना आनंदपूर्ण है कि इसकी कल्पना करना भी संभव नहीं है कि शाश्वत आनंद मयता के इस अनुभव से, उसके भीतर वासना पैदा होती है कि वह सृष्टि का निर्माण करे।  और वासना आखिर वासना ही है; फिर तुम कोई घर बनाना चाहो या प्रधानमंत्री बनना चाहो, या सृष्टि का निर्माण करना चाहो। और ईश्वर की ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती कि उसके अंदर वासनाएं हों।  तो अब एकमात्र बात जो बचती है वह यह कि वह सनकी है झक्की है। फिर न किसी कारण की जरूरत है, न किसी वासना की जरूरत है; सिर्फ एक सनक्..!
लेकिन यह पूरा अस्तित्व अगर एक सनक से पैदा हुआ हो, तो उसका पूरा अर्थ खो जाता है, पूरा अभिप्राय खो जाता है। और कल फिर उस पर एक और सनक सवार हो जाए कि इसे नष्ट कर देना है, इस पूरे अस्तित्व को विलीन कर देना है। तो हम सिर्फ इस तानाशाह ईश्वर के हाथ की कठपुतलियां बन जाते हैं, जिसके हाथों में पूरी ताकत तो है लेकिन जिसके पास स्वस्थ मन नहीं है, जो सनकी है।  आदिनाथ पांच हजार साल पहले इस बात की कल्पना कर सके, तो निश्चित ही, वह बहुत गहरे ध्यानी और चिंतक रहे होंगे। और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे होंगे कि ईश्वर की धारणा बनायी तो इस संसार में कोई अर्थ नहीं होगा। यह संसार अर्थपूर्ण तभी हो सकता है यदि ईश्वर को विदा कर दिया जाए। और वे बड़े हिम्मतवर आदमी रहे होंगे। क्योंकि लोग अब भी गिरजाघरों में, सिनागागों में और मंदिरों में प्रार्थना कर रहे हैं; और वह आदमी आदिनाथ, हमसे पांच हजार साल पहले एक सुस्पष्ट, वैज्ञानिक निष्कर्ष पर पहुंचा कि मनुष्य से श्रेष्ठतर और कुछ भी नहीं है। और जो भी विकास होने वाला है, वह मनुष्य और उसकी चेतना के साथ होगा।  यह पहली क्वांटम छलांग थीः ईश्वर को विदा कर दिया गया।
यह काम जैन-धर्म के सर्वप्रथम सद्गुरु आदिनाथ ने किया। तो इसका श्रेय बुद्ध को नहीं मिलता क्योंकि बुद्ध आदिनाथ के पच्चीस सदियों के बाद आते हैं।  लेकिन बुद्ध को एक और श्रेय मिलता है, और वह यह कि आदिनाथ ने ईश्वर को तो विदा कर दिया, लेकिन उसकी जगह ध्यान को नहीं ला सके। उल्टे उन्होंने तप, व्रत, कायाक्लेश, उपवास, नग्नता, दिन में सिर्फ एक बार भोजन करना, रात में पानी नहीं पीना, खाना नहीं खाना, केवल गिनी-चुनी चीजें खाना- इन बातों को प्रचलित किया। वे एक संुदर दार्शनिक निष्कर्ष पर पहुंचे थे। लेकिन मालूम होता है, वह निष्कर्ष दार्शनिक ही था, ध्यान से पैदा नहीं हुआ था।  तुमने ईश्वर को विदा कर दिया, अब तुम क्रिया-कांड नहीं कर सकोगे, पूजा नहीं कर सकोगे, प्रार्थना नहीं कर सकोगे। उस रिक्त स्थान को भरना होगा। उन्होंने उस रिक्त स्थान को तपों से भर दिया। क्योंकि मनुष्य उसके धर्म का केंद्र हो गया। मनुष्य को स्वयं को विशुद्ध करना है। और विशुद्धि की उनकी धारणा थीः मनुष्य को इस संसार से विरक्त होना है, अपने शरीर से अनासक्त होना है।  इससे पूरी बात ने ही गलत मोड़ ले लिया। वे अत्यंत अर्थपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचे थे, लेकिन वे केवल एक दार्शनिक धारणा बन कर रह गई। इस श्रेय बुद्ध को मिलता है कि आदिनाथ ने ईश्वर को विदा करके जो रिक्त स्थान छोड़ दिया था, वह उन्होंने ध्यान से भर दिया। ध्यान बुद्ध का योगदान है।
