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शनिवार, 8 दिसंबर 2018

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-16)

सोलहवां--प्रवचन

तुम्हारा अंत परमात्मा का प्रारंभ है

प्रश्न-सार:

01-ओशो, यह खेल तो अनजाने में, हंसी-हंसी में शुरू हुआ। यह तो खबर न थी कि यह हमें ही ले डूबेगा। आगे अंधेरा, पीछे खाई। आगे कुछ दिखाई नहीं देता और पीछे जाना नामुमकिन लगता है। दिन तो निकल जाता है, यह अंधेरी रात क्यों आती है?
02-ओशो, आप कभी-कभी अति कठोर उत्तर क्यों देते हैं? जैसे कुंडलिनी के संबंध में दिया आपका उत्तर। वैसे आप कुछ भी कहें, कुंडलिनी जगानी तो मुझे भी है!

पहला प्रश्नः ओशो, यह खेल तो अनजाने में, हंसी-हंसी में शुरू हुआ। यह तो खबर न थी कि यह हमें ही ले डूबेगा। आगे अंधेरा, पीछे खाई। आगे कुछ दिखाई नहीं देता और पीछे जाना नामुमकिन लगता है। दिन तो निकल जाता है, यह अंधेरी रात क्यों आती है?

वेदांत भारती! मनुष्य के जीवन मे साधारणतः सभी कुछ अचेतन रूप से शुरू होता है। और तो शुरू होने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि मनुष्य अभी चेतन कहां? अभी तो तुम्हारे जीवन में जो होता है सब संयोगवशात है। प्रेम घट जाता है..संयोगवशात, मित्रता बन जाती है..संयोगवशात। फिर मित्रता में चाहे जीवन भी गंवाना पड़े। प्रेम में चाहे फिर सब कुछ लुटाना पड़े। मगर बात तो होती है संयोगवशात।