आदिनाथ ने अनीश्वरवादी धर्म निर्मित किया।  बुद्ध ने ध्यानपूर्ण धर्म को जन्म दिया।  शरीर को सताने का सवाल नहीं है।  सिवाय यह है कि और मौन कैसे हों, और तनाव-रहित, और शांत कैसे हों। यह एक अंतर्यात्रा हैः स्वयं की चेतना के केंद्र पर पहुंचना। और स्वयं की चेतना का केंद्र ही पूरे अस्तित्व का केंद्र है।  पच्चीस सदियां फिर बीत गईं; और जिस तरह आदिनाथ की अनीश्ववादी धर्म की क्रंातिकारी धारणा तपों के और कायाक्लेश के रेगिस्तान में सूख गई, उसी तरह बुद्ध की ध्यान की धारणा भी...क्योंकि वह आंतरिक है, कोई और इसे देख नहीं सकता। सिर्फ तुम ही जानते हो कि तुम कहां हो, तुम्हारी प्रगति हो रही है या नहीं। वह एक और ही रेगिस्तान में खो गई; और वह थाः संगठित धर्म।  क्योंकि अकेले व्यक्तियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि वे ध्यान कर रहे हैं या नहीं। उन्हें समूहों, सदगुरुओं और आश्रमों की जरूरत है, जहां वे एक साथ रह सकते हैं। और जो चेतना के उच्चतर तल पर हैं, वे दूसरों का ध्यान रख सकते हैं और उनकी सहायता कर सकते हैं। यह जरूरी हो गया कि धर्म व्यक्तियों के हाथों में न छोड़ा जाए। उसे संगठित किया जाए और उन लोगों के हाथों मैं सौंपा जाए, जो ध्यान के उच्चतर बिंदु पर आ पहुंचे हैं।  शुरू-शुरू में यह अच्छा था।
जब तक बुद्ध जीवित थे, कई लोग आत्मज्ञान को और बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। लेकिन जैसे ही बुद्ध का निर्वाण हुआ, और ये लोग मर गए तो वही संगठन, जिसे ध्यान में लोगों का मार्गदर्शन करें, उन्होंने बुद्ध के आसपास क्रिया-काण्ड खड़े करने शुरू किये। बुद्ध ने फिर ईश्वर की जगह ले ली। जिसे आदिनाथ ने विदा कर दिया था, जिसके अस्तित्व को बुद्ध ने कभी स्वीकार नहीं किया था...लेकिन यह पुरोहितों की जमात ईश्वर के बिना नहीं की जा सकती। तो स्रष्टा के रूप में कोई ईश्वर को भले ही न हो, लेकिन बुद्ध को ही ईश्वर बनाया गया। और फिर अन्य लोगों के लिए एक ही बात बची; बुद्ध की पूजा करना, बुद्ध पर श्रद्धा करना, बुद्ध के सिद्धांतों का अनुसरण करना, उनकी धर्म-शिक्षाओं के आधार पर जीवन जीना। और बौद्ध धर्म संगठन के और अनुकरण के जंगल के राह भटक गया। हर कोई कोशिश कर रहा है। लेकिन वे सब एक मूलभूत बात भूल गए- ध्यान।  मेरा पूरा प्रयास यह है कि एक धर्म-विहीन धर्म पैदा किया जाए। हमने देख लिया कि उन धर्मों का क्या होता है, जिनके केंद्र में ईश्वर होता है। हमने देख लिया कि आदिनाथ की क्रंातिकारी धारणा का क्या हुआ- ईश्वरविहीन धर्म। हमने देख लिया कि बुद्ध का क्या हुआ- ईश्वरविहीन संगठित धर्म। अब मेरा प्रयास हैः जिस तरह उन्होंने ईश्वर को विदा किया जाए। सिर्फ ध्यान शेष रह जाए, ताकि उसका किसी भंाति विस्मरण न हो। उसके स्थान पर और कुछ भी नहीं रखा जा सकता।
न कोई ईश्वर है, न कोई धर्म है। धर्म से मेरा मतलब है, संगठित सिद्धांत, मत, क्रियाकांड, पुरोहिती।  और पहली बार, मैं चाहता हूं, धर्म नितांत वैयक्तिक हो। क्योंकि सभी संगठित धर्मों ने फिर वह ईश्वरवादी हों या अनीश्वरवादी हों, मानवता को भटका दिया है। और उसका एकमात्र कारण था: संगठन। क्योंकि संगठन के अपने ढंग होते हैं, जो ध्यान के विपरीत जाते हैं।  वस्तुतः संगठन एक राजनीतिक घटना है। यह धार्मिक नहीं है। वह सत्ता पाने के लिए सत्ता की आकांक्षाओं के लिए एक दूसरा रास्ता है। अब हर ईसाई पुरोहित की आशा होती है कि वह एक दिन वह बिशप बनेगा, कार्डिनल बनेगा, कम से कम पोप तो बनेगा ही। यह एक नया पदानुक्रम है, एक नयी नौकरशाही है; और चूंकि यह आध्यात्मिक किस्म की है, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है। तुम पोप होओ, या बिशप होओ, या और कुछ भी होओ, यह आपत्तिजनक नहीं है, क्योंकि तुम किसी के जीवन में टांग अड़ानेवाले नहीं हो। वह सिर्फ एक अमूर्त कल्पना है।  मैं पुरोहिती को पूरी तरह से खत्म करने की कोशिश कर रहा हूं। वह ईश्वर के साथ बना रहा, अनीश्वरवादी धर्म के साथ बना रहा। अब एकमात्र उपाय यह है कि हम ईश्वर और धर्म दोनों को विदा कर दें ताकि इसकी कोई संभावना ही न बचे कि पुरोहितों का वर्ग खड़ा हो।
मनुष्य पूर्ण रूप से स्वतंत्र है, और अपने विकास के लिए वह पूरी तरह से स्वयं उत्तरदायी है। और मेरा मानना है कि मनुष्य अपने विकास के लिए जितना जिम्मेदार होगा उतना वह उसे अधिक समय तक स्थगित नहीं कर सकता। क्योंकि उसका अर्थ हुआ, यदि तुम दुखी हो तो उसके लिए तुम जिम्मेदार हो। यदि तुम तनाव में हो, तुम विश्रामपूर्ण नहीं हो, तो तुम जिम्मेदार हो। यदि तुम पीड़ा में हो तो अपने ही कारण। न कोई ईश्वर है, न कोई पौरोहित्य है, जिसके पास जाकर तुम कोई क्रियाकांड पूछ सकते हो। तुम अपने दुख के साथ अकेले छूट जाते हो। और कोई भी दुखी नहीं होना चाहता।  पुरोहित तुम्हें अफीम की गोली दिए जाते हैं। वे तुम्हें आशा बंधाते रहते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है, यह सिर्फ तुम्हारी श्रद्धा और तुम्हारे विश्वास की कसौटी है। और अगर तुम इस दुख से और पीड़ा से, शंाति से और धैर्य से गुजर सको, तो मृत्यु के पार, परलोक में इसका बहुत पुरस्कार मिलेगा।  यदि पौरोहित्य बीच में न हो, तो तुम्हें इसे ठीक से समझ लेना चाहिए कि तुम जो भी हो उसके लिए तुम ही जिम्मेदार हो, कोई और नहीं। और यह अहसास कि मेरी पूरी पीड़ा के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं, एक द्वार खोलता है। तब तुुम इसके उपाय और साधन खोजने लगते हो कि इस दुखद स्थिति के बाहर कैसे निकला जाए। और यही ध्यान है। वह सिर्फ दुख, संताप, चिंता, पीड़ा इनके विपरीत स्थिति है।
वह आत्मा का शंातिपूर्ण, आनंदपूर्ण खिला है- इतना निःशब्द इतना समयातीत कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि इससे बेहतर भी कुछ हो सकता है। और इस जगत में ध्यानपूर्ण मन से अधिक बेहतर कुछ भी नहीं है।  तो तुम कह सकते हो कि ये तीन क्वांटम छलांगें हैं। आदिनाथ ईश्वर को छोड़ देते हैं। क्योंकि उन्हें दिखाई देता है कि ईश्वर मनुष्य के लिए बहुत भारी पड़ रहा है; उसके विकास में उसकी सहायता करने की बजाय वह एक बोझ बन गया है। लेकिन वे उस रिक्त स्थान को भरना भूल गए- ऐसा कोई सहारा, जिसकी आदमी को उसके दुखद क्षणों में, उसकी यातनाओं में जरूरत हो। वह ईश्वर से प्रार्थना करता था, तुमने उसका ईश्वर छीन लिया, तुमने उसकी प्रार्थना छीन ली। और अब, जब वह दुखी होगा तब वह क्या करेगा?  जैन-धर्म में ध्यान के लिए कोई जगह नहीं है। यह बुद्ध की अंतदृष्टि है कि उन्होंने देखा कि ईश्वर विदा हो गया है, अब इस रिक्त स्थान को भरना होगा, नहीं तो यह रिक्तता मनुष्य को नष्ट कर देगी। उन्होंने ध्यान को रखा कुछ ऐसा प्रामाणिक, जो उसके पूरे अस्तित्व को बदल देगा। लेकिन उन्हें इसका अहसास नहीं था, शायद उन्हें इसका अहसास नहीं हो सका कि जब तक घटनाएं नहीं घटतीं हैं तब तक वे तुम्हें पूरी ख्याल में नहीं आती हैं कि कोई संगठन नहीं होना चाहिए; कि पुरोहितों का वर्ग नहीं होना चाहिए; कि जिस तरह ईश्वर विदा हुआ है उसी तरह धर्म भी विदा होना चाहिए।