एक बड़े यहूदी विचारक अली वेसेल ने अपने पिता के संबंध में लिखा है...मजाक ही मजाक में, लेकिन बड़ी सच्ची बात...लिखा है कि मैं अगर कुछ सांयोगिक घटनाएं न घटी होतीं तो कभी पैदा ही न हुआ होता। जैसे मेरे पिता एक टेन से सफर कर रहे थे, जो कि लेट हो गई। पहुंचना था आठ बजे संध्या, पहुंची एक बजे रात। स्टेशन सुनसान पड़ी, होटल की मालकिन भी बस होटल बंद करने की तैयारी कर रही थी। सर्दी के दिन, वेसिल के पिता ने जाकर कहा कि दुकान बंद करो, इसके पहले कम से कम एक कप काफी तो मुझे दे दो। मैं ठिठुरा जा रहा हूं। महिला को दया आई, उसने एक कप काफी दी। और तो कोई था नहीं, बस मालकिन थी..नौकर जा चुके थे..वह भी दरवाजा लगाने की तैयारी कर रही थी। दोनों बैठ कर बात करने लगे सुख-दुख की, रोजमर्रा की, गपशप। वेसेल के पिता ने कहा, टैक्सी मिल सकेगी मुझे किसी होटल में जाने के लिए? उस महिला ने कहा, अब तो मुश्किल है, टैक्सी भी सब जा चुकीं। और इतने रात कहां खोजते फिरोगे होटलें? होटलें भरी हुई हैं। नगर में कोई सम्मेलन चल रहा है। तुम मेरी ही गाड़ी से क्यों नहीं आ जाते! रात मेरे घर ही टिक जाओ, सुबह होटल खोज लेना।
यह सहज सज्जनोचित निमंत्रण था। पिता ने स्वीकार कर लिया। ऐसे बात बढ़ी! ऐसे बात यहां तक बढ़ी कि दोनों की दोस्ती बनी, प्रेम बना, विवाह हुआ..और अली वेसेल पैदा हुआ। अली वेसेल ने लिखा है कि उस रात अगर ट्रेन लेट न होती तो मेरे पैदा होने की कोई संभावना ही न थी। टेन भी लेट होती, मगर थोड़ी और लेट हो गई होती दस-पंद्रह मिनट, तो भी मेरे पैदा होने की कोई संभावना न थी, क्योंकि वह महिला दुकान बंद करे चली गई होती। टेन भी लेट होती, महिला ने दुकान भी बंद न की होती, लेकिन उजड्ड ढंग की महिल होती और कह देती कि अब नहीं, अब काफी वगैरह मुझसे न हो सकेगी, मैं भी ठंढ में ठिठुरी जा रही हूं। मुझे भी घर आखिर पहुंचना है या नहीं? या निमंत्रण न देती कार में घर आने का। यह सब जरूरी तो नहीं था। यह आवश्यक भी नहीं था, अनिवार्य भी नहीं था।
अली वेसेल ने मजाक-मजाक में बड़ी सही बात कही है।
तुम्हारी जिंदगी ऐसे ही संयोगों से भरी है। क्योंकि मनुष्य का जीवन ही अचेतन है। इस अचेतन जीवन में तुम जागरूकता से कोई कदम नहीं उठा सकते।
वेदांत, तुम यहां आए, मेरे प्रेम में पड़ गए! यह सांयोगिक है तुम्हारी तरफ से, मेरी तरफ से नहीं। मैंने तो तुम्हें चुना है। इसलिए तुम्हें भागने भी नहीं दूंगा। कहीं भाग जाओ, दुनिया के किसी कोने में, तुम्हें खींचता ही रहूंगा। लेकिन तुमने मुझे सांयोगिक रूप से चुना है। तुमने तो खेल-खेल में चुन लिया। यहां आए थे, इतने गैरिक वस्त्रों में रंगे हुए लोग देखे..नाचते, मग्न-मस्त..तुमने भी नाचना चाहा, तुम भी मस्त होना चाहे। सोचा कि शायद गैरिक वस्त्र जरूरी हैं। बिना संन्यास के यह कैसे होगा? मन में कहीं यह भी सोचा होगा कि यहां संन्यास ले लूं, वापस घर जाकर कौन देखने आता है! वापिस घर जाकर गैरिक पहनूंगा कि नहीं पहनूंगा, यह देखा जाएगा आगे। यहां आ गया हूं तो यहां तो सम्मिलित हो जाऊं! ऐसे तुम सम्मिलित हुए।
मगर यह खेल खेल नहीं है। यह आखिरी खेल है। इस खेल की जब शुरुआत हो जाती तो और सब खेल अपने आप फीके पड़ जाते हैं। फिर और सब शतरंजें व्यर्थ हो जातीं। और यह खेल ऐसे ही शुरू हुआ। अब तुम सब छोड़-छोड़कर यहां आ गए हो। बड़ी नौकरी थी, बड़ा पद था, सब छोड़-छोड़ कर आ गए हो। अब तुमने सब दांव पर लगा दिया। तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक है। तुम कहते हो, यह खेल तो अनजाने में, हंसी-हंसी में शुरू हुआ था। तुम्हारी तरफ से, मेरी तरफ से नहीं। मेरी तरफ से तो हंसी भी बहुत गंभीर है। तुम्हारी तरफ से तो गंभीरता भी हंसी ही हंसी है। तुम्हारी तरफ से तो खेल ही शुरू होते हैं। मेरी तरफ से तो यह खेलों का अंत है।
संन्यास का अर्थ है: सब खेलों के बाहर हो जाना। खेलो से मुक्त हो जाना। खेल चुके बहुत, पाया क्या? उपलब्धि क्या है? कितने तो दौड़े हो जन्मों-जन्मों में, पहुंचे कहां, हाथ क्या लगा? कितनी यात्राएं की हैं, मंजिल इंच भर भी करीब नहीं आई। लेकिन फिर भी लोग उलझे रहते हैं। न उलझे रहें तो क्या करें! उलझे रहते हैं तो कम से कम चिंता का बोझ कम रहता है। उलझे रहते हैं तो कम से कम यह संताप नहीं घेरता कि हम जीवन को व्यर्थ गंवा रहे हैं, कि यह हाथ से छूटा जा रहा जीवन। व्यस्त रहते हैं हजार कामों में। हजार खेल लोगों ने बना रखे हैं। बड़ा मकान बनाना है, बड़ा धन कमाना है, बड़ा पद, बड़ी प्रतिष्ठा! ऐसे उलझे हैं जैसे यहां सदा रहने को हैं। और ‘सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब बांध चलेगा बंजारा।’ और बंजारा किस वक्त चल पड़ेगा, कहना मुश्किल है। आज चल पड़े, कल चल पड़े। और तुम कितनी मेहनत कर रहे हो! जहां तंबू ही बांधने चाहिए वहां तुम पत्थरों के महल बना रहे हो। होशियार आदमी सिर्प तंबू ही बांधता है। महल में भी होता है तो भी जानता है कि तंबू ही है। क्योंकि कब चल पड़ना पड़ेगा, कहना आसान नहीं। एक बात तय है, चल पड़ना पड़ेगा। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। क्या फर्क पड़ता है, आज चले, कल चले, परसों चले। यह सब खेल हैं यहां। बहुत धन छोड़ कर चले कि कम धन छोड़ कर चले!
एक यहूदी मरा। ...यहूदी यानी पश्चिम के मारवाड़ी। ...सारे रिश्तेदार इकट्ठे हुए। महा कंजूस था। कभी किसी के लिए एक पैसा खर्च नहीं किया था। लोग सोचते थे, खूब जोड़ कर मरा है, अब बंटने का मौका आया। तो सब रिश्तेदार इकट्ठे थे। वसीयत पढ़ी जाए, इसकी जल्दी थी। इधर लाश उठी भी नहीं कि वसीयत पढ़ी गई। वसीहत छोटी ही थी, पोस्टकार्ड के बराबर एक कागज पर उसने बस एक छोटा सा वक्तव्य लिखा था कि मैं स्वस्थ बुद्धि का आदमी था, इसलिए जो भी कमाया, अपने लिए खर्च किया और पीछे कुछ भी नहीं छोड़ जा रहा हूं।
पीछे कुछ भी न छोड़ जाओ तो भी खेल खत्म हो जाता है और पीछे बहुत कुछ छोड़ जाओ तो भी खेल खत्म हो जाता है, और अपने लिए खर्च कर लो कि दूसरे के लिए खर्च कर लो, हर हालत में खेल खत्म हो जाता है। स्मृति भी तो नहीं रह जाती। रेत पर खींची गई रेखाएं हैं हमारे जीवन। या और भी ज्यादा ठीक हो, पानी पर खींची गई लकीरें हैं हमारे जीवन। बनते भी नहीं और मिट जाते हैं। यहां सभी खेल है, वेदांत! सब नाटक है। नाटक को गंभीरता से मत लो।
लेकिन नाटक को लोग बहुत गंभीरता से ले लेते हैं। अति गंभीरता से ले लेते हैं। मरने-मारने को उतारू हैं। लड़ने-झगड़ने को। छोटी-छोटी बातों पर, जिनका कोई भी मूल्य नहीं है। कल तुम्हारे लिए भी मूल्य नहीं रह जाएगा। आज से बीस साल पहले जो बात इतनी महत्वपूर्ण लगती थी तुम्हें कि जान लगा देते उस पर, आज उसका क्या मूल्य है? आज याद भी नहीं आती। और आज तुम्हें जो बात बहुत मूल्यवान लग रही है, बीस साल बाद उसका कोई मूल्य रह जाएगा? वह भी ऐसी ही व्यर्थ हो जाएगी। और मरती घड़ी में जीवन साराका सारा व्यर्थ हो जाएगा। कितने जीवन व्यर्थ हो गए!
नाटक से ज्यादा मत लो जीवन को। यह बोध ही संन्यास है। लेकिन लोग तो नाटक तक को जीवन मान लेते हैं। जीवन को नाटक मानना तो बहुत दूर, नाटक को जीवन मान लेते हैं।
तुम देखोगे सिनेमागृह में लोगों को रोते। कुछ भी नहीं है परदे पर, धूप-छांव का खेल है..चाहे रंगीन धूप-छांव हो..तुम भलीभांति जानते हो परदा खाली है और तुम यह भी जानते हो कि पीछे सिवाय फिल्म के और कुछ भी नहीं है, यहां रोने योग्य कुछ भी नहीं, हंसने योग्य कुछ भी नहीं, लेकिन हंसते भी हो, रोते भी हो..न-मालूम कितने भावों से गुजर जाते हो। सारे रस तीन घंटे में तुम्हारे भीतर पैदा हो जाते हैं। कभी क्रुद्ध हो जाते हो, कभी प्रेम से भर जाते हो। नाटक को भी इतना मान लेते हो।
एक आदमी ने एक वर्ष तक लगातार, लिंकन की शताब्दी मनाई जा रही थी तो लिंकन का पार्ट अदा किया। वह लिंकन जैसा दिखाई पड़ता था। बड़ी खोजबीन से अमरीका में उसको पाया गया। लिंकन के कपड़े पहनाए, लिंकन जैसी छड़ी टेकता, लिंकन थोड़ा सा लंगड़ाता था तो वह भी लंगड़ाता और लिंकन थोड़ा हकलाता था तो वह भी हकलाता। नाटक पूरा उसने किया। और साल भर चलता रहा। एक गांव से दूसरे गांव, दूसरे से तीसरे गांव। साल भर में ऐसा अयास हो गया कि वह घर में भी लंगड़ाता और घर में भी हकलाता। उसके पत्नी-बच्चों ने कहा भी कि तुम नाटक करो, यह तो ठीक है, मगर नाटक में ही नाटक करो, यह घर में तुम क्यों हकलाते हो? उसने कहा: अयास! बिना हकलाए अब मुझसे बोला नहीं जाता।
साल भर निरंतर यह नाटक करने के बाद बड़ी मुश्किल खड़ी हुई। नाटक तो खतम हो गया, शताब्दी समारोह समाप्त हो गया, मगर वह आदमी जो था, लिंकन के कपड़े पहने हुए, जो कि अब बिल्कुल बेहूदे लगते..पुराने जमाने के कपड़े पहन कर चला आ रहा। ...जैसे कोई कृष्णकन्हैया बन कर खड़े हो जाएं बाजार में, तो पिटाई हो जाए। हालांकि काम वे कुछ बुरा नहीं कर रहे हैं, मोरमुकुट बांधे हुए खड़े हैं, बांसुरी बजा रहे हैं। गऊमाता को भी बगल में खड़ा रखें तो भी कुछ नहीं हो सकता! फौरन पुलिस पकड़ेगी कि तुम टेफिक में बाधा डाल रहे हो, चलो थाने! वह लाख कहें कि हम कृष्णकन्हैया हैं, लोग कहेंगे, तुम चुप रहो, बकवास न करो! तुम पहले थाने चलो! अब कहां के कृष्णकन्हैया? अब कैसा मोरमुकुट? ...लोग मजाक उड़ाते उसकी, मगर वह मुस्कुराता। घर के लोगों ने कहा: अब यह वेशभूषा छोड़ो। उसने कहा कि वेशभूषा, मैं अब्राहम लिंकन हूं! साल भर के अयास से उसको ऐसा पक्का भरोसा आ गया कि मैं अब्राहम लिंकन हूं कि वह छोड़े ही नहीं यह आदत। चिकित्सा करवाई गई, मनोवैज्ञानिकों के पास ले जाया गया, लाख उपाय किए कि किसी तरह उसको उतारा जा सके इस भ्रांति से, मगर वह भी उतरने वाला नहीं था।