लेकिन उन्हें क्षमा की जा सकती है। क्योंकि उन्होंने उस संबंध में सोचा नहीं था, और अतीत का कोई अनुभव नहीं था, जिससे इसे देखने में उन्हें मदद मिलती। वह उनके बाद आया। फिर यह बात साफ हो गई कि ईश्वर इतना महत्वपूर्ण नहीं है। असली समस्या है पुरोहित, और ईश्वर पुरोहित का आविष्कार है। जब तक तुम पुरोहित से मुक्त नहीं होते तब तक तुम ईश्वर से मुक्त नहीं होओगे। और पुरोहित क्रियाकांडों के नए उपाय खोज लेगा। वह नए ईश्वर पैदा करेगा।  मेरा प्रयास यह है कि तुम्हें ध्यान के साथ अकेला छोड़ दिया जाए और तुम्हारे अस्तित्व के बीच कोई मध्यस्थ न हो। जब तुम ध्यानपूर्ण नहीं होते हो तब अस्तित्व से अलग हो जाते हो, और वही तुम्हारी पीड़ा है। यह ऐसे ही है जैसे तुम मछली के सागर से निकालकर किनारे पर फेंक देते हो। फिर उसे जो दुख और पीड़ा और जो यातना अनुभव होती है, और उसकी छटपटाहट और उसकी चेष्टा कि फिर से किसी तरह सागर में पहुंच जाए क्योंकि वही उसका घर है। वह सागर का अंग है और सागर से अलग वह नहीं जी सकती। कोई भी पीड़ा यही दिखाती है कि तुम्हारा अस्तित्व के साथ संवाद नहीं है- कि मछली सागर में नहीं है।
और ध्यान और कुछ नहीं है, सभी बाधाओं को हटा देना हैः विचार, भावनाएं भावुकता- जो कुछ भी तुम्हारे और अस्तित्व के बीच दीवार बनकर खड़ा होता है। जिस क्षण वे गिर जाते हैं, अचानक तुम पाते हो कि तुम्हारा पूर्ण के साथ सुर सध गया। न केवल इतना, तुम पाते हो कि तुम ही पूर्ण हो गए। जब एक ओस-कण पत्ते के ऊपर से फिसल कर सागर में गिरता है, तो उसे ऐसा नहीं लगता कि वह सागर का अंश है, उसे लगता है, वह सागर ही है। और इसे खोजना ही अंतिम लक्ष्य है, अंतिम अनुभव है, उसके पार कुछ भी नहीं है।  तो आदिनाथ ने ईश्वर को विदा किया लेकिन संगठन को विदा नहीं किया। क्योंकि कोई ईश्वर नहीं था इसलिए संगठन ने क्रियाकाण्ड पैदा किये। बुद्ध ने ईश्वर को विदा किया- यह देखकर कि जैन-धर्म के साथ क्या हुआ। वह सिर्फ क्रियाकाण्ड बनकर रह गया। उन्होंने सब क्रियाकाण्ड छोड़ दिये और एक अकेले ध्यान पर जोर दिया। लेकिन उन्हें स्मरण न रहा कि जिस पुरोहित ने जैन-धर्म में क्रियाकाण्ड पैदा किये वही पुरोहित, ने जैन-धर्म में क्रियाकाण्ड पैदा कि वही पुरोहित, ध्यान के साथ भी वही करने वाला है। और वैसा ही हुआ। उन्होंने बुद्ध को ही ईश्वर बना दिया। वे ध्यान के संबंध में चर्चा करते हैं लेकिन मूलभूत रूप से बौद्ध, बुद्ध की पूजा ही कर रहे हैं। वे मंदिर जाते हैं, कृष्ण या क्राइस्ट की जगह वहां बुद्ध की मूर्ति है।
बुद्ध की निर्वाण के बाद पांच सौ साल तक बुद्ध की कोई प्रतिमा नहीं बनी। बौद्ध मंदिरों में, एक प्रतीक की तरह संगमरमर में खुदा हुआ वह बोधिवृक्ष होता था, जिसके नीचे बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए। वहां बुद्ध नहीं बल्कि वृक्ष था। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि बुद्ध की जो प्रतिमाएं हम आज देखते हैं, वे बुद्ध के व्यक्तित्व से कतई मेल नहीं खातीं, वे सिकंदर महान के व्यक्तित्व से मिलती हैं। बुद्ध के तीन सौ साल बाद सिकंदर महान भारत आया। तब तक बुद्ध की कोई प्रतिमा नहीं थी। और सिकंदर इतना सुंदर आदमी था! और पुरोहितों का वर्ग खोज में था क्योंकि बुद्ध का कोई छायाचित्र नहीं था, कोई चित्र नहीं था! और पुरोहितों का वर्ग खोज में था क्योंकि बुद्ध का कोई छायाचित्र नहीं था, कोई चित्र नहीं था, तो बुद्ध की प्रतिमा बनाएं तो बनाएं कैसे। और सिकंदर का चेहरा सचमुच अतिमानवीय लगता था। उसका व्यक्तित्व बड़ा सुुंदर था। ग्रीक नाक-नक्श थे और वैसा ही शरीर का गठन था। तो मूर्ति बनाते समय उन्होंने बुद्ध का चेहरा तथा सिकंदर का शरीर अपने ख्याल में रखा।  तो सभी बौद्ध मंदिरों में जिन प्रतिमाओं की पूजा हो रही है, वे वस्तुतः सिकंदर महान की प्रतिमाएं हैं।
उनका बुद्ध से कोई संबंध नहीं है। लेकिन पुरोहित की तो प्रतिमा बनानी ही थी। ईश्वर था नहीं, क्रिया-काण्ड मुश्किल थे, ध्यान के आसपास क्रिया-काण्डों को खड़ा करना भी कठिन था। उन्होंने प्रतिमा बना ली। और उन्होंने उस प्रतिमा से वैसे ही नाता जोड़ लिया जैसे अन्य धर्म जोड़ लेते हैं। वे कहने लगे, बुद्ध में श्रद्धा करो, बुद्ध पर विश्वास करो और तुम बच जाओगे।  दोनों क्रंातियां व्यर्थ खो गईं। मैं चाहता हूं कि मैं जो कर रहा हूं वह न खो जाए। तो मैं हर तरह से इस बात की कोशिश कर रहा हूं कि उन सब बातों को छोड़ दिया जाए, जो अतीत में क्रंाति के विकास में और क्रंाति के सातत्य में बाधा बनी थीं। मैं नहीं चाहता कि व्यक्ति के और अस्तित्व के बीच में कोई खड़ा हो जाए- न प्रार्थना, न पुरोहित। सूर्योदय को देखने के लिए तुम अकेले काफी हो। तुम्हें किसी व्याख्याकार की जरूरत नहीं है यह बताने के लिए देखो, सूर्योदय कितना सुंदर है।  कहा जाता है कि लाओत्सु प्रतिदिन सुबह घूमने जाया करता था। एक मित्र ने उससे पूछा, क्या किसी दिन मैं भी आपके साथ आ सकता हूं? और खास कर कल मैं आना चाहूंगा क्योंकि मेरे साथ एक मेहमान हैं, जिनकी आपमें बहुत उत्सुकता है। उ
न्हें बड़ी खुशी होगी कि आपके साथ दो घंटेे पहाड़ों पर बिताने का अवसर मिला।  लाओत्सु ने कहा, मुझे कोई एतराज नहीं है। सिर्फ एक छोटी-सी बात का ध्यान रहे कि वे कोई बातचीत न करें। क्योंकि मरे पास अपनी आखें हैं, तुम्हारे पास तुम्हारी आंखें हैं, उनके पास उनकी आंखें हैं। वे खुद देख सकते हैं, कुछ कहने की जरूरत नहीं है।  मित्र राजी हुआ। लेकिन वह मेहमान भूल गया। रास्ते पर जब सूरज उगने लगता, तो वह इतना सुंदर दृश्य था- सरोवर के किनारे पानी में उसका सतरंगा प्रतिबिंब, पक्षियों की चहचहाहट, अपनी पंखुड़ियां खोलकर कमलों का खिलना...वह अपने को रोक नहीं सका। वह भूल ही गया और बोला, ‘कितना सुंदर सूर्योदय है!  लाओत्सु के मित्र को धक्का लगा क्योंकि उसने शर्त तोड़ दी थी। लाओत्सु ने कुछ.नहीं कहा। वहां किसी से कुछ नहीं कहा। घर लौटने पर लाओत्सु बोला, तुम्हारे मेहमान को दुबारा मत लाना; वह बहुत बातूनी है।
क्योंकि सूर्योदय वहां पर था, तुम वहां थे, मैं वहां था, वह भी वहां था, फिर किसी को कुछ कहने की जरूरत क्या है? कोई वक्तव्य देने की, कोई व्याख्या करने की जरूरत नहीं है।  और यही मेरा दृष्टिकोण है। तुम यहां हो, हर व्यक्ति यहां है, पूरा अस्तित्व उपलब्ध है- तुम्हें जरूरत है सिर्फ मौन होकर अस्तित्व को सुनने की। किसी धर्म की कोई जरूरत नहीं है; और न किसी ईश्वर की जरूरत है, न किसी पुरोहित की, न ही किसी संगठन की जरूरत है।  मेरी व्यक्ति में असंदिग्ध रूप से आस्था है। आज तक किसी की भी व्यक्ति में इस भंाति इतनी आस्था नहीं थी। तो बाकी सब बातों को हटा दया जा सकता है। अब तुम्हारे पास जो बच रहता है वह, ध्यानपूर्ण चित्त दशा; जिसका सीधा-सा अर्थ है, परिपूर्ण मौन। ‘ध्यान’ शब्द से लगता है कि वह कुछ बड़ी बोझिल चीज है। अच्छा होगा कि हम उसे कहें, साधारण, निर्दोष मौन...और अस्तित्व अपना सारा सौंदर्य तुम्हारे सामने खोल देता है। और जैसे-जैसे वह मौन विकसित होता जाता है, तुम भी विकसित होते जोते हो। और एक क्षण आता है, जब तुम अपनी क्षमता के शिखर को छू लेते हो। तुम उसे बुद्धत्व कह सकते हो, जागरण कह सकते हो, भगवत्ता कह सकते हो- कुछ भी; उसका कोई नाम नहीं है। तो किसी भी नाम से काम चलेगा।  लाखों संन्यासी आपके प्रेम और आनंद को पी रहे हैं। संन्यास में दीक्षित होने के लिए कोई व्यक्ति कैसे प्रेरित होता है! यह चमत्कार कैसे घट रहा है भगवान?