आखिर एक मनोवैज्ञानिक ने कहा कि अब एक ही उपाय है। यह बात बड़ी गहरी उतर गई है, मालूम होता है। यंत्र से परीक्षा करनी होगी कि कितनी गहरी उतर गई है? ...अमरीका में अभी एक यंत्र बना है, जो वहां की अदालतों में उपयोग में लाया जाता है झूठ को पकड़ने के लिए। अपराधी को पता नहीं होता, वह यंत्र के ऊपर खड़ा होता है..जैसे कार्डियोग्राम होता है और तुम्हारे हृदय की धड़कन को अंकित करता है ऐसे ही वह यंत्र के नीचे तुम्हारे हृदय की धड़कन को अंकित करता है, जब तक तुम सच बोलते हो तब तक उसमें एक लयबद्धता होती है अंकन में। जैसे ही तुम झूठ बोलते हो, झटका खा जाती है। तुम्हारा हृदय झटका खाता है न झूठ बोलने में! तो पहले ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं जिनमें तुम झूठ बोल ही नहीं सकते। जैसे, घड़ी में देख कर बताओ कि इस समय कितने बजे हैं? अब इसमें क्या झूठ बोलोगे? बोलने की कोई जरूरत भी नहीं है, सच बोलोगे। जैसे, गिन कर बताओ अदालत में कितने लोग मौजूद हैं? क्या झूठ बोलोगे! गिन कर बता दोगे इतने लोग मौजूद हैं। जैसे पूछा जाए कि यह आदमी स्त्री है या पुरुष? तो क्या झूठ बोलोगे! दरवाजा पूरब की तरफ है कि पश्चिम की तरफ? क्या झूठ बोलोगे!! दिन है कि रात? क्या झूठ बोलोगे! ऐसे दस-पंद्रह प्रश्न, जिनमें तुम्हें सच बोलना ही पड़ेगा..और नीचे अंकन हो रहा है तुम्हारे हृदय की गति का। और फिर तुमसे पूछा जाता है: चोरी की? एक धक्का लगता है हृदय में। वह धक्का अंकित हो जाता है। ऊपर से तो तुम कहते जा: नहीं की, लेकिन भीतर तो हृदय जानता है कि की, इसलिए एक दुविधा पैदा हो जाती है। वह दुविधा कंपा देती है यंत्र को। फौरन पकड़ लिए जाते हो कि तुम झूठ बोल रहे हो।
इस आदमी को उस यंत्र पर खड़ा किया गया। यह आदमी भी थक गया था। ...खूब जगह-जगह इसको समझा रहे थे लोग कि तुम अब्राहम लिंकन नहीं हो, भाई! तुम मानोगे कि नहीं मानोगे? अब्राहम लिंकन को गोली मारी गई, क्या तुम को भी जब तक गोली न मारी जाएगी तब तक तुम शांत नहीं होओगे? गोली खा कर ही रहोगे! सब तरह समझा कर हार गए थे, मगर वह मानता ही नहीं था। ...यंत्र पर खड़ा किया गया। यह सोच कर कि यह झंझट खत्म करो, एकबारगी खत्म करो, जब उससे पूछा गया कि क्या तुम अब्राहम लिंकन हो, उसने कहा कि नहीं, बिल्कुल नहीं! लेकिन यंत्र ने कहा कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। इतनी बात गहरी उतर गई, इतना तादात्म्य हो गया कि वह कह रहा है ऊपर से कि नहीं, मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं, लेकिन भीतर तो वह यह जानता ही है कि मैं हूं। अरे, मेरे कहने से क्या होता है! मैं लाख कहूं, मगर जो हूं सो हूं!
लोग नाटक में भी तादात्म्य कर लेते हैं। और संन्यास का अर्थ है: जीवन में भी तादात्म्य तोड़ लेना। मूढ़ता का अर्थ है: नाटक को भी जीवन मान लेना और ज्ञान का अर्थ है: जीवन को भी नाटक मान लेना। यह अंतिम खेल है। और यह खेल सजग होकर खेला जाना है; तो ही अंतिम होगा। जैसे ही तुम जाग कर खेले कि खेल समाप्त हुए। खेल तो नींद में ही चल सकते हैं। खेल तो सपने हैं।
वेदांत, तुम कहते हो: यह खेल तो अनजाने में, हंसी-हंसी में शुरू हुआ था। मुझे पता है। अनजाने में ही शुरू होता है। हंसी-हंसी में ही शुरू होता है। तुम जब पहली दफा मेरे पास आए थे, तो तुमने सोचा भी नहीं था कि तुम संन्यासी होने आए हो। लेकिन मैंने देखा, तुम में झांका और पाया कि एक संभावित संन्यासी मौजूद है। फिर मैंने तुम्हें फुसलाया और गले में माला डाल दी। तुम थोड़े चैंके भी थे, तुम थोड़े झिझके भी थे, तुम्हें याद भी आई थी कि पत्नी लौट कर क्या कहेगी? तुमने कहा भी था कि मेरी पत्नी है, बच्चे हैं। मैंने कहा: तुम फिकर न करो, उनको भी ले आना! अब तुम उनको भी ले आए हो। उनको भी मैंने खेल-खेल में रंग लिया है। शुरू में तो यह खेल-खेल में ही होगा। क्योंकि तुम खेल ही जानते हो और तो कोई भाषा तुम जानते नहीं। दूसरी तो कोई भाषा तुम्हारी समझ में भी न आएगी। इसीलिए मैंने संन्यास को इतना सरल बनाया है, इसी दृष्टि से कि खेल-खेल में भी अगर रंग गए तो यह रंग उतारना आसान न होगा। खेल-खेल में भी जग गए, तो फिर सोना मुश्किल हो जाएगा। खेल-खेल में भी अगर समझ गए, तो समझ से वापस लौटने का कोई उपाय नहीं है।
समझो! यह भी खेल है, मगर आखिरी। क्योंकि इस खेल के द्वारा सारे खेलों का अंत हो जाता है।
तुम कहते हो, यह तो खबर ही न थी कि यह हमें ले डूबेगा। यह तुम्हें खबर होती तो तुम भाग न खड़े होते! यह तुम्हें खबर होती तो तुम मेरे पास ही न आते। यह तो खबर होने ही नहीं देनी पड़ती। यही तो इस धंधे का राज है। बताना पड़ता है: मोक्ष पाओगे, निर्वाण पाओगे, सच्चिदानंद पाओगे..पाने ही पाने की बात करनी पड़ती है..और असलियत यह है कि खोना ही खोना है। मगर वह तो पीछे, जब लौटने का कोई उपाय नहीं रह जाता। जब पीछे के सब सेतु टूट जाते हैं, जाना भी चाहो तो कहीं जा नहीं सकते..अब लाख सिर धुनो। लेकिन वह जो कहा जाता है: सच्चिदानंद मिलेगा, वह भी मिलता है। मगर तुम मिटो तो ही मिलता है। मिटना उसे पाने की शर्त है। तुम शून्य हो जाओ तो पूर्ण अभी तुम में अवतरित हो जाए। लेकिन तुम्हारे बिना शून्य हुए पूर्ण अवतरित नहीं हो सकता। जगह नहीं है, तुम्हारे भीतर अवकाश नहीं है, स्थान नहीं है। तुम चाहोगे कि परमात्मा मिल जाए, मगर तुम जब तक हो, परमात्मा नहीं मिल सकता।
कबीर कहते हैं..हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ। चले तो थे खोजने, चले तो थे परमात्मा को पाने, मगर हुआ कुछ उल्टा ही..हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ, कबीर ही गुम गए! पाना तो दूर रहा परमात्मा को, खुद खो गए। ब्याज की तो फिकर ही छोड़ो, मूलधन भी गया। और ऐसे हिराए कि कबीर ने लिखा है: जैसे बूंद सागर में हिरा जाए! ‘बुंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाइ।’ और ऐसे हिरा गए कि कबीर ने यह भी लिखा है..समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाइ। बूंद समुंद में समा गई, समुंद बूंद में समा गया, अब तो कोई उपाय निकालने का रहा नहीं। लेकिन जब से कबीर खो गए, जब से कबीर न रहे, तभी से परमात्मा शुरू हुआ। तुम्हारा अंत परमात्मा का प्रारंभ है।
तो कबीर ने यह भी कहा है कि जब मैं खो गया, तब से एक अनूठी घटना घट रही है: पाछे लागे हरि फिरत, कहत कबीर कबीर। पाछे लागे हरि फिरत! पीछे-पीछे लगे फिरते हैं हरि। कहते हैं, कबीर कहां जा रहे, क्या कर रहे? और कबीर अब है ही नहीं, इसलिए कौन दे उत्तर! जब कबीर थे, तो परमात्मा नहीं था, अब परमात्मा है, तो कबीर नहीं हैं। ‘प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समायं।’ या तो तुम, या परमात्मा।
तो वेदांत, डूबना तो होगा! हालांकि पहले मैं कह नहीं सकता तुमसे कि डूबना होगा। तुम से कहूं डूबना होगा कि फिर तो तुम भाग खड़े होओगे! कौन मिटना चाहता है? पाना सभी चाहते हैं, मिटना कोई भी नहीं चाहता।
इसलिए सद्गुरु की सारी व्यवस्था यह है कि वह तुम से बातें करता है पाने की और नीचे से तुम्हारे पैर की जमीन को खींचता चला जाता है। इधर तुम बातों में उलझे रहते हो कि अब सच्चिदानंद मिला; कि बस अब ज्यादा देर नहीं है, झरत दसहुं दिस मोती! तुम ऊपर देखते रहते हो कि मोती कहां गिर रहे हैं, इधर नीचे से जमीन खींच ली गई। मोती-वोती तो गिरते नहीं, तुम चारों खाने चित! मगर फिर मोती गिरते हैं। ..जब तुम चारों खाने चित पड़े हो, उठने का भी उपाय नहीं रह जाता। पहले तो चैंकोगे कि यह क्या हुआ! तुम देख रहे थे आकाश की तरफ कि अब उतरा परमात्मा; कि अब आता ही है पुष्पकविमान, कि लेकर रामचंद्र जी को..धनुर्धारी राम, सीता मैया, लक्ष्मण जी, हनुमान जी बैठे हैं; बस, अब देर नहीं है; तुम लटके रहते हो ऊपर की तरफ, तुम अटके रहते हो ऊपर की तरफ और तुम्हें पता नहीं कि नीचे तुम्हारी जड़ें काटी जा रही हैं।
जरूरी है कि तुम्हें ऊपर की तरफ अटका दिया जाए, नहीं तो तुम जड़ें नहीं काटने दोगे।
कबीर ने कहा है, जैसे कुम्हार घड़े को बनाता है तो एक हाथ से भीतर सहारा देता है और दूसरे हाथ से बाहर से चोट मारता है, तब घड़ा बनता है। दोहरी प्रक्रिया है। एक हाथ से सम्हालता है, एक हाथ से चोट मारता है। अगर सिर्प सम्हाले-सम्हाले, तो घड़ा न बने। अगर चोट ही चोट मारे, तो भी घड़ा न बने। तो तुम्हें सम्हालना भी है और तुम्हें चोट भी मारनी है। तुम्हें बचाना भी है और तुम्हें मिटाना भी है। सदगुरु एक बड़े विरोधाभासी कृत्य में लीन होता है। एक तरफ से तुम्हें मिटा चलता है और एक तरफ से तुम्हें बना चलता है।
हालांकि जैसे तुम हो वैसे तो तुम नहीं बच सकते। तुम तो अभी गलत ही गलत हो। तुम तो अभी ठीक भी करते हो तो गलत होता है। तुममें अभी ठीक का फूल लग ही नहीं सकता, क्योंकि तुम्हारे भीतर अभी ठीक चैतन्य नहीं है, सम्यक बोध नहीं है। तो तुम जो भी करोगे, गलत होगा। अच्छा भी करने जाओगे, बुरा हो जाएगा। नेकी करोगे, बदी हो जाएगी।
यही तो हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अच्छा करना चाहता है, बुरे से बुरा व्यक्ति भी अच्छा करने के लिए लालायित होता है, लेकिन अच्छा हो कहां पाता है! इस दुनिया में बुरा ही बुरा हो रहा है। उसका बुनियादी कारण यह नहीं है कि लोगों के अभिप्राय बुरे हैं। लोगों के अभिप्राय तो बड़े भले हैं, लेकिन जिस चेतना से कृत्यों का जन्म होता है, वह चेतना प्रसुप्त है, सोई हुई है। नींद में उनसे क्या भला होगा! लोग नींद में अगर रक्षा के लिए तलवारें भी चलाएं तो अपनों को ही मार डालेंगे, खुद को ही काट लेंगे। होश पहली जरूरत है।
तुम अभी जैसे हो, ऐसे तो नहीं बच सकोगे। यह बात आज तुमसे साफ कह देनी जरूरी है। जैसे तुम हो, ऐसे तो तुम मिटोगे, डूबोगे। लेकिन फिर तुम्हें जैसे होना चाहिए, वह तुम्हारा रूप प्रकट होगा। वही तुम्हारा सहज रूप है। वही तुम्हारा सम्यक रूप है। वही तुम्हारा असली जन्म है।
तुम कहते हो: ‘आगे अंधेरा, पीछे खाई।’
सच है। आगे देखोगे तो अंधेरा है, क्योंकि भविष्य अभी है ही नहीं। भविष्य तो अभी हुआ नहीं है, इसलिए वहां तो अंधकार है। और पीछे देखोगे तो खाई, क्योंकि अतीत न हो चुका। जो न हो चुका, अब वहां गड्ढे ही गड्ढे हैं। अब वहां क्या है! लेकिन वेदांत, मध्य में कब देखोगे? तुम आगे-पीछे की तो बात किए, मध्य को छोड़ ही गए! कहते हो, आगे अंधेरा, पीछे खाई। मैं कहता हूं: मध्य में देखो! आगे देखते रहे बहुत दिन..वासनाओं में, कामनाओं में, इच्छाओं में आगे ही आगे देखते रहे। दौड़ाते रहे घोड़े, मनसूबे। आगे देखने वाले सब शेखचिल्ली हैं।
तुम्हें शेखचिल्ली की कहानी तो याद है न! वह एक खेत में घुस गया, चोरी करने। चुरा रहा था फल, भर रहा था अपनी झोली में। झोली जब भरने लगी तो मन ने छलांगें लेनी शुरू कर दीं। जब झोली भरती है तो यह सभी को होता है, मन छलांगें लंना शुरू करता है। भरती नहीं तभी से छलांगें लेना शुरू करता है। अभी लाटरी का टिकट नंबर खरीदा कि तुम सोचने लगते हो कि अगर मिल जाए तो क्या-क्या करूंगा? कौन सी कार खरीदनी, कौन सा मकान खरीदना, किस स्त्री के साथ विवाह करना? कि फिर इधर नहीं रहना, फिर तो बंबई रहना है! कि फिर तो किसी फिल्मी अभिनेत्री से ही विवाह कर लेना है। फिर क्या साधारण स्त्रियों के पीछे समय गंवाना! अरे, चार दिन की जिंदगी है, खाओ, पिओ, मौज करो! ...अभी लाटरी वगैरह मिली नहीं है, अभी सिर्प टिकट खरीदी है! मगर लाखों के मनसूबे बनने शुरू हो जाते हैं।
तो शेखचिल्ली पर हंसना मत, वह तुम्हारी तसवीर है। वह तुम्हारा ही प्रतीक है।
झोली भर गई थी उसकी तो, तो उसने सोचा कि अब गजब हो जाएगा! जाकर बेचूंगा आज फल और अब तो एक मुर्गी खरीद लूंगा। मुर्गी अंडे देगी रोज, अंडों की बिक्री, ज्यादा दिन न समझो कि गाय खरीद लूंगा। फिर गाय का दूध, बछड़े...और बिक्री होती जाती है! फिर भैंस। फिर बिक्री बढ़ती जाती है, धन पास आता जाता है। एक न एक दिन इसी तरह का खेत खरीदूंगा, ऐसे ही फल बोऊंगा। और तभी उसे ख्याल आया इस तरह का खेत, इस तरह के फल, मेरे तरह के लोग चोरी करने घुस जाते हैं। मैं तो अनुभवी हूं, कभी चोरी नहीं होने दूंगा। ऐसे बीच में खेत में बैठा रहूंगा और पुकार देता रहूंगा: ‘सावधान!!’ जोर से निकल गया: सावधान, तो वह जो किसान था मालिक, वह लट्ठ लेकर आ गया। उसने कहा कि बच्चू, क्या कर रहे हो?रखो सब! यह झोली कैसे भरी? और सावधान किसको किसको कर रहे थे? उसने सिर ठोक लिया। उसने कहा, सब बरबाद हो गया। सब अंधकार हो गया आगे।
आगे अंधकार है ही। भविष्य के अंधकार को तुम अपनी कल्पनाओं के चिरागों से रोशन किए रहते हो। मगर कल्पनाएं कल्पनाएं हैं, उनमें सत्य कुछ भी नहीं। जब तुम मेरे पास आओगे तो धीरे-धीरे तुम्हारी कल्पनाएं क्षीण होने लगेंगी..और भविष्य अंधकारपूर्ण दिखाई पड़ने लगेगा। भविष्य में कुछ भी नहीें है। भविष्य यानी वह, जो है ही नहीं।
और अतीत? कुछ लोग अतीत में भटते हुए हैं। वे अतीत के ही हिसाब लगाते रहते हैं। जो बीत गए कल, उनके ही सपने देखते रहते हैं। उनका स्वर्णयुग पीछे था। बुढ़ापे में वे बचपन के गीत गाते हैं, कि बचपन के दिन स्वर्गीय दिन थे। और जब वे बच्चे थे, तब वे जल्दी से बड़े हो जाना चाहते थे! किसी भी बच्चे से पूछ लो, वह जल्दी-जल्दी बड़ा होना चाहता है। क्योंकि वह देखता है..बड़ों के पास ताकत है। बच्चों के पास क्या है बेचारों के। हर कोई दबा दे। हर कोई कह दे, बैठो इस कोने में! हर कोई कान पकड़ लेता है! हर कोई उठक-बैठक लगवा देता है! हर कोई कह देता है, पाठ पढ़ो, होमवर्क करो! जिसकी जो मर्जी! अपनी कोई ताकत नहीं। बच्चे को बहुत पीड़ा होती है।
तुम सोचते हो कि बच्चे स्वर्ग में हैं, गलती में हो। घर में सताए जाते हैं, स्कूल जाते हैं तो शिक्षक सताता है; और घर और स्कूल के बीच में जो बड़े लड़के हैं... दादा! ...वे सताते हैं। पैसा छीन लें, किताबें छीन लें; कहते हैं, घर से चोरी करके लाओ; आइस्क्रीम खिलवाओ; कि सिनेमा का टिकट चाहिए; और नहीं दोगे तो पिटाई! तुम सोचते हो, बच्चे स्वर्ग में हैं? बच्चों से तो पूछो! कि उनकी जान आफत में है! दिन निकलो तो ये दादा लोग मिल जाते हैं, रात निकल नहीं सकते घर से..भूत-प्रेत!
एक घर में मैं ठहरा था। दस साल का बच्चा, आंगन को पार करके संडास तक न जाए! तो उसकी मां को लालटेन लेकर उसके साथ जाना पड़े। उसकी मां ने कहा, आप इसको समझाइए! यह दस साल का हो गया, ऐसा डरपोक कि संडास में नहीं जा सकता, लालटेन लेकर मुझे आना पड़ता है! दरवाजा भी बंद नहीं करता, दरवाजा खुला रखता है और लालटेन लेकर मुझे वहां खड़ा रहना पड़ता है। मैंने उससे पूछा कि क्या मामला है? तू इतना क्यों घबड़ाता है? अगर तुझे अंधेरे में डर लगता है तो लालटेन खुद ही ले गए, ये मां को क्यों सताता है? दरवाजा बंद कर लिया, लालटेन भीतर रख ली! उसने कहा: वाह, इससे तो मैं अंधेरे में ही चला जाऊंगा! मैंने कहा: तुझे अंधेरे में डर लगता है न! उसने कहा: मुझे डर अंधेरे में लगता है, मगर अंधेरे में कम से कम मैं भूत-प्रेतों को धोखा देकर बच तो सकता हूं। लालटेन में तो साफ दिखाई पडूंगा कि ये बैठे हैं! और दरवाजा बंद कभी नहीं कर सकता! अरे, एकदम कोई पकड़ ले तो निकल कर भाग तो सकता हूं! और दरवाजा बंद, और सिटकनी है कड़ी, और कभी न खुली, और कहीं भूत सिटकनी से ही पीठ टेक कर खड़ा हो गया, तो मारे गए! आप भी खूब बातें कर रहे हैं!!
दिन भय हैं, रात भय हैं..और बच्चों का जीवन तुम स्वर्ग समझ रहे हो! सब तरह से सताए जाते हैं बच्चे। बचपन में कोई नहीं जानता कि यह स्वर्ग है। यह तो बुढ़ापे में लौट-लौट कर पीछे लोग सोचने लगते हैं कि अहह, कैसे सुंदर दिन थे! यह मन को समझना है।
यही बात बड़े पैमाने पर समाजों में घटती है। तो समाज कहते हैं कि बीत गए स्वर्ण-युग, सतयुग, अब तो कलयुग है! रामराज्य पहले था! कब था रामराज्य? राम के जमाने में भी था! यह किस तरह का रामराज्य था कि राम का खुद का जीवन बिचारों का कष्ट में बीता..औरों की तो छोड़ो! औरों की क्या गुजरी, यह तो कुछ बात ही करनी व्यर्थ है! जरा, राम की हालत तो देखो! और धोखा दें तो दें, बाप ही धोखा दे गया! और बाप ने भी किस की मान कर धोखा दे दिया! बुढ़ापे में विवाह कर लिया था एक स्त्री से, नवयुवती से, ...तो अक्सर बूढ़े पतियों की जो हालत हो जाती है! बूढ़े पति एक लिहाज से बड़े अच्छे पति होते हैं। नवयौवन पत्नियों की खूब मान कर चलते हैं, जो कहें, वैसा ही मानते हैं। एकदम गुलाम होते हैं। बिल्कुल चिड़ी के गुलाम। ये दशरथ जी बिल्कुल चिड़ी के गुलाम! राम जैसे बेटे को चैदह साल के लिए जंगल भेज दिया! कामलोलुप रहे होंगे! जरा भी हिम्मत न रही होगी। जैसे रीढ़ है ही नहीं। बिना रीढ़ के आदमी मालूम होते हैं।
और राम की जिंदगी में क्या सुख है? चैदह साल फिरे परेशान होते हुए। फिर रावण से युद्ध। पत्नी से हाथ धो बैठे। खूब रामराज्य! फिर किसी तरह पत्नी को लेकर भी आ गए, तो किसी धोबी ने शंका उठा दी! तो फिर पत्नी को छोड़ दिया। गर्भवती स्त्री को जंगल में छुड़वा दिया। यह ख़ाक रामराज्य था! राम का व्यवहार भी प्रीतिपूर्ण नहीं है, करुणापूर्ण नहीं है। और सीता को जब लाए रावण के यहां से, तो अग्नि-परीक्षा! आग में से गुजारा। खुद भी गुजरना था साथ में! क्योंकि सीता अगर इतने दिन दूर रही थी, तो ये भइया भी तो इतने दिन अकेले रहे थे! और संगसाथ इनका कुछ अच्छा नहीं था। अंदर-अंदर, न मालूम कौन-कौन! इन्होंने क्या किया, क्या नहीं किया! तो खुद तो गुजरे नहीं, सीता को गुजार दिया। ये पुरुषों के ढंग सदा से रहे हैं। पुरुष तो पुरुष है, इसको कोई परीक्षा वगैरह देने की जरूरत ही नहीं, वह तो पहले से ही उत्तीर्ण है। वह तो सच्चरित्र होता ही है। दुष्चरित्र होती हैं तो स्त्रियां। पुरुष ही शास्त्र लिखते हैं, उनमें लिखते हैं, स्त्रियां नरक का द्वार हैं। और पुरुष? ये स्वर्ग के द्वार हैं?
राम के जमाने में गुलाम बिकते थे बाजारों में। स्त्रियां बिकती थीं, पुरुष बिकते थे। यह भी कोई रामराज्य था! दीन-दरिद्र थे, परेशान लोग थे, पीड़ित लोग थे, नहीं तो कोई अपनी लड़कियों को बेचेगा! कोई अपने बेटों को बेचेगा बाजारों में जानवरों की तरह! इनकी नीलामी होगी। कम से कम कलयुग में इतना तो नहीं हो रहा है। यह सतयुग था! ये सिर्फ कल्पनाएं हैं हमारी। अतीत को सुंदर बना कर हम अपने मन को भुलाते हैं कि कोई फिकर नहीं, अगर आज दुख है तो कोई अड़चन नहीं, पीछे सब सुख था। आज का थोड़ा सा दुख झेल लो, पीछे तो सुख ही सुख झेला है। हम उस सुख को खूब बढ़ा-चढ़ा कर खड़ा करते हैं। जितना रंग-रोगन उस पर कर सकते हैं, करते हैं। जितने ऊंचे मीनारें बना सकते हैं बनाते हैं। ताकि आज का दुख छोटा मालूम पड़े। बड़ी लकीर खींच देते हैं सुख की, ताकि आज की लकीर बिल्कुल छोटी हो जाए।
और भविष्य की कल्पना करते हैं: स्वर्ण-युग आएगा। फिर उतरेंगे परमात्मा, अवतरित होंगे। फिर धर्म का राज्य स्थापित होगा। ‘यदा यदा ही धर्मस्य’...जब-जब धर्म की हानि होगी तब-तब परमात्मा का आगमन होगा। तो भविष्य की आशा और अतीत की कल्पना, इन दोनों के बीच आदमी जीता है..सिर्प एक बात को भुलाने के लिए कि वर्तमान, जो यथार्थ है, उसको मैं कैसे बदलूं, यह नहीं जानता। उसको कैसे जीऊं, इसकी कला नहीं आती।
तो तुम कहते हो, वेदांत, आगे अंधेरा, पीछे खाई। मध्य का क्या? और मध्य ही सत्य है। वह जो वर्तमान का क्षण है, अभी, यहीं, इसके अतिरिक्त और कोई सत्य नहीं है। उसमें होना ही ध्यान है। और उसमें समग्ररूपेण लीन हो जाना समाधि है।
वर्तमान में जीने के विज्ञान को ही मैं संन्यास कहता हूं। छोड़ो अतीत, छोड़ो भविष्य। न जाना है पीछे, न जाना है आगे, जाना है गहरे, वर्तमान की गहराइयों को छूना है। अथाह है वर्तमान। और वर्तमान ही द्वार है परमात्मा का। क्योंकि वर्तमान ही एकमात्र यथार्थ है। और यथार्थ ही केवल परमात्मा से मिला सकता है, कल्पनाओं के जाल नहीं।
तुम कहते हो, आगे कुछ दिखाई नहीं देता और पीछे जाना नामुमकिन लगता है। तुमसे कहता कौन, वेदांत, कि आगे देखो? यहीं देखो, अभी देखो। भीतर देखो। आगे देख रहे! पीछे देख रहे! और मैं रोज तुमसे चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा हूं: भीतर देखो! वह तो तुम्हारे प्रश्न में आती ही नहीं बात। तुम मुझे सुनते हो, लेकिन प्रश्न तो तुम्हारे तुम्हारे ही होते हैं। मैं लाख कहूं भीतर देखो, वह तुम्हारा प्रश्न नहीं बनता। अभी भी तुम कह रहे हो कि आगे कुछ दिखाई नहीं देता। आगे कुछ है ही नहीं, दिखाई देगा क्या? पीछे जाना नामुमकिन लगता है। कोई कभी जा सका है? या कि तुम जा सकते हो? पीछे कोई कैसे जा सकता है!
एक बाप अपने बेटे को पढ़ा रहा था इतिहास की किताब कि नेपोलियन ने कहा है कि संसार में कुछ भी असंभव नहीं। बेटे ने कहा: ठहरो! एक चीज है जो असंभव है। बाप ने कहा: वह कौन सी चीज है? उसने कहा: मैं अभी लाया। वह गया भागा, बाथरूम में से बिनाका टूथपेस्ट ले आया! बाप ने कहा: तू पागल हो गया है, बिनाका टूथपेस्ट से इसका क्या संबंध? उसने कहा: तुम ठहरो तो! उसने दबा दिया टयूब को और निकाल दिया टूथपेस्ट बाहर और कहा: अब इसको भीतर करो, तब मैं समझूं कि संसार में कुछ भी असंभव नहीं है। यह मैं कई दफा करके देख चुका, यह भीतर होता ही नहीं फिर। अब बाप भी सिर खुजलाने लगा, उसने कहा कि यह...।