निश्चित ही, यह चमत्कार है। लेकिन उसका घटना बहुत सरल है। अतीत में इसका वर्णन करने के लिए कोई शब्द नहीं था। ेलेकिन संयोगवशात कार्ल गुस्ताव जुंग ने, जो कि इस युग का एक बहुत बड़ा मनस्विद था, एक शब्द गढ़ा क्योंकि उसे एक ऐसा अनुभव हुआ, जिसके लिए कोई शब्द नहीं था।  वह एक पुरानी कोठी में रुका हुआ था। उसकी दीवाल पर दो घड़ियां थीं। और उनकी यह ख्याति थी कि वे हमेशा एक ही समय दिखाती हैं। और वह हैरान था...वे घड़ियां बहुत पुरानी थीं। और उनके बारे में यह भी विदित था कि तुम उनके कांटे बदल दो, फिर भी जल्दी ही वे एक दूसरे से मेल खाती और पुनः एक ही लय में चलने लगतीं। उसने दो-तीन बार चेष्टा की कि एक घड़ी को पांच मिनिट आगे कर दे। और जल्दी ही वह देखता कि दोनों घड़ियों ने फिर से किसी भंाति तालमेल बिठा लिया है और दोनों घड़ियां ढाई मिनिटों में ही, फिर एक ही समय दिखाने लगी हैं।  वह हैरान हुआ कि यह हो क्या रहा है। चूंकि वह वैज्ञानिक मस्तिष्क वाला आदमी था, उसके कारण खोजने की कोशिश की। उसने दीवाल को कान लगाकर सुना, वह घड़ियों के चारों ओर घूमा, और उसने कारण खोज लिया। दोनों घड़ियां अत्यंत प्राचीन थीं, बहुत भारी थीं और बहुत बड़ी थीं। और वे एक खास तरह की ध्वनि और ध्वनि तरंगें पैदा करतीं थीं।
और वे एक तरह की ध्वनि और ध्वनि-तरंगें पैदा करती थीं। और वे एक खास तरह की ध्वनि और ध्वनि-तरंग पैदा करती थीं। और ये ध्वनि-तरंगें एक साथ चलने में उनकी मदद करती थीं। वे ध्वनि-तरंगें बेमेल नहीं बनी रह सकती थीं। धीरे-धीरे उनका मेल बैठ ही जात। उसे कोई शब्द खोजना ही था...रात भर वह सो नहीं सका। और उसने एक शब्द खोज ही लियाः सिंक्रानिसिटी, समक्रमिकता। उसका कोई कारण नहीं है।  हमें जगत में के ही बात का पता है कि कोई कारण हो तो ही कोई घटना घटती है। कोई कारण न हो तो कोई कार्य भी नहीं होता है। तो यह जगत घटना के घटने का सिर्फ एक ही ढंग जानता है कि कारण से कार्य पैदा होता है। यह कार्य-कारण संबंध है। पूरा वैज्ञानिक जगत इस कार्य-कारण संबंध पर आधारित है। उसमें समक्रममिकता के लिए कोई जगह नहीं है। लेकिन मानव जीवन में, जो भी थोड़ा सजग है उसे इसका पता लग जाता है। तुम उदास थे और एक मित्र आ गया; और वह प्रसन्न है, हंस रहा है, उसने तुम्हें आलिंगन किया, एक चुटकुला सुनाया और तुम अपनी उदासी भूल गए। और तुम भी उसके साथ हंसने लगे।  इससे उलटा भी हो सकता है। जो आदमी हंसते हुए आ रहा है उसका हंसना तुम्हें देखकर बंद भी हो सकता है। तुम्हारी उदासी का इतना परिणाम हो सकता है कि वह तुम्हें चुटकुला भी नहीं सुना सकता। वैसा करना करीब-करीब अमानवीय मालूम पड़ेगा, संदर्भ-विहीन दिखाई देगा। क्योंकि यह आदमी इतना उदास है और तुम चुटकुला सुना रहे हो। उस चुटकुले के लिए भी एक खास संदर्भ चाहिए जो कि वहां नहीं है तुम एक मित्र से हाथ मिलाते हो और पाते हो कि वे हाथ बिल्कुल मुर्दा हैं; जैसे किसी वृक्ष का ठूंठ हो।
उससे कुछ बहता नहीं; कोई उष्मा नहीं, कोई प्रेम नहीं, बस एक क्रियाकाण्ड। लेकिन किसी और मित्र के साथ हाथ मिलाते वक्त तुम अत्यंत समृद्ध अनुभव करते हो। कुछ बहता है- कोई उष्मा, कोई प्रेम। हाथ मिलाने के बाद तुम निश्चित रूप से कह सकते हो कि तुम वही नहीं हो, जो उस मित्र के हाथ मिलाने के पहले थे लेकिन उसके हाथ का सिर्फ एक स्पर्श- और उसकी प्रसन्नता ने तुम्हारे भीतर कुछ गतिमान कर दिया।  अब इसे कार्य और कारण नहीं समझाया जा सकता। उसे सिर्फ एक नये नियम से समझाया जा सकता हैः समक्रमिकता का नियम।  