कोई कभी पीछे जा सका है! असंभव है। प्रकृति के नियम के प्रतिकूल है। जो बीत गया सो बीत गया। अब वहां जाने का कोई उपाय नहीं है। बूढ़ा जवान नहीं हो सकता। जवान बच्चा नहीं हो सकता। कोई मार्ग नहीं! मगर हम इन्हीं कल्पनाओं में खोए रहते हैं कि शायद किसी तरकीब से हम फिर वापस लौट जाएं। बूढ़ा सोचता है, फिर जवान हो जाएं। फिर से जवानी आ जाए। कितने उपाय नहीं करते बूढ़े! कम से कम न हो सकें तो दिखाई तो पड़ें। नये दांत लगवा लेते हैं। खुद तो जानते हैं कि इन दांतों से कुछ जवानी नहीं आ जाएगी। बाल खत्म हो जाते हैं तो विग पहन लेते हैं। खुद तो जानते हैं भीतर कि इनसे कुछ बाल नहीं ऊग आएंगे। मगर औरों को तो धोखा हो जाएगा। बूढ़े भी क्या-क्या कोशिश करते हैं! ..जवान तो हो नहीं सकते, मगर जवान दिखाने की कोशिश में हैं। सिर्प भद्दे और बेहूदे मालूम होते हैं। बेढब मालूम होते हैं। इतना ही बताते हैं कि इनको बूढ़े होने की भी प्रसादपूर्ण कला नहीं आती। ये सब उपाय करते रहते हैं जवान होने के। दुनिया भर में लोग इनको चूसते रहते हैं। ...‘हकीम बीरूमल’ इत्यादि-इत्यादि! वे एकांत में बूढ़ों को जवान होने का नुस्खा बताते रहते हैं..एकांत में ही बता सकते हैं। हकीम बीरूमल से सावधान रहना! एक तो सिंधी और दूसरे बड़ा खतरनाक दावा कर रहे हैं कि जवान को बच्चा कर दें, बूढ़े को जवान कर दें। मगर एकांत में तरकीबें बताई जाती हैं!
तरकीबें कुछ नहीं हैं, बूढ़े बूढ़े रहते हैं, लेकिन तुम किससे कहोगे कि हम हकीम बीरूमल के पास गए थे। लोग मिलने भी जाते हैं तो छिपकर जाते हैं कि कोई दूसरा देख न ले कि कहां जा रहे। किसी को पता चल जाए, हकीम बीरूमल के पास गए थे, तो भद्द हो जाएगी! समाज में खबर फैल जाएगी कि ये सज्जन हकीम बीरूमल के पास जाने लगे। मतलब खात्मा बिल्कुल हो चुका इनका! अब कुछ नहीं बचा। बिल्कुल फोपट हैं। मगर हकीम बीरूमल का धंधा चलता है! और कई हकीम बीरूमलों का चलता है! और सिर्प इसलिए चलता कि तुम्हारी भ्रांतियां, कि पीछे लौटा जा सकता है। और यह व्यक्ति के तल पर, समाज के तल पर भी यही।
महात्मा गांधी की कोशिश क्या थी? यही कि पीछे लौट चलो। छोड़ो यंत्रों को, चरखा पकड़ो। चरखे से सब हल हो जाएगा। विक्षिप्तता की बातें! लौट चलो पीछे, छोड़ दो यंत्र! महात्मा गांधी रेलगाड़ी के खिलाफ थे; टेलीफोन, पोस्ट आफिस जैसी जरूरी चीजों के खिलाफ थे। हर तरह की मशीन के खिलाफ थे। अगर महात्मा गांधी की बात मान ली जाए तो यह सत्तर करोड़ का मुल्क अभी सड़ जाए, अभी मर जाए। दो करोड़ आदमी जी सकते हैं उनकी बात मान कर, अड़सठ करोड़ आदमियों को मरना पड़ेगा, क्योंकि दो करोड़ के लिए उस तरह की अर्थव्यवस्था काफी थी। मगर सत्तर करोड़ के लिए उस तरह की अर्थव्यवस्था काफी नहीं है। इतने आदमियों को कपड़े ही नहीं दे सकते तुम चरखा कात-कात कर। और अगर कपड़े दे दोगे चरखा कात कात कर, तो इतना चरखा कातना पड़ेगा कि फिर और कुछ न दे पाओगे..भोजन इत्यादि, वह नहीं दे पाओगे। और इनको भोजन भी चाहिए, दवा भी चाहिए, मकान भी चाहिए और हजार चीजें चाहिए। वे सब कहां से लाओगे?
लेकिन गांधी ने उन सब के लिए तरकीबें निकाल रखी थीं। दवा की क्या जरूरत है? पेट पर मिट्टी की पट्टी बांध लो, हर बीमारी ठीक हो जाती है। दुनिया का सारा चिकित्सा-शास्त्र पागल है जैसे। पेट पर पट्टी बांध लो, मिट्टी की, सब ठीक हो जाएगा। काश, इतना आसान होता! और मजा यह है कि जब महात्मा गांधी बीमार पड़ते हैं तो अखिर में वही दवा लेनी पड़ती है। जिसका जीवनभर विरोध किया। विनोबा भावे को बुखार चढ़ता है, अखिर में वही दवा लेनी पड़ती है। हालांकि पहले थोड़ा उपद्रव मचाते हैं कि नहीं लेंगे, फिर प्रधानमंत्री को प्रार्थना करनी पड़ती है, फिर लेते हैं! बचते दवा से हैं और बच कर फिर दवा की खिलाफत करते हैं!
महात्मा गांधी रेलगाड़ी के विरोध में और जिंदगी भर रेलगाड़ी में सवार। अब इसको पाखंड नहीं कहोगे तो और क्या कहोगे? पोस्टआफिस के खिलाफ, और जितनी चिट्ठी-पत्री उन्होंने की, शायद ही किसी ने की हो! चिट्ठी-पत्री इतनी कि वे पाखाने में भी बिना चिट्ठी-पत्री के नहीं बैठ सकते थे। वे पाखाने के भीतर बैठे हैं और बाहर से चिट्ठी पढ़ कर सुनाई जा रही है, क्योंकि समय कहां? चिट्ठी-पत्री इतनी! और वे अंदर से ही जवाब दे रहे हैं कि यह-यह लिख दो!
पीछे लौटाने की समाज को भी बहुत चेष्टा चली है, रूसो से लेकर महात्मा गांधी तक। लौट चलो पीछे! जंगल की तरफ! गुफा-मानव की ओर! रहेंगे पहाड़ों की गुफाओं में! बड़े आनंद से रहेंगे! और तुम्हें पता है, जो गुफाओं में रहे, बड़े आनंद से रहे। एकाध दिन जाकर, एकाध दिन-रात गुफा में तो रह कर आओ! फिर भूल कर गुफा वगैरह की बात न करोगे। रात भर सो ही न पाओगे, पहली तो बात। कहीं सांप, कहीं बिच्छू! और कहीं शेर आ जाए और दहाड़ दे!
पीछे लौटा नहीं जा सकता। न समाज लौट सकता है, न व्यक्ति लौट सकता है। पीछे लौटने का कोई उपाय ही नहीं है। और आगे छलांग लगाकर नहीं जाया जा सकता। वर्तमान को जिओ उसकी समग्रता में। क्योंकि वर्तमान से ही भविष्य का जन्म होता है। वर्तमान के गर्भ में भविष्य पकता है। अतीत तो लाश है। भविष्य गर्भ है। और वर्तमान दोनों के मध्य में है। वहीं जीवन का सार छिपा है।
तुम कहते हो, आगे कुछ दिखाई नहीं देता, पीछे जाना नामुमकिन लगता है। दिन तो निकल जाता है, अंधेरी रात क्यों आती है? जगत द्वंद्व है। और जगत के होने का ढंग द्वंद्व है। द्वंद्वात्मक है, डाइलेक्टिकल है। अगर रोशनी है, तो अंधेरे के बिना नहीं हो सकती। और अंधेरे में क्या बुरा है? वेदांत, अंधेरे के सौंदर्य को भी समझो! सदियों-सदियों में तुमसे कहा गया है कि परमात्मा प्रकाश है। इसका यह अर्थ मत समझ लेना कि परमात्मा प्रकाश है। इससे परमात्मा का कोई संबंध नहीं है। ये वक्तव्य तो हमारे डर के कारण निकला है। हम अंधेरे से डरते हैं। हम अंधेरे से भयभीत हैं। और वह अंधेरे का भय भी गुफा-मानव के समय से चला आ रहा है। जब आदमी जंगल में था और अंधेरे में था। तो रात बड़ी खतरनाक थी। दिन तो गुजर जाता था। क्योंकि दिन में रोशनी होती थी, बच सकता था, बचाव कर सकता था; जानवर आ जाए, झाड़ पर चढ़ सकता था; जानवर आ जाए, भाग सकता था; जानवर की दहाड़ सुनाई पड़े, छिप सकता था; अपनी गुफा के दरवाजे पर पत्थर रख सकता था; कोई उपाय कर लेता। मगर रात अंधेरा छा जाता..तब आग भी नहीं खोजी गई थी..रात के अंधेरे में उसको कुछ समझ नहीं आता कि अब क्या करे? सांप बिल्कुल छाती पर आ जाए, तब पता चले। और सिंह सामने आ जाए, तब पता चले। और रात सोना और खतरनाक। क्योंकि नींद में वह बचाव भी न कर सके। कोई भी जंगली जानवर खींच कर ले जाए। तो नींद से भी एक भय समा गया। रात से भय समा गया, अंधेरे से भय समा गया।
इसलिए अग्नि को लोगों ने देवता का पहला रूप माना।
अग्नि देवता की जितनी पूजा की गई दुनिया में, किसी और देवता की नहीं की गई। उसका कुल कारण इतना था कि अग्नि के आविष्कार ने रात के अंधेरे से छुटकारा दिलवा दिया। रात का भय कम हो गया। अग्नि को जला कर, चारों तरफ धूनी लगाकर गुफा-मानव सो जाता था। और अभी भी तुम्हारे महात्मा वही कर रहे हैं। न गुफा में रहते हैं, न अब कोई खतरा है, न कोई जंगली जानवर हैं..अब तो आदमी ने सब जंगली जानवर खत्म कर दिए। खतरा है तो जंगली जानवरों को है, आदमियों को कोई खतरा नहीं है..लेकिन तुम्हारे महात्मागण अभी भी धूनी लगा कर बैठे हैं। उनको पता ही नहीं कि धूनी लगाने का जमाना जा चुका। थी कभी जरूरत धूनी रमाने की, अब क्या धूनी रमाए हो! अब क्यों लकड़ी जला रहे हो फिजूल! अब कोई जरूरत नहीं है।
अंधेरे से एक हमारे अचेतन में भय समा गया है। लेकिन अंधेरे में बड़ा सौंदर्य है। वेदांत, इस भय को जाने दो। प्रकाश सुंदर है। वैसा ही अंधेरा भी सुंदर है। प्रकाश की अपनी महिमा है, अंधेरे की अपनी महिमा है। क्योंकि परमात्मा के दोनों पहलू, प्रकाश और अंधेरा, एक ही सिक्के के दो पहलू जैसे। अंधेरे में भी परमात्मा ही है। अंधेरा भी उसका ही है। और प्रकाश भी उसका है। उसकी ही अभिव्यक्तियां।
तुम जरा अंधेरे के गुण तो देखो! अंधेरे की गहराई देखो! अंधेरे की शांति देखो! अंधेरे का सन्नाटा देखो! अंधेरे का संगीत देखो! और अंधेरा तुम्हें बिल्कुल अकेला छोड़ देता है, अकेलेपन का मजा देखो! एकांत का मजा देखो! रोशनी में तो तुम अकेले हो ही नहीं सकते। कोई न कोई मौजूद है। कोई न कोई दिखाई पड़ता है। अंधेरे में तुम बिल्कुल अकेले हो सकते हो। बीच बाजार में भी अकेले हो सकते हो। अपने कमरे में भी अकेले हो सकते हो। पत्नी भी हो, बच्चे भी हों, तो भी तुम अकेले हो सकते हो।
जरा अंधेरे में रस लेना शुरू करो! अंधेरे को पढ़ना शुरू करो। और तुम पाओगे कि अंधेरा तुम्हें गहरी शांति देगा, आनंद देगा, एकांत देगा, समाधि देगा। और तब अंधेरा भी अंधेरा जैसा नहीं मालूम होगा, अंधेरे में भी एक प्रकाश प्रकट होने लगेगा। एक धीमा प्रकाश। क्योंकि वस्तुतः अंधेरे का अर्थ इतना ही होता है: कम प्रकाश। और प्रकाश का अर्थ होता है: कम अंधेरा। वे दोनों अलग चीजें नहीं हैं। जैसे गर्मी और सर्दी अलग नहीं हैं। जैसे स्त्री और पुरुष अलग नहीं हैं। वैसे जीवन और मृत्यु अलग नहीं है। और जब तक तुम अंधेरे को प्रेम न कर पाओगे तुम कभी मृत्यु को भी प्रेम न कर पाओगे। और जो मृत्यु को प्रेम नहीं कर सकता, उसका जीवन अधूरा है, खंडित है। वह अखंड परमात्मा को न जान सकेगा। उसे उसके सब रूपों में अंगीकार करना है। तब तथाता पैदा होती है। सब रूपों में। कांटों में भी वह जब दिखाई पड़ने लगे। फूलों में तो दिखाई पड़ जाता है, यह ठीक, यह कोई खास बात नहीं, किसी को भी दिखाई पड़ जाएगा, लेकिन कांटों में भी दिखाई पड़ने लगे। जीवन में उसकी लहर मालूम होती है, यह तो ठीक, लेकिन मृत्यु में भी उसकी ही उपस्थिति अनुभव होने लगे। और प्रकाश में ही नहीं, अंधकार में भी वही तुम को घेरे।
और अंधकार का मखमली स्पर्श! तुम जरा भय छोड़ो! तो तुम आंदोलित होने लगोगे। अंधेरे में भी मस्त होओगे। और रोशनी में भी मस्त होओगे। रोशनी का अपना मजा, अंधेरे का अपना मजा। जागरण का अपना सुख, निद्रा का अपना सुख।
इस जगत में प्रत्येक चीज में परमात्मा समाया हुआ है, इस सत्य को हृदयंगम करो। और किसी चीज का विरोध नहीं करना है। यही तो मेरी मूल शिक्षा है। किसी भी चीज का निषेध नहीं करना है। अंधेरे का भी नहीं, मृत्यु का भी नहीं। अंगीकार करना है। आत्मसात करना है। समग्र को आत्मसात करना है। तो ही तुम जान सकोगे कि परमात्मा क्या है। और जिसने परमात्मा को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना। और जिसने परमात्मा को जाना, वह चाहे और कुछ भी न जानता हो, उसने सब जान लिया है।
वेदांत! प्रार्थना से भरो कि वह तुम्हें अंधकार में भी दिखाई पड़े, मृत्यु में भी दिखाई पड़े, कांटों में भी दिखाई पड़े, असफलताओं में भी दिखाई पड़े, विरह में भी दिखाई पड़े। मिलन में तो दिखाई पड़ता ही है, उसके लिए कोई खास खूबी की जरूरत नहीं, जब विरह में भी दिखाई पड़ने लगता है तब समझना तुम्हारे पास अंतर्दृष्टि है।
जग के उर्वर आंगन में
बरसो ज्योतिर्मय जीवन!
बरसो लघु-लघु तृण तरु पर
हे चिर-अव्यय; चिर-नूतन!

बरसो कुसुमों में मधु बन,
प्राणों में अमर प्रणय घन,
स्मिति स्वप्न अधर पलकों में
उर अंगों में सुख यौवन!

छू-छू जग के मृत रज-कण
कर दो तृण तृरु में चेतन,
मृन्मरण बांध दो जग का
दे प्राणों का आलिंगन!

बरसो सुख बन, सुषमा बन,
बरसो जग-जीवन के घन!
दिशि-दिशि में औ‘ पल-पल में,
बरसो संसृति के सावन!
परमात्मा बरसने को राजी है, तुम पुकारो भर! तुम निमंत्रण भर दो, वह अतिथि तुम्हारे निमंत्रण की प्रतीक्षा कर रहा है।
जीवन जखन शुकाय जाय, करुणा धाराय एसो।
सकल माधुरी लुकाए जाय, प्रेम-सुधा-रसे एसो।।
कर्म जखन प्रबल आकार गरजि उठिया ढाचे चारि धार।
हृदय-प्रांते हे जीवननाथ, शांत चरणे एसो।।
आपनारे जबे करिया कृपण, कोणे पड़े थाके दीन-हीन मन।
दुवार खुलिया, हे उदार नाथ, राज-समारोहे एसो।।
वासना जखन विपुल धुलाय, अंध करिया अबोध भुलाय।
ओहे पवित्र, ओहे अनिद्र, रुद्र अलोके एसो।।
जीवन जब सूख जाए तो तुम करुणा की धारा बन कर आओ। जब सब माधुर्य लुप्त हो जाए तो तुम प्रेम-सुधा की वर्षा बन कर आओ। जब कर्म के काले बादल घोर गर्जन कर सब जीवन घेर लें, तो हे जीवननाथ, हृदय-प्रांत में शांत-चरण होकर आओ। जब मेरा बड़ा मन छोटा होकर, दीन-हीन होकर, किसी कोने में छिप जाए तो हे उदारनाथ, तुम द्वार खोल कर राज-समारोह की भांति आओ। और जब वासना की कठिन आंधी अंधा बना कर बोध भुला दे, तो हे पवित्र, हे जाग्रत, बिजली चमकाते हुए आओ।
पुकारो! वह आने को तत्पर है। प्रति क्षण राजी है। लेकिन तुम्हारे बिना बुलाए नहीं आएगा। तुम्हारे बिना निमंत्रण के नहीं आएगा। तुम्हारे प्राण जब उसके लिए प्यास से परिपूर्ण भर जाएंगे, तो क्षण भर देर न होगी।
न पीछे जा सकते हो, न आगे जा सकते हो, लेकिन परमात्मा में जा सकते हो और परमात्मा तुम में आ सकता है।