और दीक्षा का यही अर्थ हैः एक आदमी, जिसने मौन जान है, आनंद जाना है, प्रसन्नता जानी है वह तुम्हें आकर्ष्ति करता है। शायद तुम्हें इसका बोध भी न हो कि वह तुम्हें आकर्ष्ति करता है। लेकिन किसी न किसी भंाति तुम उसके साथ होना चाहते हो, उसके पास बैठना चाहते हो, उससे बात करना चाहते हो। उसका होना तुम्हारे भीतर एक समक्रमकिता पैदा करता है। तुम्हारा हृदय एक अलग ही लय में धड़कने लगता है।  ये लाखों संन्यासी...क्योंकि मेरे पास उन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है। यदि वे कैथोलिक बनते हैं तो कैथोलिक लोग उन्हें बहुत कुछ दे सकते हैं। यदि वे किसी और धर्म में परिवर्तित होते हैं, तो वह धर्म उन्हें कुछ और दे सकता है। सच पूछा जाए तो यह एक जाना-माना तथ्य है कि जो व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता है, उसे नए धर्म में बहुत सम्मान मिलता है। वह पुराना धर्म उसकी बहुत निंदा करता है, जिसे उसने पीछे छोड़ दिया है। लेकिन नये धर्म में उसे बहुत सम्मान मिलता है क्योंकि उसने सिद्ध कर दिया है कि नया धर्म पुराने धर्म से बेहतर है।
मैं एक वृद्ध जैन-मुनि को जानता था। वे जन्म से जैन नहीं थे; जन्म से वे बढ़ई थे। हिंदू धर्म में बढ़ई नीच जाति के होते हैं। लेकिन चूंकि वे एक मंदिर के महावीर की काष्ठ प्रतिमाएं बना रहे थे, उनमें जैन धर्म के प्रति उत्सुकता जगी और अंततः वे जैन बने। उनकी हिंदुओं ने बहुत निंदा की लेकिन उसका कोई मतलब नहीं था क्योंकि वे पहले नीच जाति के व्यक्ति थे, तिरस्कृत थे, तुम उनका और ज्यादा तिरस्कार नहीं कर सकते। लेकिन जैन धर्म में उन्हें मुनि के उच्च तल पर पहुंचाया गया। उनके सामने बाकी जैन मुनि भी छोटे रह गए। यह बढ़ई एक बहुत आदरणीय साधु बन गया।  और मैं हैरान हुआ क्योंकि वे अन्य जैन मुनियों की तरह विद्वान नहीं थे। वे इतने पढ़े लिखे नहीं थे, सुसंकृत नहीं थे। आखिर वे एक बढ़ई थे और उनसे तुम ज्यादा अपेक्षा नहीं कर सकते। लेकिन उन्हें इतना सम्मान मिल रहा था...फिर मैंने कारण खोजा कि उन्हें यह सम्मान क्यों मिल रहा है। क्योंकि जैनों के लिए उसने एक बात सिद्ध कर दी कि जैन धर्म हिंदू धर्म से श्रेष्ठ है। यह आदमी इस बात का सबूत है। एक भी जैन ने कभी हिंदू धर्म में प्रवेश नहीं किया लेकिन अनेक हिंदुओं ने जैन-धर्म अपनाया है।
और यह सबूत है।  वे ह्नाादा नहीं बोलते थे। उनके पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं। लेकिन सिर्फ इसलिए कि वे दूसरे धर्म से यहां आये थे, उन्हें असीम आदर मिलता था।  मैंने एक दिन उनसे कहा कि आप इस धोखे में मत रहना कि यह आदर आपके प्रति है। वे बोले, आपका क्या मतलब है? मैंने कहा, यह आदर केवल इसलिए है कि आप जैन धर्म में पैदा नहीं हुए हैं। यह आदर सिर्फ इसलिए है कि दुनिया के दिखा दें कि जैन धर्म हिंदू धर्म से कहीं अधिक श्रेष्ठतर धर्म है; अन्यथा एक हिंदू खुद होकर जैन धर्म में क्यों प्रवेश करे?  मैंने उनसे कहा, आप कोशिश कर सकते हैं। आप हिंदू धर्म में दुबारा प्रवेश करें; हिंदुओं का आपके प्रति जो भी तिरस्कार है, वह सब खो जाएगा। वे आपका सम्मान करेंगे। उन्होंने कभी किसी बढ़ई का सम्मान नहीं किया है। वे आपका सम्मान करेंगे क्योंकि अब इससे निश्चित रूप से ये सिद्ध होता है कि हिंदू धर्म श्रेष्ठतर धर्म है। और इस आदमी ने दोनों धर्मों को देखा और अंततः उसने हिंदू बने रहने का निर्णय लिया। उसके लिए उसने सारी साधुता छोड़ दी, और सारे समादर का त्याग कर दिया। और फिर आप देखेंगे कि वही जैन आपकी निंदा कर रहे हैं। वे आपके खिलाफ झूठ बोलेंगे, आप पर हर तरह के इलजाम लगायेंगे।  वह आदमी सरल था। उसने कहा, शायद आप ठीक कहते हैं।