दूसरा प्रश्नः ओशो, आप कभी-कभी अति कठोर उत्तर क्यों देते हैं? जैसे कुंडलिनी के संबंध में दिया आप का उत्तर। वैसे आप कुछ भी कहें, कुंडलिनी जगानी तो मुझे भी है।

स्वरूपानंद, फिर तुम्हारी मर्जी! वैसे भी स्त्री जाति को छेड़ना नहीं चाहिए। और सोई स्त्री को तो बिल्कुल छेड़ना ही मत! अब कुंडलिनी बाई सोई हैं, तुम काहे पीछे पड़े हो! तुम्हें और कोई काम नहीं! और जगा कर भी क्या करना है? खुद जागो कि कुंडलिनी को जगाना है!
ये भी खुद को जगाने से बचाने के उपाय हैं।
कोई कहेगा कि हमें चक्र जगाने हैं। जगा लो, घनचक्कर हो जाओगे! किसी को कुंडलिनी जगानी है, किसी को रिद्धि-सिद्धि पानी है। करोगे क्या? रिद्धि-सिद्धि पाकर करोगे क्या? हाथ से राख निकालने लगोगे तो कुछ हो जाएगा दुनिया में! मदारीगिरी में मत पड़ो!
खुद को जगाओ, चैतन्य को जगाओ, बोध को जगाओ, जागरूक बनो, यह तो समझ में आता है, मगर कुंडलिनी को जगाना है! न तुम्हें पता है कि कुंडलिनी क्या है, न तुम्हें पता है कि उसका प्रयोजन क्या है, और चूंकि तुम्हें कुछ भी उसके बाबत पता नहीं है, इसलिए उसके संबंध में कुछ भी मूर्खतापूर्ण बातें चलती रहती हैं।
मैंने कुछ दिन पहले पढ़ा कि मेरी पुरानी शिष्या और अब परम पूज्य माता जी श्रीमती निर्मला देवी जी, वे लोगों की कुंडलिनी जगाती हैं। उन्होंने चंदूलाल काका की जगाई, वे खतम ही हो गए। कुंडलिनी जगी कि नहीं, वह तो पता नहीं, वे खुद ही सो गए! और अब उन्होंने एक सिद्धांत निकाला है, सिद्धांत बड़ा प्यारा है, कि कृष्णकन्हैया वृक्षों पर छिप कर या मकानों पर बैठ कर, जब गोपियां पानी भर कर निकलती थीं या दूध लेकर निकलती थीं, तो कंकड़ी मार कर उनकी गगरिया फोड़ देते थे। वे कंकड़ी नहीं थी, निर्मला देवी का कहना है, उस कंकड़ी में वे अपनी कुंडलिनी-शक्ति भर देते थे। नहीं तो कहीं कंकड़ी से गगरी फूटी है! बात तो जंचती है। मजबूत गगरियां, सतयुग की गगरियां..कोई आजकल की, कोई कलयुगी..ऐसी मजबूत कि एक दफा खरीद लीं कि खरीद लीं, बस जिंदगी भर के लिए हो र्गईं। कंकड़ी मार दें और गगरी फूट जाए! तो जैसे अणु शक्ति होती है..छोटे से अणु में कितनी छिपी होती है..ऐसे छोटी सी कंकड़ी में वे कुंडलिनी-शक्ति भर कर और मार दें। और क्यों गगरियों में ही मारें? पुरुषों से कोई दुश्मनी थी? पुरुषों को मारें ही नहीं। मैंने कहा नहीं तुम से कि कुंडलिनी जो है, वह स्त्री जाति है। कंकड़ी मारने से गगरी फूट जाए। कंकड़ी के स्पर्श से जो गगरी में भरा हुआ दूध था या जल था, उस में भी कुंडलिनी-शक्ति व्याप्त हो जाए, फिर कुंडलिनी-शक्ति बहे रीढ़ पर, गोपियों की रीढ़ पर कुंडलिनी-शक्ति बहे, तो उनकी सोई हुई कुंडलिनी-शक्ति एकदम जगने लगे। और तो सब मेरी समझ में आया, यह समझ में नहीं आया कि पानी या दूध तो ऊपर से नीचे की तरफ बहेगा, सो कुंडलिनी और जगी होगी तो सो जाएगी कि जगेगी? यह भर मेरी समझ में नहीं आया। कि जगी-जगाई कुंडलिनी को और ले जाएगी नीचे की तरफ। मगर निर्मला देवी जी ने यह सिद्धांत निकाला है! और लोगों को ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें ऐसी जंचती हैं कि क्या कहना।
कुंडलिनी कुछ भी नहीं है सिवाय तुम्हारी काम-ऊर्जा के, तुम्हारी सेक्स-एनर्जी के। और सेक्स-एनर्जी का, काम-ऊर्जा का जो स्वाभाविक केंद्र है, वह जननेंद्रिय है। उसे वहीं रहने दो। उसे ऊपर वगैरह चढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसको ऊपर चढ़ाओगे, विक्षिप्त हो जाओगे। फिर मस्तिष्क फटेगा। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि सिर फटा जा रहा है। कोई कहता है कि कान में जैसे बैंड-बाजे बजते रहते हैं चैबीस घंटे। या बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है। अब कुछ करिए। मैं उनको कहता हूं, भैया, तुम जाओ किसी के पास, जिससे कुंडलिनी जगवाई हो उससे सुलाने की तरकीब। प्रत्येक केंद्र की ऊर्जा उसी केंद्र पर होनी चाहिए किसी दूसरे केंद्र पर ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि जब भी कोई ऊर्जा एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर जाएगी तो तुम्हारे जीवन का जो सहज क्रम है, उसमें व्याघात पड़ेगा। परमात्मा ने प्रत्येक चीज को वहां रखा है जहां होनी चाहिए।
तुम जागो! तुम होशपूर्वक हो जाओ! बुद्ध ने कोई कुंडलिनी नहीं जगाई और परम बुद्ध हो गए। तो स्वरूपानंद, तुम्हें कुंडलिनी जगाने की क्या जरूरत है? तुम भी परम बुद्ध हो सकते हो। फिर कुंडलिनी जगाने के नाम से हजारों खेल चलते हैं। चलेंगे ही। स्वाभाविक है। उलटे-सीधे काम लोगों को सिखाए जाते हैं, करवाए जाते हैं। शीर्षासन करके खड़े हो जाओ, इससे कुंडलिनी जगेगी। सिद्धांत यह है कि जब तुम शीर्षासन करके खड़े होओगे, तो काम-ऊर्जा तुम्हारे सिर की तरफ गिरने लगेगी। स्वभावतः, जमीन के गुरुत्वाकर्षण के कारण। मगर तुमने शीर्षासन करने वाले लोगों में कभी कोई प्रतिभा देखी? कोई मेधा देखी? कोई उनकी बुद्धि पर धार देखी, चमक देखी?
पंडित गोपीनाथ इस समय कुंडलिनी के संबंध में सबसे बड़े पंडित हैं। और उनका कहना है, कुंडलिनी जागने से मनुष्य में एकदम प्रतिभा का आविर्भाव होता है। उनकी जाग गई, वे कहते हैं। मगर प्रतिभा का तो कोई आविर्भाव दिखाई पड़ता नहीं, उनमें ही नहीं दिखाई पड़ता। प्रमाणस्वरूप वे कहते हैं कि नहीं, है प्रतिभा का चमत्कार! उन्होंने कई कविताएं लिखी हैं। वे प्रमाण हैं उनका। कि ये कविताएं हमारी...! मगर वे कविताएं तुम पढ़ो तो बड़े चकित होओगे। वे बिल्कुल कूड़ा-करकट हैं। गोपीनाथ जीवन भर क्लर्क रहे, हेड क्लर्क की तरह रिटायर हुए, सो उनकी कविताओं में तुम्हें क्लर्क की भाषा मिलेगी और हेड क्लर्क का हिसाब मिलेगा और कुछ भी नहीं। अब क्लर्क जैसी भाषा लिखते हैं, हेड क्लर्क जैसी भाषा लिखते हैं, वही भाषा कविता में। कविता की तो जान ही निकल जाती है! क्लर्को ने कभी कविताएं लिखीं? और क्लर्की भाषा, कि हो कुछ थोड़ी-बहुत कविता कहीं, तो उसके भी प्राण निकल जाएं। और वे एक ही रात में दो-दो सौ कविताएं लिख लेते हैं। तो वे कहते हैं, यह प्रतिभा का चमत्कार देखो! मगर कविताएं मैंने देखी हैं। कचरे से कचरा कविताएं देखी हैं मगर गोपीनाथ ने सबको मात कर दिया। तुकबंदी भी नहीं कह सकते इनको, कविता तो बहुत दूर। मगर यह प्रतिभा का चमत्कार समझा जा रहा है।
ऐसे ही पश्चिम में भारत के एक सज्जन हैं, श्री चिन्मय। वे भी एक-एक सप्ताह में एक-एक हजार कविता लिख देते हैं। मगर एक कविता का कोई मूल्य नहीं। प्रतिभा का चमत्कार दिखाने के लिए उन्होंने एक तस्वीर उतरवाई है। अपनी सारी कविताओं की किताबें थप्पी लगा कर खड़ी कर दीं और उसी के बगल में खुद खड़े हैं। थप्पी उनसे भी ऊंची चली गई है। वह दिखाने के लिए कि प्रतिभा का चमत्कार है! रद्दी में बेचने योग्य हैं। रद्दी में भी कोई लेगा कि नहीं लेगा, यह भी शक की बात है। मैंने इनकी कविताएं पढ़ी हैं, उस आधार पर कह रहा हूं। इनकी कविताएं पढ़ना ऐसा समझो जैसे किसी पाप का दंड भोग रहे हैं। जैसे पिछले जन्मों में कोई बुरे कर्म किए होंगे सो भोगना पड़ रहा है। जब से मैंने इनकी कविताएं पढ़ी हैं, तबसे मुझे एक ख्याल पक्का बैठ गया है कि नरक में और कुछ होता हो या न होता हो, पंडित गोपीनाथ और श्री चिन्मय की कविताएं तो प्रत्येक को पढ़नी ही पड़ेंगी।
कुछ आविष्कार करो! कुछ नई खोज करो! कुछ विज्ञान का दान दो! कुछ इस देश की दीनता को मिटाने के लिए, दरिद्रता को मिटाने के लिए कोई दृष्टि दो! वह इनकी कुंडलिनी जागने से कुछ नहीं होता। और इनकी जग गई, इसका प्रमाण? बस ये कहते हैं। न कोई आध्यात्मिक गंध मालूम पड़ती है, न कोई जीवन में प्रशांति मालूम होती है, न कोई आनंद-उल्लास मालूम होता है, न कोई नृत्य है, न कोई बांसुरी बज रही है, कोई उत्सव की कहीं खबर नहीं मिलती। वही हेडक्लर्क के हेडक्लर्क।
तुम भी जगा कर स्वरूपानंद, करोगे क्या? और इस जगाने के नाम पर क्या-क्या उपद्रव चल रहा है, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। लोगों को उलटे-सीधे आसन सिखाए जाते हैं, शरीर को मोड़ो, तोड़ो! और लोग बेचारे करते हैं सब तरह की कवायतें, इस आशा में कि कुंडलिनी जगेगी। और जितनी जग गई, जरा उनकी तरफ तो देखो। जग कर हुआ क्या? इनके जीवन से क्रोध गया? इनके जीवन से मोह गया? इनके जीवन से कामवासना गई? इनके जीवन से आसक्ति गई? इनके जीवन से महत्वाकांक्षा गई? इनके जीवन से अहंकार गया? कुछ भी नहीं गया। बल्कि और बढ़ गया। कुंडलिनी जो जग गई तो अब अहंकार और भी ऊंची पताका पर चढ़ गया। वह और ऊंचा झंडा फहरा रहा है।
स्वयं जगो! इन उपद्रवों में मत पड़ो! इन व्यर्थ की बकवासों में मत उलझो। और मैं यह नहीं कहता हूं कि ऊर्जा नहीं है; ऊर्जा है, मगर उसको सिर तक ले जाने की कोई जरूरत नहीं है। सिर के पास अपनी ऊर्जा है, उतनी ही काफी है, वही तुम्हें काफी परेशान किए हुए है। और नई ऊर्जा सिर में ले जाओगे! इतनी ही गैस काफी है तुम्हारे सिर में। ज्यादा गैस हो जाएगी, दिक्कत में पड़ोगे। इतने से ही सिर ठीक चल रहा है। ठीक ही क्या चल रहा है, जरूरत से ज्यादा चल रहा है। चैबीस घंटे चल ही रहा है। जन्म से लेकर मरने तक चलता है। अगर कभी बंद भी होता है तो बस तभी जब तुम्हें मंच पर बोलने को खड़ा कर दिया जाए। बस, तब एक क्षण को सकते में आ जाते हो और खोपड़ी बंद हो जाती है। एकदम स्टार्ट ही नहीं होती!
मैं यूनिवर्सिटी में विद्यार्थी था, एक दिन वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने गया था। एक संस्कृत महाविद्यालय के युवक ने भी भाग लिया था। संस्कृत महाविद्यालय का युवक थोड़ी सी हीनताग्रंथि अनुभव करता है। अंग्रेजी उसे आती नहीं और संस्कृत की बिसात क्या है अब, मूल्य क्या है! सो वह अंग्रेजी के कुछ वाक्य कंठस्थ कर लाया था। संस्कृत विद्यार्थियों की कला यही है: कंठस्थ करना। बुद्धि वगैरह नहीं बढ़ती, मगर उनका कंठ बड़ा हो जाता है। कंठस्थ करते-करते कंठ में बड़ा बल आ जाता है। सो वह प्रभावित करने के लिए लोगों को बर्टेड रसल के कुछ वचन याद कर लाया था। मगर याद किए हुए काम झंझट में डाल दे सकते हैं। जैसे ही वह खड़ा हुआ: ‘भाइयो एवं बहनो, बट्र्रेंड रसल ने कहा है...और बस वहीं अटक गया। मैं उसके बगल में बैठा था, मैंने कहा, फिर से। क्योंकि कहीं गाड़ी अटक जाए तो फिर से शुरू करना ठीक है, शायद पकड़ जाए, लाइन पकड़ जाए! और उसको भी आगे कुछ नहीं सूझा तो उसने मेरी मान ली। तो उसने कहा, फिर कहा कि भाइयो एवं बहनो, बर्टेड रसल ने कहा है...और वह आकर फिर वहीं के वहीं खड़ा हो गया। मैंने कहा: भैया, फिर से! वह भी गजब का था..और करता भी क्या अब, आगे जाने को गति नहीं..सो उसने फिर कहा: ‘भाइयो एवं बहनो, बट्र्रेंड रसल ने कहा है...फिर तो जनता क्या हंसी! वह ठीक वहीं से शुरू करे: ‘भाइयो एवं बहनो’, और वह पहले ही वाक्य पर अटक जाए, ‘बट्रेंड रसल ने कहा है, ‘अब बस इसके बाद उसको कुछ सूझे नहीं। मैंने उससे कहा: भैया, तू अब बैठ ही जा! भाड़ में जाने दे बट्र्रेंड रसल को। कहने दे जो कहना हो उनको, तू तो बैठ! अब तेरी गाड़ी आगे चलने वाली नहीं है! यह तो बिल्कुल टर्मिनस आ गया। इसके आगे गाड़ी जाएगी कहां? पटरी ही खत्म हो जाती है।
जन्म से लेकर मृत्यु तक बड़े मजे से चलता रहता है। कभी-कभी अटकता है तो बस अगर जनता के सामने खड़ा कर दे कोई तुम्हें, कि कुछ बोलिए, कि बस फिर जरा मुश्किल आ जाती है। नहीं, तो खोपड़ी के पास काफी शक्ति है। तुम्हें और ज्यादा शक्ति की कोई जरूरत नहीं है। और अगर तुम काम-ऊर्जा को मस्तिष्क तक ले भी गए, तो भी तुम इतने ही सोए हुए हो, इतने ही सोए हुए रहोगे। काम-ऊर्जा मस्तिष्क में पहुंच जाएगी तो न मालूम किस-किस तरह की कल्पनाएं करेगी। ये तुम्हारे योगियों की कथाएं, महात्माओं की कथाएं इसी तरह की कल्पनाओं से भरी हैं। तुम जो कल्पना करोगे, वही कल्पना तुम्हें दिखाई पड़ने लगेगी। काम-ऊर्जा की वही खूबी है, कि वह हर कल्पना को साकार कर देती है। काम-ऊर्जा स्वप्न देखने की कला है। स्वप्न देखने की ऊर्जा है। तो तुम चाहो रामचंद्र जी को देखो उससे, तो दिखाई पड़ेंगे। और कृष्ण जी महाराज को देखो, वे दिखाई पड़ेंगे। क्राइस्ट को देखना चाहो, वे दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि काम-ऊर्जा का एक ही काम है, तुम्हारे भीतर स्वप्न को ऐसी गहराई से पैदा करना कि वह यथार्थ मालूम होने लगे। इसी तरह तो पुरुष स्त्रियों में सौंदर्य को देखते हैं, स्त्रियां पुरुषों में सौंदर्य को देखती हैं। जहां कुछ भी नहीं है, वहां सब कुछ दिखाई पड़ने लगता है। प्रेमियों से पूछो। अगर किसी को किसी स्त्री से प्रेम हो जाए, तो उसे ऐसी-ऐसी चीजें स्त्री में दिखाई पड़ने लगती हैं जो किसी और को दिखाई नहीं पड़तीं, उसी को दिखाई पड़ती हैं। उसको उसके पसीने में दुर्गंध नहीं आती, फलों की बास आने लगती है। साधारण आंखें, एकदम साधारण नहीं रह जातीं, मृगनयनी हो जाती है स्त्री। उसके शब्द मोतियों जैसे झरने लगते हैं। ...झरत दसहुं दिस मोती! ...उसकी हर बात प्यारी लगती है। हर बात अद्भभुत लगती है। उसका चलना, उसका बैठना, उसका उठना। सारा काव्य उसमें साकार हो जाता है।
हालांकि दो-चार दिन का ही मामला है, एक दफा मिल गई, सात चक्कर पड़ गए, घनचक्कर बन गए, कि फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा। वे ही मोती कंकड़-पत्थर जैसे पड़ेंगे, कि फिर एक ही आकांक्षा रहेगी कि हे प्रभु, कोई तरह इसे चुप रख! ज्यादा न बोले तो अच्छा। मगर वह दिन भर बड़बड़ाएगी। अब इसकी आंखों में कुछ भी कमल इत्यादि नहीं खिलेंगे। अब इसकी आंखों में सिर्प पुलिसवाला दिखाई पड़ेगा, जो चैबीस घंटे जांच कर रहा है कि कहां गए थे? कहां से आ रहे हो? इतनी देर कैसे हुई? यह हर चीज में अड़ंगा डालेगी। खो गई सब कविता, खो गया सब काव्य, अब सिर ठोंकोगे, सिर धुनोगे। और वही गति स्त्रियों की। जब किसी पुरुष से उनका प्रेम हो जाएगा तो क्या-क्या नहीं दिखई पड़ता। यही नेपोलियन, यही सिकन्दर, यही सब कुछ हैं। हालांकि कुत्ता भौंक दे तो घर में घुस जाते हैं। मगर नेपोलियन, सिकंदर, एकदम बहादुर दिखाई पड़ते हैं। इनकी वीरता का कोई अंत ही नहीं है। ये सारे जगत के विजेता होने वाले हैं।
मैंने सुना है, एक युवती और एक युवक जुहू के तट पर बैठे हुए हैं। पूर्णिमा की रात और सागर में लहरें उठ रही हैं। और युवक ने कहा कि उठो लहरो, उठो! दिल खोल कर उठो! जी-भर कर उठो! और लहरें उठती ही र्गईं, उठती ही र्गईं। युवती ने एकदम युवक को आलिंगन कर लिया और कहा: वाह, सागर भी तुम्हारी मानता है। तुमने इधर कहा कि उठो लहरो, उठो, उधर लहरें उठने लगीं। कैसा तुम्हारा बल! कैसा तुम्हारा चमत्कार!
मगर ये सब दो-चार दिन की बातें हैं। यह काम-ऊर्जा की खूबी है कि वह जब आंखों पर छा जाती है, तो तुम्हें कुछ-कुछ दिखाई पड़ने लगता है। तुम जो देखना चाहो वह दिखाई पड़ने लगता है। क्यों लोगों ने काम-ऊर्जा को मस्तिष्क तक ले जाना चाहा? सबसे पहले, यह कल्पना क्यों उठी? इसीलिए उठी, क्योंकि फिर तुम्हें जो देखना हो तुम देख सकते हो। फिर कृष्णजी को देखो! सामने खड़े हैं, मुस्कुरा रहे हैं! बात करो, जवाब भी देंगे! तुम्हीं दे रहे हो जवाब, तुम्हीं कर रहे हो प्रश्न, बिचारे कृष्ण का इसमें कुछ हाथ नहीं है, मगर तुम्हारी काम-ऊर्जा मस्तिष्क तक पहुंच गई है, अब तुम जो भी कल्पना करोगे वह साकार मालूम पड़ेगी।
यह आध्यात्मिक किस्म की भ्रांतियों में भटकना है।
स्वरूपानंद, ऐसे सत्य को नहीं जान पाओगे। सत्य को जानने के लिए समस्त कल्पनाओं का गिर जाना जरूरी है। कल्पनामात्र का गिर जाना जरूरी है। मस्तिष्क से विचार, धारणा, सब विलीन हो जाने चाहिए, मस्तिष्क बिल्कुल कोरा हो जाना चाहिए, तब तुम जान सकोगे वह, जो है।
और तुम कहते हो, आप कभी-कभी अति कठोर उत्तर क्यों देते हैं? जैसे प्रश्न वैसे उत्तर। अगर तुम प्रश्न ऊलजुलूल पूछोगे, तो उत्तर कठोर होना ही चाहिए। नहीं तो तुम्हारी कभी अकल में न आएगा कि प्रश्न ऊलजुलूल था।
ढब्बू जी एक दिन चंदूलाल से कह रहे थे कि जानते हो मित्र, मेरे दादाजी का अस्तबल इतना बड़ा था कि उसका कोई ओर-छोर नहीं था। इतने घोड़े उनके पास थे कि हर मिनट में एक घोड़ी बच्चा दे देती थी।
चंदूलाल बोले कि बड़े भाई, यह तो कुछ भी नहीं, अरे मेरे दादाजी के पास एक इतना लंबा बांस था कि जब चाहें तब बादलों में छेद कर देते थे और खेतों में बारिश करवा देते थे। ढब्बूजी बोले: अरे यार, झूठ बोलते शर्म नहीं आती? इतना लंबा बांस रखते कहां होंगे? चंदूलाल बोले: अरे, रखते कहां, तुम्हारे दादा के ही अस्तबल में रखते थे।
तुम व्यर्थ के प्रश्न पूछोगे, तो तुम वैसे ही जवाब पाओगे।
ट्रेन में बहुत भीड़ थी और बहुत से लोग लाइन लगा कर खड़े थे। उसी लाइन में मुल्ला नसरुद्दीन खड़ा था। उसी के आगे लाइन में एक बहुत ही खूबसूरत युवती भी खड़ी हुई थी। मुल्ला नसरुद्दीन थोड़ी देर तो उसे देखता रहा, आखिर जब न रहा गया, तो उसने उस युवती की चोटी पकड़ कर पीछे खींच दी। युवती तो बहुत नाराज हुई। उसने कहा कि बड़े मियां, यह क्या हरकत है? यह मेरी चोटी आपने क्यों खींची? नसरुद्दीन मुस्कराता हुआ बोला: वह देखिए न सामने ही लिखा हुआ है कि खतरे के समय जंजीर खींजिए। इसीलिए मैंने यह गुस्ताखी की है। यह सुन कर उस युवती ने जोर की एक चपत नसरुद्दीन के गाल पर रसीद कर दी। नसरुद्दीन ने घबड़ा कर कहा: अरे-अरे, आप यह क्या करती हैं? युवती बोली, बगैर किसी कारण जंजीर खींचने का जुर्माना।
तुम ठीक कहते हो, स्वरूपानंद, कभी-कभी मैं कठोर उत्तर देता हूं ताकि तुम्हारे प्रश्न को बिल्कुल ही समाप्त कर दूं। तुम्हारा प्रश्न उत्तर नहीं चाहता, तुम्हारा प्रश्न चाहता है कि तलवार से उसे काट दिया जाए। तुम्हारा प्रश्न व्यर्थ होता है। तो सिवाय इसके और कोई करुणा नहीं हो सकती कि उसे तलवार से काट दिया जाए। वह गिर जाए। वह गिर जाए तो तुम उससे मुक्त हो जाओ।
अगर तुम ठीक से समझो तो मैं तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर देने को यहां नहीं हूं बल्कि तुम्हें प्रश्नों से मुक्त करने को यहां हूं। प्रश्नों के उत्तर में से तो और नये प्रश्न उठते चले जाएंगे। प्रश्नों के उत्तर से कभी किसी को उत्तर मिले हैं? नये प्रश्न उठ आते हैं। मेरा काम है कि तुम्हारे प्रश्न गिर जाएं ताकि नये प्रश्न न उठें, धीरे-धीरे तुम निष्प्रश्न हो जाओ। इसलिए कभी-कभी तुम्हें मेरी बात कठोर लगती होती, कभी-कभी अप्रासंगिक लगती होगी; कभी-कभी ऐसा लगता होगा मैंने तुम्हारे प्रश्न को तो उत्तर दिया ही नहीं, कुछ और ही कहा। मगर प्रयोजन एक है, सुनिश्चित रूप से एक है, कि तुम्हारे उत्तरों को, तुम्हारे प्रश्नों को, दोनों को ही तुमसे छीन लेना है। तुम्हारे पास प्रश्न भी बहुत हैं, तुम्हारे पास उत्तर भी बहुत हैं। तुम दोनों से ही भरे हो। और दोनों से खाली हो जाओ तो तुम्हारा मन दर्पण हो। और दर्पण हो तो उसमें उसकी तस्वीर बने, जो है। जो है, वह परमात्मा का दूसरा नाम है।

आज इतना ही।

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