शायद मैं भ्रंाति में जी रहा हूं। मैंने कहा, यदि आप इतना समझ सकते हज तो आपका विकास नहीं रुकेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम हिंदू हो या जैन हो या बौद्ध। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मूलभूत काम को याद रखना। सब तरह की भ्रंातियों में मत भटक जाना, जो जीवन में घटती रहती हैं।  जो संन्यासी मेरे पास आ रहे हैं उन्हें देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। सच तो यह है कि उनके समाज उनके धर्म उनकी निंदा करेंगे; उनके परिवार, उनके मित्र उनका तिरस्कार करेंगे। उन्हें कुछ मिलनेवाला नहीं है, उल्टे उन्हें बहुत कुछ खोना पड़ेगा।  लेकिन फिर भी उनके हृदय के भीतर कुछ स्फुरणा होने लगती है। यह उनके मन के नियंत्रण के बाहर होगी। वे इस सबके बावजूद संन्यासी बन जाते हैं। हालांकि इसमें समय लगता है। एक समय होता है जब उनके हृदय में और उनके मन में संघर्ष चलता है। और उनका मन उन्हें पीछे खींचने की कोशिश करता है कि जहां हो वही रहो। और वह हर तरह के तर्क देता रहता है कि तुम सब कुछ खो दोगे और तुम कुछ भी नहीं पाओगे। लेकिन देर अबेर मन हारने ही वाला है। अगर तुम्हारे हृदय की कोई चीज वास्तव में खींच रही है, तो मन कुछ समय तक लड़ सकता है लेकिन वह जीत नहीं सकता।  तो मैं कहता हूं, संन्यास प्रेम में गिरने जैसा है; वह समक्रमिकता है। तुम पाते हो कुछ अव्याख्य, कुछ अनाम तुम्हें मुझसे जोड़ता है, और तुम दुनिया के सामने इसकी घोषणा करना चाहते हो- और यही संन्यास है।  दीक्षा सिर्फ इस बात की घोषणा है कि मैं इसे अपने तक सीमित नहीं रखने वाला हूं। मैं एक नयी शक्ति के, नयी ऊर्जा के सान्निध्य में आया हूं; एक नया प्रेम, एक नया ही जगत।
और में पूरे जगत को यह घोषित करने वाला हूं। फिर उसके लिए मुझे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।  और यद्यपि संन्यासियों को पीड़ा झेलनी पड़ेगी, उनको सताया जाएगा, उनका तिरस्कार होगा, लेकिन फिर भी उनके भीतर प्रसन्नता होगी, जो उनके उत्पीड़कों के भीतर नहीं हो सकती। उनके भीतर एक मौन होगा, जो उनके निंदकों के भीतर नहीं हो सकता। और यह बात एक दावानल की तरह फैल रही है- किसी संगठन के बिना, कि नहीं उपदेशकों के बिना, किन्हीं धर्म-प्रचारकों के बिना, जो कि बाइबिल लेकिन सतत तुम्हारा पीछा करें और सताएं।  मैंने कभी किसी का धर्म नहीं बदला। और मैं अपने लोगों से आग्रह करता हूं कि वे भी कभी किसी का धर्म न बदलें।। लेकिन अगर कोई मित्र बनना चाहता है तो हमारे द्वार खुले हैं और उसका स्वागत है।  संन्यास दीक्षा सिर्फ तुम्हारा भाव है कि तुम भीतर प्रवेश करना चाहते हो, और हमारा भाव है कि तुम्हारा स्वागत है।  निश्चिित ही, यह चमत्कार है- और खास कर मेरे साथ, क्योंकि न तो मैं तुम्हें इस जीवन में कुछ दे सकता हूं और न ही अन्य जीवनों में कुछ दे सकता हूं। मेरे पास किसी के लिए कोई अफीम नहीं है। लेकिन मैं तुम्हें कुछ दिये बिना, कोई दृश्य चीज मेरे हाथ से तुम्हारे हाथ में हस्तांतरित हुए बिना इस क्षण को अत्याधिक सुंदर क्षण बन सकता हूं। लेकिन ये अदृश्य चीजें हैं। हम एक्स-रे को बिना किसी अड़चन के स्वीकार कर सकते हैं। फिर हम यह स्वीकार क्यों नहीं कर सकते कि प्रेम की भी अपनी किरणें होती हैं और मौन की अपनी किरणें होती हैं, अपन तरंगे होती हैं।  और निश्चय ही, बुद्धत्व एक अपरिसीम शक्ति है, जो व्यक्ति को रूपांतरित कर सकती है यह चमत्कार ही है।

 फिर पत्तों की पाजेब बजी-प्रवचन-समाप्त


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